भारतीय साहित्य की प्रमुख विशेषताएं क्या है - bhaarateey saahity kee pramukh visheshataen kya hai

निर्देश: नीचे दिए गये गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए तथा गद्यांश में वर्णित तथ्यों के आधार पर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए।            हमारे साहित्य पर दो प्रधान रूपों में प्रभाव पड़ा- हमारे साहित्य में एक ओर तो पवित्र भावनाओं तथा जीवन संबंधी गंभीर विचारों की अधिकता हुई और दूसरी ओर साधारण लौकिक भावों का विस्तार अधिक नहीं हुआ। हिन्दी की चरम उन्नति का काल भक्तिकाल का काव्य है, जिसमें ये दोनों विशेषताएँ देखी जा सकती हैं।            धार्मिकता के भाव से प्रेरित होकर जिस सरल और सुंदर साहित्य की सृष्टि हुई वह वास्तव में हमारे गौरव की वस्तु है। परन्तु समाज में जिस प्रकार धर्म के नाम पर अनेक दोष घुस जाते हैं, उसी प्रकार साहित्य में भी होता है। हिन्दी साहित्य में हम इसे दो रूपों में पाते हैं- एक तो सांप्रदायिक कविता और नीरस उपदेशों के रूप में तथा दूसरा कृष्ण का आधार लेकर की गई श्रृंगारी कविताओं के रूप में। राधा-कृष्ण को लेकर हमारे श्रृंगारी कवियों ने जिस प्रकार की रचनाएँ की वह समाज के लिए हितकर नहीं हुआ।            भारतीय साहित्य की उपर्युक्त दो विशेषताएँ के साथ-साथ कुछ देशगत विशेषताएँ भी हैं। संसार के सब देश एक प्रकार के नहीं होते। जलवायु तथा अन्य भौगोलिक विशेषताओं में भी अंतर पाया जाता है। इन विभिन्न भौगोलिक स्थितियों का उन देशों के साहित्य में जो संबंध होता है उसे ही उसकी देशगत विशेषताएँ कहा जाता है। समस्त भारतीय साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता उसके मूल में स्थित समन्वय की भावना है। 

Question 1: भारतीय साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता क्या है?

D. अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण की भावना

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SOLUTION

लेखक के अनुसार भारतीय साहित्य की सबसे बड़ी विशेषता है, समन्वय की भावना| इसके बल के कारण ही भारतीय साहित्य समाज में अपनी मौलिकता की पत्रिका निकाल रहा है| साहित्य समाज का प्रतिरूप है अतः उसमें आपसी अंतर्विरोध नहीं हो सकता| अन्य सभी विकल्प साहित्य का एक अंश हैं मगर विशेषता नहीं|

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 भारतीय साहित्य की विशेषताएँ

UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi गद्य गरिमा Chapter 3 भारतीय साहित्य की विशेषताएँ

लेखक का साहित्यिक परिचय और भाषा-शैली

प्रश्न:
श्यामसुन्दर दास के जीवन-परिचय एवं प्रमुख कृतियों का उल्लेख करते हुए उनकी भाषा-शैली की विशेषताएँ भी लिखिए।
या
श्यामसुन्दर दास का साहित्यिक परिचय दीजिए।
या
श्यामसुन्दर दास की भाषा-शैली की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
जीवन-परिचय:
द्विवेदी युग के महान् साहित्यकार एवं हिन्दी को गौरव के शिखर पर प्रतिष्ठित करने वाले बाबू श्यामसुन्दर दास हिन्दी-साहित्य की उन महान् प्रतिभाओं में से हैं, जिन्होंने भावी पीढ़ी को मौलिक साहित्य-लेखन की प्रेरणा प्रदान की। ये ‘काशी नागरी प्रचारिणी सभा’ के संस्थापक, ‘हिन्दी शब्दसागर के विद्वान् सम्पादक, समर्थ समालोचक, प्रसिद्ध निबन्धकार एवं कुशल अध्यापक थे।
श्यामसुन्दर दास जी का जन्म काशी में एक खत्री परिवार में सन् 1875 ई० में हुआ था। इनके पिताजी का नाम देवीदास खन्ना था। ये बी० ए० की परीक्षा उत्तीर्ण करके सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज में अंग्रेजी के अध्यापक और बाद में कालीचरण हाईस्कूल, लखनऊ में प्रधानाध्यापक हो गये। अन्त में ये काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अध्यक्ष बने और अवकाश ग्रहण करने तक इसी पद पर बने रहे। इनकी साहित्य-सेवाओं से प्रभावित होकर अंग्रेज सरकार ने इन्हें ‘रायबहादुर’ की उपाधि से, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग ने ‘साहित्य-वाचस्पति की उपाधि से तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने डी० लिट्०’ की मानद उपाधि से सम्मानित किया। निरन्तर अथक परिश्रम के कारण इनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और सन् 1945 ई० में इनका स्वर्गवास हो गया।

