निम्नांकित में कौन फराइजी आंदोलन का नेता था who among the following was the leader of Faraizi movement? - nimnaankit mein kaun pharaijee aandolan ka neta tha who among thai following was thai laiadair of faraizi movaimaint?

फराजी विद्रोह का नेता कौन था?

(A) आगा मोहम्मद रजा
(B) दादू मियां
(C) शमशेर गाजी
(D) वजीर अली

Explanation : फराजी विद्रोह का नेता दादू मियां था। फरैजी लोग बंगाल के फरीदपुर के वासी हाजी शरीयतुल्ला द्वारा चलाए गए सम्प्रदाए के अनुयाई थे। ये लोग अनेक धर्मिक सामाजिक तथा राजनैतिक आमूल परिवर्तनों का प्रतिपादन करते थे। शरीयतुल्ला के पुत्र दादू मियां (1819–60 ई.) ने बंगाल से अंग्रेजों को निकालने की योजना बनाई। यह संप्रदाय भी जमींदारों द्वारा अपने कृषकों पर अत्याचारों के विरोध में था। फरैजी उपद्रव 1838 से 1857 तक चलते रहे। तथा अंत में इस संप्रदाय के अनुयायी वहाबी दल में सम्मिलित हो गए। ....अगला सवाल पढ़े

Tags : आधुनिक भारत प्रश्नोत्तरी इतिहास प्रश्नोत्तरी सर्वोच्च न्यायालय

Useful for : UPSC, State PSC, IBPS, SSC, Railway, NDA, Police Exams

Latest Questions

निम्नांकित में कौन फराइजी आंदोलन का नेता था who among the following was the leader of Faraizi movement? - nimnaankit mein kaun pharaijee aandolan ka neta tha who among thai following was thai laiadair of faraizi movaimaint?

उन्नीसवीं सदी के आरंभ में भारतीय समाज में अनेक प्रकार के परिवर्तन दिखाई दे रहे थे। इस सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटना 1857 का सैनिक विद्रोह था जिसे सन सत्तावन की क्रान्ति के नाम से जाना जाता है। लेकिन इस क्रान्ति और विद्रोह के पीछे उन अनेक छोटे-छोटे आंदोलनों का हाथ था जो हिन्दू और मुस्लिम समाज में नवजागरण के लिए बहुत पहले ही शुरू हो चुके थे। इन नवजागरण आंदोलनों को सुधार आंदोलनों के नाम से भी आज भी इतिहास की पुस्तकों में थोड़ा बहुत ही विवरण मिलता है।

उन्नीसवीं सदी के आरंभ में भारतीय समाज में अनेक प्रकार के परिवर्तन दिखाई दे रहे थे। इस सदी की सबसे महत्वपूर्ण घटना 1857 का सैनिक विद्रोह था जिसे सन सत्तावन की क्रान्ति के नाम से जाना जाता है। लेकिन इस क्रान्ति और विद्रोह के पीछे उन अनेक छोटे-छोटे आंदोलनों का हाथ था जो हिन्दू और मुस्लिम समाज में नवजागरण के लिए बहुत पहले ही शुरू हो चुके थे। इन नवजागरण आंदोलनों को सुधार आंदोलनों के नाम से भी आज भी इतिहास की पुस्तकों में थोड़ा बहुत ही विवरण मिलता है।

मुस्लिम सुधार आंदोलन का इतिहास:

19वीं शरबड़ी में हिन्दू समाज के आंदोलनों की तर्ज़ पर मुस्लिम समाज में भी आंदोलनों के रूप दिखाई देने लगे थे। यह वह समय था जब मुस्लिम समाज मुख्य रूप से दो वर्गों में बंटा हुआ था। एक वर्ग उस मुस्लिम समाज का था जो किसी न किसी कारण से धर्म परिवर्तन करके मुस्लिम बने थे। इस वर्ग में अधिकतर मध्यम और निम्न वर्ग के लोग थे जिनके जीवन स्तर में  इस परिवर्तन के बाद भी कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया था। दूसरा वर्ग उस समाज का था जो मध्यकालीन भारत में राज दरबारों के ऊंचे पदों पर आसीन राजनीतिक रूप से तथाकथित धनी लोग थे। राजनीति में रहने के कारण यही इनका व्यवसाय था जिसके कारण न तो इनहोनें जीवन यापन के लिए अन्य कोई काम किया और न ही इस ओर कोई प्रयत्न किया।

19वीं शतब्दी आने तक इस समाज में शानो-शौकत के दिखावे  के कारण और अन्य कोई काम न करने के कारण केवल खोखलापन ही रह गया। सन सत्तावन की क्रान्ति के बाद मुस्लिम समाज के इस हिस्से पर जो ब्रिटिश शासन का वरद हस्त था, वह भी खत्म हो गया था। इस प्रकार मुस्लिम समाज के अधिकांश लोग नवीन परिवर्तनों को न अपनाने और पुराने रिवाजों को जड़ से पकड़े रहने के कारण सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े ही रह गए थे। इस समय मुस्लिम समाज के कुछ विधवानों ने समय की नज़ाकत को समझते हुए इस समाज को नवीन परिवर्तन की हवा के रुख से पहचान करवाने का बीड़ा उठा लिया। इस प्रकार मुस्लिम समाज में शुरू किए गए आंदोलन का मुख्य उद्देशय लोगों को कुरान के संदेश और जीवन जीने की पद्धति में अंतर समझाना था। इसके लिए उन्होनें कुरान की आयतों को तात्कालिक जरूरतों के अनुसार व्याख्या करने का प्रयास भी किया। लेकिन रुधिपंथियों को यह प्रयास रास नहीं आया और उन्होनें इन आंदोलनों का पुरजोर विरोध किया। इसके बावजूद मुस्लिम सुधारकों ने अपने प्रयास जारी रखे और वहाबी आंदोलन और फराजी आंदोलन इनके प्रयासों के ही परिणाम थे।

वहाबी आंदोलन:

वहाबी आंदोलन का नाम अरब के सुधारक अब्दुल अल वहाब (1703-87) के नाम पर पड़ा था। भारत में इस आंदोलन को शुरू करने वाले 1786 में जन्में सैयद अहमद बरेलवी थे। एक मुस्लिम सुधार आंदोलन के रूप में शुरू हुआ यह प्रयास जल्द ही पूरे भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध की गई क्रान्ति के रूप में बदल गया था। सैयद अहमद , अब्दुल अल वहाब के विचारों से प्रभावित हुए और उन्होनें एक कट्टर धर्मयोद्धा के रूप में भारत में भी इसे एक आंदोलन के रूप में शुरू कर दिया।

वहाबी आंदोलन की शुरुआत:

सैयद अहमद ने जब दिल्ली में रहने वाले संत शाह वसिमुल्लाह के विचारों को सुना तो वो उनसे प्रभावित होकर उन्हें अपने आंदोलन का हिस्सा बना लिया। वसिमुल्लाह का मानना था कि भारत में पहले की भांति मुस्लिम प्रशासन लागू होना चाहिए और इसके लिए ब्रिटीश शासन का विरोध करना जरूरी है। उनके अनुसार ब्रिटीश शासकों ने भारत को ‘दार-उल-हर्ष’ (दुश्मनों का देश) बना दिया है और उन्हें इसे पुनः ‘दार-उल-इस्लाम’ (इस्लाम का देश) बनाना है। इस उद्देशय की पूर्ति के लिए वसिमुल्लाह ने अहमद बरेल्वी को इस आंदोलन का नेता (इमाम) मानते हुए उनकी सहायता के लिए एक परिषद् का भी गठन कर दिया।

वहाबी आंदोलन का शुरुआती केंद्र:

अहमद बरेल्वी ने नेतृत्व समहालते ही सम्पूर्ण भारत का दौरा करके मुस्लिम बहुत क्षेत्रों की पहचान करके आंदोलन के लिए हथियारों की आवश्यकता को भी महसूस किया। इस दिशा में उन्होनें भारत का पश्चिमोत्तर प्रांत सिधाना को सबसे पहले चुना। इस इलाके में काबाइलों का आधिपत्य था और इसके साथ ही सम्पूर्ण भारत में इस परिषद् के स्थानीय कार्यालय खोलकर इस आंदोलन का विस्तार भी किया गया।

किसान समाज में वहाबी आंदोलन:

अहमद द्वारा निर्धारित स्थानीय कार्यालयों में बंगाल में किसान समाज का इस आंदोलन में योगदान अधिक माना जाता है। बंगाल में इस आंदोलन का नेता तीतु मीर था जो बाद में अँग्रेजी सेना के साथ लड़ते हुए मारा गया। इसके बाद बंगाल का वहाबी आंदोलन थोड़ा कमजोर हो गया था

पटना में आंदोलन का रूप:

पटना में वहाबी आंदोलन को न केवल ज़िंदा रखने और बल्कि ज़ोर-शोर से आगे बढ़ाने में विलायत अली और इनायत अली का हाथ माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि अहमद बरेलवी की मृत्यु के बाद आंदोलन का मुख्य केंद्र पटना निर्धारित हुआ और इनायत अली को यहाँ का नेता चुन लिया गया। लेकिन ब्रिटीश सरकार ने इस आंदोलन को जड़ से खत्म करने का पुरजोर प्रयास किया और वे इसमें सफल भी रहे।

वहाबी आंदोलन वास्तव में क्या था:

दरअसल वहाबी आंदोलन की शुरुआत तो मुस्लिम सुधार आंदोलन के रूप में की गई थी जिसका उद्देशय मुस्लिम समाज के रूढ़िवादी लोगों को परिवर्तन की जरूरत महसूस करवानी थी। लेकिन बाद में बंगाल के किसान समाज द्वारा इस आंदोलन में बढ़चड़ कर हिस्सा लेने के कारण यह सामाजिक और धीरे-धीरे ब्रिटीश शासन के विरुद्ध क्रान्ति के रूप में बदल गया। इस प्रकार इस आंदोलन ने भारतीय समाज के मानस में क्रान्ति के बीज बो दिये थे जो सन 1857 की क्रान्ति के परिणाम के रूप में फलीभूत हो गए थे

फराजी आंदोलन:

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य 1837-38 के समयकाल में भारत में विभिन्न प्रकार के मुस्लिम सुधार आंदोलन शुरू हो गए थे। इन्हीं में एक था फराजी आंदोलन जो मूल रूप से पूर्वी बंगाल में शुरू हुआ था।

आंदोलन का नाम फराजी क्यों पड़ा:

यह आंदोलन मुस्लिम सुधारकों के अनुसार ‘फ़रेद’ सिद्धान्त पर बल देते थे जिसका अर्थ होता है इस्लाम धर्म के मूल सिद्धान्त। इसी कारण इस आंदोलन के नेतृत्व ने इसे फ़राज़ी नाम दिया। वास्तव में इस आंदोलन की शुरुआत बंगाल के फरीदपुर के रहने वाले हाजी शरीयत अलाह ने की थी। उनका मानना था कि भारत अब दारुल हर्ब (ऐसा देश जहां गैर मुस्लिम शासन करते हों) हो गया है इसलिए मुस्लिम समुदाय को ईद व जुम्मे की नमाज़ को पढ़ना छोड़ देना चाहिए।

