महामारी से ग्रसित लुट्टन के गांव की सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के बाद की स्थिति में क्या अन्तर होता है 3? - mahaamaaree se grasit luttan ke gaanv kee sooryoday ke baad aur sooryaast ke baad kee sthiti mein kya antar hota hai 3?

महामारी फैलने के बाद गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य में क्या अंतर होता था?

सूर्योदय के बाद लोग चाहे कितने दुखी क्यों न हो, मृत्यु का भय उन्हें चाहे सता रहा हो लेकिन एक-दूसरे से बातचीत करते थे। इस हाहाकार में वे एक-दूसरे को सहानुभूति देते तथा मदद करते थे। गाँव में चहल-पहल दिखाई देती थी। बीमारी से ग्रस्त होने के बाद भी दिन का प्रकाश उनके रक्त में संचार भर देता था। सूर्यास्त के बाद दृश्य ठीक इसके विपरीत हो जाता था। सब अपने घरों में चले जाते थे। किसी के बोलने का शब्द नहीं होता था। लोग मरते हुए अपने संबंधी को दो शब्द भी बोल नहीं पाते थे। एकमात्र लुट्टन का ढोल उस विभीषिका को चुनौती देता प्रतीत होता था।

Concept: गद्य भाग

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महामारी से ग्रसित लुट्टन के गांव की सूर्योदय के बाद और सूर्यास्त के बाद की स्थिति में क्या अन्तर होता है?

उत्तर:- महामारी फैलने के बाद गाँव में सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य में बड़ा अंतर होता था। सूर्योदय के समय कलरव, हाहाकार तथा हृदय विदारक रुदन के बावजूद भी लोगों के चेहरे पर चमक होती थी लोग एक-दूसरे को सांत्वना बँधाते रहते थे परन्तु सूर्यास्त होते ही सारा परिदृश्य बदल जाता था। लोग अपने घरों में दुबक कर बैठ जाते थे।

सूर्योदय और सूर्यास्त के समय गांव के दृश्यों में क्या अंतर आता था?

महामारी फैलने के बाद गाँव में सूर्योदय होते ही लोग काँखते-कूँखते-कराहते अपने-अपने घरों से निकलकर अपने पड़ोसियों और आत्मीयों को ढाढ़स देते थे। वे बचे रह गए लोगों को रोकर दु:खी न होने को कहते थे। सूर्यास्त होते ही लोग अपनी-अपनी झोंपड़ियों में घुस जाते थे और चूँ तक न करते थे।

गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों की मृत्यु के बाद भी पहलवान ढोल क्यों बजाता रहा?

गाँव में महामारी फैलने और अपने बेटों के देहांत के बावजूद लुट्टन पहलवान ढोल इसलिए बजाता रहा ताकि वह अपनी हिम्मत न टूटने का पता लोगों को दे सके। वह अंतिम समय तक अपनी बहादुरी और दिलेरी का परिचय देना चाहता था। ढोल के साथ उसके हृदय का नाता जुड़ गया था।

पहलवान की ढोलक की आवाज का पूरे गांव पर क्या असर होता था लिखिए?

ढोलक की आवाज़ सुनकर लोगों को प्रेरणा तथा सहानुभूति मिलती थी। मृत्यु के भय से आक्रांत लोग, अर्धचेतन अवस्था में पड़े लोग, जिदंगी से हारे लोग ढोलक की आवाज़ से जी उठते थे। रात की विभीषिका उन्हें आक्रांत नहीं कर पाती थी। जब तक ढोल बजता था उनकी अश्रु से भरी आँखें उसे सुनकर चमक उठती थी।