गुरु चाटी जो भाग्य में कौन सा अलंकार है? - guru chaatee jo bhaagy mein kaun sa alankaar hai?

गुरु चींटी जो पाऊंगी, में कौन सा अलंकार है?...


गुरु चाटी जो भाग्य में कौन सा अलंकार है? - guru chaatee jo bhaagy mein kaun sa alankaar hai?

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नमस्कार आपका प्रश्न है गुरु चाटे जो फागी में कौन सा अलंकार है तो यह सूरदास जी की पंक्तियां हैं इसमें उपमा अलंकार है क्योंकि इसमें गोपियों ने अपने आप को गुड में लिपटी चीटियों के समान बताया है अतः यहां उपमा अलंकार है

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गुरु चाटी जो भाग्य में कौन सा अलंकार है? - guru chaatee jo bhaagy mein kaun sa alankaar hai?

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निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिये:
       ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।

पद में किन अलंकारों का प्रयोग किया गया है?


अनुप्रास-
• नाहिन मन अनुरागी
• पुरइनि पात रहत
• ज्यौं जल।
उपमा- • गुर चाँटी ज्यौं पागी।
रूपक- • अपरस रहत सनेह तगा तैं
• प्रीति- नदी मैं पार्ट न बोरयौ।
उदाहरण- • ज्यौं जल माई तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
दृष्टात- • पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।

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संकलित पदों को ध्यान में रखते हुए सूर के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ बताइए?


सूरदास के द्वारा रचित ‘भ्रमरगीत’ हिंदी-साहित्य के सबसे अधिक भावपूर्ण उलाहनों के रूप में प्रकट किया जाने वाला काव्य है। यह काव्य मानव हृदय की सरस और मार्मिक अभिव्यक्ति है। इसमें प्रेम का सच्चा, भव्य और सात्विक पक्ष प्रस्तुत हुआ है। कवि ने कृष्ण और गोपियों के हृदय की गहराइयों को अनेक ढंगों से परखा है। संकलित पदों के आधार पर भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएं निन्नलिखित हैं-

1. गोपियों का एकनिष्ठ प्रेम-गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति एकनिष्ठ गहरा प्रेम था। वे उन्हें पलभर भी भुला नहीं पाती थीं। उन्हें लगता था कि श्रीकृष्ण ही उनके जीवन के आधार थे जिनके बिना वे पलभर जीवित नहीं रह सकती थीं। वे तो उनके लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान थे जो उन्हें जीने के लिए मानसिक सहारा देने वाले थे।

हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम वचन नंद नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।

गोपियां तो सोते-जागते श्रीकृष्ण की ओर अपना ध्यान लगाए रहती थीं। उन्हें लगता था कि उनका हृदय तो उनके पास था ही नहीं। उसे तो श्रीकृष्ण चुरा कर ले गए थे। इसलिए वे अपने मन को योग की तरफ लगा ही नहीं सकती थी।

2. वियोग शृंगार- गोपियां हर समय श्रीकृष्ण के वियोग में तड़पती रहती थीं। वे उनकी सुंदर छवि को अपने मन से दूर कर ही नहीं पाती थीं। श्रीकृष्ण मथुरा चले गए थे पर गोपियां तो रात-दिन उन्हीं की यादों में डूब कर उन्हें ही रटती रहती थीं-
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।

वे अपने हृदय की वियोग पीड़ा को अपने मन में ही छिपा कर रखना चाहती थीं। वे अपनी पीड़ा को दूसरों के सामने कहना भी नहीं चाहती थीं। उन्हें पूरा विश्वास था कि वे कभी-न-कभी अवश्य वापिस आएंगे। उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रेम के कारण अपने जीवन में मर्यादाओं की भी परवाह नहीं की थी।

3. व्यंग्यात्मकता-गोपियां चाहे श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं पर उन्हें सदा यही लगता था कि श्रीकृष्ण ने उनसे चालाकी की थी; उन्हें धोखा दिया था। वे मधुरा में रहकर उनसे चालाकियां कर रहे थे; राजनीति के खेल से उन्हें मूर्ख बना रहे थे। इसलिए व्यंग्य करते हुए वे कहती हैं-

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।

उद्धव पर व्यंग्य करते हुए उसे ‘बड़भागी’ कहती हैं जो प्रेम के स्वरूप श्रीकृष्ण के निकट रह कर भी प्रेम से दूर रहा। उसने कभी प्रेम की नदी में अपने पैर तक डुबोने का प्रयत्न नहीं किया। वे श्रीकृष्ण को बड़ी बुद्धि वाला मानती हैं जिन्होंने उन्हें योग का पाठ भिजवाया था।

4. स्पष्टवादिता- गोपियां समय-समय पर अपनी स्पष्टवादिता से प्रभावित करती हैं। वे योग-साधना को ‘व्याधि’ कहती हैं जिसके बारे में कभी देखा या सुना ही न गया हो। योग तो केवल उनके लिए ही उपयोगी हो सकता था जिन के मन में चकरी हो; जो अस्थिर और चंचल हों।

