ज्ञान के निर्माण का तरीका क्या है? - gyaan ke nirmaan ka tareeka kya hai?

Que : 37. ज्ञान का निर्माण क्या है? ज्ञान के निर्माण को सरल बनाने की प्रक्रियाओं का वर्णन कीजिए।

Answer: प्रायः विद्यालयों में विद्यार्थी को सिखाने तथा सूचना का पुनरुत्पादन करना सिखाते हैं जिसमें स्मृति की ही प्रधानता रहती है। किन्तु मात्र स्मृति नहीं छात्रों में समीक्षात्मक समझ, चिंतन, तर्क, विश्लेषण,व्याख्या, संश्लेषण,वर्गीकरण, मूल्यांकन आदि कौशल भी उच्च शैक्षणिक अध्ययन व अनुसंधान हेतु आवश्यक होते हैं। इन कौशलों का उपयोग तथा विकास ज्ञान की प्राप्ति व ज्ञान के स्थानांतर में न होकर ज्ञान की खोज में परिलक्षित होता है।

अधिगम के निर्माणवाद के सिद्धान्त के अनुसार अधिगम एक क्रियाशील प्रक्रिया है जिसमें अधिगमकर्ता उनके स्वयं के वर्तमान व पुराने ज्ञान तथा अनुभवों पर आधारित कई अवधारणाओं, विचारों तथा ज्ञान का निर्माण करते हैं। ज्ञान प्राप्त करने या ज्ञान के पुनरुत्पादन करने के स्थान पर ज्ञान निर्मित किया जाता है। वस्तुतः ज्ञान एक स्थिर वस्तु का संप्रत्यय नहीं है बल्कि ज्ञान के बारे में व्यक्ति स्वयं के अनुभव उसे नए रूपों में निर्मित करते रहते हैं। उदाहरण से यह तथ्य स्पष्ट होगा। कक्षा 10वीं के एक विद्यार्थी ने कहीं एक पुस्तक की आत्मकथा' पर निबंध पढ़ा। उसने यह ज्ञान प्राप्त किया कि आत्मकथा लेखन की शैली कैसी होती है। लगभग इसी निबंध के पैटर्न पर उसने ‘एक कलन की आत्मकथा' पर निबंध रचना की। यह सीखे ज्ञान का पुनरुत्पादन था । परन्तु यह ज्ञान का निर्माण नहीं था। अपने पुनरुत्पादन से उत्साहित होकर उसने विद्यालयीन पत्रिका में प्रकाशनार्थ “भारत माता की आत्मकथा” की रचना का संकल्प किया तथा इस हेतु विभिन्न सूचनाएं, तथ्य, ऐतिहासिक सत्यों की खोज छात्र ने विभिन्न इतिहास की पुस्तकों से की। उसने भारत नाम क्यों पड़ा? पूर्व में भारत महादेश का विस्तार कहाँ तक था? भारत में आर्य कहाँ से आए थे? सिंधु घाटी की सभ्यता कितनी विकसित थी? भारत पर किन-किन विदेशी जातियों ने राज्य किया? भारत अंग्रेजी दासता से कब मुक्त हुआ और कैसे? देश का विभाजन तथा स्वतंत्रता के बाद भारत में कौन-कौनसी समस्याएं आई कौनसे संकट आए। छात्र ने इंटरनेट पर भी इतिहास का अध्ययन किया। इस खोज अर्थ के उपरांत उसने “भारत माता की आत्मकथा” निबंध की स्वयं रचना की। उसकी यह खोज, ज्ञान की गहराई से जाकर तथ्य ज्ञान करने की पहल, परिश्रम ज्ञान की रचना या निर्माण का उदाहरण है।

रूसी सामाजिक निर्माणवाद के प्रशंसा व्यगोत्स्की के ज्ञान के निर्माण को इस प्रकार रूपायित किया है :-

(1) ज्ञान को परावर्तित अमूर्तता के द्वारा निर्मित किया जाता है।

(2) इसे क्रियाशील तथा भागितापूर्ण अधिगम के रूप में निर्मित किया जाता है।

(3) यह इस मान्यता पर आधारित है कि अधिगम स्थिर तथा अन्तर्निहित नहीं होता बल्कि वह निरन्तर विकसित होता है।

