इतिहास के पुरातात्विक स्रोत क्या है? - itihaas ke puraataatvik srot kya hai?

इतिहास जानने के साधन के रूप में साहित्यिक स्रोत के साथ साथ पुरातात्विक स्रोत (Puratatvik srot) विशेष उल्लेखनीय है।

इतिहास के पुरातात्विक स्रोत क्या है? - itihaas ke puraataatvik srot kya hai?
पुरातात्विक अभिलेख

Contents

  • 1 पुरातात्विक स्रोत: Puratatvik srot
      • 1.0.1 महत्वपूर्ण लेेेख: अवश्य देखें
      • 1.0.2 मध्यकालीन भारत से संबंधित पोस्ट्स
        • 1.0.2.1 To The point पढ़ने के लिए देखें 👇
  • 2 पुरातत्व की परिभाषा:- (Puratatvik srot)
        • 2.0.0.1 पुरातत्व से संबंधित पोस्ट्स
  • 3 भारत में पुरातत्व का आरंभ:-
  • 4 अभिलेख:-
    • 4.1 i) स्तम्भ लेख :-
    • 4.2 ii)  शिलालेख:- (Puratatvik srot)
    • 4.3 iii) गुहालेख:-
      • 4.3.1 मूर्ति लेख:-
      • 4.3.2 प्राचीर अभिलेख:-
    • 4.4    स्मारक – Puratatvik srot
      • 4.4.1 अन्य पोस्ट- इन्हें भी देखें
      • 4.4.2 विश्व की सभ्यताएं की पोस्ट्स
    • 4.5               मुद्रा अथवा सिक्के : पुरातात्विक स्रोत
    • 4.6 भूमि अनुदान पत्र:-
    • 4.7 भूमि अनुदान पत्र

पुरातत्व वह विज्ञान है जिसके अंतर्गत अतीत के गर्भ में छिपी हुई सामग्रियों की खुदाई कर प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। भारत के गौरव शाली इतिहास के स्रोतो के रूपों में जहां एक ओर साहित्यिक स्रोत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है वहीं पुरातत्व भी कम नही है।
पुरातत्व एक अध्ययन की शाखा है। जिसमें हम अतीत की सामग्रियों (जैसे- पुरातात्विक अवशेष भावनावशेष ,  मंदिर , मृदभांड , मुद्राएं , स्तंभ आदि का ) अध्ययन कर इतिहास बोध , इतिहास प्रमाणन तथा इतिहास का पुनर्निर्माण भी करते हैं।“

पुरातत्व का सीधा संबंध उसी काल से है जिस काल मे ये बने या लिखे गए थे। फलतः ये उस समय के भारत की न केवल राजनैतिक अपितु सामाजिक, सांस्कृतिक व्याख्या भी करता है।
पुरातत्व उसी काल का है जिस काल के विषय में ये जानकारी देता है।
इसी कारण यह अधिक यथार्थ होता हैं। फलतः इसे प्राथमिक ऐतिहासिक स्रोत कहा जाता है। पुरातत्व दो भागों में इतिहास को प्रदर्शित करता है:-

1) प्रतिपादक के रूप में इतिहास की नई जानकारियां देता है।

उदाहरण:- समुद्रगुप्त कि दिग्विजय का वर्णन एक मात्र उसके प्रयाग स्तम्भ से ही विदित होता है। यदि ये स्तम्भ न होता तो हम भारतीय इतिहास के एक अतिमहत्वपूर्ण विषय से अनभिज्ञ रहते।

