हिंदी भाषा का विकास Show हिंदी भाषा के विकास का लंबा इतिहास है। भाषाविद् 1000 ई. से आधुनिक भारतीय भाषाओं का इतिहास मानते हैं। राहुल सांस्कृत्यायन ने भी हिंदी का विकास 1000 ई. से माना है। हिंदी भी आधुनिक आर्यभाषा है जिसका जन्म संस्कृत, पालि, प्राकृत से होते हुए अपभ्रंश से हुआ है। सामान्यत: प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदी भाषा का आविर्भाव माना जाता है। कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश और हिंदी के बीच ‘अवहट्ट’ भाषा की स्थिति बताई है। चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने इसी अवहट्ट को ‘पुरानी हिंदी’ नाम दिया है। प्राचीन हिंदी पर प्राकृत और अपभ्रंश का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरंतर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने ‘देशी भाषा’ कहा है। 14वीं शताब्दी से आधुनिक भाषाओं का स्पष्ट रूप मिलने लगता है। परंतु अपभ्रंश की प्रवृत्तियाँ इसमें मिली जुली रहीं, जो धीरे-धीरे कम होती गई। हिंदी भाषा के विकास को प्रायः तीन चरणों में विभक्त किया जाता है- 1. प्राचीन हिंदी (1000-1500 ई.) 2. मध्यकालीन हिंदी (1500-1800 ई.) 3. आधुनिक हिंदी (1800 ई. से अभी तक) 1. प्राचीन हिंदीग्यारहवीं सदी के पहले से ही भारत पर मुसलमानों के आक्रमण शुरू हो गये थे और उन्होंने लगभग 200 वर्षों में संपूर्ण उत्तर भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उनकी अपनी भाषा या राजभाषा फारसी थी लेकिन जनसंपर्क के लिए उन्होंने उस समय की प्रचलित प्राचीन हिंदी का प्रयोग किया।आगामी 500 वर्षों में इसी प्राचीन हिंदी से विकसित अनेक रूप सामने आए। इन्हीं रूपों में से एक रूप ‘डिंगल’ कहलाया। डिंगल शैली का संबंध पश्चिमी राजस्थानी साहित्य से है। इसका अधिकत्तर साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित है। श्रीधर कृत ‘रणमल छंद’ (1400 ई.) और कल्लौल कवि कृत ‘ढोला मरूरा दोहा’ (1473 ई.) आदि डिंगल की प्रमुख रचनाएँ हैं। आदिकाल में हिंदी भाषा का एक दूसरा रूप विकसित हुआ जिसे ‘पिंगल’ कहा गया। पिंगल शैली वस्तुतः पूर्वी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है जिसमें ब्रजभाषा का काफी प्रभाव दिखाई देता है। इसका अधिकत्तर साहित्य भाट जातियों द्वारा लिखा गया है। इस काल में हिंदी का एक तीसरा रूप और उपलब्ध होता है जिसे ‘हिंदवी’ कहा गया। हिंदी का यह रूप हमें तेरहवीं शताब्दी के आस-पास खुसरो के साहित्य में दिखाई देता है। यह भाषा का वह रूप था जो उस समय जनसामान्य के बीच प्रचलित था। खुसरो की भाषा सरल, स्वाभाविक और बोलचाल के अधिक निकट है। आदिकालीन हिंदी भाषा के विकास में उस समय के उपलब्ध धार्मिक साहित्य- जैन, बौध, नाथ, सिद्व आदि का महत्वपूर्ण योगदान है। जैन साहित्य की भाषा हिंदी के आदिकालीन स्वरूप का परिचय देती है जो अपभ्रंश से प्रभावित है। वहीं बौद्व और सिद्वों की कविताओं की भाषा में पश्चिमी एवं पूर्वी अपभ्रंश के शब्दों का मिला-जुला रूप देखने को मिलता है। नाथ पंथियों की भाषा में प्राचीन पश्चिमी हिंदी की बोलियों का मिश्रित रूप मिलता है। हिंदी के प्राचीन रूप के विकास में आदिकालीन रासो साहित्य का भी महत्वपूर्ण योगदान है। वीसलदेव रासो की भाषा में डिंगल एवं पिंगल शैली मिलती हैं। वहीं पृथ्वीराज रासो में हिंदी, राजस्थानी मिश्रित हिंदी, ब्रजभाषा और कहीं विकृत अपभ्रंश का रूप मिलता है। अधिकत्तर विद्वानों ने इसकी भाषा पिंगल माना है जो ब्रजभाषा का प्राचीन रूप है। आदिकालीन हिंदी की विशेषताएँ भोलानाथ तिवारी ने आधुनिक हिंदी की निम्नलिखित विशेषतायें बताई हैं- (i) व्याकरणगत् परिवर्तन
(ii) ध्वनिगत् परिवर्तन
(iii) शब्द भंडार की दृष्टि से परिवर्तन