(4) अधिगमकर्ता निष्क्रिय रूप से अर्थ को स्वीकार करने के स्थान पर क्रियाशील रूप से अर्थ को निर्मित करता है।

उक्त दिये गये उदाहरण में छात्र के पास भारत के इतिहास की अमूर्त धारणा थी। उसने स्वयं की भागिता व सक्रियता से अधिगम की खोज की। भारत पर राज्य करने वाली विदेशी जातियों को उसने निष्क्रिय रूप से स्वीकार न कर गहराई में जाकर तथ्यानुसंधान किये। इस प्रकार ज्ञान की रचना में वह सफल हुआ। सक्रिय रूप से स्वयं की गहन मानसिक शक्तियों के उपयोग से ज्ञान का निर्माण संभव होता है ।

ज्ञान के निर्माण को सरल बनाने की प्रक्रियाएं ज्ञान के निर्माण को सरल बनाने की प्रक्रिया से आशय है अधिगमकर्ता को सिखाए जा रहे विचारों तथा तथ्यों के मध्य आंतरिक सूत्रों तथा संबंधों को निर्मित कर जो सिखाया जा रहा है उसके अधिगमकर्ता के स्वयं के, अर्थ को निर्मित करने के अवसर की उपलब्धता शेष कार्य अधिगमकर्ता अपनी सक्रिय भागिता से पूर्ण करेगा।

ज्ञान के निर्माण को सरल बनाने की प्रक्रियाओं के निम्नलिखित पाँच सोपान महत्त्वपूर्ण हैं :-

(1) अनुभवजन्य अधिगम तथा परावर्तन, (2) सामाजिक मध्यस्थता, (3) संज्ञान विचार विमर्श, (4) स्थित अधिगम तथा संज्ञान प्रशिक्षुता, (5) आत्म संज्ञान ।

(1) अनुभवजन्य अधिगम तथा परावर्तन :- कार्ल रोजर्स ने अधिगम को दो रूपों में विभाजित किया है- संज्ञानात्मक अधिगम Cognitive Learning तथा अनुभव जन्य अधिगम रोजर्स के अनुसार संज्ञानात्मक अधिगम ज्ञान प्राप्ति के लिए है जैसे गणित में गुणा भाग जोड़ घटाने का ज्ञान या भाषा में शब्द ज्ञान या इतिहास का ज्ञान जबकि अनुभवजन्य अधिगम न केवल ज्ञानार्जन बल्कि व्यक्ति की संपूर्ण प्रगति व कल्याण में सहायक है तथा अर्जित ज्ञान को उपयोग में लाना सिखाता है। यह विषय केन्द्रित न होकर विद्यार्थी केन्द्रित होता है। अनुभव जन्य अधिगम विद्यार्थी की व्यक्तिगत तल्लीनता पहल एवं स्वयं मूल्यांकन से जुड़ा होता है।

अनुभवजन्य अधिगम में अभिभावकों व शिक्षकों की भूमिका निम्नानुसार ज्ञान की खोज को सरल बनाने में अधिगमकर्ता की सहायता करती है :-

(1) अधिगम की सरल परिस्थितियों का आयोजन।

(2) अधिगमकर्ता को उद्देश्य व प्रयोजन की स्पष्ट जानकारी देना।

(3) अधिगम स्रोत एवं संसाधन उपलब्ध कराना ।

(4) अधिगम के बौद्धिक व संवेगात्मक अंगों में संतुलन स्थापना ।

(5) विचारों व भावनाओं का अधिगमकर्ता से आदान व प्रदान ।

शिक्षक एक सहायक, पथ प्रदर्शक और अधिगम स्रोतों का प्रदाता भर होता है अनुभवजन्य अधिगम सभी तरह से अधिगमकर्ता द्वारा संचालित व नियंत्रित अनुभव है। यहाँ अधिगमकर्ता को ही प्रधानता रहती है। अध्यापक तो उसे अनुकूल अधिगम परिस्थितियों के नियोजन की भूमिका ही निभाता है। अधिगमकर्ता को स्वयं ही अपने ऊपर यह जिम्मेदारी डालनी होती है कि वह अपने लिए ज्ञान की खोन व ज्ञान की रचना करे ।

