उदयपुर में राजस्थान महिला परिषद के संस्थापक कौन थी? - udayapur mein raajasthaan mahila parishad ke sansthaapak kaun thee?

भारत के समान ही राजस्थान का पारिवारिक तथा सामाजिक ढाँचा भी वर्णाश्रम, पितृसत्तात्मक संयुक्त परिवार प्रणाली, वर्ण-जाति, संस्कार आदि के आधार पर विकसित हुआ था । वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति तुलनात्मक रूप से अच्छी थी लेकिन धीरे-धीरे इसमें लगातार गिरावट आती गई । इसके लिये सामाजिक संरचना में विद्यमान पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण तो जिम्मेदार था ही, समय के साथ विकसित हुयी कुप्रथाओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । इनमें कन्यावध, बालविवाह, बहुपत्नी प्रथा, पर्दा, विधवादहन तथा जौहर, विधवा जीवन, डाकन, दासी एवं अन्य कई प्रथायें उल्लेखनीय हैं | राजस्थान के संदर्भ में महत्वपूर्ण बात यह है कि सामन्तवादी व्यवस्था ने स्त्रियों के जीवन को चार दीवारी में समेट दिया जबकि निम्न तथा आदिवासी वर्ग की स्त्रियों को अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी ।

मध्यकाल में भक्ति आन्दोलन समता का संदेश लेकर आया | राजस्थान में भी मीरा, सहजोबाई जैसी कई संत महिलायें हुयी लेकिन यह संदेश आध्यामिक जगत तक सिमट कर रह गया । 19वीं सदी में राजस्थान की रियासतों द्वारा ब्रिटिश सर्वोच्चता स्वीकार कर लेने के बाद परिवर्तन व गतिशीलता आई । राष्ट्रीय आन्दोलन का भी असर आया जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं के उत्थान के लिये प्रयास आरम्भ हुये | आर्य समाज ने इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । ब्रिटिश सरकार की पहल पर विधवादहन, कन्यावध, बालविवाह, डाकन आदि प्रथाओं को कानून द्वारा रोका गया । स्त्री शिक्षा के लिये विद्यालय खोले गये | राजस्थान की महिलाओं ने बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया | इस इकाई में हम इन सब मुद्दों पर विस्तार से चर्चा करेगें |

18.2 राजस्थान की सामाजिक संरचना में स्त्री

राजस्थान में महिलाओं की स्थिति को जानने के लिये हमें राजस्थान की सामाजिक संरचना और सामाजिक जीवन को समझना होगा | मोटे तौर पर सारे देश की सामाजिक संरचना वैदिककाल से ही जिन अवस्थाओं के आधार पर विकसित हुयी उनमें वर्णाश्रम, संयुक्त परिवार प्रणाली, वर्ण जाति, संस्कार आदि प्रमुख है । इन अवस्थाओं को समय समय पर धर्म शास्त्रों द्वारा वैधता प्रदान की गई | राजस्थान के पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन का मूल ढाँचा भी इसी आधार पर विकसित हुआ था, जिसके मध्यकाल तक आते-आते हमें कई प्रमाण मिलने लगते हैं ।

प्राचीन भारतीय समाज में स्त्री का दर्जा बहुत ऊँचा था । ऐसी मान्यताओं को यथार्थ की कसौटी पर कसने की आवश्यकता है । वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी । इस काल में स्त्रियों को प्राप्त शिक्षा के अधिकार विवाह की आयु गृहस्थ जीवन में प्राप्त सम्मानजनक उत्थान, नियोग प्रथा, सार्वजनिक जीवन तथा धार्मिक क्रियाकलापों में उनकी भागीदारी आदि बातों से उनकी बेहतर स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है लेकिन वैदिककालीन समाज में दिखाई पड़ने वाली सामाजिक गति आगे आने वाले काल में धीमी पड़ती गई । धर्मसूत्र, स्मृति एवं महाकाव्य व पुराण काल के लम्बे दौर में कई ऐसे बदलाव हुये जिनसे स्त्रियों की स्थिति गिरती चली गई । इस काल का विशेष महत्त्व इस कारण है कि स्मृतिकार मनु ने इसीकाल में हिन्दू समाज के लिये ऐसा लौह ढाँचा बनाकर स्थापित कर दिया जो अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक अटल रहा |

मध्यकालीन राजस्थान में एक ओर सामन्तवादी संरचना मजबूत हुयी दूसरी ओर मुस्लिम आक्रमण हुये और दोनों तत्वों ने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से महिलाओं को गिरती स्थिति की ओर गीत प्रदान की।

18.2.1 ‘पितृसत्तात्मक एवं संयुक्त परिवार में स्त्री

समाज की मूल इकाई के रूप में परिवार का विकास हुआ है। आहड और कालीबंगा सभ्यता के अवशेषों से प्राप्त जानकारी के आधार पर विद्वानों का अनुमान है कि उस युग में राजस्थान में सम्भवत: मातृसत्तात्मक परिवार प्रथा रही होगी । लेकिन कालान्तर में कृषि युग की प्रधानता के साथ ही पितृसत्तात्मक परिवार की प्रथा होती गई । कृषिजीनत आवश्यकता ने ही, भारत के अन्य भागों की तरह राजस्थान में संयुक्त परिवार प्रणाली के विकास का आधार तैयार किया । इस प्रणाली में पिता परिवार का मुखिया होता था और पत्नी, पुत्र, पुत्रियाँ, पौत्र, भाई, भतीजा, चाचा-चाची सब एक छत के नीचे रहते थे।

पितृसत्ता तथा संयुक्त परिवार ने महिलाओं की स्थिति को प्रभावित किया । पितृसत्ता में आरम्भ से ही कन्या का जन्म उल्लास का प्रसंग नही माना जाता था लेकिन कन्या जन्म होने पर उसके विकास की उपेक्षा भी नही की जाती थी । कालान्तर में कन्या जन्म एक आपत्ति समझा जाने लगा । संयुक्त परिवार निःसन्देह परस्पर सहयोग, उत्तरदायित्व तथा आर्थिक सम्पन्नता की दृष्टि से लाभकारी सिद्ध हुये किन्तु इन परिवारों में स्त्रियों की स्थिति बड़ी हीन होती थी । वहाँ उनके विचारों तथा स्वतंत्रता के लिये कोई स्थान नहीं होता था, यद्यपि उनकी मूलभूत भौतिक आवश्यकतायें पूरी की जाती थी । परिहार के मुखिया की सत्ता तथा छत्रछाया में जीवन बिताने वाली इन स्त्रियों को ही उसका कटु अनुभव होता था | एक ओर सास-बहू देवरानी-जिठानी, ननद-भोजाई के आपसी कलह और संघर्ष थे तो दूसरी ओर बाल्यावस्था से ही लड़कियों को सब कुछ सहन करने का प्रशिक्षण । परिणामस्वरूप संयुक्त परिवारों में स्त्रियों का जीवन अवरूद्ध तथा कुंठित हो जाता था । ऐसे परिवेश में स्त्रियों के व्यक्तित्व के स्वतंत्र तथा यथायोग्य विकास के अवसर नहीं थे । पितृसत्ता तथा जटिल संयुक्त परिवार प्रणाली में स्त्री समानता के लिए कोई स्थान नहीं था |

18.2.2 वर्ण एवं जाति अवस्था में स्त्री

वैदिककाल काल से ही हमारी सामाजिक संरचना चार भागों में विभाजित थी जिसे वर्ण व्यवस्था कहा जाता है | श्रेणीक्रम पर आधारित इस वर्ण व्यवस्था में ब्राह्मणों का दायित्व ज्ञान का सृजन व यज्ञों का सम्पादन करना था । क्षत्रिय प्रशासन व युद्ध का दायित्व सँभालते थे । व्यापार, कृषि व पशुपालन का काम वैश्यों का था और शूद्र का मुख्य दायित्व उपर्युक्त तीनों वर्गों की सेवा करना था । यही वर्ण व्यवस्था आगे चल कर जन्म पर आधारित असंख्य जातियों और उपजातियों में विभाजित हो गयी । इस बात के प्रमाण हम हमारे जीवन में ही नहीं, तत्कालीन पुरालेखों तथा साहित्यिक दस्तावेजों में प्रचुर मात्रा में पाते हैं । वर्ण एवं जाति पर आधारित राजस्थान की सामाजिक संरचना ने स्त्री की स्थिति को निर्णायक रूप से प्रभावित किया है इसलिये महिलाओं की स्थिति को जानने के लिये हमें जाति अवस्था की प्रकृति को समझना आवश्यक है ।

