चोर भागा भागा घर पहुँच गया उद्धरण चिह्न में कौन सा पदबंध है - chor bhaaga bhaaga ghar pahunch gaya uddharan chihn mein kaun sa padabandh hai

See other formats


4002] 
६ 


४ 

















] 4 जर् ध ही 
हि के... ३३६ 
हे न 
जी. ४5 डर किक ह 
)22 65 2%: लक 5 | 
डे 2 कं 
| 
हु नह ह 
328 
हत्ट थ ह दि 
जी $ 
* 
हर ्अ 5 है. आओ > हि ; 
पर का की न रद हि को 


मा न है! रु जप | 
ः ] 
ै हर । 
न 
* कील, >> 
के. | 9, *।े 
ः डे 
कई ः 
हम 
। 
3 
नह | | 
ह | 





पहा जे ते. 
| 





ऋकरलसम्य 


हिन्दुस्तानी एकेडमी, पुस्तकालय | 
इलाहाबाद. 


वर्ग संह्या--****० की हम 0७ ००० ह७७ २९९१९ ० ००००० ००७५ 


द ब्स्सी। हि .......... 


पुस्तक संख्या 
क्रम मनन कट है ०*०+*० 








...लननकनलीदण गजल + नम 





किनलिनिनिि नमी ३०, ४४000७७॥४७७७७एएाआ 
००३००... %५०५०-नक-++> कक ००.३० 3७.७४. 72 





का] अमन * हि 











डाँ० राज-द्र कपार वर्मा 
एम्र० ए७०, डी० फिन्न क्‍ 
प्रोफेसर अध्यक्ष हिन्दी ।बभाष 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय 
इलाहाबा।द-- 3४ 8० 








विवरणात्मक 
व्याकरण 













-अमेड3-2अर ७3425 शक + मी पर 2 महह 














हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(# 0080 छाोए।9%8 68043/008808 09 पसाधाआ) 


उकछक स्कषबफ 
*॥0५2/९. 
१७५ 
श१ ऐ की 
कि भा, कि... 
( कर कं जछ ध्ड श 
हि की ये ४, 
| अ 4 
कु ५ 45 
फट हक कब प्र ४१ ;।॒ 
* (७६३: 
49898 ६ 
के. गे 
६ पी 
| श 
अर समा 
सर 
(कि प्हमे 3 %ी 0 
है मे] 
2 8. 
पल 
जप 
हा "न 
५ 
(६४४ है ॥। 
हैं ) १ 
|; जुलेकी ॥ु 
बट का 


लेखक 
डाॉ० लक्ष्मीनारायण शर्मा, 
एम. ए. (हिन्दी, संस्कृत, भाषाविज्ञान), 
एल. टी, पी-एच. डी. 
(रीडर, केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा-5) 


विनोद पुस्तक मन्दिर, आगरा 








प्रकाशक 

विनोद पुस्तक सन्दिर 
कार्यालय: रांगेंय राधव मार्ग, आगरा-2 
विक्री-केन्द्र : हॉस्पिटल. रोड, आगरा-2 


प्रथम संस्करण : 99] 
मूल्य: 50.00 


मुद्रक : रवि मुद्रणालय, आगरा-2 





प्रकाशक 

विनोद पुस्तक मन्दिर 
कार्यालय : रांगेंय राघव मार्ग, आगरा-2 
विक्री-केन्द्र : हॉस्पिटल रोड, आगरा-२ 


प्रथम संस्करण : 99] 
मूल्य : 50.00 


. मुद्रक : रवि मुद्रणालय, आगरा-2 


उंऔ0॥ 





विषय-सूची 


अध्याय | | प्च्ठ 


न ससक+ पल फिलनबन-«+»न ं3>तनमम«८+रमातभारपालर सन उ अत फ राक्ल्‍न्‍त८कम >> ५. "यम मम कब -+०>+>८८- अ+>नन« 5 5 ०-5. 


विषय-प्रवेश से पूर्वे - न 
। द विषय-प्रवेश द 
। द 3-8 


' 4. भाषा तथा व्याकरण 
| (भाषा, भाषा-भेद, भाषा तथा लिपि, भाषा-परिवतैन, व्याकरण, 
व्याकरण-भेद, व्याकरण-प्रयोजन, ब्याकरण-सीमा, व्याकरण कें 
१ भाग--ध्वनि-व्यवस्था, शब्द-व्यवस्था, वाक्य-व्यवस्था) 
2. हिन्दी भाषा-विकास 9-5 
(आये भाषाओं का प्राचीन, मध्य तथा आधुनिक काल, हिन्दी का 
' आरम्भिक, मध्य तथा आधुनिक काल, हिन्दी का व्यापक, सामान्य 
तथा विशिष्ट रूप, हिन्दवी, उद्‌ , हिन्दुस्तानी, हिन्दी' का महत्त्व) 
कु खण्ड एक 
ध्वनि तथा वर्ण-व्यवस्था 
. (ध्वनि/स्वन, स्वनिम, खंडीय, अधिखंडीय तथा खण्ड्येतर तत्त्व). 49-2व 
3. ध्वनि-उच्चारण अवयव शो :. 22-25 
(वामगिन्द्रियाँ, उच्चारण-स्थान, उच्चारण-करण, ओएष्ठ, दनन्‍्त , वत्से, 
कठोर तालु, मूर्धा, कोमल तालु, अलिजिह वा, नासिका विवर, 
जिह वा, ग्रसनी पृष्ठ, स्व॒र-तन्त्री) क्‍ 
4. स्वर 26--45 
_ (ध्वनि-भेद, स्वर-प्रकार, मूल स्व॒र, संयुक्त स्वर, स्वर-विवरण, द 
स्वर स्वनिम, स्वर गुण/अनुना पसिकता, अक्षर-व्यवस्था, अलोप) है 
5. व्यंजन द 40-6 $ 
(सरल, संयुक्त तथा दीघधे व्यंजन, व्यंजन-विवरण, व्यंजन-संरचना, के 
स'रल व्यंजन-वितरण तथा प्रयोग, व्यंजन स्वनिम', महा प्राण व्यंजन, 
हु, नासिक्य स्वनिम, गौण स्वनिम, श्रूति, अनुस्वार, व्यंजन-अनु- 
क्रम, संयुक्त व्यंजन-वितरण तथा प्रयोग, व्यंजन गुच्छ, दी्घे व्यंजन, 
व्यंजन बुद्धि, 'ष, क्ष, ज्ञ) क्‍ कक जा 0 8 
6. बलाघात, विव॒ृति तथा अनुतान ...... 66-75 
(बलाघोत, बलाघात-प्रभाव, विवृति, अनुतान) 








| 2 | 


अध्याय द द पृष्ठ 


श 


0. 


44, 


82. 


43. 


जु4 


अत्ययन, समास, उपसर्ग, प्रत्यय, पुनरुक्ति, अनुकरणार 


ह (वर्गीकरण के जाधार, रूपान्तरण, लिंग-व्यव 
. कारक-व्यवस्था, कारक-चिह नों का वितरण तः 
. शब्दावली, संयुक्त परसर्ग)..... 


वर्णमाला 76-85 
(मानक देवनागरी, व्यंजन वर्णों के संयुक्त रूप, मानकेतर वर्ण, 
वर्णो के प्रयोग तथा प्रकाय॑, संयुक्त वर्ण, देवनागरी-अंक) 


. वर्तेनी द 86-]44 
(वर्तनी-प्रकार, वर्तनी दोष-कारण, हिन्दी वतंनी के ॥5 नियम, 
वर्तेनी शुद्धि-अशुद्धि अभिज्ञान, कुछ विशिष्ट शब्दों की वर्त॑नी, 
विरामादि चिह न) द 
द द खण्ड दो 
रूप तथा शब्द-व्यवस्था क्‍ 
(शब्द, रूप, प्रकृति तत्त्व, प्रत्यय तत्त्व, पद) 85-8 
. शब्द-समृह पक ]9-.23 
(शब्द समूह में परिवर्तत, पारिभाषिक, शब्दावली, शब्द-निर्माण, 
शब्द-आदान, कोश, शब्द वर्गीकरण-आधार) 
शब्द-व्युत्पत्ति भा 824-3 | 
(स्वकीय, परकीय, परम्परागत, निरभित, स्वदेशी , विदेशी, ज्ञात 
व्युत्पत्तिक, अज्ञात व्युत्पत्तिक, तत्सम, तत्समेतर, तत्समाभास, 
अधध॑ तत्सम, तद्भव) 


शब्द-अर्थ का 32-535 
(अर्थ-प्रतीति, सार्थक, निरर्थक, वाचक, लाक्षणिक, व्यंजक, अभि- 

व्यक्ति स्तर पर 8 प्रकार के अं, समानार्थी, लगभग समानार्थी, 

विलोमार्थी, श्रृतसम भिन्‍्तार्थी, प्रारम्भक शब्द, तकिया कलाम, 

आश्रय शब्द) ह 
शब्द-रचना... द द .. 56-93 
(रूढ़, समूहवाची, यौगिक, योगरूढ़, सस्‍्कृत-संधियाँ, हिन्दी-संधियाँ, 

मक, आगत 
शब्दानुवाद, वाक्यांश स्थापन्नीय, संक्षिप्त शब्द) 
शब्द-रूपान्तरण मा  ]94--202 


अर्थ तत्त्व, संबंध तत्त्व, व्याकरणिक फोटियाँ--..लिंग, वचन 
३१ न्‍ ; ) ;$ । 


पुरुष, कारक, वृत्ति, पक्ष, काल, वाच्य, वासभाग) 


पथ पक क्‍ 203-244 


सथा, वचन-व्यवस्था, . 
था प्रयोग, परसर्गीय 


अध्याय द द पृष्ठ 
5. सर्वताम क्‍ द 245-255 


86. 


7, 


. ॥8. 


9. 


20, 


24. 


. 22. 


(सरल तथा संयुक्त सवंनाम, रूपान्तरण, प्रकार्यं, सवेनाम-पुनरुक्ति, 

संयुक्त सर्वेताम-प्रयोग, अवधारक रूप 

विशेषण... 256-273 
(विशेषणों के 6 भेद, प्रविशेषण, 'वाला”, रूपान्तर, तुलनावस्था, 
निर्माण-आधार, पुनरुक्त विशेषण, संज्ञाकरण) 

क्रिया 274-326 
(धातु, समायिका, क्रिया-निर्माण, क्रिया भेद के 7 आधार, सकमंक, 

अकम्‌क, गतिबोधक, अवस्थाबोधक, मुख्य, सहायक, सरल धातु, 

यौगिक धातु के 6 भेद, संयुक्त क्रियापद-रचना, संयुक्त क्रिया- 

प्रकायं, रूपान्तरण, वृत्ति, पक्ष, काल, लिग-वचन-पुरुष, वाच्य, 
कारक-क्रिया अनुकूलता, अन्विति, कृदनन्‍त, कृदनन्‍्त के 9 भेद, कुछ 


- विशिष्ट धातुओं के प्रयोग तथा अर्थ छाया-भेद) 


अव्यय.... द .. 327-356 
(मूल, योगिक, ,प्रकायं/अर्थ के आधार पर अव्यय-भेद--काल- 
वाचक, स्थानवाचक, प्रश्नवाचक, क्रियाविशेषण, संबंधसूचक, 
समुच्चयबोधक, मनोभावबोधक, उपसर्ग, प्रत्यय, निपात) 
शब्द-प्रयोग सतकेता 357-364 
(वर्जित शब्द, शब्द-भ्रांति, पंडिताऊ शब्द, सौगन्ध, गालियाँ, 
संदर्भ भेद से शब्द-भेद) क्‍ ४ के 
शब्द-भेदों की पद-व्याइ्या........्रखःऑ़ 365-.369 
खण्ड तोन_ 
पदबन्ध तथा वाक्य-व्यवस्था 
(व्याकरणिक व्यवस्था के स्तर, उद्देश्य-विधेय संबंध, वाक्य घटक 
संबंध... .. 373-374 
पदबन्ध द . 375-379 
(शीर्ष, परिधीय पद, सरल तथा जटिल पदबंध, पदबंधों के 
5 भेद) क्‍ द 
वाक्य-सार्थकता द द द 380-387 
(वाक्य, वाक्य-कसौटियाँ, अर्थ-सामीप्य. दर्शक प्रयोग, सार्थकता- 
आधार, काल सापेक्ष सार्थकता) 








23 


24. 


25. 


26, 


27. 


28, 


... 29 


ज्छा 





अध्याय... हे पृष्ठ 


वाक्य-भेद क्‍ 388-398 
(सरल तथा सरलेतर वाक्य, प्रत्यक्ष क्रियाविहीन वाक्‍्य-भेद, अभि- 
वादन वाक्य, सरलेतर वाक्य-भेद, मिश्र वाक्य, उपवाक्य-भेद, 
संयुक्त वाक्य, प्रकार्य-आधारित 8 वाक्य-भेद) 


वाक्यांग | 399-.406 
(एकांगी तथा दुव्यंगी वाक्य, उद्देश्य, विधेय, वाक्य-विग्रह) 
वाक्य-विन्यास . 407-4[7 


(पदक्रम-स्वरूप, अन्विति-भेद, चयन और श्रृंखला, 9 कृदन्तों के 
कुछ प्रयोग) हि 
वाक्य-परिवतं न ह 48-420 
(वाक्यान्तरण-रूप, विधानात्मक-नकारात्मक, निश्चयात्मक-प्रश्ना- 
त्मक, सरल-मिश्र, सरल-संयुक्त, मिश्र-संयुक्त, शब्द भेद-परिवतंन, 
तुलनावस्था-अन्तरण, संश्लेषण, विश्लेषण, वाच्यान्तरण, उक्ति“ 
परिवतंन) 
काव्य भाषा-स्वरकूप हे 42-426 
(रस निष्पत्ति-आधार, शब्द-शक्तियाँ, काव्य-सौन्दर्य, अलंकार 
छन्‍्द, ब्रज तथा अवधी काव्य-भाषा-स्वरूप, खड़ी बोली काव्य भाषा- 
स्वरूप) 

.... परिशिष्ट द 
हिन्दी की प्रमुख बोलियों में एकसूत्रता कल 427-438 
(पूर्वी, पश्चिमी हिन्दी का गठंन-अन्तर, कौरवी, बाँगरू, ब्रजभाषा पर 
कनोजी, बुन्देली, अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी) 


 हिन्दी-व्याकरण परम्परा... 439-442 
. (भारतीय तथा पाश्चांत्य लेखकों की व्याकरण-रचनाएं ) 
पारिभाषिक शब्दावलो (हिन्दी-अं गरेजी) 44 3-45 6 
प्रश्न तथा अभ्यास... पा त 457-.474 


475-482 


विधय-प्रवेश से पूर्व॑ 


प्रस्तुत कृति को सुत्रपात 974-75 में ही हो चुका था। इसी बीच लेखक 
की देवनागरी लिपि और हिन्दी वत॑नी-व्यवस्था; हिन्दी-संरचना का अध्ययन-अध्यापन; 
भाषा , 2 की शिक्षण-विधियाँ और पाठ-नियोजन; शिक्षण सामग्री-निर्माण; शिक्षण- 
साधन” पर लिखने के लिए विवश होना पड़ा। पूर्णत: उदाहरणों पर आधारित 
हिन्दी संरचना का अध्ययन-अध्यापन' पुस्तक के कई पाठकों (मुख्यतः: हिन्दी-इतर 

... भाषा भाषियों) ने आग्रह किया कि मैं हिन्दी-व्याकरण पर सेद्धान्तिक व्याकरण 
. की एक पुस्तक लिख दू। उन-अनेक हिन्दी भाषा-प्रेमियों के आग्रह का ही प्रतिफल 


... यह भ्रस्तुत ग्रन्थ है । 


वैसे तो हिन्दी म्रें छोटे-बड़े अनेक व्याकरण ग्रन्थ लिखे गए हैं जिन में आधु 
_ निक भाषा विश्लेषण-पद्धति का प्राय: अभाव है । कुछ भाषावैज्ञानिकों ने तथाकथित ' . 
आधुनिक विश्लेषण पद्धति के नाम पर जटिल वाग्जाल ही प्रस्तुत किया है, अध्येता 
को आवश्यकता तथा उपयोगिता का ध्यान कम ही रखा है। कामताप्रसाद गुरु 

 किशोरीदास बाजपेयी, आयेनद्र शर्मा प्रभृति के ग्रन्थों में कई स्थलों पर मौलिक चिन्तन: 
प्राप्त है, किन्तु इन ग्रन्थों में परम्परा का अनुपालन ही अधिक है। सकल और 


. कॉलेजों के पाठ्यक्रम को ध्यान में रख' कर लिखें गए अनेक व्याकरण-पन्थों में चिन्तन 


तथा तथ्य-प्रस्तुतीकरण की अनेक भूलें देखने में आती हैं । ऐसे ग्रन्थों को पढ़ कर 
अहिन्दी भाषियों के मस्तिष्क में हिन्दी भाषा के व्याकरण क्री सुस्पष्ट छवि नहीं 
बन पाती और वे अनेक स्थलों पर भ्रम में पड़ जाते हैं। लेखक का मुख्य क्षेत्र भाषा, 
हिन्दी का शिक्षण रहा है, अतः प्रस्तुत पुस्तक भी उसी शिक्षण की एक कड़ी है। 
इस ग्रन्थ के प्रणयन में लेखक का पिछले 35 वर्षों का अध्यापन-अनुभव आधार- 
.. भूमि बना है। 

...... इस ग्रन्थ का अध्येता मुख्यतः अहिन्दी भाषी हिन्दी-प्रेमी छात्र, अध्यापक 
 वक्‍ता, लेखक तथा सम्पादक होगा; अतः. विभिन्‍न स्तरीय- अध्येत्ताओं को दृष्टि में 
. रखते हुए 'इस व्याकरण को भुख्यत: संरचनात्मक दृष्टिकोण से प्रस्तुत करने की - 
. चेष्टा की गई है। व्याकरण को मूलतः: आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी पर आधारित रखा 





[ # ] 


गया है। आवश्यकतानुसार कहीं-कहीं हिन्दी की बोलियों तथा अन्य भाषाओं के 

उदाहरण देने में संकोच नहीं किया गया है | शिक्षाथियों के उपयोगार्थ परिशिष्ट में 

प्रत्येक अध्याय पर आवश्यक प्रश्नों तथा अभ्यासों का समावेश किया गया है तथा 

. उन के उत्तर-संकेत भी दे दिए गए हैं। जिन्हें प्रश्नों-अभ्यासों तथा उन के उत्तरों से 
कुछ लेना-देना नहीं है, उन के लिए भी येह अंश उपयोगी सिद्ध हो सकता है। 

अहिन्दी भाषियों की भाँति ही हिन्दी भाषी भी हिन्दी भाषा-व्याकरण के सैद्धान्तिक 

.. पक्ष तथा विश्लेषण पद्धति और भाषा-प्रयोग के मम को पहचानने में इस ग्रन्थ से 
. सहायता प्राप्त कर पाएँगे; ऐसा मेरा विश्वास है। 


के एक अमूर्ते संकल्पना होने के कारण भाषा का परिनिष्ठित रूप सर्देव विवादा- 

. स्पद -विषय रहा. है। व्यक्तियों के निजी संस्कारों के पंरिणामस्वरूप भाषा के 

परिनिष्ठित रूप से भिन्‍न-भिन्‍न मात्राओं में विचलन देखा जाता है। फिर भी भाषा 

की वे इकाइयाँ जो सर्वाधिक लोगों दवारा स्वीकृत होती हैं, परिनिष्ठित प्रयोग में मान्य 

_ और गणनीय होती हैं । भाषा की आन्तरिक. व्यवस्था या संरचना भी परिनिष्ठित 

स्वरूप की ओर संकेत करती है, अत: इस. ग्रंन्थ में प्रयोग-बहुलता तथा आन्तरिक 

संरचना को आधार बनाते हुए हिन्दी भाषा का वस्तुनिष्ठ विश्लेषण प्रस्तुत किथा 

गया है । पाणिनि के समय से ही. व्याकरण का गुण उस की संक्षिप्तता, स्वीकार 

_ किया जाता रहा है। इस गुण या विशेषता का निर्वाह करने के उद्देश्य से कहीं-कहीं 

_ सुत्रों में कथ्य को प्रस्तुत किया गया है। 

... पुस्तक के मुख्य तीन भाग हैं--. ध्वनि तथा वर्ण-व्यवस्था 2. रूप तथा 

-+  शब्द-व्यवस्था 3. पदबन्ध तथा वाक्य-व्यवस्था । विषय-प्रवेश तथा परिशिष्ट में ही 

व्याकरण से सम्बन्धित अनेक फुटकर बातें बताई गई हैं। पाठकों को इस ग्रन्थ में... 

मधुमक्षिका वृत्ति का आभास मिले तो मुझे कोई खेद नहीं होगा क्योंकि व्याकरण, 

... शब्दकोश आदि में उपन्यास, कविता आदि को भाँति प्रत्येक स्थल पर मौलिकता 

: ..  खोजना मृग्-मरीचिका सदुश है। पूर्व प्रकाशित अनेक व्याकरण ग्रन्थों के लेखकों के 
.._ प्रति आभार प्रकट करना मेरा परम कतंव्य है जिन के ग्रन्थों को पढ़ने पर मुझे अपनी 
.._ चिन्तन-दिशा को निश्चित करने का सुअवसर मिला । द । 0. 28 

पुस्तक में प्रयुक्त कुछ सकेत ये हैं-- ५ खो 

४» बैकल्पिक प्रयोग. 

| योग; अनिवाये अस्तित्व _ 

+ अनिवाय॑ अभाव द कि दा 5 अप 

... # अनिवायं अस्तित्व तथा अभाव का विकल्प... हक ३० जो 

.. ++ समान ग्रयोग/बर्थ बह 2 दि 0 कै 


हे आज ४२७०७ बक ८० क++ ४ ककनिधलेक रमन 7 मेक: १2१४ कट 7 





बट म 


५ 


ट 
४ 


जय चक्र |. कै व्ययका्क 


क्रिया-धातु _ 


असम्भव|कल्पित प्रयोग... 
के रूप में निष्पन्न 

से व्युत्पन्न द 
(कथ्य से पूर्व) सम्भावित प्रयोग 
(कथ्य से पूर्व) सन्दिग्ध प्रयोग 
में परिवर्तित या रूपान्तरित 
अथवा, या (किसी रचना के अन्तर्गत अतिरिक्त प्रयोग) 
समान संरचना (/वितरण/ प्रकार या अर्थ) कर 
स्वर द द 

व्यंजन 











कर 














विषय-प्रवेश 





:. _व. झाषा तथा व्याकरण 
2. हिन्दी भाषा-विकास 








[| 


भाषा! तथा व्याकरण 


 भाषा--मनुष्य अपने जन्म से ले कर अपनी मृत्यु तक विभिन्‍न क्रिया-कलापों 
के लिए समाज पर निर्भर रहता है। समाज के विभिन्‍न व्यक्तियों से वह अपना 
सम्बन्ध भाषा के माध्यम से ही बनाए रखता है। वह अपने दृष्ट तथा अपने से परे ' 
अदृष्ट संसार के बारे में भाषा के माध्यम से ही चिन्तन-मनन करता है तथा अपने 
मन के विचार और अपने हृदय की भावनाओं को भाषा के माध्यम से ही दूसरों पर 
प्रकट कर पाता है | वैयक्तिक स्तर पर भाषा चिन्तन-मनन का माध्यम है तो समृह- 
स्तर पर सम्प्रेषण का । यह सम्प्रेषण व्यक्तिगत या सामूहिक भौतिक आवश्यकता-पूर्ति 
के लिए हो सकता है अथवा वैचारिक सांस्कृतिक सम्प्रेषण हेतु । मुख-भावों तथा 
हस्त-संकेतों आदि (अव्यक्त भाषा) से भी वह पशु-पक्षियों की भाँति अपने विचारों 
को कभी-कभी प्रकट करता है किन्तु अत्यन्त सीमित मात्रा में ही । ये मुख-भाव तथा 
हस्त-संकेतादि व्याकरण के विषय नहीं हैं; अतः भाषा मानव-मुख से उच्चरित शब्दों 
तथा वाकक्‍यों के उस समूह को कहते हैं जिस के द्‌ वारा मन के भाव-विचार प्रकट होते 
हैं। जिस प्रकार प्रत्येक राष्ट्र, समाज, परिवार, व्यक्ति की राजनैतिक, आशिक, 
सामाजिक आदि व्यवस्था में कुछ-त-कुछ अन्तर पाया जाता है, उसी प्रकार प्रत्येक 
भाषा के शब्दादि की अपनी व्यवस्था होती है । व्यवस्था-भेद के कारण ही भाषाएँ 
. भिन्‍न-भिन्‍न होती हैं। दो भाषाओं की इन चार व्यवस्थाओं में बाहरी तथा आन्तरिक 
- दृष्टि से पर्याप्त अन्तर होता है---. सर्वताम-व्यवस्था, 2. परसगगं/कारक चिह न- 
व्यवस्था, 3. संख्या-व्यवस्था, 4. क्रियापद-व्यवस्था । क्‍ 
मनुष्य दूसरों पर अपने जो भी विचार प्रकट करना चाहता है, उन पर 
उस का मस्तिष्क पहले मनन कर लेता है और फिर जीभ तथा होठों आदि की सहायता 
से ध्वनि-तरंगों में उसे बदल देता है। सोचने की यह प्रक्रिया भी भाषा के माध्यम से 
ही होती है । मनुष्य की यह भाषा व्यक्त भाषा कही जाती है। इस प्रकार भाषा 
मानव-जगत्‌ के विभिन्‍न सम्बन्धों, क्रियाओं ओर व्यवहारों का मूल आधार है। यह 
एक ऐसा समर्थ माध्यम है जिस से एक भाषा-भाषी समाज के लोग अपने भाव-विचार 
एक-दूसरे के समक्ष प्रकट करते हैं तथा उन्हें जानते, समझते हैं। (कभी-कभी वे ._ 








4 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


छद्म रूप में गोपन भी कर लेते. हैं। दुकानदार, पंडे अपने ग्राहकों से; चोर, ठग 
अपने शिकार से; सैनिक लोग अपने दुश्मन से अपने विचार/योजनाएँ/इरादे छिपाने 
के उद्देश्य से गुप्त भाषा का प्रयोग करते हैं । गुप्त भाषा में संकेत होते हैं तथा 
_सर्वंसामान्य स्वीकृत शब्दों के स्थान पर वर्ग-विशेष की व्यवस्था/स्वीकृति के अनुरूप 
शब्दों का छद्म प्रयोग किया जाता है ।) द 
भाषा सानव-मुख से उच्चरित वांक-ध्वनियों की समाज दूवारा स्वीकृत 
यादृच्छिक प्रतीकों की ऐसी व्यवस्था है. जिस के द्वारा उस समाज के क्रिया-कलाप 
सम्पन्न होते हैं। प्रतीक किसी समाज द्वारा नियत किए हुए संकेत होते हैं जो पूर्व॑ 
निश्चित किए हुए अर्थ का बोध कराते हैं। प्रतीक दृश्य, स्पश्यं, श्रव्य, श्राण्य और 


कथ्य हो सकते हैं। प्रतीक तथा प्रतीकार्थ का सम्बन्ध यांदुच्छिक या. आरोपित होने 


के कारण एक ही. भौतिक पदार्थ के लिए भिन्‍्त-भिन्‍न भाषाओं में भिन्‍न-भिन्‍न शब्दों 
का प्रयोग देखा जा सकता है; यथा--पानी (हिन्दी), १६७ (अँगरेजी), आब 
. (अरबी), नी (कन्नड़), जलम्‌ (संस्कृत), वेछ छम्‌ (मलयातछ्म्‌), जोल (बंगला); 
2०७॥७॥ (अँगरेजी), हाथी (हिन्दी), हस्तिन्‌ (संस्कृत), आना (मलयाक्रम्‌), आने 
(कन्तड़) । समाज-स्वीकृति भाषा को अथ-रहित व्यवस्था (ध्वनिमात्र का उच्चारण) 
से अथेयुक्त व्यवस्था (रूप, शब्द, पद, पदबन्ध, उपवाक्य, वाक्य, प्रोक्ति) में परिवर्तित 
कर देती है। सामान्यतः व्याकरण में भाषा के इन दोनों प्रकार की व्यवस्थाओं का 
विश्लेषण तथा संश्लेषण प्रस्तुत किया जाता है । 
भाषा के माध्यम से किसी विचार को जानने/सीखने के बाद हीः उस से सम्बद्ध 
अत्य विचार जाने/सीखे जा सकते हैं। इस प्रकार आधारभृुत या अनुभुत प्रत्यय ज्ञान 
का भाषा के साध्यम से विकास होता है। भाषा मानव में, समाज में विचार-शक्ति 


. था तक-शक्ति की वृद्धि का एक असृल्य माध्यम है। मानव समाज में भाषा के | 


कारण ही' सामाजिक तथा सांस्कृतिक संगठनों का अस्तित्व है क्योंकि मानव-समाज के' 


पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आनेवाले विचार और अनुभव 'संस्क्ृति” के रूप में भाषा 
दवारा ही धरोहरवत्‌ मानव को प्राप्त होते हैं; इसीलिए कहा जाता है कि भाषा... 


हे संस्कृति (भौतिक, वैचारिक) की वाहिका तथा पोषिका है । 


| आाषा-भेद--क्षेत्र-विस्तार की दृष्टि से सामान्यतः भाषा-स्वरूप के तीन भेद. 


