अपवाह से आप क्या समझते हैं - apavaah se aap kya samajhate hain

अपवाह शब्द एक क्षेत्र के नदी तंत्र की व्याख्या करता है। भारत के भौतिक मानचित्र को देखिए। आप पाएंगे कि विभिन्न दिशाओं से छोटी-छोटी धाराएँ आकर एक साथ मिल जाती हैं तथा एक मुख्य नदी का निर्माण करती हैं, अंततः इनका निकास किसी बड़े जलाशय, जैसे- झील या समुद्र या महासागर में होता है। एक नदी तंत्र द्वारा जिस क्षेत्र का जल प्रवाहित होता है उसे एक अपवाह द्रोणी कहते हैं।

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मानचित्र का अवलोकन करने पर यह पता चलता है कि कोई भी ऊँचा क्षेत्र, जैसे- पर्वत या उच्च भूमि दो पड़ोसी अपवाह द्रोणियों को एक दूसरे से अलग करती है। इस प्रकार की उच्च भूमि को जल विभाजक कहते हैं।

विश्व की सबसे बड़ी अपवाह द्रोणी अमेज़न नदी की है।

अपवाह प्रतिरूप

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एक अपवाह प्रतिरूप में धाराएँ एक निश्चित प्रतिरूप का निर्माण करती हैं, जो कि उस क्षेत्र की भूमि की ढाल, जलवायु संबंधी अवस्थाओं तथा अधःस्थ शैल संरचना पर आधारित है। यह द्रुमाकृतिक, जालीनुमा, आयताकार तथा अरीय अपवाह प्रतिरूप है। द्रुमाकृतिक प्रतिरूप तब बनता है जब धाराएँ उस स्थान के भूस्थल की ढाल के अनुसार बहती हैं। इस प्रतिरूप में मुख्य धारा तथा उसकी सहायक नदियाँ एक वृक्ष की शाखाओं की भाँति प्रतीत होती हैं।

 जब सहायक नदियाँ मुख्य नदी से समकोण पर मिलती हैं तब जालीनमा प्रतिरूप का निर्माण करती है। जालीनुमा प्रतिरूप वहाँ विकसित करता है जहाँ कठोर और मुलायम चट्टानें समानांतर पायी जाती हैं।

आयताकार अपवाह प्रतिरूप प्रबल संधित शैलीय भूभाग पर विकसित करता है। अरीय प्रतिरूप तब विकसित होता है जब केंद्रीय शिखर या गुम्बद जैसी संरचना धारायें विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होती हैं। विभिन्न प्रकार के अपवाह प्रतिरूप का संयोजन एक ही अपवाह द्रोणी में भी पाया जा सकता है।

भारत में अपवाह तंत्र

भारत के अपवाह तंत्र का नियंत्रण मुख्यतः भौगोलिक आकृतियों के द्वारा होता है। इस आधार पर भारतीय नदियों को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया गया है-

  • हिमालय की नदियाँ तथा
  • प्रायद्वीपीय नदियाँ

भारत के दो मुख्य भौगोलिक क्षेत्रों से उत्पन्न होने के कारण हिमालय तथा प्रायद्वीपीय नदियाँ एक-दूसरे से भिन्न हैं। हिमालय की अधिकतर नदियाँ बारहमासी नदियाँ होती हैं। इनमें वर्ष भर पानी रहता है, क्योंकि इन्हें वर्षा के अतिरिक्त ऊँचे पर्वतों से पिघलने वाले हिम द्वारा भी जल प्राप्त होता है।

हिमालय की दो मुख्य नदियाँ सिंधु तथा ब्रह्मपुत्र इस पर्वतीय श्रृंखला के उत्तरी भाग से निकलती हैं। इन नदियों ने पर्वतों को काटकर गॉर्जो का निर्माण किया है। हिमालय की नदियाँ अपने उत्पत्ति के स्थान से लेकर समुद्र तक के लंबे रास्ते को तय करती हैं। ये अपने मार्ग के ऊपरी भागों में तीव्र अपरदन क्रिया करती हैं तथा अपने साथ भारी मात्रा में सिल्ट एवं बालू का संवहन करती हैं।

