वित्तीय प्रबन्ध Important Questionsवित्तीय प्रबन्ध वस्तुनिष्ठ प्रश्न Show प्रश्न 1. प्रश्न 1. प्रश्न 2. प्रश्न 3. प्रश्न 4. प्रश्न 5. प्रश्न 6. प्रश्न 7. प्रश्न 8. प्रश्न 9. प्रश्न 10. प्रश्न 11. प्रश्न 12. प्रश्न 13. प्रश्न 14. प्रश्न 15. प्रश्न 16. प्रश्न 17. प्रश्न 18. प्रश्न 19. प्रश्न 20. प्रश्न 2.
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5. उत्तर:
वित्तीय प्रबन्ध लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न 1. प्रश्न 2.
प्रश्न 3.
(1) विनियोग निर्णय – यह निर्णय उन संपत्तियों के ध्यानपूर्वक चयन से संबंधित होता है जिनमें फर्मों द्वारा अपने फंड में निवेश किया जाएगा। एक फर्म के पास अपने फंड में निवेश करने के कई विकल्प होते हैं परंतु फर्म को अधिक उपयुक्त विकल्प का चयन करना पड़ता है जिससे फर्म को अधिकतम लाभ होगा। इसी विकल्प का निश्चय करना ही विनियोग या निवेश संबंधी निर्णय होता है। (2) वित्त व्यवस्था संबंधी निर्णय – वित्तीय निर्णय से आशय यह निर्धारित करने से है कि पूँजी ढाँचे में स्वामी के कोषों तथा ऋण कोषों का क्या अनुपात रहना चाहिए। स्वामी के कोषों में समता अंश पूँजी, पूर्वाधिकार अंश पूँजी, संचय कोष, संगृहीत लाभ, अंश प्रीमियम को शामिल किया जाता हैं। (3) लाभांश संबंधी निर्णय – यह निर्णय आधिक्य कोषों के वितरण से संबंधित है। फर्म के लाभ को विभिन्न पक्षों जैसे कि लेनदारों, कर्मचारियों, ऋणपत्रधारियों, अंशधारियों इत्यादि के बीच वितरित किया जाता है। प्रश्न 4. 1. अधिकतम लाभ की प्राप्ति – कुछ विद्वानों का मानना है कि वित्तीय प्रबन्ध का प्रमुख उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है, किन्तु अधिकतम लाभ का आशय एवं सीमा की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है, अतः अधिकतम लाभ के उद्देश्य हेतु निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिये
2. अधिकतम प्रतिफल की प्राप्ति – वित्तीय प्रबन्ध का दूसरा उद्देश्य लागत व विनियोग द्वारा अधिकतम प्रतिफल की प्राप्ति करना है, जिससे प्रबन्ध के स्वामी (अंशधारी), ऋणपत्रधारी, प्रबन्धक, कर्मचारी व श्रमिकों को अधिकतम आर्थिक लाभ दिया जा सके। चूँकि ये सभी वर्ग समाज के अंग हैं, अतः कम्पनी से सम्बन्धित इन सभी वर्गों का आर्थिक विकास करना कम्पनी का दायित्व है, इस हेतु अधिकतम प्रतिफल प्राप्त करना आवश्यक होगा। 3. सम्पत्ति के मूल्य को अधिकतम करना वर्तमान में लाभ को अधिकतम बढ़ाने के स्थान पर सम्पत्ति को बढ़ाना वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य माना जाने लगा है । वित्तीय प्रबन्ध के अन्तर्गत ऐसे कार्य किये जाने चाहिये, जिससे उपक्रम की सम्पदा (सम्पत्ति) के मूल्य में वृद्धि हो जाये। चूँकि सम्पत्ति के मूल्य में वृद्धि से कम्पनी सशक्त व मजबूत होगी जिससे कम्पनी की साख में वृद्धि होगी और इससे सर्वांगीण लाभ प्राप्त होगा, अतः वित्तीय प्रबन्ध व्यवस्था का उद्देश्य कम्पनी की सम्पत्तियों को बढ़ाना होना चाहिये। प्रश्न 5. (अ) प्रशासकीय कार्य :
(ब) क्रियात्मक कार्य –
(स) दैनिक एवं सलाहकारी कार्य-
प्रश्न 6. 1. वित्तीय पूर्वानुसार-वित्तीय प्रबंधक को अपने उपक्रम में लक्ष्यों, विकास, योजनाओं एवं कार्यों की प्रकृति के अनुरूप वित्तीय आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाना होता है। 2. वित्तीय नियोजन-वित्तीय पूर्वानुमानों के आधार पर वित्तीय प्रबंधक वित्तीय नियोजन का कार्य करता है। इसके अंतर्गत पूँजी की मात्रा व अवधि, वित्त के स्रोत, ऋण-अंशपूँजी अनुपात, लेखांकन का प्रारूप आदि के संबंध में निर्णय लिये जाते हैं। 3. वित्तीय नियंत्रण-वित्त प्रबंधक वित्त विभाग का प्रमुख अधिकारी होता है। किस विभाग को कितनी राशि स्वीकृत करना तथा कुल राशि का अनुमान लगाना आदि वित्त नियंत्रण संबंधी कार्य वित्त प्रबंधक को करना पड़ता है। 4. विभागों में समन्वय-उत्पादन की प्रत्येक क्रिया व विभाग से वित्त का प्रत्यक्ष संबंध रहता है। अतः वित्त प्रबंधक अन्य विभागों में वित्त के संबंध में एक समन्वयक का कार्य करता है ताकि प्रत्येक विभाग का बजट, सुदृढ़ ढंग से बनाया जा सके। प्रश्न 7. वित्तीय नियोजन का महत्व लिखिए। 