जीव विज्ञान सजीवों का विज्ञान है (ग्रीक भाषा में बायोस का अर्थ जीवन तथा लोगोस का अध्ययन)। विज्ञान की वह शाखा, जिसके अन्तर्गत जीवधारियों का अध्ययन होता है, जीव विज्ञान कहलाती है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग लैमार्क (फ्रांस) तथा ट्रेविरेनस (जर्मन) ने 1802 में किया था। इसको पुन: दो भागों, वनस्पति (Botany) तथा जन्तु विज्ञान (Zoology) में बांटा गया है थियोफ्रेस्टस ने 500 प्रकार के पौधों का वर्णन अपनी पुस्तक Historia Plantarum में किया है। इन्हें वनस्पति शास्त्र का जनक कहा जाता है। Show हिप्पोक्रेट्स ने मानव रोगों पर प्रथम लेख लिखा। इन्हें चिकित्सा शास्त्र का जनक माना जाता है। अरस्तु ने अपनी पुस्तक जंतु इतिहास (Historia Animalium) (460-377 BC) में 500 जन्तुओं का वर्णन किया है। इन्हें जंतु विज्ञान तथा जीवविज्ञान, दोनों का जनक कहा जाता है। जीवविज्ञान का उदय, मनुष्य की सजीवों के प्रति जिज्ञासा तथा उत्तरजीविता की आवश्यकता के कारण हुआ होगा। जीवविज्ञान का ज्ञानक्रम लम्बे समय तक वैज्ञानिक तथा वैज्ञानिकों के समूहों द्वारा आविष्कार करने का फल है। जीव वैज्ञानिक अध्ययन जीव वैज्ञानिक कैसे कार्य करते हैं और वे क्या अध्ययन करते हैं? वे अपने चारों ओर पाई जाने वाली वस्तुओं का नामकरण, उनका विवरण और वर्गीकरण करते हैं। यहाँ तक कि आदि मानव भी इन्हीं क्रियाकलापों को जाने-अनजाने में करता रहा होगा। उसका अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता था कि वह अपनी उपयोगी तथा अनुपयोगी वस्तुओं को पहचान सके। जीव वैज्ञानिक लगातार नए-नए जीवों की खोज करते रहे हैं तथा उन्हें वैज्ञानिक नाम देकर वर्गीकृत करते रहे हैं। आप आश्चर्य करेंगे कि क्रियाकलाप महत्वपूर्ण क्यों है? क्या आप जानते है: जन्तुओं की लगभग 1200,000 स्पीशीज हैं, जो पौधों की लगभग 500,000 स्पीशीज पर निर्भर करती हैं? इस संख्या में प्रतिवर्ष 15,000 नई प्रकार की स्पीशीज की वृद्धि हो जाती है। जिन जन्तुओं तथा पौधों की स्पीशीज का अभी पता लगाना है वे अमेरिका, एशिया तथा अफ्रीका के उष्णकटिबंधीय जंगलों में छिपी हुई हैं। प्रत्येक स्पीशीज अपने ढंग में निराली है, चाहे वह हमारे लिए आर्थिक महत्व की है या नहीं जीवविज्ञान की वह शाखा जो किसी स्पीशीज की पहचान, नाम तथा वर्गीकरण से सम्बन्ध रखती है, वर्गिकी कहलाती है। वर्गिकी चिरस्थापित विज्ञान है और जीवों के नामकरण करने के लिए अन्तर्देशीय नियम बने हुए हैं। किसी जीव का सही वर्णन करने के लिए प्रशिक्षण तथा ऐसी शब्दावली की आवश्कता होती है, जो जीवविज्ञान के लिए अद्भुत है। आकार तथा बाह्य रचना के अध्ययन को आकारिकी कहते हैं। भीतरी रचना का बाह्य रचना से संबंध होता है। संरचनाएँ जो बाहर से समान प्रतीत होती हैं, भीतरी रचना में बिल्कुल भिन्न हो सकती हैं। ऐसे भी बहुत से उदाहरण हैं (जैसे लंगूर तथा मनुष्य) जिनमें भीतरी रचना समान होती है, लेकिन बाहरी रचना भिन्न