जल संसाधन को प्रभावित करने वाले कारक - jal sansaadhan ko prabhaavit karane vaale kaarak

संसाधन का महत्व (sansadhan ka mahatva) पर्यावरण में जैविक संसाधन में जीव-जन्तु तथा वनस्पति अति महत्वपूर्ण हैं, जबकि अजैविक संसाधनों में मिट्टी, जल, वायु, आदि मुख्य हैं। ये सभी तत्व एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। प्रकृति में भूतल के प्रत्येक भाग में वनों का सृजन किया हैं, जहाँ पर्यावरण के अनुकूल विभिन्न प्रकार के जीवधारी रहते हैं। जीव-जन्तु व वनस्पति ही पर्यावरण के संतुलन बनाये रखते हैं। जैवीय संसाधन का मनुष्य के साथ अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध हैं।

वर्तमान में मानव को 85 प्रतिशत भोज्य पदार्थ पेड-़ पौधों द्वारा तथा शेष 15 प्रतिशत पशुओं से प्राप्त होता हैं। अत: स्पष्ट हैं कि मानव के लिए जैविक संसाधन अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त प्रकृति प्रदत्त संसाधनों में मृदा, जल, खनिज, आदि प्रमुख हैं। ये संसाधन विकास के प्रमुख उपकरण हैं।

संसाधन का महत्व

संसाधन का महत्व (sansadhan ka mahatva) संसाधन का महत्व वर्णन नीचे दिया जा रहा है-

(i) मृदा संसाधन का महत्व – मिट्टी मानव के लिए आधारभूत संसाधनों में से एक हैं। मानव को आवश्यक आवश्यकताओं की प्राप्ति अधिकांशतः: मिट्टी से ही होती हैं। सांसारिक जीवन में मानव व मिट्टी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में एक दूसरे पर निर्भर हैं। जैव सूची स्तम्भ में मिट्टी सबसे नीचे तथा मनुष्य सबसे ऊपर हैं जिससे यह स्पष्ट होता हैं कि मिट्टी ही सबका प्रमुख आधार हैं। मिट्टी ही वह माध्यम हैं जिसके द्वारा पेड-़ पौधे भूतल से जुड़े रहते हैं। मृदा संसार के समस्त जीव जगत के भोजन का मूल सा्रेत हैं। कृषि व पशुपालन की क्रियायें भी प्रत्यक्ष रूप से मृदा संसाधन पर ही निर्भर हैं। संसार के सभी प्राणियों के जीवन का आधार मृदा ही हैं। मिट्टी वनस्पतियों का भी आधार है क्योंकि सभी प्रकार के पेड़-पौधे मिट्टी में ही उगते एवं बढते हैं।

अत: उनके विकास के लिए उर्वरक तथा उपयोगी मिट्टी अनिवार्य हैं। मनुष्य सहित सभी प्रकार के शाकाहारी प्राणियों का भोजन, अनाज तथा वनस्पतियॉं भोज्य रूप में मिट्टी से ही प्राप्त होती हैं। माँसाहारी जीव-जन्तु, जिन प्राणियों पर निर्भर होते हैं, सामान्यत: वे भी मिट्टी में उगने वाले वनस्पतियों पर ही पलते हैं। इस प्रकार से शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के प्राणियों और मनुष्यों को भोजन मिट्टी से ही प्राप्त होता हैं।

