‘अपठित’ शब्द अंग्रेज़ी भाषा के शब्द ‘unseen’ का समानार्थी है। इस शब्द की रचना ‘पाठ’ मूल शब्द में ‘अ’ उपसर्ग और ‘इत’ प्रत्यय जोड़कर बना है। इसका शाब्दिक अर्थ है-‘बिना पढ़ा हुआ।’ अर्थात गद्य या काव्य का ऐसा अंश जिसे पहले न पढ़ा गया हो। परीक्षा में अपठित गद्यांश और काव्यांश पर आधारित प्रश्न पूछे जाते हैं। इस तरह के प्रश्नों को पूछने का उद्देश्य छात्रों की समझ अभिव्यक्ति कौशल और भाषिक योग्यता का परख करना होता है। You can also download NCERT Class 10 Science Solutions to help you to revise complete syllabus and score more marks in your examinations. अपठित गद्यांश अपठित गद्यांश प्रश्नपत्र का वह अंश होता है जो पाठ्यक्रम में निर्धारित पुस्तकों से नहीं पूछा जाता है। यह अंश साहित्यिक पुस्तकों पत्र-पत्रिकाओं या समाचार-पत्रों से लिया जाता है। ऐसा गद्यांश भले ही निर्धारित पुस्तकों से हटकर लिया जाता है परंतु, उसका स्तर, विषय वस्तु और भाषा-शैली पाठ्यपुस्तकों जैसी ही होती है। प्रायः छात्रों को अपठित अंश कठिन लगता है और वे प्रश्नों का सही उत्तर नहीं दे पाते हैं। इसका कारण अभ्यास की कमी है। अपठित गद्यांश को बार-बार हल करने से-
अपठित गद्यांश के प्रश्नों को कैसे हल करें- अपठित गद्यांश पर आधारित प्रश्नों को हल करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए-
निम्नलिखित गद्यांश को पढ़कर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए प्रश्न: 1. प्रश्न: 2. प्रश्न: 3. प्रश्न: 4. प्रश्न: 5. उदाहरण ( उत्तर सहित) निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर नीचे दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए – (1) गंगा भारत की एक अत्यन्त पवित्र नदी है जिसका जल काफ़ी दिनों तक रखने के बावजूद अशुद्ध नहीं होता जबकि साधारण जल कुछ दिनों में ही सड़ जाता है। गंगा का उद्गम स्थल गंगोत्री या गोमुख है। गोमुख से भागीरथी नदी निकलती है और देवप्रयाग नामक स्थान पर अलकनंदा नदी से मिलकर आगे गंगा के रूप में प्रवाहित होती है। भागीरथी के देवप्रयाग तक आते-आते इसमें कुछ चट्टानें घुल जाती हैं जिससे इसके जल में ऐसी क्षमता पैदा हो जाती है जो उसके पानी को सड़ने नहीं देती। हर नदी के जल में कुछ खास तरह के पदार्थ घुले रहते हैं जो उसकी विशिष्ट जैविक संरचना के लिए उत्तरदायी होते हैं। ये घुले हुए पदार्थ पानी में कुछ खास तरह के बैक्टीरिया को पनपने देते हैं तो कुछ को नहीं। कुछ खास तरह के बैक्टीरिया ही पानी की सड़न के लिए उत्तरदायी होते हैं तो कुछ पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को रोकने में सहायक होते हैं। वैज्ञानिक शोधों से पता चलता है कि गंगा के पानी में भी ऐसे बैक्टीरिया हैं जो गंगा के पानी में सड़न पैदा करने वाले कीटाणुओं को पनपने ही नहीं देते इसलिए गंगा का पानी काफ़ी लंबे समय तक खराब नहीं होता और पवित्र माना जाता है। हमारा मन भी गंगा के पानी की तरह ही होना चाहिए तभी वह निर्मल माना जाएगा। जिस प्रकार पानी को सड़ने से रोकने के लिए उसमें उपयोगी बैक्टीरिया की उपस्थिति अनिवार्य है उसी प्रकार मन में विचारों के प्रदूषण को रोकने के लिए सकारात्मक विचारों के निरंतर प्रवाह की भी आवश्यकता है। हम अपने मन को सकारात्मक विचार रूपी बैक्टीरिया द्वारा आप्लावित करके ही गलत विचारों को प्रविष्ट होने से रोक सकते हैं। जब भी कोई नकारात्मक विचार उत्पन्न हो सकारात्मक विचार द्वारा उसे समाप्त कर दीजिए। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (2) वर्तमान सांप्रदायिक संकीर्णता के विषम वातावरण में संत-साहित्य की उपादेयता बहुत है। संतों में शिरोमणि कबीर दास भारतीय धर्मनिरपेक्षता के आधार पुरुष हैं। संत कबीर एक सफल साधक, प्रभावशाली उपदेशक, महा नेता और युग-द्रष्टा थे। उनका समस्त काव्य विचारों की भव्यता और हृदय की तन्मयता तथा औदार्य से परिपूर्ण है। उन्होंने कविता के सहारे अपने विचारों को और भारतीय धर्म निरपेक्षता के आधार को युग-युगान्तर के लिए अमरता प्रदान की। कबीर ने धर्म को मानव धर्म के रूप में देखा था। सत्य के समर्थक कबीर हृदय में विचार-सागर और वाणी में अभूतपूर्व शक्ति लेकर अवतरित हुए थे। उन्होंने लोक-कल्याण कामना से प्रेरित होकर स्वानुभूति के सहारे काव्य-रचना की। वे पाठशाला या मकतब की देहरी से दूर जीवन के विद्यालय में ‘मसि कागद छुयो नहिं’ की दशा में जीकर सत्य, ईश्वर विश्वास, प्रेम, अहिंसा, धर्म-निरपेक्षता और सहानुभूति का पाठ पढ़ाकर अनुभूति मूलक ज्ञान का प्रसार कर रहे थे। कबीर ने समाज में फैले हुए मिथ्याचारों और कुत्सित भावनाओं की धज्जियाँ उड़ा दीं। स्वकीय भोगी हुई वेदनाओं के आक्रोश से भरकर समाज में फैले हुए ढोंग और ढकोसलों, कुत्सित विचारधाराओं के प्रति दो टूक शब्दों में जो बातें कहीं, उनसे समाज की आँखें फटी की फटी रह गईं और साधारण जनता उनकी वाणियों से चेतना प्राप्त कर उनकी अनुगामिनी बनने को बाध्य हो उठी। देश की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक सभी प्रकार की समस्याओं का समाधान वैयक्तिक जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का प्रयत्न संत कबीर ने किया। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (3) सुखी, सफल और उत्तम जीवन जीने के लिए किए गए आचरण और प्रयत्नों का नाम ही धर्म है। देश, काल और सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से संसार में भारी विविधता है, अतएव अपने-अपने ढंग से जीवन को पूर्णता की ओर ले जाने वाले विविध धर्मों के बीच भी ऊपर से विविधता दिखाई देती है। आदमी का स्वभाव है कि वह अपने ही विचारों और जीने के तौरतरीकों को तथा अपनी भाषा और खानपान को सर्वश्रेष्ठ मानता है तथा चाहता है कि लोग उसी का अनुसरण और अनुकरण करें, अतएव दूसरों से अपने धर्म को श्रेष्ठतर समझते हुए वह चाहता है कि सभी लोग उसे अपनाएँ। इसके लिए वह ज़ोरज़बर्दस्ती को भी बुरा नहीं समझता। धर्म के नाम पर होने वाले जातिगत विद्वेष, मारकाट और हिंसा के पीछे मनुष्य की यही स्वार्थ-भावना काम करती है। सोच कर देखिए कि आदमी का यह दृष्टिकोण कितना सीमित, स्वार्थपूर्ण और गलत है। सभी धर्म अपनी-अपनी भौगोलिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आवश्यकताओं के आधार पर पैदा होते, पनपते और बढ़ते हैं, अतएव उनका बाह्य स्वरूप भिन्न-भिन्न होना आवश्यक और स्वाभाविक है, पर सबके भीतर मनुष्य की कल्याण-कामना है, मानव-प्रेम है। यह प्रेम यदि सच्चा है, तो यह बाँधता और सिकोड़ता नहीं, बल्कि हमारे हृदय और दृष्टिकोण का विस्तार करता अपठित गद्यांश है, वह हमें दूसरे लोगों के साथ नहीं, समस्त जीवन-जगत के साथ स्पष्ट है कि ऊपर से भिन्न दिखाई देने वाले सभी धर्म अपने मूल में मानव-कल्याण की एक ही मूलधारा को लेकर चले और चल रहे हैं। हम सभी इस सच्चाई को जानकर भी जब धार्मिक विदवेष की आँधी में बहते हैं, तो कितने दुर्भाग्य की बात है! उस समय हमें लगता है कि चिंतन और विकास के इस दौर में आ पहुँचने पर भी मनुष्य को उस जंगली-हिंसक अवस्था में लौटने में कुछ भी समय नहीं लगता; अतएव उसे निरंतर यह याद दिलाना होगा कि धर्म मानव-संबंधों को तोड़ता नहीं, जोड़ता है इसकी सार्थकता प्रेम में ही है। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) 4 धरती का स्वर्ग श्रीनगर का ‘अस्तित्व’ डल झील मर रही है। यह झील इंसानों के साथ-साथ जलचरों, परिंदों का घरौंदा हुआ करती थी। झील से हज़ारों हाथों को काम और लाखों को रोटी मिलती थी। अपने जीवन की थकान, मायूसी और एकाकीपन को दूर करने, देश-विदेश के लोग इसे देखने आते थे। यह झील केवल पानी का एक स्रोत नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों की जीवन-रेखा है, मगर विडंबना है कि स्थानीय लोग इसको लेकर बहुत उदासीन हैं। समुद्र-तल से पंद्रह सौ मीटर की ऊँचाई पर स्थित डल एक प्राकृतिक झील है और कोई पचास हज़ार साल पुरानी है। श्रीनगर शहर के पूर्वी और उत्तर-पूर्वी दिशा में स्थित यह जल-निधि पहाडों के बीच विकसित हई थी। सरकारी रिकार्ड गवाह है कि 1200 में इस झील का फैलाव पचहत्तर वर्ग किलोमीटर में था। 1847 में इसका क्षेत्रफल अड़तालीस वर्ग किमी आँका गया। 1983 में हुए माप-जोख में यह महज साढ़े दस वर्ग किमी रह गई। अब इसमें जल का फैलाव आठ वर्ग किमी रह गया है। इन दिनों सारी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग का शोर है और लोग बेखबर हैं कि इसकी मार इस झील पर भी पड़ने वाली है। इसका सिकुड़ना इसी तरह जारी रहा तो इसका अस्तित्व केवल तीन सौ पचास साल रह सकता है। इसके पानी के बड़े हिस्से पर अब हरियाली है। झील में हो रही खेती और तैरते बगीचे इसे जहरीला बना रहे हैं। सागसब्जियों में अंधाधुंध रासायनिक खाद और कीटनाशक दवाएँ डाली जा रही हैं, जिससे एक तो पानी दूषित हो गया, साथ ही झील में रहने वाले जलचरों की कई प्रजातियाँ समूल नष्ट हो गईं। आज इसका प्रदूषण उस स्तर तक पहुँच गया है कि कुछ वर्षों में ढूँढ़ने पर भी इसका समाधान नहीं मिलेगा। इस झील के बिना श्रीनगर की पहचान की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह भी तय है कि आम लोगों को झील के बारे में संवेदनशील और भागीदार बनाए बगैर इसे बचाने की कोई भी योजना सार्थक नहीं हो सकती है। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (5) अच्छा नागरिक बनने के लिए भारत के प्राचीन विचारकों ने कुछ नियमों का प्रावधान किया है। इन नियमों में वाणी और व्यवहार की शुद्धि, कर्तव्य और अधिकार का समुचित निर्वाह, शुद्धतम पारस्परिक सद्भाव, सहयोग और सेवा की भावना आदि नियम बहुत महत्त्वपूर्ण माने गए हैं। ये सभी नियम यदि एक व्यक्ति के चारित्रिक गुणों के रूप में भी अनिवार्य माने जाएँ तो उसका अपना जीवन भी सुखी और आनंदमय हो सकता है। इन सभी गुणों का विकास एक बालक में यदि उसकी बाल्यावस्था से ही किया जाए तो वह अपने देश का श्रेष्ठ नागरिक बन सकता है। इन गुणों के कारण वह अपने परिवार, आस-पड़ोस, विद्यालय में अपने सहपाठियों एवं अध्यापकों के