फिलिस्तीन के प्रति भारत का रवैया बहुत सहानुभूतिपूर्ण एवं समर्थन भरा क्यों था? - philisteen ke prati bhaarat ka ravaiya bahut sahaanubhootipoorn evan samarthan bhara kyon tha?

बाल विकास और मनोविज्ञान।। भाग – 3

फिलिस्तीन के प्रति भारत का रवैया बहुत सहानुभूतिपूर्ण एवं समर्थन भरा क्यों था? - philisteen ke prati bhaarat ka ravaiya bahut sahaanubhootipoorn evan samarthan bhara kyon tha?

विषय : बालकों का मानसिक स्वास्थ्य एवं व्यवहार संबंधी समस्यायें।

इकाई – 3

विषयांश : उपइकाई-1 – प्रस्तावना – उद्देश्य, मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ तथा बाधक तत्व। मानसिक

स्वास्थ्य में सुधार हेतु घर, परिवार एवं समाज का योगदान।

उपइकाई-2 – व्यवहार संबंधी समस्यायें, कारण एवं सुधार के उपाय।

प्रिय छात्र,

पूर्व इकाई में आपने विकास एवं उसको प्रभावित करने वाले कारकों का अध्ययन किया। प्रस्तुत इकाई में

बालकों का मानसिक स्वास्थ्य एवं व्यवहार संबंधी समस्याओं के विषय में अध्ययन करेंगे।

प्रस्तावना

शिक्षा का उद्देश्य बालक का समविकास है, शिक्षा के द्वारा बालक का शारीरिक तथा मानसिक विकास होता है।

शिक्षा बालक को अपने वातावरण से समायोजन करना सिखाती है। कई बालक परिवार में, विद्यालय में, समाज

में असमान्य सा व्यवहार करते हैं तो वह निश्चत ही मानसिक रूप से अस्वस्थ होंगे। मानसिक स्वास्थ्य का आशय

ऐसे स्वास्थ्य से है जो मानसिक रोगों तथा व्याधियों से ग्रस्त है। वास्तव में वही मन और मस्तिष्क स्वस्थ माना जा

सकता है जो मानसिक संघर्षों तथा भावना ग्रंथियों से मुक्त हो। स्वस्थ मन की पहचान आन्तरिक तथा बाह्य

समायोजन से है। यदि बालक मानसिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं होगे तो उनकी रूचि पढ़ाई में नही हो सकती, वह

विद्यालय नहीं आना चाहता, जिसके कारण कक्षा की पढ़ाई में उनका ध्यान केन्द्रित नहीं हो सकता और वे

शिक्षण का लाभ नहीं उठा सकेंगे। प्रत्येक अध्यापक तथा अभिभावक को मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का ज्ञान

होना आवश्यक है जिससे वह अपने और बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को बनाये रखने में योग

दे सकें। जो बच्चे मानसिक रोगों के समायोजन दोषों से पीड़ित हों, उनकी सहायता कर सकें।

उद्देश्य

इस इकाई के अध्ययन के पश्चात आप निम्न बिन्दुओं को समझ सकेंगे।

मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ तथा स्वरूप

मानसिक स्वास्थ्य में बाधक तत्व

मानसिक स्वास्थ्य सुधार में परिवार, विद्यालय और समाज का योगदान

बालकों की व्यवहार संबंधी समस्याओं के प्रकार

बालकों के व्यवहार संबंधी समस्याओं के कारण तथा समस्या सुधार के उपाय

मानसिक स्वास्थ्य : अर्थ, स्वरूप तथा बाधक तत्व

मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ

स्वास्थ्य का शाब्दिक अर्थ केवल रोग रहित शरीर होना ही नहीं बल्कि पूर्णतयाः शारीरिक, मानसिक, सामाजिक

संतुलन भी है। “स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है” यह कहावत बहुत महत्वपूर्ण है। मानसिक

स्वास्थ्य का अर्थ है मानव का अपने व्यवहार में संतुलन है। यह संतुलन प्रत्येक अवस्था में बना रहना चाहिये।

चिन्ता व संघर्ष रहित व्यक्ति, पूर्णतः समायोजित, आत्मविश्वासी, आत्मनियंत्रित, सवेंगात्मक रूप में स्थिर, सार्थक