2. मध्यकालीन हिंदीमध्यकालीन हिंदी का समय 1500 ई. से 1800 ई. तक (लगभग 300 वर्ष) माना जाता है। इस समय तक हिंदी का स्वरूप स्थिर होने लगता है, वह आत्मनिर्भर होने लगती है। अपभ्रंश के जो रूप प्राचीन हिंदी मे प्रयुक्त होते थे वे मध्यकाल में प्रायः लुप्त हो जाते हैं। यह वह समय है जब हिंदी की बोलियाँ स्वतंत्र रूप से साहित्य के क्षेत्र में प्रयुक्त होने लगी थीं। इस काल में हिंदी की सभी वर्तमान बोलियाँ विकसित हो चुकी थीं किंतु साहित्यिक क्षेत्र में अवधी और ब्रजभाषा की प्रधानता मिलती है। इस युग में खड़ी बोली साहित्य के केंद्र में नहीं आ सकी किंतु साहित्यिक कृतियों में किसी न किसी रूप में प्रयोग होता रहा। दूसरी बात यह कि इस युग में बोलचाल के स्तर पर भी खड़ी बोली का वर्चस्व बन जाता है। मध्यकाल के अधिकांश संत, सूफी और भक्त कवियों ने अवधी और ब्रजभाषा को अपने साहित्य की भाषा बनाया। कबीर, जायसी, सूर, तुलसी और मीरा आदि भक्तिकाल के वे कवि हैं जिन्होंने न केवल अवधी और ब्रजभाषा को अपनी काव्य भाषा बनाया बल्कि उसका परिमार्जन-परिष्कार और विकास भी किया। रीतिकाल के कवियों ने ब्रजभाषा को अपनी काव्यभाषा बनाया। इस युग में ब्रजभाषा अपने कलात्मक वैभव को प्राप्त कर लेती है। बिहारी, घनानंद, मतिरम, भूषण, देव आदि कवियों ने ब्रजभाषा में उत्तम काव्य लिखा और उसको शीर्ष स्थिति पर पहुँचाया। मध्यकालीन हिंदी की विशेषताएँ भोलानाथ तिवारी ने मध्यकालीन हिंदी की निम्नलिखित विशेषतायें बताई हैं- (i) व्याकरणगत् परिवर्तन
(ii) ध्वनिगत् परिवर्तन
(iii) शब्द भंडार की दृष्टि से परिवर्तन
3. आधुनिक कालहिंदी का आधुनिक काल हिंदी भाषा का ही नहीं, हिंदी साहित्य का भी आधुनिक काल है। आधुनिक काल तक आते-आते (19वीं सदी) हिंदी लगभग पूरी तरह विकसित हो जाती है। इस काल में हिंदी का स्वरूप पहले के कालों के अपेक्षा अधिक तीव्रता से परिवर्तित होता है। इस युग में ही हिंदी साहित्य में ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली का प्रयोग होने लगता है। कहने का तात्पर्य यह है की 19वीं शताब्दी में खड़ी बोली साहित्यिक भाषा के रूप में स्थापित हुई। 19वीं सदी में काव्य भाषा के रूप में ब्रजभाषा का प्रयोग होता रहा लेकिन गद्य साहित्य लेखन में खड़ी बोली का प्रयोग होने लगा। 1920-25 के आस-पास पहुँचकर धीरे-धीरे हिंदी कविता में भी खड़ी बोली का प्रयोग होने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी तक पहुँचते-पहुँचते भारत पर अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया था। उन्हें राज-काज चलाने के लिए यहाँ की भाषा सीखने की आवश्यकता थी। इस समय हिंदी की दो धाराएँ थीं- एक हिंदी का बोल-चाल का रूप था, दूसरा राज दरबारों की भाषा थी। मुद्रण यंत्रों और प्रेस के विकास ने हिंदी को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंग्रेजी से अनेक ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद हुआ। लॉर्ड वेलेजली ने अंग्रेज अफसरों को भाषा की शिक्षा दिलाने के लिए जॉन गिलक्राइस्ट की अध्यक्षता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की। गिलक्राइस्ट ने कॉलेज में भाषा मुंशी के पद पर लालू लाल (सिंहासन बत्तीसी, बेताल पचीसी, शकुंतल नाटक, लाल चंद्रिका, ब्रजभाषा व्याकरण), सदल मिश्र (नासिकेतोपाख्यान, आध्यात्म रामायण), मुंशी सदासुख लाल ‘नियाज’ और इंशा अल्ला खां (रानी केतकी की कहानी) को नियुक्त किया।जिन्होंने खड़ी बोली हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ईसाई धर्म प्रचारक पादरियों ने भी खड़ी बोली हिंदी के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार था किंतु उन्होंने अपनी धार्मिक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद प्रकाशित किए। इसके अलावा इन लोगों ने अनेक स्कूल और कॉलेज खुलवाए और पाठ्यपुस्तकें तैयार की। परिणाम स्वरूप हिंदू धर्म प्रचारकों ने भी यह काम करना प्रारम्भ किया। खासकर दयानंद सरस्वती ने इस दिशा में महत्वपूर्ण काम किया। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं का भी हिंदी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रही। 