मैं मन मार कर रह गया यह कथन गांधी जी ने क्यों कहा - main man maar kar rah gaya yah kathan gaandhee jee ne kyon kaha

गांधी ने क्यों कहा था कि 'सेंस ऑफ़ ह्यूमर' के बिना मैं आत्महत्या कर लेता

  • दयाशंकर शुक्ल सागर
  • वरिष्ठ पत्रकार और लेखक

2 अक्टूबर 2020

मैं मन मार कर रह गया यह कथन गांधी जी ने क्यों कहा - main man maar kar rah gaya yah kathan gaandhee jee ne kyon kaha

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महात्मा गांधी की छवि आम तौर पर एक धीर-गंभीर विचारक, आध्यात्मिक महापुरुष और एक कड़क अनुशासन प्रिय राजनेता की रही है लेकिन उनकी विनोदप्रियता और हाज़िरजवाबी का भी कोई जवाब नहीं था.

अपने हास्य और व्यंग्य से वे बड़े-बड़े लोगों को लाजवाब कर देते थे. वह खुलकर हंसते थे और हंसते वक्त ही पता चलता था कि उनके कई दांत उम्र के साथ ग़ायब हो चुके हैं.

महात्मा गांधी चुटीले सवालों का जवाब उसी चुलबुले अंदाज में देने माहिर थे. एक बार उन्होंने खुद कहा था 'अगर मुझमें हास्य-विनोद (सेंस ऑफ़ ह्यूमर) ना होता तो मैं अब तक आत्महत्या कर चुका होता.'

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नेहरू भी थे कायल

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- 'जिसने महात्माजी की हास्य मुद्रा नहीं देखी, वह बेहद कीमती चीज़ देखने से वंचित रह गया है.'

सरोजनी नायडू तो महात्मा गांधी को प्यार से 'मिकी माउस' बुलाती थीं. गांधीजी भी अपने पत्रों में उनके लिए 'डियर बुलबुल', 'डियर मीराबाई' तो यहां तक कि कभी-कभी मज़ाक में 'अम्माजान' और 'मदर' भी लिखते थे.

आज़ाद भारत के दूसरे और आख़िरी गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी गांधी के बारे में कहते थे- 'ही इज़ ए मैन ऑफ़ लाफ़्टर.'

अपनी क़िताब 'महात्मा गांधी ब्रह्मचर्य के प्रयोग' लिखते वक्त गांधी पर मेरे अध्ययन ने मुझे कई अर्थों में बदल डाला और गांधी दर्शन का कायल बना दिया. चीज़ों को बारीकी से समझने और दुनिया को उसे समझाने की गांधी की कला का मैं मुरीद हो गया. गांधी बड़े अध्येता थे, विचारक थे. उनकी याददाश्त गज़ब की थी.

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हास्य-व्यंग्य को बनाया हथियार

वे बड़े से बड़े क़िताबी विचार को जमीन पर उतारने की क्षमता रखते थे. यही वजह थी कि सविनय अवज्ञा आंदोलन या सत्याग्रह को वे दक्षिण अफ्रीका और फिर भारत में प्रभावी ढंग से शुरू कर पाए और चला पाए.

वो प्रतीकों को अपना हथियार बनाते थे और हास्य-व्यंग्य को माध्यम के तौर पर इस्तेमाल करते थे. उनके ये प्रयोग काफी हद तक सटीक रहे. गांधी यह बात खुद कहते थे कि ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ विरोध और असहमति भी मैं अधिकतर विनोद के ज़रिए ही प्रकट करता हूं. इस पर एक ब्रिटिश पत्रकार ने तंज कसते हुए कहा था कि 'इसका मतलब है कि आपके मनोविनोद या दिल्लगी को आपकी झुंझलाहट या खीज समझी जाए'.

गांधी ने कहा, 'जिन विषम और विकट परिस्थितियों में मैं काम करता हूँ, अगर मुझ में इतना अधिक 'सेन्स ऑफ ह्यूमर' ना होता, तो मैं अब तक पागल हो गया होता.'