परावर्तन से आशय अधिगमकर्ता द्वारा अनुभवजन्य अधिगम में किए जाने वाली तल्लीनता पहल तथा स्वमूल्यांकन से है। अधिगमकर्ता सक्रियता से अनुभव से संलग्न होकर अनुभव पर प्रतिक्रिया करता है तथा अनुभव के मूर्तिकरण हेतु विश्लेषण क्षमता का उपयोग कर निर्णय क्षमता द्वारा समस्या समाधान कर नए ज्ञान की रचना करता है ।

(2) सामाजिक मध्यस्थता :- सामाजिक मध्यस्थता में अधिगमकर्ता, शिक्षक, परिवार, सहपाठी तथा सामाजिक व्यक्ति व उनका वातावरण सम्मिलित है। इन सबकी मध्यस्थता से ज्ञान के निर्माण का कार्य सरल हो जाता है। व्यगोत्स्की ने अधिगम को सामाजिक तथा व्यक्तिगत दोनों माना है। समाज का सहयोग अभिप्रेरणात्मक तथा अर्थपूर्ण होता है।

सामाजिक मध्यस्थता में शिक्षक की मध्यस्थता ज्ञान की रचना में अधिगमकर्ता के बाद प्रमुख है। शिक्षक विद्यार्थी की स्वयं के लिए सोचने की तथा उनके स्वयं के अधिगम को नियंत्रित करने व उसकी जिम्मेदारी लेने को विकसित व तेज करने के लिए जरूरी सहयोग उपलब्ध कराते हैं। शिक्षक प्रश्न पूछकर, संवर्धन करने-जाँच करने, प्रत्यास्मरण उपलब्ध कराकर निर्देश देकर प्रदर्शन के द्वारा सहयोग देते हैं। शिक्षक ही नहीं बल्कि सहपाठी समूह भी अधिगमकर्ता को आपकी चर्चा में सहयोग दे सकता है। शालेय विभिन्न अधिगम गतिविधियाँ भी सामाजिक मध्यस्थता का कार्य करती है।

(3) संज्ञान विचार-विमर्श (चर्चा) :- शिक्षक छात्र अन्तक्रिया ज्ञान की रचना को सरल बनाया जा सकता है। छात्र-छात्र अन्तक्रिया में की गई चर्चा भी ज्ञान की रचना को सरल बनाती है। निर्देशात्मक बातचीत भी अधिगम की प्रक्रिया को सरल करती है। निर्देशात्मक बातचीत चर्चा या विचार विमर्श ही होती है एकतरफ भाषण (लेक्चर नहीं) ज्ञान के निर्माण को सरल बनाने के अवयव हैं-

(1) विचार विमर्श के विषय पर ध्यान केन्द्रीकरण द्वारा

(2) पाठ्य को समझाने के लिए पृष्ठभूमि का ज्ञान का उपयोग

(3) प्रत्यक्ष अधिगम अवधारणा का शिक्षण

(4) कम ज्ञान उत्तर वाले प्रश्न जिनके एक से ज्यादा सहित उत्तर हों पर ध्यान केन्द्रित कर।

(5) विद्यार्थी द्वारा विचार विमर्श में पहल शिक्षक की सहभागिता खुले विचार विमर्श से ज्ञान चक्षु खुलते हैं तथा ज्ञान के निर्माण द्वारा खुलते हैं।

(4) स्थित अधिगम तथा संज्ञान प्रशिक्षुता :- व्यगोत्स्की की मान्यता है कि अधिगम स्थिर तथा अन्तर्निहित नहीं होता बल्कि यह निरंतर विकसित होता रहता है। ज्ञान की रचना भी इसी धारणा पर आधारित है। संज्ञान हेतु अधिगमकर्ता को प्रशिक्षु (एप्रेन्टिस) के रूप में सम्मिलित कर उसकी ज्ञान के निर्माण को सरल बनाया जा सकता है। प्रशिक्षु के रूप में अधिगमकर्ता को कई कुशलताओं व अवधारणाओं में महारत हासिल करने तथा उन्हें विभिन्न स्थितियों में निष्पादन करने की चुनौती प्राप्त होती है। कई बोधगम्य प्रशिक्षुता मॉडल्स (प्रतिरूप, आदर्श) हैं जिनमें किया प्रमुख हैं-

