🇮🇳 🏡Home » हिंदी निबंध लेखन » निबंध लेखन पर्यावरण हमारे
जीवन के लिए बेहद आवश्यक है। विभिन्न रूपों से पर्यावरण हमारे जीवन से संबंध रखती है। ऐसे में पर्यावरण की रक्षा करना हमारा कर्तव्य बनता है। जब हम पर्यावरण को स्वच्छ व स्वस्थ रखने की ठान लेंगे तो, पर्यावरण में संतुलन सरलता से हो जाएगा। अतः आज हम इस लेख के माध्यम से पर्यावरण संतुलन विषय पर निबंध लेकर प्रस्तुत हुए हैं। प्रस्तावना: जन्म से लेकर मृत्यु तक पर्यावरण तत्व प्रत्येक जीव जंतु तथा मनुष्य को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार प्राणियों पर पर्यावरण का सकारात्मक प्रभाव पड़ने के
साथ ही नकरात्मक प्रभाव पड़ना भी स्वाभाविक है। पर्यावरण संतुलन बना रहने से पेड़ पौधों से लेकर हर व्यक्ति स्वस्थ नजर आएगा। पर्यावरण संतुलन का बिगड़ना प्रत्येक जीवित प्राणी के लिए हानिकारक है। पर्यावरण संतुलन से अभिप्राय: जब पर्यावरण की स्थिति स्थिर होती है तथा धरती के प्रत्येक प्रजाति तथा पर्यावरण का आपसी तालमेल संतुलित रहता है, पर्यावरण की वह स्थिति पर्यावरण संतुलन कहलाती है. पर्यावरण संतुलन को बिगाड़ने में पर्यावरण
प्रदूषण कारक मुख्य है. पर्यावरण संतुलन के असंतुलन की स्थिति में पहुंचने पर प्रकृति, जीव जंतु तथा प्रत्येक जीवित प्राणी का जीवन असंतुलित हो जाता है। पर्यावरण संतुलन का महत्व: पृथ्वी को चारों ओर से घेरा हुआ वातावरण पर्यावरण कहलाता है। जिसमें पेड़ पौधे, नदियां, पहाड़, समुद्र, तालाब, हवा आदि शामिल हैं। पृथ्वी पर पर्यावरण का संतुलित आवरण एक सुरक्षा कवच के समान है। हम सभी भली भांति जानते हैं कि पेड़ हमारे जीवन के लिए एक अहम योगदान देते हैं। क्योंकि पेड़ो से ही हमें शुद्ध ऑक्सीजन
प्राप्त होती है। वनों में मौजूद जड़ी बूटियों के जरिए तमाम रोगों के उपचार हेतु आयुर्वेदिक दवाएं बनाई जाती हैं। पर्वत और नदियां प्राकृतिक बरसात में सहायक है। इस प्रकार पेड़ों की मौजूदगी, नदियों का साफ होना तथा पर्यावरण की अन्य कृतियों का संतुलित होना प्रत्येक जीव के लिए महत्वपूर्ण है। पर्यावरण संतुलन को हानि पहुंचाने वाले तत्व: वर्तमान समय में मनुष्य अपने स्वार्थ में लिप्त हो चुका है। यही कारण है कि आज पर्यावरण को बनाए रखने का प्रयास असफल होता जा रहा है। औद्यौगिक विकास तथा अनेक फैक्टरियों का निर्माण किया जाने लगा है, जिससे वायु प्रदूषित हो चुकी है। प्राणवायु के अशुद्ध होने पर स्वस्थ जीवन की कल्पना करना ही व्यर्थ है। जल जिसके जीवन अधूरा है, आज जल के उन्हीं स्त्रोतों को कल कारखानों के आविष्ट पदार्थो द्वारा गंदा किया जा रहा है। वातावरण में अंधाधुंध पेड़ों की कटाई पर्यावरण संतुलन को असंतुलन बनाने में अहम भूमिका अदा करती हैं। कृषि क्षेत्र में कीटनाशक दवाओं तथा रासायनिक उर्वरक का कार्य चल रहा है जो कि लघु समय के लिए यह लाभदायक होते हैं। पर्यावरण के लिए इस प्रकार के रसायनों का प्रयोग हानिकारक रहता है। पर्यावरण संतुलन की आवश्यकता: औद्योगिक विकास की होड़ में लगे सभी राष्ट्र स्वयं को विकसित बनाने के उद्देश्य में पर्यावरण को आग में झोंक देते हैं। हम यह भूल जाते हैं कि देश को विकासात्मक बनाने में पर्यावरण की भी अहम भूमिका होती है। वातावरण के साथ उन्नति करना ही हमारी प्राचीन सभ्यता है। हथियार, भोजन, वस्त्र इत्यादि मूलभूत वस्तुएं हमें पर्यावरण के माध्यम से ही प्राप्त होती हैं। आज के समय में हर व्यक्ति किसी ना किसी बीमारी का शिकार बना हुआ है जिसका अहम कारण है पर्यावरण असंतुलन। पर्यावरण के संतुलन से ही मानव जीवन संतुलित बनेगा। निष्कर्ष: प्रकृति ईश्वर की बेहद खूबसूरत सौंदर्य का चित्रण है। यहां हर एक फूल, पक्षी, पेड़, पहाड़ किसी ना किसी प्रकार से हमें लाभ प्रदान करते हैं। हमारा यह कर्तव्य है कि अपने चारों ओर मौजूद अपने पर्यावरण को स्वच्छ रखने का संकल्प लें। हमें अपने घर के आसपास के पर्यावरण को सुरक्षित रखना चाहिए। पेड़ पौधों को लगाना चाहिए। प्राकृतिक नहरों तथा तालाबों को साफ रखना चाहिए। जगह जगह कूड़ा करकट भी नहीं फैलना चाहिए। इस प्रकार यदि हर व्यक्ति अपने स्तर पर पर्यावरण की रक्षा के लिए तत्पर रहेगा, तो पर्यावरण असंतुलन की स्थिति कभी पैदा नहीं हो पाएगी।
