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फारसी या उर्दू में प्रेंम विषयक
काव्य गीत 'गज़ल' कहलाती है। प्रायः ग़ज़ल का हर शेर स्वयं में पूर्ण होता है, इसके दो बराबर टुकड़े होते है। जिसको 'मिसरा' कहते हैं। इन प्रकरणों 👇 के बारे में भी जानें। हिन्दी के कवियों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने गजल कही, उसकी भाषा खड़ी बोली है, जो उर्दू के समीप है। जयशंकर प्रसाद की 'भूल' शीर्षक कविता इसी पद्धति की है। निरालाजी ने ग़ज़ल की शैली अपनाई है। दिनकर जी ने इसे सजाया सँवारा है। आशा है, उपरोक्त जानकारी परीक्षार्थियों / विद्यार्थियों के लिए ज्ञानवर्धक एवं परीक्षापयोगी होगी। I hope the above information will be useful and important. Watch related information below जब कभी यह प्रश्न पूछा जाता हैं कि ग़ज़ल क्या हैं तो सवाल सुन कर मन कुछ उलझन में पड जाता हैं। क्या यह कहना ठीक होगा कि ग़ज़ल जज़्बात और अलफाज़ का एक बेहतरीन गुंचा या मज़्मुआ हैं? या यह कहें कि ग़ज़ल उर्दू शायरी की इज़्ज़त हैं, आबरू है? लेकिन यह सब कहते वक़्त मन में एक प्रश्न उभरता हैं कि क्या यह सच हैं! माना कि ग़ज़ल उर्दू काव्य का एक अत्यंत लोकप्रिय, मधुर, दिलकश औऱ रसीला अंदाज़ हैं मगर यह भी उतना ही सच हैं कि उर्दू साहित्य में ग़ज़ल चर्चा का एक विषय भी बनी रही हैं। एक तरफ तो ग़ज़ल इतनी मधुर हैं कि वह लोगों के दिलों के नाज़ुक तारों को छेड देती हैं औऱ दूसरी ओर वही ग़ज़ल कुछ लोगों में कुछ ऐसी भावनाएं पैदा करती हैं कि जनाब कलीमुद्दीन अहमद साहब इसे ‘नंग-ए -शायरी’ यानी बेहूदी शायरी कहते हैं। जनाब शमीम अहमद शमीम इसे मनहूस शैली की शायरी कहते हैं, और जनाब अज़्मतुल्लाख़ान साहब तो यह कहने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते कि, ‘ग़ज़ल क़ाबिले गर्दन ज़दनी हैं’, यानी इसे जड से उखाड फेंकना चाहिये। वैसे तो ‘ग़ालिब’ भी यह कहते हैं कि- बक़द्रे
शौक़ नहीं ज़र्फे तंगना-ए-ग़ज़ल। (‘मेरे मन की उत्कट भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने में ग़ज़ल का पटल बडा ही संकीर्ण हैं। मुझे साफ साफ कहने के लिये किसी और विस्तृत माध्यम की आवश्यक्ता हैं’।) उर्दू के सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं आलोचक रशीद अहमद सिद्दीक़ी साहब ग़ज़ल को ‘आबरू-ए-शायरी’ बडे फख्र के साथ कहते हैं। शायद यही सब बातें हैं कि ग़ज़ल आज तक क़ायम हैं और सामान्यत: सभी वर्गों में काफी हद तक पसंद की जाती हैं। ग़ज़ल पर्शियन और अरबी भाषाओं से उर्दू में आयी। ग़ज़ल का मतलब हैं औरतों से अथवा औरतों के बारे में बातचीत करना। यह भी कहा जा सकता हैं कि ग़ज़ल का सर्वसाधारण अर्थ हैं माशूक से बातचीत का माध्यम। उर्दू के प्रख्यात साहित्यिक स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फिराक’ गोरखपुरी साहब ने ग़ज़ल की बडी ही भावपूर्ण परिभाषा लिखी हैं। आप