याद आया आज अपना गाँव ! Show
यह धोबहिया और भीमाताल-वह चन्दनशहीद ! याद आता है मदरसे का कुँआ-कँटवास-डिह का थान- याद आती है पिता जी की बहुत ही वह मिडिल
स्कूल ! याद आते हैं बहुत सरपंच ! याद आते हैं बहुत जयराम ! याद आता है चैत का भोर-सावन की अँधेरी रात ! डॉ राजीव कुमार पाण्डेय हुड़दंग गली ,खलिहानों तक,दालानों की कुछ बातें।
जामुन की कुछ मीठी यादें, नदिया पार लगी अमिया। हंसी खुशी थी संग संग में,मेल जोल त्योहारों पर।
सहस्र अरि होते प्रकम्पित , सलिल था बृहद पात्र में , ज्ञान था हैं पंख निर्बल,
नाम- डॉ राजीव कुमार पाण्डेय सामाजिक गतिविधियां ईमेल -- 00000000 चंचलिका.तन्हा #मन.... सोच की राह में भटकते हुए यादों की घनेरी छाँव तले हम " हम " ना रहे अलसाई शाम में बेगानों के बीच अपनों को दरिया भी था फिर भी प्यासे हम थे कोहरे से लिपटी ख़ामोश रात में 0000000000000000000000 मुरसलीन साकीसोचता हूं कोई पैगाम-ए-मुहब्बत लिखूं।
रोज इक ख्वाब जो आंखों में बसा रहता है मुरसलीन साकी अनु उर्मिल"सर्वदा आशावादी"#बेवफा_कौन यूँ ही बदनाम है दुनिया में वो ख़्वाब दिखाता है यकीं करके उसकी बातों पर आतुर हो जाती है वो समझती है अधिकार बस परंतु पुरूष के लिए वो
जब कर लेता है वो अनु उर्मिल"सर्वदा आशावादी" अनिल कुमार 'कैंसर',वरिष्ठ अध्यापक 'हिन्दी' 'जीत की राह'
अविनाश ब्यौहार
दंगा-फसाद-थाना-कोर्ट फूल का नहीं शिलाखंड को जबकि अपराधों की लंबी कल्पतरु खेजड़ी यथा हिंदी ग़ज़ल आँखों से जाम पिलाते हैं। आज नेह के सौंधे रिश्ते, हर
तरफ होगा बिखराव, जिनसे सारी उम्मीदें थीं, नदिया से लहरें रूठीं हैं, सूरज पूछता धरा से है, होते अगर बाग में उल्लू, पहरू बसते हैं उनका जीवन कल्पना-मूर्खता है क्रिकेट एक अनोखा मैं हँसना मुस्कुराना .चाहता हूँ। दुखों के काफिले ही न पास फटकें, वृक्ष
की छाया भी महक जाएगी, जहान में हर्ष का वातावरण हो, फैलेगी चाँदनी अमावस में भी, जाड़ा ऐसा फाहों सी लगती पाला और अल्लसुबह झरती है मस्ती के पल अंधियारे ने रौशनी है भर्रायी धब्बे पड़े सहसा करते हैं फूल भँवरा बना हिम से रवि
मकर राशि करता है **नवगीत** प्यार की रिश्ते जख्मी दूरियाँ बनाते भावना सूखी निगल जाती **दोहे** लोकतंत्र में आजकल, बाबू रहे दहाड़। जाड़े में गर्मी पड़े, गर्मी में बरसात। दुनिया ऐसी हो गई, जो पाए दुत्कार। नीति निपुण इस देश में, फैला है अतिचार। साँप नेवला दोस्त हों, उल्टा हुआ विधान। **हिंदी ग़ज़ल** दुख भरी दास्तान होगी। आशनाई का जमाना, बेवफाई हो रही है, बुझ गई है ये जवानी, है कहानी आज अपनी, **मुक्तक** सिमटा हुआ प्यार तुम्हारी आँखों में। अविनाश ब्यौहार दुर्गेश कुमार सजलकैंसे सहे होंगे एक आह निकली होगी, दुर्गेश कुमार सजल 00000000000000 - जितेन्द्र देवतवाल ज्वलंत*हर्षमय हो नववर्ष* विकास उत्थान का उत्कर्ष हो। राष्ट्रीय एकता सबल हो देश में अत्याचार न हो कही