ऐसा नहीं है कि समस्या हो ही नहीं. पर्यावरण संरक्षण एवं प्रदूषण के नाम पर सैकड़ों, हजारों लोग यूं ही ‘चिंताय’ रहे हों. समस्या है और गंभीर समस्या है. यह न तो मजाक का विषय है, न व्यंग्य का. लेकिन प्रदूषण और पर्यावरण पर चिंता करते समय हम प्रायः उसके बाहरी पक्षों को ही देख पाते हैं. नदी में बाढ़….चिंता शुरू. तालाब उजाड़….चिंता शुरू. अतिवृष्टि, अनावृष्टि….चिंता शुरू. कम हरियाली….चिंता शुरू. ओला–पाला….चिंता शुरू. यहां तक कि यदि कोई ज्योतिषी पचास वर्ष आगे की भविष्यवाणी कर दे, तो भी हम घबराकर चिंताना शुरू कर देते हैं. चिंता भी दिवाली के गिफ्ट पैक जैसी. एकदम मिली–जुलीᅳनदियां प्रदूषित हैं, क्योंकि फैक्ट्रियों का गंदा पानी छोड़ा जाता है’….‘बाढ़ आती है, क्योंकि पेड़ अंधाधुंध काटे जाते हैं….‘नई–नई बीमारियां पैदा हो रही हैं, क्योंकि हवा तक मिलावटी है….वगैरह–वगैरह. तुरंता निष्कर्षों में पर्यावरण असंतुलन के लिए एक मत से आधुनिक जीवन–शैली को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. जैसे दुनिया में अकेले हम आधुनिक हुए हों! यूरोपीय देश जहां से आधुनिक उपभोक्ता संस्कृति की हवा चली है, हमसे बहुत पीछे हों! हम भूल जाते हैं कि आधुनिकता में अमेरिका और यूरोप के कई देश हमसे कम से कम सौ वर्ष आगे हैं. वहां तनख्वाह हर सप्ताहांत मिलती है. ऐसे कर्मचारियों की संख्या वहां काफी है, जिनपर तन्ख्वाह मिलते ही उसे खर्च करने की धुन सवार हो जाती है. इसके बावजूद वहां पर्यावरण असंतुलन जैसी कोई समस्या नहीं है. उनकी नदियों, सागरों, बाग–तालाबों को देख लीजिए, सौंदर्य और रख–रखाव में वे स्वप्ननगरी जैसे प्रतीत होते हैं. दूसरे शब्दों में पर्यावरण असंतुलन का कारण न तो अत्यधिक भोग है, न ही भौतिकवाद. असली समस्या मूल्यहीनता, असंतुलित विकास और तज्जनित जनाक्रोश की है, जिनका नकारात्मक असर समाज में नागरिकबोध की कमी के रूप में सामने आता है. यह कहना तो अतिरंजना होगी कि पश्चिमी समाजों ने अपनी सभी नागरिक समस्याओं का समाधान कर लिया है. फिर भी वहां नागरिक असंतोष में आपेक्षिक रूप से कमी आई है. उसके आधार पर कह सकते हैं कि पश्चिमी समाजों की आधुनिकता ओढ़ी हुई आधुनिकता नहीं है. उन्होंने परिवेशगत आधुनिकता और मूल्यगत आधुनिकता को साथ–साथ धारण किया है. इसलिए आधुनिकता और पर्यावरण में जो तालमेल होना चाहिए, उसे वे समझने लगे हैं. पर्यावरण संरक्षण वहां नागरिक कर्तव्य है. जबकि हमारे यहां पर्यावरण के प्रति नागरिक दायित्व का सरासर अभाव है. इससे पूरे समाज में अविश्वास की स्थिति बनी रहती है. एडम स्मिथ ने एक बात जोर देकर कही थी. जब कही थी, उन दिनों यूरोपीय समाज की हालत भारतीय समाज जितनी ही पिछड़ी थी. उसका कहना था, ‘अगर यूरोप के किसी नागरिक को पता लग जाए कि अगले दिन उसकी उंगली नहीं बचेगी तो वह रात–भर करवट बदलता रहेगा. सोएगा नहीं. लेकिन यदि उसे यह बताया जाए कि भूकंप में लाखों चीनी भाई–बंधुओं की मौत हो गई है तो वह पूरी रात गहरी और खर्राटेदार नींद लेगा.’ भारत के मामले में चीन की जगह पाकिस्तान को रख सकते हैं. इस तरह के और भी कई मसले हमारी व्यर्थ हमारी उत्तेजना बढ़ाते रहते हैं. समाज के विभिन्न वर्गों में व्याप्त विश्वासहीनता अपना खेल खेलते हुए, लोगों को सामाजिक सरोकारों की ओर से उदासीन बनाती है. इसी से पर्यावरण असंतुलन और उस जैसी अन्याय समस्याएं पैदा होती हैं. पश्चिम में जिन देशों में पर्यावरण असंतुलन की समस्या नहीं है, या बहुत कम हैᅳआवश्यक नहीं कि वे सभी धनाढ्य हों. इसके बावजूद नागरिकताबोध वहां समृद्ध है. सरकार हो, प्रशासन हो या आम नागरिक, हर कोई अपनी–अपनी जिम्मेदारी संभालता है. इसलिए उनकी सड़कें गंदी नहीं होतीं. नदियां सदानीरा हैं. प्रदूषण की समस्या न्यूनतम है. हम ऐसा नहीं कर पाए. सामाजिक बोध की हमारे यहां कमी है, इसलिए वह हमारे लिए समस्या बना हुआ है. हमारे लिए वह समस्या इसलिए भी है, क्योंकि हम तय ही नहीं कर पाए हैं कि कब और कितनी आधुनिकता हमें चाहिए. जब हम विकास की बात सोचते हैं, तो जो कुछ अपने पास है, वह सब पुराना और घिसा–पिटा लगने लगता है. तब आयातित तकनीक की मदद से आधुनिकता के साथ कदम ताल करने के लिए हम विदेशी पूंजी को न्योतने, विश्व–यात्रा पर निकल पड़ते हैं. जब हम संस्कृति और इतिहास के बारे में सोचते हैं, तो बाहर का सब कुछ उथला और त्याज्य मान बैठते हैं. विश्वगुरु होने का नकली अभिमान हमारे दिलो–दिमाग को कब्जा लेता है. उस अवस्था में हम बाहरी ज्ञान को, वह हमारे लिए चाहे जितना उपयोगी क्यों न होᅳएकाएक नकारने लगते हैं. आधुनिकता और संस्कृति प्रेम के बीच कठपुतली की तरह कभी इस ओर, तो कभी उस ओर डोलते रहते हैं. अपने देश और संस्कृति के प्रति अनुराग अनुचित नहीं है. विडंबना यह कि परंपरा और संस्कृति पर संवाद करते समय हम केवल और केवल भावनाओं द्वारा नियंत्रित होते हैं. भावनाओं पर अंकुश रखने के लिए विवेक की आवश्यकता हमें महसूस ही नहीं होती. परिणाम यह होता है कि परंपरा और संस्कृति को भली–भांति समझने, आत्मसात् करने के बजाय हमारा बोध मिथकों और प्रतीकों तक सीमित रह जाता है, जिनमें बदलाव