2) समर्थक के रूप में पुरातत्व ग्रन्थों से प्राप्त जानकारी को प्रमाणिक करता है।

उदाहरण:-  पतंजलि के महाभाष्य के कतिपय वाक्यों से यह ज्ञात होता है। कि पुष्यमित्र शुंग ने कोई यज्ञ किया था।परन्तु एक व्याकरण ग्रन्थ के एक  –  दो वाक्यों से इतना बड़ा निष्कर्ष निकलने में विद्वान संकोच कर रहे थे। परन्तु आयोध्या के अभिलेख ने उसे स्पष्ट स्वर में घोषित किया।
कि ” द्विर्श्वमेघ याजिनः सेनपतें पुसिमित्रस्य ” कि पुष्यमित्र शुंग ने दो अश्वमेध यज्ञ करवाये ।
जहा सहित्य मौन है वहाँ हमारी सहायता पुरातात्विक साक्ष्य (Puratatvik srot) करते हैं।

महत्वपूर्ण लेेेख: अवश्य देखें

मध्यकालीन भारत से संबंधित पोस्ट्स

● मध्यकालीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत

● इस्लाम धर्म का इतिहास

● अलबरूनी कौन था? संक्षिप्त जानकारी

● अरब आक्रमण से पूर्व भारत की स्थिति

● भारत पर अरबों का प्रथम सफल आक्रमण : (मुहम्मद बिन कासिम द्वारा)  [Part-1]

To The point पढ़ने के लिए देखें 👇

पुरातत्व की परिभाषा:- (Puratatvik srot)

पुरातत्व को हम विद्वानों द्वारा दी गई निम्न परिभाषाओं से समझ सकते हैं।

1. Archaeology may be simply defined as a systematic study of antiquities as a means of reconstructing the past.

2. Archaeology is the study of human activities through the recovery and analysis of material culture.

3. Larry  J-Zimmerman ,” Archaeology is the scientific study of the people of the past…… Their culture and relationship with their environment.”

4. क्रोफोर्ड के अनुसार, ” पुरातत्व विज्ञान की वह शाखा है जिसमे अतीत के गर्भ में विलुप्त मानव संस्कृतियों का अध्ययन किया जाता है।”

5. पुरातत्व इतिहास के पुनर्निर्माण के निमित्त पुरावशेषों का अध्ययन है।

6. पुरातत्व वह ज्ञान की शाखा है जिसके द्वारा पुरावशेषों का अध्ययन कर संस्कृति के क्रम का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।

7. गार्डन चाइल्ड के अनुसार– भौतिक अवशेषों के माध्यम से मानव के क्रियाकलापों का ज्ञान ही पुरातत्व है।

8. ग्राहम क्लार्क के अनुसार– मानव अतीत के पुनर्निर्माण के साधन के रूप में पुरावशेषों के क्रमबद्ध अध्ययन को पुरातत्व कहते हैं।

9. B. B. लाल के विचारानुसार:- पुरातत्व विज्ञान की वह शाखा है जो अतीत की मानव संस्कृतियों को व्याख्यायित करती है।

10. H. D. संकालिया के शब्दों में– पुरावशेषों का अध्ययन ही पुरातत्व है।

पुरातत्व से संबंधित पोस्ट्स

भारत में पुरातत्व का आरंभ:-

भारत में पुरातत्व संबंधी कार्य का आरंभ यूरोपियों ने किया किन्तु आज भारतीय भी कम नही रहे।  प्रसिद्ध प्राच्यविद् सर विलियम जोन्स ने ‘एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल’ (कलकत्ता) की स्थापना 1 जनवरी, 1784 ई. को की।

प्रारंभ में सोसायटी का कार्य भाषा एवं साहित्य तक सीमित था, किन्तु जल्दी ही इस सोसायटी ने पुरातत्व की ओर ध्यान दिया और पुरातत्व सामग्री भारी संख्या में एकत्र कर ली। किन्तु उनको पढ़ने की समस्या आन पड़ी। इसका निराकरण सोसायटी के एक मंत्री जेम्स प्रिंसेप (James Princep: 1799-1840) ने 1837 ई. में किया, जिसने पहली बार प्राचीनतम लिपि ब्राह्मी की व्याख्या की तथा अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफल हुआ।