जीवन एवं उच्च नैतिकता से पूर्ण प्रत्येक परिस्थति में समायोजन कर लेता है। उसमें मानसिक, तनाव, हताशा,

आदि को सहन करने की अदम्य शक्ति होती है। जिस बालक का व्यवहार असामान्य है वह अवश्य ही मानसिक

रूप से अस्वस्थ होगा। मानसिक रूपसे अस्वस्थ बालक अपने विद्यालय, साथी तथा शिक्षकों के लिये सिरदर्द बन

जाता है। बालक के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के अनेक कारण होते है अतः बालक के मानसिक रूप से

अस्वस्थ होने के कारणों का पता लगाकर उनका निदान करना अध्यापक का प्रमुख कार्य होता है। बाल विकास

तथा शिक्षा के विकास के लिए शिक्षक तथा बालक का मानसिक रूप से स्वस्थ रहना शिक्षण प्रक्रिया का प्रथम

कार्य है। डा. सरयूप्रसाद चौबे के शब्दों में “मानसिक रूप से स्वस्थ न रहने पर बालक का विकास कुण्ठित हो

जाता है। मानसिक अस्वस्थता के कारण अनेक बालक समाज पर बोझ दिखाई देते हैं। इसीलिये हमारे जीवन

में मानसिक स्वास्थ्य का महत्व शारीरिक स्वास्थ्य से कहीं कम नहीं है।

मानसिक स्वास्थ्य की परिभाषाएँ

लैडेन के अनुसार – “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ हैं – वास्तविक के धरातल पर वातावरण से सामंजस्य स्थापित करना”

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य संगठन, न्यूयार्क के अनुसार – “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है कि बालक अपने कार्य में, शाला में, परिवार में, सहयोगियों तथा समुदाय के

साथ ठीक प्रकार से रहे। इसका अभिप्राय प्रत्येक व्यक्ति के उस तरीके से है, जिसके द्वारा वह अपनी इच्छाओं,

महत्वाकांक्षाओं, विचारों, भावनाओं और अन्तरात्मा का समन्वय करता है। जिससे वह जीवन की उन मांगों को

पूरा कर सके, जिनका की उन मांगों को पूरा कर सके, जिनका उसे सामना करना है।”

क्रो एवं क्रो के अनुसार – “मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान वह विज्ञान है जिसका सम्बन्ध मानव कल्याण

से है और जो मानव सम्बन्धों के सभी क्षेत्रों को प्रभावित करता है।

मानसिक स्वास्थ्य का स्वरूप

हमारा मुख्य ध्येय बालकों के मानसिक स्वास्थ्य को ठीक बनाये रखना है। अच्छे मानसिक स्वास्थ्य के बगैर

बच्चों की योग्यताओं का उचित विकास सम्भव नहीं है। जिन बच्चों में भय, चिन्ता, निराशा तथा अन्य समायोजन

दोषों का विकास हो जाता है उनका मन पढ़ने में नहीं लगता और सीखने में उन्नति नहीं हो पाती। इसके अतिरिक्त

समायोजन दोष वाले बालक कई प्रकार की समस्याएँ रखते हैं। जिनको समझने और समाधान के लिए प्रत्येक

अध्यापक एवं अभिभावक को मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का ज्ञान आवश्यक होगा।

एक समय था जबकि बच्चे की बुद्धि, रूचि एवं मानसिक स्थिति की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था। उस

समय शिक्षा पूर्णतया अध्यापक केन्द्रित थी और शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बच्चों को ‘थ्री आर’ का ज्ञान देना था।

किन्तु अब शिक्षा का केन्द्र बालक बन गया है, उसकी मानसिक स्थिति, रूचि एवं अन्य योग्यताओं को आधार मानकर ही पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है।

बालक के मानसिक स्वास्थ्य में बाधक तत्व

बालक के मानसिक स्वास्थ्य को जो तत्व क्षीण कर देते हैं अथवा प्रभाव डालते हैं, वे निम्नलिखित हैं

1. वंशानुक्रम तत्व का प्रभाव – वंशानुक्रम दोषपूर्ण होने के कारण बालक मानसिक दुर्बलता, अस्वस्थता तथा एक

विशेष प्रकार की मानसिक अस्वस्थता प्राप्त करता है। अतः वंशानुक्रम प्रभाव का प्रमुख घटक है। इस प्रकार