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'चरखा' और 'अर्धनग्नता' ब्रिटिश साम्राज्य के लिए हमेशा से एक अबूझ पहेली थी. असली भारत की खोज के लिए उन्होंने ट्रेन के सफर में तीसरे दर्जे में बैठकर देशभर की यात्रा की थी. इसी दौरान उनके मन में चरखा सिद्धांत आया. और इस चरखे ने ब्रिटेन के लैंकशायर के सूती वस्‍त्र उद्योग को सीधी चुनौती दे दी.

वे खुद घुटने के ऊपर की छोटी धोती पहनकर, जिसे यूरोप के मीडिया ने अंग्रेजी में लोइनक्लॉथ (लंगोट) नाम दिया, ब्रिटेन के बादशाह जार्ज पंचम के बर्मिघम पैलेस पहुंच गए. दरअसल ये लंगोट, एक प्रतीकात्मक विरोध था कि दुनिया देखे ब्रिटिश राज में भारत की आम जनता का क्या हाल है?

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चर्चिल ने उड़ाया मज़ाक

इसी से तिलमिला कर इंग्लैंड के प्रधानमंत्री रहे विंस्टन चर्चिल को गांधी को 'अधनंगा फ़कीर' कहकर मज़ाक उड़ाना शुरू किया था. उन्हें लगता था कि लंदन में पढ़ाई कर चुका एक मामूली वकील कैसे इतने भव्य ब्रिटिश राज को इतनी बड़ी चुनौती दे सकता है.

महात्मा गांधी की विनोदप्रियता और हाज़िरजवाबी के सबसे ज्यादा किस्से उस वक्त दुनिया के सामने आए जब दूसरे गोलमेज़ सम्मेलन में वे लंदन गए. इस दौरान उनका कई बार दुनिया की मीडिया से सामना हुआ और उन्होंने अपनी हाज़िरजवाबी से पत्रकारों का दिल जीत लिया.

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सितम्बर 1931 में राजपूताना जहाज़ में सफर करते हुए महात्मा लंदन जा रहे थे. तमाम अख़बारों के पत्रकार गांधी जी से बार-बार सवाल पूछते कि क्या वे इंग्लैंड के बादशाह से मिलने बकिंगम पैलेस जाएंगे. गांधीजी हंसकर कहते- 'मैं ब्रिटिश सरकार का बंदी हूं, बल्कि कहूं खुशी से बंदी हूं. अगर बादशाह ने मिलने के लिए आमंत्रित किया तो ज़रूर जाऊंगा.'

एक बार जहाज़ के डेक पर जब फ़ेटोग्राफर ने उन्हें तस्वीर खींचने के लिए ऊपर की ओर देखने का आग्रह करते तो गांधी हंसकर बोले- 'मैं अखबारों में अपनी तस्वीरें कभी नहीं देखता. मैं अपने केबिन में जा रहा हूं.'

उन्होंने इवनिंग स्टैंटर्ड के रिपोर्टर से कहा- 'लंदन में मैं अपनी लंगोट (छोटी धोती) में रहूंगा. ज्यादा ठंड होने पर शॉल या कम्बल ओढ़ लूंगा. मैं वैसा मनहूस बूढ़ा आदमी नहीं हूं जैसा मुझे चित्रित किया जाता है. सच तो यह है कि मैं बहुत खुशमिजाज़ आदमी हूं. (इवनिंग स्‍टैंडर्ड, 12 सितंबर, 1931)

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बर्मिंघम के बिशप विज्ञान और मशीनों की ज़बरदस्त वकालत करते थे जबकि गांधीजी का सारा दर्शन मशीनों और पश्चिमी सभ्यता के उलट था. इंग्लैंड दौरे पर बिशप गांधीजी से मिलने आए.

मशीनी सभ्यता पर दोनों में बहस शुरू हो गई. मशीनों की वकालत करते हुए बिशप ने तर्क दिया कि इससे मनुष्य का वक्त बचता है और वह अधिक बौद्धिक काम कर सकता है.

