माध्यमिक स्तर पर जीव विज्ञान शिक्षण की आवश्यकता क्यों है? - maadhyamik star par jeev vigyaan shikshan kee aavashyakata kyon hai?

4. विश्लेषण-संश्लेषण विधियाँ :

आगमन तथा निगमन विधियों की भाँति यह भी दो भिन्न विधियों-विश्लेषण विधि एवं संश्लेषण विधि से मिलकर बनी है। अगर कोई समस्या या कोई वस्तु किसी की समझ में नहीं आये तो उसे खोलकर अथवा उसके संघटक अंगों में विभाजित करके समझाना जरूरी होता है। खण्ड-खण्ड करके किसी बात को समझाना ही विश्लेषण विधि है। समस्या के हर पहलू को समझ लेने के पश्चात समग्र रूप से समझना कठिन नहीं होता। इस तरह खण्ड-खण्ड करके समझने के पश्चात पूरी वस्तु को जोड़कर बताने को संश्लेषण विधि कहते हैं। संश्लेषण में हम उचित तथ्यों को इकट्ठा करके समग्र वस्तु की वास्तविक प्रकृति की खोज करते हैं।

(अ) विश्लेषण विधि ;

यह एक खोज करने की विधि है, जिसमें छात्र एक अन्वेषक के रूप में कार्य करता है। जिस बात को समझना हो या जिस समस्या का हल करना हो इसे पहले उपयुक्त तथा छोटे खण्डों में इस तरह विभाजित किया जाता है ताकि वह इतनी छोटी हो जाय कि छात्र उसे आसानी से समझ सके। इसके बाद शिक्षक उचित प्रश्नों द्वारा एवं अनुकूल वातावरण उपस्थित करके हर खण्ड को समझाने का प्रयास करता है। छात्र उस पर गहराई से विचार करके समस्या के वास्तविक स्वरूप को समझने में कुशलता प्राप्त करता है। जीव विज्ञान तथा गणित के अध्ययन में विश्लेषण विधि बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती है।

उदाहरण-

(1) छाया में बोये गये पौधों की पत्तियों का मुरझाकर पीला होना,

(2) प्रयोगशाला विधि से कार्बन डाई-ऑक्साइड गैस बनाने के प्रयत्न में गैस एकत्रित नहीं होना,

(3) घर में एक पानी से भरे काँच के पात्र में मछली को जिन्दा रखने का प्रयास करने पर कुछ ही घण्टों बाद उसका मर जाना,

(4) बन्द बर्तन में रखी गयी रोटी के टुकड़े में फफूंदी लगना। उपरोक्त सभी ऐसी समस्याएँ हैं, जिनके कारण छात्र को अज्ञात हैं, शिक्षक उक्त समस्याओं को ऐसे सरल अंशों में विभाजित करने में मदद करता है, जिनका हल छात्रों को ज्ञात होता है। इस तरह छात्र जटिल समस्याओं को सरल समस्याओं में तोड़कर उसके वास्तविक स्वरूप को समझ जाते हैं।

विश्लेषण पद्धति के आधारभूत सिद्धान्त-

1. खण्ड से समग्र की ओर- समग्र की बजाय खण्डों को समझना सरल है, यह एक अनुभव गम्य तथ्य है कि किसी जटिल वस्तु को सीधे समझ सकने की बजाय उसके किसी एक अंश को समझना आसान है। उदाहरणार्थ- रेडियो अथवा घड़ी या वाष्प चालित यन्त्रों को समझने की बजाय उनके एक-एक पुर्जे को समझना ज्यादा आसान है।

2. अज्ञात से ज्ञात की ओर- जिस तरह निगमन विधि में अज्ञात से ज्ञात की ओर चलते हैं, ठीक उसी तरह इस विधि में भी शिक्षक को अज्ञात से ज्ञात की ओर चलना पड़ता है। दूसरे शब्दों में, समग्र वस्तु अथवा समस्या जो अज्ञात है, उसे समझाने हेतु उसके खण्डों को बताते हुए ज्ञात की ओर बढ़ते हैं।

विश्लेषण विधि के गुण -

विश्लेषण विधि के निम्न गुण अथवा विशेषताएँ हैं-

(1) इस विधि में छात्र शिक्षक की बजाय क्रियाशील रहता है।

(2) इसमें छात्रों में सही ढंग से विचार करने की आदत पड़ती है, जो उनके दैनिक जीवन में काम आती है।

(3) है इस विधि में समस्या हल करने की योग्यता का विकास होता है।

(4) छात्रों में बुद्धि, कल्पना तथा चिन्तन शील शक्ति का विकास होता है।

(5) इसमें छात्र स्वयं ज्ञान अर्जित करते हैं इसलिए अर्जित ज्ञान स्थायी होता है।

(6) छात्र में आत्म-विश्वास बढ़ता है।

विश्लेषण विधि के दोष-

इस विधि की विशेषताओं के साथ कुछ दोष भी हैं, जो निम्न हैं-

(1) इस विधि में समय ज्यादा लगता है।

(2) यह विधि स्वयं में एक पूर्ण विधि नहीं है, क्योंकि जो बात छात्रों ने विश्लेषण से सीखी है, उसका समग्र रूप भी उनको स्पष्ट होना चाहिए।

(3) इसमें अज्ञात से ज्ञात की ओर बढ़ते हैं इसलिए यह एक अमनोवैज्ञानिक विधि है।

(ब) संश्लेषण विधि

किसी वस्तु अथवा समस्या को छोटे-छोटे खण्डों में विभाजन करने मात्र से ही उसका सम्पूर्ण तथा सही ढाँचा ज्ञात नहीं हो पाता। अतः विश्लेषण विधि द्वारा प्राप्त खण्डवार जानकारी को क्रमबद्ध रूप से जोड़कर एक निश्चित रूप दिया जाता है।

समस्त बात को समझने के पश्चात ही किसी निर्णय पर पहुंचा जा सकता है। इस विधि में खण्ड-खण्ड को जोड़कर पूरी बात समझी जाती है तथा फिर यह निर्णय लिया जाता है कि उस बात का क्या महत्व है ?

संश्लेषण विधि के आधारभूत सिद्धान्त- इस विधि के निम्न आधारभूत सिद्धान्त दर्शाये गये हैं-

(1) अंश की बजाय पूर्ण को समझना ज्यादा अच्छा है। किसी एक अंश को ही समझकर किसी निश्चित स्वरूप अथवा निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सकता है। सही निर्णय हेतु सभी अंगों की जानकारी के कारण पहले सम्पूर्ण को निश्चित करना जरूरी है।

(2) किसी बात को भले ही खण्ड-खण्ड करके समझा जाये, लेकिन पूरी बात समझने के पश्चात ही आगे बढ़ सकते हैं।

स्पष्टीकरण- एक ही समान खाद पड़ी दो क्यारियों में बीज बोये गये तथा पानी से उन्हंस सींचा गया। दोनों पर सूर्य का प्रकाश भी पर्याप्त पड़ रहा है। दो दिन के पश्चात यह देखा गया कि एक क्यारी में बीजों का अंकुरण हुआ है पर दूसरी में बिल्कुल नहीं। खोज करने पर यह पता चला कि दूसरी क्यारी में पानी इतना दिया गया कि बीज दो दिनों तक उसमें डूबे रहे। अतः उसमें हवा नहीं मिल सकी। पहली क्यारी में पानी में मिट्टी पर्याप्त गीली थी तथा बीज को हवा मिल रही थी। दूसरी क्यारी में पानी सोख लिए जाने के पश्चात चौथे दिन उसमें भी बीजों का अंकुरण हुआ।

उपरोक्त उदाहरण की जानकारी को अगर संश्लेषित किया जाय तो हम कह सकते हैं कि बीजों के अंकुरण हेतु पानी तथा ताप (सूर्य प्रकाश) के अलावा हवा भी एक अनिवार्य शर्त है अथवा दूसरे शब्दों में अंकुरण के लिए पानी, हवा तथा ताप तीनों की जरूरत है। संश्लेषण द्वारा यह नियम निश्चित होता है। संश्लेषण विधि तथा आगमन विधि द्वारा नियमीकरण में कोई विशेष अन्तर नहीं है, अन्तर सिर्फ पहुंच का है।

संश्लेषण विधि के गुण -:

संश्लेषण विधि की निम्न विशेषताएँ हैं-

(1) यह ज्ञात से अज्ञात की तरफ चलती है।

(2) यह मनोवैज्ञानिक विधि है, क्योंकि विश्लेषण के पश्चात संश्लेषण की जरूरत होती है।

(3) इसमें समय कम लगता है।

(4) छात्र उलझन में नहीं पड़ते।

(5) इसमें कमजोर छात्र लाभान्वित होते हैं।

संश्लेषण विधि के दोष- संश्लेषण विधि के निम्न दोष हैं-

(1) यह रटने की प्रवृत्ति को जन्म देती है।

(2) इसके द्वारा नई बात को खोजा नहीं जा सकता।

(3) छात्रों की कल्पना शक्ति का विकास नहीं होता।

निष्कर्ष- विश्लेषणात्मक तथा संश्लेषणात्मक दोनों विधियों की तुलना करने से ऐसा प्रतीत होता है कि विश्लेणात्मक विधि ज्यादा उपयोगी है, पर हम संश्लेषणात्मक विधि को भी नहीं छोड़ सकते। यथार्थ में दोनों ही विधियाँ स्वयं में अपूर्ण हैं। विश्लेषण के बगैर संश्लेषण का और संश्लेषण के बगैर विश्लेषण का कोई अस्तित्व ही नहीं। दोनों एक-दूसरे की पूरक एक के गुण दूसरी के दोष तथा दूसरी के गुण पहली के दोष बन जाते हैं। विश्लेषण संश्लेषण की तरफ ले जाता है तथा संश्लेषण विश्लेषण के उद्देश्य को स्पष्ट तथा पूर्ण करता है। इसलिए दोनों ही विधियों का मिश्रित रूप अर्थात विश्लेषण-संश्लेषण विधि ही शिक्षण की एक उत्तम प्रणाली बन सकती है।