वर्ण जाति श्रेणी क्रम में सर्वोच्च स्थान ब्राह्मणों का था और निम्नतर स्थान शूद्रों का | कसाई, चमार, बलाई, रेगर, भंगी, भाँभी आदि जातियाँ अछूत समझी जाती थी । इन जातियों एवं उपजातियों में अपनी उच्चता स्थापित करने के लिए आंतरिक होड मची रहती थी । खान-पान तथा आचार सम्बन्धी नियम भी जाति की स्थिति के अनुसार होते थे । धार्मिक तथा नागरिक अधिकारों का उपभोग तथा प्रतिबन्ध जाति के अनुसार था । जन्म पर आधारित होने के कारण जातियों के धंधे तथा व्यवसाय वंशानुगत होते थे जिसमें व्यक्ति की निजी इच्छा और योग्यता के लिये स्थान नहीं था । विवाह के सम्बन्ध में भी जातिगत कठोर नियम थे | एक जाति ही नहीं उपजाति के सदस्य का विवाह दूसरी उपजाति के सदस्य से नहीं हो ‘सकता था । खान-पान तथा विवाह सम्बन्धी इन नियम निषेधों को आंचलिक भाषा में ‘रोटी तथा बेटी का व्यवहार’ कहा जाता था । ऊपर के तीन वर्ण और उनसे सम्बन्धित जातियों को सवर्ण तथा शूद्र जातियों को सवर्ण कहा जाता था।

वर्ण तथा जाति के नियमों का प्रावधान हमारे धर्मशास्त्रों में किया; गया था जिसने राजस्थान में भी स्त्रियों का जातिगत आधार पर स्थान निर्धारित किया था । जैसे यदि कोई शूद्र उच्च वर्गों की किसी नारी के साथ व्यभिचार करता था तो उसका अंग काटने तथा सम्पत्ति जज करने का प्रावधान था किन्तु ब्राह्मण नारी के साथ सहमति या असहमति से सहगमन करने पर प्राणदण्ड का प्रावधान था । दूसरी और उच्च वर्ण के सदस्य द्वारा निम्न वर्ण की स्त्री के साथ सहगमन को गंभीर नहीं माना जाता था |

जाति के कठोर साँचे में बन्द समाज में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं था । जातिगत नियम- निषेधों के पालन के लिए जातिगत पंचायतें होती थी जो खान-पान, विवाह, व्यभिचार आदि के सम्बन्ध में धर्मशास्त्रों द्वारा निर्धारित मानदंडों के अनुसार फैसला करती थी । यही कारण हैं कि राजस्थान में भी देश के अना भागों की तरह, स्त्रियों का स्थान गौण था | बल्कि दलित वर्ग की स्त्री दोहरे दमन का शिकार थी -एक स्त्री के रूप में वंचना दूसरे शूद्र के रूप में | जाति व्यवस्था में बँटी स्त्री की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति भी उसी के अनुसार अलग-अलग थी । सभ्य, भद्र तथा ऊँचे माने जाने वाले ब्राह्मण तथा राजपूत वर्ग की स्त्रियों की अपेक्षा अन्य वर्गों की स्त्रियाँ अपेक्षाकृत स्वंतत्र थी क्योंकि कृषि तथा व्यवसाय गत उत्पादन की प्रक्रिया में उनकी सीधी भागीदारी होती थी।

लेकिन सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से दलित महिलाओं की स्थिति ‘दासियों और रखैलों’ जैसी थी । निम्न वर्ग की नारी का शोषण उस वर्ग तक हो सीमित नहीं था । निम्न वर्ग की स्त्री के साथ उच्च वर्ग के पुरुष द्वारा विवाह कर लेने या अपने घर में रख लेने पर उसे जाति द्वारा बहिष्कृत कर दिया जाता था किन्तु बिना घर में रखे, सहगमन के लिए दलित महिलायें सस्ती और सुलभ समझी जाती थी । वस्तुत: निम्न और दलित वर्ग की महिला राजस्थान में मर्दवाद तथा वर्णवाद दोनों की शिकार रही ।

18.2.3 संस्कार और स्त्री

संस्कार वह है जिसके होने से कोई पदार्थ या व्यक्ति किसी कार्य के लिये योग्य हो जाता है अर्थात् संस्कार दे क्रियायें और रीतियाँ हैं जो योग्यता प्रदान करती है । पी.वी. काणे के अनुसार, प्राचीन काल से ही व्यक्ति के विकास तथा सुषुप्त शक्तियों के आविर्भाव के लिए संस्कारों को अनिवार्य माना गया है । मनुष्य जीवन गर्भाधान से शुरू होता है और श्मशान में समाप्त होता है । ये प्रमुख 16 संस्कार हैं जिनको केवल द्विज जातियाँ ही कर सकती थी, शूद्रों को संस्कार सम्पन करने का अधिकार नहीं था । ये 16 संस्कार थे – गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, कर्णबेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त समावर्तन, विवाह एवं अन्त में मृतक संस्कार ।

धर्मशास्त्रों द्वारा इन विभिन्न संस्कारों के जो उद्देश्य निर्धारित किये गये, यदि संक्षेप में हम उन पर प्रकाश डालेगे तो स्पष्ट होगा कि किस ये संस्कार पितृसत्ता के वाहक एवं संरक्षक थे, जैसे गर्भाधान संस्कार का उद्देश्य स्वस्थ भ्रूण का निर्माण करना था किन्तु पुंसवन संस्कार का तो उद्देश्य ही पुत्र शिशु की प्राप्ति था और सीमन्तोन्नयन : संस्कार स्वस्थ, दृष्ट-पुष्ट त था वीर बालक की प्राप्ति के लिये किया जाता था । इसी प्रकार चूडाकर्म संस्कार जिसमें सिर मुण्डवा कर एक चोटी छोड़ दी जाती थी, का सम्बन्ध भी बालक से था, बालिका से नहीं । जीवन के बौद्धिक विकास से सम्बन्धित ज्ञान तथा प्रकाश प्रदान करने वाले शिक्षा से जुड़े सभी संस्कारों जैसे विद्यारम्भ, उपनयन, वेदाध्ययन तथा समावर्तन के वैदिक मंत्रों के साथ संस्कार सम्पादन के सारे अधिकारों से स्त्रियों को वंचित कर दिया गया । स्त्रियों के विवाह तथा अंत्येष्टि संस्कार अवश्य होते थे किन्तु विवाह संस्कार के प्रमुख उद्देश्यों में से एक पुत्र प्राप्त करना ही था और अंत्येष्टि कर्म तो पुत्र के हाथों से ही सम्पन्न होता था |

इस प्रकार व्यक्ति के विकास, स्वास्थ्य, उन्नति तथा सुसंस्कृत बनाने वाले संस्कारों का मुख्य सम्बन्ध पुरुषों से था और पुरुषों में भी शूद्रों को इनसे वंचित कर दिया गया था | धर्मशास्त्रों में संस्कारों के जो पुरुष प्रधान प्रावधान किये गये थे, राजस्थान का समाज भी उसका अपवाद नहीं था । राजस्थानी साहित्य में सीमन्तोन्नयन, नामकरण, उपनयन विवाह तथा अंत्येष्टि संस्कारों का उल्लेख प्रचुर मात्रा में मिलता है । पुत्र के लिये विशेष रूप से किये जाने वाले संस्कारों के अलावा जो शेष संस्कार पुत्रियों के लिये किये भी जाते थे तो वे गौण ही थे । हाँ, इन तमाम संस्कारों के आयोजन के समय राजस्थान की स्त्रियाँ गीत गाकर इन्हें रोचक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अवश्य निभाती थी।

हमारे यहाँ मोक्ष प्राप्ति का मार्ग पुत्र प्राप्ति की अनिवार्यता से होकर गुजरता है | मोक्ष के लिये जिन तीन ऋणों को चुकाना आवश्यक है, उनमें पितृऋण से मुक्ति पुत्र प्राप्ति के बाद ही सम्भव है । वस्तुत: भारतीय संस्कृति की बनावट तथा बुनावट जिन प्रमुख व्यवस्थाओं मान्यताओं, संस्कारों तथा सामाजिक व्यवहार पर आधारित है, राजस्थान की समाज एवं संस्कृति उसी का महत्वपूर्ण हिस्सा है । अत: राजस्थान में महिलाओं की स्थिति का निर्धारण भी जाति, वर्ण, संस्कार, पुरूषार्थ ऋण आदि की उपर्युक्त पितृसत्तात्मक अवधारणाओं के आधार पर ही हुआ था | इस संरचना में स्त्री कई वर्गो में बँटी हुयी थी | जाति धर्म जनजाति एवं आर्थिक स्थिति के अनुसार स्त्रियों की स्थिति में भिन्नतायें थी । स्त्री को कतिपय रूपों में उसे सम्मान तो मिल सकता था किन्तु समानता नहीं । उल्लेखनीय है कि दलित महिलायें इस व्यवस्था में सर्वाधिक हीन अवस्था में थीं |