करना असंभवप्रायः होता है. उस अवस्था में हम पर्यावरण संकट जैसी विशुद्ध भौतिक समस्या का समाधान भी प्रतीकों और मिथकों के माध्यम से खोजने लगते हैं. चूंकि हम पर्यावरण संकट के मूल को समझने में नाकाम रहते हैं, इसलिए इन मुद्दों को लेकर हमारा सोच प्रायः प्रतिक्रियात्मक होता है. इस बीच समस्या बेखौफ, रात–दिन लगातार बढ़ती चली जाती है. इसका एक कारण पर्यावरण के बारे में व्यापक दृष्टिबोध का अभाव भी है. पर्यावरण सहित दूसरे मामलों को लेकर जहां अधिकाधिक प्रतिबद्धता की जरूरत हो, हम प्रायः ढुलमुल फैसलों और हल्के–फुल्के कार्यक्रमों का शिकार होते रहते हैं. इसलिए सफाई की खातिर देश के प्रधानमंत्री का खुद झाड़ू लेकर सड़कों पर उतरना भी, अच्छे–खासे राजनीतिक प्रहसन की भूमिका बन जाता है. हर बात को चलताऊ ढंग से लेने, घटनाओं को उत्सव में परिवर्तित कर देने से चुनौतियां महिमा–मंडित होती दिखाई पड़ती हैं. भूकंप, बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ओले, पाले यानी हर प्राकृतिक घटना और आपदा के लिए प्रदूषण को जिम्मेदार ठहराया जाता है. ठीक है, प्रदूषण परिस्थितिकीय असंतुलन के दिए दोषी है. उससे बाढ़, सूखा, भूकंप, महामारी जैसी विभीषिकाएं जन्मती रहती हैं. लेकिन प्रदूषण या परिस्थितिकीय असंतुलन की समस्या के मूल कारणों की पड़ताल करना इतना आसान भी नहीं है. वह कहीं न कहीं हमारे तंत्र की असफलता को भी दर्शाता भी है. उदाहरण के लिए 2013 की केदारनाथ त्रासदी को पर्यावरणविदों ने सीधे–सीधे पर्यावरण–असंतुलन से जोड़ा था. इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि वह त्रासदी पर्वतीय प्रदेश की पारिस्थतिकीय स्थिति में आए परिवर्तन का कुफल थी, जो अनियोजित विकास की देन था. आपदा की उस घड़ी में पर्यावरण असंतुलन पर खूब चर्चा हुई. कहीं समय पर मदद न पहुंचाने तथा कहीं–कहीं अपर्याप्त मदद पहुंचाने के लिए सरकार की खिंचाई भी की गई. लगभग सभी ने माना कि अनियोजित विकास पर्यावरण असंतुलन की समस्या है. मगर इसपर नियंत्रण कैसे किया जाए? सरकार, बुद्धिजीवी और नागरिक संस्थाएं किस तरह खुद को नियोजित करें कि विकास की विकृतियों से बचा जा सके, इसपर किसी का ध्यान नहीं गया. जबकि लोकतंत्र में जितनी जिम्मेदारी सरकार की होती है, उतनी ही नागरिक संस्थाओं की भी होती है. अतः नागरिक सरकार का कर्तव्य होना चाहिए कि वह संवेदनशील क्षेत्रों का विकास या तो अपने हाथ में रखे अथवा अपनी ठोस निगरानी में भरोसेमंद कंपनियों के माध्यम से कार्य कराए. वहीं नागरिक संस्थाओं का कर्तव्य है कि समाज के विभिन्न वर्गों को पारिस्थतिकीय असंतुलन से परचाने के लिए अभियान चलाकर सरकार की यथासंभव मदद करें. पर्याप्त जागरूकता के अभाव में केदारनाथ के आसपास के क्षेत्र में अंधाधुंध पहाड़ काटे गए. पेड़ों को हटाया गया तथा सरकार और नागरिक संस्थान मूक तमाशा देते रहें. ऐसे में समस्या को सिर्फ पारिस्थतिकीय असंतुलन बताकर सरकार और नागरिक संस्थाओं को उनकी जिम्मेदारी से बरी कर देना, गैर जिम्मेदराना और दोषी शक्तियों को अप्रत्यक्ष रूप से लाभान्वित करने जैसा है. ऐसे हथकंडों से चुनौती घटने के बजाय निरंतर बढ़ती जाती है. प्रदूषण का अर्थ प्रायः परिवेशगत गंदगी और अशुद्धता से लिया जाता है. मनुष्य और समाज के संदर्भ में प्रदूषण का दायरा बहुत बड़ा होता है. उसकी समस्या जितनी बाहरी यानी परिवेशगत है, उतनी भीतरी अर्थात मानसिक और वैचारिक भी है. वैचारिक स्तर पर प्रदूषण की स्थिति ही भौतिक स्तर के प्रदूषण को जटिल बनाती है. इस सत्य को समझे बगैर हम समस्या का समाधान प्रायः परिवेशगत उपचार द्वारा करना चाहते हैं. इसे विकट समस्या के समाधान की आधी–अधूरी कोशिश कहा जा सकता है. सामान्य रूप से हममें से प्रत्येक व्यक्ति मानता है कि उसे छोड़कर बाकी हर इंसान पर्यावरण असंतुलन का दोषी है. किस तरह दोषी है? दोनों जीवन–शैलियों में क्या भिन्नता है? अगर यह पूछा जाए तो उससे जवाब देते नहीं बनता. स्पष्ट दृष्टिकोण का अभाव पर्यावरण संरक्षण के कार्यक्रमों को प्रदर्शन और दिखावे की चीज बना देता है. शहर में बढ़ते प्रदूषण पर चर्चा करनी हैᅳसौ–पचास आदमी जुटे, सेमीनार–बैठकी जैसा कुछ किया, नाश्ता लिया, काम पूरा….हंसते–मुस्कराते चलते बने. नदी संरक्षण का मसला है तो दस–पांच आदमी इकट्ठा हुए, हो–हल्ला किया. नारे लगाते हुए प्रशासन को प्रतिवेदन सौंप आए. हर आयोजन के बाद अखबारों में बयानबाजी, फेसबुक पर फोटो–शोटो. दो–चार दोस्तों के साथ दस–पांच सेल्फियां….