5. प्रयोगशाला विधि :

प्रयोगशाला विधि में छात्रों को स्वयं प्रयोगशाला में प्रयोग करने का अवसर प्राप्त होता है। छात्रों को जरूरी निर्देश देकर उपकरण दे दिये जाते हैं, जिनकी मदद से वह स्वयं निरीक्षण करते हैं, परीक्षण करते हैं या चीरफाड़ करते हैं। गणनाओं को लिखकर स्वयं परिणाम निकालते हैं अथवा उपकरण एवं जीव-जन्तु का चित्र खींचते हैं। अगर किसी छात्र को कोई शंका अथवा कठिनाई होती है तो शिक्षक उनका समाधान करते हैं तथा जरूरी मार्गदर्शन करते हैं। इस विधि में छात्र अधिकतम सक्रिय रहता है, जबकि शिक्षक निरीक्षण करते रहते हैं।

माध्यमिक शालाओं में सप्ताह में दो-दिन प्रायोगिक कार्य हेतु रखे जाते हैं, जिनमें दो लगातार कालखण्डों की व्यवस्था की जाती है। पूरे सत्र भर के पाठ्यक्रम को सुविधानुसार बाँट लिया जाता है। प्रयोग से संबंधित सैद्धान्तिक जानकारी शिक्षक अन्य कालखण्डों में छात्रों को दे देता है तथा समस्या का हल करने हेतु छात्र प्रयोगशाला में स्वयं प्रयोग करते हैं।

प्रयोगशाला विधि के गुण- प्रयोगशाला विधि के गुण निम्न हैं-

(1) यह समस्या हल करने की एक उत्तम विधि है। समस्या का हल प्रयोगों के आधार पर किया जाता है, अतः विषय रुचिकर तथा सार्थक बन जाता है।

(2) छात्रों में निरीक्षण, तर्क तथा निर्णय शक्ति आदि गुणों का विकास होता है।

(3) छात्रों में उपकरणों को सावधानीपूर्वक उपयोग करने की क्षमता तथा प्रयोगशाला कुशलता आती है।

(4) छात्रों में आत्म-विश्वास, आत्म-निर्भरता एवं आत्म-अनुशासन का विकास होता है।

(5) छात्र स्वयं अपने हाथों से कार्य करके सीखता है। इससे छात्र के प्रति आदर की भावना का संचार होता है तथा स्थायी ज्ञान प्राप्त होता है।

(6) छात्रों को जीव विज्ञान संबंधी नियमों तथा तथ्यों की जाँच करने का अवसर मिलता है। उनकी सत्यता वह स्वयं सिद्ध करता है।

(7) उच्च कक्षाओं में इसका शैक्षिक महत्व और भी बढ़ जाता है।

प्रयोगशाला विधि के दोष-

प्रयोगशाला विधि के दोष निम्न हैं-

(1) इसमें व्यक्तिगत उपकरणों की व्यवस्था जरूरी है, अतः यह खर्चीली विधि है।

(2) कई प्रयोग वास्तविक समस्याएँ नहीं होते, अतः प्रायोगिक कार्य नीरस हो जाता है।

(3) छात्रों के परिणाम तथा निष्कर्ष पर निगरानी जरूरी है अन्यथा वह नकल करते हैं।

(4) यह निश्चित नहीं है कि वैज्ञानिक विधि से समस्याओं को हल करना सीखा जाय। इसलिए बाद के जीवन में इसकी उपयोगिता संदिग्ध है।

(5) कुछ ऐसे तथ्य भी हैं जिन्हें प्रयोगशाला विधि की बजाय प्रदर्शन विधि से ज्यादा अच्छी तरह समझाया जा सकता है।

(6) छात्र प्रायोगिक कार्य में दक्ष नहीं होता, अतः ज्यादा समय नष्ट होता है।

(7) अगर शिक्षक निष्क्रिय हो तो यह विधि सफल नहीं होती।

(8) अगर उपकरण नाजुक हों तो छात्रों द्वारा उनके टूटने का भय रहता है।

(9) खतरनाक प्रयोगों में थोड़ी सी सावधानी दुर्घटनाओं का कारण बन सकती है।

प्रयोगशाला विधि में प्रायोगिक कार्य का रचनात्मक संगठन- प्रायोगिक कार्य के उचित संगठन हेतु निम्न बातों पर ध्यान दिया जाय-

(1) प्रायोगिक कार्य छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल हों।

(2) प्रायोगिक कार्य से संबंधित जरूरी बातों की पूर्व जानकारी (प्रयोग का सिद्धान्त, विधि तथा सावधानी आदि) छात्रों को देना जरूरी है।

(3) उद्देश्य तथा विधि बताने के पश्चात शिक्षक को आगे और नहीं बताना चाहिए। उसे सिर्फ प्रारम्भिक जानकारी देनी चाहिए; जैसे-क्या निरीक्षण करना है; पर क्या दिखाई देगा, इसे नहीं बताना चाहिए।

(4) जब दो अथवा तीन छात्रों के बीच में प्रायोगिक कार्य सम्पन्न कराया जाय तो, शिक्षक को यह देखना चाहिए कि सिर्फ एक ही छात्र प्रयोग न करे तथा दूसरे सिर्फ रिकार्ड न करते रहें अन्यथा सबल व्यक्तित्व वाला छात्र ही प्रयोग करेगा तथा अन्य सिर्फ दर्शक बने रहेंगे।

(5) शिक्षक को यहाँ से वहाँ ग्रुप में जाकर छात्रों को प्रोत्साहन देना, विधियों को स्पष्ट करना, गलतफहमी दूर करना आदि कार्य करते रहना चाहिए।

(6) शिक्षक को बार-बार 'घोषणाएँ' भी नहीं करते रहना चाहिए अन्यथा प्रायोगिक कार्य में बाधा पड़ती है।

(7) प्रयोग करते समय छात्रों से व्यक्तिगत सम्पर्क स्थापित कर शिक्षक को उनकी कठिनाइयों का निवारण करना चाहिए। साथ ही निरीक्षण संबंधी प्रश्न भी पूछने चाहिए।

(8) प्रयोगशाला में अनुशासन बनाये रखने हेतु इधर-उधर जाना कम से कम होना चाहिए। बातचीत भी प्रयोग से संबंधित की जाय लेकिन उच्च आवाज में नहीं, इसका शिक्षक ध्यान रखें। लेकिन यह भी सत्य है कि एकदम खामोशी की बजाय जिज्ञासावश बातचीत करते हुए छात्र अच्छे होते हैं।

(9) जिन प्रयोगों को करने हेतु छात्रों को कहा गया है, उनको छोड़कर किसी भी अन्य प्रयोग को नहीं करना चाहिए।

(10) प्रयोग खत्म करने के बाद मेज को साफ करना एवं करणों को साथ-सुथरा रखना भी छात्रों को सिखाना जरूरी है।

(11) प्रयोग का रिकार्ड रखना भी महत्वपूर्ण है। परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के अनुसार इसमें अन्तर हो सकता है फिर भी उसका एक निर्धारित प्रारूप होता है; यथा-उद्देश्य, विधि, अवलोकन निष्कर्ष, प्रयोग संबंधी चित्र नामांकित हों, चार्ट तथा ग्राफ भी सम्पूर्ण हों, ताकि समय की बचत हो एवं विस्तार से लिखने की जरूरत ही न पड़े।

प्रयोगशाला विधि की उपयोगिता –

प्रयोगशाला विधि की उपयोगिता निम्न रूप में दृष्टिगोचर होती है-

विज्ञान विषय के अध्यापन उद्देश्यों को प्राप्त करने में प्रयोगशाला तथा प्रदर्शन दोनों विधियों का अपना अलग-अलग महत्व है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि व्यक्तिगत अध्यापन से पाठ्य-वस्तु ज्यादा स्पष्ट होती है एवं इस विधि से प्राप्त ज्ञान भी स्थायी होता है। इसके लिए प्रयोगशाला विधि बहुत उपयुक्त है। यह मन्द बुद्धि के छात्रों हेतु भी ज्ञान पेश करने एवं उनकी समस्याओं के निराकरण के लिए बहुत उपयोगी है। इसके अलावा इस विधि से वैज्ञानिक दृष्टिकोण, कौशल, आत्म-विश्वास आदि गुणों के साथ ही साथ समस्याओं को हल करने की योग्यता का विकास भी होता है जो कि उनके दैनिक जीवन में उपयोगी है। इस दृष्टि से यह विधि प्रदर्शन विधि से ज्यादा उपयोगी मानी जा सकती है।

6. अन्वेषण विधि :

इस विधि के जन्मदाता प्रोफेसर आर्मस्ट्रांग हैं। विज्ञान शिक्षण को सफल बनाने हेतु इस पद्धति का प्रयोग किया गया। “Heurisco” नामक ग्रीक शब्द से इस विधि का विकास हुआ है जिसका अर्थ है-मैं स्वयं खोजता हूं। “I find out my self.” इस विधि का प्रमुख उद्देश्य छात्रों में अन्वेषण प्रवृत्ति को जाग्रत करना है एवं छात्र को चिन्तन, अवलोकन, निरीक्षण है तथा प्रयोग एवं निरीक्षण कर सही निष्कर्ष निकालने में है। शिक्षाशास्त्री हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार-“बालकों को कम से कम बताना चाहिए तथा उन्हें अधिक से अधिक स्वयं खोज निकालने हेतु प्रेरित करना चाहिए।"