श्रीलंका प्रशासनिक सेवा के अधिकारी जॉर्ज टर्नर (George Turnour : 1799-1842) ने पियदसि (प्रियदर्शी) का समीकरण प्राचीन बौद्ध साहित्य में उल्लिखित मौर्य सम्राट ‘अशोक’ के साथ करके अनुसंधान कार्य को आगे बढ़ाया । जेम्स प्रिंसेप को उनके व्याख्या-कार्य में सर एलेक्जेंडर कनिंघम ने बड़ी मदद की।

पुरातत्व संबंधी कार्यों के बढ़ने के कारण तत्कालीन सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण’ (Archaeological Survey of India-ASI), नई दिल्ली की स्थापना 1861 ई. में की और उसके पुरातत्व निरीक्षक के पद पर अलेक्जेंडर कनिंघम को पदस्थापित किया [गवर्नर जनरल व वायसराय लॉर्ड कैनिंग के शासनकाल में]।

पुरातत्व के क्षेत्र में अपने अमूल्य योगदान के लिए एलेक्जेंडर कनिंघम को ‘भारतीय पुरातत्व का जनक’ (The Father of Indian Archaeology)कहा जाता है। 

वर्ष 1885 ई. में कनिंघम के अवकाश ग्रहण के पश्चात पुरातत्व के इस महान कार्य को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रधान संचालक सर जॉन मार्शल ने आगे बढ़ाया।

अभिलेख:-

ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक के पूर्व भारत में अभिलेख उतीर्ण कराने की प्रथा प्रचलित न थीं।
कुछ विद्वानों ने बस्ती में प्राप्त पिपरहवा कलश लेख और अजमेर में प्राप्त बड़ली अभिलेख को पूर्व अशोक कालीन बताकर उपर्युक्त कथन को खंडित करने की चेष्टा की है।परंतु यदि हम इन दो अभिलेखों को पूर्व अशोक कालीन स्वीकार कर भी ले तो भी वे अपवाद के रूप में ही ग्रहण किए जा सकते हैं नियम के रूप में नहीं।
अशोक काल से ही ये परम्परा भारत में सम्यक रूप से प्रतिष्ठित हुई दिखाई पड़ती है। ये कई रूपों में मिलते हैं।

i) स्तम्भ लेख :-

भारत में स्तम्भ लेखन की परम्परा अति प्राचीन है। हड़प्पा सभ्यता में भी स्तम्भों के साक्ष्य मिले हैं।किंतु उस पर कुछ लिखा नहीं गया है।कालांतर में इस पर लेख लिखने भी शुरू हो गए। स्तम्भ लेखो में जैन धर्मावलंबियों के डीप स्तम्भ वैष्णवों के गरुणध्वज स्तम्भ, शूरकर्मा नरेशों( राजपूतों) के कीर्ति स्तम्भ/ विजय स्तम्भ/ रण स्तम्भ स्थापित किये।तथा हेलियोडोरस का विदिशा स्तम्भ लेख, समुद्रगुप्त का स्तम्भ लेख ,चन्द्रगुप्त का मेहरौली स्तम्भ लेख, और स्कन्दगुप्त का भीतरी स्तम्भ लेख उलेखनीय है। जिसमें तत्कालीन भारत तथा उनके राजवंशों की तथा उनके विजयों की जानकारी मिलती है।

ii)  शिलालेख:- (Puratatvik srot)