18.2.4 शिक्षा व्यवस्था और स्त्री

विश्वसनीयता और व्यवस्थित आकड़ों के अभाव में प्राचीन राजस्थान में शिक्षा व्यवस्था का आकलन करना मुश्किल है । ‘मुधमालती में शिक्षा को अनन्त ज्ञान और आजीविका का स्रोत बताया गया है | राजस्थान की कई रियासतों में प्राथमिक शिक्षा के विद्यालय थे जिन्हें उपासरा मठ, पटशाला, पोसाल पाठशाला मदरसा, मकतब आदि कहते थे । पितृसत्तात्मक परिवार की संरचना में पिता भी वंशानुगत रूप से अपने बेटों को शिक्षा देता था । वंशानुगत व्यवसायों का तो आधार ही पारिवारिक शिक्षा थी ।

प्राथमिक शिक्षा के मुख्य विषय थे – लिखना, पढ़ना. गणना आदि । आगे की शिक्षा में पुराण तर्कशास्त्र,ज्योतिष, खगोलशास्त्र, नीतिशास्त्र, चाकरण, गणित, औषधि विज्ञान आदि पढाये जाते थे । लेकिन ज्ञान तथा पाण्डित्य की भाषा संस्कृत होने के कारण कुछ बनिया ओर ब्राह्मण को छोड़कर, बाकी राजस्थानी पढ़ने लिखने में असमर्थ थे ।

जहाँ तक स्त्री शिक्षा का सकल है, हम जानते हैं कि वैदिक काल में उपनयन संस्कार के साथ स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार था लेकिन इसके बाद धीरे-2 उन्हें इससे वंचित किया जाने लगा । मध्यकाल तक आते-2 राजस्थान में महिलाओं से सम्बन्धित कई ऐसी प्रथाएँ प्रचलन में आयी जिनसे वे शिक्षा प्राप्त करने के अवसर खोती चली गई । वस्तुत: सामान्य व्यक्ति अपनी बेटी को शिक्षा के लिये नहीं भेजता था । अत: बहुसंख्यक महिला वर्ग शिक्षा से वंचित रह गया । राजस्थान में लडकियों के लिए अलग पाठशालायें न ही थी । हाँ, मध्यमवर्ग तथा शाही परिवार की स्त्रियों के पढ्ने के लिये घर पर शिक्षक बुलाकर पढ़ाने की व्यवस्था की जाती थी लेकिन उन वर्ग की इन महिलाओं की शिक्षा के विषय भिन्न थे । इन्हें खास तौर पर नृत्य, संगीत, चित्रकला जैसे अपेक्षाकृत कोमल विषयों की शिक्षा दी जाती थी | बाल विवाह के आग प्रचलन ने भी राजस्थान लें स्त्री शिक्षा में बड़ी बाधा डाली।

18.2.5 सामन्तवादी ढाँचे में स्त्री

राजस्थान के सभी राज्यों में सामन्तवादी व्यवस्था थी जिसने स्त्रियों की स्थिति को निर्णायक रूप से प्रभावित किया । सामन्तवाद राजपूत प्रशासनिक ढाँचे की रीढ़ था जिसमें वंश का प्रमुख राजा होता था और उसके वंशज या अन्य राजपूत वर्ग के वंशज उसके सहयोगी होते थे जिन्हें जागीरें दी जाती थीं । इन जागीरदार अथवा सामन्तों का अपनी जागीर में रहने वाली जनता पर सीधा प्रभावी अंकुश था ।

सामन्त अपने अधीन रहने वाली जनता से कई प्रकार के कर वसूल करते थे तथा कई प्रकार की बेगार करवाते थे । किन्तु जनता इसका विरोध नहीं कर सकती थी । मूलत: कृषि व्यवस्था के अर्थतंत्र पर टिकी यह व्यवस्था अनुदार, गतिहीन तथा निरंकुश थी । ऐसी निरंकुश व्यवस्था में स्त्रियों की स्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

सामन्ती नैतिकता नारी और भूमि को एक दृष्टि से देखती थी । इसमें ‘पृथ्वी माँ और मै इसकी संतान’ का सिद्धान्त ‘वीरभोग्या वसुंधरा’ में बदल गया । भूमि दान की जाती थी तो स्त्री भी दान की जाती थी । सामन्ती व्यवस्था में नारी का रूप बहुत कुछ धन की तरह भोगने योग्य वस्तु का हो गया । राजा व सामन्त की कई पत्नियाँ व रखेलें होती थीं और इसी सामन्तवाद में से कन्यावध, सती प्रथा

और विधवा की विकराल समस्यायें पैदा हुयी जिन्होनें स्त्री को चारदीवारी में बंद कर पूर्ण रूप से पुरुषों पर आश्रित बना दिया । इन सब समस्याओं पर हम आगे विस्तार से प्रकाश डालेगे । यहाँ केवल इतना समझना आवश्यक है कि सामन्तवादी व्यवस्था स्त्री की स्वतंत्रता, समानता तथा अधिकारों के विरूद्ध लोहआवरण की तरह खड़ी थी |

18.2.6 अर्थव्यवस्था और स्त्री

यदि हम सम्पत्ति के अधिकार की बात करें तो यहाँ भी हमें पितृसत्ता दिखाई देती है । यास्क ने स्पष्ट उलेख किया है कि पुत्र न होने पर पिता की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी पुत्री को ही माना जाये | कालान्तर में स्त्री को पितृपक्ष की ओर से तथा पिता-पीत से भेंट स्वरूप प्राप्त होने वाले धन को स्त्री धन कहा है और इस पर स्त्री का अधिकार स्वीकार किया गया लेकिन पिता अथवा पति की सम्पत्ति में उसे समान हक नहीं दिया गया । उत्तराधिकार में उसका क्रम अंत में था । पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र के बाद पत्नी तथा बेटी का हक था |

धर्मशास्त्रों द्वारा तय किये गये सम्पत्ति के अधिकार के मानदण्ड राजस्थान में स्पष्ट दिखाई देते हैं । हम जानते हैं कि राजस्थान में संयुक्त परिवार प्रणाली की सफलता एवं क्षमता महिलाओं के श्रम और सामंजस्य पर आधारित थी लेकिन संयुक्त परिवार की सम्पति में बेटा, पोता, पड़पोता का अधिकार था, किसी स्त्री का नहीं | राजस्थान की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि व्यवस्था थी और महिलायें पुरूषों के साथ हमेशा कृषि कार्य में पूर्ण श्रम से हाथ बँटाती थी । पशुपालन, खेतों में बुआई, जुताई, सिंचाई, कटाई से लेकर फसल के घर आने तक महिलायें कठोर परिश्रम करती थीं । ऐसे सैकडों प्रमाणों से इतिहास भरा पड़ा है । यही नहीं, घरेलू उद्योगों – जैसे सूत कातना, मिट्टी के बर्तन बनाना, महुआ से शराब बनाना आदि में महिलायें सक्रिय रूप से हाथ बँटाती थी । उत्पादन प्रकिया मे इस प्रकार की सीधी भागीदारी के कारण ही कृषक, शिल्पी तथा आदिवासी समाजों में स्त्रियाँ अपेक्षाकृत स्वतंत्र रही हैं जबकि अभिजन तथा सभ्य कहे जाने वाले वर्गो जैसे शाही, राजपूत, ब्रहामण आदि की महिलायें आमतौर पर चाहर दीवारी में ही बन्द रही हैं ।

18.3 राजस्थान में स्त्रियों से जुडी कुप्रथायें

ऊपर हमने देखा कि राजस्थान की पारिवारिक तथा सामाजिक संरचना में महिलाओं की क्या स्थिति थी? पितृसत्तात्मक ढाँचे में इंसान के रूप में महिलायें दोयम दर्ज की थी । धर्मशास्त्रों के विधान के अनुसार महिलाओं का स्थान निर्धारित किया गया था । वर्ण और जाति में विभाजित महिलाओं में इस विभाजन के अनुसार अन्तर भी देखा जा सकता था | सामाजिक एवं पारिवारिक संगठन के अलावा मध्यकाल तक आते-आते ऐसी कई प्रथायें प्रचलित हो गयी जिन्होनें महिलाओं की स्थिति को गिराने में योगदान दिया । इसी काल में एक भिन्न धर्म एवं संस्कृति के वाहक इस्लाम के आक्रमण हुये | इन आक्रमणों से अपनी संस्कृति, धर्म एवं समाज को बचाने के लिये राजस्थान सहित देश के सभी भागों में जाति प्रथा तथा स्त्रियों से संबन्धित प्रथाओं को और कठोर बनाने का प्रयास किया गया । इस तरह के प्रयासों का राजस्थान की महिलाओं की स्थिति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा । इसी समय भक्ति आन्दोलन भी चला, जिसकी हम आगे चर्चा करेगें । सर्वप्रथम हम उन प्रथाओं पर विचार करेगें जिनके कारण राजस्थान की महिलाओं की स्थिति अमानवीय एवं अत्यन्त पीड़ादायक हो गयी । इन्हें समझे बिना हम राजस्थान में स्त्रियों की वास्तविक स्थिति की कल्पना नहीं कर सकते ।

