आत्मा परमात्मा से कैसे मिलती है? - aatma paramaatma se kaise milatee hai?

हम प्रार्थना को अक्सर धर्म में बांध कर देखते हैं और यह सोचते हैं कि अगर हमने प्रार्थना का कोई रूप पकड़ा तो हम किसी न किसी धर्म में उलझ जाएंगे। दरअसल प्रार्थना धर्म से आगे की चीज है। प्रार्थना हमें हमसे मिलवाती है जबकि धर्म हमको केवल रास्ता दिखाता है, ईश्वर तक जाने का रास्ता।

प्रार्थना के लिए हर धर्म ने व्यवस्था की है क्योंकि सब जानते हैं आत्मा की आखिरी खुराक यही है। इसीलिए प्रार्थना पर इतना जोर भी दिया जाता रहा, मगर हमें इससे बाहर आकर देखना होगा। हमें यह जानना होगा कि प्रार्थना किस हद तक कारगर है। इस पर बहुत से शोध हुए और किसी शोध ने इस बात से इनकार नहीं किया है कि प्रार्थना हमें सकारात्मकता की तरफ ले जाती है। असल में यह मन को काबू करती है जिसे काबू करने की कोई और तरकीब अभी तक चलन में नहीं आई है।

अक्सर हम मान बैठते हैं कि नमाज ही प्रार्थना है, पूजा करना ही प्रार्थना है, चर्च में बैठना ही प्रार्थना है। लेकिन इन सबसे अलग भी कई तरीके हैं प्रार्थना के। बुद्ध ने पेड़ के नीचे शांत बैठकर प्रार्थना का मार्ग सुझाया तो मीरा ने भजन गाकर प्रार्थना का मार्ग बनाया, रहीम ने पद्य रचकर प्रार्थना खोजी तो अमीर खुसरो ने कव्वालियों में प्रार्थना पिरोई। रूमी ने मसनवी में प्रार्थना का रूप खोजा तो गांधी ने चरखे के साथ रामधुन गाकर। सचाई यह है कि इनमें से हरेक वह कर रहा था जिससे उसकी आत्मा को सुकून मिले, जिससे आत्मा बेचैनी की कैफियत से बाहर आ जाए।

एक बार अपने दिल की सुनिए। जब आप परेशान होते हैं, जब सब रास्ते बंद नजर आते हैं तब वह कौन सी हरकत है जो आपको इन सबसे बाहर ले आती है? जो निराशा में एकदम से आशा भर देती है, हार को जीत की तरफ मोड़ देती है, अंधेरे में रौशनी पैदा कर देती है, दर्द में मुस्कराहट ला देती है, बेरंग माहौल में रंग भर देती है, परायों में हर तरफ अपने बना देती है? वह है केवल और केवल प्रार्थना।

गांधी एक जगह लिखते हैं, ‘यदि मेरे जीवन में प्रार्थना न होती तो मैं कबका निराश होकर डूब गया होता।’ यह सच है कि प्रार्थना के विभिन्न रूपों से हम खुद को अलग रख सकते हैं, इसके धर्म से रिश्तों को किनारे कर सकते हैं, लेकिन इसकी आवश्यकता से मुंह नहीं मोड़ सकते। प्रार्थना आत्मा का भोजन है। फिर चाहे वह ध्यान हो, संगीत हो, योग हो, भक्ति हो या कुछ और भी हो। हम सब जीवन भर या तो खुद को ढूंढते हैं या ईश्वर को। दोनों ही स्थितियों में प्रार्थना आवश्यक है। एक जगह हम खुद से प्रार्थना करते हैं तो दूसरी जगह ईश्वर से करते हैं। दोनों ही सूरत में आत्मा को प्रार्थना की भूख होती है, जिसे हमें पूरा करना ही होगा।

वर्तमान में आत्मा और परमात्मा जैसे शब्द सारहीन प्रतीत होने लगे हैं। इसका मुख्य कारण धर्माचार्यों द्वारा गलत ढंग से धर्म को प्रचारित करना और धर्म के नाम पर धन एकत्रित करना है। साथ ही साथ धार्मिक कट्टरता ने तो धर्म के मूल स्वरूप को ही दिशाहीन कर दिया है। 