भी चरैवेति चरैवेति आस्था रहे सबको सुख अनन्त मिले 174/2, 'वन्देमातरम्' आदर्श कालोनी हनुमान मंदिर के पास, शाजापुर (म.प्र.) 465001 00000000000000 प्रिया देवांगन प्रियूबसेरा देखो माँ मैने आज अपना बसेरा बनाया । बरसातों में पेड़ो पर ,छाया तुम लाती थी।
धीरज शाहू , ' मानसी 'कौन अच्छा कौन बुरा, रहने दो अभी,
मुसीबत ना बने ज्यादा होशियारी, बेवजह होगा मेरे नाम का चर्चा, तन्हाई से करनी है कुछ गुफ्तगू, हवा लगे तो सांस मिले, मानसी,
धीरज शाहू , ' मानसी ' सत्यम तिवारी मुझे कभी यह कश्मीर अपना सत्यम तिवारी(वाराणसी)। स्मृति झा (( सेल्फी)) स्मृति झा कृष्ण कुमारहाल नहीं कुछ ठीक है वन का, भांति भांति के जीव बसे इस
सुंदर वन के भीतर , मूक देखतें मोर पपीहा इन कौवों पर रोक नहीं क्या ? निज़ाम-फतेहपुरीग़ज़ल- 212 212 212 212 ज़ुल्म
कितना वो ज़ालिम करेगा यहाँ। जितने आए थे पहले चले सब गए। ताज तेरा रहा है न मेरा रहा। आग नफ़रत की मिलके बुझायेंगे हम। बाद पतझड़ के आती बहारें सदा। काम ऐसा करो की ख़ुदा ख़ुश रहे। संविधान आज है तो निज़ाम आज है। हम तो समझते थे हम एक उल्लू हैं। इन उल्लुओं में भी इक सेक उल्लू हैं। महफ़िल में उल्लू कि हर एक उल्लू हैं। इस दौरे उल्लू में उल्लू ही उल्लू हैं। जब रहनुमा अपना उल्लू ही चुनना है। निज़ाम-फतेहपुरी - नाथ गोरखपुरी01- जी भर के रोने को, जी चाहता है अंधेरे के पनाहगाह में, ठहरा रहा उम्र भर समेटा है जो कुछ भी मैंने हो कोई बारिश , की तन ना भीगे इक नाम तेरा ,जब है जग में सच्चा कर पद के पांचों को, योगी बनाके मन का हिमालय , जो है मेरे अंदर कोई राम तो, मेरे तट पर भी आए 02- कभी कागज कलम से भी कमाल कीजिए आप देख रहे हैं , गुनाह
फैलते हुए सच अगर कहने को , हिम्मत नहीं जनाब क्यों मारे गए मासूम , कुर्सी के ख्वाब पे
माना तू है घणी सुंदरी , हिरनी जैसी तूँ बलखाती , देख के सूरत प्यारी तेरी , तुझको चाहिए चांद औ तारे, तेरे ख़्वाब हैं महलों वाले, 01- कौन है वो जो धरा पर , देव बन के जो सभी को सृष्टि के सृजन नियम को गर्भ से है जो जना पर मनुज की गरिमा गिराता दृष्टि दे नभ में निरेखो सृष्टि बंधन खोलके फिर इंसान की औलाद हो तो स्वार्थ के वशीभूत होकर 02- उड़ी उमंग पतंग है , चली
गगन की ओर। मन बहुरंग पतंग है , स्थिर ना है होत। 03- तेरा धर्म तेरा कर्म , तेरी वाणी पे निर्भर है। संस्कारों की ताबीज ही , व्यवहार गढ़ती है। 04- वही