प्रति यथोचित व्यवहार कर सकेगा। वाणी एवं व्यवहार की मधुरता सभी के लिए सुखदायी होती है, समाज में हार्दिक सद्भाव की वृद्धि करती है किंतु अहंकारहीन व्यक्ति ही स्निग्ध वाणी और शिष्ट व्यवहार का प्रयोग कर सकता है। अहंकारी और दंभी व्यक्ति सदा अशिष्ट वाणी और व्यवहार का अभ्यास होता है। जिसका परिणाम यह होता है कि ऐसे आदमी के व्यवहार से समाज में शांति और सौहार्द का वातावरण नहीं बनता। जिस प्रकार एक व्यक्ति समाज में रहकर अपने व्यवहार से कर्तव्य और अधिकार के प्रति सजग रहता है, उसी तरह देश के प्रति भी उसका व्यवहार कर्तव्य और अधिकार की भावना से भावित रहना चाहिए। उसका कर्तव्य हो जाता है कि न तो वह स्वयं कोई ऐसा काम करे और न ही दूसरों को करने दे, जिससे देश के सम्मान, संपत्ति और स्वाभिमान को ठेस लगे। समाज एवं देश में शांति बनाए रखने के लिए धार्मिक सहिष्णुता भी बहुत आवश्यक है। यह वृत्ति अभी आ सकती है जब व्यक्ति संतुलित व्यक्तित्व का हो। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (6) गत कुछ वर्षों में जिस तरह मोबाइल फ़ोन-उपभोक्ताओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, उसी अनुपात में सेवा प्रदाता कंपनियों ने जगह-जगह टावर खड़े कर दिए हैं। इसमें यह भी ध्यान नहीं रखा गया कि जिन रिहाइशी इलाकों में टावर लगाए जा रहे हैं, वहाँ रहने वाले और दूसरे जीवों के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ेगा। मोबाइल टावरों से होने वाले विकिरण से मनुष्य और पशु-पक्षियों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर के मद्देनज़र विभिन्न-अदालतों में याचिकाएं दायर की गई हैं। शायद यही वजह है कि सरकार को इस दिशा में पहल करनी पड़ी। केंद्र सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुसार टावर लगाने वाली कंपनियों को अपने मौजूदा रेडियो फ्रिक्वेंसी क्षेत्र में दस फीसदी की कटौती करनी होगी। मोबाइल टावरों के विकरण से होने वाली कैंसर जैसी गंभीर बीमारियों का मुद्दा देशभर में लोगों की चिंता का कारण बना हुआ है। पिछले कुछ महीनों में आम नागरिकों और आवासीय कल्याण-संगठनों ने न सिर्फ रिहाइशी इलाकों में नए टावर लगाने का विरोध किया, बल्कि मौजूदा टावरों पर भी सवाल उठाए हैं। अब तक कई अध्ययनों में ऐसी आशंकाएँ व्यक्त की जा चुकी हैं कि मोबाइल टावरों से निकलने वाली रेडियो तरंगें न केवल पशु-पक्षियों, बल्कि मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए भी कई रूपों में हानिकारक सिद्ध हो सकती हैं। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की ओर से कराए एक अध्ययन की रिपोर्ट में तथ्य सामने आए कि गौरैयों और मधुमक्खियों की तेज़ी से घटती संख्या के लिए बड़े पैमाने पर लगाए जा रहे मोबाइल टावरों से निकलने वाली विद्युत्-चुंबकीय तरंगें कारण हैं। इन पर हुए अध्ययनों में पाया गया है कि मोबाइल टावर के पाँच सौ मीटर की सीमा में रहने वाले लोग अनिद्रा, सिरदर्द, थकान, शारीरिक कमजोरी और त्वचा रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं, जबकि कुछ लोगों में चिड़चिड़ापन और घबराहट बढ़ जाती है। फिर मोबाइल टावरों की रेडियो फ्रिक्वेंसी तरंगों को मनुष्य के लिए पूरी तरह सुरक्षित मान लेने का क्या आधार हो सकता है? टावर लगाते समय मोबाइल कंपनियाँ तमाम नियम-कायदों को ताक पर रखने से नहीं हिचकतीं। इसलिए चुंबकीय तरंगों में कमी लाने के साथ-साथ, टावर लगाते समय नियमों की अनदेखी पर नकेल कसने की आवश्यकता है। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ)
(7) साहस की जिंदगी सबसे बड़ी जिंदगी होती है। ऐसी जिंदगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात की चिंता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीने वाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्य को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीवन का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं। साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है। साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, पर वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है। अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, जिंदगी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता। जिंदगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम को झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम का हर जगह पर एक घेरा डालता है, वह अंततः अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और जिंदगी का कोई मज़ा उसे नहीं मिल पाता, क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में, उसने जिंदगी को ही आने से रोक रखा है। ज़िन्दगी से, अंत में हम उतना ही पाते हैं जितनी कि उसमें पूँजी लगाते हैं। पूँजी लगाना जिंदगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलटकर पढ़ना है जिसके सभी अक्षर फूलों से ही नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ)