पार्टी–शार्टी और अखबार में छपी खबरों का कट–पेस्ट. सरकारी और गैरसरकारी मद के हजारों करोड़ रुपये, इसी तरह के कार्यक्रमों के ऊपर हर वर्ष खर्च ढेर होते जाते हैं. लेकिन प्रदूषण पर कोई अंतर नहीं पड़ता. वह सालोंसाल बढ़ता चला जाता है. आमतौर पर हमारा वास्ता नकली आंसू बहाने वाले पर्यावरण मित्रों से पड़ता है. उनसे पड़ता है जिनके स्वार्थ कर्तव्य पर भारी पड़ते हैं. वे इस काम को शासक और सत्ता से निकटता बनाए रखने के लिए करते हैं. इसलिए उनकी चिंताएं ऊपर–ऊपर असर करती हैं और प्रभाव बेअसर बना रहता है. इससे परिस्थितियां ऐसी बन जाती हैं कि व्यंग्य स्वतः उभर आता है. चूंकि वे लोग जो पर्यावरण असंतुलन के वास्तविक दोषी हैं, अथवा जो वैसी परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए जाने जाते हैं, वे ऐसी लफ्फाजियों को पसंद करते हैं. वे चाहते हैं कि समाज की रचनात्मक ऊर्जा ऐसे ही गैर रचनात्मक कार्यों में उलझी रहे. इसलिए ऐसे कार्यक्रमों के लिए चंदे–अनुदान की व्यवस्था करके रखते हैं. प्रकारांतर में पर्यावरण असंतुलन का सारा दोष जनसाधारण के मत्थे मढ़ दिया जाता है, जो पहले से ही अनेकानेक असफलताओ और आरोपों का बोझ ढो रहा होता है. जिसके पास जीवन की सामान्य सुविधाएं जुटाने के लिए भी समय नहीं होता. इसलिए वह अपने ऊपर लगनेवाले आरोपों की ओर से भी बेपरवाह बना रहता है. जीवन की अन्य चुनौतियों के सापेक्ष पर्यावरण असंतुलन जैसी समस्याएं उसके लिए बहुत छोटी और महत्त्वहीन होती हैं. उन्हें बड़े, खाए–अघाए लोगों के चोंचले कहकर वह उनकी ओर लापरवाह बना रहता है. गरीब आदमी के समक्ष केवल दो रास्ते होते हैं, गरीबी और बेकारी के कारण तत्काल मृत्यु अथवा परिस्थितियों की मार झेलते हुए किंचित लंबा मगर बीमार जीवन. जिजीविषा उन्हें लंबे मगर बीमार जीवन चुनने के लिए बाध्य करती है. इससे प्रदूषण की समस्या भी टस से मस नहीं होती. इस बीच स्थिति में यदि अकस्मात कुछ सुधार हो जाए, या परिस्थितियां अनुकूल होने लगें तो श्रेय लेने वालों के बीच होड़ लग जाती है. समस्या है कि ‘पर्यावरण मित्र’ और ‘पर्यावरण द्रोही’ की पहचान कैसे हो? कैसे लोग स्वयं स्फूत्र्त भाव से पर्यावरण संरक्षण के लिए उत्सुक हों? इसका तुरंता निदान तो यही है कि जीवन–शैली में सुधार हो. लोग अपने परिवेश से प्यार करना सीखें और उसके मूल स्वरूप को बचाए रखने में भरसक योगदान करें. यहां जीवन–शैली का अभिप्रायः मनुष्य के वस्त्राभरण और सामान्य दिनचर्या तक सीमित नहीं है. बल्कि मनुष्य के विवेक, भावनाओं तथा अपने परिवेश के साथ उसकी संपूर्ण एकात्मता से है. देखा जाता है कि मनुष्य अपने जीवन में कुछ चीजें अनायास, बिना सोचे–विचारे यूं ही अपना लेता है. उनके चयन में उसकी इच्छा–अनिच्छा जैसा कुछ नहीं होता. इससे विचारहीनता फैलती है और वैचारिक प्रदूषण भी. उदाहरण के लिए हिंदुओं में सप्तपदी का चलन है. विवाह की वैदिक रीति में पंडित संस्कृत के मंत्र पढ़ता है. सप्तपदी के समय मौजूद लोगों में से शायद ही कोई उन मंत्रों का अर्थ जानता हो. कई बार तो पंडित भी उन्हें रटकर आता है या अपनी पत्रिका को जैसे–तैसे बांचकर कर्मकांड पूरा कर देता है. कई बार पंडित उनका लोक भाषा में भावार्थ भी समझाता रहता है. लोग उसमें रुचि लेते हैं. जहां अर्थ समझ में न आए, वहां श्रद्धावनत होकर काम चला लेते हैं. यदि कुछ भी समझ न आए तब भी श्रद्धावनत होना पर्याप्त होता है. पंडित यज्ञ मंडप में सिर झुकाकर या उपस्थिति मात्र को आयोजन की सफलता मान लेता है. पूरा भक्ति शास्त्र यही सिखाता है. इसलिए परंपरानुगामी लोग, समझ न आए तो भी संस्कृत में मंत्रोच्चारण पर जोर देते हैं. ऐसे लोग सभी जगह हैं. ईसाई हिबू्र में लिखी ‘बाइबिल’ तथा मुस्लिम ‘अरबी’ भाषा के कुरआन को ‘असली’ मानते हैं. क्या भाषाएं भी पवित्र और अपवित्र होती हैं? क्या मंत्रों को तथाकथित शक्ति भाषा विशेष में लिखे जाने पर ही मिलती है? क्या उनका हिंदी या दूसरी भाषाओं में सार्थक अनुवाद असंभव है? विवाह और दूसरे कर्मकांडों के दौरान यदि हिंदी अनूदित मंत्र पढ़े जाएं तो क्या देवता अप्रसन्न हो जाएंगे? यदि ‘नहीं’ तो फिर हिंदी में ही मंत्र क्यों नही पढ़ दिए जाते? ताकि लोग उनका मंतव्य भलीभांति समझ सकें. मामला यहीं तक सीमित नहीं है. सरकारी कामकाज जनसाधारण की समझ में आए, दफ्तरों में पारदर्शिता रहे, इसके लिए हिंदी अथवा स्थानीय भाषाओं में सरकारी कामकाज की मांग बहुत पुरानी है. इसके औचित्य को समझा जा सकता है. लेकिन वे लोग जो दफ्तरों में पारदर्शिता के नाम पर स्थानीय भाषा में काम करने की मांग करते हैं, वही विवाह तथा अन्य कर्मकांडों के अवसर पर संस्कृत में मंत्र–वाचन सुनकर कृतार्थ होते हैं. अर्थ समझे बिना ही गायत्री, महामृत्युंजय जैसे मंत्रों का जाप करते हैं. मानव–जीवन के इन अंतर्विरोधों का पर्यावरण असंतुलन की समस्या से सीधे