Show संस्कृति और समाज में सम्बन्ध
संस्कृति और समाज में सम्बन्धसंस्कृति तथा समाज (Culture and Society)- संस्कृति का निर्माण मानव द्वारा होता है। परन्तु मानव निर्मित यही संस्कृति समाज और स्वयं मानव के व्यक्तित्व को सर्वाधिक प्रभावित करती है। संस्कृति तथा समाज परस्पर सम्बन्धित हैं। संस्कृति एक ओर सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों अर्थात् सामाजिक संगठन, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक संस्तरण, सामाजिक नियंत्रण तथा एकीकरण के रुप का निर्धारण करती हैं तो दूसरी ओर संस्कृति के ही अनुसार समाज में लोगों के व्यक्तित्व को एक विशेष स्वरुप प्राप्त होता है। समाज एक जटिल व्यवस्था है जिसमें सामाजिक संगठन के विभिन्न तत्वों, सामाजिक नियंत्रण, सामाजिक संस्थाओं, सामाजिक संगठन, स्तरीकरण की व्यवस्था, एकीकरण के स्वरुपों तथा अनेक प्रकार के मूल्यों का समावेश होता है। समाज के यह सभी पक्ष वे हैं जिन्हें एक विशेष संस्कृति और उसकी विशेषताओं के सन्दर्भ में ही समझा जाता है, जैसे- सामाजिक संगठन के रुप का निर्धारण (Determination of Form of Social Organization)- सामाजिक संगठन का अर्थ उन उपसमूहों के संगठन से है जिनमें प्रमुख रुप से आयु, लिंग, नातेदारी, व्यवसाय, सम्पत्ति, आवास, अधिकार और प्रस्थिति की भिन्नताओं पर आधारित समूहों को सम्मिलित किया जाता है। वास्तव में संस्कृति ही यह निर्धारित करती है कि विभिन्न आयु- समूहों को एक-दूसरे की तुलना में कितना कम या अधिक महत्व दिया जायेगा। स्त्री-पुरुष के पारस्परिक सम्बन्ध समानता पर आधारित होंगे या शक्ति और आधीनता पर। नातेदारी व्यवस्था का स्वरुप क्या होगा तथा समाज में एक विशेष प्रस्थिति प्राप्त करने में सम्पत्ति को कितना महत्व दिया जायेगा। उपर्युक्त बातों से स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृतियों की आन्तरिक विशेषतायें एक-दूसरे से भिन्न होने के कारण ही विभिन्न समाजों का सामाजिक संगठन भी एक-दूसरे से भिन्न हो जाता है। सामाजिक संस्तरण का निर्माण (Formation of Social Stratification)- सामाजिक संगठन के लिए प्रत्येक समाज में संस्तरण की एक स्पष्ट व्यवस्था का होना अति आवश्यक है। संस्तरण की व्यवस्था ही यह स्पष्ट करती है कि समाज में विभिन्न वर्गों और विभिन्न लोगों के एक-दूसरे के प्रति अधिकार और कर्त्तव्य क्या होंगे। संस्कृति का कार्य विभिन्न समूहों और परिवार में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति निर्धारण करने के साथ ही विभिन्न व्यक्तियों के अधिकारों और कर्तव्यों को भी स्पष्ट करती है। हमारे समाज में जाति पर आधारित संस्तरण की जिस बन्द व्यवस्था का विकास हुआ है वह हमारी संस्कृति से ही प्रभावित है। संस्थाओं के स्वरुप का निर्धारण (Determination of Institution of Forms) – प्रत्येक समाज की व्यवस्था में सामाजिक संस्थाओं का योगदान सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। उदाहरणार्थ, परिवार, विवाह, नातेदारी, धर्म और कानून आदि कुछ प्रमुख संस्थायें हैं। इन सभी संस्थाओं की प्रकृति उस समाज की संस्कृति द्वारा ही निर्धारित