चंद्र वंश का संस्थापक कौन था - chandr vansh ka sansthaapak kaun tha

  • चंद वंश (Chand Dynasty)
  • कुमाऊँ में चंद वंश की स्थापना (Establishment of Chand Dynasty in Kumaon)
  • चंद शासकों की राजनीतिक व्यवस्था
  • चंद शासकों की सामाजिक व्यवस्था
  • चंद शासकों की आर्थिक व्यवस्था
  • चंद शासकों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था

जिस कत्यूरी राजवंश ने सम्पूर्ण उत्तराखण्ड को एक सूत्र में बांधा था उसके अवसान के उपरान्त उत्तराखण्ड राजनैतिक रुप से छिन्न-भिन्न हो चुका था। उस अस्थिर राजनैतिक परिवेश ने यहाँ भिन्न-भिन्न राजनैतिक शक्तियों का उभरना संभव बनाया। मुख्य रुप से एक ओर गढ़वाल में पंवार वंश का उत्थान हुआ वहीं कुमाऊँ के चम्पावत नामक स्थान से चंद राजवंश का उद्भव हुआ, जिसके शासकों ने बहुराजकता को समाप्त करते हुए कुमाऊँ में चंद राजवंश की स्थापना की थी।

एक ओर पंवार शासकों के साथ बार-बार युद्ध दूसरी ओर डोटी राजा द्वारा आक्रमण तथा खश, शेष कत्यूरी, मल्ल, मणकोटी और रावत राजाओं आदि को पराजित कर चम्पावत में राजधानी स्थापित की आगे चलकर सम्पूर्ण कुमाऊँ पर आधिपत्य स्थापित करने के पश्चात् राजधानी चम्पावत से वर्तमान अल्मोड़ा में स्थानान्तरित की थी। वहीं से चंद शासकों ने दीर्घ काल तक कुमाऊँ में अपनी सत्ता बनाये रखी। गोरखों के आक्रमण से पूर्व तक चंदों ने अपनी सत्ता तराई भावर से पर्वतीय क्षेत्र तक बनाये रखी तथा कुमाऊँ में उन्होंने स्थायी राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, न्यायिक व धार्मिक व्यवस्था को स्थापित किया था, जो व्यवस्था 1790 ई0 में गोरखा आगमन तक चलते रही थी

कुमाऊँ में चंद वंश की स्थापना (Establishment of Chand Dynasty in Kumaon)

कुमाऊँ में चंद वंश की स्थापना व प्रारम्भिक शासक के सम्बन्ध में इतिहासकारों के विभिन्न मत हैं। 1813 ई0 में विलियम फ्रेजर, हर्षदेव जोशी, 1818 ई0 में फरूखाबाद में कुमाऊँ निवासी कनकनिधि, प्रेमनिधि तिवाड़ी व हरिबल्लभ पाण्डे ने हैमिल्टन को जो बताया उसके आधार पर झूसी (इलाहाबाद) का राजकुमार थोरचंद चंद वंश का संस्थापक था, परन्तु स्थापना वर्ष में मतभेद के कारण थोरचंद को चंद वंश का संस्थापक शासक नहीं माना जा सकता है, क्योंकि अठकिन्सन या उक्त सन्दर्भो को मान भी लिया जाय तो चंद वंश की स्थापना लगभग 1216 ई0 के आसपास हुई जो सत्य नहीं मानी गई है। क्योंकि राजा ज्ञानचंद 1374 ई0 में गद्दी था।

इसलिए अधिक मान्यता ऐतिहासिक सन्दर्भो के आधार पर इलाहाबाद के निकट झूसी का राजकुमार सोमचंद 685 ई0 या 700 ई0 में कुमाऊँ में लाया गया या वह स्वयं यहाँ आया और उसी ने कुमाऊँ में चंद वंश की स्थापना की थी। थोरचंद तो सोमचंद की 23वीं पीढ़ी में आया था इस आधार पर अधिकांश इतिहासकारों का मत है कि चंद वंश का वास्तविक संस्थापक सोमचंद था जिसने चंद वंश की स्थापना वर्तमान चम्पावत में कर वहीं से उसने व उसके उत्तराधिकारियों के द्वारा राज्य विस्तार कर पूरे कुमाऊँ में अपनी सत्ता स्थापित की थी।