गांधीजी ने बिशप से मुस्कुराते हुए कहा, 'हमारे यहां कहावत है खाली वक्त शैतान का.' इस पर बिशप ने कहा, 'मैं तो दिन भर में केवल एक घंटे शारीरिक काम करता हूं और बाकी वक्त बौद्धिक काम में लगा रहता हूं.' इस पर गांधीजी ने हंसते हुए कहा, 'मैं जानता हूं. लेकिन अगर सभी लोग बिशप बन जाएंगे तो आपका धंधा ही चौपट हो जाएगा.' (कलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ गांधी, खंड 54, पेज 41)

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अपने दौर के बहुत बड़े व्यंग्यकार जार्ज बर्नाड शॉ भी तब लंदन में ही थे. वे मज़ाक-मज़ाक में बहुत गहरी बातें कर जाते थे. बर्नाड शॉ की महात्मा गांधी से मिलने की बहुत इच्छा थी.

बड़ी मुश्किल से उन्हें लंदन में गांधीजी से मिलने का मौक़ा मिला. दोनों ने क़रीब एक घंटा बातचीत की. अपनी बातचीत के दौरान शॉ अपनी हाज़िर-जवाबी और तंज़ की फुलझड़ियां छोड़ते रहे. उन्होंने गांधी जी से कहा- ''मैं आपके बारे में थोड़ी-बहुत बातें जानता था और उनसे मुझे लगा कि आप और मेरे बीच कहीं कोई भाव-सामान्य है. हम दुनिया के उस समुदाय के जीव हैं जिसके सदस्यों की संख्या बहुत कम है.' (यंग इंडिया, नवंबर, 1931)

इस मुलाकात के बाद पत्रकारों ने गांधीजी से शॉ के बारे में उनकी राय पूछी तो गांधी ने उन्हें 'यूरोप का सबसे बड़ा जोकर बताया.' गांधीजी ने कहा, 'उनमें नटखट बालक जैसा उत्साह, उदार और चिर तरूण हृदय है.' इस मुलाक़ात के बाद शॉ भी गांधी के मुरीद हो गए थे.

कुछ साल बाद भारत के राजनीतिक उत्तराधिकार पर लंदन के एक क्लब में बुद्धिजीवियों में चर्चा चल रही थी. इसमें आम राय थी कि गांधी को अब अपनी लीडरशिप नेहरू को सौंप देनी चाहिए.

एक किनारे दूसरी टेबल पर बैठे बर्नाड शॉ खामोशी से ये सब चर्चा सुन रहे थे. सिगरेट पीते हुए बर्नाड शॉ अपनी जगह से उठे और चर्चा कर रहे लोगों के पास पहुंचे. बोले, 'लीडरशिप कोई सिगरेट नहीं कि पीते-पीते दूसरे को पकड़ा दी जाए. यह लीडरशिप है, इसे अपने दम पर हासिल किया जाता है. और जिसमें योग्यता होती है, वह ख़ुद-बख़ुद हासिल कर लेता है.'

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ऑक्सफ़र्ड में उनकी मुलाकात मिसेज़ यूस्टेस माइलेस से हुई. उन्होंने गांधीजी से पूछा, 'आपको गुस्सा भी आता है?' गांधी ने कहा, 'आप श्रीमती गांधी (कस्तूरबा) से पूछिए कि वो आपको यही बताएंगी कि दूसरों के साथ तो मेरा व्यवहार सौजन्यपूर्ण होता है लेकिन उनके साथ नहीं.'

