परीक्षित को कौन से ऋषि ने श्राप दिया था? - pareekshit ko kaun se rshi ne shraap diya tha?

पुराणानुसार श्रृंगी ऋषि के शाप के कारण तक्षक नाग ने राजा परीक्षित को डसा था, जिससे उनकी मृत्यु हो गई। इससे क्रुद्ध होकर प्रतिशोध की भावना से उसके पुत्र जनमेजय ने सर्पयज्ञ किया। मंत्राहुत होकर सर्प यज्ञकुण्ड में आ-आकर गिरने लगे। इसी बीच वासुकी की बहन नाग कन्या, जरत्कात का पुत्र आस्तीक आकर जनमेजय और उसके यज्ञ अनुष्ठान की छलपूर्वक प्रशंसा करने लगा। उससे प्रसन्न होकर जनमेजय ने उससे वर माँगने को कहा। ऋत्विजों ने राजा को वर देने से मना किया। तक्षक मंत्राहूत होकर मण्डप के पास आ ही गया था कि तभी आस्तीक ने वर माँगा कि यज्ञ बन्द क्र दिया जाए। बचन बद्ध होकर जनमेजय को यज्ञ बन्द कर देना पड़ा और जनमेजय को इसका पश्चाताप बना रहा कि वह अपने पिता की मृत्यु का बदला न ले सका। वास्तविक शत्रु तक्षक बच ही गया।

कौशिक नदी के तटपर एक अतीव सुन्दर एवं प्राकृतिक स्थान पर ऋषि शमीक का आश्रम था, ऋषि शमीक महान तपस्वी एवं तेजस्वी थे, तथा वह दयालु व परोपकारी स्वभाव के थे।  अनेक ऋषिकुमार उनके पास ज्ञान प्राप्त करने व वेदों का अध्यन करने के लिए रहते थे, शमीक ऋषि का पुत्र शृंगी भी उन्ही ऋषिकुमारों के साथ रहकर अध्ययन करता था।

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एक दिन सभी ऋषिकुमार उपवन में होम के लिए लकड़ियां लेने गए, शृंगी भी उनके साथ गया था, उस समय ऋषि शमीक आश्रम में तपस्या में लीन बैठे थे, तथा समाधी अवस्था में थे एवं ध्यान में ब्रह्मसुख का आनंद अनुभव कर रहे थे , ऐसे समय में वह बाह्य जगत को पूर्णतः भूल गए थे तथा आश्रम में कौन आया कौन गया इसका पता उन्हें कैसे चलता।
उसी दिन बहुत तेज धुप थी, प्रखर धूप से शरीर तप रहा था, उस समय उस राज्य के राजा परीक्षित आखेट के लिए वन में भटकते रहे थे , तथा भटकते भटकते बहुत थक गए थे एवं प्यास से व्याकुल हो गए थे, उन्हें विश्राम करने की अत्यंत आवश्यकता थी।  घूमते घूमते राजा परीक्षित ऋषि शमीक के आश्रम में पहुंचे और सोचा की इस स्थान पर मुझे पानी मिल सकता है तथा थोड़ा विश्राम भी मिल सकता है , इसी आशा से परीक्षित उस आश्रम के ओर चल दिये।

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जब वह वहां पहुंचे तो वहां पूर्णतया सन्नाटा छाया हुआ था , राजा परीक्षित का स्वागत करने के लिए वहां कोई नहीं था, इससे राजा को आश्चर्य हुआ , प्यास से व्याकुल राजा परीक्षित आश्रम में इधर उधर पानी खोजने लगे.
तभी उन्हें सामने ऋषि शमीक दिखाई दिए. उन्हें आनंद हुआ , उन्होंने ऋषि को प्रणाम किया तथा विनम्रता से कहा " हे मुनिवर मुझे बहुत प्यास लगी है कृपया मुझे पानी दीजिये , परन्तु मुनि नेत्र मूंदकर ध्यानमग्न थे अतः वह राजा से कैसे बोलते।

