कर्नल कालिज स्नेह जंगल में खेमा क्यों लगाया हुआ था? - karnal kaalij sneh jangal mein khema kyon lagaaya hua tha?

सात - आठ दिन हुए, गुदड़ी बाजार की ओर चला गया था। वहाँ एक मोटी, जिल्द बँधी कॉपी एक दुकान पर मिली। दीमकों ने उसका जलपान भी किया था। देखने पर एक डायरी निकली। लेफ्टिनेंट पिगसन सन् 1921 में भारत आये थे। यह डायरी दो साल की है। अन्त के कुछ पृष्ठ नहीं हैं। डायरी कितनी मनोरंजक है, पढ़ने से पता चलेगा।

बम्बई का होटल

परसों तीन बजे मेरा जहाज बम्बई पहुँचा। जहाज से उतरकर एक टैक्सी पर मैं होटल पहुँचा। मेरे एक मित्र ने यहीं एक कमरा ठीक कर दिया था। कानपुर जाने के पहले मैंने बम्बई देख लेना उचित समझा। जिस होटल में ठहरा हूँ उसके जितने ब्वॉय हैं, सब बड़े लम्बे-लम्बे कोट पहने हैं। जान पड़ता है यहाँ कपड़ा बहुत सस्ता है और उनका पतलून पाँव से चिपका हुआ रहता है, शायद इसलिये कि छिपकली या चूहे भीतर घुस न जायें क्योंकि जिस कमरे में मैं सोता हूँ उसकी छत पर छिपकलियाँ कुश्ती लड़ा करती हैं। जिस दिन यहाँ आया उसके दूसरे दिन सवेरे चाय पी रहा था। दो छिपकलियाँ नेपोलियन और वेलिंगटन की भाँति लड़ने लगीं; और एक पट् से मेरी मेज पर गिरी। मैंने मैनेजर को उसी दम बुलाया और शिकायत की। उसने कुछ कहने के पहले मुझे बधाई दी कि चाय में नहीं गिरी और ठीक भी है। यदि वह चाय में गिरती तो उसे कौन रोक सकता था? इतना मैं कह सकता हूँ - छिपकली में समझ थी। गिरने के बाद उसने मेरी ओर देखा। अंग्रेजों का भय भारतवर्ष के मनुष्यों में ही नहीं, भारत की छिपकली भी अंग्रेजों से डरती है। मुझे देखते ही भागी। मक्खन और टोस्ट रखा था। उस ओर देखने का भी साहस नहीं हुआ। अब मुझे मालूम हुआ कि अंग्रेज लोग भारत पर कैसे शासन कर पाते हैं।

मैंने मैनेजर से कहा कि मुझे दूसरा कमरा दीजिये। मैनेजर ने कहा कि बदल देने में कोई हरज नहीं, परन्तु लोग क्या कहेंगे कि एक सैनिक अफसर छिपकली के भय से कमरा छोड़कर भाग रहा है। यह भारतवर्ष है। यहाँ तो आपको अजगर, कोबरा, गेहुँअन और करइत पग-पग पर मिलेंगे। प्रसन्नता की बात है कि आपका जीवन छिपकली के संग्राम से आरम्भ हुआ।

मैनेजर सेना से अवकाश प्राप्त कर चुका था। वह कई बड़ी लड़ाइयाँ लड़ चुका था। उसका भारतवर्ष में बड़ा अनुभव था, इसलिये मुझे चुप रह जाना पड़ा। मैं चाय पीकर बम्बई घूमने निकला। मेरे साथ एक गाइड था। उसकी अंग्रेजी शेक्सपियर से भी अच्छी थी। मैंने लड़कपन में स्कूल में शेक्सपियर का एक नाटक पढ़ा था। उससे भी सुन्दर अंग्रेजी मेरे गाइड की थी। बिना क्रिया के वाक्य बोलता था, जो बहुत सुन्दर लगते थे। उसने अंग्रेजों की बड़ी तारीफ की। अंग्रेजों से भारतवासी बहुत प्रसन्न हैं।

बम्बई नगर में कोई विशेष बात मैंने नहीं देखी। हाँ, यहाँ स्त्रियों को सड़क पर आते-जाते देखा। लन्दन में मेरे एक मित्र ने, जो भारत से लौटा था, कहा कि भारत में स्त्रियाँ कमरों में बन्द रहती हैं और त्योहारों के दिन कमरे से बाहर निकलती हैं। परन्तु यहाँ मैंने दूसरी ही बात देखी। स्त्रियाँ उसी प्रकार दुकानों पर सौदा खरीदती हैं जैसे लन्दन में। हाँ, एक नई बात यहाँ की स्त्रियों में मैंने देखी। यहाँ स्त्रियाँ स्कर्ट और जैकेट नहीं पहनतीं। रंग-बिरंगे बिना सिले कपड़ों को अपने शरीर पर लपेटे रहती हैं। वह किस प्रकार यह कपड़ा लपेटती हैं, मैं कह नहीं सकता, परन्तु देखने में बहुत आकर्षक जान पड़ता है। स्कर्ट इन कपड़ों के भीतर होता है।

मैं कार से उतरकर मैरीन ड्राइव पर टहल रहा था। चार स्त्रियाँ एक साथ जा रही थीं। चारों के कपड़े चार रंग के थे। मुझे उनका पहनावा बहुत भला लगा। मैंने गाइड से पूछा - 'इस कपड़े को क्या कहते हैं?' उसने कहा - 'सारी'।

मुझे दुःख हुआ। मैंने कहा - 'मैं यहाँ की रीति नहीं जानता, इसलिये यदि शिष्टता के विपरीत कोई बात हो तो क्षमा कीजियेगा।' उसने कहा - 'ऐसी तो कोई बात नहीं है।' मैंने कहा कि आपने तब खेद क्यों प्रकट किया। गाइड ने कहा - 'मैंने दुःख नहीं प्रकट किया। इस पहरावे का नाम सारी (साड़ी) है।'

मैंने गाइड से एक सारी खरीदने की इच्छा प्रकट की। बात यह थी कि मैं एक फोटो ऐसी लेना चाहता था जिसमें एक स्त्री सारी पहने हो। ऐसी स्त्री की फोटो मैं कैसे लेता; इसलिये मैंने सोचा कि एक खरीदकर किसी को पहनाकर उसकी फोटो ले लूँगा। गाइड मुझे एक कपड़े की दुकान पर ले गया। लन्दन की दुकान से किसी भी अवस्था में वह दुकान कम नहीं थी।

एक सारी आठ रुपये में मुझे मिली। कभी-कभी इंग्लैंड में मैं सुना करता था कि हिन्दुस्तान के लोग गरीब हैं। यद्यपि अधिकांश लोग यही कहते  थे कि यह गप है। हिन्दुस्तान के लोग बहुत धनी हैं और यहाँ के धन का इसलिये पता नहीं लगता क्योंकि यह अपना बैंक धरती के नीचे बनाते हैं। जहाँ स्त्रियाँ इतने महँगे कपड़े पहनती हैं वह देश कैसे गरीब हो सकता है?

दुकान पर एक और बात हुई। मेरे जाते ही सब लोगों ने और ग्राहकों को छोड़ दिया और मेरी ही ओर आकर्षित हुए। सम्भवतः मेरा रंग इसके लिये जिम्मेदार था। उस समय ऐसा जान पड़ा कि अकेला मैं ही एक ग्राहक हूँ। जो ग्राहक और थे, वह भी मेरी ओर देखते थे। मैं अपने को बहुत भाग्यशाली समझता हूँ कि इस देश में मेरा इतना आदर हो रहा है। लन्दन की सड़कों पर मैं प्रति दिन घंटों घूमता था, पर मेरी ओर किसी ने ताका भी नहीं और यहाँ लखपति दुकानदार मेरे लिये खड़े हो गये। मैंने तो समझा कि मेरा इतना आदर हो रहा है कि शायद मुझे एक सारी मुफ्त में मिल जाये। परन्तु ऐसा तो नहीं हुआ।

सारी लेकर जब मैं होटल में लौटा तब गाइड से मैंने कहा कि सारी आप पहन लीजिये। मैं एक चित्र खींचना चाहता हूँ। परन्तु उसने कहा कि मैं ऐसे तस्वीर नहीं खिंचवा सकता। तब मैंने कैमरा ठीक करके कहा कि अच्छा, मैं सारी पहनता हूँ और आप तस्वीर खींच लीजिये। फोटो बहुत आवश्यक थी, क्योंकि सारी मुझे बहुत पसन्द आयी और सारी पहने हुए महिला का चित्र मैं मिस स्पैरो को भेजना चाहता था। मैं उससे प्रेम करता हूँ।

मैं तो सारी पहनना जानता नहीं था। गाइड ने मुझे सारी पहनायी और मेरा चित्र लिया गया। मगर फोटो खराब हो गया क्योंकि सारी कुछ ऊपर उठ गयी और दोनों पाँवों का पतलून दिखायी देने लगा।

रेलगाड़ी में

तीन दिनों तक बम्बई रहने के बाद मैं कानपुर के लिये रवाना हुआ। बम्बई में कोई विशेष बात नहीं हुई। मैं जिस गाड़ी से चला उसका नाम बम्बई मेल है। काफी तेज है। रात का तो मुझे पता नहीं, परन्तु दिन में इतनी धूल गाड़ी में आती है कि शायद स्त्रियों को पाउडर लगाने की आवश्यकता न पड़े।

मुझे हल्की-हल्की नींद आ रही थी कि गाड़ी एकाएक खड़ी हो गयी और जोरों का शोर हुआ। जान पड़ा कि कहीं लड़ाई हो गयी है। यद्यपि गोली या तोप की गड़गड़ाहट नहीं सुनायी पड़ी, परन्तु कोलाहल ऐसा ही था। मैं अपने डब्बे के फाटक पर आ गया। देखा कि मुसाफिर लोग इस जोर से डब्बे की ओर चले जैसे क्षय के कीटाणु कमजोर फेफड़ों पर आक्रमण करते हैं।

ऐसे समय मुझे एक बात देखने में आयी जिससे मेरे रोंगटे खड़े हो गये। मैंने कभी भूत पर विश्वास नहीं किया। अनेक कहानियाँ भूतों की पढ़ी हैं, परन्तु उन्हें कभी मैंने सच नहीं समझा।

सवेरे का समय, कोई आठ बज रहे होंगे। दिन काफी चढ़ चुका था। भीड़ भी स्टेशन पर बहुत थी। मैं क्या देखता हूँ कि उसी भीड़ में से एक आदमी के बराबर कपड़े की मूर्ति प्लेटफार्म पर चल रही है। न हाथ है न पाँव। भारत के सम्बन्ध में अनेक कहानियाँ सुन रखी थीं। लन्दन की सड़क पर यदि ऐसी घटना हो तो तहलका मच जाये। परन्तु यहाँ तो किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। सम्भव है कि यह भूत मुझे ही दिखायी पड़ा हो और लोग उसे न देख रहे हों।

परन्तु उस समय की मेरी घबराहट का कोई अनुमान नहीं कर सकता जब मैंने देखा कि भूत मेरी ही ओर आ रहा है। फिर देखता हूँ कि एक आदमी भी उसके साथ आगे-आगे है। उस आदमी की बहुत लम्बी दाढ़ी थी। अवश्य ही वह जादूगर था और भूत को लिये टहल रहा था। परन्तु उसका साहस तो देखिये कि इतनी भीड़ में दिन-दहाड़े भूत को लिये घूम रहा है!

देखते-देखते वह जादूगर आगे-आगे, और भूत पीछे-पीछे मेरे डब्बे के दरवाजे के आगे पहुँच गये। मेरे रोंगटे खड़े हो गये। पसीने से कमीज भीग गयी, पाँव के दोनों घुटने आपस में टकराने लगे। मैंने आँखें मूँद लीं, मुँह गाड़ी में भीतर की ओर कर लिया और अन्दर से हैंडिल जोर से पकड़कर दरवाजे से सटकर खड़ा हो गया। एक मिनट भी न बीता होगा कि बाहर से किसी ने दरवाजे पर धक्का दिया। मेरे हृदय की गति रुकने लगी। आँख खोलने का साहस न हुआ। किसी दैवी शक्ति की प्रेरणा से हैंडिल को अधिक जोरों से पकड़ लिया।

दरवाजे पर फिर एक धक्का हुआ और इस बार अंग्रेजी में किसी ने कहा - 'कृपा कर हट जाइये और दरवाजा खोलिये।' पता नहीं अंग्रेजी में जादूगर ने कहा कि भूत ने। जान पड़ता है कि भारत में अंग्रेजी खूब प्रचलित है। जादूगर यदि बोला था तो उसकी भाषा बहुत शुद्ध थी। जादूगर ही था। उसे क्या! कोई भी भाषा बोल सकता था। परन्तु मैं दरवाजा खोलकर अपनी जान क्यों आफत में डालता?

इतने में गाड़ी ने सीटी दी। मैंने सोचा, जान बची। परन्तु भूत और उसके साथ जादूगर! जो न कर डाले।

फिर आवाज आयी - 'प्लीज' और जोर से दरवाजे पर उसने धक्का दिया और उसने कुछ कहा, पता नहीं कोई मन्त्र पढ़ा अथवा भूत से कुछ बात की। उस भूत ने पटरी पर पाँव रखा। मैं चिल्लाकर अपनी सीट पर गिर गया।

मैं कितनी देर बेहोश रहा, कह नहीं सकता। सम्भवतः बीस मिनट तक रहा हूँगा। गाड़ी सर्राटे के साथ चली जा रही थी। मुझे होश आ गया परन्तु आँखें खोलने का साहस नहीं होता था। पर बरबस आँख खुल गयी। उस समय उस जादूगर की करामात देखकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उस भूत को उसने स्त्री बना दिया। कपड़ा तो चारों ओर वैसा ही था। केवल चेहरा मुझे दिखायी दिया। परन्तु ज्यों ही मेरी और उसकी आँखें चार हुई; उसने तुरन्त अपना मुँह ढक लिया। केवल दो मिनट मैंने उसका चेहरा देखा। सचमुच वह चुड़ैल थी, जिसे जान पड़ता है इस जादूगर ने बाँध रखा था।

मैं सोचने लगा कि यह कैसा जादूगर है? इसे क्यों लिये जा रहा है? इसने यदि इसे बनाया है तो कपड़े से ढकने की क्या आवश्यकता थी? मैं अपनी सीट पर बैठ गया। इधर-उधर देखकर एक उपन्यास निकाला, पर पढ़ने में जी नहीं लगा।

थोड़ी देर बाद उसी ने मुझसे पूछा - 'आप कहाँ जायेंगे?' मैंने कहा - 'मैं कानपुर जाऊँगा।' मैं चुप रहा। मुझे पूछते भय लगता था। कहीं मुझे कुछ बना दे! सोचते-सोचते मुझमें कुछ साहस आया। मेरा पिस्तौल मेरे बक्स में था। वह गार्ड के डिब्बे में था। नहीं तो कोई कठिनाई न होती। फिर भी मैंने पूछने की हिम्मत की। पूछा - 'आप कहाँ जायेंगे?'

'लखनऊ।'

'यह आपके साथ क्या है?'

'क्या मतलब आपका?'

मैं कुछ घबरा-सा गया। बोला - 'क्षमा कीजियेगा। मेरा मतलब है, वह आपके साथ कौन है?'

मेरा प्रश्न सुनकर जान पड़ता था वह कुछ नाराज-सा हुआ। परन्तु वह बिगड़ा नहीं। गम्भीर मुद्रा में उसने उत्तर दिया - 'यह मेरी स्त्री है।'

मुझे सुनकर विश्वास नहीं हुआ। स्त्री है तो इस भाँति चोगे में लपेटने की क्या आवश्यकता थी? मुझे जानने की बड़ी उत्सुकता हुई। मैं अधिक जानना चाहता था। मैंने उसके बारे में पूछा तो पता चला कि वह लखनऊ में सरकारी नौकर - डिप्टी कलक्टर है। मेरी बार-बार इच्छा होती थी कि पूछूँ - आपने अपनी स्त्री को इस प्रकार क्यों रखा? एक कारण यह हो सकता था कि उसका चेहरा सुन्दर और अच्छा नहीं था और यह सरकारी नौकर अच्छे पद पर थे। लोग इनकी स्त्री को इस प्रकार देखेंगे तो इन्हें लज्जित होना पड़ेगा।

नशे की झोंक

गाड़ी अपनी गति से चली जा रही थी। डिप्टी से धीरे-धीरे बात भी आरम्भ हो गयी और उसी बात में पता चला कि उसके धर्म में लिखा है कि स्त्रियाँ इसी प्रकार कपड़ों से अपना शरीर ढककर बाहर निकला करें। ऐसे धर्म के सम्बन्ध में मुझे और जानकारी प्राप्त करने की आकांक्षा हुई और उनसे और भी बातें हुईं। धीरे-धीरे उनसे एक प्रकार की मित्रता भी हो गयी।

थोड़ी देर बाद एक स्टेशन आया और उन्हें प्यास लगी। उन्होंने किसी को पुकारा और स्वयं एक पुरानी केटली लेकर पानी के लिये दरवाजे पर खड़े हो गये। एक सरकारी नौकर वेतन तो काफी पाता ही होगा, फिर भी गिलास न लेकर केटली में पानी लेना मेरी समझ में नहीं आया। सम्भव है यह भी उनका धर्म हो। क्योंकि मैंने सुना है हिन्दुस्तान में धर्म ने विचित्र-विचित्र आज्ञायें दे रखी हैं। परन्तु इससे भी आश्चर्य की बात यह जान पड़ी कि इस देश में पानी दो प्रकार का होता है। कोई ऐसा देश नहीं जहाँ पानी दो तरह का हो। मैंने अभी दोनों को देखा नहीं था। मुझे ऐसा पता चला कि गाड़ी छूट चली, परन्तु वह खाली केटली लिये लौटे। मैंने पूछा तो उन्होंने कहा कि वह हिन्दू का पानी था। मैं मुसलमानी पानी पीता हूँ। जान पड़ा कि खाना भी ऐसा ही होता है।

तीन बजे मेरे जलपान का समय हो गया। स्टेशन आते ही मैंने जलपान के लिये होटलवाले को आज्ञा दी। उनके लिये मैंने जलपान मँगाया। उनकी श्रीमतीजी ने दूसरी ओर मुँह करके चाय पी, इस प्रकार जिससे मैं न देख पाऊँ। जलपान के बाद मैंने दो बोतल व्हिस्की लाने को कहा और दो गिलास।

जब मैंने उन्हें दिया तब उन्होंने जोरों से इन्कार कर दिया। बोले - 'मेरे तो धर्म में इसको देखना पाप है। आप भले आदमी हैं, इसलिये आपको अपने सामने पीने दिया, नहीं तो भला सामने कोई पी तो ले।' मैं पी रहा था। गाड़ी चली जा रही थी। उनकी स्त्री शौचालय में गयीं। ज्यों ही वह भीतर चली गयीं, डिप्टी साहब मुँह बनाकर बोले - 'क्षमा कीजिये। मैं उनके सामने नहीं पीता। अब पी सकता हूँ।' मैंने पूछा - 'अभी तो आप कह रहे थे कि धर्म के विरुद्ध है।' उन्होंने कहा - 'बात यह है कि अरब में तो जुरूर मना है और धर्म के विरुद्ध भी है। स्त्रियों के सामने पीना जरा ठीक नहीं। स्त्रियाँ डर जाती हैं। बात यह है कि हमारे यहाँ कहा गया है कि शराब में शैतान रहता है। इसलिये स्त्रियाँ यदि पियें या देख लें तो उनके ऊपर बुरा असर पड़ता है। हम लोग स्वतन्त्र आदमी हैं। इसलिये शैतान का कोई प्रभाव हमारे ऊपर पड़ नहीं सकता।'

मैंने दूसरे गिलास में उँड़ेलकर उन्हें दिया। उन्होंने जैसे ही मुँह लगाया, शौचालय के खुलने की आवाज आयी। झट से सारा गिलास मुँह के भीतर उँड़ेल लिया और हाथ में गिलास लेकर कहने लगे - 'देखिये विलायत में कैसे सुन्दर गिलास बनते हैं। यहाँ दो-एक स्थान पर बनते भी हैं पर उनमें सफाई नहीं। ऐसे गिलास में पानी पीने का मन करता है। कितना सुडौल, कितना साफ और बनावट देखिये। बिल्कुल ढोल के समान।'

एक घूँट में आधा गिलास व्हिस्की पीने का प्रभाव दस ही मिनट में उनके ऊपर आ गया। वह लगे गाने। क्या गा रहे थे, यह तो मैं नहीं समझ सका, परन्तु वह जोर-जोर से गाने और झूमने लगे। मेरा भी पाँव ताल देने लगा।

अब तो दूसरी बोतल भी खुली और मैंने एक गिलास में भरकर पीना आरम्भ किया। इस बार दूसरे गिलास में भरकर वह स्वयं पी गये। अबकी बार उन्होंने अपनी श्रीमती के कारण संकोच नहीं किया।

डिप्टी साहब गाना ठीक गा रहे थे या केवल चिल्ला रहे थे, कौन जाने! परन्तु मुझे पाँव चलाते-चलाते नाचने की धुन सवार हो गयी। मैं खड़ा हो गया और नाचने लगा। डिप्टी साहब हाथ से ताली बजाने लगे और जोर से गाने लगे।

मैं नाचने लगा। मगर अकेले नाचना ऐसा ही मालूम होता था जैसे मक्खन के बिना रोटी खाना। मैंने डिप्टी साहब को दोनों हाथों से पकड़ लिया। वह तो घबरा उठे और चिल्ला पड़े - 'खून! खून!!' - और अपनी स्त्री का चोगा पकड़ने के लिये उन्होंने हाथ बढ़ाया। डिप्टी साहब कमजोर थे। मैंने उन्हें सीने से चिपका लिया और लगा घूम-घूमकर वाल्ज (एक प्रकार का नाच) नाचने। पहले तो डिप्टी साहब घबराये, परन्तु मैंने उन्हें नहीं छोड़ा और आध घंटे तक हम लोग नाचते रहे। मुझे तो बड़ा आनन्द आया। केवल डिप्टी साहब की दाढ़ी साही के काँटे की भाँति मेरे मुख को रह-रहकर छेदती थी। जब मुझे विशेष कष्ट होने लगा तब बायें हाथ से मैंने उनकी दाढ़ी पकड़ ली और दाहिने हाथ से उनको हृदय से लगा घूमता था।

सैकड़ों बार जीवन में मैंने नाचा था। परन्तु पुरुष के साथ नाचने का जीवन में पहला अवसर था। वह आनन्द तो नहीं आया, परन्तु थोड़ा आनन्द तो जुरूर आया ही। यह नाच और भी चलता, परन्तु नाचते-नाचते पता नहीं किस वस्तु में उनका लम्बा कोट फँस गया और झटका लगा। जिस झटके के तीन परिणाम हुए। उनके लंबे कोट का आधा भाग सारे कोट से अलग हो गया जैसे अमरीका इंग्लैंड अलग हो गये थे। उनकी दाढ़ी के चौथाई बाल मेरे हाथ में आ गये और वह बर्थ पर गिरे और उन्हीं के पेट पर मैं भी। यह घटना देखकर कपड़े के अन्दर से उनकी स्त्री ऐसे चिल्लायी जैसे किसी कुतिया का किसी ने कान पकड़कर खींच लिया हो।

परन्तु हम दोनों तो उठ खड़े हो गये और हँसने लगे। डिप्टी साहब के कोट का - जिसका नाम उन्होंने 'शेरवानी' बताया - पीछे का चौथाई भाग फर्श से लिपटा हुआ था। उसकी उन्हें चिन्ता न थी। नौकर सामान लिये किसी दूसरे डब्बे में बैठा था। आगे बदल लेंगे। उन्हें चिन्ता अपनी एक चौथाई दाढ़ी की थी।

यह इत्तफाक था कि झटका कुछ इस प्रकार लगा कि बीच के एक चौथाई बाल टूट पड़े। उन्होंने कहा कि इस बीच के बाल के लिये क्या किया जाये। बाल अभी तक मेरे हाथ में ही थे। मैंने उन्हें देकर कहा - 'इससे काम चल सके तो लीजिये। इसीलिये मैंने इसे नहीं फेंका। ऐसे बहुत-से प्लास्टर हैं जिनसे यह फिर जमाये जा सकते हैं और कुछ तो काम दे ही सकते हैं। यदि कुल मुंडा देने में आपको आपत्ति है तो किसी प्रकार इसको वहीं चिपका लीजिये।'

जहाँ से बाल उखड़ गये थे वहाँ उन्हें पीड़ा होने लगी। इधर अब उनका ध्यान गया। यहाँ दवा क्या मिलती। एक बार मुझे घुटने में चोट लगी थी तब मैंने व्हिस्की मल दी थी। वह मेरे मित्र हो गये थे और मेरे साथ नाच में उन्हें यह कष्ट हुआ था इसलिये उनकी सहायता करना मेरे लिये आवश्यक था।

दोनों बोतलों में जो थोड़ी व्हिस्की रह गयी थी, हथेली पर उँड़ेलकर मैंने उनकी दाढ़ी में, जहाँ से बाल उखड़ गये थे, मल दी। मलते ही वह उछलकर लगे नाचने। परन्तु इस बार वह अकेले। तब तक कानपुर स्टेशन आ गया।

मौलवी साहब

कानपुर में मुझे एक बँगले में रहने के लिये स्थान मिला। उस बँगले के आधे भाग में दूसरा अफसर रहता था। चौबीस अफसर अंग्रेज थे और अट्ठाइस हिन्दुस्तानी। उन लोगों के लिये अलग बँगले बने थे। अंग्रेजी सिपाही यहाँ कम थे; केवल तीन सौ के लगभग और अट्ठाइस सौ हिन्दुस्तानी सिपाही थे।

यहाँ आने पर मुझे कई पुस्तकें पढ़ने को मिलीं जिनमें क्लाइव की जीवनी थी, सेना के नियम के सम्बन्ध में एक पुस्तक थी, भारत का इतिहास था। मेरे अफसर थे उस समय कर्नल शूमेकर। उन्होंने मुझसे थोड़ी-सी यहाँ की भाषा सीखने के लिये कहा।

उन्होंने कहा - 'यद्यपि यह आवश्यक नहीं है, लेकिन तुम नये आदमी हो। यहाँ बहुत दिनों तक रहना होगा। सीख लोगे तो बहुत से कामों में आसानी होगी।' वह तीस साल तक भारत के अनेक भागों में रह चुके थे और बहुत अनुभवी थे। उन्होंने कहा - 'यहाँ कई भाषायें बोली जाती हैं, सब तो तुम सीख नहीं सकते। दो मुख्य भाषायें हैं जो इस प्रान्त में बोली जाती हैं - एक को कहते हैं हिन्दी, दूसरी को कहते हैं उर्दू; और एक इन दोनों के बीच की भाषा है हिन्दुस्तानी।'

मैंने कहा - 'मैं तो जानता नहीं। जो आप कहें, मैं सीख लूँ। मैं जब से इस देश में आया हूँ, यह मुझे बहुत मनोरंजक स्थान लग रहा है। इसलिये यहाँ की भाषा अवश्य सीखूँगा और जो तीन भाषायें आपने बतायी हैं, उनका अन्तर भी बता दें, तो मैं भी कुछ राय दे सकूँ।

कर्नल साहब थोड़ी देर तक आँख मूँदकर कुछ सोचते रहे, फिर बोले - 'मैं तुम्हें समझा दूँ - उर्दू भाषा महिलाओं की अलकें हैं। जैसे यह बड़े नाज से पाली जाती हैं। बढ़िया-बढ़िया तेल और सेण्ट लगते हैं, कपोलों पर झूलती है और आगे नहीं पीछे की ओर इन्हें खींचते हैं, वैसी ही उर्दू भाषा है। टेढ़ी-मेढ़ी लिखी जाती है, बड़े नाज से दरबारों में इसकी कदर होती है, श्रृंगार से इसका साहित्य ओतप्रोत है।

'और हिन्दी पुरुषों की दाढ़ी है। सीधे उगती है, मूँड़ते चलिये परन्तु बढ़ती जायेगी।'

मैंने पूछा - 'मेरी समझ में कुछ ठीक तो नहीं आया। यह हिन्दुस्तानी क्या है?' उन्होंने कहा - 'यह हिन्दी पर उर्दू की कलम लगायी गयी है जो अभी उगी नहीं है, अंकुरित हुई है।'

मैंने पूछा - 'तो आपकी क्या राय है? मैं कौन-सी भाषा आरम्भ करूँ और कौन पढ़ायेगा?'

कर्नल साहब ने कहा - 'तुम उर्दू सीखो। यहाँ जो और अफसरों को पढ़ाता है, वही तुम्हें भी पढ़ा देगा।'

सप्ताह में तीन दिन के लिये पच्चीस रुपये मासिक पर पढ़ाने के लिये कर्नल साहब ने अध्यापक ठीक कर दिया। कर्नल साहब ने मुझे यह भी बता दिया कि यहाँ पर अध्यापकों को किस भाँति सलाम किया जाता है। कैसे उनका आदर किया जाता है। उन्होंने कहा कि उन्हें 'मौलवी साहब' कहा जाता है।

मैं कानपुर के सम्बन्ध में कुछ लिखना चाहता था, किन्तु पहले दिन जो मौलवी साहब से बातचीत हुई वह मनोरंजक है। इसलिये उसे पहले लिख डालता हूँ।

सोमवार का दिन था। सन्ध्या समय मौलवी साहब आये। मैं हॉकी मैच खेलकर लौटा था और सोडा-बर्फ पी रहा था। मौलवी साहब बहुत लम्बा कोट, वही रेल के डिप्टी साहब की भाँति पहने हुए थे। दाढ़ी भी वैसी ही थी। जान पड़ता है कि कोट जितना लम्बा होता है, उसी के अनुपात में दाढ़ी भी लम्बी रखनी पड़ती है। दाढ़ी का रंग लाल था जैसे कनस्तर पर लगा हुआ मोरचा। वह जब आये तब मुँह में कुछ चबा रहे थे, जिससे उनके दाँत, जीभ और होंठ लाल हो रहे थे। उनका पतलून विचित्र ढंग का था जो उनके पतले पाँव के बाहर झूल रहा था। पाँव में मोजे नहीं थे और जूता न पंप था, न ऑक्सफोर्ड? विचित्र ढंग का था। टोपी लम्बी और लाल थी और टोपी के ऊपर एक काली पूँछ भी थी।

उन्हें देखते ही मैं खड़ा हो गया और कर्नल साहब की बात भूल गया और कह बैठा - 'मौलवी साहब, गुड ईवनिंग' पर उन्होंने बुरा नहीं माना। मुस्कराते हुए बैठ गये और जेब से एक पुलिन्दा निकाला। मौलवी साहब अंग्रेजी जानते थे। उन्होंने उस पुलिन्दे में से सर्टिफिकेट दिखाना आरम्भ किया। फिर लगे अपनी आत्मकथा कहने।

उन्होंने कहा - 'मैं खास शाहजहाँ के घराने का हूँ। यदि थोड़ा झगड़ा न होता तो शाह आलम के स्थान पर मेरे नाना के ससुर के साढ़ू के दादा ही भारत के सम्राट होते और आज मैं इस देश का शासक होता। मैंने सैकड़ों कमांडर-इन-चीफों को पढ़ाया, जनरलों और कप्तानों की तो गिनती नहीं। जो और मौलवी साल-भर में पढ़ाते हैं, मैं एक सप्ताह में पढ़ा देता हूँ। बड़े लाट यदि मेरे सब सर्टिफिकेट देख लें तो फिर छोड़ें नहीं। इसी डर से मैंने उन्हें दिखाया नहीं; उनसे मिलता भी नहीं।

'पहासू के नवाब मुझे देखते हैं तो घंटों खड़े रहते हैं। मैंने कई बार कहा कि आप ऐसा न करें, पाँव दुखने लगेंगे, किन्तु उन्होंने नहीं माना।'

मैंने पूछा - 'आप पढ़ाई कब से आरम्भ करेंगे? आप ऐसे योग्य अध्यापक से तो मैं बहुत उर्दू सीख लूँगा।'

मौलवी साहब ने कहा - 'पढ़ाने की बात क्या है, लोग पढ़ते नहीं। तीन-चार महीने पढ़कर छोड़ देते हैं। आप एक साल पढ़ लें। फिर देखें। लोग समझ नहीं सकेंगे कि आप विलायत के रहनेवाले हैं; यही समझेंगे कि आप ईरान से आये हैं।'

मैंने कहा - 'कोई किताब?'

मौलवी साहब बोले - 'किताब की कोई जुरूरत नहीं है मगर रख लें तो अच्छा ही है। यों न भी रखें तो कोई बात नहीं है। मैं काफी हूँ। मगर किताब रहेगी तो बेहतर होगा। किताब बिना काम चल सकता है - मगर आप ले ही लें तो ठीक होगा।'

मैंने कहा - 'आप एक बात ठीक बताइये।'

वह बोले - 'ठीक! तो क्या कीजियेगा लेकर। अच्छा ले ही लीजिये। दो रुपये दे दीजिये, मैं कल लेता आऊँगा।' मैंने उन्हें दो रुपये किताब के लिये दिये। उस दिन मौलवी साहब ने अपना आत्मचरित ही सुनाया; जिससे पता चला कि वह शाही वंश के हैं। अब यों ही पढ़ाकर पेट पालते हैं। चलते समय मेरी मेज पर से सिगरेट की डिबिया उठाते हुए बोले - 'मैं एक इसमें से ले लूँ?'

मैंने कहा - 'आप सब ले जाइये।' इस पर वह बहुत प्रसन्न हुए और मेरी बड़ी प्रशंसा की।

बाजार की सैर

मौलवी साहब मुझे पढ़ाने आने लगे। उन्होंने कैसे-कैसे पढ़ाया, मैं आगे लिखूँगा। आज जो विशेष बात हुई उसके सम्बन्ध में लिख देना आवश्यक समझता हूँ। सवेरे परेड के पश्चात् मैंने कर्नल साहब से कहा कि मैं नगर देखना चाहता हूँ। उन्होंने कहा कि सेना के लोगों को यों नगर में जाने की आज्ञा नहीं है। मैंने पूछा - 'इसका कोई कारण है?' कर्नल साहब ने कहा - 'यहाँ नगरों में देखने योग्य कुछ होता नहीं। यहाँ के नगर तो निर्धन हैं ही, बहुत खराब भी हैं।

'यहाँ के नगरों के नाम से ही पता चलता है कि उनमें कितनी निर्धनता है। देखा - कान-पुअर, मिर्जा-पुअर, गाजी-पुअर, लायल-पुअर, फतेह-पुअर, हमीर-पुअर, फीरोज-पुअर। यह सब नगर बहुत गरीब हैं और कुछ नगर इतने हीन हैं कि उनके नाम भी वैसे ही रख दिये गये हैं, जिनसे लोग जान लें कि यह खराब हैं। जैसे अलाहा-बैड, जलाला-बैड, सिकन्दरा-बैड, हैदरा-बैड इत्यादि। इसलिये इन नगरों में देखने योग्य है ही क्या? कानपुर में एक ही वस्तु देखने योग्य है। वह है 'मेमोरियल वेल।' मैंने पूछा - 'यह क्या है? किसकी स्मृति में है?' कर्नल साहब ने कहा - 'वह हमारे त्याग, बलिदान, महत्ता, वीरता और विशालता का प्रतीक है। उससे मालूम होता है कि हम लोग संसार पर शासन करने योग्य हैं।'

मैंने कहा - 'क्या वहाँ कोई युद्ध हुआ था?' कर्नल साहब ने कहा - 'नहीं, उसमें बहुत-से अंग्रेज काटकर फेंक दिये गये थे।' मैंने पूछा - 'क्यों?'

कर्नल ने कहा - 'बहुत-से हिन्दोस्तानी अंग्रेजी राज्य के विरोध में लड़ने को तैयार हो गये थे। उन्हीं का यह काम था।'

मैंने कहा - 'लड़ाई में तो यह होता ही है कि फिर उसे एक मेमोरियल का स्वरूप देने की क्या आवश्यकता थी?' कर्नल ने कुछ अप्रसन्नता से कहा - 'ऐसे विचारों को प्रकट करने से तुम निकाल दिये जाओगे। हम लोग भारत में शासन करने आये हैं। किसी प्रकार का उदार विचार प्रकट करने से भारतवासी उद्दंड हो जायेंगे। फिर हम यहाँ शासन नहीं कर पायेंगे और भारत में हमारा शासन नहीं होगा तो यह सेना नहीं रहेगी। फिर हम-तुम कहाँ रहेंगे? इसलिये इतनी बातें याद रखना, भारतवासियों से कभी मिलना-जुलना मत। किसी प्रकार का उदार-विचार प्रकट मत करना।'

मुझे यह बातें अच्छी नहीं लगीं; परन्तु मैं अपने अफसर के विरुद्ध कुछ कहना नहीं चाहता था। मैंने तो भारत के बारे में सभी कुछ जानने का निश्चय किया था। फिर भी मैंने इस पर विवाद उठाना ठीक नहीं समझा। अच्छा मेमोरियल देख आऊँ, फिर उधर से सिनेमा देखता आऊँगा।

आज पहले-पहल नगर देखने का अवसर मिला। पहले सीधे मेमोरियल कुएँ की ओर गया। कुआँ तो दिखायी नहीं दिया। एक वस्तु घिरी हुई और बन्द दिखायी दी और उस पर सारी घटना लिखी हुई थी। मेरी समझ में नहीं आया कि इसकी क्या आवश्यकता थी। समुद्र में इतने जहाज डूब गये, वहाँ कोई मेमोरियल क्यों नहीं बना?

मैं इतिहास के बारे में कुछ नहीं जानता। इसलिये इस कुएँवाली घटना पर कुछ नहीं लिख सकता। पर कोई विशेष मनोरंजन यहाँ नहीं हुआ। ताँगेवाले से मैंने शहर में चलने के लिये कहा। कानपुर निर्धन नगर नहीं है। मुझे गलत बताया गया कि यहाँ धन नहीं है। एक बात अवश्य यहाँ देखने में आयी, एक सड़क पर मैंने देखा कि यहाँ मोची बहुत हैं और चमड़े की दुकानें चारों ओर हैं। मुझे यदि नामकरण करना होता तो इस नगर का नाम कानपुर न रखकर मोचीनगर रखता। पता नहीं यहाँ के सभी नगरों में इतने मोची हैं या नहीं? कम-से-कम बम्बई में मुझे इतने मोची नहीं मिले। मौलवी साहब से पूछूँगा कि इतने मोची कानपुर में ही क्यों एकत्र कर दिये गये हैं?

यों ही कौतूहलवश एक दुकान के भीतर मैं चला गया कि देखूँ किस प्रकार का सामान यह लोग बनाते हैं। वहाँ कुछ तो सूटकेस इत्यादि थे; इनमें कोई विचित्रता नहीं थी। कुछ जूते बिल्कुल विलायती जूतों की भाँति थे। बड़ी अच्छी नकल इन लोगों ने कर रखी थी। कुछ रोमन और पुरानी चप्पलें भी थीं। इनके अतिरिक्त कुछ और जूते थे जो ठीक भारतीय जूते कहे जा सकते हैं। इनमें कुछ ऐसे थे जो ऊपर बढ़िया मखमल के बने थे जिन पर बड़ी सुन्दरता से रेशम अथवा सोने का काम किया हुआ था।

इन जूतों में फीते न थे, न बाँधने का तस्मा था। जान पड़ता है पम्प जूतों को देखकर उनका भारतीयकरण किया गया है। सबसे अच्छी बात इनमें यह है कि यदि झगड़ा हो तो आसानी से यह उतारे जा सकते हैं। फीता खोलने की देर नहीं लग सकती। हल्के भी होते हैं जिससे स्त्रियाँ और बालिकायें भी इसे सुगमता से चला सकती हैं। एक बात और। इतने भारी भी यह नहीं होते कि चोट अधिक लग सके। इसलिये यदि आवश्यकता पड़े तो यह काम भी इससे लिया जा सकता है और विशेष कष्ट भी इससे नहीं होगा। विलायत में ऐसे जूतों की बहुत आवश्यकता है। पार्लियामेंट में विवाद के अवसर पर जब कभी मार-पीट हो जाती है तब पहले तो जल्दी जूते खुलते नहीं और यदि खुलकर कहीं बैठ जाते हैं तो मरहम-पट्टी की आवश्यकता पड़ती है।

घरेलू झगड़ों में कभी-कभी चोट-चपेट के कारण अदालत तक जाना पड़ता है। ऐसे ही जूते वहाँ रहें तो कितनी ही समस्यायें सुगमता से सुलझ जायें। मैंने अपने नाप का एक जोड़ा तो खरीद लिया और एक जोड़ा और सुन्दर देखकर विलायत भेजने के लिये ले लिया। वहाँ मेरी मित्र मिस बुलेट को बहुत पसन्द आयेगा।

सन्ध्या हो चली थी, इसलिये मैंने ताँगेवाले से एक अच्छे सिनेमाघर में ले जाने के लिये कहा। उसने मुझे एक विशाल भवन के सामने लाकर ताँगा खड़ा कर दिया। ताँगेवाले ने कहा - 'फाइव रुपीज।' मुझसे लोगों ने यहाँ बताया था कि हिन्दुस्तानी लोग प्रत्येक चीज का दाम दूना माँगते हैं। इसलिये मैंने ढाई रुपये उसके हवाले किये और ढाई रुपये का एक टिकट खरीदा और सिनेमा हाल के भीतर प्रवेश किया।

सिनेमा में

सिनेमा घर के भीतर प्रवेश करने पर मैं क्या देखता हूँ कि एक भी सफेद रंगवाला वहाँ नहीं है और दूसरी बात जो देखी उससे पता चलता था कि सम्भवतः चुप रहने पर दफा 144 लगी हई है। जितने पुरुष हैं वह बात कर रहे हैं, जितनी महिलायें हैं वह बहस कर रही हैं, और जितने बच्चे हैं वह रो रहे हैं और जितने लड़के हैं वह लड़ रहे हैं। चाय, सोडा, मूँगफली बेचनेवाले पैरों पर से चढ़ते हुए और जोर-जोर से चिल्लाते हुए चल रहे थे। साढ़े छः का समय आरम्भ होने का था और सात बज रहे थे।

पहले मैंने समझा था कि अंग्रेजी सिनेमाघर होगा और कोई अंग्रेजी खेल होगा; किन्तु ताँगेवाले ने जहाँ मुझे पहुँचा दिया था वह हिन्दुस्तानी सिनेमाघर था। हैंडबिल में अंग्रेजी में छपा था खेल का नाम 'तूफान'। अभिनेताओं को तो मैं जानता नहीं था। चुपचाप बैठा। सोचा, कोई भला आदमी पास में बैठेगा तो उससे कुछ पूछूँगा। इतने में एक चायवाला मेरे सामने ही आकर खड़ा हो गया। बोला - 'साहब चाय?' उसके कुरते में एक ही आस्तीन थी, सामने का बटन कब से नहीं था, कह नहीं सकता, और माथे पर से पसीने की बूँदें ओस के कण के समान झलक रही थीं। जितनी तेज उसकी आवाज थी उतनी ही बढ़िया यदि चाय भी होती तब तो बात ही क्या!

इतना अवश्य था कि यदि मैं उसकी चाय पी लेता तो लिप्टन या ब्रुकबाण्ड की चाय के साथ भारतीय चायवाले के पसीने का भी स्वाद मुझे मिल जाता। मैं अभी इस नवीन स्वाद के लिये तैयार न था।

सवा सात बजे खेल आरम्भ हुआ। इस सिनेमा हाल की पहली विशेषता यह थी कि जब कोई गाना आरम्भ होता था तब इधर से कोई न कोई शिशु भी अलाप में साथ देता था। मेरी समझ में गाना तो आता नहीं था, परन्तु स्वर बड़ा मधुर था। सबसे सुन्दर वस्तु जो मुझे इस खेल में जान पड़ी वह नृत्य था। कभी-कभी नर्तकियाँ ऐसी सफाई से घूमती थीं जैसे उनकी कमरों में कमानी लगी हो और मशीन द्वारा घूम रही हों। इन नर्तकियों के कपड़े तो ऐसे मूल्यवान थे कि सम्भवतः विलायत की महारानी को सपनों में भी कभी दिखायी न दिये होंगे।

मेरी समझ में खेल तो बहुत कम आया। यहाँ भारत में एक विचित्रता देखने में आयी। खेल में एक दृश्य था कि एक आदमी बहुत सख्त बीमार था। डॉक्टर आया, देखकर उसने कुछ चिन्ता-सी प्रकट की। उसके चले जाने के पश्चात् इसकी स्त्री अथवा प्रेमिका, जो भी रही हो, गाने लगी। पता नहीं शायद डॉक्टर ने उसे गाने के लिये कहा था। शायद वह रोग गाने से ही अच्छा होता हो।

भारत रहस्यपूर्ण देश है, इन्हीं बातों से पता चलता है कि इस खेल में एक घंटे संवाद हुआ होगा तो एक घंटे संगीत हुआ होगा। संगीत की कला कैसी थी मैं कह नहीं सकता। स्वर मधुर अवश्य थे।

एक दृश्य में एक व्यक्ति घोड़े पर सवार था। वह हिन्दुस्तानी धोती पहने था। शायद यहाँ घोड़े पर सवार होने के समय ब्रीचेज नहीं पहनी जाती और घोड़े के दौड़ने के समय उसकी धोती खिसककर धीरे-धीरे कमर की ओर चली जा रही थी।

खेल की कथा के सम्बन्ध में मैं जानना चाहता था। इसलिये मैंने साहस करके बगल में बैठे एक सज्जन से कहा कि मैं यहाँ की भाषा नहीं जानता। मैं जानना चाहता हूँ कि कथा क्या है। उन्होंने बड़ी शालीनता से कथा का सारांश बताया। उस कथा के सहारे खेल समझने की चेष्टा करता रहा। यदि यह वास्तविक जीवन का चित्र है और साधारणतया लोगों का जीवन ऐसा ही होता है जैसा खेल में दिखाया गया है तो यही मानना पड़ेगा कि इस देश के माता-पिता बहुत ही क्रूर होते हैं। वह कभी अपने पुत्र तथा पुत्री को अपने मन के अनुसार विवाह नहीं करने देना चाहते। पसन्द वह स्वयं करते हैं और उनकी राय नहीं लेते। यदि हर घर में ऐसा होता है तब हर घर में सदा दुखान्तपूर्ण नाटक होता है। फिर आश्चर्य इस बात का है, इतने विवाह हो कैसे जाते हैं!

यदि प्रत्येक पुत्र व पुत्री पिता से विद्रोह करती है, जैसा कि नाटक में दिखाया गया, तो घरों में शान्ति कैसे रहती है? और यदि यह केवल कल्पना थी तब तो लेखक ने भारत के प्रति अन्याय किया।

परन्तु मैं इस विषय पर राय देने का अधिकारी नहीं हूँ, क्योंकि सारा खेल मैं कल्पना के सहारे समझने की चेष्टा करता रहा।

जिस कुर्सी पर मैं बैठा था उसमें खटमलों का एक उपनिवेश था। सब कुर्सियों में था या नहीं मैं कह नहीं सकता। यदि सब कुर्सियों में था तो यहाँ के सिनेमा देखने वालों के सन्तोष की प्रशंसा करना आवश्यक है। मैं कह नहीं सकता कि यह पाले गये हैं कि अपने से कुर्सियों में आकर बस गये हैं। यह मैंने सुना है कि भारतवासी लोग कीट-पतंग, पशु-पक्षी के प्रति बड़ा स्नेह रखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि यह पाले गये हों तो आश्चर्य नहीं।

जब बीच में अवकाश हुआ तो मैं बाहर निकल आया। देखता क्या हूँ कि धीरे-धीरे मेरे चारों ओर लोग एकत्र हो रहे हैं। मैं समझ न पाया कि बात क्या है। अपने कपड़ों की ओर मैंने देखा कि कोई विचित्रता तो नहीं है। किसी ने मुझसे कुछ कहा भी नहीं। मैंने यों ही प्रश्न कर दिया -'क्या चाहिये? कुछ लोग खिसक गये और दूसरे लोग अब कुछ दूर खड़े हो गये। वह मुझे एकटक देख रहे थे।

यहाँ के लोगों ने सम्भवतः गोरे सैनिकों को नहीं देखा था, इसलिये बड़ी उत्सुकता से वह मुझे देख रहे थे। मुझे शरारत सूझी तो मैंने जोर से 'हूँ' कर दिया। उसी आवाज से सब लोगों ने भागना आरम्भ कर दिया। मुझे बड़ी हँसी आयी और जोर-जोर से हँसने लगा। मेरी हँसी शायद बहुत पसन्द आयी इसलिये लोगों ने तालियाँ पीटीं जैसे किसी व्याख्यान में बहुत सुन्दर बात कही गयी हो। फिर घंटी बजी, परन्तु मेरा मन खेल में लग नहीं रहा था, इसलिये बैठक में चला आया।

बाइसिकिल और बेयरा

मैं अब साधारण हिन्दुस्तानी समझ लेता हूँ और छोटे-छोटे वाक्य बोल भी लेता हूँ। हिन्दुस्तानी सीख लेने से एक लाभ यह हो गया कि नौकरों से काम लेना तो सरल हो गया, एक और बात है, मैं पहले नहीं जानता था कि यहाँ नौकरों को गाली देना आवश्यक है।

परसों मैंने बेयरा को मैसर्स 'लूटर्स एंड को.' के यहाँ कुछ सामान के लिये भेजा। वह तीन घंटे के बाद लौटा। मैंने पूछा - 'इस समय क्यों आये?' उसने कहा - 'देर हो गयी।' मैंने पूछा - 'क्यों देर हो गयी?' वह बोला - 'बाइसिकिल टूट गयी।' मैंने पूछा - 'बाइसिकिल कैसे टूट गयी?' वह बोला - 'साहब - एक साहब मोटर चलाते थे। उन्होंने जान-बूझकर मेरी बाइसिकिल से लड़ा दी। मैंने बहुत हटाने की चेष्टा की, परन्तु जिस ओर मैं साइकिल ले जाता था उसी ओर वह मोटर लाते थे। मैंने समझा इनका मतलब यह है कि मैं चाहे जहाँ भी जाऊँ - मुझे दबाने के लिये इन्होंने कसम खा ली है। इसलिये मैंने साइकिल छोड़ दी और अपनी जान बचा ली। साइकिल तो हुजूर, बन सकती है या नई आ सकती है। मैं मर जाता तो आपकी खिदमत कौन करता? बस, यही लालच था कि आपकी खिदमत कुछ दिन और करूँ, नहीं तो जिंदगी से कोई और लगाव नहीं है। खुदा हुजूर को सलामत रखे, मैं बाल-बाल बच गया। साइकिल तो जरा-सी टूट गयी।' मैंने पूछा - 'क्या टूटा है?' बोला - 'जरा-सा पहिया टूट गया है।' 'देखूँ।' वह दो पहिये उठा लाया या यह कहना चाहिये कि वह वस्तुतः वह उठा लाया जो पहले पहिये थे। उसमें एक इस समय षट्कोण के रूप में था और दूसरा मानो गोरखधंधे को कोई खेल हो। मैंने पूछा - 'यह जरा-सा टूटा है?' वह बोला - 'हुजूर, मैंने ऐसी बाइसिकिल देखी है जो मोटर से दबकर बिल्कुल चकनाचूर हो गयी है। जिसकी एक-एक तीली सौ-सौ सूई के टुकड़ों में बदल गयी है। और हुजूर, देखिये, आपके लिये जो बोतलें ला रहा था वह सब सही-सलामत हैं। खुदा की रहमत देखिये। खुदा आप पर बहुत मेहरबान है। आप बहुत जल्दी जनरल हो जायेंगे।'

बाइसिकिल सरकारी थी इसलिये उसकी सूचना कर्नल साहब को देनी आवश्यक थी। मैंने जाकर कर्नल साहब को सब हाल बताया। उन्होंने पूछा कि तुमने क्या किया। मैं बोला - 'मैं क्या करता? मैं तो बाइसिकिल बनाना नहीं जानता।' कर्नल ने कहा - 'यह नहीं, बेयरा को क्या किया?'

