मन की पीड़ा का क्या करना चाहिए ? - man kee peeda ka kya karana chaahie ?

निम्नलिखित दोहों को पढ़कर पूछे प्रशनों के उत्तर दीजिए 
रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय 
सुनि अठिलैहैं लोग सब, बॉंटि न लैहैं कोय।
रहीम पीड़ा की व्यथा को छिपाने के लिए क्यों कहते हैं।

  • ताकि लोग मजाक न उड़ाए 
  • हंसी का पात्र न बने
  • दुखी होने के लिए
  • दुखी होने के लिए

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निम्नलिखित प्रशनों के उत्तर दीजिए-
हमें अपना दुःख दूसरों पर क्यों नहीं प्रकट करना चाहिए? अपने मन की व्यथा दूसरों से कहने पर उनका व्यवहार कैसा हो जाता है?


हमें अपना दु ख दूसरों पर प्रकट नहीं करना चाहिए, क्योंकि संसार उसका मजाक उड़ाता है। हमें अपना दुःख अपने मन में ही रखना चाहिए। अपने मन की व्यथा दूसरों से कहने पर उनका व्यवहार परिहास पूर्ण हो जाता है।

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निम्नलिखित प्रशनों के उत्तर दीजिए-
जलहीन कमल की रक्षा सूर्य भी क्यों नहीं कर पाता?


जलहीन कमल की रक्षा सूर्य भी इसलिए नहीं कर पाता क्योंकि जल से ही कमल की प्यास बुझती है. वह खिलता है और जीवन पाता है। कमल की सम्पत्ति जल है। अपनी सम्पत्ति नष्ट होने पर दूसरा व्यक्ति साथ नहीं दे सकता।

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निम्नलिखित प्रशनों के उत्तर दीजिए-
एक को साधने से सब कैसे सध जाता है?


एक पर अटूट विश्वास करके उसकी सेवा करने से सब कार्य सफल हो जाते हैं तथा इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता। एक को साधने से सब कार्य उसी प्रकार सिद्ध हो जाते हैं जिस प्रकार जड़ को सींचने से फल, फूल आदि मिलते हैं। उसी प्रकार परमात्मा को साधने से अन्य सब कार्य कुशलता पूर्वक संपन्न हो जाते हैं।

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निम्नलिखित प्रशनों के उत्तर दीजिए-
रहीम ने सागर की अपेक्षा पंक जल को धन्य क्यों कहा है?


रहीम ने सागर की अपेक्षा पंक जल को धन्य इसलिए कहा है क्योंकि सागर का जल खारा होता है, वह किसी की प्यास नहीं बुझा सकता जबकि पक जल धन्य है जिसे पीकर छोटे-छोटे जीवों की प्यास तृप्त हो जाती है। इसलिए कवि ने ऐसा कहा है।

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निम्नलिखित प्रशनों के उत्तर दीजिए-
प्रेम का धागा टूटने पर पहले की भाँति ‘क्यों नहीं हो पाता?


प्रेम आपसी लगाव और विश्वास के कारण होता है। यदि एक बार यह लगाव या विश्वास टूट जाए तो फिर उसमें पहले जैसा भाव नहीं रहता। मन में दरार आ जाती है। जिस प्रकार सामान्य धागा टूटने पर उसे जब जोड़ते हैं तो उसमें गाँठ पड़ जाती है। इसी प्रकार प्रेम का धागा भी टूटने पर पहले के समान नहीं हो पाता।

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रहिमन निज मन की बिथा

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय।

सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि लैहैं कोय॥

रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।

स्रोत :

  • पुस्तक : रहीम ग्रंथावली (पृष्ठ 99)
  • रचनाकार : रहीम
  • प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
  • संस्करण : 1985

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प्रश्न: सद्‌गुरु, सारी दुनिया में इतने सारे लोग हर दिन इतनी पीड़ा झेल रहे हैं। इस पीड़ा से कैसे निपटा जाये ?