बालक समायोजन करने में कठिनाई का अनुभव करता है।

2. शारीरिक अस्वस्थता का प्रभाव – जो बालक शारीरिक रूप से अस्वस्थ रहते हैं। वे सामान्य जीवन में सामंजस्य

स्थापित नहीं कर पाते। अतः शारीरिक अस्वस्थता का घटक मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता। शारीरिक

स्वास्थ्य अनुकूल होने की दशा में ही मानसिक स्वास्थ्य ठीक रहता है।

3. शारीरिक दोषो का प्रभाव – बालक के शारीरिक दोष विकलांगता अथवा किसी प्रकार शारीरिक विकृतियां

बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं। ऐसे बालक हीनता तथा कुण्ठाओं से ग्रसित होते हैं। इस प्रकार

वे समाज से समायोजन नहीं कर पाते।

4. पारिवारिक परिस्थितियों का प्रभाव – इसमें पारिवारिक विघटन, परिवार की अनुशासनहीनता, निर्धनता, संघर्ष,

माता पिता का परस्पर व्यवहार इत्यादि अनेक घटक आते हैं। इन बाधक तत्वों के कारण बालकों का मानसिक

स्वास्थ्य ठीकनहीं रहता। कुछ माता पिता अपने बालकों को बहुत लाड़ दुलार देते है। उन्हें अधिक विलासी साधन

उपलब्ध कराते हैं। इससे उनकी मनोवृत्ति असामान्य हो जाती है। कुछ नौकरी तथा व्यवसाय में अधिक व्यस्त रहने

के कारण भली प्रकार ध्यान नहीं दे पाते अथवा बालकों को छात्रावासों में भर्ती कर देते है। प्यार के अभाव में भी

बालकों का मानसिक स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। इन तमाम बाधक तत्वो के कारण बालक असामान्य हो जाते है। इस कारण वे परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाते।

5. विद्यालयी वातावरण का प्रभाव – विद्यालयी वातावरण – जैसे, भेद भाव, छुआछूत, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अभाव, इच्छा, दमन, पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का अभाव, भय, आतंक आदि तत्व बालक के मानसिक स्वास्थ को खराब करते हैं। अनुशासन की कठोरता, दोषपूर्ण पाठ्यक्रम, नीरस शिक्षण विधियाँ, अमनोवैज्ञानिक प्रणालियाँ, परीक्षा प्रणाली का दोषपूर्ण होना, पुरस्कार वितरण में भेद भाव, कक्षा का दूषित वातावरण, जलवायु एवं प्रकाश व्यवस्था का अभाव। छोटी – छोटी त्रुटियों पर भारी दण्ड की व्यवस्था, शिक्षक का नीरस एवं कठोर व्यवहार एवं पक्षपातपूर्ण रवैया आदि बाधक तत्व बालक के मानसिक स्वास्थ्य को खराब कर देते है एवं उनकी उन्नति में बाधक होते है। बालक की रूचियो चूंकि प्रमुख होती है। अतः रूचि के अनुसार कार्य न देना भी मानसिक स्वास्थ्य की विकृति का प्रतीक है।

6. मनोरंजन तथा सांस्कृतिक क्रिया-कलापों के अभाव का प्रभाव – बालक के लिये मनोरंजन जिज्ञासा युक्त तथा पसंद का होना चाहिए। मनोरजन के साधन उपलब्ध नही कराये जाते तो मानसिक रूप से अस्वस्थता का अनुभव करते है, वे निराश तथा नीरस हो जाते है। उनका वास्तविक सन्तुलन बिगड़ जाता है। अतः यह बिन्दु भी विचारणीय है।

पाठ्यगत प्रश्न –

प्र.1 मानसिक स्वास्थय का अर्थ है –

अ. वास्तविकता के धरातल पर वातावरण में सामंजस्य स्थापित करना।

ब. स्वस्थ्य मस्तिष्क स. स्मृति का विकास द. बुद्धि का विकास

प्र. 2 “मानसिक स्वास्थ्य का अर्थ है – वास्तविकता के धरातल पर वातावरण से सामंजस्य स्थापित

करना”- उक्त परिभाषा किस विद्धान की है।

अ. ड्रेवर की ब. फ्रायड़ की

स. क्लेन की द. मेंस्लो की

प्र. 3. कौन सा अभिकरण मानसिक स्वास्थ्य विकास में शक्तिशाली है –

अ. परिवार ब. सिनेमा

स. पुस्तकालय द. सुधारालय

प्र. 4 मानसिक स्वास्थय से आप क्या समझते है ?

