प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास के प्रकार - praakrtik chikitsa mein upavaas ke prakaar

प्राकृतिक चिकित्सा एक ऐसी प्रणाली है जिसमें प्राकृतिक रूप से उपचार किया जाता है। इसमें बाहरी दवाओं का प्रयोग नहीं किया जाता। जब हम प्राकृतिक रूप छोड़ आप्रकृतिक रूप से जीवन शैली अपनाते हैं तो शरीर में कई प्रकार के दोष उत्पन्न हो जाते हैं जिससे हम रोगी हो जाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा हम इन्हीं दोषों को शरीर से बाहर कर रोगी को निेरोगी बनाते हैं। प्राकृतिक चिकित्सा में कई प्रकार के उपचार किये जाते हैं

जिनमें एक उपचार ‘‘उपवास’ है अर्थात् भोजन त्याग कर रोग का उपचार। उपवास के द्वारा हम तरह-तरह के रोगों को दूर कर सकते हैं। वैसे भी यह सत्य है कि जब हमारा पेट खराब हो जाता है या हमें कभी ज्वर आदि होता है तो हमारी भूख समाप्त हो जाती है अर्थात प्रकृति रोग को दूर करने के लिए हमें उपवास करने का निर्देश देती है। पर हम हैं कि इस निर्देश को समझते ही नहीं और भूख को पुनः खोलने के लिए तरह-तरह की बाहरी दवाओं का प्रयोग करने लगते हैं। पर वास्तविकता विपरीत है। दवा थोड़ी देर के लिए तो काम करती है लेकिन जैसे ही दवा का असर समाप्त हो जाता है रोग फिर वहीं का वहीं आ जाता है। यही स्थिति खतरे का ऐलान करती है। ऐसे खतरे से बचने के लिए सब से उत्तम उपचार व उपाय ‘उपवास’ है। वास्तव में रोग जो बाहरी रूप से हमें परेशान करता लगता है

वहीं भीतरी रूप से हमें रोग मुक्त करने का काम कर रहा होता है। अर्थात आचार्य अविनाश सिंह रोग के द्वारा प्रकृति हमारे शरीर में बनने वाले विजातीय तत्वों को बाहर निकालने का काम कर रही होती है। इसलिए जब पेट में भारीपन हो, ज्वर हो तो खाना छोड़ देने से भीतर के गंदे तत्व पाखाने, पेशाब के द्वारा अपने आप बाहर निकल जाते हैं और व्यक्ति को आराम मिलता है। प्रकृति नियमों का विरोध नहीं करती, हम ही लापरवाही कर प्रकृति की चेतावनी की ओर ध्यान नहीं देते और रोग होने पर भी खाते-पीते रहते हैं जिसका प्रभाव उल्टा होता है भोजन पच नहीं पाता और उल्टी या जी मिचलाने लगता है। ऐसिडिटी हो जाती है। इसलिए रोग की हालत में जहां तक हो सके भोजन छोड़ देना चाहिए इससे किसी को कोई हानि नहीं होती। रोग की स्थिति में पशु-पक्षी भी खाना छोड़ देते हैं और जल्द ही निरोगी हो जाते हैं ऐसा देखा गया है।


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उपवास कैसे करें:

उपवास में भोजन छोड़ने को कहा जाता है लेकिन पानी पीना छोड़ने के लिए नहीं। इसलिए उपवास करने वाले व्यक्ति को हर एक घंटे बाद एक गिलास पानी अवश्य पीना चाहिए। यदि पानी में नींबू निचोड़ कर दिया जाय तो यह बहुत लाभकारी है। पानी पीने से पेशाब तो आता है लेकिन पाखाना नहीं। ऐसी स्थिति में आंतों में जमा मल फूलने लगता है, क्योंकि आँतों में कमजोरी होने के कारण वह बाहर नहीं निकल पाता, इसलिए यह मल एनिमा लगाकर निकाला जा सकता है। उपवास का कार्य: उपवास में शरीर के भीतर का मल पचने लगता है। भीतर की अग्नि उसको भस्म करने लगती है और रोगी नई ऊर्जा प्राप्त करने लगता है मोटे व्यक्ति के लिए तो उपवास विशेष लाभकारी है क्योंकि चर्बी भीतर की अग्नि में जलने लगती है और मोटापा कम होने लगता है। शारीरिक ऊर्जा पेशियों, रक्त, जिगर के विजातीय द्रव्यों को भी जला देती है।

शारीरिक ताप उपवास के कारण शांत रहता है। उपवास की अवधि: उपवास की अवधि रोगी की शारीरिक, मानसिक शक्ति और रोग पर निर्भर करती है। वैसे उपवास कम से कम दो-तीन दिन या एक सप्ताह और अधिक से अधिक दो माह तक किया जा सकता है। कमजोर शरीर वाले रोगियों को दो-तीन दिन से एक सप्ताह तक के उपवास में रहने को कहा जाता है और भारी या शक्तिशाली शरीर वाले व्यक्ति को दो माह तक के उपवास के लिए प्रेरित किया जाता है।

इसी प्रकार नए रोग में उपवास की अवधि तीन दिन से एक सप्ताह और पुराने रोगों में लंबे समय के उपवास की सलाह दी जाती है। इसलिए चिकित्सक को रोगी की शारीरिक और मानसिक क्षमता की डाॅक्टरी जांच करवा उपचार के लिए प्रेरित करना चाहिए।

उपवास कैसे तोड़ें:

- उपवास तोड़ने में निम्न बातों को अपनाना चाहिए। अनार, सेब, अंगूर आदि मौसमी फलों के रस का सेवन कर उपवास तोड़ना चाहिए। रोटी-दाल सब्जी आदि ठोस पदार्थ न खाएं।