होती है। पौधों तथा जन्तुओं की भीतरी रचना के अध्ययन को शारीरिकी कहते हैं। मानव शारीरिकी बहुत ही विशिष्ट है। आज हमारे पास मानव शारीरिकी के विषय में बहुत ही अधिक सूचनाएँ हैं। हम ऊतक की विस्तृत संरचना, विभिन्न प्रकार के प्रकाश सूक्ष्मदर्शी से देख सकते हैं। इसके लिए एक विस्तृत प्रक्रम जैसे स्पेशीमैन का स्थिरीकरण, निर्जलीकरण, अत: स्थित करना, काटना तथा अभिरति करना और फिर आरोपित करना है। ये सब अध्ययन ऊतक विज्ञान के अन्तर्गत आते हैं। सभी जीव कोशिकाओं से बने होते हैं। कोशिका की संरचना, कार्य, जनन तथा जीवन चक्र, जीव के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। कोशिका के इस अध्ययन को कोशिका विज्ञान कहते हैं। कोशिका की सूक्ष्म संरचनाओं को समझने में इलैक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप का बहुत ही अधिक योगदान रहा है। कोशिकीय स्तर पर जीवों में बहुत ही समानता होती है। जीव विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के जनकशाखाजनकशाखाजनकजीव विज्ञानअरस्तूवनस्पति विज्ञानथियोफ्रेस्टसजीवाश्मिकीजार्ज क्यूवियरसुजननिकीएफ. गाल्टनआधुनिक वनस्पति विज्ञानलिनियसप्रतिरक्षा विज्ञानएडवर्ड जैनरआनुवंशिकीग्रेगर जॉन मण्डलआधुनिक आनुवंशिकीग्रेगरी बेटसनकोशिका विज्ञानरॉबर्ट हुकवनस्पति चित्रणक्रेटियसपादप शारीरिकीएन. गिऊजन्तु विज्ञानअरस्तूवर्गिकीलीनियसचिकित्साशास्त्रहीप्पोक्रेटसऔतिकीमार्सेलो मैल्पीगीउत्परिवर्तन सिद्धांत के जनकह्यूगो डी. ब्राइजतुलनात्मक शारीरिकीजी. क्यूवियरकवक विज्ञानमाइकोलीपादप कार्ययिकीस्टीफन हेल्सजीवाणु विज्ञानल्यूवेनहॉकसूक्ष्म जीव विज्ञानलुई पाश्चरभारतीय कवक विज्ञानई. जे. बुट्लरभारतीय ब्रायोलॉजीआर. एस. कश्यपभारतीय पारिस्थितिकीआर.डी. मिश्राभारतीय शैवाल विज्ञानएम. ओ. ए. आयंगरआधुनिक भ्रूण विज्ञानवॉन बेयरएण्डोक्राइनोलॉपीथॉमस ऐडिसन जैव अणु का भौतिक – रासायनिक संगठन, जीवविज्ञान का अत्यधिक उत्तेजक क्षेत्र है। उदाहरण के लिए न्यूक्लीक एसिड की रचना, प्रोटीन के घटक तथा उनके संश्लेषण की प्रक्रिया। अब यह विश्वास किया जाता है कि कोशिका का कार्य अणु के स्वभाव तथा उसकी पारस्परिक क्रियाओं पर निर्भर करता है। इस प्रकार के अध्ययन को अणु जैविकी जीवविज्ञान कहते हैं। जैव-प्रक्रियाएँ जीव में घटने वाली क्रियाओं का परिणाम है। जीवन से सम्बन्धित प्रक्रियाओं तथा कायों (जैसे श्वास तथा पाचन) के अध्ययन को शरीर क्रिया विज्ञान कहते हैं। लगभग सभी बहुकोशिकीय जीव अपना जीवन एक एकल कोशिका युग्मनज से आरम्भ करते हैं। इस प्रारम्भिक कोशिक में समन्वयित तथा क्रमबद्ध विभाजन होने से भ्रूण बन जाता है। प्रारम्भिक भ्रूण आकारविहीन होता है और यह व्यस्क से बिल्कुल भिन्न होता है। भ्रूण से व्यस्क बनने में विभिन्नता तथा वृद्धि की बहुत सी क्रमबद्ध एवं समन्वयित प्रक्रियाएँ होती हैं। अंडे के निषेचन से लेकर भ्रूण के परिवर्धन तक की क्रमबद्ध घटनाओं के अध्ययन को भ्रूण