(ii) जल संसाधन का महत्व – मानव के लिए जल पूर्णत: प्रकृति प्रदत्त नि :शुल्क उपहार हैं। पृथ्वी पर जल से भरे हुए स्थानों का कुल क्षेत्रफल लगभग 70 प्रतिशत हैं। जल मनुष्य की जैविक आवश्यकता हैं, जिसके बिना मानव जीवन सम्भव नहीं हैं। जीवन के अनिवार्य स्रोत प्राणवायु के बाद प्रथम आवश्यकता जल की ही होती हैं। मनुष्य के शरीर में प्रमुख जैविक क्रियायें निभाने वाले खून का 78 प्रतिशत भाग भी जल ही होता हैं। यही जल मानव के शरीर में रक्त के माध्यम से समस्त पोषक तत्वों को अंग-प्रत्यंग तक पहुँचाता हैं। यही जल वनस्पतियों के पोषण का आधार होता हैं। पीने के साथ ही घरेलू कार्यों, औद्योगिक कार्यों तथा सिंचाई आदि के लिए भी जल की आवश्यकता होती हैं। इस प्रकार से जल एक अति महत्वपूर्ण संसाधन हैं। जल की संसाधनता मानव के लिए विविध कार्यों से जुड़ी हुई हैं। जल का उपयोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से सभी जीव करते हैं।

सभी संसाधन किसी न किसी रूप में जल पर आश्रित हैं। जल संसाधन अन्य संसाधनों से पारिस्थितिकी संतुलन बनाये रखने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। मिट्टी में यदि जल का संचार न हो तो वनस्पतियों के लिए उसके पोषक तत्व निरर्थक होगें। अत: इस स्थिति का यह परिणाम होगा कि वनस्पति एवं जीव-जन्तु का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। परिणामस्वरूप जनपद ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की मानव सभ्यता, संस्कृति व प्रगति प्रभावित होगी और जीवन दुर्लभ हो जायेगा। इस प्रकार जल एक मूलभूत संसाधन हैं जो जैवीय मण्डल के जीवन का मुख्य आधार हैं।

(iii) वन-संसाधनों का महत्व – प्राकृतिक संसाधनों में वन-संसाधन का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान हैं। प्राचीन काल से ही मानव अपने भोजन के लिए वनों पर ही निर्भर था। आदिकाल में जब मानव को कृषि का ज्ञान नहीं था तो वह वनों से ही भोजन प्राप्त करता था। भोजन पदार्थों के लिए कन्दमूल, फल, जैसे नारियल, अखरोट, अंजीर, जामुन, आम तथा ताड़ से प्राप्त गुड़ आदि प्राप्त करता था तथा वन्य जीव जन्तुओं के शिकार कर उदर-पूर्ति करता था। इसके अतिरिक्त रहने के लिए आवास भी घर व काष्ठ, घासों तथा पत्तों से बनाता था तथा वृक्षों के पत्तों तथा छालों से अपना तन ढकता था। वनों द्वारा ही मानव अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। इस प्रकार प्राचीन काल से ही मानव वनों पर ही आश्रित था। प्राचीन काल में ही नहीं वरन् वर्तमान काल में भी वह वन संसाधन पर कितना निर्भर हैं इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता हैं कि घर हो या दफ्तर, मेज, हो या कुर्सी, कागज हो या वस्त्र, सभी के लिए मूल स्रोत पेड़-पौधे ही हैं। इसके अतिरिक्त पेड़ पौधों से हमें औषधियाँ प्राप्त होती हैं।

उद्योगों के लिए कच्चे माल, लकड़ियाँ, विभिन्न रेशे व रुई तथा ईधन के लिए लकड़ी आदि वनों द्वारा ही प्राप्त होती हैं। वास्तव में यदि देखा जाये तो वनस्पति संसाधन मानव जीवन का आधार हैं। प्राणवायु के लिए तो सभी जीव-जन्तु इन्हीं पर निर्भर हैं। प्रत्येक जीव का भोजन किसी न किसी रूप में इस वनस्पति से ही प्राप्त होता हैं जो जीव जन्तु माँसाहारी होते हैं वे अपने भोजन के लिए प्राय: ऐसे जीवों का शिकार किया करते हैं जो शाकाहारी होते हैं।

