सामाजिक समानता में शिक्षा की भूमिका - saamaajik samaanata mein shiksha kee bhoomika

भारत में सामाजिक असमानता के स्तर के बारे में सब जानते है, और स्कूल एवं कक्षा में भी यह असमानता अध्यापकों तथा विद्यार्थियों द्वारा लाई जाती है। भाषा, जाति, धर्म, लिंग, स्थान, संस्कृति और रिवाज़ जैसे सामाजिक अंतर के पक्षपात पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाए जाते हैं। 

बच्चे का लिंग, आर्थिक वर्ग, स्थान और जातीय पहचान काफी हद तक यह पहचान करवा देते हैं कि बच्चा किस तरह के स्कूल में पढ़ेगा, स्कूल में उसे किस तरह के अनुभव मिलेंगे और शिक्षा प्राप्त करके वे क्या लाभ प्राप्त कर सकेगा। आज के समय में जब कक्षाओं में विविध परिवेशों से आने वाले विद्यार्थियों की संख्या अधिक है और इसलिए यह अत्यंत आवश्यक हैकि भेदभाव भूल कर, प्रत्येक बच्चे को समान शिक्षा देने की ज़िम्मेदारी उठाई जाए।

औपचारिक स्कूली शिक्षा में समान, गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान करने के लिए समानता और उत्कृष्टता सुनिश्चित करनाकिसी देश की शिक्षा प्रणाली का सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा होता है, जिसमें अध्यापक – शिक्षा की प्रक्रिया का मुख्य सुविधादाता – किसी बच्चे की स्कूली शिक्षा से आरंभ हुई शिक्षा यात्रा को एक आकार देने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।

पिछले वर्षों में, भारत में इस बात को लेकर जागरुकता बढ़ी है कि सभी तरह की सामाजिक स्थिति वाले बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले। ऐसा बालिकाओंऔर विशेषकर अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, दिव्यांग, भाषायी, जातीय और धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों के बालक और बालिकाओं दोनों के मामले में है। भारत में लिंग असमानता के फलस्वरूप शिक्षा में असमान अवसर हैं, और जबकि इससे दोनों लिंगों के बच्चों पर प्रभाव पड़ता है, आंकड़ों के आधार पर बालिकाओं के मामले में सर्वाधिक अलाभकारी स्थिति है। बालकों के तुलना में बालिकाएं अधिक संख्या में स्कूल से निकल जाती हैं । ऐसा इसलिए है कि उन्हें पारंपरिक रूप से घरेलू कामकाज में हाथ बंटाना पड़ता है, उनका स्कूल तक जाना असुरक्षित समझा जाता है और उनकी माहवारी के समय स्कूलों में उनके लिए स्वच्छता आदि की सुविधाएं कम होती हैं। महिलाओं के प्रति लिंग संबंधी रूढ़िवादी धारणाओं के कारण उन्हें घर पर रहने को कहा जाता है औरफलस्वरूप बालिकाओंको स्कूल से निकाल लिया जाता है।

प्राथमिकऔरमाध्यमिक शिक्षा में लैंगिक अंतर को दूर करने वाले मुद्दों पर यूनिसेफसरकार और भागीदारों के साथ काम करता है। वह यह भी सुनिश्चित करना चाहता है कि सभी बच्चे अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करें, औरबालिकाओंऔरबालकों को अच्छी शिक्षा के समान अवसर मिलें।

हम स्कूल छोड़ चुके बालिकाओंऔरबालकों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए लिंग अनुसार तकनीकी सहायता प्रदान करते हैं,और लिंग अनुकूल शैक्षिक पाठ्यक्रम और अध्यापन को  बढ़ावा देते हैं । उदाहरण के लिए, स्कूल छोड़ चुके बालिकाओंऔरबालकों की पहचान के लिए नए तरीके इस्तमाल किये जा रहे हैं, पाठ्य पुस्तकों की जांच करके उन्हें ठीक किया जा रहा है ताकि उनकी भाषा, छवियां और संदेश लिंग भेद को बनाएं न रख सकें।

