छायावादी काव्य की विशेषता क्या है? - chhaayaavaadee kaavy kee visheshata kya hai?

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में छायावाद के सम्बन्ध में लिखा है “छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में जहाँ उसका सम्बन्ध काव्य-वस्तु होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनन्त और अज्ञात प्रियतम का आलम्बन बनाकर अत्यन्त चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्य शैली पर पद्धति विशेष के व्यापक अर्थ में है।” डॉ0 नामवर सिंह छायावाद को परस्पर विरोधी काव्य प्रवृत्तियों का समुच्चय मानते हुए लिखते हैं-“छायावाद विविध यहाँ तक कि परस्पर विरोधी प्रतीत होनेवाली काव्य प्रवृत्तियों का सामूहिक नाम है और छानबीन करने पर इन प्रवृत्तियों के बीच आंतरिक सम्बन्ध दिखायी पड़ता है।” चर्चा को आगे बढ़ाते हुए डॉ0 नामवर सिंह लिखते हैं कि “एक केन्द्र पर बने हुए विभिन्न वृत्तों का समुदाय ही छायावाद है। एक ही युग चेतना ने विभिन्न कवियों को विभिन्न प्रकार से अनुप्राणित और संस्कारित किया। यह प्रवाहमान काव्य धारा थी जो ऐतिहासिक विकास क्रम में आरम्भिक विशेषताओं को भोगी हुई नयी-नयी विशेषताओं से मुक्त होती हुई लगभग वर्षो तक चलती रही।”

छायावाद की प्रमुख विशेषताएँ

(1) वैयक्तिकता- भक्तिकाल एवं रीतिकाल की कविता कोरी निर्वैयक्तिक रही है। सामाजिक मर्यादाएँ एवं नैतिक मूल्य इतने दृढ़ थे कि व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति के लिए अनुमति ही नहीं थी। इस युग के रचनाकारों का आत्मसमर्पण था ईश्वर के प्रति या आश्रयदाता के प्रति फिर भी यह युग इसलिए महत्त्वपूर्ण था कि रचनाकार समाज के प्रति अधिक समर्पित थे। यह बात और है कि इन्होंने समाज के प्रति आत्म-बलिदान किया, यद्यपि इस युग का आरम्भ व्यक्ति की स्थायी शत्रुता में हुआ। अपनी दुर्बलताओं, अपनी प्रणयानुभूति, अपने निजी सुख-दुःख की अभिव्यक्ति कविता की विषय-वस्तु बन गयी। पंत के उच्छ्वास, आँसू की बालिका तथा ग्रन्थि में जिस प्रणय सम्बन्ध की बात कही गयी है, वह मौलिक है। कवि ने स्पष्ट रूप से लिखा है, बालिका मेरी मनोरम मित्र थी। प्रसाद का आँसू भी मूलतः इसी प्रकार का मानवीय प्रेम काव्य है जिसके द्वितीय संस्कार में कवि ने सामाजिक भय से रहस्यात्मक और लोकमंगल का गहरा पुट दे दिया है। निराला के ‘विप्लवी बादल’, ‘सरोज स्मृति’, ‘बन बेला’ आदि में उनके विद्रोह की ज्वाला है। इस युग में कवियों ने लेख की पीड़ा को आत्मसात करने की अपेक्षा अपनी पीड़ा को व्याप्त देखना अधिक पसन्द किया।

(2) सौन्दर्यानुभूति- छायावादी कवियों की सौन्दर्यानुभूति भी उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति है। मध्यकाल में जहाँ कवियों ने प्रकृति का बाहरी रूप चित्रित किया, उसका स्थूल सौन्दयांकन किया वहीं पर छायावादी कवियों ने उसके आन्तरिक सौन्दर्य को अपनी कविता का वर्ण्य विषय बनाया। उन्होंने वस्तु की अपेक्षा उसकी छाया को विशेष महत्त्व दिया। उनके लिए रूप से अधिक सुन्दर प्रतिरूप था।

प्रकृति से अलग हटकर नारी सौन्दयांकन में भी छायावादी कवियों ने विशिष्टता प्राप्त की है। मध्यकाल का नारी सौन्दर्य जहाँ पर अत्यन्त स्कूल और मांसल रहा है तथा जिसका प्रभाव कारक था, देखने वालों को बेहोश बना देता है तथा कर्म से विमुख कर देने वाला था वहीं पर छायावादी कवियों का नारी सौन्दर्य का प्रकटन जड़ स्फूर्ति से युक्त है। इन कवियों ने नारी के बाहरी सौन्दर्य को महत्त्व नहीं दिया। उसकी आत्मा में झाँककर उसके भीतर के सौन्दर्य की तलाश की। ‘सरोज स्मृति में निराला ने सरोज के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए इसी तटस्थता का परिचय दिया है। विवाह के शुभ-कलश का जल पड़ने के बाद उसका रूप आमूल नवल हो जाता है-

‘तु खुली एक उच्छास-संग विश्वास स्तब्ध बेध अंग-अंग|

नत नयनों से आलोक उत्तर कांपा अधरों पर थर-थर-थर ||’