18.3.1 कन्यावध

हम जानते हैं कि वैदिक काल के बाद से ही आमतौर पर समाज में लड़की के जन्म का अभिनन्दन नहीं किया जाता था लेकिन राजस्थान की राजपूत जाति में कन्या का जन्म इतना दुःखदायी माना जाता था कि जन्म लेते ही उसे अफीम देकर या गला दबाकर मार दिया जाता था | कन्या वध जैसी इस क्रूर प्रथा के प्रचलन के कई कारण थे । सर्वप्रथम कन्या के विवाह की समस्या थी | कठोर जाति व्यवस्था के कारण दूसरी जाति में तो विवाह किया ही नहीं जा सकता था, अपने ही कुल और खाँप में भी विवाह नही होता था । इससे विवाह सम्बन्ध के चयन का क्षेत्र बहुत सीमित हो गया | दूसरा, प्रत्येक राजपूत अपनी बेटी का विवाह अपने से ऊँचे घराने, शाही अथवा सामन्ती घराने में करने को अपनी प्रतिष्ठा समझता था, लेकिन ऐसे घर में विवाह के लिए उतना ही अधिक दहेज भी जुटाना पडता था । झूठी शान के प्रतीक ऐसे विवाह में कन्या के पिता को चारण, भाट तथा ढोली को मुंह माँगा नेग भी देना पड़ता था । इस प्रकार कन्या के विवाह को अपनी हैसियत से बड़ी आन – बान से जोड देने के कारण उत्पन्न हुई समस्याओं से निजात पाने का आसान तरीका यह खोजा गया कि पैदा होते ही लड़कियों को चुपचाप मार दिया जाए | कन्यावध सती से भी ज्यादा प्रचलित था । लेकिन चुपचाप किये जाने के कारण लोगों का ध्यान उतना नहीं जाता था । राजपूतों के अलावा, जाट, मेर तथा अन्य जातियों में भी यह प्रथा प्रचलित थी । इस कुप्रथा की खास बात यह है कि मध्यकालीन समाज में सामाजिक समस्याएं इतनी हावी हो गई थीं कि स्वयं जन्म देने वाली माँ भी कन्या वध का विरोध नहीं कर सकती थी | बाहरी दिखावे में संवेदनाओं के स्रोत सूख गये थे ।

18.3.2 बाल विवाहः

वैदिक साहित्य में इस बात के प्रयाप्त प्रमाण हैं कि उस युग में युवावस्था में ही विवाह होते थे परिणामस्वरूप लडकियों को पढ्ने तथा दर चुनने का पर्याप्त अवसर मिलता था । लेकिन स्मृतिकाल तक आते-आते यह माना जाने लगा कि कन्या का विवाह बाल्यावस्था में ही कर देना चाहिए | विवाह सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था किन्तु स्त्री के लिए गृहस्थ आश्रम को ही एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया गया | कम उम्र में विवाह को पवित्रता से जोड दिया गया । विदेशी आक्रमणों के दौर में स्त्रियों की सुरक्षा के प्रश्न ने भी बाल विवाह को बढ़ावा दिया होगा । संयुक्त परिवार प्रणाली एवं अपनी ही जाति में विवाह की प्रथा ने भी बाल विवाह की प्रथा में योगदान दिया | राजस्थान में बाल विवाह का इतना अधिक प्रचलन था कि आखा तीज का दिन बाल विवाह का प्रतीक बन गया | बाल विवाह सभी जातियों में प्रचलित था किन्तु पिछडी तथा निभ जातियों में अधिक था | यह भी रिवाज था कि परिवार की सभी लडकियों का विवाह एक साथ कर दिया जाता था जो आर्थिक दृष्टि

से लाभदायक होता था । पिछड़ी जातियों की लड़कियाँ घर से बाहर काम करती थीं अत: बाल विवाह के बाद उनके माता-पिता आश्वस्त रहते थे कि उनके अवांछित सबन्ध स्थापित नहीं होगे । बाल विवाह की परम्परा कई पीढ़ियों से चली आ रही थी, अत: यदि बच्चा बड़ा हो जाए तो उसके लिए जीवन साथी मिलना मुश्किल हो जाता था । उपर्युक्त परिस्थितियों में बाल विवाह का अत्यधिक प्रचलन तो हो गया लेकिन इसने स्त्री के ही नहीं, सारे समाज के विकास को अवरूद्ध कर दिया । बाल विवाह का सबसे घातक दुष्परिणाम तो यह था कि इससे स्त्रियों की शिक्षा प्राप्ति का दरवाजा बन्द हो गया जो उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखा सकता था । उनका शारीरिक तथा मानसिक विकास अवरूद्ध हो गया । कम उम्र में माँ बनने के कारण न वे स्वस्थ रह सकती थी और न ही उनकी सन्तान ही हष्ट-पुष्ट हो सकती थी | बाल विवाह का एक और अनिष्टकारी प्रभाव बाल विधवाओं की समस्या के रूप में सामने आया, जिसने स्त्री से संबंधित कई विसंगतियों तथा कष्टों को जन्म दिया |

18.3.3 बहुविवाह

स्त्रियों के गृहस्थ जीवन की यातनाओं में वृद्धि का एक और कारण था – बहुपत्नी या बहुविवाह प्रथा | आरम्भ में सामान्य तौर पर एक पत्नी की ही क्या प्रचलित थी लेकिन विवाह का एक प्रमुख उद्देश्य पुत्र प्राप्ति को माना गया था अत: यदि प्रथम पत्नी निःसन्तान होती या उसके केवल लड़कियाँ होती तो ऐसे पति को दूसरा विवाह करने की स्वीकृति दी गई थी । बिना किसी औचित्य के दूसरे विवाह की स्वीकृति धर्म शास्त्र नहीं देते लेकिन मध्यकाल तक आते-आते बहुविवाह का प्रचलन आम हो गया | राजस्थान मध्य काल में लगातार युद्धों में उलझा रहा और युद्ध के कारण जीवन की अनिश्चितता में जीने वाला व्यक्ति अधिकाधिक सुख भोगना चाहता था और इसका तरीका था एक से अधिक पत्नियों का होना | वस्तुत: मध्यकाल तक आते-आते स्त्री उपभोग की वस्तु हो गई थी । यही कारण है कि राजस्थान के शाही तथा सम्पन्न परिवारों में बहुविवाह सर्वाधिक प्रचलित था । हम पढ़ चुके है कि किस तरह राजपूत अपने से ऊँचे कुल में बेटी का विवाह करना अपनी शान समझते थे । ऐसे में ऊँचे और कुलीन व्यक्ति की अनगिनत पत्नियाँ हो जाती थी। पत्नियों की इस भीड़ में विवाह के पश्चात् कुलीन पति के साथ सहवास के इन्तजार में जीवन गुजर जाता था | मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक पति के लिए अपनी सारी पत्नियों के साथ समान बर्ताव करना संभव नहीं था ऐसे में इन पत्नियों में परस्पर द्वेष स्वाभाविक था | बहुपत्नी प्रथा के कारण स्त्रियों का जीवन तो नारकीय था ही, परिवार में सदैव तनाव, क्लेष और ईर्ष्या इस हद तक बढ़ जाती थी कि परस्पर षड्यन्त्र और विषपान आम बात थी । एक पति के मरने पर अनगिनत विधवाओं का अनाथ हो जाना समाज में अन्य समस्याओं को जन्म देता था ।

18.3.4 पर्दा प्रथा

इसमें कोई संदेह नहीं कि वैदिक काल में पर्दा जैसी कोई प्रथा नहीं थी और स्त्रियाँ सार्वजनिक जीवन में भाग लेती थीं । महाकाव्य एवं पाणिनी के साहित्य से ज्ञात होता है कि शाही परिवारों में पर्दा प्रथा का प्रचलन था । मध्यकाल तक आते-आते राजपूताना के शासकपीरशरों में पर्दा का प्रचलन आम था । पर्दा समान, प्रतिष्ठा तथा कुलीनता का प्रतीक था । राजपूतों मे पर्दा प्रथा अत्यन्त कठोर थी । राजमहलों तथा ठाकुरों की हवेलियों में स्त्रियों के लिए अलग से जनानी ड्योढ़ी होती थी जहां पर पुरूषों का जाना निषिद्ध होता था । यदि महिलाओं को बाहर जाना होता तो उन्हें बन्द पालकी में बिठाकर ले जाया जाता था । कालान्तर में पर्दा स्त्री के सतीत्व, सामाजिक समान तथा प्रतिक्षा का प्रतीक बन गया । संस्कृतीकरण की प्रकिया के तहत निम्न वर्ग की महिलाओं में भी पर्दा प्रथा को अपना लिया गया, जिसे चूंघट कहा जाता है । इस प्रथा में जिस व्यक्ति का चूंघट किया जाता है उससे वह स्त्री बात नहीं कर सकती । पर्दा प्रथा ने राजस्थान की महिलाओं के लिए न केवल शिक्षा प्राप्ति का मार्ग बन्द कर दिया बल्कि उनका जीवन घर की बाहर दीवारी मे सिमट कर रह गया । ऐसे में उनके स्वतंत्र व्यक्तित्व के विकास की कल्पना नहीं की जा सकती थी ।

