हमारे हरि हारिल की लकरी Show
हमारे हरि हारिल की लकरी। मन बच क्रम नंदनंद सों उर यह दृढ़ करि पकरी॥ जागत, सोबत, सपने सौंतुख कान्ह-कान्ह जक री। सुनतहि जोग लगत ऐसो अति! ज्यों करुई ककरी॥ सोई व्याधि हमें लै आए देखी सुनी न करी। यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी॥ गोपियाँ कहती हैं हे उद्धव, हमारे लिए तो श्रीकृष्ण हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जैसे हारिल पक्षी जीते जी अपने चंगुल से उस लकड़ी को नहीं छोड़ता ठीक उसी प्रकार हमारे हृदय ने मनसा, वाचा और कर्मणा श्रीकृष्ण को दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया है (यह संकल्प मन, वाणी और कर्म तीनों से है) अतः सोते समय, स्वप्न में तथा प्रत्यक्ष स्थिति में हमारा मन ‘कान्ह’ ‘कान्ह’ की रट लगाया करता है। तुम्हारे योग को सुनने पर हमें ऐसा लगता है जैसे कड़वी ककड़ी। तुम तो हमें वही निर्गुण ब्रह्मोपासना या योग-साधना का रोग देने के लिए यहाँ चले आए। जिसे न कभी देखा और न जिसके बारे में कभी सुना और न कभी इसका अनुभव किया। इस ब्रह्योपासना या योग-साधना का उपदेश तो उसे दीजिए जिसका मन चंचल हो। हम लोगों को इसकी क्या आवश्यकता—हम लोगों का चित्त तो श्रीकृष्ण के प्रेम में पहले ही से दृढतापूर्वक आबद्ध है। स्रोत :
यह पाठ नीचे दिए गये संग्रह में भी शामिल हैAdditional information availableClick on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher. Don’t remind me again OKAY rare Unpublished contentThis ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left. Don’t remind me again OKAY निम्नलिखित पद्यांश को पढ़कर सप्रसंग सहित व्याख्या कीजिये: प्रसंग- प्रस्तुत पद हमारी पाठ्य -पुस्तक में संकलित सूरदास के पदों से लिया गया है। गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति अपार प्रेम था। श्रीकृष्ण को जब मधुरा जाना पड़ा था तब उन्होंने अपने सखा उद्धव के निर्गुण ज्ञान पर सगुण भक्ति की विजय के लिए उन्हें गोपियों के पास भेजा था। गोपियों ने उद्धव के निर्गुण ज्ञान को सुन कर अस्वीकार कर दिया था और स्पष्ट किया था कि उन का प्रेम तो केवल श्रीकृष्ण के लिए ही था। उन का प्रेम अस्थिर नहीं था। व्याख्या- श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम की दृढ़ता को प्रकट करते हुए गोपियों ने उद्धव से कहा कि श्रीकृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं। अर्थात् जैसे हारिल पक्षी सदा अपने पंजों में लकड़ी पकड़े रहता है वैसे हम भी सदा श्रीकृष्ण का ध्यान करती रहती हैं। हमने मन, वचन और कर्म से नंद के नंदन श्रीकृष्ण के रूप और उनकी स्मृति को अपने मन द्वारा कस कर पकड़ लिया है। अब कोई भी उसे हम से छुड़ा नहीं सकता। हमारा मन जागते, सोते, स्वप्न या प्रत्यक्ष में सदा कृष्ण-कृष्ण की रट लगाए रहता है, सदा उन्हीं का स्मरण करता रहता है। हे- उद्धव। तुम्हारी योग की बातें सुनते ही हमें ऐसा लगता है मानों कडवी ककड़ी खा ली हो। अर्थात् तुम्हारी योग की बातें हमें बिल्कुल अरुचिकर लगती हैं। तुम तो हमारे लिए योग रूपी ऐसी बीमारी ले कर आए हो जिसे हमने न तो कभी देखा, न सुना और न कभी भुगता ही है। हम तो तुम्हारी योग रूपी बीमारी से पूरी तरह अपरिचित हैं। तुम इस बीमारी को उन लोगों को जाकर दे दो जिन के मन सदा चकई के समान चंचल रहते हैं। भाव है कि हमारा मन तो श्रीकृष्ण के प्रेम में दृढ़ और स्थिर है। जिनका मन चंचल है वही योग की बातें स्वीकार कर सकते हैं। 