हाजी शरीअत ने इस आंदोलन को व्यवस्थित रूप से गाँव से लेकर प्रांतो तक विस्तृत रूप में फैला दिया था। मूल रूप से यह आंदोलन बंगाल के जैसोर, बारसाल, पाबना और माल्दा में फैला हुआ था। लेकिन समय के साथ इस अनदोलन में सामाजिक प्रताड़ित किसान भी जुडते गए और आंदोलन का उद्देश्य जमींदारों और ब्रिटीश शासकों के अत्याचार के विरुद्ध आवाज़ उठाना भी इसमें जुड़ गया। इस आंदोलन से जुड़े नेता अब किसानो को ब्रिटीश शासकों द्वारा नील व अफीम की खेती में ज़बरदस्ती जोड़े जाने और जमींदारों द्वारा विभिन्न प्रकार के करों के भुगतान के लिए ज़बरदस्ती का विरोध भी कर रहे थे। लेकिन ब्रिटीश शासकों ने इस आंदोलन को बहुत आसानी से खत्म कर दिया था।

1840 के बाद हाजी शरीयुतल्लाह के पुत्र दादू मियां ने इस आन्दोलन की बागडोर बहुत खूबसूरती से सम्हाली। इनके नेतृत्व में विभिन्न गांवों के नील फैक्ट्रियों को और जमींदारों को लूट कर अपना विरोध प्रकट किया। इस आंदोलन को उस समय चल रहे वहाबी आंदोलनकारियों का भी पूर्ण समर्थन प्राप्त था। किन्तु इन सभी संघर्षों को अंग्रेजों ने आसानी से दमन कर दिया|

फराजी का पतन:

1847 में अँग्रेजी सरकार ने दादू मियां को राजविद्रोह का आरोप लगाकर जेल में डाल दिया। वहीं 1862 में इनकी मृत्यु के बाद फैराजी आंदोलन दिशाहीन होकर खत्म हो गया।

आखिरी में:

इतिहासकार यह मानते हैं कि उन्नीसवीं शताब्दी वास्तव में पुनर्जागरण का समय था। इस समय हिंदुस्तान के सभी धर्म प्रचारक रुदीवादिता को पीछे छोड़कर नए परिवर्तनों को स्वीकार करने के लिए जनता का आव्हान कर रहे थे। लेकिन अधिकतर आंदोलन क्रान्ति का रूप नहीं ले सके क्योंकि परंपरावादियों की पकड़ ज़्यादा मजबूत थी। 

निम्नांकित में कौन फराइजी आंदोलन का नेता था?

फराजी आंदोलन : इस आंदोलन की शुरुआत हाजी शरियत-अल्लाह ने की थी।

निम्नांकित में कौन फराइजी आंदोलन का नेता था who among the following was the leader of Faraizi movement?

हाजी शरियतुल्लाह का मुख्य उद्येश्य इस्लाम धर्म के लोगों को सामाजिक भेदभाव एवं शोषण से बचाना था। परंतु शरियतुल्लाह की मृत्यु के पश्चात सन् 1840 ई० में इस आंदोलन का नेतृत्व उनके पुत्र दूदू मियाँ के द्वारा संभालने पर इस आंदोलन ने क्रांतिकारी रूप अख्तियार कर लिया।

निम्नांकित में से कौन वहाबी आंदोलन का संस्थापक था?

वहाबी आंदोलन या सलफ़ी आंदोलन एक अतिवादी इस्लामी आंदोलन है जिसका श्रेय इमाम मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब (1822-1868) को दिया जाता है।

वहाबी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य क्या था?

वहाबी आंदोलन मुख्य रूप से एक पुनरुत्थानवादी आंदोलन था जिसका उद्देश्य पैगंबर के समय के शुद्ध इस्लाम और समाज की ओर लौटना था। सैयद अहमद द्वारा आयोजित वहाबी आंदोलन का मकसद यह था कि इस्लाम की सच्ची भावना की वापसी सामाजिक-राजनीतिक उत्पीड़न से छुटकारा पाने का एकमात्र तरीका था