प्रयोजनमूलक हिंदी के मुख्य दो भेद कौन से हैं? - prayojanamoolak hindee ke mukhy do bhed kaun se hain?

प्रयोजनमूलक हिंदी के मुख्य दो भेद कौन से हैं? - prayojanamoolak hindee ke mukhy do bhed kaun se hain?
प्रयोजनमूलक हिन्दी के प्रमुख तत्वों का विश्लेषण कीजिए।

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प्रयोजनमूलक हिन्दी के प्रमुख तत्वों का विश्लेषण कीजिए।

प्रयोजनमूलक हिन्दी की संरचना संचेतना एव संकल्पना के विश्लेषण में निम्नलिखित तत्व समिलित किये जाते हैं।

(1) पारिभाषिक शब्दावली- प्रयोजनमूलक हिन्दी का प्रथम मूल तत्त्व है-उसकी पारिभाषिक शब्दावली। शब्दों के वर्गीकरण के अनेक आधार हैं। नाम और व्यापार के आधार पर संज्ञा और क्रिया, ये दो भेद किये जाते हैं। रचना के आधार पर मूल और यौगिक अन्तर किये जाते हैं। शब्द किस भाषा से आया है, इस बात को ध्यान में रखकर तत्सम, तद्भव, देशज, आदि वर्गीकरण किया जाता है।

प्रयोग के आधार पर दो प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है- बहुप्रयुक्त (जिसका भाषा में बहुत अधिक प्रयोग होता हो) अल्पप्रयुक्त (जिसका भाषा में बहुत कम प्रयोग होता हो।) कुछ विद्वान अप्रयुक्त भेद भी मानते है, किन्तु विचारने की बात यह है कि जो अप्रयुक्त है जिसका प्रयोग ही न होता हो उसे भेद मानने की भी आवश्यकता क्या है। कुछ विद्वान प्रयोग के आधार पर शब्द के तीन भेद और करते हैं- (1) पारिभाषिक (2) अर्द्ध पारिभाषिक (3) सामान्य।

(2) अनुवाद- प्रयोजनमूलक हिन्दी का दूसरा मूल तत्त्व है- उसका अनुवाद। अनुवाद वास्तव में जटिल भाषिक प्रक्रिया का परिणाम या उसकी परिणति है। यह स्वयं में प्रक्रिया न होकर उस प्रक्रिया का फल है। अनुवाद की प्रक्रिया अनेक स्तरों पर सम्पन्न होती है उसका एक स्तर विज्ञान की तरह विश्लेषणात्मक है जो क्रमबद्ध विवेचन की अपेक्षा रखता है। उसका दूसरा स्तर संक्रमण का स्तर है जो शिल्प के अन्तर्गत आता है और तीसरा स्तर पुनर्गठन अथवा अभिव्यक्ति का स्तर है जो कला के अन्तर्गत परिगणित किया जा सकता है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी के साथ-साथ वर्तमान में एक अत्यन्त प्रभावशाली माध्यम के रूप में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। विश्वफलक पर तेजी से आविर्भूत होते ज्ञान-विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के अनेकविध क्षेत्रों, देशों विदेशों की संस्कृति तथा देश के प्रशासन आदि को यथाशीघ्र समुचित ढंग से अभिव्यक्ति देने में एक सहायक अनिवार्य तत्त्व के रूप में अनुवाद का महत्त्व स्वयंसिद्ध है। अनुवाद के माध्यम से ही प्रयोजनमूलक हिन्दी में विभिन्न देशी-विदेशी आगत भाषाओं का ज्ञान, देश-विदेशों की संस्कृति, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों से सम्बन्धित ज्ञान, विश्व में प्रचलित है। विभिन्न भाषाओं की पारिभाषिक शब्दावली का आगमन और प्रचलन सम्भव हुआ है। इस प्रकार, प्रयोजनमूलक हिन्दी के रूप ज्ञान-क्षेत्र, परिभाषिक शब्द भण्डार तथा भाषिक संरचना की विशिष्टता आदि की श्रीवृद्धि में अनुवाद की अहम् तथा अनिवार्य भूमिका बनी हुई है।

(3) भाषिक संरचना- प्रयोजनमूलक हिन्दी का तीसरा और महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। उसकी विशिष्ट भाषिक संरचना है। कोई भी भाषा अपने सभी प्रयोगों या प्रयुक्तियों में एक सी नहीं होती है। विषय, सन्दर्भ तथा प्रयुक्ति क अनुसार भाषा की संरचना परिवर्तित होती है। प्रयोजनमूलक हिन्दी में भाषा का विशिष्ट रूप प्रयुक्त होता है जो साहित्यिक भाषा से भिन्न रहता है। वस्तुतः साहित्य या व्यवहार की भाषा तथा प्रयोजनमूलक भाषा सामान्यतः एक ही होती है किन्तु उसकी शब्दावली और संरचना में मूलभूत भेद या अन्तर पाया जाता है, जिसे स्पष्ट करना आवश्यक है।