मंसूबा। है , वही इरादा है सियासी पैंतरों से ,छलते रहे हो तुम स्याह रंगों से रंग चुका है, दामन तेरा है सियासी हलचल , फितरत में तेरी
जीवन दान चारण 'अबोध'
समृद्ध भारत महान है! सर्व धर्म समभाव सदा से हम भारत के वीर सिपाही आतंकवादी अवसरवादी, क्या करना है क्या
नहीं, हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, इसके बाद बतायी बातें, लेकर शिक्षा कहीं, कभी भी, देश उलझ रहा है मित्रों, लेकर
सत्ता संविधान से, आलोक कौशिक*सरस्वती वंदना* हम मानुष जड़मति तिमिर अज्ञान का दूर वाणी तू ही तू ही चक्षु विराजो जिह्वा पे धात्री :- आलोक कौशिक
नाम- आलोक कौशिक महेन्द्र देवांगन "माटी"सेल्फी भीड़ में भी आदमी आज अकेला है भीड़ में दिख गया कोई अच्छी सी लड़की दिख गया कहीं जुलूस तो खाते पीते उठते बैठते सच तो ये है जीवन को तुम जीना सीखो , किस्मत को मत कोस । सुख दुख दोनों रहते जीवन , हिम्मत कभी न हार । सिक्के के दो पहलू होते , सुख दुख दोनों साथ । राह कठिन पर आगे बढ़ जा , मंजिल मिले जरूर । अर्जुन जैसे लक्ष्य साध लो , बन जायेगा काम । जीवन एक गणित है प्यारे , आड़े तिरछे खेल । हँसकर के अब जीना सीखो , छोड़ो रहना मौन । --- बिन मौसम अब बरसा होवय, गिरय झमाझम पानी । खेत खार मा करपा माढय , होवत हे नुकसानी । माथा धरके बइठे हावय, रोवय सबो परानी । करजा बोड़ी अब्बड़ हावय , छूट कहाँ अब पाबो। खरचा चलही कइसे संगी , कइसे के जिनगानी । बिन मौसम अब बरसा होवय, गिरय झमाझम पानी ।
डॉ0 चिरोंजीलाल यादवसाहसी बनकर करो हर काम कर सकते हो तुम। 000000000000 डॉ कौशल किशोर श्रीवास्तवतन का व्यापार डॉ कौशल किशोर श्रीवास्तव प्रभुदयाल मोठसरा(शि.)दुआएं कितना आसान है लेना -प्रभुदयाल मोठसरा(शि.) - मुकेश कुमार ऋषि वर्माहम बच्चे मिलकर कूड़ा करकट यहाँ-वहाँ मत फैलाओ आओ-आओ प्यारे-प्यारे बच्चों आओ स्कूल हो या घर, सड़क हो या मैदान स्वच्छ रहे परिवेश हमारा करलो ये प्रण बापू ने स्वच्छता की अलख जगाई थी कभी खुले में शौच नहीं करेंगे भाई गली-मुहल्लों में कीचड़ न बनने देंगे हम बच्चे मिलकर नया भारत बनायेंगे - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 000000000000000 भाऊराव महंत01 भाऊराव महंत 00000000000000 स्नेहलता त्रिपाठी बिष्टहर पुरुष बलात्कारी नहीं होता...... असल में तुम ज़िंदा जिस्म में मुर्दा हो -मिन्नी शर्मासमीक्षा पर अभी भी तो पास त्रास है जाना चाहूं जहां वो बहुत दूर है सलिल सरोजक़त्ल हुआ और यह शहर सोता रहा भाईचारे की मिठास इसे रास नहीं आई बेटियों की आबरू बाज़ार के हिस्से आ गई दूसरों की चाह में अपनों को भुला दिया जवानी हर कदम बेरोज़गारी पे बिलखती रही बारिश भी अपनी बूँदों को तरस गई यहाँ महल बने तो सब गरीबों के घर ढह गए आग लगाने का जूनून है तो फिर कलेजे पे चढ़के बैठे हो इस ज़मीं के अदबो-ओ-रिवाज़ का पुतला बना रखा है कहते हैं कि बड़े-बड़े शहर बसाए हैं तुमने बहुत सारी द्रौपदियों को हार चुके हो तुम