(अ) घर, विद्यालय, समाज का मानसिक स्वास्थ्य सुधार में योगदान

घर का सुधार में योगदान – घर में सुधार के सुझाव निम्नलिखित है –

1. घर का वातावरण पूर्णतया, शान्तिमय होना चाहिए। बात बात पर माता पिता को लड़ना-झगड़ना नहीं चाहिए।

2. प्रेम, स्नेह, सहयोग, सहानुभूति, प्रेरणा तथा बच्चों की स्वाभाविक आकांक्षाओं की पूर्ति कर परिवार उनके स्वस्थ्य मानसिक विकास की सभी परिस्थितियां उपलब्ध करा सकता है।

3. परिवार स्वतंत्रता, सीमित नियंत्रण, प्रोत्साहन, प्रशंसा तथा स्वाभाविक अभिव्यक्ति के वातावरण का सृजन कर बालकों की मूलप्रवृत्तियों का उन्नयन तथा परिमार्जन कर सकता है।

4. बालकों को उनकी रूचि के अनुसार भोजन, वस्त्र, खेलकूद, मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराकर मानसिक स्वास्थ्य सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

5. माता पिता को लालन पालन करने का प्रशिक्षा होना चाहिये।

6. परिवार के समस्त सदस्यों का आचरण नैतिकतापूर्ण होना चाहिये।

7. परिवार में अच्छी पुस्तके पढने की प्रेरित करना चाहिये।

8. निर्धन परिवार के बालकों को सरकार द्वारा पर्याप्त आर्थिक सहायता प्रदान की जाए।

9. बालकों की विभिन्न शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाय ।

() विद्यालय का सुधार में योगदान –

1. विद्यालय का वातावरण स्वास्थ्यप्रद होना चाहिये।

2. विद्यालय में बालकों को विभिन्न सामाजिक गतिविधियों में भाग लेने का अवसर प्रदान मिलने चाहिये, जिससे उनमें समाजिकता का विकास होता है।

3. यदि कक्षा अध्यापक का व्यवहार कठोर होता है तो बच्चों का मानसिक स्वास्थ बिगड़ जाता है। अध्यापक का व्यवहार नियंत्रित होना चाहिये। विद्यार्थी को हमेंशा प्रोत्साहन देना चाहिये।

4. अध्यापक का व्यक्तित्व सवेगात्मक रूप से स्थिर होना चाहिये, उसे विद्यार्थियों में भेदभाव नहीं करना चाहिये। शिक्षक को निराशावादी नहीं होना चाहिये।

5. कई बार अनूपयुक्त पाठ्यक्रम बालक के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर देते हैं। विद्यार्थी को उसकी रूचि के अनुसार पाठ्यक्रम मिलने पर, वह खुश रहते हैं और उनका मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहता है।

6. वाद विवाद, कविता प्रतियोगिता तथाअन्य साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेकर बालक अपना मानसिक विकास करता है।

7. बालक को अपने विचार अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए।

8. जो शिक्षण विधियां बालको की रूचियां, स्थायी भावों, चरित्र, बुद्धि, कल्पना स्मृति आदि मानसिक शक्तियों तथा शारीरिक शक्तियों को विकसित करती है, वे बाल–केन्द्रित शिक्षण विधियां कहलाती है। जो अधिक बाल केन्द्रित होगी, वह उतनी ही बालकों के मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयोगी होंगी।

9. बालक की क्षमताओं तथा योग्यताओं को ध्यान में रखते हुए उसे समुचित निर्देशन प्राप्त करना चाहिए। यह

निर्देशन शैक्षिक तथा व्यावसायिक दोनों दृष्टियों से होगा। यदि बालक ऐसे विषयों का अध्ययन करेगा जो उसकी

रूचि और क्षमता के अनुरूप हैं तो उसका मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहेगा।

(स) समाज का मानसिक स्वास्थ्य सुधार में योगदान –

समूह एक प्रकार के समाज की इकाई होती है। बालक किसी न किसी समूह के सदस्य होते हैं और उसके