5. भावुकता- गोपियां स्वभाव से ही भावुक और सरल हृदय वाली थीं। उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रेम किया था और उसी प्रेम में डूबी रहना चाहती थीं। वे उसी प्रेम में मर-मिटना चाहती थीं जिस प्रकार चींटी गुड से चिपट जाती है तो वह भी उससे अलग न हो कर अपना जीवन ही गवा देना चाहती है। भावुक होने के कारण ही वे योग के संदेशों को सुनकर दुःखी हो जाती हैं। अधिक भावुकता ही उनकी पीड़ा का बड़ा कारण बनती है।

6. सहज ज्ञान- गोपियां चाहे गाँव में रहती थीं पर उन्हें अपने वातावरण और समाज का पूरा ज्ञान था। वे जानती थीं कि राजा के अपनी प्रजा के लिए क्या कर्त्तव्य थे और उसे क्या करना चाहिए था-

ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।

7. संगीतात्मकता- सूरदास के भ्रमरगीत संगीतमय हैं। कवि ने विभिन्न राग-रागिनियों को ध्यान में रखकर भ्रमरगीतों की रचना की है। उन सब में गेयता है जिस कारण सूरदास के भ्रमर गीतों का साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान हैं।

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गोपियों ने उद्धव के सामने तरह-तरह के तर्क दिए हैं, आप अपनी कल्पना से और तर्क दीजिए।


गोपियां श्रीकृष्ण से अपार प्रेम करती थीं। उन्हें लगता था कि श्रीकृष्ण के बिना वे रह ही नहीं सकती थीं। जब श्रीकृष्ण ने उद्धव के द्वारा उन्हें योग-साधना का उपदेश भिजवा दिया था तब गोपियों का विरही मन इसे सहन नहीं कर पाया था और उन्होंने उद्धव के सामने तरह-तरह के तर्क दिए थे।
यदि हमें गोपियों की जगह तर्क देने होते तो हम उद्धव से पूछते कि श्रीकृष्ण ने उनसे प्रेम करके फिर उन्हें योग की शिक्षा देने का कपट क्यों किया? उन्होंने मधुरा में रहने वाली कुब्जा आदि को निर्गुण ब्रह्म का संदेश क्यों नहीं दिया? प्रेम सदा दो पक्षों में होता है। यदि गोपियों ने प्रेम की पीड़ा झेली थी तो श्रीकृष्ण ने उस पीड़ा का अनुभव क्यों नहीं किया? यदि पीड़ा का अनुभव किया था तो वे स्वयं ही योग-साधना क्यों नहीं करने लगे थे? यदि गोपियों के भाग्य में वियोग की पीड़ा लिखी थी तो श्रीकृष्ण ने उन के भाग्य को बदलने के लिए उद्धव को वहाँ क्यों भेजा? किसी का भाग्य बदलने का अधिकार तो किसी के पास नहीं है। यदि श्रीकृष्ण ने गोपियों को योग-साधना का संदेश भिजवाया था तो अन्य सभी ब्रजवासियों, यशोदा माता, नंद बाबा आदि को भी वैसा ही संदेश क्यों नहीं भिजवाया? वे सब भी तो श्रीकृष्ण से प्रेम करते थे।

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गोपियों ने यह क्यों कहा कि हरि अब राजनीति पढ़ आए हैं? क्या आपको गोपियों के इस कथन का विस्तार समकालीन राजनीति में नज़र आता है, स्पष्ट कीजिए।


गोपियों ने सोच-विचार कर ही यह कहा था कि अब हीर राजनीति पढ़ गए थे। राजनीति मनुष्य को दोहरी चालें चलना सिखाती है। श्रीकृष्ण गोपियों से प्रेम करते थे और प्रेम सदा सीधी राह पर चलता है। जब वे मधुरा चले गए थे तो उन्होंने गोपियों को योग का संदेश उद्धव के माध्यम से भिजवा दिया था। कृष्ण के इस दोहरे आचरण के कारण ही गोपियों को कहना पड़ा था कि हरि अब राजनीति पढ़ आए हैं। गोपियों का यह कथन आज की राजनीति में साफ -साफ दिखाई देता है। नेता जनता से कुछ कहते हैं और स्वयं कुछ और करते हैं। वे धर्म और राजनीति, अपराध और राजनीति, शिक्षा और राजनीति, अर्थव्यवस्था और राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में दोहरी चालें चलते हैं और जनता को मूर्ख बनाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं। उनकी करनी-कथनी में सदा अंतर दिखाई देता है।

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गोपियों ने अपने वाक्‌चातुर्य के आधार पर ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया, उनके वाक्‌चातुर्य की विशेषताएँ लिखिए?