मैं तो जानता नहीं था कि क्या करना होता है। कर्नल ने कहा - 'देखो, यदि तुम्हें यहाँ अपनी जान नहीं देनी है, तो दो बातें याद रखो। नौकरों को जब कुछ कहो तो गालियाँ देकर। और वह कुछ गलती करें तो दस-बीस गालियाँ दो। और अगर उससे भी बड़ी गलती करें तो ठोकर लगानी चाहिये। एक, दो या तीन। उस समय जितनी तुममें शक्ति हो उसके अनुसार।'

मैंने कहा - 'मुझे तो गालियाँ आती नहीं। आप बतायें तो जरा मैं नोट कर लूँ!' और मैंने पेंसिल और नोटबुक सँभाली।

कर्नल शूमेकर ने कहा - 'हाँ, इसका जानना बहुत आवश्यक है। लिख लो, देखो - आरम्भ करो 'पाजी' से; फिर कहो - 'गधा; फिर सूअर, और फिर सूअर का बच्चा। इसके बीच-बीच डैम, ब्लडी, इत्यादि कहने से रोब और बढ़ जायेगा। और भी गालियाँ हैं, मगर वह लफ्टंट के लिये नहीं हैं। उन्हें कप्तान और कर्नल ही दे सकते हैं।'

मैंने दो दिनों में उन गालियों को याद कर लिया। मैंने इन्हें रट लिया।

जूते का उपहार

हमारे कर्नल साहब अपनी स्त्री को बहुत मानते थे। उनके कहने पर बड़े से बड़ा त्याग करने के लिये वह तैयार हो जाते। यहाँ तक कि यदि वह कह देतीं तो वह नौकरों को गाली देना भी बन्द कर देते। क्लब के एक सदस्य ने मुझे बताया कि एक बार उनके कह देने से एक रात उन्होंने एक ही बोतल व्हिस्की पी थी। उस घटना को इस पलटन में लोग ऐतिहासिक घटना मानते हैं।

आज उनकी स्त्री की सालगिरह थी। मुझे भी कुछ भेजना ही होगा और विशेषतः इसीलिये कि आज कर्नल साहब ने सभी अफसरों को भोजन के लिये आमंत्रित भी किया था। मैं सोचने लगा -क्या उपहार भेजूँ। मुझे पता भी नहीं था कि उनकी रुचि कैसी है। उन्हें देखा तो कई बार था, परन्तु इस निष्कर्ष पर न पहुँच सका कि कौन-सी चीज उन्हें पसन्द आयेगी। बहुत देर तक सोचने पर मैंने निश्चय किया, क्यों न एक जोड़ा जूता कानपुर का, जैसा मैंने दुकान पर देखा था, भेजूँ।

मैं उसी दुकान पर गया और एक जोड़ा जूता लगभग उन्हीं के नाप का, जिस पर सोने के बेल-बूटे बने हुए थे, खरीद लाया। और अपने बेयरा के हाथों अपने नाम का कार्ड लगाकर भेज दिया। सन्ध्या को जब मैं भोजन के लिये पहुँचा, और भी कितने ही अफसर पहुँच गये थे। ज्योंही मैं पहुँचा श्रीमती शूमेकर ने बड़े तपाक से मेरा स्वागत किया। उठ कर मेरे निकट चली आयीं। पाँच मिनट तक मेरा हाथ हिलाती रहीं और धन्यवाद की झड़ी लगाती हुई बोलीं - 'बेटा, (वह सब युवक अफसरों को बेटा कहकर पुकारती थीं) मैं सत्ताईस सालों से भारतवर्ष में हूँ। किसी ने ऐसी सुन्दर कलापूर्ण वस्तु मुझे उपहार में न दी। आध घंटे तक तो मैंने इसे छाती से लगाये रखा। यदि यह तीस साल पहले मिला होता तो इसी को विवाह के अवसर पर पहनती। कर्नल तक ने कभी मुझे ऐसा उपहार न दिया।'

मुझे गर्व का नशा चढ़ गया। मैंने कहा - 'यह वस्तु ही ऐसी है। शाहजहाँ की विख्यात बेगम मुमताजमहल ने जो जूते पहने थे, उसी का चित्र अवध के बहुत बड़े ताल्लुकेदार राजा बिडालेश्वरसिंह के यहाँ था, उसी को दिखाकर मैंने बनवाया। चित्र के अनुसार तो क्या बना? हाँ, कुछ है।' मिसेज शूमेकर ने कहा - 'तुमने क्यों इतना व्यय किया? यह तो अनुचित है।'

मैंने कहा - 'दूसरी वर्षगाँठ पर मैं न जाने कहाँ रहूँ। जीवन की एक अभिलाषा मैंने पूर्ण कर दी।'

वह जूते का जोड़ा सब लोगों को दिखाया गया। सब लोगों ने 'वाह-वाह' की। कैप्टन बफैलो की स्त्री बगल में बैठी थीं। उन्होंने कहा कि 'मुझे तो सपने में भी यह खयाल नहीं था कि हिन्दुस्तान में ऐसी कारीगरी होती होगी। मैं जब यहाँ आयी तब समझती थी कि यहाँ काठ के जूते पहने जाते हैं। फिर जो जूते देखे वह सब यूरोप की नकल थे। हाँ, यहाँ के पुलिस कान्स्टेबुल जो जूते पहनते हैं, वह भारतीय जान पड़ते हैं।''

कैप्टन बफैलो ने कहा - 'यह हिन्दुस्तान की कारीगरी हो ही नहीं सकती। इसकी शक्ल देखो। इटली के गांडोला से ठीक मिलती है। जान पड़ता है कि ताजमहल बनाने के लिये जो इटली से राजगीर आया था, उसी ने यह नमूना मुमताज बेगम के लिये बनवाया होगा। इसका मूल यूरोप ही है। यहाँ ऐसी वस्तु कहाँ?'

कर्नल साहब ने कहा - 'नहीं, यहाँ कारीगर तो बहुत अच्छे-अच्छे हैं। देखिये, लाल इमली का कारखाना यहीं के लोगों ने बनाया। मगर इस जूते के बारे में कह नहीं सकता। लफ्टंट रोड, आपकी क्या राय है?'

लफ्टंट रोड हमारी सेना के इंजीनियर थे और पुरातत्त्व के बड़े विद्वान थे। उन्होंने कहा - 'एक बात जो विशेष ध्यान देने योग्य है वह है इसकी नोक। आप लोगों ने ध्यान दिया होगा तो देखा होगा कि इसकी शक्ल स्कैंडिनेविया प्रायद्वीप की-सी है। यह अनुकृति यों ही नहीं हो गयी है। यह बिल्कुल यूरोप की कारीगरी है। यह तो मैं अपने पुरातत्त्व के अध्ययन के बल पर कह सकता हूँ। यह जूता मुझे मिल जाये तो अध्ययन करके रायल एशियाटिक सोसायटी के पत्र में लेख लिखूँ।'

परन्तु मिसेज शूमेकर ने देना मंजूर न किया। उन्होंने कहा कि जब तक मैं यहाँ हूँ, इसे अपने से अलग नहीं कर सकती और यदि यह इतने महत्व की वस्तु है तो इंग्लैंड लौटने पर इसे इंडिया आफिस को प्रदान कर दूँगी। यह उसी जगह रखने की वस्तु है।

इस विवाद से इतना लाभ मुझे हुआ कि भूख तेज हो गयी है और मैंने ड्योढ़ा खाया। मछली तो मैंने तीन प्लेट खायी।

पिगसन का पदक

भोजन के बाद शराब का दौर चला। हाथ में शराब का गिलास था और मुँह में हमारे वही जूता था। उसी की बातचीत चल रही थी। मैं सपने में भी नहीं समझता था कि जूता इतनी महत्ता पा जायेगा। इंडिया आफिस में भेजने तक ही बात न रही। कैप्टन रोड ने कहा कि इसी ढंग के जूते यदि विलायत में बनवाये जायें तो बड़ा अच्छा व्यवसाय चल सकता है। कर्नल साहब, आप पेंशन लेने के बाद क्यों नहीं इसका रोजगार करने का प्रबन्ध करते? कर्नल साहब ने समझा कि हमारे नाम के कारण कैप्टन रोड हमारा उपहास कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि हाँ, हम बनायेंगे पर चलेंगे तो आप ही के ऊपर। इस पर जोरों का कहकहा लगा। कर्नल साहब की श्रीमती के तालू में शराब चढ़ गयी और वह उठकर लगीं कमरे में नाचने।

भोजनोपरान्त हम लोग दूसरे कमरे में चले गये और वहाँ सिगार पीने लगे। वहाँ मिसेज शूमेकर नहीं थीं। लफ्टंट बफैलो ने मुझे एक ओर ले जाकर कहा - 'कहो, कहाँ से वह जूता बनवाकर लाये? मुझे बता दो। मैं भी एक जोड़ा चाहता हूँ।' मैंने पूछा - 'क्या करोगे?' बोला -'कमिश्नर साहब की लड़की मिस बटर को तुमने देखा है?' मैंने कहा - 'देखा है।' उसने कहा - 'मेरी उससे बड़ी घनिष्ठता है। मैं एक जोड़ा उसे उपहार में देना चाहता हूँ। परन्तु यदि मूल्य अधिक हुआ तब तो कठिन है। क्योंकि इस महीने में तीन सौ रुपये का शराब का एक बिल चुकाना है। रुपये बचेंगे नहीं।'

मैंने कहा - 'एक काम करो। सच्चे काम का जूता तो उतने दामों में नहीं मिल सकता। हाँ, झूठे काम का वैसा ही जूता, ठीक वैसा ही, मिल जायेगा। हाँ, कुछ दिनों में उसका रंग काला हो जायेगा।' जिस कंपनी से मैंने जूते लिये थे, उस कम्पनी का नाम बता दिया।

एक बजे रात को मैं अपने बँगले पर लौटा। अपनी विजय पर बहुत प्रसन्न था। मैंने सपने में भी आशा नहीं की थी कि दो जूते इतनी सफलता प्रदान करेंगे। मुझे इस बात का तो विश्वास ही हो गया कि कर्नल साहब अवश्य ही मेरी प्रशंसा करेंगे और मैं समय से पहले ही कैप्टन हो जाऊँ तो आश्चर्य नहीं। दो बजे मैं सोया।

परन्तु कुछ तो शराब का नशा, कुछ जूते का ध्यान; जान पड़ता है नींद ठीक नहीं आयी क्योंकि मैं लगा सपना देखने।

देखता हूँ कि मैं जल्दी-जल्दी उन्नति करता जा रहा हूँ और मैंने देखा कि मैं भारत का वायसरॉय बना दिया गया। शिमला के वायसरॉय भवन में मैं रहता हूँ। परन्तु मैं उस जूते को अभी नहीं भूला - मेरी सिफारिश पर ब्रिटिश सरकार ने एक नया पदक बनवाया है जिसमें दो जूते अगल-बगल में रखे हैं। इस सोने के पदक का नाम पिगसन पदक रखा गया है और उस भारतीय को दिया जायेगा जिसने सरकार की सदा सहायता की है और सरकार का विश्वासपात्र रहा है। मैं यह भी देख रहा हूँ कि पिगसन पदक के लिये बड़े-बड़े राजा-महाराजा और राजनीतिक कार्यकर्ता लालायित हैं।

वायसरॉय-भवन में दीवारों पर मैंने सुनहले जूतों के चित्र बनवा दिये हैं और सरकारी मोनोग्राम को बदलकर मैंने दो सुनहले जूतों का चित्र बनवा दिया है। मैंने विशेष आज्ञा देकर चाय का सेट बनवाया जिसमें पियाले की शक्ल जूते की तरह है।

मेरी देखा-देखी जितने रजवाड़े हैं, उन्होंने भी मेरी नकल आरम्भ कर दी है और मेरे आनन्द की सीमा न रही जब सकलडीहा के महाराज ने मेरी दावत की, तब दावत के कमरे में चारों ओर रंग-बिरंगे जूतों से सजावट की गयी थी। मैंने उन्हें इक्कीस तोपों की सलामी का अधिकार दे दिया और अपना सिक्का ढालने की अनुमति दे दी। हाँ, एक शर्त थी कि सिक्के की एक ओर जूते का चित्र अवश्य रहे।

केन्द्रीय धारासभाओं का संयुक्त अधिवेशन हो रहा है और मैं भाषण पढ़ रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि भारत को स्वराज्य दिलाने को मेरा पूरा प्रयत्न होगा। विलायत की सरकार आप लोगों के देश का शासन आपके ही हाथों में देने के लिये निश्चय कर चुकी है। आप लोग उसकी नीयत पर सन्देह न करें। आप हमारे साथ सहयोग करें। हम अपने शासन-काल में निम्नलिखित विशेष काम करना चाहते हैं। यदि आपकी सहायता मिलती रही तो मेरे जाते-जाते स्वराज्य मिल जायेगा।

पहली बात तो यह है कि जूते के व्यवसाय को जितना प्रोत्साहन मिलना चाहिये, नहीं मिल रहा है। स्वराज्य-प्राप्ति में कितनी बड़ी बाधा है। भारतीय जूते या तो देशी हैं जो आज भी वैसे ही बनते हैं जैसे मेगास्थनीज ने वर्णन किया है या विलायत की नकल है। नकल से स्वराज्य नहीं मिलता, आप जानते हैं।

यद्यपि भारतीय कला बहुत ऊँचे स्तर पर पहुँच गयी है और अब उसमें सुधार के लिये कम स्थान है, फिर भी यदि स्वराज्य लेना है तो भारतीय जूतों में उन्नति करनी ही होगी। उसी पर आपका भविष्य निर्भर है।

गाँव-गाँव में, नगर-नगर में, प्रत्येक पाठशाला में, कालेज में, विश्व-विद्यालय में इसकी शिक्षा आवश्यक है और इसकी उन्नति अपेक्षित है। आप मेरे इस सन्देश को देश के कोने-कोने में पहुँचाने की दया करें।

म्युनिसिपल बोर्ड और डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के सदस्यों को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिये क्योंकि स्वराज्य की पहली सीढ़ी यही है।

तालियों की गड़गड़ाहट से सारा भवन गूँजने लगा। मैं और आगे बोलने जा रहा था कि देखता हूँ कि आँखें खुली हैं, वही बैरक बँगला है, वही कमरा है, बेयरा ट्रे लिये खड़ा है, कह रहा है - 'हजूर, चाय।'

दंगा

क्लब से आकर मैं भोजन कर रहा था। एकाएक फोन की घंटी बजने लगी। कर्नल साहब बोल रहे थे। बनारस में हिन्दू-मुसलमानों में दंगा हो गया था। चालीस गोरे सिपाहियों के साथ मुझे तुरन्त बनारस जाने की आज्ञा हुई। किसी प्रकार भोजन समाप्त कर एक कार पर मैं और मेरा अरदली और दो लारियों पर चालीस गोरे सिपाही एक बजे रात को कानपुर चल दिये।

(यहाँकुछफ्रेंचमेंलिखाहैजिसकाअनुवादमैंनहींकरसका।कुछ- कुछगाली-सीहै। - लेखक)

जनवरी का महीना था। अपने को ओवरकोट में लपेट रखा था और बीच-बीच में बोतल से ही थोड़ी-थोड़ी ब्रांडी के घूँट ले लेता था। कर्नल साहब पर बड़ी झुँझलाहट आ रही थी। मुझे ही क्यों भेजा? मैं बिल्कुल नया आदमी। कभी न बनारस देखा न उसके सम्बन्ध में कुछ जानता था। ऐसी जगह मुझे भेजने से क्या लाभ? यह भी नहीं बताया कि मुझे करना क्या होगा।

हम लोग ग्यारह बजे दिन को बनारस पहुँचे। बैरक में सब लोग ठहरे और मैं कलक्टर साहब के बँगले पर पहुँचा। कार्ड भेजा। अन्दर बुलाया गया। मैंने देखा कि कलक्टर साहब का चेहरा नार्वे के कागज के समान सफेद था। आँखों से जान पड़ता कि कई दिनों से सोये नहीं हैं। मेरा अभिवादन करने में ऐसे शब्द निकल रहे थे मानो वे रो रहे हों।

मैंने तो पहले समझा कि इनकी इतनी दयनीय दशा है कि सब प्राणी यहाँ के गत हो गये हैं।

फिर उन्होंने कहा - 'कल दस बजे यहाँ हिन्दू-मुसलमानों में दंगा हो गया।'

मैंने पूछा - 'क्यों?'

'यहाँ एक कब्र है...'

'एक ही कब्र है इतने बड़े शहर में...'

'नहीं। आप पहले पूरी बात तो सुन लीजिये... एक कब्र है, उसी के पास एक हिन्दू का मकान है, उस मकान में एक नीम का पेड़ है...'

मैंने कहा - 'मैं सफर से आ रहा हूँ, इसी काम के लिये आया हूँ। सब ठीक समझ लेने दीजिये। - यहाँ एक कब्र है उसमें एक मकान है...'

'उसमें नहीं, उसके पास।' कलक्टर साहब ने मुझे ठीक किया।

'हाँ, हाँ, उसके पास; देखिये कार से सफर करने से जाड़े की रात में दिमाग का खून जम जाता है और कुछ का कुछ समझ में आने लगता है। - और उसमें एक पेड़ है। किस चीज का पेड़ आपने बताया?'

'नीम का।'

'तब?'

'उस नीम की पत्ती उस कब्र पर गिर पड़ी।'

'पत्ती तो नीचे गिरेगी, ऊपर तो जा नहीं सकती।'

'मगर कब्र पर जो गिरी।'

'तो कहाँ गिरनी चाहिये थी?'

'कहीं गिरती, पर कब्र पर गिरी, इससे मुसलमानों के हृदय पर धक्का लगा।'

'पत्ती गिरने से धक्का लगा तो कहीं पेड़ गिर जाता तब क्या होता?'

'सुनिये, उसी समय मुसलमानों ने कहा कि पेड़ काट डाला जाये, हिन्दुओं ने कहा कि कब्र खोद डाली जाये।'

'तो इसके लिये तो साधारण दो-तीन मजदूरों की आवश्यकता थी। चालीस गोरे और मुझे बुलाने की कोई बात मेरी समझ में नहीं आयी।'

'वह बात नहीं है। हमें तो दोनों की रक्षा करनी है।'

'तो उसी के लिये हम लोग आये हैं?'

'नहीं, वहाँ तो हमने पहरा बिठा दिया है; ये लोग लड़ गये हैं।'

'तो लड़ने दीजिये, दूसरों की लड़ाई से हमें क्या काम?'

'हमें तो शान्ति करनी है।'

'लड़-भिड़कर स्वयं ही शान्त हो जायेंगे। जब यूरोप में सौ वर्ष की लड़ाई शान्त हो गयी, तीस वर्षीय युद्ध समाप्त हो गया, तब इनकी लड़ाई कितनी देर तक चल सकती है?'

'परन्तु हमें तो शासन करना है, शान्ति रखनी है। शान्तिप्रिय नागरिकों की रक्षा करनी है।'

'तो हम लोगों को इस सम्बन्ध में क्या करना है?'

'पहला काम तो यह है कि आप अपने सैनिकों सहित नगर के चारों ओर चक्कर लगाइये।'

'इससे क्या होगा?' मैंने पूछा, क्योंकि चक्कर लगाने से आज तक कोई दंगा बन्द होते मैंने नहीं सुना था।

कलक्टर साहब ने कहा - 'इससे आंतक फैलेगा और लोग डर जायेंगे और घर से बाहर नहीं निकलेंगे।'

मुझे तो आज्ञा पालन करनी थी। बाहर आया। सबको आज्ञा दी। हमारे साथ एक देशी डिप्टी कलक्टर भी कर दिया गया। हम लोग सैनिकों को लिये एक-दो-तीन करते घूमने लगे।

पहली बार मैंने बनारस देखा। परन्तु इसके बारे में मैं आगे लिखूँगा। इस समय मैंने देखा कि सड़कें बिल्कुल खाली हैं। घर सब बन्द हैं। कोई दिखायी नहीं पड़ता है। हम लोगों को कोई देखता है तो किसी गली में भाग जाता है, जैसे कोई शेर या चीते को देख ले।

मेरी समझ में नहीं आया कि दंगा कहाँ हो रहा है। मैं देखना चाहता था कि हिन्दू-मुसलमान कैसे लड़ते हैं। केवल मुँह से गालियाँ देते हैं कि मुक्केबाजी करते हैं, कि लाठियों से लड़ते हैं। क्योंकि यहाँ तो हथियार कानून लागू है। किसी के पास बंदूक या तलवार तो होगी नहीं। किसी के पास चोरी से होगी तो वह भी एकाध। मैं तो सेना विभाग का आदमी हूँ। मुझे इस प्रकार के युद्ध की प्रणाली पर विश्वास नहीं।

मैंने बहुत सोचा, परन्तु समझ में नहीं आया कि कब्र पर पत्ती गिरने से लड़ाई क्यों आरम्भ हो गयी। मुर्दे को चोट भी नहीं लग सकती। कानपुर लौटूँगा तक मौलवी साहब से पूछूँगा कि क्या बात है। कोई और वस्तु हो तो निरादर या अपमान भी हो। नीम की पत्ती से क्यों मुसलमान लोग बिगड़ें?

सन्ध्या समय जब नगर के चारों ओर घूम चुके तब हम लोगों को छुट्टी मिली। सब सैनिक बैरक में गये। मैं कलक्टर साहब के बँगले पर गया। मैंने कहा - 'मुझे तो कोई कहीं दिखायी नहीं दिया।'

वह बोले - 'यही तो ब्रिटिश शासन का रौब है। हिंदोस्तानी लोग हम लोगों से बहुत डरते हैं।' बैरक से लौट आया और सोचने लगा कि भारतवासी क्यों अंग्रेजों से डरते हैं। काली चीज देखकर भय लगता है। हम लोग भारतवासियों से डरें तो स्वाभाविक है, परन्तु सफेद चीज से डर लगना! हम लोगों का भारतवासियों से डरना एक बात थी।

मैं सोचने लगा कि सचमुच बात क्या है जिससे हम लोगों से हिदुस्तानवाले डरते हैं; वीर तो ये लोग बड़े होते हैं। यहाँ के सैनिकों की वीरता की धाक यूरोप में जम चुकी है, बुद्धि में भी यहाँ के लोग किसी प्रकार कम नहीं, क्योंकि बहुधा हिन्दुस्तानियों के नाम सुनता हूँ, जिनके ज्ञान-विज्ञान की प्रशंसा यूरोप के विद्वान भी करते हैं। यहाँ के रहनेवाले अंग्रेजी भी अच्छी बोलते हैं। असेम्बली के भाषण छपा करते हैं, अंग्रेजी बिल्कुल व्याकरण से शुद्ध होती है। इतना ही नहीं, आई.सी.एस. की परीक्षा भी पास कर लेते हैं, बढ़िया सूट भी पहनते हैं; सुनते हैं बहुत-से लोग मेज पर खाते भी हैं; फिर भी हम लोगों से डरते हैं, बात क्या है?

मैंने मनोविज्ञान तो कभी पढ़ा नहीं, इसलिये बहुत सोचने पर भी कोई बात ठीक मन में नहीं आयी। एक बात केवल समझ में आयी कि ईश्वर जब हिन्दुस्तान में रहनेवालों को पैदा करता है, तब जान पड़ता है भय का कोई डोज मिला देता है क्योंकि तीन-चार महीने मुझे यहाँ आये हो गये, मैंने देखा कि सभी लोग यहाँ डरते हैं। हिन्दू मुसलमानों से डरते हैं। मुसलमान हिन्दुओं से; मारे डर के ये लोग स्त्रियों को घर के बाहर नहीं निकालते; सुनता हूँ - मारे डर के रुपयेवाले रुपया बैंक में नहीं रखते, पृथ्वी के नीचे गाड़कर रखते है। गाँववाले पुलिस के अफसर-थानेदार से डरते हैं, नगरवाले कलक्टर से डरते हैं, मूँछवाले बेमूँछवालों से डरते हैं, स्त्रियाँ पुरुषों से डरती हैं, पुरुष स्त्रियों से डरते हैं। मैंने तो जो देखा और सुना वह यही कि यहाँ के लोगों का मूलमन्त्र डर ही डर है। जीवित लोगों से ही नहीं मुर्दों से भी ये लोग डरते हैं, भूत से ये लोग डरते हैं, पिशाच से ये लोग डरते हैं। तब हम लोगों से डरते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं।

बनारस में पिगसन

दूसरे दिन सवेरे मुझे आज्ञा मिली कि आप लोग अपनी बैरक में रहें। जब आवश्यकता होगी, बुला लिये जायेंगे। हम लोग दिन-भर बैठे रहे। सन्ध्या समय मैंने एक कारपोरल से कहा कि मैं बाहर जा रहा हूँ। अब रात में तो कोई सूचना आने की सम्भावना नहीं है।

निकट के होटल से एक गाइड मैंने बुलवाया और उससे पूछा कि यहाँ कौन-कौन-सी वस्तुयें देखने योग्य हैं। मैं देखना चाहता हूँ। ठीक नहीं कब यहाँ से कानपुर लौट जाना हो। गाइड ने कहा कि यहाँ विश्वनाथजी का स्वर्णमन्दिर, बन्दरोंवाला मन्दिर, औरंगजेब की मस्जिद, घाट, विश्वविद्यालय और सारनाथ देखने के योग्य हैं।

मैंने कहा - 'अच्छा, आज नगर देख लूँ और कल जितना हो सकेगा देखूँगा।' मैं उसे लेकर कार पर बैठा, और नगर की ओर चला। राह में वह मुझे विशेष स्थानों पर बताता जाता था कि यह कौन-सा स्थान है, इसका क्या महत्व है। एक जगह बड़ा पत्थर का भवन मिला जिसके लिये उसने बताया कि यह क्वींस कॉलेज है। मैंने यह पूछा कि क्या यहाँ रानियाँ पढ़ती हैं, या रानियों ने बनवाया है? उसने कहा - 'नहीं, यह महारानी विक्टोरिया के नाम पर बना है।'

मुझे कुछ अविश्वास-सा हुआ। मैंने कहा - 'यहाँ के लोग भला किसी दूसरे देश की रानी के नाम पर क्यों भवन बनायेंगे? इंग्लैंड में तो कोई भवन जर्मनी या रूस के राजा या रानी के नाम पर नहीं है।' वह बोला - 'यहाँ का यही नियम है। बात यह है कि भारतवासी बहुत ही विनम्र तथा त्यागी होते हैं। वह सोचते हैं कि अपने देश में अपने यहाँ के लोगों की ख्याति उचित नहीं है। हम लोग सब काम दूसरों के लिये करते हैं। देखिये, एक अस्पताल मिलेगा। वह भी बादशाह सलामत के नाम पर है। यहाँ सड़कें भी आप देखेंगे कि आपके ही देशवासियों के नाम पर हैं।'

मैंने कहा कि यह भावना तो बड़ी ऊँची है और तभी शायद तुमने अपना देश भी हम लोगों को दे दिया। वह बोला - 'हाँ, है ही। देखिये, हम लोगों ने लड़ने को सिपाही भेजे। यह आप ही लोगों की सहायता के लिये। हम लोग इस प्रकार दूसरों के लिये ही जीते हैं।'

तब तक हम लोग नगर के बीच पहुँच गये, और उससे पता चला कि इसे चौक कहते हैं। मैंने कहा - 'क्यों न कार कहीं खड़ी कर दी जाये और हम लोग पैदल टहलकर देखें।' कुछ-कुछ दुकानें खुली हुई थीं। लोग शीघ्रता से इधर से उधर चले जा रहे थे। गाइड ने बताया कि भय के कारण कुछ दुकानें बन्द हैं। आज शान्ति है, इसलिये इतनी खुल गयी हैं।

एक बात और देखने में आयी जिससे पता चला कि इस देश में मनुष्यों से अधिक स्वतन्त्रता पशुओं में है। मैंने देखा कि एक बैल बड़ी निर्भीकता से मेरी पतलून का अपने सींग से चुम्बन करता हुआ चला गया। उसने इस बात की परवाह नहीं की कि मैं इकतीसवीं ब्रिटिश रेजिमेंट का लफ्टंट हूँ। मैं कुछ डर-सा गया और देखा कि उसी के पीछे एक और उससे डबल बैल चला आ रहा है, मस्ती से झूमता। गाइड ने कहा कि डर की कोई बात नहीं है। यहाँ के साँड़ किसी को हानि नहीं पहुँचाते। महात्मा बुद्ध ने पहले-पहल काशी के ही निकट सारनाथ में अहिंसा का प्रचार किया था, इसीलिये काशी के साँड़ आज तक बौद्ध धर्म का पालन करते हैं।

धर्म का यह प्रभाव देखकर मुझे बड़ी श्रद्धा हुई। हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे की खोपड़ी तोड़ते हैं और बैल अहिंसा का पालन करते हैं। भारत विचित्र देश है, इसमें सन्देह नहीं। बुद्ध भगवान का प्रभाव भारत में बैलों पर ही पड़ा, इसका दुःख हआ।

गाइड ने बताया कि साधारण स्थिति में यहाँ बड़ी चहल-पहल रहती है, परन्तु दंगे के कारण कुछ है नहीं। फिर एक गली में जाकर उसने बताया कि यहाँ पहले विश्वनाथजी का मन्दिर था। मुसलमानों ने आक्रमण किया तो यहाँ के देवता कुएँ में कूद पड़े। वह जो बैल लाल पत्थर का आप देखते हैं, पहले अस्ली बैल था। एक मुसलमान सिपाही का अँगरखा छू गया, तभी यह पत्थर हो गया। हर एकादशी को यह रोता है। मैंने पूछा कि तुम्हारे देवता तो बड़े डरपोक हैं जो कुएँ में कूद पड़े। उसने बताया कि यह बात नहीं है। देवता स्वयं नहीं कूदे। पुजारी उन्हें लेकर स्वयं कूद पड़ा क्योंकि उसे डर था कि यदि कहीं इनकी दृष्टि मुसलमानों पर गयी और इन्हें क्रोध आ गया तो सारा संसार भस्म हो जायेगा। तब क्या होगा? पुजारी देवताओं को लेकर फिर निकल आया। फिर नये मन्दिर को बाहर से उसने दिखाया। मैं भीतर जाना चाहता था, परन्तु पता लगा कि इसमें केवल हिन्दू ही जा सकते हैं और वह भी सब हिन्दू नहीं। मैंने पूछा - 'ऐसा क्यों?' गाइड ने कहा कि बात यह है कि भगवान का दर्शन सबको नहीं मिलता। जब बहुत तप करके हिन्दू जाति में मनुष्य जन्म लेता है, तभी वह भगवान शंकर का दर्शन कर सकता है।

मैंने पूछा कि यह कैसे हो सकता है कि मनुष्यों में सबसे श्रेष्ठ हिन्दू है। उसने कहा - 'सबसे श्रेष्ठ वही है जिसे न दुःख में दुःख है न सुख में सुख है।

'देखिये, हिन्दू जाति को किसी प्रकार का दुःख नहीं है। इसका मान करो तो भी, अपमान करो तो भी, यह बुरा नहीं मानती। आप चाहें तो इसका उदाहरण अभी देख सकते हैं। किसी हिन्दू को एक लात मारिये। वह आपको देखकर सलाम करके हट जायेगा। तपस्या की चरम सीमा पर पहुँचने पर मनुष्य की ऐसी मनोवृत्ति हो जाती है।'

फिर आगे चले तो सुनसान-सा दिखायी दे रहा था। कुछ दूर आगे चले तो एक नदी दिखायी दी। उसने कहा कि यह गंगाजी हैं जिसे हिन्दू लोग माता कहते हैं।

दस बज रहे होंगे। रात का समय था। सन्नाटा छा रहा था। पानी धीरे-धीरे बह रहा था। हम लोग किनारे पहुँचे। देखता हूँ कि किनारे एक हट्टा-कट्टा आदमी रात में बिलकुल नंगा, केवल कमर में एक कपड़ा लपेटे पत्थर पर लगातार उछल-कूद कर रहा है। कई मिनट तक मैं देखता रहा। उसका कूदना बन्द नहीं हुआ। मैंने गाइड से पूछा कि यह यहाँ रात में क्या कर रहा है। वह बोला - 'यह कसरत कर रहा है।'

मैंने कहा - 'बहुत गरीब होगा। शायद इसका घर नहीं है।' गाइड ने समझाया कि ऐसी बात नहीं है। गंगा के सामने कसरत करने से दूना बल होता है। एक-दो नहीं, ऐसे अनेक कसरत करनेवाले आप इसी घाट पर देखेंगे। इतनी खुली जगह है तो इसका उपयोग करना चाहिये। यह भी गाइड ने बताया कि यहाँ सवेरे चहल-पहल रहती है। इसलिये कल सवेरे आप आइये। मैं रात में ग्यारह बजे बैरक लौटा। चारों ओर सन्नाटा था। कहीं कोई दिखायी नहीं देता था।

गाइड ने बताया कि देखिये, चारों ओर सन्नाटा है। सब लोग घरों में सोये हैं। इसीलिये दंगे जाड़े में ही होते हैं। गर्मी में यहाँ बहुत से लोग सड़क पर सोते हैं, इसलिये दंगे नहीं होते। नहीं तो कितने आदमियों के सिर उड़ जायेंगे। दंगेवाले भी समझ-बूझकर सब काम करते हैं।

काशी के घाट

आज सवेरे ही गाइड मेरी बैरक में पहुँचा। मैं चाय पी रहा था। बोला - 'चलिये, आज घाट की सैर आपको करा दूँ।' मैंने कहा - 'इतने तड़के वहाँ कौन होगा, सर्दी से मुँह में चाय जमी जा रही है।' वह बोला - 'इसी समय तो वहाँ लोग स्नान करने जाते हैं। यही तो वहाँ चलने का समय है।'

मैं भी किसी प्रकार तैयार हुआ। परन्तु सर्दी में इसी समय चलना मुझे ऐसा जान पड़ा मानो फाँसी के तख्ते पर जा रहा हूँ। सावन की झड़ी के समान बमों की वर्षा हो रही हो, उसके बीच मैं खड़ा हो सकता हूँ, नंगे बदन नागफनी की झाड़ी में लोट सकता हूँ और पागल हाथी की सूँड़ में चिकोटी काट सकता हूँ किन्तु जाड़े में सवेरे उठना तो एक सपना है और जाड़े में नहाना तो भले आदमियों का काम ही नहीं है।

मोटर कार पर मैं चला - आगे गाइड बैठा था। काशी में देखा - सभी सवेरे ही उठते हैं। पहले तो यहाँ के मेहतर भी बहुत तड़के उठते हैं और सोचते हैं कि जब हम उठते हैं तब सड़कों को भी जगा देना चाहिये और दोनों हाथों में झाड़ू लेकर सड़कों पर ऐसा चलाते हैं जैसे क्रूसेड के युद्ध में मुसलमान सिपाही तलवार भाँजते थे।

मैंने एकाएक देखा कि मेरी मोटर कार बादलों में से चल रही है परन्तु शीघ्र ही पता चला कि यह बादल नहीं बनारस, जिसे हिन्दू लोग काशी कहते हैं और जो उनका पवित्र नगर माना जाता है यह बादल उसी पवित्र नगरी की पवित्र रज है। काशी की म्यूनिसपैलिटी इसके लिये बधाई की पात्र है क्योंकि मेरे ऐसे विदेशी व्यक्तियों को यह पवित्र मिट्टी कैसे मिलती?

घाट के किनारे पहुँचा तो कई नाववाले सामने आये और उन्होंने मुझे सलाम किया मानो मेरा-उनका दस-पन्द्रह साल पुराना परिचय हो। यद्यपि मैं हिन्दुस्तानी जानता था, फिर भी बातचीत गाइड ही करता रहा। तीन रुपये पर एक छोटी-सी नौका मिली। ऊपर के भाग पर दो कुर्सियाँ रख दी गयीं। कुर्सियाँ बेंत की बनी थीं और पीछे उसी बेंत का ही ऊँचा, लम्बा तकिया बना था। मेरी बगल में गाइड बैठा।

पूरब में सूरज निकलने लगा था। मैं अपने फौजी ओवरकोट में लिपटा हुआ था। देखा कि अनेक लोग पानी में झम्-झम् कूद रहे हैं। यदि मेरे हाथ में होता तो मैं इन्हें विक्टोरिया क्रास अवश्य देता। यह स्नान नहीं, वीरता और साहस का परिचय था। पुरुषों से अधिक स्त्रियाँ स्नान कर रही थीं। ऐसी वीर महिलायें हैं, तब न इनकी संतान बेल्जियम और फ्रांस के मैदान में अपनी छाती से गोली रोकती है।

मैंने घाटों पर इतने रंग की साड़ियाँ देखीं कि उनका वर्णन किया जाये तो एक अलग से डायरी उसी की बन जाये। गाइड प्रत्येक घाट के सम्बन्ध में कुछ न कुछ बताता जा रहा था किन्तु मैं तो घाट के नहानेवालों की ओर अधिक आकर्षित था।

एक घाट की ओर दिखाकर बताया गया कि यहाँ केवल मुसलमान स्नान करते हैं। जान पड़ता है, गंगा का जल मुसलमानों को पवित्र नहीं कर सकता, परन्तु वह गंगाजल को अपवित्र कर सकते हैं।

एक स्थान पर मुर्दे जल रहे थे। बड़ी-बड़ी लपटें निकल रही थीं। मेरी समझ में मुर्दा जला देने में एक बड़ी हानि हो जाती है। कब्र में उनका शरीर खाद का काम दे सकता है। जान पड़ता है मुसलमानों और अंग्रेजों के नेता कृषि-विज्ञान के बड़े पंडित थे, इसलिये उन्होंने अपने मुर्दे पृथ्वी के नीचे रख देने की व्यवस्था कर दी जिसमें धरती बराबर उपजाऊ बनती रहे। जिस धरती के अन्न से शरीर बना है, उसी धरती को फिर यह शरीर दे देना भी ठीक ही है।

गंगा के दूसरे तट पर विशाल बालू की बेला है। बड़ी दूर तक रेती फैली हुई है। मैंने देखा कि अनेक लोग मिट्टी का एक पात्र हाथ में लिये उधर जा रहे हैं। मैंने पूछा - 'यह लोग कहाँ जा रहे हैं?' उसने बड़ी काव्यमय भाषा में उनका वर्णन किया और बोला कि काशी का वास्तविक स्वरूप यही है। इतनी बातों से काशी जानी जाती है - संस्कृत विद्या के भंडार से, लोगों की मस्ती से, सड़क पर तीन-तीन फुट के गड्ढों से और प्रातःकाल गंगा पार के इस दृश्य से। और बातें तो सभी नगरों में मिलेंगी परन्तु यह यहाँ की विशेषता है।

आज की चहल-पहल से जान पड़ता था कि दंगे का आतंक अब नगर में नहीं रहा। आठ बजे के लगभग मैं नौका से उतरा और विश्वनाथ के मन्दिर की ओर चला। अनेक व्यक्ति चिथड़ों से सुसज्जित मेरे पीछे-पीछे चलने लगे। उनकी सब बातें तो मैं नहीं समझ सका; इतना जान गया कि वह भिखमंगे हैं। गाइड ने बताया कि इनमें प्रत्येक भिखमंगा लखपति है। इसलिये मैंने कुछ दिया नहीं; यद्यपि मेरा मन कुछ देने का अवश्य था।

काशी में भिखमंगों की भी संख्या उतनी ही है जितनी इस देश में नेताओं की।

विश्वनाथजी की गली में पैठा। मैंने समझा कि थरमापिली के दर्रे की यह नकल की गयी है। साँड़ वहाँ इतनी स्वतन्त्रता से घूम रहे थे जैसे पुरानी खाट में खटमल घूमते हैं। परन्तु खटमल छोटा जन्तु होने पर भी बड़े-बड़ों के रक्त चूस लेता है और यह इतने विशालकाय, पर देखा कि छोटे-छोटे बालक भी इनकी पीठ सहलाते चले जा रहे हैं!

फिर मैंने विश्वनाथजी का भव्य कलश देखा जो स्वर्ण से मंडित था। भारतवासी विचित्र बुद्धि के होते हैं। इतना सोना इम्पीरियल बैंक में न रखकर मन्दिर के कलश में लगा दिया! सवेरे जब सूर्य की किरण उस पर पड़ने लगी तक ऐसा मेरा मन लालच से लुभा गया कि सच कहता हूँ जी हुआ कि इसे खुरच कर ले चलूँ।

मैंने मन्दिर के भीतर देखने की इच्छा प्रकट की, किन्तु पता चला कि भीतर कोई जा नहीं सकता। हिन्दुओं ने ऐसा क्यों किया? सम्भव है, कोई षड्यंत्र इसके भीतर यह लोग रचते हों। परन्तु गाइड से पता लगा कि केवल धार्मिक भावनाओं के कारण उसमें कोई अहिन्दू नहीं जा सकता। उसके बाद एक स्थान में गाइड ले गया जहाँ मिठाइयों की दुकानें लगातार पंक्तियों में थीं।

यहाँ जान पड़ा कि काशी की मक्खियाँ और स्थानों की मक्खियों से भिन्न हैं। क्योंकि यह मिठाइयों और खाने के पदार्थों पर वह बड़ी स्वतन्त्रता से आक्रमण कर रही हैं। यदि इनसे कोई रोग उत्पन्न होने का भय होता तो लोग उन पर बैठने न देते। मेरी इच्छा हुई कि इनके कुछ अंडे विलायत भेज दूँ, कि वहाँ ऐसी ही मक्खियाँ रहें। खाने में धुएँ का भी पर्याप्त भाग रहता है। और सारी मिठाइयाँ धुएँ से इतनी स्नात हो जाती हैं कि वह जर्मप्रूफ हो जाती हैं।

हम लोगों को विशेष चेतावनी रहती है कि किसी स्थान का भोजन न किया जाये जो बैरक से बाहर हो। बाहर केवल अंग्रेजी होटलों में ही हम लोग खा-पी सकते हैं। किन्तु मेरी इच्छा कुछ भारतीय मिठाइयाँ खाने की हुई। एक दुकान पर जो और दुकानों से अधिक स्वच्छ थी, हम लोग गये और गाइड से कहा कि कुछ काशी की मिठाइयों का यदि स्वाद मिल जाये तो मैं उसकी स्मृति अपने साथ ले जाऊँगा।

सारनाथ की सैर

मुझे तो भारतीय मिठाइयों के नाम भी नहीं ज्ञात थे, कानपुर में कभी खाने का अवसर नहीं मिला था। मैंने सोचा फिर वहाँ खाने के लिये अवसर मिले या नहीं। गाइड से कहा कि जो दो-तीन सबसे बढ़िया मिठाइयाँ हों, उन्हें ले लीजिये।

उन्होंने एक मिठाई ली जिसका नाम उन्होंने जलेबी बताया। यह कुछ गोल-गोल मकड़ी के जाले के समान होती है और रंग सुनहला होता है। इसमें रस भरा रहता है और खाने में बहुत मीठी होती है। इसे दाँतों से दबाने और तोड़ने में बहुत अच्छा लगता है। मैं इसे इंग्लैंड भेजना चाहता था, किन्तु पता लगा कि यह केवल एक दिन तक रह सकती है, फिर खराब हो जाती है। इसे सवेरे लोग खाते हैं।

दूसरी मिठाई सफेद गेंद के समान गोल थी। कुछ-कुछ अंडे से यह मिलती-जुलती थी। ज्योंही मैंने आधा काटा, इसमें से रस की एक मीठी धारा बह निकली जो मेरी टाई पर से होती हुई कोट पर और कोट से उतरती हुई पतलून पर बह चली। पता चला कि मैंने इसके खाने में भूल की। यह कुल की कुल मुँह में रख ली जाती है और फिर दोनों होठ बन्द करके दाँतों से दबायी जाती है, तब रस कोट और पतलून को तर नहीं करता, रस सीधे गले के भीतर पहुँच जाता है। इसका नाम भी बड़ा उपयुक्त है। इसे रस का गोला कहते हैं। इसे खाने के बाद मैं दूसरी मिठाई नहीं खा सका।

वहाँ सोडा नहीं मिल सका, न लेमनेड। सुना है कि भारतवर्ष में मिठाइयाँ खाकर या भोजन करके लोग सादा पानी पीते हैं। मैंने कहा कि मैं भी यही करूँ। दुकानदार ने एक विचित्र गिलास निकाला। यह मिट्टी का बना था, छोटा, गोल और नाटा। उसमें पानी भरकर मुझे उसने दे दिया। पीने के बाद एक नौकर ने उस गिलास को फेंक दिया।

मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने उससे एक मोल लेना चाहा कि इस नये प्रकार के गिलास को अपने पास रखूँ। किन्तु उसने बिना पैसे ही मुझे एक उपहारस्वरूप भेंट कर दिया। उसे मैं अब तक अपनी आलमारी में रखे हुए हूँ। इंग्लैंड ले जाऊँगा।

मिठाइयाँ यहाँ सस्ती होती हैं। दुकानदारों को मैंने कपड़े पहने नहीं देखा। केवल कमर में एक कपड़ा लपेटे रहते हैं जिसे धोती कहते हैं। इससे जान पड़ता है कि यह लोग सभ्यता की सीढ़ी के बहुत नीचे के डंडे पर हैं।

एक मिठाई की दुकान पर मैंने देखा कि एक आदमी बड़े-बड़े घुँघराले बाल रखे हुए बेलन से आटे की गोल-गोल गेंद बनाकर बेल रहा है और फिर एक कड़ाही में उसे डालता है। कड़ाही में घी खौल रहा था। वह झूम-झूमकर बेलना बेल रहा था। उसके श्यामल मुख पर पसीने की बूँदें चमक रही थीं जैसे नीलाम्बर नक्षत्र में कभी-कभी तारे आकाश से टूटकर गिरते हैं वैसे ही पसीने की बूँदें नीचे गिरती थीं जो उसी आटे की गेंद में विलीन हो जाती थीं। पूछने पर पता चला कि यह दो प्रकार की होती हैं। एक का नाम पूरी है जिसका अर्थ है कि इसमें किसी प्रकार की कमी नहीं है। इसे खा लेने से फिर भूख में किसी प्रकार की कमी नहीं रह जाती। दूसरी को कचौरी कहते हैं। इसके भीतर एक तह आटे के अतिरिक्त पिसी हुई दाल की रहती है। पहले इसका नाम चकोरी था। शब्दशास्त्र के नियम के अनुसार वर्ण इधर से उधर हो जाते हैं। इसीसे चकोरी से कचोरी हो गया। चकोरी भारत में एक चिड़िया होती है जो अंगारों का भक्षण करती है। कचौरी खानेवाले भी अग्नि के समान गर्म रहते हैं, कभी ठण्डे नहीं होते। गर्मागर्म कचौरी खाने का भारत में वही आनन्द है जो यूरोप में नया उपनिवेश बनाने का।

वहाँ से मैं चला। गाइड मुझे एक ऐसी गली में ले गया जहाँ बरतन बिकते हैं। वहाँ सब दुकानदार मुझे बुलाने लगे, किन्तु मुझे कुछ मोल नहीं लेना था, केवल देखना था। इसलिये शीघ्रता से इसे समाप्त कर दिया। यह गली बहुत पतली है और इसके भीतर कोई सवारी नहीं जाती। पैदल ही चलना पड़ता है। इसमें सड़क भी नहीं है। केवल पत्थर बिछे हैं। ईसा के दो-तीन हजार वर्ष पहले की यह जान पड़ती है।

यहाँ से हमारी कार सारनाथ को चली। मैंने राह में सारनाथ का इतिहास जान लेना उचित समझा। इसलिये गाइड से पूछा कि यह सारनाथ क्या है और इसे क्यों लोग देखने जाते हैं। उसने बताया कि किसी काल में वहाँ एक नगर था। काशी के शासक बाबा विश्वनाथ के साले यहीं रहते हैं, इसलिये इसका नाम सारनाथ है। कुछ लोगों के अनुसार वहाँ महात्मा बुद्ध, एक बड़े महान व्यक्ति, आये थे, इसलिये यह विख्यात है।

मैंने पूछा - 'यह नगर कब था और क्यों खंडहर हो गया और यह बुद्ध महात्मा कौन सज्जन थे?' वह बोला - 'यह नगर कब था, इसका पता तो मुझे नहीं है क्योंकि यह बहुत पुराना है। मेरे दादा ने भी ऐसा ही इसे देखा था और वह कहते थे कि मैंने भी अपने दादा से इसके सम्बन्ध में ऐसा ही सुना है। चार-पाँच सौ साल पुराना तो यह अवश्य ही होगा। नगर खंडहर क्यों हो गया, इसका कारण इसके सिवाय और क्या हो सकता है कि घोर बरसात हुई हो किसी समय। बुद्ध महात्मा एक राजा थे। यह बुध के दिन पैदा हुए थे, इसलिये इनका नाम बुद्ध पड़ गया। इनके भाई ने इनका राज छीनकर इन्हें घर से निकाल दिया। यह जंगल में बेहोश पड़े थे। इन्हें एक स्त्री ने हलवा खिला दिया और यह जी गये। तब इन्हें बड़ा दुःख हुआ और यह सारनाथ आये। वहाँ उन्होंने उचित समझा कि कोई धर्म चलाया जाये क्योंकि धर्म चलाने में बड़ा सुख और आदर है। बहुत-से चेले मिल जाते हैं और राजा लोग भी आदर करते हैं।'

इनके धर्म में विशेषता है। वह यह है कि कितनी ही लात आप खाते चलिये, कुछ किसी से कहिये मत। कोई आपको गाली दे दे तो कहिये - ठीक किया। कोई आपकी स्त्री को उठा ले जाये तो कहिये - बड़ा अच्छा किया। कोई आपको पीट दे तो कहिये - आप बड़े योग्य हैं। अब मेरी समझ में आया कि मुसलमानों ने कैसे यहाँ शासन किया होगा और किस प्रकार अंग्रेज लोग शासन कर रहे हैं। एक बात और उसने बतायी कि यह लोग मनुष्य क्या किसी जीव को नहीं मारते। मान लीजिये, यह लोग खाते रहें और थाली में कुत्ता आकर खाने लगे तो उसे हटायेंगे नहीं। सब जीवों पर दया करते हैं। यह सोये रहें और चील इनकी नाक नोच ले जाये, यह बोल नहीं सकते।