अभी आँखें बंद रहे तो ही सही है ख़्वाब नज़रबंद रहें तो ही सही है मसअला है तेरे और मेरे बीच का सलीका हुनरमंद रहे तो ही सही है जो भी लहजा है तेरे इख़्तियार में मुझे भी पसंद रहे तो ही सही है मैं दरिया हूँ तो अपनाना था मुझे तू कोई समंदर रहे तो ही सही है कब तक हिफाज़त कर पाऊँगा तू मेरे अन्दर रहे तो ही सही है मैं बसा लूँ तुझे मूरत की तरह तू भी मंदिर रहे तो ही सही है सलिल सरोज नई दिल्ली अशोक बाबू माहौर
मैं अब
अशोक बाबू माहौर साहित्य लेखन :हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में संलग्न। प्रकाशित साहित्य :हिंदी साहित्य की विभिन्न पत्र पत्रिकाएं जैसे स्वर्गविभा, अनहदक्रति, साहित्यकुंज, हिंदीकुुुंज, साहित्यशिल्पी, पुरवाई, रचनाकार, पूर्वाभास, वेबदुनिया, अद्भुत इंडिया, वर्तमान अंकुर, जखीरा, काव्य रंगोली, साहित्य सुधा, करंट क्राइम, साहित्य धर्म, रवि पथ, पूर्वांचल प्रहरी, हरियाणा प्रदीप जय विजय, युवा प्रवर्तक, ट्रू मीडिया, अमर उजाला, सेतु हिंदी, कलम लाइव, जयदीप पत्रिका, सौराष्ट्र भारत आदि में रचनाऐं प्रकाशित। सम्मान : प्रकाशित पुस्तक :साझा पुस्तक (6)तिरंगा अभिरुचि :साहित्य लेखन। संपर्क :ग्राम कदमन का पुरा, तहसील अम्बाह, जिला मुरैना (मप्र) 476111 डॉ कन्हैया लाल गुप्त 'शिक्षक'सलाह
ईमेल 00000000000000000000 डॉ0 मृदुला शुक्ला "मृदु"
सतत प्रवाहित हो यह जीवन, छाए चहुँ दिशि शान्ति, एकता, द्विजजन हों नित धर्म परायण, कवयित्री नरेंद्र भाकुनीअपने आदर्श
अपने दिलों की आग है मारो_ मारो, काटो_काटो जन_धारा है जनमानस
अखिल लोक का सूरज
बनकर कई जवानी बीत गई हैं इस बचपन में खो जाते हैं मेरे कलम के सुंदर पन्ने काश कहीं पर हम भी होते मानों कहीं पर बैरी सारे मानों कहीं पर सिंहभूमि में हल्दीघाटी मरी नहीं है नफरत की दीवार भुलाकर मैं सुंदर अल्फाज से कहता मैं सारे विश्व से कहता हूं ये बैर_भाव को छोड़ दो सब _"नरेंद्र भाकुनी 0000000000000 अशोक कुमारदिल से ! आओ इस वर्ष कसम खाए भारत ©® ,6/344, 00000000000 खान मनजीत भावड़िया मजीदलड़कियां कहां हैं सुरक्षित यहां पर मां बाप को प्यार नहीं विद्यालय हो गली में बाज़ार में कहीं भी लड़की खान मनजीत भावड़िया मजीद आत्माराम यादव पीवमाता-पिता की दुआओं का उपहार लो बड़ा ही मलंग है भई मेरा बिरादर बुद्धि और बल में है, होशियार सबसे हाजिर। चले गये तत्वदर्शी हो या दिगदिगन्त विजेता अहं बिरादर को है, दुनिया का खुद है विधाता। शहनशाहों की शहनशाही, कब तलक तक