विज्ञान कहते हैं। आजकल बहुत सी विधियों द्वारा मानव के भ्रूण का अध्ययन करना सम्भव हो गया है। यहाँ तक कि गर्भावस्था में ही बच्चे के लिंग तथा जन्म के विकारों का पता भी किया जा सकता है। कोई भी जीव पृथक रहकर जीवित नहीं रह सकता है। वे एक साथ रहते हैं और वे दूसरे जीवों तथा निर्जीव पदार्थों, जैसे-हवा, पानी तथा मिट्टी के साथ पारस्परिक क्रियाएँ भी करते हैं। जीवविज्ञान की ऐसी शाखा को, जो जीव तथा उसके वातावरण के सम्बन्ध का अध्ययन कराए, पारिस्थितिकी कहलाती है। सभी जीवों में डी.एन.ए. आनुवंशिकी पदार्थ है। आपने जीन के विषय में सुना होगा जो रासायनिक रूप से डी.एन.ए. है। कौन से जीव हैं और वे कैसे कार्य करते हैं? यह जीन तथा उनकी वातावरण से पारस्परिक क्रिया पर निर्भर करता है। किसी स्पीशीज में स्थायीकरण अथवा परिवर्तन जीन के कारण होता है। जिज्ञासावश, कुछ जीवों जैसे तिलचट्टा तथा गिन्गो वृक्ष में लाखों वर्षों में कुछ परिवर्तन आ गए हैं। किसी स्पीशिज में आनुवंशिकी परिवर्तन होने के कारण उनका वर्गिक स्थान भी बदल गया है। जीवविज्ञान की – जो शाखा पित्रागति तथा विभिन्नता का अध्ययन करवाए, उसे आनुवंशिकी कहते हैं। आनुवंशिक का उपयोग उन्नत प्रकार की फसल तथा जानवर प्राप्त करने तथा सूक्ष्म जीवों में परिवर्तन करने के लिए किया जाता है। आनुवंशिक के नियम तथा जीव की उत्तरजीविता तथा लाभ में भी आनुवंशिकी सहायता करती है। जीवविज्ञान की एक मूलभूत शाखा है-विकास। यह पौधों तथा जन्तुओं की समष्टि में वातावरण के प्रति लगातार होने वाले आनुवंशिक अनुकूलन का अध्ययन कराता है। जीवविज्ञानी आदिकाल में पाए जाने वाले जीवों की उत्पत्ति, वृद्धि तथा रचना का अध्ययन करते हैं, जो आदिकाल में जीवाश्म के रूप में सरंक्षित हो गए थे। जीवविज्ञान की इस शाखा को पुरा जीवविज्ञान कहते हैं (ग्रीक भाषा में पैलिओ का अर्थ है पुराना)। पुरा वनस्पति विज्ञान पौधों के जीवाश्म का, तथा पुरा जन्तु विज्ञान जीवाश्म प्राणियों का अध्ययन है। मनुष्य अब अंतरिक्ष में स्थित जीवन के प्रकारों के अध्ययन में जानकारी प्राप्त करना चाहता है। वैज्ञानिक पूछताछ की इस शाखा को एक्सोबायोलोजी अथवा एस्ट्रोबायोलॉजी कहते हैं। जीवविज्ञान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। हम अभी सीखने की ही अवस्था में है, जबकि वैज्ञानिक खोजें बहुत शीघ्रता से हो रही हैं। गत बीसवीं शताब्दी की अपेक्षा हमने अपना ज्ञान गत बीस वर्षों में अधिक बढ़ाया है।
कुछ पौधों में फूलों के खिलने को दिन की लम्बाई तथा रात का तापक्रम नियमित करता है। कुछ बहुवर्षी पौधों में 12 से 120 वर्ष बाद एक बार ही फूल खिलते हैं। ऐसे पौधों में फल-फूल लगना विघटनकारी प्रक्रम है क्योंकि सारी आबादी समाप्त हो जाती है और बीज से नया पौधा बनता है। ऐसे पौधों को मोनोकार्पिक कहते हैं अर्थात् एक ही बार फूल खिलना और उनके फूल खिलने को ग्रिगेरियस फूल खिलना कहते हैं। भारत के उत्तर-पूर्व भाग में मोतक (मेलोकना