इतनी देर में हम लोग सारनाथ पहुँच गये। एक ऊँचा-सा ढूहा दिखायी पड़ा जिस पर एक टूटी-सी अठकोनी मीनार थी। उसने बताया कि हिन्दुओं के सबसे बड़े देवता रामचन्द्र थे। उनकी स्त्री सीता थीं। राम ने सीता को निकाल दिया। तब वह यहीं आकर रहती थीं और उसी में भोजन पकाया करती थीं। चावल जो वह धोकर फेंक देती थीं वह अब भी कहीं मिट्टी में दिखायी देता है। एक-एक चावल हजारों रुपयों का होता है। अमरीका के लोग यहाँ से मोल ले जाते हैं और वह जो ईंटों का बड़ा-सा स्तूप दिखायी देता है, वह भी विचित्र है। एक अहीर उसी पर गाय लेकर चढ़ जाता था और एक बरतन में दूध दुहकर ऊपर-ऊपर कूदकर दूध लिये सीता की रसोई में जाता था। वह इसलिये कि सीताजी के लिये दूध धरती से छू न जाये और प्रशंसा की बात तो यह है कि न यह दूध छलकता था, न पृथ्वी पर गिरता था।

और खंडहर देखे। उसने बताया कि यह जो खंडहर है, वहाँ जब घर थे तब उन्हें विहार कहते थे। उनमें रहनेवाले यहाँ से पूरब चले गये। उन्होंने एक प्रान्त बसा लिया जिसे 'बिहार' कहते हैं। यहाँ लोगों के न रहने के कारण यह अब खंडहर हो गये।

यहाँ कुछ साधु भी दिखायी दिये। वह पीले रंग के थे और विचित्र प्रकार का कपड़ा पहने हुए थे। चेहरे से जान पड़ता था कि इन्हें कंबल या पांडु रोग हो गया है। मैंने गाइड से पूछा कि यह सब के सब इतने अस्वस्थ क्यों हैं। उसने कहा कि यह लोग अस्वस्थ नहीं हैं। इनका रंग ही ऐसा है। यह कम खाते हैं और ऐसी वस्तुएँ खाते हैं कि रक्त की कमी रहे। यह लोग मांस कोई दे दे, तब खा लेते हैं मगर अपने हाथों नहीं मारते क्योंकि इनके धर्मप्रवर्तक की यही शिक्षा है।

वहीं एक अजायबघर था। जहाँ बहुत-सी मूर्तियाँ रखी थीं। गाइड ने बताया कि सब मूर्तियाँ यहीं से खोदकर निकाली गयी हैं। जान पड़ता है कि पुराने समय में भारतवसियों को कोई काम नहीं था, इसीलिये बैठे-बैठे दिन-भर इतनी बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ गढ़ा करते थे। मेरे विचार से जब यूनानी लोगों की सभ्यता नष्ट होने लगी तब वहाँ के मूर्तिकार भाग कर यहाँ चले आये। वहाँ भी मूर्तियाँ बहुत बनती थीं और वह लोग यहाँ आकर मूर्तियाँ गढ़ने लगे, क्योंकि अब भी मूर्तियाँ बनाना सीखने के लिये यहाँ से लोग इटली, इंग्लैंड आदि देशों में जाते हैं। तब उस काल में कैसे बना सके होंगे? मैंने पूछा - 'सीताजी यहाँ भोजन बनाती थीं, उनकी कोई मूर्ति यहाँ नहीं दिखायी देती।' गाइड ने कहा कि वह पर्दे में रहती थीं। इसलिये उनका कोई चित्र अथवा उनकी मूर्ति नहीं बन सकी और पीछे बहुत दुःख के मारे वह पृथ्वी के भीतर चली गयी। उनकी कोई मूर्ति इस देश में नहीं है।

दो बज गये। मुझे अब भूख और प्यास दोनों लग रही थीं। वहाँ न कुछ खाने का सामान था न पीने का। इसलिये मैं और कहीं आज देखने न जा सका। कार पर तुरन्त अपनी बैरक में लौट आया।

काशी की कारामात

अब मुझे बनारस में कुछ आवश्यक देखना रह नहीं गया था। इसलिये कलक्टर साहब से मिलकर मैंने यह जानना चाहा कि हम साथियों के साथ लौट जायें तो कोई हरज तो न होगा।

कलक्टर साहब के यहाँ जिस समय मैं पहुँचा, एक सभा हो रही थी, जिसमें अनेक लोग गत दंगे के सम्बन्ध में कुछ परामर्श कर रहे थे। मैंने कार्ड देकर उनसे मिलना चाहा। वह स्वयं बाहर चले आये और बोले कि मैंने कानपुर तार दे दिया है। अब आप लोग जा सकते हैं।

सवेरे जाना था, इसलिये मैंने सोचा कि सन्ध्या को और घूम लूँ। इस समय मैंने सोचा कि अकेले ही घूमूँ। एक ताँगा मँगवाया और चौक के लिये चल पड़ा। आज चौक में बड़ी भीड़ थी और बड़ी चहल-पहल भी थी।

मैं नगर के सम्बन्ध में कुछ जानता नहीं था। बोली समझ भी लेता था, बोल भी सकता था। अधिक अच्छी तरह घूमने के विचार से मैंने ताँगेवाले को छोड़ दिया और चौक में पैदल घूमने लगा। थोड़ी दूर गया था कि एक स्थान पर बड़ी भीड़ देखी। मैं निकट गया। मुझे देखकर लोग हटकर दूसरी ओर उसी भीड़ में जाकर खड़े हो गये। एक आदमी एक साँप लिये हुए था। उसी के कारण इतनी भीड़ थी। मुझे देखते ही एक कान्स्टेबल आकर भीड़ हटाने लगा।

मैं यहाँ से आगे चल पड़ा और जेब में हाथ डाला तो हाथ जेब के नीचे निकल आया और सिगरेट केस गायब था। किसी ने बड़ी सफाई से जेब कतर दी थी। वह बाहरी जेब थी। उसमें पैसे तो नहीं थे, किन्तु सिगरेट-केस चाँदी का था। निकट ही थाना था। मैंने सोचा कि रिपोर्ट अवश्य करनी चाहिये। मैं वहाँ गया, तो कई कान्स्टेबलों ने सलाम किया। मैंने वहाँ के अफसर को खोजा तो उनके पास सूचना भेजी गयी और आध घंटे बाद में वह आये। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और सब हाल बताया तो उन्होंने कहा कि आप बाहरी आदमी हैं इसी से ऐसा हुआ और उसका पता लगाना असम्भव है। परन्तु आप लिखा दीजिये और मुझे उपदेश देने लगे कि मूल्यवान वस्तुएँ बाहर की जेब में नहीं रखनी चाहिये। उनके लिये एक जेब भीतर बनवाना आवश्यक है। वह बहुत दयावान भी जान पड़ते थे। बोले - 'जब आप निकला करें तब मूल्यवान वस्तु को घर के भीतर तिजोरी में बन्द कर दिया करें और जब बनारस आवें अथवा किसी बड़े शहर के स्टेशन पर पहुँचें तब भीड़ के पास न ठहरें या खड़े हों। इसीलिये पुलिस सदा भीड़ को हटाती रहती है।'

उन्होंने यह भी समझाया कि कोट कैसा बनवाना चाहिये, दरजी कैसा हो, जेब कहाँ और कैसी होनी चाहिये। फिर बोले - 'आप भी सरकारी-नौकर, मैं भी सरकारी नौकर। इसलिये इतनी बातें बता दीं। ये बातें किसी से नहीं बताता। नहीं तो सब लोग चतुर हो जायें और चोरी होना बन्द हो जाये और पुलिस विभाग तब हट जायेगा।'

एक भारतीय पुलिस अफसर से बात करने का मेरा पहला अवसर था। मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि यह लोग इतने चतुर होते हैं। मैंने कहा कि मैं इस देश में नया हूँ। आप और भी सलाह दीजिये जिससे कभी कोई फिर ऐसा अवसर आये तो मैं अपनी रक्षा कर सकूँ।

उन्होंने मुझसे मेरा परिचय पूछा और मैंने सब हाल उन्हें बताया कि मैं कब आया और कैसे आया। तब उन्होंने मेरे साथ बड़ी सहानुभूति दिखायी और बोले - 'यहाँ अकेले आप ठगे जाइयेगा और आपको बड़ा धोखा होगा। आपको आवश्यकता हो तो एक कान्स्टेबल ले जाइये।'

मैंने एक कान्स्टेबल ले लिया और थानेदार को धन्यवाद देकर चला। उस कान्स्टेबल से मैंने कहा कि मैं सिगरेट खरीदना चाहता हूँ, मेरा सिगरेट केस खो गया। वह एक दुकान पर ले गया और एक सिगरेट का डब्बा उसने मुझे दिया। मैंने जब रुपये निकाले तब उसने कहा कि आपकी ही दुकान है।

मैं घबराया। मैं समझा कि कान्स्टेबल धोखे में होगा। मेरे ही ऐसे किसी सैनिक अफसर ने यह दुकान खोली होगी और यह मुझे धोखे से वही समझ रहा होगा। जब मैंने कहा कि मैं तो यहाँ नया आदमी हूँ, मैंने कोई दुकान नहीं खोली, तब दुकानदार और कान्स्टेबल हँसने लगे।

मैं कुछ नहीं समझा। मेरे मन में यह होने लगा कि कहीं सचमुच यह लोग धोखे में तो नहीं हैं। यदि ऐसा है तो मैं बहुत बड़ी दुकान का मालिक बन जाऊँगा और भारत में अच्छा व्यापारी बन सकूँगा। मैंने इन लोगों की बातों की परीक्षा लेनी चाही। एक डिब्बा बिस्कुट मैंने निकलवाया। जब दाम पूछा तक दुकानदार ने कहा कि साढ़े चार रुपये। इस बार उसने नहीं कहा कि आपकी ही दुकान है। परन्तु मुझे बिस्कुट लेना तो था नहीं, इसलिये बढ़ चला।

राह में कान्स्टेबल से पूछा कि 'मेरी दुकान' उसने क्यों कहा। उसने बताया कि यह कहने की भारतवर्ष में प्रथा है। उसने यह भी बताया कि यहाँ किसी के पुत्र या पुत्री के सम्बन्ध में आप पूछें तो लोग यह नहीं कहेंगे कि मेरी है, कहेंगे कि आपकी है। घर के बारे में आप पूछेंगे तो लोग कहेंगे कि आपका ही है। हमेशा किसी के लिये ऐसा प्रयोग नहीं होता। बाप के लिये यह नहीं कहते कि आपके बाप हैं।

रात बढ़ रही थी। मैंने बैरक लौट जाना उचित समझा। उससे एक ताँगा लाने को कहा। वह एक ताँगा लाया। मैंने पूछा - 'कितना देना होगा?' कान्स्टेबल ने कहा कि हजूर यह पहुँचा देगा, जो चाहे दे दीजियेगा।

मुझे इस पर भी बड़ा आश्चर्य हुआ। इतना ज्ञान मुझे अवश्य हो गया कि किसी स्थान पर जाना हो या किसी दुकान से छोटी-मोटी वस्तु मोल लेनी हो तो पुलिस साथ रहे तो पैसे नहीं लगते। ताँगे के किराया नहीं लगता और लगता है तो बहुत ही कम। पता नहीं, काशी में ही यह नियम है कि और नगरों में भी! आगे इसका अनुभव करूँगा।

पान

मैं काशी से दूसरे दिन कानपुर के लिये चल पड़ा। हमारे सब सिपाही भी साथ थे। मुझे बनारस का नगर बहुत अच्छा जान पड़ा। इसके दो-तीन कारण थे। एक तो यह कि यहाँ के रहनेवाले बहुत कम पैसे में अपना निर्वाह कर लेते हैं क्योंकि मुझे अधिकांश ऐसे व्यक्ति दिखायी पड़े जिनके शरीर पर एक कपड़ा कमर के नीचे और हल्का ढीला कुछ कोट की भाँति ऊपर थे।

कुछ लोगों को तो गंगा के किनारे मैंने देखा कि स्नान करके कपड़े का एक टुकड़ा ओढ़ कर चल पड़े। यह मैं जाड़े की बात कह रहा हूँ। गर्मी की ऋतु में लोग नंगे ही रहते होंगे, कम से कम घर में। मेरा ऐसा अनुमान है कि बर्लिन के 'नंगे समाज' (न्यूडिस्ट सोसायटी) का प्रचार यदि भारतवर्ष में हो तो सबसे अधिक सदस्य काशी में बनेंगे।

दूसरी बात जो यहाँ की मुझे अच्छी लगी, वह यहाँ की सड़कें। इन पर बहुत कम रुपये व्यय होते होंगे, इसलिये कि म्यूनिसपैलिटी को कम टैक्स लगाना पड़ता होगा और नगरवासियों को आनन्द होता होगा। देखने में ऐसा जान पड़ा कि आधी से अधिक सड़कें उस समय बनी थीं जब हमारी स्वनामधन्या महारानी विक्टोरिया ने प्रथम पुत्र को जन्म दिया था और गाइड से यह पता चला कि फिर उनकी मरम्मत किसी ऐसे समय होगी जब कोई ऐसी ही विशिष्ट घटना होगी। इस प्रकार से व्यर्थ के व्यय से म्यूनिसपैलिटी बच जाती है। कुछ सड़कें ऐसी भी मिलीं जिनमें सरलता से धान की खेती हो सकती है। नागरिक लोग इससे भी लाभ उठायेंगे, इसमें सन्देह नहीं।

तीसरी बात जो यहाँ कि विशेषता है, वह है - पान की दुकानें। कोई सड़क, चौमुहानी, तिमुहानी, नाका, मोड़, चौक ऐसा नहीं जहाँ एक या इससे अधिक पान की दुकानें न हों। बनारस में जितने मन्दिर नहीं उतनी पान की दुकानें हैं। यदि आपको गंगा तट मिले और सड़कों की बीस साल से मरम्मत न हुई हो और अनगिनत पान की दुकानें हों तो समझ लीजिये कि वह नगर काशी है।

मेरी बड़ी इच्छा पान खाने की हुई। कानपुर में तो खा नहीं सकता था। हम लोगों को सभी वस्तुएँ खाना अथवा ऐसे कार्य करना जो भारतवासी करते हैं, वर्जित है क्योंकि कोई ऐसा काम हम लोग नहीं कर सकते जिससे यह लोग समझें कि यह भारतीय हैं अथवा भारतीयों से इन्हें सहानुभूति है। इसीलिये मैंने सोचा कि चलते-चलते यह देखूँ कि इसका स्वाद कैसा होता है और क्यों लोग इसका इतना सेवन करते हैं। इसीलिये चलने के पहले गाइड से मैंने पान मँगाकर खाना चाहा।

अपने देश के रहनेवालों के लिये मैं पान का थोड़ा वर्णन कर देना आवश्यक समझता हूँ। पान एक पत्ता होता है। इसकी शक्ल हृदय की भाँति होती है। इस पत्ते के भीतर चूना, कत्था और सुपारी की कतरन रखी जाती है और फिर उसे मोड़कर डेल्टा की शकल का बनाते हैं; और तब दो या चार एक साथ लोग खाते हैं। मैंने गाइड से सुना कि जो जितना ही अधिक पान खाता है वह उतना ही बड़ा रईस समझा जाता है। बहुत-से लोग इसके साथ तम्बाकू की पत्ती खाते हैं। इसके खाने का पुरुषों पर वही परिणाम होता है जो स्त्रियों को लिपस्टिक लगाने का, अर्थात् अधर लाल हो जाते हैं।

मैंने गाइड से पूछा कि पान यहाँ के लोग क्यों खाते हैं, कब खाते हैं, कैसे खाते हैं? उसने बताया, ''भगवान एक बार पृथ्वी पर मनुष्य का रूप धारण करके आये। उनका नाम था कृष्ण। उनका एक यह स्वभाव पड़ गया कि इधर-उधर से मक्खन, दही, मलाई उठा-उठाकर खा जाते थे। एक बार इसी प्रकार से उन्होंने खाया और उनके ओठों पर मक्खन लगा रह गया और पकड़े गये। लोगों ने मारने को दौड़ाया। यह भागे। भागकर एक कदम्ब के पेड़ के नीचे बड़े दुख में मुँह बनाकर बैठे थे। सुनसान स्थान था। यह बैठे थे। टपाटप आँसू गिर रहे थे। उधर से एक लड़की आयी। इन्हें रोते देखकर उसको दया आ गयी, बोली, ''क्यों रोते हो?'' इन्होंने सारा हाल बता दिया। उसने कहा, ''तो क्या हुआ? इसमें रोने की क्या बात है?'' इन्होंने कहा, ''दुःख इस बात का है कि अब आगे कैसे खाऊँगा। लोग समझेंगे इन्होंने ही खाया है।'' लड़की ने कहा, ''इतनी-सी बात! वह दौड़कर गयी और एक पत्ते में कुछ लपेटकर लायी और बोली, ''इसे खा लो। मुख से दही और मक्खन की सुगन्ध भी नहीं आयेगी और अधर भी लाल हो जायेंगे। कुछ पता नहीं चलेगा। मेरा अधर देखो। यह जो प्रवाल के समान है, इसी के कारण है।'' तबसे कृष्ण महाराज एक डिबिया में पान बाँधकर अपने दुपट्टे में गठियाये रहते थे। जहाँ मक्खन खाया उसके बाद दो बीड़े पान; जहाँ दही खाया, दो बीड़े पान। उस लड़की के सिवाय कोई यह रहस्य जानता नहीं था। तभी से उस लड़की से, जिसका नाम राधा था, कृष्ण की गहरी मित्रता हो गयी।''

महाभारत के युद्ध के पश्चात् कृष्ण ने इसका रहस्य अर्जुन को बताया और तब से सब लोग जान गये और सब लोग पान खाने लगे। जो अधिक धार्मिक हैं वह भगवान की भाँति डब्बा रखते हैं। इसी प्रकार पान का खाना आरम्भ हुआ। यह हिन्दुओं की संस्कृति का चिह्न है। जो नहीं खाते वह आर्य हैं या नहीं, इसमें सन्देह है।

गाइड ने फिर कहा कि खाने का प्रश्न कठिन है। प्रत्येक पाँच मिनट पर खाना तो अति उत्तम है। परन्तु एक-एक घंटे पर भी खाया जा सकता है। गाइड ने यह भी कहा कि मैंने तो वेद पढ़ा नहीं है, किन्तु सुना है कि उसमें लिखा है कि जो दो सौ बीड़े दिन में खाये वह महर्षि है, जो पचास खाये वह ऋषि, जो पच्चीस खाये वह साधु और जो दस तक खाये वह मनुष्य और इससे कम खानेवाले इतर योनियों में।

लज्जावती लड़की

पान की इतनी प्रशंसा सुनकर मैंने अपने विचार को काम में लाना ही उचित समझा और चार बीड़े पान मुँह में रखे। फिर उसे दाँत से कूँचने लगा। कूँचने के दो मिनट बाद ही क्या देखता हूँ कि मेरे मुख से चार धारायें फूटकर निकल पड़ीं। एक मेरी दाहिनी ओर कोट के कालर पर से होती बह चली, दूसरी मेरी बाईं ओर। तीसरी नेकटाई पर से और चौथी गरदन पर से होती हुई कालर के भीतर-भीतर सीने की ओर वह निकली, जैसे किसी झरने से चार नदियाँ बह निकलें। जान पड़ता था कि मैं लड़ाई के मैदान में हूँ। गोली लगी है और रक्त की धारायें बह चली हैं।

मुँह में स्वाद न मीठा न खट्टा, न तीता न नमकीन। मैंने रूमाल निकाला ही था कि कोट पर से पोछूँ कि गले में न जाने क्या फँस गया और मुझे खाँसी आने लगी। खाँसी के साथ मैंने सोचा कि सब थूक दूँ परन्तु गाइड ने कहा कि इसे यों नहीं खाते। आप पान चबाइये और उसका रस धीरे-धीरे कण्ठ के नीचे उतारते जाइये। मैं बकरी की भाँति पागुर करने लगा और उसका रस गले के भीतर उतारने लगा। धीरे-धीरे क्या देखता हूँ कि कुछ हल्की मचली-सी जान पड़ने लगी और एक विचित्र भाँति का मन होने लगा। आइने में मुख जो देखा तो जान पड़ा कि दाँत नहीं हैं, मानिक के टुकड़ों की पत्तियाँ हैं और ओंठ पके तरबूजे के टुकड़े। स्वाद तो मुझे अच्छा लगा, किन्तु दाँत लाल हो जाना कुछ खटका।

मैंने ब्रुश से खूब दाँत साफ किये; फिर सब लोग लारी पर सवार हो कर कानपुर के लिये चल पड़े। गाइड को मैंने दस रुपये का एक नोट दिया। वह लारी तक झुक-झुककर सलाम करता रहा। पन्द्रह बार से कम सलाम उसने नहीं किया होगा। प्रति सलाम एक रुपये से भी कम पड़ा। जान पड़ता है भारतवर्ष में सलाम बहुत सस्ता है।

लारी चली जा रही थी और हम लोग झपकियाँ लेते हुए चले जा रहे थे। एकाएक हमने देखा कि आठ-दस आदमी चले आ रहे हैं और साथ में एक डोली है जो चारों ओर से बन्द है; और डोली के भीतर से रोने का स्वर सुनायी दे रहा है। पहले मैंने उधर विशेष ध्यान नहीं दिया। जब लारी निकट होने लगी तब मुझे रोना और स्पष्ट सुनायी देने लगा। मैंने लारी को धीरे-धीरे चलाने की आज्ञा दी।

इस झुण्ड के निकट आने पर यह स्पष्ट हो गया कि यह लोग किसी स्त्री को उस डोली में बन्द किए हुए हैं और उसके रोने से यह भी जान पड़ा कि इसे यह लोग भगाये चले जा रहे हैं। मैंने सिपाहियों को आज्ञा दी कि इन्हें पकड़ लेना चाहिये। लारी खड़ी कर दी गयी और हम लोगों ने इस समूह को घेर लिया।

हम लोगों के उतरते ही दो-तीन आदमी तो भाग गये। बाकी लोग सब घिर गये। डोली धरती पर रख दी गयी और रोने का स्वर और भी तीव्र हो गया। मेरा विश्वास और भी दृढ़ हो गया। हम लोगों में मैं ही एक व्यक्ति था जो कुछ हिन्दुस्तानी बोल सकता था। मैंने पूछा, ''तुम लोग क्यों इसे पकड़े ले जा रहे हो? छोड़ दो इसे।'' मैं विशेष कठोर होना नहीं चाहता था। इसलिये कहा कि यदि तुम लोग इसे छोड़ दो तो मैं कुछ नहीं करूँगा, नहीं तो तुम सब लोगों को पुलिस में दे दूँगा। तुम लोग इसे कहाँ से भगाये चले जा रहे हो?

मेरी बात सुनकर सब डर गये जिससे मेरा विश्वास और ठीक जम गया। डोली में रोने की आवाज और बढ़ गयी। मैंने फिर अपनी बात दुहरायी। एक आदमी हाथ जोड़े हुए मेरे सामने आया और बोला कि यह मेरी स्त्री है। इस प्रकार के बहाने मैं जानता था। स्त्रियों को भगानेवाले इसी प्रकार बहाना किया करते हैं। अन्त में जब इन लोगों ने नहीं माना तब मैंने सैनिकों को आज्ञा दी कि इन्हें घेर कर ले चलो।

सैनिकों ने पूछा, 'कहाँ?' अब मेरी समझ में यह बात नहीं आयी कि इन्हें कहाँ ले जाऊँ। कानपुर ले जा नहीं सकता था। इतनी दूर! लारी में स्थान होता तो वह भी सम्भव होता। कानून के पंजे में आये इन लोगों को छोड़ देना सम्राट के प्रति विश्वासघात होता। इस देश की शान्ति और रक्षा के लिये ही तो हम लोग यहाँ पर हैं। इसे कैसे त्याग सकते हैं? उत्तरदायित्व कैसे छोड़ दें? बड़ी उलझन में पड़ा। बनारस से पाँच-छः मील हम लोग चले आये थे। यही सम्भव था फिर वहीं लौटें। फिर इन सब लोगों को पैदल चलना पड़ेगा।

अन्त में मैंने यही निश्चय किया। सैनिकों की देख-रेख में इन्हें बनारस भेज दिया जाये और वहीं यह लोग पुलिस के हवाले कर दिये जायें। मैंने एक छोटी-सी रिपोर्ट तैयार की। उन लोगों में से सभी हाथ जोड़कर न जाने क्या-क्या कह रहे थे। अधिकांश तो मेरी समझ में आया नहीं। परन्तु उनकी बातों का तथ्य था कि हम लोग निर्दोष हैं, हम लोगों को छोड़ दिया जाये। परन्तु न्याय करना हम लोगों को परम धर्म है। ब्रिटिश शासन का इतना विस्तार केवल न्याय के बल पर हुआ है और न्याय के बल पर यह टिका भी है। इसलिये छोड़ना तो असम्भव बात थी और कोई साधारण बात होती तो मैं क्षमा कर देता। एक स्त्री को इस प्रकार भगाना तो सभ्यता और समाज के प्रति भी अपराध है।

मैं चार सैनिकों को आदेश दे रहा था कि इन्हें बनारस में पुलिस को देकर वह लोग रेल से कानपुर आयें कि एक व्यक्ति घोड़े पर जा रहा था। निकट आने पर देखा कि वह कोई पुलिस अफसर था। वह वर्दी भी पहने हुए था। मैं भी वर्दी में था। मैंने उसे रोका। उसने मुझे सरकारी सलाम किया। मैंने अंग्रेजी में उसे पूरा विवरण बताया और कहा कि यह लोग बदमाश जान पड़ते हैं। इस प्रकार के कृत्य करते हैं। वह तो संयोग से हम लोगों ने देख लिया। इन लोगों ने समझा होगा कि इस राह में कौन मिलता है। वह पुलिस का इंस्पेक्टर दारोगा था। उसने मुझे बहुत-बहुत धन्यवाद दिया और वह उनको बुलाकर सब घटना पूछने लगा। कुछ बात करने के बाद वह मुस्कुराया और मेरे पास आकर बोला, ''यह सब आदमी निर्दोष हैं।'' मुझे बड़ा क्रोध आया। मैंने कहा कि यह कैसी बात है। दारोगा ने कहा कि बात यह है कि भारतवर्ष में यह प्रथा है कि विवाह में बहुधा अपनी स्त्री को घर नहीं ले जाते। कुछ दिनों के बाद ले जाते हैं। वही प्रथा यह है और पति के साथ इतने आदमी उसकी ससुराल गये थे और यहाँ की वह भी एक प्रथा है कि जब दुलहिन घर छोड़कर पति के साथ आने लगे, तब उसे रोना पड़ता है। चाहे उसकी इच्छा हो या न हो, रोना आवश्यक है। जो न रोये वह लड़की निर्लज्ज समझी जाती है और उसकी हँसी होती है और जो जितना अधिक रोती है, वह उतनी ही शिष्ट और शालीन समझी जाती है। गाँव-भर में उसका उतना ही नाम होता है। राह-भर और पति के घर तक रोते जाना माता-पिता के प्रति प्रेम का लक्षण है।

मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने मन में सोचा कि भारत, तू विचित्र देश है और लारी बढ़ायी।

मुशायरा

इतने दिनों तक भारतवर्ष में रहने के पश्चात् मुझे यह ज्ञात हो गया कि सेना विभाग में काम बहुत ही कम है। खूब भोजन करना, घुड़सवारी करना, चाँदमारी करना, परेड करा देना, यही हम लोगों का काम था और सप्ताह में तीन-चार दिन सिनेमा देखना। मैंने अपने ऊपर और कुछ काम ले लिये थे। जैसे उर्दू पढ़ना, इस देश का इतिहास, यहाँ की पुरानी बातों का अध्ययन, पुरातत्त्व, रीति इत्यादि! उर्दू में इधर पाँच-छः महीनों में मैंने बहुत उन्नति कर ली थी। मौलवी साहब पहले की भाँति सप्ताह में तीन दिन आते थे और उन्होंने अब मुझे कविता पढ़ानी आरम्भ कर दी थी।

मौलवी साहब जब कविता पढ़ाते थे तब वह कवि के भावों का चित्र खड़ा कर देते थे। मेरा निश्चित मत है कि ब्रिटिश सेना के लिये उर्दू कविता का पठन-पाठन बहुत आवश्यक है क्योंकि उसमें उदात्त सैनिक भावनायें शब्दों में रहती हैं। यद्यपि पुराने समय की होने के कारण उसमें तीर, तलवार, ढाल इत्यादि के ही विशेष रूप से वर्णन हैं और आधुनिक शस्त्रों का जैसे हवाई जहाज, बम, टारपीडो, मशीनगन के वर्णनों का अभाव है फिर भी जहाँ सिद्धांतों का सवाल है, उर्दू कविता तथा भारत का सैनिक विभाग एक ही मत के अनुयायी हैं। सैंडहर्स्ट का जो सैनिक कॉलेज है उसमें उर्दू कविता अनिवार्य हो जानी चाहिये। जो स्थान कुरआन का इस्लाम धर्म में है, वही स्थान उर्दू कविता को सैनिक विभाग में मिलना चाहिये।

यह भाव मुझमें कैसे आ गये उसका एक कारण है। एक दिन मौलवी साहब ने एक कविता सुनायी, जिसकी कुछ पंक्तियाँ यह थीं -

खूने - दिल पीने को औ ' लख्ते - जिगर खाने को

यह गिजा मिलती है जानाँ तिरे दीवाने को

जानाँ प्रेमिका को कहते हैं और दीवाना उसके प्रेमी को। मुझे आश्चर्य हुआ और मैंने पूछा है कि कौन-सी प्रेमिका थी जिसके प्रेमी चीता या सिंह या भेड़िया थे जिनका आहार कलेजे का टुकड़ा और पेय हृदय का रुधिर था। मौलवी साहब ने इसे अनेक भाँति से समझाने की चेष्टा की, परन्तु यह तो एक थी। इसी भावना की सारी पुस्तक की कवितायें थीं। एक पंक्ति थीं -

सुना ये है कि वो मकतल में खंजर ले के बैठे हैं

बला से जान जायेगी तमाशा हम भी देखेंगे

खंजर हथियार पुराना है और आजकल मशीनगन अथवा कम से कम पिस्तौल का प्रयोग अधिक अच्छा होता है, फिर भी मार-काट की भावना को जाग्रत रखना सेना तथा सेनानी दोनों का धर्म है।

मैं उर्दू कविता का एक संकलन करके सेना विभाग के अध्यक्ष के पास भेजने वाला हूँ। भारत सरकार की स्वीकृति लेकर उसे सेना विभाग के लिये प्रकाशित कर देना बड़ा लाभदायक होगा।

मौलवी साहब कहा करते थे कि यह बातें प्रेम-सम्बन्धी हैं और प्रेमी-प्रेमिका के लिये लिखी गयी हैं। मैंने उनसे पूछा कि प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे से प्रेम करते हैं और वियोग में एक-दूसरे की स्मृति में तड़पते हैं कि प्रेमिका प्रेमी का गला रेतती है, जैसे-रगड़ते हैं गला खंजर पे ये शौके-शहादत है - या किसी की छाती में छुरा घुसेड़ देना अथवा एक साथ अनेक तीरों के फव्वारे छोड़ना प्रेम के चिह्न नहीं हो सकते और यदि यही प्रेम के चिह्न हैं तो भारत के प्रेमियों का बड़ा साहस है।

मुझे अनेक भाषाओं के साहित्य का ज्ञान तो नहीं है। हमारी अपनी भाषा में भी आँख की उपमा तीर से दी गयी है, किन्तु कटार चलाना और खून की नदी बहाना और कलेजे में छुरी भोंकना और फेफड़े की बोटी-बोटी काटना तो सिवाय युद्ध के और कहीं सुना नहीं।

मैं तो अपने रेजिमेंट में यह व्यवस्था करनेवाला हूँ कि हाथ में तलवार लेकर एक-एक उर्दू कविता की पंक्ति पढ़ते चलें और हाथ भाँजते चलें। जैसे ताल पर नृत्य होता है वैसे ही प्रत्येक शेर पर छुरी भोंकते चलें।

मौलवी साहब ने एक दिन कहा कि आप मेरी भाषा की हँसी उड़ाया करते हैं। आप कल मुशायरे में चलिये। यहाँ एक मुशायरा होने वाला है। तब आप इसके जोर को समझ सकेंगे।

मैंने पूछा - 'मुशायरा क्या चीज है?'

मौलवी साहब ने कहा कि उर्दू कविता की दो पंक्तियों को शेर कहते हैं। मुशायरा एक जलसा होता है जहाँ उर्दू की रचनायें पढ़नेवाले आते हैं। मैंने पूछा, 'क्या उर्दू में पुस्तकें कम छपती हैं, पढ़ने से क्या अभिप्राय?' मौलवी साहब बोले कि इससे कवि की भावना अधिक अच्छे प्रकार से जानी जाती है।

मैंने कहा, 'यद्यपि आपकी कृपा से अब समझ भी सकता हूँ, परन्तु उन लोगों की ऊँची बातें कैसे समझ सकता हूँ? फिर भी ऐसे स्थान पर मैं जा कैसे सकता हूँ? लोग क्या समझेंगे।

मौलवी साहब ने कहा कि मैं सब प्रबन्ध कर दूँगा।

दूसरे दिन छपे कार्ड पर निमन्त्रण मिला और मौलवी साहब ने कहा कि यदि मेरी राय आप मानें तो आप अचकन और चूड़ीदार पायजामा पहनकर चलें तो अधिक उत्तम होगा। यों तो आप चाहे जिस प्रकार का कपड़े पहनकर जा सकते हैं, परन्तु यदि आप उन कपड़ों को पहनेंगे जिन्हें मैं बताता हूँ तो सबके साथ बैठ सकेंगे।

मैंने इसे स्वीकार किया। मैंने कहा कि यदि इस प्रकार से प्रबन्ध हो सके तो मैं चल सकूँगा।

मौलवी साहब आठ बजे रात में मेरे पास आये। मैंने एक ताँगा मँगवाया और चला। कर्नल साहब से कहला दिया कि मौलवी साहब के यहाँ भोजन है, मैं वहीं जा रहा हूँ, देर हो सकती है।

हम लोग साढ़े आठ बजे ठीक स्थान पर पहुँच गये। वहाँ फर्श बिछा हुआ था, रोशनी गिलासों में जल रही थी। कमरे में एक ओर एक छोटी-सी चौकी रखी थी और उसी के निकट एक गद्दी बिछी थी। एक तकिया रखा था, दीवार के चारों ओर कुर्सियाँ रखी थीं। उन्हीं में एक पर जाकर बैठ गया। केवल चार-पाँच आदमी वहाँ दिखायी दिये। नौ बजे, फिर दस, अब कुछ-कुछ लोग दिखायी दिये। मैंने सोचा था कि दस बजे तक सब कार्य समाप्त हो जायेगा, किन्तु अभी तो लोग आ रहे थे। साढ़े दस बजे एक सज्जन आये जिनके आते ही सब लोग खड़े हो गये। इस समय वहाँ जितने लोग थे उनमें अधिकांश दाढ़ी रखे हुए थे। एक चौथाई इंच से लेकर डेढ़ फुट तक की दाढ़ियाँ दिखायी पड़ीं। ऐसे लोग भी थे जिनके दाढ़ी नहीं थी और कपड़े भी विचित्र थे। कुछ लोग कमर से चैक की डिजायन के कपड़े लपेटे हुए, कुछ लोगों के पाँव में ऐसा जान पड़ता था कपड़ा लपेटकर सिला गया है।

कुछ लोग इतना चौड़ा पायजामा पहने हुए थे जिसमें एक मनुष्य को सरलता से शरण मिल सकती थी। टोपियाँ भी विभिन्न भाँति की थीं। कोई कब्र की शक्ल की, कोई कुतुबमीनार की तरह, किसी-किसी में एक पूँछ लटक रही थी, कुछ लोग ऐसी टोपियाँ लगाये थे जिनसे जान पड़ता था कि वैद्यों का खरल उलटकर सिर पर रख लिया है। रंग भी वैसे ही अनेक थे। चूने पुती दीवार-सी सफेद से लेकर ऐसी कि जिन्हें निचोड़ा जाये तो दो आउंस तेल कम से कम निकल सकता था।

उर्दू के कवि और कविता

ग्यारह बजे से कविता आरम्भ हुई। पहले जो साहब आये वह युवक थे। अपने घुटनों के बल बैठ गये। फिर अपनी जेब में से उन्होंने एक मोड़ा-माड़ा बादामी कागज का टुकड़ा निकाला और एक-एक पंक्ति गा-गाकर पढ़ने लगे। सुननेवाले दो-दो तीन-तीन मिनट पर वाह-वाह की ध्वनि निकाल रहे थे और लोग झूमते भी जाते थे। कभी-कभी तो इतने जोर से शोर होता था कि समझ में नहीं आता था कि कवि महोदय क्या कह रहे हैं।

मेरी समझ में कभी एकाध शब्द आ जाता था। जब वहाँ पहुँच ही गया था तब मैंने सोचा कि कुछ समझता भी चलूँ। मैंने मौलवी साहब से कहा कि आप मेरे निकट बैठें तो इस मुशायरे का आनन्द कुछ मैं भी उठाऊँ।

मौलवी साहब मेरी बगल में आकर बैठ गये। एक बार एक कवि ने एक शेर पढ़ा। लोगों ने 'वाह-वाह' का ताँता बाँध दिया और लोग लगे चिल्लाने - 'मकरी शाह, मकरी शाह!' मैंने मौलवी साहब से पूछा कि यह मकरी शाह कौन थे। नादिर शाह, अहमद शाह, बहादुर शाह का नाम तो मैंने पुस्तकों में पढ़ा था, परन्तु मेरा अध्ययन इतिहास का इतना गम्भीर नहीं है कि मकरी शाह का नाम जान लेता। फिर कविता में इनका क्या प्रयोजन? मौलवी साहब ने कुछ मुँह बनाकर उत्तर दिया - 'मकरी शाह नहीं; यह कह रहे हैं - 'मुकर्रर इरशाद', 'मुकर्रर इरशाद' - जिसका अर्थ है कि फिर से कहिये, फिर से कहिये।'

मैंने कहा कि तब सीधे-सीधे 'फिर से कहिये' क्यों नहीं कह देते जिसमें मेरे ऐसे लोगों की समझ में भी आ जाता। मौलवी साहब ने मुझे समझाया कि कवि, हकीम, डॉक्टर को जो कुछ भी कहना होता है सीधे ढंग से नहीं कहते। जैसे किसी हकीम को सौंफ का अर्क कहना होगा तो यों नहीं कहेगा। कहेगा - 'अर्क बादियान'। किसी डॉक्टर को कहना है कि खोपड़ा फूल गया है तो वह कहेगा - 'क्रौनिकल इनफ्लैमैंजाइटिस'। इसी प्रकार यदि कवि को कहना होगा कि ओस सूख गयी तो वह कहेगा - 'शबनम के मोती चोरी हो गये।' किसी के हृदय में वियोग की बेचैनी है तो वह कहेगा हिज्र के समुंदर में मेरी किश्ती डाँवाडोल हो रही है।

इन्हीं बातों को समझने के लिये बुद्धि की आवश्यकता है। देखिये, यह जो शायर साहब आ रहे हैं, बड़ी ही ऊँची कविता करते हैं। इनकी कविता ध्यान से सुनिये। आपको बड़ा आनन्द आयेगा। इन्होंने गाकर कविता पढ़नी आरम्भ की। पहली पंक्ति पर ही 'वाह-वाह' की ध्वनि हाल-भर में गूँज पड़ी और दूसरी पंक्ति पढ़ते-पढ़ते वह कवि महोदय लगभग खड़े हो गये और 'वाह-वाह' की, 'मुकर्रर इरशाद-मुकर्रर इरशाद' और 'सुभान अल्लाह' के शब्द से हॉल की छत हिलने लगी। बाहर वाला यदि कोई सुनता तो समझता कि झगड़ा हो रहा है। मैंने मौलवी साहब से कहा - 'क्या कहा इन्होंने, मुझे भी समझाइये, मौलवी साहब ने कहा कि इन्होंने जो कहा वह मेरी समझ में भी नहीं आया। मैंने कहा कि आपने तो बड़े जोरों से 'वाह-वाह' कहा। मौलवी साहब ने कहा कि बात यह है कि यह देश के बहुत बड़े उर्दू के कवि हैं। इसलिये इन्होंने जो कुछ कहा होगा बहुत ऊँचे दर्जे की बात कही होगी।

मुशायरे का नियम है कि 'वाह-वाह' बड़े कवियों की कविता पर अवश्य करना चाहिये। चाहे समझ में आये चाहे नहीं। यहाँ जितने लोग बैठे हैं उनमें से आधे से अधिक ऐसे हैं जिन्हें बहुत-सी कवितायें समझ में नहीं आतीं। कुछ तो इनमें ऐसे हैं जो दुकानदार हैं। दिन-भर कपड़ा बेचा, तरकारी बेची, बिसातखाने का सामान बेचा, रात को कविता सुनने चले आये। इनका यही गुण है कि कहीं उर्दू का कविता-पाठ होगा, यह जायेंगे अवश्य। यह लोग भी 'वाह-वाह' और 'सुभान अल्लाह' करते हैं। इससे कवि का मन बढ़ता है और उर्दू साहित्य की उन्नति होती है।

मुझे यह बात कुछ विचित्र-सी जान पड़ी। परन्तु अपने-अपने यहाँ का नियम ठहरा। मैं तो मूक दर्शक था। मैंने मौलवी साहब से कहा कि तब तो मैं भी 'वाह-वाह' कर सकता हूँ। मौलवी साहब ने कहा - 'अवश्य। यह आवश्यक नहीं है कि समझ में आये। 'वाह-वाह' कहते-कहते कविता समझ में आने लगेगी।'

मैं यही सोच रहा था कि कब से आरम्भ करूँ। एक शायर साहब आये। बड़े-बड़े बाल, आँखें लाल-लाल और हाथ में एक रेशम का रूमाल। अवस्था कोई बीस साल की होगी। मूँछें साफ थीं, दाढ़ी भी नहीं थी। चाल-ढाल ऐसी थी जैसे अभी किसी होटल से पन्द्रह पैग चढ़ाकर आये हैं। मैंने समझ कि यह अवश्य ऊँचे दर्जे का कवि होगा। यद्यपि अवस्था अधिक नहीं है, किन्तु रचना इसकी अवश्य उत्कृष्ट होगी। कविता और अवस्था में तो कोई सम्बन्ध नहीं है। कीट्स तेईस साल की अवस्था में जो लिख गया वह तिहत्तर साल में भी लोग नहीं लिख पाये।

ज्यों ही उसने बड़े सुरीले ढंग से दो पंक्तियाँ पढ़ीं, मैंने इस बात का ध्यान नहीं दिया कि लोगों पर इसका प्रभाव क्या पड़ेगा, बड़े जोरों से दो बार 'वाह-वाह', 'वाह-वाह' कहा। परन्तु देखता क्या हूँ कि उस उपस्थित जनता में किसी और के मुख से कोई शब्द नहीं निकले। सन्नाटा-सा रहा। लोग मेरी ओर आँख गड़ाकर देखने लगे। मुझे यह नहीं जान पड़ा कि क्यों लोग मेरी ओर ऐसे देखने लगे। मेरा मुँह एकदम लाल हो गया।

मैंने मौलवी साहब से पूछा कि क्या बात है। इस बार सब लोग चुप क्यों हैं?

मौलवी साहब बोले - 'आपने बड़ी गलती की। इसने एक ऐसी बात कही है जो मुसलमानी विचारों के विरुद्ध है। इसने कहा कि एक समय वह आयेगा जब इस्लाम आदि कोई धर्म पृथ्वी पर रह नहीं जायेगा।'

मैंने कहा कि इसमें क्या। यह तो कविता है। मौलवी साहब ने कहा कि नहीं, कविता में भी हम लोग कोई ऐसी बात नहीं लाना चाहते जो धर्म और परम्परा के विरोध में हो। मैंने कहा - 'तब तो नवीन विचार आ ही नहीं सकते।' मौलवी साहब ने कहा कि नवीन विचार तो संसार में कुछ है नहीं। जो लिखा जा चुका है, वही है। यह लड़का रूसी विचारों को माननेवाला है। आपको जब प्रशंसा करनी हो तब मुझसे पूछ कर 'वाह-वाह' कीजिये।

इसके बाद उसने कुछ और पढ़ा। इस पर एक बहुत वृद्ध मौलाना खड़े हो गये और कहा कि सभापति महोदय से मेरा अनुरोध है कि इनका पढ़ना बन्द कर दिया जाये। यह इस्लाम का अपमान है। उस युवक ने कहा कि मैं बुलाया गया हूँ। मुझे न पढ़ने देना मेरा अपमान है। इसी में सभापति महोदय ने अधिवेशन बन्द कर दिया।

मैंने मौलवी साहब से पूछा कि जहाँ कोई रूसी विचारों का नहीं पहुँचता वहाँ का मुशायरा कैसे समाप्त किया जाता है?

तीन बज रहे थे। मैंने उस युवक को धन्यवाद दिया कि मुशायरा समाप्त करने में उसने बड़ा सहयोग किया।

शासन का रहस्य

कानपुर में रहते-रहते जीवन ऊब-सा गया। नित्य वही दिनचर्या, नित्य वही लोग और नित्य वही क्लब की सन्ध्या। मन हो रहा था कि छुट्टी लेकर इंग्लैंड दो-तीन महीने के लिये हो आऊँ। धीरे-धीरे गर्मी भी बढ़ रही थी। परन्तु अभी छुट्टी नहीं मिल सकती थी। कर्नल साहब ने एक दिन क्लब में मुझे उदास देखकर कहा कि तुम्हारा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। मैंने उन्हें सब बातें बता दीं। उन्होंने कहा कि तुम पहली बार इस देश में आये हो, यहाँ की गर्मी सह न सकोगे, पहाड़ पर चले जाओ। मेरे मन में बात बैठ गयी।

रेलवे कम्पनी को लिख, अनेक पहाड़ी नगरों के सम्बन्ध में साहित्य एकत्र किया। कई पुस्तिकायें भी एकत्र कीं। उन्हें पढ़ने से जान पड़ा कि सभी पहाड़ियाँ स्वर्ग के समान हैं। शिमला पर पुस्तक पढ़ने से जान पड़ा कि संसार में शिमला से बढ़कर कोई पहाड़ है ही नहीं।

परन्तु जब दार्जलिंग के सम्बन्ध में पढ़ने लगा तब समझ में आया कि दार्जलिंग के सामने सभी पहाड़ तुच्छ हैं। इसी प्रकार जब जो पुस्तक पढ़ता, जान पड़ता है कि यही नगर सबसे उत्तम गर्मी का समय बिताने योग्य है।

मैं दो बातों की ओर ध्यान देता था ऐसा पहाड़ हो जहाँ नाच की अच्छी सुविधा हो, गौल्फ और क्रिकेट खेलने की अच्छी व्यवस्था हो, शराब खूब मिलती हो और भारत के सम्बन्ध में अध्ययन करने के लिये कुछ अवसर मिले। मैंने बनारस के सम्बन्ध में रायल जियोग्राफिकल सोसाइटी के पास एक लेख भेजा था जिसकी बड़ी प्रशंसा हुई और उनकी त्रैमासिक पत्रिका में वह लेख प्रकाशित भी हुआ। मैं इस देश के सम्बन्ध में और भी लिखना चाहता था, इसलिये यहाँ के विख्यात स्थान और पुराने ऐतिहासिक स्थानों को देखने की भी बड़ी लालसा थी।

मैं स्वयं निश्चय नहीं कर सका कि कहाँ जाना चाहिये, कर्नल साहब से पूछा। उन्होंने कहा कि देखो, उसी पहाड़ पर जाना चाहिये, जहाँ हिन्दुस्तानी लोग कम जाते हों। मैंने कहा कि हिन्दुस्तानी लोग कुछ छीन तो लेंगे नहीं और मैं इनके सम्बन्ध में कुछ जानना चाहता हूँ। यदि ऐसे स्थान पर जाऊँ जहाँ यह लोग भी हों तो पीछे बहुत-सा काम निकल सकता है। कर्नल शूमेकर ने कहा कि यह सबसे बड़ी भूल होगी। यदि हम उनसे मिलने-जुलने लगेंगे तो हम उन पर शासन नहीं कर सकेंगे। जिन पर शासन करना हो उनसे कभी हिल-मिलकर नहीं रहना चाहिये और जो बातें उनकी अच्छी भी हों उन्हें भी यही कहना चाहिये कि यह किसी काम की नहीं है। मैंने कहा कि यह तो झूठी बात होगी, अच्छी बात को बुरी बात कहना। कर्नल साहब ने कहा कि यदि झूठ बोलने से वेतन अच्छा मिले तो कोई पाप नहीं और एक बात तुम नहीं जानते। ऐसा कहते-कहते स्वयं भारतवाले विश्वास करने लगते हैं कि इन्हीं की बात सच होगी। इसलिये हमारे देश के कितने ही लोगों ने किताबें लिखी हैं। जिनमें मनमाना लिख दिया है और भारतवासी उसी को प्रमाण मानने लगे हैं। यदि तुम आज एक पुस्तक लिख दो और उसमें लिख दो कि मद्रास में एक पत्थर मिला है जिस पर एक लेख लिखा था, जो अब घिस गया है, कि उनके बड़े भारी राजा का नाम राम इसलिये पड़ा कि वह रोम से आये थे तो भारत के सब विद्वान इसे मान लेंगे और कालेज तथा स्कूल की सब पुस्तकों में वही छापा जायेगा।

जो चतुर हैं वह इसी पर एक ग्रन्थ लिख डालेंगे और कहेंगे कि किसी पुराण में भी इसका संकेत आया है, किसी शास्त्र में भी और विश्वाविद्यालय से उन्हें डाक्टरेट की उपाधि भी मिल जायेगी। मैंने कहा - 'किन्तु हम लोग इंग्लैंड में कहते हैं कि भारतवासियों को हम स्वराज्य के लिये शासन सिखला रहे हैं। ऐसी अवस्था में उन्हें पथभ्रष्ट करना कहाँ तक ठीक होगा?'