शेर और चीते जंगलों में हिरनों का शिकार कर अपना पेट भरते हैं किन्तु हिरन घास और पत्तियों पर ही पलते हैं। मछलियाँ एक दूसरे को खाकर जीवित रहती हैं किन्तु इनमें भी जो सबसे छोटी मछली, जिससे बड़ी मछली का भोजन चलता हैं वह जल में पैदा होने वाले प्लैंकटन पर ही निर्भर करती हैं। वनस्पतियॉं एक ओर पशुओं के लिए चारागाह प्रदान करती हैं वहीं दूसरी ओर ऑक्सीजन का निर्माण कर प्रदूषण को कम कर वातावरण को शुद्ध करने में अमूल्य सहयोग प्रदान करती हैं। अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु नियंत्रण में तथा नदियों के प्रवाह को व बाढ़ को नियन्त्रित करने में अपना सहयोग प्रदान करते हैं। जहाँ एक ओर ये भूमि अपरदन रोकते हैं वहीं दूसरी ओर भूमि की आर्द्रता बनाये रखने मे सहयोग करते हैं।

(iv) जीव-जन्तुओं का महत्व – जैवीय संसाधन प्राचीन काल से ही मानव के लिए अत्यन्त सुलभ व प्राथमिक संसाधन रहे हैं। विश्व में मानव का सबसे बड़ा आर्थिक साधन पशुधन ही हैं। सभ्यता के प्रारम्भ में पशुओं से माँस व दूध प्राप्त किया जाता रहा हैं, इसके अलावा अन्य आवश्यकताओं जैसे औजार, चमड़ा, ऊन, अस्त्र आदि के लिए भी पशुओं का शोषण किया जाता था। धीरे-धीरे जब मनुष्य सभ्य हुआ तो उसने जीव-जन्तु के साथ सहानुभूति व मित्रता, पशुपालन क्रिया द्वारा जन्तुओं को व्यवस्थित साधन के रूप में परिवर्तित कर लिया हैं। जब पशुओं का प्रयोग सेवा के लिए किया जाने लगा तो भी मुख्य उद्देश्य भोजन ही था। बैल का प्रयोग मानव कृषि कार्य में, खेत जोतने के लिए करने लगा। कुछ पशुओं का मूल्य प्राप्त करने, पालने, रक्षक एवं साथी के रूप मे, तो कुछ को राष्ट्रीय क्रीड़ा की वस्तु जैसे घोडा़, कुत्ता, मुर्गा, साँड़ आदि जिनकी कुश्ती बड़ े चाव से देखी जाती हैं, एवं कुछ युद्ध में सहायक के  रूप में जैसे घोड़ा हाथी आदि को पाला जाने लगा। चिकित्सा के क्षेत्र में भी इसका अमूल्य योगदान हैं। गिनीपिग सफेद चूहे तथा बहुत से जन्तुओ, खरगोश, बन्दर आदि पर दवाइयों का प्रयोग होता रहता हैं। सभी दवाइयाँ सर्वप्रथम पशुओं पर ही प्रयोग की जाती हैं और लाभप्रद होने पर ही मानव के लिए उन्हें मान्यता दी जाती हैं।

वैज्ञानिक अनुसंधान और औषधियों के प्रयोग करने के लिए वन्य जीवों को बलि दी जाती हैं। बंदर, खरगोश व चूहों पर पहले प्रयोग किया जाता हैं। इनमें से बहुत से पशुओं की आकृति बिगड़ जाती हैं और उनकी दु:खान्त मृत्यु तक हो जाती हैं। अन्तरिक्ष में भेजा गया पहला जीव लाइका नाम की एक कुतिया थीं। अन्य प्राणियों से प्राप्त कस्तूरी, हाथी दाँत, हिरणों के सींग वास्तव में अमूल्य होते हैं। अनेक ऐसे प्राणी हैं जिनके अवयवों से औषधियाँ बनायी जाती हैं।

