(१) Show (२) " चरित्र हनन " के प्रयास को बन्द करना होगा. (Stop character Assassination ) (३) भारत के युवाओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या है? सबसे पहले पाश्चात्य भोगवादी संस्कृति की आंधी को सारी शक्ति लगाकर रोकना होगा, तथा मनुष्य को उसकी स्व-महिमा में पुनः प्रतिष्ठित
करना होगा। इस प्राथमिक कार्य को किये बिना, केवल मनुष्य की आर्थिक अवस्था को उन्नत करने के लिए - चाहे जितने भी राजनीतिक दल क्यों न खड़े कर लिए जायें ,चाहे जितनी भी पंचवर्षीय योजनायें क्यों न बना ली जायें,गरीबी-उन्मूलन के नाम पर चाहे जितना भी विदेशी सहायता क्यों न ले ली जाय, इन सब से कुछ भी लाभ न होगा; ये सारे के सारे प्रयास व्यर्थ ही सिद्ध होंगे! (४) चरित्र-गठन एवं मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को अनिवार्य बनाएँ ! How To Form Character (५) 'चरित्र गठन में विवेक-सम्मत इच्छाओं के चयन का महत्व ' चरित्र के विषय में वैज्ञानिक पद्धति से परिक्षण-निरीक्षण करने के बाद ,स्वामी विवेकानन्द उसे परिभाषित करते हुए कहते हैं- " Character is an agglomeration of our propensities, It is but the bundle of our habits "-अर्थात " चरित्र हमारी मानसिक-प्रवृत्तियों (रुझानों) की समष्टि है,यह हमारी आदतों का समूह मात्र है। " या दुसरे शब्दों में कहें तो-"यह हमारे द्वारा पुनः पुनः दुहराए जाने वाले अभ्यासों की समष्टि मात्र है।" साधारणतया हम सभी लोग अपनी-अपनी आदतों (प्रवृत्तियों या रुझानों) के अनुरूप ही चिंतन करते हैं,बोल बोलतेहैं तथा व्यवहार करते हैं।एक ही काम को बार-बार दुहराते रहने से ,हमें उसकी आदत पड़ जाती है। वे आदतें जब पुरानी पड़ जाती हैं तो हमें उसकी लत लग जाती है या हमारी प्रवृत्ति बन जाती है। अर्थात हमारी वे आदतें,जिन्हें पुनः पुनःअभ्यास करके हमने स्वयं ही अपने जीवन का अंग बना लिया था,अब उन्हीं से प्रेरित होकर किसी खास ढंग से चिंतन करने,बोल बोलने या व्यव्हार करने को बाध्य हो जाते हैं।इस प्रकार हम यह स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि चरित्र कोई जन्मजात वस्तु नहीं है, हम में से प्रत्येक व्यक्ति अपनी मानसिक प्रवृत्तियों या आदतों को परिवर्तित कर सकता है,अर्थात अपने चरित्र को रूपान्तरित कर सकता है। आदतों का निर्माण एक दिन में ही नहीं होता, एक ही काम (चिंतन औरबोल-चाल)एक ही ढंग से प्रतिदिन बार-बार दुहराते रहने से हमें उसकी लत लग जाती है और वे हमारी आदतों में परिणत हो जाती हैं।हमलोग कोई भी कर्म बिना विचारे यूँ ही नहीं करते हैं ; बहुत सोंच-विचार करने के बाद ही हम किसी इच्छा का चयन करते हैं;फ़िर उस तीब्र इच्छा को पूरा करने के लिए कर्म करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। इस प्रकार हम समझ सकते हैं कि हमारा कोई भी कर्म या आचरण हमारे ही विचारों के द्वारा निर्देशित होते हैं। अपने पुराने अनुभवों का बार-बार स्मरण-मनन करते रहने से मन में उसीका स्वाद एक बार और चखने कि तीब्र इच्छा मन में उदित हो जाती है,तथा हमारी इच्छाएँ ही हमारे समस्त