कर्नल साहब बोले कि कहने के लिये जो जब चाहे कह दो, फिर उसे बदल सकते हो। तुम जानते नहीं। यह हमारी जाति की विशेषता है। परिवर्तन जीवन है, स्थिरता मृत्यु। सरिता में जीवन है, पहाड़ में मृत्यु।

मैं तो पहाड़ के सम्बन्ध में पूछने गया था और विषयान्तर होने लगा।

मैं विषय बदलने वाला ही था कि कैप्टन-बफैलो 'पायनियर' की प्रति लिये हुए आये ओर बड़ी शीघ्रता से बोले - 'कर्नल साहब, मैं बरबाद हो गया।

कर्नल साहब ने कहा - 'बात क्या है?' बफैलो साहब ने कुछ कहा नहीं केवल समाचार पर उँगली दिखायी। समाचारपत्र में 27 अप्रैल का तार कानपुर के संवाददाता का छपा था कि श्रीमती बफैलो सत्रहवीं मराठा राइफल नाम की पलटन के कप्तान शेपर्ड के साथ भाग गयी।

कर्नल साहब ने कहा कि बात क्या है? बफैलो साहब ने कहा कि मैं शिकार के लिये चार दिनों से बाहर था। कल रात मैं देर से लौटा। सवेरे पत्नी के स्थान पर यह समाचार मिला। अब क्या करना चाहिये?

कर्नल साहब बोले - 'करना क्या चाहिये?' विवाह-विच्छेद की एक अर्जी कचहरी में देनी चाहिये और दूसरे विवाह के लिये चेष्टा करनी चाहिये।'

मैंने कहा - 'किन्तु यह तो जानना चाहिये कि कारण क्या है? और क्यों कैप्टन शेपर्ड के साथ वह भागी। इस समाचार में कहाँ तक सच्चाई है; यह भी जानना आवश्यक है।'

कर्नल साहब ने कहा कि इस पर बेकार समय नष्ट करना है। स्त्रियों का भाग जाना ही स्वाभाविक है, घर में रहना ही अस्वाभाविक है। रह गयी दूसरे विवाह की बात। कैप्टन बफैलो, तुम्हारी क्या उम्र है? कैप्टन ने कहा कि उन्तीस वर्ष, सात महीने, तीन दिन। कर्नल साहब बोले - 'तुम तो कप्तान होने योग्य नहीं हो। मेरा जब विवाह हुआ तब मैंने पत्नी से कह दिया - देखो, यदि तुम मुझे छोड़ोगी तो मैं दूसरे ही दिन दूसरा विवाह कर लूँगा और इससे कुछ मतलब नहीं कि किससे। यदि सौ स्त्रियाँ छोड़ेंगी तो सौ विवाह करूँगा। फल यह हुआ कि आज सैंतालीस साल विवाह के हो गये पर कभी अलग होने की बात नहीं आयी।'

मैंने कहा - 'इसीसे मैंने विवाह नहीं किया।'

कर्नल ने कहा - 'विवाह कोई करता नहीं। हो जाता है।' और फिर बफैलो महोदय की ओर उन्होंने संकेत करके कहा कि आप अमुक बैरिस्टर से मिलिये और आज ही कचहरी में दरखास्त दे दीजिये।

जब बफैलो चले गये, मैंने कर्नल से कहा कि आपने सहानुभूति नहीं दिखायी। बड़ा रूखा बरताव दिखाया। उन्होंने कहा कि एक बार की बात हो तो सहानुभूति दिखा दूँ। अभी कितनी बार उनकी पत्नी भागेगी, कितनी बार विवाह-विच्छेद होगा, कहाँ से इतनी सहानुभूति लाऊँ? जैसे प्रति वर्ष या दूसरे वर्ष हम लोग अपनी वर्दी बदल देते हैं, सेना के अफसर अपनी पत्नियाँ बदलते हैं और उनकी पत्नियाँ अपने पति, यही मैं इतने दिनों की नौकरी में देखता चला आ रहा हूँ।

मैंने कहा - 'अच्छा है। मैं अपना जीवन अविवाहित ही बिताऊँगा। देर हो रही है। मुझे आप यह बता दें कि मेरे स्वास्थ्य की दृष्टि से और मनोरंजन की दृष्टि से भी किस पहाड़ पर जाना उचित होगा?'

कर्नल साहब ने कहा - 'मुझे पहाड़ों का विशेष अनुभव नहीं है। मैं तो दो-एक बार पहाड़ पर गया हूँ। गर्मी के दिनों में दिन-भर खस की टट्टी में रहता हूँ। पंखा चला करता है और बर्फ और बियर पीता रहता हूँ। परन्तु तुम्हारे लिये अभी यह ठीक नहीं होगा। तुम्हारे लिये शिमला, नैनीताल या मसूरी ठीक हो सकता है। डलहौजी अच्छी जगह है, किन्तु वहाँ मनोरंजन नहीं है। लैन्सडाउन भी ठीक है, किन्तु वह भी तुम्हें अच्छा नहीं लगेगा।'

मैंने कहा - 'मैं वहीं जाना चाहता हूँ जहाँ भारत के जीवन के अध्ययन करने का अवसर मिले। मैं धीरे-धीरे भारत की ओर आकृष्ट होने लगा हूँ।'

मसूरी की यात्रा

बहुत सोच-विचार के बाद मैंने यह निश्चय किया कि मसूरी चलूँ। व्हीलर की दुकान से मसूरी के सम्बन्ध में तीन-चार पुस्तकें लाया और सामान की तैयारी होने लगी। आज अप्रैल की बाईस तारीख को मैं मसूरी के लिये चला। स्टेशन पर मुझे एक मित्र पहुँचाने के लिये आये।

जिस डब्बे में सवार हुआ, केवल दो व्यक्ति थे। एक मैं और एक और सज्जन थे। बहुत पतले न बहुत मोटे। अवस्था कोई चालीस साल। रंग आसमानी। एक बेंच पर लेटे हुए थे। ज्यों ही मैंने डब्बे में पाँव रखा, घबड़ा कर उठ बैठे। कुछ सहमे, सकपकाये-से, परन्तु मैंने कुछ ध्यान नहीं दिया। मेरा सब सामान रखा जा रहा था। तब तक वह खिड़की के पास गये और गाड़ी चलते-चलते उन्होंने अपने नौकर को, जो नौकरोंवाले डिब्बे में बैठा था, बुला लिया।

गाड़ी चल पड़ी। वह मेरी ओर कभी-कभी देख लिया करते थे। नौकर से उन्होंने कहा - 'ह़ुक्का चढ़ाओ।' मेरी समझ में केवल 'चढ़ाओ' शब्द आया। मैंने समझा कि उनका अभिप्राय यह है कि मुझे ऊपरवाले बेंच पर चढ़ा दो। मैंने समझा, हो सकता है अपने से वहाँ चढ़ सकने में असमर्थ हैं। मैंने सोचा कि अवसर अच्छा है, इन्हें सहायता भी दूँ और परिचय भी हो जाये तो चौबीस घंटे की यात्रा भी कट जाये।

परन्तु मैं यह नहीं जानता था कि वह अंग्रेजी जानते हैं कि नहीं। उर्दू बोलने में मुझे संकोच होता था, लाज भी लगती थी। न जाने कैसे हिन्दुस्तानी लोग फर्रफर्र अंग्रेजी बोल लेते हैं। उन्हें कुछ लज्जा नहीं लगती। देखा कि उनके पास ही अंग्रेजी के समाचारपत्र रखे हैं, एक पुस्तक भी पड़ी है। मैं इतना तो समझ गया कि इन्हें अंग्रेजी आती है। मैंने अंग्रेजी में कहा - 'यदि मेरी सहायता की आवश्यकता हो तो मैं तैयार हूँ। मैं आपको ऊपर की बेंच पर चढ़ा सकने में सहायक हो सकता हूँ।' उन्होंने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे कुछ डर गये हों और नौकर से पता नहीं क्या कहा। इसके बाद ही एक स्टेशन आया और गाड़ी खड़ी हो गयी।

वह उतरकर बाहर गये और कुली बुला लाये और अपना असबाब उतारने के लिये कहने लगे कि दूसरे डब्बे में चलो। संयोग की बात थी कि पहले दर्जे का कोई दूसरा डब्बा नहीं था। इसलिये वह स्टेशन मास्टर को बुला लाये। न जाने क्या कहा। स्टेशन मास्टर ने मुझे कहा कि आप इन्हें क्यों नहीं बैठने देते? स्थान तो काफी है। मैंने कहा कि मैंने तो कोई आपत्ति नहीं की। फिर उन्होंने कहा कि यह मुझे ऊपर के बर्थ पर जबरदस्ती चढ़ा रहे थे। स्टेशन मास्टर के पूछने पर मैंने कहा कि इन्होंने नौकर से कहा, मैंने केवल इनकी सहायता करनी चाही। सब जानने पर बड़ी हँसी हुई और हम लोग मित्र हो गये।

मैंने अपना परिचय दिया; और उनका नाम पूछा। उन्होंने अपना नाम बताया, 'राजा काली-नाग-मर्दन-प्रसाद-राय नारायण सिंह! मुझे भारतवासियों के नाम के सम्बन्ध में कुछ नहीं ज्ञात था, फिर भी मैंने यह समझा कि यह बड़े आदमी हैं, बड़े आदमियों का नाम भी बड़ा होता होगा।

इसके बाद हुक्का चढ़ा। अब मेरी समझ में आया कि हुक्का क्या होता है। एक विचित्र प्रकार का चाँदी का लोटा था। जिसकी गरदन पतली थी। उस गरदन में लम्बी-लम्बी नलियाँ बैठायी हुई थीं। उन नलियों के ऊपर कपड़ा लपेटा हुआ था। एक नली के ऊपर मिट्टी का एक बरतन रखा गया। यह बरतन फूल की शक्ल का था जिसके एक ओर छेद था दूसरी ओर बड़ी-सी जगह। इसमें एक काली वस्तु रखी गयी जो पीछे पता चला कि तम्बाकू है। इस पर एक मिट्टी का छोटा-सा ढकना-सा रखा गया और उस पर धधकते हुए अंगारे। दूसरी नली में से एक और बड़ी नली लगी हुई थी जिसमें मुँह लगाकर राजा साहब पीने लगे और उनके मुँह से धुआँ निकलने लगा, ठीक छोटी लाइन के इंजन की भाँति।

अब यही समझ में आया कि हुक्का एक प्रकार का हिन्दुस्तानी पाइप है। अंग्रेजों की जानकारी के लिये मैं यह बता देना चाहता हूँ कि भारत में चार प्रकार से तम्बाकू पी जाती है। एक तो बीड़ी से, जिसे दो प्रकार के लोगों को मैंने पीते देखा है - एक तो मजदूर लोग और दूसरे क्रान्तिकारी लोग। जब कोई अंग्रेज किसी गरीब को बीड़ी पीते देखे तब समझ ले कि यह किसी मिल का मजदूर, किसान, लोहार, बढ़ई या साधारण दुकानदार होगा और किसी साफ कपड़ा पहनने-वाले को पीते देखे तो तुरन्त समझ लेना चाहिये कि यह क्रान्तिकारी दल का सदस्य या अराजकतावादी या समाजवादी होगा।

दूसरे प्रकार के वह लोग हैं जो हम लोगों की भाँति सिगरेट या सिगार पीते हैं। यह वही लोग हैं जिनके भरोसे भारत में अंग्रेजी राज्य स्थिर है। इन लोगों से किसी प्रकार का भय नहीं है। यह लोग भाषण बहुत अच्छा देते हैं।

तीसरा प्रकार हुक्का है। मुझे राजा साहब से पता चला कि इसे विविध प्रकार से लोग प्रयोग करते हैं किन्तु यह राजा-रईसों के पीने का ढंग है। सवेरे उठने के पश्चात्, भोजन के पश्चात्, सोने के पहले यह लोग इसका सेवन करते हैं और दो घंटे कम से कम इसमें लगते हैं। यदि इस प्रकार न पिया जाये तो बड़प्पन में अन्तर आ जाता है और यदि यों न पिया जाये तो चौबीस घंटे का समय भी काटना कठिन है। इस प्रकार से छः घंटे कट जाते हैं।

राजा साहब ने बड़ा कष्ट करके हुक्के के सब भागों का नाम बताया और कैसे धुआँ निकलता है, यह भी समझाया। जिसमें तम्बाकू रखा जाता है, उसे चिलम कहते हैं। गाँव के लोग केवल चिलम हाथ में लेकर पी लेते हैं। राजा साहब ने इस विषय में बहुत खोज भी की थी। उनका कहना था कि यह शब्द संस्कृत 'चिलमीलिका' से बना है। चिलमीलिका का अर्थ बिजली होता है। इसका सेवन करने से मनुष्यों में बिजली के समान स्फूर्ति आ जाती है। इसलिये इसे भी लोग चिलमीलिका कहने लगे।

इसके बाद वह जोर-जोर से पीने लगे। धुआँ निकलता था और 'गड़बड़' शब्द भी हो रहे थे। जैसे बरसात में किसी नाले में पानी बहता है। राजा साहब ने मुझसे पीने के लिये कहा। मैंने पहले तो कहा कि मैं सिगरेट पीता हूँ और मेरे पास है भी। यह न कह सका कि कैसे जूठा पी सकता हूँ। किन्तु सम्भवतः वह मेरी बात समझ गये। उन्होंने नौकर से कुछ कहा और एक चाँदी की नली निकाली, उसे नौकर ने साफ किया और वह उन्होंने उस हुक्के की नली पर लगा दी और मेरे सामने नौकर ने पीने के लिये बढ़ा दिया। मैंने दो-एक बार खींचा तो उतना धुआँ न निकला जितना राजा साहब के मुँह से निकलता था। मैंने समझा कि इससे मेरी दुर्बलता जानी जायेगी। हुक्के को अपने पास खींचकर टेढ़ा करके बड़ी जोर से खींचा। एकाएक मेरे मुँह में आधा बोतल पानी भर गया; जिसका स्वाद बड़ा ही विचित्र था। मुझे यह नहीं मालूम था कि इसे पी जाना चाहिये। मुँह में पानी भरा था, इसलिये पूछ भी नहीं सकता था। अन्त में मैंने निश्चय किया कि आधा पी जाऊँ और आधा कुल्ला कर दूँ।

राजा साहब ने मेरी स्थिति समझ ली और कहा कि तुरन्त कुल्ला कर दीजिये। दो-तीन बूँदें मेरे गले में गयी होंगी। मैंने सारा पानी कुल्ला कर दिया। राजा साहब बोले कि हुक्का पीना सबका काम नहीं है। कितने दिनों के बाद आता है। फिर मुझे सब ब्योरा समझाया और कैसे पीना चाहिये, बताया। मैंने उसे ढंग से पीना आरम्भ किया। अब तो मुझे धुआँ निकालने में बड़ा आनन्द आने लगा।

पेंशन लेने के बाद जब समय किसी और काम में न कटेगा, मैं भी इसी प्रकार तम्बाकू देवी की आराधना करूँगा। सिगरेट-सिगार पीना गद्य है, इस प्रकार से तम्बाकू पीना कविता है।

मसूरी में

राह में राजा साहब से मेरी घनिष्ठता हो गयी और यह निश्चय हो गया कि हम लोग एक साथ ही ठहरेंगे। जिस समय नौ बजे के लगभग हम लोग पहुँचे तो हमारी कार को कुलियों ने घेर लिया। मैंने समझा कि डाकुओं के समूह ने लूटने के लिये हमारे ऊपर छापा मारा है। किन्तु देखा कि सभी कारों और लारियों के साथ ऐसा ही हुआ है। यहाँ ऐसी ही प्रथा जान पड़ती है। राजा साहब के नौकर और उनके मैनेजर ने हमारे असबाब की देख-रेख की।

होटल वालों ने हाथ में एक-एक कार्ड लेकर हमारी अगवानी की। मैंने तो पहले से ही निश्चय कर रखा था कि सेवाय अथवा शारलिविले होटल में ठहरूँगा और लोगों को असबाब के साथ छोड़कर राजा साहब और मैं रिक्शा पर चल पड़े।

राजा साहब से मैंने पूछा कि सेवाय में चला जाये कि शारलिविले में ठहरें? राजा साहब ने कहा कि 'मैनेजर साहब आ जायें तब निश्चय हो। मैंने कहा कि आप ठीक बताइये। हम लोगों को तो रहना है। राजा साहब ने कहा कि रहने, खाने, पीने, कपड़ों का प्रबन्ध हमारे परिवार में कई पुश्तों से मैनेजर लोग ही करते आये हैं। अब इस प्रथा को तोड़ना कुछ उचित न होगा।' मैंने कहा - 'इसमें प्रथा की तो कोई बात नहीं है। सुविधा की बात है' राजा साहब बोले - 'हमें यही नहीं पता है कि किस स्थान में सुविधा होगी। एक विचित्र बात है कि हमारे मन्त्री और मैनेजर कैसे जान लेते हैं कि हमें किस स्थान में सुविधा होगी और किस स्थान में असुविधा। मैं तो निश्चय ही नहीं कर सकता; वह लोग निश्चय कर लेते हैं।'

मैंने कहा कि अच्छा, थोड़ी देर के लिये मुझे ही अपना मन्त्री मान लीजिये और जहाँ मैं कहूँ वहीं ठहरिये। उन्होंने कहा - 'मुझे तो कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु अच्छा होता यदि उनके आने तक दस-पाँच मिनट हम लोग ठहर जाते।'

किन्तु राजा साहब को मैंने बहुत समझाया। तब राजा साहब बोले - 'मैं उन्हें वेतन देता हूँ; यही सब काम करने के लिये; अब मैं कहाँ तक इन बातों में दिमाग खपाऊँ। कोई सिद्धांत की बात हो, बहुत बड़ी समस्या हो तो कुछ सोचा भी जाये। साधारण बातें जैसे कहाँ ठहरना, किस समय चलना, कैसे चलना, यह सब नौकर, चाकर, मैनेजर तथा मन्त्री कर लिया करते हैं।'

इतने में मैंनेजर महोदय भी आ गये और यही राय ठहरी कि सेवाय में ठहरेंगे क्योंकि वही उन्होंने पहले से ठीक कर रखा था। वहाँ ऐसा स्थान हम लोगों को मिल गया जिसमें चार कमरे, एक बैठक, और भी सुविधायें थी।

हम लोगों के आने के तीसरे ही दिन राजा साहब ने इसी होटल में एक दावत दी। उसमें मसूरी में उपस्थित अनेक राजा, अनेक अफसर इत्यादि बुलाये गये थे। पहली दावत थी जिसमें मैं गया, जिसमें अंग्रेज तथा हिन्दुस्तानी लोग भी थे। राजा साहब ने मुझसे और लोगों का परिचय कराया। मैंने शरमाते-शरमाते लोगों से परिचय प्राप्त किया। हिन्दुस्तानियों ने मेरा बड़ा सत्कार किया। सेना में लफ्टंट कोई ऊँची जगह नहीं है, फिर भी ऊँचे-ऊँचे पद के भारतीयों ने तथा बड़े-बड़े धनी भारतीय पुरुष-स्त्री जो इस समय मुझसे मिले ऐसे मिले मानो हम भारत के वायसराय हैं। उसी होटल में नृत्य भी हुआ। मैं भी कई स्त्रियों के साथ नाचा। मुझे भी देखकर आश्चर्य हुआ कि भारतीय स्त्रियाँ साड़ी पहनकर उतनी अच्छी तरह नाच सकती हैं जितनी विलायती स्त्रियाँ और उनमें भी उतने ही संकोच और झिझक की कमी होती है जितनी विलायती स्त्रियों में। कम से कम मसूरी में जो स्त्रियाँ उस दिन नाच में सम्मिलित हुई थीं उनका यही हाल था। दूसरे दिन पता चला कि केवल शराब में लगभग तेरह सौ रुपये लगे थे। इसीसे मैंने समझ लिया कि राजा साहब कोई साधारण राजा नहीं हैं।

दूसरे दिन राजा साहब के मैनेजर से बात होने लगी। तब मैंने पूछा कि राजा साहब तो बहुत ही बड़े दिल के व्यक्ति जान पड़ते हैं। इनके राज्य का विस्तार बहुत बड़ा होगा। मैनेजर साहब ने कहा कि यह सचमुच बहुत बड़े राजा हैं। ग्यारह लाख का इनका राज्य है परन्तु सत्रह लाख इनकी स्टेट पर कर्ज है। मैंने कहा कि तब क्यों इतना खर्च करते हैं? मैनेजर बोले - 'हमारे देश के राजा और धनी लोग पैसे का कुछ भी मूल्य नहीं समझते। आपने सुना ही होगा कि हर्षवर्धन महाप्रतापी राजा था जो प्रत्येक दस वर्ष पर प्रयाग में जाकर अपना सारा धन निर्धनों को बाँट देता था। उसी की परम्परा आज तक भारतीय राजा-महाराजा ढोते चले जा रहे हैं, मगर आजकल के राजाओं ने इस धन-वितरण करने को कला का स्वरूप दे दिया है।

पहले तो केवल यों ही बँटवा देते थे। बँटता तो अब भी है किन्तु नृत्य में, होटलों में, खाने में, पीने में। इसके द्वारा अनेक उद्योग-धन्धों में प्रगति होती है, कल-कारखानों को उत्तेजना मिलती है और आनन्द का आनन्द मिलता है।

राजा साहब के साथ मसूरी में बड़े सुख से था। मैंने जब से सुना कि राजा साहब के ऊपर कर्ज का बोझ है कुछ चिंतित था, किन्तु राजा साहब को तनिक भी चिन्ता न थी। यह चिन्ता का काम भी उनके कर्मचारियों को ही करना पड़ता था। राजा साहब को इससे मुक्ति हो गयी है। मैं एक दिन मसूरी के सम्बन्ध में बैठा-बैठा सोच रहा था - अंग्रेजी राज्य के विस्तार में यह लोग बड़े सहायक हैं। अंग्रेजी राज्य का रंग लाल माना गया है। भारत का नक्शा तो इसीलिये लाल है ही, लाल लिपस्टिक भी यहाँ की स्त्रियों ने अपना लिया है। मसूरी में लिपस्टिक की बड़ी खपत है। देशी-विदेशी सभी महिलायें इसका प्रयोग करती हैं। यह प्रसन्नता की बात है कि यहाँ की स्त्रियों में भी सभ्यता का प्रसार हो रहा है। ऐसी अवस्था में इंग्लैंड में भी यह जो कभी-कभी शंका हो जाती है कि ब्रिटिश शासन की नींव कुछ हिल रही है, निर्मूल है।

इसी प्रकार से यदि हमारी सभ्यता की और भी बातें धीरे-धीरे यहाँ फैलने लगें तो हमारे शासन की नींव और भी दृढ़ होती चले।

हिन्दुस्तानी दावत

मसूरी ढाई महीने रहा। राजा साहब से मित्रता तथा घनिष्ठता बढ़ती गयी। हम लोगों का कार्यक्रम सब एक साथ ही होता था। साथ सिनेमा, साथ नाच, साथ टहलना। केवल भोजन अलग-अलग होता था। राजा साहब का अपना रसोई बनानेवाला था और मैं होटल में खाता था।

एक दिन मैंने राजा साहब से पूछा कि आपका विवाह हो गया है? राजा साहब को बड़ा आश्चर्य हुआ और मुझसे पूछा कि ऐसा प्रश्न आपने क्यों किया? पैंतीस साल की मेरी अवस्था और अब भी विवाह न होगा? मैंने कहा - 'क्या पैंतीस साल में विवाह होना आवश्यक है?' वह बोले - 'हमारे यहाँ का धर्म है कि विवाह कम ही अवस्था में हो जाये।' तब मैंने कहा - 'आप अपनी स्त्री को साथ क्यों नहीं लाये?' राजा साहब ने कहा कि मेरी स्त्री शिक्षित नहीं है और आजकल के सभ्य समाज के रहन-सहन, बोल-चाल का उसे पता नहीं। इसलिये उसे अपने साथ लाना उपहास-सा जान पड़ेगा। मैंने पूछा कि आपने उसे पढ़ाने का उद्योग क्यों नहीं किया? उन्होंने कहा कि बात यह है कि वह हिंदी जानती है और थोड़ा संस्कृत जानती है। परन्तु शिक्षा इसी को तो नहीं कहते। उसे यह नहीं पता कि काँटा दाहिने हाथ से पकड़ा जाता है कि बायें से? जूते की एड़ी डेढ़ इंच ऊँची होना चाहिये कि ढाई? काकटेल को कितनी बार हिलाना चाहिये और हाथ मिलाने के समय कितने जोर से हाथ दबाना ठीक होगा। भला कैसे शिक्षित कहें? कई बार कहा, किन्तु उसने व्हिस्की नहीं पी, शैम्पेन तक नहीं पी। भला हिंदी और संस्कृत पढ़कर क्या लाभ हुआ? क्या पूजा-पाठ करना है? इसी से मैं साथ नहीं लाया। हम लोगों के साथ कैसे निर्वाह होता? हमारी राय में स्त्रियों में आजकल इतने गुणों की आवश्यकता है - नाच सकें, भाषण दे सकें, मेज पर खा सकें, सिगरेट और शराब पी सकें और इसके अतिरिक्त यदि वह मोटर तथा बन्दूक चला सकें तो और भी अच्छा है। खेद है, कि मेरी स्त्री को इन आवश्यक बातों की शिक्षा नहीं है।

मैंने कहा - 'आपके आदर्श सचमुच ऊँचे हैं।' मैंने उनके साथ सहानुभूति भी दिखायी। राजा साहब सचमुच सहानुभूति के पात्र थे। जैसा मुझे पता चला, राजा साहब ने स्कूल में केवल पाँचवें दर्जे तक की शिक्षा प्राप्त की थी, किन्तु उनके रहन-सहन से स्पष्ट होता था कि यूरोप की कई बार सैर की है। यूरोप की सब शराबों का नाम उन्हें ज्ञात था। हंटले पामर के जितने प्रकार के बिस्कुट थे, सबका नाम वह गिना सकते थे और वह उतनी ही चपलता से नाच सकते थे जितने विलायत के लार्ड का लड़का।

एक दिन राजा साहब ने कहा कि आज आप मेरे यहाँ देशी भोजन कीजिये।

मैंने खाने की स्वीकृति दे दी। अपने जीवन में पहली बार देशी भोजन उस दिन किया। रात में आठ बजे जब घूमकर लौटे तब हम लोग भोजन के लिये बैठे। केवल हम और राजा साहब ही इस अवसर पर थे क्योंकि हमने विशेष रूप से कह दिया था कि और कोई न रहे। राजा साहब के रसोइये ने उस दिन बड़ा परिश्रम किया था। मैं जब खाने के लिये कमरे में गया तब देखा कि मेज पर एक बरात लगी है। सब वस्तुऐं एक साथ रखी हैं। बीस पियालों में मांस तथा वनस्पति की तरकारियां थीं। ग्यारह प्रकार के अचार थे, सब देशी; और छः तरह की चटनियाँ थीं। फल थे, फिर देशी मिठाइयाँ थी, जो बारह-तेरह प्रकार की रही होंगी।

राजा साहब ने कहा कि इस प्रकार का भोजन तो हम लोग हाथ से करते हैं, किन्तु आप काँटे से खा सकते हैं। यह सब सामग्री तो केवल साधारण थी। मुख्य खाने की वस्तु तो एक गोल चिपटी-सी आटे की बनी तश्तरी थी। जिसे काट-काटकर और किसी तरल वस्तु में डुबोकर खाना था। यह तश्तरी घी में पकायी हुई थी। मैंने इसे छुरी से काटकर और जैसे राजा साहब ने बताया था डुबो कर काँटे से मुँह में रखा।

अपने जीवन में ऐसी वस्तु तो कभी खायी न थी। मसाले और मिर्चों का उदारतापूर्वक प्रयोग किया गया था। पहले तो मैंने समझा कि मुँह में किसी ने आग रखी दी है। राजा साहब के कहने से मैंने मुख में एक मिठाई रखी। कुछ जीभ को सुख मिला। मेरी आँखों में आँसू भर गये थे। नाक में भी जल का संचार होने लगा था। राजा साहब के कई बार कहने पर मैंने फिर एक टुकड़ा दूसरी वस्तु में डुबो कर खाया। यह पहले से कम तेज थी। इस प्रकार से मैंने थोड़ी-थोड़ी सभी वस्तुयें चखीं।

भारतीय भोजन का अर्थ होता है - घी, मसाला और मिर्चों का उदारतापूर्वक व्यवहार। जान पड़ता है यहाँ यह वस्तुयें बहुत सस्ती मिलती हैं। एक बात और समझ में आयी। ऐसे भोजन से जीभ बहुत पैनी हो जाती है। यही कारण जान पड़ता है कि भारतीय लोग बोलने में बड़े पटु होते हैं। बड़े-बड़े वक्ता यहाँ पाये जाते हैं।

और ऐसे ही भोजन का पूरक यहाँ की मिठाइयाँ होती हैं। दोनों सीमांत पर पहुँच जाती हैं। मिठाइयाँ खाइये, मिठाइयों से कुछ घबराहट हो तो भोजन कीजिये।

अचार और चटनियाँ भी बड़ी स्वादिष्ट बनायी जाती हैं। मेरा तो मन हुआ कि केवल दो वस्तुयें खाऊँ। एक का नाम था हलुवा। वह आटे, घी, चीनी, केसर और संसार-भर के मेवे से बनाया जाता है। राजा साहब ने इसे बड़ी विधि से बनवाया था। हलुवा यद्यपि पेय नहीं है क्योंकि यह तरल नहीं होता है; इसे खाने में दाँतों को परिश्रम नहीं करना पड़ता और मुँह में रखते ही धीरे-धीरे गले की ओर खिसकने लगता है। हम किसी यूरोपीय भोजन की सुगन्ध की इसकी सुगन्ध से तुलना नहीं कर सकते। इसमें एक गुण और है। खाते जाइये परन्तु जान नहीं पड़ता कि खाया है। जिसने इस भोजन का आविष्कार किया होगा, वह बड़ा ही चतुर और बुद्धिमान व्यक्ति रहा होगा। मुझे तो सबसे अधिक यही पसन्द आया और सभी भोजन छोड़कर दो प्लेट इसी की मैंने खायीं। जैसे प्लासी का युद्ध बिना लड़े अंग्रेजों ने जीत लिया उसी प्रकार बिना जीभ हिलाये और दाँतों को चलाये दो प्लेट हलुवा मेरे उदर में पहुँच गया। मांस इत्यादि की प्रायः सभी प्लेटें रह गयीं। अचार भी बड़े खट्टे हैं। उनके खाने के लिये भी विशेष साहस की आवश्यकता होती है।

जब भोजन कर चुका तब फलों की बारी आयी। राजा साहब ने अपने बाग से आम मँगवाये थे। उन्होंने मुझसे वही खाने के लिये कहा। मैंने बहुत पहले सुन रखा था कि यहाँ का आम बहुत विख्यात और स्वादिष्ट फल होता है, परन्तु साक्षात्कार पहले-पहल हुआ। इसे छुरी से छीलकर खाते हैं। देखने में इसके टुकड़े सुनहले रंग के होते हैं। केले की भाँति यह खाने में कोमल होता है। परन्तु स्वाद? कोई वस्तु ऐसी नहीं होती जिससे इसकी तुलना की जाये। मुझे कविता करने की शक्ति नहीं है इसलिये इसका गुण नहीं कह सकता। किन्तु कुछ यों कह सकता हूँ। जैसे कवियों में शेक्सपियर, सिपाहियों में नेपोलियन, अखबारों में टाइम्स और मछलियों में व्हेल होती है, इसी प्रकार आम सब फलों में बड़ा है! यदि भारत पर शासन करने के लिये और कोई कारण नहीं हो तो केवल आम के ही लिये हम लोगों को भारत पर शासन करना आवश्यक है और जब स्वराज्य दिया जाये तब सब शर्तों के साथ यह भी एक शर्त रहे कि प्रत्येक फस्ल में यहाँ से दो जहाज आम इंग्लैंड भेजा जाये।

मालिश

मसूरी में ढाई महीने राजा साहब के साथ रहा। यों तो भारत में जितने अंग्रेज रहते हैं सभी एक प्रकार से यहाँ के अतिथि हैं, किन्तु मैं तो सचमुच राजा साहब का अतिथि था। राजा साहब ने होटलों को आज्ञा दे रखी थी कि लफ्टंट साहब से एक पैसा न लिया जाये। मेरा सारा बिल उन्होंने चुकाया और हम लोग साथ लौटे। मैंने छुट्टी तीन महीने की ले रखी थी। पन्द्रह दिन पहले लौटने का कारण यह था कि राजा साहब का आग्रह था कि उनके राज्य में मैं भी दस-पन्द्रह दिन बिताऊँ। मैं तैयार हो गया।

मसूरी में मेरा जी कुछ घबराने-सा लग गया था। वही नित्य का नाच और वही रात को शराब की बोतलें। कभी-कभी रिंक में स्केटिंग के लिये चला जाता था। किन्तु राजा साहब तो केवल नाच में ही सम्मिलित होते थे और खेल-कूद से उन्हें विशेष प्रेम नहीं था। हाँ, ताश अवश्य खेल लिया करते थे।

राजा साहब के साथ रहते-रहते दो-तीन दोष मुझमें भी सम्पर्क से आ गये थे। राजा साहब में सबसे बुरी आदत थी नित्य स्नान करना। उनके स्नान करने की विधि भी विचित्र थी। कुछ तो साथ के कारण और कुछ इच्छा से, मैं भी नित्य नहाने लगा। राजा साहब की भाँति तो मैं नहीं नहा सकता था, क्योंकि प्रतिदिन के जीवन में मेरे लिये वैसा सम्भव नहीं था।

उनके नहाने की क्रिया इस प्रकार थी। सवेरे पैदल या घोड़े पर हम लोग घूमने जाते थे। वहाँ से लौटने पर जलपान होता था। जलपान में चाय, टोस्ट, अंडे, मिठाइयाँ इत्यादि होती थीं। इसके पश्चात् कमरे में एक तख्ते पर राजा साहब बैठ जाते थे और दो नौकर एक बोतल में सरसों का तेल लेकर उनके दोनों ओर खड़े हो जाते थे। तेल हाथ में लेकर राजा साहब के शरीर पर डाल देते थे और राजा साहब का शरीर मला जाता था।

जिस समय यह क्रिया होती थी वह दर्शनीय था। राजा साहब तो जान पड़ता था कि समय के बाहर हो गये हैं अथवा उन्होंने समय को जीत लिया है। नौकर झूम-झूमकर उनके हाथ, पाँव, पीठ और पेट हाथों से रगड़ते जाते थे। जैसे किसी मशीन में ठीक चलने के लिये तेल दिया जाता है, उसी भाँति उनके शरीर में लगाया जाता था। आधा बोतल तेल सोखाया जाता था। डेढ़ घंटे तक यह कार्य होता था। इसके पश्चात् सिर में एक नौकर तेल लगाता था। यह तेल दूसरा था। जब एक नौकर सिर में तेल लगाता था तब दूसरा स्नान का प्रबन्ध करता था।

एक दिन मैंने राजा साहब से यह इच्छा प्रकट की कि केवल देखने के लिये मैं एक दिन तेल लगवाना चाहता हूँ। उन्होंने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की, मानो मैंने कोई बड़ा अहसान उनके ऊपर किया। उन्होंने अपने नौकर से कहा कि देखो, लफ्टंट साहब को अच्छी तरह तेल लगाओ। जीवन में पहली बार मुझे यह अनुभूति हुई। मैंने सब कपड़े उतार दिये। केवल निकर पहने हुए था। कमरा बन्द कर लिया गया और तेल लेकर दोनों नौकर खड़े हो गये। उस दिन कुछ ठंडक भी थी। तेल लेकर नौकरों ने मेरे शरीर को जोरों से रगड़ना आरम्भ किया। नौकरों के हाथ की रगड़ से मेरे शरीर के रोएँ टूटने लगे और मुझे ऐसा जान पड़ा कि किसी मिल के नीचे पीसा जा रहा हूँ। तेल की यह महक भी विचित्र थी। मेरी आँखों से आँसू निकलने लगे। सारे शरीर का खून खाल में आ गया। मुझे ऐसा जान पड़ा कि खून शरीर के बाहर आने को उत्सुक है और मालिश करनेवाले उसे दबाकर शरीर के भीतर कर रहे हैं। जाड़े का तो नाम नहीं था। इसके उल्टे यदि थर्मामीटर लगाया गया होता तो कम-से-कम 105 डिग्री तापमान इस समय होता। मैंने नौकरों से यह कार्य समाप्त करने के लिये कहा तो राजा साहब बोले - 'अभी तो कुछ भी तेल शरीर में नहीं भिना, प्रत्येक मनुष्य के शरीर में प्रतिदिन एक पाव तेल सोखा दिया जाये तब जाकर कहीं स्वास्थ्य ठीक हो सकता है।' यदि सचमुच राजा साहब स्वयं इस सिद्धांत का पालन करते रहे हैं तो इस समय उनका शरीर तेल का ही बना होगा। परन्तु जिस समय नौकरों ने मालिश बन्द कर दी ऐसा जान पड़ा कि मैं उड़ जाऊँगा। सर्दी का नाम नहीं था और सारा शरीर हल्का जान पड़ता था। फूल की भाँति हो गया था। उस समय जी होता था कि किसी बर्फ की झील में कूद पड़ूँ। नित्य कैसे लोग नहाते हैं, अब समझ में बात आ गयी। हाँ, एक बात अवश्य थी कि सारे शरीर में पीड़ा हो रही थी। नौकरों ने इतने जोरों से सब शरीर रगड़ डाला था कि अगर कोई सेना का मेरे ऐसा आदमी न होकर साधारण मनुष्य होता तो वह सने हुए आटे की भाँति हो गया होता।

दूसरे दिन, तीसरे दिन भी मैंने मालिश करायी और मुझे तो ऐसा जान पड़ा कि मैं इसके बिना रह नहीं सकता, इसका प्रभाव यह भी हुआ कि मैं नित्य नहाने लगा और दोपहर में भी सोने लगा।

राजा साहब का घर

पन्द्रह दिन अभी छुट्टी को बाकी थे कि राजा साहब घर लौटने के लिये तैयार हो गये। मुझसे कहा कि आप भी चलिये। मेरे घर के पास एक नदी है। वहाँ बहुत बड़े-बड़े घड़ियाल हैं और उसी के पास एक जंगल है जहाँ मृग बहुत-से पाये जाते हैं। शिकार का सुन्दर प्रबन्ध होगा। आपको कोई कष्ट नहीं होगा। पहले तो मेरा विचार नहीं था, किन्तु उनके बहुत कहने पर मैंने साथ जाना निश्चय किया।

बिहार में गया से सात मील पर एक स्थान पर राजा साहब रहते थे। बड़ा विशाल भवन था। सुन्दर सजा हुआ। उनके घर का थोड़ा-सा विवरण देना अनुचित न होगा। मैं जिस भाग में ठहराया गया हूँ उसी का ठीक विवरण दे सकता हूँ क्योंकि मैंने देखा और राजा साहब से ही सुना कि जैसे सृष्टि के प्राणियों में दो विभाग होते हैं पुरुष तथा स्त्री, उसी प्रकार भारत में प्रत्येक घर भी दो भागों में विभाजित रहता है। पुरुष-भाग और स्त्री-भाग। स्त्री-भाग में पुरुष नहीं रह सकते और पुरुष-भाग में स्त्री नहीं। स्त्री-घर में क्या विशेषताएँ होती हैं, मैं कह नहीं सकता क्योंकि उसे देख नहीं सका - न इस जीवन में देखने का अवसर ही मिल सकता है। राजा साहब ने बहुत पूछने पर केवल यही कहा कि वहाँ स्वराज्य रहता है। जो चीज चाहे जहाँ रख दी जाये। जैसे वहाँ जाकर यदि आप बैठना चाहें, तो पहले कुरसी या खाट अच्छी तरह देख लेनी होगी क्योंकि दो-एक सूई कहीं पड़ी रह सकती हैं। बिछौने के नीचे पान का डब्बा पड़ा रह सकता है। मेज पर कलम-दवात के स्थान पर चूड़ियाँ रखी मिल सकती हैं। एक दिन पहले जो नया उपन्यास आया होगा जिसे आप खोजते-खोजते तंग आ गये होंगे, उसे आप वहीं पायेंगे, जिस पर बच्चे के दूध वाला कटोरा रखा होगा। घर के पुरुष-भाग की कोई वस्तु यदि न दिखायी दे तो पहले वहीं खोजनी चाहिये। राजा साहब कहने लगे कि एक बार माउजर की नई पिस्तौल मैंने मँगवायी थी। तीन दिनों के पश्चात् वह घर में अँगीठी के पास पायी गयी। उससे आग हटाने का काम लिया जा रहा था। मैंने सोने-चाँदी की सुरती की डिबिया एक बार पेरिस की एक कम्पनी से मँगवायी। उसमें बच्चे की आँख का काजल रखा जाने लगा।

बाहर की रहने की जगह बड़ी भव्य तथा सुन्दर थी। इसके कहने की आवश्यकता ही क्या। जिस देश के पीछे ताजमहल की परम्परा हो वहाँ घर बनाने में सुन्दरता पर विशेष ध्यान दिया जाता होगा। किन्तु मुझे जो आश्चर्य हुआ वह घर के भीतर के भाग को देखकर, घर के बाहर के भाग को देखकर नहीं।

पहले मैं जिस कमरे में ठहराया गया उसका कुछ वर्णन कर दूँ। धरती से लेकर भीत पर आधी दूर तक इटली की बहुत सुन्दर टाइल लगी थी जिस पर बढ़िया फ्रांसीसी फूल और लताएँ रंगों में बनी थीं। उसके ऊपर दीवार पर बेल्जियम के बने बड़े-बड़े दर्पण लगे हुए थे और छत पर जर्मनी के झाड़ लटक रहे थे। अफ्रीकी महोगनी की मसहरी, मेज और बर्मा की टीक के दरवाजे थे। कमरे में एक बड़ा सुन्दर पियानो भी रखा था। मैंने राजा साहब से पूछा कि आप इसे बजाते हैं? उन्होंने कहा कि मैंने सीखने के लिये मँगवाया था, किन्तु नौ साल से यह खोला नहीं गया। मैं सीख भी नहीं सका। मेज पर सुन्दर-सुन्दर लिखने-पढ़ने की सामग्री रखी थी, जो यूरोप के किसी देश का प्रतिनिधित्व करती थी। दरवाजों पर विलायती जालीदार तथा भीतर की ओर फ्रांस के मखमली परदे टँगे थे। जमीन पर ईरान का सुन्दर कालीन बिछा था और उसके चारों ओर कश्मीर के सुन्दर रग बिछे हुए थे। इधर तो सब विदेशी ढंग का सामान था। उसी के पास देशी लोगों के बैठने का प्रबन्ध था। कमरा बहुत सुन्दर था। दीवारों पर तथा छत पर चित्रकारी थी। बैठने के लिये गद्दे बिछे थे और किनारे-किनारे मोटे-मोटे तकिये रखे थे। बाहर गमलों में अनेक देशी-विदेशी फूल लगे थे। छत पर कनेरी, बुलबुल और लाल पक्षी के पिंजड़े टँगे थे। सारा घर देखने से मुझे तो यह जान पड़ा कि एक स्थान पर सारे संसार का प्रतिनिधित्व यदि कोई स्थान पा सकता था तो राजा साहब का घर! लीग ऑफ नेशन्स के दफ्तर के लिये सबसे उपयुक्त स्थान राजा साहब का घर मुझे जान पड़ता था।

एक और नई और विचित्र बात मैंने राजा साहब के यहाँ देखी। पाँच या छः बज रहे होंगे। एकाएक मेरी नींद खुल गयी। मेरे कानों में टनाटन घंटे के शब्द आने लगे। पहले मैंने समझा कोई विचित्र घड़ी है जिसमें घंटे या मिनट नहीं सेकेण्ड टन्टन् बज रहे हैं। फिर एकाएक बड़े जोरों से ऐसा शब्द हुआ मानो किसी शिकारी ने तुरही बजायी हो। मैंने समझा, कहीं आग लगी है। मैंने झटके से कपड़े पहने और बाहर निकल आया। वहाँ कुछ नहीं। यह देखकर कुछ शान्ति हुई। परन्तु शब्द बराबर आ रहे थे। मैं उधर ही चला तो देखा कि उसी घर के पास, किन्तु अलग, एक घर बना है। उसमें एक मन्दिर है। मन्दिर का द्वार खुला है और भीतर एक व्यक्ति घंटा ठोंक रहा है और एक व्यक्ति शंख फूँक रहा है और एक आदमी हाथ में पीतल की एक वस्तु लिये है जिसमें पचीसों बत्तियाँ जल रही हैं। उसको वह एक मूर्ति के चारों ओर घुमा रहा है।

मैं भीतर जाकर देखना चाहता था कि क्या है, किन्तु मैं रोक दिया गया। उसी क्षण वह दीपों की माला लिये बाहर निकला। मेरी ओर उसने ऐसे देखा जैसे मैं किसी दूसरे लोक का प्राणी हूँ। उसके माथे पर एक निशान बना था जैसे कोबरा के मस्तक पर होता है। उसके सिरे के पीछे एक जूड़ा बँधा था जैसे कुमारी रानी एलिजा के युग में इंग्लैंड में महिलायें बाँधा करती थीं। कमर में धोती के अतिरिक्त उसका सारा शरीर नंगा था। धोती भी रेशमी थी। वह दीप का समूह हाथ में लिये घर के जनाने भाग में चला गया।

शिकार की तैयारी

दो दिनों के बाद मैंने राजा साहब से कहा कि अब शिकार के लिये चलना चाहिये। छुट्टी समाप्त होने को थी। राजा साहब ने उसी पुजारी को बुलवाया। उससे राजा साहब ने कहा कि ज्योतिषी को बुला लाइये। ज्योतिषी महोदय आये, इसके पहले कि उनसे बात की जाये, उनके सामने थाली में चावल, पाँच टुकड़े हल्दी के और दो रुपये रखे गये। उन्होंने एक लम्बी-सी पुस्तक खोली। राजा साहब ने मेरी ओर दिखाकर कहा कि कप्तान साहब शिकार खेलने जानेवाले हैं, मुझे भी साथ जाना होगा। साइत बताइये जिसमें घड़ियाल अपने-आप बंद़ूक के मुँह में चले आयें। मैंने कहा - 'देखिये, मेरी बन्दूक सरकारी है उसमें घड़ियाल आने की चेष्टा करेंगे तो सब बन्दूक चौपट हो जायेगी।' राजा साहब ने कहा कि यह कहने की एक रीति है। इसका अभिप्राय यह है कि शिकार में सफलता मिले। ज्योतिषी ने मेरा नाम पूछा, फिर एक स्लेट मँगवाया गया, उस पर उन्होंने कुछ जोड़, कुछ गुणा और भाग के प्रश्न लगाये। फिर बोले - 'यदि शनिवार को आप जाते हैं तो घड़ियाल के हमले का भय है; शुक्र को जाते हैं तो नाव डूबने का योग है; गुरुवार को उधर जाना वर्जित है; बुधवार को यह रियासत नहीं छोड़ी जाती। बड़े राजा साहब एक बार बुधवार को यहाँ से अपने ससुराल चले गये, लौटने पर उन्हें फीलपाँव हो गया। मंगलवार को तो आपके यहाँ पूजा होती है। आपके जाने से महावीर जी अप्रसन्न हो जायेंगे और रियासत पर इसका प्रभाव पड़ेगा। सोमवार को बारह बजे और बारह बज कर पाँच मिनट के बीच आप लोग यहाँ से जायें। ईश्वर ने चाहा तो नदी में जितने मगर और जितने घड़ियाल और नाके और सुंइस और जन्तु हैं, सब आकर आपके सम्मुख खड़े हो जायेंगे। आप जितनों को चाहिये बाँध लाइयेगा। शिकार का ऐसा योग इधर पाँच सौ साल में नहीं पड़ा है। राजा टोडरमल के समय एक ऐसा अवसर आया था। उस समय जमुना का एक-एक घड़ियाल आगरे के किले में लोग उठा लाये थे।'

सोमवार की बात थी। मैं इतने दिनों ठहर नहीं सकता था। मैंने कहा - 'मैं तो इतने दिनों ठहर नहीं सकता। चाहे जो हो, मैं तो लौट जाऊँगा।' राजा साहब बड़े संकोच में पड़े। उन्होंने ज्योतिषी से सब कठिनाइयाँ बतायीं और बोले - 'कोई उपाय सोचिये।' ज्योतिषी ने कहा कि विशेष अवसरों के लिये तो शास्त्र ने कई विधियाँ बतायी हैं फिर उन्होंने किसी भाषा में पन्द्रह मिनट तक कुछ पढ़ा। पीछे पता लगा कि वह संस्कृत में अनेक ग्रंथों के कुछ प्रमाण दे रहे थे। उसके पश्चात् उन्होंने गद्य में और साधारण भाषा में समझाया कि आवश्यकता पड़ने पर सब नियम और शास्त्र बदले जा सकते हैं। मैंने कहा - 'हाँ, साधारण कानून में तो ऐसा होता है। जैसे युद्ध के समय सरकार अपनी सुविधा के लिये सब कानूनों के ऊपर अलग से कानून बना लेती है। किन्तु यात्रा और धार्मिक बातों में नहीं कह सकता। यह सब तो महत्व की बातें हैं।'

पंडितजी से मैंने कहा कि ऐसी अवस्था में यदि आपकी धर्म-पुस्तकों में व्यवस्था लिखी हो तो बताइये। राजा साहब ने भी कहा - 'हाँ, पंडितजी! शास्त्र तो आप लोग ही बनाते हैं, कुछ विचारिये।' मुझे क्या पता था कि शास्त्र बनानेवाले मेरे सामने बैठे हैं। मैंने जो कुछ पढ़ा था उससे मैंने अपने मन में कल्पना कर रखी थी कि हिन्दू शास्त्र बनानेवाले जंगलों में रहते थे, बड़ी-बड़ी उनकी जटायें रहती थीं, दो-दो फुट की दाढ़ियाँ थीं और एक समय हवा पीते थे और एक समय पेड़ों की छाल खाते थे। किन्तु राजा साहब की बातों से पता चला कि शास्त्र बनानेवाले तो मेरे सामने ही बैठे हैं। मैंने जेब से कलम निकाल कर उनसे बड़ी श्रद्धा से कहा कि मुझे यह देश बड़ा प्रिय है। छोटा-सा शास्त्र मेरे लिये आप बना दें तो बड़ी कृपा होगी। सब मेरी ओर ऐसी दृष्टि से देखने लगे मानो मैं निरा मूर्ख हूँ। राजा साहब ने कहा - 'यह तो साइत देखते हैं, जन्मकुंडली बनाते हैं, शास्त्र नहीं बनाते।'

मैंने कहा - 'आपने ही कहा है अभी; इसीलिये मेरी इच्छा हुई कि अपने लिये एक शास्त्र बनवा लूँ।' राजा साहब ने कहा - 'यह तो कहने की विधि है।'

मैंने कहा - 'आप लोगों की कहने की विधि विचित्र होती है। कहा जाये कुछ और अर्थ हो कुछ। अच्छा, शिकार के लिये चलने का निश्चय हो जाना चाहिये। यदि आपको अड़चनें हों तो मैं स्वयं जा सकता हूँ। किसी चिन्ता की बात नहीं है।'

राजा साहब ने कहा - 'नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता कि आप अकेले जायें। आप मेरे मेहमान हैं। पंडितजी, कोई न कोई तरकीब निकाल ही लेंगे।' फिर पंडितजी से उन्होंने पूछा कि यदि मगर का शिकार न खेलने जायें, शेर का शिकार खेलने जंगल में चले जायें तब?

