Arjun को काबू में कैसे करें? - arjun ko kaaboo mein kaise karen?

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फिर क्रमशः घुघुरू, शङ्ख, घण्टा, ताल, मुरली, भेरी, मृदङ्ग, नफीरी और सिंहगर्जनके सदृश, शब्द सुनायी देते हैं।

इस प्रकार, दस प्रकारके शब्द सुनायी देने लगनेके बाद,
दिव्य ॐ शब्द का श्रवण होता है,
जिससे साधक समाधिको प्राप्त हो जाता है।

यह भी मनके निश्चल करनेका उत्तम साधन है।


10. ध्यान या मानसपूजा

सब जगह, भगवानके किसी नामको लिखा हुआ समझकर,
वारंवार उस नामके ध्यानमे, मन लगाना चाहिये अथवा
भगवानके किसी स्वरूपविशेषकी, अन्तरिक्ष में मनसे कल्पना कर,
उसकी पूजा करनी चाहिये।

पहले भगवान की मूर्तिके एक-एक अवयवका, अलग-अलग ध्यान कर,
फिर दृढताके साथ, सारी मूर्तिका ध्यान करना चाहिये।

(जैसे शिव पंचाक्षर मंत्र में शिव के गुणों का और उनके स्वरुप का वर्णन किया है)

उसीमे मनको अच्छी तरह स्थिर कर देना चाहिये।

मूर्तिके ध्यानमे इतना तन्मय हो जाना चाहिये कि, संसारका भान ही न रहे।

फिर कल्पना-प्रसूत सामग्रियोंसे, भगवान की मानसिक पूजा करनी चाहिये।

(जैसे शिव मानस पूजा मंत्र में भगवान् शिव की पूजा मनद्वारा, मन में ही, की जाती है)

प्रेमपूर्वक की हुई नियमित भगवद उपासनासे,
मनको निश्चल करनेमें बड़ी सहायता मिल सकती है।


11. मैत्री-करुणा-मुदिता-उपेक्षाका व्यवहार

योगदर्शनमें महर्षि पतञ्जलि एक उपाय यह भी बतलाते हैं –

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां
सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां
भावनातश्चित्तप्रसादनम्।
(समाधिपाद ३३ )

अर्थात, सुखी मनुष्योसे प्रेम, दुखियोंके प्रति दया, पुण्यात्माओंके प्रति प्रसन्नता ओर पापियोके प्रति उदासीनताकी भावनासे, चित्त प्रसन्न होता है।


जगत् के सारे सुखी जीवोंके साथ, प्रेम करनेसे चित्तका ईर्ष्यामल दूर होता है, द्वेषकी आग बुझ जाती है।

संसारमे लोग, अपनेको और अपने आत्मीय स्वजनोंको, सुखी देखकर प्रसन्न होते हैं, क्योंकि वे उन लोगोंको, अपने प्राणों के समान प्रिय समझते हैं।

यदि यही प्रिय भाव, सारे ससारके सुखियोंके प्रति अर्पित कर दिया जाय, तो कितने आनन्दका कारण हो !

दूसरेको सुखी देखकर, जलन पैदा करनेवाली वृत्तिका, नाश हो जाय।


दुखी प्राणियोंके प्रति, दया करनेसे, परअपकाररूप चित्त-मल नष्ट होता है।

मनुष्य अपने कष्टोंको दूर करनेके लिये, किसीसे भी पूछनेकी आवश्यकता नहीं समझता,

भविष्यमे कष्ट होनेकी सम्भावना होते ही, पहलेसे उसे निवारण करनेकी चेष्टा करने लगता है।

यदि ऐसा ही भाव, जगत्के सारे दुखी जीवोंके साथ हो जाय तो, अनेक लोगोंके दुःख दूर हो सकते हैं।

दुःखपीड़ित लोगोंके दुःख दूर करनेके लिये, अपना सर्वस्व न्योछावर कर देनेकी प्रबल भावनासे, मन सदा ही प्रफुल्लित रह सकता है।