इस पर मिसेज़ यूस्टेस माइलेस ने कहा, 'मेरे पति का व्यवहार तो मेरे प्रति बहुत अच्छा रहता है. इस पर गांधीजी ने हंसते हुए कहा कि उन्होंने ये कहने के लिए आपको ज़रूर घूस दी होगी.' (यंग इंडिया, 12 नवम्बर 1931)

लंदन में गांधीजी की मुलाकात एक रिटायर्ड ब्रिटिश फौजी से हुई. वह उनका आटोग्राफ चाहता था. चलते वक्त गांधी जी ने उससे पूछा आपके कितने बच्चे हैं? फौजी ने कहा आठ, चार लड़के और चार लड़कियां. गांधीजी हंसे और बोले मेरे बस चार लड़के हैं इसलिए मैं आपके साथ आधे रास्ते तो दौड़ ही सकता हूं. ये सुनकर सब हंसने लगे. (लंदन डायरी, पेज 81, महादेव देसाई)

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चार्ली चैप्लिन से मुलाकात

गांधी से कहा गया कि आपसे चार्ली चैप्लिन मिलना चाहते हैं. गांधी ने पूछा, 'ये कौन महापुरुष हैं?' शायद तब तक गांधी ने उनका नाम नहीं सुना था. उन्हें बताया गया कि वे लंदन के महान हास्य कलाकार हैं. उनकी फ़िल्मों का सारा यूरोप दीवाना है. उन्होंने लाखों लोगों को हंसाया है.

गांधी ने डॉक्टर कतियाल के घर पर उनसे मिलने पर सहमति दी. लंदन प्रवास के दौरान वे डॉक्टर कतियाल की ही कार इस्तेमाल कर रहे थे. चैप्लिन ने पहला सवाल किया कि वे मशीनों का क्यों विरोध करते हैं? गांधीजी ने बताया, "इंग्लैंड ज़रूरत से ज़्यादा कपड़े बनाता है फिर उसे खपाने के लिए दुनिया में बाज़ार ढूंढता है. इसे मैं लूट कहता हूं और लुटेरा इंग्लैंड दुनिया के लिए ख़तरा है इसलिए अगर भारत मशीनों का इस्तेमाल शुरू कर दे और अपनी ज़रूरत से ज़्यादा माल तैयार करे तो लुटेरा भारत संसार के लिए कितना बड़ा ख़तरा साबित होगा". (लंदन डायरी, पेज 83, महादेव देसाई)

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चार्ली चैप्लिन के साथ गांधी

लंदन में एक पत्रकार एडमंड डिमिटर का गांधी से मुलाक़ात का वक्त तय हुआ. बातचीत शुरू होते ही गांधी ने अपनी जेबी घड़ी निकाली और वक्त देखने लगे. एडमंड ने व्यंग्य में पूछा, 'मैं तो समझा था कि आप मशीनों के कट्टर दुश्मन हैं. फिर आप घड़ी का इस्तेमाल कैसे करते हैं?'

गांधीजी ने जवाब दिया, 'मैं इसका उपयोग करके अपने सिद्धांतों के विरुद्ध आचरण नहीं कर रहा हूं, मैं मशीन का नहीं, बल्कि संगठित मशीनवाद का विरोधी हूँ. आज आपकी सभ्यता का आधार बन गई इस प्रणाली को मैं मानव-समाज पर आ सकने वाला सबसे बड़ा ख़तरा मानता हूं. अगर मैं घड़ी का उपयोग करता हूं तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं उसका ग़ुलाम बन गया हूं. लेकिन जब यंत्र एक संगठित संस्था का रूप लेता है तब तो मनुष्य उसका ग़ुलाम ही बन जाता है और सृष्टा से वरदान के रूप में प्राप्त अपने समस्त मूल्यों को खो बैठता है.'

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एडमंड बीच में बोल पड़े, 'आप ईश्वर की बात कहते हैं, लेकिन आपका ईश्वर मेरा ईश्वर तो नहीं है.' गांधी ने कहा, 'लेकिन, आपका ईश्वर तो मेरा भी है क्‍योंकि मैं आपके ईश्वर में भी विश्वास रखता हूं बावजूद इसके कि आप मेरे ईश्वर में विश्वास नहीं करते'.