माने जाते हैं---. बोली स्थानीय तथा घरू होती है जिस में साहित्य का प्राय: अभाव 
. होता है। बोली का क्षेत्र बहुत सीमित होता है। 2. एक या दो प्रान्तों/प्रदेशों की' 
बोलचाल तथा साहित्य-रचना की भाषा विभाषा/उपभाषा/प्रान्तीय भाषा कहलाती 


...._ है। 3. भाषा शब्द का प्रयोग कई अथों में होता है--सामान्य भाषा, राष्ट्रीय भाषा/ 


.. राष्ट्र भाषा, प्रान्तीय भाषा, स्थानीय भाषा, कूंट भाषा, साहित्यिक भाषा, लिखित 
.. भाषा, मौखिक भाषा आदि। किसी राजनतिक, सामाजिक, साहित्यिक, धामिक या 


का .. आ्िक आन्दोलन के फलस्वरूप कोई विभाषा विशेष अपने भाषा&क्षेत्र की सीमा 


भाषा तथा व्याकरण | 5 


पार कर अन्य विभाषा-दक्षत्रों में भी व्यवहृत होने लगती है, तब उसे राष्ट्रभाषा कहा 
जाता है। किसी राष्ट्र के सन्दर्भ में कई विभाषाओं में व्यवहृत एक शिष्ट विभाषा 
को राष्ट्रीय/राष्ट्र भाषा कहते हैं। राष्ट्र भाषा विभाषाओं को प्रभावित भी करती है 
ओर स्वयं उन से प्रभावित भी होती है। भारत के संविधान की धारा 343 में हिन्दी 
को भारत संघ की कार्यालयी भाषा स्वीकार किया गया है। धारा 35 में राष्ट्र 
भाषा का विकास एवं प्रसार करना संघ का कतंव्य कहा गया है । 

भाषा तथा लिपि--मु ह से निकले हुए शब्द उसी क्षण हवा या आकाश में 
विलीन हो जाते हैं। उन्हीं शब्दों को यान्त्रिक साधनों (यथा--रिकॉर्ड, ठेप या फिल्म) 
के बिना बार-बार नहीं सुना जा सकता | मनुष्य ने अपने विचारों को स्थायी बनाने 
के लिए लिपि का आविष्कार किया । लिपि मुह से निकली हुई ध्वनियों को वर्णों/ 
लिखित चिह नों में अंकित करने का माध्यम है। लिपि के कारण मानव के विचार 
देश-काल की' सीमा को लाँघ गए हैं। लिपि के सहारे हम सहस्रों वर्ष पूर्व कही 
(लिखी) गई बातों को आज भी जान लेते हैं और अमेरिका या यूरोप के लोगों की 
बातों को घर बेठे पढ़ कर (आँखों से देख कर) समझ लेते हैं । 


जिस प्रकार भाषा वाचिक प्रतीकों की यादुच्छिक व्यवस्था है, उसी प्रकार 
लिपि भी वाचिक ध्वनियों की यादृच्छिक व्यवस्था है । दोनों होठों का स्पर्श कर 
अघोष तथा अल्पप्राण ध्वनि का दुनिया के सभी लोग एक ही प्रकार से उच्चारण 
करते हैं किन्तु उसे व्यक्त करने के लिए विभिन्‍न भाषा-भाषी समाजों ने अपने-अपने 
अलग-अलग प्रतीक निश्चित कर रखे हैं; यथा--प (देवनागरी), (उर्द का पे वर्ण), 
(? ए 27 रोमन), (मलयाव्ठम्‌ का १), (गुरुमुखी का प)। भाषा का विकास लाखों वर्ष 
पूर्व हुआ था जब कि लिपि का आविष्कार कुछ हजार वर्ष पूर्व ही हुआ है । 


किसी भी भाषा का किसी भी लिपि के साथ सहजात सम्बन्ध नहीं होता. 
और इसीलिए कोई भी भाषा किसी भी उपयुक्त लिपि में लिखी जा सकती है। भाषा 
बोलने तथा सुनने की चीज है और लिपि लिखने तथा बाँचने की । परम्परा से प्रयुक्त 
. भाषा ओर लिपि के प्रति प्रत्येक भाषा-भाषी' समाज में भावनात्मक लगाव उत्पन्त हो 
जाता है | यद्यपि प्रत्येक भाषा के लिए प्रयुक्त परम्परागत लिपि में लेखन तथा वाचन 
में शत-प्रतिशत अभेद नहीं होना तथापि अनेक भाषा-भाषियों के मस्तिष्क में शब्द के 
लिखित रूप का ऐसा प्रतिबिम्ब बन जाता है कि वे प्रायः यही समझते हैं कि वे जैसा 
बोलते हैं वसा ही लिखते हैं और ज॑ंसा लिखते हैं, वेसा ही बाँचते हैं; यथा--भाषा- 
विज्ञान के सामान्य सिद्धान्तों से अपरिचित अनेक एम० ए० उत्तीर्ण हिन्दी, तेलुगु, 
कन्नड़, गुजराती, मराठी आदि भाषा-भाषी। व्याकरण पढ़ने तथा समझनेवाले व्यक्ति 
को यह सत्य सदंव ध्यान में रखना चाहिए कि उच्चरित और लिंखित भाषा में सदैव 
शत-म्रतिशत साम्य नहीं हुआ करता क्योंकि लगभग सभी लिखी जा रही भाषाओं में 
उच्चा रणानुगामी' वर्तंती तथा परम्परानुगामी वर्तनी का प्रयोग मिलता है। 

















6 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


भाषा परिवर्तत--भाषा का रूप व्यक्ति, क्षेत्र, समाज, देश ओर काल-भेद के 
अनुसार बदलता रहता है। हमारे ही देश में कभी संस्कृत थी; संस्कृतकालीन 
वोलियाँ थीं; फिर प्राकृत और अपश्रृंश भाषाएँ रहीं और आज असमी, गुजराती 
तमिक, कन्नड़, कश्मीरी, हिन्दी आदि भाषाएं प्रचलित हैं । बदलती हुई सभ्यताओं 
आवश्यकताओं तथा कथन-शैलियों के अनुसार भाषाओं के शब्दों, प्रयोगों, कहावतों 
मुहावरों, अर्थों में (लिपि-चिह नों में भी) परिवततन होता रहता है, किन्तु यह परिवतन 
बहुत ही धीरे-धीरे होता है । इस परिवर्तेत को हम एक ही जन्म में प्रायः आसानी से 
नहीं पकड़ पाते । एक ही समय के पढ़े-लिखे और अपड़ लोगों की भाषा में थोड़ा-बहुत 
अन्तर हुआ ही करता है। विज्ञान, कार्यालय, विधि, रेडियो-समाचार, विज्ञापन 
क॒क्षा-अध्यापत की भाषा में जो अन्तर देखने में आता है, उसे शेली-भेद या' प्रयुक्ति- 
भेद कहा जाता है। हिन्दी की दो प्रमुख शैलियाँ प्रचलित हैं--4. साहित्यिक शैली 
2. बोलचाल की शैली । अँगरेजी, उदू के प्रभाव से दो और शलियाँ प्रचलित हो 
चली हैं । भाषा कभी भी शैली-मुक्त नहीं हो सकती, अतः व्याकरण में भाषा-विश्लेषण 
के समय शैली-भेद से आए भाषा-परिवर्तन को नकारा नहीं जा सकता । 

व्याकरण--भाषा के रूपों तथा प्रयोगों में समानता, स्थिरता तथा मानकता 

लाने के लिए और उन का ठीक-ठीक विश्लेषण-विवेचन करने के लिए कुछ नियमों का 

होता अनिवाय॑ है । व्याकरण इन्हीं नियमों का निरूपण करनेवाला शास्त्र है । 


.. अभिव्यक्ति-स्तर पर भाषा के दो मुख्य रूप (कथित, लिखित) होते हैं । भाषा 
का कथित रूप ध्वनियों से और लिखित रूप वर्णों से बनता है। इन्हीं ध्वनियों और 
...वर्णो से शब्द, पद, पदबन्ध, उपवाक्य और वाक्य बनते हैं। शब्दों, पदों, पदबन्धों 
.. और वाकक्‍्यों के शुद्ध रूपों और प्रयोगों के नियमों का बोध करानेवाला शास्त्र व्याकरण 
(विन-आ--करण -> भली भाँति समझाना) कहलाता है। व्याकरण के नियमों से 
अनुशासित रहने पर भाषा के रूपों और प्रयोगों में स्थिरता, समानता तथा शुद्धता बनी 
_ रहती है किन्तु कुछ शताब्दियों के बाद भाषा के परिवर्तित रूप के अनुसार व्याकरण 
के नियमों में भी तदनुरूप आवश्यक परिवरतेन करना अनिवाये हो जाता है। प्रयोग- 
_बाहुलय तथा भाषा की आन्तरिक संरचनागत व्यवस्थाओं के आधार पर वैयाकरण भाषा 
के शुद्ध रूप का निश्चय करता है । प्रयोग बाहुल्य उप्त भाषा के मात भाषाभाषियों के 
प्रयोग पर आधारित होता है न कि इतर भाषा-भाषियों के प्रयोग पर । व्याकरण से 
_ नियन्त्रित परिनिष्ठित भाषा का प्रयोग शिक्षा, साहित्य तथा शासन में होता है । 


हे व्याकरण-भेद--किसी भाषा के शब्दों, पदों, पदबन्धों और वाक्यों की संरचना 
. के नियमादि का बोध करानेवाला व्याकरण 'सैद्धान्तिक व्याकरण' क हलाता है । उन 
 नियमादि के आधार पर उत भाषा के शब्दों, पदों पदबन्धों और वाकक्‍्यों के प्रयोग का 


.. व्याकरण भी कहा जा सकता है। 


बोध करानेवाला व्याकरण “प्रायोगिक व्याकरण” कहलाता है। इसे व्यावहारिक . 


भाषा तथा व्याकरण | 7 


सामान्यतः व्याकरण ग्रन्थों में नियम, परिभाषाए, सूत्र तथा कुछ उदाहरण 
दे कर इन दोनों प्रकार के व्याकरणों को एकाकार-सा कर दिया जाता है । प्रयोगिक 
व्याकरणों में नियमों पर कम तथा प्रयोग पर अधिक बल दिया जाता है। सेद्धान्तिक 
व्याकरणों में नियम-निर्धारण पर अधिक तथा प्रयोग पर कम बल दिया जाता है। 
सन्‍्तुलित व्याकरण में तियमों और प्रयोगों पर .लगभग समान बल दिया जाता है । 


व्याकरंण-प्रयोजन--किसी भाषा के शुद्ध रूप तथा प्रयोग के नियमों के ज्ञान _ 
के लिए उस भाषा के व्याकरण के अध्ययन की अत्यन्त आवश्यकता है। यद्यपि कोई 
भी भाषा व्याकरण के ज्ञान के बिना भी उस्त भाषा विशेष के वातावरण में रह कर 
बड़ी आसानी से तथा कम समय में ही सीखी जा सकती है, तथापि उस भाषा के ख्पों 
और प्रयोगों के नियमों का सूक्ष्म ज्ञान उस भाषा को सीख' जाने मात्र से नहीं हो पाता 
जब तक कि उस भाषा के सैद्धान्तिक या प्रायोगिक व्याकरण का अध्ययन न कर 
लिया जाए । 


काल-क्रम में व्याकरण भाषा का अनुगामी होता हैं, भाषा व्याकरण का अनु- 
गमन नहीं करती । प्रत्येक मातृभाषा-भाषी अपने दैनिक व्यवहार के लिए तो व्याकरण 
का ज्ञान प्राप्त किए बिना ही, बिना किसी कठिनाई के अपनी बोली/भाषा का भ्रयोग 
करता रहता है, लेकिन विभिन्‍त व्यवसायों, साहित्य-विधाओं आदि के सूक्ष्म भावों- 
विचारों को अधिक प्रभावपूर्ण ढंग से व्यक्त करने के लिए प्रयोग की जानेवाली भाषा 
के व्याकरण के नियमादि को जानने की आवश्यकता पड़ती रहती है। अन्य/दरसरी 
भाषा के रूप में किसी भाषा को सीखने के लिए तो व्याकरण के नियमादि की जान- 
कारी और अभ्यास अनिवायं है। कठिन और सन्दिग्ध भाषा-रूप|प्रयोग का अथ या 
स्पष्टीकरण व्याकरण की सहायता से सम्भव है । 


व्याकरण-सीमा--व्याक रण-अध्ययन के पर्याप्त लाभ होने पर भी यह समझना 
या भानना एक श्रम या भूल है कि व्याकरण पढ़ कर शुद्ध भाषा-व्यवहार (बोलने 
लिखने) की क्षमता एवं दक्षता आ जाएगी। मृत (अप्रचलित) भाषाओं को उन के 
व्याकरण के आधार पर सीखा जा सकता है, किन्तु जीवित (प्रचलित) भाषा/भाषाओं 
के व्याकरण पढ़ लेने मात्र से कोई भी व्यक्ति अच्छा लेखक या वक्‍षता नहीं बन सकता। 
शिक्षित तथा सभ्य लोगों के सम्पक में रह कर बिना व्याकरण पढ़े भी बच्चे शुद्ध तथा 
प्रभावी भाषा का व्यवहार करना सीख जाते हैं, जब कि अशिक्षित तथा असभ्य लोगों 
के सम्पर्क में रहनेवाले व्याकरण पढ़े हुए बच्चे अशुद्ध, अप्रभावी तथा अरोचक भाषा 
का व्यवहार करते हैं । व्याकरण से भाषा के नियम समझे जा सकते हैं, विचारों की 
शुद्धता, सूक्षमता, गहनता और प्रभावकारिता वहीं | विचारों की शुद्धता तकशास्त्र के 
ज्ञान से और भाषा की प्रभावकारिता तथा रोचकता साहित्य-शास्त्र के ज्ञान से कुछ 
अंशों में प्राप्त की जा सकती हैं । ; ३ द 








8 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


व्याकरण के भाग 

व्याकरण भाषा के रूपों और प्रयोगों का निरूपण भी करता है. और एस के 
अग्-ग्रत्यंग का विवेचन तथा विश्लेषण भी । भाषा अपनी अथे-रहित तथा अ्थे-सहित 
व्यवस्था में ध्वनियों (संस्वन, स्वनिभ); शब्दों (रूप, शब्द) और वाक्यों (वाक्यांश, 
उपवाक्य, वाक्य) के ताने-बाने से बुनी हुई सुगठित चादर है, अतः व्याकरण के मुख्य 
तीन भाग माने जाते हैं--., ध्वनि-विचार 2. शब्द-विचार 3, वाक्य-विचार । इन्हें 
हम ध्वनि-व्यवस्था, गब्द-व्यवस्था और वाक्य-व्यवस्था भी कह सकते हैं । 

ध्वनि-व्यवस्था में ध्वतियों, अक्षरों के स्वरूप तथा शब्दों और वाक्यों में उन के 
उच्चारण के नियम बताए जाते हैं । यद्यपि यह भाग उच्यतः उच्चारण से सम्बन्धित 
है तथापि लिखित रूप में अस्तुत करते के कारण वर्णों (लिखित ध्वनियों) में ही इसे 
नताया जा सकता है। वर्णों का उच्चारण कर के प्रस्तुत करना ध्वनि-विचार कहा 
जाता है। इस प्रकार ध्वनि-व्यवस्था में गौण हप से लेखत और वर्त॑नी-व्यवस्था का भी 
समाहार हो जाता है । द द 

शब्द-व्यवस्था में शब्द के घटक रूप, रूपिम; शब्द-रचना; शब्द-भेद: शब्दों 
'ग रपान्तर; शब्दों की व्युत्पत्ति: शब्द-अर्थ का विवरण दिया जाता है । यह विवरण 
3 अतः उच्चरित भाषा का ही होता है किन्तु उस का लिखित रूप भी इस विवरण पर 
कभी-कभी, कहीं-कहीं प्रभाव डालता है। द हा 

अवस्था में पदों, पदबन्धों, उपवाक्यों से वाक्य बनने के ढंग, वोक्‍्यों के. 
आर; वाक्य-भेद तथा वाक्यों के रूपान्तरण आदि के नियमों का उल्लेख होता है । 
यह उल्लेख घृलत: उच्चरित भाषा का ही होता है किन्तु बोलने के समय के विराम, 
> न, आश्चये, सामान्य कथन आदि को स्पष्ट _ करने के लिए विरामादि चिह नों का 
लिखित प्रयोग भी किया जाता हैं 5 द 


लत: भाषा की आरम्भिक इकाई वाक्य ही है किन्तु विवरण अस्तुत 


करने, उसे समझने की सुविधा की दष्टः से वाक्य के विभिन्‍न घंटकों का विवरण 
ही पहले प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है पाठक इस तथ्य से सुपरिचित होंगे कि 


.. व्याकरण” किसी भी भाषा के आरम्भ/विकास के समय से बहुत बाद में बनाया 





. जाता है। आज भी संसार में ऐसी अनेक भाषाएँ हैं जिय का व्याकरण नहीं बनाया 
_ गया। उन का व्याकरण बनाने, लिखते समय उस भाषा के विभिन्‍न वाक्यों के आधार 
पर उस के उपवाक्यों, पदबन्धों, पदों, शब्दों, अक्षरों, स्वनिमों और अर्थ आदि के 
बारे में नियमों का निर्धारण किया जाता है। हम यहाँ हिन्दी भाषा का कोई नया 
व्याकरण नहीं बना रहे हैं, वरन्‌ जो व्याकरण प्रचलित हैं, उन्हीं के आधार पर इस 
व्याकरण को अपने दृष्टिकोण से अस्ठुत कर रहे हैं। इस व्याकरण में धवनि, अक्षर, 
शब्द, पद, पदबन्ध, वाक्य के क्रम में हिन्दी के व्याकरण का संद्धान्तिक तथा प्रायोगिक 
.. पक्ष समन्वित रूप से समझाने की. चेष्टा की जा रही है। 





« हिन्दों भाषा-विकास 


.. माना जाता है कि संसार में लगभग 3000 भाषाएँ/बोलियाँ बोली जाती हैं । 
इन में से अनेक भाषाएं/बोलियाँ भाषा-व्यवस्था की दृष्टि से अति निकट की होने के 
कारण अपने-अपने भाषा-समुदाय बनाती हैं। भाषा-समुदायों को प्रायः भाषा-परिवार 
कहा जाता रहा है, जो एक भ्रमात्मक संकल्पना है। ध्वनि, शब्द तथा वाक्य-व्यवस्था 
के अति साम्य के आधार पर संसार की भाषाओं को लगभग व2 भाषा-समुदायों 
में वर्गीकृत किया जाता रहा है। इन भाषा-समुदायों में सब से बड़ा भाषा-सभुदाय 
भारत-यूरोपीय भाषा-समुदाय” है । इस समुदाय के 0 उप-समुदायों में एक उप- 
समुदाय 'भारतीय आये भाषा उप-समुदाय' है जिसे कभी-कभी भारतीय आरय॑ भाषा 
समुदाय भी कह दिया जाता है। 
उपलब्ध जानकारी के आधार पर भारतीय आये भाषाओं को सामान्यतः 
तीन कालों में बाँटा जाता है---. प्राचीन काल (लगभग 3500 ई० पू० से 500 
ई० पू० तक) की आये भाषाओं का अनुमान ऋग्वेद के प्राचीन अंशों से लगाया जा _ 
सकता है । इस काल में सहस्नों वर्षों तक विभिन्‍न वैदिक संस्क्ृत-बोलियाँ बोली' जाती 
रहीं । भारतीय आये भाषाओं के प्राचीन काल की आरभम्भिक सीमा के बारे में 
विद्वानों में बहुत अधिक मतभेद है । उस काल की साहित्यिक भाषा वैदिक संस्कृत/ 
ददिकी/छानन्‍्दस/दिश भाषा कही जाती है। इस भाषा का साहित्य वेदिक संहिताओं, 
ब्राह्मण ग्रन्थों, आरण्यकों और उपनिषदों में प्राप्त है। श्नेः-शने: लगभग !500 ई० 
पू० से तत्कालीन लौकिक संस्कृत बोलियों का संस्कार कर लौकिक संस्कृत/संस्क्ृत 
में साहित्य की रचना की' जाने लगी। वाल्मीकि रामायण, वेदव्यास-महाभारत, 
कालिदास, वाण, भवभूति, भास आदि की रचनाएँ इसी सुसंस्क्रत/परिनिष्ठित भाषा 

में हैं । वैदिकी के अध्ययन से विद्वानों ने पता लगाया है कि उन दिनों से ही भाषा 
. के तीन रूप प्रचलित थे--पश्चिमोत्तरी, मध्यवर्ती, पूर्वी ।.. रे 
2, सध््यकाल--(लगभग 500 ई० पू० से 000 ई० तक) की आये 
_ भाषाओं में तत्कालीन पालि (लगभग 500 ई० पू० से 4 ई० तक), प्राकृत 
(लगभग | ई० से 500 ई० तक), अपश्रंश (लगभग 500 ई० से 000 ई० तक). 
हा 9 क्‍ 





0 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


की क्षेत्रीय बोलियों और उन की साहित्यिक परिनिष्ठित भाषाओं की गणना की जाती 
है। प्राप्त साहित्य, शिलालेखादि से ज्ञात हुआ है कि पालिकालीन भाषा/बोली के चार 
रूप प्रचलित थे--पश्चिमोत्तरी, मध्यवर्ती, पूर्वी, दक्षिणी । इसी प्रकार प्राकृतकालीन 
भाषा|बोली के आठ रूप प्रचलित थे--शौरसेनी, पैशाची, कैकेय, टक्‍्क, महाराष्ट्री, 
अध-मागधी, मागधी, ब्राचड । अपभ्र शकालीन भाषा/बोली के कम से कम इतने ही 
रूप अवश्य प्रचलित रहे होंगे, यद्यपि अप भ्र श-साहित्यिक भाषा के दो ही रूप प्राप्त 
हैं--प श्चिमी, पूर्वी । 


3. आधुनिक काल (लगभग [000 ई० से अब तक) की आये भाषाओं में 
पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, नेपाली, गुजराती, पहाड़ी, लहँदा, पंजाबी, मराठी, 
पूर्वी हिन्दी, बिहारी, बंगाली, उड़िया, असमी, सिनन्‍्धी की गणना की जाती है । 
साहित्यिक रूप में प्रयुक्त होने से पूर्व इन के विभिन्‍त बोली रूप रहे हैं और आज भी 
प्रचलित हैं। इन भाषाओं की अनेक विभाषाएं तथा बोलियाँ उत्तर भारत में प्रचलित 
हैं । आधुनिक कालीन आये भाषाओं में हिन्दी भाषा का, प्रमुख स्थान है । इस की पाँच 
प्रमुख उप-भाषाएँ और बोलियाँ ये हैं--. पश्चिमी हिन्दी (. कौरवी/खड़ी बोली, 
2. ब्रजभाषा, 3. हरियाणी/बाँगरू, 4. बुन्देलखण्डी, 5. कन्‍तौजी), 2. पूर्वी हिन्दी 
(]. अवधी, 2. बघेली, 3. छत्तीसगढ़ी), 3. राजस्थानी (. मारवाड़ी/पश्चिमी . 
राजस्थानी, 2. जयपुरी/पूर्वी राजस्थानी, 3. मेवाती/उत्तरी राजस्थानी, 4. मालवी/ 
दक्षिणी राजस्थानी), 4. पहाड़ी (. पश्चिमी पहाड़ी, 2. कुमाउंनी-गढ़वाली /मध्यवर्ती 
पहाड़ी, 3. नेपाली), 5. बिहारी (!. मैथिली, 2. मगही, 3. भोजपुरी)। ( 
बोलियों के परिचय के लिए देखिए---अध्याय 28. हिन्दी की प्रमुख बोलियों में एक- 
: सृत्रता) 


... हिन्दी भाषा के उद्भव तथा विकास के इतिहास को तीन प्रमुख कालों में 
... बाँटा जा रहा है---. आरम्भिक काल (लगभग 000 ई० से 500 ई० तक) की 
.... हिन्दी में सामान्यतः: अपभ्रंशकालीन ध्वनि-व्यवस्था प्राप्त है । इस काल में ऐ, औ मूल 


.. स्व॒रों का विकास हुआ । च छ ज झ स्पशं-संघर्षी हो गए । न ल स॒ वर्त्स्य बत गए 





. ड़ ढ़ नह मह लह मूल व्यंजन विकसित हो गए | संस्कृत और फारसी आदि के कछ 

. शब्दों के आयमन से कुछ नये संयुक्त व्यंजनों का विकास हो गया। अपश्रंश के 

व्याकरण पर आधारित हिन्दी शर्ने:-शर्नें: अपने पैरों पर खड़ी हो गई। सहायक 

क्रियाओं और परसर्यों का प्रयोग होते लगा | नपुसक लिग' समाप्त हो गया। वाक्य 

. में पद-क्रम निश्चित होने लगा । इस काल में संस्कृत तथा अरबी-फारसी के अनेक 

. शब्दों का हिन्दी में प्रयोग होने लगा। गोरखनाथ, विद्यापति, तरपति नालल्‍्ह, 
.. चन्दबरदायी, कबीर, ख्वाजा बन्देववाजू, शाह मीराजी आदि की रचनाओं में डिगल 
.. मथिली, दविखनी, अवधी, ब्रज तथा इन के मिले-जुले रूप प्राप्त हैं । 





हिन्दी भाषा-विकास | | 


2. सध्यकाल (लगभग 500 ई० से 800 ई० तक) की हिन्दी में क ख 
गज फ का प्रवेश हो गया । सरल व्यंजनान्त शब्दों के अ!' का लोप होने लगा 
और ह से पूर्व के अ का उच्चारण कुछ स्थितियों में एँ जैसा हो गया । इस हिन्दी' में 
संयुक्त क्रियाओं और परसर्गीय शब्दावली का प्रयोग बढ़ गया । फारती वाक्य-रचना 
से हिन्दी वाच्य-रचना प्रभावित होने लगी । इन दिनों की हिन्दी में फारसी के लगभग 
3500, अरबी के लगभग 25 00, पश्तो के लगभग 50 और तुर्की के लगभग 25 
शब्द आ चुके थे। यूरोप से सम्पर्क होने के कारण पुतंगाली, स्पेनी, फ्रान्सीसी और 
अँगरेजी के कुछ शब्द हिन्दी में प्रवेश कर चुके थे.। जायसी, सूर, मीराँ, तुलसी, 
केशव, बिहारी, भूषण, देव, बुरहानुद्दीन, मुसरती, कूली, कुतुबशाह, वजही, वली 
आदि की रचनाओं में दक्खिनी, उदू , डिगल, मैथिली, खड़ी बोली, ब्रज, राजस्थानी 
तथा इन के मिले-जुले रूप प्राप्त हैं। हिन्दी गदय के प्रथम लेखक माने जानेवाले सुरति 
.. भिश्र ने ब्रजभाषा गद्य में बेताल पच्रीसी' की रचना इसी काल में की थी । 

. 3. आधुनिक काल (लगभग 800 से अब तक) की हिन्दी में ।947 ई० के 
बाद से कु ख ग॒ का प्रयोग कम हो गया है । आओ का प्रयोग अँगरेजी के आगत शब्दों 
में किया जाने लगा है। ऐ ओ सामान्यतः मूल स्वर हैं। शब्दान्त/|अक्षरान्त का अ 
लगभग पूरी तरह लुप्त है। व का दन्तोष्ठ्य उच्चारण बढ़ रहा है। ब्रज, अवधी, 
मैथिली, भोजपुरी का अलग व्याकरण विकसित हो गया है। परिनिष्ठित हिन्दी का 
व्याकरण काफी कुछ स्थिर हो चुका है। आधृनिक हिन्दी अरबी-फारसी की अपेक्षा 
अंगरेजी से अधिक प्रभावित है। सरकारी काम-काज की भाषा होने के कारण हिन्दी 
में पारिभाषिक तथा तकनीकी शब्दावली की काफी वृद्धि हुई है। आज की हिन्दी 


प्रयोजनमूलक/उपयोगी साहित्य की दृष्टि से अपनी अभिव्यंजना में पर्याप्त समर्थ, 
निश्चित, सटीक तथा गहरी बन गई है । 


आधुनिक हिन्दी अपनी भौगोलिक सीमाओं (जैसलमेर, अंबाला, शिमला, 
भागलपुर, रायपुर, खंडवा का मध्यवर्ती क्षेत्र) को पार कर समूचे भारत में तथा 
भारत से बाहर के देशों (फीजी, मोरिशस, ट्रिनिदाद, सरीनाम, गयाना, नेपाल 
बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान आदि) में प्रसार पा चुकी है। भारतेन्दू हरिश्चन्द्र, 
महावीरप्रसाद दविवेदी, निराला, पन्‍्त, जयशंकर प्रसाद, महादेबी वर्मा, रामचन्द्र शुक्ल, 
हजारीप्रसाद द्विवेदी, दिनकर, तगरेन्द्र आदि अनेक मूर्धन्य साहित्यकारों मे आधनिक 
हिन्दी के परिनिष्ठित रूप को सजाने-सँवारने में अपना योग दिया है । 


व्यापार, राजनीति तथा धर्म-प्रचार आदि के कारण दो देशों, सभ्यताओं या 
संस्कृतियों का सम्मिलन होता रहता है। भाषाओं के परिवरतंन में इस. सम्मिलन का 
गहरा प्रभाव पड़ता है। इस प्रभाव को दो रूपों में देखा जा सकता है--. भाषाएँ 
आपस में एक-दूसरी से शब्द लेने लगती हैं। 2. विचारों के आदान-प्रदान के कारण 
एक-दूसरी भाषा का साहित्य प्रभावित होने लगता है। कभी-कभी शब्दों के आदान 









2 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


के कारण कुछ ध्वनियों का आदान भी हो जाता है । कभी-कभी ऐसी कुछ ध्वनियाँ 
जो शब्द आदान करनेवाली भाषा के आरम्भ के दिनों में नहीं थीं, धीरे-धीरे इस 
भाषा की ध्वनियाँ बन जाती हैं। ध्वनियों के अतिरिक्त आदान करनेवाली भाषा के 
व्याकरण पर भी थोड़ा-बहत प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव हिन्दी पर भी उस के 
भारम्भिक काल से देखा जा सकता है । 


भाषाओं के बारे में एक तथ्य यह भी है कि जो भाषा जितने विस्तृत क्षेत्र में 
बोली जाती है, उस में उतने ही' उच्चरित और प्रयोग-भेद मिलते हैं। अंगरेजी की भाँति 
हिन्दी के भी अनेक व्यवहुत रूप प्राप्त हैं । द 
ईरान के मुसलमानों दवारा दिए गए नाम हिन्दी” शब्द का अर्थ तीन रूपों में 
प्रचलित रहा है--. व्यापक रूप--भारत में मुसलमानों के बसने से पहले ही 
ईरान में भारत या हिन्द < हिन्दु < सिन्धु में बोली जानेवाली सभी भाषाओं या 
बोलियों को उसी प्रकार हिन्दी < हिन्दीक कहा जाता था जिस प्रकार भारत या हिन्द 
में बनी किसी चीजु तथा यहाँ के सभी निवासियों को हिन्दी कहते थे। धर्मग्रन्थ 
अवेस्ता में हिन्दी, हिन्दू शब्द प्राप्त हैं। हिन्द----ईक :> हिन्दीक (>हिन्दीग 
हिन्दीअ > हिन्दी) +- 'हिन्दका' यूनानी में इंदिका और अँगरेजी में इंडिया हो 
गया । हिन्दी भाषा के लिए इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग शरफ ददीन य ज्दी कृत 
जफरनामा (424 ई०) में मिला है। छठी शताब्दी के बादशाह नौशेरवाँ के 
राजकवि ने पंचतन्त्र की भाषा को 'जुबान-ए-हिन्दी' कहा है | भकतकालीन कवियों ने 
अपनी भाषा को हिन्दी न कह कर भाषा/भाखा कहा है। भारतीय फारसी कवि 
औफी ने !228 ई० में 'हिन्दवी' शब्द का प्रयोग मध्यदेश की देशी भाषा के लिए 
किया हैं| 2. सामान्य रूष--हिन्दी साहित्य, जन सामान्य में प्रचलित हिन्दी के 
सामान्‍य रूप के अनुसार हिन्दी में 8-9 बोलियों के अतिरिक्त टू (अरबी-फारसी' 
के व्याकरण से अप्रभावित) को भी सम्मिलित किया जाता है। इस रूप में अँगरेजी 
. से आए सहस्रों शब्द भी हिन्दी के अपने बनते जा रहे हैं। हिन्दी के इस सामान्य रूप 
.. का परिवर्तित या मजा हुआ रूप ही परिनिष्ठित/मानक (प्रामाणिक या आदश्शं) हिन्दी 
कहा जाता है। आधुतिक राजभाषा, आधुनिक साहित्य, शिक्षा-संस्थाओं, समाचार- 
पत्रों, संस्थाओं, कार्यालयों और शिष्ट/सभ्य समाज की बोलचाल में प्रयुक्त होनेवाली 
भाषा पघरिनिष्ठित हिन्दी ही है । 


.. प्रत्येक व्यक्ति के भाषा-व्यवहार में उस की व्यक्ति-बोली ([0०06७) का 
प्रभाव कुछ-न-कुछ अंशों में रहता ही है, अतः भाषा का परिनिष्ठित रूप प्राप्य आदर्श 
होता है, प्राप्त आदर्श नहीं । हिन्दी के परिनिष्ठित रूप को सभी बोली-क्षेत्रों में आसानी 
से समझा जा सकता है किन्तु एक बोली को दूसरे बोली-क्षत्र में समझने में थोडी- 
. बहुत कठिनाई अवश्य होती है | भारतीय संविधान की धारा 35 में कहा गया है 
. कि हिन्दी अपनी मूल प्रकृति को खोए बिना, आकार-शैली-अभिव्यक्ति की दष्टि से 


हिन्दी भाषा-विकास | 3 


आठवीं अनुसूची में दी गई भाषाओं (मराठी, गुजराती, कन्नड़, मलयाह्म्‌, तमित्व, 
तेलुगु, उड़िया, बंगला, पंजाबी, कश्मीरी, असमी, उद्द, सिन्धी, संस्कृत) से जो क्‌छ 
भी वांछित, आवश्यक या अनिवाय॑ होगा, प्रहण करेगी। 3. विशिष्ट/संकुचित 


रूप--पश्चिमी हिन्दी तथा पूर्वी हिन्दी की आठ बोलियों के सामूहिक नाम को भाषा- 





विज्ञान में हिन्दी कहा जाता रहा है किन्तु हिन्दी का संकुचिततमः रूप है--हिन्दी' 
भाषा की मूलाधार खड़ीबोली का स्वरूप । आज की आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी का 
व्याकरण मुसलमानों द्वारा ग्रहण की गई देशी भाषा (खड़ी बोली) के व्याकरण पर 
आधारित है किन्तु उस का शब्द-भण्डार हिन्दी-प्रदेश की बोलियों तथा देशी-विदेशी 
भाषाओं के शब्दों से वृदधि पा रहा है। द 

आजकल सामान्यतः हिन्दी” शब्द से हिन्दी भाषा का सामान्य रूप ही समझा 
तथा माना जाता है। इस व्याकरण ग्रन्थ में इसी “हिन्दी के व्याकरण पर प्रकाश 
डाला गया है । द 

हिन्दी” शब्द के साथ प्रायः दो शब्दों हिन्दुस्तानी/हिन्दुस्थानी और उदू को 
भी विवादास्पद रूप में जोड़ दिया जाता है। हिन्दुस्तान/हिन्दुस्थान---ई के योग से 
बने इस शब्द का पुराना समानार्थी नाम हिन्दवी/हिन्दुई/हिन्दुवी रहा है । तुज॒के 
बाबरी में यह शब्द भाषां के अथ॑ में आप्त है । तासी के प्रसिदृध इतिहास “इस्तवार द 
ल लित्र त्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी' में ऐन्दुस्तानी<< हिन्दुस्तानी शब्द भाषा के नाम के 
लिए प्रयुक्त हुआ है । 3वीं शतती में भारत के फारसी कवि औफी' (228 ई०) तथा 
. अमीर खुसरो ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है। खुसरों की खालिकबारी' में 
देशी भाषा के लिए 30 बार 'हिन्दवी” शब्द और 5 बार हिन्दी” शब्द का प्रयोग 


हैं। परवर्ती काल में “हिन्दवी” नाम संस्कृत-बाहुल्‍य शब्दोंवाली भाषा के लिए चल 


पड़ा और हिल्हुस्तानी नाम अरबी-फारसी बाहुलय' शब्दोंवाली भाषा के लिए । 
48-9वीं शताब्दी में “हिन्दुस्तानी” हिन्दी-उद्‌ के मध्य की सरल 'शब्दावलीवाली 
भाषा मानी जाने लगी जिस में संस्कृत के बहु प्रचलित तत्सम और संस्कृत, अरबी- 


फारसी के जनसाधारण की बोलचाल में अयुक्त तद्भव शब्दों का प्रयोग होने लगा. 