अत: स्पष्ट हैं कि पशुओं का प्रयोग अत्यन्त व्यापक हैं। इसके द्वारा विश्व के अनेक प्रदेशों में भोजन के अभाव को पूरा किया जाता हैं। सम्पूर्ण कैलोरी का लगभग 1/5 भाग इसके द्वारा ही पूरा किया जाता हैं। जिम्मरमैन महोदय के अनुसार विश्व के दो तिहार्इ लागे या तो माँस नहीं खाते या बहुत कम खाते हैं परन्तु समूर, ऊन, और रेशम का प्रयोग अधिक मात्रा में करते हैं।

(v) कृषि एवं बागवानी का महत्व – कृषि का सबसे महत्वपूर्ण कार्य भोजन का उत्पादन हैं। इसमें पशुओं का भोजन भी उपलब्ध है। अधिकांश भोजन कृषि द्वारा ही प्राप्त किया जाता हैं। भारतीय कृषि मानसून का जुआ कहलाती हैं। यदि मानसून समय पर आ जाता हैं तथा वर्षा से कृषि कार्य हेतु पर्याप्त जल प्राप्त होता है तो उत्पादन अच्छा होता हैं जिससे जहाँ एक ओर देश में खाद्यान्नों की पूर्ति होती हैं दूसरी ओर उद्योगों के लिए कच्चे माल की भी प्राप्ति हो जाती हैं। ऐसी स्थिति मे सरकार अपनी कर व्यवस्था को तदनुसार ही निश्चित कर सकती हैं जबकि वर्षा कम होने या अधिक होने के कारण उत्पादन में भारी हानि होती हैं, जिससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था अव्यवस्थित हो जाती हैं तथा इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। डॉ0 क्रेसी के अनुसार ‘‘किसी भी देश में इतने अधिक व्यक्ति वर्षा पर निर्भर नहीं करते जितने कि भारत मे, क्योंकि सामयिक वर्षा में किंचित भी परिवर्तन होने से सम्पूर्ण देश की समृद्धि रूक जाती हैं।’’

भारत की राष्ट्रीय आय में कृषि उद्योग का सर्वाधिक योगदान भी हैं। कृषि से सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 26 प्रतिशत भाग प्राप्त होता हैं। ‘‘कृषि क्षेत्र में हमारी शक्ति का लगभग 64 प्रतिशत हिस्सा आजीविका प्राप्त कर रहा हैं और सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 26 प्रतिशत इसी क्षेत्र से मिलता हैं। देश के कुल निर्यात में कृषि का योगदान लगभग 18 प्रतिशत हैं। गैर कृषि क्षेत्र के लिए बड़ी मात्रा में उपभोक्ता वस्तुएँ और अधिकांश उद्योगों के लिए कच्चा माल कृषि क्षेत्र से ही प्राप्त होता हैं। बागवानी फसलों के अन्तर्गत फलो, सब्जियो, कंदमूल, फसलो, फूल तथा औषधियाँ मसालों आदि की व्यापक प्रजातियाँ शामिल हैं। भारत की शीतोष्ण, उपोष्ण और शुष्क क्षेत्रों जैसी विविध कृषि जलवायु में ये फसलें उत्पन्न की जा रही हैं। भारत फलों का दूसरा बड़ा उत्पादक देश हैं। सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में भारत, चीन के बाद सबसे बड़े दूसरे देश के रूप में उभरा हैं। आम, नारियल, काजू मसालों आदि के उत्पादन में भारत का पहला स्थान हैं।

भारत काजू का सबसे बड़ा निर्यातक हैं और विश्व के कुल काजू उत्पादन में भारत का हिस्सा 40 प्रतिशत हैं। भारत अदरक, हल्दी का सबसे बड़ा उत्पादक हैं तथा विश्व के कुल उत्पादन में इसका योगदान क्रमश: 65 और 76 प्रतिशत हैं।

संसाधन को प्रभावित करने वाले कारक

संसाधन को प्रभावित करने वाले कारक (sansadhan ko prabhavit karne wale karak) संसाधन को प्रभावित करने वाले कारक है :-