706 Views गोपियों ने यह क्यों कहा कि हरि अब राजनीति पढ़ आए हैं? क्या आपको गोपियों के इस कथन का विस्तार समकालीन राजनीति में नज़र आता है, स्पष्ट कीजिए। गोपियों ने सोच-विचार कर ही यह कहा था कि अब हीर राजनीति पढ़ गए थे। राजनीति मनुष्य को दोहरी चालें चलना सिखाती है। श्रीकृष्ण गोपियों से प्रेम करते थे और प्रेम सदा सीधी राह पर चलता है। जब वे मधुरा चले गए थे तो उन्होंने गोपियों को योग का संदेश उद्धव के माध्यम से भिजवा दिया था। कृष्ण के इस दोहरे आचरण के कारण ही गोपियों को कहना पड़ा था कि हरि अब राजनीति पढ़ आए हैं। गोपियों का यह कथन आज की राजनीति में साफ -साफ दिखाई देता है। नेता जनता से कुछ कहते हैं और स्वयं कुछ और करते हैं। वे धर्म और राजनीति, अपराध और राजनीति, शिक्षा और राजनीति, अर्थव्यवस्था और राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में दोहरी चालें चलते हैं और जनता को मूर्ख बनाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करते हैं। उनकी करनी-कथनी में सदा अंतर दिखाई देता है। 333 Views गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य के आधार पर ज्ञानी उद्धव को परास्त कर दिया, उनके वाक्चातुर्य की विशेषताएँ लिखिए? सूरदास के भ्रमर गीत। में गोपियाँ श्रीकृष्ण की याद में केवल रोती - तड़पती ही नहीं बल्कि उद्धव को उसका अनुभव कराने के लिए मुस्कराती भी थीं। वे उद्धव और कृष्ण को कोसती थीं और व्यंग्य भी करती थीं। उद्धव को अपने निर्गुण ज्ञान पर बड़ा अभिमान था पर गोपियों ने अपने वाक्चातुर्य के आधार पर उसे परास्त कर दिया था। वे तर्कों, उलाहनों और व्यंग्यपूर्ण उक्तियों से कभी तो अपने हृदय की वेदना को प्रकट करती थीं, कभी रोने लगती थीं उनका वाक्चातुर्य अनूठा था जिसमें निम्नलिखित विशेषताएं प्रमुख थीं- (क) निर्भीकता- गोपियां अपनी बात कहने में पूर्ण रूप से निडर और निर्भीक थीं। वे किसी भी बात को कहने में झिझकती नहीं हैं। योग-साधना को ‘कड़वी ककड़ी’ और ‘व्याधि’ कहना उनकी निर्भीकता का परिचायक है- सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी। (ख) व्यंग्यात्मकता-गोपियों का वाणी में छिपा हुआ व्यंग्य बहुत प्रभावशाली है। उद्धव को मजाक करते हुए उसे ‘बड़भागी’ कहती हैं क्योंकि श्रीकृष्ण के निकट रह कर भी वह उनके प्रेम से दूर ही रहा- प्रीति-नदी मैं पाऊँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी। इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए। (ग) स्पष्टता-गोपियों को अपनी बात साफ-साफ शब्दों में कहनी आती है। वे बात को यदि घुमा-फिरा कर कहना जानती हैं तो उसे साफ-स्पष्ट रूप में कहना भी उन्हें आता है- अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए। वे साफ-स्पष्ट शब्दों में स्वीकार करती हैं कि वे सोते-जागते केवल श्रीकृष्ण का नाम रटती रहती हैं- मन की मन ही माँझ रही। (घ) भावुकता और सहृदयता अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही। सहृदयता के