संबंध भले न दिखाई पड़े, किंतु मनुष्य की जीवनशैली को तय करने में इनकी बड़ी भूमिका होती है. पर्यावरण असंतुलन की समस्या का सीधा संबंध मानव–व्यवहार से है. भाषा व्यक्ति का संस्कार करती है. देखा जाए तो बालक का प्रथम अध्यापक उसकी मातृभाषा ही होती है. भाषा के प्रति किसी भी प्रकार की लापरवाही, चीजों को समझने बिना ही समझने का नाटक करना या फिर ऊपरी व्याख्या से संतुष्ट हो जाना, मानव–व्यवहार की शिथिलता को बढ़ाता है. उसे अपने परिवेश के प्रति अगंभीर बनाता है. फिर अभी तक किसी पर्यावरण–विद् या भाषाविद् ने यह मांग क्यों नहीं रखी मंत्र और आरतियां स्थानीय भाषा में अनूदित की जाएं? विवाह, सगाई, गृहप्रवेश, नामकरण जैसे आयोजनों में पंडित स्थानीय भाषा में अनूदित मंत्रों का वाचन करे. संस्कृत के बजाय हिंदी और स्थानीय भाषाओं के पुरोहित तैयार किए जाएं? व्यक्ति और समाज के यही अंतर्विरोध आपसी विश्वासहीनता, कूपमंडूकता, भेड़चाल तथा व्यक्ति और उसके परिवेश के बीच की दूरी का कारण बनते हैं. प्रदूषण या पर्यावरण असंतुलन की समस्या आरोपित समस्या नहीं है. न ही इसके पीछे कोई एक व्यक्ति, समूह है. समस्या व्यापक है और जैसे कि ऊपर संकेत दिए गए हैं, इसके बीजतत्व हमारी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में भी छिपे हैं. यह समस्या सामाजिकता के हृास से पैदा होती है. उस स्वार्थपरता के कारण पैदा होती है जिसमें व्यक्ति अपने परिवेश से कटकर इतना आत्मलीन हो जाता है कि केवल उसे अपना स्वार्थ दिखता है. सिवाय अपने उसे कुछ भी नजर नहीं आता. सामाजिकता के हृास का प्रमुख कारण नागरिकताबोध का अभाव या भ्रष्ट नागरिकताबोध है. मनुष्य जब केवल अपने बारे में सोचने लगता है, तो शेष विश्व के बारे में उसका सोच एकाधिकारवादी हो जाता है. तब वह अपने आसपास की चीजों को दो हिस्सों में बांट लेता है. पहली वे जिनपर उनका सीधा अधिकार है. दूसरी वे जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर; यानी दूसरों के अधिकार में हैं. उसकी कोशिश होती है कि अपने नियंत्रण वाली वस्तुओं का दायरा बढ़ाया जाए. जब तक दूसरों के नियंत्रण बाली वस्तुएं उसे हासिल नहीं हो जातीं, तब तक उन्हें लेकर उसका रवैया उपेक्षापूर्ण बना रहता है. चूंकि ऐसा होना असंभव है, अतएव स्वार्थानुरूप आचरण करना, अपने परिवेश के साथ निष्ठुरता से पेश आना उसके स्वभाव का हिस्सा बन जाता है. मनुष्य अपने परिवेश के बारे में संवेदनशील होगा तभी वह उसकी सुरक्षा करेगा. कृषि आधारित अर्थव्यवस्था मनुष्य को प्रकृति के प्रति संवेदनशील बनाती थी. बदले परिवेश में मनुष्य ने खुद को प्रकृति स्वतंत्र और उसका नियामक मानना शुरू किया तो नासमझी में अन्योन्याश्रितता का भाव भी जाता रहा. आपाधापी और स्वार्थपरता ने सामाजिक मूल्यों को संकट में डाल दिया. पर्यावरण असंतुलन भी उसी मूल्यहीनता की उपज है. गंगा को प्रदूषण–मुक्त करने के अभियान में लगे पर्यावरणकर्मी अकसर यह बात उठाते हैं कि गंगा का साफ होना इसलिए जरूरी है, क्योंकि वह पवित्र नदी है. शास्त्रों में उसका गुणगान किया गया है. उनकी बात एक तरह से सही भी है. विश्व की सभी मुख्य सभ्यताएं किसी न किसी नदी के तट पर विकसित हुई हैं. हर सभ्यता ने अपनी नदी को पवित्र माना है. उसका गुणगान किया है. यहां तक कि उसकी पूजा भी की है. गंगा, यमुना, नर्मदा, सरयू आदि नदियां सब अपनी–अपनी जगह पवित्र मानी जाती हैं. पवित्रता मनोगत धारणा है. कोई चीज इसलिए पवित्र होती है कि लोग ऐसा मानते हैं. जबकि पर्यावरण संरक्षण का अभीष्ट शुद्धता है. पहले चीजों को शुद्ध होना चाहिए. बाद में यदि कोई मानना चाहे तो पवित्र. चीजें अपने मूल रूप में हों, उनमें किसी भी प्रकार की मिलावट न हो. तभी वे शुद्ध मानी जा सकती हैं. प्रकृति जगत की नैसर्गिक शुद्धता को बनाए रखना, जहां प्रदूषण है वहां नैसर्गिक शुद्धता को लौटाना पर्यावरण आंदोलन का ध्येय है. लेकिन शुद्धता, जैसा कि ऊपर कहा गया है, पूरी तरह वस्तुगत है. पानी में जब तक किसी अतिरिक्त तत्व की मिलावट नहीं है तब तक वह शुद्ध माना जाएगा. दूसरी ओर, जैसा कि हमने पहले भी बताया, पवित्रता मनोगत होती है, पूर्व निष्पत्ति. जिसमें हम किसी वस्तु के बारे में पहले से ही धारणा बना लेते हैं कि वह पवित्र है या अपवित्र. यूं भी कह सकते हैं कि पवित्रता एक मिथ है. यह मिथ किस पर लागू होता है; अथवा पवित्र कौन–कौन हैं? यह बोध हमें परंपरा से प्राप्त होता है. लोग गंगा को पवित्र इसलिए मानते हैं क्योंकि उनके पूर्वज भी उसे पवित्र मानते आए थे. दूसरी नदियों के बारे में भी यही सच है. आवश्यक नहीं कि परंपराओं पर सभी लोग साथ–साथ ओर एक समान विश्वास करें, इसलिए वस्तु–विशेष