प्रश्नः (ङ) (8) कुसंग का ज्वर सबसे भयानक होता है। यह केवल नीति और सद्वृत्ति का ही नाश नहीं करता, बल्कि बुद्धि का भी क्षय करता है। किसी युवा पुरुष की संगति यदि बुरी होगी तो वह उसके पैरों में बँधी चक्की के समान होगी, जो उसे दिन-रात अवनति के गड्ढे में गिराती जाएगी और यदि अच्छी होगी तो सहारा देने वाली बाहु के समान होगी, जो उसे निरंतर उन्नति की ओर उठाती जाएगी। इंग्लैंड के एक विद्वान को युवावस्था में राज-दरबारियों में जगह नहीं मिली। इस पर जिंदगी भर वह अपने भाग्य को सराहता रहा। बहुत-से लोग तो इसे अपना बड़ा भारी दुर्भाग्य समझते, पर वह अच्छी तरह जानता था कि वहाँ वह बुरे लोगों की संगति में पड़ता जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक बनते। बहुत-से लोग ऐसे होते हैं, जिनके घड़ी भर के साथ से भी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, क्योंकि उनके ही बीच में ऐसी-ऐसी बातें कही जाती हैं जो कानों में न पड़नी चाहिए, चित्त पर ऐसे प्रभाव पड़ते हैं, जिनसे उसकी पवित्रता का नाश होता है। बुराई अटल भाव धारण करके बैठती है। बुरी बातें हमारी धारणा में बहुत दिनों तक टिकती हैं। इस बात को प्रायः सभी लोग जानते हैं कि भद्दे व फूहड़ गीत जितनी जल्दी ध्यान पर चढ़ते हैं, उतनी जल्दी कोई गंभीर या अच्छी बात नहीं। एक बार एक मित्र ने मुझसे कहा कि उसे लड़कपन में कहीं से बुरी कहावत सुनी थी, जिसका ध्यान वह लाख चेष्टा करता है कि न आए, पर बार-बार आता है। जिन भावनाओं को हम दूर रखना चाहते हैं, जिन बातों को हम याद करना नहीं चाहते, वे बार-बार हृदय में उठती हैं और बेधती हैं। अतः तुम पूरी चौकसी रखो, ऐसे लोगों को साथी न बनाओ जो अश्लील, अपवित्र और फूहड़ बातों से तुम्हें हँसाना चाहें। सावधान रहो। ऐसा न हो कि पहले-पहल तुम इसे एक बहुत सामान्य बात समझो और सोचो कि एक बार ऐसा हुआ, फिर ऐसा न होगा। अथवा तुम्हारे चरित्रबल का ऐसा प्रभाव पड़ेगा कि ऐसी बातें बकने वाले आगे चलकर आप सुधर जाएँगे। नहीं, ऐसा नहीं होगा। जब एक बार मनुष्य अपना पैर कीचड़ में डाल देता है, तब फिर यह नहीं देखता कि वह कहाँ और कैसी जगह पैर रखता है। धीरे-धीरे उन बुरी बातों में अभ्यस्त होते-होते तुम्हारी घृणा कम हो जाएगी। पीहे तुम्हें उनसे चिढ़ न मालूम होगी, क्योंकि तुम यह सोचने लगोगे कि चिढ़ने की बात ही क्या है। तुम्हारा विवेक कुंठित हो जाएगा और तुम्हें भले-बुरे की पहचान न रह जाएगी। अंत में होते-होते तुम भी बुराई के भक्त बन जाओगे। अतः हृदय को उज्ज्वल और निष्कलंक रखने का सबसे अच्छा उपाय यही है कि बुरी संगति की छूत से बचो। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (9) विश्व के प्रायः सभी धर्मों में अहिंसा के महत्त्व पर बहुत प्रकाश डाला गया है। भारत के सनातन हिंदू धर्म और जैन धर्म के सभी ग्रंथों में अहिंसा की विशेष प्रशंसा की गई है। ‘अष्टांगयोग’ के प्रवर्तक पतंजलि ऋषि ने योग के आठों अंगों में प्रथम अंग ‘यम’ के अन्तर्गत ‘अहिंसा’ को प्रथम स्थान दिया है। इसी प्रकार ‘गीता’ में भी अहिंसा के महत्त्व पर जगह-जगह प्रकाश डाला गया है। भगवान् महावीर ने अपनी शिक्षाओं का मूलाधार अहिंसा को बताते हुए ‘जियो और जीने दो’ की बात कही है। अहिंसा मात्र हिंसा का अभाव ही नहीं, अपितु किसी भी जीव का संकल्पपूर्वक वध नहीं करना और किसी जीव या प्राणी को अकारण दुख नहीं पहुँचाना है। ऐसी जीवन-शैली अपनाने का नाम ही ‘अहिंसात्मक जीवन शैली’ है। अकारण या बात-बात में क्रोध आ जाना हिंसा की प्रवृत्ति का एक प्रारम्भिक रूप है। क्रोध मनुष्य को अंधा बना देता है; वह उसकी बुद्धि का नाश कर उसे अनुचित कार्य करने को प्रेरित करता है, परिणामतः दूसरों को दुख और पीड़ा पहुँचाने का कारण बनता है। सभी प्राणी मेरे लिए मित्रवत् हैं। मेरा किसी से भी वैर नहीं है, ऐसी भावना से प्रेरित होकर हम व्यावहारिक जीवन में इसे उतारने का प्रयत्न करें तो फिर अहंकारवश उत्पन्न हुआ क्रोध या द्वेष समाप्त हो जाएगा और तब अपराधी के प्रति भी हमारे मन में क्षमा का भाव पैदा होगा। क्षमा का यह उदात्त भाव हमें हमारे परिवार से सामंजस्य कराने व पारस्परिक प्रेम को बढ़ावा देने में अहम् भूमिका निभाता है। हमें ईर्ष्या तथा वेष रहित होकर लोभवृत्ति का त्याग करते हुए संयमित खान-पान तथा व्यवहार एवं क्षमा की भावना को जीवन में उचित स्थान देते हुए अहिंसा का एक ऐसा जीवन जीना है कि हमारी जीवन-शैली एक अनुकरणीय आदर्श बन जाए। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (10) कुछ लोगों के अनुसार मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य धन-संग्रह है। नीतिशास्त्र में धन-संपत्ति आदि को ही ‘अर्थ’ कहा गया है। बहुत से ग्रंथों में अर्थ की प्रशंसा की गई है; क्योंकि सभी गुण अर्थ अर्थात् धन के आश्रित ही रहते हैं। जिसके पास धन है वही सुखी रह सकता है, विषय-भोगों को संगृहीत कर सकता है तथा दान-धर्म भी निभा सकता है। वर्तमान युग में धन का सबसे अधिक महत्त्व है। आज हमारी आवश्यकताएँ बहुत बढ़ गई हैं, इसलिए उनको पूरा करने के लिए धन-संग्रह की आवश्यकता पड़ती है। धन की प्राप्ति के लिए भी अत्यधिक प्रयत्न करना पड़ता है और सारा जीवन इसी में लगा रहता है। कुछ लोग तो धनोपार्जन को ही जीवन का उददेश्य बनाकर उचित-अनुचित साधनों का भेद भी भुला बैठते हैं। संसार के इतिहास में धन की लिप्सा के कारण जितनी हिंसाएँ, अनर्थ और अत्याचार हुए हैं, उतने और किसी दूसरे कारण से नहीं हुए हैं। अतः धन को जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य नहीं माना जा सकता; क्योंकि धन अपने आप में मूल्यवान वस्तु नहीं है। धन को संचित करने के लिए छल-कपट आदि का सहारा लेना पड़ता है, जिसके कारण जीवन में अशांति और चेहरे पर विकृति बनी रहती है। इतना ही नहीं इसके संग्रह की प्रवृत्ति के पनपने के कारण सदा चोर, डाकू और दुश्मनों का भय बना रहता है। धन का अपहरण या नाश होने पर कष्ट होता है। इस प्रकार अशांति, संघर्ष, दुष्प्रवृत्ति, दुख, भय एवं पाप आदि का मूल होने के कारण, धन को जीवन का परम लक्ष्य नहीं माना जा सकता। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (11) आज से लगभग छह सौ साल पूर्व संत कबीर ने सांप्रदायिकता की जिस समस्या की ओर ध्यान दिलाया था, वह आज भी प्रसुप्त ज्वालामुखी की भाँति भयंकर बनकर देश के वातावरण को विदग्ध करती रहती है। देश का यह बड़ा दुर्भाग्य है कि यहाँ जाति, धर्म, भाषागत, ईर्ष्या, द्वेष, बैर-विरोध की भावना समय-असमय भयंकर ज्वालामुखी के रूप में भड़क उठती है। दस बीस हताहत होते हैं, लाखों-करोड़ों की संपत्ति नष्ट हो जाती है। भय, त्रास और अशांति का प्रकोप होता है। विकास की गति अवरुद्ध हो जाती है। कबीर हिंदू-मुसलमान में, जाति-जाति में शारीरिक दृष्टि से कोई भेद नहीं मानते। भेद केवल विचारों और भावों का है। इन विचारों और भावों के भेद को बल धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिकता से मिलता है। हृदय की चरमानुभूति की दशा में राम और रहीम में कोई अंतर नहीं। अंतर केवल उन माध्यमों में है जिनके द्वारा वहाँ तक पहुँचने का प्रयत्न किया जाता है। इसीलिए कबीर साहब ने उन माध्यमों – पूजा-नमाज़, व्रत, रोज़ा आदि के दिखावे का विरोध किया। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (12) दैनिक जीवन में हम अनेक लोगों से मिलते हैं, जो विभिन्न प्रकार के काम करते हैं-सड़क पर ठेला लगानेवाला, दूधवाला, नगर निगम का सफाईकर्मी, बस कंडक्टर, स्कूल अध्यापक, हमारा सहपाठी और ऐसे ही कई अन्य लोग। शिक्षा, वेतन, परंपरागत चलन और व्यवसाय के स्तर पर कुछ लोग निम्न स्तर पर कार्य करते हैं तो कुछ उच्च स्तर पर। एक माली के कार्य को सरकारी कार्यालय के किसी सचिव के कार्य से अति निम्न स्तर का माना जाता है, किंतु यदि यही अपने कार्य को कुशलतापूर्वक करता है और उत्कृष्ट सेवाएँ प्रदान करता है तो उसका कार्य उस सचिव के कार्य से कहीं बेहतर है, जो अपने काम में ढिलाई बरतता है तथा अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह नहीं करता। क्या आप ऐसे सचिव को एक आदर्श अधिकारी कह सकते हैं? वास्तव में पद महत्त्वपूर्ण नहीं है, बल्कि महत्त्वपूर्ण होता है, कार्य के प्रति समर्पण-भाव और कार्य-प्रणाली में पारदर्शिता। इस संदर्भ में गांधी जी से उत्कृष्ट उदाहरण और किसका दिया जा सकता है, जिन्होंने अपने हर कार्य को गरिमामय मानते हुए किया। वे अपने सहयोगियों को श्रम की गरिमा की सीख दिया करते थे। दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों के लिए संघर्ष करते हुए उन्होंने सफ़ाई करने जैसे कार्य को भी कभी नीचा नहीं समझा और इसी कारण स्वयं उनकी पत्नी कस्तूरबा से भी उनके मतभेद हो गए थे। बाबा आमटे ने समाज द्वारा तिरस्कृत कुष्ठ रोगियों की सेवा में अपना समस्त जीवन समर्पित कर दिया। सुंदरलाल बहुगुणा ने अपने प्रसिद्ध ‘चिपको आंदोलन’ के माध्यम से पेड़ों को संरक्षण प्रदान किया। फादर डेमियन ऑफ मोलोकाई, मार्टिन लूथर किंग और मदर टेरेसा जैसी महान आत्माओं ने इसी सत्य को ग्रहण किया। इनमें से किसी ने भी कोई सत्ता प्राप्त नहीं की, बल्कि अपने जन-कल्याणकारी कार्यों से लोगों के दिलों पर शासन किया। गांधी जी का स्वतंत्रता के लिए संघर्ष उनके जीवन का एक पहलू है, किंतु उनका मानसिक क्षितिज वास्तव में एक राष्ट्र की सीमाओं में बँधा हुआ नहीं था। उन्होंने सभी लोगों में ईश्वर के दर्शन किए। यही कारण था कि कभी किसी पंचायत तक के सदस्य नहीं बनने वाले गांधी जी की जब मृत्यु हुई तो अमेरिका का राष्ट्रध्वज भी झुका दिया गया था। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (13) परिवर्तन प्रकृति का नियम है और परिवर्तन ही अटल सत्य है। अतः पर्यावरण में भी परिवर्तन हो रहा है लेकिन वर्तमान समय में चिंता की बात यह है कि जो पर्यावरणीय परिवर्तन पहले एक शताब्दी में होते थे, अब उतने ही परिवर्तन एक दशक में होने लगे हैं। पर्यावरण परिवर्तन की इस तेज़ी का कारण है विस्फोटक ढंग से बढ़ती आबादी, वैज्ञानिक एवं तकनीकी उन्नति और प्रयोग तथा सभ्यता का विकास। आइए, हम सभी मिलकर यहाँ दो प्रमुख क्षेत्रों का चिंतन करें एवं निवारण विधि सोचें। पहला है ओजोन की परत में कमी और विश्व के तापमान में वृद्धि। ये दोनों क्रियाएँ परस्पर संबंधित है। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सुपरसोनिक वायुयानों का ईजाद हुआ और वे ऊपरी आकाश में उड़ाए जाने लगे। उन वायुयानों के द्वारा निष्कासित पदार्थों में उपस्थित नाइट्रिक ऑक्साइड के द्वारा ओजोन परत का क्षय महसूस किया गया। यह ओजोन परत वायुमंडल के समताप मंडल या बाहरी घेरे में होता है। आगे शोध द्वारा यह भी पता चला कि वायुमंडल की ओजोन परत पर क्लोरो-फ्लोरो कार्बस प्रशीतक पदार्थ, नाभिकीय विस्फोट इत्यादि का भी दुष्प्रभाव पड़ता है। ओजोन परत जीवमंडल के लिए रक्षा-कवच है, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों के विकिरण को रोकता है जो जीवमंडल के लिए घातक है। अतः इन रासायनिक गैसों द्वारा ओजोन की परत की हो रही कमी को ब्रिटिश वैज्ञानिकों द्वारा 1978 में गुब्बारों और रॉकेटों की मदद से अध्ययन किया गया। अतः नवीनतम जानकारी के मुताबित अं टिका क्षेत्र के ऊपर ओजोन परत में बड़ा छिद्र पाया गया है जिससे हो सकता है कि सूर्य की घातक विकिरण पृथ्वी की सतह तक पहुँच रही हो और पृथ्वी की सतह गर्म हो रही हो। भारत में भी अंटार्कटिका स्थित अपने अड्डे, दक्षिण गंगोत्री से गुब्बारों द्वारा ओजोन मापक यंत्र लगाकर शोध कार्य में भाग लिया। क्लोरो-फ्लोरो कार्बस रसायन सामान्य तौर पर निष्क्रिय होते हैं, पर वायुमंडल के ऊपर जाते ही उनका विच्छेदन हो जाता है। तकनीकी उपकरणों द्वारा अध्ययन से पता चला है कि पृथ्वी की सतह से क्लोरो-फ्लोरो कार्बस की मात्रा वायुमंडल में 15 मिलियन टन से भी अधिक है। इन कार्बस के अणुओं का वायुमंडल में मिलन अगर आज से भी बंद कर दें, फिर भी उनकी उपस्थिति वायुमंडल में आने वाले अनेक वर्षों तक बनी रहेगी। अतः क्लोरो-फ्लोरो कार्बस जैसे रसायनों के उपयोग पर हमें तुरंत प्रतिबंध लगाना होगा, ताकि भविष्य में उनके और ज्यादा अणुओं के बनने का खतरा कम हो जाए। प्रश्नः (क)
प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (14) आधुनिक युग विज्ञान का युग है। मनुष्य विकास के पथ पर बड़ी तेज़ी से अग्रसर है। उसने समय के साथ स्वयं के लिए सुख के सभी साधन एकत्र कर लिए हैं। इतना होने के बाद और अधिक पा लेने की अभिलाषा में कोई कमी नहीं आई है बल्कि पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। समय के साथ उसकी असंतोष की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। कल-कारखाने, मोटर-गाड़ियाँ, रेलगाड़ी, हवाई जहाज़ आदि सभी उसकी इसी प्रवृत्ति की देन हैं। उसके इस विस्तार से संसाधनों के समाप्त होने का खतरा दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। प्रकृति में संसाधन सीमित हैं। विश्व की बढ़ती जनसंख्या के साथ आवश्यकताएँ भी बढ़ती ही जा रही हैं। दिन-प्रतिदिन सड़कों पर मोटर-गाडियों की संख्या में अतुलनीय वृद्धि हो रही है। रेलगाड़ी हो या हवाई जहाज़ सभी की संख्या में वृद्धि हो रही है। मनुष्य की मशीनों पर निर्भरता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है। इन सभी मशीनों के संचालन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है, परंतु जिस गति से ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ रही है उसे देखते हुए ऊर्जा के समस्त संसाधनों के नष्ट होने की आशंका बढ़ने लगी है। विशेषकर ऊर्जा के उन सभी साधनों की जिन्हें पुनः निर्मित नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए पेट्रोल, डीजल, कोयला तथा भोजन पकाने की गैस आदि। पेट्रोल अथवा डीजल जैसे संसाधनों रहित विश्व की परिकल्पना भी दुष्कर प्रतीत होती है। परंतु वास्तविकता यही है कि जिस तेज़ी से हम इन संसाधनों का उपयोग कर रहे हैं उसे देखते हुए वह दिन दूर नहीं जब धरती से ऊर्जा के हमारे ये संसाधन विलुप्त हो जायेंगे। अत: यह आवश्यक है कि हम ऊर्जा संरक्षण की ओर विशेष ध्यान दें अथवा इसके प्रतिस्थापन हेतु अन्य संसाधनों को विकसित करे क्योंकि यदि समय रहते हम अपने प्रयासों में सक्षम नहीं होते तो संपूर्ण मानव सभ्यता ही खतरे में पड़ सकती है। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (15) पड़ोस सामाजिक जीवन के ताने-बाने का महत्त्वपूर्ण आधार है। दरअसल पड़ोस जितना स्वाभाविक है, हमारी सामाजिक सुरक्षा के लिए तथा सामाजिक जीवन की समस्त आनंदपूर्ण गतिविधियों के लिए वह उतना ही आवश्यक भी है। यह सच है कि पड़ोसी का चुनाव हमारे हाथ में नहीं होता, इसलिए पड़ोसी के साथ कुछ-न-कुछ सामंजस्य तो बिठाना ही पड़ता है। हमारा पड़ोसी अमीर हो या गरीब, उसके साथ संबंध रखना सदैव हमारे हित में ही होता है। पड़ोसी से परहेज़ करना अथवा उससे कटे-कटे रहने में अपनी ही हानि है, क्योंकि किसी भी आकस्मिक आपदा अथवा आवश्यकता के समय अपने रिश्तेदारों अथवा परिवारवालों को बुलाने में समय लगता है। यदि टेलीफ़ोन की सुविधा भी है तो भी कोई निश्चय नहीं कि उनसे समय पर सहायता मिल ही जाएगी। ऐसे में पड़ोसी ही सबसे अधिक विश्वस्त सहायक हो सकता है। पड़ोसी चाहे कैसा भी हो, उससे अच्छे संबंध रखने ही चाहिए। जो अपने पड़ोसी से प्यार नहीं कर सकता, उससे सहानुभूति नहीं रख सकता, उसके साथ सुख-दुख का आदान-प्रदान नहीं कर सकता तथा उसके शोक और आनंद के क्षणों में शामिल नहीं हो सकता, वह भला अपने समाज अथवा देश के साथ क्या खाक भावनात्मक रूप से जुड़ेगा। विश्व-बंधुत्व की बात भी तभी मायने रखती है, जब हम अपने पड़ोसी से निभाना सीखें। प्रायः जब भी पड़ोसी से खटपट होती है तो इसलिए कि हम आवश्यकता से अधिक पड़ोसी के व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक जीवन में हस्तक्षेप करने लगते हैं। हम भूल जाते हैं कि किसी को भी अपने व्यक्तिगत जीवन में किसी की रोक-टोक और हस्तक्षेप अच्छा नहीं लगता। पड़ोसी के साथ कभी-कभी तब भी अवरोध पैदा हो जाते हैं, जब हम आवश्यकता से अधिक उससे अपेक्षा करने लगते हैं। बात नमक-चीनी के लेन-देन से आरंभ होती है तो स्कूटर और कार तक माँगने की नौबत ही न आए। आपको परेशानी में पड़ा देख पड़ोसी खुद ही आगे आ जाएगा। पड़ोसियों से निर्वाह करने के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण यह है कि बच्चों को नियंत्रण में रखें। आमतौर से बच्चों में जाने-अनजाने छोटी-छोटी बातों पर झगड़े होते हैं और बात बड़ों के बीच सिर फुटौवल तक जा पहुँचती है। इसलिए पड़ोसी के बगीचे से फल-फूल तोड़ने, उसके घर में ऊधम मचाने से बच्चों पर सख्ती से रोक लगाएँ। भूलकर भी पड़ोसी के बच्चे पर हाथ न उठाएँ, अन्यथा संबंधों में कड़वाहट आते देर न लगेगी। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ)
(16) समस्त ग्रंथों एवं ज्ञानी, अनुभवीजनों का कहना है कि जीवन एक कर्मक्षेत्र है। हमें कर्म के लिए जीवन मिला है। कठिनाइयाँ एवं दुख और कष्ट हमारे शत्रु हैं, जिनका हमें सामना करना है और उनके विरुद्ध संघर्ष करके हमें विजयी बनना है। अंग्रेज़ी के यशस्वी नाटककार शेक्सपीयर ने ठीक ही कहा है कि “कायर अपनी मृत्यु से पूर्व अनेक बार मृत्यु का अनुभव कर चुके होते हैं किंतु वीर एक से अधिक बार कभी नहीं मरते हैं।” विश्व के प्रायः समस्त महापुरुषों के जीवन वृत्त अमरीका के निर्माता जॉर्ज वाशिंगटन और राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन से लेकर भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के जीवन चरित्र हमें यह शिक्षा देते हैं कि महानता का रहस्य संघर्षशीलता, अपराजेय व्यक्तित्व है। इन महापुरुषों को जीवन में अनेक संकटों का सामना करना पड़ा परंतु वे घबराए नहीं, संघर्ष करते रहे और अंत में सफल हुए। संघर्ष के मार्ग में अकेला ही चलना पड़ता है। कोई बाहरी शक्ति आपकी सहायता नहीं करती है। परिश्रम, दृढ़ इच्छा शक्ति व लगन आदि मानवीय गुण व्यक्ति को संघर्ष करने और जीवन में सफलता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। समस्याएँ वस्तुतः जीवन का पर्याय हैं यदि समस्याएँ न हों तो आदमी प्रायः अपने को निष्क्रिय समझने लगेगा। ये समस्याएँ वस्तुतः जीवन की प्रगति का मार्ग प्रशस्त करती हैं। समस्या को सुलझाते समय उसका समाधान करते समय व्यक्ति का श्रेष्ठतम तत्व उभरकर आता है। धर्म, दर्शन, ज्ञान, मनोविज्ञान इन्हीं प्रयत्नों की देन हैं। पुराणों में अनेक कथाएँ यह शिक्षा देती हैं कि मनुष्य जीवन की हर स्थिति में जीना सीखे व समस्या उत्पन्न होने पर उसके समाधान के उपाय सोचे। जो व्यक्ति जितना उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य करेगा, उतना ही उसके समक्ष समस्याएँ आएँगी और उनके परिप्रेक्ष्य में ही उसकी महानता का निर्धारण किया जाएगा। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख) प्रश्नः (ग) प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (17) श्रमहीन शरीर की दशा जंग लगी हुई चाबी की तरह अथवा अन्य किसी उपयोगी वस्तु की तरह निष्क्रिय हो जाती है। शारीरिक श्रम वस्तुत जीवन का आधार है, जीवंतता की पहचान है। योगाभ्यास में तो पहली शिक्षा होती है आसन आदि के रूप में शरीर को श्रमशीलता का अभ्यस्त बनाना। ऋषि मुनियों ने कहा है- बिना श्रम किए जो भोजन करता है, वह वस्तुतः चोर है। महात्मा गांधी का समस्त जीवन दर्शन श्रम सापेक्ष था। उनका समस्त अर्थशास्त्र यही बताता था कि प्रत्येक उपभोक्ता को उत्पादनकर्ता होना चाहिए। उनकी नीतियों की उपेक्षा करने का परिणाम हम आज भी भोग रहे हैं। न गरीबी कम होने में आती है, न बेरोजगारी पर नियंत्रण हो पा रहा है और न अवरोधों की वृद्धि हमारे वश की बात रही है। दक्षिण कोरिया वासियों ने श्रमदान करके ऐसे श्रेष्ठ भवनों का निर्माण किया है, जिनसे किसी को भी ईर्ष्या हो सकती है। श्रम की अवज्ञा के परिणाम का सबसे ज्वलंत उदाहरण है, हमारे देश में व्याप्त शिक्षित वर्ग की बेकारी। हमारा शिक्षित युवा वर्ग शारीरिक श्रमपरक कार्य करने से परहेज करता है, वह