आत्मा प्रत्येक प्राणीमात्र में परमात्मा का प्रतिबिंब (चैतन्य लहरियों के रूप में) विद्यमान है। जब यह जागृत होकर ब्रह्मरन्ध्र (तालू क्षेत्र) को भेदकर सर्वव्यापी परमात्मा के निराकार, निर्गुण स्वरूप परम चैतन्य में मिलती है तब इसे 'योग' कहते हैं और यह संपूर्ण घटना 'आत्म साक्षात्कार' कहलाती है। इसे ही 'पुनर्जन्म' कहा गया है। 

चूंकि प्रत्येक धर्म में मनुष्य के पुनर्जन्म की बात कही गई है इसलिए मानव के उत्थान हेतु अतिआवश्यक है। इसका प्रमाण चैतन्य लहरियों का सिर के तालू भाग और हाथों पर शीतल रूप में अनुभव है। यह एक वास्तविक घटना है जिसे घटित होना पड़ता है, न कि कोई कपोल-कल्पित बात या प्रवचन मात्र है। यह घटना केवल मानव शरीर स्थित कुण्डलिनी के जागरण से ही संभव है। 

वास्तव में कुण्डलिनी जागरण एक जीवंत क्रिया है, जो सहज में घटित होती है और अंतर्परिवर्तन द्वारा उत्थान का मार्ग है। प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, लिंग, उम्र का हो- के लिए यह परम आवश्यक है। केवल कुण्डलिनी जागरण द्वारा ही मानव के अंतःस्थित धर्म जागृत होकर अंतरपरिवर्तन कर सकता है और मानव के नैतिक पतन को अवरोधित कर सकता है। 

इसी से केवल मानव जाति का उत्थान संभव है,परंतु आवश्यक है विशाल रूप में सामूहिक कुण्डलिनी जागृति और उसके अभ्यास की। केवल गृहस्थ जीवन में सर्वसाधारण रूप में रहते हुए बिना किसी त्याग के इसे अपने अंदर पाना है तभी हम धर्म के वास्तविक मर्म को जान पाएंगे। 

विज्ञान विश्व की बाहरी सतह और उसकी विविधता और बहुलता पर दृष्टि डालता है लेकिन उसके केंद्रबिंदु की अनुभूति तो केवल एकांतिक ध्यान से ही हो सकती है। यही वह केंद्रबिंदु है जिससे ये सभी चीजें उत्पन्न होती हैं। इसे बौद्धिक भाषणों से प्राप्त नहीं किया जा सकता। इसे प्राप्त करने के लिए अपने मन को अलग करना होगा अर्थात्‌ संसार की घटनाओं से असंपृक्त होकर ही आप इस केंद्रबिंदु पर अपना ध्यान केंद्रित कर सकते हैं और ईश्वर की रचना को समझ सकते हैं।
उद्योग : ऋग्वैदिक काल के उद्योग घरेलु जरूरतों के पूर्ति हेतु थे। बढ़ई एवं धूकर का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्व था। अन्य प्रमुख उद्योग वस्त्र, बर्तन, लकड़ी एवं चर्म कार्य था। स्त्रियाँ भी चटाई बनने का कार्य करतीं थीं।

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NCERT Solutions for Class 9 Hindi Kshitiz Chapter 10 वाख

पाठ्यपुस्तक के प्रश्न-अभ्यास

प्रश्न 1.
‘रस्सी’ यहाँ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है और वह कैसी है?
उत्तर-
‘रस्सी’ शब्द जीवन जीने के साधनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। वह स्वभाव में कच्ची अर्थात् नश्वर है।

प्रश्न 2.
कवयित्री द्वारा मुक्ति के लिए किए जाने वाले प्रयास व्यर्थ क्यों हो रहे हैं?
उत्तर-
कवयित्री देखती है कि दिन बीतते जाने और अंत समय निकट आने के बाद भी परमात्मा से उसका मेल नहीं हो पाया है। ऐसे में उसे लगता है कि उसकी साधना एवं प्रयास व्यर्थ हुई जा रही है।

प्रश्न 3.
कवयित्री का ‘घर जाने की चाह’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
परमात्मा से मिलना।

प्रश्न 4.
भाव स्पष्ट कीजिए-
(क) जेब टटोली कौड़ी न पाई।
(ख) खा-खाकर कुछ पाएगा नहीं, न खाकर बनेगा अहंकारी।
उत्तर-
(क) “जेब टाटोली कौड़ी न पाई’ का भाव यह है कि सहज भाव से प्रभु भक्ति न करके कवयित्री ने हठयोग का सहारा लिया। इस कारण जीवन के अंत में कुछ भी प्राप्त न हो सका।