18.3.5 विधवादहन एवं जौहर

राजस्थान स्त्रियों से संबंधित एक और जिस क्रूर एवं अमानवीय प्रथा के लिए जाना जाता है, वह है विधवा दहन एवं जौहर प्रथा । इस प्रथा के अन्तर्गत निष्ठावान पत्नी अपने मृत पति के शव के साथ जिन्दा जल जाती थी । प्राचीन काल में इस प्रथा के बहुत कम उदाहरण मिलते हैं किन्तु मध्यकाल में यह आम प्रचलन हो गया था | राजस्थान में प्राप्त मध्यकालीन शिलालेखों, महलों तथा हवेलियों के बाहर सतियों के हाथों के निशानों से ज्ञात होता है कि विशेष रूप से राजपूतों में तथा सामान्यत: हर वर्ग में विधवा दहन प्रथा का प्रचलन था । हर लडकी को उसकी माँ यही शिक्षा देती थी कि यह वन्दनीय एवं प्रशंसनीय प्रथा है । रानी से लेकर आम औरत तक विधवा का दहन धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टि से इतना प्रतिष्ठित था कि 18वीं सदी में तो ‘सती पुराण’ की ही रचना कर दी गई । ऐसा कहा जाता था कि पति के साथ सती होने से पत्नी स्वर्ग की ओर गमन करती है । इसलिए सती होने को सहगमन भी कहा जाता था | इस प्रथा को मध्यकालीन असुरक्षित वातावरण धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक कारणों ने स्थायित्व प्रदान किया । विधवा दहन का धार्मिक महिमा मण्डन, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा विधवा के रूप में कष्टमय और अपमानजनक जीवन जीने के स्थान पर स्त्री सम्मानजनक मृत्यु को ज्यादा उचित समझती थी । समय के साथ-साथ इस प्रथा ने संस्था का रूप धारण कर लिया और अब सती होने के लिए स्त्री पर सामाजिक तथा धार्मिक दबाव रहने लगा । यह स्थिति हो गई कि स्त्री की इच्छा के विपरीत, परिवार की प्रतिष्ठा और मर्यादा बनाए रखने के लिए उसे जलती चिता में धकेल दिया जाता था और इस दौरान जोर-जोर से बजने वाले ढोल – नगाडों के बीच उसकी चीख को सुनने वाला कोई नहीं था ।

सती से भी आगे राजस्थान में स्त्रियों से जुडी एक और भयावह प्रथा थी, जिसे स्त्री के शौर्य से जोड़कर गौरव गान किया जाता रहा है । यह प्रथा थी जौहर की । यह प्रथा राजपूतों में प्रचलित थी । मध्यकालीन राजस्थान निरन्तर युद्धरत था और जब युद्ध में राजपूतों की जीत की आशा समाप्त हो जाती थी, तब राजपूत योद्धा जौहर का आदेश देते थे और स्त्रियाँ अपने पति की मृत्यु का इन्तजार किये बिना ही सामूहिक रूप से अग्नि में कूद कर जान दे देती थीं ताकि वे शत्रुओं के हाथ लगकर अपनी पवित्रता को नष्ट करने को बाध्य न हो । मुस्लिम आक्रमण के समय रणथम्भौर, जालोर तथा चित्तौड़ का जौहर इतिहास में चर्चित है | सती तथा जौहर जैसी प्रथाओं से स्पष्ट है कि राजस्थान के समाज में अत्यन्त भयावह, क्रूर तथा अमानवीय प्रथाओं को धर्म, शौर्य एवं प्रतिबद्धताओं से जोड़कर किस प्रकार इन्हें समाज की सहज घटनाएँ ही नहीं, प्रथा और संस्था बना दिया गया था । स्त्रियाँ आत्मदाह की ऐसी प्रथाओं का विरोध करने के बजाए इनका वरण करने में गौरव ही नही, जीवन की सार्थकता समझती थीं ।

18.3.6 विधवा जीवन.

समय के साथ – साथ जैसे – जैसे स्त्री के प्रति दृष्टिकोण संकीर्ण होता गया, वैसे ही पुरूष पर उसकी निर्भरता बढ़ती गई अत: यदि किसी स्त्री का पति मर जाए तो समाज में उसकी स्थिति बहुत दयनीय हो जाती थी | राजस्थान की दिघवा (चाहे वह बाल विधवा हो) के सामने सर्वाधिक आदर्श विकल्प था – पति के साथ सती हो जाना और यदि सती न हो तो दूसरा विकल्प था आजीवन विधवा रहना । तत्कालीन साहित्य किसी भी स्थिति में प्रतिष्ठित विधवा को पुनर्विवाह की स्वीकृति नहीं देता | उच्च जाति की विधवाओं का जीवन बहुत ही कष्टसाध्य था । पति की मृत्यु के साथ ही उसके भाग्य की भी इतिश्री हो जाती थी । अत: उसे न केवल सौभाग्य के सब प्रतीकों का त्याग करना पड़ता था बल्कि शरीर को अधिकाधिक विकृत और कुरूप बनाना पडता था । विद्रूप दिखने और शरीर को अत्यधिक कष्ट देने में ही उसके वैधव्य जीवन की सार्थकता थी | फटे पुराने कपड़े पहनना, जमीन पर सोना, जिन्दा रहने भर के लिए रूखा-सूखा खाना, किसी भी प्रकार के फार निषेध के साथ बाल मुडवाना एक विधवा के लिए आवश्यक था । सामाजिक संवेदनहीनता और पितृसत्ता की पराकाष्ठा यह थी कि किसी उत्सव, त्यौहार अथवा शुभ कार्य में विधवा की उपस्थिति को अपशकुन माना जाता था | उसे पति की सम्पत्ति में भी अधिकार नहीं मिलता था, बस वह गुजारा ले सकती थी ।

समाज में निम्न तथा पिछडी मानी जाने वाली जातियों में विधवा का जीवन इतना कष्टसाध्य नहीं था यद्यपि इन जातियों में भी विधवा का फेरे के साथ पुनर्विवाह तो नहीं हो सकता था लेकिन नाता प्रथा के द्वारा मृत पति के परिजनों की स्वीकृति से उसे दूसरा पति चुनने का अवसर मिलता था । नाते की यह प्रथा पति के जीवित होने पर भी प्रचलित थी और आज भी है । लेकिन इस प्रथा को ऊँची जातियों में हेय समझा जाता था । बाल विवाह तथा बहुविवाह के कारण राजस्थान में विधवाओं की बड़ी संख्या थी और स्त्री जीवन के लिए एक बड़ी विडम्बना ।

18.3.7 डाकन, दासी एवं अन्य प्रथाएँ

उपर्युक्त वर्णित प्रथाओं के अलावा भी राजस्थान में और कई ऐसी प्रथाएँ थी जिन्होंने स्त्री जीवन को अभिशाप बना दिया था । इनमें से कतिपय कुप्रथाओं के विवेचन के बिना स्त्रियों की स्थिति का दृश्य हमारे सामने अधूरा रहेगा | राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में भील मीणा तथा निम्न जातियों में स्त्रियों पर डाकन होने का आरोप लगाकर उन्हें मार दिया जाता अथवा पेड़ से लटकाकर जिन्दा जला दिया जाता था । यदि गांव में कोई महिला या बच्चा बीमार होता तो भोपा से पूछ होने पर डाकन स्त्री के झपेट में आने का अंदेशा होता था और फिर उसे इसके लिए यातनाएं देकर मार दिया जाता था | स्वयं उसके रिश्तेदार भी इस दण्ड का अनुमोदन करते थे । अंधविश्वास पर आधारित यह क्रूर प्रथा आज भी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में यदा-कदा समाचार पत्रों की खबर बन जाती है ।