प्रति निष्ठावान होते है। बालकों के खेलने कूदने की विभिन्न क्रियायें समूह में ही होती है। ऐसी दशा में बालक

का समूह द्वारा प्रभावित होना स्वाभाविक हो जाता है समूह बालक के विकास को निम्नलिखित ढंग से सुधार

सकता है –

1. समूह बालक में अच्छी सामजिकता की भावना का विकास करता है।

2. समूह में रहकर बालक परस्पर सहयोग और सहकारिता की भावना का विकास करता है।

3. समूह बालकों को संगठन व नेतृत्व का प्रशिक्षण देता है।

4. यदि समूह के अधिकांश सदस्य दुराचारी और भ्रष्ट है तो अच्छे बालक भी भ्रष्ट और दुराचारी हो जाते

5. समूह में न रहने पर बालक एकान्तीय और असामाजिक हो जाता है।

व्यवहार संबंधी समस्याओं के प्रकार

शिशु जब जन्म लेता है तब वह पूर्णतया दूसरों पर निर्भर रहता है। शैशवावस्था में वह मां के अधीन होता है।

इसका प्रथम व्यवहार मां से प्रारंभ होता है। भूख लगने पर रोना, मां के संपर्क का यह प्रथम व्यवहार है। बड़ा

होने पर वह परिवार तथा समाज के संपर्क में आता है। धीरे-धीरे उसमें शारीरिक, मानसिक तथा सर्वेगात्मक

आवश्यकतायें विकसित होने लगती है। उसकी अन्तः क्रिया तथा वातावरण के प्रभाव के फलस्वरूप उसका

व्यवहार बनता है। यदि समाज तथा परिवार की परिस्थितियां सामान्य एवं आदर्शपूर्ण होती है तो बालक का

व्यवहार सामान्य बना रहता है, लेकिन यदि समाज या परिवार की समाज की परिस्थितियाँ उत्तेजनात्मक एवं

असंगत होती है तो फिर बालकों का व्यवहार भी असंगत एवं समाज के लिए समस्यापूर्ण हो जाता है। इसी

कारण वह परिस्थितियों से समायोजन नहीं कर पाता है तथा समायोजन की क्षमता के अभाव में बालक की

व्यवहार सम्बन्धी विभिन्न समस्याएं उठ खड़ी होती है।

बालकों की व्यवहार संबंधी समस्याओं के प्रकार – बालकों की व्यवहार सम्बन्धी विभिन्न समस्याएं शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक तथा सामाजिक समायोजन से

सम्बन्धित होती है। यहां उनके व्यवहार सम्बन्धी समस्याओं को निम्न प्रकार से स्पष्ट कर सकते हैं –

1. शारीरिक अवयवों पर आधारित समस्याएँ –शारीरिक अवयवों पर आधारित समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

1. अंग मटकाना 2. अंगूठा चूसना 3. मुंह से नाखून काटना 4. कन्धे मटकाना 5. हकलाना 6. शारीरिक

2. मानसिक समस्याओं पर आधारित समस्याएं – मानसिक समस्याओं पर आधारित समस्याएँ निम्नलिखित हैं – 1. पराश्रित बने रहना 2. निर्णय लेने की अक्षमता की स्थिति 3. व्यवहार में नीरसता होना 4. अदूरदर्शिता 5. अविवेकशीलता 6. कठिनाइयों में विचलित होना 7. मानसिक विकास में अवरोधन उत्पन्न होना 8. विषय में अरूचि होना 9. घमण्ड करना 10. कक्षा से भाग जाना आदि।

3. सवेंगात्मक समस्याओं पर आधारित –संवेगात्मक समस्याओं पर आधारित समस्याएँ निम्न लिखित है –

1. घबराहट का अनुभव करना 2. हठ करना 3. काल्पनिक अस्वस्थता 4. बहाना करना

5. दिवास्वप्न देखना 6. नकारात्मक भाव व्यक्त करना 7. शर्मीलापन होना 8. क्रोध करना

9. चिड़चिड़ा एवं झगडालू होना आदि ।

4. सामाजिक समस्याओं पर आधारित – समाजिक समस्याओं पर आधारित समस्याऐं निम्नलिखित हैं – 1. झगड़ा करना 2. हठ व अवज्ञा करना