बैम्बुसोइड्स) तथा रोथिंग (बैम्बुसा टुल्डा) में 48 वर्ष में एक बार फूल आते हैं। फूल खिलने से चूहों के कई स्पीशीज की संख्या बढ़ जाती है। चूहे बाँस के दाने खाते हैं और जब वे समाप्त हो जाते हैं तब वे पास में स्थित धान तथा मक्का की खड़ी फसलों को खाना आरम्भ कर देते हैं, जिससे इन खेतों की पैदावार की बहुत हानि होती है। इनके कारण अकाल पड़ जाता है, जिससे इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का जीवन प्रभावित होता है। हम न तो ग्रिगेरियस फूल खिलने के, न ही चूहों की आबादी बढ़ने के संकेत और न ही बाँस समाप्त होने के मूलभूत आधार को जानते हैं।
जीवों के गुण श्वसन Respiration श्वसन इनका मुख्य लक्षण है। इसमें जीव वायुमण्डल से आक्सीजन ग्रहण करता है तथा कार्बन डाईआक्साइड बाहर निकालता है। श्वसन क्रिया द्वारा वसा, कार्बोहाइड्रेट तथा प्रोटीन के विघटन से ऊर्जा प्राप्त होती है। जिससे समस्त जैविक क्रियाएँ संचालित होती है। पोषण Nutrition जीवन के विकास तथा ऊर्जा उत्पादन हेतु पोषण आवश्यक है। पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा तथा जन्तु पौधों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं। प्रजनन Reproduction प्रजनन द्वारा प्रत्येक जीव अपने जैसा ही जीव पैदा कर अपने वंश परम्परा को बनाये रखता है। अनुकूलन Adaptation जीवन संघर्ष में सफल होने के लिए जीव अपनी संरचना एवं कार्यिकी में परिवर्तन कर अपने अस्तित्व को बचाते हैं। गति Movementor Locomotion जीवधारियों में जन्तु एक स्थान से दूसरे स्थान को गति करते हैं, जबकि पौधे स्थिर रहकर अपने अंगों को गतिशील रखते हैं। संवेदनशीलता Sensitivity वातावरण में होने वाले परिवर्तन को जीवधारी अनुभव करते हैं और आवश्यकतानुरुप अपने अन्दर परिवर्तन भी करते हैं। यह परिवर्तन ही अनुकूलन कहलाता है। एलैक्जेन्डर फ्लेमिंगएलैक्जेन्डर फ्लेमिंग (1881-1955) स्टैफाइलो कोक्स नामक जीवाणु, जिसके कारण गले में संक्रमण हो जाता है, का अध्ययन कर रहे थे। वह इस जीवाणु की एगार माध्यम में पैट्रीडिश में वृद्धि कर रहे थे। ये सामान्य अवलोकन है कि इस प्रकार के संवर्धन माध्यमों पर अन्य सूक्ष्म जीव भी उग आते हैं। फ्लेमिंग ने नीले हरे कवक पैन्सिलियम नोटेटम को संवर्धन में देखा। प्राय: संदूषित संवर्धनों को फेंक दिया जाता है, लेकिन फ्लेमिंग ने इस विशेष प्लेट को रख लिया। इस प्लेट में अन्य प्लेटों में उगी हुई संरचनाओं से कुछ भिन्नता थी, क्योंकि इस प्लेट में जीवाणुओं की वृद्धि नहीं थी। इससे यह स्पष्ट होता था कि प्लेट में मोल्ड के आस-पास जो साफ क्षेत्र बन गया था, उसमें जीवाणु की वृद्धि नहीं हुई थी। अन्य जीवाणु विशेषज्ञों ने भी देखा कि मोल्ड जीवाणु की वृद्धि नहीं होने देते। लेकिन फ्लेमिंग ने इस पदार्थ का नाम पैन्सिलिन रखा (1928-1929)। उन्होंने बताया कि- पैन्सिलिन एक एंटीसेप्टिक दावा हो सकती है, जो पैन्सिलिन संवेदी जीवाणुओं को नष्ट