संविधान के तीन प्रमुख भाग हैं। भाग एक में संघ तथा उसका राज्यक्षेत्रों के विषय में टिप्पणीं की गई है तथा यह बताया गया है कि राज्य क्या हैं और उनके अधिकार क्या हैं। दूसरे भाग में नागरिकता के विषय में बताया गया है कि भारतीय नागरिक कहलाने का अधिकार किन लोगों के पास है और किन लोगों के पास नहीं है। विदेश में रहने वाले कौन लोग भारत के नागरिक के अधिकार प्राप्त कर सकते हैं और कौन नहीं कर सकते। तीसरे भाग में भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों के विषय में विस्तार से बताया गया है। Show
संविधान भाग 1 संघ तथा उसका राज्यक्षेत्र[संपादित करें]इंडिया जो कि भारत है राज्यों का एक संघ है [1] संघ राज्यों के समझौते से नहीं बना है अतः वे संघ से पृथक होने का अधिकार भी नहीं रखते, अतः संघ अविनाश्य है [2] वे ही राज्य जो कि संघ केन्द्र से संबंध रखते है इसके भाग है न कि संघीय क्षेत्र संविधान भाग 2 नागरिकता[संपादित करें]किसी भी देश मे रहने वाले व्यक्ति नागरिक तथा विदेशी दो भागों में विभाजित किये जाते
हैं। नागरिक वह है जो राजनैतिक समाज का हिस्सा है तथा संविधान तथा अन्य कानूनों में दिये सभी लाभो का लाभ उठाता है 1 सभी नागरिको हेतु एक ही नागरिकता संविधान भाग 3 मौलिक अधिकार[संपादित करें]मौलिक अधिकार नागरिको के अधिकार है इनको
अमेरिकी संविधान के बिल ऑफ राइट से लिया गया है। इन अधिकारॉ को मौलिका मानने का कारण ये हैं-<br 1 इनकी उपस्थिति एक व्यक्ति के लिये आवश्यक है ताकि वह अपनी शारीरिक, बौद्धिक तथा आध्यातमिक क्षमताऑ का पूर्ण विकास कर सके 1 ये अधिकार व्यक्तियों द्वारा उपभोग्य है तथा राज्य के विरूद्ध दिये गये है न कि व्यक्ति या निजी संगठन के विरूद्ध
[गतिविधि, अस्पृश्यता के अधिकार अपवाद है] मौलिक अधिकारों तथा अन्य वैधानिक अधिकारों में भेद[संपादित करें]1 मौलिक अधिकारों के उल्लघंन की दशा में व्यक्ति सीधे अनु 32 के
अंर्तगत सर्वोच्च न्यायालय जा कर इन्हें लागू करवा सकता है न्यायिक पुनर्रविक्षण [समीक्षा] न्यायिक समीक्षा के प्रावधान संविधान में स्पष्ट तथा पृथक रूप से वर्णित नहीं है परंतु इनका उदगम सर्वोच्च न्यायालय के शक्तियों में है [अनु 13,32] तथा उच्च न्यायालय का शक्तियों में है। यह अधीनस्थ न्यायालयों को प्राप्त नहीं है इस अधिकार के प्रयोग करते हुए ये न्यायालय किसी विधि को संविधान का उल्लघंन करने की सीमा तक अवैध घोषित कर सकते हैं। यह समीक्षण शक्ति विधायिका के साथ ही कार्य-पालिका के विरूद्ध भी प्रयोग की जा सकती है। न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत[संपादित करें]1 यह सीमित शासन के सिद्धांत पे आधारित है यदि इसने दो व्याख्याएँ हो और एक ने
वैध तथा दूसरे ने अवैध घोषित किया है तो प्रथम मान्य होगी मौलिक अधिकारों मे संशोधना का प्रश्न ?[संपादित करें]अनु 13[2] की सरसरी व्याख्या मौलिक अधिकारों संशोधन का पात्र नहीं बताती है परंतु संसद ने पहली ही संशोधन विधि द्वारा जब कि संसद के चुनाव भी नहीं हुए थे इस में संशोधन करना शुरू कर दिया था> शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ वाद 1951 में प्रथम संशोधन को चुनौती दी गयी, तब सर्वोच्च न्यायालय ने अनु 13[2] की व्याख्या करते हुए संसद की दो विधान शक्तियाँ बतायी थीं-- [1] सामान्य जिसका प्रयोग से बना एक्ट विधि कहलायेगा [2] सवैधानिक – जिस्का प्रयोग करने पर संशोधन उत्पन्न होगा अनु 368[3] का समावेश कर कहा गया कि 13वॅ अनुच्छेद में कहा गया कोई शब्द अनु 368 पे लागू नहीं होगा।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य विवाद में 24 वे सशोधन