आर्मस्ट्रांग के अनुसार- “अनुसंधान विधियाँ शिक्षण की वह विधियाँ हैं जिसमें हम छात्रों को यथासम्भव तथा अनुसंधानकर्ता अथवा खोजों की स्थिति में रखना चाहते हैं, अर्थात् यह वह विधियाँ हैं जिनमें सिर्फ वस्तुओं के विषय में कहे जाने से उनकी खोज को जरूरी माना गया है।

अन्वेषण विधि के उद्देश्य-

अन्वेषण विधि के निम्न उद्देश्य हैं-

(1) छात्रों में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करना।

(2) छात्रों में वैज्ञानिक अभिरुचि तथा अभिवृद्धि पैदा करना।

(3) छात्रों में स्वयं करके' भावना का विकास कर तथ्य को सीखना।

(4) वैज्ञानिक ढंग से किसी तथ्य पर चिन्तन कर निष्कर्ष निकालना।

(5) स्वावलम्बी तथा आत्म निर्भर बनाना।

अन्वेषण विधि के सिद्धान्त-

यह विधि निम्न चार सिद्धान्तों पर आधारित है-

1. करके सीखना- इस विधि में छात्र प्रयोग करके सीखता है। इसलिए चिन्तनशीलता, आत्मानुशासन, परिश्रम करने की आदत एवं आत्म-विश्वास पनपता है।

2. मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण- इस विधि में छात्रों की मानसिक शक्तियों तथा मनोभावों के अनुरूप पाठन होता है। इसलिए वह अपनी रुचि तथा योग्यता के अनुरूप ज्ञान प्राप्त कर उन शक्तियों का विकास करते हैं।

3. वैज्ञानिक दृष्टिकोण- इस विधि द्वारा छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा किया जा सकता है। इससे उनमें वैज्ञानिक अभिरुचि एवं निरीक्षण शक्ति का विकास होता है।

4. क्रियाशीलता- छात्र किसी समस्या का प्रयोग करके जब हल निकालते हैं, क्रियाशील रहकर ही वह निकालते हैं, मूक बनकर सुनते नहीं।

अन्वेषण विधि का प्रयोग कैसे करें? इस विधि में छात्रों के सामने कोई समस्या पेश कर दी जाती है। छात्र एक स्वतन्त्र वातावरण में उस पर विचार करते हैं, पुनः छात्र एक स्वतन्त्र वातावरण में उस पर विचार कर निष्कर्ष निकालते हैं। अध्यापक समस्या से संबंधित निर्देश भी छात्रों को दे देता है।

छात्र समस्या के विभिन्न अंगों का विश्लेषण करते हैं, पारस्परिक विचार-विमर्श भी करते हैं, स्वाध्याय करते हैं, पुनः अध्यापक का मार्गदर्शन लेते हैं। यह विचारणीय है कि छात्रों को यहाँ स्वतन्त्र रूप से खोज करने का अवसर दिया जाता है। अध्यापक निक्रिय रहता है एवं छात्र सक्रिय। छात्रों में तार्किक शक्ति, निरीक्षण शक्ति तथा निर्णय लेने की शक्ति को पर्याप्त अवसर मिलता है एवं वे साथ-साथ विकसित होती रहती हैं। इस विधि की उपादेयता के संबंध में एक शिक्षाशास्त्री ने कहा है-“इस विधि का उद्देश्य छात्रों को निरीक्षण के अवसर देते हुए ज्ञान प्राप्त करने की प्रेरणा देना है।"

अन्वेषण विधि के गुण-

इस विधि के निम्न गुण (विशेषताएँ) हैं-

(1) इस विधि से छात्र में सोचने, विचारने, निरीक्षण करने तथा परीक्षण कर निष्कर्ष निकालने की शक्ति का विकास होता है।

(2) यह विधि मनोवैज्ञानिक है; अनुकूल रुचियों तथा आदतों का विकास करती है।

(3) छात्र क्रियाशील रहते हैं तथा इससे अर्जित ज्ञान स्थायी होता है।

(4) छात्र में स्वयं करके सीखने की प्रवृत्ति का विकास होता है।

(5) छात्रों में आत्मानुशासन, आत्म-संयम तथा आत्म-विश्वास जाग्रत होता है।

(6) वैज्ञानिक अभिरुचि तथा दृष्टिकोण पैदा करती है एवं अवलोकन और प्रयोग पर बल देती है।

(7) इस विधि में हर छात्र को सीखने का अवसर मिलता है। वह अध्यापक के सम्पर्क में रहता है इसलिए कठिनाई का निवारण भी होता है।

(8) इससे समस्या पर विस्तृत रूप से चिन्तन का अवसर मिलता है। इसलिए सोचने के आधार के साथ-साथ स्वाध्याय की भी आदत बनती है।

अन्वेषण विधि के दोष -

इस विधि के निम्न दोष हैं-

(1) छोटी कक्षाओं हेतु यह विधि उत्तम नहीं है, क्योंकि उच्च स्तर पर ही निरीक्षण शक्ति मौजूद होती है।

(2) प्रतिभाभान छात्रों हेतु उत्तम है, पूरी कक्षा के लिए उत्तम नहीं है।

(3) अल्प आयु के छात्र सही निरीक्षण नहीं कर पाते तथा न सही निष्कर्ष निकाल पाते हैं।

(4) इस विधि हेतु विद्यालयों में पर्याप्त उपकरण, वस्तुएँ तथा पुस्तकों का अभाव रहता है इसलिए सर्वत्र निषेध है।

(5) विशेष ढंग से विद्वान व्यक्ति ही इस विधि का प्रयोग कर पढ़ा सकते हैं। हर एक के लिए हर पाठ इस विधि से पढ़ाना उपयुक्त नहीं है। प्रशिक्षित, योग्य, निष्ठावान, परिश्रमी, आत्म-निर्भर तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले शिक्षकों का अभाव है।

(6) मन्द बुद्धि के छात्र आगे नहीं बढ़ पाते एवं पाठ्यक्रम धीरे-धीरे आगे बढ़ता है। अपव्यय ज्यादा होता है।

(7) उच्च स्तर हेतु ही उपयोगी है, क्योंकि क्षमता के अनुरूप सेकेण्डरी स्तर पर ही वह समस्या का विश्लेषण कर पाता है।

7. पर्यटन विधि :

इस विधि के जन्मदाता पेस्टालॉजी हैं। यह विधि प्रकृतिवादी दर्शन शिक्षा पर आधारित है। इन शिक्षाशास्त्रियों ने कहा है कि “पर्यटन छात्र की शिक्षा का महत्वपूर्ण साधन है।” पर्यटन एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा छात्र अपने ज्ञान को प्रत्यक्षतः देखकर स्थायी तथा सुदृढ़ बनाता है, जैसे-विद्युत उत्पादन हेतु बिजलीघर जाकर दिखाना पड़ेगा। जल में रहने वाले जीवों हेतु जलाशय के किनारे ले जाना होगा। इसी तरह दैनिक जीवन में काम आने वाली वस्तुओं-साबुन, पाउडर तथा प्लास्टिक आदि के बारे में इनकी फैक्टरी के पास ले जाना पड़ेगा। इससे छात्र में सूक्ष्म निरीक्षण करने, अपनी मानसिक शक्तियों का विकास करने, अपनी जिज्ञासा एवं अन्वेषण प्रवृत्ति का उचित प्रयोग करने का पर्याप्त अवसर मिलता है। साथ ही उसके दृष्टिकोण वैज्ञानिक एवं रचनात्मक बनते हैं। इसके आयोजन हेतु उचित स्थान का चयन जरूरी है जहाँ कि वैज्ञानिक तथ्यों, नियमों, घटनाओं तथा प्रक्रियाओं का प्रत्यक्ष अवलोकन किया जाय ताकि उससे कुछ परिणाम निकाले जा सकें। स्थान के चुनाव के संबंध में प्राकृतिक, सामाजिक तथा औद्योगिक क्षेत्र देखना जरूरी है। तालाब, पर्वत श्रृंखला, वाटिकाएँ, नदियाँ, मुर्गीपालन केन्द्र, स्वास्थ्य केन्द्र, रेलवे स्टेशन एवं आकाशवाणी आदि यथास्थान दिया जाय।

पर्यटन विधि के उद्देश्य-

इसके निम्न उद्देश्य हैं-

(1) यह छात्र की निरीक्षण शक्ति का विकास करता है।

(2) वैज्ञानिक अभिरुचि के लिए वातावरण बनाता है।

(3) अस्पष्ट तथा क्लिष्ट वैज्ञानिक तथ्य स्पष्ट और रोचक बन जाते हैं।

(4) पर्यटन द्वारा स्थलों पर जाकर जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह व्यावहारिक होता है।

(5) अध्ययन करने की प्रेरणा को जन्म मिलता है।

(6) इससे छात्रों में परस्पर सहयोग की भावना का विकास होता है।

(7) औद्योगिक, प्राकृतिक, सामाजिक तथा ऐतिहासिक स्थलों को देखकर मनोरंजन भी होता है। इसलिए बालक मानसिक रूप से थकते नहीं हैं। कठिन प्रकरणों को भी वे सरलता भी सीख लेते हैं।