1. व्यवसाय का सफल प्रवर्तन- किसी भी व्यवसाय की सफलता के लिये यह आवश्यक है कि, व्यवसाय को प्रारम्भ करने के पूर्व उसकी वित्तीय योजना उचित ढंग से बना ली जाये। व्यवसाय के प्रारम्भ के पूर्व ही व्यवसाय के आकार एवं सम्भावित विस्तार की योजना को ध्यान में रखकर वित्तीय नियोजन किया जाता है। इसके बिना अन्य योजनायें अधूरी रह सकती हैं। 2. व्यवसाय का कुशल संचालन व्यवसाय की प्रत्येक गतिविधियों के लिये वित्त की आवश्यकता पड़ती है। पर्याप्त वित्त के बिना किसी भी व्यवसाय का सफल संचालन नहीं किया जा सकता। व्यवसाय की स्थापना, विभिन्न सम्पत्तियों एवं सामग्रियों का क्रय, पारिश्रमिक का वितरण आदि कार्यों में वित्त की आवश्यकता पड़ती है। इन सभी की उचित व्यवस्था के लिये वित्तीय प्रबन्ध आवश्यक है। 3. व्यवसाय का विकास एवं विस्तार–व्यवसाय में अधिक से अधिक लाभ कमाने के लिये अनेक प्रकार की विकास योजनायें बनानी पड़ती हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये व्यवसाय का अनुकूलतम स्तर तक विस्तार किया जाता है। सम्भावित विस्तार को ध्यान में रखकर वित्तीय योजनायें बनाई जा सकती हैं। इससे व्यवसाय के विकास एवं विस्तार के समय वित्तीय कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ता है। 4. व्यावसायिक तरलता सफल वित्तीय नियोजन के माध्यम से व्यवसाय में पर्याप्त मात्रा में तरल कोष (Liquid Fund) रखा जा सकता है। इससे अति व्यापार की स्थिति को दूर कर व्यवसाय की देनदारियों का समय-समय पर भुगतान कर अपनी शोधन क्षमता को बनाये रखा जा सकता है। प्रश्न 8. 1. उपक्रम की सफलता का आधार-उपक्रम का स्तर छोटा हो या बड़ा, निर्माणी संस्था हो या सेवा देने वाली संस्था सभी की सफलता का मूल आधार वित्तीय प्रबंध का उचित नियोजन है। एक लाभ में चलने वाले उपक्रम को अकुशल वित्तीय प्रबंध चौपट कर सकता है। 2. विनियोक्ताओं के लिए महत्व-देश के आम लोग अपनी छोटी-छोटी बचतों को किसी कम्पनी या संस्थाओं में विनियोग करते हैं इस हेतु उन्हें वित्तीय प्रबंध का ज्ञान आवश्यक है, अन्यथा दलालों व, बिचौलियों की मदद लेकर कभी-कभी विनियोक्तागण परेशानी में पड़ जाते हैं। 3. वित्तीय संस्थाओं के लिये महत्व-वित्तीय संस्थाओं के लिये वित्तीय प्रबंध का विशेष महत्व है, क्योंकि किसी संस्था या व्यक्ति को ऋण देना या न देना इसके निर्णय हेतु वित्तीय प्रबंध का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है ताकि-धन की सुरक्षा व तरलता में सामन्जस्य बना रहे। 4. कर्मचारियों के लिये महत्व वित्तीय प्रबंध का कर्मचारियों के लिये प्रत्यक्ष महत्व है वित्तीय प्रबंध से संस्था का विकास होगा, जिसमें कर्मचारी भी अपने विकास की इच्छा रखते हैं, अत: अच्छे वित्तीय प्रबंध से कर्मचारियों को अप्रत्यक्ष रूप से वित्तीय लाभ मिलते हैं। प्रश्न 9. 1. अधिकतम लाभ की प्राप्ति – वित्तीय प्रबंध का प्रमुख उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है किन्तु लाभ के उद्देश्य के लिए यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि लाभ न्याय संगत हो, लाभ और उपयोगिता में सामंजस्य होना चाहिए तथा इसका मानक तैयार करना चाहिए। 2. अधिकतम प्रतिफल की प्राप्ति – इसका दूसरा उद्देश्य लागत तथा विनियोग द्वारा अधिकतम प्रतिफल की प्रप्ति करना है। जिससे प्रबंध के स्वामी, अंशधारी प्रबंधक कर्मचारी तथा श्रमिकों को अधिकतम लाभ दिया जा सके। 3. संपत्ति के मूल्य में वृद्धि – वर्तमान युग में लाभ को अधिक करने के स्थान पर संपत्ति को बढ़ाना वित्तीय प्रबंध का उद्देश्य माना जाता है। 4. न्यूनतम लागत पर वित्त का अंतरण – वित्तीय प्रबंध का मुख्य उद्देश्य न्यूनतम लागत पर संस्था को पर्याप्त वित्त दिलवाने से है। कोई भी संस्था वित्त के अभाव में तरक्की नहीं कर सकती है। प्रश्न 10. 