की वैधता का प्रश्न उठाया गया अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायाल्य ने इस सशोधन को वैध घोषित कर दिया साथ ही संसद को सविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने का अधिकारी माना तथा गोलकनाथ वाद के निर्णय को रद्द कर दिया परंतु सर्वोच्च न्यायालय ने संशोधन करने की संसदीय शक्ति को असीम नहीं माना संशोधन द्वारा संविधान के आधारभूत ढाँचे को नष्ट या बदला नहीं जा सकता यधपि वह किसी भी अनुच्छेद में संशोधन को स्वतंत्र है यह आधारभूत ढाँचा एक न्यायिक आविष्कार है न कि कोई संवैधानिक शब्द है परंतु न्यायालय ने इस ढाँचे
का संकेत भर दिया है न कि स्पष्ट वर्णन बाद के वादों के निर्णयॉ में इस का वर्णन मिलता है। ये है 1 देश की संप्रुभता यह सूची यही समाप्त नहीं हो जाती अन्य लक्षण भी हो सकते है जिनका निर्धारण करने की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय के पास है। मौलिक ढाँचा संविधान के उन भागो से मिल कर बना है जिनके बिना संविधान अपना मौलिक स्वरूप ही खो देता है। 42 वां संशोधन 1976[संपादित करें]नव स्थापित अनु 368[4] –अनु 368 के अंतर्गत किया गया कोई भी संशोधन किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पे चुनौती नहीं दी जा सकती है। अनु 368[5] अस्पष्टता दूर करने के लिये यह घोषित किया जाता है कि संसद की संशोधन शक्ति पे कोई भी बंधन नहीं है। मिनर्वा मिल बनाम भारत संघ वाद 1980 इस वाद में दिये गये निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने 368[4],[5] को रद्द कर दिया क्योंकि वे संविधान के मौलिक ढाँचे का उल्लंघन करते है वे न्यायिक पुनरीक्षण शक्ति को मान्यता नहीं देते है। अब यह सुस्थापित तथ्य है कि संसद की शक्ति असीमित नहीं है। मौलिक ढाँचे के लाभ मौलिक अधिकारों का निलम्बन[संपादित करें]अनु 352 के अनुसार जब राष्ट्रीय आपातकाल लागू हो तो अनु 358,359 राष्ट्रपति को यह
अधिकार देते है कि वह मौलिक अधिकारॉ को निलम्बन कर दे [राष्ट्रीय आपातकाल ----युद्ध, बाहरी आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह की द्शा में] अनु 358[1] युद्ध अथवा बाहरी आक्रमण की द्शा मॅ 19वॅ अनु मॅ दिये गये अधिकार स्वतः निलंबित हो जाते है इस कारण तब राष्ट्रपति को पृथक से आदेश देने की आवश्यक्ता नहीं है। अनु 359 जब राष्ट्रीय आपातकाल किसी भी कारण से लागू हो तो राष्ट्रपति एक पृथक घोषणा के माध्यम से एक या अधिक मौलिक अधिकारॉ को निंलबित कर सकता है। परंतु अनु 20,21 में दिये अधिकार किसी भी दशा में वापिस नहीं लिये जा
सकते है अनुच्छेद 358 तथा 359 के प्रावधानॉ मॅ भेद का प्रकार अनु 358 मौलिक अधिकारॉ का वर्गीकरण[संपादित करें]1 समानता के अधिकार अनु 14 से अनु 18 कुल 5 अनुच्छेद है 1 सामान्यता स्वतंत्रता शोषण धार्मिक सांस्कृतिक संवैधानिक उपचार है समानता के अधिकार[संपादित करें]अनु 14 राज्य विधि के समक्ष समानता अथवा विधि का समान संरक्षण प्रदान करेगा विधि के