होती है। संस्कृति ही यह सुनिश्चित करती है कि समाज में बहु विवाह तथा ठीक रहेगी अथवा एक विवाह प्रथा। परिवार में सदस्यों के सम्बन्धों की प्रकृति, नातेदारी व्यवस्था के रुप तथा धार्मिक विश्वासों की प्रकृति का निर्धारण भी संस्कृति के द्वारा ही होता है। संस्कृति इस तथ्य को स्पष्ट करती है कि समाज में किन लक्ष्यों को अधिक महत्वपूर्ण माना जायेगा तथा उन लक्ष्यों के प्राप्त करने के साधन क्या होंगे। सामान्यतया संस्कृति जितनी अधिक विकसित होगी वह लक्ष्य और साधनों के सन्तुलन को बनाये रखने में उतनी ही सफल होगी। एकीकरण का आधार (Basis of Integration)- एकीकरण एक ऐसी व्यवस्था है जो एक तरफ लक्ष्यों में समानता उत्पन्न करके समाज को संगठित बनाती है तो दूसरी ओर संघर्षों की सम्भावना को कम से कम करके सामाजिक विकास में योगदान करती है। संस्कृति ही तथ्य का निर्धारण करती है कि समाज में सामाजिक एकीकरण की प्रकृति और सीमा क्या होगी। एक समाज में यदि संस्कृति विकसित रुप में न हो तो वहों यौन, भूख और सुरक्षा के लिए प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे से संघर्ष करके समाज को विघटित कर सकते हैं। दूसरी ओर जिस समाज की संस्कृति विकसित अवस्था में होती है तो वह अपने सदस्यों के लिए नियमों का इस प्रकार निर्धारण करती है जिससे वे व्यर्थ के संघर्षों से छुटकारा पाकर सहयोग के द्वारा अपनी आवश्यकताओं को पूरा कर सकें। दायित्व निर्वाह के द्वारा सामाजिक नियंत्रण (Social Control Through Role Performance)-समाज को व्यवस्थित और नियमबद्ध बनाने में सामाजिक नियंत्रण का महत्वपूर्ण योगदान होता है। यह कार्य संस्कृति का है कि वह विभिन्न विधियों तथा मूल्यों के द्वारा सामाजिक नियंत्रण की व्यवस्था को एक विशेष स्वरुप प्रदान करे। संस्कृति यह कार्य अनेक प्रकार से करती है। संस्कृति केवल यही निर्धारित नहीं करती कि एक-दूसरे की तुलना में विभिन्न व्यक्तियों के दायित्व क्या होंगे, बल्कि यह भी निश्चित करती है कि व्यक्ति इन दायित्वों की पूर्ति किस प्रकार करेंगे। समाज में प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रस्थिति के अनुसार दूसरे लोगों से कुछ प्रत्याशायें करता है। यह प्रत्याशायें मनमानी नहीं होतीं बल्कि इनका निर्धारण कुछ सांस्कृतिक मूल्यों के अनुसार ही होता है। इन प्रत्याशायों तथा उनकी समुचित पूर्ति से ही समाज में नियंत्रण की व्यवस्था प्रभावपूर्ण बन जाती है। उदाहरणार्ण, भारतीय संस्कृति सहनशीलता, बन्धुत्व, सत्य तथा सच्चरित्रता जैसे मानवीय गुणों पर बल देकर भौतिकता का विरोध करती है। यह सभी गुण वे हैं जो सामाजिक मूल्यों, धार्मिक विश्वासों तथा नैतिक नियमों के अनुसार व्यवहार करने की प्रेरणा देकर सामाजिक नियंत्रण को प्रभावपूर्ण बनाते हैं। अन्त में संस्कृति यह निर्धारित करती है कि समाज में नियंत्रण की स्थापना करने के लिए प्रशंसा और पुरस्कार जैसे अनौपचारिक तरीकों को महत्व दिया जायेगा अथवा यातना एवं क्रूरता पर आधारित साधनों का उपयोग किया जायेगा। इसका अर्थ है कि सामाजिक नियंत्रण वास्तव में संस्कृति का ही प्रतिरुप होता है। सभ्यता की दिशा तय करता है (Determination