1. व्यवसाय की प्रकृति-स्थायी पूँजी की मात्रा व्यवसाय की प्रकृति से प्रभावित होती है। इसमें दो तत्व निहित होते हैं। प्रथम, उपक्रम निर्माण कार्य में लगा है अथवा वितरण कार्य में। निर्माण कार्य में लगे व्यवसाय में अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है जबकि वितरण में लगे व्यवसाय में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। 2. उपक्रम का आधार एवं संगठन-स्थायी पूँजी की मात्रा को निर्धारित करने में उपक्रम का आकार एवं संगठन अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। यदि उपक्रम बड़े पैमाने पर उत्पादन अथवा विक्रय का कार्य करता है तो अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है अन्यथा कम। 3. उत्पादन प्रक्रिया की जटिलता-जिस उपक्रम में जितनी अधिक जटिल उत्पादन प्रक्रिया का प्रयोग होता है वह व्यवसाय उतना ही अधिक स्थायी पूँजी चाहता है, जबकि सरल उत्पादन प्रक्रिया की स्थिति में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। 4. प्रारम्भिक व्यय-यदि कम्पनी की स्थापना के समय प्रवर्तकों के पारिश्रमिक, स्थापना, व्यय, पेटेण्ट आदि के क्रय पर अधिक व्यय किया जाता है तो इससे स्थायी पूँजी की आवश्यकता बढ़ जाती है। प्रश्न 11. 1. व्यवसाय की प्रकृति–नियमित एवं निश्चित माँग वाले व्यवसायों में अनियमित एवं अनिश्चित माँग वाले व्यवसायों की अपेक्षाकृत कम कार्यशील पूँजी से काम चल जाता है। क्योंकि नियमित एवं निश्चित माँग होने से नगद प्रवाह बना रहता है तथा निश्चितता होने से स्कंध इत्यादि में अधिक विनियोग नहीं करना पड़ता है। जिन व्यवसायों में मशीनीकरण की मात्रा कम व मानव श्रम की मात्रा अधिक होती है उन उद्योगों या व्यवसायों की अपेक्षा उन व्यवसायों में अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है जहाँ मशीनीकरण की मात्रा अधिक तथा मानवश्रम से कम काम लिया जाता है। 2. व्यवसाय का आकार–व्यवसाय या फर्म के आकार पर भी कार्यशील पूँजी की मात्रा निर्भर करती है। व्यवसाय का आकार जितना ही बड़ा होगा उतनी ही अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी क्योंकि बड़े व्यवसायों में स्थायी पूँजी अधिक होती है, जिसके लाभदायक उपयोग के लिए अधिक कार्यशील पूँजी का होना आवश्यक है। 3. उत्पादन प्रक्रिया यदि उत्पादन प्रक्रिया की सामान्य अवधि लम्बी है या उत्पादन प्रक्रिया जटिल है तो स्वाभाविक रूप से अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी क्योंकि उत्पादन प्रक्रिया जटिल या लम्बी होने पर कच्चे माल को निर्मित माल में बदलने में अधिक समय, अधिक भण्डारण व्यय, अधिक उपरिव्यय तथा अंततोगत्वा अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होगी। 4. रोकड़ की आवश्यकता रोकड़ शेष चालू सम्पत्तियों का एक भाग होता है अतः रोकड़ की आवश्यकता कार्यशील पूँजी की मात्रा को प्रभावित करती है। रोकड़ की आवश्यकता प्रायः मजदूरी, वेतन, कर, किराया, विविध व्यय तथा लेनदार इत्यादि को भुगतान के लिए पड़ती है। इन भुगतानों की राशि जितनी अधिक होगी कार्यशील पूँजी की राशि उतनी ही अधिक होगी। प्रश्न 12. 1. सरलता-वित्तीय योजनाएँ सरलता के दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए बनायी जानी चाहिए। लेकिन सरलता के कारण कार्यक्षमता को समाप्त नहीं होने देना चाहिए। 2. पूर्णता-यह भी वित्तीय नियोजन की एक विशेषता है कि वित्तीय नियोजन में पूर्णता का गुण होना चाहिए। 3. मितव्ययिता-वित्तीय योजना में पूँजी प्राप्त करने व प्रतिभूतियों के निर्गमन के संबंध में किये जाने वाले व्ययों को न्यूनतम रखा जाना चाहिये। 4. लोचशीलता-किसी भी उद्योग को सफलतापूर्वक संचालित करने के लिए यह आवश्यक है कि उसके पूँजी ढाँचे में किसी भी प्रकार की कठोरता न हो बल्कि वह इस प्रकार का हो कि भविष्य में आवश्यकता पड़ने पर सफलतापूर्वक संचालन किया जा सके। प्रश्न