सद्‌गुरु: दर्द एक शारीरिक चीज़ है। दर्द शरीर को होता है और ये आप के लिये अच्छा है। मैं जब कहता हूँ, "दर्द आप के लिये अच्छा है" तो मैं आप को कोई दर्द का आशीर्वाद या वरदान नहीं दे रहा हूँ। दर्द आपके लिये अच्छा इसलिये है कि अभी आप के पास वो आवश्यक बुद्धिमत्ता नहीं है कि आप को कोई दर्द न होने पर भी आप अपने शरीर को संभाल कर रख सकें। आप के शरीर के जिन भागों में दर्द नहीं होता, जैसे आप के बाल और नाखून, तो देखिये, कितने प्रकारों से आप उन्हें काटते रहते हैं ?

मान लीजिये, आप के पूरे शरीर में कहीं दर्द न होता, तो फैशन के लिये आप अपने आप को कभी के नष्ट कर चुके होते। लेकिन, अभी तो ऐसा है कि अगर आप गली में चल रहे हों और कोई साइकिल आ जाये तो आप पीछे हट जाते हैं। आप ये कोई विनम्रता के कारण नहीं करते पर इसलिये करते हैं क्योंकि आप दर्द का परिणाम जानते हैं। अगर आप के शरीर में कोई दर्द न होता, तो एक ट्रक आता तो भी आप बिलकुल न हटते।

पीड़ा हमारी स्वयं की रचना है

परंतु पीड़ा हमारी स्वयं की रची हुई है। क्या ये संभव है कि दर्द हो पर पीड़ा न हो? मेरे अपने ही जीवन में, बहुत साल पहले, जब मेरा सारा समय मोटरसाइकिल पर गुज़रता था और मैं सारे देश में घूमता रहता था, एक बार एक अनूठी दुर्घटना हो गयी। एक वाहन पीछे हटा और मेरा पैर एक पार्क की हुई मोटरसाइकिल के पायदान पर दब गया। यद्यपि पायदान धारदार नहीं होता पर उसने मेरी मांसपेशी को हड्डी तक काट कर रख दिया।

मैं किसी दूर दराज की छोटी सी जगह पर था। मैं वहाँ के स्थानीय चिकित्सालय में गया जहाँ बेहोशी की दवा देने की सुविधा नहीं थी। डॉक्टर ने मेरे घाव को देखा और कहा, "इसे ठीक करने का मेरे पास कोई रास्ता नहीं है। तुमको तुरंत ही किसी बड़े अस्पताल में जाना चाहिये क्योंकि इसे ठीक करने के लिये तुमको बेहोशी की दवा की ज़रूरत होगी"। अस्पताल दूर था और मुझे जिस तरफ जाना था वह उसकी विपरीत दिशा में था। मेरी समस्या ये है कि मेरे सारे जीवन भर मैंने कभी पलटना नहीं जाना। कुछ भी हो, मैं हमेशा मंज़िल की ओर ही जाता हूँ। तो मैंने कहा, "नहीं, मैं उस तरफ नहीं जाऊँगा, मुझे दूसरी तरफ जाना है"। डॉक्टर ने कहा, "इस स्थिति में तुम कहीं भी नहीं जा सकते"। मैं जब उनके साथ तर्क वितर्क कर रहा था तो मेरे पैर से बहते खून से उस चिकित्सालय में तालाब बन रहा था। और वे मेरी बात मान गये, जो बात तर्क से नहीं बन रही थी, वो मेरे बहते खून के कारण बन गयी।

उन्होंने बिना बेहोशी की दवा के मेरा इलाज़ शुरू किया। घाव इतना गहरा था कि तीन अलग अलग स्तरों पर, मेरी मांसपेशी को एक करने के लिये, कुल 54 टाँकें लगाने पड़े। जब ये सब चल रहा था तब मैं डॉक्टर के साथ बातचीत कर रहा था। वे पसीने से चूर थे और हाँफ रहे थे। जब सब पूरा हो गया तो उन्होंने पूछा, "क्या तुम्हारे पैर में कोई दर्द नहीं हो रहा? तुम मुझसे ऐसे ही बात कर रहे हो"! वास्तव में मुझे भयंकर दर्द हो रहा था पर मैं उसे पीड़ा नहीं बना रहा था। पीड़ा हमेशा अपनी बनायी हुयी होती है, दर्द सिर्फ शरीर का होता है। दर्द एक प्राकृतिक घटना है। अगर दर्द न हो तो आप को अपने पैर कट जाने का भी पता नहीं चलेगा।