पर्यटन विधि का महत्व- पर्यटन विधि के महत्व को निम्न रूप में स्पष्ट किया जा सकता है-छोटी कक्षाओं में कुछ प्रकरण ऐसे हैं जिन्हें छात्र व्याख्यान आदि से समझ नहीं पाता, तब उसे पर्यटन द्वारा समझाना ठीक रहता है। अच्छा तो तब रहता है जबकि वह सार्वजनिक स्थलों पर विज्ञान को दैनिक जीवन से जोड़ते हैं। डाकघर, रेलवे स्टेशन, विद्युत मर, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, वाटिकाएँ, कारखाने आदि की जानकारी कक्षा में पूर्णरूपेण नहीं दी जाकर वहाँ जाकर ही दी जाती है। पर्यटन एक तरफ आनन्ददायक तथा रोचक है तो दूसरी तरफ स्थायी ज्ञान देने वला भी। संजीवता तथा सक्रियता का यह एक प्रमुख साधन है।

पर्यटन विधि का प्रयोग कैसे करें? - पर्यटन से संबंधित पूर्ण जानकारी तथा तैयारी पूर्व में ही करनी पड़ती है। इसके लिए निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-

(1) जिस पर्यटन स्थल पर जाना है, वहाँ जाने की अनुमति शाला प्रधान एवं उच्च अधिकारियों से ली जानी चाहिए।

(2) पर्यटन को जाने से पहले पर्यटन का उद्देश्य बता देना चाहिए।

(3) पर्यटन हेतु जरूरी सामग्री जुटानी चाहिए।

(4) पर्यटन के स्थलों के प्रबन्धकों से भी पूर्व में अनुमति लेनी चाहिए।

(5) पर्यटन स्थल पर बरती जाने वाली सावधानियों तथा अनुशासन संबंधी बातों के बारे में भी बता देना चाहिए

(6) पर्यटन पर होने वाला अनुमानित व्यय भी पूर्व में ही निश्चित कर लेना चाहिए तथा इसका शाला से प्रबन्ध करना चाहिए। प्रबन्ध न होने पर छात्रों के सहयोग से उक्त राशि का समायोजन करना चाहिए। उनके आने-जाने की सवारी का भी प्रबन्ध करना चाहिए ताकि वह आराम से आ-जा सकें, अन्यथा छात्र कठिनाई अनुभव करेंगे। खासतौर से छोटे छात्रों हेतु यह जरूरी सुविधा मिलनी चाहिए।

8. समस्या-समाधान विधि :

इस विधि के बारे में काल ने परिभाषा दी है- “समस्या विधि निर्देश की वह विधि है जिसके द्वारा सीखने की प्रक्रिया को उन चुनौतीपूर्ण स्थितियों के सृजन द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है, जिनका समाधान करना जरूरी है।"

इस विधि का प्रयोग छात्रों में समस्या हल करने की क्षमता पैदा करने हेतु किया जाता है। छात्रों से यह आशा की जाती है कि वह स्वयं अपने प्रयत्नों द्वारा समस्या का हल निकालें। छात्र समस्या का चयन करते हैं, उसके कारणों की खोज करते हैं एवं नियम विधि के द्वारा उसे पूर्ण करते हैं, छात्र परीक्षण तथा मूल्यांकन के पश्चात उस समस्या का उचित मूल्यांकन करते हैं। यह विधि छात्रों में चिन्तन एवं तर्क शक्ति का विकास करती है। छात्र जो कुछ भी सीखता है, क्रियाशील होकर ही सीखता है। इस तरह यह विधि प्रायोजना विधि जैसी ही है।

समस्या समाधान विधि में शिक्षण पद-

इस विधि में निम्न पद प्रयोग में लाये जाते हैं-

1. समस्या का चयन- अध्यापक तथा छात्र मिलकर समस्या का चयन करते हैं। अध्यापक को छात्रों का सहयोग लेना चाहिए। इसके साथ ही निम्न बातों का ज्ञान भी आवश्यक है-

(1) जिन समस्याओं का चयन किया जाय वह वास्तविक हों,

(2) वह मानसिक स्तर के अनुकूल हों,

(3) पाठ्य-विषय से संबधित हों,

(4) जटिल नहीं हों।

2. समस्या चयन का कारण- छात्रों को यह बताया जाय कि समस्या का चयन क्यों किया गया है?

3. समस्या को पूर्ण करना- समस्त छात्र अध्यापक के मार्गदर्शन में समस्या के समाधान हेतु कार्य करते हैं।

4. समस्या को हल करना- अन्त में छात्र समस्या का हल खोज लेते हैं, यह समाधान प्रमाणित अथवा परिलक्षित लक्ष्यों पर आधारित होता है।

5. हल अथवा समाधान का प्रयोग- छात्र प्रमाणित समाधान का प्रयोग करते हैं, छात्रों से आशा की जाती है कि वह समस्या समाधान का प्रयोग अपने व्यक्तित्व जीवन में भी करें।

समस्या-समाधान विधि के गुण-

इस विधि के निम्न गुण अथवा विशेषताएँ हैं-

(1) यह छात्रों में विचार-शक्ति तथा निर्णय-शक्ति का विकास करती है।

(2) यह विधि छात्रों को भावी जीवन की समस्याओं को हल करने का प्रशिक्षण देती है।

(3) इसके प्रयोग से छात्र तथ्यो को संग्रह तथा व्यवस्थित करना सीखते हैं।

(4) यह छात्रों के दृष्टिकोण को विकसित करती है।

(5) छात्रों का मस्तिष्क इस विधि के प्रयोग से सक्रिय होकर सजग हो जाता है तथा वे समस्या का समाधान आसानी से कर लेते हैं।

(6) इस विधि से छात्र सामूहिक निर्णय लेना सीखते हैं।

(7) यह कक्षा के वातावरण को क्रियाशील बनाती है।

(8) इससे छात्रों में वैज्ञानिक ढंग से चिन्तन करने की शक्ति का विकास होता है।

(9) यह विधि छात्रों में आत्म-विश्वास जाग्रत करती है।

(10) स्वाध्याय का प्रशिक्षण प्रदान करती है।

समस्या समाधान विधि के दोष-

इस विधि के निम्न दोष हैं-

(1) यह विधि निम्न कक्षाओं हेतु उपयोगी नहीं है।

(2) यह जरूरी नहीं कि छात्र इस विधि से ऐसे परिणाम निकाल लें जो सन्तोषजनक हों।

(3) इस विधि के प्रयोग में पर्याप्त समय लगता है।

(4) इस विधि का प्रयोग योग्य तथा प्रभावशाली अध्यापक ही कर सकते हैं, सामान्य स्तर के अध्यापक नहीं।

(5) इसका जरूरत से ज्यादा प्रयोग वातावरण को नीरस बना देता है।

9. साक्षात्कार विधि :

साक्षात्कार एक आत्मनिष्ठ विधि है जिसके द्वारा छात्रों की समस्याओं एवं गुणों का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। इसमें शिक्षक तथा छात्र में आमने-सामने वार्तालाप होता है जिसके द्वारा छात्र की समस्याओं का समाधान खोजने या शारीरिक तथा मानसिक दशाओं का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है।

साक्षात्कार विधि की विशेषताएँ-

साक्षात्कार विधि की निम्न विशेषताएँ हैं-

(1) साक्षात्कार में आमने-सामने बैठकर किसी उद्देश्य को लेकर दो व्यक्तियों में वार्तालाप होता है।

(2) यह छात्र का शिक्षक से संबंध है।

(3) यह एक-दूसरे से सम्पर्क स्थापित करने की विधि है।

(4) इसके प्रयोग से व्यक्ति के विषय में विभिन्न जानकारियाँ संग्रहित की जाती हैं।

साक्षात्कार विधि की उपयोगिता तथा महत्व-

इस विधि के निम्न उपयोग हैं-

(1) इस विधि द्वारा अमूर्त घटना का अध्ययन किया जाता है।

(2) इसके द्वारा सभी तरह की सूचनाओं को प्राप्त किया जा सकता है।

(3) साक्षात्कार विधि द्वारा छात्रों की आन्तरिक भावनाओं को स्पष्ट किया जा सकता है।

(4) मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण विधि है क्योंकि इसमें सूचनादाता साक्षात्कारकर्ता के सामने बना रहता है जो उसके मनोभावों को सुगमता से समझ लेता है।

(5) इसमें सूचना का सत्यापन सम्भव होता है।

(6) इसके द्वारा छात्र की अन्तर्दृष्टि को विकसित किया जा सकता है।

(7) यह विधि आसान होने से उपयोगी है।

(8) इसके द्वारा छात्र की रुचियों, सुझावों, आदतों एवं दृष्टिकोणों का ज्ञान प्राप्त करके उनमें वांछित परिवर्तन किये जा सकेंगे।

10. योजना विधि :

योजना विधि के जन्मदाता प्रसिद्ध अमरीकी शिक्षा विशेषज्ञ विलियम हेनरी किलपेट्रिक हैं। यह प्रसिद्ध प्रयोगात्मक शिक्षाशास्त्री जॉन ड्यूवी के शिष्य थे। स्वयं किलपेट्रिक के अनुसार, "प्रोजेक्ट वह सहृदय सोद्देश्यपूर्ण कार्य है जो पूर्ण संलग्नता से सामाजिक वातावरण में किया जाय।” इसके बाद प्रोफेसर आरडब्ल्यू. स्टेवेन्सन ने सबसे पहले विज्ञान की शिक्षा में इसका प्रयोग कर इसे नई परिभाषा दी। उनके अनुसार, “प्रोजेक्ट एक समस्यात्मक कार्य है जिसे स्वाभाविक परिस्थितियों में पूर्ण किया जाता है।” अन्य विद्वानों द्वारा भी प्रोजेक्ट की परिभाषा दी गई, लेकिन स्टीवेन्सन की परिभाषा सर्वमान्य है।