धार्मिकोंको देखकर हर्षित होनेसे, दोषारोप नामक मनका विकार नष्ट होता है,

साथ ही धार्मिक पुरुषकी भॉति, चित्तमें धार्मिक वृत्ति जागृत हो उठती है।

विकारों के दूर होते ही, चित्त शान्त होता है।


पापियोके प्रति उपेक्षा करनेसे, चित्तका क्रोधरूप मल नष्ट होता है।

पापोंका चिन्तन न होनेसे, उनके सस्कार अन्तःकरणपर नहीं पड़ते।

किसीसे भी घृणा नहीं होती।

इससे चित्त शांत रहता है।

इस प्रकार इन चारो भावोंके, बारबार अनुशीलनसे, चित्तकी राजस, तामस वृत्तियाँ नष्ट होकर,

सात्त्विक वृत्तिका उदय होता है और उससे चित्त प्रसन्न होकर, शीघ्र ही एकाग्रता लाभ कर सकता है।


12. सदग्रंथो का अध्ययन

भगवान के परम रहस्यसम्बन्धी, परमार्थ-ग्रन्थोंके पठन पाठन से भी, चित्त स्थिर होता है।

एकान्तमें बैठकर, श्रीमद्भगवद्गीता, उपनिषद्, श्रीमद्भागवत, रामायण आदि प्रन्थोंका अर्थ सहित पाठ करनेसे, वृत्तियाँ तदाकार बन जाती हैं।

इससे मन स्थिर हो जाता है।


13. प्राणायाम

प्राणायाम से योग के सम्बन्धमें महत्वपूर्ण बात – इस मार्ग में सद्गुरुकी सलाह के बिना कोई कार्य नहीं करना चाहिये। योगाभ्यासमें देखादेखी करनेमे, उलटा फल हो सकता है।

समाधि से भी मन रुकता है।

समाधि अनेक तरहकी होती है।

प्राणायाम समाधिके साधनोका, एक मुख्य अङ्ग है।

योगदर्शनमे कहा गया है –

प्रच्छईनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। ( समाधिपाद ३४)

नासिकाके छेदोंसे अन्तरकी वायुको बाहर निकालना, प्रच्छर्दन कहलाता है, और प्राणवायुकी गति रोक देनेको विधारण कहते हैं।

इन दोनों उपायोसे भी चित्त स्थिर होता है।

श्रीमद्भगवद्गीतामे भगवान् ने भी कहा है –

अपाने जुद्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणा॥

कई अपानवायुमें प्राणवायुको हवन करते हैं, कई प्राणवायुमें अपानवायुका हवन करते हैं और कई प्राण, और अपानकी गतिको रोककर, प्राणायाम किया करते हैं।

इसी तरह योगसम्बन्धी ग्रन्थोंके अतिरिक्त, महाभारत, श्रीमद्भागवत और उपनिषदोंमे भी, प्राणायामका यथेष्ट वर्णन है।

श्वास-प्रश्वासकी गतिको रोकनेका नाम ही, प्राणायाम है।

मनु महाराजने कहा है –

दद्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः।
तयेन्द्रियाणां दद्यन्ते दोपाः प्राणस्य निग्रहात्।

अग्निमें तपाये जानेपर, जैसे धातुका मल जल जाता है, उसी प्रकार प्राणवायुके निग्रहसे, इन्द्रियोंके सारे दोष नष्ट हो जाते है।

प्राणोंको रोकनेसे ही मन रुकता है।

इनका एक दूसरेके साथ घनिष्ट सम्बन्ध है।

मन सवार है, तो प्राण वाहन है।

एकको रोकनेसे, दोनों रुक जाते है।

प्राणायामके सम्बन्धमे, योगशान्त्रमे, अनेक उपदेश मिलते हैं, परन्तु वे बड़े ही कठिन हैं।

योगसाधनमे अनेक नियमोंका, पालन करना पड़ता है।

योगाभ्यासके लिये बड़े ही कठोर, आत्मसंयमकी आवश्यकता है।

आजकलके समयमें तो, कई कारणोंसे योगका साधन, एक प्रकारसे असाध्य ही समझना चाहिये।

यहा पर प्राणायामके सम्बन्धमें, केवल इतना ही कहा जाता है कि,

बाई नासिकासे बाहरकी वायुको, अन्तरमें ले जाकर स्थिर रखनेको, पूरक कहते हैं,

दाहिनी नासिकासे अन्तरकी वायुको, बाहर निकालकर बाहर स्थिर रखनेको, रेचक कहते है और

जिसमें अन्तरकी वायु, बाहर न जा सके और बाहरकी वायु अन्तरमें प्रवेश न कर मके, इस भावसे प्राणवायु रोक रखनेको कुंभक कहते हैं।