(ख) भाव यह है कि मनुष्य को संयम बरतते हुए सदैव मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए। अधिकाधिक भोग-विलास में डूबे रहने से मनुष्य को कुछ नहीं मिलता है और भोग से पूरी तरह दूरी बना लेने पर उसके मन में अहंकार जाग उठता है।

प्रश्न 5.
बंद द्वार की साँकल खोलने के लिए ललयद ने क्या उपाय सुझाया है?
उत्तर-
ललद्यद ने सुझाव दिया है कि भोग और त्याग के बीच संतुलन बनाए रखो। न तो भोगों में लिप्त रहो, न ही शरीर को सुखाओ; बल्कि मध्यम मार्ग अपनाओ। तभी प्रभु-मिलन का द्वार खुलेगा।

प्रश्न 6.
ईश्वर प्राप्ति के लिए बहुत से साधक हठयोग जैसी कठिन साधना भी करते हैं, लेकिन उससे भी लक्ष्य प्राप्ति नहीं होती। यह भाव किन पंक्तियों में व्यक्त हुआ है?
उत्तर-
उपर्युक्त भाव प्रकट करने वाली पंक्तियाँ हैं-
आई सीधी राह से, गई न सीधी राह।
सुषुम-सेतु पर खड़ी थी, बीत गया दिन आह!
जेब टटोली, कौड़ी न पाई।
मांझी को क्या दें, क्या उतराई ?

प्रश्न 7.
‘ज्ञानी’ से कवयित्री का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
‘ज्ञानी’ से कवयित्री का अभिप्राय है-जिसने परमात्मा को जाना हो, आत्मा को जाना हो।

प्रश्न 8.
हमारे संतों, भक्तों और महापुरुषों ने बार-बार चेताया है कि मनुष्यों में परस्पर किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं होता, लेकिन आज भी हमारे समाज में भेदभाव दिखाई देता है-
(क) आपकी दृष्टि में इस कारण देश और समाज को क्या हानि हो रही है?
(ख) आपसी भेदभाव को मिटाने के लिए अपने सुझाव दीजिए।
उत्तर-
(क) हमारे समाज में जाति-धर्म, भाषा, संप्रदाय आदि के नाम पर भेदभाव किया जाता है। इससे समाज और देश को बहुत हानि हो रही है। इससे समाज हिंदू-मुसलमान में बँटकर सौहार्द और भाई-चारा खो बैठा है। दोनों एक-दूसरे के शत्रु से नजर आते हैं। त्योहारों के समय इनकी कट्टरता के कारण किसी न किसी अनहोनी की आशंका बनी। रहती है। इसके अलावा समय-असमय दंगे होने का भय बना रहता है। इससे कानून व्यवस्था की समस्या उठ खड़ी होती है तथा विकास पर किया जाने वाला खर्च अकारण नष्ट होता है।

(ख) आपसी भेदभाव मिटाने के लिए लोगों को सहनशील बनना होगा, सर्वधर्म समभाव की भावना लानी होगी तथा कट्टरता त्याग कर धार्मिक सौहार्द का वातावरण बनाना होगा। सभी धर्मों के अनुयायियों के साथ समानता का व्यवहार करना होगा तथा वोट की खातिर किसी धर्म विशेष का तुष्टीकरण बंद करना होगा ताकि अन्य धर्मानुयायियों को अपनी उपेक्षा न महसूस हो।

पाठेतर सक्रियता

प्रश्न 9.
भक्तिकाल में ललद्द्यद के अतिरिक्त तमिलनाडु की आंदाल, कर्नाटक की अक्क महादेवी और राजस्थान की मीरा जैसी भक्त कवयित्रियों के बारे में जानकारी प्राप्त कीजिए एवं उस समय की सामाजिक परिस्थितियों के बारे में कक्षा में चर्चा कीजिए।
उत्तर-
छात्र स्वयं करें।