सूरदास के भ्रमर गीत। में गोपियाँ श्रीकृष्ण की याद में केवल रोती - तड़पती ही नहीं बल्कि उद्‌धव को उसका अनुभव कराने के लिए मुस्कराती भी थीं। वे उद्धव और कृष्ण को कोसती थीं और व्यंग्य भी करती थीं। उद्धव को अपने निर्गुण ज्ञान पर बड़ा अभिमान था पर गोपियों ने अपने वाक्‌चातुर्य के आधार पर उसे परास्त कर दिया था। वे तर्कों, उलाहनों और व्यंग्यपूर्ण उक्तियों से कभी तो अपने हृदय की वेदना को प्रकट करती थीं, कभी रोने लगती थीं उनका वाक्‌चातुर्य अनूठा था जिसमें निम्नलिखित विशेषताएं प्रमुख थीं-

(क) निर्भीकता- गोपियां अपनी बात कहने में पूर्ण रूप से निडर और निर्भीक थीं। वे किसी भी बात को कहने में झिझकती नहीं हैं। योग-साधना को ‘कड़वी ककड़ी’ और ‘व्याधि’ कहना उनकी निर्भीकता का परिचायक है-

सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ व्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।

(ख) व्यंग्यात्मकता-गोपियों का वाणी में छिपा हुआ व्यंग्य बहुत प्रभावशाली है। उद्धव को मजाक करते हुए उसे ‘बड़भागी’ कहती हैं क्योंकि श्रीकृष्ण के निकट रह कर भी वह उनके प्रेम से दूर ही रहा-

प्रीति-नदी मैं पाऊँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
व्यंग्य का सहारा लेकर वे श्रीकृष्ण को राजनीति शास्त्र का ज्ञाता मानती हैं-

इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बड़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेश पठाए।

(ग) स्पष्टता-गोपियों को अपनी बात साफ-साफ शब्दों में कहनी आती है। वे बात को यदि घुमा-फिरा कर कहना जानती हैं तो उसे साफ-स्पष्ट रूप में कहना भी उन्हें आता है-

अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए।

वे साफ-स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करती हैं कि वे सोते-जागते केवल श्रीकृष्ण का नाम रटती रहती हैं-
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जकरी।
पर वे क्या करें? वे अपने मुँह से अपने प्रेम का वर्णन नहीं करना चाहतीं। उनकी बात तो उनके हृदय में ही अनकही रह गई है।

मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।

(घ) भावुकता और सहृदयता
गोपियां भावुकता और सहृदयता से परिपूर्ण हैं जो उनकी बातों से सहज ही प्रकट हो जाती हैं। जब उनकी भावुकता बढ़ जाती है तब वे अपने हृदय की वेदना पर नियंत्रण नहीं पा सकतीं। उन्हें जिस पर सबसे अधिक विश्वास था, जिसके कारण उन्होंने सामाजिक और पारिवारिक मर्यादाओं की भी परवाह नहीं की थी जब वही उन्हें दुःख देने के लिए तैयार था तब बेचारी गोपिया क्या कर सकती थीं-

अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनी  सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।।

सहृदयता के कारण ही वे श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार मानती हैं। वे तो स्वयं को मन-वचन-कर्म से श्री कृष्ण का ही मानती थीं-
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम वचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।

वास्तव में गोपियां सहृदय और भावुक थीं। समय और परिस्थितियों ने उन्हें चतुर और वाग्विदग्ध बना दिया था। वाक्‌चातुर्य के आधार पर ही उन्होंने ज्ञानवान् उद्‌धव को परास्त कर दिया था।

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उद्धव ज्ञानी थे, नीति की बातें जानते थे; गोपियों के पास ऐसी कौन-सी शक्ति थी जो उनके वाक्‌चातुर्य में मुखरित हो उठी?


किसी भी मनुष्य के पास सबसे बड़ी शक्ति उसके मन की होती है; मन में उत्पन्न प्रेम के भाव और सत्य की होती है। गोपियां श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं। उन्होंने अपने प्रेम के लिए सभी प्रकार की मान-मर्यादाओं की परवाह करनी छोड़ दी थी। जब उन्हें उद्धव के द्वारा श्रीकृष्ण का योग-साधना का संदेश दिया गया तो उन्हें अपने प्रेम पर लगी ठेस का अनुभव हुआ। उन्हें वह झेलना पड़ा था जिस की उन्होंने कभी उम्मीद भी नहीं की थी। उनके विश्वास को गहरा झटका लगा था जिस कारण उनकी आहत भावनाएं फूट पड़ी थीं। उद्धव चाहे ज्ञानी थे, नीति की बातें जानते थे पर वे गोपियों के हृदय में छिपे प्रेम, विश्वास और आत्मिक बल का सामना नहीं कर पाए थे। गोपियों के वाक्‌चातुर्य के सामने किसी भी प्रकार टिक नहीं पाए थे।

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Answer: सूरदास अवला हम भोरी,गुर चांटी ज्यों पागी" में उपमा अलंकार है।

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