को लेकर पवित्रता का बोध भी बदलता रहता है. मिथ की विशेषता होती है कि वे किसी भी प्रकार के तर्क से ऊपर होते हैं. उनकी जड़ें संस्कृति में बहुत गहरी होती हैं. तर्क के आधार पर आप मिथ के समर्थक अथवा अनुयायी को परास्त कर सकते हैं. लेकिन उसे मिटा नहीं सकते. मिथ को केवल मिथ के माध्यम से काटा जा सकता है. मिथों के संघर्ष की विशेषता है कि वह हमेशा ‘दो बांकों’ की लड़ाई साबित होता है. प्रतिद्विंद्वता अथवा पारस्परिक खंडन–विखंडन के बावजूद उनमें से कोई भी मिथ मिटता नहीं है. अपनी–अपनी भूमिका में दोनों ही बने रहते हैं. पवित्रता की भांति अपवित्रता भी एक मिथ है. विज्ञान की भाषा में कहें तो वह पवित्रता की ‘एंटीबॉडी’ है. पवित्रता का परंपरा सम्मत होना उसकी विशेषता है. मगर शुद्धता के लिए परंपरा कोई कसौटी नहीं है. शुद्धता का आकलन कोई भी कर सकता है. उसके स्तर को आंकड़ों में अभिव्यक्त किया जा सकता है. प्रयोग के माध्यम से उसे सिद्ध किया जा सकता है. पानी से भरे गिलास में गंदगी देख छोटा बालक भी कह देगा कि पानी अशुद्ध है. वस्तुगत होने के कारण शुद्धता को प्रभावित किया जा सकता है. स्वच्छ जल में थोड़ी मिट्टी डाल दीजिए….वह अशुद्ध हो जाएगा. अशुद्धता साफ–साफ दिखती है. पवित्रता का आकलन करना, उसे प्रयोगरूप में दिखाना या किसी भी तरह से उसको प्रभावित करना, जब कि उसे कोई मिथकीय समर्थन न होᅳआदमी के बस के बाहर होता है. ‘पवित्र’ कही जाने वाली वस्तु में उसके मूल स्वरूप की अपेक्षा चाहे जितने परिवर्तन दिखाई पड़ें, उसकी पवित्रता खंडित नहीं होती. पर्यावरणविद् गंगा नदी के प्रदूषण पर चिंतित हैं, उसे खतरनाक स्तर का बताया जा रहा है. सरकार गंगा के लिए स्वच्छता अभियान चला रही है. लेकिन श्रद्धालुओं के लिए, उनके लिए जो गंगा को पवित्र नदी मानते हैं, तमाम प्रदूषण और गंदगी के बावजूद वह उतनी ही पवित्र है जैसी पहले कभी रही होगी. ऐसा नहीं है कि पवित्रता कभी नष्ट नहीं होती. होती है, लेकिन तब खंडित होती है जब उसको प्रभावित करने वाले कारक मिथकीय हों तथा उसके धार्मिक, सामाजिक या सांस्कृतिक निहितार्थ हों. यदि वर्गीय हितों पर संकट हो तो शुद्धता पर आंच आए बिना ही चीजें पवित्र या अपवित्र घोषित कर दी जाती हैं. जैसे मंदिरों में दलितों का प्रवेश रोकने के लिए पाखंडी धर्माचार्य कह देते हैं कि उनके छूने से मूर्तियां अपवित्र हो जाएंगी; या कोई अस्पृश्यता समर्थक कहे कि दलित के साथ खाने या छू देने मात्र से उसकी पवित्रता नष्ट हो जाएगी. मूर्त्तियों को धोकर पवित्र करने की राजनीति के किस्से तो आम हैं. पवित्रता चूंकि मनोगत धारणा है कि इसलिए सभी मनुष्यों को विवश नहीं किया जा सकता कि वे वस्तु–विशेष को पवित्र मानें. इस बारे में स्थिति एक दम विपरीत भी हो सकती है. यानी ऐसा हो सकता है कि कुछ लोग किसी वस्तु को पवित्र मानें, और कुछ लोग उसी को अपवित्र होने का विशेषण थमा दें. कोई व्यक्ति किसी वस्तु को पवित्र मानता है या अपवित्र यह उसका व्यक्ति मामला है. क्योंकि कथित पवित्रता के नष्ट होने या न होने से वस्तु या व्यक्ति की शुद्धता पर कोई आंच नहीं आती अथवा वह उतनी ही प्रभावित होती है कि जितनी किसी सवर्ण व्यक्ति के स्पर्श करने से. क्या ‘शुद्धता’ और ‘पवित्रता’ का कोई अंतःसंबंध है? यदि ‘हां’ तो पर्यावरण संतुलन के संबंध में उसके मायने क्या हैं? गंगा को अशुद्ध बनाने वाले कारक अनेक हैं. अन्य नदियों की भांति गंगा में भी कारखानों का गंदा पानी छोड़ा जाता है. जगह–जगह गंदे नाले उसमें आकर मिलते हैं. स्थान–स्थान पर लोग उसमें पशुओं को नहलाते दिखाई पड़ जाएंगे. इसके अलावा चिता की राख और न जाने क्या–क्याᅳये सब मिलकर गंगा के पानी को वैसा नहीं रहने देते, जैसा पहाड़ों से निकलते समय होता है. नदी जैसे–जैसे आगे बढ़ती है, उसके जल की शुद्धता लगातार घटती जाती है. बावजूद इसके गंगाजल की पवित्रता का मिथ शुरुआत से अंत तक ज्यों का त्यों बना रहता है. यूं कोई कर्मकांडी ब्राह्मण कह देगा कि गंगा को अपवित्र किया जा रहा है. लेकिन प्रकारांतर में वही यह दावा करेगा कि गंगा और गंगाजल पवित्र हैं. इसलिए कि धर्म के अनेक कारोबार जो पुरोहितों की आय और प्रतिष्ठा के मुख्य साधन हैं, गंगा के पवित्रता संबंधी मिथक से जुड़े हैं. यदि यह मान लिया जाए कि गंगा प्रदूषित होने के साथ ही अपवित्र हो चुकी है तो उनके गंगा से जुड़े सारे कर्मकांड ठप्प हो जाएंगे और हजारों पूरोहितों के ऊपर बेरोजगारी की तलवार लटकने लगेगी. इसलिए चाहे जैसे भी हो वे गंगा की पवित्रता के मिथक को बनाए रखते हैं. यही कारण है कि लगातार प्रदूषित होने के बावजूद गंगा और गंगाजल के प्रति लोगों की श्रद्धा अक्षुण्ण रहती