इस पद्धति में कोई कार्य समस्या के रूप में छात्रों के सामने पेश किया जाता है तथा उस समस्या को छात्र स्वयं सुलझाने का प्रयत्न करते हैं। कार्य को सम्पन्न करने में जो-जो समस्याएँ पैदा होती हैं उनसे संबंधित सभी विषयों के ज्ञान द्वारा उसे हल करने का प्रयत्न होता है। इस तरह छात्रों को कई विषयों का ज्ञान हो जाता है। इस विधि में यह ध्यान रखना जरूरी होता है कि कार्य स्वाभाविक वातावरण में हो जैसे-अगर सिंचाई हेतु कुंआ बनवाना है तो उसके लिए स्थान का चयन, अधिकारियों की स्वीकृति लेना, व्यय का अनुमान लगाना, कारीगरों को बुलाना आदि सभी कार्य उस तरह होंगे जैसे कोई बाहरी व्यक्ति इस कार्य को पूरा करने हेतु करेगा।

योजना प्रणाली के आधारभूत सिद्धान्त-

इसमें निम्न आधारभूत सिद्धान्त निहित हैं-

1. निश्चित प्रयोजन का सिद्धान्त- हर कार्य में उद्देश्य निश्चित होता है। छात्र सप्रयोजन कार्य में ही ज्यादा रुचि ले सकता है। इसलिए छात्र को जो कार्य दिया जाय, उसका प्रयोजन स्पष्ट होना चाहिए। इससे वह कार्य में रुचि लेते हैं तथा पूरा करने का प्रयत्न करते हैं।

2. स्व-उत्तरदायित्व का सिद्धान्त- यह देखा गया है कि अगर किसी कार्य की जिम्मेदारी पूर्ण रूप से छात्रों को दे दी जाय, तो वह उसे शीघ्र करने का प्रयत्न करते हैं। इस विधि में भी शिक्षक जरूरी मार्ग-दर्शन देकर कार्य पूर्ण करने की जिम्मेदारी छात्रों को दे देता है। इसलिए वह इसे शीघ्रातिशीघ्र पूरा करने का प्रयत्न करते हैं।

3. स्व-क्रिया का सिद्धान्त- यह भी एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि छात्र उस कार्य को शीघ्र सीख लेते हैं जिसे वह स्वयं करते हैं। क्रियाशीलता पर बल देते हुए इस पद्धति में छात्रों को अपनी क्षमतानुसार करके सीखने का अवसर मिलता है |

4. वास्तविकता का सिद्धान्त- इस पद्धति में छात्रों को जो कार्य पूरा करने हेतु दिये जाते हैं वह उनके जीवन से संबंधित होते हैं। वह काल्पनिक समस्याएँ मात्र नहीं होती। वह वास्तविक परिस्थितियों में पूर्ण भी किये जाते हैं। इस प्रकार यह विधि उन्हें उनके भावी जीवन हेतु तैयार करती है।

5. उपयोगिता का सिद्धान्त- प्रयोगवाद छात्रों को उन्हीं बातों को सिखाने पर बल देता है जो जीवन हेतु उपयोगी हैं। इसलिए उन्हीं योजनाओं का चयन किया जाता है जो जीवनोपयोगी सिद्ध हो सकें।

6. स्वतन्त्रता का सिद्धान्त- किसी कार्य को करने का ढंग हर व्यक्ति में अलग-अलग हो सकता है। इसलिए जो छात्र जिस कार्य को जिस विधि से अधिक अच्छी तरह कर सके उसे इसकी स्वतन्त्रता दे दी जाती है। वह जैसे भी चाहे अपने कार्य को पूर्ण कर सकते हैं।

7. सह-संबंध का सिद्धान्त- योजना में ऐसी समस्याओं को दिया जाता है जिसमें विभिन्न विषयों का ज्ञान छात्रों को मिल सकें। अत: एक विषय की योजना को पूर्ण करने हेतु दूसरे विषयों की भी मदद ली जाती है, किन्तु जो ज्ञान बिखरा हुआ न होकर समन्वित हो, यही सह-संबंध है।

8. सामाजिकता का सिद्धान्त- छात्रों में सामाजिकता का विकास उनके भावी जीवन हेतु जरूरी है। जो कार्य छात्र को दिया जाता है, उसे वह स्वयं अथवा किसी से भी जरूरी सहयोग प्राप्त कर पूरा करने का प्रयास करता है। इसके द्वारा उसमें सहयोग की भावना का विकास होता है, जो सामाजिकता का ही दूसरा नाम है।

योजना पद्धति में सीखने के तीन नियमों का अनुसरण किया जाता है-

(1) तत्परता का नियम,

(2) प्रभाव का नियम, तथा

(3) अभ्यास का नियम।

इस पद्धति में तीनों ही नियमों की अपनी-अपनी उपयोगिता है। प्रथम छात्रों को वह योजना नहीं दी जाती, जिस पर कार्य करने का लिए वह तैयार नहीं होते। द्वितीय जीवनोपयोगिता के सिद्धान्त को ही हम प्रभाव का नियम कह सकते हैं। तृतीय किसी भी कार्य को बार-बार करने के बाद स्वतः छात्र उसमें अभ्यस्त हो जाता है। इस प्रकार तीनों ही सीखने के नियमों का इसमें उपयोग होता है।

योजना विधि की विभिन्न व्यवस्थाएँ-

योजना विधि की सफलता हेतु उसका निम्न पदों में संगठन किया जाता है-

1. परिस्थिति का निर्माण- इसमें छात्रों की स्वतन्त्रता सबसे महत्वपूर्ण है। उन्हें यह अनुभव होना चाहिए कि किसी समस्या को उन्होंने पहचाना है तथा वह उनके लिए उपयोगी सिद्ध होगी। शिक्षक का कार्य ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना है, जिनसे छात्र जीवन हेतु उपयोगी समस्याओं को पहचान कर उनके हल के लिए प्रेरित हो सकें। यह कार्य छात्रों को विज्ञान-प्रदर्शनी में ले जाकर, विज्ञान पत्रिकाओं को पढ़ने हेतु कहकर अथवा उन्हें सम्बोधित करके किया जा सकता है, लेकिन किसी भी हालत में शिक्षक को स्वयं अपनी तरफ से किसी योजना को नहीं थोपना चाहिए। इस विधि में, इस पद का वही महत्व है, जो हरबर्ट की पंचपदी में प्रस्तावना का है।

2. योजना का चुनाव- इस विधि में यह जरूरी है कि छात्र अपने भावी जीवन हेतु उपयोगी योजनाओं को ही चुनें। यथार्थ में शिक्षक को यह सावधानी उस समय से अपनानी चाहिए, जब वह चयन हेतु परिस्थिति का निर्माण करता है। साथ ही योजना ऐसी चुनी जाए जिसका शैक्षिक मूल्य हो, जो आर्थिक तथा मानसिक क्षमता के अनुकूल हो एवं जिसे पूर्ण करने हेतु साधन सहज ही उपलब्ध हों।

3. कार्यक्रम बनाना- योजना के चयन के पश्चात कार्यक्रम बनाना पड़ता है। कार्यक्रम को इस प्रकार बांटना चाहिए कि हर छात्र को कुछ न कुछ कार्य जरूर मिले। यह कार्य उनकी व्यक्तिगत क्षमताओं, रुचियों तथा योग्यताओं के अनुकूल होना चाहिए। तीन से पाँच कक्षा तक छात्रों को छोटे-छोटे समूह बनाकर प्रत्येक में एक नेता का चयन करना चाहिए। योजना को पूर्ण करने में किन साधनों की जरूरत पड़ेगी, कौन-कौन सी सम्भावित कठिनाइयाँ उपस्थित होंगी तथा उनका हल किस तरह किया जायगा? इस पर भी पूर्व विचार जरूरी है। बड़ी योजना को समूह में बाँट दिया जाता है। छात्र उस पर कार्य करते हैं तथा सभी क्रियाओं का संश्लेषण करने पर योजना पूर्ण होती है।

4. योजना को पूर्ण करना- कार्यक्रम बनाने के पश्चात छात्र अपने लिए निर्धारित समूहों में अलग-अलग कार्यों में लग जाते हैं। वह स्वयं साधन जुटाते हैं तथा विभिन्न क्रियाओं; जैसे-अध्ययन, लेखन, गणित, पर्यटन, निरीक्षण, विचार-विमर्श, निर्माण और संग्रह पर आधारित विभिन्न-क्रियाओं में जुट जाते हैं। शिक्षक का कार्य निरीक्षण करना तथा छात्रों द्वारा की जाने वाली गलतियों के सुधार के लिए जरूरी मार्गदर्शन करना है। शिक्षक को योजना का कार्य स्वयं नहीं करना चाहिए बल्कि सिर्फ मदद करनी चाहिए।

5. योजना का मूल्यांकन- योजना के पूर्ण होने पर छात्र तथा शिक्षक इस बात का मूल्यांकन करते हैं कि कार्य में कहाँ तक सफलता मिली? जिस उद्देश्य को लेकर योजना का गठन किया गया था, वह कहाँ तक पूरा हुआ? इसके लिए सामूहिक रूप से विचार किया जाता है। इससे शिक्षक, छात्र तथा योजना सभी का मूल्यांकन होता है।