13. 1. नगद छूट – पर्याप्त कार्यशील पूँजी के बल पर कम्पनी क्रय किये गये माल का भुगतान कर नगद छूट प्राप्त कर सकती है। इससे उत्पादन लागत में कमी आती है। 2. विक्रेताओं को तत्काल भुगतान संस्था अपने विक्रेताओं को समय पर भुगतान कर सकती है, जिससे उनसे नियमित रूप से कच्चा माल उचित मूल्य तथा सही समय पर प्राप्त करने में कोई कठिनाई नहीं होती। 3. ऋण क्षमता एवं साख में वृद्धि – पर्याप्त कार्यशील पूँजी सुदृढ़ वित्तीय स्थिति का प्रतीक मानी जाती है। तीसरे पक्ष की दृष्टि में पर्याप्त कार्यशील पूँजी अच्छी शोधन क्षमता का प्रतीक होती है, अतः आवश्यकता पड़ने पर संस्था को तत्काल ऋण प्राप्त करने में कठिनाई नहीं होती। तुरन्त ऋण प्राप्त करने की क्षमता तथा अच्छी साख के कारण संस्था का उत्पादन एवं व्यापारिक कार्य निरन्तर बिना किसी रुकावट के चलता रहता है। 4. पर्याप्त लाभों का वितरण – जब कम्पनी या संस्था में कार्यशील पूँजी की कमी रहती है तो पर्याप्त लाभ होने पर भी लाभांश का वितरण नहीं कर पाती। क्योंकि उस समय संचालकों की नीति लाभों के पुनर्विनियोग की होती है। अगर कम्पनी के पास कार्यशील पूँजी पर्याप्त मात्रा में होती है तो कम्पनी लाभ होने की स्थिति में अंशधारियों को अच्छे लाभांशों का वितरण कर सकती है। 5. बैंकों से ऋण प्राप्ति में सुविधा – पर्याप्त कार्यशील पूँजी ही वास्तव में व्यापारिक ऋणों के लिए एक उत्तम प्रतिभूति होती है। इस प्रकार कार्यशील पूँजी की पर्याप्तता के कारण बैंक ऋणों की प्राप्ति में भी सुविधा होती है। प्रश्न 14. 1. लाभ की मात्रा (Profit Volume) – किसी कंपनी में लाभांश की मात्रा को सर्वाधिक प्रभाव डालने वाला घटक लाभ की मात्रा है अर्थात अधिक लाभ लेने पर अधिक लाभांश तथा कम लाभ होने पर कम लाभांश का निर्णय लेना संचालकों की मजबूरी होगी। अतः लाभांश के निर्णय को लाभ की मात्रा सर्वाधिक प्रभावित करती है। 2. लाभांश की प्रवृत्ति (Trend of dividend) – लाभांश का निर्णय लेने के पूर्व यह देखना आवश्यक है कि गत वर्षों में कितना प्रतिशत लाभ दिया जाता रहा है क्योंकि अचानक कम दर पर लाभांश घोषित करने का अर्थ अंशधारियों को नाराज करना होगा। इसी के साथ समान स्तर के अन्य प्रतिस्पर्धी व्यवसाय द्वारा लाभांश की दर क्या घोषित की गई है। इसका ध्यान रखकर भी लाभांश की दर घोषित की जाती है क्योंकि अन्य समकक्ष व्यवसाय से कम लाभांश देने का आशय है व्यवसाय की कमजोरी या कम लाभ अर्जन करना, इससे व्यवसाय की ख्याति (Goodwill) पर विपरीत असर पड़ता है। 3. भावी वित्तीय आवश्यकताएँ (Financial needs in future)-लाभांश निर्णय को निर्धारित करने के पूर्व यह विचार करना आवश्यक होगा कि उपक्रम को अपने विस्तार एवं विकास के लिये कितनी पूँजी की आवश्यकता होगी तथा लाभ का कितना भाग पुनर्विनियोजित किया जायेगा। अन्य शब्दों में भविष्य में अधिक नवीन पूँजी की आवश्यकता होगी तब लाभांश दर कम तथा आवश्यकता कम रहने पर ऊँचे दर पर लाभांश दिया जा सकता है। प्रश्न 15. 1.सरलता-कम्पनी का पूँजी ढाँचा प्रारम्भ में एकदम सरल होना चाहिए। सरलता का तात्पर्य यह है कि प्रारम्भ में कम प्रकार की प्रतिभूतियों से धन संग्रह किया जाए। यदि प्रारम्भ में ही अनेक प्रकार से धन एकत्र किया जाता है तो उसमें नये प्रस्तावों के प्रति विनियोक्ताओं के मन में संदेह पैदा हो जाता है। 2. लोचपूर्ण-पूँजी ढाँचा इस प्रकार का होना चाहिए जिससे व्यवसाय की बढ़ती हुई आवश्यकताओं के लिये भविष्य में भी वित्त प्राप्त किया जा सके । कम पूँजी की आवश्यकता होने पर पूँजी अथवा कोषों को कम करना भी संभव होना चाहिये। 3. पूर्ण उपयोग-संस्था में उचित पूँजीकरण की स्थिति होनी चाहिये न तो अल्प-पूँजीकरण हो और न अति-पूँजीकरण । जब संस्था में उचित पूँजीकरण होता है तब संस्था के पास पूँजी साधन बेकार नहीं पड़े रहते हैं तथा उनका अच्छा उपयोग होता है। 4. पर्याप्त तरलता-उपक्रम को स्थिर एवं तरल सम्पत्तियों का एक उचित अनुपात निर्धारित करना चाहिये। तरल सम्पत्तियों से तात्पर्य चल सम्पत्तियों से है, जैसे-रोकड़, बैंक, चालू विनियोग तथा प्राप्तियाँ आदि। कम्पनी की सम्पत्तियों का मिश्रण इस प्रकार होना चाहिये जिससे संस्था के पास सदैव तरलता बनी रहे। किसी भी संस्था को अपनी पूँजी का कुछ भाग तरल रूप में अवश्य रखना चाहिये। प्रश्न
16.