था। गांधी जी आदि मनीषियों ने इसी हिन्दुस्तानी की सिफारिश की थी । 
क्‍ तुर्कों भाषा के शब्द उद्द<उद्द-ए-मुअल्ला (>शाही शिविर/खमा) का 
अचारअसार मुगलकाल से हुआ । उददू बाजार (+ फौजी पड़ाव का बाजार) में इस 


शब्द का यह अथे उत्तर भारत में अभी भी प्रचलित है। मुगलों के इन पड़ावों के 


सेनिकों और स्थानीय लोगों के पारस्परिक सम्प्रेषण के कारण अरबी-फा रसी-तुर्की में 
पंजाबी, बाँगरू, कौरवी, ब्रज का मिश्रण होने के परिणामस्वरूप जिस नयी भाषा/बोली 


का विकास हुआ उसे लाल किले में 'जबान-ए-उद्दू-ए-मुअल्लाः (--श्रेष्ठ शाही. 


पड़ाव की भाषा) कहा गया । 8वीं सदी के मध्य में 'उद्द' शब्द भाषा/बोली के लिए 
. अ्रचार में आ गया था। उन दिनों तक इस भाषा को हिन्दी या रेखतारिख्ता या 





2 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


के कारण कुछ ध्वनियों का आदान भी हो जाता है। कभी-कभी' ऐसी कुछ ध्वनियाँ 
जो शब्द आदान करनेवाली भाषा के आरम्भ के दिनों में नहीं थीं, धीरे-धीरे इस 
भाषा की ध्वनियाँ बन जाती हैं। ध्वनियों के अतिरिक्त आदान करनेवाली भाषा के 
व्याकरण पर भी थोड़ा-बहुत प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव हिन्दी पर भी उस के 
भारम्भिक काल से देखा जा सकता है । 


भाषाओं के बारे में एक तथ्य यह भी है कि जो भाषा जितने विस्तृत क्षेत्र में 
बोली जाती है, उस में उतने ही' उच्चरित और प्रयोग-भेद मिलते हैं। अगरेजी की भाँति 
हिन्दी के भी अनेक व्यवहृत रूप प्राप्त हैं । 
ईरान के मुसलमानों दुवारा दिए गए नाम हिन्दी” शब्द का अर्थ तीन रूपों में 
प्रचलित रहा है--. व्यापक रूप--भारत में मुसलमानों के बसने से पहले ही 
ईरान में भारत या हिन्द< हिन्दु < सिन्धु में बोली जानेवाली सभी भाषाओं या 
बोलियों को उसी प्रकार हिन्दी < हिन्दीक कहा जाता था जिस प्रकार भारत या हिन्द 
में बनी किसी चीज तथा यहाँ के सभी निवासियों को हिन्दी कहते थे। धर्मंग्रन्थ 
अवेस्ता में हिन्दी, हिन्दू शब्द प्राप्त हैं। हिन्द+---ईक:>हिन्दीक (>हिन्दीग 
>हिन्दीअ > हिन्दी) > हिन्दका' यूनानी में इंदिका और अँगरेजी में इंडिया हो 
गया । हिन्दी भाषा के लिए इस शब्द का प्राचीनतम प्रयोग शरफ ददीन य ज्दी कृत 
जफ्रनामा (424 ई०) में मिला है। छठी शताब्दी के बादशाह नौशेरवाँ के 
राजकवि ने पंचतन्त्र की भाषा को 'जुबान-ए-हिन्दी' कहा है । भकतकालीन कवियों ने 
अपवी' भाषा को हिन्दी न कह कर 'भाषा/भाखा कहा है। भारतीय फारसी कवि 
ओऔफी ने 228 ई० में 'हिन्दवी' शब्द का प्रयोग मध्यदेश की देशी भाषा के लिए 
किया हैं। 2. सासान्‍्य रूष--हिन्दी साहित्य, जन सामान्य में प्रचलित हिन्दी के 
सामान्य रूप के अनुसार हिन्दी में 8-9 बोलियों के अतिरिक्त. टदू' (अरबी-फारसी' 
के व्याकरण से अप्रभावित) को भी सम्मिलित किया जाता है। इस रूप में अँगरेजी 
से आए सहस्नों शब्द भी हिन्दी के अपने बनते जा रहे हैं। हिन्दी के इस सामान्य रूप 
_ का परिवर्तित या मेंजा हुआ रूप ही परिनिष्ठित/|मानक (प्रामाणिक या आदर्श) हिन्दी 
कहा जाता है। आधुनिक राजभाषा, आधुनिक साहित्य, शिक्षा-संस्थाओं, समाचार- 
. पत्रों, संस्थाओं, कार्यालयों और शिष्ट/|सभ्य समाज की बोलचाल में प्रयुक्त होनेवाली 
भाषा घरिनिष्ठित हिन्दी ही है ! 


प्रत्येक व्यक्ति के भाषा-व्यवहार में उस की व्यक्ति-बोली ([66060.) का 
प्रभाव कुछ-न-कुछ अंशों में रहता ही है, अतः भाषा का परिनिष्ठित रूप प्राप्य आदर्श 
होता है, प्राप्त आदर्श नहीं । हिन्दी के परिनिष्ठित रूप को सभी बोली-क्षेत्रों में आसानी 
से समझा जा सकता है किन्तु एक बोली को दूसरे बोली-क्षत्र में समझने में थोडी- 
: बहुत कठिनाई अवश्य होती है | भारतीय संविधान की धारा 35] में कहा गया है 


... कि हिन्दी अपनी मूल प्रकृति को खोए बिना, आकार-शैली-अभिव्यक्ति की दष्ट 





. हिन्दी भाषा-विकास' | 3 


आठवीं अनुसूची में दी गई भाषाओं (मराठी, गुजराती, कन्नड़, मलयाक्रमू, तमित्ठ, 
तेलुगु, उड़िया, बंगला, पंजाबी, कश्मीरी, असमी, उदय, सिन्धी, संस्कृत) से जो कुछ 
भी वांछित, आवश्यक या अनिवाय होगा, गअहण करेगी । 3. विशिष्ट/संकुचित 
रूप--पश्चिमी हिन्दी तथा पूर्वी हिन्दी की आठ बोलियों के सामृहिक नाम को भाषा- 
विज्ञान में हिन्दी! कहा जाता रहा है किन्तु हिन्दी का संकुचिततम रूप है--हिन्दी' 
भाषा की मूलाधार खड़ीबोली का स्वरूप । आज की आधुनिक परिनिष्ठित हिन्दी का 
व्याकरण मुसलमानों द्वारा ग्रहण की गई देशी भाषा (खड़ी बोली) के व्याकरण पर 
आधारित है किन्तु उस का शब्द-भण्डार हिन्दी-प्रदेश की बोलियों तथा देशी-विदेशी' 
भाषाओं के शब्दों से वदधि पा रहा 


आजकल सामान्यतः हिन्दी” शब्द से हिन्दी भाषा का सामान्य रूप ही समझा 
तथा माना जाता है। इस व्याकरण ग्रन्थ में इसी हिन्दी” के व्याकरण पर प्रकाश 
डाला गया है । 


हिन्दी” शब्द के साथ प्राय: दो शब्दों हिन्दुस्ताती/हिन्दुस्थानी और उदू को 
भी विवादास्पद रूप में जोड़ दिया जाता है। हिन्दुस्तान/हिन्दुस्थान---ई के योग से 
बने इस शब्द का पुराना समानार्थी नाम हिन्दवी/हिन्दुई/हिन्दुवी रहा है। तुजुके 
बाबरी में यह शब्द भाषा के अथ में प्राप्त है । तासी के प्रसिद्ध इतिहास “इस्तवार द 
ल लित्र त्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी' में ऐन्दुस्तानी < हिन्दुस्तानी शब्द भाषा के नाम के 
लिए प्रयुक्त हुआ है । 3वीं शती में भारत के फारसी कवि औफी' (!228 ई०) तथा 
अमीर खुसरो ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है। खसरों की खालिकबारी' में 
देशी भाषा के लिए 30 बार 'हिन्दवी' शब्द और 5 बार हिन्दी” शब्द का प्रयोग 
है। परवर्ती काल में 'हिन्दवी” नाम संस्कृत-बाहुल्‍य शब्दोंवाली भाषा के लिए चल 
पड़ा और 'हिन्हुस्तानी नाम अरबी-फारसी बाहुल्‍य शब्दोंवाली भाषा के लिए 


. _8-9वीं शताब्दी में ' हिन्दुस्तानी हिन्दी-उदृ के मध्य की सरल शब्दावलीवाली 


भाषा मानी जाने लगी जिस में संस्कृत के बहु प्रचलित तत्सम और संस्क्ृत, अरबी- 
फारसी के जनसाधारण की बोलचाल में प्रयुक्त तद्भव शब्दों का प्रयोग, होने लगा 
था। गांधी जी आदि मनीषियों ने इसी हिन्दुस्तानी की सिफारिश की थी । 
तुर्की भाषा के शब्द उदू < उद-ए-मुअल्ला ("शाही शिविर[ख़मा) का 
प्रचार-प्रसार मुगलकाल से हुआ । उदद बाजार (>"-फोजी पड़ाव का बाजार) में इस 
शब्द का यह अर्थ उत्तर भारत में अभी भी प्रचलित है। मुगलों के इन पड़ावों के 
सेनिकों और स्थानीय लोगों के पारस्परिक सम्प्रेषण के कारण अरबी-फारसी-तुर्की में 
पंजाबी, बाँगरू, कौरवी, ब्रज का मिश्रण होने के परिणामस्वरूप जिस नयी भाषा/बोली 
. की विकास हुआ उसे लाल किले में 'जबान-ए-उद्द -ए-मुअल्ला! (“-श्रेष्ठ शाही. 
पड़ाव की भाषा) कहा गया । 8वीं सदी के मध्य में 'उदू शब्द भाषा/बोली के लिए 
प्रचार में आ गया था । उन दिनों तक इस भाषा को हिन्दी या रेखतारिख्ता या 





84 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


हिन्दुस्तानी कहा जाता था। 850 ई० के आस-पास यह केवल उद्दू नाम से ही जानी 

जाने लगी । हैदराबाद के आस-पास की यह बोली 'दक्खिनी कही जाती रही' है । 

उत्तर भारत के हिन्दुओं तथा मुसलमानों में बढ़ते हुए राजनैतिक और साम्प्रदायिक 

विरोध के परिणामस्वरूप हिन्दी मुसलमानों से और उद्दू हिन्दुओं से दूर होती चली. 
गई । द 


इस प्रकार बहुत पहले से हिन्दवी के दो मुख्य रूप प्रचलित रहे हैं--. बोली 
रूप जो ब्रज, अवधी आदि का था 2. मिश्रित रूप से जो पूरे हिन्दी प्रदेश में उभरा 
और जिस का आरम्भिक रूप गोरखनाथ, खुसरो और कबीर आदि की वाणी में मिलता 
है । उद भी ऐसी ही एक मिश्रित भाषा थी। 9-20वीं सदी में अरबी-फारसी- 
तुर्की शब्दों के बाहुल्ववाली भाषा को 'उद्द” मात्रा जाने लगा और संस्कृत की ओर 
अधिक झुकाववाली भाषा को हिन्दी स्वीकार किया गया। कलकत्ता के फोर्ट विलियम 
कॉलेज में हिन्दी और उदू के अलग-अलग व्याकरण लिखवा कर डॉ० गिलक्राइस्ट ने 
समान आधारवाली इन दोनों भाषाओं के विवाद की खाई को और चौड़ा कर दिया । 


मूलतः हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उद्द एक ही भाषा के तीन प्रमुख शैली-भेद 
हैं क्योंकि भाषा-भेद के चारों स्तम्भ ( सर्वताम, 2. कारक-चिह न, 3. संख्याएँ, 
4. क्रिया-रूप) इन तीनों में एक ही हैं। व्याकरणिक स्तर पर ये तीनों एक हैं और 
इन तीनों का मूलाधार वह मिश्चित बोली है जो मुख्यतः कौरवी, पंजाबी और 
ब्रज आदि के योग से विकसित हुई । जब खड़ी बोली में बोलचाल के शब्दों (आधार- 
भूत शब्दावली, बहुप्रचलित संस्कृत, अरबी-फारसी-तुर्की शब्द) का ही प्रयोग होता है, 
तब उसे बोलचाल की हिन्दी या हिन्दुस्तानी केहा जाता है। जब इसी भाषा में 
सस्क्ृत के अल्प प्रचलित शब्दों की अधिकता हो जाती है. तब उसे हिन्दी या साहित्यिक 
हिन्दी कह देते हैं और जब इसी भाषा में अरबी-फारसी-तुर्की के अल्फूअचलित शब्दों 
.. की अधिकता हो जाती है तब उसे उर्द कह दिया जाता है । लिपि-भेद या कुछ संज्ञा 
. विशेषण शब्द-भेद से भाषाएँ भिन्‍न नहीं होतीं। सामान्य हिन्दी की इन तीनों शैलियों 





... का एक-एक उदाहरण दुृष्टव्य है--- 


.._ साहित्यिक हिन्दी--विद्युत-शक्ति एक चमत्कारपूर्ण आविष्कार है। स्वर्ग का 


... कल्पवृक्ष व्यक्ति की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने में समर्थ स्वीकार किया गया है । 
... विद्युत-शक्ति भी हमारी अनेकानेक मनोकामनाओं की पूर्ति कर हमारे जीवन में सुख 


.._ एवं आनन्द का संचार करती हैं। अतः विद्युत हमारे लिए स्वर्ग के कल्पवक्ष से 
हा किसी प्रकार भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं कही' जा सकती क्योंकि विद्युत-शक्ति के तो हम' 
.. अत्यक्ष दशन भी कर लेते हैं किन्तु कल्प-वृक्ष तो कवियों की एक कल्पना मात्र है । 


हिन्दुस्तानी/बोलचाल की हिन्दी--अगर कोई मुझ से पूछे कि मैं तेरे पास 


.. क्यों आई तो मैं क्या जवाब दूंगी ? देख बेटे, मैं तेरे लिए किसी बात में फर्क नहीं 








हिन्दी भाषा-विकास | 5. 


कर पाऊंगी । मैं ने सुना था कि बहू जब से गईं है और ज्यादा ठाठ से रहने लगी है । 
उस की बीमारी तो हमारी ही तकदीर में लिखी थी | अब वह जमाने भर में भाषण 
देती फिरती है कि तू समाज का कलंक है और वह असली औरत की तरह जिन्दा 
रह कर बताएगी कि जिन्दा रहना किसे कहते हैं । 

उछू -“>बंदकिस्मती है कि उद्दू मादरी-जुबान (>मातृभाषा) की तालीम 
(> शिक्षा) व मुर्दारिस ( <- शिक्षक), मुख्तलिफ (--विभिन्‍्न) सतहों पर बेतवज्जही 
का शिकार रही है। इम्तहान और तरीके तालीम' ("-शिक्षा-पद्धति) गर्ज हर सतह 
पर उदू का काम पुराने ढरें पर है। चलता रहा है। मादरी जबान में आम 
दिलचस्पी के लामहदूद (>-असीम) वसायल (5 साधन) होते हैं। इन तमाम 
वसायल को काम में लाना जुरूरी है । 

हिन्दी का महत्त्व---डॉ० सुनीतिकुमार चटर्जी ने हिन्दी को एक महान्‌ सम्पर्क - 
साधक भाषा कहा था। बाबू केशवचन्द्र सेन ने 875 ई० में लिखा था-- हिन्दी 
भाषा प्रायः स्वेत्र -ई प्रचलित ।” बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जी ने 876 में बंगदर्शन' में 
लिखा था--- हिन्दी शिक्षा ना करिले, कोनो क्रमे-ई चलिबे ना ।' 

संसार की भाषाओं में अँगरेजी, चीनी के बाद हिन्दी का (तीसरा) स्थान है। 
दक्षिण भारत के प्राचीन आचार्यो---बल्लभाचायं, विट्ठल, रामानुज, रामानन्द आदि 
ने हिन्दी के माध्यम से अपने सिद्धान्तों तथा मतों का प्रचार किया था। गुजराती तथा 
संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्याथे प्रकाश 'धतथा संस्कार 
विधि” को हिन्दी में प्रस्तुत क्रिया था। अस्तम के शकरदेव, महाराण्ट्र के नामदेव और 
ज्ञानेश्वर, गुजरात के नरसी मेहता, बंगाल के चैतन्य, तमित्ठनाड के महाकवि भारती 
आदि ने अपने धर्म और साहित्य में हिन्दी को भी उचित स्थान दिया था। भारत के 
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से ले कर स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय तक हिन्दी को ही 
स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए लड़नेवाले वीरों, नेताओं ने सम्पक भाषा बनाया था । रेल 
फिल्म तथा टी० वी० एवं तीथ्थ॑स्थलों के कारण हिन्दी किसी-न-किसी रूप में पूरे देश 
में प्रचलित है । 


हिन्दी ने अनेक देशी और विदेशी शब्दों को अपना कर अपने शब्द-भ्ण्डार 

और अभिव्यक्ति-क्षमता को समृद्ध किया है । हिन्दी राष्ट्रभाषा के रूप में अन्तरप्रान्तीय 

व्यापार और सावंजनिक व्यवहार की भाषा बन चकी' है। हिन्दी बहिष्कार की नीति 

को स्वीकार नहीं करती; वह अपने सम्पक में आनेवाली सभी भाषाओं से कछ-त-कछ 
हण करते हुए दिन-प्रतिदिन उन्‍नति की ओर बढ़ रही है । 




















. 
2 
3 
4. 
5 
6 


खण्ड ॥ 
ध्वनि तथा वर्ण-व्यवस्था 
ध्वनि-उच्चारण अवयवब 


स्वर 
»“ व्यंजन 


बलाघात, विव॒ृति तथा अनुतान 


* वर्णमाला 
* बरतनी 


























सु 
$ 
के 

ख्थ 

ऐ 
ल्‍ 

४ 

रु 
+ 
न न 
+ 
न्‍ 
पट 
ड 
$ * 
हु 
् $. डे हि ४ रा 











ध्यनि तथा वर्णं-व्यवस्था 


'भाषा” किसी समाज दूवारा स्वीकृत कुछ भाषा-ध्वनियों/स्वनों के विभिन्‍न 


प्रकार के सार्थक संयो जनों/उच्चा रण-क्रम (शब्दों और वाक्‍्यों) का व्यवस्थित सामूहिक 
रूप है । विभिन्‍न ध्वनियों को कुछ सीमित वर्णों में लिखित रूप में प्रकट करने की 
चेष्टा की जाती है । इस खण्ड में हिन्दी की ध्वनियों और एन को प्रकट करनेवाले 
वर्णों के बारे में चर्चा की जाएगी । 


द सामान्यतः किन्‍्हीं दो पदार्थों के टकराने या रगड़ खाने से जो आवाज्‌ 
निकलती और सुनाई पड़ती है, उसे ध्वनि (50प0) कहा जाता है। व्याकरण में 
भाषा-ध्वनि के बारे में विचार किया जाता है। भाषा-ध्वतनि (मानव-मुख से उच्च- 

_रित बाक्‌-ध्वनि) को व्याकरण में ध्वनि या 'स्वन! (0076) कहा जाता है। बोलते 

. समय मुख से जो आवाज निकलती है, उस की सब से छोटी इकाई ध्वनि” या स्व 

कहलाती है; जैसे--गीता' शब्द कहते समय ग्‌ ईतू आ' चार ध्वनियाँ बोली 

जाती हैं । ;$ 
भाषा को ध्वनियों को लिखित रूप में प्रकट करनेवाले लिपि-चिह॒ न वर्ण 

([.0७०) कहलाते हैं, जेसे--- गीता शब्द की चारों ध्वनियों को चार वर्णों (लिपि 


चिह नों) से प्रकट किया जा सकता है--ग ) ता रोमन लिपि में मात्रा-चिह नों को _ 


मूल स्व॒र वर्णों में ही लिखा जाता है । 


ध्वनियों और बर्णों के सम्बन्ध में यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि किसी' 


भी भाषा की ध्वनियों को किसी भी उपयुक्त लिपि में अंकित किया जा सकता है । 


किसी भी भाषा सें जितनी प्रमुख ध्वनियों (लगभग 50-60) का प्रयोग होता है, ठीक 
उतने ही' वर्ण उस भाषा के लिए प्रयुक्त होनेवाली परम्परागत लिपि/लिप्ियों में नहीं... 
_ हुआ करते । कभी ये वर्ण प्रमुख ध्वनियों से कम होते हैं और कभी-कभी कुछ ध्वनियों 


के लिए अधिक वर्णों का प्रयोग होता है, यथा--अंँगरेजी-रोमन, हिन्दी-देवनागरी' 





.. झदू छू, तमिक्-तमिक्क, मलयात्रमू-मलबाक्रमू भाषाओं ओर उन के लिए प्रयुक्त... 
|... लिपियों के वर्णों और घ्वनियों की संख्या में शत-प्रतिशत साम्य नहीं है। इस प्रकार 


|. वर्णों के आधार पर किसी भाषा की ध्वनियों की संख्या निश्चित तहीं की जाती । 


दि 














20 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


बोलते समय ध्वनियों पर समय की मात्रा, वायु-प्रवाह के आधात/|दबाव और 
_ पास-पास आनेवाली ध्वन्ियों के गुणों या उतर की विशेषताओं का भी प्रभाव पड़ता है 
अतः ध्वनियों की संख्या असंख्य हो सकती है, किन्तू विवरण प्रस्तुत करते समय 
उच्चारण की दृष्टि से अति मिलती-जुलती ध्वनियों के सामूहिक रूपों 'स्वनिसों' को ही 
. सामान्यतः प्रमुखता दी जाती है। सामान्य भाषा में हम स्वन्तिमों को ही ध्वनियाँ कह 
देते हैं । वास्तव में ध्वनियाँ (स्वत), सह-ध्वनिसिंध्वनि/उप-ध्वनि (सह-स्वन|संस्‍्वन/ 
उप-स्वन (&097076) और ध्वनिग्राम (स्वनिम ?070706) भिन्‍न-भिन्‍न होते 
. जेंसे--शहर की किसी गली' के कोने पर शायद आग लग गईं है--वाक्य में 'क 
ध्वनि एक प्रकार की नहीं वरन सक्ष्मत: चार तरह की है । इसी प्रकार ग्‌' ध्वनि भी' 
सूक्ष्मतः चार प्रकार की है। इन चार-चार तरह की कर, गू! संध्वनियों (संस्वनों) 
को हम व्यवहार में केवल एक-एक वर्ण 'क, ग! से प्रकट करते हैं | व्यवहारत: भाषा 
में एक ही प्रकार का स्वन बोला और सुना जाता हैं। मशीन का सूक्ष्म भेद हमारे 
काम नहीं आता । पहचाने हुए वाक्‌-स्वन को दिया गया व्यवस्थित रूप 'संस्वव कहा 
जाता है। सामान्यतः वर्ण-हूप को उच्चरित भाषा में स्वनिम या ध्वनिश्राम कहा जाता 


है । इसी प्रकार 'रमेश, करीम, घर, प्रेम, कर्म, बरं, राष्ट्र” शब्दों में 'र' ध्वनि... 


ए 


सुक्ष्मतः नौ प्रकार की होने पर भी स्थलतः चार प्रकार (र 


.) की है. और मूलतः 
एक ही प्रकार (र) की है । 


.. स्वनिम किसी भाषा का उच्चरित स्वत न होकर स्वनों के प्रयोग की एक. 
. काल्पनिक किन्तु व्यावहारिक उपयोगी व्यवस्था है। प्रत्येक भाषा में स्वनिमों की संख्या 
के (लगभग 50-60) होती है किन्तु उत के भिन्‍्त-भिन्‍्त संयोजनों (-9 अंकों के गठन- 
... संयोजनों की भाँति) से भिन्‍त-भिन्‍न अर्थों के सूचक असंड्य शब्दों की रचना हो सकती 
. है। जिस प्रकार स्थान-भेद से संख्या के अंकों का मूल्य भिन्‍न-भिन्‍त (यथा--, 5, 7, 


..._ 5; 35; 57; 578; 858; 758 आदि) हो जाता है, उसी प्रकार वाक-ध्वनियों या 
स्वनिमों की भिन्‍नता के कारण शब्दों में भी अथ-भेदकता आ जाती. है। अर्थ-भेदक स्वन 


.... को स्वनिम्त कहा जाता है। सारस, सरसा, रास, रस, सार, रसा' शब्दों में 'र, जे, 
... सूं, आ चार स्वतिम हैं। एक ही परिवेश में आ कर अर्थ-भेद करने की क्षमता रखने 

. वाले स्वन स्वनिन्र' कहलाते हैं, यथा--- न्यूनतम शब्द-युग्म 'काली-गाली” में “क 

दो स्वनिम हैं जो एक ही परिवेश (शब्द-आरम्भ) में आ कर अथ॑-भेद उत्पन्त कर. 


"हे! 


५ किसी भाषा की ध्वन्यात्मक दृष्टि से समान वाक्‌-ध्वनियों का ऐसा वर्ग 
... स्वनिम कहलाता है जिस की ध्वततियाँ 








रे या आपक्ष में अव्यतिरेकी (अस्थानापन्‍त या समान... 
.. परिवेश में न आनेवाली ०४ (०॥४०४४४०) होती हैं। किसी स्वनिम के ये... 


. खत उप-स्वन/संस्वन/सह-स्वन कहलाते हैं। ये आपस में अर्थश्रेद उत्पल्त नहीं कर. 