6. योजना का अभिलेख- योजना का आद्योपान्त लेखा रखना भी जरूरी है। परिस्थिति निर्माण तथा चयन से लेकर योजना को पूर्ण करने की सम्पूर्ण प्रक्रिया, कठिनाइयाँ, निवारण की विधि, साधनों का उपयोग, समस्त शिक्षक और छात्र क्रियाओं आदि का क्रमबद्ध लेखा स्वयं छात्र तैयार करते हैं। संक्षेप में योजना से संबंधित सभी बातों का उल्लेख उसमें होता है।

उपरोक्त सभी पदों को संचालित करने तथा उन्हें सम्पन्नता की तरफ अग्रसर कराने में शिक्षक का स्थान महत्वपूर्ण होता है। उसे योजना के चयन से लेकर उसको पूर्ण करने तक, छात्रों की रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओं आदि का ध्यान रखते हुए सम्पूर्ण क्रिया को समन्वित करते रहना पड़ता है। इससे गलत दिशा में जाकर छात्रों के श्रम तथा समय की क्षति नहीं होने पाती, वरन सभी छात्र इससे लाभ उठाते हैं। इसलिए इसमें शिक्षक को अपने विषय में दक्ष,मनोविज्ञान का ज्ञाता, सहयोग तथा सहानुभूति से पूर्ण एक कुशल मार्गदर्शक होना चाहिए।

योजना पद्धति के गुण-

योजना पद्धति को केन्द्र बिन्दु मानकर चलती है तथा मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है। इसके निम्न गुण हैं-

1. स्वतन्त्रता- छात्रों को स्वतन्त्रतापूर्वक सोचने, विचारने, निरीक्षण करने एवं कार्य करने का अवसर इस विधि में मिलता है।

2. जीवनोपयोगिता- योजनाएँ जीवन हेतु उपयोगी होती हैं। इसलिए छात्र उनसे संबंधित क्रियाओं को आसानी से सीख लेते हैं।

3. सामाजिकता का विकास- इस विधि से सामाजिक भावना का विकास होता है, क्योंकि उन्हें परस्पर सहयोग से कार्य करना करना पड़ता है।

4. समस्या हल करने की योग्यता का विकास- योजना वास्तविक समस्याओं पर आधारित होती है। इसलिए छात्रों में, समस्याओं को हल करने की योग्यता का विकास होता है।

5. सह-संबंध- यह विधि पाठ्यक्रम के विषयों के ज्ञान में संबंध स्थापित करती है एवं उनका संबंध दैनिक जीवन से भी स्थापित करती है।

6. श्रम की महत्ता समझना- समस्याओं को हल करने हेतु छात्रों को विभिन्न तरह के कार्य करने होते हैं। इसलिए छात्र श्रम का महत्व समझने लगते हैं।

7. रटने की आदत नहीं पड़ती- इस विधि में छात्र स्वयं कार्य करके सीखता है। इसलिए इसमें रटने का कोई स्थान नहीं रहता।

8. व्यावहारिक कुशलता में वृद्धि- इसमें छात्र इसलिए दोनों की व्यावहारिक कुशलता में वृद्धि होती है।

9. जीव विज्ञान के प्रति प्रेम- इस विधि से छात्रों में जीव विज्ञान के प्रति प्रेम-भाव बढ़ता है।

योजना विधि के दोष :

उपयोगी होते हुए भी इस विधि के निम्न दोष हैं-

(1) यह बड़ी महगी विधि है, क्योंकि इसमें विभिन्न सामग्री, यन्त्र, उपकरण, पुस्तकों आदि की जरूरत पड़ती है।

(2) इसके द्वारा विभिन्न विषयों के शिक्षण में क्रमबद्धता लाना सम्भव नहीं होता।

(3) इसमें जाँच तथा परीक्षा का कोई स्थान नहीं है।

(4) बड़ी कक्षाओं के लिए जहाँ छात्रों की संख्या ज्यादा हो, उपयुक्त योजनाओं का चुनाव कठिन होता है।

(5) सभी विषयों तथा पाठों को इस विधि से पढ़ाना सम्भव नहीं है।

(6) योजना को सम्पन्न कराने का भार अन्त में शिक्षक पर आ पड़ता है जिससे शिक्षक बँध-सा जाता है।

(7) अगर शिक्षक सजग न रहे तो छात्र नकल करके अथवा इधर-उधर पढ़-सुनकर रिपोर्ट तैयार कर लेते हैं।

(8) ज्ञान के स्थायित्व हेतु अर्जित ज्ञान का अभ्यास जरूरी है, लेकिन इस विधि में इसका अवसर नहीं मिलता।

हालांकि प्रोजेक्ट विधि भी दोषों से मुक्त नहीं है, लेकिन कुछ न कुछ दोष तो हर शिक्षण विधि में पाये जाते हैं। जहाँ तक जीव विज्ञान के उद्देश्यों की पूर्ति का प्रश्न है, इसके कुछ गुण इतने मूल्यवान हैं कि इसे जरूरी संसाधनों के साथ अपनाना भारतीय विद्यालयों में विशेषकर निम्न कक्षाओं में लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। इसके अपनाने में मुख्य रूप से तीन कठिनाइयाँ आती हैं। प्रथम, यह खर्चीली है, दूसरे, इसके द्वारा विषयों का ज्ञान क्रमबद्ध नहीं होता तथा तीसरा यह कि सभी स्तरों पर इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।

इन कठिनाइयों को दूर करने हेतु इस विधि को वतन्त्र रूप में न अपनाकर सहायक विधि के रूप में अपनाया जाना उचित है। इसके साथ योजनाओं का चयन ऐसा हो कि उससे व्यय के बदले कुछ आय हो सके; जैसे-टोकरी बनाना, ईंट बनाना, चॉक बनाना तथा खिलौने बनाना आदि। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण जरूरत इस बात की है कि इसके लिए योग्य, परिश्रमी तथा उत्साही शिक्षकों की आवश्यकता है। इनके अभाव में इस पद्धति का क्रियान्वयन कठिन है।

11. पुस्तकालय विधि :

हर विद्यालय में जीव विज्ञान प्रभाग का अलग से 'बुक बैंक' के अन्तर्गत एक पुस्तकालय होता है जिसके द्वारा छात्रों में स्वतन्त्र रूप से वैज्ञानिक साहित्य पढ़ने की आदत का विकास हो सके। पाठ्य-पुस्तकों के अलावा ताजा समाचार भी, पत्र-पत्रिकाओं तथा बुलेटिन आदि से प्राप्त किये जाते हैं। इससे छात्रों का दृष्टिकोण वैज्ञानिक बनता है। अपने ज्ञान को वातावरण से जोड़ने हेतु उसे दैनिक विज्ञान का विज्ञान भी अर्जित करना पड़ता है। सन्दर्भ पुस्तकों तथा नवीन शोधों पर आयु को ध्यान में रखते हुए पुस्तकों को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. छोटे छात्रों की दृष्टि से पुस्तकें तथा पत्रिकाएँ- यह छोटी आयु वर्ग के छात्रों हेतु उपयोगी होती है।

2. माध्यमिक कक्षाओं हेतु योग्य पुस्तकें- सेकण्डरी स्तर पर छात्रों में ज्ञान का स्तर ऊँचा हो जाता है एवं वह हर बात को तार्किक ढंग से देखता है। इसके स्तर की पाठ्य-पुस्तकों जिसमें जीव विज्ञान का इतिहास, प्रसिद्ध वैज्ञानिकों की खोजें तथा जीवन परिचय संबंधी पुस्तकों और पत्रिकाओं का अनुशीलन करना चाहिए।

3. शिक्षकों की दृष्टि से पाठ्य-सामग्री- पुस्तकालय में उच्च कोटि के लेखकों की पाठ्य-पुस्तकें अध्यापकों के मार्गदर्शनार्थ भी रहना जरूरी है। जीव विज्ञान विषय-वस्तु एवं विज्ञान शिक्षण की पुस्तकें उन्हें दैनिक पाठ योजना को तैयार करने में मदद करती हैं। इसके अलावा जीव-विज्ञान संबंधी कोष, विश्व कोष, अन्य ग्रन्थ जो जीव विज्ञान सम्बन्धी सूचना देते हों एवं अध्यापक संदर्शिकाएँ भी पुस्तकालय में होनी चाहिए तथा इनका अनुशीलन उन्हें करना चाहिए ताकि शिक्षण में आधुनिक पद्धति का प्रयोग किया जा सके।

जीव विज्ञान पुस्तकालय का प्रबन्ध- पुस्तकालय की सफलता उसके प्रबन्ध पर निर्भर है। अतः प्रबन्ध की दृष्टि से निम्न बातों की तरफ ध्यान देना जरूरी है-

(1) पुस्तकों को उनके वर्गीकरण के अनुसार विभिन्न अलमारी अथवा खाने में रखना चाहिए तथा हर खाने में शीर्षक लिख देना चाहिए। इससे पुस्तकें चुनने में आसानी होती है

(2) पुस्तकालय में पुस्तकों को लेने तथा लौटाने का समय निश्चित होना चाहिए।

(3) पुस्तकों की रक्षा का समुचित ध्यान रखना चाहिए। विद्यार्थी उसे गन्दा न करें एवं फाड़ें नहीं। ऐसा करने से पुस्तकें नष्ट हो जाती हैं। जीर्ण अवस्था में वह दूसरे के काम नहीं आतीं।