पंडितजी ने कहा - 'मैंने सोचा, तो प्रमाण भी है। एक चाँदी का मगर दान दे दीजिये और वहाँ से लौटने पर होम करा दीजिये और ग्यारह ब्राह्मणों का भोज करा दीजियेगा। सब ठीक हो जायेगा।' और हँसकर बोले - 'यदि मगर की खाल में से एकाध टुकड़ा मुझे भी मिल जाये तो आपके लड़के को एक जोड़ा जूता बन जाये।' मैंने कहा - 'राजा साहब के लड़के के जूते से आपका क्या मतलब? पंडितजी ने कहा - 'आपका लड़का का अर्थ अपना लड़का होता है। यह कहने की एक विधि है।' मैंने सोचा भारत में बातें करने की विचित्र-विचित्र विधियाँ हैं। यहाँ की बातें समझने के लिये इन विधियों को सीखना होगा।

राजा साहब ने ज्योतिषी महोदय की बतायी सलाह मान ली और शिकार की तैयार होने लगी। यह निश्चय हुआ कि दनुआ-भलुआ के जंगल में शेर के शिकार के लिये चलें और वहीं से मगर के शिकार के लिये भी चलें।

उनके मैनेजर महोदय आये; उन्हें आज्ञा दी गयी। मोटरवाले ने पेट्रोल भरना आरम्भ किया। एक लारी में भोजन इत्यादि की सामग्री रखी गयी। राजा साहब ने मैनेजर साहब से पूछा - 'कौन-कौन साथ चलेगा।' एक घण्टे तक इस पर विचार होता रहा और उसी गम्भीरता से जैसे दस नम्बर डाउनिंग गली में विलायत के कैबिनेट की बैठक होती है। कौन नौकर कहाँ कौन काम कर सकेगा? इस पर भी विचार हुआ और साथ-साथ उसके परिवार का इतिहास भी दुहराया गया।

शेर का शिकार

मैं तो सेना विभाग में हूँ ही और जैसे सेना युद्ध करने के लिये चलती है, उसका थोड़ा अनुभव भी है। शिकार को जब चलने के लिये हम लोग तैयार हुए तब ऐसा जान पड़ा कि किसी देश पर हमला करने एक सेना जा रही है। हम लोगों ने कुल तीन दिनों का कार्यक्रम रखा था। एक दिन की राह थी जंगल तक पहुँचने के लिये। एक दिन वहाँ शेर के शिकार लिये निश्चित किया गया। वहीं से सात मील पर नदी पड़ती थी, जहाँ घड़ियाल का शिकार करने की बात थी।

लोमड़ी, खरहे और मृग तो मैंने बहुत मारे थे, किन्तु शेर और घड़ियाल के शिकार का यह पहला अवसर था। अजायबघर के अतिरिक्त मैंने खुला शेर कभी देखा ही न था। हाँ, चित्रों में अवश्य देखा था।

भोजन तथा और सामग्री एक दिन पहले से चली गयी। एक बैलगाड़ी पर चार बोरों में भोजन का सामान, बरतन, खेमा चला; दूसरी बैलगाड़ी पर आठ नौकर और राजा साहब के कपड़ों की तीन पेटियाँ और एक पेटी मेरी चली। हम लोग दो कार पर चले। एक पर राजा साहब तथा मैं, दूसरी पर उनके मन्त्री, बन्दूकें तथा कारतूस और एक डॉक्टर। डॉक्टर साहब राजा साहब के घरेलू डॉक्टर थे। यद्यपि उनके यहाँ नौकर नहीं थे, किन्तु साधारणतः उन्हीं की चिकित्सा होती थी। वह बंगाली थे। हम लोग जब चले तब पंडितजी ने आकर लाल टीका लगाया और कुछ मन्त्र गाये।

चलने के पहले राजा साहब घर के भीतर अपनी पत्नी से मिलने गये और पता नहीं क्या बातें और सलाह करके आये। चलने के समय एक भीड़-सी लग गयी। सम्भवतः जितने नौकर उनके यहाँ उपस्थित थे, जितनी मजदूरिनें, माली या खिदमतगार, फर्राश और दूध दुहनेवाले तथा घास करनेवाले सब एक ओर से एकत्र हो गये और हाथ जोड़कर हम लोगों के सामने खड़े हो गये।

जहाँ हम लोगों का पड़ाव था, वह राजा साहब की कोठी से सत्ताईस मील से कुछ अधिक था। रास्ता अच्छा नहीं था। ठीक एक घण्टे उन्तीस मिनट में हम लोगों की मोटरें वहाँ पहुँची। खेमा लगा था। उसमें तीन भाग बने थे। एक में टेबुल तथा कुर्सियाँ लगी थीं; दूसरे भाग में राजा साहब तथा मेरे लिये चारपाइयाँ लगी थीं और उसी के बगल में डॉक्टर साहब और सेक्रेटरी साहब के खाट थे! पहुँचते ही हम लोगों को चाय व जलपान मिला और एक घण्टे में भोजन मिला।

भोजनोपरान्त राजा साहब ने मन्त्री महोदय को बुलाकर कहा कि शिकार-प्रबन्धकों को बुलाइये। दो-तीन आदमी राजा साहब के सम्मुख आये। उनके शरीर पर सिवाय धोती के और कोई वस्त्र नहीं था। वह हाथ जोड़कर राजा साहब के सामने खड़े हो गये। राजा साहब ने पूछा - 'सब ठीक है?' उनमें से एक ने कहा - 'आपकी आज्ञा की देर थी, आप बड़े भाग्यवान हैं? कल सन्ध्या को निकट ही शेर की गरज सुनायी दी थी।' दूसरे ने कहा - 'सरकार, रात को कोई नौ बजे होंगे कि शेर दिखायी दिया। पहले दूर से गरजने की आवाज हम लोगों ने सुनी। हम लोग घरों में चले गये। फिर जब आवाज बन्द हो गयी तब हम लोग बाहर दालान में निकल आये। दूर पर हम लोगों ने देखा कि शेर और उसकी मादा तथा पीछे-पीछे एक बच्चा चला जा रहा है। इसलिये हम लोगों ने मचान यहीं से एक मील पर बाँधा है। उसी जगह कल रात को शेर टहलता दिखायी दिया था।'

भोजन करके हम लोग शिकार के लिये चले। दिन-भर बन्दूकें साफ हुईं। कारतूस गिने गये। डॉक्टर साहब और मन्त्री महोदय खेमे में ही रहे। डॉक्टर ने कहा कि मेरी वहाँ क्या आवश्यकता है। मैं यहीं रहूँगा। मैं एक मिक्स्चर बनाके तैयार रखूँगा जिसे पीते ही सब थकान दूर हो जायेगी। ब्रांडी से भी अधिक शक्तिदायक होगा। उसका नुस्खा मेडिकल कॉलेज में हमें हमारे प्रिन्सपल कर्नल फ्राग ने बताया था। ब्रांडी के साथ उसमें दो चीजें और मिलायी जाती हैं। हिन्दुस्तानी वैद्य लोग चन्द्रोदय की बहुत प्रशंसा करते हैं। यह मिक्स्चर यदि किसी को मरने के तीन घंटे पीछे भी मिल जाये तो पाँच मिनट के लिये आदमी उठकर बैठ सकता है। हाँ, तीन घण्टे के बाद इसका प्रभाव नहीं पड़ता।

हम लोग मचान पर जाकर बैठ गये। अपनी-अपनी राइफलें हम लोगों ने एक बार हाथ में लेकर देखीं। फिर हाथ में लेकर इधर-उधर निशाना साधा। मैंने कहा कि गोली मैं चलाऊँगा, राजा साहब! इसमें कोई आपत्ति आपको तो नहीं होगी? राजा साहब ने कहा कि नहीं, आप तो हमारे मेहमान हैं। हमने एक बार इसी स्थान के आस-पास शेर मारे हैं। मैंने कहा - 'नहीं, कहने का अभिप्राय यह है कि आप एक बार भी गोली न चलायें। शेर पर जितनी गोलियाँ लगें, वह मेरी ही बन्दूक से।' राजा साहब ने कहा - 'आप जैसे चाहें वैसे एक शेर मार लें। परन्तु यदि दो निकलें तो एक पर मैं गोली चलाऊँगा।' मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं थी।

मैंने कहा - 'मैं तो, देखिये, ऐसे गोली चलाऊँगा कि खाल खराब न होने पाये। मेरा निशाना तो ऐसा सधा है कि यदि सामने शेर आया तो दो गोलियाँ लगाकर उसकी आँखों में मारूँगा और वह वहीं ढेर हो जायेगा। हाँ, उसकी बगल सामने पड़ी तब कुछ कठिनाई होगी। परन्तु मैं दिमाग पर ऐसी तान के गोली लगाऊँगा कि फिर वह उठने का नाम नहीं लेगा।' मैंने यह भी बताया कि यह जो मेरी 19 बोर की रायफल है, वह सेना की नहीं है; यह राइफल उसमें की है जिसका जोड़ा ड्यूक ऑफ वेलिंगटन के पास था।

अँधेरी रात थी। खेमा एक मील पर था। मशाल का प्रबन्ध इसलिये नहीं किया गया था कि शेर भाग जायेंगे। टार्च हमारे पास थी, ग्यारह बजे के लगभग एकाएक जोर से दहाड़ सुनायी दी। मैं उसके लिये तैयार नहीं था। एकाएक बिना सूचना के जो शेर गरजा तो मैं गोली चलाना भूल गया। मैंने सोचा था कि युद्ध की भाँति पहले कुछ सूचना मिलेगी। परन्तु बिना नोटिस के शेर के गरजने से मैं सब भूल गया और मैं राजा साहब से एकदम लिपट गया जैसे केकड़ा पाँव से लिपट जाता है और बोला - 'राजा साहब, गोली आप ही चलाइये। खाल मुझे दे दीजियेगा।' राजा साहब ने कहा - 'छोड़िये भी तो। जल्दी छोड़िये, नहीं तो शिकार गायब हो जायेगा।' दहाड़ एक बार ही के बाद बन्द हो गयी थी। मेरा मन कुछ ठीक हो चला था। मैंने कहा - 'अच्छा, मैं ही चलाऊँगा।' इधर-उधर देखा तो कहीं कुछ दिखायी नहीं दिया।

पीछे फिरकर हम लोगों ने देखा तो क्या देखता हूँ कि शेर कोई दो सौ गज पर चुपचाप खड़ा है। मैंने तुरन्त गोली दागी। वह हिला नहीं। राजा साहब से मैंने कहा कि देखिये एक ही गोली में काम तमाम। राजा साहब ने कहा - 'लेकिन अभी उछलेगा।' मैंने पाँच गोलियाँ दनादन दाग ही तो दीं। फिर कौन उठता है। मैं तो समझ ही चुका था कि पहली ही गोली में यह जंगल का राह छोड़कर चला गया। मगर उसके निमित्त पाँच गोलियाँ और सही। किन्तु रात में साहस नहीं हुआ कि मचान से उतरूँ। कुरसी पर वहीं सोये। बीच-बीच में उठकर देख लेते थे। वह वहीं पड़ा रहा।

तीन बजे रात को एकाएक पानी बरसना आरम्भ हुआ। हम लोगों को विश्वास था कि शेर मर गया है। फिर भी डर था कि कहीं उतरने पर हमला न कर दे, यदि कुछ भी जान बाकी हो। टार्च फेंककर देखा तो अचल लम्बा-सा पड़ा है।

किसी भाँति तड़का हुआ। हम लोग भीगते पड़े रहे। राइफल सम्भाली और डरते-डरते उतरे। इस समय जान पड़ा कि जिस पर छः गोलियाँ मैंने वीरता से खर्च कीं वह जंगली लकड़ी का एक कुन्दा था।

संगीत - लहरी

उस दिन सवेरे जान पड़ा कि काठ का उल्लू ही नहीं, काठ का शेर भी होता है। अपनी बुद्धिमानी की प्रशंसा करते हुए हम लोग अपने कैंप में लौटे। हमारे साथ ही साथ आकाश से पानी भी आया। पानी बरसने लगा। मुझे भारतवर्ष में आये सात महीने हुए थे। पुस्तकों में पढ़ा था, मानसूनी पानी भारतवर्ष में बरसता है। परन्तु मानसून क्या बला है, आज देखने में आया।

मैं लन्दन से दूर एक काउंटी स्कूल में पढ़ता था। वहीं से लन्दन विश्वविद्यालय की मैट्रिकुलेशन परीक्षा पासकर मैं वूलविच के सैनिक स्कूल में भरती हो गया। जब मैं काउंटी स्कूल में पढ़ता था तब भूगोल की एक पुस्तक पढ़ायी जाती थी। ढाई सौ पृष्ठ की वह एक पुस्तक थी जिसमें सोलह पृष्ठ भारत के लिये भी थे। उसमें केवल इतनी बातें मुख्यतः हमें बतायी गयी थीं - भारत बहुत बड़ा देश है। उसकी आबादी पैंतीस करोड़ के लगभग है। इसमें सैकड़ों जातियाँ रहती हैं। चार सौ भाषायें बोली जाती हैं। लोग सदा लड़ते हैं। हम लोगों ने अपने बाहुबल से उसे विजय किया है, तब से शान्ति हुई है। हम लोगों ने वहाँ सड़कें बनवायी हैं और स्कूल खोले हैं। दुकानें भी खोली हैं। अब भारतवासी नैकटाई बाँधना जान गये हैं। बिस्कुट खाना जान गये हैं। उस पुस्तक में लेखक ने बड़े गर्व से लिखा था कि यह हम लोगों की कार्यक्षमता है कि भारतवर्ष में भी स्त्रियाँ वैसी ही कला से लिपस्टिक लगा लेती हैं जैसे लन्दन नगर की रहनेवाली महिलायें।

बारह पृष्ठों में यही सब बातें थीं। चार पृष्ठों में भारत की जलवायु के सम्बन्ध में भी लिखा था। उसी में पहले-पहल मानसून का विवरण मिला था। जो बताया गया, वह समझ में कुछ ठीक नहीं आया। मैंने समझ रखा था कि मानसून एक प्रकार का बादल होता है जो हिमालय से टकराता है और पानी बरसाता है।

आज जब पानी बरसने लगा तब मैंने समझा कि मानसूनी बरसात कैसी होती है। आकाश में बादल छा जाते हैं और पानी बरसना आरम्भ होता है। मटर के बराबर बूँदें होती हैं और एक-एक सप्ताह तक लगातार बरसती हैं। यदि छाता लगाइये तो छाता छेदकर बूँदें आपके सिर पर कूदने लगती हैं। अभी तक कोई ऐसा कपड़ा नहीं बना जिसका छाता लगाकर मानसूनी पानी से आप बच सकें।

दोपहर जब हो गयी तब भी पानी रुकने की कोई आशा नहीं थी। राजा साहब ने कहा कि अब तो शिकार असम्भव है। खेमे के भीतर एक झील-सी बन गयी थी। हम लोग कार पर घर लौटे। नौकरों को आज्ञा दी गयी कि सारा सामान गाड़ी पर लेकर लौट चलें।

हम लोगों की मोटर गाड़ी का आधा भाग पानी में था। ऊपर से पानी बरस रहा था और नीचे चारों ओर जहाँ तक दृष्टि जा सकती थी जल ही जल दिखायी पड़ता था। घर तक हम लोगों की मोटरगाड़ी एक प्रकार से पानी में तैरती आयी। जंगल तो जंगल, जब नगर में हम पहुँच गये तब भी सड़कों पर जल लहरा रहा था। सड़कों पर न नालियाँ दिखायी पड़ती थीं न परनाले।

नगर में प्रवेश करते ही मैंने एक और दृश्य देखा जिससे जान पड़ा कि इस देश के नागरिक बड़े चतुर होते हैं और अपने यहाँ की म्यूनिसपैलिटी को विशेष कष्ट नहीं देना चाहते। साल-भर अनेक प्रकार के कूड़े घर के भीतर लोग एकत्र कर रखते हैं और जब सड़कों पर मानसूनी बरसात की नदी बहने लगती है तब उसमें बहा देते हैं। इतना काम म्यूनिसपैलिटी का हल्का हो जाता है।

हमने देखा कि सड़कों पर जल में सड़े-गले सामान और कतवार बहे चले जाते थे और लोग घर की ऊपर की खिड़कियों से फेंकते भी जाते थे। हमारी गाड़ी बीच सड़क ही से जा रही थी, नहीं तो ठीक गाड़ी के ऊपर एक टोकरा कतवार का आके गिरता।

तीन घंटे में हम लोग घर पहुँचे। कपड़े बदले। पानी बन्द होने का नाम नहीं। राजा साहब ने कहा कि हम लोग इस समय कुछ कर नहीं सकते, इसलिये आपके मनोरंजन के लिये संगीत का प्रबन्ध करता हूँ। मैंने कहा - 'मैं तो अपने यहाँ का संगीत भी कम जानता हूँ। यहाँ का तो कुछ भी समझ में नहीं आयेगा। फिर भी सुनूँगा कि यहाँ लोग कैसे गाते हैं।'

आदमी गया। राजा साहब की बैठक में हम लोग बैठे। कुछ राजा साहब के कर्मचारी भी थे। आध घंटे के बाद तीन आदमी आये और बैठ गये।

एक आदमी बीच में बैठा । उसके हाथ में एक विचित्र बाजा था जिसके एक ओर एक बड़े भारी कद्दू का आधा भाग था जिसमें एक पतला खम्भा लगाया था। इस खम्भे के ऊपर चार खूँटियाँ लगी थीं। जिनमें से तार नीचे तक लगे थे। खम्भे को उसने अपने कन्धे पर रखा। उसकी दूसरी ओर एक और आदमी बैठा। उसके सम्मुख दो बाजे रखे गये थे। यह बाजे बिना हैंडिल के प्याले के समान थे। केवल मुँह पर चमड़ा लपेटा था जो चमड़ों की पतली-पतली पट्टियों से कसा था। गानेवाले की तीसरी ओर एक व्यक्ति हारमोनियम लेकर बैठा।

मुझे यह अनुभव हुआ कि भारतीय बाजों में बड़ी कमी है। हारमोनियम की सहायता के बिना वह नहीं बज सकते, जैसे हम लोगों के बिना भारत का शासन-प्रबन्ध नहीं हो सकता।

गानेवाला उँगलियों से तार बजाता था और दूसरा व्यक्ति एक छोटी हथौड़ी लेकर, अपने बाजे को कभी ऊपर और कभी नीचे ठोंकता था। कभी हथौड़ी से ठोंकता, कभी उँगली से। पीछे पूछने पर पता चला कि यह लोग इस प्रकार बाजे मिलाते हैं। आध घंटे तक सब लोग बाजे मिलाते हैं। जान पड़ता है कि बाजे इतने बिगड़े थे कि मिलने में इतनी देर लगी या इन लोगों को मिलाना आता ही नहीं था। नहीं तो एक सेकेंड में मिल जाते।

इसके पश्चात् गाना आरम्भ हुआ। गानेवाले सज्जन मुँह खोलकर 'आ ओ ओ वा हो...' स्वर में चिल्लाते थे और हाथ से हवा में कभी आठ के, कभी पाँच के, कभी सात के अंक बनाते जाते थे। कभी हाथ से, ऊपर से नीचे हवा में लकीर खींचते थे। हारमोनियम से कुछ बजता जाता था और दूसरे सज्जन ताल देते जाते थे। ताल देनेवाला शायद सो रहा था क्योंकि बीच-बीच में उसका सिर झटके से नीचे गिर पड़ता था। फिर वह अपना सिर उठा लेता था।

गाने वाला ऐसा मुँह बनाता था कि मैंने पहले समझा मुझे मुँह चिढ़ा रहा है। परन्तु यह बराबर ऐसा करता जाता था। इससे जान पड़ा कि भारतीय संगीत में मुँह बनाना आवश्यक है। गानेवाले के सिर में कोई रोग था क्योंकि वह भी इधर-उधर हिल रहा था।

एक घण्टे तक उसने इसी प्रकार से गाया। लोग 'वाह-वाह' करने लगे। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैं मूर्ति की भाँति बैठा रहा, मगर लोग मुझे मूर्ख न समझें, इसलिये मैंने भी दो बार कहा - 'वाह-वाह।'

पाँच मिनट बाद उसने फिर आरम्भ किया। इस बार केवल 'आ' नहीं था। उसने गाया, 'घेरि घन आये।' भारतीय गाने ऐसे ही निरर्थक होते हैं। क्योंकि इसका अंग्रेजी अनुवाद होगा - 'दि क्लाउड गैदर्ड।' इसका क्या सिर-पैर हो सकता है?

नर्तकियों की सेना

मेरे जाने का निश्चय हो गया और मैंने राजा साहब से कानपुर लौट जाने की आज्ञा माँगी। वर्षा भी जोरों पर होने लगी थी और छुट्टी भी समाप्त होने में चार-पाँव दिन रह गये थे। राजा साहब को सुन्दर आतिथ्य के लिये मैंने बहुत धन्यवाद दिया। भारत के राजाओं के रहन-सहन, उनकी जीवन-चर्या, उनके आमोद-प्रमोद के सम्बन्ध में थोड़ी जानकारी भी हो गयी थी और मैंने सोचा कि इन्हीं नोटों के आधार पर एक पुस्तक लिखूँगा इंग्लैंड लौटकर, क्योंकि साम्राज्य के लिये इससे बढ़कर और अधिक क्या सेवा हो सकती थी कि अपने राज्य का सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त हो सके।

राजा साहब ने मेरे जाने का दिन निश्चित किया और एक छोटी-सी पार्टी मेरी विदाई के उपलक्ष्य में दी और उन्होंने यह भी कहा कि आप को फिर अवसर मिले या नहीं, भारतीय नृत्य भी आप देख लें। हमारे नगर में भारत-विख्यात नर्तकियां हैं। आप उनका गाना सुनें और नृत्य अवश्य देखें।

पार्टी बहुत छोटी थी। केवल अंग्रेज अफसर थे, कुछ भारतीय और कुछ उनके मित्र। राजा साहब ने इस पार्टी में भोजन का तो प्रबन्ध तो किया सो किया ही, मदिरा का बड़ा अच्छा प्रबन्ध कर रखा था। परिमाण में भी बहुत थी और ऊँचे दर्जे की भी थी।

पहले तो राजा साहब ने सबसे मेरा परिचय कराया इसके पश्चात जलपान आरम्भ हुआ। जलपान नाम का था, वह अस्ल में मद्यपान था। सब लोगों ने छककर रंग-बिरंगी मदिरा का पान किया। राजा साहब इतने अतिथि-प्रेमी थे कि जितने अफसर थे सबकी देख-देख स्वयं करते थे। मैं यद्यपि सेना में काम करता था, फिर भी वहाँ कुछ और अंग्रेज थे, उन्हें शराब पीते देख कर मैं दंग रह गया। बोतल खुलती थी और पलक मारते-मारते खाली।

सन्ध्या हो गयी, बिजली जगमगाने लगी और राजा साहब ने हम लोगों से एक दूसरे बड़े कमरे में चलने की प्रार्थना की। अतिथियों में कुछ तो राजा साहब की आज्ञा लेकर लौट गये। एक असिस्टैण्ट कलक्टर को चार आदमी पकड़कर कार पर बैठा आये क्योंकि उनमें स्वयं चलने की सामर्थ्य रह नहीं गयी थी। मैंने राजा साहब से कहा कि यदि कल तक यह इसी प्रकार से रहें तो कचहरी कैसे जायेंगे? उन्होंने कहा इतनी देर तक नशा नहीं रहता। फिर यह तो रोज कचहरी भी ऐसे ही जाते हैं। जब यह नशे में रहते हैं तभी इन्हें होश रहता है। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह काम कैसे करते होंगे? मैंने राजा साहब से कहा कि एक बात मेरी समझ में नहीं आयी। हम लोग तो सैनिक हैं। रणक्षेत्र में तो मनुष्य जितना उन्मत्त रहे और जितनी अधिक हत्या करे उतना ही वीर समझा जाता है। इसीलिये शराब में ही शराबोर रहना वहाँ का धर्म है। किन्तु कचहरी-दरबार में मनुष्य को तो ऐसे रहना चाहिये कि बुद्धि ठीक रहे। राजा साहब बोले कि बुद्धि में क्या हो जाता है? और अफसरी करने में बुद्धि की विशेष आवश्यकता भी तो नहीं है।

मैंने राजा साहब से पूछा - 'अच्छा, यह तो बताइये, वहाँ इनके सामने मुकदमे भी तो आते होंगे। यदि यह नशे में रहते होंगे तो अनुचित फैसला न कर देते होंगे?' राजा साहब बोले - 'ये होश में रहें या बेहोश, फैसला एक ही प्रकार होगा और दूसरी बात यह है कि यह आई.सी.एस. पास हैं। यह परीक्षा प्रतियोगिता द्वारा होती है। उसमें उत्तीर्ण व्यक्ति भूल कैसे कर सकता है? फिर सरकार ने इन्हें नौकर रखा है। नौकरी के पश्चात् पेंशन भी मिलेगी। ऐसी अवस्था में भूल की कहाँ गुंजाइश है?'

इतनी बातें हो रही थीं कि हम लोग हॉल में पहुँच गये। बड़ी सुन्दर सजावट थी। हम लोग बैठे ही थे और सिगरेट जलायी जाती थी कि दो महिलायें आयीं। दोनों का चेहरा सुन्दर था, बड़ी बारीक साड़ियाँ पहने थीं और अलंकारों से भी सज्जित थीं। मैं समझ गया कि यह नाचेंगी। मैंने राजा साहब से कहा कि हम लोग सात-आठ आदमी हैं और यह दो, बारी-बारी से नाचना होगा।

राजा साहब ने एक बड़ी आश्चर्यजनक बात बतायी कि भारत में यूरोप की भाँति स्त्रियाँ और पुरुष एक साथ नहीं नाचते। केवल स्त्रियाँ ही नाचती हैं और नाचने के लिये उन्हें कुछ देना भी पड़ता है।

एक ने नाच आरम्भ किया। उसके साथ बाजे भी बज रहे थे। तीन बाजेवाले साथ थे। हम लोग दो-दो आदमी साथ नाचते हैं और थोड़ा-बहुत उछलते-कूदते हैं, हर ताल के साथ। यहाँ तक कि देखते-देखते वह स्त्री फिरकी के समान घूमने लगी और इतनी तेजी से जैसे लट्टू घूमता है। फिर एकाएक देखा कि वह कमरे में चारों ओर घूम रही है। पाँव के साथ हाथ भी चल रहा था, सिर भी चल रहा था, गरदन भी चल रही थी, आँख भी चल रही थी और हम लोगों की ओर तिरछी, आड़ी, बेड़ी निगाह भी पड़ रही थी। नाच मुझे बड़ा आकर्षक जान पड़ा। मुझे छुट्टी होती तो और कई दिनों तक नाच देखता।

इस नाच में एक गुण अवश्य था। देखनेवालों को मादक बना देता है। बैरी सेना के सम्मुख यदि तोप और टैंक न चलाकर पंक्तियों में ऐसा नाच करा दिया जाये तो बहुत-से सैनिक, कम से कम जिनकी अवस्था बीस से पैंतीस साल की है, सो जायें या बेसुध होकर गिर पड़ें। मैं कानपुर जाकर कर्नल साहब से कहूँगा कि कमांडर-इन-चीफ साहब को एक पत्र इस सम्बन्ध में लिखें और जैसे पैदल, सवार, तोपखाना, सफर सेना का एक-एक विभाग होता है, उसी प्रकार एक विभाग नर्तकियों का हो और सबसे आगे हो।

इनके सामने जो न गिरे उसके लिये विशेष प्रबन्ध करना होगा क्योंकि उसके ऊपर गोली का भी प्रभाव पड़ेगा कि नहीं इसमें सन्देह है। हाँ, एक कठिनाई होगी। यदि भारत सरकार ने मेरा प्रस्ताव स्वीकार कर लिया तो पर्याप्त संख्या में यह मिल सकेंगी कि नहीं। इनकी भर्ती इतनी सरलता से हो सकेगी कि नहीं, क्योंकि और लोगों के लिये तो सरकार की ओर से कर्मचारी नियुक्त हो गये और इधर-उधर से लोग भर्ती हो जाते हैं और सरकार उन्हें सिखाकर लड़ने के योग्य बना देती है। इन्हें तो प्राप्त करने में कठिनाई होगी क्योंकि राजा साहब कहते थे कि देश के धनी-मानी सज्जनों की छत्र-छाया में इनका लालन-पालन होता है। राज दरबार की यह अलंकार हैं।

सम्भव है, जब हम उन्हें भर्ती करने लगें तब भारतीय नरेशों को बुरा लगे और कहें कि हम लोगों में और ब्रिटिश सरकार में जो संधियां हुई हैं उनमें इसके लिये कोई धारा नहीं है। फिर शीघ्र पार्लियामेंट को कोई नया विधान बनाना पड़ेगा।

यह गम्भीर बात थी और मैं इस सम्बन्ध में क्या कर सकता था? परन्तु बात महत्व की थी और देशी नरेशों और धनी वर्ग से सम्बन्ध रखती है इसलिये उन्हें रुष्ट करना भी उचित नहीं था। क्योंकि राजा साहब से यह भी पता लगा कि बहुत-से लोग चन्दा इत्यादि तो दे देंगे, इन्हें देंगे कि नहीं ठीक नहीं कहा जा सकता।

जो हो, यह बहुत ही विचार करने की बात है और भारत सरकार को इस पर बड़ी गम्भीरता से विचार करना होगा। परन्तु मेरा प्रस्ताव बहुत ही मौलिक और व्यवहारात्मक और साम्राज्य की दृष्टि से लाभप्रद है।

मैं दूसरे दिन राजा साहब के यहाँ से विदा होकर कानपुर के लिये रवाना हो गया।

मुसलमानी धान

इधर जब से मैं लौटकर आया कोई विशेष घटना नहीं हुई और नित्य की दिनचर्या में ही लगा रहा। मौलवी साहब अब नहीं आते थे। उर्दू में मैंने साधारण योग्यता प्राप्त कर ली थी जिससे मेरा काम अच्छी तरह चल जाता था।

यद्यपि मैं इतिहास का प्रेमी हूँ और साहित्य में अधिक रस नहीं मिलता, फिर भी कभी-कभी उर्दू कविता की पुस्तक मैं मँगवा लिया करता था। मैंने उर्दू कविता को खूब अच्छी तरह समझ लिया था और दो-तीन कविता पढ़कर इस परिणाम पर पहुँचा कि और आगे पढ़ने की आवश्यकता नहीं है।

बुलबुल और गुलाब, बिस्मिल अर्थात् जो अधमरा हो और कातिल, लैला और महमिल, मूसा और तूर पहाड़ का प्रकाश, घोंसला और बिजली, मयखाना और पियाला शराब-इतनी बातें आप जान जाइये फिर उर्दू कविता के सम्बन्ध में जानने की और कोई आवश्यकता नहीं है। इसमें बिस्मिल तो मैं ही कितनों को किरच कर मैसोपोटामिया में बना चुका था। उसमें कितने मरे भी होंगे, इसलिये कातिल की पदवी भी मुझे मिल सकती है। लैला को मैंने देखा नहीं। महमिल तो अरब के मैदान में कई ऊँटों पर मैंने देखा। शराब और पियाला तो दिन-रात साथ ही रहते थे, बुलबुल नहीं देखी, कभी अवसर मिला तो देखूँगा।

इधर पता लगा कि इस प्रान्त में एक और भाषा है जिसे हिन्दी कहते हैं। इसे वह लोग पढ़ते हैं जो मुसलमान नहीं हैं। इस देश में जो दो मुख्य जातियाँ हैं उनकी सभी बातें अलग-अलग हैं।

स्टेशनों पर तो देखने में आता था कि साइनबोर्ड पर लिखा था कि यह हिन्दू के लिये भोजन है, यह मुसलमान के लिये। मुझे कभी उनमें भोजन के लिये जाने का अवसर नहीं मिला। एक दिन इस मामले में मैं मूर्ख भी बन गया।

एक दिन अपने बेयरा से मैंने पूछा कि यहाँ निकट कहीं खेत हैं? उसने कहा कि यहाँ तो नहीं यहाँ से सात मील पश्चिम में हैं। मेरे जान-पहचान के जमींदार भी वहाँ हैं। मैंने कहा - 'एक दिन मैं चलूँगा।' रविवार के दिन उस गाँव में कार से पहुँचा। गाँव में बड़ी हलचल मची। मैंने जमींदार साहब से कहा कि मैं विशेष काम से आया हूँ। आपके यहाँ खेती होती है? उन्होंने कहा - 'हाँ।' मैंने कहा - 'यदि आप कष्ट करें तो मैं खेत पर आपके साथ चलूँ।'

हम लोग साथ-साथ चले। मैंने पूछा - 'आप तो मुसलमान हैं?' वह बोले - 'हाँ', फिर मैंने पूछा - 'यह फस्ल किस चीज की है?' वह बोले - 'धान की' मैंने कहा - 'मुझे जरा मुसलिम धान और हिन्दू धान के खेतों में ले चलिये, मैं वही देखने के लिये यहाँ तक आया हूँ।'

वह मेरी ओर बड़ी देर तक देखते रहे। फिर उन्होंने न जाने क्या मेरे बेयरा से कहा। उसने कहा - 'हुजूर, इस समय चलें फिर कभी आयेंगे।' मेरी समझ में बात नहीं आयी। मैंने कहा - 'आप नहीं जायेंगे तो मैं ही जाऊँगा।' वह और भी घब़डाया। उसने कहा - 'आप सचमुच क्या चाहते हैं' मुझे क्रोध आया। मैंने कहा - 'देखना क्या, मुझे हिन्दू और मुसलमान दोनों धान दिखाइये।' उसने कहा कि धान में तो कोई ऐसी चीज नहीं होती। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने पूछा -'और गेहूँ में?' उसने कहा कि किसी अनाज में ऐसा भेद नहीं होता। मुझे उस पर विश्वास नहीं हुआ। मैंने कर्नल साहब से पूछा। वह मुझ पर बहुत हँसे। बोले - 'अनाज हिन्दू-मुसलमान नहीं होता। पकने पर वह जो पकाये उस जाति को हो जाता है।'

मैंने कहा - 'तो भाषा भी एक ही होगी। हिन्दू बोले, तो हिन्दी और मुसलमान बोले, तो उर्दू। कर्नल साहब ने कहा कि बात तो कुछ ऐसी ही है। बस थोड़ा दायें-बायें का अन्तर है। मैंने पूछा कि वह क्या? उन्होंने कहा कि जैसे अंग्रेजी लिखी जाती है बायें से दायें वह तो हिन्दी और दायें से बायें उसी को लिख दीजिये अरबी अक्षरों में तो उर्दू।

मैंने कहा - 'तब तो बहुत कम अन्तर है। यह लोग मिलकर तय क्यों नहीं कर लेते कि एक ही ओर से एक ही अक्षर में लिखें। इससे तो अनेक कामों में बड़ी आसानी हो सकती है।' कर्नल साहब ने धुआँ फेंकते हुए कहा -'यदि तुम्हारे विचार के कुछ लोग यहाँ आ जायें तो ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ उखड़ जाये। तुम क्या चाहते हो कि भारतवासी एक हो जायें?' मैंने कहा कि इससे एकता और अनेकता में क्या बाधा अथवा लाभ हो सकता है? यह तो पढ़ने-लिखने की बातें हैं।

कर्नल साहब ने कहा - 'तुम अभी नहीं जानते। केवल भाषा के प्रश्न पर यहाँ के लोग एक हजार वर्ष तक लड़ सकते हैं।'

मैंने कर्नल साहब से कहा कि जो हो, मैं हिन्दी भी थोड़ी पढ़ना चाहता हूँ। जैसे उर्दू के लिये मौलवी का आपने प्रबन्ध करा दिया था उसी भाँति इसका भी प्रबन्ध कर दें तो बड़ी कृपा होगी। एक पंडित तीन-चार दिनों बाद आये। उनके माथे पर उजली और लाल कई रेखायें बनी थीं। पता चला कि वह एक स्कूल में हिन्दी और संस्कृत पढ़ाते हैं। मैंने अपना मत उन पर प्रकट किया कि मैं थोड़ी हिन्दी जान लेना चाहता हूँ। पहला वाक्य जो उन्होंने कहा वह मैंने तुरन्त ही उनके जाने के बाद लिख लिया-क्योंकि वह मेरे लिये एक नई बात थी। उन्होंने कहा - 'जो है सो हिन्दी भाषा पढ़ने में अपना जो है सो समय क्यों जो है सो बरबाद करते हैं। जो है सो संस्कृत पढ़िये। तब जो है सो आपको यहाँ का हाल जान पड़ेगा जो है सो।'

पहले मैंने समझा, आधी हिन्दी 'जो है सो' से बनी है। तब तो मुझे बड़ी जल्दी आ जायेगी। दूसरे दिन मैंने सोचा, मैं भी हिन्दी बोलूँ। मैंने पंडितजी से कहा - 'जो है सो मुझसे पैसे लेकर जो है सो एक अच्छी किताब जो है सो बाजार से खरीद दीजिये जो है सो।'

पंडितजी मुझ पर बहुत रुष्ट हो गये। बोले - 'आप मुझे चिढ़ाते हैं? गुरु को चिढ़ाने से कभी विद्या नहीं आ सकती।' पीछे पता चला कि यह हिन्दी की विशेषता नहीं, बल्कि यह एक ठेका है।

अंग्रेजी संस्कृति

पंडितजी मुझे हिन्दी पढ़ाने आने लगे और मैंने हिन्दी पढ़नी आरम्भ कर दी। दो सप्ताह में मैं हिन्दी पढ़ने लगा। पंडितजी मुझसे थोड़ी दूर एक कुर्सी पर बैठते थे। पंडितजी में एक बात विचित्र थी, परन्तु बड़ी अच्छी थी। अपने मन की बात साफ कह देते थे।

उन्होंने कहा कि यहाँ से पढ़ाने के बाद मैं घर जाकर नहाता हूँ। मैंने जब पूछा कि ऐसा क्यों करते हैं? तब उन्होंने कहा कि आप लोग मांस-मछली-मदिरा का सेवन करते हैं और बहुत-सी ऐसी वस्तुयें खाते हैं जो नहीं खानी चाहिये। मैंने उनसे पूछा - 'यदि उन्हें छोड़ दूँ तब आप मुझे छू सकेंगे कि नहीं?' इसका उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया।

छः महीने में अच्छी हिन्दी आ गयी। मैंने 'चन्द्रकान्ता', 'दानलीला', 'एक रात में बीस खून', 'सावन का खिलौना' आदि क्लासिकल पुस्तकें पढ़ डालीं। तब मैंने पंडितजी से पूछा कि हिन्दी में सबसे महत्व की पुस्तक जो हो वह बताइये। अब मैं वही पढ़ूँगा। पंडितजी ने कहा कि यों तो बहुत पोथियाँ हैं किन्तु दो ही सुलभ ग्रंथ हिन्दी में हैं - 'रामायण' और 'सूरसागर।'

मैंने पहले सूरसागर पढ़ा। सूरसागर के दो अर्थ होते हैं या तो बहादुर समुद्र या बहादुरों का समुद्र। जान पड़ता है यह किसी अंग्रेज की लिखी पुस्तक है क्योंकि अंग्रेज जाति से अधिक सागरों की प्रेमी कोई और जाति नहीं हुई है। मैंने समझा था कि इसमें हमारे यहाँ के वीरों का वर्णन होगा जो पहले समुद्र के जहाजों पर छापा मारा करते थे। इस पुस्तक में ग्वाल शब्द आया है यह अस्ल में 'गॉल' शब्द है। यह फ्रांस के निवासी थे। भारतवासियों ने इसी शब्द को बिगाड़कर ग्वाल बना दिया है। ग्वाल-बाल तो कई स्थानों पर आया है। स्पष्ट है कि उन दिनों बाल नृत्य की प्रथा बहुत जोरों पर थी।

कृष्ण शब्द तो स्पष्ट ही क्राइस्ट शब्द से बिगड़कर बना है। उस कवि ने क्राइस्ट की कहानी का दूसरा रूप ही दिया है। वइ इधर भारत में आकर और भी बिगड़ गया है। गलिली की झील के स्थान पर यमुना नदी कर दी गयी है और उसके चमत्कारों को भी दूसरे ढंग से वर्णन किया गया है। एक देश की कहानी दूसरे देश में इसी प्रकार बदल जाती है। मैं इस पुस्तक पर एक बड़ा ग्रंथ लिखने का विचार कर रहा हूँ।

राजनीतिक विजय के पहले इंग्लैंड ने भारत को सांस्कृतिक विजय कर लिया था। यह इस पुस्तक से सिद्ध होता है।

दूसरी पुस्तक रामायण तो स्पष्ट ही होमर की पुस्तक का भावानुवाद है। अनुवाद अच्छा नहीं हुआ है। लिसिडास नाम का कोई अनुवादक था। उसी का नाम बिगड़कर तुलसीदास हो गया। हेलेन के स्थान पर सीता नाम रखा गया। ट्राय का युद्ध ही राम-रावण का युद्ध लिखा गया है। दो और बातें हो सकती हैं। रामायण के राम वही रोमन हैं जिसने रोम नगर की नींव डाली हो, या मिस्त्र के राजा रैमेसिस हों। इन विषयों पर अवकाश मिलने पर छान-बीन करूँगा।

हनुमान तो स्पष्ट ही जर्मन नाम है। उन्हीं के वंश में एक और हनुमान हुए हैं जिन्होंने होम्योपैथिक दवा का आविष्कार किया था।

यह लोग यूरोपीय थे, इसका एक और प्रमाण यह है कि अनेक नगर यूरोप में इन्हीं लोगों के नाम पर बसे हैं। राम के नाम पर रोम, रावण के नाम पर फ्रांस में रोआं, लक्ष्मण के नाम पर लक्षमबुर्ग इत्यादि। इस सब बातों से पता चलता है कि सारे संसार में सभ्यता फैलानेवाले यूरोपियन थे। इन्हीं लोगों ने सबको शिक्षा दी है और इन्हीं लोगों के ग्रंथ किसी न किसी रूप में प्रचलित हैं।

मुझे हिन्दी पढ़ने से बड़ा लाभ हुआ। संसार में उसी विचार द्वारा एकता फैलाई जा सकती है, जिसका नेतृत्व यूरोप करेगा। किन्तु जब तक संसार के सारे देशों को यूरोपवासी विजय न कर लें ऐसा करने में कठिनाई होगी।

मुझे पछतावा होने लगा कि मैंने हिन्दी पहले क्यों नहीं पढ़ी। इससे यूरोपियन संस्कृति के विस्तार का मुझे बड़ा ज्ञान हो गया। मैं और भी हिन्दी की पुस्तकें मँगा-मँगाकर पढ़ने लगा।

हिन्दी - उर्दू

आशा है मेरे देशवासी मुझसे इस बात पर रुष्ट न होंगे जब मैं यह कहूँ कि मेरा हिन्दी के प्रति प्रेम प्रतिदिन बढ़ने लगा। अपनी मातृभाषा छोड़कर दूसरों की भाषा के प्रति प्रेम करना कुछ अस्वाभाविक अवश्य जान पड़ता है, किन्तु इसमें दो बातें हैं। एक तो मैंने अंग्रेजी छोड़ी नहीं, दूसरे मैंने यह सोचा कि भारतवासियों की संस्कृति बहुत पुरानी है। मैं तो जानता ही नहीं, परन्तु मेरे देश के कुछ लेखकों ने इनके साहित्य की भी बड़ी प्रशंसा की है। फिर जब यह हमारे देश की भाषा के प्रति इतना प्रगाढ़ प्रेम दिखलाते हैं, तब अवश्य यह भी एक गुण होगा।

एक और बात है। उर्दू से मुझे हिन्दी काव्य में अधिक आनन्द आने लगा। उसका एक कारण तो यह था कि उर्दू में मार-काट का ही विवरण अधिक है और मेरा तो प्रतिदिन का यह कार्य ही है कि मारूँ और मौत के घाट उतार दूँ। इसलिये उसमें विशेष मनोरंजन नहीं हुआ।

यहाँ तो हमें नृत्य और संगीत का आनन्द आता था और हिन्दी लेखकों का, विशेष कर कवियों का दिमाग तो बहुत ही उपजाऊ है। एक पुस्तक मैंने पढ़ी। जिसमें पाँच सौ छन्द केवल नाक के नथ पर थे। ऐसी ही एक पुस्तक एक लेखक ने लिख डाली है, केवल नागफनी के काँटे पर।

हिन्दी के लेखकों की यह विशेषता है कि भूत से लेकर ईश्वर के कान तक पर यह लिख सकते हैं और इतना, जितना शेक्सपियर ने सब मिलाकर लिखा होगा।

इसी बीच एक दिन मेरे पुराने मौलवी साहब आ गये। उनके त्योहार-ईद-का अवसर था। मैंने पाँच रुपये उनके हवाले किये। वे जा ही रहे थे कि उसी समय पंडितजी भी पहुँच गये। दोनों व्यक्तियों का मैंने परिचय कराया। मौलवी साहब को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि मैं हिन्दी पढ़ रहा हूँ। पंडितजी को इस बात पर तअज्जुब हुआ कि मैंने उर्दू भी पढ़ी है और हिन्दी तथा उर्दू पर कुछ बात होने लगी। दोनों ओर से दूसरे की भाषा के दोष बताये जा रहे थे। उस दिन मेरी आँख खुली और मैंने जाना कि दोनों में से किसी भाषा में कोई गुण नहीं है। दोनों भाषायें क्या हैं, दोषों की खानें हैं। कितनी देर तक विवाद होता रहा मुझे स्मरण नहीं है क्योंकि मुझे उस समय होश आया जब भाषा की सीमा को यह दोनों विद्वान पार कर चुके थे और इस्लाम तथा हिन्दू-धर्म पर विवाद होने लगा था और वह व्यक्तिगत आचार-व्यवहार, शरीर-स्वास्थ्य तक आ गया। मैं कह नहीं सकता, किन्तु मैं न होता तो मेरा कमरा अखाड़े का स्वरूप धारण करता। मैंने मन में सोचा कि जब एक हिन्दू तथा मुसलमान इतने स्वाभिमानी हैं कि यदि अंग्रेज उनके बीच में न हो तो अपनी शक्ति की परीक्षा लेने के लिये तत्पर रहते हैं, तब जहाँ करोड़ों हिन्दू और मुसलमान रहते हैं, वहाँ यदि उनके बीच कोई अंग्रेज न हो तो कैसे यह लोग रहेंगे। मैंने किसी भाँति उन्हें शान्त किया और वे लोग वहाँ से एक उत्तर और एक दक्षिण की ओर चले। उनकी दृढ़ता की मैं प्रशंसा करने लगा कि एक सड़क पर भी दोनों साथ नहीं चले।

पंडितजी तो बराबर आते ही थे। अब मुझे एक ऐसे विद्वान की खोज हुई जो पंडितजी से अधिक योग्य हो। मैंने स्थानीय अंग्रेजी पत्र में विज्ञापन दे दिया। मैंने सोचा कि कानपुर में दो-एक सज्जन मिल ही जायेंगे क्योंकि कानपुर में कई कॉलेज भी हैं। यद्यपि कुलियों की आबादी यहाँ अधिक है, फिर भी हिंदी के विद्वान, जिन्होंने आलोचनात्मक ढंग से अध्ययन किया हो, मिल ही जायेंगे।

पाँच-छः दिनों के बाद एक दिन सन्ध्या समय मैं परेड से लौटा तो मेरी मेज पर पत्रों का एक गट्ठर रखा था। मुझे सन्देह हुआ कि डाकिया अपना बण्डल भूल गया है। मैंने बेयरा से पूछा तो उसने कहा कि हुजूर यह सब पत्र आपके हैं।

मेरे पास दो-एक पत्र प्रतिदिन आते थे। इतने पत्र कहाँ से आ गये? मैंने उनमें से एक देखा तो ज्ञात हुआ मैंने जो विज्ञापन दे रखा था, उसी का आवेदन-पत्र था। एक-दो-तीन, सब वही। कुछ इधर-उधर देखा। कानपुर ही नहीं, लखनऊ, बनारस, दिल्ली सब स्थानों से आवेदन-पत्र मिले। मैं घबरा गया। बेयरा को दिया कि इससे चाय बनाना। मुझे इससे यह पता चला कि भारतवर्ष में हिन्दी के विद्वानों की संख्या अनन्त है। उस ढेर में से मैंने यों ही कानपुर के एक व्यक्ति का पत्र उठा लिया और उन्हें पत्र लिख दिया। वह सज्जन मिले। वह युवक थे, कवि भी थे, हिन्दी के विद्वान भी थे और बातचीत से उनमें मनुष्यता पायी जाती थी। मुझे मिलकर प्रसन्नता हुई। कानपुर के एक कॉलेज में वह हिन्दी पढ़ाते थे। उन्होंने हिन्दी के विषय में बहुत-सी बातें मुझे बतायीं और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मुझे प्रतिदिन अपनी रचना सुनाते थे।

कविता कैसी थी, वह जानने की मुझमें क्षमता न थी, पर उनका गला सुरीला था और याद भी उन्हें खूब था।

उनके कॉलेज में एक दिन कवि-सम्मेलन था। मुझे बड़े आग्रह से वह वहाँ ले गये।

मैं एक बार उर्दू के कवियों के कविता-पाठ में गया था। वह मैं कहीं लिख चुका हूँ। हिन्दी का कवि-सम्मेलन भी कुछ-कुछ वैसा ही होता है।

मैं तो यों ही उत्सुक था। प्रोफेसर साहब के कहने से और भी तैयार हो गया और चला। सात बजे का समय था। आठ बजे प्रोफेसर साहब मेरे यहाँ आये। साढ़े आठ बजे वहाँ पहुँचे। भीड़ काफी एकत्र हो गयी थी, परन्तु सभापति महोदय नहीं थे। सभापति महोदय बनारस से आये थे। मैंने प्रोफसर साहब से पूछा कि यदि वह न आये हों तो दूसरे को बैठाकर आरम्भ कीजिये। उन्होंने कहा कि नहीं, वे आ गये हैं। अभी सन्ध्या को उनकी गाड़ी आयी है। उनकी भाँग पीसी जा रही है। छान लें, तो आयें।

कवि - सम्मेलन

मैंने पंडितजी से पूछा कि भाँग क्या वस्तु है? उन्होंने बताया कि भाँग एक पत्ती होती है। उसे पीसकर हिन्दू लोग पीते हैं। इसके पीने से यह लाभ होता है कि जो एक बोतल जानीवाकर नहीं कर सकता, वह एक छोटी-सी भाँग की गोली कर देती है।

