मानव अधिकार से क्या समझते हैं - maanav adhikaar se kya samajhate hain

मानवाधिकार (human rights [1]) वे नैतिक सिद्धान्त हैं जो मानव व्यवहार से सम्बन्धित कुछ निश्चित मानक स्थापित करता है।[2] ये मानवाधिकार स्थानीय तथा अन्तरराष्ट्रीय कानूनों द्वारा नियमित रूप से रक्षित होते हैं।[3]ये अधिकार प्रायः ऐसे 'आधारभूत अधिकार' हैं[4]जिन्हें प्रायः 'न छीने जाने योग्य' माना जाता है और यह भी माना जाता है कि ये अधिकार किसी व्यक्ति के जन्मजात अधिकार हैं। व्यक्ति के आयु, प्रजातीय मूल, निवास-स्थान, भाषा, धर्म, आदि का इन अधिकारों पर कोई प्रभाव नहीं होता। ये अधिकार सदा और सर्वत्र देय हैं तथा सबके लिए समान हैं।[5]

इतिहास[संपादित करें]

अनेक प्राचीन दस्तावेजों एवं बाद के धार्मिक और दार्शनिक पुस्तकों में ऐसी अनेक अवधारणाएं है जिन्हें मानवाधिकार के रूप में चिन्हित किया जा सकता है। ऐसे प्रलेखों में उल्लेखनीय हैं अशोक के आदेश पत्र, श्री राम द्वारा निर्मित अयोध्या का संविधान (राम राज्य) आदि।

आधुनिक मानवाधिकार कानून तथा मानवाधिकार की अधिकांश अपेक्षाकृत व्यवस्थाएं समसामयिक इतिहास से संबंध हैं। द ट्वेल्व आर्टिकल्स ऑफ़ द ब्लैक फॉरेस्ट (1525) को यूरोप में मानवाधिकारों का सर्वप्रथम दस्तावेज़ माना जाता है। यह जर्मनी के किसान - विद्रोह (Peasants' War) स्वाबियन संघ के समक्ष उठाई गई किसानों की मांग का ही एक हिस्सा है। ब्रिटिश बिल ऑफ़ राइट्स ने युनाइटेड किंगडम में सिलसिलेवार तरीके से सरकारी दमनकारी कार्रवाइयों को अवैध करार दिया. 1776 में संयुक्त राज्य में और 1789 में फ्रांस में 18 वीं शताब्दी के दौरान दो प्रमुख क्रांतियां घटीं. जिसके फलस्वरूप क्रमशः संयुक्त राज्य की स्वतंत्रता की घोषणा एवं फ्रांसीसी मनुष्य की मानव तथा नागरिकों के अधिकारों की घोषणा का अभिग्रहण हुआ। इन दोनों क्रांतियों ने ही कुछ निश्चित कानूनी अधिकार की स्थापना की।

"मानवाधिकारों" को लेकर अक्सर विवाद बना रहता है। ये समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि क्या वाकई में मानवाधिकारों की सार्थकता है। यह कितना दुर्भाग्यपू्‌र्ण है कि तमाम प्रादेशिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सरकारी और गैर सरकारी मानवाधिकार संगठनों के बावजूद मानवाधिकारों का परिदृश्य तमाम तरह की विसंगतियों और विद्रूपताओं से भरा पड़ा है। किसी भी इंसान की जिंदगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार है मानवाधिकार है। भारतीय संविधान इस अधिकार की न सिर्फ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोड़ने वाले को अदालत सजा देती है।

सन्दर्भ[संपादित करें]

  1. James Nickel, with assistance from Thomas Pogge, M.B.E. Smith, and Leif Wenar, 13 December 2013, Stanford Encyclopedia of Philosophy, Human Rights. Retrieved 14 August 2014
  2. Moyn 2010, पृष्ठ 8
  3. Macmillan Dictionary, human rights – definition. Retrieved 14 August 2014, "the rights that everyone should have in a society, including the right to express opinions about the government or to have protection from harm"
  4. International technical guidance on sexuality education: an evidence-informed approach (PDF). Paris: UNESCO. 2018. पृ॰ 16. आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 978-9231002595.
  5. Freeman 2002, पृष्ठ 15–17

इन्हें भी देखें[संपादित करें]

  • मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा
  • इस्लाम में मानवाधिकारों की काहिरा घोषणा‎

बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]