है. लोग चूंकि गंगा की पवित्रता की ओर से निश्चिंत होते हैं, इसलिए अपनी–अपनी तरह से सब नदियों का प्रदूषित बढ़ाने में सहयोग करते हैं. इसका उन्हें बहुत मलाल भी नहीं होता. पर्यावरणकर्मी सफाई अभियान की शुरुआत के लिए यज्ञ नदी तट पर कराते हैं और यज्ञ के अवशिष्ट वहीं, नदी में बहा आते हैं. कारखानेदार अपना लाभ देखता है. फैक्ट्रियों के अवशिष्ट पदार्थ को नदी में बहाकर वह उनके शोधन पर होने वाले खर्च को बचा लेता है. ग्रामीण उसमें जानवर नहलाते हैं और पुजारी नहाने, कपड़े धोने से लेकर अंतिम क्रिया जैसे दर्जनों कर्मकांड नदी तट पर ही करता है. पर्यावरण संतुलन का ध्येय पर्यावरण की नैसर्गिक शुद्धता के समर्थन में काम करना है. प्रकट रूप में उनका पवित्रता के मिथ से कोई मतलब नहीं होना चाहिए. लेकिन मिथ कोई अधर में नहीं जन्मते. इसलिए पवित्रता के मिथ को एकाएक किनारे करके गंगा–शुद्धि का सपना देखना और भी मुश्किल है. प्रत्येक मिथ की सामाजिक–सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होती है. इसलिए देखना यह है कि पवित्रता के मिथ बनने की परिस्थितियां क्या थीं और यह मिथ पर्यावरण की नैसर्गिक शुद्धता लौटाने में हमारी कितनी मदद कर सकता है! आज से सहस्राब्दियों वर्ष पूर्व यदि हमारे पूर्वजों ने गंगा(या कोई और नदी) को पवित्र माना था, तो उस समय स्वच्छ रही होगी. इसलिए कि प्रदूषण के लिए जिम्मेदार स्थितियां जो आज भयावह रूप में मौजूद हैं, उनका पहले अभाव था. शुद्धता को उन्होंने पवित्रता से इसलिए जोड़ा ताकि जीवनदायिनी प्राकृतिक शक्तियों के प्रति अपना आभार प्रदर्शन कर सके. दूसरे शब्दों में हमारे पूर्वजों के लिए पवित्रता और शुद्धता में कोई विशेष अंतर नहीं था. जो भी जीवनदायिनी शक्ति या पदार्थ वस्तुगत आधार पर शुद्ध था, उसे अपनी संपूर्ण कृतज्ञता के साथ उन्होंने पवित्र मानकर अपनी आस्था से जोड़ लिया. कह सकते हैं कि शुद्धता का प्रत्यय ही मनस् पवित्रता के मिथ के रूप में सुरक्षित है. यह उस दौर की बात है जब लोगों की कथनी और करनी में अंतर नहीं था. वर्ग–भेद, सांप्रदायिकता आदि को कोई जानता तक नहीं था. लेकिन जैसे–जैसे समाज में वर्ग–विभाजन गहरा हुआ, दिखावे की संस्कृति जोर पकड़ने लगी. पवित्रता के शुद्धता से अलग होकर मिथक में ढलने की शुरुआत भी इसी दौर में हुई. आज के विचारहीनता के दौर में वह अपने चरम पर है. पर्यावरण संतुलन के लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों की सफलता के लिए लोगों को समझाना आवश्यक है कि व्यापक स्तर पर शुद्धता और पवित्रता में कोई अंतर नहीं है. यदि कोई चीज शुद्ध नहीं है तो वह पवित्र भी नहीं हो सकती. इसलिए पवित्रता को बचाने के लिए चीजों का शुद्धिकरण अनिवार्य है. दूसरे शब्दों में यदि पवित्रता का प्रत्यय व्यक्ति की अनुभूति या विवेक से उपजा हुआ नहीं है तो वह दिखावे की पवित्रता कही जाएगी. कल्पना कीजिए, शुद्धता और पवित्रता अलग–अलग न होकर एक ही चीज होते. या तो दोनों मिथ होते या यथार्थ. अगर गंदगी डालने से गंगा की पवित्रता भी नष्ट होती हुई मान ली जाती, तब क्या लोग उसमें गंदगी फैलाने का साहस कर पाते? संभव है उस समय नदी के प्रति उनकी श्रद्धा उतनी न होती, लेकिन नदी और उसके जल की शुद्धता के मायने वे भली–भांति समझ रहे होते. पर क्या यह इतना आसान है? सच तो यह है कि प्रदूषण हो या पर्यावरण असंतुलन. पहले उसकी शुरुआत मनस् से होती है. तो क्या वैचारिक प्रदूषण भी कोई चीज है? समाज में ऐसे लोग मिल ही जाते हैं जो बिल्ली के रास्ता काटने पर यात्रा स्थगित कर देते हैं. भले ही बिल्ली के रास्ता काटने पर कोई हादसा उसके या उसके किसी रिश्तेदार या परिचित के साथ कभी न घटा हो. अपशकुन एक तरह से सांस्कृतिक प्रदूषण का ही उत्पाद है. इस प्रकार की प्रदूषित धारणाएं प्रायः हमारे निर्णयों को प्रभावित करती हैं. आदमी के लिए संभव नहीं कि हर समय जरूरत पड़ने पर वह किताबी ज्ञान का सहारा ले. किताबों में सब कुछ एकाएक उपलब्ध हो जाए, यह भी संभव नहीं है. इसलिए जरूरत पड़ने पर वह अपने पूर्वजों के अनुभवों, परंपराओं, रीति–रिवाजों या पुराने जमाने से चली आ रही धारणाओं का सहारा लेता है. उनमें से कुछ प्रदूषित यानी अपशकुन जैसी भी हो सकती हैं. भारत जैसे परंपरापोषी समाजों में धारणा के शुद्धीकरण, परंपराओं के विवेकीकरण की रफ्तार बहुत धीमी रही है. कभी–कभी तो सुधार में नकारात्मक गति भी देखी जाती है, जिसके अनुसार यदि हम चार कदम आगे चलते हैं तो कुछ अवधि बीत जाने के बाद उतना पीछे भी लौट आते हैं. इस पर विचारकर सुधार की गति को बढ़ाने के बजाय कई बार तो इतिहास को पिछली दिशा में मोड़ने के प्रयास भी चलते रहते हैं. उसको संस्कृति