चंद शासकों की राजनीतिक व्यवस्था

चंद वंश की स्थापना व प्रथम शासक सोमचंद और अन्तिम शासक महेन्द्र चंद था। उस समय राजा ही सर्वोपरि होता था व राज्य की सम्पूर्ण सम्पदा का स्वामी भी राजा ही होता था। राज्य सचांलन हेतु अपने मंत्रीमण्डल में राजा द्वारा विभिन्न पद निर्धारित किये जाते थे जैसे बख्सी, सेना, अर्थव्यवस्था, वजीर प्रशासनिक व्यवस्था, लेखिया राज्य स्तर पर और सहायक लेखिया, परगनो में कार्य देखत थे। कलमदान-राजाज्ञा प्रसारित करना, फौजदार अर्थात् किलेदार जो सैन्य व्यवस्था देखता था, पुरोहित एवं धर्माधिकारी हेतु ब्राह्मण नियुक्त होते थे जिन्हें उच्च श्रेणी का ब्राह्मण माना जाता था, जो तान्त्रिक, ज्योतिष व धार्मिक कर्मकाण्डों की जिम्मेदारी निभाते थे। राजस्व वसूली हेतु सयांणा, बूढ़ा व थोकदार नियुक्त थे इसके अतिरिक्त ये सैन्य सहयोग भी करते थे। कर्मचारियों के वेतन हेतु गाँव या गाँवों के अन्दर कुछ भूमि व कभी-कभी नकद धनराशि रोजीना’ भी देय थी। उक्त सभी पद राजा के अधीन होते थे।

भू-व्यवस्था के अन्तर्गत ‘थातमान’ होते थे अर्थात जो जिस भूमि पर कृषि कार्य करता था उसे उस भूमि का थातवान कहा जाता था जो राज्य को राजस्व भुगतान करते थे, सभी कृषि भूमि का विवरण ‘लेखिया’ रखते थे आदि।

न्याय व्यवस्था में देखा जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों के सामान्य विवाद पंचायतों द्वारा ही देखे जाते थे। जिन विवादों में सामाजिक, धार्मिक, दीवानी, फौजदारी व मारपीट आदि सभी आते थे। वादी महिला या पुरूष पंचायत के समक्ष अपना पक्ष रख सकता था और उन्हीं के सामने निर्णय दे दिया जाता था। पंचायत सदस्य सभी स्थानीय परम्पराओं से परिचित होते थे। पंचायत का निर्णय ही सर्वमान्य होता था। अपील की आवश्यकता नहीं होती थी अपवाद स्वरूप ही कोई मामलें राजदरबार पहुँचते थे। राज्य विधि संहित न होने के कारण निर्णय स्व विवेक व परम्परा अधारित होते थे सामान्य अपराध में अर्थदंड व गंभीर में सम्पत्ति या जागीर छीनने का विधान था, हत्या के अपराध में राजपूत व ब्राह्मण दोनों के लिए अलग-अलग आर्थिक दंड थ। ब्राह्मण को राज्य निकाला होता था, राजद्रोह व गोहत्या में प्राणदण्ड था, चोरी करने पर चोर के हाथ व नाक काटने के उदाहरण मिलते हैं। पत्नी व सन्तान नीजी सम्पत्ति थी। कारागार में बन्दी अपनी जगह पर अपने ही किसी परिजन को रखकर घर जा सकता था। इतनी सरल न्यायव्यवस्था के बावजूद राजा व उत्तराधिकारियों के द्वारा अमानवीय, निरंकुशता आदि के अनेकों उदाहरण मिलते हैं जिन्हें आप पूर्व में पढ़ चुके हैं।