  • जानिए मानवाधिकारों की रक्षा की आवश्यकता क्यों हैं
  • मानव अधिकारों का अर्थ
  • मानवाधिकार और राष्ट्रों की संप्रभुता

यह सभी अधिकार जन्मजात अधिकार हैं। मानव अधिकार, मानव स्वभाव में ही अंतर्निहित है तथा इन अधिकारों की अनिवार्यता मानव व्यक्तित्व के समग्र विकास के लिये सदैव रही है।

मानव अधिकार का अर्थ

मानव अधिकार शब्द हिन्दी का युग्म शब्द है जो दो शब्दो मानव + अधिकार से मिलकर बना है। मानव अधिकारों से आशय मानव के अधिकार से है। मानव अधिकार शब्द को पूर्णत: समझने के पूर्व हमें अधिकार शब्द को समझना होगा - हैराल्ड लास्की के अनुसार, ‘‘अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थितियाँ है जिसके बिना आमतौर पर कोई व्यक्ति पूर्ण आत्म-विकास की आशा नहीं कर सकता।’’

वाइल्ड के अनुसार, ‘‘कुछ विशेष कार्यो के करने की स्वतंत्रता की विवेकपूर्ण माँग को अधिकार कहा जाता है।’’ बोसांके के शब्दो में, ‘‘अधिकार वह माँग है जिसे समाज स्वीकार करता है और राज्य लागू करता है।’’

अधिकार वे सुविधाएँ है जो व्यक्ति को जीने के लिए, उसके व्यक्तित्व को पुष्पित और पल्लवित करने के लिए आवश्यक है। मानव अधिकार का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। इसकी परिधि के अन्तर्गत विभिन्न प्रकार के नागरिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों का समावेश है। अपनी व्यापक परिधि के कारण मानव अधिकार शब्द का प्रयोग भी अत्यंत व्यापक विचार-विमर्श का विषय बन गया है। 

मानव अधिकार से क्या समझते हैं - maanav adhikaar se kya samajhate hain

मानव अधिकार की परिभाषा

मानव अधिकार को विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने ढंग से परिभाषित करने का प्रयास किया है - 

आर.जे. विसेंट का मत है कि ‘‘मानव अधिकार वे अधिकार है जो प्रत्येक व्यक्ति को मानव होने के कारण प्राप्त है। इन अधिकारों का आधार मानव स्वभाव में निहित है।’’

ए.ए. सईद के अनुसार, ‘‘मानव अधिकारों का सम्बन्ध व्यक्ति की गरिमा से है एवं आत्म-सम्मान का भाव जो व्यक्तिगत पहचान को रेखांकित करता है तथा मानव समाज को आगे बढाता है।’’

डेविड सेलवाई का विचार है कि ‘‘मानव अधिकार संसार के समस्त व्यक्तियों को प्राप्त है, क्योंकि ये स्वयं में मानवीय है वे पैदा नही किये जा सकते, खरीद या संविदावादी प्रक्रियाओं से मुक्त होते है।’’

डी.डी. बसु का मत है कि ‘‘मानव अधिकार वे अधिकार है जिन्हें प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के मानव परिवार का सदस्य होने के कारण राज्य तथा अन्य लोक सेवक के विरूद्ध प्राप्त होने चाहिए।’’

प्लानों तथा ओल्टन की परिभाषा सर्वाधिक संतुलित है, ‘‘मानव अधिकार वे अधिकार है जो मनुष्य के जीवन, उसके अस्तित्व एवं व्यक्तित्व के विकास के लिए अनिवार्य है।’’ सभी लेखकों का जोर मुख्यत: तीन बातों पर है, पहला मानव स्वभाव, दूसरा मानव गरिमा तथा तीसरा समाज का अस्तित्व।

मानव अधिकार के प्रकार

साधारणत: अधिकारों को दो मुख्य मार्गो में विभाजित किया जाता है - (अ) नैतिक अधिकार, (ब) कानूनी अधिकार। आधुनिक समय में अलग-अलग राजनीतिक व्यवस्थाओं को भिन्न-भिन्न प्रकार के अधिकार प्राप्त होते है। उदारवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जहाँ नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों को विशिष्ट महत्व प्रदान किया जाता है। मानव अधिकारों को निम्नांकित श्रेणियों में विभक्त अथवा वगीकृत किया जाता है -

  1. प्राकृतिक अधिकार
  2. नैतिक अधिकार
  3. कानूनी अधिकार
  4. नागरिक अधिकार
  5. मौलिक अधिकार
  6. आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार

1. प्राकृतिक अधिकार - मनुष्य अपने जन्म से ही कुछ अधिकार लेकर उत्पन्न होता है। यह अधिकार उसे प्रकृति से प्राप्त होते है। प्रकृति से प्राप्त होने के कारण ये स्वाभाविक रूप से मानव स्वभाव मे निहित होते है। जैसे जीवित रहने का अधिकार, स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने का अधिकार।

2. नैतिक अधिकार नैतिक अधिकारों का स्त्रोत समाज का विवेक है। नैतिक अधिकार वे अधिकार है जिनका सम्बन्ध मानव के नैतिक आचरण से होता है। नैतिक अधिकार राज्य द्वारा सुरक्षित नही होते, अत: इनका मानना व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर होता है। नैतिक अधिकारों को धर्मशास्त्र तथा जनता की आत्मिक चेतना के दबाव में स्वीकार करवाया जाता है।

3. कानूनी अधिकार - कानूनी अधिकार वे होते है, जिनकी व्यवस्था राज्य द्वारा कानून के अनुसार की जाती है और जिनका उल्लंघन राज्य द्वारा दण्डनीय होता है। यह अधिकार न्यायालय द्वारा लागू किये जाते है। सामाजिक जीवन का विकास होने के साथ-साथ इन अधिकारों में वृद्धि होती रहती है। कानून के समक्ष समानता तथा कानून का समान संरक्षण इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।

4. नागरिक अधिकार - नागरिक और राजनीतिक अधिकार वे अधिकार होते है जो मानव को राज्य का सदस्य होने के नाते प्राप्त होते है। इन अधिकारों के माध्यम से व्यक्ति अपने देश के शासन प्रबंध में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाग लेता है। उदारवादी प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं मे नागरिक एवं राजनीतिक अधिकारों का विशिष्ट महत्व है।

5. मौलिक अधिकार आधुनिक समय में प्रत्येक सभ्य राज्य संविधान बनाते समय उसमें मूल अधिकारों का प्रावधान करते है। जनतंत्र में व्यक्ति का महत्व होता है। संविधान में मौलिक अधिकारों का उल्लेख होने से स्वतंत्रता का दायरा स्पष्ट होता है तथा राजनीतिक मतभेदों से इन्हें ऊपर उठा दिया जाता है। व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए इन अधिकारो को अपरिहार्य माना गया है।

6. आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार - मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, वह समाज में सबके साथ मिलकर रहना चाहता है। समाज का भाग होने के कारण वह कई आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं का सदस्य भी होता है ओर उनकी गतिविधियों में भाग लेता है।

मानव अधिकारों के वर्गीकरण की यह फेहरिस्त बडी लंबी है। समय के साथ-साथ यह फेहरिस्त बढ़ती भी जा रही है। मानव अधिकारों में कौन से अधिकार महत्वपूर्ण है, कौन से कम महत्व के है, इसका निर्धारण करना कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य है। मानव अधिकारों के संबंध में वैश्विक घोषणा के बाद मानव अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया गया है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि ‘‘मानव जीवन के समग्र विकास के लिए सभी अधिकारों की सुरक्षा एवं क्रियान्वयन अनिवार्य है।’’

मानव अधिकार के सिद्धांत

मानव अधिकारों के बारे में और गहरी समझ विकसित करने के लिए यह जरूरी है कि इस विषय पर उपलब्ध राजनीतिक सिद्धांतों का खुलासा किया जाए। इस संदर्भ में कई सिद्धांत है।

  1. प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत
  2. अधिकारों का कानूनी सिद्धांत
  3. गैर उपयोगितावादी सिद्धांत
  4. विधिक यथार्थवादी सिद्धांत
  5. मार्क्सवादी सिद्धांत

प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत

यह अधिकारों के सिद्धांत का सबसे प्राचीन सिद्धांत है और इसका उदय प्राचीन ग्रीक में हुआ था। इस सिद्धांत के अनुसार, अधिकार मनुष्य के स्वभाव से संबंधित है इसलिए स्वत: प्रामाणिक सत्य है। यह इस बात पर भी बल देता है कि प्राकृतिक अधिकार राज्य एवं समाज की स्थापना के पहले से ही मानव के साथ रह रहे है या मानव उनका उपभोग करता रहा है। लॉक इस सिद्धांत का अधिकारी प्रवर्तक था। 