करने में सक्षम है। उसके बाद परीक्षणों से पता चला कि पैन्सिलिन मनुष्य के लिये एक उपयोगी एन्टी बॉयोटिक बन गई। द्वितीय विश्व युद्ध के समय पैन्सिलिन ने घायल हुए सैनिकों में संक्रमण रोकने में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जिसके लिए इन्हें 1945 में चिकित्या का नोबेल पुरस्कार मिला। उपापचय Metabolism जीवों में उपापचय क्रिया होती है, जिसमें उपचय में रचनात्मक क्रियाएं तथा अपचय में अपघटन की क्रियाएं होती हैं। जीवन चक्र Life Cycle जीवधारियों में सभी जैविक क्रियाएं निश्चित समय पर होती हैं और एक निश्चित अन्तराल के पश्चात् वह नष्ट हो जाता है। जीवद्रव्य Protoplasm जीवधारियों में उपस्थित वास्तविक जीवित पदार्थ है। यह जीवों की भौतिक आधारशिला है। वृद्धि Growth जीवधारियों के आकृति, भार एवं आयतन में वृद्धि होती है। उत्सर्जन Excretion जीवधारियों द्वारा शरीर में उपस्थिति हानिकारक पदार्थों का उत्सर्जन होता है। [table id=204 /] [table id=205 /] सजीव और निर्जीव अगर किसी जीव प्राणी या पादप का रासायनिक तौर पर विश्लेषण किया जाए तो पता चलता है कि वह कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाईट्रोजन और अन्य तत्वों से बना हुआ है। लेकिन इन तत्वों के मिश्रण से कोई जीव नहीं बन जाता है। तो फिर जीवन को कैसे परिभाषित करें। वास्तव में जीव की एक सामान्य, व्यापक परिभाषा प्रस्तुत करना कठिन कार्य है। परन्तु हम कह सकते हैं कि जीवधारियों में निम्नलिखित लक्षण होने चाहिए- संगठन सभी जीवों का एक निर्धारित आकार और भौतिक व रासायनिक संगठन होता है, जो वह अपने जनकों से वंशागत के रूप में पाता है। यह सब बहुत ऊंचे दर्जे के संगठन के कारण संभव हो सका है। इन जीवों के अणु कोशिकाओं में संगठित होकर ऊतकों, अंगों, और अंग-तंत्र द्वारा व्यष्टि रचना करते हैं। इस प्रकार का जटिल संगठन निर्जीव वस्तुओं में नहीं होता। उपापचय हरे पादप अपना आहार पर्यावरण से जल, कार्बन डाईऑक्साइड और कुछ खनिजों के रूप में लेकर उन्हें प्रकाश संश्लेषण (फोटोसिन्थेसिस) को दौरान कार्बोहाइड्रेट संश्लेषित करते हैं। कार्बोहाइड्रेट श्वसन के दौरान टूट कर ऊर्जा निकालते हैं जो कि अन्य कार्बनिक पदार्थ, जैसे- प्रोटीन, लिपिड, न्यूक्लिक अम्ल आदि अपना आहार कार्बनिक पदार्थों से ग्रहण करते हैं और अपनी जरूरत के अनुसार पदार्थों का संश्लेषण करते हैं। ये अभिक्रियाएं, जिन्हें उपापचय कहते हैं, निर्जीव वस्तुओं में नहीं होती। वृद्धि और परिवर्धन जीव ज्यादातर एक कोशिका से बनते हैं। इस कोशिका के विभाजन और पुनविर्भाजन से ढेर सारी कोशिकाएं बनती हैं, जो शरीर के विभिन्न अंगों में विभेदित हो जाती हैं। इस तरह की क्रियाएं निर्जीवों में नहीं पायी जाती हैं। जनन निर्जीवों की तुलना में जीवधारी अलैंगिक अथवा लैंगिक जनन द्वारा अपना वंश बढाने की क्षमता द्वारा पहचाने जाते हैं। अनुक्रियता सभी जीव उद्दीपन के प्रति अनुक्रियाशील होते हैं