साहित्यिक सेवाएँ: श्यामसुन्दर दास जी हिन्दी साहित्याकाश के ऐसे नक्षत्र हैं जिन्होंने अपने प्रकाश से हिन्दी साहित्य को प्रकाशित कर दिया। आपने ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ के माध्यम से अनेक दुर्लभ और प्राचीन ग्रन्थों की खोज की। महावीरप्रसाद द्विवेदी जी का निम्नांकित कथन इस सत्य की पुष्टि करता हैं

मातृभाषा के प्रचारक विमल बी० ए० पास।
सौम्य-शील-निधान बाबू श्यामसुन्दर दास ॥

श्यामसुन्दर दास जी ने अपने जीवन के पचास वर्षों में अनवरत रूप से हिन्दी की सेवा करते हुए, उसे कोश, इतिहास, काव्यशास्त्र एवं सम्पादित-ग्रन्थों से समृद्ध किया। हिन्दी के समस्त अभावों को दूर करने का व्रत लेने वाले इस महान् साहित्यकार ने अपने कुछ मित्रों के सहयोग से सन् 1893 ई० में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की। इन्होंने विश्वविद्यालय की उच्च कक्षाओं के लिए हिन्दी का पाठ्यक्रम भी निर्धारित किया। इसके साथ-ही-साथ इन्होंने श्रेष्ठ साहित्य का सृजन भी किया। श्यामसुन्दर दास जी ने हिन्दी को सर्वजन सुलभ, वैज्ञानिक और समृद्ध बनाने के लिए अप्रतिम योगदान दिया। इन्होंने निम्नलिखित रूपों में हिन्दी-साहित्य की स्तुत्य सेवी की

(क) सम्पादक के रूप में।
(ख) साहित्य-इतिहास लेखक के रूप में।
(ग) निबन्धकार के रूप में।
(घ) आलोचक के रूप में।
(ङ) भाषा-वैज्ञानिक के रूप में।
(च) शब्दकोश-निर्माता के रूप में।

कृतियाँ:
श्यामसुन्दर दास जी आजीवन साहित्य-सेवा में संलग्न रहे। इन्होंने अनेक रचना-सुमन समर्पित कर । हिन्दी-साहित्य के भण्डार को भरा। इनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं

(1) निबन्ध-संग्रह:  ‘हिन्दी का आदिकवि’, ‘नीतिशिक्षा’, ‘गद्य कुसुमावली’ आदि पुस्तकों में इनके विविध विषयों पर आधारित निबन्ध संकलित हैं। कुछ निबन्ध ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका में भी प्रकाशित हुए। ‘साहित्यिक
लेख’ इनके साहित्यिक निबन्धों का संग्रह है।
(2) आलोचना:  ‘साहित्यालोचन’, ‘रूपक-रहस्य’, ‘गोस्वामी तुलसीदास’, ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र आदि सैद्धान्तिक और व्यावहारिक आलोचनाओं की श्रेष्ठ रचनाएँ हैं।
(3) भाषा-विज्ञान: ‘हिन्दी भाषा का विकास’, ‘भाषा-विज्ञान’, ‘हिन्दी भाषा और साहित्य तथा ‘भाषा-रहस्य भाषा-विज्ञान सम्बन्धी इनकी श्रेष्ठ कृतियाँ हैं।
(4) इतिहास: ‘हिन्दी-साहित्य का इतिहास’ एवं ‘कवियों की खोज।
(5) आत्मकथा:  ‘मेरी आत्म-कहानी।
(6) सम्पादित ग्रन्थ:  हिन्दी निबन्धमाला’, ‘रामचरितमानस’, ‘कबीर ग्रन्थावली’, ‘भारतेन्दु नाटकावली’, ‘द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ’, ‘हिन्दी शब्दसागर’, ‘हिन्दी वैज्ञानिक कोश’, ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’, ‘मनोरंजन पुस्तकमाला’, ‘छत्र प्रकाश’, ‘शकुन्तला नाटक’, ‘इन्द्रावती’, ‘नासिकेतोपाख्यान’, ‘वनिता-विनोद’ आदि।
(7) पाठ्य-पुस्तकें:  ‘भाषा सार-हिन्दी संग्रह’, ‘हिन्दी पत्र-लेखन’, ‘हिन्दी ग्रामर’, ‘हिन्दी कुसुमावली’ आदि। इस प्रकार श्यामसुन्दर दास जी ने साहित्य के परिष्कार हेतु अथक परिश्रम किया और लगभग 100 ग्रन्थों की रचना करके हिन्दी की अपूर्व सेवा की।