समक्ष समानता ब्रिटिश संविधान से लिया गया है यह नकारात्मक अधिकार है जो किसी व्यक्ति के विशेषाधिकारों को नकारता उसके अनुसार 1 कोई भी व्यक्ति तब तक शारीरिक –आर्थिक रूप से दंडित नहीं होगा जब तक विधि का उल्लंघन न करे अनु 17 यह अस्पृश्यता का निवारण करता है इसका कोई अपवाद नहीं है, यध्पि सविन्धान अस्पृश्यता हेतु कोई दंड अनु 18 उपाधियॉ का उन्मूलन करता है18[1] राज्य नागरिकॉ अथवा गैरनागरिकॉ को विधा अथवा सैन्य सेवा स्वतंत्रता का अधिकार[संपादित करें]अनुच्छेद 19 अनु 19[1] (ब) जन सम्मेलन करने, प्रस्ताव पारित करने का अधिकार देता है, यह सम्मेलन निशस्त्र तथा शांतिपूर्ण 1 आजीविका/जीवन जीने अनु 19[1] [द] गतिविधि आवागमन की स्वतंत्रता का अधिकार एक नागरिक को अधिकार है कि वह भारत के राज्य क्षेत्र
में कही भी आने जाने की पूर्ण स्वतंत्रता हैइस के अंतर्गत आवागमन का सम्य, माध्यम, तथा स्थान भी निहित है इस पर ये रोक लगी हुई है[जन हित, राष्ट्रसुरक्षा, जनजातीय आबादी के हितो की सुरक्षा] अनु 20 अपराधों के सम्बन्ध में दोष सिद्धि से संरक्षण से सम्बन्धित अधिकार [राज्य के विरूद्ध] अनु 21 कोई भी व्यक्ति अपने जीवन अथवा दैहिक स्वंतत्रता से सिवाय विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के वंचित नहीं किया जा सकेगा वहीं डयू प्रोसेस ऑफ ला जो कि अमेरिकी शब्दावली है, न्यायालय को अधिकार देता है कि वह किसी व्यक्ति के जीवन तथा स्वतंत्रताओं की रक्षा न केवल विधायिका के कुप्रयासॉ से कर बल्कि यह भी देखे कि क्या विधि सदभावनापूर्ण है ? इस हेतु वह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का प्रयोग करेगा इस तरह यह प्रक्रिया
न्यायालय को अधिक शक्तिमान बनाता है अनु 21 [ए] यह अनु 86 वे संशोधन 2002 द्वारा स्थापित किया गया है यह अनु प्राथमिक शिक्षा को 6 से 14 आयुवर्ग हेतु एक मौलिक अधिकार बनाता है ये शिक्षा निःशुल्क तथा अनिवार्य होगीइसी के द्वारा एक नया मौलिक कर्तव्य 51 ए[के] स्थापित किया गया है जो परिजनों हेतु अपने 6 से 14 आयु वर्ग के बच्चॉ हेतु शिक्षा प्राप्त करने दे अनु 22 –कुछ
विशेष स्थितियॉ मॅ गिरफ्तारियॉ द्वारा निरोध से संरक्षण देता है ये है 1 गिरफ्तार किया गया व्यक्ति हिरासत में बिना उसे गिरफ्तारी के कारण बताये नहीं लिया जायेगा जोगेंदर कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य वाद 1994 में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था कि गिरफ्तार व्यक्ति को अपने मित्र, रिश्तेदार अथवा किसी परिचित को अपनी गिरफ्तारी की सूचना देने का अधिकार होगा अनु 23,24 शोषण के विरूद्ध अधिकार[संपादित करें]अनु 23---- मानव दुरव्यापार तथा बन्धुआ मजदूरी के विरूद्ध अधिकार देता है
महिला बच्चॉ तथा निशतःजनॉ को अनैतिक गतिविधिय़ो में धकेलने से रोकने का अधिकार देता है अनु 25-28 धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार[संपादित करें]अनु 25.—व्यक्ति को धर्म का पालन करने का अधिकार देता है राज्य धार्मिक प्रथाऑ मॆ जनहित हेतु रोक भी लगा सकता है अनु 26 धार्मिक संस्थानॉ का अधिकार[जन नैतिकता, स्वास्थय तथा व्यवस्था के आधार पर रोक लग सकती है ]1 धार्मिक संस्थान स्थापित करने, संचालित करने तथा चैरिटेबल ट्रस्ट गठित करने शिक्षण संस्थाओं के चार प्रकार है[संपादित करें]शिक्षण संस्थाओं के चार प्रकार है सांस्कृतिक तथा शैक्षणिक अधिकार[संपादित करें]अनु 29 अल्पसंख्य्कॉ के हितों का संरक्षण 29 [2] किसी नागरिक को किसी शैक्षणिक संस्था[जो कि राज्य द्वारा संचालित, प्रबन्धित अथवा अनुदानित है] में प्रवेश हेतु धर्म, नस्ल, जाति, भाषा, अथवा इनमे किसी एक आधार पे रोका नहीं जायेगा अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानॉ के अधिकार[संपादित करें]अनुच्छेद 30. अल्पसंख्यक समुदाय के लोग अपनी रूचि की शिक्षण संस्थानों की स्थापना एवं प्रबंधन करने का अधिकार रखते है। इस अधिकार को अनुच्छेद 15(5) के द्वारा प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। अल्पसंख्यक का अर्थ है- समुचित सरकार अधिसूचना द्वारा जिसे अल्पसंख्यक घोषित करती है। अल्पसंख्यक शब्द के अंतर्गत केवल भाषाई एवं धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल है। संवैधानिक उपचारो की प्राप्ति की प्राप्ति का अधिकार[संपादित करें]अनु 32 यह अधिकार सभी व्यक्तियॉ को सर्वोच्च
न्यायालय में जाने तथा अपने मौलिक अधिकारॉ को लागू करवाने का अधिकार देता है पाँच प्रकार के रिट[संपादित करें]1 बन्दी प्रत्यक्षीकरण -------किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत आजादी को निर्धारित करने के
लिये प्रयोग आती है इसका प्रयोग तब होता है जब किसी व्यक्ति को बिना प्राधिकार के निरोध में रखा गया हो यह व्यक्ति- राज्य दोनो के विरूद्ध प्रभावी है तथा सबंधित व्यक्ति के अलावा भी कोई अन्य व्यक्ति संगठन इस को ला सकता है मसलन प्रेम विवाह करने के बाद यदि लडकी के परिजन उसे पति घर नहीं जाने देते तो उसका पति यह याचिका लगा सकता है सर्वोच्च न्यायालय की शक्ति मात्र
अनु 32 तक सीमित है यानि केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के समय इस का प्रयोग किया जा सकता है किंतु उच्च न्यायालय अनु 32 के साथ अनु 226 के अंतर्गत अन्य वैधानिक अधिकार को लागू करवाने के लिये भी इनका प्रयोग कर सकता है इस तरह उच्च न्यायालय की अधिकारिता वृहद है भारतीय संविधान में समानता के लिए कौन कौन से प्रावधान किए गए हैं लिखिए?संविधान के अनुच्छेद 14 में भारतीय नागरिकों के बहुमूल्य लोकतंत्रीय अधिकार का अथवा कानून के समय सभी समान हैं के सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है। समता के महत्वपूर्ण सिद्धांत की संविधान के अनुच्छेद 15, 16, तथा 29 में विस्तृत व्याख्या की गई है। इनके संबंध में विस्तार से आगे विचार किया जायेगा।
समानता का संवैधानिक प्रावधान क्या है?हमारे संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 16, 17 और 18 के तहत समानता का अधिकार दिया गया है। ये लेख नागरिकों को कानून के समक्ष समान व्यवहार और कानून की समान सुरक्षा, सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर सुनिश्चित करते हैं और भेदभाव और अस्पृश्यता को रोकते हैं जो सामाजिक बुराइयाँ हैं।
भारतीय संविधान में समानता से क्या तात्पर्य है?भारत के संविधान में समानता के अधिकारों का स्थान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 में इस अधिकार का वर्णन किया गया है। विधि के समक्ष समता के अधिकार का यह भी अर्थ है, कि जन्म या विचार या संप्रदाय के आधार पर किसी भी व्यक्ति का कोई विशेषाधिकार नहीं होगा तथा देश का सामान्य कानून सभी वर्ग के लोगों पर समान रूप से लगाया जाएगा।
भारतीय संविधान का कौन सा अनुच्छेद समानता का अधिकार देता है?हमारे देश के नागरिकों की समानता और जाति, लिंग, धर्म, जन्म स्थान अनुच्छेद 14 से 18 तक परिभाषित किया गया है । हमारा भारतीय संविधान उदार है और प्रत्येक व्यक्ति को बोलने, काम करने, जीने का समान अधिकार देता है।
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