राजस्थान में दास प्रथा का प्रचलन, सामन्त एवं सम्पन्न परिवारों में था । युद्ध बन्दियों को दास तथा दासी बना लिया जाता था । कुछ लोग गरीबी के कारण ही सम्पन्न लोगों की दासता स्वीकार करते थे । इन्हे बाई, दासी, डावरी, गोली आदि नामों से पुकारा जाता था । ये दासियाँ न केवल घरेलू काम करती बल्कि स्वामी इन्हें अपनी बेटी के विवाह में दहेज मे भी देता था । गलती करने पर इन्हें कोडे मारे जाते थे । दास तथा गोला की लड़कियाँ जब विवाह योग्य होती तो उन्हें शासक के सम्मुख उपस्थित किया जाता था, जिसे पसन्द आने पर वह अपने अन्तःपुर में भी रख सकता था, मानो वह इन्सान नहीं उपभोग की सामग्री हो ।

ऐतिहासिक राजस्थान में एक और घृणित वृति वैश्यावृत्ति रही है, जिसे प्रोत्साहन देने वाला राज दरबार और दरबारी वर्ग रहा है । ये वैश्याएं राजदरबारों, उत्सवों तथा धार्मिक अवसरों पर नाचने गाने का काम भी करती थी, लेकिन इससे समाज में अनियंत्रित तथा अनैतिक आचरण में वृद्धि हुई।

18.4 मध्यकाल, भक्ति आदोलन और स्त्री

___मध्यकाल में राजस्थान सहित उत्तर भारत पर लगातार मुसलमानों के आक्रमण हुए उस समय एक ओर विधर्मियों के आक्रमण के रूप में तथा दूसरी ओर इस्लाम धर्म में निहित समानता की भावना के कारण हिन्दू धर्म पर संकट मंडराने लगा अत: एक ओर हिन्दू समाज की संकीर्णता बढ़ी तो दूसरी ओर रूढ़ियों पर प्रहार करने वाला भक्ति सम्प्रदाय भी लोकप्रिय हुआ । भक्ति आदोलन की इस परम्परा में राजस्थान में भी कई सन्त हुये जिनमें सन्त रैदास धन्ना, पीपा, जांभोजी, रामचरण दादू आदि प्रमुख थे । लेकिन स्त्रियों की स्थिति को समझने की दृष्टि से सर्वाधिक उल्लेखनीय उपस्थिति थी महिला सन्तों की, जिनका प्रतिनिधित्व मीरा करती है । मध्यकालीन स्त्री का जीवन घर की चारदीवारी में कैद था जिसे आदर्श जीवन माना जाता था । लेकिन जब मीरा ने चारदीवारी लांघकर सन्तों और भक्तों की संगति की तो इससे उनके कुल की मर्यादा नष्ट होती हुई दिखाई दी । मीरा के काव्य में लोक लाज कुल की मर्यादा को लाँघने की बात बार-बार कही गई है | यहाँ आध्यात्मिक समानता पर आधारित भक्ति का आचरण के आधार पर नारी पराधीनता से सीधा टकराव स्पष्ट है । आज भी चित्तौड़ जायें तो रानी पदमिनी की कहानी आपको गर्व से सुनाई जाएगी, किन्तु मीरा को उतना नहीं माना जाता । मीरा को सबसे पहले दलित वर्गो छोटे – छोटे गाँवों एवं निम्न वर्गों में स्वीकृति मिली, उच्च वर्ग में नहीं | राजस्थान में आज भी लोग अपनी बेटियों का नाम मीरा रखना पसन्द नहीं करते क्योंकि वह सामन्ती ढांचे को तोड़ने वाली, कुल की मर्यादा को तोड़ने वाली स्त्री का नाम है ।

18.7 राजस्थान में सामाजिक परिवर्तन और गतिशीलता

हम जानते है कि वर्तमान राजस्थान ब्रिटिश काल में अनेक राज्यों में विभाजित था | अजमेर और मेरवाड़ा का छोटा सा क्षेत्र ही सीधा ब्रिटिश शासन के अधीन था । 19वीं सदी के शुरू में इन राज्यों ने अलग-अलग 7 सचिवों द्वारा ब्रिटिश प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया था लेकिन राजस्थान में अग्रेजी प्रभाव अपेक्षाकृत देर से आरम्भ हुआ । यद्यपि ब्रिटिश सत्ता ने अपने हितों के अनुरूप रियासतों की आंतरिक व्यवस्था में हस्तक्षेप एवं बदलाव किये लेकिन अंतत: इन बदलावों ने राजस्थान की परम्परागत सामन्ती सामाजिक संरचना को बदला । इन राज्यों में अंग्रेजी न्यायालयों की स्थापना ने सामान्तों के अधिकारों को बहुत सीमित कर दिया! इसके अलावा अन्य कारकों ने भी बदलाव को बढ़ावा दिया, जिसके परिणामस्वरूप जागृति आयी और महिलाओं की स्थिति के झार के लिए प्रयास किये गये ।

राजस्थान में सामन्ती व्यवस्था व शोषण के विरुद्ध ने अलग-अलग क्षेत्रों में आदोलन किये जिससे प्रचलित सामाजिक – राजनीतिक अवस्था की आलोचना का मार्ग प्रशस्त हुआ | राजस्थान में

आर्य समाज का आगमन भी परम्परागत सामाजिक ढांचे के लिए चुनौतीदायक सिद्ध हुआ | अब तक परिवर्तन विरोधी माने जाने वाले राजाओं तथा सामन्तों को उन्होने परिवर्तन का नेतृत्व करने के लिए घूम-घूम कर प्रेरित किया । उन्होने शिक्षा पर विशेष बल देते हुए कई विद्यालय खोलकर परिवर्तन को साकार करने का प्रयास किया ।

अंग्रेजी शिक्षा ने भी राजस्थान में जागृति लाने में योगदान दिया । राजस्थान के शासकों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वे शिक्षा के प्रसार को प्रोत्साहन देकर समाज में आमूल परिवर्तन लाएंगे । वे स्वयं उस मध्यकालीन सामन्ती ढांचे का अंग थे जिसे कमजोर करने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी । लेकिन ब्रिटिश सरकार राजस्थान में पाश्चात्य शिक्षा को आवश्यक मानती थी । क्योंकि राजस्थान के शासकों और ब्रिटिश सरकार के मध्य संवाद का माध्यम फारसी होने के कारण अंग्रेज अधिकारियों को असुविधा होती थी अत: ब्रिटिश सरकार की पहल से राजस्थान के विभिन्न राज्यों में अंग्रेजी शिक्षा की शुरुआत हुई । ईसाई मिशनरियों ने राजस्थान में और विशेष रूप से अजमेर मेरवाड़ा क्षेत्र में अंग्रेजी शिक्षा को प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । अंग्रेजी शिक्षा का प्रसार धीमी गति से हुआ। लेकिन इससे समाज में जागृति आई और महिला शिक्षा के क्षेत्र में हुए प्रयासों में प्रगति हुई जिसका हम आगे उल्लेख करेंगे।

20वीं सदी तक आते-आते राजस्थान में भी राष्ट्रीय आदोलन का प्रभाव दिखाई देने लगा । वैसे राजस्थान में एक केन्द्रीय संगठन तो नहीं बन पाया लेकिन अलग-अलग भागों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं बनी और उन्हीं से प्रजा मण्डल या परिषदों की स्थापना हुई । अजमेर में राजस्थान सेवा संघ, रिजन सेवा संघ, देशी राज्य परिषद, मारवाड की मरूधर हित कारिणी सभा आदि स्वयं सेवी संस्थाओं तथा राजस्थान केसरी, आजाद, सैनिक मारवाड़ी गौरव, दीन-बन्धु राजस्थान पत्रिका, नवज्यौति, रूण राजस्थान आदि पत्र – पत्रिकाओं ने राजनीतिक जागृति के साथ-साथ सामाजिक जागृति लाने भी काम किया । गाँधीजी के नेतृत्व में ब्रिटिश भारत में राष्ट्रीय आदोलन में भाग ले रही महिलाओं ने प्रेरणा से भी राजस्थान में महिलाओं की भागीदारी तथा उनके उत्थान के प्रयासों में तेजी आई |

राजस्थान के व्यापारियों ने बड़े पैमाने पर ब्रिटिश भारत में प्रवास कर व्यापार किया अत: वे देश में हो रहे परिवर्तन के सम्पर्क में आये और इन्होंने लौटकर सामन्ती ढांचे को चुनौती दी जिससे समाजिक गतिशीलता को प्रोत्साहन मिला | भारतीय समाज सुधारकों तथा ब्रिटिश सरकार की मदद से ब्रिटिश भारत में महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु विभिन्न कानून बने । धीरे-धीरे राजस्थान के विभिन्न राज्यों में भी इसी प्रकार के कानून बनाए गए तथा स्त्री शिक्षा के लिए प्रयास किये जिन्हें समाज सुधारकों द्वारा आगे बढ़ाया गया ।