मैंने पंडितजी से पूछा कि क्या यह नशे की वस्तु है? उन्होंने बताया कि नशा भी ऐसा-वैसा? एक झोंके में गौरीशंकर से अतलांतक तक ले जा सकती है! और जैसे आपके यहाँ शैम्पेन है, जिन है, क्लैरेट है, शेरी है, व्हिस्की है, ब्रांडी है और पंचमेल काकटेल है, उसी भाँति इसमें भी दूधिया है, संतरे की है, कसेरू की है, फालसे की है, अंगूरी है, मलाई की है। बादाम तो सभी में रहता ही है और सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमारे देवता शंकर भगवान सवेरे-शाम इसे छानते हैं।

मैंने पूछा - 'कवि लोगों के लिये क्या आवश्यक है?' पंडितजी बोले-'इसमें भी दो मत हैं। प्राचीन ढर्रे पर चलनेवाले कवि, जो सवैया तथा कवित्त पढ़ते हैं, भाँग पर ही सन्तोष करते हैं क्योंकि उनका विश्वास है कि उसमें कुछ भारतीयता है और महादेव को रुचिकर है। नये विचारवाले सोचते हैं कि कौन सिल और बट्टे की झंझट करें और पीसने की कसरत में समय तथा शक्ति का अपव्यय करे। उन्होंने सम्मेलन के संयोजकों के मत्थे एकाध अद्धा या बोतल मँगवाया, चुपके से सूटकेस में रखा, किसी को पता भी नहीं। सम्मेलन में चलते समय एकाध गिलास और वहाँ से लौटकर एकाध गिलास जमा लिया। सम्मेलन सफल हो गया।'

इस सम्बन्ध में उन्होंने यह भी कहा कि कवि-सम्मेलनों में कॉलेजों के प्रोफेसर, विश्वविद्यालय के डॉक्टर आदि भी तो आते हैं। भाँग छानना उनकी शान के अनुकूल नहीं है। मदिरा यदि विलायती हो तब तो पीना गुण समझा जाता है।

'एक बात और है'- पंडितजी ने उसी साँस में बताया - 'मुशायरों में इसी का दौर चलता है और कवियों को शायरों से टक्कर लेनी होती है, इसलिये कवियों ने भी यही उचित समझा कि इसी को अपनाया जाये। भाँग पीने से आजकल के ऊँचे दर्जे के कवि अपने को हीन समझने लगते हैं।'

सभापति महोदय आये। सब लोगों ने उन्हें माला पहनायी। सम्मेलन आरम्भ हुआ। पहले एक व्यक्ति आये। उन्होंने एक गीत गाया। हाथ से भाव भी बताते जाते थे। सिर भी हिलाते जाते थे। यह कहना कम से कम मेरे ऐसे नये आदमी के लिये कठिन था कि वह गा रहे हैं कि कविता पढ़ रहे हैं। फिर एक सज्जन आये; वह वीररस की कविता पढ़ रहे थे। कविता में वीरता का रस तो मुझे कम जान पड़ा, किन्तु उनके हाथ-पाँव के पैंतरे से जान पड़ा कि कवि महोदय अवश्य ही वीर होंगे और लड़कपन में तलवार चलाने की शिक्षा भी इन्हें मिली होगी जिसे यह अब भूल गये थे। फिर एक और महोदय आये। तुलसीदास के बाद जान पड़ता है, इन्होंने महाकाव्य लिखा था। पढ़ना आरम्भ किया। सभापति महोदय सोच रहे थे कि अब समाप्त होता है तब समाप्त होता है। दूसरे कवि समझते थे कि अब हमारी बारी ही नहीं आयेगी। जनता इतनी समझदार न थी। उसने ताली पीटी। इन्होंने समझा कि मेरे काव्य की उड़ान तक जनता ही पहुँच सकी। और भी पन्ने इन्होंने उलटे। जनता की तालियों में और बल आया।

कवि और जनता की इस होड़ में जनता की विजय हुई और लोग उनके काव्य का रस नहीं ले सके। यही सिलसिला चलता रहा। छिहत्तर कवि थे। कविता तो सुन्दर रही होगी। मुझसे अधिक समझने वालों ने उनमें और भी सुन्दरता देखी होगी। राष्ट्रीय कवितायें भी हुईं। अभी तक हम राष्ट्रीय कविता का अर्थ यह समझते थे कि उसमें देश के प्रति प्रेम होगा या राष्ट्र की भावनायें जाग्रत् करने के लिये लिखी गयी होगी। किन्तु हमें जान पड़ा कि हिन्दी में राष्ट्रीय कविता का अर्थ है अंग्रेजों को गाली देना। ब्रिटिश शासन को नहीं अंग्रेजों को। किन्तु इन सबसे मजेदार बात हमें एक और लगी - जितने कवि थे सबके एक न एक उपनाम थे। मुझे कुछ उपनाम स्मरण हैं। वह यह हैं - उजबक, खटमल, मेंढक, झींगुर, कूंचा, बबूल, मदार, बैंगन, चौराई, चैला, बरगद, जमालगोटा, खुखड़ी, भुकड़ी इत्यादि। मैंने पंडितजी से पूछा कि ऐसे नाम क्यों कवि लोग रखते हैं? उन्होंने कहा कि बात यह है कि जितने फल, फूल, पक्षी, पशु थे, सबके नाम पुराने कवियों ने अपना लिये। नये कवियों के लिये अब और कुछ रहा नहीं।

जब कौओं ने बोलना आरम्भ किया तब इन कवियों ने पढ़ना बन्द किया। मैं भी बाहर निकला। कवि लोग जलपान के लिये एक कमरे में जा रहे थे।

बाहर निकला तो मन्त्री महोदय को तीन-चार कवि घेरे हुए थे। एक कह रहा था - 'मगर मैं सेकेंड क्लास में आया हूँ', एक कह रहा था, 'इक्यावन नहीं तो इकतीस मिलना ही चाहिये, मेरा और कोई व्यवसाय नहीं है।' एक ने मन्त्री महोदय का हाथ पकड़ लिया और बोला - 'आप जानते हैं मैं प्रोफेसर हूँ। कई पुस्तकों का प्रणेता हूँ। मैं पहले बिना लिये आता नहीं, आप एक सौ एक मुझे दे दीजिये।' मेरी समझ में नहीं आया कि यह क्या बात है।

पंडितजी ने मुझे समझाया कि हिन्दी कविता का बहुत मूल्य होता है। यह मुफ्त नहीं सुनायी जाती। जिस साहित्य का कोई मूल्य नहीं, वह भी कोई साहित्य है।

टक्कर

मुझे भारत में आये दो साल से ऊपर हो गये, किन्तु आज जिस घटना का विवरण मैं अंकित कर रहा हूँ वह बड़ी ही विचित्र है। यों तो भारतवर्ष में कुछ भी विचित्र हो नहीं सकता। सारे संसार में सात विचित्रतायें हैं, किन्तु अकेले भारत में सात हजार विचित्रतायें मिलेंगी। यहाँ का प्रत्येक व्यक्ति विचित्र है, सबकी बात विचित्र है, सब प्रथायें विचित्र हैं और हम लोग इंग्लैंड से आकर यहाँ विचित्र हो जाते हैं।

एक रात क्लब से मैं तथा कैप्टन ऑसहेड कार पर चले आ रहे थे। उस दिन कर्नल डू नथिंग से बाजी लगी थी, वह हार गये और उन्हें चार बोतल व्हिस्की पिलानी पड़ी। उनमें से तीन बोतल कैप्टन ऑसहेड पी गये। सैनिक अफसर अपनी बुद्धि सदा रिजर्व में रखते हैं। यदि सदा यों ही व्यय किया करें तो रणक्षेत्र में कैसे कौशल दिखा सकते हैं। इसलिये मस्तिष्क के एक सुरक्षित कोने में वह बुद्धि रखते हैं और जब उनके रक्त में वह तरल पदार्थ भिन जाता है जिसे साधारण जनता 'मदिरा' के नाम से पुकारती है, किन्तु शिष्ट समाज जिसे अंगूर का रस कहता है, तब तो बुद्धि उसी में डूब जाती है। यही हाल कैप्टेन ऑसहेड का हुआ, कार का सम्भालना उन्हीं के हाथों में था। उनके रुधिर की गति, कार की गति एक ही थी। एक मोड़ के पास एक ओर से एक ताँगा आ रहा था। हमारी कार ने उसके पहिये के साथ टक्कर ली। साईस और सवार दोनों साथ देने पर तुले थे, दोनों गिरे! घोड़ा समझदार था, वह ताँगा लेकर भागा। कार का इंजन बन्द हो गया।

मुझ पहले पता नहीं था कि टक्कर, होश में लाने की एक दवा भी है। कैप्टन साहब को होश आ गया। वह कार से उतर पड़े, मैं भी उतर पड़ा। यह देखने के लिये कि बात क्या है। कार के पास दो व्यक्ति सड़क पर लेटे हुए थे। कार में कुछ विशेष बिगड़ा नहीं था। ठीक हो गयी। मैंने कहा - 'इन्हें अस्पताल ले चलना चाहिये।' कप्तान साहब बोले - 'तुम भी अंग्रेज होकर डरते हो। अंग्रेज तो वीर जाति होती है जो युद्ध में सेना की सेना का सफाया कर देती है, वह दो आदमियों की मृत्यु से डर जाये, यह कैसी वीरता है!' मैंने कहा - 'ठीक है। भारतवासी भी वीर होते हैं। मरने से डरते ही नहीं। मरने के लिये ही पैदा हुए हैं।' ऑसहेड ने पूछा - 'तुम्हें यहाँ आये कितने दिन हो गये?' मैंने कहा - 'दो साल के लगभग।' उन्होंने कहा - 'तभी तुम यह भी नहीं जानते कि भारतवासी प्लेग, कालरा और थाइसिस में कितने मरते हैं।' मैंने कहा कि इसके अध्ययन करने की मुझे कोई आवश्यकता नहीं पड़ी, किन्तु यदि इंग्लैंड में ऐसी घटना होती तो आप क्या करते। ऑसहेड बोले - 'अंग्रेज जाति के जीवन की रक्षा अति आवश्यक है क्योंकि उसी के द्वारा संसार में सभ्यता का प्रसार होगा और हो रहा है और संसार की व्यवस्था को ठीक अंग्रेज ही कर सकते हैं। उनकी रक्षा तो आवश्यक है।'

इसी बीच दो पुलिसमैन गश्त लगाते वहाँ पहुँच गये। हिन्दुस्तानी पुलिस बड़ी शिष्ट होती है। जब उन्होंने देखा कि भारत के शासकों के दो प्रतिनिधि वहाँ खड़े हैं, उन्होंने झुक कर सलाम किया। ऑसहेड के कुछ कहने के पहले मैंने उनसे कहा - 'इन्हें कार में रखो।' दोनों व्यक्तियों को कार में रखकर हम लोग सरकारी अस्पताल में पहुँचे।

कान्स्टेबल डॉक्टर को बुलाने लगा। डॉक्टर का पहले पता ही नहीं लग रहा था। यद्यपि अभी दस ही बज रहे थे। एक स्थान पर पता लगा कि डॉक्टर साहब एक मरीज देखने गये हैं। एक डॉक्टर महोदय गाना सुनने गये थे। एक डॉक्टर साहब अभी-अभी सोये थे। उन्हें कोई जगा नहीं सकता था।

मैंने इनके नौकर को डाँटा। किसी प्रकार उसने भीतर जा कर कहा और लौट कर बोला कि डॉक्टर साहब ने कहा है कि सवरे लाइये। मुझे डॉक्टर साहब की यह बात बहुत अच्छी लगी। दिन को बीमार अथवा घायल की जिस भाँति परीक्षा हो सकती है, रात को नहीं। इसी के साथ एक और बात है। रात-भर में यदि रोगी अथवा घायल की अवस्था सुधर गयी तो औषधि तथा डाक्टरी के व्यय से लोग बच जायेंगे और यदि नहीं तो व्यर्थ में डॉक्टर को कष्ट देने का कोई प्रयोजन भी नहीं। यह जितनी बातें हैं, डॉक्टर लोग हित के लिये ही कहते हैं। लोग समझें नहीं तो दोष किसका है?

मैंने नौकर से कहा कि जाकर कह दो कि लेफ्टिनेंट पिगसन तथा कैप्टन ऑसहेड आये हैं। सीजर के सम्बन्ध में सुना गया है कि वह गया, उसने देखा और विजय हो गयी। परन्तु अंग्रेजी नाम का जादू मैंने अभी देखा। डॉक्टर साहब सरकारी प्रान्तीय श्रेणी के कर्मचारी थे; हम लोगों से वेतन भी अधिक पाते होंगे, रोब-दाब भी काफी ही होगा, जैसा पहले उनके नौकर की बातों से पता चला। किन्तु अंग्रेजी नाम सुनते ही विद्युत गति उनके शरीर में आ गयी। नौकर से अपना बैठक खोलने को कहा और तुरन्त हम लोग बड़े आदर से बैठाये गये।

हम लोगों ने सब हाल सुनाया। फलस्वरूप वह अपने नौकर पर बहुत बिगड़े। बोले -'सर्वसाधारण के काम के लिये तुरन्त तैयार रहना चाहिय। इसने ठीक-ठीक हमें सूचना नहीं दी।' नौकर को गालियाँ भी दीं। हम लोगों से क्षमा माँगी, सिगरेट पिलायी। मैंने कहा - 'खतिरदारी तो पीछे भी हो सकती है, दो घायल हैं उन्हें देखना आवश्यक है।'

पुलिसमैन उन्हें ले गये। मैंने सब बयान किया। एक के सीने में चोट आयी थी, दूसरे की टाँगों में। चोट कुछ अधिक अवश्य थी, किन्तु भयानक नहीं थी। दस-पन्द्रह दिनों में ठीक हो जाने की सम्भावना थी।

कचहरी

तीन-चार दिनों के बाद कप्तान ऑसहेड दौड़े हुए मेरे यहाँ आये। उनके हाथ में एक पीला-सा कागज था। कार्ड होता तो कोई निमन्त्रण-पत्र होता। मैंने समझा किसी अच्छे सिनेमा का पास है, परन्तु जब वह आ गये और उन्होंने मेरे हाथ में से उसे दिया तब पता चला कि कचहरी में बुलाहट का समन है।

मैंने कहा कि इसमें चिन्ता की क्या बात है? वह आदमी बच गया। फिर हम लोग सैनिक हैं। जब हम हथेली पर जान रखकर इतने बड़े देश की रक्षा करते हैं तब क्या दो-चार आदमियों को दबा देने की भी सुविधा नहीं मिल सकती! सेना के लिये तो बड़ी-बड़ी सुविधायें मिलती हैं। किन्तु अदालत की बुलाहट थी, जाना आवश्यक था। कर्नल साहब से कहा गया। उन्होंने पूछा मजिस्ट्रेट हिन्दुस्तानी है या अंग्रेज। मुझे पता नहीं था। पूछा कि दोनों में क्या अन्तर होता है? उन्होंने कहा - 'हाँ। मैं तो हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रिेट को अधिक पसन्द करता हूँ। हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रेट से जैसा काम चाहे करा लो। अंग्रेज मजिस्ट्रेट से यदि अपन मन का काम कराना हागा तब उसका प्रभाव तुम्हारे बैंक पर पड़ेगा और हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रेट हिन्दुस्तानियों के लिये जो भी हों अंग्रेजों के एक पत्र से उस पर सफलता मिल सकती है। एक अंग्रेज के पत्र का हिन्दुस्तानी अफसर पर वही प्रभाव पड़ता है जैसा तोप का किले पर। खैर, देखा जायेगा।'

मुझे ऑसहेड ने गवाही में रख दिया। हम लोग निश्चित दिन कुछ देर से अदालत पहुँचे। देखा तो वहाँ बड़ी भीड़ थी। अनेक मुसलमान सज्जन जिनकी संख्या चार-पाँच सौ से कम न होगी एकत्र थे। मैंने समझा कोई बात होगी। ऑसहेड के वकील एक मुंशीजी थे। काली लम्बी अचकन थी, लम्बा-चौड़ा पायजामा था। पाँव के जूते से जान पड़ता था कि जब से मोल लिया गया कभी पॉलिश नहीं हुई। सिर पर टोपी न थी। नाक पर चश्मा था। सुना था कि बड़े नामी वकील हैं।

मैंने वकील साहब से पूछा कि आज कोई बड़ा संगीन मुकदमा है क्या? इतनी भीड़ एकत्र है। वकील साहब ने कहा - 'नहीं, यह उसी मुसलमान की ओर से आये हैं।' मैंने पूछा - 'यह लोग क्या करेंगे?' वकील ने कहा कि यह लोग रुपये-पैसे से और जो कुछ सहायता कर सकेंगे करेंगे और यह भी तो उस व्यक्ति को जानना चाहिये कि मेरे साथ इतने आदमी हैं।

मैंने पूछा कि फिर उस हिन्दू के साथ इसके तिगुने होंगे क्योंकि उनकी आबादी तो यहाँ कई गुनी अधिक है। वकील साहब ने कहा कि हिन्दू जाति वीर जाति है। वह चाहती है कि सब लोग अपने पाँव पर खड़े हों। सहायता लेने से लोग दुर्बल हो जाते हैं और एक-दूसरे के आश्रित हो जाते हैं। इस प्रकार दूसरे की सहायता लेकर वह अपने पैर में कुल्हाड़ी नहीं मारना चाहते। वह तो यदि पैसे वाला न होगा तो उसे वकील भी मिलेगा कि नहीं इसमें सन्देह है।

कोई ऐसा स्थान नहीं था जहाँ हम लोग बैठ सकें। समन में लिखा था - 'दस बजे आना।' हम लोग ग्यारह बजे पहुँचे। फिर भी मजिस्ट्रेट साहब का पता नहीं था। मैं तो यों ही साथ में गया था। कोई विशेष काम न था। गवाही जिस दिन होती उस दिन जाता। किन्तु केवल यहाँ का रंग-ढंग देखने के लिये आ गया था।

दो बजे मजिस्ट्रेट महोदय पधारे। जैसे रसायनशात्र, दर्शन इत्यादि शब्दों के अर्थ साधारण बोली के अर्थ से भिन्न होते हैं, उसी भाँति भारतीय कचहरी की भाषा में दस का अर्थ दो होता है। परन्तु तब भी बुलाहट नहीं हुई। वकील साहब ने ऑसहेड से कहा कि यदि आप एक रुपया खर्च करें तो मैं पेशकार को देकर पहले आपको पुकरवा लूँ; जल्छी छुट्टी मिल जायेगी। अब मैंने समझा कि सचमुच समय का मूल्य होता है। ऑसहेड ने कहा कि मैं जो कुछ नियमित व्यय होगा उससे अधिक देने के लिये तैयार नहीं हूँ। परिणम यह हुआ कि चार बजे लोग बुलाये गये और न जाने क्या दो-एक वकील साहब से बात हुई और फिर यह हुआ कि बीस दिन बाद तारीख पड़ी और ऑसहेड महोदय और मैं लौट आये।

दूसरी तारीख पर मैं नहीं गया। ऑसहेड साहब चाय इत्यादि पीकर साढ़े तीन बजे वहाँ पहुँचे तो पता चला कि मजिस्ट्रेट महोदय किसी गाँव में गये हैं क्योंकि वहाँ ईख के खेत में टिड्डियों का एक बड़ा गिरोह आक्रमण कर गया। उस दिन भी वह चुपचाप लौट आये। तीसरी तारीख पर फिर मजिस्ट्रेट साहब नहीं थे। उनकी साली ने अपने पति को तलाक दिया था। उसी मुकदमे में वह गवाह थे; इलाहाबाद चले गये थे। चौथी तारीख को कानपुर के ही एक मेले में उनकी तैनाती थी। उस दिन भी मुकदमा पेश नहीं हुआ। पाँचवीं तारीख को ऑसहेड तुरन्त लौट आये। और सीधे मेरे पास आये।

मैंने पूछा - 'आज बड़ी जल्दी लौट आये?' उसने कहा कि आज ईद की छुट्टी है। कचहरी बन्द है। मैंने कहा कि छुट्टी के दिन कैसे तारीख डाल दी; क्या मजिस्ट्रेट के पास डायरी नहीं रहती? तब पता चला कि कुछ ऐसे त्योहार होते हैं जिनके लिये कुछ निश्चय नहीं रहता कि कब होंगे। चन्द्रमा के उदय तथा अस्त होने पर वह त्योहार पड़ते हैं। चन्द्रमा ऐसी मादकता में पड़ा रहता है कि कभी-कभी वह भूल जाता है कि हमें आज उदय होना है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार चन्द्रमा शराब का भाई है, इसलिये मादकता स्वाभाविक है। इसलिये पता नहीं था कि आज छुट्टी है।

अब की बार ऑसहेड ने कर्नल साहब को लिखा। उन्होंने कमिश्नर को लिखा कि हमारे अफसरों को बड़ा कष्ट होता है। बार-बार जाने से अनेक कार्यों का हरज भी होता है, यद्यपि काम के विचार से हम लोगों को जितना अवकाश था उतना मरने पर भी लोगों को नहीं होगा। इस पत्र का परिणाम यह हुआ कि छठी तारीख पर मुकदमा एक-दूसरे मजिस्ट्रेट की कचहरी में भेज दिया गया। सम्भवतः इन्हें कोई और काम नहीं था, केवल इस मुकदमे के लिये ही यह मजिस्ट्रेट बनाये गये थे।

पेशी

इस बार जब मुकदमा पेश हुआ, मैं भी गया क्योंकि इस बार ऐसी आशा थी और ठीक थी कि सुनवाई होगी। अब तक वह दोनों अच्छे हो गये थे।

मजिस्ट्रेट महोदय की कचहरी में हम सब लोग उपस्थित हुए। सरकार की ओर से कहा गया कि एक सैनिक अफसर ऑसहेड शराब के नशे में मोटर गाड़ी हाँक रहे थे और दो व्यक्तियों को कुचल दिया। ईश्वर की ही कृपा हुई कि वे बच गये। उन दोनों के बयान हुए। उसके पश्चात् तीन और आदमियों की गवाही हुई। पता नहीं यह कहाँ से आ गये।

इन लोगों का कहना था कि दो सैनिक गोरे शराब पीकर मोटर में चले जा रहे थे और इनके ऊपर मोटर चढ़ा दी। हमारे वकील ने एक गवाह से पूछा - 'तुम कैसे जानते हो कि इन्होंने शराब पी थी।' उसने कहा कि इनकी मोटर ही ऐसी चल रही थी।

वकील ने कहा - 'मोटर का क्या रंग था?'

गवाह - (कुछ सोचकर) रात में मोटर का रंग हमें ठीक नहीं दिखायी दिया।

वकील साहब - इतनी तेज बिजली की रोशनी सड़क पर थी, तुम्हें रंग नहीं दिखायी दिया?

गवाह - हुजूर, रात में बहुत-से रंग ऐसे दिखायी देते हैं जो दिन में दूसरे रंग दिखायी देते हैं।

वकील - अच्छा, रात में तुम्हें किस रंग की दिखायी दी?

गवाह - सरकार, मैं तो दूर था। एक बार कुछ नीला-सा दिखायी पड़ा, ऐसा जान पड़ा कि पीलापन लिये हुए लाल-लाल है।

मजिस्ट्रेट - (गवाह से) तुम जानते हो कि तुमने ईश्वर की शपथ खायी है। सच-सच बोलो।

गवाह - सरकार, मैंने कसम न भी खायी होती तो सच ही बोलता। चार पुश्त से मेरे परिवार में लोग गवाह होते चले आये हैं और किसी के सम्बन्ध में यह किसी ने नहीं कहा कि कभी कोई झूठ बोला।

वकील - अच्छा, जब यह घटना हुई तब गाड़ी सड़क की बाईं ओर थी कि दाहिनी?

गवाह - हुजूर, जहाँ तक मुझे याद है गाड़ी बीच में थी।

वकील साहब ने पूछा - तुम वहाँ क्या कर रहे थे?

गवाह - मैं गा रहा था।

वकील - मेरा अभिप्राय यह कि उस स्थान पर तुम क्यों गये।

गवाह - यदि हम सरकार, उस समय न होते तो आज इजलास के सम्मुख सत्य घटना कौन बताता?

मजिस्ट्रेट ने कहा - तुम ठीक से जो पूछा जाता है, उसका उत्तर दो, नहीं तो तुम्हें सजा हो जायेगी।

गवाह - हुजूर, सभी लोग उधर से उस रात को जा रहे थे। गोरे लोग जा रहे थे; यह बेचारे जो दब गये, वह जा रहे थे, मैं भी जा रहा था। कोई पाप तो मैंने किया नहीं।

वकील - पाप-पुण्य नहीं, क्यों जा रहे थे, क्या काम था, यही इजलास जानना चाहता है।

गवाह - इतने दिनों की बात याद नहीं किन्तु टहल कर लौट रहा था।

हमारे वकील ने कहा कि इस गवाह से हम लोग कुछ निकाल नहीं सकते। दूसरा गवाह भी बयान दे गया, उससे भी हमारे वकील ने जिरह की। उसने भी ऐसी ही ऊटपटाँग बात कही। मुकदमा दूसरे दिन के लिये स्थगित हुआ। तीसरे दिन मेरी गवाह हुई।

मुझसे उधर के वकील ने जिरह करनी आरम्भ की। मुझसे पूछा कि आप क्यों इनके साथ थे। मैंने कहा कि हम लोग क्लब से साथ ही आ रहे थे। उन्होंने फिर पूछा कि इन्होंने प्रतिदिन से अधिक शराब पी ली थी? अब मैं बड़े फेर में पड़ा। मैं सोचने लगा कि सत्य बोलना चाहिये कि नहीं। फिर मैंने सोचा कि मन्दिर में, धार्मिक स्थान में तथा महात्माओं के सम्मुख सत्य ही बोलना चाहिये। किन्तु जहाँ चारों ओर झूठ-झूठ है वहाँ सत्य बोलने से सत्य का अपमान होता है। मैंने कहा कि उस दिन तो उन्होंने प्रतिदिन से कम शराब पी थी। बात यह थी कि इनकी तबीयत कुछ अच्छी नहीं थी। इसीलिये कम शराब पी। यह दोनों आ रहे थे, ये भी शराब पिये हुए थे। बहुत भोंपा बजाने पर भी हटे नहीं।

दूसरे दिन फैसला हुआ, जिसमें यही निश्चय किया गया कि जो लोग दबे थे, वही नशे में थे। सैनिक अफसरों ने बहुत आवाज दी, किन्तु यह लोग हटे नहीं। घटना के बाद ही इन लोगों ने कार पर बैठाकर इन्हें अस्पताल पहुँचाया। इससे इनकी नीयत का पता चलता है।

अंग्रेज अफसर भारतवासियों के शुभचिंतक हैं, ऐसी ही घटनाओं से प्रतीत होता है। मजिस्ट्रेट ने अपने फैसले में हम लोगों को बधाई दी और यह भी लिखा कि यदि और भी ऐसे ही अफसर भारत में आ जायें तो भारतीय राजनीतिक समस्यायें बात की बात में सुलझ जायें। हम लोग छूट गये। दावा करने वालों पर डाँट पड़ी कि ऐसे बेकार मुकदमे लाकर सरकारी समय का विनाश होता है।

सन्ध्या को वकील साहब मिलने आये। उन्हें पचास रुपये हम लोगों ने दिये। उन्होंने अपनी बड़ी प्रशंसा की। बोले - 'मैंने कितने लोगों को फाँसी के तख्ते पर से उतार लिया है।' उन्होंने दस रुपये और माँगे। कहा - 'मजिस्ट्रेट साहब के यहाँ जनाने में जो नाइन आती-जाती है, उसे देना है। क्योंकि मजिस्ट्रेट साहब इजलास करते अवश्य हैं, किन्तु फैसलों का अधिकांश श्रेय उसी नाइन के हाथ में रहता है। यदि साध लिया जाये तो कोई ऐसा मुकदमा नहीं जो हार जायें।' मैंने वकील साहब को रुपये दिलवा दिये और बोला - 'तो आप लोगों का वकालत चलाने का बहुत अच्छा साधन है।'

वकील साहब बोले - 'वकालत ऐसे ही चलती है। जब कोई रिश्वती हाकिम आता है तब हम लोग देख लेते हैं कि इसकी कहाँ-कहाँ रिश्तेदारी है, इसे किन बातों का शौक है। फिर क्या है, चल गयी वकालत। एक हाकिम थे; उनका एक वकील साहब की लड़की से प्रेम हो गया। वकील साहब की वकालत ऐसी चमकी जैसे मंगल तारा चमकता है।

'एक मजिस्ट्रेट साहब को नाच-गाने का शौक था। फिर तो नगर के समाजियों द्वारा आप जैसा चाहिये, फैसला करा लीजिये।'

मैंने वकील साहब को बधाई दी।

विवाह

आज अपने जीवन में एक नई घटना हुई। सर बोरामल टाटका के यहाँ विवाह था और यहाँ कर्नल साहब और कई व्यक्तियों को निमन्त्रण था। पार्टी भी थी। मुझे भी निमन्त्रण था। उसमें पार्टी का समय पाँच बजे था और विवाह का सात। मुझे पार्टी से विशेष रुचि नहीं थी क्योंकि इन दिनों मेरा स्वास्थ्य अच्छा नहीं था। फिर भी मन में कहा कि जब जाना ही है तब पार्टी में भी सम्मिलित होना आवश्यक है। नहीं तो मैं लिखने वाला था कि पार्टी में नहीं आ सकूँगा।

ज्यों ही मेरी कार पहुँची, सर बोरामल ने स्वागत किया। कर्नल साहब ने परिचय कराया। बाग खूब सजा हुआ था। कृत्रिम पहाड़ तथा झरने बने हुए थे। चारों ओर रंग-बिरंगे फूल नन्दन-कानन के समान खिल रहे थे। कई बड़े-बड़े खेमे लगे हुए थे। एक खेमे में हम लोगों के खाने-पीने का सामान लदा हुआ था। जितने हम लोग थे उससे अधिक व्हिस्की तथा शैम्पेन की बोतलें थीं। हिन्दुओं के जलपान की व्यवस्था अलग थी क्योंकि मैंने सुना है कि उन लोगों के भोजन का सामान गंगाजल में बनकर ही आता है और गंगाजल में जो कुछ बनाया जाये वह कहीं भी खाया जा सकता है, ऐसा उन लोगों का विश्वास है।

फिर हम लोगों की मेज पर ऐसे पदार्थ भी थे, जैसे मांस की और अंडे की बनी वस्तुऐं। परन्तु लोगों को सुनकर आश्चर्य होगा कि हम लोगों की मेज पर कई हिन्दुस्तानी सज्जन थे। हमारी राय में जब हमारे देशवाले यह आपत्ति उठाते हैं कि भारतीय स्वराज्य के योग्य नहीं हैं तब भारतवासियों को इस पर इन्हीं के समान और लोगों के नाम उपस्थित करने चाहिये। क्योंकि मैंने देखा कि उनके काँटे भी वैसे ही सफाई से चल रहे थे जैसे हम लोगों के; और गिलासों को भी वे उतनी ही शीघ्रता से खाली कर रहे थे जितनी शीघ्रता से हम लोग।

ऐसी अवस्था में जहाँ तक मेरा विचार है, भारतीय लोग अंग्रेजों की बराबरी कर सकते हैं। मैं नहीं कह सकता और लोगों का क्या विचार है!

सात बजते-बजते सारा उद्यान आलोक से भर गया। रंग-बिरंगे बल्बों से सारे वृक्ष तथा पौधे सुसज्जित थे। एक ओेर कारों का तांता लगा था। वह बाग परिस्तान लग रहा था। जिस भारत के सम्बन्ध में इंग्लैंडवाले अभी सोच रहे हैं, वह भारत अब नहीं रह गया। अब तो यहाँ जान पड़ता है कि स्वर्ण की घर-घर खान है, इतना वैभव, इतना विलास तो बड़े पुराने खानदानी लार्डों के यहाँ भी कम देखने में आता है। स्त्रियाँ भी अब भारत में पर्दे से बाहर आ गयी हैं और एक बात मैं यह कहूँगा कि जिस नफासत, बारीकी, सुबुद्धि तथा सुरुचि से यह साड़ियाँ चुनती हैं उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि भारत की व्यवस्थापिका सभाओं को चुनाव बन्द करके इन्हीं पर सदस्यों के चुनाव का भार देना चाहिये। अवश्य ही भारत की सब व्यवस्थापिका सभायें आदर्श सदस्यों की संस्था हो जायेंगी। बहुत-से इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में बहुत-सी जातियाँ तथा अगणित भाषायें हैं। यदि वे यहाँ की साड़ियाँ और उनके रंग देखते तो ऐसा न लिखते।

एकाएक बाजे के शब्द सुनायी पड़े और धीरे-धीरे उस दल ने, जिसके साथ दूल्हा था, बाग में प्रवेश किया। दस-पन्द्रह प्रकार के बाजे थे। मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता कि वह क्या-क्या थे। बैण्ड तथा बैग-पाइप तो मेरी जानकारी के थे और बाकी सब भारतीय थे। शोर इतना हो रहा था कि अपनी बात भी कठिनाई से सुनायी पड़ती।

फिर हाथी थे। पाँच-छः हाथी रहे होंगे इसके पश्चात् कोई दो दर्जन ऊँट थे, फिर पचास घोड़े। विवाह में इन जानवरों का क्या काम था, समझ में नहीं आया। जान पड़ता था कि डाका डालने दल चला आ रहा है। साथ-साथ आतिशबाजी भी थी और बहुत-से लोग कागज के फूल लिये हुए थे। धीरे-धीरे मोटर ने प्रवेश किया जिसमें दूल्हा बैठा हुआ था। उसके सिर पर विचित्र पगड़ी थी, जिसमें सोने की तथा फूल की लम्बी मालायें लटक रही थीं। ऐसा जान पड़ता है कि किसी ने एक गमले को उलटकर उसके सिर पर रख दिया है। दूल्हे का मुँह इससे बिल्कुल ढंक गया था। राह की धूल से उसके चेहरे की पूरी रक्षा हो रही थी। विवाह के पहले चेहरे की इस प्रकार रक्षा भी आवश्यक है। मैंने सोचा कि अभी विवाह हो जायेगा, किन्तु मोटर आकर दरवाजे पर खड़ी हो गयी और वहाँ कुछ पूजा इत्यादि हुई; जिसे मैं समझ नहीं सका और वह लौटा कर एक सुसज्जित शामियाने में बैठा दिया गया। मैंने सुना कि विवाह रात में होगा और विवाह सब लोग देख नहीं सकते; केवल विशिष्ट व्यक्ति, जैसे दोनों के सम्बन्धी और नाई, ब्राह्मण इत्यादि।

मैंने सर टाटका से कहा कि यदि मैं देखना चाहूँ तो कैसे देख सकता हूँ। उन्होंने कुछ सोचकर कहा - 'मुझे तो कोई आपत्ति नहीं है। मैं घर में स्त्रियों से पूछकर आपको बता सकूँगा।' अन्त में उन्होंने मुझे आज्ञा दे दी।

मैं बैरक लौट आया और ग्यारह बजे विवाह देखने चला। यदि मैंने जो विवाह देखा वैसा ही सबका विवाह होता है, तो हिन्दू विवाह बड़ी भारी कसरत है। घण्टों तक विचित्र ढंग से बैठना पड़ता है। बगल में आपकी भावी पत्नी बैठती है जिसे केवल एक ओर नीची निगाह किये बैठना पड़ता है। पुरुष और स्त्री एक-दूसरे से कपड़ों से बाँध भी दिये जाते हैं; सम्भवतः इसलिये कि कहीं घबड़ाकर भाग न जायें।

ब्राह्मण लोग बराबर कुछ न कुछ पढ़ा करते थे और इतने जोर-जोर से कि किसी को नींद नहीं आ सकती। बीच-बीच पति-पत्नी फेरा-चक्कर भी लगाया करते। सम्भवतः इसलिये कि देर तक बैठे-बैठे थक न गये हों। पंडित लोग जो इतने जोर-जोर से पढ़ा करते हैं, उसका पुरस्कार भी मिलता रहता है। कुछ देर बाद एक लाल बुकनी लड़के ने लड़की के सिर के बीच भर दी। यही विवाहित स्त्री का बैज समझा जाता है। स्त्री को भी कुछ रंग पुरुष के ऊपर लगाना चाहिये; क्योंकि हिन्दू स्त्री सिर में लाल रेखा के रहने पर विवाहित समझी जाती है, किन्तु ऐसा चिह्न नहीं जिससे यह जाना जा सके कि यह पुरुष विवाहित है।

अलंकारों पर खोज

सेना का जीवन भारतवर्ष में बड़े आनन्द का होता है। कोई विशेष कार्य नहीं। भोजन का बहुत सुन्दर प्रबन्ध; खेल-कूद की बड़ी सुविधा, और रोब-दाब सबके ऊपर, किन्तु मेरे ऐसे व्यक्ति के लिये ऐसे जीवन में रस नहीं मिलता है। यहाँ प्रतिदिन दो कार्य मुख्य होते हैं। मदिरा-पान तथा ब्रिज का खेल। सभी सैनिक अफसरों के लिये यह काम आवश्यक से हो गये हैं। मैं भी कभी-कभी ब्रिज खेलता था। किन्तु मेरा मन उसमें अधिक नहीं लगता था और लोग मुझे कंजूस समझते थे। मेरा मन पुस्तकों के पढ़ने में और भारतीय बातों के जानने में अधिक लगता था।

मैं चाहता था कि पुराने अंग्रेजी सैनिक अफसरों की भाँति मैं भी भारत के सम्बन्ध में कुछ पुस्तकें लिख डालूँ। इससे एक लाभ तो यह होगा कि मेरा नाम अमर हो जायेगा। अंग्रेज लोग जब भारत के सम्बन्ध में पुस्तकें लिखते हैं तब उनका बड़ा आदर होता है। वह विद्वान् हो या न हो, विद्वान् समझा जाता है। भारतवासी समझते हैं कि मेरे देश से इसे बड़ा प्रेम है और अंग्रेज खुश होते हैं कि उन पुस्तकों के अध्ययन से उन्हें राजनीतिक गतिविधि में सहायता मिलती है। बिक्री भी ऐसी पुस्तकों की बहुत होती है और पुस्तकों में थोड़ी-बहुत भूल भी हो तब भी वह प्रमाण मानी जाती है। कर्नल टाड, कनिंघम तथा और भी कई ऐसे उदाहरण मेरे सम्मुख थे। इसलिये मैंने भी कई पुस्तकें लिखने का विचार किया। दो पुस्तकों की तो मैंने रूपरेखा भी बना ली है। एक पुस्तक है 'भारतीय आभूषणों की उत्पत्ति और विकास' तथा दूसरी पुस्तक होगी 'भारतीय राजनीति में धोती का ऐतिहासिक महत्व।'

पहली पुस्तक के सम्बन्ध में मैंने बड़ी खोज की है। यद्यपि मैं अभी डेढ़ साल ही यहाँ रहा हूँ और केवल उत्तर भारत में ही रहा हूँ, फिर भी मैं इस विषय पर लिखने का अपने को अधिकारी समझता हूँ। यह ग्रंथ इस अर्थ में क्रान्तिकारी होगा। यहाँ तो मैं केवल स्मृति के लिये कुछ अंकित कर रहा हूँ। पुस्तक में तो कहीं अधिक विवेचन होगा तथा और भी गहरा अध्ययन होगा। जैसा नेथानियल। इसी से बिगड़कर नथ शब्द भी बन गया है। इसकी उत्पत्ति में एक कथा है। सन् 1177 में इटली से नेथानियल चिलगोजिया नाम का एक ईसाई घूमता-घामता भारत आ गया। वह राजपूताने में एक राजा के यहाँ आकर डाक्टरी करने लगा। रानी और राजा में कुछ झगड़ा हो गया। राजा साहब ने नेथानियल से सलाह ली। उसने सोच-विचारकर कहा - 'मैंने एक ऐसी तरकीब निकाली है जो आप ऐसे महान राजाओं के लिये शोभनीय है और आपका कार्य भी सिद्ध हो जायेगा।' उसने कहा कि आप सोने के तार का एक बड़ा छल्ला बनवाइये और रानी साहब से कहिये कि मैंने एक नवीन ढंग का आभूषण बनवाया है। उसे नाक में छेदकर पहनना होता है। आभूषण समझकर रानी साहब को इसे धारण करने में कोई आपत्ति न होगी क्योंकि शौनक ऋषि ने कहा कि सोने की एक गाड़ी बनवा दीजिये और कहिये कि आभूषण है और गले में धारण किया जाता है, तो स्त्रियाँ इस गाड़ी को सड़क पर स्वयं खींचेंगी।

यों आप रानी साहब पर रोब जमाना चाहेंगे अथवा वश में करना चाहेंगे तो कठिनाई होगी। वह भी क्षत्राणी ठहरीं और जब वह सोने का छल्ला अलंकार समझकर नाक में धारण कर लेंगी तब आपको यह सुविधा होगी कि जब वह बिगड़ें आप चुपचाप इसे पकड़ लिया कीजियेगा। वह चुप हो जायेंगी। राजा साहब ने ऐसा ही किया। राजा साहब ने अपने मन्त्री से कहा, उन्होंने भी अपनी स्त्री को पहनाया। इसी प्रकार सारे दरबार को पुरुषों ने अपनी स्त्रियों को इस भाँति अलंकार के बहाने वशीभूत किया। तभी से इसका चलन हुआ और नेथानियल साहब के नाम पर नथ या नथिया कहा जाने लगा।

जब से स्त्रियाँ पुरुषों के बराबर होने लगीं और स्वाधीन होने लगीं तब से इसका प्रचलन उठ गया। यद्यपि मैं भविष्यवक्ता नहीं हूँ तथापि मुझे ऐसा जान पड़ता है कि इसकी प्रतिक्रिया होने वाली है और सम्भव है पुरुषों को अपनी नाक छिदानी पड़े।

कर्णफूल की उत्पत्ति इससे भी पुरानी है। जहाँ तक खोज से पता चला है, महाभारत के समय से इसकी प्रथा चली है। महाभारत में कर्ण नाम का एक योद्धा था, उसे फूल का बहुत शौक था। अब वह फूल रखे कहाँ? कोट उस युग में नहीं था कि बटनहोल में रखा जा सके। हाथ में सदा रखना असम्भव था। इसलिये उसने कान पर रखना आरम्भ किया। देखा-देखी और लोगों ने भी कर्ण की नकल की। एक दिन कहीं उत्तरा ने देख लिया। उसने कहा - 'इन फूलों में क्या रखा है? मैं तो सोने का फूल धारण करूँगी।' उसने सोने का बनवाया। एक दिन वह कहीं गिर गया। उसने सोचा कि यह तो ठीक नहीं, कान छिदवा लिया जाये, तब गिरेगा नहीं। यह है कर्णफूल की उत्पत्ति।

समय के साथ-साथ इसमें बड़े परिवर्तन हुए। जब भारत की स्त्रियों में जागृति हुई तब इन्होंने प्राचीन युग की प्रथा छोड़ दी। किन्तु यूरोप में यह दूसरे रूप में आया, यूरोप में वह प्रथा कैसे आयी यह विषय इस पुस्तक का नहीं है, किन्तु यह तो सर्वसम्मत बात है कि यूरोप में जो बात समाज में हो जाती है, वह श्रेष्ठ और सभ्यतानुकूल समझी जाती है। जब यहाँ की महिलाओं ने इसका यूरोपीय स्वरूप देखा तब उसी का अनुकरण इन्होंने किया। कर्ण की स्मृति जा रही है। इयरिंग के रूप में अब इसे स्त्रियाँ धारण करती हैं और ठीक भी है। पुराने नाम और पुरानी वस्तुऐं ऐसे असभ्य युग की स्मृति जाग्रत् करती हैं कि प्रगतिशील देश तथा जाति उन्हें ग्रहण करने में अपना अपमान समझती है। यदि पुराने समाचारपत्र फेंके जा सकते हैं, पुराना फर्नीचर नीलाम किया जा सकता है, पुराने बाल और नाखून कटाये जा सकते हैं, पुरानी बातें भी छोड़ देनी चाहिये। मेरी राय में पुरानी शराब और पुराना चावल छोड़कर कोई पुरानी वस्तु ग्रहण के योग्य नहीं होनी चाहिये।

म्यूनिस्पिल चुनाव

मेरे गुरुवर पंडितजी आज सवेरे ही पहुँच गये। मैं चाय पी रहा था, वह गंगास्नान के लिये जा रहे थे। मैंने यहाँ सुना कि घर पर नहाने का उतना महत्व भारतवर्ष में नहीं है, जितना गंगा में नहाने का। हमारे पंडितजी बतलाने लगे कि गंगा की बड़ी महत्ता है। उन्होंने बताया कि एक बूँद जिस वस्तु में पड़ जाये, वह कितनी भी अपवित्र हो, पवित्र हो जाती है और मरने के समय मुख में थोड़ी-सी डाल दी जाये तो मनुष्य सीधे स्वर्ग को जाता है और स्नान करने से सभी पाप कट जाते हैं। मैंने उनसे कहा कि एक बोतल मेरे लिये आप कृपया ला दीजिये मैं इंग्लैंण्ड भेज दूँ। अपने परिवार के सब लोगों को स्वर्ग भेज देने के लिये इतना पर्याप्त होगा। मैंने उनसे पूछा - 'बहुत-से हिन्दू मेरे यहाँ भोजन करने से इनकार करते हैं। यदि खाने पर गंगाजल छिड़क दूँ तब तो उन्हें खाने में कोई आपत्ति न होगी?'

मैं तो धार्मिक प्रकृति का आदमी ठहरा, किन्तु सेना में मार-काट में सदा रहने से अनेक पापों का भागी बनना पड़ा होगा। मैंने उनसे पूछा कि मैं एकाध दिन स्नान कर लूँ तो अनेक पापों से मुक्त हो जाऊँगा? क्या आप कोई व्यवस्था कर सकते हैं कि मैं कभी-कभी वहाँ स्नान कर लूँ? नहीं तो चार घड़े यहीं भिजवाने का प्रबन्ध करा दीजिये। उन्होंने कहा कि मैं जो पुस्तकों तथा शास्त्रों में लिखा है, उसी के अनुसार कहता हूँ। मैंने कहा कि आप पुस्तकों पर विश्वास करते हैं, मैं आप पर विश्वास करता हूँ। मैं एक बोतल जल अपने आप सभी रखूँगा। एक बूँद प्रत्येक दिन चाय में मिला लूँगा। जाने-अनजाने में जो दोष हो जाये वह तो न लगेगा। मुझे आपके कथन पर पूर्ण विश्वास है।

उन्होंने यह भी कहा कि चलिये आप गंगा की सैर करा लायें। मुझे कोई काम नहीं था। मैं उनके साथ कार पर गंगा के तट पर चला गया। वहाँ से लौटने में ग्यारह बज गये। राह में एक स्थान पर इतनी भीड़ थी कि कार रोक लेनी पड़ी। बड़ा शोर था, पास ही खेमे लगे हुए थे। मैंने पूछा कि पंडितजी, आज कोई पर्व त्योहार है। पंडितजी से पता चला, आज कानपुर म्यूनिस्पिैलिटी का चुनाव है। इंग्लैंड में मैंने चुनाव देखे थे। बड़े-बड़े भाषण होते थे, जुलूस निकलते थे, झण्डे निकलते थे। यहाँ भी देखूँ कि भारतीय ढंग कैसा होता है।

मैं गाड़ी पर से उतर पड़ा। पंडितजी से अनेक प्रश्न करता हुआ भीड़ में घुसा। अनेक लोग झण्डे लिये यहाँ भी घूम रहे थे। कुछ लोग बीच-बीच में चिल्लाते भी थे। एक झण्डे पर गाय का चित्र बना था। इससे यह जान पड़ा कि यह दल हिन्दुओं का है।

चिल्लाहट, झण्डा, भीड़, जुलूस तो यहाँ वालों ने, जान पड़ता है, हमारे यहाँ से सीखा है; किन्तु भारतवासियों में एक गुण यह बहुत बड़ा है कि जो कुछ सीखते हैं उसमें उन्नति भी करते हैं। यहाँ मैंने देखा कि खेमों में पान की दुकानें है और वोट देनेवालों के लिये जलपान की व्यवस्था भी है। वोट देनेवालों की बड़ी खातिरदारी होती है। यह खातिरदारी यहाँ तक बढ़ती जाती है कि वोटर बेचारा घबड़ा जाता है।

मेरे सामने एक वोटर आया। गाय का झण्डा लिये एक व्यक्ति आया और उसके साथ कोई एक और व्यक्ति आया। उसने कहा - 'देखिये, यदि मैं सदस्य चुन लिया गया तो नगर में हर मुहल्ले में गोशाला बनवा दूँगा। नगर की जितनी गोमांस बेचनेवाली दुकानें हैं सब एक दिन में बन्द करा दूँगा।' इसी बीच एक व्यक्ति ऐसा आया जिसके साथ चार-पाँच आदमी थे। प्रत्येक के हाथ में एक-एक झण्डा था। हर एक झण्डे पर बड़ी-बड़ी कैंचियां बनी हुई थीं। उसके नेता ने इस वोटर को समझाना आरम्भ किया - 'हम लोग समाजवादी दल के हैं, हम लोग सबको समान बनाना चाहते हैं। यह कैंची इसी का प्रतीक है। जो छोटा है उसे बड़ा बनाने में कठिनाई है, असुविधा है, परिश्रम है, समय की आवश्यकता है। इसलिये हम लोग बड़ों को ही छोटों के समान बनाने की चेष्टा करेंगे। यदि हमें आप म्यूनिसपैलिटी में भेज देंगे तो नगर की सब सड़कें बराबर करा देंगे। नगर के घरों की ऊँचाई एक-सी करा दी जायेगी। कोई कारण नहीं कि घी पर अधिक चुंगी लगे और चोकर पर कम। सब बराबर कर दी जायेगी। किसी के घर में एक पानी का नल, किसी के घर में चार, यह असमानता नहीं हो सकेगी। सबके यहाँ एक-एक नल कर दिया जायेगा। क्यों बेचारा किसी का घर एक ही मंजिल का और किसी का चार मंजिल का रहे? वह सब गिरवा दिये जायेंगे और सबका घर एक-एक मरातिब का कर दिया जायेगा।

'देखिये क्या अन्याय होता है कि सिनेमा में कहीं एक तमाशा, कहीं दूसरा खेल दिखाया जाता है। इससे कोई कुछ खेल देखता है, कोई कुछ। सब सिनेमाओं में एक ही खेल दिखाने की व्यवस्था की जायेगी। जिससे नगर-भर को इस विषय का ज्ञान एक-सा हो।

'बाजारों में एक दुकान पर एक ही वस्तु बिकेगी। इसका क्या अर्थ कि एक ही व्यक्ति चावल भी बेचे और दाल भी बेचे तथा गेहूँ भी बेचे। हम अपने नगर को आदर्श नगर बनवायेंगे और समानता में संसार-भर को शिक्षा देंगे।' यह व्याख्यान सुनने पर वोटर महोदय इसी ओर झुकने लगे। हिन्दुस्तान भावी सदस्य उसे अपनी ओर खींचने लगा। कुछ और लोग आये। इधर से भी उधर से भी और उसे दोनों ओर खींचने लगे लोग। वोटिंग घर के द्वार के निकट जाते-जाते उसके कुरते की एक बाँह समाजवादी नेता के हाथ में थी और एक बाँह हिन्दू नेता के। हाथ उसके कुरते से बली थे नहीं तो वह भी निकल आते। भीतर जाकर उसने किसे वोट दिया यह मुझे पता नहीं। किन्तु उसके लौटने के पहले ही बाहर दोनों दलों में शक्ति की परीक्षा का आयोजन हो गया। झण्डे का डंडा, हिन्दुस्तानी-अंग्रेजी जूते, चप्पल, सभी सजीव हो गये और उनमें गति आ गयी। परन्तु पन्द्रह मिनट के पश्चात् ही शान्ति स्थापित हो गयी। पुलिस के कुछ कान्स्टेबल वहाँ पहुँच गये। केवल दो व्यक्ति अस्पताल पहुँचाये गये। यहाँ की पुलिस भी बड़ी बुद्धिमती होती है। आते ही इसने झगड़ा शान्त कर दिया। क्या इसे युद्धस्थल में नहीं भेजा जा सकता? जब किसी भाँति लड़ाई बन्द न होती तो तब भारत की पुलिस पहुँचकर बन्द कर सकती है।

चुनाव का कार्य पूर्ववत् चलने लगा और वही-वही बातें फिर-फिर देखने में आयीं। कोई नई बात न थी। इसलिये मैं बैरक लौट जाने के लिये गाड़ी पर बैठ गया। पंडितजी से मैंने पूछा -'क्या मुसलमानों ने बायकाट किया है? कोई मुसलमान चुनाव में दिखायी नहीं दिया।' पंडितजी ने बताया कि मुसलमानों का चुनाव अलग होता है। पंडितजी ने यह भी बताया कि सरकार ने ऐसा नियम बनाया है कि दोनों के चुनाव अलग-अलग हों। जैसे मूली और दही एक साथ नहीं खाया जा सकता, मांस और दूध एक साथ नहीं खा सकते, शहद और घी का संयोग विष है, श्रृंगार और रौद्ररस एक साथ ठीक नहीं हैं, उसी भाँति मुसलमान और हिन्दू एक साथ वर्जित हैं। मैंने - 'पूछा इसका कोई कारण तो होना चाहिये?'