7,६८०» कल जुकाा “मकर शक 


०५ 5 कय ४ ॑ौं्ाणााभांगाणाणाणण ० _> अमल 
कक +20७9७-२३+६---«६ लंड १८-०० 


. ध्वनि तथा वर्ण-व्यवस्था [27 


सकते | संस्वनों को यदि एक-दुसरे से स्थानापन्‍्त कर दिया जाए तो उच्चारण-दोष 
आ जाता है किन्तु अथ॑ में कोई परिवतंन नहीं आता । द द 

. जिस प्रकार लघुतम सार्थक स्वतन्त्र इकाई (शब्द) को विखंडित करने पर रू प्‌ 
((0:9॥) प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार जवुतभ अथंवान्‌ इकाई या रूप को विखंडित 
करने पर तीन प्रकार के घटक/तत्त्व प्राप्त होते हैं--(क) बे तत् 
अलग-अलग किया जा सकता है, खंडीय तत्त्व कहलाते हैं । 
स्वच-स्वर, व्यंजन खंडीय तत्त्व हैं । (ख) वे तत्त्वः जो 
जा सकें, अधिखंडीय तत्त्व कहे जा सकते हैं । हिन्दी भाष 


हिन्दी भाषा के स्वनिम, क्‍ 
अर्पष्टत: अलग-अलग किए 
| के अक्षर, अनुनासिकता 


ऐसे ही' तत्त्व हैं। (ग) वे तत्त्व जिन का पार्थक्य केवल अनुभव किया जा सकता है 
खण्ड्येत्र तत्त्व कहे जाते हैं। हिन्दी भाष/ में प्राप्त दीघंता, बलाघात, सुर, विव॒ति 
ऐसे ही' १०४८8 कर आम द ते 


त्व/बटक जिन्हें स्पष्टत: 





3 


ध्वनि-उच्चारण अवयब 


भाषा या मौखिक भावाभिव्यक्ति का साधन ध्वनि-उच्चारण अवयव” या 
वागिन्द्रिय है। ध्वनि-उच्चारण अवयवों के परिचय से उच्चारण सम्बन्धी भुलों के 
सुधार में सहायता मिलती है। हमारी जीभ मुख-विवर में विविध प्रकार के प्रयत्नों 
द्वारा विविध स्थानों से विभिन्‍न ध्वनियों का उच्चारण करती है । ओठ तथा कौवा/ 
अलिजिह वा आदि भी उच्चारण में सहायता करते हैं। विभिन्‍न ध्वनियों के उच्चारण 
में सहयोग देनेवाले अवयवों को ध्वनि-उच्चारण अवयब या वामिन्द्रियाँ (0784॥5 
| 506००४/५०८६ 078%॥5) कहा जाता है । 

ध्वनि-उच्चारण अवयवों को गति/चलन के आधार पर दो वर्गों में बाँटा जाता 
है---. अचल अवयव, 2. चल/प्तचल अवथव । क्‍ 
() अचल अवयवों को ध्वनि-उच्चारण या. उच्चारण बिन्दु (04००/२०ंता _. 

० #ा४ं०पांधा07) भी कहते हैं । अचल अवयवों में ऊपर के जबडे से जे इन अंगों. 
गे गणना की जाती है--. ओठ 2. दाँत 3. मसूड़ा 4, कठोर तालु 5, मूर्धा 
6. कोमल तालु 7. नासिका विवर। हम डट 

(2) चल अवयवों को ध्वनि-उच्चारण करण (सहायक) कहते हैं। चल 


... अवयवों में नीचे के जबड़े से जड़े इन अंगों की गणना की जाती है---. ओठ 2. जीभ 
...._ 3. गलबिल/ग्रसनी-पृष्ठ 4. स्वर-तस्त्री । 


यद्यपि अलिजिहू वा या कौभा (ए५४७) चल अवयव है किन्तु मुख-विवर में 


... ऊपरी जबड़े के साथ जुड़ा होने के कारण इसे उच्चारण -स्थान माना जाता है । बड़े 
.. दर्पण के सामने खड़े हो कर आप अपने कई उच्चारण-अवथवों को उच्चारण-कार्य करते 


हुए स्वयं देखें तो ध्वनियों के सम्बन्ध में बहुत-कुछ जानकारी' प्राप्त हो सकती है । यहाँ 


.... विभिन्‍त उच्चारण-अवयवों का सामान्य परिचय ही दिया जा रहा है-- . 


4. ओढठ<ओष्ठ--'ई इ ए ऐ अआ औ ओ उ ऊ के क्रमश: उच्चारण के 


|... समय जओठ विस्तृत से गोलाकार होते जाते हैं। ऊपर का ओठ उच्चारण-स्थान का 
...... ओर नीचे का ओठ उच्चारण-करण का कार्य करता है। पफब भम महः के उच्चा- । 
..._ रण के समय दोनों ओठ एक क्षण के लिए मिल जाते हैं। 'ए व (स्वाद, क्वारा) के. 


















पे ध्वनि-उच्चारण अंबयव | 23 
सर्मय दोनों ओठ ऊ से भी अधिक गोलाकार स्थिति में होते हैं। क ५. 
' के समय नीचे का ओठ ऊपर के दाँतों के समीप पहुँच जाता है । 

क्‍ »दाते<-दनन्‍त--जीभ की तोक को ऊपर के दाँतों से छला कर 'त थ दध 
का उच्चारण किया जाता है । 


3. भसुड़ा/वित्सें--जीभ की नोक, जीभ-फलक ऊपर के मसड़े के पास पहुंच 
कर या उसे छ कर “7 70 न नह सज्‌ के उच्चारण में सहयोग देते हैं। 'र रह लल्ह 
के उच्चारण में भी वत्स उच्चारण-स्थान का काम करता है । 


4. कठोर तालु--मसूड़ों से गले की ओर के कड़े खुरदुरे भाग की ओर जीभ 
का अग्न भाग उठ कर 'चछजझज्ाशय '<र्टाके उच्चारण में सहयोग देता है। 'ट - 
ठड ढ ण' के उच्चारण में जिह्‌ वाफलक कठोर ताल को छता है । 

5. मूर्धा--कठोर तालु और कोमल तालु के मिलन के सब से ऊँचे, फैले भाग 
की ओर जीभ की नोक मुड़ कर 'ड़ ढ़” के उच्चारण में सहयोग देती है । 

संस्कृत भाषा में ट 5 ड ढ ण ष' को मूर्धेन्य ध्वनियाँ कहा गया है । सम्भव 
है सहस्नों वर्ष पूर्व ये ध्वनियाँ मूर्धा से उच्चरित होती' हों । 

6. कोमल तालु--कठोर तालु और अलिजिह वा के मध्य का यह कोमल 
|गकखग घ ड़ ध्वनियों का उच्चारण-स्थान है जहाँ जीभ के पीछे का भाग _ 
- स्पर्श करता है । कोमल तालु कठोर तालु की भाँति पूर्ण स्थिर नहीं रहता । द 
7. अलिजिह बा।कौआ--कोमल तालु का अन्तिम लटका हुआ भाग अलि- 
 जिह वा या कौआ कहलाता है। कोमल तालु के साथ नोचे झुक कर जब यह केवल 


. नासिका-विवर से हवा को निकलने देता है तब तासिक्य ध्वनियों का उच्चारण होता... 


. है। कोमल तालु के साथ जुड़े हुए जब यह सामान्य/उदासीन स्थिति में लटका रहता 
_ है, तब स्व॒रों का अनुनासिक उच्चारण होता हैं। जब यह तन कर नासिका विवर 
मार्ग को बन्द कर देता है, तब सामान्य स्वरों और अनुनासिक व्यंजन ध्वनियों का 

उच्चारण होता है। द 

नासिका-विवर---बाहर से दो दिखाई देनेवाले नासिका छिद्र कोमल तालु. 

- के ऊपर एक विवर (09५09) बनाते हैं तथा अलिजिह वा की सहायता से नासिक्य 
व्यंजनों और अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में सहयोग: देते हैं। 


..... 9. जीभ< जिह बा--एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर सब से अधिक आसानी क्‍ 
से मुड़ने, जानेवाला' उच्चारण-अवयव जीभ है। उच्चारण में इस के सहयोग के 
आधार पर सुविधा (विवरण-प्रस्तुति) की' दृष्टि से जीभ को पाँच भागों में बाँट कर 


विवरण प्रस्तुत किया जाता है--(क) जिह,वा नोक, (ख) जिहू वाग्र,ग) जिह वान्मध्य,..." 


(घ) जिह वा-पश्च, (डः) जिह वा-मूल । 







































| हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(क) जिहू बा-मोक-- जीभ का सब से गतिशील भाग है जो स्वरों के उच्चारण 
के समय निष्क्रिय रहता है। अपर के दाँतों से स्पर्श कर यह भाग तिथदध का 
उच्चारण करता है। वरत्सं का स्पर्श कर न नह 7 32' का; वर्त्से के समीप पहुँच 

कर एकाधिक बार कंपित हो कर 'र रह का; वर्त्से के मध्य को छ कर 'ल ल्‍ह॒ का 
उच्चारण करता है । क्‍ फ 

(ख) जिह वाग्र--जिह वा-नोक के पीछे का कुछ भाग जिह वाग्न या जिह वा- 
फलक कहा जाता है जो सामान्यतः वर्त्त के विपरीत रहता है। ईइ एऐस ज'” के 
उच्चारण में यह भाग सहयोग देता है । 

(ग) जिह वा-मध्य---कठोर तालु के विपरीत रहनेवाला जीभ का यह भाग 
टठडढण, चछजझज्यशय के उच्चारण में सहयोग देता है। अ' के 

: उच्चारण में यह थोड़ा ऊपर की ओर उठता है । 


(घ) जिहू वा-पश्च--कोमल तालु के विपरीत का यह भाग आ औ ओ उ ऊ 
उच्चारण में; कोमल तालु का स्पर्श कर “क स॒ ग॒ घ ड के उच्चारण में; अलिजिह वा 
के समीप पहुँच कर 'क्‌ खू ग॒ के उच्चारण में सहयोग देता हैं । का 

(ढ) जि हवा-मूल--प्रसनी (अन्त नलिका शशक्षाण्रर) के समीप पहुँच करजीभ 
का सब से पिछला भाग अरबी की कुछ ध्वनियों के उच्चारण में सहयोग देता है। । 

क्‍ . 40. भ्रसनी-पृष्ठ--पूरा मुह खोल कर बड़े दर्पण में अलिजिह वा के नीचे, 
. जिह्‌ वा-मूल के पीछे अन्त नलिका का कुछ अंश दिखाई दे सकता है । इस भाग में बाहर 
. निकलती हुईं हवा में हुए विभिन्‍नविकार स्वरों के गुणों में परिवर्तन उत्पन्न करते हैं । 
... ॥, स्व॒र-तन्त्री--कमजोर तथा बूढ़े लोगों के गले में स्वर-यस्त्र ( /स्वर- 
..... लन्‍्त्री-पेटिका) उभरी हुई एक गाँठ-जैसा दिखाई देता है। इस स्वर-यन्त्र में अत्यन्त 
..... कोमल, महीन दो स्वर-तन्त्रियाँ (४०८४ ००7०8) होती हैं। फेफड़ों से आती हुईं 
...... हवा इन स्वर-तन्त्रियों के मध्य से हो कर निकलती है जिस के कारण स्वर-तन्त्रियों के 
..._. कम्पन तथा विस्तार की' चार अवस्थाएं हो जाती हैं-- 
.। (क) स्वर-तन्त्रियों की दोनों झिल्लियाँ पृथक्‌-पृथक्‌ निस्‍्पन्द रहती हैं । हवा 
.... - उन के बीच से हो कर बड़ी सरलता से मुख-विवर की ओर निकल' जाती है। इस 
.... अवस्थामें कक्ख खचछटठ तथ पफशपष स” जैसी अघोष ध्वनियों का 
...... उच्चारण होता है क्योंकि स्वर-तन्त्रियों में न के बराबर कम्पन होता है । 
पा, हम (ख) स्वर-तन्त्रियों की दोनों झिल्लियों के अत्यधिक निकट आने के का रण छोटे- 
। मे से रन्ध्र में से हवा इन को झंकुत करते हुए निकलती है।जिस से 'ग. ग घड ज ज॑ झज्यड 
... ढणड़ढ्दधननन्‍ह,बभमम्हयररहलल्हबव्हह अभाइईजकएऐओ 


रा डा जे ष ध्वनियों का उच्चारण होता है क्योंकि स्वर-सनि न्त्रयों में अधिक कम्पन रा - क्‍ 














हिन्दी-उच्चारण अवयब | 25 


(ग) स्वर-तन्त्रियों की दोनों झिल्लियाँ लगभग 3/4 भाग में एक-दूसरी से 
सटी रहती हैं और लगभग /4 भाग में खुली रहती हैं। इस स्थिति में रगड़ खाते . 


- हुए हवा के निकलने से फुसफुसाहटबाली (ज्ञाप्रंइ००) जपित (]४प्राण्राप्रा) ध्वनियों 


का उच्चारण होता है । 

(घ) स्वर-तन्त्रियों की दोनों झिल्लियाँ एक क्षण के लिए एक-दूसरी से 
अत्यधिक सट जाती हैं । हवा एकदम एक क्षण के लिए रुक कर वेग से इन्हें अलग 
करते हुए निकलती है । इस अवस्था में काकल्य स्पर्श ध्वनि (एक प्रकार की हलकी 


खाँसी के समाव) का उच्चारण होता है। ब्रज क्षेत्र की प्राइमरी पाठ्शालाओं की 
आरम्भिक कक्षा के बच्चे अ आ इ ई उ ऊ स्वर बोलते समय “अ, इ, उ! के बाद इस. 
प्रकार की ध्वनि का प्राय: उच्चारण करते हैं । ० 





० . महू लू ड़ ढ़ व। । 


4 
स्व्र 


उच्चारण प्रक्रिया के आधार पर हिन्दी की ध्वनियों को मुख्यतः दो वर्गों में 
विभाजित किया जाता है--. स्वर 2. व्यंजन । 


स्वर--वे ध्वनियाँ हैं जिन के उच्चारण के समय मुख के अन्दर जीभ, दाँतों 
आदि में कोई स्पर्श तथा अवरोध नहीं होता । किसी भी स्वर ध्वनि का उच्चारण बिना 
किसी अन्य स्वर या व्यंजन ध्वनि की सहायता से किया जा सकता है 


हिन्दी में मुख्यतः इन स्वर ध्वनियों का प्रयोग प्राप्त है--भ आइई उ ऊ 

एऐओ ओऔ 

7 के अतिरिक्‍्तगौणत:ः इन स्वर ध्वनियों का उच्चारण भी मिलता है--एँ ऐ' 
आओऔ। 
व्यंजन-- वे ध्वनियाँ हैं जिन के उच्चारण के समय मुख के. अन्दर जीभ, दाँतों 

आदि में कोई स्पश, संघष॑ या अवरोध अवश्य होता है। किसी -भी अकेली व्यंजन 
ध्वनि का उच्चारण बिना किसी स्वर की सहायता से नहीं किया जा सकता, यथा-- 
क्‌ खू गृ आदि। 


हिन्दी में मुख्यतः इन व्यंजन ध्वनियों का प्रयोग प्राप्त है--क ख ग घृडः 


यू के 


 चुछूजू न्ृज ट्दइढद्गृत॒थद धनपफ बुभूम्‌ य्ूरलूवृशस्‌ ह नह 


च्च ्च ्ध .। ५५, +५ 


इन के अतिरिक्त गौणत: इन व्यंजन ध्वनियों का उच्चारण' भी मिलता है 


+ का खे गज फ।: 


(भाषाविज्ञान का सामान्य ज्ञान न रख नेवाले हिन्दी तथा हिन्दी-इतर 


.. क्षेत्रों के हिन्दी-अध्यापकों और छा में हिन्दी-ध्वनियों के बारे में एक भारो.. 
.. भ्रम घर किए हुए है। वे हिन्दी की ध्वनि-व्यवस्था को संस्कृत की ध्वनि-व्यवस्था के 
..._. रुप में ही देखने, मानने की भल करते हैं। आधुनिक हिन्दी में 'ऑ * के सूगूजफड 
... ढ़ नह मह लह! ध्वनियों का काफी प्रयोग होता है।। इन ध्वनियों का संस्कृत में अभाव 
2 ै। हिन्दी-में प्राप्त पल स्वर 'ऐ औ' का संस्कृत में अभाव है। इन के स्थान पर 
....._ संस्कृत में संयुक्त स्वर ऐ, औ|अई, अऊ' हैं। हिन्दी के बहुत कम शब्दों में इन 





स्वर | 27 





। बैदिक संस्कृत में अइ अछ आइ आउ (ए ओो ऐ औ) 
चार संयुक्त स्वर थे । लोकिक संस्कृत में ए ओ घूल स्वर और 'अइ अछ (ऐ और) 
स्वर रह गए। हिन्दी में आते-आते ये चारों ही मूल स्वर हो गए। इसी प्रकार 'ऋ 
पक्षज्ञ के संस्कृत-उच्चारण और हिन्दी-उच्चारण में भिन्‍नतता है । अन्य कई ध्वनियों 
के संस्कृत उच्चारण-स्थान और हिन्दी-उच्चारण स्थान तथा उच्चारण-प्रयत्न में अन्तर 
आ गया है। द द 
जिस प्रकार संस्कृत भाषा को रूप-व्यवस्था (राम: रामौ रामा:; अहम आवाम ' 
वयम्‌; गच्छति गरुछत: गचछन्ति) और वाक्य-व्यवस्था (त्वं कुत्र गमिष्यसि ?) हिन्दी 
की रूप-व्यवस्था (राम दो राम कई राम, मैं हम दो हम/हम सब; जाता/जाती है (वे 
दो) जाते/जाती हैं (वे) जाते/जाती हैं) तथा वाक्य-व्यवस्था (तू कहाँ जाएगा ?) से 
भिन्‍न है, उसी प्रकार संस्कृत भाषा की ध्वनि-व्यवस्था और हिन्दी की ध्वनि-व्यवस्था 
में भिन्‍तता है । भिन्‍तता की यह मात्रा भी भिन्‍न-भिन्‍न है ।) 
द स्वर-प्रकार--हिन्दी में उच्चरित स्वर दो प्रकार के हैं--!, मूल स्वर 
2, संयुक्त स्व॒र । 
| [. मूल स्वर वे स्त्रर हैं जिन के उच्चारण के समय जीभ उठी हुई स्थिति पर 


| संयुक्त स्वरों का प्रयोग होता + 





. रहती है। मूल स्व॒र के उच्चारण के समय जबड़ा एक स्थिति में ही रहता है। मूल 


स्व॒रों को एकल स्वर भी कह सकते हैं । 
। हिन्दी के मूल स्वर हैं--अ आ इ ई उ ऊ ए५ऐ ओ औ । 
| 2. संयुक्त स्वर वे स्वर हैं जिन के उच्चारण के समय जीभ एक मूल स्वर की... 
.. स्थिति से होती हुई मूल स्वर के उच्चारण की' स्थिति तक पहुंचती है। संयुक्तस्वर के ._ 


... उच्चारण के समय जबड़ा एक स्थिति से दुसरी स्थिति में पहुँच कर स्थिर होता है। 
संयुक्त स्वर को सन्छ्यक्षर भी कहा जाता है। संयुक्त स्वर का उच्चारण भी मूल स्वर... 


| मिलता है । ये अँगरेजी से आगत कुछ शब्दों में 





की भाँति साँस के एक ही झटके में होता है दो श्वासाधात में नहीं । सी 
ह्स्दो के समुक्त हक हैं-->भइ->भई“-भए (यथा -« सुरहया->सु रईया“« कर । 


. सुरऐया। लिखित रूप सुरैया)। अउन्‍->अऊ->भ्रओआँ (यथा-पड्मा->पकऊआ..'€ 
. >परआँगा। लिखित रूप पौआ)। संयुक्त ख्वरों के ये क्षेत्रीय (मेरठ- आगरा- 
. इलाहाबाद) उच्चारण-भेद हैं। भाई, आए संयुक्त स्वरों का क्षेत्रीय प्रयोग भी. 


परिनिष्ठित हिन्दी में संयुक्त स्वर अई 'ऐम का उच्चारण क्षेत्रीय गैय भि भ्ि 








आधार पर भिन्न-भिन्न है। इस का उच्चारण कुछ यान्‍्त शब्दों में ही प्राप्त है, यथा--- ० 









० दे : सुरैया, ततैया, ढैया, रवैया, गवेया, भैया, मैया, गैया, बलैया, नैया आदि | इन में से... 





28 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण... 


; कई शब्द बोलियों में प्रयुक्त हैं, परिनिष्ठित हिन्दी' में उन के स्थान पर भाई, माँ, गाय 
. त्ाव' का प्रचलन अधिक है | संयुक्त स्वर अऊ औ' का उच्चारण केवल 4-5 आन्त/ 


वान्त शब्दों में ही प्राप्त है, यथा--कौआ|कौवा, पौआ/पौवा, होआ/होवा, उठोआ 
.. उठौवा, कनकौआ|कनकौवा, नौआ|नौवा । आजकल इन' का उच्चारण मूल स्वरों की 
भाँति होने लगा है, बोलियों में 'औ” का संयुक्त स्वरत्व प्रचलित है । 
. दक्षिण भारत में प्रादेशिक भाषाओं के प्रभाव से संयुक्त स्व॒रों का उच्चारण 
[सुरथ्या, कव्वा ] जैसा किया जाता है, जो हिन्दी क्षे त्रीय उच्चारण से काफी भिन्‍न है । 
.... ऐतिहासिकदृष्टि से ए ऐ ओ औ' का विवरण इस प्रकार का मिलता है--- 
. वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत, पालि-प्राकृत-अपश्रंश, प्राचीन हिन्दी में क्रमश: संयुक्त स्वर 
_(अइ), मूल स्वर, मूल स्वर, मूल स्वर था| 'ऐ संयुक्त स्वर (आइ). संयुकत' स्वर 


_(अइ), अप्राप्त, संयुक्त स्व॒र (अएँ) था। ओ' संयुक्त स्वर (अ3), मूल स्वर, मूल 
... स्वर मूल स्वर था। ओऔ” संयुक्त स्वर (आउ), संयुक्त स्वर (अउ) अप्राप्त, संयुक्त 
स्वर (अऑ) था । आधुनिक हिन्दी में ये चारों मूल स्वर हो चके हैं। 

क्‍ स्‍्वरों के उच्चारण में जीभ, मुख विवर, नासिका बिवर, अलिजिह वा, ओठ क्‍ 


मुख्य भूमिका निभाते हैं। इन उच्चारण-अवयवों के आधार पर हिन्दी स्व॒रों का 
विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है-- 


). जिह वा के अग्न, मध्य, पश्च भाग की स्थिति/सक्रियता के आधार पर स्वरों 
. के तीन प्रकार हैं--(क) अग्न स्वर--जिस स्वर के उच्चारण में जीभ कुछ आगे को 
_ सरक आती है। इस समय जीभ का अगला भाग थोड़ा-सा उठता है, यथा--ई इ ए 

.. ऐ। (ख) सध्य स्वर--जिस स्वर के उच्चारण में जीभ न आगे सरकती है और न 


.... पीछे हटती है। इस समय जीभ का मध्य भाग थोड़ा-सा उठता है, यथा--अ । 
.....__ [ग) पश्च स्वर--जिस स्वर के उच्चारण में जीभ कुछ पीछे सरक जाती है। इस 
2 ले समय जीभ का पिछला भाग थोड़ा-सा उठता है, यथा--ऊ उ ओ औ (ऑ) आ । 





का  « -उच्चरित नहीं 


सभी अग्न और पश्च स्वर जिह वा के समान (एक ही) अग्न और पश्च बिन्दु से क्‍ 
महीं होते, उच्चारण-बिन्दुओं में थोड़ा-थोड़ा अन्तर होता है । 
2. जिह वा-उत्थापन/सुख-विवर के खुलने की मात्रा के आधार पर स्वरों के 





क्‍ के हा चार प्रकार हैं--(क) संबुत स्वर--जिन स्वरों के उच्चारण में मुह बहुत कम खुलता 
._.. : है, यथा--ई ऊ इ उ । इन के उच्चारण में जीभ, नीचे का जबड़ा काफी ऊपर की 
...... ओर जाते हैं. इसलिए इन्हें उच्च स्वर भी कहते हैं। (ख्र) विवत स्वर--जिन स्वरों 










ग के के उच्चारण में मु हू बहुत अधिक खुलता है, यथा--आ | इन के उच्चारण में जीभ 
नीचे का जबड़ा काफी नीचे की ओर जाते हैं, इसलिए इल्हें निम्न स्वर भी कहते हैं। 
स्व र-- जिन- स्वरों के उच्चारण में मुह कम खुलता है, यथा--ए 


रहता है, इसलिए इन्हें निम्न-उच्च स्वर भी कहते हैं । 
रा . सभी संबृत, अध्धे रांबृत, अधे विवुत और विवृत स्वरों के उच्चारण में 
पु संवृतता/विवृतता की मात्रा में थोड़ा-थोड़ा अन्तर होता है। स्वरों की उच्चता-निम्नता 


।( का स्वरूप इस सरकार का माना जा सकता है--निम्त (आ), निम्ग-उच्च (ऐ, औ, 
.. आ) उच्च-निम्न ( ओ) उच्च [ उऊ)। 


(क) ह रस्व स्वर---जिस स्वर का उच्चारण बहुत कम समय तक ही किया जा सकता है 
यथा--अ इ उ'। (ख) दीर्घ स्वर--जिस स्वर का उच्चारण कुछ देर तक किया जा 


सकता है, यथा--आ ई ऊ ए ऐ ओ औ। (ग) प्लुत स्वर--जिस (दीघं) स्वर का 




















हैं। किसी दूरवर्ती व्यक्ति को पुकारते के लिए अधिक देर तक उच्चरित दी स्वरों 
का प्लुत उच रण स| ला जा सकता है, यथा--ओ' '' ऐ |. 
लगभग ।950 ई० तक प्लुत स्वर को “३” लगा कर लिया जाता रहा है--- 
 यधा--भोरेम्‌ । सभी दीघ स्वरों को दीर्घता की मात्रा में थोड़ा-थोड़ा अन्तर होता है। 
4. ओठों की स्थिति/गीलाकारिता के आधार पर स्वरों के तीन प्रकार हैं-- 
|... (क) बतु लित|वृस्तमुखी स्व॒र--जिस स्वर के उच्चारण के समय ओठों में गोलाई 
आ जाती है, सधा--ऊ उ ओ औ आ | इन्हें ओष्ट्यरंजित स्वर भी कहा जाता है । 


और 


क्‍ प्रसरित/विर तृ भी 


| समय ओछठों की योलाई, एन के फैलाव में थोड़ा-थोड़ा अन्तर रहता है । 








है! .. दो प्रकार हैं-+- (कं मौखिक स्वर 
|. मांग से ही हुवा बाहुर निकलती है 


है, यधा---अ, आ भादि मूल स्वर और बह 
_ ब्ादि संयुक्त स्वर । इन्हें अनर 
हो उच्चारण के समय मुख मार्ग तथा नासिका विवर दो 


| स्वरय-जिस स्थर के 
रा साथ-साथ हवा बाहुर निकलती ँ है ऐसा स्वर-उच्चारंण के समय 
आओ नीचे की ओर लटक जाने के कारण 














स्वर | 29... 
ओ । इन के उच्चारण में जबड़ा उच्च से कुछ नीचा रहता है, अतः इन्हें उच्च-निम्त- 


|... स्व॒र भी कहते है (घ) अरधे-विवृत स्वर-- जिन स्वरों के उच्चारण में मुह अधिक _ 
क.... खूलता हैं, यथ >ऐ अ औ । इन.के उच्चारण में नीचे का जबड़ा निम्न से कुछ ऊँचा 
। 


3. उच्चारण-समय की मात्रा के आधार पर स्वरों के तीन प्रकार हैं-- 


उच्चारण बहुत देश तबा किया जा सकता हे । सभी दीं स्वर प्लुत स्वर बन सकते 


क्‍ ( श्र ) अबतु लित/अवुत्तसु वी स्वर «जिस स्वर के उच्चारण के समय ओठ फैल जाते । क्‍ हु - ५ 
|. हैं, यथा--ई ४ ए ऐ। (ग) उदासोन स्वर--जिस स्वर के उच्चारण के समय ओठ... 


बृल्तमुखी को गोलीकृत|गोलिकवर्तु ल|गोलाकार भी कहते हैं। अवृत्तमुखी को... 
कहते हैं। सभी बृत्तमुखी भौर अवृत्तमुखी स्वरों के उच्चारण के | धजपा 


5, अलि जिह बा तथा नासिका विवर की सक्रियता के आधार पर स्वरों के... 

जिस स्व॒र के उच्चारण के समय केवल मुख 
हि पा 
सिक|निरनुनासिक स्वर भी कहते हैं। (व) अनुतनासिक.... 













। मात्रा कम होती है, यथा एज इछ। 2, बहू ( 
.. मांसपेशियों में कस्ताव-मात्रा अधिक होती 
.. ्वरों की शिथिलता तथा दृढ़ता की मात्रा 


..._ स्वर-संयोष (४० इव्युघ४००) 


० 5० जब किसी शब्द में एक के. 
..... का स्पष्णौछच्वारण होंता 





30 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


है। अआइईउऊ एऐओ औ स्व॒रों का अनुनासिक रूप हिन्दी में बहुतायत 
से प्रयुक्त होता है। दीर्घ स्वरों में अनुनासिकता जितनी अधिक स्पष्ट सुनाई पड़ती' 
. है, उतनी ह्‌ रस्व स्वरों 'अ इ उ' के साथ नहीं। कभी-कभी “अ' के साथ की अनु- 
.. नासिकता बिलकुल अस्पष्ट रहती है, यथा--बँटना, बँटवारा , जँचना, कंपकपी । 

द सभी अनुनासिक स्वरों के उच्चारण के समय अनुनासिकता की मात्रा में थोड़ा- 
. थोड़ा अन्तर रहता है। पश्चिमी हिन्दी क्षेत्र में 'एँ--ए”, 'ओं---.औ के उच्चारण में 


अभेद है। सामान्यतः लोग 'में' को 'मैं” और 'क्यों' को 'क्यों' जैसा बोलते हैं। अनु- 


-- - मासिक स्वरों के उच्चारण के समय साँस के पूरे झटके के अन्त तक मुख-विवर ख ला 


रखा जाता है, अन्यथा: अनुनासिकता के स्थान पर नासिक्य ध्वनि का उच्चारण हो 


.. जाता है। 


._ 0. स्वर-तन्त्रियों की कम्पन-म्रात्रा के आधार पर स्वरों के दो प्रकार हैं--- 
._4. सामान्य|धोष स्वर --जिस स्वर के उच्चारण के समय स्वर-तन्त्रियों में पर्याप्त 
.. कम्पन होता है और उच्चारण में एक गूज-सी सुनाई देती है। सभी मौखिक 
तथा अनुनासिक स्वर घोष ही होते हैं। 2. अघोष/जिपित स्व॒र--जिस स्वर के 
उच्चारण के समर स्वर-तरि 

_ फुसाहट्युत सुनाई देता है। बीमारी या 

. उच्चारण; किसी के कान में बहुत धीरे- 
हो जाते हैं। लेखन में अधोष स्वर का 
. जाता है, यथा--इ उ॒ ए 
मल 


धीरे धीमी आवाज में बोलने पर स्वर अधोष 
अकन करने के लिए अधोशूुन्य का प्रयोग किया 
आदि। सभी घोष स्तरों के उच्चारण के समय घोषत्व की 


... मात्रा में थोड़ा-थोड़ा अन्तर होता है। 
.. _. 7. मांसपेशियों को कसाव-मात्रा के आधार 


र पर स्तर ध्वनियाँ दो प्रकार की 
.._ होती हैं--. शिथिल ([.०78) स्वरों के उच्चारण के समय मांसपेशियों में कस्ताव- 
7078) स्व॒रों के उच्चारण के समय 
है, यथा--ऊ औ ओ आओ ऐएआ। सभी 
की में थोड़ा-थोड़ा अन्तर होता है। 
. *: उच्चारण-अनुक्रम के आधार पर हिन्दी में दो प्रकार का स्व॒रानुक्/ 
आप्त है--. द्विस्वरानुकम 2, त्रिस्व॒रानक्रस । 
_. प्‌ इसरे या तीसरे) मूल स्वर/संग्रुक्तः स्वर 
है तो उसे स्वरानुक्रम या स्वर-संयोग कहा जाता है । हिन्दी 
5 के अमुत्त स्व॒रानुक्रम ये हैं मम 
' है) 2. अक (शकर, गड, मऊ 



























त्रयों में बहुत कम कम्पन होता है. और उच वारण-फुस- . 
भूख आदि से बहुत कमजोर हुए व्यक्ति का 


5. आई विवाह 0 गज मऊ) 3. बए (गए, भए. 
'(ाजट, आस की! गैमाइश) 6. आई (काई, नाई, भाई, ... 
(आउट, बांस) 8. भराज (ताऊ, खाऊ, पड़ाऊ) 9. आए (खाए, 


' 

। 

# 
! 

! 
| 

| 

हि! 