3. चोरी करना 4. संगी साथियों के साथ कुसमायोजन करना।

व्यवहार संबंधी समस्याओं के कारण – बालकों में विभिन्न प्रकार के समस्यात्मक व्यवहार पाये जाते हैं

जिनके

कारण अलग अलग होते है। लेकिन इनके मूल कारण प्रमुख है जो हमारे परिवार व समाज द्वारा उत्पन्न होते

हैं और समायोजन में बाधक होते हैं। इन्हें हम सामान्य कारण कह सकते हैं।

1. पारिवारिक वातावरण – प्रत्येक बालक को जन्म के बाद सर्वप्रथम पारिवारिक वातावरण ही प्राप्त होता है। पारिवारिक वातावरण उसके

चतुर्मुखी विकास का आधार होता है। परिवार और माता पिता यदि चाहे तो बच्चे में अधिकारिक गुणों की

भरमार करसकते हैं और यदि उनकी उचित देखभाल नहीं करते है तो बच्चे का भविष्य बिगाड़ देते हैं। परिवार

बालक की प्रथम पाठशाला और मातायें आदर्श अध्यापिकाये होती हैं।

परिवार का वातावरण विभिन्न रूपो में बालको के विकास को प्रभावित करता है : –

1. जिन परिवारों का आन्तरिक वातावरण कलहपूर्ण होता है। माता पिता में परस्पर लडाई झगडा होता है वहां

बच्चों का स्वस्थ विकास नहीं होता है।

2. यदि माता पिता नौकरी या अन्य किसी कारणों से अधिक समय तक घर से बाहर रहते हैं तो बालक स्वयं को

असुरक्षित महसूस करते हैं।

3. जब माता पिता अपनी सभी सन्तानों को समान लाड़ प्यार और सुविधायें नहीं देते हैं तो बालकों के व्यवहार में

समस्यायें पैदा हो जाती है।

4. माता या पिता का सौतेला होने पर भी एक पक्ष से उपेक्षापूर्ण व्यवहार मिलने पर भावना ग्रंथियां बन जाती हैं

और व्यवहारात्मक समस्यायें उत्पन्न हो जाती है।

5. परिवार के आर्थिक रूप से सम्पन्न होने पर बालक अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये झूठ बोलते हैं

चोरी करते हैं तथा अन्य गलत तरीकों को अपनाते हैं।

6. माता पिता के गलत आचरण होना – यदि माता पिता गलत आदतों के शिकार हैं, वे झूठ बोलते हैं, चोरी

करते हैं, नशीले पदार्थो का सेवन करते हैं तो बालकों पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है।

7. माता-पिता का अत्यधिक कठोर अनुशासन या ढीला अनुशासन दोनों ही बालकों को उद्दण्ड तथा

समस्यात्मक बना देते हैं।

8. रहने का अनुपयुक्त स्थान बालकों को समस्यात्मक बना देते हैं। बालकों में क्रियाशीलता अधिक होती

है। वे इच्छानुसार स्वतन्त्र रूप से कार्य करना चाहते हैं। घर पर स्थान की कमी होने पर जब उन्हें विभिन्न

क्रियाओं को करने के लिये रोका टोका जाता है तो वे बैचेनी का अनुभव करते हैं। क्योंकि घर में उन्हें अपनी

शक्तियों के प्रयोग करने का अवसर नहीं मिल पाता है।

2. सामाजिक वातावरण – जिस समाज का वातावरण दूषित होता है, समाज में अनैतिकता और अनाचार की बहुलता होती है वहाँ

समस्यात्मक बालकों की अधिकता होती है। बालक अपने आस पास के वातावरण में जैसा व्यवहार दूसरों को

करते देखते हैं वैसा ही वे स्वयं करने लगते हैं। इसके अतिरिक्त जिस समाज में बेकारी, भ्रष्टाचार और जातीय

भेदभावों की प्रमुखता होती है वहां भी असमानतापूर्ण वातावरण के कारण बालकों के व्यवहार समस्यात्मक हो

जाते है।

3. विद्यालय का वातावरण – विद्यालय का अनुपयुक्त वातावरण भी बालकों को समस्यात्मक बनाता हैं

जैसे –

1. अनुपयुक्त पाठ्यक्रम – जब पाठ्यक्रम बालकों के बौद्धिक स्तरके अनुकूल नहीं होता है, पाठ्यक्रम में बालकों

