शिक्षा के संवैधानिक मूल्य कौन कौन से हैं? - shiksha ke sanvaidhaanik mooly kaun kaun se hain?

शिक्षा के संवैधानिक मूल्य कौन कौन से हैं? - shiksha ke sanvaidhaanik mooly kaun kaun se hain?
संवैधानिक मूल्यों (स्वतंत्रता, न्याय एवं प्रजातंत्र) को प्रोन्नत करने में शिक्षा की भूमिका

संवैधानिक मूल्यों (स्वतंत्रता, न्याय एवं प्रजातंत्र) को प्रोन्नत करने में शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए। 

भारतीय संविधान एक आदर्श संविधान है। इसमें नागरिकों के हितार्थ ऐसे सभी प्रावधान किये गये हैं जिनसे उनके हितों की रक्षा हो, उनकी स्वतन्त्रता और समानता सुनिश्चित हो तथा उनको विकास और प्रगति के अवसर मिलें।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लिखा गया है कि-

“हम भारत के लोग, भारत को एक प्रभुत्वसम्पन्न लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने तथा सब नागरिकों को, न्याय, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक, स्वतन्त्रता, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और पूजा की, समानता, प्रतिष्ठा तथा अवसर की समानता को प्राप्त कराने तथा उन सभी में बन्धुत्व, जिससे व्यक्ति की गरिमा तथा राष्ट्रीय एकता बनी रहे, को बढ़ाने के लिए अपनी संवैधानिक सभा में आज 26 नवम्बर, 1949 को इसके द्वारा इस संविधान को स्वीकार करते हैं, अधिनियमित करते हैं तथा इस संविधान को अपने को अर्पित करते हैं।”

भारतीय संविधान की प्रस्तावना अमेरिका के संविधान पर आधारित है। निःसन्देह अमेरिका तथा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में कुछ अन्तर है, परन्तु कुछ बातों में समानता भी पायी जाती है। अमेरिका का संविधान भी “हम अमेरिका के लोग से आरम्भ होता है तथा इसमें भी न्याय तथा स्वतन्त्रता जैसे लक्षण पाये जाते हैं।”

संविधान में प्रमुखतया लोकतन्त्र, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और नागरिकों के अधिकारों और कर्तव्यों से सम्बन्धित मूल्यों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है।

    • स्वतन्त्रता (Liberty)
  • न्याय (Justice)
  • प्रजातंत्र (Democracy)
  • जनतन्त्रीय शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education in Democracy)

स्वतन्त्रता (Liberty)

स्वतन्त्रता ऐसी अवस्था को स्थापित करती है जिससे मनुष्य का पूर्ण विकस हो सकता है। भारतीय संविधान में सब नागरिकों को समान रूप से स्वतन्त्रता दी गयी है। प्रत्येक नागरिक को भाषण देने या विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता, बिना हथियार शान्तिपूर्वक इकट्ठे होकर किसी भी समस्या पर विचार प्रकट करने की स्वतन्त्रता, संस्था या संगठन बनाने की स्वतन्त्रता, सम्पूर्ण भारत में कहीं भी भ्रमण करने की स्वतन्त्रता, कहीं भी निवास करने या बसने की स्वतन्त्रता, सम्पत्ति अर्जित करने की स्वतन्त्रता दी गयी है। इन स्वतन्त्रताओं का वर्णन मौलिक अधिकारों में किया गया है। इनकी सुरक्षा का प्रबन्ध भी किया गया है। संसद का कानून एवं राष्ट्रपति का आदेश या अध्यादेश इनका उल्लंघन नहीं कर सकते। निःसन्देह 24वें संशोधन से संसद को अधिकारों में संशोधन करने का अधिकार मिल गया है परन्तु अभी तक इन स्वतन्त्रताओं पर आँच नहीं आयी।

न्याय (Justice)

प्रस्तावना जनता को न्याय का विश्वास दिलाती है जो लोकतन्त्र की आधारशिला है। सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय स्थापित करना हमारे संविधान का उद्देश्य है। सामाजिक न्याय से हमारा तात्पर्य है कि समाज में असमानताओं को दूर किया जाए तथा सामाजिक समानता स्थापित की जाए। आर्थिक न्याय से हमारा तात्पर्य है कि आर्थिक असमानता को समाप्त किया जाए तथा आर्थिक सुरक्षा प्रदान की जाए। राजनीतिक न्याय से हमारा तात्पर्य है कि प्रत्येक को राजनीति में प्रवेश करने के समान अवसर प्रदान करे जाएँ तथा सबको समान मत का अधिकार दिया जाए।