) 

मर | 





पक हे .. होती हैं--. शिथिल ([०॥8) स्वरों के 
मात्रा कम होती है, यथा-अ इ उ च्ु 


| : खरों की शिबिलता तथा दृढ़ता की मात्रा में 


.. च्वर-संयोग ((०पर 8०१७७॥०७) 
. बैंब किसी शब्द में एक के पश्चात्‌ दुसरे | 

5-5 पवार होता है तो उसे वरानुक्षम या स्व 
5५०० में भाप्त दोनों प्रकार के प्रमुख “न णुक्रम ये हैं 
० 5. 0. 4, अई (रत, यह कई) 2. अऊ 






30 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


है। अभाइईउ ऊएऐजल औ स्वरों का अनुनासिक रूप हिन्दी में बहुतायत 
... से अगुक्त होता है। दी स्वरों में अनुनासिकता ' जितनी अधिक स्पष्ट सुनाई पड़ती 
.. है, उतनी ह्‌ रस्व स्वरों 'अ इ उ! के साथ नहीं। कभी-कभी 'अ' के साथ की' अनु- 

. नासिकता बिलकल अस्पष्ट रहती है, यथा--बँटना, बँटवारा, जँचना, कपकॉंपी । 

.. सभी अनुनासिक स्वरों के उच्चारण के समय अनुनासिकता की मात्रा में थोडा- 
थोड़ा अन्तर रहता है। पश्चिमी हिन्दी क्षेत्र में एं--एऐं', 'ओं--औं” के उच्चारण में 
: अभेद है। सामान्यतः लोग 'में” को "मैं? और क्यों” को क्यों जैसा बोलते हैं। अनु-' 
नासिक र्वरों के उच्चारण के समय साँस के पूरे झटके के अन्त तक मुख-विवर ख ला 
.._ रखा जाता है, अन्यथा अनुनासिकता के स्थान पर नासिक्य धव्ति का उच्चारण हो 

ही जाता है | | गा ह । 
6. स्वर-तन्त्रियों को कम्पन-मात्रा के आधार पर स्वरों के दो प्रकार हैं-- 
[. सासान्य|घोथ स्वर --जिस स्वर के उच्चारण के समय' स्वर-तन्त्रियों में पर्याप्त 
_ कम्पन होता है और उच्चारण में एक गृज-सी सुनाई देती है। सभी मौखिक 
. ता अनुनासिक स्वर घोष ही होते हैं। 2. अघोष/जिपित स्वर--जिस स्वर के. 
उच्चारण के समय स्वर-तन्त्रियों में बहुत कम कम्पन होता है और उठ नारण-फुस- 


. साहट्युत सुनाई देता है। बीमारी या भूख आदि से बहुत कमजोर हुए व्यक्ति का 
उच्चारण; किसी के कान में 


हो जाते हैं । लेखन में अधोष 


तह स्वर का अंकन करने के लिए अधोशुन्य का प्रयोग किया 
_ जाता है, यथा--इ उ ए 
| ० बे ज0० ० 6०6 6 


आदि। सभी घोष स्तरों के उच्चारण के समय घोषत्व की 

.. भात्रा में थोड़ा-थोड़ा अन्तर होता है कक ही 

.._.. __?. मांसपेशियों की कसाव-मात्रा के आधार पर स्वर ध्रनिर्यां दो प्रकार की 

# उच्चारण के समय मांसपेशियों में कसाव- 

<. ऑसपेशियों के ४ । 2. दृढ़ (0758) स्वरों के उच्चारण के समय 

. लजया में कसाव-मात्रा अधिक होती है, यथा--ऊ औ ओ भा ऐ ए आ। सभी 

900 थोड़ा-थोड़ा अन्तर होता है। क्‍ 

| 5: उच्चारण-अनुक्रम के आधार पर हिन्दी में दो प्रकार का स्वरानुकस/ 
आप्त है--. द्विस्वरानुकम 2. त्रिस्व॒रानक्रस । 

या तीसरे) मूल स्वर/संगुक्त स्वर _ 

र₹-संयोग कहा जाता है । हिन्दी 





बार 8 पा 2 लेक (कर, पर, यह). 3. झए (गए, भए,... 
शाउट, डाउ.  ईश, पैसाइश) 6. आई. (काई, नाई, भाई... 














बहुत धीरे-धीरे धीमी! आवाज में बोलने पर स्वर अधघोष... 








का ्ााणण॑ाण आल 





| क्‍ । क्‍ | | ५५. लडड हि 
आए, लाए) 0. आओ (खाओ, गाओ, जाओ) मत... इंफ 





(चिंउड़ा) 2, इऊँ (जिऊँ, 
पिऊँंगा) 3. इए (चलिए, कहिए, सुनिए) 4. ईआँ (मनीऑडेर) 5. उअ (मुअ- 
त्तल, सुअवसर, दुअन्नी) 6. उआ (जुआ, हुआ, हलुआ) 7. उद (घुइयाँ) ।8. उई 


_(छुई-मुई, रुई) 9. उए (छए, हुए) 20. उओ (साधुओ, भालुओ) 2, ऊई (सूई) 
... 22. एअ (बेअदब, बेअ कल) 23. एआ (बेआबरू) 24. एइ (बेइज्जुत) 25. एई 
.._ (बेईमान) 26. एऊ (जनेऊ, कलेऊ) 27. एंए (खेए, सेए) 28. एओ (सेओं, खेओ) 


29. ओआ (खोआ, सोआ-पालक) 30. ओइ (रसोइया) 3. ओई (कोई, रसोई, 


_-. लोई) 32. जोऊेँ (रोऊं, सोऊँ) 33. ओए (रोए, धोए) 34. ओओ (धोओ, सोओ).._ 


35. औए (कौए) 36. अऊआ/औओआ (कऊआ/कौआ, पौआ) 37. औओ (कौओ) 
38. आइए (आइए, खाइए, जाइए) 99. उआईइ (मुआइना) 40. उआई (बुआई, गुरु- 
आई) 4. एइए (खेइए, सेइए) 42. ओइए (सोइए, रोइए, धोइए) क्‍ 

इन स्वरानुक्रमों में ऐसे स्वरानुक्रमों को नहीं रखा गया है जिस के उच्चारण में. 
य|व श्रूति (8/06) अनिवायंतः आती है, यथा--इअ (सड़ियल, अड़ियल), अआ 


.. (गया), आआ (खाया, गाया), इआ (बनियान), ईअ (तबीयत), ऐआ' (गवैया), इआ 
(दिया, किया, लिया), इआइ (बनियाइन), आइओ (भाइयो), ओइआ (रसोइया) । 


श्र्‌ति-आगम के कारण वास्तव में ये उदाहरण स्वरानुक्रम की कसौटी पर खरे नहीं 
उतरते। ' 


हिन्दी स्वर-ध्वतनियों का संरचनात्मक विवरण--सामान्यत: सभी स्वर 


मौखिक ओर घोष होते हैं, अत: इन विशेषताओं को विवरण-प्रस्तुति में अन्तरनिहित ० 5५ ; 
मान लिया जाता है। यदि कोई स्वर अनुनासिक या अघोष है तो उस का उल्लेख... 


किया जा सकता है । शिथिल तथा दृढ़ होने का उल्लेख. विशेष महत्त्वपूर्ण व होने के 
कारण छोड़ा जा सकता है। क्‍ क्‍ सर 


ई अग्र संवृत. दीर्घ अथवृत्तमुखी . (ईख, मील, आई) 
हु भ्र)्न संवृत हरस्व अवृत्तमुखी. (इमली, मिल, कि). 
ए अग्र अधं-संवृत *द्वीघ॑ अवृत्तमुखी . (एक, मेल, ने) 
ऐ अग्न अर्ध-विवृतत दीर्घ अवृत्तमुखी.. (ऐनक, मैल, है) 
अ मध्य अधं-विवृत हरस्व अवुत्तमुखी .. (अनार, कमल) 
. आ पश्च विवृत. दीर्घे ईपषत्‌ व॒ृत्तमुखी (आम, माल, चना) 
. औ पश्च अर्ध-विवृत्त दीर्घ॑ वृत्तमुखी (औरत, खोले, नौ)... 
. ओ पश्च' अधंसंवृत दीर्घष  वत्तमुखी' (ओखली, खोल, रो)... 
छः. पश्च संवृत . हरस्व वृत्तमुखी (उपला, खू,ल, भानु).... 
. ऊ पश्च संबुत . - दीर्घ वृत्तमुखी . (ऊन, फूल, ताऊ) 


(ऑ) पश्च (अधे) विवृत दी ईंषत्‌ वृत्तमुखी (ऑफिस, डॉक्टर) 





| हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


... हिन्दी के स्वर स्वतिम--हिन्दी के दस केन्‍्द्रीय/मुख्य स्वर स्वनिम हैं। यहाँ 
.... इन का विवरण वितरण तथा प्रयोग के आधार पर प्रस्तुत किया जा रहा है। स्वर 
स्वनिम-निर्धारण की दृष्टि से हिन्दी के इन दस स्वनिमों के अर्थभेद युक्त न्यूनतम 
(विरोधी) युग्म प्राप्त हैं, वथा--मल-माल-मिल-मील, कुल-कूल, मेल-मैल, लोट-लौट। 


आऑ--अंगरेजी भाषा के प्रभाव से आगत गौण/अकेन्द्रीय स्वर स्वनिम है जो 
केवल सुशिक्षित लोगों के उच्चारण में प्राप्त है। जन सामान्य इसे आ' या औ' से 
स्थानापन्‍न कर देते हैं, यथा--बाल---बाल ( >-गेंद)/बौल; काफी--कॉफी/कौफी-- 
काफी; हाल (-चाल)--हॉल/हौल--हाल; काल---कॉल/कौल--काल । 


..॑. अ--अक्षरान्त के अतिरिक्त सर्वत्र आता है, यथा--अमरूद [अमरूद | 
विमल [विमल्‌ |। संयुक्त व्यंजतान्त शब्दों में इस का हलका-सा उच्चारण सुनाई 
पड़ता-सा जान पड़ता है। किन्तु वह 'अ नहीं होता । लेखन में इस का कोई मात्रा- 
 चिह न नहीं हैं। सभी एकल व्यंजनों में यह अन्तरनिहित रहता है। अ-रहित व्यंजन- 
प्रदर्शन के लिए व्यंजन वर्ण के नीचे हल चिहून () लगाया जाता है, यथा-- 
जग्रतू, र्‌ । हिन्दी में अ-लोप की कुछ विशेषताएँ हैं जिन पर आगे चर्चा की.जाएगी। 

अं का अनुनासिक उच्चारण बहुत क्षीण होता है। 
आ--शब्द, अक्षर के आदि, मध्य तंथा अन्त में प्राप्त, यथा--आवाज, 
. आ; वनमाली, माल; नया, क्या । शब्द में दो या अधिक आ' आने पर आरम्भ के 
... आ का उच्चारण कुछ हू रस्वता लिए होता है, यथा--बाजार (>>बजार), बादाम 
...._ (>बदाम) । शब्द में आ' के बाद दीर्घ स्वर आते पर आरम्भ के 'आ! के उच्चारण 
. में कुछ ह्‌ रस्वता आ जाती है, यथा--बाजारू, बादाभी, आलीशान, पायेदान 'आ' के 
|... भात्रा-चिहन का व्यंजन वर्ण के साथ पर-प्रयोग होता है। आए का अनुनासिक 
|... उच्चारण बहुत स्पष्ट रहता है । ० द 
इ--शब्द, अक्षर के आदि, मध्य तथा अन्त में प्राप्त, यथा--इमली, इन; 
.... मालिकों, दिन; मति, कि । शब्द में संयुक्त व्यंजनों और 'त' के अन्त में आनेवाली' टू 
शी का उच्चारण कुछ दीघंता लिए हुए होता है, यथा--शान्ति (->शा ती), गति 
.... (->गती), मति (->मती), रति (-*रती), यति (->यती), भूमि (->भूमी), बल्कि । 
..... “इ के मात्रा-चिह न का व्यंजन वर्ण के साथ पूर्वे-प्रयोग होता है । 'इ” का अनुनासिक 

उच्चारण क्षीण रहता है। - 

हक इ-शब्द, अक्षर के आदि, मध्य और अन्त में प्राप्त, यथा--ईश्वर, ईख 
बा वागीश्वर, दीन; बुनाई, की । शब्द में 'ई” के बाद दीघ॑ स्वर या सयुक्त व्यंजन आने 


पर पर ई” का उच्चारण: 
) पड ईश्वर श्वर (जले इश्वर) ! ईर्ष्या (-> इर्ष्या) । र से पूर्व सं युक्त व्यंजन के 
















ः दीवाली (-#दिवाली),: 


में य, व होने पर भी ' के के उच्चारण में कुछ ह्‌ रस्वता आ जाती है 











छ हू रस्वता लिए होता है, यथा--दीवानी (->दिवानी), | 





3. “हर |-33: 


| यथा--दुवितीय (->दुवितिय), तृतीय (“शेतृतिय) । 'ई' का उच्चारण 'य' को पूर्णतः 
दबा देता है, अत: थी” का उच्चारण ई वत्‌ होता है, यथा--गयी (->गई), नयी 
(नई), आयी (-+आई) । 'ई” के मात्रा-चिह न का व्यंजन वर्ण के साथ पर-प्रयोग 
होता है। 'ई! का अनुनासिक उच्चारण स्पष्ट रहता हैं। शा 

उ-शब्द, अक्षर के आदि, मध्य और अन्त में प्राप्त, यथा--उल्लू, उन; 
हलुआ, कुल; प्रभु; सु - ।उ' के बाद शब्द में दीर्घ स्वर होने पर उ' की ह्‌ रस्वता में 
वृद्धि हो जाती है, यथा--पुराना, भुलाना, ख्‌ राक । शब्द के अन्त में (विशेषत: “य, 
व, र, ल के साथ) आया 'उ' कुछ दीघंता से साथ उच्चरित होता है, यथा--आयु, 
वायु, गुरु, भानु । उ के मात्रा्चिह न का व्यंजन वर्ण के साथ पर-प्रयोग होता है। 
छा काअनुनासिक रूप क्षीण रहता है।.....|||_|_य्य्र्र<ऊ 

ऊ-“शब्द, अक्षर के आदि, मध्य और अन्त में प्राप्त, यथा---ऊपर, ऊन; झूठी, 
टूफ; आलू, लू । ग़ब्द में ऊ' के बाद दीघे रुवर या संयूक्‍त व्यंजन आने पर 'ऊ' का. 
उच्चारण कुछ ह रस्त्रता लिए होता है, यथा--ऊँचाई (->उँचाई), मुल्य (->मुल्य) । 
शब्द-मध्य में आए “'ऊ' से पूर्व दीर्घ स्वर होने पर 'ऊ' के उच्चारण में कुछ हू रस्वेता 
आ जाती है, यथा--मालूम (->मलुम), कानूनगो (कूनुनगो)। 'ऊ' के मात्रा-चिह न 
का व्यंजन वर्ण के साथ पर-प्रयोग होता है। 'ऊ' का अनुनासिक उच्चारण स्पष्ट 
रहता है । सा ्छ ७००  पमव मी जज 
ए--शब्द, अक्षर के आदि, मध्य तथा अस्त में प्राप्त; यथा--एका, एक; 
अनेकों, नेक; पूरे, ने । अनेकाक्षरी शब्दों में आदि व्यंजत के साथ. आनेवाले 'ए का । 
उच्चारण कुछ ह रस्वता लिए होता है, यथा--मेजुबान, अनेकता। अनेकाक्षरी शब्दों में... 


है से पूर्व आदि व्यंजन के साथ आनेवाले 'ए का उच्चारण कुछ हरस्वता लिएं होता... 
. है, यथा--मेहर, सेहत, सेहरा, मेंहदी, बेहतर, तेहरान, मेहमान मेहरबान। अनेकाक्षरी....._ 
शब्दों के आरम्भ में आनेवाले' ए का उच्चारण क्‌छ हें. रस्वता लिए होता है, यथा-- क्‍ ः ः ४ हा " 
एहतियात, एकवारा, एहसास, एकाएक । 'ए! का उच्चारण 'य को पूर्णत: दबा देता... 

है, अतः “ये का उच्चारण 'ए बतू होता है, यथा--गये (->गए), नये (>तए), 


पहिये (->पहिए) |. ए के मात्रा-चि हन का व्यंजन वर्ण से साथ _ पर-प्रयोग होता हर 


.. है। एँ" को 'ए' का संस्वन कहा जा सकता है जिस में ह रस्वता जा जाती है। 'ए का... 


|॒ ३ 4333 उच्नारण स्पष्ट रहता है । पश्चिमी हिन्दी-क्षत्रों में 'ए' का अनुनासिक रूप... 
नहीं मिलता । पा है कक बी कल 0 कक कक हि 


..._ ऐनक, ऐन, ऐंठ; कर्स ला, पैंठ, बैर, पैसा, मैना; है, हैं, मैं । शब्द में 'या' के पूर्व मूल हा 
.. स्वर 'ऐ' का उच्चारण अप्राप्त, संयुक्त स्वर का उच्चारणग्राप्त, यथा-कन्हैया, 
.. सुरैया, तैयार, ततैया, ऐयाश, ऐयारी, सैयद, तलैया, नेया, तैयारी, मढ़ैया, भूल-.... | 
... भूलेया, रवैया, गयो, गैा, गैथा, भैया, गढ़ैया, ढैया, बढ़ैया। ऐ केमाव्ाविहून 





34 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


का व्यंजन वर्ण के साथ पर-अ्योग होता है। ऐ का अनुनासिक उच्चारण स्पष्ट 
रहता है। पूर्वी हिन्दी तथा बोलियों में 'ऐः संयुक्त स्वर के रूप में प्रयुक्त, यथा--- 
कैसा, ऐसा, मैदान; वैयाकरण [बईयाकरण्‌ |, तैयार [तईयार्‌ | । 


ओ--शब्द, अक्षर के आदि, मध्य तथा अन्त में प्राप्त, यथा--ओखली', ओर; 
करोड़ों, मोर; आओ, लो । अनेकाक्षरी शब्दों में तथा ह' से पूर्व आनेवाले 'ओ' 
की उच्चारण कुछ हू रस्वता लिए होता है, यथा--सोनार' (->सॉनार >सुनार), 
लोहार (-+लॉहार >>लुहार), कोहरा (->कॉहरा>कुहरा)। ओ' के मात्रा-चिह न 
का व्यंजन वर्ण के साथ पर-प्रयोग होता है। 'ओ' का अनुनासिक उच्चारण स्पष्ट 
रहता है। पश्चिमी हिन्दी में 'ओ का अनुनासिक रूप नहीं मिलता । ओं, औं का 
उच्चारण समान रहता है । द द 


औ-शब्द, अक्षर के आदि, मध्य तथा अन्त में प्राप्त, यथा--औकात, 
औरत, और, औसत; पौधा, रौनक, मौहर, मौत, कौन, लौटना; नौ, सौ, भौं । शब्द 
में वा/आ के पूर्व औ' का उच्चारण अप्राप्त, संयुक्त स्वर का. उच्चारण प्राप्त, 
यथा--पौआ/पौवा, कौआ/कौवा, हौआ/हौवा, उठौअ //उठीवा । औ' के मात्रा-चिह न 
का व्यजन वर्ण के साथ पर-प्रयोग होता है। 'औ” का अनुनासिक उच्चारण स्पष्ट 
रहता है। पूर्वी हिन्दी तथा बोलियों में 'औ” संयुक्त स्वर के रूप में प्राप्त है। 
पश्चिमी हिन्दी में 'औ” मूल स्वर तथा संयुक्त स्वर के रूप में प्रयुक्त, यथा--कौन, 
कोर, ठोर; कनकौआ [कनकऊआ] । गे कह जद 


.. __ स्व॒र-गुण-हिन्दी के मूल या मौखिक स्वरों में पाया जानेवाला एक विशिष्ट 


.._गुण अनुनासिकता है। अनुनासिकता को स्वर-रंजक भी कहा जाता है। जिस प्रकार 


हे गुण का बिना गुणी के अस्तित्व. नहीं होता, उसी प्रकार बिना स्वर के अनुनासिकता 


7 अर की उच्चारण नहीं किया जा सकता । हिन्दी स्वरों में पाया जानेवाला यह गुण अथे- 


.. अइ, अऊ, ऐँ, आ का अनुनासिक रूप नहीं होता । 


भेदक होने के कारण स्वनिमिक श्रेणी का है, यथा--भाधी-आँधी, सास-साँस, है-हैं । 


...... हिन्दी के सभी मूल स्वरों का अनुनासिकतायुत उच्चारण सम्भव है । अँगीठी, 


.. बिंदिया, बँटवारा, मुंदना, जँचना आदि शब्दों के ह रस्व स्व॒रों के उच्चारण के 
. समय अनुनासिकता बहुत क्षीण सुनाई पड़ती है. और इन से बने शब्द भी बहुत कम 


.. संख्या में प्राप्त हैं। दीब॑ स्वरों के साथ, अवबुनासिकता अधिक स्पष्ट सुनाई देती है 


का, और इस से बने शब्दों की संख्या भी काफी है । 


शब्दान्त में हू रस्व स्वरों के साथ 


..... अनुनासिकता का प्रयोग अप्नराप्त है। अनुनासिकतायुक्त स्वर शब्द के आरम्भ, मध्य 
कया अच्च में आ सकता है, यथा---.. या 





जकम्मीा 











. मौखिक/अननुनासिकतायुत रूप. 


अर सवार (स' में अन्तरनिहित) 
आ| आधी 


स्वर | 35 


: अनुनासिकतायुत रूप 
भे सवार (-ता), अँगना, अँगीठी, कैगना 
आँ। आँधी, आँख, पाँच पा 


इ सिगार ३/ सिंगार, बिदिया 
ई/) चली ई/ चलीं, नींद, ईंट 
उ/, उगली उँ।' उँगली, मु दना क्‍ 
ऊ/ पूछ (ना) ऊँ पूछ, मूंदना, जू', ऊँट 
ए/ आए एं/” आएं', करें, गेंद 
ऐ/ है. एं/ ' हैं, एंठ, पैंठ 
ओ/ गोद ओं/ गोंद, हों 
औ/ चौक ऑं/ं चौंक, रौंदना 


पश्चिमी हिन्दी में 'ए, ओ' के अनुनासिक रूपों का उच्चारण प्राय: 'एं, औं” 
व॒त्‌ होता है, इसलिए "मैं कगरे में हूँ” के 'में' का उच्चारण मैं” वत होता है । मैं-मैं 
भोंकना-भौंकना के उच्चारण में सामान्यतः कोई अन्तर नहीं रहता, अतः पश्चिमी 
हिन्दी में 'ए, ओ' का मौखिक उच्चारण ही प्रचलित है । 


देवनागरी में अनुनासिकता-लेखन के दो चिह॒ न प्रचलित हैं---! . चन्द्रबिन्दू 
 (), 2. बिन्दु ()। चन्द्रबिन्दु शिरोरेखा के ऊपर कोई अन्य चिहन तन होने पर 
लगाते हैं, यथा--अँगना; अँतड़ी, आँत, आँख, उँगली, रु धना, ऊंट, रूध, आए, 
जाए । शिरोरेखा के ऊपर किसी अन्य चिह॒ न के आने पर चन्द्रबिन्दु के स्थान पर 
दू का प्रयोग प्रचलित है, यथा - बिंदिया, बिधना, ईंट, सींचना, एंठ, गेंद, भैंस 

हैं, गोंद, नौकरों, भौं, चौंक । आचाय॑ सीताराम चतुर्वेदी, पं० किशोरीदास वाजपेयी' 
केवल चन्द्रबिन्दु-अंकन के ही' पक्षपाती रहे हैं। इन दिनों हिन्दी क्षेत्र में प्रकाशित 
कई पत्रिकाओं ने चन्द्रबिन्दु का बहिष्कार कर दिया है जिस से हिन्दी-इतर-भाषा- 
भाषी क्षेत्रों में उच्चारण में कठिनाई के साथ-साथ राजकता उत्पन्न हो गई है । 
कण यन्त्र, टेलीग्रिन्टर, मोनों टाइप में " का अभाव होने से यह अराजकता और 
अधिक बढ़ती जा रही है। हमारा सुझाव है कि हिन्दी के लिए देवनागरी का प्रयोग... 
करनेवाली जनता यदि चन्द्रबिन्दु () के स्थान पर शिरोशून्य (०) का प्रयोग करने द 

.. लगे तो बिन्दु के दुहरे ध्वन्यात्मक मूल्य से छुटकारा मिल सकता है, अन्यथा 'बिदिया, 
_ बिंदी, हिंदी, गेंद; चौंक आदि का दुहरा उच्चारण सम्भव है, यथा--[बिंदिया- 
.. बिन्दिया, बिदी-बिन्दी, हिंदी-हिन्दी, गेद-गेंन्द, चौक चोौडक | । द 


.. हिन्दी में अनुनासिकता का विकास दो रूपों में हुआ है--] मूल नासिक्य _ 


. व्यंजन से, यथा--चन्द्र >चाँद, दन्त:>दाँत, कम्पन>> काँपना, अंकन>ऑँकता, .. 


कंटक >> काटा, अंजन >> आँजना । 2. स्वतः आगत, यथा--- उष्ट >ऊँट, वक् >बॉका, 











. 36 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


. श्वास > साँस, अश्च॒ >आँसू, भ्रू>भौं, पुष्छ:>पूंछ, सर्प >साँप । यहाँ ध्यान देने 
की बात है कि संस्कृत शब्दों में अनुनासिकता अप्राष्त हैं। हिन्दी में संस्कृत से यथा- 
.. वत्‌ आगत शब्दों में अनुतनासिकता का अभाव होने के कारण उन के उच्चारण में 
.. नासिक्य व्यंजन या अनुस्तार रहता है, यथा--अन्तर, आन्तरिक, दम्पति, दाम्पत्य 


_पण्डित, पाण्डित्य, अंश, आंशिक, संसार, सांसारिक, संस्कृत, सांस्कृतिक । हिन्दी में 


_ नासिक्य व्यंजन या भनुस्वारयुत संस्कृत शब्दों से व्युत्पत्न शब्दों में प्राय: अनुनासिकता 
प्राप्त है, यथा--कम्पन <काँपना, कपकपी, दल्त>दाँत, देंतुअल, सिंचन->सींचना 
 पिचाई। डण्डा>दण्ड जैसे कुछ शब्दों में ऐसा नहीं है. किन्तु इसी के एक रूप 
... डॉड' में अनुवासिकता है। “मांस, सारांश, देहांत जैसे शब्दों को हिन्दी ने यथावत्‌ 
- ग्रहण कियां है, अत: इन में अनुस्वार, नासिक्य ध्वनि है, न कि अनुनासिकता । 
उद (फारसी से आगत अनेक शब्दों के अन्त में अनुनासिकता प्राप्त है, यथा-- 


... पर्दानशीं, नुक्ताचों, हिन्दोस्ताँ, कब्रस्ताँ, क॒द्रदाँ, नादाँ, ताजातरीं, सियासतदाँ, जहाँ, 
जूबाँ, आसमाँ, जाँ, खाँ, बयाँ, जुमीं, जु बाँ, बेहतरीं। आजकल ऐसे शब्दों और इन से 


.. व्युत्पन्त शब्दों में स्व॒र से पूरे की अनुनासिकता को शआ्रायः न से स्थानापत्त किया जाने 
. लगा है, यथा--पर्दानशीन, हिन्दुंस्तात, कृद्रदान, नादान, जुबान, जान, जहान, आस- 
मान, बयान, ज बान, खान, जुमीन, नादानी, जानी, नुक्‌ताचीनी, आसमानी, जुबानी 
..._ जवानी । इन में जुबान” अधिक प्रचलित है, 'जू बान, जूवाँ, जू.बाँ। कम प्रचलित 
... शब्द हैं। शाहजहाँ, जहाँगीर, जुमींदार, जुमींदोजु, जवामद (+>धीर; जवान भर्दे - 
.. थुवक), फर्लाँ>फलाना, च्‌कि, हालाँकि, चुनाँचे में अनुनासिकता का लोप' नहीं 


बी आल हुआ है, जब कि 'मजन्‌', सर्मां, दुनियाँ” में से अनुनासिकता का लोप हो रहा है । 


इन्सान, शान, फौरन, आसान, ईमान! और बहुवचन-प्रत्यय' “-त' वाले शब्दों 


की हु ] । - में अनुनासिकता नहीं आती । हिन्दी जुमीं, कलाकार की जूमीं, जुमींदोजू, जुमींदार 
हा रे में जमीं < जमीन, जूमीं:>०9०८४7/०४ा४०१ के अर्थ में पारिभाषिक रूप में प्रयुक्त है । 


हिन्दी में अनुनासिकता की तीन स्थितियाँ हैं--. स्वनिक स्थिति--पास के 


गा । _नासिक्य व्यंजत के प्रभाव से केवल उच्चारण में प्राप्त। लेखन में स्वनिक अनु- 
...... नासिकता का अंकन परम्परागत वतेनी के कारण नहीं किया जाता, जब कि दीर्षे 
..... स्वरों के साथ यह अनुनासिकता बहुत ही स्पष्ट है, यथा--राम, हनुमान, प्राण, नाम 
..... . [राम हंनुमाँन्‌ प्राण, नाम | । नासिक्य ध्वनि-सहजात अनुनासिकता दी स्वरों 
...... साथ पर्याप्त मुखर होंती है। स्वनिक अनुनासिकता इन शब्दों में स्पष्ट सुनाई पड़ती 
रा है--मन, नाना, नानी, नाम, दिन. नम, कठिन, पान, पांनी, मीनार, ऊन, गुनगुना, 
रा पा कानून, मेमना, सेम, हैम, ऐनक, मोम, नोक, मौन, कौन आदि । 


2. स्वनिमिक स्थिति -अर्थ-भेदकता के कारण स्वनिम/स्वनिमिक है, थथा--- 


....... सवास्सवार, सास-साँस, आधी-आँधी, बिधवा-बिंधता, पूछ-पूछ, उगली-उगली, गोद 


गोंद 





मेन्में, चौक-चौंक आदि । 





20020 0 ० 
५७७७ निज मम मजे 





स्वर | 37 


... 3» व्याकरणिक स्थिति -अनुनासिकता बहुबचन का चिहन है, यथा--- 
चिड़िया-चिड़ियाँ, बस-बसें, दोस्त को-दोस्तों को, है-हैं, थी-थीं, सोती-सोती, आई- 


आई, रहे-रहें । 

विशेषतः पूर्वी हिन्दी के कुछ लोग क्षेत्रीय प्रभाव के कारण अनावश्यक अन- 
नासिकता का उच्चारण करते हैं, यथा--हाँथ (हाथ), बढ़ियाँ (बढ़िया), चाहिएँ 
(चाहिए) आदि । 
.. हिन्दी के संयुक्त स्वर अइ, अछ, ह रस्व स्वर ऐँ, ऑ के साथ अनुनासिकता 
नहीं मिलती |... द 
हिन्दी की अक्षर-व्यवस्था--साँस के एक झटके में एक साथ उच्चरित एक या. 
एकाधिक ध्वनियाँ एक अक्षर ($॥॥७0) का निर्माण करती हैं । हिन्दी भाषा के एक 


अक्षर में एक स्वर स्वनिम या एक स्वर के साथ (पूर्व, पश्च या पूर्व तथा पश्च स्थिति. 
में) एक या एकाधिक व्यंजन स्वनिमों का उच्चारण सम्भव है । 


स्वर ध्वनि से अन्त होनेवाले अक्षर मुक्ताक्षर (090॥ 35990]०0) कहलाते. 
हैं, यथा--आ, क्या, सौ आदि । व्यंजन ध्वनि से अब्त होनेवाले अक्षर बदधाक्षर 
(००४९९ $9|806) कहलाते हैं, यथा--तुम, ईद, स्वास्थ्य आदि। अक्षर-रचना' में 
. स्वर को केन्द्र /शीर्ष/शिखर (सर्वाधिक मुखर अंश) का स्थान मिलता है और व्यंजन ् 
को गह वर (अत्यल्य मुखर अंश) का, क्योंकि अक्षर-उच्चारण के समय स्वर में आरोह 
होता है और व्यंजन में अवरोह । 'अक्षर' स्वनिम से उच्चतर और रूप/शब्द से लघ॒तर 
की जा हक अल हक 
देवनागरी के वर्ण, हफ या 6(७/ को परम्परा से अक्षर कहा जाता रहा है।... 
देवनागरी के सभी वर्ण वास्तव में एक-एक अक्षर का निर्माण करते हैं, यथा--आ, 
ई, ए, क (क्‌--अ), म (म्‌ू+-अ), ल (ल्‌ू-|-अ) | भाषा में केवल एक वर्ण ही अक्षर क्‍ 
. का निर्माण नहीं करता वरतन्‌ कई ध्वनियों से भी एक अक्षर बनता है, अतः वर्ण तथा... 
अक्षर को दो अलग-अलग पारिभाषिक शब्द मानना ही उचित है।..््ः हल 
... हिन्दी में जितने स्वर होते हैं, उतने ही अक्षर होते हैं, यथा-- 'उठाइएगा' में 
> अक्षर हैं। प्रत्येक अक्षर में कम से कम' एक शीर्षक (केन्द्रक) होता है. और अधिक 
से अधिक एक शीर्षक के साथ दो गह वर--एक पूर्व गह वर और दूसरा पर गहु कर । 
इस प्रकार केन्द्रक, गह॒ वर के आधार पर चार प्रकार की अक्षर-रचना सम्भव 
है-. केवल केन्द्रक (यथा- आ, ओ !, ए ! ऐ !) 2. पूर्व गह वर--केनत्धरक 
छु 


(कि) “5 (यथा--कि, तो, सौ, जौ, लौ, दी) 3. केल्धक--पर-गह वर (एक) 


्छ 








(यथा--एक, और, ईख, ऊँट, ईंट) 4. पूर्व गह बर--केख्रक--पर-गह वर... 