मध्य एवं निचले भागों में ये नदियाँ विसर्प, गोखुर झील तथा अपने बाढ़ वाले मैदानों में बहुत-सी अन्य निक्षेपण आकृतियों का निर्माण करती हैं। ये पूर्ण विकसित डेल्टाओं का भी निर्माण करती हैं।

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अधिकतर प्रायद्वीपीय नदियाँ मौसमी होती हैं, क्योंकि इनका प्रवाह वर्षा पर निर्भर करता है। शुष्क मौसम में बड़ी नदियों का जल भी घटकर छोटी-छोटी धाराओं में बहने लगता है। हिमालय की नदियों की तुलना में प्रायद्वीपीय नदियों की लंबाई कम तथा छिछली हैं। फिर भी इनमें से कुछ केंद्रीय उच्चभूमि से निकलती हैं तथा पश्चिम की तरफ बहती हैं। क्या आप इस प्रकार की दो बड़ी नदियों को पहचान सकते हैं? प्रायद्वीपीय भारत की अधिकतर नदियाँ पश्चिमी घाट से निकलती हैं तथा बंगाल की खाड़ी की तरफ बहती हैं।

हिमालय की नदियाँ

सिंधु, गंगा तथा ब्रह्मपुत्र हिमालय से निकलने वाली प्रमुख नदियाँ हैं। ये नदियाँ लंबी हैं तथा अनेक महत्त्वपूर्ण एवं बड़ी सहायक नदियाँ आकर इनमें मिलती हैं। किसी नदी तथा उसकी सहायक नदियों को नदी तंत्र कहा जाता है।

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सिंधु नदी तंत्र

सिंधु नदी का उद्गम मानसरोवर झील के निकट तिब्बत में है। पश्चिम की ओर बहती हुई यह नदी भारत में जम्मू-कश्मीर के लद्दाख जिले से प्रवेश करती है। इस भाग में यह एक बहुत ही सुंदर दर्शनीय गार्ज का निर्माण करती है। इस क्षेत्र में बहुत-सी सहायक नदियाँ जैसे - जास्कर, नूबरा, श्योक तथा हुंजा इस नदी में मिलती हैं। सिंधु नदी बलूचिस्तान तथा गिलगित से बहते हुए अटक में पर्वतीय क्षेत्र से बाहर निकलती है।

सतलुज, ब्यास, रावी, चेनाब तथा झेलम आपस में मिलकर पाकिस्तान में मिठानकोट के पास सिंधु नदी में मिल जाती हैं। इसके बाद यह नदी दक्षिण की तरफ बहती है तथा अंत में कराची से पूर्व की ओर अरब सागर में मिल जाती है। सिंधु नदी के मैदान का ढाल बहुत धीमा है। सिंधु द्रोणी का एकतिहाई से कुछ अधिक भाग भारत के जम्मू-कश्मीर, हिमाचल तथा पंजाब में तथा शेष भाग पाकिस्तान में स्थित है। 2,900 कि०मी० लंबी सिंधु नदी विश्व की लंबी नदियों में से एक है।

क्या आप जानत है?

  • सिंधु जल समझौता संधि के अनुच्छेदों (1960) के अनुसार भारत इस नदी प्रक्रम के संपूर्ण जल का केवल 20 प्रतिशत जल उपयोग कर सकता है। इस जल का उपयोग हम पंजाब, हरियाणा एवं राजस्थान के दक्षिण-पश्चिम भागों में सिंचाई के लिए करते हैं।

गंगा नदी तंत्र

गंगा की मुख्य धारा ‘भागीरथी' गंगोत्री हिमानी से निकलती है तथा अलकनंदा उत्तराखण्ड के देवप्रयाग में इससे मिलती हैं। हरिद्वार के पास गंगा पर्वतीय भाग को छोड़कर मैदानी भाग में प्रवेश करती है।