गांधी लंदन में खूब घूमे. लंदन के कई अख़बारों में लंगोट पहने अर्धनग्न गांधी की तस्वीर छापकर उनका मज़ाक उड़ाया. इस पर गांधी ने कहा, 'कुछ लोगों को मेरा ये पहनावा अच्छा नहीं लगता, इसकी आलोचना की जाती है, मज़ाक उड़ाया जाता है. मुझसे पूछा जाता है कि मैं इसे क्‍यों पहनता हूं. जब अंग्रेज लोग भारत जाते हैं तब क्‍या वे यूरोपीय पोशाक को छोड़कर भारतीय पोशाक पहनने लगते हैं? जो वहां की आबोहवा के लिए बहुत ज़्यादा उपयुक्त है? नहीं, वे तो ऐसा नहीं करते.'

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महात्मा गांधी का जिक्र आता है तो अक्सर दो तरह की तस्वीरें जेहन में आती हैं.

गांधी पत्रकारों को समझाते, 'मेरी लंगोटी पहनने के लिए नहीं पहनी गई है बल्कि मेरे जीवन में जो परिवर्तन होते गये हैं, उनके साथ पोशाक में होने वाले परिवर्तन का वह परिणाम है.'

इंग्‍लैंड के तत्कालीन बादशाह राजा जॉर्ज पंचम ने सम्मेलन में सारे डेलिगेट्स को अपने महल में आमंत्रित किया लेकिन इस लिस्ट में गांधी का नाम नहीं था. वाइसराय, सर सैमुअल होरे गांधी को आमंत्रित करने के बारे में चिंतित थे. उनकी पहली चिंता यह थी कि क्या राजा ऐसे विद्रोही से मिलेंगे? और दूसरा सवाल था कि ब्रिटिश बादशाह से मिलने के लिए क्या गांधीजी की लंगोट वाली पोशाक आपत्तिजनक नहीं होगी?

जब ये प्रस्ताव किंग जार्ज पंचम तक पहुंचा तो वे गुस्से से भर गए, 'क्या? मैं उस विद्रोही फ़कीर को क्यों आमंत्रित करूं, जो मेरे वफादार अधिकारियों पर हमलों का सरासर जिम्मेदार है?'

कुछ समय बाद जब उनका गुस्सा थोड़ा शांत हुआ तो उन्होंने 'खुले घुटने वाले छोटे आदमी के ड्रेसिंग सेंस पर अपनी आपत्ति ज़ाहिर की. लंदन स्थित इंडिया हाउस से ये सलाह भेजी गई कि गांधी को निमंत्रण न देकर भारत और दुनिया भर में एक नया बखेड़ा खड़ा हो जाएगा.

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जॉर्ज पंचम को भेजना पड़ा निमंत्रण

लेकिन, आख़िरकार यह फ़ैसला लिया गया कि गांधी को उनकी पोशाक के बारे में कोई शर्त रखे बिना आमंत्रित किया जाना चाहिए इसलिए मजबूरन जॉर्ज पंचम को गांधी को भी निमंत्रण भेजना पड़ा.

वायसरॉय ने इस डिनर पार्टी में गांधी को सही समय पर पेश करने का ज़िम्मा लिया. गांधी ने नीचे सिर्फ घुटने के ऊपर तक छोटी सी सफेद धोती पहनी थी. ऊपर तन ढ़कने के लिए एक सफेद शॉल ओढ़ ली थी. पांव में खड़ाऊंनुमा चप्पल.

वे बकिंघम पैलेस पहुंचे. उस शानदार महल में आज तक इस वेशभूषा में कोई मेहमान नहीं आया था. गांधी सबसे अलग नजर आ रहे थे. वायसरॉय के लिए ये मुश्किल क्षण थे. गांधी के विद्रोह को भूलना जॉर्ज पंचम के लिए संभव नहीं था. पिछले पूरे एक साल, गांधी ने भारत में एक शक्तिशाली सत्याग्रह आंदोलन चलाया था. लेकिन, एक बार जब उन्होंने बातचीत शुरू की, तो यह सब काफी सहजता से चला.