टिकी नेक नीयतवालों ने हरदम, गुजारी अपनी नेकी।। किसे मिलता है दोस्त, दोस्ती को तरसे जमाना मतलब के सब रिश्ते है, तू क्यों हुआ दीवाना ।। कैसी किससे यारी, बुना सभी ने झूठ का तानाबाना माता पिता को छोड़ा जिसने, कहे खुदको परवाना।। पीव इंसान पैदा हुआ था, शैतान का ओढ़ा लबादा जमाना खराब बताकर, बिरादर निभ रहा सीधा-सादा।। ताकत हाथी की लेकर, बिरादर डोले यहाँ-वहाँ जमाना कब करवट बदले, पराजय की सोचे कहाँ।। बेअकल करता है नकल, क्या अकलबान बन जायेगा बचपन की अकल के भरोसे, क्या राजपाट पा जायेगा।। बूढ़े माता-पिता का दरद, पीव जो अनदेखा कर जाता है ऊंगली पकड़ बाँहों में झूला, वह नाता तोड़ जाता है।। माता पिता को छोड़े, उसका संगी साथी न हो कोई भी तेरा बुढ़ापा आयेगा, रोयेगा अकेला न होगा कोई भी। कुछ न बिगड़ा अब तो संभलजा,गल्तियाँ अपनी सुधार लो माता पिता है करूणासिंधु, माफी दुआओं का उपहार लो।। --- स्वर्गलोक-भूलोक हो एकीभूत जो गिरा हुआ है, उसे गिरने का क्या डर होगा जो नतमस्तक है, उसे घमण्ड ने क्या छुआ होगा। खुद मालिक उसे राह दिखाये,जो नम्र हुआ होगा। जिसने जीत लिया मन को,वह संतोषी रहा होगा। जो शरण प्रभु की पा जाये,समर्पित वह रहा होगा।। जो दिल का बोझ उठाये, वासनाओं में घिरा होगा।। जो सत्य का साथ निभाये, वह इंसान खरा होगा।। पीव मुश्किल हुआ जीना,पर सबको ही जीना होगा।। स्वर्गलोक-भूलोक होवे एकीभूत,तैयारी ऐसी करना होगा। समस्तजनों का सर्वस्व मिले,तब यह संकल्प करना होगा।। --- प्रभु तूने तो नहीं सौंपी है किसी के भी हाथ में अपने मरने और जीने की डोर। प्रभु तुझे प्यार करना या नफरत करना खुदगर्जो का काम है। प्रभु तेरा ही चाकर रहूं तेरी करूणा बनी रहे यह,अधिकार तो देना होगा। प्रभु अगर मेरे जीवन का कालचक्र दीर्घ है और मुझे लम्बी आयु तक जीना है तो बस अपने चरणों से विलग न करना, यही चाकरी मुझे प्राप्त हो। दीर्घकाल के जीवन में कुछ दिन होंगे उदासी भरे कुछ दिन होंगे दुखभरे कुछ दिन होंगे सुखभरे तेरी करूणा होगी तो प्रभु सहज ही ये दिन राम के वनवास की तरह एक अवसर बन जायेंगे। प्रभु अगर मेरे जीवन का कालचक्र लघु है और मेरी आयु कम है तो अनंतकाल तक जीने की इच्छा क्यों रखूं ? अंधेरों से राम भी गुजरे हैं अंधेरों से कृष्ण भी गुजरे हैं अंधेरों से मसीह भी गुजरे हैं अंधेरों से बुद्ध भी गुजरे हैं उनके जैसा अंधेरा क्या मेरी इस अल्पायु में है। प्रभु संसार के सभी प्राणियों का जीवन एक अंधकार ही है अंधकार के द्वार पर दस्तक देकर ही सबको गुजरना है लौकिक-अलौकिक कर्मों की देशना तुम्हारी करूणा से मिलती है तब तुम्हारे दर्शन की पात्रता होती है तुम दिव्य-दैदीप्यमान हो जिसपर करूणा करते हो उसकी