कहते हैं कि, ‘जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता हैं और हिरन भागते भागते किसी ऐसी झाडी में फंस जाता हैं जहां से वह निकल नहीं सकता, उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती हैं। उसी करूण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं। इसीलिये विवशता का दिव्यतम रूप में प्रगट होना, स्वर का करूणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श हैं’। शुरूआत की ग़ज़लें कुछ इसी अंदाज़ की थीं। लगता था मानों वे स्त्रियों के बारे में ही लिखी गई हों। जैसे- ख़ूबरू ख़ूब काम करते हैं। या नाज़ुकी उसके लब की क्या कहिये लेकिन जैसे जैसे समय बीता ग़ज़ल का लेखन पटल बदला, विस्तृत हुआ और अब तो ज़िंदगी का ऐसा कोई पहलू नहीं हैं जिस पर ग़ज़ल न लिखी गई हो। सिगरेट जला के मैं जो ज़रा मुत्मइन हुआ। सिगरेट, गिलास, चाय का कप और नन्हा लैंप। ग़ज़ल का विश्लेषण – ग़ज़ल शेरों से बनती हैं। हर शेर में दो पंक्तियां होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की ख़ास बात यह हैं कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक संपूर्ण कविता होता हैं और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले पिछले अथवा अन्य शेरों से हो, यह ज़रूरी नहीं हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना ग़लत न होगा कि उसमें २५ स्वतंत्र कविताएं हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं। मत्ला- क़ाफिया- रदीफ- मक़्ता- कोई उम्मीद बर नहीं आती। मौत का एक दिन मुअय्यन हैं। आगे आती थी हाले
दिल पे हंसी। हम वहां हैं जहां से हमको भी। काबा किस मुंह से जाओगे ‘ग़ालिब’। इस ग़ज़ल का ‘क़ाफिया’ बर, नज़र, भर, पर, ख़बर, मगर हैं। इस ग़ज़ल की ‘रदीफ’ “नहीं आती” है। यह हर शेर की दूसरी पंक्ति के आख़िर में आयी हैं। ग़ज़ल के लिये यह अनिवार्य हैं। इस ग़ज़ल के प्रथम शेर को ‘मत्ला’ कहेंगे क्योंकि इसकी दोनों पंक्तियों में ‘रदीफ’ और ‘क़ाफिया’ हैं। सब से आख़री शेर ग़ज़ल का ‘मक़्ता’ कहलाएगा क्योंकि इसमें ‘तख़ल्लुस’ हैं। बहर, वज़्न या मीटर (meter) २. मध्यम बहर– ३. लंबी बहर- हासिले-ग़ज़ल शेर- हासिलें-मुशायरा ग़ज़ल- ग़ज़ल का इतिहास- पिया बाज पयाला पिया जाये ना। कुली कुतुबशाह के बाद के शायर हैं ग़व्वासी, वज़ही, बहरी और कई अन्य। इस दौर से गुज़रती ग़ज़ल वली दकनी तक आ पहुंची और उस समय तक ग़ज़ल पर छाई हुई दकनी छाप काफी कम हो गई। वली ने सर्वप्रथम ग़ज़ल को अच्छी शायरी का दर्जा दिया और फारसी शायरी के बराबर ला खडा किया। दकन के लगभग तमाम शायरों की ग़ज़लें बिल्कुल सीधी और सुगम शब्दों के माध्यम से हुआ करतीं थीं। पहला दौर- ये हसरत रह गई किस किस मज़े से ज़िंदगी करते। ख़ुदा के वास्ते इसको न टोको। जान, तुझ पर कुछ एतबार नहीं। दूसरा दौर- देख तो दिल कि जां से उठाता हैं। दर्द के साथ साथ मीर की शायरी में नज़ाकत भी तारीफ के क़ाबिल थी। नाज़ुकी उसके
