माओवाद की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन - maovaad kee pramukh visheshataon ka varnan

राजनीति
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माओवाद की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन - maovaad kee pramukh visheshataon ka varnan

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माओवाद (1960-70 के दशक के दौरान) चरमपंथी अतिवादी माने जा रहे बुद्धिजीवी वर्ग का या उत्तेजित जनसमूह की सहज प्रतिक्रियावादी सिद्धांत है। माओवादी राजनैतिक रूप से सचेत सक्रिय और योजनाबद्ध काम करने वाले दल के रूप में काम करते है। उनका तथा मुख्यधारा के राजनैतिक दलों में यह प्रमुख भेद है कि जहाँ मुख्य धारा के दल वर्तमान व्यवस्था के भीतर ही काम करना चाहते है वही माओवादी समूचे तंत्र को हिंसक तरीके से उखाड़ के अपनी विचारधारा के अनुरूप नयी व्यवस्था को स्थापित करना चाहते हैं। वे माओ के इन दो प्रसिद्द सूत्रों पे काम करते हैं :

1. राजनैतिक सत्ता बन्दूक की नली से निकलती है। 2. राजनीति रक्तपात रहित युद्ध है और युद्ध रक्तपात युक्त राजनीति।

भारतीय राजनीतिक पटल पर माओवादियों का एक दल के रूप में उदय होने से पहले यह आन्दोलन एक विचारधारा की शक्ल में सामने आया था पहले पहल हैदराबाद रियासत के विलय के समय फिर 1960-70 के दशक में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के रूप में वे सामने आए।[1]

भारत में माओवाद के उत्तरदायी कारण[संपादित करें]

राजनैतिक[संपादित करें]

भारत में माओवाद असल में नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ पनपा और पूरे देश में फैल गया। राजनीतिक रूप से मार्क्स और लेनिन के रास्ते पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में जब विभेद हुये तो एक धड़ा भाकपा मार्क्सवादी के रूप में सामने आया और एक धड़ा कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में. इनसे भी अलग हो कर एक धड़ा सशस्त्र क्रांति के रास्ते पर चलते हुये पड़ोसी देश चीन के माओवादी सिद्धांत में चलने लगा। भारत में माओवादी सिद्धांत के तहत पहली बार हथियारबंद आंदोलन चलाने वाले चारु मजूमदार के बेटे अभिजित मजूमदार के अनुसार चारू मजूमदार जब 70 के दशक में सशस्त्र संग्राम की बात कर रहे थे, तो उनके पास एक पूरी विरासत थी। 1950 से देखा जाय तो भारतीय किसान, संघर्ष की केवल एक ही भाषा समझते थे, वह थी हथियार की भाषा। जिन्होंने जमींदारों के खिलाफ, ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हथियार उठाया था। 1922 में चौराचौरी में 22 पुलिस वालों को जलाया गया था, उसमें भी सबसे बड़ी भागीदारी किसानों की थी। उसके बाद ही तो गांधीजी ने असहयोग और अहिंसक आंदोलन की घोषणा की थी। लेकिन किसानों ने तो अपने तरीके से अपने आंदोलन की भाषा समझी थी और उसका इस्तेमाल भी किया था।

आर्थिक[संपादित करें]

विकास की बड़ी योजनाएँ भी अनेक लोगों को विस्थापित कर रही है अतीत में ये बड़े बाँध थे और आज सेज बन गए है, पुनर्वास की कोई भी योजना आज तक सफल नहीं मानी गयी है इससे जनता में रोष बढ़ता ही जाता है इसी रोष को लक्षित कर माओवादी पार्टी ने अपने पिछले सम्मेलन में साफ़ रूप से कहा था कि वो इस प्रकार की विकास परियोजनओं का विरूद्ध करेंगे तथा विस्थापितों का साथ भी देंगे यदि वे ऐसा करते है तो निश्चित रूप से एक राज्य के रूप में हमारा देश नैतिक अधिकार खो बैठैगा और उनके प्रभाव क्षेत्र में वृद्धि अपने आप ही हो जायेगी। अगर आर्थिक कारणों को देखा जाए तो वे भी माओवाद के प्रसार के लिए काफी सीमा तक जिम्मेदार है यधपि पिछले 30 सालों में निर्धनता उन्मूलन के प्रयासों को भारी सफलता मिली है लेकिन यह भी माना ही जाता रहा कि ये योजनाएँ भ्रष्टाचार और अपारदर्शिता का गढ़ रही है तथा निर्धनता उन्मूलन के आंकड़े बहुत भरोसे के लायक नहीं माने जा सकते है आबादी का बड़ा हिस्सा निर्धनता की रेखा से जरा सा ही ऊपर है, तकनीकी रूप से भले ही वो निर्धन नहीं हो लेकिन व्यवहार में है और अर्थव्यवस्था में आया थोडा सा बदलाव भी उन्हें वापिस रेखा से नीचे धकेल देने के लिए काफी होता है। फ़िर जिस अनुपात में कीमतें बढ़ जाती है उसी अनुपात में निर्धनता के मापदंड नहीं बदले जाते है इस से बड़ी संख्या में लोग निर्धनता के चक्र में पिसते रहते है ;फ़िर क्या लोग इस चीज से संतोष कर ल;ऐ कि अब वो गरीब रेखा से ऊपर आ गए है ?जबकि अमीर उनकी आँखों के सामने और अमीर बनते जा रहे है फ़िर वो लोग ही क्यो उसी हाल में बने रहे ?