38 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


हु 3४ शा 
_ (तुम),“५ (यथा-तुम, घर, लाल, प्यार)। हिन्दी-अक्षर के पूतं गहवर में ए 


त॑म 
दो, तीन व्यंजन आ सकते हैं, यथा--काम, डाक; वया, श्वेत; स्त्री, सत्र णे । केन्द्रक में 
एक मूल स्वर या संयुक्त स्वर आ सकता है यथा--सिर, तेज; वेयाकरण, देया। 
पर-गह वर में एक, दो, तीन, चार व्यंजन आ सकते हैं, यथा--आप, काम; शब्द 
अथे, व्यर्थ; स्वास्थ्य, क्ृच्छ; वत्स्यं। इस प्रकार हिन्दी-अक्षर रचना का सूत्र है-- 
+ व्य॑ व्यं व्यं)--स-+: (व्यं व्यं व्यं व्यं) (व्यं-व्यंजन; सन्‍न्स्वर)। 
हिन्दी शब्दों में कई प्रकार के एकाक्षरी साँचे प्राप्त हैं, यथा---. स (आ, 
ओ !, ए !, ऐं !) 2, स व्यं (अब, एक, ओर) 3. स व्यं व्यं (अस्त, इत्न, आध्त) 
4. स॒ व्यं व्यं व्यं (अस्त्र, इन्द्र, आद्र ) 5. व्यं स (न, ब, जी, रो) 6. व्यं स व्यं 
. (कम, काम, शोर) 7. व्यं स व्यं व्यं (पुत्र, शान्त, सन्त) 8. व्यं स्व व्यं व्यं व्यं 
(सृक्ष्म, शास्त्र, राष्ट्र) 9. व्यं स व्यं व्यं व्यं व्यं (वत्स्यं) 0. व्यं व्यं स (क्या, श्री 
क्यों) . व्य॑ व्यं स व्यं (दवेष, क्रम, प्रिय) 2. व्यं व्यं स वय॑ं व्यं (व्यस्त, क्षम्य, 
स्वस्थ, स्तोत्न) 3. वय॑ं व्यं स व्यं व्यं व्यं (स्वास्थ्य) 4, व्य॑ व्यं व्यं स (स्त्री) 
_ [5.व्यं व्यं व्यं स व्यं (सत्नौण) 6. व्यं व्यं व्यं स व्यं व्यं (स्पष्ट, स्त्वीत्व, स्पृश्य) 
7. व्यं व्यं व्यं स व्यं व्यं व्यं (स्पृष्ट्य) 


हिन्दी में ह रस्वता, दीघंता की दृष्टि से चार प्रकार के अक्षर मिलते हैं-- 


_. ह रस्व अक्षर ह्‌ रस्व स्व॒र से युक्त (-८व्यं --स) होते हैं, यथा-- न, कि, व, अ, 
 इ, छ, रि/ऋ 2. सध्यम अक्षर दो प्रकार के होते हैं- (क) +£ व्यं--स-+-व्यं, 
 यथा--इस, किन, प्रिय (ख) #व्यं +स, यथा--ही, ऐ, औ', क्या 3. दीर्घ अक्षर दो 


: प्रकार के होते हैं--(क) -८ व्यं+स (ह रस्व)- -+-व्यं (संयुक्त/दीघं), यथा--अथ्थ, 


.. मुक्त, व्यस्त (ख) +- व्यं--स (दीघ॑)--व्यं, थथा--आब, राज, त्याग 4. अति दीर्घे 
_अक्षर--व्यं +-स (दीघ॑)--व्यं (संयुकत/दीघ॑) यथा --आप्त, कार्य, व्याप्त, त्याऊ 


. स्वास्थ्य । 


8 हिन्दी शब्दों के अक्षर-साँचे--हिन्दी में सामान्यतः पाँच अक्षरों तक के शब्द 
.. शाप्त हैं। इस प्रकार इन विभिन्‍त प्रकार के अक्षर-साँचों की संख्या लगभग 300 हो 
... जाती है। एकाधिक अक्षर के शब्द में प्रत्येक अक्षर के बाद एक क्षणिक विराम/मौन/ 


: संगम होता है जो दो शब्दों के मध्य के मौन से छोटा होता है। हिन्दी में अनुनासिकता _ 
..._.. का अक्षर-साँचे की संख्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, यथा--सॉंस-सास; आँधी- 
.... आधी युम्मों में क्रमशः -, 2-2 अक्षर हैं। विभिन्‍न एकाधिक अक्षरों के शब्दों के 
... कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं । द एम कु 
का दुव्यक्षरोी शब्द--आओ, अभी, अपार, आनन्द, उन्हें, उन्‍्हों, जाओ, बाईस, |; 
। ताला, बादल तुम्हें, समस्त, नरेन्द्र; -अच्छा, अन्दाज आश्चय, फासला, मन्दिर, _ । 


30609 (8 





22223 3 कक की लीक कील पज सब गन डक की पटक 


777 ४+538०७०००७..--. ..*- २५ -२>०२ेल्अमो ने ब० ८ «८2... ममपककल-५न 8. । 





. स्वर | 39 


सत्संग, माक्सवाद , प्याऊ, ग्वाला, प्राचीन, प्रसिद्ध, स्वतन्त्, व्यक्ति, श्रस्तर 
व्यक्तित्व, प्रत्यक्ष, इस्त्री, लमहा, उद्योग, अधभ्यस्त, भन्त्री,. राष्ट्रीय, मन्त्रित्व, 
मत्स्येन्द्र, ज्योत्स्ता, प्राथनीथ, स्पृहा, स्त्रौणता, स्पहणीय, चन्द्रमा, संस्कृत | 

ज्यक्षरी शब्द--आइए, आईना, आइन्दा, पढ़ाई, आजादी, तुम्हारा, अनुवाद 
अतिरिक्त, इकट्ठा, आविष्कार, अनुग्रह, अभिव्यक्त, उपजाऊ, अन्यायी, अंगारा 
उत्साहित, आक्रान्ता, इन्द्रियाँ, अध्यापक, अत्युक्ति, आत्यंतिक, खाइए, साइकल, 
बुनाई, परिधि, परिवार, परिहाय, निकलना, सपत्नीक, सामग्री, परिश्रम, सुसंस्कृत, 
दंगाई, तरकारी, सुनहरा, सनन्‍्तुलित, धर्माचाये, सुन्दरता, कमंचारी, विद्यार्थी 
संगमरमर, संस्कृति, प्रतिभा, प्रायोगिक, प्रशंसा, प्रतिज्ञा, व्यवस्थित, व्यावहारिक 
प्रक्ष पास्त्र, ब्रह मास्त्रों प्रत्युपकार, ब्रह मचारी । 


चतुरक्षरी शब्द--आइएगा, अगुवाई, अभिमानी, अभिवादन, अपरिहार्य, 
अनासक्ति, अभिनन्‍्दत, अनियन्त्रित, अनुपजाऊ, असन्‍्तुलित, अतिक्रमण, अभि- 
व्यक्ति, अव्यवस्थित, अर्धांगिनी, अन्यायियों, अध्यापिका, अन्‍्त्यानुप्रास, गाइएगा 
 साइकलें, बजाइए, कठिनाई, चढ़ाइयाँ, पहाष्डियाँ, पारिवारिक, परिवर्तित, महात्माओं, 
सहिष्णुता, पारिश्रसिक, परीक्षार्थी, तपस्विनी, सुसंस्क्ृतों, कहलाइए, दंगाइयों, धर्मा- 
चारी, सुव्यवस्थित, पग्डंडियों, कर्मचारियों, संग्रहालय, संगमरमरों, संस्क्ृतियों 
प्रतिमाओं, व्यभिचारी, प्रयोगात्मक, प्रयोक्ताओं, प्रायश्चितों, व्यावह्रिकता, 
. प्रक्ष पास्त्रों, प्रत्युपकारी, प्राध्यापिका, प्रत्यक्षदर्शी । 


. पंचाक्षरों शब्द--अग्रुवाइयों, अभिसारिका, अनुनासिकता, अपरिवर्तित, 
अभिनन्दनों, अभिनिष्क्रमण, अभिनन्दतीयता, अधर्माचारी, अभिव्यक्तियाँ, अनिर्वंच-, 
नीयता, अन्धानुकरण, अर्धागरिनियों, अव्यावहारिकता, अध्यापिकाओं, अन्‍्त्यानुग्रासों, 
अप्रामाणिकता, बजाइएगा, कठिनाइयों, दियासलाई, कारीगरियों, परीक्षार्थियों 
तपस्वनियों, विकेन्द्रीकरण, कहलाइएगा, हिन्दुस्तानियों, संग्रहालयों, व्यभिचारियों 
प्राध्यापिकाओं । 


.. छह अक्षरों के कुछ शब्द हैं--दियासलाइयों, अप्रामाणिकताओं, शुक्लाभि- 
सारिका, प्रतिक्रियावादी । सात अक्षर का शब्द है---चन्द्रिकाभिसारिका | आठ अक्षर 
का शब्द है---चन्द्रिकाभिसारिकाओं । 


अक्षरों की संख्या में कमी क्ररने को प्रवृत्ति के कारण हिन्दीं में अक्षरान्त 
'इ, उ कभी-कभी इतने क्षीण हो जाते हैं कि उन कीः अक्षरता लुप्तश्राय हो जाती है, 
यथा--अनिवाये, रीति, प्रीति, रात्रि [अनवार्‌, रीत्‌, प्रीत, रात्र (रात्‌ || बद्धाक्षरान्त 
'अय, अब, अह भी इस प्रवृत्ति के कारण मुक्ताक्षरी बन जाते हैं, यथा--जय (जै), 
माधव (माधौ)। जय, भय, लय, मलय, तय, विजय, प्रणय, विषय, आशय, विलय, 
विनय, प्रलय, आलय, भयभीत, जयमाल, तयशुदा' जैसे शब्दों में भी. यह प्रवृत्ति 


भर 











40 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


देखी जाती है, इसी प्रकार 'माधव, राघव, यादव, रव, भव, नव, शव, लव, मर्तिवें, 


. दानव, नीरव' जैसे शब्द भी इस प्रवृत्ति से कुछ अंशों में प्रभावित हो रहे हैं, हिन्‍्तु 


. मानवता, नीरवता, ग्ौरवशील, गौरव” जैसे कुछ शब्द अपनी स्वनिक विशेषता के 


कारण इस अवृत्ति के शिकार होने से बचे हुए हैं। 'रौ, पौ, लौ, नौ” और “रब, 5 
लव, नव से विकसित (“रौ, पौ, लौ, नौ” व्‌) शब्दों के उच्चारण में अभी भ 

है रा क्र | १! गे में द्रव पा 
हलका-सा अन्तर है। भय, मय से विकसित ('भै, मैं वत्‌) शब्दों में भी उच्चारण 


. की दृष्टि से सुक्ष्म अन्तर है । 


_अक्षरक्षीणता की प्रवृत्ति के कारण 'अह' से अन्त होनेवाले बद्धाक्षरी 


 शब्दों/बक्षरों में 'ह' के लोप के साथ, अ>था वतू सुनाई पड़ता है, यथा---बारहं, 
: तरह, चौदह, पन्द्रह, सोलह, पत्रेंह, अठारह। निश्चय ही तेरह >तेरा ३ त्‌ और पृ 
पैरा दोनों के उच्चारण में सुक्ष्म' अन्तर है। उद्दू: में आाज भी अरबी-फारसी के कुछ 


इल्लिग शब्द जो हम्जह->हम्जा से लिखे जाते हैं, अक्षर-क्षीणता की. प्रवृत्ति के 
कारण आ' युत हो गए हैं यथा--दवाख नह >>दवाख ना, जुमानह >> जमानों | 
इसी प्रकार के कुछ अन्य शब्द हैं--भाईना, अलावा, अंदाजा, अंदेशा, अफसावो, 
इजाफा, किला, कुर्ता, ख जाना, इशारा, उम्दा, ओहदा, खतरा, गन्दा, कर्ता, 


ता, काफिला, किचारा, गुजारा, चमचा, चेहरा, चश्मा आदि; किन्तु स्त्रीलिंग के 


कुछ ऐसे ही शब्दों में यहं परिवर्तन अग्राप्त है, यथा--गिरह, जिरह, तरह, वजह, द 


.. सतह, सुबह, सुलह । 


उपयु क्‍त अवृत्ति के कारण व्यं अह->व्यं एंह साँचा भी प्राप्त है, यथा-- 


पहला, एहसान, कहना, नहला, दहला, नहले पर दहला, गहरा, गहना, रहता, ' 


शहरी, पहचान, तहमत, तहमद, लहँगा, पहनाना, सहमा, वहका, लहराना, बहुरा। 


इन के उच्चारण के 'ह' से पूर्व का अ' निम्त अग्न स्वरवत्‌ बन जाता है । इसी प्रकार 


.. यंअहू अ व्यं स॑ंचे के शब्दों में पहला 'अ' निम्न अग्न स्वर बन जाता है, यथा-- 


वहन, महत्त, रहम, बहम, पहल, पहन, सहन, कहन, रहट, शहर; जहर, नहर, 
..... जहर, बहल, तहत आदि का ज्वारण। लेकिन ह' के बाद दीघं स्वर आने पर 


.. ऐसा परिवर्तन/उच्चारण नहीं होता, यथा कहा, कही, कहो, रहा, रही, रहो, 


0४५६६ 


महा महीन, शहीद, लहु। 'कहकहा, कहकहे, चहचहा, चहचहाना, चहचहाहट' के 
... >च्चारण के समय पहले आनेवाले €' के लुप्तप्रायः होने के साथ पूर्ववर्ती व्यंजन के 
.... अन्तनिहित 'अ' का उच्चारण निम्त अग्न स्वर 'एँ ह' वत्‌ हो जाता है। हि 
... __. सैस्कृत से आगत विसर्गान्त शब्दों का उच्चारण 'ह्‌' वत्‌ होने के कारण 
.... उन में अ ह' आक्षरिक साँचे की विशेषता मिलती है, यथा--अतः, क्रमशः, पुनः, 


से पूवें का 'अ' कुछ दी हो जाता है. 


८ 


2. हिन्दी की आक्षरिक व्यवस्था का और अधिक गहराई से सूक्ष्म अध्ययन इन. 
. विशेषताओं के आधारों पर किया जा सकता है--ह रस्व॒ मे 





“ह,रस्व॒ मौखिक स्वर, दीर्ध..| 


| स्वर | 4. 


मौखिक स्वर, ह्‌ रस्व अनुनासिक स्वर, दीघ अनुनासिक स्वर, सरल व्यंजन, संयुक्त 
व्यंजन, दीर्ष व्यंजन, व्यंजनानुक्रम, स्वरानुक्रम, य श्रति, व श्र्‌ ति, हानत । 

अक्षर में शीर्ष सर्वाधिक बलाघातयुत होने के कारण सर्वाधिक मुखर रहता 
हैं। अनेकाक्षरी शब्दों में प्रत्येक अक्षर के बाद अत्यल्पकालिक विवृति|विराम /मौन/ 
पगस अत्यावश्यक है, अन्यथा उच्चारण में अपेक्षित सहजता का अभाव रहता है । द 
हिन्दी में अक्षर-विभाजन स्वनिमिक या साथेक है, यथा--मध रता--मध-रता: मधर-ता 
मानवता--मानव-ता, मान-वता; नवलता--नवल-्ता, नव-लता । अनेकाक्षरी' शब्दों 
में किसी एक अक्षर पर सर्वाधिक बलाघात होता है, शेष पर उस से कम । शुद्ध और 
सहज उच्चारण की दृष्टि से अक्षर-बलाघात का ध्यान रखना|पालन करना चाहिए 
यथा-- अप्नामाणिकता में सर्वाधिक बलाघात 'णिक' अक्षर पर रखने से ही हिन्दी 
की प्रकृति के अनुरूप उच्चारण होगा । द 


अनेकाक्षरी शब्दों में अक्षर-विभाजन के मुख्य नियम ये हैं--- . शब्द में आनेवाले 

. अथम स्वर से पूर्व के सभी व्यंजन उस स्वर के साथ मिल कर अक्षर-रचना करते हैं 
यथा--घरेलू (घ रे लू), प्यारी (प्या री), स्त्ैणता (स्त्रौण ता)। 2. शब्द के अन्त 
में आनेवाले सभी व्यंजन उन से पूव्ववर्ती स्वर के साथ मिल कर अक्षर-रचना करते 
हैं, यथा--अनाचार (अ ना चार), उपवाक्य (उप्‌ वाक्य), अन्यत्र (अन्‌ न्यत्न ), 
सुस्वास्थ्य (सु स्वास्थ्य), उपलक्ष्य (उप्‌ लक्क्ष्य), निर्वस्त्र (निर वस्त्र) ! 3. शब्द 
के मध्य में व्यंजन-अनुक्रम या संयुक्त व्यंजन के रूप में आनेवाले व्यंजनों में पहला 
व्यंजन अपने पूर्ववर्ती स्वर के साथ और अन्य व्यंजन अपने परवर्ती स्वर के साथ कं 
अक्षर-रचना करते हैं, यथा--गिरता (गिर ता), आत्मिक (आत्‌ मिक), शिक्षार्थी 
(शिक्‌ छार्‌ थी), आद्ंता (आर्‌ द्व ता), कन्हैया (क न्है या), तुम्हारा (तु म्हा रा), 
दूल्हा (हू ल्हा)। 4. शब्द-मध्य में अल्पप्राण व्यंजन तथा य/र/ल|व के योग से बने 
संयुक्त व्यंजन के उच्चारण में व्यंजन-दीघंता आ जाने के कारण आगत व्यंजन पहले. 
स्वर के साथ ओर मूल व्यंजन परवर्ती स्वर के साथ अक्षर-रचना करते हैं, यथा--- 
अन्याय (अन्‌ न्याय), उपन्यास (छ पन्‌ न्यास), विक्रमादित्य (विक्‌ क्र मा दित्य्‌), 
सत्नान्त (सत्‌ त्रान्तू), अम्लान (अम्‌ स्लानू), शुक्ला (शुक्‌ कला), विद्वान (विद 
दूवान्‌), अन्वय (अन्‌ न्वयू) । 5. शब्द-मध्य में महाप्राण व्यंजन तथा य/रल/व के 
योग से बने संयुक्त व्यंजन के उच्चारण में महाप्राण वर्गीय अल्पप्राण व्यंजन आ जाने 
के कारण आगत व्यंजव पहले स्वर के साथ और महाप्राण व्यंजन परवर्ती स्वर के साथ 
. अक्षर-रचना करते हैं, यथा--विख्यात (विक्‌ ख्यात्‌), अध्यापिका (अद्‌ ध्या पि का) 


अभ्यास (अब भ्यास्‌) उपाध्याय (उ पाद ध्याय्‌) | 6. ब्रहू मा, चिह न नन्‍्हा शब्द सामान्य 


उच्चारण में (ब्रम्म्हाँ, चिन्न्ह नन्‍न्‍हाँ) हैं, अतः इस का अक्षर विभाजन होगा--ब्रम महा, . 
चिन्‌न्ह्‌, नन्‌ नहा । 7. दक्षिण भारतीयों या. संस्कृत-परम्परा के लोगों दवारा जिन 
_एकाक्षरी व्यंजनांत हिन्दी शब्दों का अन्तर्निहित 'अ' युत उच्चारण किया जाता है, वे द्वि 








42 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अक्षरी शब्द बन जाते हैं, यथा--सभ्य (सब्‌ भय), द्रव्य (द्रव्‌ व्य), उम्र (उम्‌ मर) | 
8. यदि शब्द में व्याकरणिक तथा आर्थी दोनों इकाइयाँ मिलती हैं तो यह आवश्यक 
नहीं कि अक्षर-विभाजन दोचों की सीमा पर हो । कभी तो दोनों इकाइयाँ मिल कर 
एक अक्षर बनाती हैं, यथा--भ--ज >> अज, अ#जञ्ञ 5 भज्ञ वि-+-न्ञ ८ विज्ञ (अज्‌ 
अग्ग्य, विग््य); कभी दोनों की सीमा पर ही अक्षर-विभाजन होता है, यथा-- 
- सुन्दर--ता ८ सुन्दरता; डाक--घर >> डाकधर; सु-पुत्र>सुपुत्र; राम + राज्य 

रामराज्य (सन्‌ दर ता, डाकू घर्‌, सु पुत्तर्‌, राँम्‌ राज्ज्य) और कभी' मूल शब्द 
तथा व्युत्पन्न शब्द का अक्षर-विभाजन काफी बदल जाता है, यथा--नेपाली--ने 
पाल--ई (ने पा ली); दुराचार--दुर॒+आ चार (दु रा चार); जिलाधीश-- 
जिला--अ धीश (जि ला धीशू); घृड़दौड़- घोड़ा+- दौड़ (घुड़ दोड़); अत्याचार-- 
अ ति+-आ चार (अत त्या चार)। इस प्रकार दो भाषिक इकाइयों से नवनिर्मित 
शब्द का अक्षर-विभाजन हिन्दी में प्रचलित (उच्चरित) अक्षर-साँचे के अनुसार होता 


है। 9. हिन्दी के विभिन्‍न बोली-दक्षेत्रों में प्रचलित उच्चारण-भिन्‍तता के कारण कुछ 


गिने-चने शब्दों का अक्षर-विभाजन दो प्रकार का प्राप्त है, यथा--आमदनी (आम्‌ 
द नी; आ मद नी), मतलबी (मत्‌ ल बी; म तल बी), छिपकली (छिप्‌ क ली; 


छि पक ली) । 


कुछ लोग अ-लोप की समस्या भी कहते हैं और कुछ लोग अनुच्चरित अ। हिन्दी 
की अ-लोप सम्बन्धी विशेषताओं को उच्चारण और वतंनी के सन्दर्भ में भली भाँति 
देखा जा सकता है । अ-लोप के कारण हिन्दी-शब्द उच्चारण में अक्षर-संख्या कम 
हो जाती है । ऐसा होने से वक्ता को साँस के कम झटके लेने पड़ते हैं । दक्षिण की 
. भाषाओं की अक्षर-व्यवस्था के प्रभावस्वरूप नमकीन, डाकधर' का उच्चारण [तम- 

हक कीम, डाकघर | होने से साँस के चार-चार झटके लेने पड़ते हैं, जब कि हिन्दी में इन 
का उच्चारण [नम्‌कौनू, डाकूघर्‌ | होने से साँस के दो-दो झटके ही लेने पड़ते 


हैं। इस प्रकार अक्षर-संख्या भेद से उच्चारण-गति|वाचन-गत्ति में अन्तर आ 


.. जाता है। 

भाषा की जटिल व्यवस्था, विस्तृत प्रयोग-क्षेत्र, वक्ता की भाषिक, सांस्कृतिक 
पृष्ठभूमि, वेयक्तिक कारणों, शब्द-प्रयोग सन्दर्भ की भिन्‍नता के परिणामस्वरूप 
. निरपवाद नियम न बन पाने पर भी सामान्यतः शब्द-मध्य और शब्दान्त में अ-लोप 
..._ सम्बन्धी नियम इस प्रकार के हैं 


. व्यं--स्व से बने एकाक्षरी शब्दों में अ-लोप नहीं होता, यथा--न, ब, 





अ-लोप की विशेषताएं शब्द-मध्य तथा शब्दान्त में देखी जा सकती हैं । इन्हें 


89७3 लक व >-कमन- २ -ननशनन---+->०+>-...हत.त. 