(4) पुस्तकालय में पुस्तकों की सूची रजिस्टर में अंकित की जानी चाहिए, ताकि रुचि के अनुरूप छात्र छाँट सकें।

(5) पुस्तकालय से संबंधित जरूरी नियमों को पूर्व में ही बता देना चाहिए अथवा टांग देना चाहिए।

जीव विज्ञान पुस्तकालय में अध्यापक का सहयोग- आजकल सेकण्डरी एवं हायर सेकण्डरी स्तर पर 'बुक बैंक' योजना के अन्तर्गत जीव विज्ञान क्लब का अध्यक्ष अच्छी पुस्तकें तथा पत्रिकाएँ रखता है। शिक्षक का यह कर्त्तव्य है कि वह छात्रों को उत्तम पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करे तभी वह पुस्तक एवं पुस्तकालय की उपयोगिता को समझेंगे। इसके साथ ही छात्रों को अच्छी पुस्तकें चुनने एवं पढ़ने की विधियों से परिचित भी कराना चाहिए। पुस्तक एवं पुस्तकालय को उपयोगी बनाने में शिक्षक की भी महती भूमिका होती है।

12. व्याख्यान विधि :

यह बहुत प्राचीन विधि है। इसका उपयोग उस समय से किया जा रहा है जब मुद्रण यन्त्रों का आविष्कार नहीं हुआ था, पुस्तकें दुर्लभ थीं। वे विद्यार्थियों को तो क्या अध्यापकों को भी सरलता से उपलब्ध नहीं थीं। अध्यापक ढंग से नियमपूर्वक कक्षा के सामने पाठ्य-विषय को व्याख्यान द्वारा पेश करता था। उसका कर्त्तव्य था कि वह पाठ्य-विषय सामग्री को युक्तिसंगत विधि से तर्कपूर्ण शैली में कक्षा के सामने भाषण के रूप में पेश करे। उस दशा में अध्यापक वक्ता एवं विद्यार्थी श्रोता होते थे। अध्यापक अपने अनुभव से छात्रों की योग्यता तथा उनके पूर्वज्ञान का विचार करके अपने ढंग से विषय का प्रतिपादन करता था एवं विद्यार्थी शान्तिपूर्वक पूर्ण मनोयोग से अध्यापक की बात सुनने तथा समझने का प्रयास करते थे। इस विधि से न तो अध्यापक के किसी समय असावधान होने का अवसर था तथा न विद्यार्थियों को ही उपेक्षा करने की अनुमति थी। पूरी कक्षा एक ही स्तर की योग्यता वाले वर्ग के योग्य विषय को, व्यक्तिगत क्षमताओं तथा ग्रहण शक्तियों की विभिन्नताओं के रहने पर भी, समान रूप से ग्रहण करने का प्रयास करती थी।

व्याख्यान विधि पाठ्य-पुस्तकों के सुलभ होने पर भी आज के युग में बहुत प्रचलित है। कालिज की कक्षाओं में इसे सर्वमान्य तथा उपयोगी विधि के रूप में ग्रहण किया जाता है। अन्य विधियाँ इसकी परिपोषक, सहायक अथवा पूरक ही कही जा सकती हैं।

कक्षा 6 से 9 तक के जीव-विज्ञान के छात्रों हेतु व्याख्यान विधि को किसी भी दशा में उपयोगी नहीं कहा जा सकता। छोटी कक्षाओं के बालक शिक्षक के भाषण काल में प्रायः असावधान हो जाते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी उनसे बहुत देर तक एकाग्रचित होकर चुपचाप बैठकर सुनने तथा समझने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। इस विधि में शिक्षक ही सक्रिय रहता है तथा विद्यार्थी जड़वत निष्क्रिय बन जाते हैं। विषय को न समझ पाने या आलस्यवश, बहुत-से छात्र सो भी जाते हैं तथा कुछ आलस्य से जमुहाई लेने लगते हैं।

कोई-कोई शिक्षक व्याख्यान देने में इतने पटु होते हैं कि अपनी रोचक तथा आकर्षक शैली द्वारा बालकों को लगातार आकर्षित करते चले जाते हैं। आकर्षक व्यक्तित्व, वाणी की मधुरता, उच्चारण की स्पष्टता, भाषा-प्रवाह तथा शैली की रुचिरता आदि ऐसे गुण हैं जो व्याख्यान विधि को हर स्तर पर रुचिकर एवं उपयोगी बनाने में मददगार होते हैं। इन समस्त गुणों से सम्पन्न व्याख्यानदाता शिक्षक प्राय: नहीं पाये जाते हैं। उन्हें अपवाद रूप में ही प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी दशा में यह विधि माध्यमिक कक्षाओं में जीव-विज्ञान के छात्रों हेतु उपयुक्त तथा प्रभावोत्पादक नहीं कही जा सकती। जीव-विज्ञान-शिक्षण में निरीक्षण, चिन्तन, तथा विचारों की स्वच्छता का विशेष महत्व है। बालकों के सक्रिय सहयोग तथा अन्वेषण रुचि के अभाव में शिक्षण की सफलता सर्वथा संदिग्ध है। करके सीखना तथा देखकर समझना जीव-विज्ञान-शिक्षण की मुख्य प्रक्रियाएँ हैं जिनके लिए व्याख्यान विधि कोई अवसर नहीं प्रदान करती।

व्याख्यान विधि के गुण-

(1) यह विधि सरल तथा व्यापक है। अध्यापक पाठ्य-विषय को पूरी तैयारी करके उसे छात्रों के सामने तर्कसंगत विधि से युक्तिपूर्वक पेश करता है जिससे सामान्य स्तर के छात्र भी थोड़े से मनोयोग से विषय को हृदयंगम कर लेते हैं।

(2) इस विधि से बहुत-से बालकों को एक साथ ही विषय-ज्ञान दिया जा सकता है रुचियों की भिन्नता तथा बुद्धि स्तरों की विविधताओं के होने पर भी सामान्य प्रभाव होने की सम्भावनाएँ बनी रहती हैं।

(3) समय तथा धन की बचत होती है। छात्रों को एक बैठक में ही तर्कसंगत तथा क्रमबद्ध रूप से यथेष्ट ज्ञान की उपलब्धि हो जाती है एवं अध्यापक भी थोड़े समय में बहुत-कुछ पढ़ा लेता है।

(4) थोड़ी-सी दूरदर्शिता तथा विधि-संशोधन द्वारा व्याख्यान में कक्षा के बालकों के स्तर के अनुकूल विषय-सामग्री दी जा सकती है। विभिन्न वैज्ञानिकों तथा आविष्कारकों के जीवन की रोचक घटनाओं का वर्णन करके विषय के प्रति बालकों में अभिवृद्धि की जा सकती है।

(5) उच्च कक्षाओं में व्याख्यान विधि द्वारा अध्यापक अपनी योग्यता की छाप भी अंकित कर सकता है तथा छात्रों को ऐसी उपलब्धियों हेतु प्रेरित भी कर सकता है।

(6) पढ़ाये गये विषय पर आधारित प्रश्नोत्तरों के माध्यम से व्याख्यान विधि की सफल परिणति होती है तथा छात्रों द्वारा ग्रहीत विषय-ज्ञान के स्तर का भी आसानी से अल्प समय में ही मूल्यांकन हो जाता है।

व्याख्यान विधि के दोष-

(1) इस विधि में रुचि की भिन्नताओं एवं बोधगम्यता के स्तर के अनुसार विषय-ज्ञान को विभाजित करना सम्भव नहीं। समस्त छात्रों को एक ही स्तर की शिक्षा प्रदान की जाती है।

(2) व्याख्यान को शिक्षार्थी कहाँ तक समझ रहे हैं तथा विषय में उनकी कितनी रुचि है इस बात को जानने का कोई साधन अध्यापकों के पास नहीं रहता।

(3) छात्र निष्क्रिय श्रोता बन जाते हैं तथा अध्यापक विषय-सापेक्ष वक्ता। दोनों के कार्य-क्षेत्र अलग अलग हैं। उनमें किसी तरह के सामंजस्य हेतु कोई अवसर नहीं।

(4) अध्यापक कभी-कभी अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने के मोह में लच्छेदार भाषा का आश्रय ले लेता है। ऐसा होने पर विषय की बजाय शैली को ज्यादा महत्व मिल जाता है जो विज्ञान हेतु उपयुक्त नहीं।

(5) जीव-विज्ञान के शिक्षण में तर्क तथा निरीक्षण का विशेष महत्व है। इस विधि में इन दोनों गुणों का सर्वथा अभाव रहता है। फलत: जीव-विज्ञान-शिक्षण का उद्देश्य ही निष्फल हो जाता है।

(6) इस विधि में छात्रों की क्रियाशीलता तथा रुचि का भी ध्यान नहीं रखा जाता। इस दृष्टि से यह विधि मनोवैज्ञानिक नहीं।

(7) शिक्षक थोड़े-से समय में अधिक से अधिक ज्ञान देने का प्रयत्न करता है जबकि है बच्चों से यह आशा नहीं की जा सकती है कि वे इतनी देर तक बताये गये समस्त तथ्यों का अवधारण कर सकेंगे। उनका मन बीच-बीच में भटक जाता है तथा इस समय में बताये गये विषय का उन्हें ज्ञान नहीं होता है।

13. प्रदर्शन विधि :

