UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्यांजलि Chapter 3 सूरदास are part of UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi . Here we have given UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्यांजलि Chapter 3 सूरदास. BoardUP BoardTextbookNCERTClassClass 11SubjectSahityik HindiChapterChapter 3Chapter NameसूरदासNumber of Questions5CategoryUP Board SolutionsUP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्यांजलि Chapter 3 सूरदासकवि-परिचय एवं काव्यगत विशेषताएँ प्रश्न 1. आरम्भ से ही इनमें भगवद्भक्ति स्फुरित हुई। मथुरा के निकट गऊघाट पर ये भगवान् के विनय के पद गाते हुए निवास करते थे। यहीं इनकी महाप्रभु केल्लभाचार्य से भेंट हुई, जिन्होंने इनके सरस पद सुनकर इन्हें अपना शिष्य बनाया और गोवर्धन पर स्थित श्रीनाथजी के मन्दिर का मुख्य कीर्तनिया नियुक्त किया। यहीं इन्होंने श्रीमद्भागवत् में वर्णित कृष्णचरित्र का ललित पदों में गायन किया। महाप्रभु वल्लभाचार्य जी की भक्ति-सम्प्रदाय ‘पुष्टिमार्ग कहलाता है। एकमात्र भगवान् की कृपा पर ही निर्भरता को सिद्धान्तरूप में गृहीत करने के कारण यह पुष्टि सम्प्रदाय’ कहलाता है। गुरु के प्रति इनकी अगाध श्रद्धा थी। अन्त समय में इन्होंने अपने दीक्षागुरु महाप्रभु वल्लभाचार्य जी का स्मरण निम्नलिखित शब्दों में किया भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो। श्री वल्लभाचार्य जी की मृत्यु के उपरान्त उनके पुत्र गोस्वामी बिट्ठलनाथ जी ने पुष्टिमार्ग के आठ सर्वश्रेष्ठ कवि एवं गायकों को लेकर अष्टछाप की स्थापना की। सूरदास का इनमें सबसे प्रमुख स्थान था। गोवर्धन के निकट पारसौली ग्राम में इनकी मृत्यु संवत् 1640(सन् 1583 ई०) में हुई। कहते हैं कि मृत्यु के समय इन्होंने यह पद गाकर प्राण त्यागे-‘खंजन नैन रूप रस माते।’ कृतियाँ – सूरदास की कीर्ति का मुख्य आधार उनका ‘सूरसागर’ ग्रन्थ है। इसके अतिरिक्त ‘सूरसारावली’ और ‘साहित्य लहरी‘ भी उनकी रचनाएँ मानी जाती हैं, यद्यपि कतिपय विद्वानों ने इनकी प्रामाणिकता में सन्देह प्रकट किया है। ‘सूरसागर’ में श्रीमद्भागवत’ के दशम स्कन्ध की कृष्णलीलाओं का विविध भाव-भंगिमाओं में गायन किया गया है। काव्यगत विशेषताएँ भावपक्ष की विशेषताएँ भगवान् के लोकरंजक रूप का चित्रण – सूरदास ने भगवान् के लोकरंजक (संसार को आनन्दित करने वाले) रूप को लेकर उनकी लीलाओं का गायन किया है। तुलसी के समान उनका उद्देश्य संसार को उपदेश देना नहीं, अपितु उसे कृष्ण की मनोहारिणी लीलाओं के रस में डुबोना था। वल्लभाचार्य जी के शिष्य बनने से पहले। सूर विनय के पद गाया करते थे, जिनमें दास्य भाव की प्रधानता थी। इनमें अपनी दीनता और भगवान् की महत्ता : का वर्णन रहता था । वात्सल्य वर्णन (1) वात्सल्य का संयोग पक्ष – वात्सल्य रस का जैसा सरस और विशद वर्णन सूर ने किया है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। पुत्र को पालने में झुलाना और उसे लोरियाँ गाकर सुलाना मातृजीवन की सहज अभिलाषा होती है। इसके अतिरिक्त बालक की बाह्य चेष्टाओं और क्रियाओं, उनकी मनोवैज्ञानिक चपलताओं का सुन्दर अंकन तथा माता-पिता को उन पर बलिहारी होना आदि के चित्रण द्वारा उन्होंने वात्सल्य के संयोग पक्ष को परिपुष्ट किया है। इसका संक्षिप्त विवेचन निम्नवत् है कबहुँ पलक हरि मूंद लेते हैं, कबहुँ अधर फरकावै॥ (2) वात्सल्य का वियोग पक्ष – वात्सल्य के वियोग-पक्ष के अन्तर्गत कृष्ण के मथुरा चले जाने पर उनके प्रति नन्द-यशोदा के हृदयस्पर्शी उद्गार सूरदास ने बड़ी मार्मिकता से वर्णित किये हैं तुम तो टेब जानतिहि है हो, तऊ मोहिं कहि आवै । वात्सल्य में सूर की इस असाधारण और अद्वितीय सफलता के रहस्य का उद्घाटन करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी कहते हैं कि, “सूर वस्तुत: वय:-प्राप्त शिशु थे। कदाचित् इसी कारण अपनी बन्द आँखों से सूर जो देख और दिखा सके, उसका शतांश भी खुली आँखों वाले न देख सके।” श्रृंगार वर्णन वात्सल्य के समान ही श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों पर सूर को समान अधिकार है। इस सम्बन्ध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं, “श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का इतना प्रचुर विस्तार और किसी कवि में नहीं मिलता।’ इन दोनों पक्षों का संक्षिप्त विवेचन निम्नवत् है (1) संयोग पक्ष – वृन्दावन में कृष्ण और गोपियों का सम्पूर्ण जीवन क्रीड़ामय है, जो संयोग श्रृंगार के ही अन्तर्गत आता है। इसमें कृष्ण और राधा के अंग-प्रत्यंग की शोभा को अनेकानेक पदों में अत्यन्त चमत्कारपूर्ण वर्णन करने के बाद सूर वृन्दावन की करील-कुंजों, सुन्दर लताओं, हरे-भरे कछारों के बीच खिली हुई चाँदनी और कोकिल-कूजन के उद्दीपक परिवेश में कृष्ण, राधा और गोपिकाओं की विभिन्न क्रीड़ाएँ चित्रित करते हैं। कृष्ण और राधा का परिचय पारस्परिक आकर्षण से आरम्भ होकर संलाप से घनिष्ठ होता है बूझत स्याम, कौन तू, गौरी ? (2) वियोग पक्ष – सूर ने जिस कौशल और पूर्णता से संयोग का चित्राधार खड़ा किया है, उससे कहीं अधिक मार्मिकता से वियोग के चित्र भी उकेरे हैं; क्योंकि प्रेम की साधना वस्तुत: विरह की साधना है। सूर ने स्वयं कहा है। कि विरह प्रेम को पुष्ट करता है ”ऊधौ, विरही प्रेम करै”। इस रस के कुछ छींटे द्रष्टव्य हैं. इनमें गोपिकाओं के अनन्य (एकनिष्ठ) प्रेम, राधिका की विरह-वेदना के मार्मिक चित्र दिखाई पड़ते हैं। प्रेम की प्रगाढ़ता से ऐसा विरह उत्पन्न होता है, जिसका अनुभव भी कोई संवेदनशील रसमग्न हृदय ही कर सकता है। उपर्युक्त के अतिरिक्त प्रकृति-चित्रण तथा प्रेम की अलौकिकता का चित्रण सूरदास के काव्य की अन्यतम भावपक्षीय विशेषताएँ हैं। प्रकृति-चित्रण – सूरदास के काव्य में प्रकृति का प्रयोग कहीं पृष्ठभूमि रूप में, कहीं उद्दीपन रूप में और कहीं अलंकारों के रूप में किया गया है। गोपियों के विरह-वर्णन में प्रकृति का प्रयोग सर्वाधिक मात्रा में किया गया है; यथा कोउ माई बरजो री या चंदहि । प्रेम की अलौकिकता – राधा-कृष्ण व गोपी-कृष्ण प्रेम में सूर ने प्रेम की अलौकिकता प्रदर्शित की है। उद्धव गोपियों को निराकार ब्रह्म का सन्देश देते हैं; परन्तु वे किसी भी प्रकार उद्धव के दृष्टिकोण को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होतीं। गोपियाँ अपने तर्को से उद्धव को परास्त कर देती हैं और श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम का परिचय देती हैं। कलापक्ष की विशेषताएँ भाषा – सूर का सम्पूर्ण काव्य ब्रजभाषा में है। उनकी भाषा में सरसता, कोमलता और प्रवाहमयता सर्वत्र विद्यमान है। सूर की ब्रजभाषा ब्रज की ठेठ चलती बोली न होकर कुछ साहित्यिकता लिये हुए है, जिसमें दूसरे प्रदेशों के कुछ प्रचलित शब्दों के साथ-साथ अपभ्रंश के शब्द भी मिश्रित हैं। चलती ब्रजभाषा के ‘जाको’, ‘वाको’, ‘तासों जैसे रूपों के समान ही ‘जेहि’, ‘तेहि जैसे पुराने रूपों का प्रयोग भी