चंद शासकों की सामाजिक व्यवस्था

इस व्यवस्था के अन्तर्गत यह माना जाता है कि लगभग 80 ब्राह्मण जातियाँ व 100 राजपूत जातियाँ विभिन्न समय काल व क्षेत्र से कुमाऊँ में आकर बसी थी। इसी तरह गढ़वाल से भी कुछ राजपूत व ब्राह्मण जातियाँ यहाँ आकर बसी थी। हिन्दुओं को मुख्यतः तीन वर्गों में देख सकते हैं- हरिजन, भोटिया व राजि (वन रावत) आदि जन जातियाँ व ब्राह्मण, क्षत्रीय, खशिया इन्हीं की विभिन्न पर जातियाँ थी उसी प्रकार उनके व्यवसाय भी भिन्न-भिन्न थे। तराई-भाबर में थारू व बोक्सा जनजातियों का अलग संसार था।

लगभग 12वीं व 13 वीं शताब्दी में बौद्ध विशेषक महायान शाखा के लोग भी यहाँ आकर बसने प्रारम्भ हो गये थे इसी तरह लगभग 8वीं शदी से जैन भी बसने शुरू हो गये थे। चंद शासन के आरम्भ से ही यहाँ मुसलमानों का आगमन भी हो चुका था। वाजबहादुर चंद ने तो अपने दरबार में कई मुस्लिमों को नियक्त किया था। बीच-बीच में रोहिलों के साथ चंदों के मैत्रीपूर्ण समन्ध भी रहे थे। इसके अतिरिक्त चंद शासनकाल में मैदानी क्षेत्रों से कुछ वैश्य जातियाँ भी कुमाऊँ में बसी थी। वेशभूषा में मुख्यतः टोपी, जूता, सोने के आभूषण साथ ही निम्न श्रेणी के राजपूत, ब्राह्मण व हरिजन, उच्च ब्राह्मण व राजपूतों की बराबरी नहीं कर सकते थे। उच्च पर्वतीय क्षेत्र या भोटान्तिक भागों में ऊनी व तराई में हल्के कपड़े पहने जाते थे कपड़े ऊनी या सूती दोनों होते थे मुख्य कपड़े, लगौंट, गॉती, पैजामा, टोपी व चूड़ीदार पैजामा आदि होते थे। आजिविका के मुख्य साधनों में कृषि, पशुपालन व प्रवास में रहकर रोजगार करना था कृषि उत्पादन में मुख्यतः स्थानीय अनाज ही थे जैसे- गेहूँ, चावल, मडुवा, कौंणी, झूगर, जौं, मानिरा के अतिरिक्त वन उत्पाद व मांस भी खाते थे।

सामाजिक मान्यताओं में मुख्य संस्कार-जन्म, व्रतवन्ध, विवाह व मत्य संस्कार थे। विवाह अपने ही जाति, धर्म व वर्ग में ही होते थे। सम्पन्न परिवारों में कन्यादान व सामान्य परिवारों में वर पक्ष से कुछ धन लेकर विवाह होता था जिसे ‘टके का विवाह’ कहा जाता था। यदा कदा बहुपति या बहुपत्नी प्रथा भी प्रचलन में थी जो आर्थिक स्थिति पर निर्भर था इसके अतिरिक्त विधवा विवाह व नियोग प्रथा के भी छुटपुट उदाहरण मिलते हैं।

मनोरंजन के साधनों में एकल व सामूहिक गीत गाये जाते थे या कृषि कार्य के अवसर पर हुड़किया बौल आदि में विभिन्न गीतों का प्रस्तुतीकरण होता था समय-समय पर स्थानीय पर्वो पर मेलों का आयोजन में जागर, गाथायें, ऋतुरेंण, झोड़ा, चांचरी आदि गाये जाते थे जो स्थानीय या धार्मिक विषयक तथा समसामयिक होते थे।