यूनिसेफ द्वारा लैंगिक समानतातथा समावेशन औरउसके अपनाने को अध्यापकों तथा बड़े स्तर पर समाज के प्रशिक्षण कार्यक्रमों को दो सबसे महत्वपूर्ण पहलू माने जाते हैं। समाज के लिए प्रशिक्षण यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि किसी स्कूल के आसपास रहने वाले सभी बच्चे वहां दाखिला लेते हों, नियमित रूप से स्कूल आते हों और स्कूल में उनसे ठीक व्यवहार किया जाता हो। यूनिसेफ ने राज्यों की सहायता की है ताकि वे प्रशिक्षण मॉड्यूल विकसित करें और स्कूल और कक्षाओं के भीतर भेद-भाव को दूर करने के लिए कौशल विकास के प्रशिक्षण कार्यक्रम शामिल करें। 

यूनिसेफ द्वारा ऐसे क्षेत्रों में सामुदायिक कार्यक्रमों की शुरुआत की गई है जहां शिक्षा का स्तर बेहद कम है। सामाजिक स्तर के संगठनों को शामिल करके स्थानीय अभियानों तथा जागरुकता बैठकों के माध्यम से समाज को जागरुक बनाने पर ध्यान केन्द्रित किया गया है —  जैसे स्कूल में उपस्थिति के लिए अभियान चलाना, बच्चों केअधिकारों के बारे में जागरुकता पैदा करना और संवेदनशील परिवारों के साथ विशेष रूप से सीधे बात करना।   

यूनिसेफ द्वारा असम, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा के ऐसे चुनिंदा क्षेत्रों में कार्य शुरु किया गया है, जो संघर्ष से प्रभावित हैं, ताकि बच्चों को उनके मूलभूत अधिकार के तौर पर शिक्षा प्रदान की जा सके। उदाहरण के लिए, असम में यूनिसेफऔर उसके भागीदार दूर-दराज के स्थानों पर छोटे-छोटे समुदायों तक पहुंचे हैं ताकि जहां शिक्षा की कमी है, उनके बच्चों की स्कूल में उपस्थिति सुनिश्चित की जा सके अन्यथा ज़्यादा लोग हाशिए में आ जाएंगे।हालांकि इन चार राज्यों में प्रयासों का तरीका भिन्न रहा है, प्रत्येक राज्य द्वारा उन पहलुओं पर ध्यान दिया जा रहा है जिससे इन क्षेत्रों में बच्चों को आठ वर्ष की अनिवार्य शिक्षा पूरी करने में सहायता मिले। इसके साथ-साथ, यूनिसेफ के शिक्षा एवं बाल सुरक्षाविभागों द्वारा जम्मू एवं कश्मीर में समावेशी योजना की शुरुआत की गई है।

यूनिसेफकस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालय (KGBV) के सुधार के लिए भी कार्य कर रहा है।यहस्कूल छोड़ चुके बच्चों, विशेषकर धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों के बच्चों और 11-14 वर्ष तक की बालिकाओंके लिए आवासीय उच्चप्राथमिक स्कूल कि सुविधा प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त, यूनिसेफ ने शारीरिक शिक्षा और खेलकूद कार्यक्रम (‘प्रेरणा’, शारीरिक शिक्षा और खेलकूद के लिए हैंडबुक) की शुरुआत की है, और चुनिंदा कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में अतिसंवेदनशीलता का मानचित्रण किया गया। बालिकाओं के शिक्षा के ऊपरी प्राथमिक स्तर से माध्यमिक स्तर तक जाने की दर में सुधार के लिए विचार-विमर्शों की शुरुआत की गई है। राष्ट्रीय स्तर पर, यूनिसेफ स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के साथ मिलकर कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों का राष्ट्रीय मूल्यांकन का काम कर रहा है तथा राज्य स्तरीय कार्यशालाओं के माध्यम से समीक्षा के समन्वय का कार्य कर रहा है। 

बालिकाओं की उन्नति के लिए यूनिसेफ द्वारा डिजिटल जेंडर एटलस,जो एक निर्णय लेने में मदद करने का साधन है, विकसित किया गया था, ताकि विशिष्ट लिंग संबंधित शिक्षण संकेतों पर खराब परिणाम देने वाली उन बालिकाओं के भौगोलिक क्षेत्रों की पहचान की जा सके,जो उपेक्षित वर्गों, जैसे अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्गों से आती हैं।