हिमालय से निकलने वाली बहुत सी नदियाँ आकर गंगा में मिलती हैं, इनमें से कुछ प्रमुख नदियाँ हैं - यमुना, घाघरा, गंडक तथा कोसी। यमुना नदी हिमालय के यमुनोत्री हिमानी से निकलती है। यह गंगा के दाहिने किनारे के समानांतर बहती है तथा इलाहाबाद में गंगा में मिल जाती है। घाघरा, गंडक तथा कोसी, नेपाल हिमालय से निकलती हैं। इनके कारण प्रत्येक वर्ष उत्तरी मैदान के कुछ हिस्से में बाढ़ आती है, जिससे बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान होता है, लेकिन ये वे नदियाँ हैं, जो मिट्टी को उपजाऊपन प्रदान कर कृषि योग्य भूमि बना देती हैं।

प्रायद्वीपीय उच्चभूमि से आने वाली मुख्य सहायक नदियाँ चंबल, बेतवा तथा सोन हैं। ये अर्द्ध शुष्क क्षेत्रों से निकलती हैं। इनकी लंबाई कम तथा इनमें पानी की मात्रा भी कम होती है। ज्ञात कीजिए कि ये नदियाँ कैसे तथा कहाँ गंगा में मिलती हैं।

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बाएँ तथा दाहिने किनारे की सहायक नदियों के जल से परिपूर्ण होकर गंगा पूर्व दिशा में, पश्चिम बंगाल के फरक्का तक बहती है। यह गंगा डेल्टा का सबसे उत्तरी बिंदु है। यहाँ नदी दो भागों में बँट जाती है, भागीरथी हुगली (जो इसकी एक वितरिका है), दक्षिण की तरफ बहती है तथा डेल्टा के मैदान से होते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। मुख्य धारा दक्षिण की ओर बहती हुई बांग्लादेश में प्रवेश करती है एवं ब्रह्मपुत्र नदी इससे आकर मिल जाती है। अंतिम चरण में गंगा और ब्रह्मपुत्र समुद्र में विलीन होने से पहले मेघना के नाम से जानी जाती हैं। गंगा एवं ब्रह्मपुत्र के जल वाली यह वृहद् नदी बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इन नदियों के द्वारा बनाए गए डेल्टा को सुंदरवन डेल्टा के नाम से जाना जाता है।

क्या आप जानते हैं?

  • सुंदरवन डेल्टा का नाम वहाँ पाये जाने वाले सुंदरी पादप से लिया गया है।
  • सुंदरवन डेल्टा विश्व का सबसे बड़ा एवं तेजी से वृद्धि करने वाला डेल्टा है। यहाँ रॉयल बंगाल टाईगर भी पाये जाते हैं।

गंगा की लंबाई 2,500 कि०मी० से अधिक है। चित्र देखें, क्या आप गंगा नदी के अपवाह तंत्र को पहचान सकते हैं? अंबाला नगर, सिंधु तथा गंगा नदी तंत्रों के बीच जल-विभाजक पर स्थित है। अंबाला से सुंदरवन तक मैदान की लंबाई लगभग 1,800 कि॰मी॰ है, परंतु इसके ढाल में गिरावट मुश्किल से 300 मीटर है। दूसरे शब्दों में, प्रति 6 किमी की दूरी पर ढाल में गिरावट केवल 1 मीटर है। इसलिए इन नदियों में अनेक बड़े-बड़े विसर्प बन जाते हैं।

ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र

ब्रह्मपुत्र नदी तिब्बत की मानसरोवर झील के पूर्व तथा सिंधु एवं सतलुज के स्रोतों के काफी नजदीक से निकलती है। इसकी लंबाई सिंधु से कुछ अधिक है, परंतु इसका अधिकतर मार्ग भारत से बाहर स्थित है। यह हिमालय के समानांतर पूर्व की ओर बहती है। नामचा बारवा शिखर (7.757 मीटर) के पास पहँचकर यह अंग्रेजी के यू (U) अक्षर जैसा मोड़ बनाकर भारत के अरुणाचल प्रदेश में गॉर्ज के माध्यम से प्रवेश करती है। यहाँ इसे दिहाँग के नाम से जाना जाता है तथा दिबांग, लोहित, केनुला एवं दूसरी सहायक नदियाँ इससे मिलकर असम में ब्रह्मपुत्र का निर्माण करती हैं।

क्या आप जानते हैं?

