मुहर्रम का शोक (या मुहर्रम या मुहर्रम पर्व का स्मरण) शिया और सुन्नी मुसलमान दोनों से जुड़े अनुष्ठानों का एक धार्मिक कार्य है।[1][2] इस्लामिक कैलेंडर के पहले महीने मुहर्रम में स्मारक आता है। यह आयोजन करबाला की लड़ाई की सालगिरह है, जब इमाम हुसैन इब्न अली को परिवार सहित दूसरे उमाय्याद खलीफ दुवारा कर्बला की लड़ाई में शहीद कर दिया था। इस घटना के दौरान इस घटना की याद वार्षिक शोक का, आशुरा के दिन के रूप में, शिया सांप्रदायिक पहचान को परिभाषित करता है।.[3] Show
शिया और सुन्नी शोक में अन्तर[संपादित करें]शोक प्रकट करने के लिए शिया मुसलमान अकेले में और सार्वजनिक रूप से अपने सीने को पीटते हैं, रोते हैं और इमाम हुसैन की याद में गीतों (मरसियों) को गाते हैं। सुन्नी मुसलमान केवल इस अवसर का स्मरण करते हैं। कुछ स्थानों पर अलम बिठाने का कार्य सुन्नी भी करते हैं। शिया लोग मुहर्रम में विवाह नहीं करते तथा तथा इस महीने में पति-पत्नि के सम्बंध नहीं बनाते। विवाह न करने की प्रथा सुन्नियों में भी रही है, परन्तु वहाबी और उदारपंथी विचारधारा के तहत आजकल कई सुन्नी मुसलमान मुहर्रम में विवाह कर रहे हैं। इन्हें भी देखें[संपादित करें]
सन्दर्भ[संपादित करें]
मुहर्रम के मौके पर ताजिये सहित जुलूस मुहर्रम :(अरबी/उर्दू/फ़ारसी : محرم) इस्लामी वर्ष यानी हिजरी वर्ष का पहला महीना है। हिजरी वर्ष का आरंभ इसी महीने से होता है। इस माह को इस्लाम के चार पवित्र महीनों में शुमार किया जाता है। अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने इस मास को अल्लाह का महीना कहा है। साथ ही इस मास में रोजा रखने की खास अहमियत बयान की है। मुख्तलिफ हदीसों, यानी हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के कौल (कथन) व अमल (कर्म) से मुहर्रम की पवित्रता व इसकी अहमियत का पता चलता है। ऐसे ही हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बार मुहर्रम का जिक्र करते हुए इसे अल्लाह का महीना कहा। इसे जिन चार पवित्र महीनों में रखा गया है, उनमें से दो महीने मुहर्रम से पहले आते हैं। यह दो मास हैं जीकादा व जिलहिज्ज। एक हदीस के अनुसार अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि रमजान के अलावा सबसे उत्तम रोजे वे हैं, जो अल्लाह के महीने यानी मुहर्रम में रखे जाते हैं। यह कहते समय नबी-ए-करीम हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने एक बात और जोड़ी कि जिस तरह अनिवार्य नमाजों के बाद सबसे अहम नमाज तहज्जुद की है, उसी तरह रमजान के रोजों के बाद सबसे उत्तम रोजे मुहर्रम के हैं। मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर का प्रथम मास है। इत्तिफाक की बात है कि आज मुहर्रम का यह पहलू आमजन की नजरों से ओझल है और इस माह में अल्लाह की इबादत करनी चाहीये जबकि पैगंबरे-इस्लाम ने इस माह में खूब रोजे रखे और अपने साथियों का ध्यान भी इस तरफ आकर्षित किया। इस बारे में कई प्रामाणिक हदीसें मौजूद हैं। मुहर्रम की 9 तारीख को जाने वाली इबादतों का भी बड़ा सवाब बताया गया है। हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के साथी इब्ने अब्बास के मुताबिक हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने कहा कि जिसने मुहर्रम की 9 तारीख का रोजा रखा, उसके दो साल के गुनाह माफ हो जाते हैं तथा मुहर्रम के एक रोजे का सवाब (फल) 30 रोजों के बराबर मिलता है। गोया यह कि मुहर्रम के महीने में खूब रोजे रखे जाने चाहिए। यह रोजे अनिवार्य यानी जरूरी नहीं हैं, लेकिन मुहर्रम के रोजों का बहुत सवाब है। अलबत्ता यह जरूर कहा जाता है कि इस दिन अल्लाह के नबी हजरत नूह (अ.) की किश्ती को किनारा मिला था। इसके साथ ही आशूरे के दिन यानी 10 मुहर्रम को एक ऐसी घटना हुई थी, जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इराक स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इस घटना में हजरत मुहम्मद (सल्ल.) के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था। कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीका अपनाना चाहिए। जबकि आज आमजन को दीन की जानकारी न के बराबर है। अल्लाह के रसूल वाले तरीकों से लोग वाकिफ नहीं हैं। करबला की जंग[संपादित करें]करबला, इराक़ की राजधानी बग़दाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा। 10 अक्टूबर 680 (10 मुहर्रम 61 हिजरी) को समाप्त हुई। इसमें एक तरफ 72 (शिया मत के अनुसार 123 यानी 72 मर्द-औरतें और 51 बच्चे शामिल थे) और दूसरी तरफ 40,000 की सेना थी। हजरत हुसैन की फौज के कमांडर अब्बास इब्ने अली थे। उधर यजीदी फौज की कमान उमर इब्ने सअद के हाथों में थी। हुसैन इब्ने अली इब्ने अबी तालिब हजरत अली और पैगंबर हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की बेटी फ़ातिमा (रजि.) के पुत्र। जन्म : 8 जनवरी 626 ईस्वी (मदीना, सऊदी अरब) 3 शाबान 4 हिजरी। शहादत: 10 अक्टूबर 680 ई. (करबला, इराक) 10 मुहर्रम 61 हिजरी। मुसलमानों का मानना है कि मोहर्रम के इस माह में अल्लाह की खूब इबादत करनी चाहिए। पैगंबरों ने इस माह में खूब रोजे़ रखे। जानकारी के लिए बता दें कि अल्लाह की बन्दगी तो आठों पहर और सोते जागते करनी चाहिए। अल्लाह की बन्दगी का कोई महीना विशेष या दिन विशेष नहीं होता। अल्लाह की बन्दगी पूर्ण तत्वदर्शी सन्त जिसे कुरान के सूरत अल फुरकान 25:59 में बाख़बर कहा है, के द्वारा बताई साधना विधि से की जा सकती है। मुस्लिम समाज में मनाया जाने वाला प्रसिद्ध शोक जश्न मुहर्रम सिर्फ लोकमान्यताओं पर आधारित है। हज़रत मोहम्मद जी ने कभी नहीं कहा कि आप अल्लाह के लिए खून बहाओ या अपने आप को कष्ट दो। और न ही इसका प्रमाण मुस्लिम समाज के पवित्र धर्मग्रंथों (कुरान, इनजिल, जबूर आदि) में है।[1] मुहर्रम और आशूरा[संपादित करें]ताजिया का जुलूस दबीरपुरा, ओल्ड सिटी (हैदराबाद, भारत) में मुहर्रम
महीने के १० वें दिन को 'आशूरा' कहते है। [2] आशूरा के दिन हजरत रसूल के नवासे हजरत
इमाम हुसैन को और उनके बेटे घरवाले और उनके साथियों (परिवार वाले) को करबला के मैदान में शहीद कर दिया गया था।[3] मुहर्रम इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले लोगों का एक प्रमुख त्यौहार है। इस माह की बहुत विशेषता और महत्व है। सन् 680 में इसी माह में कर्बला नामक स्थान मे एक धर्म युद्ध हुआ था, जो पैगम्बर हजरत मुहम्म्द स० के नाती तथा इब्न ज़्याद के बीच हुआ। इस धर्म युद्ध में वास्तविक जीत हज़रत इमाम हुसैन अ० की हुई। पर जाहिरी तौर पर इब्न ज़्याद के कमांडर शिम्र ने हज़रत हुसैन रज़ी० और उनके सभी 72 साथियों (परिवार वालो) को शहीद कर दिया था। जिसमें उनके छः महीने की उम्र के पुत्र हज़रत अली असग़र भी शामिल थे। और तभी से तमाम दुनिया के ना