जॉर्ज पंचम संवेदनशील व्यक्ति थे और गांधी का शिष्टाचार भी निर्विवाद था लेकिन उनकी बातचीत के दौरान, जब राजा की नजर एक बार गांधी के खुले घुटनों पर पड़ी, तो वायसरॉय का दिल तेजी से धड़कने लगा. अब उनकी बातचीत धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रही थी.

किंग जॉर्ज पंचम ने विदाई के समय गांधी को चेतावनी दी, 'याद रखें, मिस्टर गांधी, मैं अपने साम्राज्य पर किसी भी हमले को बर्दाश्त नहीं करूंगा.' ऐसे नाज़ुक मौक़े पर वायसरॉय भी तनाव में आ गए थे. उन्हें लगा अब शब्दों की दोतरफा जंग शुरू होगी? लेकिन गांधी की पूरी सज्जनता और संजीदगी से स्थिति को नियंत्रण में कर लिया. उन्होंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, 'महामहिम, मुझे अपने महामहिम के आतिथ्य का आनंद लेने के बाद अपने-आप को एक राजनीतिक विवाद में नहीं घसीटना चाहिए.'

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किंग जार्ज पंचम चकित थे और वायसरॉय स्तब्ध थे.

गांधी के वापस लौटने पर एक ब्रिटिश रिपोर्टर ने पूछा- 'मिस्टर गांधी, मुझे नहीं लगता कि आपने किंग से मिलने के लिए उपयुक्त कपड़े पहने थे?' गांधी ने अपनी शरारती मुस्कान के साथ जवाब दिया- 'आप मेरे कपड़ों के बारे में चिंता बिलकुल मत करें. आपके राजा ने हम दोनों के लिए पर्याप्त कपड़े पहन रखे थे.' गांधी के ये शब्द सारी दुनिया में हमेशा के लिए चर्चित हो गए.

दुनिया के मशहूर जीवनी लेखक रॉबर्ट पाएन के शब्दों में 'उनकी नग्नता बैज ऑफ़ ऑनर (सम्मान का तमगा) बन गई थी.'

अमरीकी सभ्यता के बारे में महात्मा गांधी के ख्यालात बहुत अच्छे नहीं थे. वे अमरीका को एक 'विचित्र देश' मानते थे, जो 'भौतिकवाद' से घिरा हुआ है और 'डॉलर के अलावा कोई और भाषा नहीं समझता.' वहां बिना 'बिज]नेस मैनेजर' के इधर-उधर जाना और भाषण देना संभव नहीं था. अमरीकियों के निमंत्रण पर नोबेल पुरस्कार विजेता गुरूवर रवीन्द्रनाथ टैगोर कई बार अमेरिका गए थे.

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महात्मा गांधी का चश्मा 2.55 करोड़ रुपये में नीलाम हुआ

रवीन्द्रनाथ सरल और सादे दिल के आध्यात्मिक और चिंतनशील व्यक्ति थे लेकिन अमेरिकी मीडिया ने टैगोर पर आरोप लगाया कि ये साहित्यकार केवल 'अमरीकावा‌सियों से पैसा खींचने यहां आता है.'

कई सालों से गांधी को अमरीका आने के लिए कई निमंत्रण मिलते रहे थे, पर गांधी ने कोई निमंत्रण कभी स्वीकार नहीं किया. एक बार एक अमरीकन महिला ने गांधी से पूछा, 'आप अमरीका कब पधारेगें? वहां के लोग आपका बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं!' गांधी ने मुस्कुराते हुए कहा, 'हाँ, मैंने भी सुना है कि उन्होंने मेरे लिए चिड़ियाघर में एक पिंजरा सुरक्षित कर रखा है ताकि सब लोग मुझ जैसे अजीब प्राणी के दर्शन कर सकें.' (यंग इंडिया, 9 जुलाई 1931)

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Mahatma Gandhi पर कुल कितने जानलेवा हमले हुए?

भारत में भी महात्मा गांधी की हाज़िरजवाबी के हज़ारों किस्से हैं. साल 1934 के अंत में कांग्रेस का अधिवेशन बंबई में हुआ था. अधिवेशन खत्म हुआ. सुबह आठ बजे का वक्त था. वहां के सभा-भवन में महात्मा गांधी, राजेन्द्र बाबू, सरदार वगैरह बड़े-बड़े लोग खड़े थे. सब वापस घर लौट रहे थे.