प्रश्न 17 1. ऋण समता की तुलना में सस्ता स्रोत-ऋण पूँजी की लागत समता पूँजी से कम होती है। इसका कारण है ऋणदाताओं द्वारा व्यवसाय में किए गए विनियोग का कम जोखिम होना। दूसरी ओर, समता अंश पूँजी पर लाभांश की दर निश्चित न होते हुए भी यह सर्वाधिक महँगी पूँजी होती है। 2. समता की तुलना में ऋण जोखिमपूर्ण होता है-ऋण पूँजी व्यवसाय के लिए सर्वाधिक जोखिमपूर्ण होती है क्योंकि ऋणदाता ब्याज व मूल राशि की वापसी न होने पर न्यायालय में कंपनी के समापन के लिए प्रार्थना दायर कर सकते हैं । समता अंशधारियों को ऐसा अधिकार प्राप्त नहीं है इसलिए इनसे कंपनी को कोई जोखिम नहीं होता है। 3. ऋण एक उधार कोष है जबकि समता स्वामित्व कोष है-ऋण एक दायित्व है जिस पर ब्याज का भुगतान करना ही पड़ता है चाहे कंपनी को लाभ हो या न हो। दूसरी तरफ, समता स्वामित्व कोष है जिस पर लाभांश का भुगतान कंपनी के लाभों पर निर्भर करता है। प्रश्न 18. 1. जोखिम-स्थायी पूँजी निर्णयों में एक बड़ी राशि लगी होती है जो कंपनी के लिए एक बहुत बड़ा जोखिम भी होता है क्योंकि लाभ लंबे समय के बाद मिलेगा। अतः कंपनी का जोखिम भी लंबे समय तक रहेगा जब तक लाभ आना शुरू न हो जाय। 2. दीर्घावधि विकास-पूँजी बजटिंग निर्णय कंपनी के दीर्घावधि विकास को प्रभावित करती है। जो पूँजी दीर्घ अवधि वाली संपत्तियों में निवेश की गई है उसे भविष्य में वापस लाती है एवं कंपनी की भविष्य की योजनाएँ तथा विकास केवल इसी निर्णय पर निर्भर करती है। 3. अपरिवर्तित निर्णय-पूँजी बजटिंग निर्णय रात भर में परिवर्तित नहीं हो सकता। इस निर्णय में बहुत बड़ी राशि लगी होती है, और अगर हम कोई परिवर्तन करते हैं तो इस परिवर्ततन का परिणाम होगा बड़ा नुकसान जिसे हम कोष की बर्बादी कह सकते हैं । अतः ऐसे निर्णय सोच-विचारकर सुनियोजित तथा सभी दृष्टिकोणों से इनका मूल्यांकन करने के पश्चात् लेने चाहिए अन्यथा इसके बहुत घातक परिणाम होंगे। प्रश्न 19. 1. व्यवसाय की प्रकृति (Nature of business) – स्थायी पूँजी की मात्रा व्यवसाय की प्रकृति से प्रभावित होती है। इसमें दो तत्त्व निहित होते हैं। प्रथम, उपक्रम निर्माण कार्य में लगा है अथवा वितरण कार्य में। निर्माण कार्य में लगे व्यवसाय में अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है जबकि वितरण में लगे व्यवसाय में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। द्वितीय, उत्पादन अथवा वितरण सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं का किया जाता है तो कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है और उद्योगों से संबंधित वस्तुओं का उत्पादन अथवा वितरण किया जाता है तो अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। 2. उपक्रम का आधार एवं संगठन (Size and organization of the business) – स्थायी पूंजी की मात्रा को निर्धारित करने में उपक्रम का आकार एवं संगठन अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। यदि उपक्रम बड़े पैमाने पर उत्पादन अथवा विक्रय का कार्य करता है तो अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है अन्यथा कम। उपक्रम निगम पद्धति पर संगठित होता है तो अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होगी अन्यथा कम। 3. उत्पादन प्रक्रिया की जटिलता (Complexity of process of production) – जिस उपक्रम में जितनी अधिक जटिल उत्पादन प्रक्रिया का प्रयोग होता है वह व्यवसाय उतना ही अधिक स्थायी पूँजी चाहता है, जबकि सरल उत्पादन प्रक्रिया की स्थिति में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। 4. प्रारम्भिक व्यय (Preliminary expenses) – यदि कम्पनी की स्थापना के समय प्रवर्तकों के पारिश्रमिक, स्थापना, व्यय, पेटेण्ट आदि के क्रय पर अधिक व्यय किया जाता है तो इससे स्थायी पूँजी की आवश्यकता बढ़ जाती है। प्रश्न 20.
प्रश्न 21. प्रश्न 22. 1. व्यवसाय की प्रकृति (Nature of business) – स्थायी पूँजी की मात्रा व्यवसाय की प्रकृति से प्रभावित होती है। इसमें दो तत्व निहित होते हैं । प्रथम, उपक्रम निर्माण कार्य में लगा है अथवा वितरण कार्य में। निर्माण कार्य में लगे व्यवसाय में अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है जबकि वितरण में लगे व्यवसाय में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। द्वितीय, उत्पादन अथवा वितरण सामान्य उपभोक्ता वस्तुओं का किया जाता है तो कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है और उद्योगों से संबंधित वस्तुओं का उत्पादन अथवा वितरण किया जाता है तो अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है 2. उपक्रम का आधार एवं संगठन (Size and organization of the business)- स्थायी पूँजी की मात्रा को निर्धारित करने में उपक्रम का आकार एवं संगठन अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। यदि उपक्रम बड़े पैमाने पर उत्पादन अथवा विक्रय का कार्य करता है तो अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है अन्यथा कम। उपक्रम निगम पद्धति पर संगठित होता है तो अधिक स्थायी पूँजी की आवश्यकता होगी अन्यथा कम। 