(i) जलवायु – जलवायु पर्यावरण को नियंत्रित करने वाला प्रमुख कारक हैं, क्योंकि जलवायु से प्राकृतिक वनस्पति मिट्टी, जलराशि तथा जीव जन्तु प्रभावित होते हैं। कुमारी सैम्पुल ने कहा हैं कि ‘‘पर्यावरण के सभी भौगोलिक कारको में जलवायु सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक हैं। सभ्यता के आरम्भ और उद्भव में जहाँ तक आर्थिक विकास का सम्बन्ध रहता हैं, जलवायु एक वृहत् शक्तिशाली तत्व हैं।’’’ जलवायु मानव की मानसिक एवं शारीरिक क्रियाओं पर प्रभाव डालती हैं।

प्रो0 एल्सवर्थ हटिंग्टन के अनुसार ‘‘मानव पर प्रभाव डालने वालेतत्वों में जलवायु सर्वाधिक प्रभावशील हैं क्योंकि यह पर्यावरण के अन्य कारको को भी नियंत्रित करता हैं।’’’ पृथ्वी पर मानव चाहे स्थल पर या समुद्र पर, मैदान या पर्वत पर, कहीं पर भी रहे व अपने आर्थिक कार्य करे उसे जलवायु अवष्य प्रभावित करती हैं। जलवायु के पाँच तत्व क्रमश: वायुमण्डलीय तापमान एवं सूर्यताप, वायुभार, पवने, आर्द्रता तथा वर्षा आदि मानव को प्रभावित करते हैं।

तापमान जलवायु के महत्वपूर्ण कारक के रूप में वनस्पति को सर्वाधिक प्रभावित करता हैं। इससे अनेक वनस्पति क्रियायें जैसे – प्रकाश संश्लष्ेाण हरितलवक बनना, श्वसन तथा गमीर् प्राप्त कर अंकुरण आदि प्रभावित होती हैं। वनस्पति की प्रकृति एवं वितरण भी तापमान से प्रभावित होता हैं। जलवायु कृषि पेटियों को भी निर्धारित करती हैं।

उष्ण कटिबन्धीय तथा मानसूनी प्रदेशों में चावल की कृषि होती हैं, जबकि शीतोष्ण घास के प्रदेशों में गहे ूँ की कृषि होती हैं। मरूस्थलीय मरूद्यानो में खजूर एवं छुआरो की कृषि की जाती हैं। पृथ्वी पर जनसंख्या वितरण भी जलवायु के कारको द्वारा प्रभावित होता हैं। पृथ्वी के समस्त क्षेत्र के केवल 30 प्रतिशत भाग पर संसार की सम्पूर्ण जनसंख्या निवास करती हैं। 70 प्रतिशत स्थलीय भाग जलवायु की दृष्टि से जनसंख्या निवास के अनुकूल नही हैं। जिसका विवरण इस प्रकार हैं :-

  1. शुष्क मरूस्थल 20 प्रतिशत
  2. हिमाच्छदित ठण्डे क्षेत्र 20 प्रतिशत
  3. पर्वतीय क्षत्रे 20 प्रतिशत
  4. अति ऊष्ण-आदर््र क्षेत्र 10 प्रतिशत जलवायु के कारक पारिस्थितिक तन्त्र को भी नियंत्रित रखते हैं।

जलचक्र के रूप में वर्षा, वाष्पीकरण तथा जल का संचरण करते हैं। वर्षा की मात्रा के अनुसार ही वनस्पति एवं अन्य जैव विविधता क्रियाशील रहती हैं, इस प्रकार जलवायु पर्यावरण को एक महत्वपूर्ण नियंत्रक कारक के रूप में प्रभावित करती हैं।