पहाड़ियों को काटकर उनके बीच समतल शिलाओं के ऊपर अथवा कृतिम पत्थरों पर लिखवाये गये लेख को शिलालेख कहते हैं। जैसे:-  सर्वप्रथम अशोक के शिला लेख, खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख, पुष्यमित्र शुंग का अयोध्या अभिलेख आदि प्रमुख है।

iii) गुहालेख:-

गुहालेखों में भी अनेक इतिहास सामग्री भरी है। इनमें अशोक के बराबर गुहालेख, दशरथ का नागार्जुनी गुहालेख, सातवाहनों का नासिक, नानाघाट, कार्ले गुहालेख उल्लेखनीय है।
ये गुहालेख भिक्षुओं, साधु – संतो  के लिए बनाये गये थे।
इन सभी प्रकार के लेखो के अतिरिक्त मूर्तिलेख, प्राचीर अभिलेख पर लिखवाये गये पात्र अभिलेख, ताम्रपात्र अभिलेख, मुद्राभिलेख आदि पाये गये है जो हमें तत्कालीन परिस्थितियों और घटित घटनाओं की यथार्थ जानकारी देते हैं।
प्राचीर अभिलेखों में से एक भरहुत स्तूप के प्रकार पर ” सुगन रजे ” लिखा होने से यह स्पष्ट होता है कि वह शुंग राजाओं के समय में निर्मित हुआ था।


पात्र अभिलेख सिन्धु सभ्यता से बहुतायत में मिले हैं परन्तु अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।
जब कोई राजा किसी को जमीन- जायदाद आदि का दान कर देता था। तो उसे ताम्रपत्रों का उत्कीर्ण कर उस व्यक्ति को प्रमाणपत्र के रूप में दे देता था। यह गुप्त काल के इतिहास लेखन में काफी मदद करता था।

मूर्ति लेख:-

विभिन्न स्थानों पर स्थापित अथवा उत्कीर्ण मूर्तियों शीर्ष-भाग अथवा अधोभाग पर कभी-कभी कुछ लेख भी मिल जाते हैं। भारतवर्ष के विभिन्न संग्रहालयों में संरक्षित मूर्तियों पर इस प्रकार के लेख आज भी देखे जा सकते हैं।

प्राचीर अभिलेख:-

बहुधा प्राचीन मन्दिरों और स्तूपों के चतुर्दिक प्राकार (चहार-दीवारी) निर्मित कर दी जाती थी। इन प्राचीरों पर भी कभी-कभी अभिलेख पाये गए हैं। उदाहरणार्थ, भरहुत स्तूप के प्राकार पर ‘सुगनं रजे’लिखा हुआ है। इस अभिलेख से पता हो जाता है कि उस स्तूप का वह प्रकार शुंग राजाओं के समय मे निर्मित हुआ था।

   स्मारक – Puratatvik srot

इतिहास निर्माण में भारतीय स्थापत्यकार, मूर्तिकार , वस्तुकार और चित्रकार किसी भी प्रकार लेखन से कम महत्वपूर्ण नहीं सिद्ध हुये। स्मारक के अंतर्गत प्राचीन इमारतें, मंदिर, मूर्तियां, आदि आती हैं।
इनसे विभिन्न युगों की सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का ज्ञान होता है। जैसे पाटिलीपुत्र की खुदाई में चन्द्रगुप्त मौर्य के लकडी के राजप्रासाद के ध्वंसावशेषों को देख कर यह अनुमान लगता है कि उस नरेश के पूर्व भारत वर्ष के वास्तु और स्थापत्य में लकड़ी का प्रयोग हुआ है।
मन्दिरों, विहारों, स्तूपों से जनता की आध्यामिकता तथा धर्मनिष्ठा का पता चलता है।
देवगढ़( झाँसी) का मंदिर, भितर गाँव का मंदिर, अजन्ता की गुफाओं का चित्र,नालून्दा की बुद्ध ताम्रमूर्ति आदि से हिंदू कला और सभ्यता के पर्याप्त विकसित होने के प्रमाण मिलते हैं।
प्राचीन काल की कलाकृतियां अपने निर्माताओं के धार्मिक विचारों को विकसित करती है। उदहारण:- सिंधुप्रदेश में प्राप्त पशुपति शिव की मूर्तियाँ तत्कालीन समाज में प्रचलित शैव पूजा को घोषित करती है।
गुप्त काल की वैष्णव, शैव, बौद्ध और जैन मूर्तियां तत्कालीन धार्मिक सहिष्णुता को विदित करती है।