पा आन आ-29 2-0 अब मील 





स्वर | 43 


2. शब्द के प्रथमाक्षर में अ-लोप नहीं होता, यथा--नग, बदल, कमला, 
चमगीदड़ [नगू, ब दल, कम्‌ ला, चम्‌ गी दड़ ] । 


3. अन्य एकाक्षरी, दृग्यक्षरी ज्यक्षरी आदि शब्दों के अंतिम 'अ' का लोप 
होता है, यथा--आय, बात, बाल, पर, साफ, घास, भूख, ढ ढ़, राय, नाव, पंख 
अथ, व्यक्त, खत्म, ब्रह मं, वाक्य, पर्व [आय, बातू, बाल, पर, साफ, घास, भख 
दूढ़, रायू, नावू, पख , अर्थ , व्यक्त्‌, खत्म, ब्रह मु, वाक्य, पर्व |; कमंल, कमाल 
शकर, प्रसाद, स्थापत्य, वाधक्य [क मल, क माल , श॑ कर, प्र साद, स्था पत्त्य, वार 
धवकक्‍यू |; पानीपत, विन्ध्याचल, विशेषांक, जिलाधीश, सभागह [पा नी पत॒, विन ध्या' 
चल, वि शे षांक, जि ला धीशू, स भा ग्रिह]। 


पाश्विक, कम्पनजात, संघर्षी, महाप्राण, उत्क्षिप्त, अधेस्वर तथा संयुक्त 
व्यंजनान्त शब्दों के उच्चारण में 'अ' ध्वनि नहीं, वरन्‌ अ-जैसी' अन्त्य ध्वन्ति सुनाई 
पड़ती' है जो उच्चारण का अन्त्यांश होता है, न कि अ। “य, व” से युक्त संयुक्त 
व्यंजनान्त शब्दों में 'य, व” का अधे स्वरत्व अधिक मुखर रूप में सुनाई पड़ता है 
जिसे अ' नहीं कहा जा सकता; यथा--शाक्‍य, धैये, मर्त्ये, सर्व, द्रव्य, तत्त्व । 
कायमोग्राफ्‌ और स्पेक्टोग्राफ्‌ पर किए गए श्रयोगों से भी पुष्टि होती है कि हिन्दी 


भाषा के शब्दों के अन्त में 'अ' का उच्चारण नहीं होता । 


4. शब्द की पूरी या आंशिक संरचना में स्व--व्यं--अ--व्यं -- दीघ स्व होने 
पर 'अ' का लोप होता है, अर्थात्‌ शब्दोच्चारण में स्व--व्यं--व्यं--दी्घे स्व संरचना 
होती है, यथा--अचला, कमरा, बादलों, निर्भीकता, क्षमता, कफनी, वापसी, बदली 
फारसी, चमकीला, नकली, सरला, आपसी, सिमटा, समझी [अच ला, कम्‌ रा, बाद 
लों, निर भीक ता, क्षम ता, कफ नी, वाप्‌ सी, बंद ली, फार सी, चम की ला 
नक्‌ ली, सर्‌ ला, आप सी, पिम्‌ टा, सम्‌ सीं | द 


द 5. शब्द की पूरी या आंशिक संरचना में स्व-+संयुक्त/दीर्घ व्यं--अ-- 
व्यं+-दी्घ स्व होने पर “अ! का लोप नहीं होता, यथा--पत्थरों, बिस्तरों, तस्करी 
सुन्दरी, पुस्तकीय, भुलक्कड़ी [पतू्‌ थ रों, बिसू त रों, तस्‌ क री, सुनू द री 
पुस्॑ त कीयू, भू लक्‌ क ड़ी | 


6. दो रूपिमों से निर्मित शब्द की रूपिम-सीमा पर अ-लोप होता है, यथा--- 


अनगढ़ा, अनकही, अनसनी, [अन्‌ गे ढ़ा, अनू क ही, अन मे नी] बिचला, निच ला... 
.. [बिच ला, निच्‌ ला] के सादृश्य पर [अचू ला, सच्‌ ला, विम ला, दुब्‌ ला,] जैसे 

उच्चारण मानक नहीं माने जा सकते । आदम+-- 5 ई आदमी; बादल -- हों. 
. बादलों; बदल-- - ई "बदली में यद्यपि अन्तिम दीर्घ स्वर रूपिम-सीमा पर है और 
उस से पूर्व अ-लोप होता है, किन्तु अखरोट, कमरा, गमला, बँगला भादि के ख, 


ग' में अ-लोप होता है जो रूपिम-सीमा नहीं है । 








44 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


7. शब्द-मध्य के 'अ' से पूर्व और पश्चात्‌ संय्रुक्त/दीर्घ व्यंजन ने हो और 
पहले व्यंजन के पूर्व रूपिम-सीमा भी न हो, तो ऐसा शब्द-मध्यस्थ अ बुप्त हो जाता 
है, यथा--मखमल, मतलब, अठकल, खटमल, एटलस [मख्‌ मल, मत्‌ लब्‌, अं कल्‌ 


खट मल, एट लस | । 


॥4$ ५ 


8. भ युत वर्णवाले मूलतः दो अक्षरों के शब्दों के दूसरे वर्ण का; तीन 
अक्षरों के शब्दों के तीसरे वर्ण का; चार अक्षरों के शब्दों के दूसरे और चोथे वर्ण का 
'अ' लुप्त हो जाता है, यथा--चल, चाल, चर्च [चलू, त्रालू, चच्‌ |; कमल, कोमल 

सम, आनन्द, ग्राहक, स्वभाव, प्राचार्य, स्थापत्य [क मल, को मलू, स मथ्‌ , आ नन्‍द 

ग्रा हक, स्व भाव, ग्रा चाय, स्था पत्त्य |); मातहृत, व्याकरण, आणदान, श्लाघतीय, 
परगना, समझता, चन्द्रप्रभा, ग्रामसभा, देशद्रोह, पारावार, सभागृह, .वशेषांक [मातृ 
हतृ, व्याक्‌ रणू/व्या क रण, प्राण दानू, श्लाघ नीयू, पर्‌ गना|प रग्‌ ना, सम्‌ झना/ 
समझ ना, चन्द्र प्रभा, ग्राम स भा, देश द्रोह, पारावार्‌, स भा ग्रिह, विशे 
षांक|। व्याकरण, परगना, समझना” जेसे कुछ शब्दों के क्षेत्रीय भेद से दो-दो 
उच्चारण प्राप्त हैं । द द 


9. तीन वर्णवाले शब्दों में तीसरा वर्ण 'अ'से इतर स्वर युत और दूसरा _ 


वर्ण 'अ युत हो तो दुसरे वर्ग के अ! का लोप होता है । इसी प्रकार चार वर्णवाले 


शब्दों में दुसरा, चौथा वर्ण अ' से इतर स्वर युत होने पर तीसरे अ' युत वर्ण के 
अ' का लोप होता है, यथा--विशेषता, सम्भावना, कलावती, गीतांजली, प्रस्तावना 
[वि शेश्‌ ता, सम्‌ भाव्‌ ना, क लाव्‌ ती/क ला व ती, गी तांजू ली/गी' ताञ ज ली 


...श्रस॒ ताव ना/प्रस ता बना | । क्षेत्रीय भेद से कुछ शब्दों के दो-दो उ्ज्चारण प्राप्त हैं 


लड़का, गदहा, सड़ना जैसे शब्दों के उच्चारण में . (स्वन्िक स्तर पर) 


.. ड़, दं, ड' अ-रहित हैं किन्तु स्वनिमिक स्तर पर वे अ-युत हैं, यथा--लड़कपन, 

... गदहपन, सड़त । इसी प्रकार स्वृतिक स्तर पर उच्चारण में 'अ' की सत्ता न होने 

..... पर भी स्उनिसिक स्तर पर “अ! की सत्ता स्वीकार कर लेने से भाषा-विश्लेषण में 

...._ सरलता आ जाती है, यथा--नोर--ज - नीरज, लेख--न « लेखन, पाठ--क*- 

.... पाठक, जल--ज जलज, पंक---ज >> पंकज, अम्बु--ज - अम्बुज, परम--अर्थ -< 

....... परसाथ्थ, रामन-अवतार-"-रामावतार, नर--इन्द्र नरेन्द्र, चन्द्र--उदय > चन्द्रोदय, 

..... सप्त-+-ऋषि 5 सप्तषि, समकालीन समकालीन, सम--कोण र समकोण, सम-- 

.. तल >>समतल, सम--तुल्य > समतुल्य, सम--रूप--समरूप, मन--न मनन, 

........  स्वेदरन-ज>स्वेदज, अंड--ज--अंडज अम्बु+ज- अम्बुज, एक--ल 5 एकल 
। _ शयाम-- ले -- श्यामल, नील --म -- नीलम । 





.. इतिहास---इक - ऐतिहासिक, भूगोल---इक - भौगोलिक, वेद---इक- 








स्वर | 45 


वैदिक, महान्‌ +-दा + महानता जैसे शब्दों की स्थिति पर गहराई से विचार करने 


की आवश्यकता है । 


हिन्दी शब्दों के अक्षर-विभाजन का सम्बन्ध बहुत-कुछ -अ' लोप की विशेष- 
ताओं से जुड़ा हुआ है और हिन्दी में नव-निर्मित शब्दों के अक्षर-विभाजन पर 
निर्मायक धठकों के अक्षर-विभाजन के नियम सदैव यथावत्‌ लागू नहीं होते वरन्‌ 
हिन्दी में प्रचलित अ' लोप के आधार पर अक्षर-विभाजन होता है। हिन्दी क्षेत्र में 
संस्कृत शब्द धर्म, कम, भस्म” आदि को कुछ उद भाषी 'धरम, करम, भसम 


बोलते हैं और कुछ हिन्दी भाषी ऊँ शब्द बर्फ, फू, क॒दर' को बरफ, फ्रक, 
 कंदर' बोलते हैं। अँगरेजी फॉम्म/फाम को सामान्य लोग फारम/फारम बोलते हैं । 














5 
व्यंजन 


हिन्दी व्यंजन-प्रकार-- हिन्दी में उच्चरित व्यंजनों को संरचन की दृष्टि से 
तीन वर्गों में विभकत किया जाता है--4. सरल व्यंजन, 2. संयुक्त व्यंजन, 3, दीधे 
व्यंजन । द हक 
[. सरल व्यंजन--इन्‍्हें सामान्य या एकाकी या एकल व्यंजन भी कहा 
- जाता है । एक या अकेले व्यंजन के उच्चारण में किसी एक स्वर का. सहारा लेना 
पड़ता है, यथा--क खू ग्‌ आदि का उच्चारण (कख ग)--कगओआ, खून अं, ग्‌-- 
अया काखा गा या के खै गे! किया जाता है। इन तीनों उच्चारणों में पहला 
उच्चारण ही मानक है । आगरा-मथुरा-अलीगढ़-इलाहाबाद-बनारस आदि क्षेत्रों में 
छोटे बच्चे 'अ' स्वर के स्थान पर आ' स्वर को सहायता से एकाकी व्यंजनों का 
उच्चारण करते हैं । अजमेर-मेरठ-बुलन्दशहर-बिजनौर आदि क्षेत्रों में अ के स्थान 
पर 'ऐ' स्व॒र की सहायता से एकाकी व्यंजनों का उच्चारण करते हैं । 

बद्धाक्षर में इनका उच्चारण बिना किसी स्वर के किया जाता हैं यथा-- 
चर, कमल' में 'र ल' का उच्चारण रु, लू है। हु 

2. संयुक्त व्यंजल--एक अक्षर में स्वर से पूर्व या बाद में एक से अधिक एक 
साथ उच्चरित व्यंजनों को संयुक्त व्यंजन या व्यंजन-गुच्छ कहते हैं। इन के उच्चारण 
के समय अक्षर-सीमा नहीं होती और स्वर का सहारा अनिवार्य नहीं है, यथा--प्र, 
. कल, क्व क्ष्य । इन में पू+र. कू+लू कू+व्‌, क्ष+य्‌ है तथा प्रत्येक संगरुक्त 
: व्यंजन को अकेले उच्चरित होने के लिए अन्त में अर्ध स्वर की आवश्यकता पड़ती 

है किन्तु अस्त्र, स्वास्थ्य, अम्ल, पक्‍व' में. सत्र, स्थ्य, म्ल, वंव' के लिए किसी पूर्ण 


.. स्वर का सहारा नहीं लिया जाता । हिन्दी में कई संयुवत व्यंजन प्राप्त हैं। स्वर से 
._ पूव आनेवाले संयुक्त व्यंजन आदि व्यंजन गुच्छः तथा स्वर के पश्चात्‌ आनेवाले 


कह 


व्यंजन 'अन्त्य व्यंजन गुच्छ' कहलाते हैं । 





] 


दो् व्यंजन--किसी सामात्य व्यंजन के दीर्घ रूप के उच्चारण में समय 
सामात्य व्यंजन की अपेक्षा अधिक लगती है, यथा--गद्दा, बच्चा, पत्ता, 


दुद, उच, त्त, ल्‍ल, मम, कक! क्रमशः “दू, चू, तू, लू, 


आओ 


“कजन 

























व्यंजन | 47 


एकाकी' व्यंजनों के दीघे रूप हैं। व्यंजन-दीर्घता से शब्दों में अर्थ-भेद भी 
हो जाता है, यथा--गदा--गदुदा, बचा--बच्चा, पता--पत्ता, पिला--बिल्ला 
अमा---अम्मा, पका--पक्‍का । अतः हिन्दी में व्यंजन-दीर्घता स्वनिमिक है | 


लेखन-व्यवस्था के प्रभाव के कारण कुछ लोग दीघ॑ व्यंजन को दवित्व 
व्यंजन कहते हैं। लेखन में यह दवित्व रूप स्पष्ट दिखाई देता है. जिस में पहला 
व्यंजन अध व्यंजन वर्ण और दूसरा व्यंजन पूर्ण व्यंजन वर्ण है। उच्चरित भाषा में 
दृवित्व शब्द का प्रयोग भ्रम पैदा करता है क्योंकि दीघे व्यंजन सरल व्यंजन के 
उच्चारण समय से दुगुना समय नहीं लेता । वास्तविकता यह है कि दीर्घ॑ व्यंजन के 
उच्चारण के समय हवा को मुख-विवर से निकलने से पूर्व कुछ अधिक देर तक रोका 
जाता है न कि व्यंजन-उच्चारण की तीनों क्रियाओं को दो-दो बार किया जाता है । 
(सामान्यतः एकाकी व्यंजन के उच्चारण के समय ये क्रियाएँ की जाती' हैं--. दो 
अवयवों का पास-पास आना या परस्पर मिलना या स्पर्शन 2. निकलनेवाली हवा का 
कुछ देर/क्षण रुकना या अवरोधन 3. दोनों अवयवों का दूर हटना या उन्‍्मोचन और 
हवा का बाहर निकलना या स्फोटन) 'अमा-अम्मा, सता-सत्ता, बची-बच्ची, बली- 

 बलल्‍ली” के उच्चारण के समय पता चल सकता है कि दी व्यंजनों से उच्चारण में 
पहली और तीसरी क्रिया सामान्य व्यंजन की तरह ही होती हैं किन्तु दूसरी क्रिया 
कुछ अधिक देर लेती है) । हिन्दी में कई दीं व्यंजन प्राप्त हैं । क्‍ 

एकाको व्यंजन-विवरण--उच्चारण की दृष्टि से इन का शुद्ध रूप समझने 
के लिए कुछ पारिभाषिक शब्दों को समझ लेना उपयोगी रहेगा। मोटे तौर पर 
व्यंजन ध्वनियों के वर्गीकरण के आधार हैं---. उच्चारण-स्थान 2. उच्चारण-प्रयत्न 
3. स्वरतन्त्री-अवस्था 4. वायु-प्रवाह 5. अलिजिंह वा-स्थिति 6. उच्चारण-करण 

: स्थिति 7. उच्चारण-समय । 

() उच्चारण-स्थान--मुखेन्द्रिय के वे विभिन्‍न स्थान जहाँ से व्यंजन 
ध्वत्तियों का उच्चारण किया जाता है, उच्चारण-स्थान कहलाते हैं। उच्चारण-स्थान के ._ 
आधार पर हिन्दी-व्यंजनों के 9 भेद हैं--- द 

8. ओष्ठय/दुव्योष्दय--दोनों ओठों की सहायता से उच्च्चरित व्यंजन, यथा--- 
प्‌ फबृभूम्‌म्ह व्‌।. ' 

2. बन्त्योष्ठध--ऊपर के दाँत और नीचे के ओठ की सहायता से उच्चरित ._ 
व्यंजन, यथा--+फ्‌ व्‌ |. द 

दन्त्यमूल -ऊपर के दाँतों की जड़ और जीभ की नोक से उच्चरित 
व्यजन, यथा -त्‌ थ्‌ द्‌ ध्‌ । सस्क्ृत-व्याकरण परम्परा के आधार पर इन्हें दन्त्य हे 
कहा जाता है। सम्भव है संस्कृत त थ द ध न का उच्चारण दनन्‍्त्य (दाँतों के मध्य... 
या अश्नांश को छूने से उच्चरित) रहा हो, किन्तु हिन्दी में ये दन्तमूल से उच्चरित हैं। 





48 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


. न दन्त्यमूल|दन्त है जो हिन्दी-इतर कुछ भाषाओं में उच्चरित हैं। इन ध्वनियों को 
है. कुछ लोग करण के आधार पर जिह वाग्नीय भी कहते हैं । 

.... 4. बत्स्यें--ऊपर के मसूढ़े और जीभ की नोक या फलक की सहायता से 
_ छच्चरिंत व्यंजन, यथा--त्‌ नह र्‌॒ रह लू ल्‍ह स्‌ जू । कुछ लोग करण के आधार 

प्रतदथ धस जू न्‌ को जिह वाफलकीय कहते हैं और लू र्‌ को जिह वान्तीय । 
... 5. अग्र तालवब्य---कठोर तालु के अग्न भाग और जिह वा-फलक की सहायता 
से उच्चरित व्यंजन, यथा--ट्‌ ठ ड ढू (ण्‌) (घ्‌)। संस्क्ृत-व्याकरण परम्परा 
के आधार पर इन्हें मर्धन्य कहते हैं। हिन्दी में इन का उच्चारण मूर्धा से नहीं होता। 
कुछ लोग इन्हें पूर्वतालब्य भी कहते हैं। ड़ ढ़ का उच्चारण कुछ मूर्धा की ओर से 


श् होता है । 


6, पश्च तालव्य--कठोर तालु के पश्च भाग और जिहू वा मध्य की सहायता 
से उच्चरित व्यंजन, यथा--च्‌ छ ज्‌ झू (ज्‌) शू यू। संस्कृत-व्याकरण परम्परा के 
आधार पर इन्हें तालब्य कहा जाता है । हिन्दी में च वर्ग का उव्यारण वत्सं की भोर 
.. सरक आने के कारण ब्‌ का उच्चारण न्‌ जैसा हो गया है। द 
......_ 7. कोमल तालव्य--कोमल तालु और जिह वा पश्च की सहायता से उच्च- 
रिप व्यंजन, यथा--क ख गू घृछ । संस्कृत व्याकरण परम्परा के' आधार पर इन्हें 
फंठय कहा जाता है।. क्‍ 
8. अलिजिह वीय--अलिजिह वा|कीआ और जिह वामूल की सहायता से 
उच्चरित व्यंजच, यथा--क्‌ ख॑ ग्‌ । कुछ लोग इन्हें जिहु वामुलीय भी कहते हैं । क॒छ 


ही लोग ख गू का उच्चारण कोमल तालु से और कुछ अलिजिह वा से करते हैं । 


। 9. स्व॒रतन्त्रमुखी--दोनों स्वर तन्त्रियों के मुखे 'काकरल से उच्चरित व्यंजन 
... यथा--ह । इसे काकल्य भी कहा जाता है। कुछ लोग इसे ग्रसन्‍्य कहते हैं । संस्क्रत- 


.. व्याकरण परम्परा में इसे कंद्य कहा जाता रहा है । 


(2) उच्चारण-प्रयश्न--व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण के समय फेफड़ों से आने 


.._. 7 बाली हवा को विक्ृत करने में उच्चारण-करण जो प्रयत्न करते हैं, उन्हें उच्चारण- 
... प्रयत्न कहा जाता है। संस्कृत-व्याकरण परम्परा के अनुसार प्रयत्नों को दो वर्गों में 
...._विभवत कर पुनः उन के उपभेद किए जाते हैं, यथा--आश्यन्तर प्रयत्न । इन्हें धवनि- 
.... उच्चारण से पूर्व के प्रयत्न कहा जाता है, यथा--विवृत, स्पुष्ट, ईषत्‌ विवुत, ईषतू 
....-..  स्पृष्ट 2. बाह य॑ प्रथश्व । इन्हें ध्वनि-उच्चारण के समय का/अच्तिम क्षण के प्रयत्न 
..... कहा जाता है, यथा--घोष, अधोष । आधुनिक दृष्टिट से ध्वनि-उच्चारण के लिए किए 
..._ जानेंवाले सभी प्रयत्न 'उच्चारण-प्रयत्न' हैं। उच्चारण-प्रयत्न के आधार पर हिन्दी 












!. स्पर्श--इन ध्वनियों के उच्चारण के समय जीभ या नीचे का ओठ किसी 





हुई हवा में बाधा डालते ही हट जाते हैं, यथा-- क्‍ 








स्वर | 49. 


कखू्ग्घ्‌क ट्टूडढत्‌थ्‌ द्‌ ध्‌ प्‌ फू ब भू। वायु निकलते समय स्फोट होने 
के कारण इन्हें स्फोट ध्वनियाँ भी कहते हैं। स्फुटित ध्वनियों को सरव (अघोष, 
सघोष, स्पर्श-संघर्षी) भी कहा जाता है । 


2. स्पर्श-संघर्षी--इन ध्वनियों के छच्चारण के समय जिह वा-मध्य कठोर 


_तालु के पश्च भाग को छूते हुए निकलती हुई हवा में बाधा डालता है और हलकी- 


सी रगड़ के साथ हटता है. यथा--च्‌' छ ज्‌ झ । संस्कृत-व्याकरण परम्परा के आधार 
पर इन्हें स्पर्श कहा जाता रहा है किन्तु हिन्दी में इन के उच्चारण के समय स्पर्श के 
साथ-साथ हलका-सा संघर्ष/धषंण भी होने के कारण इन्हें स्पर्श-संघर्षी कहना अधिक 
उपयुक्त है । हिन्दी 'च्‌ ज्‌' में घषंण की मात्रा 'छ झू' की अपेक्षा कम है। छझझ्म! 
में महाप्राणता के कारण संघर्ष की मात्रा कुछ अधिक प्रतीत होती है। भँगरेजी 
च्‌ ज्‌ में संघर्ष की मात्रा हिन्दी की अपेक्षा अधिक है । । 
नासिक्य--इन ध्वनियों के उच्चारण के समय मुख-विवर में कहीं-न-कहीं 

स्पर्श होता है, हवा के निकलने में अवरोध होता है और हवा मुख-विवर से न निकल 
कर नासिका-विवर से बाहर निकलती है, यथा--म्‌ म्ह न्‌ नह (ञ ) णू्‌, (७४)। 
संस्कृत-व्याकरण परम्परा में इन्हें भी (म्ह नह के अतिरिक्त) स्पर्श वर्ग में रखा जाता 
रहा है । इन ध्वनियों के उच्चारण के समय हवा नाक से निकलती है और स्पर्श 
ध्वनियों के उच्चारण के समय हवा मुह से निकलती है। प्रयत्न की दृष्टि से यह 
प्रमुख अन्तर इन ध्वनियों को स्पर्श ध्वनियों से भिन्‍न वर्ग की ध्वनियाँ सिद्ध 
करता है । नासिक्य ध्वनियों में दन्त्य न, दन्त्योष्दय म्‌ को भी सम्मिलित किया 
जाता है । 

4. पाश्विक---इन ध्वनियों के उच्चारण के समय जीभ की नोक ऊपर के 


मसूढ़े को छूती है, हवा के निकलने से पूर्व हलका-सा अवरोध होता है और हवा जीभ 
के किसी एक पाश्व या दोनों पाश्वों से बाहर निकलती है, यथा--ल्‌, ल्ह । 


5. ध्रकस्पो--इन ध्वनियों के उच्चारण के समय जीभ की नोक ऊपर के 
मसूढ़े को छूने के साथ ही निकलती हुईं हवा में अवरोध उत्पन्त कर हवा के. 
प्रभाव से एक-दो बार कम्पित होती है, यथा--र्‌ (रह) । इन ध्वनियों को प्रकम्पित/| 
कम्पित, लुठित/लोड़ित भी कहा जाता है। कुछ लोगों के उच्चारण में जीभ में कम्पन 
की प्रक्रिया होती है और कुछ लोगों के उच्चारण में लुठन या लोड़न की |... 

उत्क्षिप्त--इन ध्वनियों के उच्चारण के समय जीभ की नोक मुर्धा-पूर्व 
कठोर तालु से ठकराती है और हवा के प्रवाह में अवरोध होता है तथा जीभ तेजी/ 
झटके से तीचे गिरती है, उसी क्षण हवा बाहर निकलती है, यथा--ड़, ढ़ । हिन्दी की 


इन उत्तक्षिप्त ध्वनियों के उच्चारण के लिए हिंन्दी-इतर भाषा भाषियों को विशेष... 

. प्रयास करने की आवश्यकता है क्योंकि ड्‌ ढू और ड़ ढ़ का उच्चारण-स्थान लगभग 

समान है किन्तु उच्चारण-प्रयत्न भिन्‍न-भिन्‍न हैं । को जा 
हैं 





_ 48 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


दन्त्यमूल/दन्त है जो हिन्दी-इतर कुछ भाषाओं में उ्च्चरित है। इन ध्वनियों को 
कुछ लोग करण के आधार पर जिह वाग्रीय भी कहते हैं । 

..._ 4. बर्त्स्य--ऊपर के मसूढ़े और जीभ की नोक या फलक की सहायता से 
..._ उच्चरित व्यंजन, यथा--न नह र रह लू लह, स्‌ जू । कुछ लोग करण के आधार 
. प्रत्‌ दूध ध्‌ स्‌ जू न्‌ को जिह वाफलकीय कहते हैं और लू र्‌ को जिह वान्तीय । 

क्‍ 5, अग्न तालव्य--कठोर तालु के अग्र भाग और जिह वा-फलक की सहायता 
'से उच्चरित व्यंजन, यथा--ठ ठ ड ढू (ण) ड़ ढ़ (ष्‌)। संस्छत-व्याकरण परम्परा 
के आधार पर इन्हें भर्धन्य कहते हैं। हिन्दी में इन का उच्चारण मूर्धा से नहीं होता । 
कुछ लोग इन्हें पुबंतालब्य भी कहते हैं। ड़ ढ़ का उच्चारण कुछ मूर्धा की ओर से 


होता है | 
6, पश्च तालव्य--कठोर तालु के पश्च भाग और जिह्‌ वा मध्य की' सहायता 


से उच्चरित व्यंजन, यया--च्‌ छ ज्‌ झ (ब) श्‌ यू। संस्कृत-व्याकरण परम्परा के 

आधार गर इन्हें तालब्य कहा जाता है । हिन्दी में च वर्ग का उच्बारण वर्त्त की ओर 

सरक आने के कारण तब का उच्चारण न्‌ जैसा हो गया है । 

द 7. कोमल तालव्य--कोमल तालु और जिह वा पश्च की सहायता से उच्च- 
_रिप व्यंजन, यथां--क्‌ ख गू घ्‌ छः । संस्कृत व्याकरण परम्परा के आधार पर इन्हें 
कृठय कहा जाता है । हर द 

..... 8. अलिजिह बीय--अलिजिह वाकीआ और जिह वामूल की सहायता से 

.. उच्चरित व्यंजव, यथा--क्‌ ख्‌ ग्‌ । कुछ लोग इन्हें जिहू बामूलीय भी कहते हैं । कुछ 
_ लोग ख्‌ गू का उच्चारण कोमल तालु से और कुछ अलिजिह वा से करते हैं । 

के 9. स्वरतन्त्रमुखी--दोनों स्वर तृन्त्रियों के मुखे “काका से उच्चरित व्यंजन 
. यथा--ह्‌ । इसे काकल्य भी कहा जाता है । कुछ लोग इसे ग्रसन्‍्य कहते हैं । संस्कृत- 
व्याकरण परम्परा में इसे कंदय कहा जाता रहा है।.. द 

. (2) जच्चारण-प्रयश्न--व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण के समय फेफड़ों से आने 

7 वाली हवा को विकृत करने में उच्चारण-करण जो प्रयत्न करते हैं, उन्हें उच्चारण- 


...  प्यत्व कहा जाता है। संस्कृत-व्याकरण परम्परा के अनुसार प्रयत्नों को दो वर्णों में 
... - विभकत कर पुनः उन के उपभेद किए जाते हैं, यथा--आश्यन्तर प्रयत्न । इन्हें धवनि- 
7.7 छत्चारण से पूर् के प्रयत्त कहा जाता है, यथा--विव॒त, स्पष्ट, ईषत विवृत, ईषत्‌ 
.._ स्पृष्ट 2. बाहूय प्रयत्त । इन्हें ध्वनि-उच्चारण के समय का/अच्तिम' क्षण के प्रयत्न 
.... कहा जाता है, यथां---घोष, अधोष । आधुनिक दृष्टि से ध्वनि-उच्चारण के लिए किए 
.. जानेवाले सभी अयत्न उच्चारण-प्रयत्त' हैं। उच्चारण-प्रयथत्त के आधार पर हिन्दी 












ड् व्यंजनों ० नोंके 8 वर्ग हैं." 





ज्वारण-स्थान को छू कर निकलती हुईं हवा में बाधा डालते ही हट जाते हैं, थथा-- 


. स्पर्श--इन ध्वनियों के उच्चारण के समय जीभ या नीवे का ओठ किसी... ! 








: स्वर | 49. 


क्खगूघृक ट्दूड्ढू तू थ्‌ द्‌ ध्‌ प्‌ फू बृ भू। वायु निकलते समय स्फोट होने 
के कारण इन्हें स्फोट ध्वनियाँ भी कहते हैं। स्फुटित ध्वनियों को सरब (अघोष, 
सघोष, स्परश्श-संघर्षी) भी कहा जाता है। आकआ 

2. स्पशें-संघर्षी--इन ध्वनियों के उच्चारण के समय जिह वा-मध्य कठोर 
तालु के पश्च भाग को छूते हुए निकलती हुई हवा में बाधा डालता है और हलकी- 
सी रगड़ के साथ हटता है. यथा--च्‌' छ ज्‌ झ । संस्कृत-व्याकरण परम्परा के आधार 
पर इन्हें स्पर्श कहा जाता रहा है किन्तु हिन्दी में इन के उच्चारण के समय स्पर्श के 
साथ-साथ हलका-सा संघर्ष/धर्षण भी होने के कारण इन्हें स्पश-संर्षी कहना अधिक _ 
उपयुक्त है । हिन्दी 'च्‌ ज्‌ में घंण की मात्रा 'छ झ' की अपेक्षा कम है। 'छझ 
में महाप्राणता के कारण संघर्ष की भात्रा कुछ अधिक प्रतीत होती है। भँगरेजी 
च्‌ ज्‌ में संघर्ष की मात्रा हिन्दी की अपेक्षा अधिक है। द 

3. नासिक्य--इन ध्वनियों के उच्चारण के समय मुख-विवर में कहीं-न-कहीं 
स्पर्श होता है, हवा के निकलने में अवरोध होता है और हवा मुख-विवर से न निकल 
कर नासिका-विवर से बाहर निकलती हैं, यथा--म्‌ म्ह न्‌ नह (ञ ) णू, (3 )। 
संस्कृत-व्याकरण परम्परा में इन्हें भी (म्ह नह के अतिरिक्त) स्पर्श वर्ग में रखा जाता 
रहा है। इन' ध्वनियों के उच्चारण के समय हवा नाक से निकलती है और स्पर्श 


रे ध्वनियों के उच्चारण के समय हवा मुह से निकलती है। प्रयत्न की दृष्टि से यह 


प्रमुख अन्तर इन ध्वनियों को स्पर्श ध्वनियों से शिन्‍न वर्ग की ध्वनिर्यां सिद्ध 
करता है । नासिक्य ध्वनियों में दन्त्य न, दल्त्योष्ठय मु को भी सम्मिलित किया 
जाता है । द ु 
पाश्विक---इन ध्वनियों के उच्चारण के समय जीभ की नोक ऊपर के 
मसूढ़े को छूती है, हवा के निकलने से पूर्व हलका-सा अवरोध होता है और हवा जीभ 
के किसी एक पाशवे या दोनों पाश्वों से बाहर निकलती है, यथा--ल्‌, ल्ह । 
». प्रकम्पो--इन ध्वनियों के उच्चारण के समय जीभ की नोक ऊपर के 
सूढ़े को छूने के साथ ही निकलती हुईं हवा में अवरोध उत्पन्त कर हवा के 
प्रभाव से एक-दो बार कम्पित होती है, यथा--रु (रह) | इन ध्वनियों को प्रकम्पित| 
कम्पित, लु ठित/लोड़ित भी कहा जाता है। कुछ लोगों के उच्चारण में जीभ में कम्पन 
की भ्रक्रिया होती है और कुछ लोगों के उच्चारण में लुठन या लोड़न की |. 
6. उत्क्षिप्त--इन ध्वनियों के उच्चारण के समय जीभ की नोक मूर्धा-पूर्व॑.. 
कठोर तालु से टकराती है और हवा के प्रवाह में अवरोध होता है. तथा जीभ तेजी| 
झटके से नीचे गिरती है, उसी क्षण हवा बाहर निकलती है, यथा--ड़, ढ़ । हिन्दी की. 


इन उत्तक्षिप्त ध्वनियों के उच्चारण के लिए हिंन्दी-इतर भाषा भाषियों को विशेष है 
प्रयास करने की आवश्यकता है क्योंकि ड्‌ ढू और ड़. ढ़ का उच्चारण-स्थान लगभग... 


समान है किन्तु उच्चारण-प्रयत्त भिन्‍न-भिन्‍न हैं।.. 