3. उत्पादन प्रक्रिया की जटिलता (Complexity of process of production)- जिस उपक्रम में जितनी अधिक जटिल उत्पादन प्रक्रिया का प्रयोग होता है वह व्यवसाय उतना ही अधिक स्थायी पूँजी चाहता है, जबकि सरल उत्पादन प्रक्रिया की स्थिति में कम स्थायी पूँजी की आवश्यकता होती है। 4. प्रारम्भिक व्यय (Preliminary expenses)- यदि कम्पनी की स्थापना के समय प्रवर्तकों के पारिश्रमिक, स्थापना, व्यय, पेटेण्ट आदि के क्रय पर अधिक व्यय किया जाता है तो इससे स्थायी पूँजी की आवश्यकता बढ़ जाती है। प्रश्न 23. प्रश्न 24. जलयुक्त पूँजी किसे कहते हैं ? यह क्यों उत्पन्न होती है ? इसे समाप्त करने के लिए आप क्या कदम उठाएँगे? उत्तर: आशय (Meaning) – “जब कम्पनी की सम्पत्तियों का वास्तविक मूल्य उसके पुस्त मूल्य (Book value) से कम हो जाता है तो उसे जलयुक्त पूँजी कहते हैं।” कभी-कभी प्रवर्तन के समय प्रवर्तकों एवं अन्य विक्रेताओं के द्वारा अंशों के बदले ऐसी सम्पत्ति हस्तांतरित कर दी जाती है जिसका उत्पादक मूल्य काफी कम रहता है। फलतः कम्पनी में पुस्त मूल्य तो रहता है किन्तु वास्तविक सम्पत्ति कम हो जाती है। स्थायी सम्पत्ति के अतिरिक्त दोषपूर्ण पेटेण्ट, साख प्रवर्तन एवं सेवाओं के कारण भी यह स्थिति निर्मित हो जाती है। जैसे किसी कम्पनी की सम्पत्ति का पुस्त मूल्य 1,00,000 रु. है तथा उस सम्पत्ति का वास्तविक बाजार मूल्य या उत्पादकता 70,000 रु. है तब ऐसी स्थिति को जलयुक्त पूँजी कहा जायेगा।द्रवित पूँजी के कारण (Causes of Watered Capital) – किसी कम्पनी में द्रवित पूँजी निम्न कारणों से हो जाती है 1. ऊँची दरों पर सम्पत्तियों का क्रय (Purchase of assets at high rates) व्यापार में यदि सम्पत्तियों का क्रय ऊँची दर पर किया जाये तो इससे द्रवित पूँजी का उत्पन्न होना स्वाभाविक होता है। 2. दोषपूर्ण ह्रास नीति (Defective depreciation policy) – यदि कम्पनी की ह्रास कोष नीति दोषपूर्ण है तथा आवश्यकता से कम ह्रास कोष की व्यवस्था की जाती है तब द्रवित पूँजी उत्पन्न हो जाती है । 3.प्रवर्तकों को अधिक पारिश्रमिक (More remuneration to promotors) – कम्पनी के समामेलन के समय यदि प्रवर्तकों द्वारा अधिक पारिश्रमिक की माँग की जाती है या अधिक पारिश्रमिक का भुगतान कर दिया जाता है तो इससे द्रवित पूँजी उत्पन्न हो जाती है। 4. अमूर्त सम्पत्तियाँ (Intangible assets)- अमूर्त सम्पत्तियाँ जैसे-ख्याति, कॉपीराइट्स, पेटेण्ट, ट्रेडमार्क आदि की उपयोगिता कभी-कभी बाद में कम हो जाती है जबकि चिट्ठे में उसका मूल्य पूर्व की भाँति रहता है इससे भी द्रवित पूँजी की मात्रा बढ़ जाती है। प्रश्न 25. प्रश्न 26. 2. मौसमी अथवा परिवर्तनशील कार्यशील पूंजी (Seasonal or variable working capital)-यह एक ऐसी पूँजी है जिसका उपयोग वर्ष में किसी निश्चित मौसम में ही किया जाता है। साथ ही यह व्यय परिवर्तनशील होता है। इसलिए इसे मौसमी या परिवर्तनशील कार्यशील पूँजी कहा जाता है। जैसे-सर्दी के पूर्व गर्म कपड़े या ऊन खरीदने के लिए, बरसात के पूर्व छाता या बरसाती खरीदने के लिए आदि। जिस वर्ष अधिक बरसात होती है उस वर्ष बरसाती या छाता अधिक बिकता है अतः पूँजी इसी अनुपात में परिवर्तनशील होती है। मौसमी कार्यशील पूँजी अल्पकालीन होती है। अतः इसकी व्यवस्था अल्पकालीन ऋणों द्वारा पूरी की जा सकती है। प्रश्न
27. 1. पूर्वानुमानों पर आधारित (Based on forecasts) वित्तीय नियोजन प्रायः भविष्य की गर्त में देखता है भविष्य की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर पूर्वानुमान लगाया जाता है। भविष्य सदैव अनिश्चित रहता है अतः इस अनिश्चितता के कारण कभी-कभी पूर्वानुसार मान असफल हो जाते हैं जिससे वित्तीय नियोजन असफल हो जाता है। 2. समन्वय का अभाव (Lack of coordination) – वित्तीय नियोजन में संस्था के बाहर के अधिकारियों में समन्वय का होना आवश्यक है। किन्तु कभी-कभी अच्छा समन्वय न रहने से अच्छी-अच्छी वित्तीय योजना भी असफल हो जाती है तथापित यह दोष अधिकारियों का है। 3. परिवर्तित दशाएँ (Changed conditions) – प्रत्येक दिन कुछ न कुछ नया हो जाता है अर्थात् आज जो स्थिति है व कल रहेंगे या नहीं आवश्यक नहीं जबकि वित्तीय नियोजन आज की स्थिति को आधार मानकर किया जाता है। परिस्थितियाँ बदल जाने पर अच्छा से अच्छा वित्तीय नियोजन असफल हो जाता है। 4. मानसिक सीमाएँ (Mental limitations) – वित्तीय योजना बौद्धिक श्रेष्ठता पर निर्भर करती है। अतः वित्तीय प्रबंधकों में अपेक्षित योग्यता न रहने पर भी वित्तीय योजना का सही रूपांकन नहीं हो पाता। प्रश्न 28.
प्रश्न 29.
