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मित्रो , प्रस्तुत कविता 'चारुचंद्र की चंचल किरणें' में कवि मैथिलीशरण गुप्त अपने काव्यग्रंथ ' पंचवटी ' में, भगवान श्रीराम , माता सीता और भाई लक्ष्मण द्वारा वनवास के समय पंचवटी नामक स्थान पर बिताई एक चाँदनी रात का वर्णन कर रहे है , जब भगवान राम और माता सीता विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मण पंचवटी में कुटिया के बाहर पहरा दे रहे हैं। प्रस्तुत है हिंदी में अर्थ / भावार्थ सहित मैथिलीशरण गुप्त जी की एक उत्कृष्ट रचना 'चारुचंद्र की चंचल किरणें' । इसमें उन्होंने बहुत ही अच्छे तरीके से चाँदनी रात में किरणों का खेल और लक्ष्मण जी की मनोस्थिति का वर्णन किया है। चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में। सुंदर चंद्रमा की चंचल किरणें जल और भूमि (थल) सभी स्थानों पर खेल रहीं हैं। पृथ्वी (अवनि) से आकाश तले (अम्बरतल) तक चंद्रमा की स्वच्छ चाँदनी फैली (बिछी) हुई है. पृथ्वी हरी घास के तिनकों की चोंच (नोंकों) के माध्यम से अपने आनंद (पुलक) को व्यक्त कर रही है। ऐसा लगता है पेड़ (तरु) भी हल्की (मन्द) हवा के झोकों से झूम रहे हैं। पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना। पंचवटी में छाया में पत्तों की एक सुंदर कुटिया (पर्ण-कुटीर) बनी हुई है। जिसके सामने (सम्मुख) एक साफ चट्टान या पत्थर (शिला) पर एक धैर्यवान (धीर) , बहादुर (वीर) और निर्भय मन वाला (निर्भीकमना) एक व्यक्ति (लक्ष्मण) बैठा हुआ है। यह कौन धनुष धारण करने वाला है (धनुर्धर) है जो जाग रहा है , जबकि सारा संसार (भुवन भर) सो रहा है। भोगी जीवन जीने वाला , पुष्प (कुसुम) के सामान कोमल यह व्यक्ति , आज एक हथियार (आयुध) धारण किये हुए योगी जैसा दिखाई देता (दृष्टिगत) है। किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये। नींद (निद्रा) का त्याग करके , यह वीर (लक्ष्मण), व्रतधारी किस व्रत (प्रण) का पालन कर रहा है। राजसुख भोगने (राजभोग्य) के लिए योग्य (लायक) यह व्यक्ति , जैसे वन (विपिन) में वैराग्य धारण किये हुए बैठा है। जिसका यह पहरेदार (प्रहरी) बना बैठा है , उस कुटिया (कुटीर) में क्या धन (बहुमूल्य वस्तु) है। जिसकी रखा के लिए इसका शरीर (तन), मन और जीवन लगा हुआ (रत) है। मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामि-संग जो आई है,तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है। धरती (मर्त्यलोक या मृत्युलोक) का मैल मिटाने (मेटने) जो (सीता माता) अपने पति (स्वामी) के साथ जो आयीं हैं। वो तीनों लोकों की लक्ष्मी आज इस कुटिया में रह रहीं हैं। वो (सीता जी ) एक वीर-वंश (रघुवंश) की लाज हैं इसलिए उनका पहरेदार (प्रहरी) भी वीर ही होना चाहिए क्योंकि वह स्थान (देश) निर्जन (विजन) है , रात (निशा) भी बाकी (शेष) है और चारों और राक्षसी (निशाचरी) माया का प्रभाव है, यानि कि उस क्षेत्र में राक्षस रहते हैं । कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता,आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा,है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा? कितनी साफ चांदनी है यह और कितनी ठहरी हुई (निस्तब्ध) रात (निशा) है। हलकी हलकी (मंद) स्वछंद खुशबू (सु गंध) आ रही है। कौन सी दिशा है जो आनंदित नहीं (निरानंद) है, यानि कि सभी ओर आनंद है। अब भी (रात्री में भी) नियति रुपी नर्तकी (नियति -नटी) के काम (कार्य कलाप) बंद नहीं हैं बल्कि कितनी शांति से हो रहे हैं। *नियति का अर्थ है - निश्चित जो होने वाला है या प्रकृति के निश्चित कार्य कलाप। है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर। सबके सोने के पश्चात यह धरती मोती (ओस रुपी) बिखेर देती है । और सुबह होने पर सूर्य प्रकट होने पर ओस की बूँदे ऐसे गायब हो जाती हैं जैसे सूर्य ने मोती बटोर लिए हों। और जब सूर्य अस्त होता है तो शाम आती है जो कि आराम प्रदान करती है। संध्या (या रात्री पूर्व का समय) की काया का रंग श्याम (काला) होता है , जिससे उसका एक नया ही रूप प्रकट होता है। सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है। तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात। तेरह वर्ष बीत (व्यतीत) चुके हैं (वनवास को), पर लगता है जैसे कल की ही बात हो जब हमको (राम , लक्ष्मण और सीता) को वन में जाते (आते) देखकर , दुःख (आर्त्त) के कारण पिताजी (तात) बेहोश (अचेत) हो गए थे। अब वनवास की अवधि पूरी होने का समय निकट आ चुका है। परन्तु इस व्यक्ति (लक्ष्मण) को इससे (राम सीता की सेवा से) बढ़कर किस धन की प्राप्ति होगी। और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे। और भगवान राम (आर्य) को (क्या प्राप्ति होगी वनवास पूरा होने पर) क्योंकि राजकार्य (राज्य-भार) तो वो केवल जनता (प्रजा) की भलाई के लिए ही स्वीकारेंगे (धारेंगे) । वो स्वयं तो राजकार्य में व्यस्त रहेंगे और हम सबको भी मजबूरी (विवश) में भूल जायेंगे (बिसारेंगे)। लोगों का उपकार (लोकोपकार) सोचकर हमें भी इसका कोई दुःख (शोक) नहीं होगा। पर क्या यह मनुष्यलोक (नरलोक) अपना भला (हित) स्वयं (आप) नहीं कर सकता। -- मैथिलीशरण गुप्त शायद आपको यह प्रविष्टियाँ भी अच्छी लगें : मित्रो , यदि आपके पास कोई अच्छी कविता है जो आप इस ब्लॉग पर प्रकाशित करना चाहते हैं तो मुझे पर बताएं। Friend, if you have any good poem which you wish to publish at this blog, then please let me know at बना हुआ है प्रहरी जिसका उस कुटीर में क्या धन है?राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये। जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है! तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है। विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
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. जाग रहा यह कौन धनुर्धर?जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है? भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥ राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये. जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!
चारु चंद्र की चंचल किरणें किसकी रचना है?चारु चंद्र की चंचल किरणें / मैथिलीशरण गुप्त
तरु क्यों झूम रहे हैं?(लक्ष्मण अपने मन में सोचते हैं कि यहाँ कितनी स्वच्छ और चमकीली चाँदनी है और रात्रि भी बहुत शांत है। स्वच्छ, सुगंधित वायु मंद-मंद बह रही है। पंचवटी में किस ओर आनंद नहीं है? इस समय चारों ओर पूर्ण शांति है फिर भी नियतिरूपी नटी अर्थात् नर्तकी अपने कार्य- कलाप बहुत शांत भाव से और चुपचाप पूरा करने में तल्लीन है।)
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