प्रश्न 10.
ललयद कश्मीरी कवयित्री हैं। कश्मीर पर एक अनुच्छेद लिखिए।
उत्तर-
कश्मीर हमारे देश के उत्तरी भाग में स्थित है। यह पर्वतीय प्रदेश है। यहाँ का भू–भाग ऊँचा-नीचा है। कश्मीर के ऊँचे पहाड़ों पर सरदियों में बरफ़ पड़ती है। यह सुंदर प्रदेश हिमालय की गोद में बसा है। अपनी विशेष सुंदरता के कारण यह मुगल बादशाहों को विशेष प्रिय रहा है। मुगल सम्राज्ञी ने उसकी सुंदरता पर मुग्ध होकर कहा था, ‘यदि धरती पर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है।’

कश्मीर में झेलम, सिंधु आदि नदियाँ बहती हैं जिससे यहाँ हरियाली रहती है। यहाँ के हरे-भरे वन, सेब के बाग, खूबसूरत घाटियाँ, विश्व प्रसिद्ध डल झील, इसमें तैरते खेत, शिकारे, हाउसबोट आदि सैलानियों के आकर्षण का केंद्र हैं। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता देखने के लिए देश से नहीं वरन विदेशी पर्यटक भी आते हैं। पर्यटन उद्योग राज्य की आमदनी में अपना विशेष योगदान देता है। वास्तव में कश्मीर जितना सुंदर है उतने ही सुंदर यहाँ के लोग भी हैं। ये मृदुभाषी हँसमुख और मिलनसार प्रकृति के हैं। कश्मीर वासी विशेष रूप से परिश्रमी होते हैं। वास्तव में कश्मीर धरती का स्वर्ग है।

अन्य पाठेतर हल प्रश्न

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नाव किसका प्रतीक है? कवयित्री उसे कैसे खींच रही है?
उत्तर-
नाव इस नश्वर शरीर का प्रतीक है। कवयित्री उसे साँसों की डोर रूपी रस्सी के सहारे खींच रही है।

प्रश्न 2.
कवयित्री भवसागर पार होने के प्रति चिंतिते क्यों है?
उत्तर-
कवयित्री भवसागर पार होने के प्रति इसलिए चिंतित है क्योंकि वह नश्वर शरीर के सहारे भवसागर पार करने का निरंतर प्रयास कर रही है परंतु जीवन का अंतिम समय आ जाने पर भी उसे अच्छी प्रार्थना स्वीकार होती प्रतीत नहीं हो रही है।

प्रश्न 3.
कवयित्री ने अपने व्यर्थ हो रहे प्रयासों की तुलना किससे की है और क्यों?
उत्तर-
कवयित्री ने अपने व्यर्थ हो रहे प्रयासों की तुलना कच्चे सकोरों से की है। मिट्टी के इन कच्चे सकोरों में जल रखने से जल रिसकर बह जाता है और सकोरा खाली रहता है उसी प्रकार कवयित्री के प्रयास निष्फल हो रहे हैं।

प्रश्न 4.
कवयित्री के मन में कहाँ जाने की चाह है? उसकी दशा कैसी हो रही है?
उत्तर-
कवयित्री के मन में परमात्मा की शरण में जाने की चाह है। यह चाह पूरी न हो पाने के कारण उसकी दशा चिंताकुल है।

प्रश्न 5.
बंद द्वार की साँकल खोलने के लिए कवयित्री क्या आवश्यक मानती है?
उत्तर-
बंद द्वार की साँकल खोलने के लिए कवयित्री का मानना है कि मनुष्य को भोग लिप्ता से आवश्यक दूरी बनाकर भोग और त्याग के बीच का मध्यम मार्ग अपनाना चाहिए। उसे संयम रखते हुए भोग और त्याग में समान भाव रखना चाहिए।

प्रश्न 6.
‘न खाकर बनेगा अहंकारी’-कवयित्री ने ऐसा क्यों कहा है?
उत्तर-
‘न खाकर बनेगा अहंकारी’-कवयित्री ने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि भोग से दूरी बनाते-बनाते लोग इतनी दूरी बना लेते हैं कि वे वैराग्य धारण कर लेते हैं। उन्हें अपनी इंद्रियों को वश में करने के कारण घमंड हो जाता है। वे स्वयं को सबसे बड़ा तपस्वी मानने लगते हैं।