प्रजातंत्र (Democracy)

जनतन्त्र प्रजातन्त्र है। प्रजा अपने स्वतन्त्र मत द्वारा चुनाव का निर्माण करती है। इसके लिए बौद्धिक क्षमता, बौद्धिक स्वतन्त्रता और पर्याप्त निर्णय-शक्ति की आवश्यकता है। यह सब शिक्षा के द्वारा ही सम्भव है अतएव जनतन्त्र के लिए शिक्षित समाज का होना अति आवश्यक है जिससे कि लोग यह समझ सकें कि उसके द्वारा चुने हुए कौन-कौन से लोग उनका वास्तविक हित कर सकते हैं। किन्हें मत दिया जाना चाहिए। वास्तविक नेता कौन है, किसे होना चाहिए। जब जनता इस प्रकार की विचार-शक्ति का प्रयोग करके चुनाव करेगी तो उसके द्वारा अच्छे लोग चुने जायेंगे और न्यायप्रिय कर्मठ लोगों की सरकार बनेगी। यह सरकार समाज और व्यक्ति का ध्यान रखकर कार्य करेगी। यह सब कुछ तभी सम्भव है जबकि देश में शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध हो और सबको शैक्षिक प्रगति करने का समान अवसर प्राप्त हो। जनतन्त्र के लिए शिक्षा की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए जे० डब्लू० एच० हेथरिंगटन ने लिखा है, “जनतन्त्रीय सरकार की माँग शिक्षित जनता की माँग है।” अतएव यदि जनतन्त्रात्मक देश में शिक्षित लोग होंगे तो वे जनतन्त्र के आदर्श और मूल्यों को प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। जॉन डीवी ने लिखा है- “जनतन्त्र में इस प्रकार की शिक्षा होनी चाहिए जिससे व्यक्तियों को सामाजिक सम्बन्ध और नियन्त्रण में व्यक्तिगत रुचि उत्पन्न हो और उनमें ऐसी आदतों का निर्माण हो जिससे अस्वस्थता पैदा हुए बिना सामाजिक परिवर्तनों का होना सम्भव ।”

जनतन्त्र के लिए शिक्षा की आवश्यकता पर बल देते हुए मुखर्जी ने लिखा है, “यदि बालकों की शिक्षा राज्य के भावी कल्याण के लिए आवश्यक है तो प्रौढ़ों को शिक्षा जनतन्त्र के वर्तमान अस्तित्व के लिए आवश्यक है।”

“In the education of Children in important for the future welfare of the state Education of the adult is necessary for the very existence of democracy.” – S. N. Mukherjee

इसी प्रकार प्रजातन्त्र के लिए शिक्षा की आवश्यकता पर बल देते हुए हुमायूँ कबीर ने लिखा है, “यदि प्रजातन्त्र को सचमुच प्रभावशाली होना है, एवं व्यक्ति को अपने पूर्ण विकास की गारंटी करना है, तो शिक्षा को सार्वभौमिक तथा निःशुल्क होना चाहिए।”

“If Democracy is realy to be effective and guarantee to all individuals the right to develop to the fullest extent education has to the universal and free” -Humayun Kabir

ऊपर हमने यह उल्लेख किया कि जनतन्त्र के लिये शिक्षा की क्या आवश्यकता है ? विद्वानों के विचारों को देखने से यह बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है कि वर्तमान जनतन्त्रीय समाज में शिक्षित लोगों की कमी नहीं तो ठीक है, और यदि कमी है भी, तो भी दोनों सूरतों में हमें भविष्य का ध्यान रखना चाहिए। शिक्षित लोगों की पूर्ति के लिए हमें भविष्य की ओर देखना होगा तथा आज के बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध करना होगा अतएव इन बच्चों की शिक्षा के लिए पूर्ण प्रबन्ध करना चाहिए। इनमें जनतन्त्रात्मक भावनायें पैदा करनी चाहिए इनमें स्वतन्त्रता, विचार और तर्कशक्ति की बुद्धि करनी चाहिए क्योंकि इन्हीं बच्चों पर भविष्य के भारत का भार है।

जनतन्त्रीय शिक्षा के उद्देश्य (Aims of Education in Democracy)

जनतन्त्रीय शिक्षा के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए अमेरिका के प्रसिद्ध शिक्षा मन्त्री जॉन डीवी ने लिखा है, “जनतन्त्र केवल सरकार का रूप न होकर उससे भी अधिक कुछ है। यह मुख्यतः सहयोगी जीवन और सम्मिलित रूप में दिये गये अनुभव की वृद्धि है।”