भाषा और शैली

(अ) भाषागत विशेषताएँ
हिन्दी भाषा को सर्वजन-सुलभ, वैज्ञानिक और समृद्ध बनाने वाले बाबू श्यामसुन्दर दास ने गम्भीर विषयों पर साहित्य-रचना की है; अत: उनकी भाषा में विषयों के अनुरूप गम्भीरता का होना स्वाभाविक है। इन्होंने संस्कृत की तत्समप्रधान शब्दावली से युक्त परिष्कृत, परिमार्जित, सुगठित एवं प्रवाहमयी भाषा को अपनाया। ये भाषा को सरल और शुद्ध बनाने के पक्षपाती थे। इसलिए इनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों की प्रधानता है और उर्दू, फारसी के शब्दों का प्रायः अभाव। इन्होने यदि कहीं विदेशी शब्दों का प्रयोग भी किया है तो उसे हिन्दी की। प्रकृति के अनुरूप तद्भव बनाकर। इनकी भाषा में मुहावरे और लोकोक्तियों के प्रयोग नहीं के बराबर हैं। संस्कृतनिष्ठ होते हुए भी भाषा में प्रसाद गुण का माधुर्य है। इन्होंने भाषा का व्याकरणसम्मत प्रयोग किया है। इनका वाक्य-विन्यास सरल, संयत और सुगठित है।

(ब) शैलीगत विशेषताएँ
अत्यन्त गम्भीर विषयों को बोधगम्य शैली में प्रस्तुत करने वाले बाबू श्यामसुन्दर दास ने अपने व्यक्तित्व के अनुरूप विषयों के प्रतिपादन हेतु गम्भीर शैली को अपनाया। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने भाषा और शैली के परिमार्जन का कार्य किया तो श्यामसुन्दर दास ने उसे संयत और सुनिश्चित रूप प्रदान किया। इनकी शैली के मुख्य रूप निम्नलिखित हैं

(1) विवेचनात्मक शैली: श्यामसुन्दर दास जी ने इस शैली का प्रयोग साहित्यिक निबन्धों में किया है। इसमें गम्भीरता तथा तत्सम शब्दावली की प्रचुरता है।
(2) आलोचनात्मक शैली: श्यामसुन्दर दास जी ने इस शैली का प्रयोग अपनी आलोचनात्मक रचनाओं में किया है। तार्किकता एवं गम्भीरता इस शैली की विशेषता है।
(3) गवेषणात्मक शैली: इस शैली में बाबूजी ने खोजपूर्ण, नवीन और गम्भीर निबन्धों की रचना की है। इसमें भाषा संस्कृतप्रधान और वाक्य लम्बे हैं।
(4) भावात्मक शैली: इस शैली में भाव-प्रवणता के साथ-साथ आलंकारिकता एवं कवित्वमयता का गुण भी है।।
(5) व्याख्यात्मक शैली: बाबू श्यामसुन्दर दास ने कठिन विषय को समझाने के लिए व्याख्यात्मक शैली अपनायी है।

साहित्य में स्थान: आधुनिक युग के भाषा और साहित्य के प्रमुख लेखकों में बाबू श्यामसुन्दर दास का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने अनुपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों का सम्पादन करके तथा हिन्दी-भाषा को विश्वविद्यालय स्तर तक पठनीय बनाकर आधुनिक हिन्दी-साहित्य की अपूर्व सेवा की है।