कारण ही वे श्रीकृष्ण को अपने जीवन का आधार मानती हैं। वे तो स्वयं को मन-वचन-कर्म से श्री कृष्ण का ही मानती थीं- वास्तव में गोपियां सहृदय और भावुक थीं। समय और परिस्थितियों ने उन्हें चतुर और वाग्विदग्ध बना दिया था। वाक्चातुर्य के आधार पर ही उन्होंने ज्ञानवान् उद्धव को परास्त कर दिया था। 720 Views गोपियों ने उद्धव के सामने तरह-तरह के तर्क दिए हैं, आप अपनी कल्पना से और तर्क दीजिए। गोपियां श्रीकृष्ण से अपार प्रेम करती थीं। उन्हें लगता था कि श्रीकृष्ण के बिना वे रह ही नहीं सकती थीं। जब श्रीकृष्ण ने उद्धव के द्वारा उन्हें योग-साधना का उपदेश भिजवा दिया था तब गोपियों का विरही मन इसे सहन नहीं कर पाया था और उन्होंने उद्धव के सामने तरह-तरह के तर्क दिए थे। 390 Views संकलित पदों को ध्यान में रखते हुए सूर के भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएँ बताइए? सूरदास के द्वारा रचित ‘भ्रमरगीत’ हिंदी-साहित्य के सबसे अधिक भावपूर्ण उलाहनों के रूप में प्रकट किया जाने वाला काव्य है। यह काव्य मानव हृदय की सरस और मार्मिक अभिव्यक्ति है। इसमें प्रेम का सच्चा, भव्य और सात्विक पक्ष प्रस्तुत हुआ है। कवि ने कृष्ण और गोपियों के हृदय की गहराइयों को अनेक ढंगों से परखा है। संकलित पदों के आधार पर भ्रमरगीत की मुख्य विशेषताएं निन्नलिखित हैं- 1. गोपियों का एकनिष्ठ प्रेम-गोपियों के हृदय में श्रीकृष्ण के प्रति एकनिष्ठ गहरा प्रेम था। वे उन्हें पलभर भी भुला नहीं पाती थीं। उन्हें लगता था कि श्रीकृष्ण ही उनके जीवन के आधार थे जिनके बिना वे पलभर जीवित नहीं रह सकती थीं। वे तो उनके लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान थे जो उन्हें जीने के लिए मानसिक सहारा देने वाले थे। हमारैं हरि हारिल की लकरी। गोपियां तो सोते-जागते श्रीकृष्ण की ओर अपना ध्यान लगाए रहती थीं। उन्हें लगता था कि उनका हृदय तो उनके पास था ही नहीं। उसे तो श्रीकृष्ण चुरा कर ले गए थे। इसलिए वे अपने मन को योग की तरफ लगा ही नहीं सकती थी। 2. वियोग शृंगार- गोपियां हर समय श्रीकृष्ण के वियोग में तड़पती रहती थीं। वे उनकी सुंदर छवि को अपने मन से दूर कर ही नहीं पाती थीं। श्रीकृष्ण मथुरा चले गए थे पर
गोपियां तो रात-दिन उन्हीं की यादों में डूब कर उन्हें ही रटती रहती थीं- वे अपने हृदय की वियोग पीड़ा को अपने मन में ही छिपा कर रखना चाहती थीं। वे अपनी पीड़ा को दूसरों के सामने कहना भी नहीं चाहती थीं। उन्हें पूरा विश्वास था कि वे कभी-न-कभी अवश्य वापिस आएंगे। उन्होंने श्रीकृष्ण के प्रेम के कारण अपने जीवन में मर्यादाओं की भी परवाह नहीं की थी। 3. व्यंग्यात्मकता-गोपियां चाहे श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं पर उन्हें सदा यही लगता था कि श्रीकृष्ण ने उनसे चालाकी की थी; उन्हें धोखा दिया था। वे मधुरा में रहकर उनसे चालाकियां कर रहे थे; राजनीति के खेल से उन्हें मूर्ख बना रहे थे। इसलिए व्यंग्य करते हुए वे कहती हैं- हरि हैं राजनीति पढ़ि आए। उद्धव पर व्यंग्य करते हुए उसे ‘बड़भागी’ कहती हैं जो प्रेम के स्वरूप श्रीकृष्ण के निकट रह कर भी प्रेम से दूर रहा। उसने कभी प्रेम की नदी में अपने पैर तक डुबोने का प्रयत्न नहीं किया। वे श्रीकृष्ण को बड़ी बुद्धि वाला मानती हैं जिन्होंने उन्हें योग का पाठ भिजवाया था। 4. स्पष्टवादिता- गोपियां समय-समय पर अपनी स्पष्टवादिता से प्रभावित करती हैं। वे योग-साधना को ‘व्याधि’ कहती हैं जिसके बारे में कभी देखा या सुना ही न गया हो। योग तो केवल उनके लिए ही उपयोगी हो सकता था जिन के मन में चकरी हो; जो अस्थिर और चंचल हों। 