लब की क्या कहिये। ‘मीर’ इन नीमबाज़ आंखों में। इस दौर की शायरी की एक और महत्वपूर्ण बात यह हैं कि इस ज़माने के अधिकांश शायर सूफी पंथ के थे। इसलिये इस दौर की ग़ज़लों में सूफी पंथ के पवित्र विचारों का विवरण भी मिलता हैं। वक़्त ने करवट बदली और दिल्ली की सल्तनत का चिराग टिमटिमाने लगा। फैज़ाबाद और लखनऊ में, जहां दौलत की भरमार थी, शायर दिल्ली और दूसरी जगाहों को छोडकर, इकट्ठा होने लगे। इसी समय ‘मुसहफी’ औऱ ‘इंशा’ की आपसी नोंक झोंक के कारण उर्दू शायरी की गंभीरता कम हुई। ‘जुर्अत’ ने बिल्कुल हलकी-फुलकी और कभी कभी सस्ती और अश्लील शायरी की। इस ज़माने की शायरी का अंदाज़ा आप इन अशआर से लगा सकते हैं- किसी के महरमे आबे रवां की याद आई। दुपटे को आगे से दुहरा न ओढों। लेकिन यह तो हुई ‘इंशा’, ‘मुसहफी’ और ‘जुर्अत’ की बात। जहां तक लकनवी अंदाज़ और बयान का सवाल हैं, उसकी बुनियाद ‘नासिख’ और ‘आतिश’ ने डाली। दुर्भाग्यवश इन दोनों की शायरी में भी हृदय और मन की कोमल तरल भावनाओं का बयान कम हैं और शारीरिक उतार-चढाव, बनाव-सिंगार और लिबास का वर्णन ज़्यादा हैं। उर्दू शायरी अब दो अंदाज़ों में बट गयी, ‘लखनवी’ और ‘देहलवी’। दिल्ली वाले जहां आशिक और माशूक के हृदय की गहराईयों में झांक रहे थे, वहां लखनऊ वाले महबूब के जिस्म, उसकी ख़ूबसूरती बनाव-सिंगर और नाज़ों-अदा पर फिदा हो रहे थे। दिल्ली और लखनऊ में शायरी जब इस मोड पर थी, उसी समय दिल्ली में ‘ज़ौक़’, ‘ग़ालिब’ और ‘मोमिन’ उर्दू ग़ज़ल की परंपराओं का आगे बढाने में जुटे हुए थे। यह कहना ग़लत न होगा कि ‘ग़ालिब’ ने ग़ज़ल में दार्शनिकता भरी, ‘मोमीन’ ने कोमलता पैदा की और ‘ज़ौक़’ ने भाषा को साफ सुथरा, सुगम और आसान बनाया। लिजिये इन शायरों के कुछ शेर पढिये – गमे हस्ती का ‘असद’ किस से हो जुज़ मर्ग इलाज। तुम मेरे पास होते हो गोया। लाई हयात आये, कज़ा ले चली, चले। इन तीनों महान शायरों के साथ एक बदनसीब शायर भी था जिसने ज़िंदगी के अंतिम क्षणों में वतन से दूर किसी जेल की अंधेरी कोठरी में लडखडाती ज़बान से कहा था- कितना हैं बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिये। १८५७ में दिल्ली उजडी, लखनऊ बर्बाद हुआ। ऐशो-आराम और शांति के दिन ख़त्म हुए। शायर अब दिल्ली और लखनऊ छोड रामपूर, भोपाल, फैज़ाबाद और हैद्राबाद पहुंच वहां के दरबारों की शान बढाने लगे। अब उर्दू शायरी में दिल्ली और लखनऊ का मिला-जुला अंदाज़ नज़र आने लगा। इस दौर के दो मशहूर शायर ‘दाग’ और ‘अमीर मीनाई’ हैं। यह वक़्त अंग्रेज़ी हुकूमत की गिरफ्त का होते हुए भी भारतीय इंसान आज़ादी के लिये छटपटा रहा था और कभी कभी बग़ावत भी कर बैठता। जन-जीवन जागृत हो रहा था। आज़ादी के सपने देखे जा रहे थे और लेखनी तलवार बन रही थी। अब ग़ज़लों में चारित्र्य और तत्वज्ञान की बातें उभरने लगीं। राष्ट्रीयता यानी क़ौमी भावनाओं पर कविताएं लिखी गई और अंग्रेज़ी हुकूमत एवं उसकी