भारत के आंतरिक क्षेत्र जो विकास से दूर है तथा इलाके जो आज माओवाद से ग्रस्त है वे इसी निर्धनता से ग्रस्त है। बेरोजगारी भी अनेक समस्याओं को जन्म देती है इसके चलते विकास रूका रहता है, निर्धनता बनी रहती है तथा लोग असंतुष्ट बने रहते है, यह लोगों को रोजगार की तलाश में प्रवासी बना देती है, पंजाब के खेतों में काम करते बिहारी मजदूर इसका सबसे अच्छा उदाहरण माने जा सकते है।

सामाजिक[संपादित करें]

भूमि सुधार कानून जो 1949 - 1974 तक एक श्रृंखला के रूप में निकले थे, विनोबा भावे का भूदान आंदोलन भी हुआ लेकिन आज भी देश में भूमि का न्यायपूर्ण वितरण भूमिहीनों तथा छोटे किसानों के बीच न्यायपूर्ण तरीक से नहीं हुआ है। पुराने जमींदारों ने कई चालों के जरिये अपनी जमीन बचा ली और वक्त के साथ साथ जमींदारों की नई नस्ल सामने आ गयी जो बेनामी जमीन रखती है और गरीब उतना ही लाचार है जितना पहले था

अनुसूचित जनजाति और जाति के लोग भारत में लंबे समय तक हाशिये पे धकेले हुए रहे हैं वैसे मानव भले ही स्वभाव से सामाजिक प्राणी रहा हो जो हिंसा नहीं करता लेकिन जब एक बड़े वर्ग को समाज किसी कारण से हाशिये पे धकेल देता हैं और पीढी दर पीढी उनका दमन चलता रहता हैं।

भारत में एक बड़ी आबादी जनजातीय समुदाय की हैं लेकिन इसे मुख्यधारा में शामिल होने का अवसर आज तक नहीं मिला हैं आज भी सबसे धनी संसाधनों वाली धरती झारखंड तथा उडीसा के जनजातीय समुदाय के लोग निर्धनता और एकाकीपन के पाश में बंधे हुए हैं।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. https://mgkvp.ac.in/Uploads/Lectures/31/5097.pdf[मृत कड़ियाँ]

माओवादी से आप क्या समझते हैं?

भारत में माओवाद असल में नक्सलबाड़ी के आंदोलन के साथ पनपा और पूरे देश में फैल गया। राजनीतिक रूप से मार्क्स और लेनिन के रास्ते पर चलने वाली कम्युनिस्ट पार्टी में जब विभेद हुये तो एक धड़ा भाकपा मार्क्सवादी के रूप में सामने आया और एक धड़ा कम्युनिस्ट पार्टी के रूप में.

नक्सलवाद और माओवाद में क्या अंतर है?

नक्सलवाद शब्द की उत्पत्त‌ि पश्चिम बंगाल के नक्सलवाड़ी गाँव से हुई थी। भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारु माजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन शुरु किया। माजूमदार चीन के कम्यूनिस्ट नेता माओत्से तुंग के बड़े प्रशसंक थे। इसी कारण नक्सलवाद को 'माओवाद' भी कहा जाता है।

माउथ से तुम की मृत्यु कब हुई थी?

माओ से-तुंग या माओ ज़ेदोंग (毛泽东, Mao Zedong अथवा Mao Tse-tung; जन्म: २६ दिसम्बर १८९३; निधन: ९ सितम्बर १९७६) चीनी क्रान्तिकारी, राजनैतिक विचारक और साम्यवादी (कम्युनिस्ट) दल के नेता थे जिनके नेतृत्व में चीन की क्रान्ति सफल हुई।