शिक्षा के क्षेत्र में राज्य की ओर से प्रोत्साहन मिलता था, काशी जाने वाले छात्रों को राज्य की ओर से छात्रवृत्ति दी जाती थी, सार्वजनिक विद्यालायों की व्यवस्था नहीं के बराबर थी व्यक्तिगत रुप से घरों में ही शिक्षा की व्यवस्था थी। शिक्षा प्राप्ति पर जातीय बन्धन नहीं था क्योंकि हर जाति, समुदाय के घरों में आज भी हस्तलिखित पोथियाँ मिलती है।

जैसेराज्य द्वारा मंदिरों को कृषि भूमि दान की जाती थी पर वे जनहित में कोई भी कार्य नहीं करते थे या राज्य द्वारा समुचित यातायात, चिकित्सा, शिक्षा आदि मूलभूत सुविधाओं का अभाव था कठिन भौगोलिक परिस्थितियों के कारण समय-समय पर लोग अनेक रोगों से ग्रस्त रहते थे तब उपचार हेतु औषधीय सुविधा से अधिक झाड़-फूक अर्थात अन्धविश्वास व्याप्त था। वन्य जीवों का आतंक व कृषि एक तरह से प्रकृति पर निर्भर थी इन विषम परिस्थितियों के मध्य अकाल व भुखमरी के कारण जन काल ग्रस्त हो जाता था या राज्य छोड़कर भागने को मजबूर होते थे। यही नहीं पूर्वी सीमा में डोटी, पश्चिम में गढ़ राजा तथा दक्षिण में कटेहर, मुगल, रोहिला व डाकुओं के छापे पडते रहते थे। चंद शासकों द्वारा राज्य को कमींण, संयाणे, थोकदार व पधान आदि को प्रत्येक अधिकार देने के कारण ये स्थानीय क्षत्रप या सामन्त जनता पर तरह-तरह के अत्याचार व शोषण करते रहते थे।

चंद शासकों की आर्थिक व्यवस्था

चंदों की अर्थव्यवस्था मुख्यतः कृषि आधारित थी इसलिये थातवानों से राजस्व के नाम पर विभिन्न कर वसूले जाते थे। जन मान्यता है कि तब 36 रकम 32 कलम की वसूली होती थी जैसे भूमिकर, सेना के वेतन हेतु ‘कटक’, नदियों पर ‘सागा’, कुली बेगार, माँगा कर (आकस्मिक), कमींणचारी, सयांणचारी, साहू, रतगली तथा राजपरिवारों या राज कुमारों हेतु अलग कर थे। आर्थिकी का अन्य पक्ष यहाँ की खनिज सम्पदा भी मुख्य थी जैसे- लोहा, ताँबा, सीसा, ग्रेफाईट, शिलाजीत, फिटकरी, गन्धक, जिप्सम आदि परन्तु दोहन के अवैज्ञानिक तरीकों के कारण उत्पादन अति कम होता था, खनिज सम्पदा की तरह यहाँ उपलब्ध वानस्पतिक सम्पदा भी थी तराई भाबर से उच्च हिमालयी क्षेत्रों तक तरह-तरह की लकड़ी, घास, औषधीय जड़ी बूटियाँ, ईधन, कोयला, बांस, रिंगाल आदि इस सम्पदा का भरपूर दोहन 1815 के पश्चात् अग्रेजों द्वारा किया गया था। प्राकृतिक जल संसाधन व उस पर आधारित उद्योग मछली, बिजली आदि भोटान्तिकों के भेड़, ऊन व उससे बने वस्त्र, कालीन आदि, काष्ठ कला, ललित कला निर्माण व कर, राज्य का व्यापार एक तरह से मैदानी लोगों के हाथ था वे लोग यहाँ व्यापार हेतु वर्षा ऋतु से पूर्व आ जाते थे और समाप्ति पूर्व चले जाते थे। मैदानी उत्पाद यहाँ बेचकर यहाँ की स्थानीय उत्पादों को मैदानी क्षेत्रों में ले जाते थे। तॉबे के ‘टका’ यहाँ की मुद्रा थी इसके अतिरिक्त मुगल बादशाहों के सिक्के भी यहाँ प्रचलन में थे।