उत्तर:
प्रश्न 30. 1. ख्याति की हानि–अति-पूँजीकृत कम्पनी के अंशों का वास्तविक मूल्य उनके पुस्तकीय मूल्य से कम हो जाता है तथा लाभांश की दर कम हो जाती है जिससे कम्पनी की ख्याति को हानि पहुँचती है। 2. पूँजी प्राप्ति में कठिनाई अति-पूँजीकृत कम्पनी के बाजार में साख कम हो जाती है तथा लाभांश की मात्रा कम हो जाती है। इससे कोई भी विनियोक्ता ऐसी कम्पनी में विनियोग नहीं करना चाहता है। परिणामस्वरूप पूँजी प्राप्त करने में कठिनाई होती है। 3. ऋण प्राप्ति में कठिनाई अति-पूँजीकरण की स्थिति में कम्पनी की आय कम हो जाने से इनके कोष कम हो जाते हैं जिससे अन्य वित्तीय संस्थाएँ भी इन कम्पनियों को ऋण देने में संकोच करती हैं। इस प्रकार अति-पूँजीकरण की स्थिति में कम्पनियों को ऋण प्राप्ति में कठिनाई होती है। 4. कृत्रिम ऊँची लाभ दर-अति-पूँजीकृत कम्पनी अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिए हिसाब-किताब में गड़बड़ी करके ऊँचे लाभांश की घोषणा करती है। लाभांश पूँजी में से भी दे दिया जाता है। यह गलत नीति आगे चलकर अधिक घातक सिद्ध होती है। प्रश्न 31. 1. आय की स्थिरता (Stability of Earnings) – जिन कंपनियों की आय में लगातार स्थिरता बनी रहती है वे स्थायी वित्तीय व्ययों (जैसे ब्याज का भुगतान) का भुगतान आसानी से कर सकती है। अतः ऐसी कंपनियों को सस्ते वित्त स्रोत का लाभ उठाते हुए वित्त की व्यवस्था ऋण पूँजी से करनी चाहिए। इसके विपरीत, जिन कंपनियों की आय में अस्थिरता रहती है उन्हें ऋण पूँजी निर्गमित करने का जोखिम नहीं उठाना चाहिए। ऐसी स्थिति में ब्याज व मूलधन के भुगतान में कठिनाई आ सकती है जिसके परिणामस्वरूप कम्पनी का समापन भी हो सकता है अतः कहा जा सकता है कि आय कि स्थिरता एवं ऋण पूँजी के प्रयोग में धनात्मक संबंध (Positive relation) है। 2. संपत्ति ढाँचा (Assets Structure) – संपत्ति ढाँचे का अभिप्राय कुल संपत्तियों में स्थायी एवं अस्थायी संपत्तियों के अनुपात से है। जिन कंपनियों में स्थायी संपत्तियाँ अधिक होती हैं वे अधिक ऋण पूँजी प्राप्त कर सकती हैं। इसका कारण यह है कि स्थायी संपत्तियों को प्रतिभूति (Security) के रूप में रखकर ऋण आसानी से लिया जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि पूँजी ढाँचे के निर्माण में संपत्ति का महत्वपूर्ण स्थान है। 3. व्यवसाय का आकार (Size of Business) – जिन कंपनियों के व्यवसाय का आकार बड़ा होता है वे प्रायः अनेक वस्तुओं का उत्पादन करने वाली (Diversified) होती हैं जिसके कारण वे लाभ की स्थिति में रहती है। यही कारण है कि बड़ी कंपनियाँ अपेक्षाकृत आसान शर्तों पर दीर्घकालीन ऋण प्राप्त करने में समर्थ रहती है। इसके विपरीत, छोटे आकार वाली कंपनियों को दीर्घकालीन ऋण लेने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है। 4. ऋण भुगतान क्षमता (Debt Service Capacity) – एक कंपनी की ऋण भुगतान क्षमता जितनी अधिक होती है वह उतनी ही अधिक ऋण पूँजी का प्रयोग करने में सक्षम होती है। ऋण भुगतान क्षमता का अनुमान ब्याज व कर से पूर्व आय (Earning Before Interest and Taxes-EBIT) व ऋणों पर ब्याज के अनुपात से लगाया जाता है। अतः ऋण भुगतान क्षमता एवं पूँजी के प्रयोग में सीधा संबंध है। प्रश्न
32. 2. ऋणपत्रों पर दिये जाने वाले ब्याज में कमी (Reduction in the Interest rate payable on debentures) – इस समस्या से ग्रसित कम्पनी की आय बढ़ाने का एक सुझाव यह भी है कि ऋणपत्रों की ब्याज दर में कमी की जानी चाहिए तथा ऊँची ब्याज दर वाले ऋणपत्रों में परिवर्तित कर देना चाहिए। यदि ऋणपत्रधारी तैयार हों तो बट्टे पर नये ऋणपत्र भी जारी किये जा सकते हैं। 3. ऊँची लाभांश दर वाले पूर्वाधिकार अंशों का विमोचन (Reduction of high dividend preference shares)….जो कम्पनियाँ अति-पूँजीकरण की समस्या से ग्रसित हैं अगर उनमें ऊँची लाभांश दर वाले संचयी पूर्वाधिकार अंश हों तो उनका विमोचन कर देना चाहिए। ऐसा करने से समता अंशधारियों को मिलने वाली आय बढ़ जायेगी और समता अंशों का वास्तविक मूल्य पुस्तकीय मूल्य के बराबर या अधिक हो जायेगा। 4. अंशों की संख्या कम करना (Reducing number of shares) अनेक बार अति-पूँजीकरण को समस्या कम्पनी के अंशों की संख्या कम करके भी ठीक की जा सकती है। इससे प्रति अंश आय बढ़ने से बाजार में मनोवैज्ञानिक आधार पर कम्पनी की साख बढ़ती है और अंशों के मूल्य में सुधार होता है तथा अति-पूँजीकरण की समस्या ठीक हो जाती है। प्रश्न 33. 