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राजा ने उन्हें बार बार पुकारा परन्तु कोई लाभ न हुआ।  राजा को लगा कि " यह ऋषि आँखें मूंदकर ध्यान करने का ढोंग कर रहा है और जानबूझकर मेरा अपमान करने के लिए मौन धारण कर रखा है। राजा ने सोचा की अगर यह मेरा अपमान कर रहा है तो मैं भी इस ढोंगी ऋषि का अपमान करूँगा।
राजा परीक्षित इस अपमान से बहुत क्रोधित हो गए थे तथा प्यास से व्याकुल होने के कारण उनका विवेक नष्ट हो गया था।  क्रोध में पैर पटकते हुए वे आश्रम से बाहर आये।  इतने में राजा को एक वृक्ष के निचे एक मरा हुआ सर्प दिखाई दिया, राजा ने मरे हुए सर्प को धनुष के टोक से उठाया और आश्रम में लौटकर ऋषि शमीक के गले में डाल दिया।

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परीक्षित राजा को आश्रम के जाते हुए दो ऋषिकुमारों ने देखा था।  उन्होंने शृंगी को यह बात बताई,तब शृंगी ने सभी से कहा की मित्रो अब हम सब आश्रम चले. पिताजी ध्यानमग्न है, और आये हुए राजा का हमें स्वागत करना चाहिए।  " झप झप  पैर बढ़ाते हुए आश्रम से बाहर जा रहे राजा को उन ऋषिकुमारों ने पुकारा।  किन्तु राजा नहीं लौटे और न ही पीछे मुड़कर देखा।
अतः शृंगी के साथ वे ऋषिकुमार आश्रम में आये और क्या देखते है।  ध्यानमग्न ऋषि शमीक के गले में मारा हुआ सर्प डला हुआ है।

यह देखकर शृंगी को अत्यंत क्रोध आया की " मेरे पिताजी का अपमान उस राजा ने किया है. अतः क्रोध से लाल हुए शृंगी ने पास में ही हवनशाला में रखे हुए कमण्डल से पानी हाथ में लेकर उसे भूमि पर फ़ेंकते हुए शाप दिए, "मेरे पिता का ऐसा अपमान करने वाले उस नराधम परीक्षित राजा की मृत्यु आज से सातवे दिन सापों के राजा तक्षक नाग के काटने से होगी। " शृंगी का यह भयंकर शाप सुनकर सब ऋषिकुमार अत्यंत भयभीत हो गए।

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ऋषि शमीक के गले में पड़ा हुआ मृतसर्प उन ऋषिकुमारों ने निकाल दिया तथा शरीर पर चढ़ी हुई चीटियों को भी उन्होंने झटककर हटा दिया।  तभी शमीक ऋषि की समाधि टूटी और उन्होंने सामने खड़े अपने शिष्य ऋषिकुमारों को देखा।

वे सभी भयभीत थे , शृंगी क्रोध से लाल होकर काँप रहा था।  यह देख शमीक ने पूछा " मेरे प्रिय शिष्यों क्या बात है , यह मारा हुआ सर्प यहाँ क्यों है , ये चीटियां ......., और तुम सब ऐसे क्यों खड़े हो.

अतः शृंगी व् ऋषिकुमारों ने ऋषि शमीक को पूरी घटना विस्तार से बताई। यह सुनकर शमीक ऋषि शांतिपूर्वक बोले, "बेटा राजा परीक्षित के साधारण अपराध के लिए तूने जो सर्पदंश से मृत्यु का भयंकर शाप दिया है , यह बहुत बुरा हुआ।  अरे, राजा परीक्षित विष्णु के अवतार है।  वह पृथ्वी की प्रजा का पालन करता है, वे अपने इस आश्रम में आये थे, किन्तु उनका सत्कार करने का पुण्य हमें प्राप्त नहीं हुआ, उनका यहाँ आदर सत्कार  न होने के कारन ही वे क्रोधित हुए और विवेकहीनता के कारन उनसे यह साधरण सा अपराध हो गया होगा।  उन्हें इस अपराध के लिए क्षमा करना छोड़कर मृत्यु का शाप देना , हमारे जैसे ब्रह्मनिष्ठो को शोभा नहीं देता।
बेटा शृंगी, तू अभी भी अज्ञानी है , प्राप्त दुखों को कोई बाँट नहीं सकता, उसे तो भोगकर ही समाप्त करना पड़ता है, इसी में हमारी महानता है। अब तो भगवन की शरण जा और अपने इस अपराध के लिए राजा परीक्षित से क्षमा मांग।