  • ब्रह्मपुत्र को तिब्बत में सांगपो एवं बांग्लादेश में जमुना कहा जाता है।

तिब्बत एक शीत एवं शुष्क क्षेत्र है। अतः यहाँ इस नदी में जल एवं सिल्ट की मात्रा बहुत कम होती है। भारत में यह उच्च वर्षा वाले क्षेत्र से होकर गुजरती है। यहाँ नदी में जल एवं सिल्ट की मात्रा बढ़ जाती है। असम में ब्रह्मपुत्र अनेक धाराओं में बहकर एक गुंफित नदी के रूप में बहती है तथा बहुत से नदीय द्वीपों का निर्माण करती है। क्या आपको ब्रह्मपुत्र के द्वारा बनाए गए विश्व के सबसे बड़े नदीय द्वीप का नाम याद है?

प्रत्येक वर्ष वर्षा ऋतु में यह नदी अपने किनारों से ऊपर बहने लगती है एवं बाढ़ के द्वारा असम तथा बांग्लादेश में बहुत अधिक क्षति पहुँचाती है। उत्तर भारत की अन्य नदियों के विपरीत, ब्रह्मपुत्र नदी में सिल्ट निक्षेपण की मात्रा बहत अधिक होती है। इसके कारण नदी की सतह बढ़ जाती है और यह बार-बार अपनी धारा के मार्ग में परिवर्तन लाती है।

प्रायद्वीपीय नदियाँ

प्रायद्वीपीय भारत में मुख्य जल विभाजक का निर्माण पश्चिमी घाट द्वारा होता है, जो पश्चिमी तट के निकट उत्तर से दक्षिण की ओर स्थित है। प्रायद्वीपीय भाग की अधिकतर मुख्य नदियाँ जैसे - महानदी, गोदावरी, कृष्णा तथा कावेरी पूर्व की ओर बहती हैं तथा बंगाल की खाड़ी में गिरती हैं। ये नदियाँ अपने मुहाने पर डेल्टा का निर्माण करती हैं। पश्चिमी घाट से पश्चिम में बहने वाली अनेक छोटी धाराएँ हैं। नर्मदा एवं तापी, दो ही बड़ी नदियाँ हैं जो कि पश्चिम की तरफ बहती हैं और ज्वारनदमुख का निर्माण करती हैं। प्रायद्वीपीय नदियों की अपवाह द्रोणियाँ आकार में अपेक्षाकृत छोटी हैं।

नर्मदा द्रोणी

नर्मदा का उद्गम मध्य प्रदेश में अमरकंटक पहाड़ी के निकट है। यह पश्चिम की ओर एक भ्रंश घाटी में बहती है। समुद्र तक पहुँचने के क्रम में यह नदी बहुत से दर्शनीय स्थलों का निर्माण करती है। जबलपुर के निकट संगमरमर के शैलों में यह नदी गहरे गार्ज से बहती है तथा जहाँ यह नदी तीव्र ढाल से गिरती है, वहाँ 'धुंआधार प्रपात' का निर्माण करती है।

नर्मदा की सभी सहायक नदियाँ बहुत छोटी हैं, इनमें से अधिकतर समकोण पर मुख्य धारा से मिलती हैं। नर्मदा द्रोणी मध्य प्रदेश तथा गुजरात के कुछ भागों में विस्तृत है।

तापी द्रोणी

तापी का उद्गम मध्य प्रदेश के बेतुल जिले में सतपुड़ा की शृंखलाओं में है। यह भी नर्मदा के समानांतर एक भ्रंश घाटी में बहती है, लेकिन इसकी लंबाई बहुत कम है। इसकी द्रोणी मध्यप्रदेश, गुजरात तथा महाराष्ट्र राज्य में है। अरब सागर तथा पश्चिमी घाट के बीच का तटीय मैदान बहुत अधिक संकीर्ण है। इसलिए तटीय नदियों की लंबाई बहुत कम है। पश्चिम की ओर बहने वाली मुख्य नदियाँ साबरमती, माही, भारत-पुजा तथा पेरियार हैं।