5. भावुकता- गोपियां स्वभाव से ही भावुक और सरल हृदय वाली थीं। उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रेम किया था और उसी प्रेम में डूबी रहना चाहती थीं। वे उसी प्रेम में मर-मिटना चाहती थीं जिस प्रकार चींटी गुड से चिपट जाती है तो वह भी उससे अलग न हो कर अपना जीवन ही गवा देना चाहती है। भावुक होने के कारण ही वे योग के संदेशों को सुनकर दुःखी हो जाती हैं। अधिक भावुकता ही उनकी पीड़ा का बड़ा कारण बनती है। 6. सहज ज्ञान- गोपियां चाहे गाँव में रहती थीं पर उन्हें अपने वातावरण और समाज का पूरा ज्ञान था। वे जानती थीं कि राजा के अपनी प्रजा के लिए क्या कर्त्तव्य थे और उसे क्या करना चाहिए था- ते क्यौं अनीति करैं आपुन, जे और अनीति छुड़ाए। 7. संगीतात्मकता- सूरदास के भ्रमरगीत संगीतमय हैं। कवि ने विभिन्न राग-रागिनियों को ध्यान में रखकर भ्रमरगीतों की रचना की है। उन सब में गेयता है जिस कारण सूरदास के भ्रमर गीतों का साहित्य में बहुत ऊँचा स्थान हैं। 1066 Views उद्धव ज्ञानी थे, नीति की बातें जानते थे; गोपियों के पास ऐसी कौन-सी शक्ति थी जो उनके वाक्चातुर्य में मुखरित हो उठी? किसी भी मनुष्य के पास सबसे बड़ी शक्ति उसके मन की होती है; मन में उत्पन्न प्रेम के भाव और सत्य की होती है। गोपियां श्रीकृष्ण से प्रेम करती थीं। उन्होंने अपने प्रेम के लिए सभी प्रकार की मान-मर्यादाओं की परवाह करनी छोड़ दी थी। जब उन्हें उद्धव के द्वारा श्रीकृष्ण का योग-साधना का संदेश दिया गया तो उन्हें अपने प्रेम पर लगी ठेस का अनुभव हुआ। उन्हें वह झेलना पड़ा था जिस की उन्होंने कभी उम्मीद भी नहीं की थी। उनके विश्वास को गहरा झटका लगा था जिस कारण उनकी आहत भावनाएं फूट पड़ी थीं। उद्धव चाहे ज्ञानी थे, नीति की बातें जानते थे पर वे गोपियों के हृदय में छिपे प्रेम, विश्वास और आत्मिक बल का सामना नहीं कर पाए थे। गोपियों के वाक्चातुर्य के सामने किसी भी प्रकार टिक नहीं पाए थे। 347 Views गोपियां कृष्ण को हारिल की लकड़ी क्यों कहा है?Solution : गोपियाँ अपने को हारिल पक्षी के समान मानती हैं। हारिल अपने पंजों में कोई एक छोटी-सी लकड़ी या तिनका पकड़े रहता है। वही उसके जीवन का सहारा है। गोपियों कृष्ण को हारिल की लकड़ी इसलिए मानती हैं कि कृष्ण ही उनके जीवन का एकमात्र सहारा है।
हारिल की लकड़ी किसे और क्यों कहा गया है?मित्र! हारिल पक्षी अपने पंजे में लकड़ी को पकड़े रखता है। गोपियों ने श्रीकृष्ण को वह लकड़ी कहा है।
गोपिया अपने हरि की तुलना हारिल पक्षी की लकड़ी से क्यों करती है?Solution. गोपियों ने अपने लिए कृष्ण को हारिल की लकड़ी के समान इसलिए बताया है क्योंकि जिस प्रकार हारिल पक्षी अपने पंजे में दबी लकड़ी को आधार मानकर उड़ता है उसी प्रकार गोपियों ने अपने जीवन का आधार कृष्ण को मान रखा है।
हारिल और हारिल की लकड़ी के माध्यम से गोपियों ने उद्धव जी को क्या समझाने का प्रयत्न किया है?हारिल एक ऐसा पक्षी है जो सदैव अपने पंजे में कोई लकड़ी या तिनका पकड़े रहता है। वह उसे किसी भी दशा में नहीं छोड़ता। उसी तरह गोपियों ने मन, वचन और कर्म से श्री कृष्ण की प्रेम रूपी लकड़ी को दृढतापूर्वक पकड़ रखा है।
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