से जोड़कर महिमा मंडित किया जाता है. परिणामस्वरूप विवेकीकरण की प्रक्रिया अवरुद्ध होती है. पर्यावरण असंतुलन को बनाए रखने में वैचारिक प्रदूषण का योगदान काफी है. दूसरे शब्दों में पर्यावरण असंतुलन का मसला, आरोपित पवित्रता को वास्तविक पवित्रता या शुद्धता मान लेने का मसला भी है. पवित्रता की अनुभूति तभी संभव है, जब हम उसको गहराई से जानते हों. हमें उसकी शुद्धता पर पूरा–पूरा भरोसा हो. यदि हम ऐसा नहीं करते, तो केवल नाटक कर रहे होते हैं. यदि लोग मान लें कि गंगाजल की पवित्रता उसकी शुद्धता पर निर्भर है. अशुद्ध होते ही नदी अपवित्र भी हो जाती है, तो वे केवल खुद पर नियंत्रण रखेंगे, बल्कि दूसरों पर लगाम लगाने का काम करेंगे. यदि नदियों में शव बहानेवाले जान लें कि स्वर्ग–नर्क महज मिथ हैं और नदियों में शव जलाने से पितरों की मुक्ति की भ्रांत धारणा के कुछ नहीं मिलने वाला. तो वह नदी तट पर शव बहाने, चिता की राह प्रवाहित करने, मुंडन संस्कार आदि से प्रदूषण बढ़ाने से बच सकते हैं. संस्कृति प्रेमी कह सकते हैं कि मिथों पर प्रहार करने से क्या संस्कृति आहत नहीं होती? तो हमें यह मान लेना चाहिए कि सांस्कृतिक मिथ हमेशा एक जैसी भूमिका में कभी नहीं रहते. समय के साथ उनमें बदलाव आता रहता है. वेदों में इंद्र को जुझारू नेता, योग्य नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है. वह दौर काम–संबंधों में अपेक्षाकृत खुलेपन का था. इसलिए इंद्र की काम–लोलुपता, सत्ता चले जाने का भय और उसे बचाए रखने के लिए किए जानेवाले अनाचार, वैदिक संस्कृति के अनुयायियों के लिए बहस या चिंता का मुद्दा नहीं थे. चिंता का मुद्दा वे तब बने जब पारिवारिक संस्था को मजबूत करने की बात चली और मुक्त भोग पर अंकुश लगाया जाने लगा. उसके फलस्वरूप इंद्र को शीर्ष स्थान से बेदखल होना पड़ा. उसका स्थान ऐसे देवता लेने लगे जो सयंमित काम–संबंधों का समर्थन करते थे. पर्यावरण सामान्य नैतिकता का विषय है. नैतिकताओं के क्षरण से ही जन्मा है. यही कारण है कि पर्यावरण संरक्षण की प्राचीन संस्कृतियों को याद करते हुए हम प्रायः भावुक हो जाते हैं. दावा करने लगते हैं कि उस युग में आदर्श ही आदर्श था. उनके चलते यदि कोई यह सोचे कि पर्यावरण संरक्षण संस्कृति की दुहाई देने से हो सकता है, तो वह गलत है. मनुष्य का नैतिकताबोध राष्ट्रीयताबोध से अलग नहीं है. इसलिए यह राज्य का भी सवाल है. और यदि वह राज्य का सवाल है तो विधि का सवाल भी है. तदनुसार पर्यावरण असंतुलन की समस्या से निपटने के दो रास्ते हैं. पहला यह कि सरकार बेहद सख्त कानून बनाए और पर्यावरण को किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचाने वालों के विरुद्ध ठोस कार्रवाही करे. यह कार्य सरकार को असीमित अधिकार देकर किया जा सकता है. मगर इससे सरकार के अत्यंत शक्तिशाली हो जाने का खतरा है. जबकि लोकतंत्र में एकमात्र जनता को शक्तिशाली नजर आना चाहिए. इसलिए दूसरा रास्ता लोकजागरण और समाज के विवेकीकरण का है. वह लंबा रास्ता है. उसके लिए संस्कृति, उत्पादन, राजनीतिक और समाज, यानी प्रत्येक स्तर पर लोगों को विश्वास दिलाना पड़ेगा कि पर्यावरण असंतुलन पूरी मनुष्यता के लिए चुनौती है. वर्तमान परिस्थितियों में आसान एक भी नहीं है. तो भी उदारमना लोग दूसरे रास्ते का ही चयन करेंगे. यही उचित भी है. © ओमप्रकाश कश्यपपर्यावरण में असंतुलन कैसे पैदा हो रहा है?पर्यावरण के असंतुलन के दो प्रमुख कारण हैं । एक है बढ़ती जनसंख्या और दूसरा बढ़ती मानवीय आवश्यकताएं तथा उपभोक्तावृत्ति । इन दोनों का असर प्राकृतिक संसाधनों पर पड़ता है और उनकी वहनीय क्षमता लगातार कम हो रही है । पेड़ों के कटने, भूमि के खनन, जल के दुरूपयोग और वायु मंडल के प्रदूषण ने पर्यावरण को गभीर खतरा पैदा किया है ।
पर्यावरण के असंतुलित होने पर क्या हो सकता है?प्राकृतिक असंतुलन से ग्लोबल वार्मिंग का खतरा बढ़ रहा है। यदि समय रहते हम सभी नहीं चेते तो आने वाले दिनों में संकट उत्पन्न हो सकता है। पर्यावरण प्रदूषण का असर तो साफ दिखने भी लगा है। बेहिसाब गर्मी, बेहिसाब ठंड यह सब दूषित हो रहे पर्यावरण का ही असर है।
प्रकृति असंतुलन क्यों है?प्रकृति में आए असंतुलन का कारण निरंतर पेड़ों का कटना,समुद्र को बाँधना,प्रदूषण और बारूद की विनाश लीला है। जिसके कारण भूकंप,अधिक गर्मी,वक्त-बेवक्त की बारिश,अतिदृष्टी,साइकलोन आदि और अनेक बिमारियाँ प्रकृति में आए असंतुलन का परिणाम है।
मानव और प्राकृतिक असंतुलन के कारण कौन कौन सी समस्याएँ पैदा हुई?अनुक्रम. 2.1 जल प्रदूषण. 2.2 वायु प्रदूषण. 2.3 ध्वनि प्रदूषण. 2.4 भूमि प्रदूषण. 2.5 जनसंख्या वृद्धि और पर्यावरण की गुणवत्ता. |