1. अल्पकालीन वित्तीय नियोजन (Short-term financial planning) – सामान्यतया एक व्यवसाय में एक वर्ष की अवधि के लिए जो वित्तीय योजना बनाई जाती है, वह अल्पकालीन वित्तीय नियोजन कहलाती है। अल्पकालीन वित्तीय योजनाएँ, मध्यमकालीन तथा दीर्घकालीन योजनाओं के ही भाग होते हैं। अल्पकालीन वित्तीय योजना में प्रमुख रूप से कार्यशील पूँजी के प्रबंध की योजना बनाई जाती है तथा उसको विभिन्न अल्पकालीन साधनों से वित्तीय व्यवस्था करने का कार्य किया जाता है। विभिन्न प्रकार के बजट एवं प्रक्षेपित (Project) लाभ-हानि विवरण कोषों की प्राप्ति एवं उपयोग का विवरण तथा चिट्ठा बनाये जाते हैं। 2. मध्यमकालीन वित्तीय नियोजन (Medium-term financial planning) – एक व्यवसाय में वर्ष से अधिक तथा पाँच वर्ष से कम अवधि के लिए जो वित्तीय योजना बनाई जाती है, उसे मध्यमकालीन वित्तीय नियोजन कहते हैं। मध्यमकालीन वित्तीय योजना संपत्तियों के प्रतिस्थापन, रख-रखाव, शोध एवं विकास कार्यों को चलाने, अल्पकालीन उत्पादन कार्यों की व्यवस्था करने तथा बढ़ी हुई कार्यशील पूँजी की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बनाई जाती है। 3. दीर्घकालीन वित्तीय नियोजन (Long-term financial planning) – एक व्यवसाय में पाँच अथवा अधिक अवधि के लिए बनाई गई वित्तीय योजना दीर्घकालीन वित्तीय योजना कहलाती है। दीर्घकालीन वित्तीय योजना विस्तृत दृष्टिकोण पर आधारित योजना होती है जिसमें संस्था के सामने आने वाली दीर्घकालीन समस्याओं के समाधान हेतु कार्य किया जाता है। इस योजना में संस्था के दीर्घकालीन वित्तीय लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु पूँजी की मात्रा, पूँजी ढाँचे, स्थायी संपत्तियों के प्रतिस्थापना, विकास एवं विस्तार हेतु अतिरिक्त पूँजी प्राप्त करने आदि को शामिल किया जाता है। प्रश्न 34. व्यवसाय के संचालन एवं रख-रखाव में जिस पूँजी का प्रयोग किया जाता है उसे सामान्यतः कार्यशील पूँजी कहा जाता है। कार्यशील की गणना – 1. सकल कार्यशील पूँजी- इसका अभिप्राय सभी चालू संपत्तियों जैसे नगद, प्राप्य बिल, पूर्वदत्त व्यय स्टॉक इत्यादि में निवेश करने से है। इन चालू संपत्तियों को एक लेखांकन वर्ष के अंदर नगद में परिवर्तित किया जाता है। 2. शुद्ध कार्यशील पूँजी – इसका अभिप्राय चालू दायित्वों की तुलना में चालू परिसंपत्तियों के आधिक्य से है। चालू दायित्वों का भुगतान लेखांकन वर्ष के अंदर किया जाता है, उदाहरण के लिए, देय बिल, लेनदार इत्यादि। कार्यशील पूंजी की आवश्यकता को निर्धारित करने वाले महत्वपूर्ण निर्धारक-किसी भी व्यवसाय के लिये मात्र स्थायी सम्पत्ति की व्यवस्था कर लेने से उसकी संचालन व्यवस्था नहीं की जा सकती है। व्यवसाय की सामान्य प्रगति के लिये समय-समय पर आवश्यक क्रय करने पड़ते हैं । इसके लिये कार्यशील पूँजी आवश्यक ही नहीं अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है। सामान्यतः एक उपक्रम में कार्यशील पूँजी की आवश्यकता निम्न कार्यों के लिये होती है
MP Board Class 12 Business Studies Important Questions3 ऋण क्या है कैसे ऋण संपत्ति और जाल दोनों हैं?ऋण वह है, जो किसी से माँगा या लिया जाता है। सामान्यतः यह ली गयी संपत्ति को व्यक्त करता है, लेकिन यह शब्द धन की आवश्यकता के परे नैतिक दायित्व एवं अन्य पारस्परिक क्रियाओं को भी व्यक्त करता है। परिसंपत्तियों के मामले में, ऋण कुल जोड़ अर्जित होने के पूर्व वर्तमान में भविष्य की क्रय शक्ति के प्रयोग का माध्यम है।
3 विभिन्न प्रकार के ऋणों को कितने वर्गों में बाँटा जा सकता है नाम लिखिए?ऋणों को सुरक्षित तथा असुरक्षित के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इसके अलावा, वे स्थिर ब्याज दर या फ्लोटिंग ब्याज दर पर आधारित किए जा सकते हैं। सुरक्षित ऋण के मामले में आपको अपना घर या किसी भी अन्य मूल्यवान प्रतिभूति की प्रतिज्ञा आवश्यक है। असुरक्षित ऋण के मामले में ऐसी कोई आवश्यकता नहीं होती है।
बैंकों में ऋण कितने प्रकार के होते हैं?भारत में लोन कितने प्रकार के दिए जाते हैं (Types Of Loan In India). पर्सनल लोन (Personal Loan). गोल्ड लोन (Gold Loan). सिक्यूरिटी के बदले मिलने वाला लोन (Loan against Securities). प्रॉपर्टी लोन (Property Loan). होम लोन (Home Loan). एजुकेशन लोन (Education Loan). वाहन या कार लोन (Vehicle or Car Loan). रण की ऊंची लागत का क्या अर्थ है?(v) ऋण की ऊँची लागत का अर्थ है 'कर्जदार' की आय का अधिकतर हिस्सा ऋण की अदायगी में खर्च हो जाता है। (vi) कुछ मामलों में ऋण की ऊँची ब्याज दरों के कारण कर्ज वापस करने की रकम कर्जदार की आय से भी अधिक हो जाती है।
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