साहित्यिक अथवा सामान्य व्यवहार को भाषा तथा प्रयोजनमूलक भाषा वस्तुतः एक ही है किन्तु उनकी शब्दावली, भाषिक संगठन तथा प्रयुक्ति के उद्देश्य अलग-अलग होते है सामान्य या साहित्यिक भाषा व्यवहार में सहज रहती है, इसके विपरीत प्रयोजनमूलक भाषा की प्रयुक्ति में विशेष प्रयास , प्रयुक्ति-बोध तथा क्षेत्र विशेष का विशेष ज्ञान प्रयोक्ता को होना अत्यावश्यक होता है। ज्ञान-विज्ञान के फैलावा के फलस्वरूप परिवर्तित हुई स्थितियों की आवश्यकताओं के आधार पर यह प्रयोजनमूलक भाषा कहलाती है। प्रयोजनमूलक भाषा तथा साहित्यिक या सामान्य व्यवहार की भाषा में मूलभूत अन्तर यह होता है कि सामान्य या साहित्यिक भाषा अर्थबहुल व्यंजनाश्रित अथवा वक्र या लक्षणा-व्यंजना से युक्त हो सकती है, इसके विपरीत प्रयोजनमूलक भाषा अभिधारक, एकार्थक तथा स्मष्ट होती है जिससे प्रयोक्ता की बात का निश्चित और सही-सटीक अर्थ समझा जा सके। प्रयोजतमूलक भाषा में व्यंग्यार्थ, अलंकार, आदि की कोई गुंजाइश नहीं होती, इसीलिए यह भाषा बोधगम्य तथा अत्याधिक स्पष्ट होती हैं।

प्रयोजनमूलक हिन्दी की भाषिक संरचना अपने में अनेक विशिष्टताएँ समेटे होती है।प्रयोजनमूलक हिन्दी की भाषिक अभिव्यक्ति शैली गम्भीर, वाच्यार्थ प्रधान तथा व्यंग्यार्थ रहित अर्थात एकार्थक होती है। प्रयोजनमूलक भाषा संरचना का एक मानक रूप’ (Standard form) निश्चित होता है जिसमें एकरूपता, सुनिश्चितता तथा औचित्य का निर्वाह अनिवार्यतः किया जाता है। प्रयोजनमूलक हिन्दी की भाषिक संरचना में वैज्ञानिक तथा तकनीकी (पारिभाषिक) शब्दावली का प्रयोग- बाहुल्य अनिवार्य रूप से विद्यमान रहता है। चूंकि प्रयोजनमूलक हिन्दी माध्यम से विज्ञान , प्रौद्योगिकी, विधि, वानविकी तथा प्रशासन जैसे गम्भीर विषयों के निरूपण हेतु उनकी संकल्पनाओं गुण-सूत्रों तथा प्रतीक-चिह्नों आदि के कारण प्रयोजनमूलक हिन्दी की संरचना में गम्भीरता के साथ जटिलता एवं दुरूहता आ जाती है। विधि अथवा कानून की धाराओं या उपबन्धों के स्पष्टीकरण में वाक्य-रचना को अत्यधिक जटिलता की शरण लेनी पड़ती है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी-भाषा का ध्येय या उद्देश्य ज्ञान-विज्ञान तथा प्रशासन आदि अनेकविध क्षेत्रों की प्रयोजन-परक (प्रायोगिक) अभिव्यक्ति है और इस सन्दर्भ में उसका दायित्व उक्त ज्ञान-क्षेत्रों की उपयोगिता के साथ जुड़ा हुआ है।

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प्रयोजनमूलक हिंदी के दो भेद कौन से हैं?

प्रयोजनमूलक हिन्दी के दो मुख्य भेद बोलचाल की हिन्दी - इसके अंतर्गत बोलचाल के सामान्य रुप की हिन्दी भाषा आती है। 2. व्यापार की हिन्दी -व्यापार की हिन्दी के अंतर्गत बाजार, सर्राफे एवं मंडी की भाषा - आती है।

प्रयोजनमूलक हिंदी के कितने प्रकार हैं?

अनुक्रम.
2.1 साहित्यिक प्रयुक्ति.
2.2 वाणिज्यिक प्रयुक्ति.
2.3 कार्यालयी प्रयुक्ति.
2.4 जनसंचार एवं विज्ञापन प्रयुक्ति.
2.5 विधि एवं कानूनी भाषा प्रयुक्ति.
2.6 वैज्ञानिक एवं तकनीकी भाषा प्रयुक्ति.

2 प्रयोजनमूलक हिन्दी की विशेषता कौन सी है?

भाषिक विशिष्टता के कारण ही प्रयोजनमूलक हिन्दी साहित्यिक हिन्दी से पृथक् है । विभिन्न भाषाओं के शब्दों को ग्रहण कर अपने शब्द भण्डार की श्रीवृद्धि की है। इसकी भाषा वाच्यार्थ प्रमुख तथा एकार्थक होती है तथा इसमें कहावतें, मुहावरे, अलंकार आदि को स्थान नहीं दिया जाता है।

प्रयोजनमूलक हिंदी के कितने तत्व हैं?

कुछ विद्वान प्रयोग के आधार पर शब्द के तीन भेद और करते हैं- (1) पारिभाषिक (2) अर्द्ध पारिभाषिक (3) सामान्य। (2) अनुवाद- प्रयोजनमूलक हिन्दी का दूसरा मूल तत्त्व है- उसका अनुवाद। अनुवाद वास्तव में जटिल भाषिक प्रक्रिया का परिणाम या उसकी परिणति है। यह स्वयं में प्रक्रिया न होकर उस प्रक्रिया का फल है।