संस्कृती पर ढके छुपे लेकिन तीखे व्यंगात्मक शेर भी लिखे जाने लगे। अब ग़ज़ल में इश्क़ का केंद्र खुदा या माशुक न होकर राष्ट्र और मातृभूमि हुई। इसका मुख्य उद्देश्य अब आज़ादी हो गया। ‘हाली’, ‘अकबर इलाहबादी’ ‘चकबिस्त’ और ‘इक़बाल’ इस युग के ज्वलंत शायर हैं। सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा। ‘इक़बाल’ की यह नज़्म हर भारतीय की ज़बान पर थी और आज भी हैं। ‘अक़बर’ के व्यंग भी इतने ही मशहूर हैं। लेकिन एक बात का उल्लेख करना यहां ज़रूरी हैं कि इन शायरों ने ग़ज़लें कम और नज़्में अथवा कविताएं ज़्यादा लिखीं। और यथार्थ में ग़ज़ल को सब से पहला धक्का यहीं लगा। कुछ लोगों ने तो यह सोचा कि ग़ज़ल ख़त्म की जा रही हैं। लेकिन ग़ज़ल की ख़ुशक़िस्मती कहिये कि उसकी डगमगाती नाव को ‘हसरत’, ‘जिगर’, ‘फनी’, ‘असग़र गोंडवी’ जैसे महान शायरों ने संभाला, उसे नई औऱ अच्छी दिशा दिखलाई, दोबारा ज़िंदा किया और उसे फिर से मक़बूल किया। ‘जिगर’ और ‘हसरत’ ने महबूब को काल्पनिक दुनिया से निकाल कर चलती फिरती दुनिया में ला खडा किया। पुरानी शायरी में महबूब सिर्फ महबूब था, कभी आशिक़ न बना था। ‘हसरत’ और ‘जिगर’ ने महबूब को महबूब तो माना साथ ही उसे एक सर्वांग संपूर्ण इंसान भी बना दिया जिसने दूसरों को चाहा, प्यार किया और दूसरों से भी यही अपेक्षा की। दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिये। ग़ज़ल का यह रूप लोगों को बहुत भाया। ग़ज़ल अब सही अर्थ में जवान हुई। इन शायरों के बाद नई नस्ल के शायरों में फिराक़, जज़्बी, मजाज़, जांनिसार अख्तर, शकील, मजरूह, साहिर, हफीज़ होशियारपुरी, क़तील शिफाई, इब्ने इंशा, फैज़ अहमद फैज़ और अन्य अनेकों का ज़िक्र किया जा सकता हैं। ‘हफीज़ जालंधरी’ और ‘जोश मलीहाबादी’ के उल्लेख के बग़ैर उर्दू शायरी की इतीहास अंधूरा रहेगा। यह सच हैं कि इन दोनें शायरों ने कविताएं (नज़्में) ज़्यादा लिखीं औऱ ग़ज़लें कम। लेकिन इनका लिखा हुआ काव्य संग्रह अत्यंत उच्च कोटि का हैं। ‘जोश’ की एक नज़्म, जो दूसरे महायुद्ध के वक़्त लिखी गई थी और जिसमें हिटलर की तारीफ की गई थी, अंग्रेज़ी हुकूमत के द्वारा उनको जेल भिजवाने का कारण बनी। फैज़ अहमद फैज़ का ज़िक्र अलग से करना अनिवार्य हैं। यह पहले शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल में राजनीति लाई औऱ साथ साथ ज़िंदगी की सर्वसाधारण उलझनों और हक़ीक़तों को बडी ख़ूबी और सफाई से पेश किया। मता-ए-लौह-ओ-कलम छिन गई तो क्या
ग़म हैं। जेल की सीखचों के पीछे क़ैद ‘फैज़’ के आज़द क़लम का यह नमूना ऊपर लिखी हुई बात को पूर्णत: सिद्ध करता हैं। ग़ज़ल का इतिहास रोज़ लिखा जा रहा हैं। नये शायर ग़ज़ल के क्षितिज पर रोज़ उभर रहे हैं, और उभरते रहेंगे। अपने फन से और अपनी शायरी से ये कलाकार ग़ज़ल की दुनिया को रौशन कर रहे हैं। कुछ शायरों ने ग़ज़ल को एक नया मोड दिया हैं। इन ग़ज़लों में अलामती रूझान यानी सांकेतिक प्रवृत्ति (Symbolic hint or suggestion) प्रमुख रूप से होता है। उदाहरण के लिये निम्न अशआर पढिये- वो तो बता रहा था बहोत दूर का सफर। इन शायरों में से कुछ शायरों के नाम हम यहां दे रहे हैं। कुंवर महिंदर सिंह बेदी, ज़िया फ़तेहआबादी, प्रेम वारबरटनी, मज़हर इमाम, अहमद फराज़, निदा फ़ाज़ली, सुदर्शन फ़ाकिर, नासिर काज़मी, परवीन शाकिर, अब्दुल हमीद अदम, सूफी तबस्सुम, ज़रीना सानी, मिदहतुल अख़्तर, अब्हुल रहीम नश्तर, प्रो. युनुस ख़लिश क़ादरी, ज़फ़र कलीम, शाहिद कबीर, प्रो. मंशा, जलील साज़, शहरयार, बशीर बद्र, वहीद अख़्तर, महबूब राही, इफ्तिख़ार इमाम सिद्दीक़ी, शबाब ललित, कृष्ण मोहन, याद देहलवी, ज़हीर ग़ाज़ीपुरी, यूसूफ जमाल, राज नारायण राज़, गोपाल मित्तल, उमर अंसारी, करामत अली करामत, उनवान चिश्ती, मलिक़ ज़ादा मंज़ूर, ग़ुलाम रब्बानी ताबां, जज़्बी इत्यादि। ग़ज़ल लेखन में एक और नया प्रयोग शुरू किया गया हैं जिसका उल्लेख करना यहां अनुचित न होंगा। इन प्रायोगिक ग़ज़लों में शेर की दोनों पंक्तियों से मीटर की पाबंदी हटा दी गई हैं, लेकिन रदीफ और काफियों की पाबंदी रखी गई हैं। इन ग़ज़लों को आज़ाद ग़ज़ल कहा जाता हैं। फूल हो, ज़हर में डूबा हुआ, पत्थर न सही। शक्ल धुंधली सी हैं, शीशे में निखर जायेगी। फिलहाल यह ग़ज़ले प्रारंभिक एवं प्रायोगिक अवस्था में हैं। ग़ज़ल के रसिया और ग़ज़ल गायक इन ग़ज़लों को पसंद करते हैं या नहीं यह भविष्य ही सिध्द करेगा। निम्नलिखित शायर ‘आज़ाद ग़ज़ल’ के समर्थक हैं। ज़हीर ग़ज़ीपुरी, मज़हर इमाम, यूसुफ जमाल, डॉ. ज़रीना सानी, अलीम सबा नवीदी, मनाज़िर आशिक़ इत्यादि। संगीत को त्रिवेणी संगम कहा जाता हैं। इस संगम में तीन बातें, शब्द, तर्ज़ और आवाज़ अत्यंत अनिवार्य हैं। ग़ज़ल की लोकप्रियता इस बात की पुष्टी करती है कि अच्छे शब्द के साथ अच्छी तर्ज़ और मधुर आवाज़ अत्यंत अनिवार्य है इसीलिये यह नि:संकोच कहा जा सकता हैं कि ग़ज़ल को दिलकश संगीत में ढालने वाले संगीतकार और उसे बेहतरीन ढंग से रसिकों के आगे पेश करने वाले कलाकार गायक अगर नहीं होते तो ग़ज़ल यक़ीनन क़िताबों में ही बंद रह कर घुट जाती, सिमट जाती। – डॉ. अर्शद जमाल एक ग़ज़ल में कितने शेर होने चाहिए?एक ग़ज़ल में 5 से लेकर 25 तक शेर हो सकते हैं। ये शेर एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। कभी-कभी एक से अधिक शेर मिलकर अर्थ देते हैं। ऐसे शेर कता बंद कहलाते हैं।
ग़ज़ल का पहला शेर क्या कहलाता है?ग़ज़ल के पहले शेर को क्या कहते हैं? - Quora. ग़ज़ल के पहले शेर को “मतला” कहते हैं. 'मतला' शब्द का अर्थ होता है 'उदय'.
गजल के अंतिम शेर को क्या कहते हैं?गजल के अन्तिम शेर को मक्ता कहा जाता है । काफिया का अर्थ क्या है ? गजल के शेर में तुकान्त शब्दों को काफिया कहा जाता है ।
गजल का जनक कौन है?भारत में गजलों का जनक अमीर खुसरो को माना जाता है।
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