की रूचि के अनुसार सहगामी क्रियायें नहीं होती है तो बालक का मन पढ़ाई में नहीं लगता है।

2. दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति – जब शिक्षक का पढ़ाया हुआ बालकों की समझ में नही आता है तो दोषपूर्ण शिक्षण

विधि के कारण बालक पढने में जी चुराते है।

3. दोषपूर्ण परीक्षा पद्धति – परीक्षा पद्धति उपयुक्त न होने पर जब बालकों को अपनी परीक्षा के समुचित परिणाम

नहीं मिलते हैं तो वे समस्यात्मक बन जाते हैं।

4. कठोर अनुशासन – जब विद्यालय का अनुशासन अत्यधिक कठोर होता है, बालकों को थोड़ी ही त्रुटि के लिये

कठोर दण्ड दिया जाता है तो बालक अनुशासन विहीन हो जाता है।

5. गलत सहपाठी – यदि बालक के सहपाठी झूठ बोलने वाले, स्कूल से भागने वाले, जुआ खेलने वाले, सिगरेट

व शराब पीने वाले होते हैं तो बालक भी वैसा बन जाता है।

4. शारीरिक अयोग्यतायें- जिन बालकों में कोई शारीरिक अयोग्यता होती है जैसे – अधिक लम्बा, मोटा, नाटा, बौना, लंगडा, लूला, अन्धा,

बहरा आदि तो इन दोषों के कारण उपहास होने पर, समूह में सम्मिलित न होने पर बालकों में संवेगात्मक तनाव

उत्पन्न हो जाता है जिससे उनका व्यवहार समस्यात्मक हो जाता है।

5. बुद्धि – बुद्धि की कमी और अधिकता दोनों ही समस्यात्मक बालकों को जन्म देती हैं। दोनों ही स्थितियों में बालक सामान्य बालकों के साथ समायोजित नहीं हो पाते हैं और उनके व्यवहार समस्यात्मक बन जाते है।

6. गन्दा साहित्य व फिल्में – जब बालक गन्दा साहित्य पढ़ते हैं और अश्लील फिल्में देखते हैं तो उनमें बहुत ही निम्न स्तरीय व्यवहारों की उत्पत्ति होती है। ये व्यवहार बालक को अनैतिक व समाज विरोधी बना देते हैं तथा उसके व्यक्तित्व को नष्ट कर देते है।

समस्यात्मक बालको का उपचार

समस्यात्मक बालकों को सुधारने के लिये निम्नलिखित प्रयास किये जा सकते हैं –

1. प्रेम व सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार – देखा गया है कि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति न होने पर बालक समस्यात्मक बन जाते हैं अतः उन्हें सुधारने के लिये आवश्यक है कि उनके साथ प्रेम व सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार किया जायें।

2. आलोचना न की जाये – इन बालकों को न तो कठोर दण्ड देना चाहिये न ही अधिक डांटना फटकारना चाहिये। कठोर दण्ड और डांट फटकार से ये और अधिक उद्दण्ड हो जाते है।

3. दबी हुयी मूल प्रवृत्तियों का शोधन किया जाये – कभी कभी जब इच्छाओं का दमन हो जाता है तो भी बालकों

में समस्यातमक व्यवहार उत्पन्न होते हैं अतः खेल, मनोरंजन, भ्रमण तथा मनोचिकित्सक द्वारा मूल प्रवृत्त्यिों का

शोधन किया जाये।

4. आवश्यकतानुसार ही पुरस्कार और दण्ड का प्रयोग किया जाये – बालक के कार्यो के लिये उसे हतोत्साहित

न किया जाये अपितु समय समय पर पुरस्कार देकर उनके आत्मविश्वास में वृद्धि की जाये।

5. स्वस्थ मनोरंजन के साधन उपलब्ध कराये जायें – पढ़ाई के साथ मनोरंजन भी आवश्यक है। माता पिता को

चाहिये कि वे बालकों के स्वस्थ मनोरंजन में अपना योगदान दें। उन्हें समय समय पर घुमाने या पिकनिक मनाने

ले जायें। घर के अन्दर भी उनके साथ उनकी रूचिके खेल खेलें, अच्छा साहित्य व पत्र पत्रिकायें दें जिससे उनका