अतः चंदो की अर्थव्यवस्था के उक्त पक्षों के साथ मख्यतः उनकी अर्थव्यवस्था खान कर, वन कर, अयात-निर्यात कर, नजराना, औताली अर्थात ‘औत’ पुत्र हीन मृत्यु होने पर राजा द्वारा उसकी चल अचल सम्पत्ति राज्य की घोषित कर दी जाती थी फिर राजा द्वारा उस सम्पत्ति को नजराना लेकर दसरे को दे दिया जाता था। आर्थिक दंड भी तब आय का श्रोत था आय के इन साधनों के साथ-साथ घींकर, टांडकर (करचा), मझारी कर (हरिजनों पर), त्योहार कर, तॉबाटकसाल कर, वन उत्पाद कर, कांठ बांस कर (लकडी) आदि भी चंदों की आय के श्रोत थे।

चंद शासकों की धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था

धार्मिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था के सम्बन्ध में यहाँ के मंदिर एवं देव प्रतिमाओं के अध्ययन से भी पता चलता है यहाँ प्राचीन प्रतिमायें लकुलीश सम्प्रदाय के शिव लिंग हैं जो लगभग दूसरी-तीसरी ई. से 12वीं ई. तक के पाये जाते हैं। उत्तराखण्ड में सैकड़ों ऐसे शिवलिंग है बॅटधारी सूर्य प्रतिमायें भी समूचे उत्तराखण्ड में अलग-अलग नामों से पायी जाती हैं जैसे- बड़ादित्य, गुणादित्य, सूर्यनारायण आदि। इसी तरह 7वीं सदी से लगभग गौरा, महिषा मर्दिनी, गणेश, कार्तिकेय, दुर्गा आदि। विष्णु, नृसिंह प्रतिमायें जिनमें कुषाण व गुप्त शैली का प्रभाव मिलता है शिव पार्वती की प्रतिमायें भी सर्वाधिक पाई जाती हैं।

कुमाऊँ में लगभग कत्यूरी शासन काल से ऐपंण (अल्पना) की परम्परा भी अति लोकप्रिय रही हैं। जिन्हें मुख्यतः स्थानीय महिलाओं द्वारा चावल के विश्वार (आटा) से निर्मित किया जाता है जिनमें विभिन्न पटट, भितिचित्र, त्यौहार, धार्मिक अनष्ठान व विवाह आदि बनाया जाता है। पृष्ठभूमि लाल मिट्टी या गेरूवे से तैयार की जाती है जिसके विषय दुर्गा रूप, स्वास्तिक, गणेश ऋद्धि-सिद्धि, कल्प वृक्ष, सूर्य, चन्द्रमा, विवाह पट्टा, जनमाष्टमी पट्टा आदि होते हैं कुल मिलाकर जन्म दिन, नामकरण, जनेऊ, विवाह आदि अवसरों पर अलग-अलग अल्पनाये बनाई जाती हैं इसी तरह काष्ठकला के विषय फूल, पत्ती, फल, नवग्रह, देवी-देवताओं का चित्रण कलाकारों द्वारा घर के चौखट व दरवाजों पर किया जाता था। जिनका सर्वोत्तम उदाहरण कटारमल सूर्यमंदिर के दरवाजे पर देखने को मिलता है इसी तरह चित्रकला की परम्परा भी यहाँ मौजूद थी।