“Democracy is more than a form of government it is primarily a mode of associated living of conjoint communicated experience. -John Dewy,

अब प्रश्न यह है कि बालकों में सहयोगी जीवन व्यतीत करने के लिए किस प्रकार की शिक्षा दी जानी चाहिए अतएव छात्रों को इस प्रकार की शिक्षा दी जाय कि उनमें सहजीवन तथा सह-अस्तित्व की भावना का विकास हो सके। इस ढंग की शिक्षा प्रजातान्त्रिक शिक्षा ही हो सकती है।

(1) सामाजिक दृष्टिकोण निर्मित करना (Development of Social Attitude)- जनतन्त्रात्मक शिक्षा का प्रथम उद्देश्य है बालकों में सामाजिक दृष्टिकोण का निर्माण करना है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में वह पैदा हुआ है, समाज में उसका पालन-पोषण और विकास हुआ है। अतएव शिक्षा के द्वारा बालकों में सामाजिक प्राणी बनने की भावना का विकास किया जाना चाहिए। उन्हें सामाजिक रुचियों की जानकारी करानी चाहिए, समाज को समझने की शक्ति प्रदान करनी चाहिए तथा सहयोग के साथ समाज में रहने के लिए उत्साहित करना चाहिए। बालकों में ऐसी क्षमता का विकास किया जाना चाहिए कि वे समाज की समस्याओं को समझ सके तथा इन समस्याओं के निराकरण के लिए सोच सकें। उक्त सभी बातों का विकास कर शिक्षा का एक आवश्यक अंग होना चाहिए। समाज की नई पीढ़ी में सामाजिक दृष्टिकोण का विकास उद्देश्य होगा।

(2) छात्रों में अच्छी आदतों का निर्माण करना (Formulation of Good Habits) – मनुष्य के सभी क्रिया-कलाप आदतों के परिणाम होते हैं। इन आदतों का निर्माण प्रारम्भ से ही किया जा सकता है, क्योंकि बालक को उसकी युवावस्था प्राप्त हो जाने पर किसी भी आदत का निर्माण करना कठिन होगा। आदत के खराब हो जाने पर छात्र आलसी, निम्न स्तर के छोटे विचारों के और गरीब हो जाते हैं। अतएव शिक्षा के द्वारा उनमें अच्छी-अच्छी आदतों का निर्माण किया जाना चाहिए जिससे वे स्वस्थ मतिरष्क तथा स्वस्थ बुद्धि वाले बन सके। उनमें स्फूर्ति का विकास हो तथा वे आदर्श कार्यों की तरफ झुकें। ऐसा करने से ही वे वास्तविक जन-कल्याण कर सकते हैं और समाज के सक्रिय तथा योग्य सदस्य बन सकते हैं।

(3) व्यक्ति को आर्थिक रूप से सम्पन्न बनाना (Economic well being of the Individual)– मनुष्य कोई-न-कोई व्यवसाय करता है, कोई-न-कोई कार्य सीखता है। इसी को अपनी जीविका का माध्यम बनाता है। इसलिये प्रजातन्त्र में शिक्षा का एक यह भी उद्देश्य होना चाहिए कि व्यक्ति को आर्थिक रूप से सम्पन्न बनाने के लिए व्यावसायिक कुशलता लावे। जो व्यक्ति आर्थिक रूप से सम्पन्न होगा वह अन्याय या चोरी नहीं कर सकता। अन्यथा कोई जिम्मेदारी का स्थान पाने पर वह अपनी गठरी भरने का पहले प्रयास करेगा इसके बाद अन्यों के बारे में सोचेगा। अतएव यदि जनतन्त्र में अन्याय और लूट खसोट को कम करना हो तो शिक्षा के द्वारा बालकों में ऐसी क्षमता का विकास करना होगा कि आर्थिक रूप से सम्पन्न हो सकें।

(4) जन-सामान्य की कुशलता की प्राप्ति कराना (Achievement of Efficiency)– प्रजातन्त्र तभी सफल हो सकता है जबकि देश में कुशल लोग होंगे। कुशलता का अर्थ व्यक्त करते हुए इलियट ने लिखा है, कुशलता से मेरा अभिप्राय है स्वस्थ एवं सक्रिय जीवन में कार्य तथा सेवा की सार्थक शक्ति। इस शक्ति के प्रशिक्षण एवं विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा दी जानी चाहिए।”