जैसे जड़े धरती की तरफ मुड़ती हैं और तना सूर्य की तरफ, रंध्र (स्टोमेटा) दिन में खुलते हैं और रात्रि में बंद होते हैं व कुत्ता अपने मालिक को देख कर पूंछ हिलाता है। इस प्रकार की अनुक्रिया निर्जीवों में नहीं देखी जाती। अनुकूलन जीवों में अपने को पर्यावरण की आवश्यकता के अनुसार अनुकूलित करने की क्षमता होती है, जो उसे जीवित रहने में सहायता करती है। उदाहरण के लिए लवणीय मिट्टी में उगने वाले पादपों के शरीर में नमक की उच्च मात्रा होती है और रेगिस्तान में पैदा होने वाले पादपों में पट्टियां कम होती हैं और उनकी सतह पर मोम जैसी परत होती है। इसी तरह शीत जलवायु में रहने वाले प्राणियों के शरीर पर बालों की मोटी परत होती है और गिरगिट वातावरण के अनुसार अपने शरीर का रंग बदल सकते हैं। जीवधारियों का वर्गीकरण Classification of Organisms वस्तुओं को वर्गीकृत करने की इच्छा मनुष्य की मूल विशेषता है। इसलिए जब मनुष्य को काफी संख्या में पादप और प्राणियों की जानकारी हासिल हुई, तो उनकी वर्गीकृत करने की आवश्यकता पड़ी। और तो और, विभिन्न जगहों पर पादप और अलग-अलग नाम से जाने जाते थे जिससे उनको बारे में संदेश प्रसारण में कठिनाई होती थी। इस कारण एक ऐसे सिद्धांत की जरूरत थी, जिससे उनको एक ही नाम से पूरी दुनिया में पहचाना जा सके। हालांकि पहले काफी कोशिशें की जा चुकी थीं, पर प्रख्यात स्वीडिश प्राकृतिक वैज्ञानिक कैरोलस लिनियस के कार्य से एक वर्गीकरण व्यवस्था तैयार की गयी, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी किताब सिस्टेमा नैचुरे में किया और साथ ही में उन्होंने 1758 ई. में द्विपद नामपद्धति की संकल्पना सामने रखी। द्विपद नामपद्धति Binomial Nomenclature इस प्रणाली के अनुसार, हर जीवधारी के नाम में दो शब्द होते हैं। पहला पद है वंश (जैनरिक) नाम जो उसके संबंधित रूपों से साझा होता है और दूसरा पद है-एक विशिष्ट शब्द (जाति पद)। दोनों पदों के मिलने से जाति का नाम बनता है। शुरू में नाम लैटिन में दिए गए। जीवविज्ञान की वह शाखा, जो ज्ञात जीवों की पहचान, नामकरण, और वर्गीकरण से संबंधित है, उसे वर्गिकी कहते हैं। लेकिन लिनियस द्वारा दी गयी वर्गीकरण प्रणाली कृत्रिम थी, क्योंकि यह कुछ ही लक्षणों पर आधारित थी। इसलिए कोशिशें की गयी और अभी तक चल रही हैं कि प्रणाली ज्यादा प्राकृतिक और जातिवृत्तीय (फाइलोजनेटिक) हो। वर्गीकरण की प्रतिष्ठित प्रणाली जीवों को दो भागों में वर्गीकृत करती है- पादप और प्राणी। प्रणाली में, जीवाणु एक्टीनेमाइसेटीज और कवक पादप जगत में रखे गये हैं क्योंकि उनमें कोशिका भित्ति होती है, हालांकि वे काफी अलग हैं। वर्गीकरण विशेषज्ञों को कुछ वर्षों से लगा कि यह वर्गीकरण कृत्रिम और असंतोषजनक है। इसलिए उन्होंने इस अवधि में कोशिश की कि एक ऐसी प्रणाली बनाई जाए जो जातिवृत्तीय संबंधों के आधार पर हो। उन्होंने जीवों को पांच जगतों (किंगडम्स) में विभाजित किया: मोनरा Monera प्रोकरियोटिक