गोदावरी द्रोणी

गोदावरी सबसे बड़ी प्रायद्वीपीय नदी है। यह महाराष्ट्र के नासिक जिले में पश्चिम घाट की ढालों से निकलती है। इसकी लंबाई लगभग 1,500 कि॰मी॰ है। यह बहकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। प्रायद्वीपीय नदियों में इसका अपवाह तंत्र सबसे बड़ा है। इसकी द्रोणी महाराष्ट्र (नदी द्रोणी का 50 प्रतिशत भाग), मध्य प्रदेश, उड़ीसा तथा आंध्र प्रदेश में स्थित है। गोदावरी में अनेक सहायक नदियाँ मिलती हैं, जैसे - पूर्णा, वर्धा, प्रान्हिता, मांजरा, वेनगंगा तथा पेनगंगा। इनमें से अंतिम तीनों सहायक नदियाँ बहुत बड़ी हैं। बड़े आकार और विस्तार के कारण इसे 'दक्षिण गंगा' के नाम से भी जाना जाता है।

महानदी द्रोणी

महानदी का उद्गम छत्तीसगढ़ की उच्चभूमि से है तथा यह उड़ीसा से बहते हुए बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इस नदी की लंबाई 860 कि॰मी॰ है। इसकी अपवाह द्रोणी महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा उड़ीसा में है।

कृष्णा द्रोणी

महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट में महाबालेश्वर के निकट एक स्रोत से निकलकर कृष्णा लगभग 1,400 कि॰मी॰ बहकर बंगाल की खाड़ी में गिरती है। तुंगभद्रा, कोयना, घाटप्रभा, मुसी तथा भीमा इसकी कुछ सहायक नदियाँ हैं। इसकी द्रोणी महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा आंध्र प्रदेश में फैली है।

कावेरी द्रोणी

कावेरी पश्चिमी घाट के ब्रह्मगिरी श्रृंखला से निकलती है तथा तमिलनाडु में कुडलूर के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है। इसकी लंबाई 760 कि॰मी॰ है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ हैं- अमरावती, भवानी, हेमावती तथा काबिनि। इसकी द्रोणी तमिलनाडु, केरल तथा कर्नाटक में विस्तृत है।

क्या आप जानते है?

  • भारत में दूसरा सबसे बड़ा जलप्रपात कावेरी नदी बनाती है। इसे शिवसमुंदरम् के नाम से जाना जाता है। प्रपात द्वारा उत्पादित विद्युत मैसूर, बंगलोर तथा कोलार स्वर्ण-क्षेत्र को प्रदान की जाती है।

इन बड़ी नदियों के अतिरिक्त कुछ छोटी नदियाँ हैं, जो पूर्व की तरफ बहती हैं। दामोदर, ब्रह्मनी, वैतरणी तथा सुवर्ण रेखा कुछ महत्त्वपूर्ण उदाहरण हैं।

क्या आप जानते हैं?

  • पृथ्वी के धरातल का लगभग 71 प्रतिशत भाग जल से ढंका है, लेकिन इसका 97 प्रतिशत जल लवणीय है।
  • केवल 3 प्रतिशत ही स्वच्छ जल के रूप में उपलब्ध है, जिसका तीन-चौथाई भाग हिमानी के रूप में है।

झीलें

कश्मीर घाटी तथा प्रसिद्ध डल झील, नाववाले घरों तथा शिकारा से तो आप परिचित ही होंगे, जो प्रत्येक वर्ष हज़ारों पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। इसी प्रकार, आप अन्य झील वाले स्थानों पर भी गए होंगे तथा वहाँ नौकायान, तैराकी एवं अन्य जलीय खेलों का आनंद लिया होगा। कल्पना कीजिए की अगर कश्मीर, नैनीताल एवं दसरे पर्यटन स्थलों पर झीलें नहीं होतीं. तब क्या वे उतना ही आकर्षित करते जितना कि आज करते हैं? क्या आपने कभी यह जानने की कोशिश की है कि इन पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए किसी स्थान पर झीलों का क्या महत्त्व है? पर्यटकों के आकर्षण के अतिरिक्त, मानव के लिए अन्य कारणों से भी झीलों का महत्त्व है। पृथ्वी की सतह के गर्त वाले भागों में जहाँ जल जमा हो जाता है, उसे झील कहते हैं।

क्या आप जानते हैं?