of the Direction of Civilization)- मैकाइवर के अनुसार प्रत्येक समाज का एक विशेष सांस्कृतिक दृष्टिकोण होता है तथा सभ्यता के सभी अंग इसी दृष्टिकोण के अनुसार कार्य करते हैं और विकसित होते हैं। उदाहरणार्थ, हमारे सांस्कृतिक मूल्य और धार्मिक विश्वास ही यह निश्चित करते हैं कि हमारी प्रौद्योगिकी का स्वरुप क्या होगा तथा हम किन वस्तुओं का निर्माण करके उन्हें किस प्रकार अन्य कार्य में लायेंगे। मैक्स वेबर (Max Weber) के शब्दों में, “सभ्यता का अर्थ उस संस्कृति-संकुल से है जो विभिन्न समाजों की सांस्कृतिक विशेषताओं से निर्मित होता है। उदाहरणार्थ, पश्चिम का पूँजीवाद एक विशिष्ट प्रकार की सभ्यता को स्पष्ट करता है, इस पूँजीवाद को विकसित करने में प्रोटेस्टेन्ट धर्म के आचारों का प्रभाव सर्वाधिक रहा है। यह आधार पूर्णरुपेण सांस्कृतिक है जिन्हें किसी दूसरे आधार पर नहीं समझा जा सकता है, इससे स्पष्ट होता है कि विभिन्न समाजों का भौतिक विकास बहुत बड़ी सीमा तक सांस्कृतिक प्रतिमानों के आधार पर ही होता है। Important Links
DisclaimerDisclaimer: Sarkariguider does not own this book, PDF Materials Images, neither created nor scanned. We just provide the Images and PDF links already available on the internet. If any way it violates the law or has any issues then kindly mail us: You may also likeAbout the authorसमाज के लिए संस्कृति क्यों महत्वपूर्ण है?संस्कृति परम्पराओं से विश्वासों से जीवन की शैली से आध्यात्मिक पक्ष से भौतिक पक्ष से निरन्तर जुड़ी है। यह हमें जीवन का अर्थ जीवन जीने का तरीका सिखाती है। मानव ही संस्कृति का निर्माता है और साथ ही संस्कृति मानव को मानव बनाती है । संस्कृति का एक मौलिक तत्त्व है धार्मिक विश्वास और उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति ।
संस्कृति का क्या महत्व है?संस्कृति का सामाजिक जीवन में विशेष महत्व है। संस्कृति समाज की एेसी उपलब्धि है जो बहुत हद तक अमर है, इसलिए व्यक्ति और समस्त समाज के जीवन में संस्कृति के विभिन्न प्रकार्य होते हैं। संस्कृति एक ट्रेडमार्क का काम करती है, इस अर्थ में कि इसके आधार पर हम विभिन्न समाजों के बीच अंतर स्थापित कर सकते हैं।
संस्कृति का क्या अर्थ है?मनुष्य ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विभिन्न विधियों, प्रविधियों, उपकरणों, रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं को जन्म दिया है। ये सब पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रहती है। इन सबके योग को संस्कृति कहते है। दूसरे शब्दों मे," संस्कृति हमारे द्वारा सीखा गया वह व्यवहार है जो पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होता रहता है।
सांस्कृतिक जीवन क्या है?सांस्कृतिक मानवशास्त्र (अंग्रेज़ी-Cultural anthropology) अथवा सांस्कृतिक नृतत्व विज्ञान नृविज्ञान की वह शाखा है जिसमें, किसी संकृति-समुदाय में रह रहे मानव, उनके व्यवहार और उनके सांकृतिक मानदंडो के स्वभाव, उद्भव और विकास का अध्ययन है।
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