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अजबैजान में मातृभाषा का स्मारक (अना दिलि) जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है। गांधी जी के विचार[संपादित करें]महात्मा गांधी जी ने मैकाले की इस धूर्ततापूर्ण योजना का अपने लेखों में वर्णन किया है (मैकालेज ड्रीम्स, यंग इंडिया, 19 मार्च 1928, पृ. 103, देखें ) तथा इस घोषणा को "शरारतपूर्ण" कहा है। यह सत्य है कि गांधी जी स्वयं अंग्रेजी के प्रभावी ज्ञाता तथा वक्ता थे। एक बार एक अंग्रेज विद्वान ने कहा था कि भारत में केवल डेढ़ व्यक्ति ही अंग्रेजी जानते हैं- एक गांधी जी और आधे मि. जिन्ना। अत: भाषा के सम्बंध में गांधी जी के विचार राजनीतिक अथवा भावुक न होकर अत्यन्त संतुलित तथा गंभीर हैं। शिक्षा के माध्यम के सन्दर्भ में गांधी जी के विचार स्पष्ट थे। वे अंग्रेजी भाषा को लादने को विद्यार्थी समाज के प्रति "कपटपूर्ण कृति" समझते थे। उनका मानना था कि भारत में 90 प्रतिशत व्यक्ति चौदह वर्ष की आयु तक ही पढ़ते हैं, अत: मातृभाषा में ही अधिक से अधिक ज्ञान होना चाहिए। उन्होंने 1909 ई. में "स्वराज्य" में अपने विचार प्रकट किए हैं। उनके अनुसार हजारों व्यक्तियों को अंग्रेजी सिखलाना उन्हें गुलाम बनाना है। गांधी जी विदेशी माध्यम के कटु विरोधी थे। उनका मानना था कि विदेशी माध्यम बच्चों पर अनावश्यक दबाव डालने, रटने और नकल करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करता है तथा उनमें मौलिकता का अभाव पैदा करता है। यह देश के बच्चों को अपने ही घर में विदेशी बना देता है। उनका कथन था कि- यदि मुझे कुछ समय के लिए निरकुंश बना दिया जाए तो मैं विदेशी माध्यम को तुरन्त बन्द कर दूंगा।गांधी जी के अनुसार विदेशी माध्यम का रोग बिना किसी देरी के तुरन्त रोक देना चाहिए। उनका मत था कि मातृभाषा का स्थान कोई दूसरी भाषा नहीं ले सकती। उनके अनुसार, "गाय का दूध भी मां का दूध नहीं हो सकता।" मातृभाषा का महत्त्व[संपादित करें]गांधीजी देश की एकता के लिए यह आवश्यक मानते थे कि अंग्रेजी का प्रभुत्व शीघ्र समाप्त होना चाहिए। वे अंग्रेजी के प्रयोग से देश की एकता के तर्क को बेहूदा मानते थे। सच्ची बात तो यही है कि भारत विभाजन का कार्य अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों की ही देन है। गांधी जी ने कहा था- "यह समस्या 1938 ई. में हल हो जानी चाहिए थी, अथवा 1947 ई. में तो अवश्य ही हो जानी चाहिए थी।" गांधी जी ने न केवल माध्यम के रूप में अंग्रेजी भाषा का मुखर विरोध किया बल्कि राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर भी राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता को प्रकट करने वाले विचार प्रकट किए। उन्होंने कहा था, यदि स्वराज्य अंग्रेजी बोलने वाले भारतीयों को और उन्हीं के लिए होने वाला हो तो नि:संदेह अंग्रेजी ही राष्ट्रभाषा होगी। लेकिन अगर स्वराज्य करोड़ों भूखों मरने वालों, करोड़ों निरक्षरों, निरक्षर बहनों और पिछड़ों व अत्यंजों का हो और इन सबके लिए होने वाला हो, तो हिंदी ही एकमात्र राष्ट्रभाषा हो सकती है।घर पर मातृभाषा बोलने वाले बच्चे मेधावी होते हैं[संपादित करें]विदेश में रहने वाले बच्चे जो अपने घर में परिवार वालों के साथ मातृभाषा में बात करते हैं और बाहर दूसरी भाषा बोलते हैं, वह ज्यादा बुद्धिमान होते हैं। एक नए अध्ययन से यह जानकारी मिली है। ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग के शोधकर्ताओं ने शोध में पाया कि जो बच्चे स्कूल में अलग भाषा बोलते हैं और परिवार वालों के साथ घर में अलग भाषा का उपयोग करते हैं, वे बुद्धिमत्ता जांच में उन बच्चों की तुलनामें अच्छे अंक लाए जो केवल मातृभाषा जानते हैं। इस अध्ययन में ब्रिटेन में रहने वाले तुर्की के सात से ११ वर्ष के १९९९ बच्चों को शामिल किया गया। इस आईक्यू जांच में दो भाषा बोलने वाले बच्चों का मुकाबला ऐसे बच्चों के साथ किया गया जो केवल अंग्रेजी बोलते हैं।[1] बहुत से अध्ययनों में यह बात उभरकर सामने आयी है कि आरम्भिक कक्षाओं में बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने से बेहतर परिणाम मिलते हैं। ऐसे कुछ अध्ययन युनेस्को द्वारा भी किये गये हैं।[2] विश्व में मौलिकता का ही महत्व है[संपादित करें]मौलिक लेखन, चिंतन या रचनात्मकता को संसारभर में नोट किया जाता है। विश्व में आज भी भारत की पहचान यहां की भाषा में लिखित उपनिषद, ब्रह्मसूत्र, योगसूत्र, रामायण, महाभारत, नाट्यशास्त्र आदि से है जो मौलिक रचनाएँ हैं। नीरद चौधरी, राजा राव, खुशवन्त सिंह जैसे लेखकों से नहीं। समाज की रचनात्मकता और मौलिकता अनिवार्यत: उसकी अपनी भाषा से जुड़ी होती है। विश्व में मौलिकता का महत्व है, माध्यम का नहीं। इसलिए यदि स्वतंत्र भारत में मौलिक चिन्तन, लेखन का ह्रास होता गया तो उसका कारण 'अंग्रेजी का बोझ' है। मौलिक लेखन, चिन्तन विदेशी भाषा में प्रायः असंभव है। कम से कम तब तक, जब तक ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका की मूल सभ्यता की भांति भारत सांस्कृतिक रूप से पूर्णत: नष्ट नहीं हो जाता और अंग्रेजी यहां सबकी एक मात्र भाषा नहीं बन जाती। तब तक भारतीय बुद्धिजीवी अंग्रेजी में कुछ भी क्यों न बोलते रहें, वह वैसी ही यूरोपीय जूठन की जुगाली होगी, जिसकी बाहर पूछ नहीं हो सकती।[3] सन्दर्भ[संपादित करें]
इन्हें भी देखें[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
मातृभाषा किसे कहते हैं मातृभाषा का ज्ञान करना क्यों आवश्यक है?वह भाषा जिसे बालक अपनी माता या परिवार से सीखता है, 'मातृभाषा' कहलाती है। जन्म के बाद प्रथम जो भाषा का प्रयोग करते है वही हमारी मातृभाषा है। जन्म से जो हम संस्कार एवं व्यवहार पाते है वे हम इसी के द्वारा पाते है। इसी भाषा से हम अपनी संस्कति के साथ जुड़कर उसकी धरोहर को आगे बढ़ाते है।
हिंदी को मातृभाषा क्यों कहा जाता है?मातृभाषा का संबंध जन्म देने वाली मां के द्वारा बोली जाने वाली भाषा से है, वह भाषा जिसमें बच्चा जन्म लेने के बाद अपनी माता से संवाद करता है, वही उसकी मातृभाषा हुई। अगर हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाया जाए तब भी किसी की मातृभाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा और किसी की मातृभाषा वही रहेगी जिस भाषा में उसकी मां संवाद करती हो।
मातृभाषा से क्या तात्पर्य है?जन्म लेने के बाद मानव जो प्रथम भाषा सीखता है उसे उसकी मातृभाषा कहते हैं। मातृभाषा, किसी भी व्यक्ति की सामाजिक एवं भाषाई पहचान होती है।
मातृभाषा से क्या लाभ है?मातृभाषा में संवाद करते हुए आपके पास शब्दों का ही नहीं, अपने आसपास की चीजों का एक वृहत कोश तैयार होता रहता है। जब बच्चा बचपन से ही अपनी मातृ भाषा का ज्ञान लेता है, तो वो उस भाषा में दक्षता प्राप्त कर लेता है। उसके बाद वो अन्य भाषा पर अपना ध्यान केंद्रित करता है ऐसे बच्चे एक नहीं बल्कि कई मातृ भाषा सीखते है।
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