स्वास्थ्य - रक्षा

जब से भारत में आया हूँ, बिना नागा प्रति रविवार को गिरजाघर जाता हूँ। ईसाई धर्म पर पूरा-पूरा विश्वास है। मैं विलायत के एक गिरजाघर के लिये प्रतिमास चन्दा देता हूँ और यहाँ अपने गिरजाघर में भी प्रति सप्ताह कुछ न कुछ दान देता रहता हूँ। फिर ऐसा विश्वास भी है कि सारे संसार में जो असन्तोष है उसका यही एक कारण है कि वह ईसाई धर्म को नहीं मान लेता है।

यूरोप और अमेरिका आदि देशों में सदा शान्ति रहती है और वह लड़ते हैं, तब भी उनका ध्येय शान्ति ही होता है। हमें ध्येय की ओर ध्यान देना चाहिये। उस ध्येय की प्राप्ति के लिये कोई भी राह पकड़ी जा सकती है।

कल रविवार को मैं सन्ध्या समय टहलने के लिये निकल पड़ा। अकेला था। टहलता हुआ दूर निकल गया। मैं शहर की ओर अकेला टहलने कभी-कभी चला जाता हूँ और हमारे साथी उसी ओर कम जाते हैं। उनका कहना है कि हिन्दुस्तानियों का रहन-सहन ऐसा होता है कि कोई सभ्य पुरुष उधर जा नहीं सकता।

उसी विषय पर एक पुस्तक हमारे क्लब के पुस्तकालय में हैं, जिसे मैंने पढ़ा था। एक स्थान पर उसमें लिखा था - 'भारतवासी कपड़ा उतार कर सबके सामने नदियों में स्नान करते हैं और धोतियाँ पहनते हैं। जिससे टाँगों के नीचे का भाग दिखायी देता है।' उसमें यह भी लिखा था कि उनके बीच जाने से तुरन्त रोग का शिकार बन जाना पड़ेगा क्योंकि जहाँ यह लोग रहते हैं, वहाँ मलेरिया, टाइफाइड, क्षय, प्लेग, कालरा, चेचक के कीटाणु सर्वदा घेरे रहते हैं। जो लोग नहीं मरते उनका कारण यह है कि उनमें रक्त की कमी रहती है और यह कीटाणु उनका शरीर अपना अड्डा बनाने के उपयुक्त नहीं समझते। जिनमें कुछ भी रक्त होता है वह किसी न किसी ऐसे रोग से मर जाते हैं।'

मैंने इन बातों पर विचार नहीं किया। मेरे रेजिमेंट में लोगों ने मुझको मना भी किया, किन्तु मैंने कहा कि मैं डरनेवाला नहीं हूँ। मैं जब बैरी से नहीं डरता, तब कीटाणुओं से क्या डरूँगा? किन्तु मेरी बैरक के सारे लोग कीटाणुओं से बहुत भयभीत रहते हैं, इसलिये वह कभी बस्ती में नहीं आते। मैंने कर्नल साहब से पूछा कि ब्रिटिश सरकार ने इतने दिनों तक भारतीयों के स्वास्थ्य के लिये जितना किया उतना आज तक किसी ने किसी के लिये नहीं किया। देखिये कितना त्याग करके अंग्रेजों ने अपने यहाँ की औषधियाँ यहाँ भेजीं। अपनी वस्तु कौन इस युग में दूसरे को देता है? यह अंग्रेजों की ही निस्वार्थता है कि अंग्रेजी दवाइयाँ भारतीयों के प्रयोग के लिये भेज देते हैं। इतना ही नहीं, अपने यहाँ से डाक्टर भी भेजते हैं। सैकड़ों डाक्टर इंग्लैंड से यहाँ भेजे जाते हैं, यह सब किसके लिये? भारतवासियों के स्वास्थ्य के लिये। इस देश में घी की कमी है, इसलिये स्वास्थ्य पर धक्का न पहुँचे, घी के स्थान पर हम लोगों ने वनस्पति घी यहाँ भेजना आरम्भ किया और अब यहीं उसके कारखाने खुलवा दिये। यह सब इसलिये कि यहाँवाले स्वस्थ रहें।

मछली का तेल हम लोग यहाँ मँगवाते हैं, जिससे लोग स्वस्थ रह सकें। देशी शराब हानिकारक होती है, इसलिये स्काटलैण्ड तथा फ्रांस से बढ़िया से बढ़िया शराब मँगाने का प्रबन्ध कर दिया है। एक 'एकशा नम्बर वन' कहाँ भारतीय जानते थे? यह तो अमृत है। मरते को जिला देती है। यह सब एकमात्र यहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य को दृष्टि में रखकर किया गया है। किन्तु भारतवासी विचित्र होते हैं! जब इनका देशप्रेम इतना गहरा देखा गया कि ये अपने यहाँ की ही बनी शराब अधिक पीयेंगे, तब सरकार ने उसका भी प्रबन्ध किया। अच्छी और स्वास्थ्यकर वारुणी बन सके इसके लिये सरकार ने स्वयं इसे उतारने का बन्दोबस्त किया। सरकार की देखरेख में इसका स्टैंडर्ड ठीक रहता है। किन्तु जो पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं वह स्काटलैण्ड और फ्रांस की ही बनी व्यवहार में लाते हैं और उसका परिणाम देखिये कि वह लोग अच्छे-अच्छे नेता हैं, बड़े-बड़े वकील हैं, लेखक हैं, कवि हैं, प्रोफेसर हैं। समाज में उनका मान है।

स्वास्थ्य की दृष्टि से हम लोगों ने काँटा, चम्मच और छुरी से भोजन करने की प्रथा यहाँ भी चलानी चाही, किन्तु अभी उसमें सफलता कम मिली है। देखिये, हाथ से खानेवाले की आयु कम होती है। कर्नल साहब ने इतना बताया तब हमें सन्तोष हुआ। हमारी समझ में तब आया, यही कारण है कि प्रत्येक दस साल पर देश की आबादी बढ़ती चली जा रही है। यदि ब्रिटिश सरकार ने इनके स्वास्थ्य का प्रबन्ध न किया होता तो भारतवर्ष में इस समय पाँच-छः सौ आदमी रह गये होते। जो स्थिति हमें बतायी गयी उससे यही अनुमान होता है।

मैंने पंडितजी से एक दिन बताया कि देखिये, हम लोगों ने आपके स्वास्थ्य के लिये कितना किया है। आप लोग उसके लिये कुछ धन्यवाद नहीं देते। उन्होंने कहा कि भारतवासी मौखिक धन्यवाद नहीं देते। कार्य से ही धन्यवाद देते हैं। देखिये, आपका कपड़ा हम लोगों ने धारण कर लिया। यह धन्यवाद देने के ही लिये। पंडित लोग भी यहाँ केवल एक दुपट्टे से काम चला लेते थे, वह अब कोट पहनते हैं। यह आपके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिये।

ईसाई धर्म की व्यवस्था

मैं पंडितजी के साथ टहलता जा रहा था। एक ईंट के लाल मकान के पास पन्द्रह-बीस आदमी खड़े थे। हम लोग निकट पहुँचे तो हमने देखा कि एक व्यक्ति भाषण दे रहा है। कोट, पतलून धारण किये एक पुस्तक हाथ में लिये था। कोट दस साल की पुरानी और पतलून उससे पुरानी जान पड़ती थी। टाई ढीली-ढाली थी। उस व्यक्ति का रंग रोशनाई के समान था। वह हजरत ईसा-मसीह की प्रशंसा कर रहा था। जब मैं पहुँचा तब वह कह रहा था कि हजरत ईसा मसीह ने एक कोढ़ी को हाथ फेरकर अच्छा कर दिया। इस पर भीड़ में से किसी ने पूछ लिया कि हजरत ईसा मसीह परमेश्वर के लड़के थे कि जादूगर थे। व्याख्याता महोदय समझा रहे थे कि जादूगर नहीं, गरीबों, दीन-दुखियों के प्रति दया और सेवा का भाव उनमें था।

मैं कुछ और देर तक उसका भाषण सुनता, किन्तु बगल में ही एक और भीड़ दिखायी दी। मैंने समझा यहाँ भी किसी धर्म का व्याख्यान होता होगा, किन्तु वहाँ देखा कि भिखमंगे की भाँति एक फकीर बहुत-सी जड़ी-बूटियाँ और दवाइयाँ फैलाये अपनी दवाइयों की प्रशंसा कर रहा है। बहुत-सी बातें तो उसकी मेरी समझ में नहीं आयीं, किन्तु कुछ-कुछ समझ सका। जान पड़ता था कि वह कोई बहुत बड़ा डाक्टर है। यहाँ भीड़ भी अधिक थी जिससे मेरी समझ में यह बात आयी कि यहाँ लोगों को अपने स्वास्थ्य की बड़ी चिन्ता रहती है। सरकार की ओर से अस्पताल पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, इसीलिये सड़कों पर डाक्टर लोग अपनी दवाइयाँ लोगों के हितार्थ बेचते रहते हैं। मुझे पता नहीं कि इन डाक्टरों के पास किसी मेडिकल कॉलेज की डिग्री है कि नहीं।

हम लोग लौटकर फिर उसी ईसाई उपदेशक के पास पहुँचे। अब सन्ध्या हो चली थी और यहाँ भीड़ प्रायः नहीं थी। धर्म के बजाये शारीरिक स्वास्थ्य का लोगों को अधिक ध्यान था और उस दवा बेचनेवाले के पास अधिक लोग एकत्र हो गये थे। लोगों ने केवल बातें सुनीं कि दवाइयाँ भी मोल लीं, कह नहीं सकता।

उस ईसाई के साथ हम लोग लाल ईंटवाले घर में चले गये। वहाँ एक नौकर था। कुछ पुस्तकें थीं। मैंने पूछा कि कितने दिनों से तुम उपदेशक का कार्य करते हो। उसने बताया कि दस साल से। मैंने पूछा कि कहाँ तक पढ़े हो। उसने कहा कि छठे दर्जे तक अंग्रेजी पढ़ी है। सण्डे स्कूल में भी बाइबिल पढ़ी है। मैंने कहा - 'तुमने ईसाई सिद्धान्त और उसके दर्शन का कितना अध्ययन किया है?' उसने बताया कि बेकार बातों में सिर खपाना निरर्थक है। हिन्दू लोग धर्म नहीं कर्म समझते हैं। ईसाई धर्म की व्याख्या और बाइबिल के सिद्धान्त सौ साल तक समझायें तो उससे कोई लाभ न होगा। अभी प्लेग फैले तो गाँव में लोग दूसरे का मुर्दा नहीं उठाते। हम लोग जाकर उठा लेते हैं और परिवार ईसाई हो जाता है। अकाल पड़ता है, तब हम लोग भोजन देते हैं; त्याग और बलिदान पर भाषण देने से क्या लाभ? डोम लोग रात को पुकारे जाते हैं। पुलिस रात को डोमों के घर पर पुकारती है और उनका नाम चोरों में लिखा जाता है। हम उन्हें ईसाई बना लेते हैं, वह इससे मुक्त हो जाते हैं। फिर वह चोरी करें तो चोर नहीं समझे जाते। क्योंकि कोई ईसाई चोर नहीं होता। मैंने कहा कि यह नई बात बतायी। कोई ईसाई चोर नहीं होता। यदि ऐसा होता तो यूरोप के सब जेलखाने तोड़ दिये जाते। उसने कहा कि यह हम नहीं जानते। कोई डोम जब चोरों में पकड़ा जाता है, तब हम लोग कह देते हैं कि यह ईसाई है और उसकी जमानत हो जाती है और वह छूट जाता है।

मैंने उसकी कार्यबुद्धि पर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और कहा - 'किन्तु यह बात आपने अधिकांश उन लोगों की बतलायी जो निम्न कोटि के लोग हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ, वैश्य इन लोगों में से कितने को ईसाई बनाया?' उसने उत्तर दिया - 'दो बातें हैं। एक तो यह लोग यों ही आधे ईसाई हैं। पहनावे में, बोल-चाल में और खान-पान में तो हम लोगों से बढ़कर। पाव रोटी का नाश्ता इनके यहाँ होता है, बहुत-से स्थानों पर काँटा-छुरी से भोजन होता है। स्त्रियाँ ऊँची एड़ी का जूता पहनती हैं, कोई-कोई 'स्कर्ट' भी पहनती हैं। 'चीज' 'जाम' इनके खाने में शामिल हैं; पीतल, फूल और काँसे के बरतन की जगह चीनी प्लेट, थालियाँ और शीशे के गिलासों का प्रयोग हो ही रहा है। केवल गिरजाघर में नहीं जाते। सो मन्दिर ही कब जाते हैं? गंगा इत्यादि में इनकी श्रद्धा है ही नहीं। केवल बपतिस्मा इन लोगों ने नहीं लिया, नहीं तो बहुत-से इनमें हमसे बढ़कर ईसाई हैं।

'दूसरी बात यह है कि यह लोग जो ऊँचे समझे जाते हैं हमारे किस काम के? लड़ाई यह लड़ नहीं सकते। कोई पुरुषार्थ का कार्य यह कर नहीं सकते।'

मैंने उसे धन्यवाद दिया और चला। पंडितजी मेरे साथ थे। मैंने कहा कि देखिये पंडितजी, यदि सारा भारत ईसाई हो जाये तो सब राजनीतिक झगड़े भी दूर हो जायें। पंडितजी ने कहा कि इसमें विशेष परिश्रम की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा हो रही है, वैसी ही चलती जाये तो बिना प्रयास भारत ईसाई हो जायेगा। किन्तु मैंने एक बात सुनी है। देशी ईसाइयों को विदेशी ईसाई अपने बराबर का दर्जा नहीं देते। मैंने कहा - 'पंडितजी, हम लोग शासक हैं, आप लोग शासित। यह अन्तर तो रहेगा ही। मुसलमान लोग जब यहाँ राज करते थे तब क्या अपने बराबर आप लोगों को समझते थे? अकबर इत्यादि ने भी हिन्दू लड़कियों से अपने यहाँ विवाह किये, अपनी लड़की से या शाही लड़की से किसी हिन्दू राजा का विवाह किया? हम लोगों के लिये भारतवासी कहते हैं कि रंग का भेद करते हैं। यह गलत है। उनकी समझ में नहीं आया। रंग का भेद नहीं है। भेद इतना है कि हम लोग शासन करनेवाले हैं। तब शासक अवश्य ही ऊँचे होंगे। भगवान को ही यह स्वीकार नहीं होता तो हम लोगों को शासक न बनाते। अच्छा पंडितजी, बताइये, आपके यहाँ जो बरतन मांजता है उसके साथ आप एक खाट पर बैठ सकते हैं?' पंडितजी ने कहा - 'नहीं।' तब मैंने कहा कि जब साधारण मालिक अपने नौकर के साथ नहीं बैठ सकता, तब बड़े देश के शासक लोग कैसे शासितों के साथ बैठ सकते हैं। आप लोगों की शिकायतें फिजूल हैं।

पंडितजी बोले - 'इस प्रकार आपस में मनोमालिन्य बढ़ता जायेगा।' मैंने कहा कि इसलिये तो कहा जाता है कि सारा भारत ईसाई हो जायेग, तब सब एक हो जायेंगे। तब शासक और शासितों का एक धर्म हो जायेगा। तब यह भेद-भाव मिट जायेंगे। तब देशी ईसाई और विदेशी मिलने-जुलने लगेंगे। विवाह इत्यादि आपस में होने लगेगा और एक एंग्लोइंडियन जाति पैदा होगी जिस पर ब्रिटेन को गर्व होगा कि हमने साम्राज्य ही नहीं बनाया, एक जाति भी बनायी।

राजनीतिक षड्यंत्र

कल सन्ध्या को पत्रों में मैंने पढ़ा कि नगर में एक महीने के लिये दफा 144 लगा दी गयी है जिसमें कोई लाठी-डंडा लेकर नहीं निकले। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या बात है। विशेष ध्यान भी नहीं दिया। सन्ध्या समय कुछ इस प्रकार की चर्चा चली कि सम्भव है, हम लोगों की आवश्यकता पड़े। मैंने पूछा - 'क्या बात है?' कर्नल साहब ने कहा कि तुमने पढ़ा नहीं, नगर में दफा एक सौ चौवालीस लगा दी गयी है। नगर में रामलीला होनेवाली है, सम्भव है झगड़ा हो जाये।

मैं अभी तक यह नहीं जानता था कि रामलीला क्या है? राम का नाम तो मैंने सुना था। याद आता है कि कहीं किसी पुस्तक में पढ़ा भी था कि राम नाम का कोई राजकुमार था। राजनीतिक षड्यंत्र ने उसे राज्य से निकलवा दिया था। इसके विषय में मुझे और कुछ ज्ञात न था। किन्तु यह रामलीला क्या है, यह तो मुझे एक नई वस्तु जान पड़ी।

मैंने कहा कि मैंने तो यह भी नहीं समझा कि दफा एक सौ चौवालीस क्या है और रामलीला क्या है। कर्नल साहब ने कहा कि इतने दिनों तक यहाँ रहे, रामलीला नहीं जानते? रामायण का नाम सुना है? मैंने कहा कि हाँ, रामायण तो जानता हूँ, एक ग्रीक पुस्तक का अनुवाद है। कर्नल साहब ने कहा कि मैं विद्वान इतना नहीं हूँ कि बता सकूँ कि अनुवाद है या मूल। हाँ, इतना जानता हूँ कि रामायण एक पुस्तक है जो राजविद्रोह से भरी है। भारत सरकार कमजोर है, इसलिये उसने इसे जब्त नहीं किया। जो कुछ उसमें लिखा है उसी का नाटक के रूप में हिन्दू लोग सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन करते हैं।

उसमें लड़ाई इत्यादि दिखाते हैं जिसके द्वारा हिन्दू लोग धीरे-धीरे युद्धविद्या की शिक्षा देते हैं, जो भविष्य में हम लोगों के लिये बड़ी हानिकारक है। कठिनाई यह है कि इसे धर्म का स्वरूप इन लोगों ने दे रखा है। इसी से सरकार इसे बन्द करने से डरती है। उसका मतलब एक यह भी है कि हम लोग इस देश पर कभी राज करते थे, वह राज्य बड़ा अच्छा था। अंग्रेजी राज्य से उत्तम। इस प्रकार अंग्रेजी शासन की हीनता प्रकट की जाती है।

दफा एक सौ चौवालीस का नाम तो बदलकर सुधार की दफा रख देना चाहिये। यह फौजदारी दफा का एक कानून है, जिसने हम लोगों की रक्षा की है। नहीं तो हम लोग बड़ी कठिनाई में पड़ जाते। दफा तो पहले से थी, किन्तु इसकी उपयोगिता लोग नहीं जानते थे। सुनता हूँ, ठीक जानता नहीं, किसी भारतवासी कानूनदाँ ने ही इसकी व्यापकता बतायी। भारतवासी होते बड़े बुद्धिमान हैं। उन्हें बस अपनी ओर मिला लेने की बात है। वह यदि तुम्हारे मित्र हो जायें तो तुम्हारे लिये अपनी नाक कटा सकते हैं। दफा एक सौ चौवालीस के द्वारा आपका दाढ़ी बनाना रोका जा सकता है, आपका चश्मा लगाना रोका जा सकता है, आपका ससुराल जाना रोका जा सकता है, आपकी चिट्ठी रोकी जा सकती है, आपकी यात्रा रोकी जा सकती है। मृत्यु के अतिरिक्त कोई ऐसी बात नहीं है, जो इस दफा के द्वारा रोकी न जा सके।

वह इसलिये इस समय लगा दी गयी है कि भीड़ रहती है। ऐसे समय यदि हिन्दू लोग लाठी इत्यादि लेकर निकलेंगे तो सम्भव है कि नगर पर अधिकार जमा लें। मैंने पूछा कि हम लोगों के पास बन्दूकें हैं, हथियार हैं। लाठी से कैसे अधिकार कर लेंगे? उन्होंने कहा - 'हाँ, हो सकता है, किन्तु हम लोग किसी प्रकार अवसर देने के लिये तैयार नहीं हैं।'

मैंने कहा - 'अच्छी बात है, मैं रामलीला देखता हूँ कि कैसी होती है, उसमें क्या होता है।' कर्नल साहब ने कहा कि ऐसा तो भय से खाली नहीं है। मुझे इसके लिये प्रबन्ध करना होगा। एक ब्रिटिश सैनिक की जान खतरे में रहेगी। मैंने कहा कि जो हो, मैं देखूँगा अवश्य।

रामलीला

मैंने उन्हीं अपने मित्र पंडितजी को बुलाया कि मुझे रामलीला दिखा दीजिये। उनसे पता चला कि रामलीला एक दिन नहीं होती, वह पन्द्रहियों और कहीं-कहीं तो महीनों चलती है। अच्छा यह है कि शाम को ही यह होती है।

पंडितजी से मैंने कहा जो विशेष दिन हों, जिस दिन कोई विशेषता हो, उस दिन मुझे ले चलिये। पहले दिन मैं रामलीला देखने पहुँचा। मैंने समझा था कि किसी विशेष हाल या मंच पर यह लीला होती होगी। किन्तु भारवासी बड़े विद्वान होते हैं। उन्होंने सोचा कि व्यर्थ धन के अपव्यय से क्या लाभ। सड़कें तो जनता की हैं ही, इनका उपयोग सब लोग कर सकते हैं। जो चीज सबकी है उसका सभी को उपयोग तथा उपयोग करने का अधिकार होना चाहिये।

सड़क पर बड़ी भीड़ थी। कुछ लोग एक ओर से जाते थे, कुछ लोग दूसरी ओर से। सवारियों का आना-जाना बन्द था। इतनी भली बात इन लोगों ने की कि रेल की लाइन या रेलवे स्टेशन पर यह कृत्य नहीं आरम्भ किया, नहीं तो सात आठ घण्टे रेलें बन्द रहतीं।

कार तो बहुत दूर छोड़ देनी पड़ी।

मुझे सब ठीक-ठीक देखना था, इसलिये भीड़ में जाना आवश्यक था। भीड़ में देखा कि कुछ लोग कन्धे पर, कुछ लोग सड़क के किनारे किसी वस्तु पर बड़ी-बड़ी थालियाँ रखे हुए हैं। उनमें उजली-उजली छोटी-छोटी टिकिया रखी हुई हैं। मैंने समझा भारत में मलेरिया का प्रकोश अधिक होता है। सम्भवतः कुनैन की टिकिया सरकार की ओर से सार्वजनिक ढंग से बिक रही हो। किन्तु पीछे पता चला कि यह मिठाई है। इसे रेवड़ी कहते हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि हंटले पामर या जेकब कंपनियों ने अभी इन्हें बनाकर भेजना आरम्भ नहीं किया।

कुछ और बड़ी थालियाँ थीं, जिन पर चावल चिपटा करके बिक रहा था। रेवड़ी वाली तथा इन चिपटे चावल की थालियों के किनारे एक छोटा-सा डब्बा लगा था जिसमें से दो मोटी-मोटी बत्तियाँ निकली जल रही थीं। इस लैंप पर कोई चिमनी नहीं थी। इसमें से धुएँ का काला बादल निकल रहा था।

भारतवासी काले रंग के होते हैं, इनके देवता और महापुरुष काले होते हैं। सुना जाता है कि राम और कृष्ण जो इनके यहाँ महान पुरुष हो गये हैं, काले थे। इसलिये काले धुएँ को यह लोग प्यार करते हैं। मेरा तो दम घुटने लगा। म्युनिस्पैलिटी स्वास्थ्य विभाग ने भी इसे उपयोगी समझा होगा, क्योंकि इतनी बड़ी भीड़ में लोगों की साँसों से जो जर्म निकलते हैं उनका विध्वंस करने के लिये कुछ तो प्रबन्ध होना आवश्यक है।

सड़क के किनारे पटरी पर कई आदमी बैठे हुए थे। उनमें कुछ लोगों के हाथों में बाजे थे, ढोल थे और एक पुस्तक में से पढ़कर बड़े ऊँचे स्वर में गा रहे थे। सिर भी उनके झूम रहे थे। पूछने पर पता लगा कि जिस पुस्तक में से वह गा रहे हैं उसी में राम की कहानी लिखी है।

कब लीला होगी और उसमें क्या होगा, इसकी मुझे बड़ी उत्सुकता थी। भारतवासी आरम्भ से ही योग में बड़े पक्के हैं, इसलिये देश और काल से रहित होते हैं। समय को तुच्छ समझते हैं, काल पर इन्होंने विजय पा ली है। छः बजे और दस बजे में उन्हें कोई अन्तर नहीं जान पड़ता। बारह बजने के लगभग हो रहा था और जन समूह रेवड़ी, चिपटे चावल और कुछ खिलौना बेचनेवालों के सिवाय वहाँ कुछ दिखायी नहीं पड़ता था। पंडित जी ने कहा कि अब नाक कटने ही वाली है। मैं डरा कि हम लोगों की नाक काट ली जायेगी। और यदि यहाँ कट गयी तो हम लोग कुछ कर भी नहीं सकते, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का सिद्धांत बना लिया है। पुस्तकों में लिखा है कि एक बार ऐसी ही किसी बात में सन् 1857 में हस्तक्षेप किया गया तो गदर हो गया।

फिर पंडितजी ने मुझे रामायण की कहानी सुनायी। मुझे यह तो बड़ी अच्छी कहानी जान पड़ती है। हिन्दू लोग भी ऐसी कहानियाँ लिख सकते हैं! उन्होंने कहा, 'यह कहानी नहीं है। ऐसी घटना हुई थी।'

दूसरे ही दिन मैंने रामायण की एक पोथी बाजार से मँगवायी। अभी तक अंग्रेजी में इसका कोई संस्करण नहीं निकला। सुना है कि किसी अंग्रेज ने इसका अनुवाद किया है। उसे मँगाने का विचार है। अंग्रेज लोग भारतीय साहित्य और संस्कृति का कितना उद्धार करते हैं, फिर भी भारतवासी उनका विरोध करते रहते हैं। कितनी कृतघ्नता है!

दो-तीन दिनों के बाद मैं फिर रामलीला देखने आया। आज की लीला मुझे मनोरंजक जान पड़ी। कई व्यक्तियों ने विचित्र कपड़े पहन लिये थे और मुँह पर चेहरा लगा लिया था। चेहरे से बड़ी लम्बी लाल जीभ निकली हुई थी। इन लोगों के एक हाथ में तलवार थी और दूसरे में प्याला। यह लोग उसी सड़क पर तलवार भाँज रहे थे। भीड़ चारों ओर से घेरे हुए थी।

यह लोग तलवार भाँजने की अच्छी कला जानते हैं। किन्तु अच्छा होता कि यह लोग तलवार छोड़कर मशीनगन चलाते या बम फेंकते, क्योंकि अब समय बदल गया है और पुराने हथियार किसी काम के नहीं रहे। जैसे भारतीयों ने चाय, कॉ़फी, टोस्ट, सूट इत्यादि को अपना कर अर्वाचीनता को ग्रहण किया, उसी प्रकार उन्हें अपने त्योहारों में लकीर का फकीर नहीं बनना चाहिये।

आज की लीला तलवारों का खेल थी। अच्छा तो अवश्य था, किन्तु बड़ा पुराना। सरकार ने, मैं समझता हूँ, इसलिये इसे बन्द कर देने की आज्ञा नहीं दी। वह जानती है कि तलवार चलाना भारतवासी कितना भी सीख लें, बन्दूक और मशीनगन के आगे नहीं ठहर सकते, इसलिये इससे किसी प्रकार का भय नहीं है।

एक दिन मैं और लीला देखने गया। आज के ही दिन लंका का सम्राट् अयोध्या के सम्राट द्वारा मारा गया। देखा कि कागज की एक विशाल मूर्ति बनी है और उसके भीतर एक आदमी घुसा हुआ है। वही उसे संचालित करता है। आज की लीला सन्ध्या को ही समाप्त हो गयी और लीला देखनेवालों में बड़ा उल्लास दिखायी पड़ा। मैंने सुना, अभी कई दिन और यह बस चलेगा, किन्तु मैं फिर नहीं गया।

मैं सोचने लगा कि सचमुच यह धार्मिक मृत्यु है या सैनिक मनोवृत्ति जाग्रत् करने का बहाना हिन्दुओं ने बना रखा है। यदि ऐसी बात है, तब तो भारत में ब्रिटिश शासन के लिये खतरे की बात है। यद्यपि सेना में भरती होने के पहले मैं भारत को स्वतन्त्रता दे देने का पक्षपाती था। यहाँ आने पर भी मेरा यही विचार था, किन्तु अब यह विचार डावाँडोल हो रहा है, कभी कुछ निश्चय नहीं कर पाता हूँ। यहाँ की नौकरी, नौकरी नहीं है। हम लोग नौकर हैं, किन्तु भारतवासी हमें देवता के समान समझते हैं। ऐसी नौकरी हमें कहाँ मिलेगी! यहाँ के ऐसा शिकार का साधन कहाँ मिल सकता? यहाँ तो मनुष्य का भी शिकार कर लो, तो कोई बोलनेवाला नहीं है। खाने-पीने की सुविधा। इन सब बातों को जब सोचता हूँ तब और मन करता है। इनका इतिहास और संस्कृति जब देखता हूँ, तब मन कुछ और ही कहता है। मैं इस पर विचार करके कुछ निश्चय करूँगा।

वैद्यजी

इधर तो कई महीने से मैं बड़े संयम से रहने लगा हूँ। केवल दो बोतल व्हिस्की अब प्रतिदिन पीता हूँ। सवेरे चाय के साथ अण्डे भी केवल चार ही खाता हूँ। इसी प्रकार और भी भोजन में कमी कर दी है। फिर भी मुझे मलेरिया हो ही गया। भारतवर्ष का सबसे बड़ा शस्त्र मलेरिया है। सुनता हूँ, यहाँ क्षय रोग भी बहुत होता है। मेरी राय में तो मलेरिया तथा क्षय की सेना इतनी बली है कि भारतवासियों को किसी बैरी से लड़ने के लिये और किसी अस्त्र-शस्त्र की आवश्यकता ही नहीं है। इसी के द्वारा सब पर विजयी हो सकते हैं।

बीस दिन मैं सैनिक अस्पताल में पड़ा रहा। खूब कुनैन खायी। अब ज्वर तो नहीं आता, किन्तु दुर्बलता वैसी ही बनी हुई है। कई दवाइयाँ खायीं, किन्तु शरीर में जो स्वास्थ्य की पहले उमंग थी, वह कहाँ चली गयी, पता नहीं। काम में जी नहीं लगता। छः महीने की छुट्टी की अर्जी मैंने दी है। मेडिकल बोर्ड जाँच करनेवाला है। यदि छुट्टी मिल गयी तो मैं इंग्लैंड जाकर अपना स्वास्थ्य ठीक करूँगा।

मैं सब तैयारी कर रहा था। एक दिन मेरे मित्र पंडितजी आये। उन्होंने काशी या कलकत्ते जाकर किसी वैद्य को दिखाने के लिये कहा। वैद्य लोग देशी डाक्टर होते हैं। वह किसी कॉलेज में नहीं पढ़ते। आज से सात-आठ सौ साल पहले कुछ पुस्तकें लिखी गयी हैं, उन्हीं को पढ़कर वह चिकित्सा करते हैं। मुझे पंडितजी की बातें उपन्यास-सी लगीं। किन्तु उन्होंने बड़ी गम्भीरता से हमें बताया।

मैंने कहा कि दवा तो उनकी नहीं कर सकता, किन्तु कुछ भारत के सम्बन्ध में जानकारी ही बढ़ेगी, इस विचार से काशी ही जाने का निश्चय किया। कलकत्ता दूर भी था और केवल इतनी-सी बात के लिये मैं इतना व्यय करना बेकार समझता था।

पंडितजी ने जिसका पता बताया था वह मैंने गाइड को बताया। सुना कि वह काशी के बड़े विख्यात चिकित्सक हैं। गाइड के साथ चला। सड़क पर टैक्सी छोड़कर गली में जाना पड़ा। भारत के चिकित्सक लोग ऐसी जगह रहते हैं जहाँ हवा और प्रकाश भी कठिनाई से पहुँच सकें। शायद इसलिये कि उनकी दवाइयाँ खराब न हो जायें। राह में प्रत्येक दूसरे पग पर गोबर तथा कूड़ा मिलता था और रास्ता ऐसा जान पड़ता था कि नवम्बर मास में उत्तरी ध्रुव की यात्रा कर रहा हूँ; सूर्य की किरणें वहाँ आने से डरती थीं।

वैद्यजी के घर पर पहुँचा। वैद्यजी का घर बहुत बड़ा था। भारतीय ढंग से बना था। बहुत बड़ी चौकी थी। उस पर गद्दा था। उस पर उजली चाँदनी बिछी थी। चाँदनी पर मोटे-मोटे तकिये रखे हुए थे। उसी के सहारे वैद्यजी बैठे थे। वैद्यजी के बाल जर्मन क्राप की भाँति कटे थे। बड़ी मूँछें थीं। चौकी के सामने कुर्सियाँ रखी थीं। एक ओर एक आदमी सामने आँगन में बैठा एक बड़े से खरल में कुछ घास, कुछ पत्तियाँ और कुछ लकड़ी के टुकड़े बड़े जोरों से कूट रहा था, जिसके कण हवा में चारों ओर उड़ रहे थे। बैठते ही मुझे धड़ाधड़ पन्द्रह-सोलह छींक आयीं। मैं एक कुर्सी पर बैठ गया। एक कुर्सी पर गाइड बैठ गया। वैद्यजी को मैंने अपने ढंग से प्रणाम किया, उन्होंने सिर झुका कर उसका उत्तर दिया।

नौ बजे दिन के समय मैं वहाँ पहुँचा। कई और रोगी बैठे थे। मैंने सोचा कि यह लोग चले जायें तो विस्तार से बातचीत करूँ। एक रोगी की वह नाड़ी देख रहे थे कि इतने में एक सज्जन ने आकर कहा - 'कल चावल का भाव एक पाव कम हो गया।' इस पर वैद्यजी ने चावल की खेती का वर्णन किया। भारत में कहाँ-कहाँ चावल होता है, कौन-कौन चावल खाने में कैसा होता है। आज से बीस साल पहले चावल का भाव क्या था। बीस मिनट उसमें लगे। इसे पश्चात् इस रोगी के सम्बन्ध में उन्होंने कितनी ही बातें बतायीं। फिर उसके लिये दवा लिखी।

दूसरे रोगी की बारी आयी। उसके रोग के सम्बन्ध में पूछ-ताछ हो रही थी कि घर में से एक नौकर आया। उनके घर की जो छत बन रही थी, उसके सम्बन्ध में कुछ कहा। अब घर बनाने की बात छिड़ गयी। इस पर भी वैद्यजी का ज्ञान बड़ा विस्तृत था। काशी के अनेक महलों का विवरण और वास्तुकला पर व्याख्यान होता रहा। पहले कैसे-कैसे मसाले होते थे। जब से ब्रिटिश लोग राज करने लगे, तब से घर भी कमजोर बनने लगे। इस बार घर बनाने के सम्बन्ध में आध घण्टे तक बातें होती रहीं। अब ग्यारह बजने को आये। मैं बहुत घबड़ा रहा था। यदि यही हाल रहा तो सन्ध्या तक मेरी बारी आयेगी।

किन्तु मैं आ चुका था। बैठा-बैठा वैद्यजी की बातें और उनके पास बैठे और लोगों की बातें भी सुनता रहा। यह लोग वैद्यजी की प्रशंसा करते जाते थे और जो कुछ वह कहते थे, उसका अनुमोदन तथा समर्थन भी कर रहे थे। बीच-बीच में पान का दौर चल रहा था। कभी-कभी आने वालों को भी वह पान अपने हाथों से दे दिया करते थे।

एक बजे के लगभग मेरी ओर वैद्यजी ने निगाह उठायी। मैं हिन्दी तो अच्छी तरह जानता था। मैंने उनसे अपना हाल कहना आरम्भ किया। उन्होंने थोड़ा ही सुना होगा कि नाड़ी के लिये हाथ माँगा। पहले बायाँ हाथ फिर दायाँ हाथ। उन्होंने पाँच-पाँच मिनट तक देखा फिर मेरे रोगों के सम्बन्ध में बताने लगे। बीच-बीच में संस्कृत में कुछ पढ़ते जाते थे या तो वह दिखाना चाहते थे कि मेरी स्मरणशक्ति बहुत तेज है या कोई मन्त्र पढ़ते जाते थे जिससे मैं अच्छा हो जाऊँ। किन्तु उन्होंने अर्थ भी बताना आरम्भ किया। सम्भवतः उन्होंने समझा कि मैं वैद्यक सीखने आया हूँ - और रोग के सम्बन्ध में लेक्चर देने लगे।

भारतीय वैद्य लोग न थर्मामीटर लगाते हैं न स्टेथस्कोप। नाड़ी की गति से ही वह शरीर के भीतर का हाल बताते हैं। बड़े आश्चर्य की बात है। देखकर उन्होंने बताया कि ज्वर आपके भीतर है और वायु का भी विकार है। मैंने कहा कि मैंने तो बहुत कुनैन खायी है। डाक्टरों का कहना है कि ज्वर नहीं है। वैद्यजी ने कहा कि डाक्टरों का ज्वर तो केवल थर्मामीटर में रहता है। वह शरीर के भीतर का हाल नहीं जान सकते। डाक्टरों के ज्ञान पर उन्होंने आध घण्टे तक भाषण दिया, जिससे पता चला कि पाँच साल तक मेडिकल कॉलेज में यह लोग केवल तमाशा करते रहे।

मैं तो प्रायः सुनता ही रहा। मैंने केवल एक ही बात कही कि यह लोग मनुष्य के शरीर को चीर-फाड़कर अध्ययन करते हैं, जिसमें मानव शरीर के सम्बन्ध में उनका ज्ञान अधिक ठीक जान पड़ता है। वैद्यजी मुस्कराकर बोले - 'हाँ, मुर्दे का शरीर चीर कर देखते हैं। जिससे यह भले पता लग जाये कि कौन अवयव कहाँ पर है, किन्तु इसका उन्हें क्या पता है कि सजीव स्थिति में वह कैसे काम करते हैं।' फिर उन्होंने कुछ वायु के सम्बन्ध में भी बताया, जो मेरी समझ में कुछ नहीं आया। उन्होंने कहा कि तीन वायु होती हैं। वह किसी प्रकार से घूमती है। कैसे भोजन पचाती है। उन्होंने कहा कि डॉक्टरों को क्या पता है कि बहत्तर करोड़ से ऊपर धमनियाँ और उसकी शाखायें होती हैं, जिनमें वायु चक्कर करती है। मुर्दे के शरीर में इसका क्या पता लगेगा?

मैंने कहा - 'मुझे तो निरोग होने से मतलब है। मुझे वैद्यक पढ़ना है नहीं।' उन्होंने कहा कि यदि आपको विश्वास हो तो मैं चिकित्सा हाथ में ले सकता हूँ, नहीं तो नहीं। मुझे उनकी बातों से साहस हुआ। मैंने कहा कि मेरे देश में तो वैद्य नहीं हैं। इतने डॉक्टर हैं, रोगी क्या अच्छे नहीं होते? वहाँ से यहाँ अधिक रोग हैं। वैद्यजी ने कहा कि डॉक्टर लोग चीर-फाड़ अच्छा कर सकते हैं, किन्तु असाध्य रोगों की चिकित्सा नहीं कर सकते। मैंने इंजेक्शन और ग्लैंड (गिलटियों) द्वारा चिकित्सा के सम्बन्ध में उनसे कहा। उन्होंने कहा कि यह सब राक्षसी चिकित्सा है। आपने इंजेक्शन निकाला है तो हम लोगों ने बहुत पहले हीरे का, सोने का, पारे का भस्म निकाला है। एक खुराक में ही चमत्कार दिखा देता है। किन्तु लोग पैसा नहीं देना चाहते। मेरे पास दस हजार रुपये तोले की हीरे की भस्म है। उन्होंने कहा कि हमारे वैद्यों के देवता धन्वंतरि दवा की पोटली लिये जा रहे थे और एक पोटली कुएँ में गिर गयी। अभी तक उस कुएँ का पानी औषधिपूर्ण है। आज भी पीकर लोग अच्छे हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि मेरे पास ऐसी दवा है कि मरनेवाले को अदरख के रस में घिसकर पिला दीजिये तो उठ बैठे। क्षय रोगवाले को दिया जाये तो अवश्य अच्छा हो जाये किन्तु कौन लेगा।

मैंने कहा कि मुझे विवाद तो करना नहीं है। अच्छा होना है। उन्होंने कहा - 'दो रुपये खुराक दवा होगी। पन्द्रह दिन के लिये ले जाइये।' मैंने दस-दस के तीन नोट उनके हवाले किये और वहाँ से दो बजे होटल की ओर चला।

समय की गिनती वैद्यों के यहाँ नहीं होती, केवल रुपयों की होती है। जिसके पास और कोई काम न हो, वह तो इनके द्वारा चिकित्सा खूब करा सकता है। मैंने सुना, चार घण्टे वैद्यजी पूजा करते हैं। चलने लगा तो वैद्यजी ने कहा कि रविवार, मंगलवार और शनिवार को न आइयेगा। पूर्णमासी और अमावस्या को भी नहीं। मैं प्रत्यक्ष रूप से तो इनकी दवा नहीं कर सकता था। क्योंकि सैनिक डॉक्टर के सिवाय और किसी की दवा हम लोग नहीं कर सकते। चोरी-चोरी मैं आया था और चोरी-चोरी इनकी दवा आरम्भ की। देखिये क्या परिणाम होता है। शराब और अण्डा वैद्य जी ने बन्द कर दिया।

जादूगर गांधी

मेरे जीवन में आज तक विचित्र घटना घटी, जिसने मेरे मन और विचार में ज्वार-भाटा उत्पन्न कर दिया। मैं चाय पी रहा था। नौकर ने अखबार लाकर रख दिया। मैं समाचारपत्रों के पढ़ने में विशेष समय नहीं बरबाद करता। समाचारपत्र तो महाजनों तथा सेठ-साहूकारों के लिये है, जिन्हें कोई काम नहीं है। भोजनोपरान्त तकिये के सहारे लेट गये और आदि से अन्त तक बिना मतलब की बातें पढ़ रहे हैं। लोग समझते हैं कि सरकार के कार्यों की आलोचना निकलती है और सरकार के मत के अनुसार वह नहीं चलते, उनके मत के अनुसार सरकार चलती है। जैसा चाहते हैं, सरकार से करा लेते हैं, उनके विरोध में सरकार जा नहीं सकती। हम लोग तो अखबार इसलिये देखते हैं कि किसके यहाँ आज विवाह-विच्छेद हुआ और किससे किसका विवाह लगा। जब से भारत में आया हूँ, मैं केवल दो बातें समाचारपत्रों में देखता हूँ। एक तो फुटबाल तथा हॉकी के खेलों के सम्बन्ध में बड़ी उत्सुकता रहती है, दूसरे अपने देश की घुड़दौड़ के सम्बन्ध में जानने की इच्छा रहती है।

इन्हीं बातों को देखने के लिये मैंने 'सिविल ऐण्ड मिलिटरी गजट' उठाया। यकायक बड़े मोटे-मोटे अक्षरों में यह पढ़ा कि अंग्रेजी राज्य के प्रति बड़ा भारी षड्यंत्र। यों ही मैं उन लेखों को पढ़ने लगा। ऐसा तो कभी लेख इत्यादि मैं पढ़ता नहीं। उसमें लिखा था कि मिस्टर गांधी ने अंग्रेजी सरकार से अहसयोग करने का विचार किया है। यही समझ में नहीं आया कि असहयोग कैसे किया जा सकता है। लेख मैंने और आगे पढ़ा।

सम्पादक ने बताया था कि मिस्टर गांधी सरकार से किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं रखेंगे। सरकारी कानून का विरोध करेंगे और कहते हैं कि हम किसी प्रकार के हथियार का प्रयोग नहीं करेंगे। सरकार को इसके मुकाबले के लिये तैयार रहना चाहिये।

सम्पादक ने यह भी बताया था कि अंग्रेजों के लिये यह परीक्षा का समय है। सेना में और वृद्धि करनी चाहिये और जितने नेता हैं, उन्हें भारत के बाहर किसी टापू में भेज देना चाहिये।

मैंने मिस्टर गांधी का नाम पहले भी सुना था। उनके सम्बन्ध में तीन-चार बार पढ़ा भी था। एक बार तो एक अंग्रेजी पत्र में उनकी जीवनी निकली थी, जिसमें लिखा था कि यह कोई फकीर जादूगर हैं। इनके हाथ में एक लाठी रहती है, जिसमें एक प्रकार का जादू रहता है। जो इनके सामने जाता है, उसे इस लाठी से यह छू देते हैं और वह सब बातें भूल जाता है और उसका दिमाग खराब हो जाता है। फिर जो यह कहते हैं, वही करने लगता है। यह कुछ खाते नहीं। एक बकरी पाल रखी है। यह भी लिखा था, जादू सीखने से पहले यह इंग्लैंड भी गये थे और वहाँ कानून पढ़ा था। कोई अंग्रेज इनसे मिलने नहीं जाता। यदि कोई जाये तो वह इसी लाठी से छूकर उसे चेला बना देते हैं। वह फिर लौटता नहीं, एक गुफा में उन्हीं के साथ रहने लगता है।

दूसरी बार मैंने पढ़ा था कि वह बड़े भारी क्रान्तिकारी हैं। छिपे-छिपे इन्होंने हजारों बम और लाखों मन बारूद एकत्र किया है। भारत सरकार से यह लड़ाई की तैयारी कर रहे हैं।

फिर मैंने इनके विषय में कभी ध्यान नहीं दिया था। आज के लेख में मैंने यह पढ़ा कि यह सरकार का विरोध करने के लिये एक योजना तैयार कर रहे हैं और कहते हैं कि हमारी ओर से किसी प्रकार की हिंसा नहीं होनी चाहिये और यदि हमारे ऊपर हिंसा हो तो सह लेनी चाहिये। मैंने तो पहले समझा था कि यह राबिनहुड के समान कोई डाकू होंगे। किन्तु इसमें कुछ चाल अवश्य है, जब वह कहते हैं कि हम हिंसा नहीं करेंगे। शायद हम लोगों को धोखे में डालना चाहते हैं कि हम लोग अचेत रहें और हम लोगों पर हमला कर दिया जाये। किन्तु हम लोग इतने मूर्ख नहीं हैं। हम लोगों ने बड़े-बड़े साम्राज्य बनाये हैं। सब समझते हैं। हम लोगों को कोई धोखा नहीं दे सकता।

हमारे मन में विचार की तरंगें उठने लगीं। देखिये हम लोगों ने भारत का कितना भला किया है। केवल तीन-तीन पैसे में सारे भारत में चिट्ठियाँ भिजवा देते हैं, रेल चलायी है, पानी का कल लगवा दिया है, सेफ्टी-रेजर प्रयोग करना सिखाया है, बाँस की कलम के स्थान पर फाउण्टेन पेन का इस्तेमाल बताया, पाव-रोटी कैसे खायी जाती है बताया। फिर भी धन्यवाद देने के स्थान पर हमारा विरोध। मनुष्य में कितना स्वार्थ भरा है! हम लोगों का त्याग अद्भुत है। देखिये हम इंग्लैंड में धोती बनाते हैं, किसके लिये? इंग्लैंड में कौन धोती पहनता है। केवल भारतीयों के लिये। फैल्ट की टोपी बनवाते हैं केवल इनके लिये। ओह, यह लोग अपना लाभ नहीं समझते। चाहते हैं कि हम लोग यहाँ से चले जायें।

सुना है कि इन्होंने कोई टोपी आविष्कार की है। वह टोपी लगा लेने से सिर पर लाठी की चोट नहीं लगती। कहीं बहुत-से लोग ऐसी ही टोपी लगाये सभा कर रहे थे। उन पर लाठी चलायी गयी तो उन्हें कुछ पता ही नहीं चला। वह हटे नहीं। इस टोपी का क्या रहस्य है, किसी वैज्ञानिक को पता लगाना चाहिये। ब्रिटिश सेना ऐसी टोपी क्यों न धारण करे, युद्ध में काम देगी।