अन्य पोस्ट- इन्हें भी देखें

              मुद्रा अथवा सिक्के : पुरातात्विक स्रोत

मुद्राओं में भी इतिहास का ज्ञान कराने में बड़ी सहायता की है। मुद्राओं का भी प्राचीन भारतीय इतिहास के पुरातात्विक स्रोत के रूप में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। 206 BC.-300AD. तक की भारतीय इतिहास का ज्ञान हमें मुख्यतः मुद्राओं से ही प्राप्त होता है।
प्राचीनतम सिक्कों को आहत सिक्के (punch – marked coins) कहा जाता है। सिक्कों से हमें निन्म प्रकार मदद मिलती है।
1) मुद्रायें इतिहास में राजाओं के वंश वृक्ष, उनके महनीय कार्य उनके शासन काल तथा उनके सामाजिक व राजनैतिक एवं धार्मिक विचार आदि की प्रामाणिक जानकारियां देती है।

2) मुद्राओ में अंकित विशेष चित्र उस काल की किसी विशेष घटना को दर्शाते हैं।
उदाहरण:- समुद्रगुप्त की कुछ मुद्राओ पर अश्व औऱ यूप के चित्र तथा “अश्वमेध पराक्रमः” लिखा होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस कोटि की मुद्राएँ समुद्रगुप्त के “अश्वमेध” के उपलब्ध में बनायीं गयी थी। इसीप्रकार चन्द्रगुप्त2nd  की व्याघ्र अंकित मुद्राएं कदाचित उसकी पश्चिमी भारत ( गुजरात- काठियावाड़) के शको की विजय को सूचित करती है।क्योंकि व्याघ्रपश्चिमी भारत के वनों में पाए जाते हैं।

3) कुछ मुद्राएं राजा की व्यक्तिगत अभिरुचि को भी प्रदर्शित करती है। जैसे:- कनिष्क की मुद्राओ में हमें उसके बौद्ध धर्म के अनुवक्षि होने की जानकारी मिलती है।
तथा समुद्रगुप्त की विनांकित मुद्राएं उसके संगीत प्रेम को दर्शाती है।

4) कभी – कभी मुद्राओं पर दो नाम मिलते हैं। ये बहुदा विजित और विजेता नरेशो के होते हैं।उदाहरण:- जोगलथम्बी भांड में बहुत सी ऐसी मुद्राएं मिली है। जिनमें नहयान के नाम के साथ – साथ गौतमीपुत्र सातकर्णी का नाम है। इनसे प्रकट होता है कि गौतमीपुत्र सातकर्णी ने नहयान को पराजित कर के उसके पश्चिमी भारत का राज्य छीन लिया।

5) शक क्षत्रपों की मुद्राओं पर भी बहुधा दो नाम मिलते हैं। ये नाम प्रधान शासक और उसके सहयोगी युवराज के होते हैं।

6) पृथ्वी के निचे गढे हुये मृदभांड बहुधा अशान्ति काल की घोषणा करते हैं।

7) कभी-  कभी मुद्रा प्राप्ति के साक्ष्य से राज्यों की सीमाएं भी निर्धारित की जाती है। परन्तु इस विषय में सावधानी बरतनी पड़ती है। क्योंकि कभी-  कभी मुद्राएँ व्यापारियों और यात्रियों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंच जाती है।

8) मुद्राओं की धातु राज्य की समृद्धता व असमृद्धता की ओर संकेत करती है।उदहारण:- स्कन्दगुप्त की मुद्राओं में मिश्रित स्वर्ण मिलता है। स्वाभाविक ही था विदेशी आक्रमण और आंतरिक अशांति के कारण राज्य की आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी।

9) एक ही राज्य की बहुसंख्यक मुद्राएं उसके दिर्घ कालीन एवं समृद्ध शाली शासन की ओर तथा इसके विरुद्ध अल्पसंख्यक मुद्रायें इसके अल्पकालीन अथवा संकटपूर्ण शासन का संकेत करती है।

भूमि अनुदान पत्र:-

इतिहास के पुरातात्विक स्रोत क्या है? - itihaas ke puraataatvik srot kya hai?