यूनिसेफ द्वारा भारत सरकार की प्रमुख शिक्षा योजना, सर्व शिक्षा अभियान (SSA) के साथ मिलकर, राष्ट्रीय और राज्य के स्तरों पर, नजदीकी समन्वय रखकर कार्य किया जा रहा है, साथ ही अध्यापन क्षमता के विकास और वार्डनों के लिए प्रबंधन कौशल के विकास में राज्यों की सहायता की जा रही है। 

यूनिसेफ द्वारा बिहार, प.बंगाल और उत्तर प्रदेश राज्यों में बालिकाओं की सामूहिक संस्था जैसे ‘मीना मंच’ के साथ मिलकर भी कार्य किया जा रहा है, ताकि बालिकाओं में आत्मविश्वास पैदा किया जा सके, उनमें शिक्षा और स्कूल में लगातार उपस्थिति बनाए रखनेके महत्व के बारे में जागरुकता पैदा की जा सके,वेअच्छे स्वस्थप्रद एवं स्वच्छता प्रक्रियाओं को अपना सकें, और अपने भीतर नेतृत्व गुण और समूह भावना विकसित कर सकें। ऐसे साक्ष्य हैं कि इन सामूहिक प्रयासों में भागीदारी करने वाली बालिकाओं और समान उम्र वाली अन्य लड़कियों की समाज के स्थानीय सही आयु में विवाह होने में मदद मिली है और बच्चों को कामकाज से हटाकर स्कूल में प्रवेश दिलाने तथा नियमित रूप से उपस्थित होने के प्रवाह में बढ़ोतरी हुई है।

इन प्रयासों को और तेजी से पूरा करने के लिए, यूनिसेफ द्वारा विभिन्न गैर सरकारी संगठनों और महिला सामंख्या प्रोग्राम (शिक्षा के माध्यम से महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए भारत सरकार का कार्यक्रम) के साथ भागीदारी करके भी कार्य किया गया है।

शिक्षा में सामाजिक समता एवं समानता का क्या महत्व है?

भारत में सामाजिक असमानता के स्तर के बारे में सब जानते है, और स्कूल एवं कक्षा में भी यह असमानता अध्यापकों तथा विद्यार्थियों द्वारा लाई जाती है। भाषा, जाति, धर्म, लिंग, स्थान, संस्कृति और रिवाज़ जैसे सामाजिक अंतर के पक्षपात पीढ़ी दर पीढ़ी अपनाए जाते हैं।

सामाजिक समानता का क्या अर्थ है?

समानता का दावा है कि समान मानवता के कारण सभी मनुष्य समान महत्त्व और सम्मान पाने योग्य हैं। साझी मानवता की यह धारणा ही 'सार्वभौम मानवाधिकार' या 'मानवता के प्रति अपराध' जैसी धारणाओं के पीछे रहती है । 4 बहुत सी सामाजिक संस्थाएँ और राजसत्ता लोगों में पद, धन, हैसियत या विशेषाधिकार की असमानता कायम रखती हैं।

शिक्षा में समानता के उद्देश्य आवश्यकता और महत्व क्या है?

शिक्षा में समानता का अर्थ है कि सभी विद्यार्थियों को समान पहुँच तथा जाति, वर्ग, प्रदेश, धर्म, लिंग आदि के भेदभाव के बिना समान अवसरों की प्राप्ति हो । निष्कर्षतः समान अवसर उचित तथा पारदर्शी होना, स्वीकार्य भाषा का उपयोग, तथा लोगों का आदर करना है। यह दृष्टिकोण, अभियान तथा मूल्यों का आधार होना चाहिए।

शिक्षा में समानता का क्या अर्थ है?

एक धनवान व्यक्ति के बच्चे पब्लिक स्कूल में पढ़ते हैं तो निर्धन व्यक्ति के बच्चें साधारण विद्यालय में भी नही जा पाते हैं जिन स्थानों पर प्राथमिक माध्यमिक व उच्च शैक्षिक संस्थाएँ नहीं हैं, वहाॅ बच्चों को वैसा शिक्षा का अवसर नहीं मिल 3 Page 4 पाता जैसा उन बच्चों को मिलता है जहाॅ यह संस्थायें होती हैं इस प्रकार शिक्षा के ...