अधिगम प्रक्रिया में अगर सिर्फ मात्र अमूर्त विषय वस्तु के विषय में ज्ञान दिया जाये तो वह मस्तिष्क में स्थायी नहीं रह पाता है। मूर्तपन इसी कारण अपेक्षाकृत स्थायी रहता है यही कारण है कि 'मूर्त से अमूर्त' का शिक्षण सूत्र एक सफल तथा उपयोगी सूत्र माना गया है प्रदर्शन विधि इसी सिद्धान्त पर आधारित है क्योंकि इससे अध्यापक छात्रों के सामने प्रयोग का प्रदर्शन करता है, तथा उस प्रयोग से संबंधित विभिन्न पक्षों की व्याख्या करता है। छात्रों की तरफ से भी इसमें सक्रिय सहयोग रहता है। इस विधि में इस तरह उनकी निरीक्षण तथा तर्क शक्ति का विकास होता है। पाठ एक पक्षीय न रह कर द्विपक्षीय हो जाता है तथा छात्रों एवं अध्यापक दोनों की पाठ में रुचि लगातार बनी रहती है।

एक सफल प्रदर्शन के लिए सावधानियाँ :

निश्चित रूप से किसी भी शिक्षण की यह विधि सबसे प्रभावशाली है, पर इसकी उपयोगिता इसकी सफलता पर निर्भर करती है। एक बुरे प्रकार से किया गया असफल प्रदर्शन लाभ के स्थान पर हानि पहुंचा सकता है। अगर शिक्षक निम्न सावधानियों को दृष्टिगत रखें तो प्रदर्शन के अर्थपूर्ण तथा सफल होने की सम्भावना बढ़ जाती है।

1. प्रदर्शन हेतु अग्रिम रूप से पूरी रूप-रेखा तैयार कर लेनी चाहिये। जब तक पूर्ण रूप-रेखा तैयार न हो, प्रदर्शन नहीं करना चाहिये। समस्य सावधानियाँ लेने के बाद भी अगर प्रदर्शन असफल हो जाये तो शिक्षक की बुद्धिमतापूर्ण ढंग से उस परिस्थिति का सामना करना चाहिये तथा उस परिस्थिति को छात्रों के सम्मुख एक समस्या समाधान के रूप में रख देना चाहिये।

2. प्रदर्शन हेतु यह सुनिश्चित कर लेना चाहिये कि वह हर छात्र को दिखाई दे रहा हो। इसके लिये अगर जरूरी हो तो शिक्षक छात्रों के बैठने की व्यवस्था में भी परिवर्तन कर सकता है।

3. प्रदर्शन मेज पर प्रकाश की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिये। प्रदर्शन मेज के पीछे के दीवारों के रंग तथा अध्यापक को अपने वस्त्रों के रंग का भी प्रदर्शन के समय ध्यान रखना चाहिये, जिससे प्रत्यारोपण के कारण रंग भ्रम की सम्भावना न रहे। इसी तरह काले श्यामपट के सामने काली चीज का प्रदर्शन नहीं करना चाहिये।

4. प्रदर्शन में एक ही विचार पर महत्व देना चाहिये, बहुत ज्यादा विचारों को एक ही समय में प्रदर्शित करने से भ्रम पैदा हो सकता है।

5. प्रदर्शन मेज पर अनावश्यक अतिरिक्त वस्तुयें नहीं होनी चाहिये।

6. सभी सामग्री क्रमबद्ध रूप से समायोजित होनी चाहिये, जिससे प्रयोग के समय इधर-उधर खोजना न पड़े।

7. प्रदर्शन सामग्री जहाँ तक सम्भव हो बड़े आकार की होनी चाहिये।

8. प्रदर्शन हमेशा पूर्व ज्ञान तथा दैनिक जीवन की जरुरतों पर आधारित होना चाहिये। किसी पूर्व अर्जित तथ्य अथवा सिद्धान्त के सत्यापन के लिए भी इनका प्रयोग किया जा सकता है। पर यह तभी प्रभावशाली होगा जबकि कार्य-कारण संबंध स्पष्ट हो।

9. प्रदर्शन के मध्य निष्कर्ष तथा सामान्यीकरण संबंधी सारांश लिखने को श्यामपट का प्रयोग किया जाना चाहिये पर प्रयोग को मध्य में छोड़कर श्यामपट का प्रयोग करना उचित नही है।

10. प्रदर्शन तीव्रता से स्पष्ट रूप से किया जाना चाहिये। छोटे-छोटे सामान्यीकरण साथ-साथ निकलने चले जाने चाहिए। जटिल तथा लम्बा प्रदर्शन भ्रान्ति पैदा कर सकता है इसके लिये प्रर्दशन के उद्देश्य को पूर्णतः स्पष्ट कर देना चाहिये।

11. छात्रों को निरीक्षण तथा निष्कर्षों को अपनी उत्तर-पुस्तिका पर लिखने को कहा जाना चाहिये।

गुण-

1. यह विधि सुदृढ़ मनोवैज्ञानिक आधार पर टिकी है क्योंकि इसमें स्मृति तथा कल्पना का सहारा नहीं लेना पड़ता है। वस्तु मूर्त रूप में छात्रों के सामने होती है। उन्हें स्वयमेव ही सामान्यीकरण विकसित करने का अवसर प्राप्त होता है, जिससे अधिगम ज्यादा स्थायी रहता है। साथ ही, लगातार रुचि होने के कारण वह ज्ञानार्जन हेतु तत्पर रहता है।

2. यह विधि तब बहुत उपयोगी हो जाती है जबकि यन्त्र या उपकरण अत्यधिक मूल्यवान हो तथा उसके टूटने अथवा बिगड़ने का खतरा हो।

3. यह विधि दूसरी विधियों की बजाय बहुत कम खर्चीली है। जहाँ छात्रों को व्यक्तिगत रूप से प्रयोग करने की सुविधायें उपलब्ध न हों, वहाँ इसी विधि के प्रयोग से वांछित परिणाम प्राप्त किये जा सकते हैं। इस विधि में समय की भी बचत होती है, क्योंकि थोड़े समय में ही कई सामान्यीकरण किये जा सकते हैं।

हालांकि यह विधि छात्र केन्द्रित. नहीं है, पर फिर भी इसमें छात्र निष्क्रिय नहीं रहते। उन्हें कई क्रियाओं जैसे निरीक्षण करना, प्रश्नों का उत्तर देना आदि में व्यस्त रखा जा सकता है

दोष-

(1) इस विधि में व्यक्तिगत भिन्नता हेतु कोई स्थान नहीं है। मन्द बुद्धि तथा प्रतिभाशाली छात्रों को एक गति से चलाया जाता है।

(2) इसमें कार्य करके सीखना' हेतु कोई स्थान नहीं है।

(3) इसमें ज्यादातर समय अध्यापक ही सक्रिय रहता है।

(4) छात्रों को स्वयमेव करके देखने का अवसर प्राप्त नहीं होता है।

(5) इसमें छात्रों में आलोचनात्मक दृष्टिकोण विकसित नहीं होता है।

संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि यह जीव विज्ञान शिक्षण की एक बहुत उपयोगी विधि है, क्योंकि इसमें शिक्षक तथा शिक्षार्थी में एक प्रवाह रहता है, क्योंकि इसमें अमूर्त को मूर्त रूप में प्रदर्शित किया जाता है। इसलिए इसके द्वारा यथार्थ शिक्षण होता है।

माध्यमिक स्तर पर जीव विज्ञान शिक्षण का क्या उद्देश्य होना चाहिए?

जीव विज्ञान के प्रमुख उद्देश्य प्रयोग और अध्ययन द्वारा प्रकृति के नियमों को निर्धारित करना। प्रकृति पर नियन्त्रण पाने के लिये आवश्यक प्रयोग करना, प्रेक्षण लेना तथा उसके निष्कर्ष निकालना। प्रकृति में उपलब्ध साधनों का समस्याओं के निराकरण में उपयोग कर मानव जीवन को उत्कृष्ट बनाना।

माध्यमिक स्तर पर विज्ञान शिक्षण की आवश्यकता क्यों है स्पष्ट कीजिए?

उच्च माध्यमिक स्तर पर विभिन्न विज्ञान विषयों के शिक्षण से शिक्षार्थियों में समकालीन ज्ञान का बोध, कलात्मक समझ तथा प्रक्रिया कौशल विकसित होती हैं। प्रयोगात्मक तथा प्रक्रिया कौशल के साथ संप्रत्यय ज्ञान शिक्षार्थी को अर्थपूर्ण अनुभव के लिए तैयार करता है जो जीवन में गुणात्मक प्रभाव डालता है।

माध्यमिक स्तर पर विज्ञान शिक्षण के लक्ष्य क्या है?

(1) व्यक्तिगत विकास का लक्ष्य- भौतिक विज्ञान के शिक्षण का लक्ष्य छात्रों अधिगमकर्ताओं का व्यक्तिगत विकास करना है। यह विकास उनमें भौतिक विज्ञान के अध्ययन के प्रति रुचि एवं जिज्ञासा, रचनात्मकता और सौंदर्य बोध उत्पन्न करना है। भौतिक विज्ञान शिक्षण से छात्र का दृष्टिकोण वैज्ञानिक हो जाता है।

जीव विज्ञान शिक्षण का मुख्य उद्देश्य क्या है?

जीव विज्ञान शिक्षण का मुख्य उद्देश्य छात्रों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास करना हैं। वैज्ञानिक दृष्टिकोण युक्त छात्र में जिज्ञासा, सत्यनिष्ठा, उपलब्ध परिणामों के आधार पर पूर्व धारणाओं में परिवर्तन, अन्धविश्वासी न होना, वस्तुनिष्ठता आदि गुण पाये जाते हैं। इन गुणों का विकास सतत प्रयत्न द्वारा ही संभव हैं।