  • बड़े आकार वाली झीलों को समुद्र कहा जाता है, जैसे – केस्पियन, मृत तथा अरल सागर।

भारत में भी बहुत-सी झीलें हैं। ये एक दूसरे से आकार तथा अन्य लक्षणों में भिन्न हैं। अधिकतर झीलें स्थायी होती हैं तथा कुछ में केवल वर्षा ऋतु में ही पानी होता है, जैसे - अंतर्देशीय अपवाह वाले अर्धशुष्क क्षेत्रों की द्रोणी वाली झीलें। यहाँ कुछ ऐसी झीलें हैं, जिनका निर्माण हिमानियों एवं बर्फ चादर की क्रिया के फलस्वरूप हुआ है। जबकि कुछ अन्य झीलों का निर्माण वायु, नदियों एवं मानवीय क्रियाकलापों के कारण हुआ है।

एक विसर्प नदी बाढ़ वाले क्षेत्रों में कटकर गौखुर झील का निर्माण करती है। स्पिट तथा बार (रोधिका) तटीय क्षेत्रों में लैगून का निर्माण करते हैं, जैसे - चिल्का झील, पुलीकट झील तथा कोलेरू झील। अंतर्देशीय भागों वाली झीलें कभी-कभी मौसमी होती हैं, उदाहरण के लिए राजस्थान की सांभर झील, जो एक लवण जल वाली झील है। इसके जल का उपयोग नमक के निर्माण के लिए किया जाता है।

मीठे पानी की अधिकांश झीलें हिमालय क्षेत्र में हैं। ये मुख्यतः हिमानी द्वारा बनी हैं। दूसरे शब्दों में, ये तब बनीं जब हिमानियों ने या कोई द्रोणी गहरी बनायी, जो बाद में हिम पिघलने से भर गयी, या किसी क्षेत्र में शिलाओं अथवा मिट्टी से हिमानी मार्ग बँध गये। इसके विपरीत, जम्मू तथा कश्मीर की वूलर झील भूगर्भीय क्रियाओं से बनी है। यह भारत की सबसे बड़ी मीठे पानी वाली प्राकृतिक झील है। डल झील, भीमताल, नैनीताल, लोकताक तथा बड़ापानी कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण मीठे पानी की झीलें हैं।

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इसके अतिरिक्त, जल-विद्युत उत्पादन के लिए नदियों पर बाँध बनाने से भी झील का निर्माण हो जाता है, जैसे- गुरु गोबिंद सागर (भाखड़ा-नंगल परियोजना)।

झीलें मानव के लिए अत्यधिक लाभदायक होती हैं। एक झील नदी के बहाव को सुचारु बनाने में सहायक होती है। अत्यधिक वर्षा के समय यह बाढ़ को रोकती है तथा सूखे के मौसम में यह पानी के बहाव को संतुलित करने में सहायता करती है। झीलों का प्रयोग जलविद्युत उत्पन्न करने में भी किया जा सकता है। ये आस-पास के क्षेत्रों की जलवायु को सामान्य बनाती हैं, जलीय पारितंत्र को संतुलित रखती हैं, झीलों की प्राकृतिक सुंदरता व पर्यटन को बढ़ाती हैं तथा हमें मनोरंजन प्रदान करती हैं।