(5) व्यक्ति में अच्छी रुचियों का विकास करना (Development of Good interest in Individual)— जनतन्त्र में अच्छी रुचियों के लोगों की जरूरत होती है। उनकी रुचियाँ जितनी ही विकसित होंगी उनके कार्य उतने ही अच्छे तथा स्वस्थ होंगे। अतएव शिक्षा के द्वारा व्यक्तियों में अच्छी रुचियों का विकास किया जाना चाहिए जिससे कि व्यक्ति अच्छे कार्य के द्वारा अपने जीवन को सुखी तथा सन्तुलित बना सके।

(6) उच्च उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति और समाज का स्वस्थ जीवन (Shaping the Individual and Society towards Noble End)- प्रजातन्त्र जिस किसी भी देश में है उस देश में हर किसी नागरिक में ज्ञान, रुचि और आदेशों का विकास किया जाना चाहिए जिससे कि सभी लोग अपना उचित स्थान प्राप्त कर सकें तथा इस स्थान का प्रयोग वे अपने ढंग से कर सकें यह कार्य समाज को उच्च आदर्शों की ओर ले जाने वाले होने चाहिए।

(7) छात्रों को नागरिकता का प्रशिक्षण देना (Training for Citizenship)- जनतन्त्र की सफलता आदर्श नागरिकों पर निर्भर है। अतएव शिक्षा के द्वारा छात्रों को आदर्श नागरिकता की शिक्षा दी जानी चाहिए। इस शिक्षा के द्वारा छात्रों को राज्य तथा समाज के प्रति अधिकारों और कर्त्तव्यों का ज्ञान कराया जाय।

(8) समाज के साथ सामंजस्य कर सकने वाले व्यक्तित्व का निर्माण (Development of Individual with Harmonious Personalities)- जनतन्त्र में शिक्षा का एक यह भी उद्देश्य है कि नागरिकों को समाज के सामंजस्य करने की शिक्षा प्रदान की जाय। इससे समाज में रहने वाले लोगों को संसार की कटुताओं का ज्ञान होगा तथा उनमें निष्पक्षता, उदारता और कुशलता आवेगी। शिक्षा के इस उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए हुमायूँ कबीर ने लिखा है, “शिक्षा को मानव प्रकृति के समस्त पक्षों के लिए सामग्री जुटानी चाहिए और मानवीय विज्ञानों तथा प्रौद्योगिकी को समान महत्त्व देना चाहिए जिससे कि वह मनुष्य को सभी कार्यों की निष्पक्षता के साथ करने के योग्य बन सके।

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शिक्षा के संवैधानिक मूल्य कौन कौन से है?

संवैधानिक मूल्यों (स्वतंत्रता, न्याय एवं प्रजातंत्र) को प्रोन्नत करने में शिक्षा की भूमिका संवैधानिक मूल्यों (स्वतंत्रता, न्याय एवं प्रजातंत्र) को प्रोन्नत करने में शिक्षा की भूमिका का वर्णन कीजिए। भारतीय संविधान एक आदर्श संविधान है।

शिक्षा के उद्देश्यों से संबंधित संवैधानिक मूल्य क्या है?

नई शिक्षा नीति में वे मूलभूत नैतिक, मानवीय और संवैधानिक मूल्य जो शिक्षा व्यवस्था को निर्देशित करेंगे वे हैं- विद्यार्थियों में ऐसे गुणों को विकसित करना कि उनमें सहानुभूति हो, वे दूसरों का सम्मान करें, साफ-सफाई का महत्व समझें, उनमें विनम्रता हो, लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति प्रेम हो और सेवा भाव हो.

संवैधानिक मूल्यों को विकसित करने में शिक्षा का क्या योगदान है?

लोकतांत्रिक समाज में शिक्षा लोकतंत्र की आत्मा है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था में हमारी सांस्कृतिक परंपरा और जीवन मूल्यों का महत्वपूर्ण स्थान रहा है। शिक्षा संस्कृति की निरंतरता को बनाए रखने में सहायक होती है। शिक्षा समाज में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जागरूकता की दिशा में व्यक्ति में सक्षमता पैदा करती है।

भारतीय संविधान मूल्य क्या है?

न्यायः संविधान, भारत के सभी लोगों के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करता है जिससे सामाजिक, आर्थिक समानता पर आधारित नई समाज व्यवस्था का निर्माण किया जा सके। स्वतंत्रताः संविधान प्रत्येक नागरिक को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान करता है।