(ii) उच्चावच (Relief) – पृथ्वी पर पर्यावरण के धरातलीय आकृतियों का प्रभाव जलवायु पर दृष्टिगत होता हैं। जलवायुवीय दशाओं के आधार पर ही भौतिक एवं सांस्कृतिक वातावरण की प्रकृति निश्चित होती हैं। धरातलीय भू-आकृतियों को मुख्य रूप से तीन भागों में वर्गीकृत किया गया हैं। पृथ्वी पर धरातल का 26 प्रतिशत भाग पर्वतीय, 33 प्रतिशत भाग पठारी तथा 41 प्रतिशत भाग मैदानी हैं, जबकि भारत के क्षेत्रफल का 29.3 प्रतिशत भाग पर्वतीय, 27.77 प्रतिशत भाग पठारी तथा 43 प्रतिशत भाग मैदानी हैं। पर्वतीय भाग असमतल होते हैं तथा कठोर जलवायु युक्त होते हैं। यहाँ प्रत्येक आर्थिक क्रिया सुगमता पूर्व सम्पादित नहीं हो सकती। यहाँ पारिथितिकीय सन्तुलन श्रेष्ठ पाया जाता हैं। पठारी भाग धरातल से एकदम ऊँचा उठा हुआ समतल सतह वाला वह भाग होता हैं जहाँ चोटियों का आभाव पाया जाता हैं।

पठारी क्षेत्र मानव के लिए कठोर परिस्थितियाँ प्रदान करता हैं, जबकि मैदानी भाग मानव जीवन के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध कराता हैं। विदित हो कि विश्व की प्रमुख सभ्यताएं सिन्धु-गंगा, नील नदी, मैसोपोटामिया, àांगो आदि मैदानों में विकसित हुई। उच्चावच का प्रत्यक्ष प्रभाव जलवायु पर पड़ता हैं जलवायु के तत्व क्रमश: तापमान, वर्षा, आर्द्रता तथा पवन आदि उच्चावच से नियंत्रित रहते हैं। ऊँचाई पर प्रति 1000 मीटर पर 6.50 तापमान का àास होता हैं। ऐसा माना जाता हैं कि भारत में हिमालय पर्वत न होता तो सम्पूर्ण उत्तरी भारत सहारातुल्य मरूस्थलीय परिस्थितियां े से युक्त रहता। पर्वतीय स्थिति के कारण भारत में साइबेरिया से आने वाली ठण्डी हवाएँ प्रवेश नहीं कर पाती। पठार भी आर्थिक क्रियाओं के लिए बहुत उपयोगी नही माने गये हैं। ये शुष्क व अर्द्धशुष्क होते हैं। ये सामान्यत: कृषि के अनुकूल नही होते। केवल ज्वालामुखी उद्गार से निर्मित धरातल वाले पठार ही कृषि के लिए अनुकूल दशाये प्रदान करते हैं।

(iii) प्राकृतिक वनस्पति – प्राकृतिक वनस्पति से अभिप्राय भौगोलिक दशाओं में स्वत: विकसित होने वाली वनस्पति से हैं; जिसमें पेड़-पौधे, झाड़ियाँ, घास तथा लताएं आदि सम्मलित हैं। वनस्पति से आशय पेड़-पौधो, घास या झाड़ियों के विशिष्ट जाति समूह से हैं, जबकि वन उस वर्ग को कहते है जिसमें वृक्षों की प्रधानता हैं। प्राकृतिक वनस्पति, जलवायु, उच्चावच तथा मृदा के सामंजस्य से पारिस्थितिकीय अनुक्रम (Ecological Succession) के अनुसार अस्तित्व में आती हैं। प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण के महत्वपूर्ण कारक के रूप में पारिस्थितिक तन्त्र को सर्वाधिक प्रभावित करती हैं, जिसे जलवायु सर्वाधिक नियन्त्रित करती हैं। अन्य कारकों में जलापूर्ति (Water Supply), प्रकाश (Light), पवने (Winds) तथा मृदाएँ (Soils) प्रमुख हैं।