कार्यों कि नियामक होती हैं। अतः हमलोग यदि सचमुच अपना चरित्र सुंदर बनाना चाहते हों, तो हमें अपनी इच्छाओं के चयन के प्रति अत्यन्त सतर्क हो जाना चाहिए,तथा अपने मन में केवल सदिच्छाओं को ही रहने देना चाहिए। क्यों कि यह इच्छा ही हमारी विचार-शक्ति को निर्देशित करेगी एवं उसी से प्रेरित होकर हम कोई भी कार्य करने को बाध्य हो जाएंगे तथा उन्ही कार्यों को बार-बार दुहराते रहने से हमें उसकी आदत हो जायेगी। वही आदतें जब थोडी परिपक्व हो जाती हैं तो वे आदतें हमारी मानसिक प्रवृत्तियों या रुझान में परिणतहो जाती हैं। इसीलिए यदि हमारे मन में सदैव सदिच्छाएं ही उदित होती रहें तो हम सद्कर्म ही करते रहेंगे,हमारी मानसिक प्रवृत्ति सुंदर रहेगी और उन्ही मानसिक प्रवृत्तियों कि समष्टि से हमारा सुंदर चरित्रनिर्मित हो जायगा। एक प्रचलित कहावत है- " जैसा बीज बोओगे, वैसा फसल काटोगे।" सद-विचारों का बीजारोपण करके सद-कर्मों की फसल काटो, सद-कर्मों का बीज बो कर अच्छी-आदतों की फसल काटो, अच्छी आदतों के बीज से सद-प्रवृत्तियों की फसल काटो, और सद-प्रवृत्ति की बीज बो कर सच्चरित्रता की फसल काटो। इस प्रकार हम यह समझ सकते हैं कि हमारा ' भाग्य ' ( या भविष्य ) भी, हमारे ही अच्छे या बुरे चरित्र पर निर्भर करता है। और हमारा ' चरित्र ' सत-असत इच्छाओं में से सदिच्छाओं को ही चयन करके मन में धारण किए रहने के संकल्प पर अटल रहने की क्षमता पर निर्भर करता है। इसप्रकार हम कह सकते हैं कि हमारे चरित्र-निर्माण में इच्छाओं का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है .किंतु इसके लिए दृढ़-संकल्प का रहना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। क्योंकि, जब तक हम अपने ' विवेकसम्मत-इच्छाओं ' से अनुप्रेरित हो कर कर्म नही करेंगे तबतक हम सद्कर्म नहीं कर पाएंगे और सद्चरित्र का गठन भी न हो सकेगा। ' इसीलिए हमें 'श्रेय-प्रेय विवेक (good and pleasant), आत्म -अनात्म विवेक, द्रष्टा-दृश्य विवेक, सत्य-मिथ्या विवेक' में से केवल श्रेय इच्छाओं को ही पूर्ण करने के दृढ़ निश्चयपर निरंतर अटल रहना चाहिए,वरना हमारे कदम लड़खड़ा जायेंगे और हम ठोकर खाकर गिर पड़ेंगे। भर्तृहरि जी अपनी प्रसिद्द पुस्तक 'नीतिशतकम' में कहते हैं : एते सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थान् परित्यज ये सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये | तेऽमी मानवराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे || समाज में चार प्रकार के मनुष्य देखे
जा सकते हैं। प्रथम श्रेणी में वैसे सत्पुरुष लोग हैं, जो अपने स्वार्थ की बात सोचे बिना, निःस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा करते हैं। द्वितीय श्रेणी में साधारण मनुष्य आते हैं, जो पहले अपना कल्याण देखते हैं, फिर दूसरों का कल्याण करते हैं। तीसरी श्रेणी में मानव-राक्षस आते हैं, ये मनुष्य की तरह ही दिखते हैं, किन्तु अपने स्वार्थ को पूर्ण करने के लिये दूसरों की क्षति करने में थोडा भी नहीं संकोच नहीं करते। वे जो कुछ भी करते हैं, केवल अपने स्वार्थ के लिये ही करते हैं। अपने समाज में ऐसे