- फलों का रस अवधि प्रक्रिया के हिसाब से लेना चाहिए जैसे यदि उपवास एक माह का है

तो उपवास के बाद एक सप्ताह तक फलों का रस पिएं।

- फलों के रस के बाद उबली हुई बिना मसाले की सब्जियां लेनी चाहिए।

- सब्जियों के लगभग एक सप्ताह बाद रोटी-चावल आदि लेना चाहिए।

- प्रोटीन युक्त पदार्थों का सेवन न करें।

- प्रातः काल हल्का फुल्का नाश्ता लेना चाहिए।

- दोपहर का भोजन हल्का और एक से दो के बीच लेना चाहिए।

- रात्रि में शाम सात से आठ बजे तक हल्का भोजन करना चाहिए। खाने के बाद कम से कम सौ कदम सैर करनी चाहिए। रात्रि भोजन के कम से कम दो घंटे बाद सोना चाहिए।


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उपवास के लाभ:

- शरीर की अतिरिक्त चर्बी जल कर समाप्त होती है जिससे मोटापा कम होता है और मोटापा नहीं होता।

- कायाकल्प होकर व्यक्ति के शरीर को नवीनता मिलती है।

- शरीर के अतिरिक्त गर्मी शांत होती है और रोगों का नाश होता है।

- शरीर में रोग विरोधी ताकत बढ़ती है।

- मांसपेशियों, मस्तिष्क, जननेन्द्रिय आदि को अतिरिक्त ऊर्जा प्राप्त होती है।

- विचारों में भी शुद्धता आती है। स्मरण शक्ति की बढ़ोत्तरी होती है।

- शरीर में स्फूर्ति आने लगती है।

- कार्य करने की क्षमता बढ़ती है। उपवास में सावधानियां:

- उपवास करना जितना सरल लगता है उतना ही हानिकारक भी हो सकता है इसलिए निम्न सावधानियांे का ध्यान रखना चाहिए।

- उपवास करने से पहले उपवास के विषय में पूरी जानकारी हासिल करनी चाहिए। किसी प्राकृतिक चिकित्सा विशेषज्ञ से पूरी जानकारी लें या किसी विशेषज्ञ की देखरेख में उपवास करें।

- उपवास रखने से पहले अपने आप को सही तरीके से तैयार करें- यदि उपवास एक या दो माह के लिए करना है तो उपवास की अवधि को धीरे-धीरे बढ़ाएं अर्थात् खाना धीरे-धीरे छोड़ें। शुरू में जितना खाना आप प्रतिदिन खाते हैं उसे धीरे-धीरे प्रतिदिन कम करते जायें और पूर्ण उपवास में आएं।

- उपवास से पहले अपने शरीर की डाॅक्टरी जांच करवाएं। जैसे ब्लड प्रेशर, ब्लड शूगर, आदि अन्यथा उपवास हानिकारक हो सकता है।

- यदि उपवास रखने पर शरीर में कमजोरी महसूस हो तो उपवास तोड़कर नींबू संतरे का रस लेना चाहिए।

- उपवास की अवधि में स्वप्न, ध्यान, मुंह साफ करना आदि के कार्य नित्य नियम से करते रहना चाहिए। दांतों की सफाई, जीभ की सफाई नित्य करते रहना चाहिए।

-उपवास की अवधि में प्रातः काल सौर अवश्य करें। ताजी खुली हवा में सैर करने से लाभ होता है।

- उपवास अवधि में शरीर के कई प्रकार के विजातीय उपद्रव शुरू हो जाते हैं जैसे नींद न आना, कमजोरी महसूस होना, हल्की हरकत हो जाना, सिर दर्द होना व जलन आदि। पर इससे घबराना नहीं चाहिए क्योंकि यह अपने आप ही ठीक हो जाते हैं। ऐसे में एनिमा काफी लाभकारी होता है।


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प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास क्या है?

उपवास, प्राकृतिक चिकित्सा की महत्वपूर्ण एवं लाभकारी विधि है। सामान्यतः उपवास का अर्थ भोजन ग्रहण न करना होता है, परन्तु प्राकृतिक चिकित्सा में यह स्वास्थ्य रक्षा एंव रोगियों की चिकित्सा की अत्यन्त प्रभावकारी विधि है। प्राचीन काल से ही उपवास को धार्मिक उपक्रम के रूप में अपनाने के पीछे इसकी स्वास्थ्य में उपयोगिता ही है।

प्राकृतिक चिकित्सा कितने प्रकार की होती है?

अनेक पद्धतियां हैं जैसे - जल चिकित्सा, होमियोपैथी, सूर्य चिकित्सा, एक्यूपंक्चर, एक्यूप्रेशर, मृदा चिकित्सा आदि। प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचलन में विश्व की कई चिकित्सा पद्धतियों का योगदान है।

प्राकृतिक चिकित्सा में कितने तत्व होते हैं?

नेचुरोपैथी यानी प्राकृतिक चिकित्सा उपचार के लिए पंच तत्वों आकाश, जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी को आधार मानकर चिकित्सा सम्पन्न की जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति पंच महाभूतत्वों (मिट्टी, पानी, धूप, हवा व आकाश) पर आधारित है।

प्राकृतिक चिकित्सा के अनुसार आहार क्या है?

इनके अतिरिक्त प्राकृतिक चिकित्सा मे आहार को दो वर्गो में भी विभाजित किया गया है-.
प्राथमिक या धनात्मक आहारः- इसमे मुख्यतः हरी सब्जियां एवं फल आते है, जिनमे जीवनीय तत्व, खनिज लवण एवं रेशे प्रचुर मात्रा मे होते है। ... .
द्वितीयक या ऋणात्मक आहारः- इसमें अन्न, फलियां, दाले व अण्डा आदि आते है।.