प्राकृतिक वनस्पति के चार प्रमुख वर्ग माने गये हैं :- (1) वन (2) घास प्रदेश (3) मरूस्थलीय झाड़ियाँ तथा (4) टुण्ड्रा वनस्पति। पर्यावरण के महत्वपूर्ण घटके के रूप में प्राकृतिक वनस्पति का विकास हुआ हैं किन्तु प्रगतिशील मानव निरन्तर उसे अवकृमित (Degraded) करने में जुटा हुआ हैं। मनुष्य अपनी परिवर्तनकारी क्रिया में आवश्यकता से अधिक आगे बढ़ता जा रहा हैं। वनस्पति को जलवायु का नियंत्रक माना जाता हैं। यह तापमान को नियंत्रित रखती हैं तथा वायुमण्डलीय आर्द्रता को संतुलित रखने का कार्य करती हैं। पेड़-पौधे विभिन्न स्रोताे से सृजित कार्बन-डाई-आक्साइड को अवशाेिषत कर वातावरण को शुद्ध रखने में सहायता करते हैं। वनो की जड़े मृदा को जकड़कर रखती हैं जिससे मृदा अपरदन नियन्त्रित होता हैं। प्राकृतिक वनस्पति जैव विविधता के रूप मे वन्य जीवन (Wild Life) का भी आश्रय स्थल बनते हैं।

अत: प्राकृतिक वनस्पति पर्यावरण के प्रमुख घटक के रूप में मानवीय विकास के लिए आवश्यक माने गये हैं। मनुष्य का भोजन, वस्त्र तथा निवासगृह पूर्णतय: प्राकृतिक वनस्पति की ही देन हैं। वनो से फल-फलू तथा जड़ी बूटियाँ, ईधन तथा वृक्षों से रेशम प्राप्त होता हैं। वनों से जहाँ एक ओर उद्योग के लिए कागज, दियासलाई, कृत्रिम रेशम, लाख, प्लाईवुड तथा फर्नीचर के लिए कच्चा माल प्राप्त होता हैं वहीं दूसरी ओर पशुओं को चारा, पशु पालन से खाल, माँस, ऊन तथा दुग्ध पदार्थ प्राप्त होता हैं, जिनसे मानव को भोजन एवं वस्त्र उपलब्ध होता हैं। अत: मनुष्य के क्रियाकलापों पर प्राकृतिक वनस्पति का गहरा प्रभाव पड़ता हैं।

(iv)जैविक कारक (Biotic-Factor) – विभिन्न जीव-जन्तु और पशु , मनुष्य के आर्थिक कार्यों को प्रभावित करते हैं। जन्तुओं में गतिशीलता की दृष्टि से वनस्पति से श्रेष्ठता होती हैं। वे अपनी आवश्यकताओं के अनुसार प्राकृतिक वातावरण से अनुकलू न (Adaptation) कर लते े हैं। जीव जन्तुओं में स्थानान्तरण शीलता का गुण होने के कारण वे अपने अनुकलू दशाओं वाले पर्यावरण में प्रवास (Migration) भी कर जाते हैं, फिर भी इन पर पर्यावरण का प्रत्यक्ष प्रभाव दृष्टिगत होता हं।ै जीव-जन्तुओ का प्रभाव परिवहन, रहन-सहन तथा व्यापार पर पड़ता हैं। आज भी पशु पिछड़े क्षेत्रों में परिवहन का मुख्य साधन हैं। कई भू-भागों के मनुष्यों का रहन-सहन जीवों पर निर्भर करता हैं। रेड इंडियन, किरगीज तथा एस्कीमो पशुओं की खालो से डेरी तथा गृह निर्माण करते हैं। अनेक जानवरो के बालों से वस्त्र बनाये जाते हैं। अच्छे ऊन का उपयोग तो आज भी शान की बात मानी जाती हैं।