प्रश्न 7.
कवयित्री किसे साहब मानती है? वह साहब को पहचानने का क्या उपाय बताती है?
उत्तर-
कवयित्री परमात्मा को साहब मानती है, जो भवसागर से पार करने में समर्थ हैं। वह साहब को पहचानने का यह उपाय बताती है कि मनुष्य को आत्मज्ञानी होना चाहिए। वह अपने विषय में जानकर ही साहब को पहचान सकता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘जेब टटोली कौड़ी न पाई’ के माध्यम से कवयित्री ने क्या कहना चाहा है? इससे मनुष्य को क्या शिक्षा मिलती है?
उत्तर-
‘जेब टटोली कौड़ी न पाई’ के माध्यम से कवयित्री यह कहना चाहती है कि हठयोग, आडंबर, भक्ति का दिखावा आदि के माध्यम से प्रभु को प्राप्त करने का प्रयास असफल ही होता है। इस तरह का प्रयास भले ही आजीवन किया जाए पर उसके हाथ भक्ति के नाम कुछ नहीं लगता है। भवसागर को पार करने के लिए मनुष्य जब अपनी जेब टटोलता है तो वह खाली मिलती है। इससे मनुष्य को यह शिक्षा मिलती है कि भक्ति का दिखावा एवं आडंबर नहीं करना चाहिए।

प्रश्न 2.
‘वाख’ पाठ के आधार पर बताइए कि परमात्मा को पाने के रास्ते में कौन-कौन सी बाधाएँ आती हैं?
उत्तर-
परमात्मा को पाने के रास्ते में आने वाली निम्नलिखित बाधाएँ पाठ में बताई गई हैं-

  1. क्षणभंगुर मानव शरीर और नश्वर साँसों के सहारे मनुष्य परमात्मा को पाना चाहता है।
  2. परमात्मा को पाने के प्रति मन का शंकाग्रस्त रहना।
  3. अत्यधिक भोग में लिप्त रहना या भोग से पूरी तरह दूर होकर वैरागी बन जाना।
  4. मन में अभिमान आ जाना।
  5. सहज साधना का मार्ग त्यागकर हठयोग आदि का सहारा लेना।
  6. ईश्वर को सर्वव्यापक न मानना।
  7. मत-मतांतरों के चक्कर में उलझे रहना।

इनं बाधाओं के कारण प्रभु-प्राप्ति होना कठिन हो जाता है।

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आत्मा का परमात्मा से मिलन कैसे हो सकता है?

आत्मा और परमात्मा का मिलन 'कृष्णार्जुन संवाद' है। यही अंत है, यही लक्ष्य है यही पूर्णता है। तुम्हें उस सत्य को जानने का प्रयास करना चाहिए जो व्यापक और संपृक्त है और जिसके कारण सारा संसार क्रियाशील है, जिससे जीव उत्पन्न होते हैं, संसार में रहते हैं और जिसमें विलीन हो जाते हैं।

आत्मा और परमात्मा के मिलन को क्या कहते हैं?

आत्मा परमात्मा का मिलन सत्संग से ही है। मनुष्य शरीर मौज मस्ती के लिए नहीं है। इस योनि में किए कार्य से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। जिस जमीन, जायदाद, दौलत को आप कहते हैं कि यह मेरा है, इसी को आपके पूर्वज भी मेरा-मेरा कहते चले गए, तो यह कैसे मान लें कि यह आपका है।

परमात्मा कैसे मिल सकता है?

जब किसी भी व्यक्ति के मन के अंदर और मन के बाहर दोनों जगह परमात्मा का वास होता है तो उसे परमात्मा प्राप्त होता है, जो हम देख रहे हैं अपनी आँखों से, यह संसार नहीं है अपितु यह तो संसार का वह रूप है, जो व्यक्ति की कामनाएँ और वासनाएँ उसे दिखा रही हैं। सत बदंगी जी केवल स्मरण के द्वारा।

अपनी आत्मा के दर्शन कैसे हो?

आत्म दर्शन किसे और कैसे (Aatma darshan kise or kaise) जब सुरत दोनों आँखें बन्द करके तीसरे तिल में आत्म दर्शन अपने सच्चे स्वरूप का करती है तो उसे एक प्रकार की जागृति हो जाती है। उस शीशे में देखती है कि मैं इसी स्वरूप की और उसी आईने से दूसरों की भी शकले नज़र आती है। यहाँ उस शीशे में मालूम होता है कि कौन क्या करता है।