भूमि अनुदान पत्र

प्राचीन भारत में भूमि व्यवस्था और प्रशासन सम्बन्धी अध्ययन के लिए मुख्य रूप से उस दौर के प्रमुखों और राजकुमारों द्वारा बनाए गए भूमि अनुदानों के दस्तावेज़ पुरातात्विक स्रोत (Puratatvik strot) के रूप में बड़े महत्वपूर्ण हैं। ये ज्यादातर तांबे की बनी पर्चेनुमा चद्दरों पर उत्कीर्ण थे और उन्हें भूमि के साथ दान लेने वाले को दिया जाता था ताकि ये अधिकार पत्र की आवश्यकता को पूरा करें। वे भिक्षुओं, पुजारियों, मन्दिरों, मठों, जागीरदारों और अधिकारियों को अनुदान स्वरूप प्रदत्त भूमि, राजस्व और गाँवों के दस्तावेज़ हैं।  ये अनुदान पत्र राजाओं और सामंतो द्वारा भिक्षुकों, ब्राम्हणो, मंदिरों मठों, विहारों अधिकारियों आदि को अनुदान के रूप में दिए गए गांवो, भूमि क्षत्रों व राजस्व सम्बंधित जानकारी होते थे।  वे सभी भाषाओं में लिखे गए थे, जिनमें प्राकृत, संस्कृत, तमिल और तेलुगु शामिल थे। फाह्यान लिखता है कि उसने बहुत से बौद्ध मठों में ऐसे ताम्रपत्र पाए जिनमें भूमि अनुदान का उल्लेख था।

धन्यवाद🙏 
आकाश प्रजापति
(कृष्णा) 
ग्राम व पोस्ट किलाहनापुर, कुण्डा प्रतापगढ़
छात्र:  प्राचीन इतिहास कला संस्कृति व पुरातत्व विभाग, कलास्नातक द्वितीय वर्ष, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय

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इतिहास के पुरातात्विक स्रोत क्या हैं?

रामशरण शर्मा द्वारा इन स्रोतों को - भौतिक अवशेष, अभिलेख, मुद्राएँ, साहित्यिक स्रोत, विदेशी विवरण, ग्राम्य अध्ययन, और प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन से प्राप्त जानकारी के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

पुरातात्विक स्रोत कितने हैं?

FAQ: पुरातात्विक स्रोत/ Puratatvik srot Ans. प्राचीन काल को उद्घाटित करने वाले भौतिक स्रोत जिनमें मुहरें, भवन तथा स्मारक, अभिलेख,नगर, सिक्के, मूर्तियाँ, चित्र, गुहा स्थापत्य आदि को शामिल किया जाता है।

इतिहास के कितने स्रोत होते हैं?

(i) पुरातात्विक स्त्रोत (Archaeological Sources).
अभिलेख (Inscriptions) ... .
सिक्के (Coins) ... .
प्राचीन भारत की जानकारी के लिए अन्य उपयोगी पुरातात्विक स्त्रोत ... .
(ii) साहित्यिक स्त्रोत ... .
1-धार्मिक साहित्य ... .
हिन्दू धर्म से सम्बंधित साहित्य ... .
वेद ... .
ब्राह्मण.

इतिहास के पांच स्रोत क्या हैं?

अतीत को जानने के साधनों में साहित्य एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है। जिसे पढ़कर हमें अतीत की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति का ज्ञान होता है। राजस्थान के इतिहास देने वाला साहित्य सभी भाषाओं में उपलब्ध है किंतु हम यहाँ केवल राजस्थानी साहित्य की चर्चा करेंगे।