पशुओं का प्रभाव मानव के आर्थिक जीवन पर स्पष्टत: परिलक्षित होता हैं। गाय, बैल, घोडा़ आदि मित्र जानवर मनुष्य के कायोर्ं मे सहयोग देते हैं। शरे , बन्दर, भालू आदि जानवर मनुष्य के कार्यों में बाधा पहुँचाते हैं। पशु-उत्पाद मानव के विभिन्न उपयोगों में आते हैं। रेण्डियर की हड्डियों से औजार तथा नसो से तांगे का कार्य लिया जाता हैं। माँस तथा दूध भोजन में प्रयोग होता हैं। चर्बी से प्रकाश पैदा किया जाता हैं। हाथी दाँत तो बहुमूल्य पदार्थ माना जाता हैं जो जंगली हाथियों से उपलब्ध होता हैं।

(v) मृदीय कारक (Edaphic Factor) – मृदा धरातलीय सतह का ऊपरी आवरण हैं जो कुछ सेटीमीटर से लके र एक-दो मीटर तक गहरी होती हैं। मृदा की रचना मूल पदार्थ (Prent Material) में परिवर्तन के परिणामस्वरूप होती हैं, जो विभिन्न प्रकार की जलवायु में जैविक कारकों के सम्पर्क से एक निश्चित अवधि में निर्मित होती हैं। मृदा निर्माण में उच्चावच (Relief) तथा ढाल की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं। मृदा में वनस्पति एवं जीव जन्तुओं के अवशष्ेा मिलते रहते हैं, जिसे जैव तत्व (Humus) कहते हैं। जैव तत्व के कारण मृदा का रंग काला हो जाता हैं। पृथ्वी पर शाकाहारी एवं मांसाहारी, जीव-जन्तु प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से मृदा पर निर्भर रहते हैं। शाकाहारी अपना भोजन कृषि द्वारा तथा मांसाहारी शाकाहारियों द्वारा प्राप्त करते हैं।

अत: मानवीय उपयोग की दृष्टि से मृदा आवरण किसी भी देश की मूल्यवान प्राकृतिक सम्पदा होती हैं। सामान्यत: उपजाऊ मृदा क्षेत्रों में मानव सभ्यता अनुर्वर क्षेत्रों की अपेक्षा उच्च रहती हैं। मृदा के भौगाेलक पक्ष के अनुसार यह प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से वनस्पति को प्रभावित करती हैं। पौधे आवश्यक जल तथा पोषक तत्व मृदा से प्राप्त करते हैं। क्षारीय तथा अम्लीय मृदा पौधो की वृद्धि में बाधक होती हैं। वर्तमान समय में मृदा की प्रमुख समस्या मृदा-क्षरण हैं जो तीव्र वन विनाश के कारण उत्पन्न हुई हैं। पर्यावरण के तत्व के रूप में मृदा पादपों को जीवन प्रदान कर कृषि व्यवस्था मं े सहायता करती हैं। अत: मृदा अनुरक्षण (Maintenance) और संरक्षण (Conservation) आवश्यक हैं।

Arora IAS

जल को प्रभावित करने वाले कारक कौन कौन से हैं?

Solution : जल के अवशोषण को प्रभावित करने वाले कारक है - उपलब्ध मृदा जल, वायु, मृदा ताप तथा मृदा विलयन की सांद्रता ।

जल संसाधन कितने प्रकार के होते हैं?

जल संसाधन के प्रकार.
सतही जल संसाधन (नदियाँ, तालाब, नाले).
भूमिगत जल संसाधन.

4 जल संसाधन पर कौन कौन से संसाधन निर्भर है?

इस प्रकार देश में कुल उपयोगी जल संसाधन 1,122 घन कि. मी. है। धरातलीय जल के चार मुख्य स्रोत हैं- नदियाँ, झीलें, तलैया और तालाब।

जल संसाधन से आप क्या समझते हैं?

जल संसाधन जल के वे स्रोत हैं जो मनुष्यों के लिए उपयोगी होते हैं। अधिकांशतः लोगों को ताजे जल की आवश्यकता होती है। जल की उपस्थिति के कारण ही पृथ्वी पर जीवन संभव है। जल एक अक्षय प्राकृतिक संसाधन है।