सिर्फ़ मुसलमान बल्कि दूसरी क़ौमों के लोग भी इस महीने में इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत का ग़म मनाकर उनकी याद करते हैं। आशूरे के दिन यानी 10 मुहर्रम को एक ऐसी घटना हुई थी, जिसका विश्व इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इराक में स्थित कर्बला में हुई यह घटना दरअसल सत्य के लिए जान न्योछावर कर देने की जिंदा मिसाल है। इस घटना में हजरत मुहम्मद के नवासे (नाती) हजरत हुसैन को शहीद कर दिया गया था।[4] कर्बला की घटना अपने आप में बड़ी विभत्स और निंदनीय है। बुजुर्ग कहते हैं कि इसे याद करते हुए भी हमें हजरत मुहम्मद (सल्ल.) का तरीका अपनाना चाहिए। जबकि आज आमजन को दीन की जानकारी न के बराबर है। अल्लाह के रसूल वाले तरीकों से लोग वाकिफ नहीं हैं। ऐसे में जरूरत है हजरत मुहम्मद (सल्ल.) की बताई बातों पर गौर करने और उन पर सही ढंग से अमल करने की जरुरत है। इमाम और उनकी शहादत के बाद सिर्फ उनके एक पुत्र हजरत इमाम जै़नुलआबेदीन, जो कि बीमारी के कारण युद्ध मे भाग न ले सके थे बचे| दुनिया मे अपने बच्चों का नाम हज़रत हुसैन और उनके शहीद साथियों के नाम पर रखने वाले अरबो मुसलमान हैं। इमाम हुसेन की औलादे जो सादात कहलाती हैं दुनियाभर में फैली हुयी हैं। जो इमाम जेनुलाबेदीन अ० से चली। ताज़िया का जुलूस[संपादित करें]मुख्य लेख देखें: ताज़िया 12वीं शताब्दी में ग़ुलाम वंश के पहले शासक कुतुब-उद-दीन ऐबक के समय से ही दिल्ली में इस मौक़े पर ताज़िये (मोहर्रम का जुलूस) निकाले जाते रहे हैं। इस दिन शिया मुसलमान इमामबाड़ों में जाकर मातम मनाते हैं और ताज़िया निकालते हैं। भारत के कई शहरों में मोहर्रम में शिया मुसलमान मातम मनाते हैं लेकिन लखनऊ इसका मुख्य केंद्र रहता है। सन्दर्भ[संपादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[संपादित करें]
क्या मुहर्रम में सुन्नी शोक मनाते हैं?मुहर्रम का शोक (या मुहर्रम या मुहर्रम पर्व का स्मरण) शिया और सुन्नी मुसलमान दोनों से जुड़े अनुष्ठानों का एक धार्मिक कार्य है। इस्लामिक कैलेंडर के पहले महीने मुहर्रम में स्मारक आता है।
मुहर्रम किसकी याद में मनाया जाता है?मुहर्रम का इतिहास
कर्बला की जंग हजरत इमाम हुसैन और बादशाह यजीद की सेना के बीच हुई थी. मान्यताओं के मुताबिक, मुहर्रम के महीने में 10वें दिन ही इस्लाम की रक्षा के लिए हजरत इमाम हुसैन ने अपनी जान कुर्बान कर दी थी. इसलिए मुहर्रम महीने के 10वें दिन मुहर्रम को मनाया जाता है. बता दें कि 1400 साल पहले कर्बला में जंग हुई थी.
मोहर्रम का क्या इतिहास है?इन दिन को इस्लामिक कैलेंडर में बेहद अहम माना गया है क्योंकि इसी दिन हजरत इमाम हुसैन की शहादत हुई थी। इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद साहब के छोटे नवासे हजरत इमाम हुसैन ने कर्बला में अपने 72 साथियों के साथ शहादत दी थी। इसलिए इस माह को गम के महीने के तौर पर मनाया जाता है।
हुसैन को मारने वाले कौन थे?बता दें कि यजीद की फौज ने पहले ही इमाम हुसैन का सिर काट दिया था और उनके सिर को महल की ओर ले जा रहे थे. उस वक्त राहिब दत्त और उनकी सेना ने यजीद से मुकाबला किया और ये सिर ले लिया. कहा जाता है कि इस सिर को बचाने के लिए उन्होंने अपने बेटों का सिर कलम कर दिया और बहादुरी से यजीद का मुकाबला किया.
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