१८७० के दशक तक यूरोपीय दार्शनिकों द्वारा और अधिक तात्विक मंथन के बाद, बहुवाद ने अपनी छाप अन्य क्षेत्रों में भी छोड़ी, जैसे दृ विभिन्न सामाजिक विज्ञान । जॉन ड्यूवे ने इसे भिन्नताओं एवं विविधता पर जोर दिए जाने की एक प्रवृत्ति के रूप में अलग रखा और कहा कि बहुवाद ने “इस सिद्धांत को जन्म दिया कि सच्चाई विभिन्न व्यक्तियों की भिन्नता अथवा विविधता में ही निहित है।‘‘ बहुवाद ने व्यवहार मूलक राजनीति के अधिकारक्षेत्रा में अपना रास्ता १९वीं शताब्दी के आरम्भ में बनाया। हैरॉल्ड लास्की, फ्रेडेरिक मैत्लां, जी.डी.एच. कोल, सिडनी एवं तीतरिस वैब तथा अन्य ने संप्रभुता संबंधी अद्वैत सिद्धांत के सार भाग की आलोचना की जो कि राज्य की संप्रभुता को अवियोज्य और अविभाज्य बताते थे। उनके अनुसार, राज्य की सत्ता राजनीतिक अधिकारक्षेत्रा में अन्य सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक आयकर्ताओं के प्रभाव द्वारा सीमाबद्ध है। साथ ही उनका तर्क है कि यह राज्य के ही हित में है कि इन एकाधिक संस्थाओं की सत्ता की स्वीकार करे। Show प्रस्तावना बहुसंख्यक समुदाय आंतरिक रूप से विभाजित भी हैं और उन्हें अनेक ऐसे समूहों व उप-समूहों में बाँटा जा सकता है जो अपने-अपने तरीकों से सत्ता और प्रभाव के लिए स्पर्धा करते हैं। विभिन्न समूहों के बीच संघर्ष ने इन राष्ट्रीय एकीकरण प्रयासों के सामने समस्याएँ पैदा की हैं, साथ ही राष्ट्रीय सुरक्षा को प्रभावित किया है। दक्षिण एशियाई राज्यों ने एक राज्य-समर्थित प्रक्रिया के माध्यम से इस प्रकार की प्रतिस्पर्धात्मक एकाधिकता पर नियंत्राण पाने के लिए राजनीतिक रूप से प्रयास किए हैं, जिसे प्रायः ‘राष्ट्र-निर्माण‘ कहा जाता है। ऐसे प्रयासों का मूल दबाव इस बात पर रहा है कि एक प्रबल बोधन को दूसरों की तुलना में विशेषाधिकार प्रदान कर दिया जाये तथा मतभेदों की उपेक्षा की जाये। सभी सांस्कृतिक एवं राष्ट्रीय पहचानें एक अद्वितीय समग्रता में सिमट आयें, यथा ‘एक राष्ट्र‘ । ऐसे स्वांगीकारक राष्ट्र-निर्माण प्रयास असफल रहे हैं क्योंकि ‘राष्ट्र‘ संबंधी इस प्रकार के राज्य-समर्थित विचार सभी समूहों को आकर्षित कर पाने में नाकामयाब रहे हैं। बाहुल्य के सामने चुनौती मूलतः राज्य द्वारा इसी प्रकार के दिग्भ्रमित प्रयासों से ही उत्पन्न होकर आन खड़ी हुई है। इस प्रकार एक समंजनवादी मनःस्थिति बनाने और एकाधिकता को सांस्कृतिक स्तरों पर मान्यता दिए जाने की आवश्यकता है। राज्य को निष्पक्ष रहना चाहिए और बहुलता एवं विविधता को स्वीकार, समायोजित, रक्षा प्रदान तथा प्रोत्साहन प्रदान करना चाहिए, न कि उन्हें समांगी बनाने एवं आत्मसात करने का प्रयास करता चाहिए। ऐसे अनेक प्रत्ययात्मक आदर्श हैं जो इस प्रकार के बाहुल्य प्रबंधन से वास्ता रखते हैं और हमारे ध्यान व ज्ञान के योग्य हैं। इन राज्यों को एक ऐसे संतुलित राज्य प्राधार की जरूरत है जो सभी के लिए समंजनकारी हो और किसी के लिए भी पक्षपातकारी न होय साथ ही एक राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत है जो प्रत्येक सदस्य व समूह की नागरिक स्वतंत्राताओं की रक्षा करे। निम्नलिख्ति चर्चा यहाँ व्यक्त किए गए इन्हीं विचारों की व्याख्या करती है। दक्षिण एशिया में बहुवाद नियंत्रण के समक्ष चुनौतियाँ उद्देश्य बोध प्रश्न १ बोध प्रश्नों १ उत्तर २) दक्षिण एशिया के सभी देश भाषा, धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, आदि के आधार पर सामाजिक समूहों के बीच समाज में दरारों से घिरे हैं। राजनीतिक अभिजात वर्ग उन्हें अपने लाभ के लिए इच्छानुकूल कर लेते हैं, जो लोगों के अधिकारों तथा लोकतंत्रा को भारी हामिहुँचाता है। बहुलवाद का प्रमुख सिद्धांत क्या है?बहुलवादियों का कहना है कि राज्य समाज की अन्य सभी संस्थाओं से ऊपर नहीं इसलिए केवल राज्य को ही राजसत्ता का उपभोग करने की स्वतंत्रता नहीं होनी चाहिए। बहुलवादी विचारक लाॅस्की नैतिकता की दृष्टि से भी इस सिद्धान्त को अनुचित मानते हैं क्योंकि यह बिना सोचे समझे राज्य के प्रत्येक आदेश को मानना व्यक्ति के लिए अनिवार्य मानता हैं।
बहुलवादी विचारधारा क्या है?बहुलवादी विचारधारा के अनुसार राजसत्ता सम्प्रभु और निरंकुश नहीं है। समाज में विद्यमान अन्य अनेक समुदायों का अस्तित्व राजसत्ता को सीमित कर देता है। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए केवल राज्य की ही सदस्यता स्वीकार नहीं करता, वरन् राज्य के साथ-साथ दूसरे अनेक समुदायों और संघों की सदस्यता भी स्वीकार करता है।
समाज को समझने के बहुलवादी दृष्टिकोण क्या है?बहुलवादी विचारक राज्य की एकमात्र प्रभुसत्ता में विश्वास नहीं करते हैं। उसके अनुसार, मानव अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न समुदायों का संगठन करता है, जिनमें से राज्य भी एक है। अतः राज्य को अन्य समुदायों से ऊपर कोई भी स्थान प्रदान करना उचित न होगा।
|