गद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर

प्रश्न:
दिए गए गद्यांशों को पढ़कर उन पर आधारित प्रश्नों के उत्तर दीजिए(1)

प्रश्न 1:
साहित्यिक समन्वय से हमारा तात्पर्य साहित्य में प्रदर्शित सुख-दु:ख, उत्थान-पतन, हर्ष-विषाद आदि विरोधी तथा विपरीत भावों के समीकरण तथा एक अलौकिक आनन्द में उनके विलीन होने से है। साहित्य के किसी अंग को लेकर देखिए, सर्वत्र यही समन्वय दिखायी देगा। भारतीय नाटकों में ही सुख और दु:ख के प्रबल घात-प्रतिघात दिखाये गये हैं, पर सबका अवसान आनन्द में ही किया गया है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) साहित्यिक समन्वय से क्या तात्पर्य है?
(iv) प्रस्तुत गद्यांश में भारतीय साहित्य की किस भावना पर गम्भीर विचार हुआ है?
(v) कहाँ पर सुख-दुःख के प्रबल प्रतिघात दिखाए गए हैं?
उत्तर:
(i) प्रस्तुत गद्यांश हमारी, पाठ्य-पुस्तक ‘गद्य-गरिमा’ में संकलित एवं हिन्दी के प्रसिद्ध निबन्धकार श्यामसुन्दर दास द्वारा लिखित
‘भारतीय साहित्य की विशेषताएँ’ शीर्षक निबन्ध से उद्धृत है। अथवा निम्नवत् लिखिए
पाठ का नाम – भारतीय साहित्य की विशेषताएँ।
लेखक का नाम – श्यामसुन्दर दास।।
[संकेत-इस पाठ के शेष सभी गद्यांशों के लिए प्रश्न (i) का यही उत्तर लिखना है।]

(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या: हमारे नाटकों में, कहानियों में और साहित्य की किसी भी विधा में सर्वत्र यही समन्वय पाया जाता है। हमारे नाटकों में सुख और दु:ख के प्रबल घात-प्रतिघात दिखाये जाते हैं, पर सबका अन्त आनन्द में ही किया जाता है; क्योंकि हमारा ध्येय जीवन का आदर्श रूप उपस्थित कर उसे उन्नत बनाना रहा है।
(iii) साहित्यिक समन्वय से हमारा तात्पर्य साहित्य में प्रदर्शित सुख-दु:ख, उत्थान-पतन, हर्ष-विषाद आदि विरोधी तथा विपरीत भावों के समीकरण तथा एक अलौकिक आनन्द में उनके विलीन होने से है।
(iv) प्रस्तुत गद्यांश में भारतीय साहित्य में समन्वय की भावना पर गम्भीरता से विचार हुआ है।
(v) भारतीय नाटकों में सुख-दु:ख के प्रबल प्रतिघात दिखाए गए हैं।

प्रश्न 2:
भारतीय दर्शनों के अनुसार परमात्मा तथा जीवात्मा में कुछ भी अन्तर नहीं, दोनों एक ही हैं, दोनों सत्य हैं, चेतन हैं तथा आनन्दस्वरूप हैं। बंधन मायाजन्य है। माया अज्ञान उत्पन्न करने वाली वस्तु है। जीवात्मा मायाजन्य अज्ञान को दूर कर अपना स्वरूप पहचानता है और आनन्दमय परमात्मा में लीन होता है। आनन्द में विलीन हो जाना ही मानव-जीवन का परम उद्देश्य है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) भारतीय दर्शन के अनुसार आत्मा और परमात्मा के बारे में क्या बताया गया है?
(iv) मानव-जीवन का परम उद्देश्य क्या है?
(v) अज्ञान उत्पन्न करने वाली वस्तु क्या है?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश को व्याख्या: जब माया से उत्पन्न अनान दूर हो जाता है तो जीवात्मा अपने स्वरूप को पहचानकर आनन्दमय परमात्मा में लीन हो जाता है। इससे उसके दुःखों का अन्त हो जाता है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जीवात्मा द्वारा अपने स्वरूप को पहचानकर आनन्दमय परमात्मा में लीन हो जाना ही मानव-जीवन का मुख्य उद्देश्य है।
(iii) भारतीय दर्शन के अनुसार परमात्मा तथा जीवात्मा में कोई अन्तर नहीं, दोनों एक ही हैं, दोनों सत्य हैं, चेतन हैं तथा आनन्दस्वरूप हैं।
(iv) आनन्द में विलीन हो जाना ही मानव-जीवन का परम उद्देश्य है।
(v) माया अज्ञान उत्पन्न करने वाली वस्तु है।