राजेन्द्र बाबू ने महात्मा गांधी के चरण-स्पर्श किए. वातावरण गंभीर हो गया. सबकी आँखें छलछला गईं. वातावरण का तनाव कम करने का जादू गांधी जानते थे. उन्होंने क़रीब में ही खड़े एक स्वयंसेवक के सिर से गांधी टोपी उतार कर सरदार पटेल के सिर पर रख दी. इस हरकत पर सब ज़ोर से हँस पड़े. गांधी भी ज़ोर से हंसने लगे. गंभीर वातावरण एक बार फिर से हंसी मजाक के महौल में तब्दील हो गया.

जिन्ना ने 16 अगस्त 1946 को 'डायरेक्ट एक्‍शन' का एलान किया था. कलकत्ता साम्प्रदायिक आग में जल उठा था. उस वक्त बंगाल के मुख्यमंत्री सुहरावर्दी थे जिनकी छवि मुस्लिम लीग के एक साम्प्रदायिक नेता की थी.

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कलकत्ते में साम्प्रदायिक हिंसा में काफी हिन्दू मारे गए थे. जिसका बदला हिन्दुओं ने बिहार में लिया. फिर बिहार के कत्लेआम का बदला बंगाल के नोआखली में हिन्दुओं से लिया गया. यहां 81 फीसदी आबादी मुसलमानों की थी. तब महात्मा गांधी ने हिंदुओं को बचाने के लिए नोआखली जाने फ़ैसला किया. नोआखली जाने के लिए महात्मा गांधी कलकत्ता पहुंचे.

कलकत्ते में बकरीद सिर पर थी. सुहरावर्दी ने गिड़गिड़ा कर गांधीजी को कुछ दिन के लिए कलकत्ते में रोक लिया ताकि कलकत्ता एक बार फिर हिंसा के हवाले न हो जाए और सुहरावर्दी के माथे पर फिर कलकत्ते के कारण कलंक का टीका न लगे. उधर नोआखली में फिर हिंसा की आशंका थी. तब गांधीजी ने सुहरावर्दी से कहा, 'मैं कलकत्ते की रक्षा करूंगा तो आपको नोआखली की हिफाजत करनी होगी.'

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महात्मा गांधी को ये चिंता हमेशा सताती थी

सुहरावर्दी ने ख़ुद इसके लिए गांधी के आगे कसम खाई. अपनी पहली ही भेंट में गांधीजी ने मज़ाक में मुख्यमंत्री से पूछा था, 'क्या बात है कि हर आदमी आपको गुंडों का सरदार कहता है? कोई भी आपके बारे में अच्छी बात नहीं कहता!'

सुहरावर्दी ने तीखा जवाब दिया, 'महात्मा जी, क्या आपकी पीठ के पीछे आपके बारे में भी लोग तरह-तरह की बातें नहीं करते?' गांधीजी ने हंसते हुए तुरंत जवाब दिया- 'ऐसा हो सकता है. फिर भी कम-से-कम कुछ आदमी तो ऐसे हैं, जो मुझे महात्मा कहते हैं लेकिन मैंने कलकत्ते में एक भी आदमी को सुहरावर्दी को महात्मा कहते नहीं सुना है!' (महात्मा गांधी : पूर्णाहुति, भाग 2, प्यारेलाल पेज 11-12)

तो ऐसे थे महात्मा गांधी. दुनिया में गांधी के बहुत आलोचक हुए लेकिन उनसे प्रभावित हुए बिना रह पाना उनके कट्टर से कट्टर आलोचक के लिए असंभव है. यही वजह है कि दुनिया आज भी गांधी को याद करती रहती है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और उन्होंने 'महात्मा गांधी : ब्रह्मचर्य के प्रयोग' नाम की चर्चित किताब लिखी है.)