अशरीरी योगी

और भी कई उदाहरण हैं। एक अदभुत उदाहरण योगी सदाशिव ब्रह्मेन्द्र का है। ध्यानलिंग मंदिर में पत्थर के एक शिल्प में उनकी कहानी प्रदर्शित है। इसमें एक व्यक्ति चलता दिख रहा है, जिसका हाथ काट डाला गया है। दक्षिणी भारत में नेरूर नाम के एक स्थान पर ये हुआ। सदाशिव ब्रह्मेन्द्र एक निरकाया थे - अशरीरी योगी ! क्या कोई बिना शरीर के हो सकता है ?

आप अगर जागरूक हैं तो आप अपने लिये पीड़ा निर्मित नहीं करेंगे। अपने लिये पीड़ा निर्मित करने का काम सिर्फ वो ही करता है जो जागरूक नहीं है।

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जैसे भौतिक शरीर होता है वैसे ही मानसिक शरीर और ऊर्जा शरीर भी होते हैं। ऊर्जा शरीर को प्राणमयकोष कहते हैं। ऊर्जा शरीर में 72,000 नाड़ियाँ होती हैं - वे मार्ग, जिनमें से हो कर ऊर्जा चलती है।

आप के भौतिक रूप में होने के लिये सभी 72000 नाड़ियों को सक्रिय होने की ज़रूरत नहीं। बस, कुछ मूल नाड़ियों के साथ आप अपना पूर्ण भौतिक जीवन जी सकते हैं। अगर आप की सभी 72,000 नाड़ियाँ सक्रिय हो जायें तो आप को शरीर की कोई अनुभूति नहीं होगी। आप के अनुभव में ये होगा ही नहीं। क्या आप शरीर के बिना, आज़ादी से यहाँ बैठने की कल्पना कर सकते हैं ? उदाहरण के लिये, यदि आप बैठना और ध्यान करना चाहें को कुछ देर बाद आप के पैरों में दर्द होने लगेगा, और कुछ समय बाद तो आप बस 'अपने पैर का दर्द' हो कर ही रह जायेंगे, आप के बाकी सारे मानवीय गुण गायब हो जायेंगे। पर अगर आप अपनी सभी 72,000 नाड़ियों को सक्रिय कर लें और यहाँ बैठें तो आप को अपने शरीर का कोई अहसास ही नहीं होगा। आप जैसे चाहें, अपने शरीर का उपयोग कर सकेंगे पर शरीर का आप पर कोई वश नहीं होगा।

सदाशिव एक निरकाया थे। चूंकि उन्हें अपने शरीर का कोई अहसास नहीं था, उनके जीवन में उन्हें कभी कपड़े पहनने की ज़रूरत ही नहीं हुयी। वे एक नग्न योगी थे। वे बस जैसे थे, वैसे ही चलते थे। एक दिन वे राजा के बगीचे में पहुँच गये। राजा नदी तट पर अपनी रानियों के साथ आराम कर रहे थे। सदाशिव उन स्त्रियों के सामने, ऐसे ही, नग्न, पहुँच गये।

जो स्थिति अभी है, जब आप उसका प्रतिरोध करते हैं तो दर्द बढ़ता हुआ पीड़ा बन जाता है। दर्द वहाँ पहले से है। अपने अंदर इसे कई गुना बढ़ा कर इससे कुछ और बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

राजा बहुत नाराज हुआ, "ये कौन मूर्ख है जो इस तरह मेरी स्त्रियों के सामने आ रहा है"? उसने अपने सैनिकों को पता लगाने को कहा। उन्होंने सदाशिव को बुलाया पर वे बिना मुड़े, सीधे चलते रहे। तब सैनिक नाराज़ हो गये और प्रीछे से आते हुए उन्होंने सदाशिव पर तलवार से हमला कर दिया। उनकी दाहिनी बाँह कट कर अलग हो गयी पर वे फिर भी चलते रहे। सैनिक घबराये, "इस आदमी की बाँह कट कर ज़मीन पर गिर गयी है पर ये पीछे भी नहीं मुड़ा, बस चला जा रहा है"। उन्हें लगा कि ये कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है। वे उनके पीछे दौड़े और सब, राजा भी, उनके पैरों पर गिर पड़े। वे उन्हें वापस लाये और उनको वहीं, बगीचे में रखा। आज भी नेरूर में उनकी समाधि है, ये एक बहुत शक्तिशाली स्थान है।