इस सिद्धांत के आलोचकों के अनुसार, अधिकार भाववाचक नहीं होता है। यह केवल व्यक्तिगत भी नहीं होता है। अधिकार समाज में ही पैदा ओर लागू हो सकता है। अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के को दो पहलू है फिर भी इस सिद्धांत ने इस धारणा को महत्व प्रदान किया कि मानव अधिकारों का हनन नहीं किया जा सकता है।

अधिकारों का कानूनी सिद्धांत

यह सिद्धांत प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत के प्रतिक्रिया स्वरूप पैदा हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार, मानव अधिकार राज्य के कानूनी शक्ति द्वारा ही पैदा किया जा सकता है। थॉमस हॉब्स और बेंथम तथा ऑस्टिन ने इस सिद्धांत को विकसित किया। अधिकार पूरी तरह से उपयोगितावाद पर आधािरत है। व्यक्ति को सामाजिक हित में कुछ अधिकार छोड़ने पडते है। केवल कानून अधिकारों का जन्मदाता नहीं हो सकता है, इसमें परम्पराएँ, नैतिकता एवं प्रथाएँ आदि भी महत्वपूर्ण योगदान देती है। मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए राज्य की भूमिका स्वीकार की गई है।

गैर उपयोगितावादी सिद्धांत

द्वार्वाकिन नाजिक और जॉनराल्स इस सिद्धात के प्रवर्तक है। इस विचार पद्धति के अनुसार व्यक्तिगत एवं सामाजिक अधिकारों के मध्य कोई आपसी विरोध नहीं होना चाहिए, बल्कि एक सम भाव जरूरी है।

विधिक यथार्थवादी सिद्धांत

यह एक समकालीन विचार माला है। यह मूलत: अमेरिका में राष्ट्रपति रूजवेल्ट के ‘न्यू डील पॉलिसी’ के दौरान उद्भुत हुआ था। कार्ल लेवलेन तथा रेस्क्य ू पाउडं जसै े न्यायविदों ने इस सिद्धांत को आगे बढाया। यह सिद्धांत मानव अधिकारों के व्यवहारिक पक्ष पर बल देता है।

मार्क्सवादी सिद्धांत

मार्क्स के अनुसार, अधिकार वास्तव मे बुर्जुवा (पूँजीपति) समाज की अवधारणा है जो शासक वर्ग को और मजबूत बनाती है। राज्य स्वयं में एक शोषणपरक संस्था है, अतएव पूँजीवादी समाज एवं राज्य में अधिकार वर्गीय अधिकार है। मार्क्स का दृढ़ विश्वास था कि मानव अधिकार एक वर्गहीन समाज में पैदा और जीवित रह सकता है। इस तरह का समाज वैज्ञानिक समाजवादी विचारों के अनुसार ही गढा जा सकता है। 

सामाजिक और आर्थिक अधिकार इस सिद्धांत के लिए अधिक महत्वपूर्ण है। इस सिद्धांत ने आर्थिक, सामाजिक आरै सांस्कृतिक अधिकारों  के अंतर्राष्ट्रीय घोषणा पत्र (1966) को भी प्रभावित किया है। सभी सिद्धांत अपने समय की विशेष दशाओं की उपज है और सब में कुछ न कुछ तथ्य निहित है।

मानव अधिकारों से आप क्या समझते है?

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मानव अधिकार वे अधिकार हैं, जो कि सभी मनुष्यों को प्राप्त होने चाहिए। मानव जाति के विकास के लिए मानव होने के नाते प्रत्येक व्यक्ति को यह अधिकार मिलने ही चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1948 में स्वीकृत मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा-पत्र में मनुष्य के मौलिक अधिकारों को स्वीकृत किया।

मानव अधिकार से आप क्या समझते हैं निबंध?

सामाजिक सुरक्षा का अधिकार और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की प्राप्ति का अधिकार अर्थात समाज के एक सदस्य के रूप में प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा का अधिकार है और प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के उस स्वतंत्र विकास तथा गौरव के लिए - जो राष्ट्रीय प्रयत्न या अंतर्राष्ट्रीय सहयोग तथा प्रत्येक राज्य के ...

मानव अधिकार से आप क्या समझते हैं कोई पांच?

मानव अधिकारों से तात्पर्य उन सभी अधिकारों से हैं जो व्यक्ति के जीवन, स्वतंत्रता, समानता एवं प्रतिष्ठा से जुड़े हुए है। यह अधिकार भारतीय संविधान के भाग-तीन में मूलभूत अधिकारों के नाम से वर्णित किए गए हैं और न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय हैं