उधर राजा परीक्षित शमीक ऋषि के आश्रम से निकलकर तीव्र गति के राजभवन पहुंचे, विश्राम करने के पश्चात् उन्हें अपने अपराध का स्मरण होकर पश्चाताप होने लगा।
थोड़े ही समय पश्चात्, शमीक ऋषि का एक शिष्य राजा परीक्षित के पास पहुंचा और उसने नम्रतापूर्वक कहा , "हे राजन, ब्रह्मसमाधि में लीन शमीक ऋषि की ओर के आपका यथोचित सत्कार नहीं हुआ , इसलिए उन्हें अत्यंत खेद हो रहा है। किन्तु अपने उस स्थान पर मरे हुए सर्प को बिना सोचे समझे उनके गले में डाल दिया , आपके इस अपराध के लिए उनके तेजस्वी पुत्र शृंगी ने आपको आज से सातवे दिन तक्षक नाग के काटने से मृत्यु होने  दिया है , यह शाप असत्य नहीं होगा , अतः तबतक आप अपना समय पुण्यकर्म एवं ईश्वर चिंतन में बिताएं।  महा क्षमाशील ऋषि शमीक ने मुझे यह सन्देश आपको बताने के लिए भेजा है।  आप इस शापवाणी से अनभिज्ञ न रहे , इसलिए उन्होंने यह सन्देश भेजा है, राजन अब आप सतर्क रहकर मोक्षप्राप्ति के लिए साधना करें।

शमीक ऋषि का यह सन्देश सुनकर राजा को संतोष हुआ, मेरे हाथों हुए अपराध के लिए मुझे उचित दंड मिलेगा, इस विचार पर आनंद हुआ।
पश्चात् राजा परीक्षित गंगातट पर जाकर रहने लगे , वहां व्यासपुत्र शुकदेव मुनि पहुंचे , उन्होंने राजा परीक्षित को उन सात दिनों में "भागवत कथा " सुनाई।  तभी से, यह पुण्यप्रद भागवद सप्ताह सुनने का लाभ हम सबको प्राप्त हो रहा है।

                                                                         धन्यवाद्

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राजा परीक्षित को कौन से ऋषि ने श्राप दिया था?

ऋंगी ऋषि ने सोचा कि यदि यह राजा जीवित रहेगा तो इसी प्रकार ब्राह्मणों का अपमान करता रहेगा। इस प्रकार विचार करके उस ऋषिकुमार ने कमंडल से अपनी अंजुल में जल ले कर तथा उसे मंत्रों से अभिमंत्रित करके राजा परीक्षित को यह श्राप दे दिया कि जा तुझे आज से सातवें दिन तक्षक सर्प डसेगा।

परीक्षित कितने वर्ष तक जीवित रहे?

परीक्षित के गले से स्पर्श होते ही वह नन्हा सा कीड़ा भयंकर सर्प हो गया और उसके दंशन के साथ परीक्षित का शरीर भस्मसात् हो गया। इस समय परीक्षित की अवस्था ९६ वर्ष की थी। परीक्षित की मृत्यु के बाद, फिर कलियुग की रोक टोक करनेवाला कोई न रहा और वह उसी दिन से अकंटक भाव से शासन करने लगा।

सुखदेव जी ने राजा परीक्षित को कौन सी कथा सुनाई थी?

इन्होने ही परीक्षित को श्रीमद्भागवत पुराण की कथा सुनायी थी शुक देव जी ने व्यास जी से महाभारत भी पढा था और उसे देवताओ को सुनाया था।

शमीक ऋषि के पुत्र का नाम क्या था?

कुछ समय बाद शमीक ऋषि के समाधि टूटने पर उनके पुत्र ऋंगी ऋषि ने उन्हें राजा परीक्षित के कुकृत्य और अपने श्राप के विषय में बताया। श्राप के बारे में सुन कर शमीक ऋषि को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने कहा - "अरे मूर्ख!