दर्द सिर्फ शरीर में होता है। पीड़ा वो है जिसे आप रचते हैं। पर आप को इसे बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है। आप अगर जागरूक हैं तो आप अपने लिये पीड़ा निर्मित नहीं करेंगे। अपने लिये पीड़ा निर्मित करने का काम सिर्फ वो ही करता है जो जागरूक नहीं है। क्या आप अपने लिये जान बूझ कर पीड़ा पैदा करेंगे? नहीं!

एक उदाहरण जो सारी दुनिया में बहुत प्रसिद्ध है, वह है जीसस क्राइस्ट का। उनके पैरों और हाथों में कीलें ठोकी जा रहीं थीं। अगर आप के पैरों और हाथों में कीलें ठोकी जायें तो आप क्या करेंगे ? आप चीखेंगे, चिल्लायेंगे और सारी दुनिया को श्राप देंगे। पर उन्होंने प्रार्थना की, "उन्हें माफ कर दो क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं"! अगर किसी व्यक्ति को पीड़ा हो रही हो तो क्या वो ये कह सकता है? इसका अर्थ ये नहीं है कि उन्हें कोई दर्द नहीं हो रहा था। शायद उनका शरीर आप के शरीरों से ज्यादा संवेदनशील था। निश्चित रूप से उन्हें दर्द था, पर उन्हें कोई पीड़ा नहीं थी। जब उन्होंने कहा, "वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं", तो उनका यही कहना था कि वे जागरूक नहीं हैं।

अपनी जागरूकता को बढ़ाना

आप अपने आप को और अपने आसपास किसी को सिर्फ इसलिये पीड़ा पहुँचा सकते हैं, क्योंकि आप गैर जागरूक हैं। आप के अनुभव में सिर्फ वही होता है जिसके बारे में आप जागरूक हैं। आप जिसके बारे में नहीं जानते, वह आप के लिये नहीं होता। यह संदर्भ बदलना ज़रूरी है। आप की जागरूकता एक सीमित स्थान से एक ज्यादा बड़ी समझ में बढ़नी चाहिये।

जो स्थिति अभी है, जब आप उसका प्रतिरोध करते हैं तो दर्द बढ़ता हुआ पीड़ा बन जाता है। दर्द वहाँ पहले से है। अपने अंदर इसे कई गुना बढ़ा कर इससे कुछ और बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। जब परिस्थिति पहले ही खराब हो तो आप को ये देखना चाहिये कि इसमें से आप, किस प्रकार गरिमापूर्वक बाहर निकलेंगे?

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A version of this article was originally published in Isha Forest Flower April 2010.

अपने मन की व्यथा को अपने मन में ही क्यों रखना चाहिए?

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय। सुनि अठिलैहैं लोग सब, बाँटि न लैहैं कोय॥ रहीम कहते हैं कि अपने मन के दुःख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।

मन में क्या छिपा कर रखना चाहिए?

हमें अपना दु ख दूसरों पर प्रकट नहीं करना चाहिए, क्योंकि संसार उसका मजाक उड़ाता है। हमें अपना दुःख अपने मन में ही रखना चाहिए। अपने मन की व्यथा दूसरों से कहने पर उनका व्यवहार परिहास पूर्ण हो जाता है।

अपने मन की पीड़ा क्यों नहीं बतानी चाहिए?

रहिमन निज मन की, बिथा, मन ही राखो गोय। ... कविवर रहीम कहते हैं कि मन की व्यथा अपने मन में ही रखें उतना ही अच्छा क्योंकि लोग दूसरे का कष्ट सुनकर उसका उपहास उड़ाते हैं। यहां कोई किसी की सहायता करने वाला कोई नहीं है-न ही कोई मार्ग बताने वाला है।