प्रश्न 3:
भारत की शस्यश्यामला भूमि में जो निसर्ग-सिद्ध सुषमा है, उस पर भारतीय कवियों का चिरकाल से अनुराग रहा है। यों तो प्रकृति की साधारण वस्तुएँ भी मनुष्यमात्र के लिए आकर्षक होती हैं, परन्तु उसकी सुन्दरतम विभूतियों में मानव-वृत्तियाँ विशेष प्रकार से रमती हैं। अरब के कवि मरुस्थल में बहते हुए किसी साधारण से झरने अथवा ताड़ के लंबे-लंबे पेड़ों में ही सौन्दर्य का अनुभव कर लेते हैं तथा ऊँटों की चाल में ही सुन्दरता की कल्पना कर लेते हैं; परन्तु जिन्होंने भारत की हिमाच्छादित शैलमाला पर संध्या की सुनहली किरणों की सुषमा देखी है; अथवा जिन्हें घनी अमराइयों की छाया में कल-कल ध्वनि से बहती हुई निर्झरिणी तथा उसकी समीपवर्तिनी लताओं की वसन्तश्री देखने का अवसर मिला है, साथ ही जो यहाँ के विशालकाय हाथियों की मतवाली चाल देख चुके हैं, उन्हें अरब की उपर्युक्त वस्तुओं में सौन्दर्य तो क्या; उलटे नीरसता, शुष्कता और भद्दापन ही मिलेगा।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) किस पर भारतीय कृवियों का चिरकाल से अनुराग रहा है?
(iv) अरब का भौगोलिक सौन्दर्य क्या है?
(v) अमराइयों की छाया में कल-कल ध्वनि से बहती निर्झरणी कहाँ की भौगोलिक सुन्दरता का बखान करती है?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या: अरब एवं भारत के प्राकृतिक सौन्दर्य और दोनों देशों के कवियों की सौन्दर्यानुभूति में पर्याप्त अन्तर है। अरब देश में सौन्दर्य के नाम पर केवल रेगिस्तान, रेगिस्तान में प्रवाहित होते हुए कुछ साधारण से झरने अथवा ताड़ के कुछ लम्बे-लम्बे वृक्ष एवं ऊँटों की चाल ही देखने को मिलती है। यही कारण है कि अरब के कवियों की कल्पना मात्र इतने-से सौन्दर्य तक ही सीमित रह जाती है। इसके विपरीत भारत में प्रकृति के विविध मनोहारी रूपों में अपूर्व सौन्दर्य के दर्शन होते हैं; उदाहरणार्थ-हिमालय की बर्फ से आच्छादित पर्वतश्रेणियाँ, सन्ध्या के समय उन पर्वतश्रेणियों पर पड़ने वाली सूर्य की सुनहली किरणों से उत्पन्न अद्भुत शोभा, सघन आम के बागों की छाया में कल-कल का निनाद करते हुए बहने वाली छोटी-छोटी नदियाँ, इन्हीं के निकट लताओं के पल्लवित एवं पुष्पित होने से उत्पन्न वसन्त की अनुपम छटा तथा भारत के वनों में विचरण करने वाले विशालकाय हाथियों की मतवाली चाल आदि। भारत में इस प्रकार के अनेक रमणीय प्राकृतिक दृश्य देखने को मिलते हैं, जिनके समक्ष अरब के सीमित प्राकृतिक सौन्दर्य में केवल नीरसता, शुष्कता और भद्देपन की ही अनुभूति होती है।
(iii) भारत की शस्यश्यामला भूमि में जो निसर्ग-सिद्धि सुषमा है, उस पर भारतीय कवियों का चिरकाल से अनुराग रहा है।
(iv) अरब का भौगोलिक सौन्दर्य है-मरुस्थल में बहता कोई साधारण-सा झरना अथवा ताड़ के लम्बे-लम्बे पेड़।
(v) अमराइयों की छाया में कल-कल ध्वनि से बहती निर्झरणी भारत की भौगोलिक सुन्दरता का बखान करती है।