यही सब बातें मैं सोचने लगा। सोचते-सोचते मैंने दो बातें निश्चय कीं। एक तो यह कि इन्हें किसी प्रकार देखना चाहिये। दूसरी यह कि इतना विरोध तो बड़ी सरलता से मिट सकता है। मैं इसका उपाय बताता हूँ। इन्हें इस साल सम्राट के जन्मोत्सव पर कोई बड़ी पदवी दे दी जाये। जी.सी.एस.आई. से काम चल जायेगा। तब यह शान्त हो जायेंगे। कुछ पेंशन भी देनी चाहिये। चुपके से कह दिया जायेगा; किसी को पता नहीं चलेगा और सुना है कि इन्हें बकरी बड़ी प्रिय है। सरकार की ओर से सौ बकरियाँ इनको भेंट कर दी जायें, तब तो यह किसी भी अवस्था में सरकार का विरोध नहीं करेंगे या प्रति वर्ष कुछ बकरियाँ भेंट की जायें। मैं भारत सरकार को अपना मत लिख भेजूँगा। सफलता अवश्य मिलेगी और यदि सफलता मिली तो मुझे भी इसका अच्छा पुरस्कार मिलेगा।

चर्खा भयंकर है

जब से मैंने गांधी महोदय के सबन्ध में सुना, मेरी इच्छा प्रबल हुई कि इन्हें देखता। इनके सम्बन्ध में और जानकारी की इच्छा भी हुई। शहर में जाकर मैं इनके सम्बन्ध में पुस्तकें भी खरीदता था और उन्हें लाकर चोरी-चोरी पढ़ता था और छिपाकर रखता था, क्योंकि यदि उन पुस्तकों को कोई देख लेता या पता चल जाता कि मैं गांधी के सम्बन्ध में पढ़ रहा हूँ तो मेरा कोर्ट मार्शल होना निश्चित था। दो ही सप्ताह हुए कि मैंने किसी पत्र में पढ़ा था कि कुछ स्कूली विद्यार्थी सड़क पर जा रहे थे। उन्होंने चिल्लाकर कह दिया कि महात्मा गांधी की जय। यह सब बालक पकड़ लिये गये और उनको छः-छः महीने की सजा दी गयी।

अपने देश के हिन्दी जाननेवाले पाठकों की जानकारी के लिये बताऊँ कि गांधी को भारत में महात्मा गांधी कहते हैं। सब भारतवासी नहीं। अंग्रेज लोग तथा वह भारतवासी जो इंग्लैंड न जाकर भी अंग्रेजी बोलने के अभ्यस्त हो गये हैं उन्हें मिस्टर कहा करते हैं। मुसलमान लोग भी उन्हें महात्मा नहीं कहते। महात्मा का अर्थ हिन्दी में है बड़ी आत्मा इसलिये वे उन्हें महात्मा कहते हैं, जो लोग इन्हें बड़ा मानते हैं। जो लोग उनसे अपने को बड़ा समझते हैं वह महात्मा नहीं कहते। जय का अर्थ है जीतना, इसलिये यह कह देना कि महात्मा गांधी जीते, बहुत बड़ा अपराध है क्योंकि इसका उल्टा अर्थ यह होगा कि ब्रिटेन हार जाये।

मैंने महात्मा या मिस्टर गांधी के सम्बन्ध में कई पुस्तकें पढ़ डालीं। कुछ तो भारतीय विद्वानों की लिखी थीं, कुछ यूरोपियन लोगों की।

इन पुस्तकों में दो विचित्र बातें देखने में आयीं। एक तो यह कि इनका भोजन 6 पैसे प्रतिदिन में होता है। 6 पैसे बराबर होते हैं डेढ़ पेनी के। इसी में जलपान, चाय, लंच और डिनर सब। फिर भी लोग कहते हैं कि भारतवासियों की आमदनी कम है। जिस देश में डेढ़-डेढ़ पेनी में दिन-भर का सब भोज हो जाये, वह देश बहुत बड़ा धनी होगा। यों तो भारतवर्ष धनी देश है, यह हम भी मानते हैं; क्योंकि यहाँ सरकारी कर्मचारियों को वेतन बहुत अधिक दिया जाता है। यहाँ जितना प्रान्तीय गवर्नरों को वेतन दिया जाता है उतना ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री को भी नहीं और गवर्नर जनरल का तो उनके दूने से भी अधिक है। यह तो धनी देश ही कर सकता है। फिर भी मुझे यह ध्यान न था कि यह इतना धनी होगा और यहाँ सब वस्तुयें इतनी सस्ती होंगी।

दूसरी बात जो मैंने पढ़ी वह यह कि यह दिन-भर चर्खा चलाया करते हैं और जो जाता है उससे कहते हैं कि चर्खा चलाओ। इसमें कुछ-न-कुछ रहस्य अवश्य है। यह शिकायत है कि महात्मा गांधी कहते हैं कि हम चर्खे द्वारा भारत को स्वतन्त्र कर लेंगे। इसका रहस्य क्या है? यह देश पुराने लोगों के जादुओं से भरा है। हो न हो, इसमें कोई जादू हो। चर्खे से स्वराज्य का अर्थ कुछ और हो ही नहीं सकता।

या तो यह इसलिये है कि अंग्रेज लोग समझें कि यह तो केवल चर्खा चल रहा है और धीरे-धीरे चुपके-चुपके गोला-बारूद की तैयारी होती है। या चर्खे में किसी प्रकार का यन्त्र हो। क्योंकि जब आकाश में रस्सी फेंकर यहाँ के जादूगर चढ़ सकते हैं और बिना साँस लिये घंटों बैठ सकते हैं और आग पर चल सकते हैं, बिना जूता पहने! तब इन लोगों के लिये सब सम्भव है। मैं तो अपने देशवासियों को चेतावनी देता हूँ कि चर्खे में कोई न कोई रहस्य अवश्य है। सी.आई.डी. विभाग को अपने अन्तर्गत एक विशेष विभाग खोलकर इसी की खोज में लग जाना चाहिये। मैं सर ओलिवर लाज, डॉक्टर टामसन, प्रोफेसर हक्सले तथा रायल सोसायटी के सब सदस्यों से निवेदन करूँगा कि सब काम छोड़कर इसी की ओर ध्यान दें और बतायें कि क्या बात है, क्योंकि एक साम्राज्य के जीवन-मरण का प्रश्न है।

यदि इन लोगों की खोज से कुछ भी सन्देह चर्खे के सम्बन्ध में प्रकट हो और यह पता चले कि चर्खा वास्तव में देखने में साधारण-सी वस्तु है, किन्तु सचमुच भयानक अस्त्र है तो भारत सरकार को ऐसा कोई विधान बनाना चाहिये कि जो चर्खा चलायेगा और जो दुकानदार चर्खा बेचेगा, उसे काले पानी की सजा दी जाये और जो बढ़ई चर्खा बनाये उसका हाथ काट लिया जाये।

लोग मुझ पर हँसेंगे। बात यह है कि यूरोपवाले जड़वादी हो गये हैं, उन्हें इन बातों पर विश्वास होना कठिन है। भारतवाले यन्त्र और मन्त्र का बड़ा प्रयोग करते हैं। सुना है कि भारत में एक पुस्तक है वेद। यहाँ ऐसी कथा प्रचलित है कि एक बार ईश्वर ने सृष्टि के काम से छुट्टी ली। बहुत थक गये थे। छुट्टी में उनका मन नहीं लगा। बस उन्होंने एक पुस्तक लिख डाली। वह पुस्तक लिये हवाई जहाज पर कहीं जा रहे थे कि पामीर के पठार पर वह पुस्तक गिर पड़ी। वहाँ एक आदमी के हाथ वह पुस्तक लगी, वह लेकर पंजाब चला गया।

वह पुस्तक गिरी तो 'बद' से आवाज हुई, इसी से 'बद' माने यहाँ संस्कृत भाषा में कहना या बोलना हुआ और वह पुस्तक सब बातें कहती है, बताती है, इससे इसका नाम वेद हो गया और जो सज्जन लाये, उनके नाम का पता नहीं लगता। पुराना एक खपड़ा मिला है उस पर उनका हस्ताक्षर है, केवल 'आर.एन.'। इसी से उनके वंशज अपने को आर्यन कहने लगे। यह सब कथा यहाँ हमें एक पंडितजी से ज्ञात हुई, जो महामहोपाध्याय हैं, अर्थात् भारत सरकार ने जिसे विद्वान मान लिया है।

हाँ, तो कहा जाता है कि उक्त पुस्तक में संसार की सब विद्यायें, जिनके बारे में लोग पता लगा चुके हैं या जो लगायेंगे, लिखी हुई हैं। इसी पुस्तक की एक प्रति यहाँ से एक जर्मन उठा ले गया। वहाँ एक समिति बनी और उसका अध्ययन आरम्भ हुआ। उसमें हवाई जहाज के सब पुर्जों का नाम मिला। फिर क्या था, पुस्तक को देख-देख जर्मनों ने हवाई जहाज बना लिया।

सम्भव है, चर्खा भी इसी प्रकार का यन्त्र हो। अभी उसकी विशेषता हम लोगों पर प्रकट नहीं हुई है। महात्मा गांधी ने सब जान लिया हो, कौन जाने, इसलिये उनसे सतर्क हो जाना ही बुद्धिमानी है।

इन सब विचारों ने तथा बातों ने महात्मा गांधी को देखने की अभिलाषा और तीव्र कर दी। सोचा कि छुट्टी लेकर उनके पास चला जाऊँ, अपनी आँखों से देखूँ कि उनके सम्बन्ध में जो लिखा या कहा जाता है, ठीक है या गप। परन्तु यह भी सुना कि उनके पास सी.आई.डी. तथा समाचारपत्रों के प्रतिनिधि चौबीस घंटे बैठे रहते हैं। इसलिये दूसरे ही दिन सब जगह मेरे जाने का पता लग जायेगा। वह मेरे लिये ठीक न होगा। इन्हीं विचारों में मैं था कि यकायक पत्र में पढ़ा कि महात्मा गांधी कानपुर आ रहे हैं। यह तो मनमाँगी मुराद मिली। कुआँ स्वयं प्यासे के पास आ गया।

महात्माजी आये

मेरे मन में महात्माजी को देखने की उत्कट अभिलाषा होने लगी। जितना भी मैं उनके सम्बन्ध में पढ़ता था, उतना ही मेरे मन में विचित्र भाव उत्पन्न होने लगते थे। क्या कारण है कि इतना अधिक वेतन पानेवाले वायसराय के प्रति लोगों की इतनी श्रद्धा नहीं है। बड़े-बड़े राजाओं, महाराजाओं के प्रति, जिनकी शान चौदहवें लुई से भी बढ़कर है, वह भाव नहीं जो गांधीजी के प्रति है।

चित्र तो मैंने देखा था। कई प्रकार के पत्रों में, पुस्तकों में किन्तु विश्वास नहीं होता था कि यही व्यक्ति होगा। न तो बढ़िया सूट, न सिर पर बढ़िया पगड़ी, न पहलवानों का-सा शरीर। फिर बात क्या है? जान पड़ता है जो पुरानी पुस्तकों में पढ़ा है या तो कोई योगी है या जादूगर जिसने जादू इत्यादि सिद्ध किया है।

इन्हीं विचारों में मैं मग्न रहता था कि एक दिन 'सिविल ऐंड मिलिटरी गजट' में पढ़ा कि गांधी कानपुर आ रहे हैं। उसमें एक नोट भी था कि कानपुर में गांधी का आना बहुत ही भयंकर है। यह कुलियों का नगर ठहरा, यदि कुली बहक गये और गांधीजी के कहने में आ गये तो कानपुर अंग्रेजों के हाथों से निकल जायेगा। सत्तावन के गदर में भी यहाँ भयंकर घटनायें हो गयी थीं। ऐसी अवस्था में उनका यहाँ आना रोक देना अधिक उत्तम होगा।

मैंने भी पढ़ा तो भय मालूम पड़ने लगा। मैं समझने लगा कि अहिंसा-अहिंसा तो यह कहते हैं कि किन्तु जान पड़ता है छिपे-छिपे यह कोई अस्त्र-शस्त्र अवश्य रखते होंगे। साथी और चेले तो इनके संग बहुत रहते हैं। कांग्रेसी लोग सेना की भाँति होंगे और कुरते के भीतर पिस्तौल छिपाकर रखते होंगे कि जब जहाँ आवश्यकता पड़े हमला कर दिया जाये।

सरकार की ओर से उनका आना रोकने के लिये कोई आज्ञा नहीं निकली। आने की तिथि निकट होने लगी। अब मैं सोचने लगा कि जब ऐसे भयंकर व्यक्ति हैं तब सरकार ने उनका आना क्यों नहीं रोक दिया और 'सिविल ऐंड मिलिटरी गजट' ऐसे पत्र ने सलाह दी, उसकी सलाह भी नहीं मानी गयी। यह और भी विचित्रता थी। ऐसे ही पत्रों की राय पर चलने के कारण भारत में अंग्रेजों की सत्ता है। परन्तु सबसे प्रबल बात तो हृदय में मेरे थी, वह यह कि किसी प्रकार से भी उन्हें देखूँ।

मैंने सोचा कि आने की गाड़ी का पता लगाकर स्टेशन पहुँच जाऊँगा और किसी न किसी प्रकार से देख लूँगा। किन्तु क्लब में सुना कि वह दो स्टेशन पहले ही उतर जाते हैं। इस पर क्लब में विवाद भी हुआ कि कारण क्या है? एक आदमी ने बताया कि यह लाट साहब की नकल है। लाट साहब की गाड़ी जब चलती है तब यह नहीं बताया जाता कि वह किस गाड़ी से जायेंगे और किस समय उतरेंगे। गांधीजी भी तो उन्हीं के मुकाबले के हैं। वइ इतना तो कर नहीं सकते क्योंकि रेल पर उनका अधिकार नहीं है, इसलिये वह इतना ही करते हैं कि वह नहीं बताते हम कहाँ उतरेंगे।

दो दिन आने की तिथि के पहले हम लोगों को सरकार की ओर से सूचना मिली कि हम लोगों को सशस्त्र मशीनगन के साथ तैयार रहना होगा। मैं सोचता था वही बात हुई। गांधीजी के साथ अवश्य छिपे सशस्त्र सेना रहती होगी। नहीं तो हम लोगों को मशीनगन के साथ तैयार रहने की क्या आवश्यकता थी। जहाँ उनका व्याख्यान होने वाला था उसी के पास एक सेठ का घर था। उसी के भीतर चालीस सैनिकों को रहने की आज्ञा दी गयी और कहा गया कि यह न प्रकट हो कि यहाँ किसी प्रकार का सैनिक अड्डा है।

जो भी हो, मुझे देखने का अवसर मिल गया। हम लोग सवेरे वहाँ उसी घर में जाकर जम गये। भोजन का प्रबन्ध होटल से था। जिसका व्यय सेठ ने अपनी ओर से किया था। सेठ ने मुझसे कहा कि आप यह एक पत्र मुझे लिख दें तो मेरा बड़ा उपकार हो कि सेठ ने हम लोगों की बड़ी खातिर की। मैंने पूछा कि इससे तुम्हें क्या लाभ होगा? कुछ रुई की बिक्री बढ़ जायेगी? उसने कहा कि नहीं मैं कलक्टर साहब को दिखाऊँगा तो मुझको कोई टाइटिल मिल जायेगा। मुझे बड़ी हँसी आयी। मैंने कहा - 'अच्छा।'

तब संकोच के साथ कहने लगा कि एकाध वाक्य यह भी लिख दीजियेगा कि गांधी की बड़ी बुराई करता था। इससे मेरा काम बन जायेगा। मैंने कहा कि तुम सचमुच बुराई करता हो तो आज की सभा में जाकर करो या जाकर कलक्टर साहब से करो। मैं यह नहीं लिख सकता।

छः बजे से सभा का समय था। तीन बजे से लोग मैदान में जमा होने लगे। बूढ़े, जवान, स्त्री, लड़के सभी एकत्र थे। अंग्रेजों को छोड़कर सभी जातियाँ जान पड़ीं। मुसलमान कम थे। कम से कम तुर्की टोपी लगानेवाले। मैं ऊपर से देख रहा था। दूरबीन भी लगा ली थी। छः बजते-बजते तो धरती दिखायी ही नहीं देती थी। ठीक छः बजे गांधीजी मोटर पर वहाँ पहुँचे। उनके साथ और भी कई मोटरें थीं।

आते ही बड़े जोर से 'महात्मा गांधी की जय' का नारा लगा। यह इतने जोर का था कि हम लोगों ने समझा कि यह आक्रमण का संकेत न हो और सैनिकों को तैयार होने की आज्ञा देने ही वाले थे, किन्तु कुछ हुआ नहीं। गांधी महाशय गाड़ी से उतरे। देखा कि लोग उन्हीं की ओर खिसकने की चेष्टा कर रहे हैं। फिर यह भी दिखायी पड़ा कि लोग उनके पाँव की ओर हाथ कर रहे हैं। यदि वह मोटर से न आये होते तो यह जान पड़ा कि उनके पाँव में काँटा धँस गया है; उसी को निकालने की चेष्टा लोग कर रहे हैं।

महात्मा गांधी की परीक्षा लेने का प्रबन्ध था। जो मंच बना था वहाँ तक जाने के लिये कोई राह नहीं बनायी गयी थी। देखना था कि जो भारत को स्वतन्त्र करना चाहता है, वह इतना जनसमूह चीरकर जा सकता है कि नहीं।

फिर देखा कि अनेक लोगों ने उनके चारों ओर एक घेरा बना लिया और भीड़ के सागर को पार करने लगे। लोगों को यह सुनकर आश्चर्य होगा कि महात्मा गांधी पन्द्रह मिनट में मंच पर पहुँच गये। जितने लोग अभी तक बैठे थे, खड़े हो गये और सब लोगों में हलचल हो गयी। इस हचलचल में कितने लोग जो आगे थे, पीछे हो गये और पीछे वालों ने अपनी कुहनियों और कन्धों के बल से आगे के लिये राह बना ली। किन्तु कोई वहाँ से टला नहीं। जिन महिलाओं की गोद में शिशु थे, उन्होंने अपने रुदन से महात्मा जी का स्वागत किया क्योंकि वे बोल नहीं सकते थे। जितने लोग वहाँ उपस्थित थे, सब लोग कुछ-न-कुछ कह रहे थे। इसलिये शोर इतना हो रहा था जितना फ्रांस की क्रान्ति के समय।

महात्मा गांधी का भाषण

मैं देख रहा था। भीड़ इतनी बढ़ गयी थी जिससे इस बात का अनुमान हो सकता था कि भारत की आबादी सचमुच चालीस करोड़ है। कानपुर की आबादी बहुत है, इतना जानते हुए भी मैं अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर सकता था कि इतने लोग किसी सभा में एकत्र हो सकते हैं। लोग कहते हैं कि भारत में स्त्रियाँ पर्दे में रहती हैं, मैंने भी देखा है। किन्तु इतना कहना पड़ेगा कि गांधी महात्मा से वह पर्दा नहीं करतीं।

मैंने गांधी का चित्र कई बार देखा है। समाचारपत्रों के अतिरिक्त कैलेण्डर पर, दियासलाई की डिबिया पर, ताश के पत्ते पर भी उनका चित्र देखा है किन्तु प्रत्यक्ष देखने का अवसर आज ही मिला। उनकी नाक और कान बड़े-बड़े हैं। सिर के बाल बहुत छोटे-छोटे छँटे हैं। जान पड़ता है तेल का खर्च बचाना चाहते हैं। इन्होंने मूँछें भी रख छोड़ी हैं। सम्भवतः समय की गति के साथ नहीं चल सके हैं। स्पष्ट है कि इन पर अंग्रेजी शिक्षा बेकार गयी है और इनका इंग्लैंड जाना निरर्थक हुआ है। यह कपड़ा भी साधारण पहनते हैं। सिला हुआ कोई कपड़ा इनके शरीर पर दिखायी नहीं पड़ा। एक छोटी-सी धोती और ऊपर का शरीर लपेटने के लिये एक छोटा-सा कपड़ा। लोगों का कहना है कि यह अपने हाथ के काते हुए सूत का कपड़ा पहनते हैं। इसीलिये कम पहनते हैं, क्योंकि अधिक सूत नहीं कात सकते होंगे।

इन्होंने भाषण आरम्भ किया। लाउड स्पीकरों के कारण भाषण दूर-दूर तक सुनायी देता था। पहली बात तो यह है कि यह बैठकर बोलते हैं। न तो हाथ इधर-उधर घुमाते हैं, न पैर पटकते हैं। बड़े-बड़े वक्ताओं की भाँति न गर्दन इधर से उधर जाती है, न जोश के साथ इधर से उधर घूमते हैं। फिर भी इतने लोग इनकी बातें सुनने आते हैं, आश्चर्य है।

इन्होंने पहली बात यह बतायी कि अगर स्वराज लेना हो तो सबको खादी पहननी चाहिये और सूत कातना चाहिये। मैंने तो समझा था कि यह सबको सलाह देंगे कि बम बनाओ, गोली-बारूद एकत्र करो। जापानियों की भाँति सब लोग सूट पहनो। पश्चिम के देशवाले स्वाधीन हैं, क्योंकि सब सूट पहनते हैं, किन्तु यह तो खादी को स्वराज के लिये आवश्यक समझते हैं। जब संसार में बड़ी-बड़ी मिलें चल रही हैं, तब यह कहते हैं, चर्खा चलाओ। इन्हें तो हजरत ईसा मसीह के युग में पैदा होना चाहिये था। बीसवीं शती के लिये तो यह अनुपयुक्त चीज हैं। हो सकता है इनका अभिप्राय यह हो कि खादी का प्रयोग सब लोग करने लगेंगे तब मैनचेस्टर की सब मिलें बन्द हो जायेंगी और इंगलैण्ड के बहुत-से काम करनेवाले बेकार हो जायेंगे और तब भूख से तड़फड़ा कर भारतवासियों से कह देंगे कि लो स्वराज, हम भूखों मर रहे हैं इसलिये तुम्हें स्वतन्त्र कर देते हैं। सम्भवतः यह स्थिति युद्ध से भी भयंकर हो सकती है।

यदि सचमुच सब लोगों ने खादी अपनायी तो इंग्लैंड के लिये बड़े संकट की अवस्था उपस्थित हो सकती है। किन्तु हमें आशा है कि महात्मा गांधी की इस बात को सब लोग नहीं मानेंगे। अंग्रेजी शिक्षा ने बहुत को यह बात सिखा दी होगी कि वह समझेंगे कि यह युग मशीनों का है और महात्मा गांधी सभ्यता की गाड़ी को हजारों वर्ष पीछे खींचे जा रहे हैं। यदि हम लोगों का दो सौ साल का प्रचार कुछ नहीं कर सका और महात्मा गांधी का दस-पन्द्रह साल का प्रचार इतना प्रभावशाली हो गया तब इतने दिनों का शासन हम लोगों का बेकार हुआ।

एक और बात महात्मा गांधी ने अपने भाषण में बतायी। कहा - 'सब लोग मन से, वचन और कार्य से अहिंसात्मक हों। हिन्दू-मुसलमानों में मेल हो जाये और शराब पीना छोड़ दें तो स्वराज तुरन्त मिल जाये।' भाषण के पश्चात् इतने जोरों से बस लोग 'महात्मा गांधी की जय' चिल्लाने लगे कि साधारण नींव के घर सब हिल गये होंगे। सभा से सब लोगों के निकलने में आध घंटे से कम नहीं लगा होगा।

दूसरे दिन सन्ध्या के समय कर्नल साहब से मैंने सभा का सारा हाल सुनाया। वह बहुत प्रसन्न हुए, बोले - 'जो बातें उन्होंने कहीं उनसे भारत कभी स्वतन्त्र नहीं हो सकता।' मैंने कहा कि सब लोग खद्दर पहनने लगेंगे तो इंग्लैंड के व्यापार को गहरी हानि पहुँच सकती है। कर्नल साहब - 'यह सम्भव हो सकता है, किन्तु हम लोग महात्मा गांधी से भी चालाक हैं। हम लोग जो स्कूल और कॉलेजों में पढ़ाते हैं उसके भीतर रहस्य है। तुम देखोगे कि बहुत-से भारतवासी ही इसका विरोध करेंगे। कहेंगे कि यह तो देश को सैकड़ों वर्ष पीछे ढकेलता है। जब सारा संसार आगे बढ़ रहा है हम लोग पीछे नहीं जा सकते। यह मशीन का युग है। रेल छोड़कर बैलगाड़ी पर नहीं चला जा सकता। वह लोग यह कहेंगे - इसी देश में मिल खुलें। देश का औद्योगीकरण होना चाहिये। तब देखना कितने लोग खद्दर पहनते हैं। इससे हमें भय नहीं है। भय एक ही है -हिन्दू-मुसलमान यदि मिल जायें।'

मैंने कहा - 'इधर दो-तीन वर्षों में जो कुछ देखा और सुना है उससे तो यही जान पड़ता है कि यह लोग एक-दूसरे को सन्देह की दृष्टि से देखते हैं।' कर्नल साहब बोले - 'यही हमारे शासन की सफलता है। हमने यहाँ पर रेल चलायी, तार चलाया, डाकखाने बनवाये, बड़े-बड़े कॉलेज और स्कूल खोले। यह सब साधारण बातें हैं। इससे हमारा कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। किन्तु हिन्दू-मुसलमान लड़ते हैं और हमने ऐसा पढ़ाया है, ऐसी व्यवस्था की है कि यह लड़ते रहें। भाषण और लेख में सदा इस पर दुःख प्रकट करना चाहिये, किन्तु तरकीबें सोच-सोचकर करनी चाहिये कि दोनों एक-दूसरे का अविश्वास करते रहें। इतिहास की पुस्तकों में ऐसी बातें लिखनी चाहिये जिससे पता चले कि यह लोग सदा से एक-दूसरे की गरदन पर सवार रहे हैं। मैं तो तुम्हें भी सलाह दूँगा कि तुम एक ऐसी पुस्तक लिखो। हम लोग जो पुस्तक लिखते हैं वह समझी जाती है कि बड़ी खोज से लिखी गयी है। बात कुछ भी हो, उसे अपने एंगल से व्यक्त करना चाहिये। इसी को विद्वत्ता कहते हैं। यह कोई नहीं पूछने जायेगा कि बात ठीक है या गलत। सब लोग यही कहेंगे कि अमुक अंग्रेज की यह पुस्तक लिखी है और वह कॉलेजों में, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जायेगी।'

मैंने कहा कि मैं झूठ तो नहीं लिख सकता। उन्होंने कहा कि तुम्हें अनुभव नहीं है। झूठ और साम्राज्यवाद का ऐसा सम्बन्ध है जैसे टोस्ट और मक्खन का। झूठ बोलने में वीरता है। क्या तुम समझते हो क्लाइव, हेस्टिंग्स बेवकूफ थे? लायड जार्ज पागल थे? अगर हम लोग झूठ न बोलते तो भारत से कभी हाथ धो बैठते। संसार के राष्ट्रों में हमारी क्या स्थिति होती?

मैं ग्यारह बजे के लगभग अपने बँगले में आया। महात्मा गांधी के व्यक्तित्व की ओर सोचने लगा और कर्नल साहब की बातों की ओर सोचने लगा। महात्मा गांधी की बातों में कितनी सच्चाई है, कितनी निष्कपटता है। किन्तु साम्राज्य की रक्षा के लिये सत्य का भी बलिदान करना ही होगा। साम्राज्य की रक्षा का अर्थ तो अंग्रेज जाति की रक्षा है। अपनी रक्षा है।

पुस्तक लिखने के सम्बन्ध में तो बड़ा अच्छा सुझाव कर्नल साहब ने दिया है। क्यों न मैं एक ऐसी पुस्तक लिखूँ - जिसमें यह बात दिखायी जाये कि भारतीय स्वाधीनता के लिये सर्वथा अयोग्य हैं। केवल यही नहीं कि यहाँ हिन्दू-मुसलमानों में मेल नहीं है। हम बहुत-सी ऐसी बातें बता सकते हैं जिससे जान पड़ेगा कि भारतवासियों का स्वाधीन हो जाना एक जाति को, जिसे हमने थोड़ा सभ्य बनाया है, फिर असभ्यता के युग में लौटाना है। संसार के सम्मुख हमें ऐसी ही बातें रखनी चाहिये।

जैसे हिन्दू लोग मुर्दा जलाते हैं, धोती पहनते हैं, काँटे और छुरी की सहायता के बिना खाते हैं, यह बड़ी गंदी आदतें हैं। इन्हें कैसे स्वराज्य मिल सकता है? बहुत-से हिन्दू सिर के पीछे बालों का बड़ा-सा गुच्छा लटकाते हैं, साबुन लगाये बिना स्नान करते हैं, गोबर से घर लीपते हैं इन्हें स्वराज देकर संसार को गंदा बनाना है। जहाँ स्त्रियाँ लिपस्टिक नहीं लगातीं, नाचतीं नहीं, टेनिस नहीं खेलतीं, वह देश कभी स्वराज्य के योग्य हो सकता है? मुसलमानों के सम्बन्ध में हमें कहना चाहिये कि जो जाति घुटने के नीचे तक की अचकन पहनती है, एक-एक फुट की दाढ़ी रखती है, दिन में पाँच बार ईश्वर-वंदना के नाम पर समय की बरबादी करती है, वह स्वराज्य ले सकती है?

दीपावली और जुआ

मैं चाय पीकर 'सिविल एण्ड मिलिटरी गजट' पढ़ रहा था। एक मुकदमे की रिपेार्ट छपी थी। किसी मजिस्ट्रेट ने अपने बेयरा को ठोकर मार दी थी। उस बेयरे ने चाय का दूध गिरा दिया था। वह बेयरा मर गया था। हिन्दुस्तानी मजिस्ट्रेट ने छः महीने की सजा दे दी थी। इसी पर 'सिविल एण्ड मिलिटरी गजट' ने एक अग्रलेख लिखा था कि भारत से अब अंग्रेजी राज मिट जाने का समय आ गया है। एक भारतीय मजिस्ट्रेट ने अंग्रेज मजिस्ट्रेट को दण्ड दे दिया। भारतवासी कभी, अंग्रेजों के प्रति न्याय नहीं कर सकते। यही मैं सोच रहा था कि 'सिविल एण्ड मिलिटरी गजट' की बात ठीक ही होगी। उसने लिखा था कि एक अंग्रेज जो इतनी दूर से भारत में आया है, सरकार ने उसे इतना बड़ा अफसर बनाया है; जिम्मेदारी के काम पर रख दिया है उसे दण्ड देना चाहिये कि नहीं... मैं कुछ सोच ही रहा था कि पंडित जी आ गये। दूसरे-तीसरे महीने पंडितजी आ जाते थे। कभी उनके लड़कों को फीस देने के लिये पैसा नहीं होता था, कभी उन्हें कहीं यात्रा करनी होती तो जैसे आवश्यकता पड़ने पर बैंक से लोग रुपया निकाल लेते हैं, उसी भाँति वह मेरे पास आ जाते थे। नमस्कार के पश्चात् पंडितजी को मैंने कुरसी दी। बोला - 'कैसे कष्ट किया?' भारतवर्ष में चाहे कोई गाड़ी पर आये या मोटर कार पर, यही समझा जाता है कि उसने कष्ट किया। तब आने वाला आने का अभिप्राय बताता है। पंडितजी ने कहा कि आज दिवाली है, सोचा कि आपके दर्शन करता चलूँ। मैंने कहा - 'दिवाली क्या होती है?' उन्होंने बताया कि आज लोग अपने घरों को दीपों से सजाते हैं, रोशनी करते हैं। मैंने पाँच रुपये का नोट उन्हें दिया। बोला - 'आपके यहाँ बिजली न हो तो इससे एक कनस्टर तेल खरीद लीजियेगा। अपने घर पर भी रोशनी कीजियेगा।' पंडितजी ने कहा कि हम लोग मिट्टी को तेल इस दिन नहीं जलाते। सरसों का तेल जलाते हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। इतने कॉलेज और विश्वविद्यालय होने पर भी भारतवर्ष में आज भी सरसों का तेल जलता है। मैंने पंडितजी से कहा कि भारतवर्ष को कभी स्वराज्य नहीं मिल सकता। जब बिजली आ गयी तब सरसों का तेल जलाना, जब पतलून का आविष्कार हो गया तब धोती पहनना, कुरसी जब बनने लगी तब जमीन पर बैठना कौन-सी अच्छी बात है? पंडितजी ने कहा - 'हम लोग तो वही करते हैं जो शास्त्रों में लिखा है।' मैंने पूछा - 'शास्त्र बहुत दिन पहले बने होंगे?' पंडितजी ने कहा - 'शास्त्र बने कहाँ। वे तो ईश्वरी बातें हैं। ऋषियों ने उन्हें लिखा है। वह तो ऐसे हैं जैसे सूर्य। सदा एक-से रहते हैं। वह सब समय के लिये हैं। ऋषि लोग ऐसी-वैसी चीज नहीं लिखते थे। वह जो लिख गये हैं वह पचास हजार साल पहले जितना ठीक था उतना ही आज भी ठीक है और उतना ही दो लाख साल आगे भी रहेगा। देखिये, ऋषियों ने बताया है - 'दो और दो-चार होते हैं। डेढ़ लाख साल भी दो और दो पाँच नहीं हो सकते। वह लोग योगी होते थे जो आगे और पीछे सब देख लेते थे।' मैंने कहा कि मुझे किसी योगी के पास ले चलिये, किन्तु आज तो मैं दिवाली देखना चाहता हूँ। कार मँगवाऊँ? पंडितजी ने कहा कि दिवाली देखनी हो तो पैदल ही ठीक होगा। मैं अभी घर जाता हूँ। सन्ध्या समय आ जाऊँगा।

मैंने कैप्टन ऑसहेड को भी बुला लिया। पंडितजी के साथ मैं और कैप्टन चले। नगर में जाकर हम लोगों ने देखा। छोटे-छोटे दीप मकान की छतों पर, दीवारों पर, तारों के समान जल रहे थे। सारा नगर प्रकाश से जगमगा रहा था। बड़ी कोठियों में मैंने देखा कि बिजली के सैकड़ों बल्ब जल रहे हैं। मैंने पंडितजी से पूछा कि शास्त्रों में बिजली के बल्ब का विधान तो होगा ही। पंडितजी ने बताया कि शास्त्रों में बिजली पैदा करनेवाले इन्द्र का वर्णन है। शास्त्र आरम्भ से चलते हैं। बिजली का वर्णन वेदों में न होता तो बिजली आती कहाँ से। एक जर्मन, जो यहाँ कलक्टर था, वेद चुराकर ले गया। वहीं उसने बिजली बनायी।

हम लोग आज क्लब नहीं गये। नगर की रोशनी देखी। अच्छी लगी। कितना तेल इन लोगों ने आज खराब किया। जान पड़ता है इसमें यह भाव निहित है कि इस प्रकार से तेल जलाया जाये और बिजली कम्पनियों को घाटा हो, क्योंकि उसमें अंग्रेज ही अधिक हैं और वह टूट जाये। देर हो चली थी; हम लोग लौटना चाहते थे कि पंडितजी ने कहा कि एक चीज और देखना हो तो दिखाऊँ। मैंने पूछा कि वह क्या है। पंडितजी ने कहा कि आज की रात में हम हिन्दू लोग भाग्य की परीक्षा करते हैं। मैंने पूछा - 'वह कैसे?' पंडितजी बोले - 'हम लोग आज जुआ खेलते हैं। जो आज जुआ नहीं खेलता उसका दूसरा जन्म छछूंदर का हो जाता है।' मैंने कहा कि संसार में इतने छछूंदर आये कहाँ से? यूरोप में तो अक्सर ही जुआ खेला जाता है। इसलिये वह लोग तो हो नहीं सकते और आप लोग हो नहीं सकते। पंडितजी ने कहा - 'रोज खेलने की बात नहीं है, आज खेलने की बात है।' मैंने कहा कि उसमें देखना क्या है। जुआ तो खेलने की चीज है। पंडितजी ने कहा - 'मैं ऐसा-वैसा जुआ नहीं दिखाऊँगा।' मैंने कहा - 'यहाँ क्या जुआ खेलेंगे लोग! मेरे यहाँ जुआ होता है डरबी का। लाखों रुपया लोग जीतते-हारते हैं। जुआ होता है मांटेकार्लो में, जहाँ लोगों की जान चली जाती है।' पंडितजी ने कहा - 'कप्तान साहब, यह सब कुछ नहीं, हमारे यहाँ युधिष्ठिर अपनी स्त्री हार गये थे।' मैं सोचने लगा - जान पड़ता है कि जो जाति जितनी ही सभ्य होती है, उतनी ही तेज जुआड़ी होती है। सभ्यता और जुआ का बड़ा गहरा सम्बन्ध जान पड़ता है। मुझे जिज्ञासा हुई। मैंने कप्तान ऑसहेड से पूछा। राय हुई, चलकर देखा जाये। पंडितजी ने कहा कि सेठ मोटेराम नाटेमल के यहाँ चलिये, वह मेरे यजमान हैं।

पंडितजी के साथ हम लोग एक विशाल भवन में पहुँचे। दरवाजे पर संतरी ने पंडितजी को प्रणाम किया। हम लोगों को देखकर कुछ सहम कर हट गया। कई सीढ़ियाँ और आँगन पार करके हम लोग एक सुन्दर हाल में पहुँचे। हाल खूब सजा हुआ था। बड़े-बड़े बल्ब सुन्दर फानूसों में जल रहे थे। सुन्दर-सुन्दर कालीनें थीं, मसनद थे। जमीन पर ही लोग बैठे थे। बीचोंबीच लाल मखमल का एक बड़ा-सा रूमाल के समान बिछा था। उसी के चारों ओर लोग बैठे थे। हम लोग जब पहुँचे तब वहाँ शायद लोग कुछ गिन रहे थे, क्योंकि 'चार, छ, आठ' की आवाज मेरे कानों में आयी।

हम लोगों को देखकर वह लोग कुछ आश्चर्य में हो गये। पंडितजी ने तुरन्त सेठजी से हमारा परिचय कराया। यह सेठ लदाऊदास हैं, आप ग्यारह मिलों के डाइरेक्टर हैं और आपकी गोबर से कंडे बनाने की मिल बन रही है; यह रायसाहब ढुनमुनदास हैं; आप यहाँ डिप्टी कलक्टर हैं; यह मुंशी चलतेलाल वकील हैं। बार एसोसिएशन के सभापति हैं। आप पंडित प्रस्ताव प्रसाद पांडेय एम.एन.ए. हैं। और जो लोग थे वह साधारण रहे होंगे क्योंकि उनसे मेरा परिचय नहीं कराया गया। दुनिया में कुछ लोग ऐसे हैं जो जुआ को अनुचित समझते हैं। यहाँ वह देखते तो समझते कि ऐसे-ऐसे ऊँचे लोग जो काम करते हैं वह काम भला अनुचित हो सकता है। मुझसे कहा कि खेलिये। मैंने कहा कि मुझे तो आता नहीं। खेलने में कोई बात नहीं है। जरा देखूँगा। फिर खेल आरम्भ हुआ। एक सज्जन ने पहले छोटी-छोटी कौड़ियाँ दाहिने हाथ में लीं और फिर हाथ को पाँच मिनट तक ऐसे हिलाया जैसे मिरगी आने पर लोगों का हाथ हिलता है और कौड़ियों को हाथ से गिरा दिया और कहने लगे - 'चार-चार', डिप्टी साहब कहने लगे - 'नौ-नौ। पता नहीं इसके पश्चात् कि प्रकार कौड़ियाँ गिनीं। सबके सामने दस-दस रुपये के नोट रखे थे। एक आदमी ने सबके सामने से नोट बटोर लिये और स्वयं कौड़ियाँ हिलाने लगा। बड़ी देर तक इसी प्रकार से होता रहा। कभी एक आदमी नोट बटोरता, कभी दूसरा और दोनों हाथ फैला ऐसे बटोरता था जैसे किसी को कोई अंक में ले रहा हो।

यह हो ही रहा था कि धमधमाते हुए एक साहब पुलिस की वर्दी पहने दो कांस्टेबलों के साथ पहुँचे। सेठ साहब ने तुरन्त खड़े होकर कहा - 'आइये कोतवाल साहब, तशरीफ रखिये।' कोतवाल साहब ऐसे प्रसन्न दिखायी दिये मानो जुए में नहीं गये हैं, किसी यज्ञ में गये हैं। दस मिनट बैठने और मिठाइयाँ खाने के पश्चात् सेठजी ने सौ-सौ रुपये के दो नोट कोतवाल साहब के हाथों में दिये। बोले - 'लड़कों को मिठाई खिलाइयेगा।' कोतवाल साहब ने जेब में रुपये रखते हुए कहा - 'इसकी क्या आवश्यकता है।' फिर बोले - 'अच्छा चलूँ, मुझे अभी कई जगह जाना है।'

लन्दन को वापस

आज मुझे तीन बजे जहाज पर सवार होकर लन्दन लौट जाना है। दो साल की छुट्टी मिल गयी। सब सामान ठीक है। आज आखिरी बार पापड़ खा रहा हूँ। दो साल के बाद क्या होता है कौन जाने। दो साल मैं भारत में रहा। इतने में चार बार मलेरिया हुआ, ग्यारह बार अधकपारी हुई, सैंतीस बार जुकाम हुआ। यहाँ की फस्ल, अण्डे और दूध देखकर तो यही लालच होता है कि यहीं बस जाऊँ; किन्तु स्वास्थ्य के लिये क्या किया जाये? वैज्ञानिक लोग कुछ ऐसी व्यवस्था नहीं करते जिससे अंग्रेज लोग भारत में बस सकें।

इंग्लैंड लौटने पर मुझे अवकाश तो कम मिलेगा। वहाँ इस बात पर पार्लियामेंट में जोर दिलाना है कि सरकारी नौकरियाँ अधिकांश मुसलमानों को मिलनी चाहिये। बेयरा से लेकर मिनिस्टर तक और इक्केवान से लेकर कप्तान तक यह सफलता से काम कर सकते हैं। हिन्दू नौकर तो हमारे गिलास साफ करने में आनाकानी करता है। मुसलमान लोग बात भी बड़ी मधुर करते हैं, तबीयत खुश हो जाती है।

दूसरी बात का वहाँ मुझे यह प्रचार करना है कि सेना इस देश में कम है। भारतीय सेना पर कुछ विश्वास नहीं करना चाहिये। अंग्रेजी पर्याप्त संख्या में यहाँ होनी चाहिये। प्रत्येक सोल्जर को ढाई सौ रुपया और भोजन देने की व्यवस्था हो जाये तो वह अपना देश छोड़कर आ सकेंगे। भारत में रुपया मिलना कुछ कठिन नहीं है। सोने की खान अफ्रीका और आस्ट्रेलिया में हैं, किन्तु भारत का घर-घर बैंक है, जहाँ स्वर्ण का लदान लदा है। यहाँ लोग दूसरों की हुकूमत से प्रसन्न होते हैं। जब मैं यहाँ आया तब मैंने यहाँ की अवस्था देखकर यह विचार किया था कि यहाँ के लोगों पर ब्रिटिश शासन करना जबरदस्ती है। दूसरों पर शासन क्यों किया जाये। किन्तु यहाँ का इतिहास पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि इस देश पर सदा से दूसरे शासन करते आये हैं। यहाँ के लोग नंगे पेड़ के खोखलों में रहते थे। एक प्रकार की भाषा बोलते थे जिसका नाम 'सैंसकृट' बाद में पड़ा। यह दो शब्दों में मिलकर बना है; 'सैंस' फ्रेंच शब्द है जिसका अर्थ है बिना, बगैर और 'कृट' शब्द ग्रिट से बिगड़कर बना है जिसका अर्थ है शक्ति, जोर। यह ऐसी भाषा थी जिसमें कुछ जोर नहीं था। आयरलैंड से पैट्रिक एन्जेल जिसे छोटे में 'पैट एन्जेल' कहते थे यहाँ आया और उसने इस भाषा को ठीक किया और उसका व्याकरण भी ठीक किया। उसी आयरलैंड से आइरिन जाति ने भारतवर्ष पर आक्रमण किया। इसके पश्चात् अनेक जातियों ने इस देश पर आक्रमण करके शासन किया। इसी भाँति अंग्रेज भी आये। अंग्रेजों के सामने यहाँ के लोग ठहर न सके, तुरन्त उनकी दासता स्वीकार कर ली। अंग्रेजों ने यहाँ तार, डाक, रेल, सेंट, साबुन, सिगरेट आदि सभ्यता के उपकरण प्रस्तुत किये। मेज पर खाना, खड़े होकर लघुशंका करना, सभ्य कृत्य इन लोगों ने सिखाया। इनसे जो भारतवासी मिलने आये वह भी यही कहते थे कि अंग्रेजी शासक न्यायप्रिय होता है। हिन्दू-हिन्दू का और मुसलमान-मुसलमान का पक्ष लेता है। इन सब कारणों से हम लोगों का यहाँ रहना आवश्यक है। जब हम लोगों ने इतनी बड़ी जनसंख्या को सभ्य बनाने की प्रतिज्ञा की है तब उसे पूरा करना ही होगा। नहीं तो संसार के सम्मुख हम क्या मुँह दिखायेंगे। युद्ध का भी भय है। दूसरी लड़ाई न जाने कब छिड़ जाये। यहाँ के लोग सेना में बड़ी आसानी से भरती हो जाते हैं। यहाँ वाले मैंने देखा भी और सुना भी है कि लड़ने में बड़े तेज होते हैं। मुसलमान-हिन्दू लड़ते हैं, ब्राह्मण-क्षत्रिय लड़ते हैं, वैश्य-शूद्र लड़ते हैं। भाई-भाई लड़ते हैं। सुना है, सभा-समितियों में भी लड़ाई ही होती है। सभासद् और मन्त्री आपस में लड़ा करते हैं। इसका कारण यह बताया जाता है कि इनके यहाँ एक पुस्तक है जिसका नाम है गीता। वह सबको लड़ने की शिक्षा देती है। बड़ी-बड़ी संस्थायें कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिन्दू-सभा सब आपस में लड़ती हैं। यूरोप और भारत में यह अन्तर है कि यूरोप में एक देश दूसरे देश से लड़ते हैं। एक देश के लोग आपस में नहीं लड़ते। भारतवासी दूसरे देश में नहीं लड़ते, अपने ही यहाँ आपस में लड़ते हैं। हमारे यहाँ देश के भीतर बहुत लड़ाई हुई तो मियाँ-बीबी में, जो लड़कर अलग हो जाते हैं जैसे रेल का इंजन टकराकर पीछे हट जाता है। इन कारणों से लड़ाई के लिये भारतवासी बहुत ही उपयुक्त हैं।

आज मैं इस देश से अनेक स्मृतियाँ ले जा रहा हूँ, पुराने समय की कुछ ईंटें ले जा रहा हूँ और कुछ खपड़े, जिससे विवाह की बात चल रही है उसके लिये बनारस का बना सोने के बेलबूटेदार कपड़ा ले जा रहा हूँ। और ले जा रहा हूँ - अखबारों की कतरन जो अंग्रेजी शासन की बुराई में अपने कालम में कालम रंगा करते हैं। मैं इन्हें वहाँ के नेताओं को दिखाऊँगा, शायद यहाँ के सम्पादकों को नहीं पता है कि इन अखबारों को कोई नहीं पढ़ता। फिर भी इस प्रवृत्ति को रोकना चाहिये। दूसरे देशवाले इससे लाभ उठाते हैं।

मैं अपने देश जा रहा हूँ - अपनी मातृभूमि को। वहाँ अपने माता-पिता से मिलूँगा, अपनी प्रेयसी से मिलूँगा, मित्रों से मिलूँगा। फिर भी न जाने क्यों चित्त कुछ उद्विग्न-सा हो रहा है। कुछ अनमना-सा हो रहा हूँ। इतने दिनों तक मैं यहाँ रहा, जान पड़ता था राज कर रहा हूँ। कभी-कभी कर्नल साहब की गालियाँ सुन लेती पड़ती थीं नहीं तो वह बढ़िया भोजन, ऐसी मस्त करने वाली शराब! कुछ दिनों के लिये इन सब चीजों से विदा। ऐसे भक्त नौकर-चाकर! गालियाँ और मार को भी बिना किसी विरोध के सहन कर लेते हैं, संसार में कहीं नहीं मिलेंगे। जब इस देश की सहनशीलता का ध्यान करता हूँ तब विवश होकर देश के प्रति नतमस्तक हो जाना पड़ता है। इस देश के भिक्षुक और स्त्रियों की दशा देखकर तो दया तक उमड़ आती है। सोचता हूँ, क्या इंग्लैंड में जाकर सत्य बातों को बताऊँ? अपने देश के सुखमय जीवन का अन्त करूँ कि सत्य को छिपाऊँ, क्यों ऐसा द्वन्द्व मन में उठ रहा है? बाइबिल तो कहती है - सत्य बोलो, किन्तु यह भी सोचता हूँ कि दो हजार बरस पहले कही हुई बात क्या आज मानी जाये? कुछ निश्चय नहीं कर पा रहा हूँ। राह में सोचूँगा क्या उचित है। बेयरा कहता है - 'हुजूर लाट साहब हों!' यदि ऐसा हो जाता। जहाज का भोंपा बज रहा है। कुछ दिनों के लिये भारत भूमि विदा! सलाम! ताजमहल होटल सलाम! बम्बई सलाम!


कर्नल कालिज स्नेह जंगल में खेमा क्यों लगाया हुआ था? - karnal kaalij sneh jangal mein khema kyon lagaaya hua tha?
  
कर्नल कालिज स्नेह जंगल में खेमा क्यों लगाया हुआ था? - karnal kaalij sneh jangal mein khema kyon lagaaya hua tha?
  
कर्नल कालिज स्नेह जंगल में खेमा क्यों लगाया हुआ था? - karnal kaalij sneh jangal mein khema kyon lagaaya hua tha?

कर्नल कालिंज का खेमा जंगल में क्यों?

कर्नल कालिंज का खेमा जंगल में क्यों लगा हुआ था? कर्नल कालिंज का खेमा वज़ीर अली को गिरफ्तार करने के उद्देश्य से जंगल में लगा हुआ था। कर्नल को संदेह था कि वज़ीर अली जंगल में ही कहीं छिपा होगा। बरसों से वह पूरी फौज़ की आँखों में धूल झोंक रहा था।

कर्नल और लेफ्टिनेंट खेमा क्यों लगाए बैठे थे?

`SO_(2)` की विरंजक क्रिया का कारण इसकी `............

कर्नल गोरखपुर के जंगल में फौज लेकर क्यों रह रहा था?

गोरखपुर को 'इलेक्ट्रिक' सिग्नल | CM Yogi in Gorakhpur | Electric Bus | ABP Ganga - YouTube.

सवार कर्नल से अकेले में क्यों मिलना चाहता था इस मुलाकात का कर्नल पर क्या प्रभाव पड़ा?

Answer: वज़ीर अली अकेला ही घोड़े पर सवार होकर अंग्रेज़ों के खेमे में पहुँच गया और कर्नल को दिखाया कि वह भी वज़ीर अली के खिलाफ़ है। उसने कर्नल से अकेले में मिलने के लिए कहा। कर्नल मान गया और वज़ीर अली के दस कारतूस माँगने पर उसने दे दिए परन्तु जाते-जाते अपना नाम बता गया जिससे कर्नल हक्का-बक्का रह गया।