श्रद्धा की परीक्षा लेकर दुर्बल चर्मचक्षु के लौकिक जगत को अपनी दिव्यता का दर्शन कराने पीव अलौकिक दिव्य चक्षु प्रदान कर बना लेते हो अपना, थाम लेते हो उसकी अंगुली दिखाते हो अपना विराट रूप जिसमें सर्वज्ञ समाया है। --- अपना आपा खो दूं अपने घर -परिवार के लिये, अपने सगे संबंधियों के लिये अपने समाज व देश के लिये मैं जीना चाहता हूं सभी के लिये इस हद तक, कि अपना आपा खो दूं। मैं अपने सारे स्वार्थों के बिना मैं अपने सारे हितों के बिना दूसरों के लिये अपना सारा जीवन जीना चाहता हूं इस हद तक, कि अपना आपा खो दूँ। अपने जीवन के दुखों में मैं अकेला ही गाता रहा हूं हर अधंरेी रातों -जज्बातों को मैं अकेले ही सहलाता रहा हूं मेरे अहम के चक्रव्यूह में फंसा अब तक खुद एक अहंकारी रहा हूं अहम को जीत लू इस हद तक कि अपना आपा खो दूँ। मेरे एक- एक विचार स्वार्थभरे हैं मेरे विचारों में शब्दों के किलेगढ़े हैं खुदका दुनिया से बेहतर दिखाने में लगा हूं दुनियावाले करे मेरी प्रशंसा यह जताने लगा हूं अपने अहम की घृणा को छोड़़ दूं पीव इस हद तक कि अपना आपा खो दूँ। -- बुर्जग पिता का दर्द बड़ी मासूमियत से बुजुर्ग पिता ने कहा- बेटा , बुढ़ापा अजगर सा आकर मेरे बुढ़ापे पर सवार हो गया है जिसने जकड़ रखे है मेरे पैर न चलने देता है न उठने-बैठने देता है। बेटा, मेरे बाद तेरी माँ को अपने ही पास रखना। पिता के चेहरे पर पंसरी हुई थी उदासी सारा दर्द छिपाकर वे मुस्कुराने का अभिनय कर रहे थे। उनकी बेबसी पर मैं अवाक था! पिता के गालों पर अनगिनत झुर्रियां रोज-रोज बढ़ती जाती है और उनके पैरों पर सूजन है। मेरी पूरी कोशिश मेरा पूरा उपक्रम पिता को निरोगी रखने में लगा है और वे स्वस्थ रहने का हर विधान का पालन भी करते हैं। मेरा पूरा विश्वास पिता के मन में अंतिम साँसों तक जीवन से कभी हार न मानने मौत से अपराजेय रहने की असीम ताकत जुटाने में लगा है। वे टूट जाते हैं जब उन्हें अपनी ही औलाद खून के ऑसू रूलाती है बिना बातचीत किये बेशर्मी से उनके पास से गुजर जाती है। वे खुद पर झल्लाते हैं अपने बुढ़ापे से विद्रोह कर बुढ़ापे को अजगर बताते हैं, ताकि मजबूर और लाचार करने सपनों को मुर्दा करने वाली संतान,उन्हें न भूले। पीव उन औलादों को वे आज भी सीने से लगाने को तरस रहे है और अपने बुढ़ापे की मजबूरी में उनका मन भर आने के बाद भी औलाद को माफ करके उनके लौट आने के विश्वास में सारा दर्द पीकर खुद अकेले कमरे में बुढ़ापा को गले लगाकर जी रहे हैं। -- जीवन का अधूरापन मुझे याद है प्रिय शादी के बाद तुम दूर-बहुत दूर थी मैं तुम्हारे वियोग में दो साल तक अकेला रहा हूं। बड़ी शिद्दत के बाद तुम आयी थी तुम्हारे साथ रहते तब