प्रश्न 4:
प्रकृति के विविध रूपों में विविध भावनाओं के उद्रेक की क्षमता होती है; परन्तु रहस्यवादी कवियों को अधिकतर उसके मधुर स्वरूप से प्रयोजन होता है, क्योंकि भावावेश के लिए प्रकृति के मनोहर रूपों की जितनी उपयोगिता है, उतनी दूसरे रूपों की नहीं होती। यद्यपि इस देश की उत्तरकालीन विचारधारा के कारण हिन्दी में बहुत थोड़े रहस्यवादी कवि हुए हैं, परन्तु कुछ प्रेम-प्रधान कवियों ने भारतीय मनोहर दृश्यों की सहायता से अपनी रहस्यमयी उक्तियों को अत्यधिक सरस तथा हृदयग्राही बना दिया है। यह भी हमारे साहित्य की एक देशगत विशेषता है।
(i) उपर्युक्त गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या कीजिए।
(iii) प्रेम-प्रधान कवियों ने किनकी सहायता से अपनी रहस्यमयी उक्तियों को अत्यधिक सरस तथा हृदयग्राही बना दिया है?
(iv) प्रकृति के किस स्वरूप से रहस्यवादी कवियों का प्रयोजन होता है?
(v) देश की किस विचारधारा के कारण हिन्दी में बहुत थोड़े रहस्यवादी कवि हुए हैं?
उत्तर:
(ii) रेखांकित अंश की व्याख्या: श्यामसुन्दर दास जी का कहना है कि व्यक्ति के सम्मुख प्रकृति अपने विभिन्न रूपों में उपस्थित होती है। जिस प्रकार प्रकृति के विभिन्न रूप हैं, उसी प्रकार व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में भी विभिन्न भावनाएँ विद्यमान होती हैं। इनमें से कुछ दमित होती हैं तो कुछ मुक्त। यही कारण है। कि प्रकृति के विभिन्न रूप व्यक्ति के मन में विविध भावनाओं की वृद्धि करते हैं।
(iii) प्रेम-प्रधान कवियों ने भारतीय मनोहर दृश्यों की सहायता से अपनी रहस्यमयी उक्तियों को अत्यधिक सरस तथा हृदयग्राही बना दिया है।
(iv) प्रकृति के मधुर स्वरूप से रहस्यवादी कवियों का प्रयोजन होता है।
(v) देश की उत्तरकालीन विचारधारा के कारण हिन्दी में बहुत थोड़े रहस्यवादी कवि हुए हैं।

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भारतीय साहित्य की प्रमुख विशेषता क्या है?

(1) समन्वय की भावना को भारतीय साहित्य की पहली विशेषता बताया गया है। (2) भाषा- शुद्ध साहित्यिक हिन्दी। (3) शैली- गंभीर विषय को बोधगम्य विचारात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है। (4) वाक्य-विन्यास सुगठित एवं शब्द-चयन उपयुक्त है।

साहित्य क्या है और साहित्य की विशेषताएं?

भाषा के माध्यम से अपने अंतरंग की अनुभूति, अभिव्यक्ति करानेवाली ललित कला 'काव्य' अथवा 'साहित्य' कहलाती है। वैसे साहित्य शब्द को परिभाषित करना कठिन है। जैसे पानी की आकृति नहीं, जिस साँचे में डालो वह ढ़ल जाता है, उसी तरह का तरल है यह शब्द। हिंदी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है- गद्य पद्य और चम्पू।

भारतीय साहित्य का अर्थ क्या है?

भारतीय साहित्य से तात्पर्य सन् 1947 के पहले तक भारतीय उपमहाद्वीप एवं तत्पश्चात् भारत गणराज्य में निर्मित वाचिक और लिखित साहित्य से है। विश्व का सबसे पुराना वाचिक साहित्य आदिवासी भाषाओं में मिलता है। इस दृष्टि से आदिवासी साहित्य सभी साहित्य का मूल स्रोत है।

साहित्य कितने प्रकार के होते हैं?

हिन्दी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है- गद्य, पद्य और चम्पू।