18.8 स्त्री-उत्थान के प्रयास

जिस प्रकार 19वीं सदी में भारत में समाज सुधार मुख्यत: स्त्रियों की स्थिति से संबंधित था उसी प्रकार राजस्थान में भी यह स्त्रियों की स्थिति में सुधार से ही जुड़ा हुआ है हालाँकि राजस्थान में सुधार के ये प्रयास देर से आरम्भ हुए । ब्रिटिश पॉलिटिकल अधिकारियों, राजस्थान के समाज सुधारकों आर्य समाज तथा अन्य संस्थाओं द्वारा किये गये प्रयासों के परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में कानून द्वारा उन कुप्रथाओं को रोकने का प्रयास किया गया जो स्त्री को मध्यकालीन कैद में जकड़े हुए थी | यहाँ हम कुछ प्रमुख कानूनी तथा अन्य प्रयासों की चर्चा करेगें ।

18.8.1 विधवा दहन पर प्रतिबन्ध

ब्रिटिश अधिकारियों ने इस अमानवीय प्रथा को समाप्त करने के लिए राजस्थान के शासकों पर दबाव डाला तो उदयपुर, जोधपुर के शासकों के आरम्भिक विरोध के बावजूद धीरे-धीरे राजस्थान के शासक तैयार होते गये । सर्वप्रथम 1822 मे बूंदी में विधवा दहन को गैर कानूनी घोषित किया गया

। उसके बाद 1830 में अलवर में, 1844 में जयपुर में, 1846 में डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ में. 1848 में जोधपुर तथा कोटा में तथा 1860 में उदयपुर राज्य में विधवा दहन को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया ।

प्रतिबन्ध संबंधी आदेशों के बावजूद राज्यों के ठिकानों में साधारण परिवारों मे विधवा दहन की घटनाएं होती रही क्योंकि प्रारम्भ में सती होने पर किसी कठोर दण्ड का प्रावधान नही था और न ही राज्यों को पूरे तौर पर उसे लागू करने को बाध्य किया गया था । विधवा दहन को धर्म, पवित्रता एवं मोक्ष से जोड़े जाने के कारण यह प्रथा एक सशक्त विचारधारा के रूप में जनमानस में बैठ गई । यही कारण है कि आजादी के कई वर्षों के बाद भी रूप कवर जैसी विधवा दहन की घटना राजस्थान में हुई।

18.8.2 कन्यावध पर प्रतिबन्ध

हम जानते हैं कि वैवाहिक, सामाजिक, आर्थिक कारणों से राजस्थान के उच्च एवं सामान्य परिवारों में लडकियों को पैदा होते ही मार दिया जाता था | बांकीदास की ख्यात के अनुसार 1836 में महाराणा रतन सिंह ने गया में अपने सभी सामन्तों की सभा आयोजित कर शपथ दिलाई थी कि वे अपनी बेटियों का वध नहीं करेंगे । बाद में अंग्रेज अधिकारियों ने इसे हत्या बताते हुए इस प्रथा को बन्द करने के प्रयास किये जिसके परिणामस्वरूप 1834 में कोटा राज्य, 1837 में बीकानेर, 1839-44 के बीच जोधपुर, जयपुर, तथा 1657 में उदयुपर राज्य ने इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया | यह बात और है कि गैर कानूनी होने के बावजूद आज भी राजस्थान में लिंग अनुपात लगातार घट रहा है जिसका कारण कन्यावध का परिवर्तित रूप है ।

18.8.3 त्याग प्रथा का नियमन

विवाह के समय मुंह मांगी दान दक्षिणा के रूप में चारणों व भाटों को दी जाने वाली त्याग की अपार राशि को सीमित करने के लिये भी नियम बनाऐ गये । सर्वप्रथम 1944 में जोधपुर राज्य के ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग से नियम बनाए गये । 1844 में अन्य राज्यों में भी इस प्रकार के नियम प्रसारित करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने पत्र लिखे । 1844 में बीकानेर तथा जयपुर राज्य ने भी इसी प्रकार के नियम बनाकर आय के अनुपात में त्याग की राशि तय कर दी । उदयपुर के शासकों ने तो 1844, 1850 और 1860 में विभिन्न आदेशों द्वारा न केवल त्याग की राशि को सीमित किया बल्कि दूसरे राज्य से चारणों, भाटों के आने तथा उदयुपर राज्य के चारणों व भाटों को त्याग मांगने के लिए अन्य राज्यों में जाने से रोक दिया । इससे त्याग की समस्या काफी अंशो तक हल हो गई।

18.8.4 डाकन प्रथा पर रोक

ब्रिटिश सरकार ने डाकन प्रथा को समाप्त करने हेतु भी शासकों को पत्र लिखे अत: 1853 में उदयुपर राज्य ने इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया तथा कारावास के दण्ड की घोषणा की । इसी प्रकार कोटा, जयपुर आदि राज्यों ने भी इसे गैर कानूनी घोषित कर दिया । शिक्षा तथा जागृति के कारण यह प्रथा कम अवश्य हुई लेकिन डाकन घोषित कर प्रताडित करने की घटनाएं राजस्थान में आज भी होती है ।

18.8.5 मानव व्यापार पर प्रतिबन्ध

लड़के – लड़कियों का क्रय-विक्रय एक व्यवसाय बन गया था । उच्च वर्गों में घरेलू दास-दासियाँ, रखेलें रखने तथा विवाह के समय दासियों को दहेज के रूप में देने का प्रचलन था । इस अनैतिक प्रथा को बन्द करने के लिए राज्यों में समय-समय पर आदेश प्रसारित किये गये । सर्वप्रथम 1831 में कोटा ने तथा 1847 में जोधपुर व जयपुर में तथा 1863 में उदयुपर में इस प्रकार के क्रय-विक्रय पर प्रतिबन्ध लगा दिये गये और उल्लंघन पर कारावास का प्रावधान भी किया गया । इस प्रकार कानूनी रूप से अवैध घोषित किये जाने के बावजूद गरीबी तथा बेरोजगारी के कारण इसका समूल नाश असम्भव था |

18.8.6 विवाह संबंधी नियम

सन् 1877 में उदयुपर महाराणा सज्जन सिंह की अध्यक्षता में 32 प्रमुख सामन्तों एवं राज्याधिकारियों की एक सभा में विवाह संबंधी नियम बनाने पर विचार हुआ तथा ‘देश हितैषिणी सभा’ की स्थापना की गई । यह एक मात्र ऐसी संस्था थी जिसके जरिये शासक और सामन्तों ने पहली बार सुधारात्मक कार्यो के लिए कदम उठाए और विवाह संबंधी नियम बनाए गए | जब वाल्टर ए.जी.जी बना तो उसने अपने ही नाम पर 1887 में ‘वाल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा’ का गठन कर राज्य प्रतिनिधियों के अधिवेशन बुलाए । राजपूतों में व्याप्त टीका, बहुपत्नी विवाह आदि पर तथा विवाह की आयु तय करने के प्रतिबन्ध के प्रस्ताव पारित किये गये ।

भारत में बालविवाह पर प्रतिबन्ध के प्रयास कर कानून बनवाने में जिस शख्स ने सफलता हासिल की वह हरविलास शारदा अजमेर के निवासी थे । राजस्थान के विभिन्न राज्यों मे भी 1926 से 1945 तक विवाह 1945 तक विवाह सम्बन्धी कानून बनाए गए | जिनमें लड़की तथा लड़के के विवाह की न्यूनतम आयु तय की गई । यह आयु अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग थी । जैसे डूंगरपुर राज्य में दर की 18 व वधु की आयु 15 वर्श न्यूनतम थी, तो भरतपुर, कोटा, बीकानेर राज्यों में वर की न्यूनतम आयु 15 वर्ष तथा वधु की 11 वर्ष तय की गई थी । इन कानूनों के उल्लघंन पर सजा तथा जुर्माने का प्रावधान किया गया । बालविवाह के इन कानूनों के बावजूद इस प्रथा का अंत नहीं हो सका । राजस्थान में आज भी अक्षय तृतीया का दिन बात विवाह के महाकुम्भ का प्रतीक है ।