30 मई 1826 ई. को पं. युगल किशोर ने ‘उदंत मार्तंड’ नामक पत्र कलकत्ता से हिंदी भाषा में प्रकाशित किया। इन्हें हिंदी पत्रकारिता का जन्मदाता माना जाता है।इसके बाद बंगदूत, प्रजामित्र, बनारस अखबार, समाचार सुधावर्षण आदि पत्र प्रकाशित हुए जिन्होंने हिंदी भाषा के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 19वीं सदी में ही हिंदी राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम की संपर्क भाषा बनकर राष्ट्रभाषा के पद पर आसीन हुई। आजादी मिलने के बाद कुछ सीमाओं के साथ राजभाषा भी बनी। भारत सरकार के सहयोग से हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को मानकीकरण करने का प्रयास हुआ। और लगातार वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का प्रयास हो रहा है। आधुनिक हिंदी की विशेषताएँ भोलानाथ तिवारी ने आधुनिक हिंदी की निम्नलिखित विशेषतायें बताई हैं- (i) व्याकरणगत् परिवर्तन
(ii) ध्वनिगत् परिवर्तन
(iii) शब्द भंडार की दृष्टि से परिवर्तन
महत्वपूर्ण प्रश्न Q. हिंदी भाषा का उदय कब हुआ? Ans. हिंदी भाषा का उदय अपभ्रंश की उत्तरकालीन अवस्था से माना जाता है। वहीं कुछ विद्वान अपभ्रंश के बाद अवहट्ट भाषा से हिंदी भाषा का उदय माना है। Q. हिंदी भाषा के विकास क्रम को कब से प्रारंभ माना जाता है? Ans. हिंदी भाषा के विकास क्रम को 1000 ई. से प्रारंभ माना जाता है। कुछ विद्वान 1100 ई. से भी हिंदी भाषा का विकास मानते हैं। Q. हिंदी भाषा का उद्भव और विकास के लेखक कौन है? Ans. हिंदी भाषा का उद्भव और विकास के लेखक उदय नारायण तिवारी हैं। Q. हिंदी भाषा का नामकरण कब हुआ? Ans. यह निर्णय करना कठिन है कि ‘हिंदी’ शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारंभ हुआ। परंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारंभ में हिंदी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य ‘भारतीय भाषा’ का था। Q. हिंदी भाषा का विकास क्रम क्या है? Ans. हिंदी भाषा का विकास क्रम- संस्कृत> पालि> प्रकृति> अपभ्रंश> अवहट्ट> हिंदी हिन्दी भाषा की आवश्यकता क्यों होती है?एक भाषा के रूप में हिंदी न सिर्फ भारत की पहचान है बल्कि यह हमारे जीवन मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की सच्ची संवाहक, संप्रेषक और परिचायक भी है। बहुत सरल, सहज और सुगम भाषा होने के साथ हिंदी विश्व की संभवतः सबसे वैज्ञानिक भाषा है जिसे दुनिया भर में समझने, बोलने और चाहने वाले लोग बहुत बड़ी संख्या में मौजूद हैं।
भाषा विकास की आवश्यकता क्यों होती है?सामान्यत: भाषा को वैचारिक आदान-प्रदान का माध्यम कहा जा सकता है। भाषा अभिव्यक्ति का सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम है। यही नहीं, यह हमारे समाज के निर्माण, विकास, अस्मिता, सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान का भी महत्वपूर्ण साधन है। भाषा के बिना मनुष्य अपूर्ण है और अपने इतिहास और परंपरा से विछिन्न है।
हिंदी भाषा का विकास क्या है?हिंदी भी आधुनिक आर्यभाषा है जिसका जन्म संस्कृत, पालि, प्राकृत से होते हुए अपभ्रंश से हुआ है। सामान्यत: प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदी भाषा का आविर्भाव माना जाता है। कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश और हिंदी के बीच 'अवहट्ट' भाषा की स्थिति बताई है। चंद्रधर शर्मा 'गुलेरी' ने इसी अवहट्ट को 'पुरानी हिंदी' नाम दिया है।
हिंदी का हमारे जीवन में क्या महत्व है?जनतांत्रिक आधार पर हिंदी विश्व भाषा है क्योंकि उसके बोलने-समझने वालों की संख्या संसार में तीसरी है। विश्व के 132 देशों में जा बसे भारतीय मूल के लगभग 2 करोड़ लोग हिंदी माध्यम से ही अपना कार्य निष्पादित करते हैं । एशियाई संस्कृति में अपनी विशिष्ट भूमिका के कारण हिंदी एशियाई भाषाओं से अधिक एशिया की प्रतिनिधि भाषा है ।
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