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Orientalist-Anglicist Controversy: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को वर्ष 1793 में ब्रिटिश संसद की ओर से एक आज्ञा पत्र दिया गया था। इसी आज्ञा पत्र के जरिये कंपनी को भारत में व्यापार करने की आजादी मिल गई थी। वर्ष 1813 में कंपनी की ओर से इस आज्ञा पत्र के नवीनीकरण के लिए इसे ब्रिटिश संसद में पेश किया गया, जिसे मंजूरी तो मिल गई, मगर इसमें कई चीजें स्पष्ट नहीं थीं, जिसकी वजह से इस दौरान लोगों को विरोधाभास से भी दो-चार होना पड़ा। यह विरोधाभास विद्वानों के अर्थ को लेकर था। जहां कुछ का मानना था कि विद्वान से तात्पर्य पाश्चात्य विद्वान और साहित्य से है, वहीं कुछ मान रहे थे कि विद्वान का अर्थ भारतीय विद्वान और साहित्य हैं। यूं हुई विवाद की शुरुआत
भारतीयता की ओर झुका प्राच्यवादी वर्ग
ब्रिटिशों की ओर झुकाव वाला प्राच्यवादी वर्ग
प्राच्यवादियों का तर्क
पाश्चात्यवादी वर्ग की सोच
पाश्चात्यवादी विचारधारा की वजह
निष्कर्षप्राच्यवादी और पाश्चात्यवादी विचारधाराओं (Orientalist-Anglicist) के बीच विवाद की स्थिति के बीच जो एक बात प्रमुख तौर पर उभर कर सामने आई वह यह थी कि भारत में पाश्चात्य शिक्षा से भले ही ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारतीयों के लिए संभावनाओं के द्वार खुले हों, मगर ब्रिटिश सरकार का उद्देश्य असल में इसके जरिये भारतीयों को मानसिक रूप से अपना गुलाम बनाना था। आंग्लवादी और प्राच्यवादी विवाद क्या था?Orientalist-Anglicist Controversy – प्राच्य-पाश्चात्य विवाद ने खोलकर रख दी थी अंग्रेजों की पोल Orientalist-Anglicist Controversy: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को वर्ष 1793 में ब्रिटिश संसद की ओर से एक आज्ञा पत्र दिया गया था। इसी आज्ञा पत्र के जरिये कंपनी को भारत में व्यापार करने की आजादी मिल गई थी।
शिक्षा के क्षेत्र में आंग्लवादी प्राच्यवादी विवाद क्या था?प्राच्यवादी इसे भारतीयकरण के माध्यम से करना चाहते थे और आंग्लवादी पश्चिमीकरण के माध्यम से इसे करना चाहते थे। शिक्षा नीति का मूलभूत प्रयोजन उपनिवेशी सरकार के राजनीतिक हितों से अलग नहीं था । इस प्रकार हमने देखा कि शिक्षा विभिन्न विचारधाराओं में वाद-विवाद का विषय हो गया ।
प्राच्य पाश्चात्य विवाद क्या था इसका अन्त कैसे हुआ वर्णन कीजिए?प्राच्य शिक्षा समर्थकों का तर्क था कि परंपरागत भारतीय भाषाओं एवं साहित्य को प्रोत्साहित किया जाए। दूसरी ओर, आंग्ल-शिक्षा समर्थकों का तर्क था कि यह रकम आधुनिक पाश्चात्य अध्ययनों को प्रोत्साहित करने के लिये खर्च की जाए। इन दोनों दलों के मध्य विवाद को ही आंग्ल-प्राच्य विवाद कहा जाता है।
प्राच्य पाश्चात्य विवाद कब हुआ था?प्राच्यवादियों और पाश्चात्यवादियों का यह विवाद 1843 ई० तक चलता रहा। अन्त में जनवरी 1835 ई० में 'लोकशिक्षा समिति' के मंत्री ने दोनों दलों के वक्तव्यों का भारत के तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड विलियम बैंटिंक के प्रमुख निर्णयार्थ प्रस्तुत किया।
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