इसीका नाम प्राणायाम है।

सााधारणतः, चार बार मन्त्र जपकर पूरक, सोलह बाारके जपसे कुम्मक और आठ बारके जपसे रेचककी विधि है।

परन्तु इस सम्बन्धमें उपयुक्त, सद्गुरुकी आज्ञा बिना, कोई कार्य नहीं करना चाहिये।

योगाभ्यासमें देखादेखी करनेमे, उलटा फल हो सकता है।

देखा देसी साधै जोग।
छीजै काया बाढ़ै रोग।

पर यह स्मरण रहे कि, प्राणायाम, मनको रोकनेका, एक बहुत ही उत्तम साधन है।


14. श्वासके द्वारा नाम-जप

मनको रोककर परमात्मामें लगानेका, एक अत्यन्त सुलभ और आशंका रहित उपाय और है, जिसका अनुष्ठान सभी कर सकते है।

वह है, आने-जानेवाले श्वास – प्रश्वास की गतिपर, ध्यान रखकर, श्वासके द्वारा, श्रीभगवान के नामका जप करना।

यह अभ्यास बैठते-उठते, चलते-फिरते, सोते-खाते हर समय, प्रत्येक अवस्थामे किया जा सकता है।

इसमे श्वास, जोर-जोर से लेनेकी भी, कोई आवश्यकता नहीं।

श्वासकी साधारण चालके साथ-ही-साथ, नामका जप किया जा सकता है।

इसमे लक्ष्य रखनेसे ही, मन रुककर नामका जप हो सकता है।

श्वासके द्वारा नामका जप करते समय, चित्तमें इतनी प्रसन्नता होनी चाहिये कि, मानो मन आनन्दसे उछला पड़ता हो।

आनन्द रससे भरा हुआ, अन्तःकरणरूपी पात्र मानो, छलका पडता हो।

यदि इतने आनन्दका अनुभव न हो तो, आनन्दकी भावना ही करनी चाहिये।

इसीके साथ भगवान को, अपने अत्यन्त समीप जानकर, उनके स्वरूपका ध्यान करना चाहिये, मानो उनके समीप होनेका प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है।

इस भावसे संसारकी सुध भुलाकर, मनको परमात्मामे लगाना चाहिये।


15. ईश्वर-शरणागति

ईश्वर-प्रणिधानसे भी मन वशमें होता है,

अनन्य भक्तिसे परमात्माके शरण होना, ईश्वर-प्रणिधान कहलाता है।

ईश्वर शब्दसे यहाँ पर, परमात्मा और उनके भक्त, दोनों ही समझे जा सकते हैं।

‘ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’, ‘तस्मिस्तजने भेदाभावात्’, ‘तन्मयाः’ –

इन श्रुति और भक्तिशास्त्रके सिद्धान्त-वचनोंसे, भगवान्, ज्ञानी और भक्तोंकी एकता सिद्ध होती है।

श्रीभगवान् और उनके भक्तोंके प्रभाव और चरित्रके चिन्तनमात्रसे, चित्त आनन्दसे भर जाता है।

संसारका बन्धन मानो, अपने-आप टूटने लगता है।

अतएव भक्तोंका सङ्ग करने, उनके उपदेशोंके अनुसार चलने और भक्तोंकी कृपाको ही,

भगवत्प्राप्तिका प्रधान उपाय समझनेसे भी, मनपर विजय प्राप्त की जा सकती है।

भगवान् और सच्चे भक्तोंकी कृपासे, सब कुछ हो सकता है।


16. मनके कार्योंको देखना

मनको वशमें करनेका, एक बड़ा उत्तम साधन है,

मनसे अलग होकर, निरन्तर, मनके कार्योको, देखते रहना।

जबतक हम, मनके साथ मिले हुए है, तभीतक, मनमें इतनी चञ्चलता है।

जिस समय हम, मनके द्रष्टा बन जाते हैं, उसी समय, मनकी चञ्चलता मिट जाती है।

वास्तवमें तो मनसे, हम सर्वथा भिन्न ही है।

किस समय मनमे क्या सकल्प होता है, इसका पूरा पता हमें रहता है।

मुंबईमे बैठे हुए एक मनुष्यके मनमे, दिल्ली किसी दृश्यका सङ्कल्प होता है, इस बाातको यह अच्छी तरह जानता है।