यह नहीं सोचता है कि शारीरिक श्रम परिमाणतः कितना सुखदायी होता है। पसीने से सिंचित वृक्ष में लगने वाला फल कितना मधुर होता है। ‘दिन अस्त और मज़दूर मस्त’ इसका भेद जानने वाले महात्मा ईसा मसीह ने अपने अनुयायियों को यह परामर्श दिया था कि तुम केवल पसीने की कमाई खाओगे। पसीना टपकाने के बाद मन को संतोष और तन को सुख मिलता है, भूख भी लगती है और चैन की नींद भी आती है। हमारे समाज में शारीरिक श्रम न करना सामान्यतः उच्च सामाजिक स्तर की पहचान माना जाता है। यही कारण है कि ज्यों के यों आर्थिक स्थिति में सुधार होता जाता है। त्यों त्यों बीमारी व बीमारियों की संख्या में वृद्धि होती जाती है। इतना ही नहीं बीमारियों की नई-नई किस्में भी सामने आती जाती हैं। जिसे समाज में शारीरिक श्रम के प्रति हेय दृष्टि नहीं होती है, वह समाज अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ एवं सुखी दिखाई देता है। विकसित देशों के निवासी शारीरिक श्रम को जीवन का अवश्यक अंग समझते हैं। ऐसे उदाहरण भारत में ही मिल सकते हैं, शत्रु दरवाजा तोड़ रहे हैं और नवाब साहब इंतज़ार कर रहे हैं जूते पहनने वाली बाँदी का। प्रश्नः (क) प्रश्नः (ख)
प्रश्नः (ग)
प्रश्नः (घ) प्रश्नः (ङ) (18) ईश्वर के प्रति आस्था वास्तव में जन्मजात न होकर सामान्यतः हमारे घर-परिवार और परिवेश से हमें संस्कारों के रूप में मिलती है और ज़्यादातर लोग बचपन में इसे बिना कोई प्रश्न किए ही ग्रहण करते हैं। हमें छह में से सिर्फ एक व्यक्ति ऐसा मिला जिसका कहना है कि वह बचपन से ही ईश्वर के अस्तित्व के प्रति संदेहशील हो चला था, लेकिन पाँच ने कहा कि उनके साथ ऐसी स्थिति नहीं थी। जिस व्यक्ति ने यह कहा कि बचपन से ही उसने ईश्वर के बारे में अपने संदेह प्रकट करने शुरू कर दिए थे, उसका कहना था कि ऐसा उसने शायद अपने आसपास के जीवन में सामाजिक विसंगतियाँ देखकर किया होगा, क्योंकि उसके सवालों के स्रोत यही थे। एक तरफ उसने पाया कि धार्मिक पुस्तकें और धार्मिक लोगों के कथनों से कुछ और बात निकलती हैं, लेकिन जो आसपास के वातावरण में उन्हें देखने को मिलता है तथा ये धार्मिक लोग स्वयं जो व्यवहार करते हैं वह कुछ और है, लेकिन बाकी पांच ने सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों और ईश्वर के प्रति आस्था में अंतर्संबंध पहले नहीं देखे थे। जिन लोगों ने ईश्वर में आस्था बाद में खो दी, उन्होंने माना कि इसका मूल कारण उनका पुस्तकों से बचपन से ही संपर्क में आना रहा है। बाद में निरीश्वरवादी विचारों तथा नास्तिकों के संपर्क में आने से ईश्वर में आस्था बाद में खो दी। वे नहीं मानते कि उनके इस जीवन में बाद में कभी ऐसा कोई समय भी आ सकता है, जब वे ईश्वर की तरफ पुनः लौटने की बाध्यता महसूस करेंगे, हालांकि वे स्वीकार करते हैं कि उन्होंने ऐसे लोगों को भी देखा है, जो अपने युवाकाल में घनघोर नास्तिक थे, मगर जीवन के अंतिम दौर तक आकर घनघोर आस्तिक बन गये। आस्तिकों का कहना है कि ईश्वर के विरुद्ध कोई कितना ही मज़बूत तर्क पेश करे, उनकी ईश्वर में आस्था कभी कमज़ोर नहीं पड़ेगी। तर्क वे सुन लेंगे, लेकिन ईश्वर नहीं है, इस बात को किसी भी हालत में स्वीकार नहीं करेंगे। उनका मानना है कि तर्क से ईश्वर को पाया नहीं जा सकता, वह तो तर्कातीत है। दूसरी तरफ जिन्होंने ईश्वर में अपनी आस्था खो दी है, उनका कहना है कि उन्होंने अपनी नव अर्जित नास्तिकता के कारण अपने परिवार और समाज में अकेला पड़ जाने का खतरा भी उठाया है लेकिन धीरे-धीरे अपने परिवार में उन्होंने ऐसी स्थिति पैदा कर ली है कि उन्हें इस रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। वे संस्थाएँ भी ईश्वर और धर्म के प्रति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आस्था पैदा और मज़बूत करने की कोशिश करती हैं, जिनका कि प्रत्यक्ष रूप से धर्म से कोई संबंध नहीं है। जैसे परिवार, पास-पड़ोस, स्कूल, अदालतें, काम की जगहें आदि। एक साथी ने बताया कि वे एक ऐसे कालेज में काम करते थे, जहाँ रोज सुबह ईश्वर की प्रार्थना गाई जाती है, जिससे छात्र-छात्राएँ तो किसी तरह बच भी सकते हैं, लेकिन अध्यापक नहीं, अगर वे बचने की कोशिश करते हैं, तो उनकी नौकरी खतरे में पड़ सकती है। जीवन को कर्मक्षेत्र क्यों कहा गया है?This is an Expert-Verified Answer. ➲ महापुरुषों ने जीवन को कर्म क्षेत्र इसलिए कहा है क्योंकि महापुरुषों के अनुसार कर्म करते रहना ही जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। महापुरुषों का मानना रहा है कि अपना कर्म करते हुए जीवन पर निरंतर आगे बढ़ते रहना और निरंतर कर्म करते रहना ही असली जीवन है।
ज्ञानी अनुभवी लोगों ने जीवन को क्या बताया है?'समस्त ग्रंथों एवं ज्ञानी, अनुभवी जनों का कहना है कि जीवन एक कर्मक्षेत्र है । हमें कर्म के लिए जीवन मिला है । कठिनाइयाँ एवं दुःख और कष्ट हमारे शत्रु हैं, जिनका हमें सामना करना है । उनके विरुद्ध संघर्ष करके हमें विजयी बनना है ।
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