मानसखण्ड में कुमाऊँ के विभिन्न तीर्थ, कुण्ड, सरोवर व नदियों का माहात्भ्य है जैसेशैव, शाक्त, वैष्णव अन्य में सूर्य, गणेश आदि। इसीलिये यहाँ विभिन्न स्थानों पर मंदिर पुंज श्रृखला पाई जाती है जैसे जागेश्वर, बागेश्वर, वैद्यनाथ, द्वाराहाट, चम्पावत, अल्मोड़ा कटारमल आदि इन सार्वभौमिक देवी देवताओं के अतिरिक्त स्थानीय देवी देवताओं के मंदिर मूर्तियाँ भी अनेकों स्थानों पर स्थापित हैं जैसे- गोल्ल, हर, सैम, कलसिंण, लाटू, गंगनाथ, नन्दा देवी आदि। हिन्दुओं के अतिरिक्त लगभग 12वीं 13वीं सदी में महायान सम्प्रदाय के बौद्ध भी यहाँ बस चुके थे विशेषकर भोटान्तिक क्षेत्रों में। लगभग 8वीं सदी से यहाँ जैनों का आगमन भी हो चुका था तथा चंद शासनकाल में छुटपुट मुसलमान भी आने शुरू हो चुके थे जिन्हें चंदों द्वारा अपनी सेना में भर्ती भी किया जाता था। उक्त धर्म के लोगों की धार्मिक मान्यताओं का वर्णन भी चंद शासन काल में मिलता है परन्तु ईसाई अभी तक नहीं पहुँचे थे यदाकदा जो आये भी वह एक यायावर/यात्री के रुप में अध्ययन हेतु आये और वापस चले गये।

Source – 

  • पाण्डे, बदरी दत्त – “कुमाऊँ का इतिहास”, अल्मोड़ा बुक डिपो संस्करण, 1990-1997
  • डबराल, शिवप्रसाद – “उत्तराखण्ड का इतिहास”, भाग- 1-4, वीरगाथा प्रकाशन, दोगड्डा, 1967-71 
  • कठोच, यशवन्त सिंह –  “उत्तराखण्ड का नवीन इतिहास”, बिनसर पब्लिशिंग कम्पनी- देहरादून, 2010
  • जोशी, एस.पी. –  “उत्तराचंल, कुमाऊँ–गढ़वाल”, अल्मोड़ा बुक डिपो, अल्मोड़ा, 1990
  • हान्डा, ओ.सी. – “हिस्ट्री आफ उत्तरांचल”, इण्डस पब्लिशिंग कम्पनी, दिल्ली, 2002

Read Also .. उत्तराखंड में चंद शासकों द्वारा लगाए गए कर

Read Also :
Uttarakhand Study Material in Hindi Language (हिंदी भाषा में)  Click Here
Uttarakhand Study Material in English Language
Click Here 
Uttarakhand Study Material One Liner in Hindi Language
Click Here
Uttarakhand UKPSC Previous Year Exam Paper  Click Here
Uttarakhand UKSSSC Previous Year Exam Paper  Click Here

चंद्र वंश का अंतिम राजा कौन था?

महेंद्र चंद(61वां राजा) - इस प्रकार कुमाँऊ में चंद वंश का अंत हुआ व 1790 ई० में कुमाँऊ में गोरखाओं का शासन प्रारंम्भ हुआ।

चंद वंश का पहला राजा कौन था?

एटकिन्सन के अनुसार चंद वंश का संस्थापक सोमचंद था। वहीं “कुमाऊँ का इतिहास” पुस्तक के लेखक बद्रीदत्त पाण्डे ने भी सोमचंद चन्देल को चंद वंश का शासक माना है जो की कालिंजर के चन्देल राजपरिवार से था और प्रयागराज का सामंत राजा, इनका शासन काल [[1]] ई० में बताया जाता है।

चंद्र वंश की स्थापना कब हुई?

चंद वंश की स्थापना सोमचंद ने 1025 ईसवी के आसपास की थी।

चंद्र वंश की उत्पत्ति कैसे हुई?

Chandravanshi Dynasty History in Hindi महाराजा मनु के नौ पुत्र और एक कन्या थे और उस नौ पुत्रों में से एक ने सूर्यवंशी क्षत्रियों की शुरुवात की। मनु की बेटी नाम इला था। इला का विवाह बुध से हुआ। इला और बुध से एक पुत्र हुआ और उसका नाम चंद्रमा रखा गया और उसी से चन्द्रवंश (Lunar dynasty)प्रारंभ हुआ।