यह निर्विवाद बात है कि, जानने या देखनेवाला, जाननेकी वा देखनेकी वस्तुसे, सदा अलग होता है।

ऑखको आँख नहीं देख सकती।

इस न्यायसे मनकी बातोंको, जो जानता या देखता है, वह मनसे सर्वथा भिन्न है, भिन्न होते हुए भी, वह अपनेको मनके साथ मिला लेता है,

इसीसे उसका जोर पाकर मनकी उद्दण्डता बढ़ जाती है।

यदि साधक अपनेको निरन्तर अलग रखकर, मनकी क्रियाओंका, द्रष्टा बनकर देखनेका अभ्यास करे,

तो मन बहुत ही शीघ्र, सङ्कल्परहित हो सकता है।


17. भगवन्नामकीर्तन

मग्न होकर उच्च स्वरसे, परमात्माका नाम और गुणकीर्तन, करनेसे भी मन परमात्मामें, स्थिर हो सकता है।

भगयान् चैतन्यदेवने तो मनको निरुद्धकर, परमात्मामे लगानेका, यही परम साधन बतलाया है।

भक्त जब अपने प्रभुका, नाम-कीर्तन करते-करते, गद्गदकण्ठ, रोमाञ्चित और अश्रुपूर्णलोचन होकर, प्रेमावेशमें अपने आपको सर्वथा भुलाकर, केवल परमात्माके रूपमें, तन्मयता प्राप्त कर लेता है,

तब भला, मनको जीतने में, और कौन-सी बात बच रहती है ?

अतएव, प्रेमपूर्वक परमात्माका नामकीर्तन करना, मनपर विजय पानेका एक अत्युत्तम साधन है।

इस प्रकारसे मनको रोककर, परमात्मामें लगानेके अनेक साधन और युक्तियाँ हैं।

इनमेंसे या अन्य किसी भी युक्तिसे, किसी प्रकारसे भी, मनको विषयोंसे हटाकर, परमात्मामे लगानेकी चेष्टा करनी चाहिये।

मनके स्थिर किये बिना, अन्य कोई भी अवलम्बन नहीं।

जैसे चञ्चल जलमें, रूप विकृत दीख पड़ता है, उसी प्रकार चञ्चल चित्तमें, आत्माका यथार्थ स्वरूप, प्रतिबिम्बित नहीं होता।

परन्तु जैसे स्थिर जलमें, प्रतिबिम्ब जैसा होता है, वैसा ही दीखता है, इसी प्रकार केवल स्थिर मनसे ही, आत्माका यथार्थ स्वरूप, स्पष्ट प्रत्यक्ष होता है।

अतएव प्राणपणसे, मनको स्थिर करनेका, प्रयत्न करना चाहिये।

अबतक जो इस मनको स्थिर कर सके है, वे ही उस श्यामसुन्दरके, नित्यप्रसन्न नवीन-नील-नीरद, प्रफुल्ल मुखारविन्दका दर्शन कर, अपना जन्म और जीवन सफल कर सके है।

अर्जुन ने कृष्ण से क्या पूछा?

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ ये भी गीता के दूसरे अध्याय का श्लोक है . इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि सिर्फ कर्म पर तुम्हारा अधिकार है, लेकिन कर्म के फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है.

मन को वश में कैसे करें गीता?

श्रीकृष्ण ने कहा, अर्जुन, निस्संदेह मन ठहर नहीं सकता, परंतु अभ्यास और वैराग्य से उसे वश में किया जा सकता है। सतत अभ्यास करनेवाला, लोभ, मोह और ममता से विरत हो जाने वाला व्यक्ति मन को वश में कर सकता है।

गीता के अनुसार मन क्या है?

मन को 11वीं इन्द्रिय माना जाता है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच नियामक का काम करता है। ये इन्द्रियां और मन हमारे ज्ञान और कर्म के साधन मात्र न होकर इस संसार को भोगने के भी साधन हैं। संसार का सुख भोगने में मन विचार और कल्पना के द्वारा भी सहायता करता है। मनुष्य का मन संसार की सबसे अशांत चीज है।

भगवान श्री कृष्ण ने गीता में क्या कहा था?

भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन, मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि” अर्थात् कर्म ही पूजा है. कर्म ही भक्ति है, इसलिए कर्म को पूरे मन से करना चाहिए.