कोशिका एवं अविकासित केन्द्रक पाया जाता है। इसमें – जीवाणु एवं नीलहरित शैवाल आते हैं। प्रॉटिस्टा Protista एक कोशिकीय जीव, विकसित जैसे – अमीबा। प्लान्टी Plantae बहुकोशीय पौधे-इनमें प्रकाश संश्लेषण होता है, कोशिकाओं में रिक्तिकाएं भी पायी जाती है। कवक Fungi यूकैरियोटिक, पर्णहरिम से रहित होते हैं, प्रकाश संश्लेषण नही होता है। एनिमेलिया Animalia बहुकोशिकीय एव यूकैरियोटिक जन्तु होते हैं। जन्तुओं का वर्गीकरण Classification of Animals जन्तुओं का मुख्य विभेद कशेरुक दण्ड के आधार पर अकशेरुकी (Inverterates) तथा कशेरुकी (Vertebrates) में किया गया है। इन्हें क्रमश: नॉन काडेंटा तथा कार्डेटा भी कहते हैं। वर्तमान में जन्तु जगत् का सर्वाधिक प्रचलित वर्गीकरण स्टोरर तथा यूसिंजर ने किया है जिनमें मुख्य का विवरण निम्न है:
ऐस्कैरिस द्वारा ऐस्कैरिएसिस रोग होता है। इसमें ऐंठन, भूख न लगना, चिर निद्रा, बेहोशी, अनिद्रा, उलटी अतिसार, दर्द एवं ज्वर होता है।
· मच्छर – मलेरिया, फाइलेरिया, डेगू ज्वर (दण्डक ज्वर) पीत ज्वर। · सैण्डफ्लाई – कालाजार, फोड़े का रोग। · खटमल – टाइफस, रिलैप्सिंग ज्वर, कोढ़। · जूं- टाइफस, ट्रेन्च ज्वर, रिलैप्सिंग ज्वर आदि।
मत्स्य वर्ग (Pisces) ये शीत रुधिर जलीय जन्तु है, जल में तैरने हेतु पंख पाये जाते हैं। गिल्स के द्वारा श्वसन क्रिया होती है। अंत: कंकाल अस्थियों तथा कुछ में उपास्थियों का बना होता है। ये समुद्री तथा मीठे जल, दोनों में पायी जाती हैं। इनमें विद्युत मछली (Tarpedo) शार्क, कुत्तामीन (Scoliodon), हाथीमीन (Chimaera) रोहू, कैटफिश, हिप्पोकैम्पस (Sea Horse) उड़न मछली (Flying Fish)। विद्युत् मछली (Torpedo) शत्रुओं से रक्षा हेतु 20–25 बोल्ट तक विद्युत पैदा करती है। अधिवर्ग टेट्रापोडा (Super Class Tetrapoda) इन्हें चतुष्पादी प्राणी भी कहते हैं। ये नियततापी तथा अनियतापी, दोनों प्रकार के होते है। कंकाल अस्थियों का बना होता है। हृदय अलिन्द एवं निलय में विभक्त होता है। इस को चार अधिवगों में बांटा गया है: जीव विज्ञान के कितने भाग होते हैं?जीव विज्ञान की शाखाएँ (Branches of Biology) – विज्ञान की शाखाओं ( Branches of Science ) में से एक जीव विज्ञान ( Biology ) है। इसकी दो उप-शाखायें जंतु विज्ञान ( Zoology ) और वनस्पति विज्ञान ( Botany ) हैं।
जीव विज्ञान के तीन भाग कौन से हैं?जीव विज्ञान की तीन मुख्य शाखाएं वनस्पति विज्ञान, प्राणी विज्ञान, सूक्ष्म जीव विज्ञान हैं।
साइंस कितने भागों में बंटा गया है?इसकी तीन मुख्य शाखाएँ हैं : भौतिकी, रसायन शास्त्र और जीव विज्ञान, समाजशास्त्र, इत्यादि शामिल हैं।
जीव विज्ञान कितने शब्दों से मिलकर बना है?Biology ग्रीक भाषा के दो शब्दों Bios तथा Logos से बना है, | जिसमें Bios का अर्थ है- Life (जीवन) तथा Logos का अर्थ है| Study (अध्ययन )। अध्ययन किया जाता है।
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