(1) अधिगमकर्ता निष्पादन को मॉडल मानते हुए एक विशेषज्ञ (प्रायः शिक्षक) की ओर देखते हैं।

(2) विद्यार्थी कोचिंग या ट्यूशन के द्वारा बाहरी सहयोग प्राप्त करते हैं (संकेतों प्रतिबुद्धि, प्रत्यास्मरण सहित)

(3) विद्यार्थी अवधारणात्मक सहयोग/सहारा पाते हैं जो धीरे-धीरे मंद हो जाता है पर वे ज्यादा सक्षम व योग्य बनाते हैं।

(4) विद्यार्थी निरंतर अपने ज्ञान को व्यक्त करते हैं।

(5) विद्यार्थी अपनी प्रगति पर विचार करते हैं। अपनी समस्या समाधान की तुलना एक विशेषज्ञ के निष्पादन तथा अपने स्वयं के पहले के निष्पादनों से करते हैं।

(6) विद्यार्थियों को अर्जित ज्ञान को अनुप्रयुक्त करने के लिए नए तरीकों की आवश्यकता पड़ती है ऐसे तरीके जिन्हें शिक्षक की ओर से अभ्यासित नहीं किया गया। अपनी राह विद्यार्थी स्वयं खोजते हैं।

ज्ञान की रचना के मार्ग में पूर्वज्ञान तथा संज्ञान प्रशिक्षुता अधिगमकर्ता का मार्ग सरल कर देती है।

(5) आत्मसंज्ञान :- आत्मज्ञान, आत्मविश्वास, आत्मानुभव अधिगमकर्ता को ज्ञान के संगठन, पुनर्संगठन, संरचना, पुनर्सरचना, समीक्षात्मक समझ, चिंतन, तर्क, मनन, विश्लेषण, संश्लेषण, वर्गीकरण, मूल्यांकन, अनुसंधान आदि आत्म संज्ञान के अवयवों द्वारा ज्ञान की रचना की प्रक्रिया को सरल बनाने में सहायता मिलती है।


ज्ञान का निर्माण कैसे होता है?

(1) ज्ञान को परावर्तित अमूर्तता के द्वारा निर्मित किया जाता है। (2) इसे क्रियाशील तथा भागितापूर्ण अधिगम के रूप में निर्मित किया जाता है। (3) यह इस मान्यता पर आधारित है कि अधिगम स्थिर तथा अन्तर्निहित नहीं होता बल्कि वह निरन्तर विकसित होता है।

ज्ञान के निर्माण की क्या भूमिका है?

ज्ञान प्राप्त करने के स्थान पर ज्ञान निर्मित किया जाता है। ज्ञान एक स्थिर वस्तु नहीं होती बल्कि इसे व्यक्ति द्वारा उस वस्तु के बारे में (ज्ञान के बारे में) अपने स्वयं के अनुभव द्वारा निर्मित किया जाता है। ज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया में हम पुराने अर्जित ज्ञान को नष्ट नहीं करते बल्कि उसका पुनर्निर्माण करते हैं ।

ज्ञान से क्या तात्पर्य है?

वह मनुष्य के मन में स्वयं उद्भासित होता है, क्योंकि सत्य और ज्ञान एक ही हैं। ऐसे ज्ञान को ईश्वरीय ज्ञान अर्थात् सत्य द्वारा प्रदत्त माना जाता है। वेद ज्ञान को इसीलिये अपौरुषेय कहा गया है अर्थात् ज्ञान को ईश्वर ने प्रदान किया है। ऋषियों के मन में ज्ञान अपने आप उपजा, जिसे उन्होंने मन्त्र रूप में बताया।

ज्ञान की रचना से आप क्या समझते हैं?

जन्म के तुरंत पश्चात् से जिन क्रियाओं में वह लगा रहता है उनके माध्यम से उसमें ज्ञान-प्राप्ति की योग्यता होती है। बच्चे अपनी बाहरी दुनिया या वातावरण से अन्योन्यक्रिया करते हैं और विभिन्न घटनाओं के साथ अनुक्रिया के द्वारा ज्ञान की रचना करते हैं