18.8.7 विधवा विवाह

हम जानते है कि उच्च वर्गों में विधवा विवाह पर प्रतिबन्ध था किन्तु निम्न वर्गों मे नाता, गारेचा और कटेबा के नाम से विधवा पुनर्विवाह का प्रचलन था, यह और बात हैं कि उन्हें इसके ऐवज में कर चुकाना पडता था । हालांकि अंग्रेजी भारत में 1856 में ही विधवा पुनर्विवाह का कानून पारित हो गया था, लेकिन राजस्थान में इसका प्रभाव देखने को नहीं मिला | आर्य समाज के पहल करने पर अन्य समाज सुधार संगठन भी सक्रिय हुए | राजपूताना प्रान्तीय मारवाडी अग्रवाल पंचायत, राजपूताना हिन्दु विवाह सुधारक संघ, राजपूताना लेडीज कॉन्फ्रेंस आदि संगठनों ने विशेष रूचि ली । 1933 में अजमेर में अखिल भारतीय विधवा पुनर्विवाह कॉन्फ्रेंस हुई जिसमें विधवा विवाह के अधिकार की जोरदार तरीके से मांग की गई । 1926 में भरतपुर राज्य में विधवा पुनर्विवाह कानून बना, बीकानेर में भी इसे विवाह की परिभाषा में शामिल किया गया । जयपुर में 1946 में बने कानून में विधवा को पति की सम्पत्ति की अधिकारिणी माना गया और उसकी संतान को वैधता प्रदान की गई ।

18.8.8 आर्य समाज के प्रयास

भारतीय समाज सुधार आन्दोलन के अग्रणी नेता तथा आर्य समाज के संस्थापक दयानन्द सरस्वती ने राजस्थान के करोली, जयपुर, अजमेर, बनेड़ा चित्तौढ़ उदयपुर आदि राज्यों का भ्रमण कर समाज सुधार की प्रेरणा उत्पन्न की । उन्होंने जोधपुर यात्रा के दौरान वेश्यागमन की निन्दा कर वेश्याएं रखने की बुराईयों पर खुलकर विचार किया । समाज में विधवा विवाह तथा सामाजिक कार्यो में कम खर्च के प्रचार के लिए उदयपुर महाराणा की अध्यक्षता में परोपकारिणी सभा की स्थापना की । वे स्त्री शिक्षा तथा उन्नति के लिये पर्दा प्रथा का उन्मूलन आवश्यक मानते थे । इसके लिए आर्य समाज ने कन्या पाठशालाएं खोली जिनमें अजमेर की आर्यपुत्री पाठशाला प्रमुख थी । इसके अलावा छ: अन्य कन्या पाठशालाएं खोली गई । 1926 में अजमेर में विधवाओं के लिए वनिता आश्रम एवं अन्य केन्द्र खोले गये जहां विधवाओं की आत्मनिर्भरता और शिक्षा की व्यवस्था की गई थी । बीकानेर, जोधपुर, भरतपुर आदि राज्यों में भी वनिता आश्रम खोले गये । इस प्रकार राजस्थान में आर्य समाज की समाज सुधार गतिविधियों का केन्द्र स्त्रियों की स्थिति में सुधार से ही जुड़ा था, जिसने इस संबंध में जागृति व सुधार के उल्लेखनीय प्रयास किये ।

18.8.9 स्त्री शिक्षा

भारत के समाज सुधार आदोलन का एक प्रमुख पक्ष स्त्री शिक्षा से जुड़ा हुआ था किन्तु देशी रियासतों में यह ‘आदोलन विलम्ब से शुरू हुआ | राजस्थान में 19 वीं तथा 20वीं सदी में स्त्री शिक्षा के प्रसार में ईसाई मिशनरियों ब्रिटिश सरकार, आर्य समाज तथा गांधी आदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही । ईसाई मिशनरियों ने सर्वप्रथम ब्रिटिश अधिकृत अजमेर – मेरवाड़ा क्षेत्र के ब्यावर, नसीराबाद तथा अजमेर में लडकियों के लिए स्कूल खोले । 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में जयपुर, उदयपुर, अलवर जोधपुर, कोटा तथा देवली में भी ईसाई मिशनरी शासकों को इस हेतु मनाने में सफल रहे । दयानन्द सरस्वती के नेतृत्व में आर्य समाज ने स्त्री शिक्षा के लिए जागरूकता पैदा करने का महत्वपूर्ण काम किया । एंग्लो – वैदिक विद्यालय के अलावा आर्य समाजियों द्वारा खोली गयी आर्यपुत्री पाठशाला स्त्री शिक्षा में अग्रणी संस्था थी | आर्य समाज द्वारा राजस्थान में खोली गई कन्याशालाओं में पढ़ाने का तरीका भी बिल्कुल अलग था |

गांधी आन्दोलन की प्रेरणा से राजस्थान के राष्ट्रवादियों ने स्त्री शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किये | गांधीवादी नेता हरिभाऊ उपाध्याय द्वारा हदुन्डी में खोला गया ‘महिला शिक्षा सदन’ तथा वनस्थली में हीरालाल शास्त्री द्वारा शुरू किया गया जीवन शिक्षा कुटीर स्त्री शिक्षा के महत्वपूर्ण कीर्तिमान हैं । इस प्रकार स्त्री शिक्षा के लिये किये गये प्रयासों से स्त्रियों की स्थिति में सुधार के प्रयास किये गये ।

18.8.10 आजादी के आन्दोलन में स्त्रियों की भागीदारी

देश में जिस उत्साह से महिलायें गांधी के राजनीतिक आंदोलन में भाग ले रही थी, उसका असर राजस्थान में भी दिखाई दिया | राजस्थान की औरतें घर की चारदीवारी और घूघट छोड कर आंदोलन में कूद पड़ी । रामनारायण चौधरी की पली अंजना देवी, जमनालाल बजाज की पली जानकी देवी बजाज के अलावा बीकानेर की खेतू बाई, जयपुर की नारंगी देवी, अजमेर की गीतादेवी तथा कोकिला देवी आदि ऐसी कई महिआयें थी जिन्होंने राष्ट्रीय आदोलन में राजस्थान की महिलाओं का नेतृत्व किया तथा प्रजामण्डल आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया ।

इन महिलाओं ने आन्दोलन में सक्रिय भागदारी के साथ-साथ शिक्षा तथ सुधार कार्यकमों द्वारा नारी जागृति का काम किया । सशीला त्रिपाठी ने महिला परिषद की शुरूआत की तो शान्ता त्रिवेदी ने उदयपुर में राजस्थान महिला परिषद की । महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिये उन्होने महिला गृह उद्योग शुरू किये । नारायणी देवी वर्मा ने बिजौलिया में किसान महिलाओं के लिये काम किया । नारंगी देवी ने आदिवासी इलाकों में प्रौढ़ शालाएं चलाई तो सुमित्रा खेतान और शिव देवी ने नशा बन्दी आन्दोलन में सक्रियता दिखाई । इन महिलाओं ने महिलामण्डल बनाकर, प्रभात फैरियां निकाली | उस समय रतन देवी शास्त्री जैसी शिक्षिका वनस्थली विद्यापीठ की अपनी छात्राओं के साथ जेल जाते समय स्वतंत्रता सेनानियों की विदाई और रिहाई के समय स्वागत करने जाया करती थी | इसी प्रकार अंजना चौधरी पहली महिला थी जिन्हें न केवल गिरफ्तार किया गया बल्कि बूंदी राज्य से निर्वासित भी किया गया था । इन महिलाओं ने बड़े पैमाने पर राजस्थान के किसान आदोलनों और सत्याग्रह आदोलनों में भाग लिया ।

18.9 सारांश

राजस्थान में आरम्भ से ही महिलाओं की स्थिति पुरूषों के समकक्ष नहीं थी | कालान्तर में इसमें गिरावट आयी जो 19वीं सदी तक बनी रही । अंग्रेजी प्रभुसत्ता के प्रभाव से राजस्थान में परिवर्तन की प्रकिया आरम्भ हुई जिसके परिणामस्वरूप महिलाओं के उत्थान के प्रयास हुये और महिलाओं ने आजादी के आदोलन में भाग लिया । महिलाओं के उत्थान के लिये कई कानून भी बनाये गये जिससे सुधार तो हुआ लेकिन अभी भी गहन प्रयासों की आवश्यकता है ।

उदयपुर में राजस्थान महिला परिषद की संस्थापक कौन है?

शांता त्रिवेदी ने 1947 ई. में उदयपुर में 'राजस्थान महिला परिषद्' की स्थापना की।

राजस्थान महिला परिषद की स्थापना कब हुई?

वर्ष 1999 में, राजस्थान राज्य महिला आयोग की स्थापना की गई थी। 23 अप्रैल 1999 को, राज्य सरकार ने राजस्थान राज्य महिला आयोग अधिनियम (1999) को राजस्थान विधान सभा में पेश किया, अधिनियम पारित किया गया। राजस्थान राज्य महिला आयोग का गठन 15 मई 1999 को एक वैधानिक निकाय के रूप में किया गया था।

राजस्थान की रियासतें जनता में गिरफ्तार होने वाली प्रथम महिला कौन थी?

श्रीमती सरस्वती देवी पांडे ये भी 1939 में प्रजामण्डल के आंदोलन में गिरफ्तार हुई तथा जेल गई।

राजस्थानी प्रचारिणी सभा की स्थापना कब हुई?

राज्य की सामाजिक एवं राजनीतिक संस्थाएं.