मनोरंजन हो और खाली समय का सदुयोग हो।

6. धर्म व नैतिकता की शिक्षा दी जाये – प्रत्येक धर्म के अपने कुछ सिद्धान्त व आदेश होते हैं जो बच्चों के अच्छे

चरित्र निर्माण में सहायक होते हैं। माता पिता तथा शिक्षकों को चाहिये कि वे बालकों को धार्मिक व नैतिक शिक्षा

दें जिससे उनमें उच्च आदर्शों का निर्माण हों।

7. सही मार्गदर्शन – माता पिता तथा शिक्षकों द्वारा बालक के प्रश्नों का तथा जिज्ञासाओं का समाधान किया जाये। 8. सामाजिक व रचनात्मक कार्यो में लगाया जाये – ऐसे बालकों के सुधार के लिये आवश्यक है कि उन्हें व्यस्त रखा जाये उन्हें सामाजिक दायित्वों तथा रचनात्मक कार्यों में लगाया जाये।

9. शारीरिक विकारों को कम करने के लिये सुविधायें दी जाये – शारीरिक रूप से अक्षम बालक हीनता का

शिकार होकर समस्यात्मक बन जाते हैं। ऐसे बालको के सुधार के लिये आवश्यक है कि इनके शारीरिक विकारों

को कम करने के लिये आवश्यक सुविधायें प्रदान की जाये।

10. विद्यालयों का पाठ्यक्रम बालक के अनुरूप हो – विद्यालय का वातावरण तथा पाठ्यक्रम बालक की बुद्धि,

योग्यता तथा रूचि के अनुकूल होना चाहिये जिससे पढ़ाई में उनका मन लगे। वे विद्यालय जाने से जी न चुरायें।

11. शिक्षक व अभिभावक समय समय पर सम्पर्क करें – समस्यात्मक बालकों को सुधारने के लिये जरूरी हैं कि माता – पिता तथा शिक्षक सप्ताह में एक बार मिलें और एक दूसरे से बालक के व्यवहार के सम्बन्ध में आवश्यक जानकारी प्राप्त करे और तदनुसार बालक को सुधारने का प्रयास करें।

12. बालक के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त करें – यदि माता पिता या शिक्षक बच्चे में कोई समस्यात्मक व्यवहार देखें तो तुरन्त ही कोई निष्कर्ष निकाल कर सुधार का प्रयास न करें अपितु कुछ समय तक बालक के सम्बन्ध में पूरी जानकारी प्राप्त करें तब सुधारात्मक विधि प्रयोग में लायें।

बालकों के कुछ प्रमुख व्यवहार संबंधी समस्यायें, कारण तथा उपाय

1. अंगूठा चूसना

शैशवास्था में प्रायः सभी शिशु अंगूठा चूसते हैं जो एक समान्य व मूल प्रवृत्ति हैं परन्तु 3-4 साल के बाद यह एक

समस्या बन जाती है। यह एक मनोशारीरिक समस्यात्मक व्यवहार है। जब बच्चे को मां स्तनपान नहीं कराती या

माता पिता से स्नेह नही मिलता या उन्हें असुरक्षा की भावना महसूस होती है, आदि कारणों से बच्चा अंगूठा चूसने लगते है।

उपाय : 1. आदत को छुड़ाने के लिये उसे मारना, डराना, तथा धमकाना नही चाहिए।

2. शिशु को दूध पिलाने के समय में नियमितता रखनी चाहिए।

3. बच्चों को पर्याप्त स्नेह देना चाहिए।

4. शिशु को लगभग 1 वर्ष तक स्तनपान करायें।

2. नाखून काटना

मानसिक अन्तर्द्वद की स्थिति में सही निर्णय न ले पाने पर, हीनभावना से ग्रसित होने पर, माता पिता द्वारा बच्चों

के साथ उपेक्षा और तिरस्कारपूर्ण व्यवहार करनेपर, फ्रायड़ के अनुसार “यौन इच्छाओं की

सन्तुष्टि न होने पर” बालक मुंह से नाखून काटने लगता है।

उपाय: 1. बच्चे में आत्मविश्वास जागृत करें।

2. माता – पिता या परिवार के अन्य सदस्य द्वारा बच्चे का तिरस्कार न किया जाये।

3. डांट फटकार का प्रयोग न करें।

4. आक्रमकता व तनाव कारणों को जानकर उसे दूर करने की कोशिश करें।

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