(3) भावुकता- छायावादी कवियों को अपने व्यक्तिवादी जीवन दर्शन के ही कारण इतनी हताशा एवं निराशा का सामना करना पड़ा, क्योंकि सामाजिक रूढ़ियों एवं परम्परा का विरोध करना सामूहिक २ होकर व्यक्तिगत था। परिणामस्वरूप उन्हें संघर्ष अकेला करना पड़ा और पग-पग पर पराजय का सामना करना पड़ा। इस पराजय ने उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न करके एक स्थायी दुःख दे गया। ‘आँसू और ‘उच्छ्वास’ जैसी कविताएँ इसी का प्रतिफल हैं।

(4) ऐन्द्रियता- ऐन्द्रियता सशक्त एवं सार्थक कविता की पहली शर्त होती है। छायावादियों ने ऐन्द्रियता को विशेष महत्त्व दिया। रूप, रस, गन्ध, रंग एवं स्पर्श का अनुभव चित्रमयी एवं ध्वनिमय भाषा के माध्यम से करने का पूरा प्रयास किया। अग्निशिखा के रंग का बोध कराने के लिए प्रसाद जी मधुपिंगल तरल अग्नि का प्रयोग करते हैं। इसी प्रकार हिमालय पर पड़ते हुए प्रभाव का वर्णन सौन्दर्य दिखाने के लिए लिखते हैं-

‘सित सरोज पर क्रीड़ा करता जैसे मधुमय पिंग पराग।’

(5) शिल्पगत प्रवृत्तियाँ- यह तो रहीं इस युग की भावनागत प्रवृत्तियाँ, अब कुछ शिल्पगत प्रवृत्तियों पर भी विचार कर लेना समीचीन होगा। इस युग की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि इस युग में कवियों ने भावानुकूल शब्द वाक्य प्रतीक तथा छन्द योजना चुनी छायावादी कवियों को वैसे तो विरासत के रूप में द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मक शब्द समूह ही मिला था, किन्तु इन कवियों की भावुक कल्पना का सहारा पाकर ये शब्द भी व्यंजनात्मक संसार की सैर करने लगे।

भाषा- प्रसाद तो भाषा के संस्कार में एक कदम आगे हैं। अपनी अभिजात्य रुचियों के अनुरूप ही वह भाषा को भी संस्कारित करते हैं। प्रसाद की भाषा, उनका शब्द संसार न केवल अर्थ वहन करता है। वरन् पूरी संस्कृति की भी जिम्मेदारी लेकर चलता है। सजल अभिलाषा कलित अतीत की छाप मन पर केवल प्रसाद की ही भाषा छोड़ सकती है।

पिछले पहर की सुधियों को ताजा करती हुई प्रसाद की समर्थ भाषा की वाणी देखिए-

‘मधुमय बसंत जीवन वन के वह अन्तरिक्ष की लहरों में।

कब आये थे तुम चुपके से रजनी के पिछले पहरों में ‘

(6) छन्दगत वैशिष्ट्य- छन्दों के विषय में छायावादी कवियों की धारणा बिल्कुल अलग है। वे भाव को ही प्रमुखता देते हैं, छन्द को नहीं भाषानुसार पंक्तियों का क्रम और उनका विन्यास ही इनके लिए छन्द है। चाहे वह परम्परागत छन्द के भीतर अलग ही क्यों न थे। इसे मुक्त छन्द कहा गया। जुही की कली’ इसका उदाहरण है-

‘विजन बल बल्लरी पर सोती थी सुहाग भरी श्वेत पत्रांक में जुही की कली।’

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छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएं क्या है?

मुकुटधर पाण्डेय ने श्री शारदा पत्रिका में एक निबंध प्रकाशित किया जिस निबंध में उन्होंने छायावाद शब्द का प्रथम प्रयोग किया | प्रकृति प्रेम, नारी प्रेम, मानवीकरण, सांस्कृतिक जागरण, कल्पना की प्रधानता आदि छायावादी काव्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। छायावाद ने हिंदी में खड़ी बोली कविता को पूर्णतः प्रतिष्ठित कर दिया।

काव्य की प्रमुख विशेषता क्या है?

काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वह जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रसगंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्द को 'काव्य' कहा है। 'अर्थ की रमणीयता' के अंतर्गत शब्द की रमणीयता (शब्दलंकार) भी समझकर लोग इस लक्षण को स्वीकार करते हैं।

छायावादी काव्य से आप क्या समझते हैं?

हिन्दी साहित्य के आधुनिक चरण मे द्विवेदी युग के पश्चात हिन्दी काव्य की जो धारा विषय वस्तु की दृष्टि से स्वच्छंद प्रेमभावना, पकृति मे मानवीय क्रिया कलापों तथा भाव-व्यापारों के आरोपण और कला की दृष्टि से लाक्षणिकता प्रधान नवीन अभिव्यंजना-पद्धति को लेकर चली, उसे छायावाद कहा गया।

छायावादी काव्य की प्रमुख भाषा क्या थी?

स्वच्छन्दता की उस सामान्य भाव-धारा की विशेष अभिव्यक्ति का नाम हिन्दी साहित्य में छायावाद पड़ा। पर कुछ टीका-टिप्पणी हो चुकी थी । उस युग की प्रतिनिधि पत्रिका 'सरस्वती' में 'छायावाद' का प्रथम उल्लेख जून, १९२१ ई० के अंक में मिलता है। किन्हीं सुशील कुमार ने 'हिन्दी में छायावाद' शीर्षक एक संवादात्मक निबन्ध लिखा है।