दिशायें मुझे काटती थी और तुम अपनी धुन में मुझसे विलग थी। तुम्हारा पास होना अक्सर मुझे बताता जैसे जमीन-आसमान गले मिलने को है। मैंने महसूस किया दिशायें दूर बहुत दूर असीम तक पहुंच गयी है। तुम मेरे साथ थी पर दूर इतनी थी जैसे चान्द आसमान में। मेरी दुनिया सिमट कर तुम्हारे इर्द गिर्द थी तुम रास्ते को दूर बहुत दूर बनाती रही मैं हर राह को तुम्हारे लिये छोटी करता रहा। मैं हर दिशा को तुम्हारे आसपास तुम्हारे कदमों में लाया मैं तुम्हारी-मेरी दुनिया को एक सुन्दर ऑगन बनाता रहा। तुम्हारी बातों का तुम्हारे जज्बातों का तुम ही मतलब समझती थी मेरी बातें और जज्बात तुम्हारे लिये बेमतलब थे। मेरे मन की व्यथा मेरे दिल की प्यास तुम अपने कदमों में रोंधती रही मैं सहता गया। तुम्हारा मस्तिष्क अवरोधित रहा है बातों से तुम अज्ञेय रही हो जज्बातों से मैं प्रेम की पराकाष्ठा को जीना चाहता था तुमसे प्रेम करता था पीव न प्रेम कर सका न ही जी सका बाधा हमेशा से तुम रही हो, तुम्हारा अवसादित मन रहा है तुम अब भी अवसाद से मुक्ति पाने के परामर्श परामर्शदाता के बतायें उपायों को अपनाकर सालों से अवसाद में हो। सिरफिरेपन में प्रेम नहीं वासना की लपटों में सुलग रहे हम दोनों के बीच एक अधूरापन आज भी जिंदा है। -- प्रथम प्रेमानूभूति जब नवयौवना बंध जाती है पति के बन्धन में तब पति के पास निर्लज्ज/अश्लील होते ही उसकी काया को पति अर्पित करता है अपने अंग। दोनों भीतर ही भीतर अपनी भावनाओं के सागर में गोता लगाते हैं अच्छे-बुरे विचारों का बवंडर उड़ा ले जाता है उन्हें और वे एक दूसरे के चरित्र को मापते हुये अंत में करते हैं मंथन। जब वे विचारों के सागर में तैरते-उतराते करते हैं देह का समर्पण तब उनमें कुछ विचार टूटते हैं कुछ भावनायें बिखरती है और वे सुखद पीड़ा के साथ एक दूसरे की काया को उन्मुक्तता से रौंदते हैं । तब देह के भीतर से सैकड़ों बिजलियाँ कड़कडाकर दूसरी देह में गिरती अनुभव करते हैं मानों घनघोर मेघ बरस चुके है और अलौकिक आनंद के साथ ही पीव नवपरिणिता पति-पत्नी निस्तेज हो जाते हैं। आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार गांव का घर कविता के रचयिता कौन है?उत्तर – गांव का घर शीर्षक कविता के रचयिता कवि ज्ञानेन्द्रपति हैं जो कि आधुनिक हिंदी के कवि हैं।
अपना गाँव कहानी किसकी रचना है?'अपना गाँव' मोहनदास नैमिशराय की एक महत्त्वपूर्ण कहानी है जो दलित मुक्ति-संघर्ष आंदोलन की आंतरिक वेदना से पाठकों को रूबरू कराती है.
गांव के कवि कौन है?गाँव के कवि त्रिलोचन / स्मृति शुक्ला
रात में गांव के कवि कौन है?रात में गाँव / अज्ञेय
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