मिलता है। ‘गोड़’, ‘आपन’, ‘हमार’ आदि पूरबी प्रयोग भी बराबर पाये जाते हैं। कुछ पंजाबी प्रयोग भी मौजूद हैं; जैसे-‘महँगी’ के अर्थ में ‘प्यारी’ शब्द। यद्यपि बहुत कम किन्तु कहीं-कहीं गरीब नवाज जैसे उर्दू शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। शैली – सूर की शैली गीति-शैली है। ये संगीत के परम मर्मज्ञ थे, इसलिए इनके पद विभिन्न राग-रागिनियों में बँधे हैं। सूर स्वयं महान् गायक थे और गाते-गाते ही पदों की रचना करते चलते थे। फलतः उनके गेय-पदों में असाधारण संगीतात्मकता है, जो उनकी भाषा के माधुर्य के साथ मिलकर हृदय को मोह लेती है। अलंकार-विधान – सूरदास का अलंकार-विधान अत्यधिक पुष्ट है। उन्होंने श्लेष, यमक, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, अन्योक्ति आदि नाना अलंकारों का प्रयोग अतीव कुशलता से किया है। उनके काव्य में अलंकार बड़ी सहजता से स्वत: ही आते चले गये हैं, उनके लिए किसी प्रकार का प्रयास नहीं दिखाई पड़ता। लम्बे-लम्बे सांगरूपकों तक का निर्वाह सूर ने जिस कुशलता से किया है, वह विस्मयकारी है “सूरदास खल कारी कामरी चढे न दूजौ रंग।” छन्दविधान – सूर ने अपने काव्य में चौपाई, दोहा, रोला, छप्पय, सवैया, घनाक्षरी आदि विविध प्रकार के परम्परागत छन्दों का प्रयोग किया है। सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केशवदास । यदि इसे अतिशयोक्ति भी मानें तो कम-से-कम इतना तो नि:संकोच कहा ही जा सकता है कि तुलसी के समान । व्यापक काव्यक्षेत्र न चुनने पर भी सूर ने अपने सीमित क्षेत्र–वात्सल्य और श्रृंगार का कोई कोना ऐसा न छोड़ा, जो उनके संचरण से अछूता रह गया हो। वे निर्विवाद रूप से वात्सल्य और श्रृंगार रस के सम्राट् हैं। पद्यांशों पर आधारित प्रश्नोत्तर प्रश्न – निम्नलिखित पद्यांशों के आधार पर उनसे सम्बन्धित दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए विनय मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै । (ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – जहाज पर बैठा हुआ पक्षी बीच समुद्र में दूसरे अच्छे स्थान की खोज में जहाज पर से उड़कर दूर-दूर तक भटकता रहता है, किन्तु उसे सर्वत्र जल-ही-जल दिखाई देता है। उसे कहीं पंजे टिकाने का भी स्थान नहीं मिलता और अन्तत: वह जहाज पर ही लौटकर आ जाता है; क्योंकि वही उसका एकमात्र आश्रय होता है। इसी प्रकार कवि विभिन्न देवी-देवताओं की आराधना द्वारा मोक्ष को प्राप्त करने में असफल होने पर पुनः श्रीकृष्ण की शरण में ही आ गया है। कवि का कथन है कि संसाररूपी सागर में प्रभु का नाम ही जहाज स्वरूप है। वात्सल्य हरि जू की बाल-छवि कहौं बरनि । (ii) रेखांकित अंश की व्याख्या – सूरदास जी कहते हैं कि मैं कृष्ण की बाल-शोभा का वर्णन करता हूँ। वह शोभा करोड़ों कामदेवों के सौन्दर्य को भी हरने वाली (अर्थात् उससे भी बढ़कर) है और समस्त सुखों की सीमा है (अर्थात् सुखों की जो ऊँची-से-ऊँची.कल्पना की जा सकती है, वह उस सौन्दर्य को देखकर प्राप्त होती है)। नन्द-पत्नी यशोदा अपने पुत्र कृष्ण को देखकर अनुभव करती हैं कि उनके अनन्त पुण्यों के फलस्वरूप ही ऐसा बालक उन्हें मिला है। सूरदास जी कहते हैं कि मेरे हृदय में तो प्रभु की मोहक किलकारियाँ और उनका लड़खड़ाकर चलना बस गया है। भ्रमर-गीत प्रश्न 1: प्रश्न 2: We hope the UP Board Solutions for Class 11 Sahityik Hindi काव्यांजलि Chapter 3 सूरदास help you. 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