नदियों का अर्थव्यवस्था में महत्त्व

संपूर्ण मानव इतिहास में नदियों का अत्यधिक महत्त्व रहा है। नदियों का जल मूल प्राकृतिक संसाधन है तथा अनेक मानवीय क्रियाकलापों के लिए अनिवार्य है। यही कारण है कि नदियों के तट ने प्राचीन काल से ही अधिवासियों को अपनी ओर आकर्षित किया है। ये गाँव अब बड़े शहरों में परिवर्तित हो चुके हैं। अपने राज्य के उन शहरों की एक सूची तैयार कीजिए जो नदी के किनारे स्थित हैं।

किंतु भारत जैसे देश के लिए, जहाँ कि अधिकांश जनसंख्या जीविका के लिए कृषि पर निर्भर है, वहाँ सिंचाई, नौसंचालन, जलविद्युत निर्माण में नदियों का महत्त्व बहुत अधिक है।

नदी प्रदूषण

नदी जल की घरेलू, औद्योगिक तथा कृषि में बढ़ती माँग के कारण, इसकी गुणवत्ता प्रभावित हुई है। इसके परिणामस्वरूप, नदियों से अधिक जल की निकासी होती है तथा इनका आयतन घटता जाता है। दूसरी ओर, उद्योगों का प्रदूषण तथा अपरिष्कृत कचरे नदी में मिलते रहते हैं।

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यह केवल जल की गुणवत्ता को ही नहीं, बल्कि नदी के स्वतः स्वच्छीकरण की क्षमता को भी प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, दिए गए समुचित जल प्रवाह में गंगा का जल लगभग 20 कि०मी० क्षेत्र में फैले बड़े शहरों की गंदगी को तनु करके समाहित कर सकता है। लेकिन लगातार बढ़ते हुए औद्योगीकरण एवं शहरीकरण के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाता तथा अनेक नदियों में प्रदूषण का स्तर बढ़ता जा रहा है। नदियों में बढ़ते प्रदूषण के कारण इनको स्वच्छ बनाने के लिए अनेक कार्य योजनाएं लागू की गयी हैं। क्या आपने कभी ऐसी कार्य योजनाओं के बारे में सुना है? नदी के प्रदूषित जल से हमारा स्वास्थ्य किस प्रकार प्रभावित होता है? 'बिना स्वच्छ जल का मानव जीवन'. इस विषय पर विचार करें तथा अपनी कक्षा में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करें।

अपवाह से आप क्या समझते?

अपवाह या धरातलीय अपवाह (अंग्रेज़ी: surface runoff) जल की वह मात्रा है जो पृथ्वी की सतह पर गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में ढाल का अनुसरण करते हुए जलधाराओं, सरिताओं, नालों और नदियों के रूप में प्रवाहित होता है।

अपवाह तंत्र से क्या आशय है ?`?

अपवाह तन्त्र या प्रवाह प्रणाली (drainage system) किसी नदी तथा उसकी सहायक धाराओं द्वारा निर्मित जल प्रवाह की विशेष व्यवस्था है। यह एक तरह का जालतन्त्र या नेटवर्क है जिसमें नदियाँ एक दूसरे से मिलकर जल के एक दिशीय प्रवाह का मार्ग बनती हैं।

अपवाह तंत्र कितने प्रकार के होते हैं?

अरीय (Radial)प्रतिरूप-जब नदियाँ किसी पर्वत से निकलकर सभी दिशाओं में बहती हैं- अमरकंटक पर्वत श्रृंखला से निकलने वाली नदियां। जालीनुमा (Trellis)अपवाह प्रतिरूप-जब मुख्य नदियां एक दूसरे के समानांतर बहती हों तथा सहायक नदियाँ उनसे समकोण पर मिलती हों।

अपवाह क्षेत्र का अर्थ क्या होता है?

अपवाह क्षेत्र ज़मीन का वह भाग है, जो जल का बहाव एक निश्चित जलीय मार्ग द्वारा करता है। यह एक भौगोलिक जल इकाई है। अपवाह क्षेत्र में धरातली जल का निकास प्रायः एक ही दिशा में होता है। ये किसी मुख्य नदी तथा उसकी सहायक नदियों (सरिताओं) के जलग्रहण क्षेत्र हैं।