मानव-राक्षस या पशु-मानव भरी संख्या में उपलब्ध हैं। उदहारण के लिये किसी बाँध, पुल या किसी मकान के निर्माण में संलग्न नेता, इंजीनियर, ठीकेदार मिलकर सीमेन्ट में बालू का अनुपात बढ़ा देते हैं, इससे इनलोगों की स्वार्थ पूर्ति तो हो जाती है, किन्तु राष्ट्र खोखला हो जाता है। उसके बाद चतुर्थ श्रेणी के लोग आते हैं, जो अपना कोई लाभ नहीं होने से भी अकारण ही दूसरों को हांनी पहुंचाते हैं। भर्तृहरी कहते हैं, ऐसे मनुष्यों को किस नाम से पुकारा जाय, या उनकी संज्ञा क्या होनी चाहिये यह मैं नहीं बता सकता। आजकल
मनुष्यों की पाँचवी प्रजाति भी तैयार हो रही है, जिनको तालीबान या आतंकवादी के नाम से हम जानते हैं। ये लोग अपने को विस्फोट से उड़ाकर भी सैंकड़ों निर्दोष मनुष्यों की हत्या कर देते हैं। वर्तमान युग में तीसरी,चौथी और पाँचवी श्रेणी के लोगों की बहुतायत है। दूसरी श्रेणी के मनुष्यों की संख्या भी बहुत कम ही हैं, प्रथम श्रेणी के मनुष्य तो विरले ही देखे जा सकते हैं। इसीलिये स्वामीजी की मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा का प्रचार-प्रसार होना सबसे ज्यादा आवश्यक कार्य है।
दिनांक/ हस्ताक्षर
======================================= ॐ – पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। ========================================= ======================================== ( अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, खरदह, २४ परगना, (पश्चिम बंगाल ) द्वारा प्रसारित ============================================= चरित्र निर्माण हेतु व्यक्ति का कौनसा विकास होना चाहिए?सेवा, दया, परोपकार, उदारता, त्याग, शिष्टाचार और सद्व्यवहार आदि चरित्र के बाह्य अंग हैं, तो सद्भाव, उत्कृष्ट चिंतन, नियमित-व्यवस्थित जीवन, शांत-गंभीर मनोदशा चरित्र के परोक्ष अंग हैं। किसी व्यक्ति के विचार इच्छाएं, आकांक्षाएं और आचरण जैसा होगा, उन्हीं के अनुरूप चरित्र का निर्माण होता है।
चरित्र विकास की प्रक्रिया क्या है?इच्छाशक्ति के बल पर ही चरित्र का विकास होता है। आचरण एवं व्यवहार:- आचरण का अर्थ कार्य को जारी रखने की क्रिया या प्रक्रिया है, और व्यवहार का अर्थ है कि आप सामाजिक मानदंडों के सापेक्ष कैसा व्यवहार कर रहे हैं।
चरित्र निर्माण के लिए क्या पढ़ना चाहिए?निष्कलंक चरित्र निर्माण के लिए नम्रता, अहिंसा, क्षमाशीलता, गुरुसेवा, शुचिता, आत्मसंयम, विषयों के प्रति अनासक्ति, निर्भयता, दानशीलता, स्वाध्याय, तपस्या और त्याग-परायणता जैसे गुण विकसित करने चाहिए। ज्ञान के बिना चरित्र का निर्माण नहीं हो सकता।
चरित्रवान बनने के लिए क्या करना चाहिए?चरित्रवान कैसे बने. वृत्तं यत्नेन संरक्षेद् वित्तमेति च याति च। अक्षीणो वित्ततः क्षीणो वृत्ततस्तु हतो हतः!. भावमिच्छति सर्वस्य नाभावे कुरुते मनः। सत्यवादी मृदृर्दान्तो यः स उत्तमपूरुषः ॥. ✴ क्रोध को अपने ऊपर हावी न होने दें:. ✴ दूसरा गुण है विनम्रता का गुण :. प्राप्नोति वै वित्तमसद्बलेन नित्योत्त्थानात् प्रज्ञया पौरुषेण।. |