50 | हिन्दी का विवरणा त्मक व्याकरण 
के उच्चारण के समय जीभ का कोई भाग, नीचे 
का ओठ, अलिजिह वा किसी उच्चारण-स्थान या उच्चारण-करण के इतना निकट 
आ आते हैं कि अन्दर से बाहर आती हुई हवा घर्षण/रगड़ के साथ निकल | पाती है, 
यथा-फ व्‌ सूजू श्‌ (प्‌), ख गई हैं. । इन ध्वनियों के उच्चारण में संघर्ष|धरषण 
होने से वायु में हलकी-सी उष्णता आ जाती है, इसलिए इन्हें ऊष्म ध्वनियाँ भी कहा. 
जाता है। हु के उच्चारण के समय वायु स्वस्यन््न में पर्याप्त संघर्ष|धर्षण 
करते हुए बाहर निकलती हैं, इसलिए इसे सर्वाधिक ऊष्म माना जाता है । 


नियों के उच्चारण के समय जीभ और तालु 


. 8. संघर्षहीन सप्रवाह-ईन ठेव कक 
तथा दोनों होठ स्वरों के उच्चारण की अपेक्षा अधिक नजुदीक होते हैं, किन्तु इतने 


नजदीक नहीं कि वायु संघर्ष के साथ बाहर निकले, बल्कि अन्दर से आती हुईं हवा 
संघर्ष रहित एवं सप्रवाह निकलती है, यथा-ल्य्‌ व्‌ । स्‍्व॒रों के उच्चारण में भी हवा 
बिना संघर्ष के सप्रवाह निकलती है किन्तु इन दोनों ध्वनियों के उच्चारण में वागिन्द्रिय 
व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण की भाँति सक्रिय रहती है और ये दोनों ध्वनिर्याँ स्वर- 
मात्रा वहन करती हैं। स्वर तथा व्यंजन की मध्यवर्ती स्थिति से उच्चरित होने के 
कारण इन्हें अन्तस्थ|अर्ध स्व॒र|स्व॒रोन्मुखी व्यंजन भी कहा जाता है । 
स्पर्श तथा स्पर्श-संघर्षी व्यंजनों को परुष व्यंजन भी कहते हैं। नासिक्य, 
लुठित पाश्विक, उत्क्षिप्त और अर्ध॑ स्वरों को तरल व्यंजन कहा जाता है। संघर्षी 
और अधे स्वरों को प्रवाही ब्यंजत कहा जाता है।क खुग्‌ ज्‌ फ विदेशों ब्यंजन 
कहे जाते हैं । 
(3) स्व॒रतन्त्री-अवस्था--जिन व्यंजन धवनियों के उच्चारण के समय स्वर- 
... तन्त्रियों में अधिक कम्पन होता है या ध्वनि में नाद अथवा हलकी-सी गूंज होती है, 
. उन्हें घोष|सघोष व्यंजन कहते हैं, यथा->ग्‌ घूडआ जू झू झा डूढू पड ढ,. दू थे हे 
नह बुभूम्‌म्ह य्रल्‌ल्ह वृह गज । जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण के 
. समय स्वर तन्त्रियों में अत्यल्प कम्पन होता है या ध्वनि में नाद अथवा गज नहीं 


7, संघर्षी--इन ध्वनियों 


.. होती, उन्हें अधोष व्यंजन कहते हैं। इन के उच्चारण में श्वास का केवल रब (शोर) 





होता है, यथा-ऋ खू चू छ ट्‌ृदू तूथू पुफुश्‌ (प)सूक, ख फ । 
. सभी स्वर ध्वनियाँ सघोष हैं और उन का घोषत्व (नाद) व्यंजनों की अपेक्षा 


अधिक होता है| कानों में उँगली डाल कर घोष|सघोष ध्वनियों का उच्चारण करने 


.. पर उत की गूज स्पष्ट सुनाई पड़ती है। ऐसा करते समय एकाकी व्यंजन ध्वनियों 


... का उच्चारण न किया जाए क्योंकि एकाकी व्यंजन के उच्चारण के समय अन्त्निहित 
। है हि रा 6 व ५ ही] जय दि कक 
“अं की गूंज सुनाई देगी, अतः अलोप युत व्यंजन का उच्चारण करता उचित रहेगा, 


.._ यया--आक्‌-आग्‌, सच्‌-सज्‌, रोद्‌-रोड्‌, बातू-बादू आदि । टेलीफोन पर या बहुत हर 


.... सं सुनाई केतवाली श्वनियो में घोष|सयोष ध्वनियाँ अधोष ध्यनियों की अपेक्षा अधिक 


 चषदुनाईवेही है।.." 









स्वर | 5 


(4) वायु-प्रवाह---जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण के समय अधिक बल के 
साथ हवा निकलती है, उन्हें महाप्राण व्यंजन कहते हैं, यथा-ख्‌ घ्‌ छ झ ठ ढ़ 
थ्‌ धफ्‌भ्‌ ह ढ़ नह महू लू ख्‌ फ्‌ | जिन व्यंजन ध्वनियों के उच्चारण के समय 
हवा सामान्य रूप से ((कम बल के साथ) निकलती है, उन्हें अल्पप्रनाण व्यंजन कहते 
हैं, यथा--क्‌ ग छह च्‌ जूझ दड्णत्‌ दन पृब मय रल बव॒ श॒ ष सृड़ 
क ग ज्‌ । कई व्याकरण-पुस्तकों में 'यू र लुवबृश॒ प्‌ स॒ व की ग्राणता के बारे में 
कोई उल्लेख न होने से पाठकों की जिज्ञासा शान्त नहीं हो पाती क्योंकि प्रत्येक ब्यंजन 
ध्वनि प्राणता की दृष्टि से या तो अल्पप्राण होती है या महाप्राण। सभी वर्गीय व्यंजन 
ध्वनियों के अल्पप्राण-महाप्राण के थुग्म नहीं हैं, यथा--ज्य_ ण्‌। व्यंजन ग्च्छों में महा- 
प्राण ध्वनियाँ अल्पप्राण ध्वनियों के बाद आती हैं, यथा--मकखी, उत्खनन, उद्धव, 


कच्छा । महाप्राण ध्वनि्याँ अल्पप्राण ध्वनियों की भाँति प्रायः तीनों स्थितियों में 
आती हैं । 


म्ह का प्रयोग संस्कृत से विकसित कुछ शब्दों में तथा कुछ अन्य हिन्दी शब्दों 


में प्राप्त है, यथा--क्ुम्हार < कुम्भकार; कुम्हड़ा<क्ष्मांड, कुम्हलाना, तुम्हारा/ 


तुम्हारी/तुम्हारा, तुम्हें, तुम्हीं । ब्रहम, ब्राह्मण” का उच्चरित 'रूप” 'म्ह”ः वत हो 
गया है, यथा-- ब्रम्म्ह, ब्राम्म्हण | । इसी प्रकार ब्रह मत्व, ब्रह मा, ब्राहमणी आदि 
के उच्चारण में “मह प्राप्त है। कुम्हार-कुमार में अर्थ-भेद है । 

हूं का प्रयोग कुछ ही शब्दों में प्राप्त है, यथा--कान्हा, कन्हैया, चीन्हना, 
अनची नहा, नन्‍्हा । 'नन्‍हा' का उच्चारण [ननन्‍्हा] होता है, इसी प्रकार 'चिहन' का 
उच्चारण नह वत्‌ होता है, यथा--चिह न, चिहनित [चिनन्‍्ह, चिनन्हित्‌]। 
काना-का नहा में अथं-भेद है । । 

लह का प्रयोग हिन्दी के कुछ शब्दों में प्राप्त है। यथा--दृल्हा, दुल्हन, 
चूल्हा, कूल्हा, आल्हा, कुल्हड़, कुल्हाड़ी। आला-आल्हा में अर्थ-भेद है। हिन्दी में 
रह , व्ह उच्चारण भी प्राप्त है। ब्रज में कराहना करुहानौं जैसा उचच्चरित होता 
है। विहू बल का उच्चारण विव्हुलू/विव्व्हल्‌ जैसा है। ऊद की शैली में तरह' को 
[तरहा] जैसा बोला जाता है। 

(5) अलिजिह वा-स्थिति--उच्चारण. के समय जब गले के ऊपरी' भाग में 
लटकनेवाला 'कौआ अन्दर से निकलती हुईं हवा को मुख मार्ग से नहीं निकलने 
देता, तब हवा नाक से हो कर निकलती है। ऐसी' व्यंजन ध्वनियों को नासिक्य! 
कहा जाता है (अन्य व्यंजन मौखिक कहे जाते हैं), यथा--छ आ णु न्‌ नह म्‌ महू । 

(6) उच्चारण करण-स्थिति---जब जीभ, नीचे का ओठ, कौआ केवल एक 
ही ध्वनि के उच्चारण के लिए गतिशील होते हैं, तो वे ध्वनियाँ सामान्य व्यंजन 
कहलाती हैं । जब उच्चारण-करण एक से अधिक व्यंजन ध्वनियों के लिए एक बार 
में गतिशील होते हैं तो वे ध्वनियाँ संयुक्त व्यंजन कहलाती हैं । कुछ लोग इन्हें 
व्यंजन-गुष्छ भी कहते हैं । (इन के उदाहरण आगामी पृष्ठों पर दिए गए हैं) 












52 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


. (7) उच्चारण-समय--जब किसी व्यंजन के उच्चारण के समय वायु-अवरोध 
के क्षणों की मात्रा सामान्य की अपेक्षा अधिक होती है, तब उसे दी्घ व्यंजन कहते 
हैं, अन्य सभी व्यंजन सामान्य व्यंजन कहलाते हैं। हिन्दी में प्राप्त दीर्घ व्यंजन ये 
हैं--क्क ग्गू च्चू ज्जू टट डड ण्ण त्तू दद न्न्‌ प्प्‌ ब्ब म्मू य्यू रे ल्‍लू व्यू श्श स्स्‌ 
कक गर्ग ज्जू ।महाप्राण व्यंजनों का दीर्घ उच्चारण नहीं हो पाता । (दी व्यंजनों 
के प्रयोग-उदाहरण आगामी पृष्ठों पर दिए गए हैं). 

हिन्दी के एकाकी/सामान्य|सरल व्यंजनों की संरचना--एकाकी' व्यंजनों की' 
संरचना का विवरण मुख्यतः उच्चारण-स्थान, उच्चारण-प्रयत्न, घोषत्व तथा महा- 
प्राणत्व के आधार पर दिया जाता है। इन व्यंजनों में दीघंता, संयुक्तता का अभाव 
होने से इन पक्षों का उल्लेख नहीं क्रिया जाता। हिन्दी के सरल व्यंजनों का 
. ध्वन्यात्मक विवरण इस प्रकार दिया जा सकता है--- द 
क कोमल तालव्य स्पर्श अल्पप्राणः अधघोष (काम, मकान, नाक) 


ख्‌ हक ५, भहाप्राण. _,, (खाना, चखना, आँख) 
ग्‌ रा .., . अल्पप्राणः सघोष (गाय, कगोर, लोग) 
आओ आय 2 औ | ».. महाप्राण ,, (घड़ी, लघुता, अघ) 
हे थ अ नासिक्य अल्पप्राण. ,, (पड खा|वाडः मय) 
. च्‌ पश्च तालव्य. स्पश-संघर्षी अल्पिप्राण अघोष (चना, पचाना, नाच) 
छू रा ४... महाप्राण ,,  (छतरी, मछली, कुछ) 
जूः हे ». अल्पप्राणः अघोष (जलेबी, निजी, आज) 
झू ऐ ४. महाप्राण ,, (झंडा, गुझिया, बाँझ) 
जग रे नासिक्य अल्पग्राण. ,,. (चज्चल/कण्ज) 
. टू अग्रतालब्य. स्पशे अल्पप्राणः अधघोष (ट्रेन, अठारी, नट) 
कु के 57 70, , महाप्राण . ., - (ठाक्र, लाठी, साठ) 
कह से 0, *० अल्पप्राण. ._ सघोष (डाल, झंडी, झु ड) 
हक और ”.. महाप्राण ,, (ढेला, धनाढयता, षण्ढ) 
 णू.... ».. नासिक्य अल्पप्राणाः ,, (कण्प, रण) 
तू दन्त्यमूल स्पर्श अल्पप्राणः अघोष (तप, पताका, गात) 
 थू- ४... ४  महूप्राण. ,, (थन, पथिक, पथ) 
दर | गा आ डा आर अल्पप्राण: ः सघोष (दान, नदी, नंद) 
सब का ए 5 य5 कं । मह्ाप्राण: -.., . [धिन, गंधी, बाँध) 
न वत्य्ये नासिक्य अल्पप्राण. ,, (नाम, दानी, कान) 
प्‌ दुव्योष्दूयू... स्पर्श अल्पप्राण अघोष (पानी, रुपया, तप) 
हा ; द ाः ः या ः्झ रा महाग्राण ०" के हा (फ निष्फल, कफ) 
_ बू ४... ४ अअत्पप्राणः सघोष (बालू, गोबर, साहब) 





अल मन 





स्वर | 53 


नव कि हि >ं #श श् जन ज्ञ 


जा 
फू 


द्व्योष्ठ्य स्र्श॑ महाप्राण सघोष (भीड़, कभो, शुभ) 
नासिक्य अल्पप्राण ”.. (मक्‍्खी, अमीर, नाम) 
पश्च तालव्य संघर्षहीन सप्रवाही ,, . ,,. (याद, कवायद, लय) 
बत्स्यं प्रकम्पी हर ४». (रथ, सारा, हार) 

३; पाश्विक हे ». (लड्डू, कली, मोल) 
दुष्पोष्ठय संघर्षहीन सप्रवाही ,, ». (वसंत, कविता, नाव) 
पश्च तालब्य संघर्षी /. अधोष (शेर, रेशम, नाश) 

वर्त्स्यं | | ».. (सड़क, भैंसा, भैंस) 
है स्वरयन्त्रमुखी हे महाप्राण उभय घोष (हाथ, वही, यह) 

(मूलतः सघोष) 

ड़ अग्र तालव्य उत्क्षिप्त अल्पप्राणः सघोष (सड़क, पेड़) 
ढ़ । हु महाप्राण ». (पढ़ाई, चढ़) 
नह वत्स्यं नासिक्य गे 8. (कान्हा, चिन्ह < चिह न) 
महू. दुव्योष्दूय...,, ».. »  (वुम्हें/कुम्हार) 
लहर वत्स्यं पाश्विक ». (वदृल्हा|कुल्हड) 
क अलिजिह वीय स्पर्श अल्पप्राणः अघोष (कानून, रकीब, ताक) 
ख्‌ ,) संघर्षी महाप्राण ”. (ख र, कारखाना, रुख) 
ग अलिजिह वीय े अल्पप्राणः सघोष (गरीब, कागज, मुग ) 
[_ व्त्स्य ड; न्‍ ». (जरा, बाजार, नाज) 
7... दल्त्योष्ठय हे महाप्राण अघोष (फ्‌न, महफिल, कफ) 


हिन्दी के सरल व्यंजनों का वितरण तथा प्रयोग--हिन्दी में ड॒ व ड,ढ़ 
णू, नह, म्हू लह के अतिरिक्त अन्य सभी' व्यंजन शब्द के आरम्भ में आ सकते हैं । 
हिन्दी की बोलियों में न्हान < नहान/नहाना (स्तान), म्हारों < हमारा, ल्हास < लाश 
. शब्द प्राप्त हैं। तिब्बत की राजधानी ल्हास!” शब्द का प्रयोग परिनिष्ठित हिन्दी में 
भी होता है। नह, म्हू , ल्ह्‌ संयुक्त व्यंजन नहीं हैं, वरन्‌ 'न्‌ म्‌ ल्‌* के महाप्राण 
रूप हैं । सभी सरल व्यंजन शब्द-मध्य में आ सकते हैं। ४ व्य अपने वर्गीय व्यंजनों 


के पूर्व संगुक्त रूप में आते हैं। वाडः मय<वाक्‌--मय को अपवाद कहा जा सकता... 


है। हः व्य नह महू लहू शब्दान्त में अनुपलब्ध । शब्दान्त/भक्षरान्त में आनेवाले - 
एकाकी' व्यंजन अब्लोप के साथ उच्चरित होते हैं। |. ० 
हिन्दी के धुरुय|किल्द्रीय व्यंजन स्वानिम 33 हैं--क्‌ खू गघ्‌ चू छ 
ढृणूृत्ृथूव्धृन नह प्‌फूब भू म्‌ महू यूरलूवृशूसू हू । हिन्दी' 

गौण व्यंजन स्वतिम 5 हैक खू गू जु फू | 7 


५५ 


आत्म. 


हिन्दी में ड्‌ डू, हू ढ़, के प्रयोग-वितरण में परिपूरकता प्राप्त है; न कि. क्‍ 


... व्यतिरेक, यथा-+ 

















स्वर | 55 


'न्‌, मू, लू की महाप्राणता को व्यक्त करने के लिए नये व्यंजन वर्णों का निर्माण 
न कर के इन में हू” का योग कर के व्यक्त करने लगे हैं, उच्चारण में ये अन्य 
महाप्राण व्यंजनों की भाँति उच्चरित होते हैं। रोमन में 'एच के योग से, उर्दू में 
दुचश्मी हे या हम्जा के योग से महाप्राणता व्यक्त करते हैं । इन लिपियों के प्रभाव 
से उन्हें, जिन्हें, तुम्हारा, तुम्हें, दुल्हा, भाल्हा, कुल्हाड़ी, कुल्हड़, अल्हृड़, मल्हार 
को “उन्‌ हैं, जिन्‌ हैं, तुम्‌ हारा, तुम्‌ हें, दुल हा, आल हा, कुल हाड़ी, कुल हड़, अल 
हड़ उच्चारण करना अशुद्ध है । हिन्दी की महाप्राण ध्वनियों को संयुक्त व्यंजन 
सिद्ध करने के लिए कई उल्टी-सीधी दलीलें दी जाती हैं किन्तु हिन्दी की स्वनिमिक 
व्यवस्था की संगति, आक्षरिक संरचना तथा वितरण सम्बन्धी विशेषताओं आदि के 
आधार पर महाप्राण व्यंजनों को एकल/एकाकी/सामानन्‍्य/|सरल/मूल व्यंजन ही कहा/ 
माना जा सकता है न कि संयुक्त । 

. हिन्दी ह--शब्दारम्भ और शब्द-मध्य में ह” का उच्चारण धोष है, 
यथा--हम, हार, हीरा, महान्‌, ,विहार, सुहाग । अक्षरान्त (मुख्यतः शब्दान्त) में 
इस का उच्चारण अघोष (और कभी-कभी बहुत हलका) होता है, यथा--बारह, 
स्नेह, बाहरी, देहरी । शब्दान्त में बहुत हलका उच्चारण होने के कारण दीघ॑ स्वरों 
के बाद कुछ शब्दों में इस का लोप-सा प्रतीत होता है, यथा--तफरीह-तफरी, 
दरगाह-दरगा, परवाह-परवा | अक्षरानत और शब्दान्त के अह ” के उच्चारण में 
हलकापन होने के कारण “ह अस्पष्ट हो जाता है और “अ' में दीघंता सुनाई पड़ती 
है, यथा--ग्यारह-ग्यारा, बारह-बारा; फिर भी बारा, तेरा' और “बारह, तेरह' के 


उच्चारण में सूक्ष्म भेद रहता है । 


लिखित-अह -युत शब्दों के 'अ! का उच्चारण निम्न अग्न स्वर ऐ” जैसा हो 
जाता है, यथा--कहर, जृहर, तहत, नहर, पहन, पहल, बहन, वहम, बहल, महर 
रहट, रहन, रहम, लहर, शहर, सहन; कहना, गहना, गहरा, जहरीली, नहला 
नहले प॑ दहला, तहमत, पहला, पहनना, पहचान, बहुका, बहरा, रहना, रहमान, 
लहँगा, सहमा, शहरी; अहसान। 6 के साथ दी स्वर होने पर पूर्ववर्ती अ' में 
कोई परिवतेन नहीं होता, यथा--कहाँ, कहो, कही, महीन, महा, रही, शहीद, सही, 


लहू । लिखिंत रूप में बहन, रहट, शहर' जैसे दो अक्षरवाले कुछ शब्द उच्चारण में 
एकाक्षरी होने लगे हैं। 'कहकहा, चहचहाना, चहचहाहठ' जैसे कुछ शब्दों के पहले 


अक्षर के अ' में भी परिवर्तेत आ जाता है। “बहुत, बहुतायत' का उच्चारण अनेक 


गैग 'बोगत, बो-्तायत' जैसा करते हैं । 
हू के कारण पूव॑वर्ती स्वर के उच्चारण में जो परिवर्तन होता है, उसे इन 


_शब्द-युग्मों के उच्चारण के समय अनुभव किया जा सकता है--मेजर-मेहर, सेमर..._ 
. सेहत, सेवला-सेहरा । इस उच्चारण-परिवतंन का प्रभाव लेखन में भी पड़ने लगा है, 
_ यथा--(क) जा युत शब्द--कहना, पहचान, पहल, पहला, रहना, रहम, लहर, ' 








54 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


[ड] शब्दारम्भ में--डाली, डींग, डुबकी; भँगरेजी से आग्रत शब्दों में--- 


डालडा 
शब्द मध्य में-- (ड्ड/--ड्‌)--अड्डा, गुड्डी, अंडा, पंडित । अंगरेजी, 
देशी भाषाओं से आगत शब्दों में--सोडा, इडली । 
उपसर्गयुत शब्दों तथा पुत्र्कत शब्दों में--निडर, 
अडिण, सुडील; डीलडौल, डुगडुगी। द 
शब्दान्त में-- (ड्ड्‌/-ड)-खंड्ड, झ ड, दंड । अँगरेजी से आगत 
। शब्दों में--रोड, कार्ड, रोल्ड गोल्ड । 
[ड़] शब्दमध्य में--(स्वर-मध्य में )- बड़ा, गाड़ी, झाड़ी, लड़ाई। 
शब्दान्त/अक्षरान्त में--पेड़ , सॉड़ , लड़का 
[ढ़] शब्दारम्भ में-- ढाल, ढोलक, ढंग | 
शब्दमध्य में--(ड्ढ/--ढ/ड्य)-बुंडढा, गडढा; ? ठंढक, धनाढुय 
शब्दान्त में--(डढ|--ढ)-: ठंढं 
[ढ़] शब्दमध्य में-- (स्वर-मध्य में )--बुढ़ा, पढ़ाई, मेंढक 
शब्दान्त/|अक्षरान्त में--बाढ़ , रीढ़, पढ़ ना, चढ़ ना, गढ़ वाली 
इस प्रकार ड, ढ' रूप के आरम्भ में; अक्षर-आा रम्भ/अक्षरान्त में सवर्गीय 
स्वन के पास या बाद में और व्यंजन-गुच्छों में प्राप्त हैं। ड़, ढ़, श्रथम अक्षर के - 
बाद, अक्षरान्त में/अक्षर-सीमा पर प्राप्त हैं। गैंडा-गैंडा, लौंडा-लौंड़ा, लौंडिया* 
लौंडिया' के तथाकथित अरथभेदकारी युग्म इन को स्वनिम सिद्ध नहीं कर पाते 
क्योंकि अरबी-फारसी के माध्यम से आए युग्मों के पहले शब्दों या गोल्ड, रोड, 
रेडियो, डालडा आदि आगत शब्दों के आधार पर इन्हें हिन्दी की मुल ध्वनि- 
व्यवस्था का साँचा घोषित नहीं किया जा सकता । वास्तव में गैंडा, लौंडा, लौंडिया' 
शब्द क्रमशः 'गैण्डा, लौण्डा, लौण्डिया' हैं जो नासिक्य ध्वनियुकत हैं न कि अनु- 
नासिकतायुत । ४. ः 
.. प्राग सम्प्रदाय की आर्की स्वनिम 7०४ शाकाशा6 की संकल्पना के भाधार 
पर भी 'ड ढ! स्वनिम तथा ड-ड़, ढु-ढ़ उपस्वप्त हैं। यदि कोई स्वनिम भिनन्‍न- 
भिन्न स्थितियों में भिन्‍त-भिन्‍त रूप धारण करता है, तो वह आर्की स्वनिम कहलाता 
है, यथा--आय॑, द्रविड़ समुदाय की भाषाओं में अनुस्थार आर्की स्वनिम है जो पाँचों 
व्यंजन वर्गों के साथ क्रमशः डः व्यू, ण्‌, न्‌, म्‌ के रूप में तथा शेष व्यंजनों के साथ 
(--) अनुस्वार के रूप में प्रतिफलित है । इसी प्रकार ड्ढू आर्की स्वनिम हैं जो 
स्‍्वरों के बाद ड़, ढ़ हैं, अन्यत्र ड्‌, ढू, यथा--बंडहर-खेड़हर, हँडिका-हंड़िया, 
षंड-साँड, मंड-माँड़; बुड्ढा-बुढ़ा, ढाई-अढ़ाई, मुड॒ढ-समृ ड़, गढ़ । द है उ् 
.. हिन्दी में महाप्राण व्यंजन एकाकी या सामान्य व्यंजन हैं न कि संयुक्त व्यंजन । 
नह म्हल्ह भी खा घ भढ़ की भाँति एकाकी| सामान्य व्यंजन हैं। देवनागरी में 


| 





स्वर | 55 


'नू, मू, ल' की महाप्राणता को व्यक्त करने के लिए नये ध्यंजन वर्णों का निर्माण 
न कर के इन में “हू” का योग कर के व्यक्त करने लगे हैं, उच्चारण में ये अन्य 
महाप्राण व्यंजनों की भाँति उच्चरित होते हैं। रोमन में एच' के योग से, उढ्ू में 
दुचश्मी हे या हम्जा के योग से महाप्राणता व्यक्त करते हैं। इन लिपियों के प्रभाव 
से उन्हें, जिन्हें, तुम्हारा, तुम्हें, दुल्हा, भाल्हा, कुल्हाड़ी, कुल्हड़, अल्हड़, मत्हार' 
को “उन्‌ हें, जिन्‌ हें, तुम्‌ हारा, तुम्‌ हैं, दुल्‌ हा, आल्‌ हा, कुल हाड़ी, कुलू हड़, अब 
हड़' उच्चारण करना अशुद्ध है | हिन्दी की महाप्राण ध्वनियों को संयुक्त व्यंजन 
सिद्ध करने के लिए कई उल्टी-सीधी दलीलें दी जाती हैं किन्तु हिन्दी की स्वनिभिक 
व्यवस्था की संगति, आक्षरिक संरचना तथा वितरण सम्बन्धी विशेषताओं आदि के 
आधार पर महाप्राण व्यंजनों को एकल|एकाकी/सामानन्‍्य|सरल/मूल व्यंजन ही कहा। 
माना जा सकता है न कि संयुक्त । द द 

हिन्दी 'ह-शब्दारम्भ और शब्द-मध्य में हु का उच्चारण घोष है, 
यथा--हम, हार, हीरा, महान्‌, विहार, सुहाग । अक्षरान्त (मुख्यतः शब्दान्त) में 
इस का उच्चारण अघोष (और कभी-कभी बहुत हलका) होता है, यथा--बा रह, 
स्नेह, बाहरी, देहरी । शब्दान्त में बहुत हलका उच्चारण होने के कारण दीघें स्वरों 


_ के बाद कुछ शब्दों में इस का लोप-सा प्रतीत होता है, यथा--तफ्रीह-तफ्री, 


दरगाह-दरगा, परवाह-परवा | अक्षरानत और शब्दान्त के अह! के उच्चारण में 
हलकापन होने के कारण हू अस्पष्ट हो जाता है और “अ' में दीर्घता सुनाई पड़ती 
है, यथा--ग्यारह-ग्यारा, बारह-बारा; फिर भी 'बारा, तेरा और बारह, तेरह के 


उच्चारण में सूक्ष्म भेद रहता है । 


लिखित-अह -युत शब्दों के अ' का उच्चारण निम्न अग्न स्वर 'ऐ” जैसा हो 


. जाता है, यथा--कहर, जहर, तहत, नहर, पहन, पहल, बहन, वहम, बहल, महर, 


रहट, रहन, रहम, लहर, शहर, सहन; कहना, गहना, गहरा, जहरीली, नहला, 
नहले प॑ दहला, तहमत, पहला, पहनना, पहचान, बहका, बहरा, रहना, रहमान, 


.. लहंगा, सहमा, शहरी; अहसान। 'ह' के साथ दीघ॑ स्वर होने पर पू्वेवर्ती 'अ' में 
कोई परिवर्तन नहीं होता, यथा--कहाँ, कहो, कही, महीन, महा, रही, शहीद, सही, 


लहु । लिखित रूप में बहन, रहट, शहर' जैसे दो अक्षरवाले कुछ शब्द उच्चारण में 
एकाक्षरी होने लगे हैं। 'कहकहा, चहचहाना, चहचहाहट' जैसे कुछ शब्दों के पहले 


अक्षर के अ' में भी परिवर्तन आ जाता है। “बहुत, बहुतायत' का उच्चारण ख्नेक 


लोग बो-त, बोज्तायत' जैसा करते हैं । द क्‍ 
.. है के कारण पूव॑वर्ती स्व॒र के उच्चारण में जो परिवर्तन होता है, उसे इन 


शब्द-युग्मों के उच्चारण के समय अनुभव किया जा सकता है--मेजर-मेहर, सेमर' 
सेहत, सेवला-सेहरा । इस उच्चारण-परिवतेन का प्रभाव लेखन में भी पड़ने लगा है, 
 यथा--(क) अ! युत शब्द--कहना, पहचान, पहल, पहला, रहना, रहम, लहर, 








56 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


शहर [ख) ए' ग्रुत शब्द--एहतियात, तेहरान, बेहतर, मेंहदी, सेहत, सेहरा (ग) 
“-ए युत शब्द--जहन-जु हत अहसान-एहसान,. अहसास-एहसास, महसान- 
मेहमान, महर-मेहर । गा वर्ग के वैकल्पिक लेखन पर शलीगत, वैयक्तिक और 
स्थानीय प्रयोग का प्रभाव भी स्वीकार किया जाता है । द 
अगिनी शब्द का विकास बहिंत के रूप में माना जाता है किन्तु बहन > 
बहनोई को बहिनोई' लिखना खटक पैदा करता है । इसी श्रकार पहिला' मानकेतर 
है. 'पहला' मानक है । महिला, महिमा, रहित, सहित शब्द मूलतः ई झुतत हैं। 
हिन्दी-क्षेत्र के कहना, पहना, महमान रैहना/रैना' जैसे वर्तनी एवं उच्चारण-दोषों 
का दुष्प्रभाव हिन्दी-इतर भाषियों पर भी पड़ सकता है । 
उ्द' से आगत हु युव अनेक शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं, यथा-पगुनाह, 
निकाह (पु), अफवा जिरह, तरजीह, तरह, तन ख्वाह, तफरीह, तह, निगाह, 
पनाह, परवाह, फूजर, वजह, सतह, सुलह, सुबह (स्त्री) 
हिन्दी में पाँच नासिक्य स्वनिम हैं । (। ) न/स्वनिम के चार उपस्वन हैं-- 
[. [ह] क खू ग घ्‌ से पूर्व सथुक्त व्यंजन के रूप में; शब्दों में अक्षर-सीमा पर, 
यथा--वाडः मय, पराड मुख 2. [व्य ]च्‌ छ ज्‌ झू से पूर्व संयुक्त व्यंजन के रूप में 
3. [न]त्‌थदुधसे पूर्व संयुक्त व्यंजन के रूप में 4. [व्‌] अन्यत्र | (2) | मु 
स्वनिम है । न, म॑ का अर्थभेदक व्यत्तिरिक प्राप्त है, यथा--नाली-माली, कानी- _ 
कामी, कान-काम (3)/मह /स्वनिम है! म-म्ह का अर्थ-व्यतिरेक प्राप्त है, यथा- 
कुमार-कुम्हार । (4) (न्‍्ह |स्वनिम है । वुन्‍त्ह का अर्थ-व्यतिरेक प्राप्त है, यथा-- 
काना-कान्हा । (5) [ण्‌/ स्वत्तिम है। कण के अर्थ व्यतिरेकी शब्द-युग्म हैं--रन- 
रण, अनु-अणु, कर्त-कर्ण | जन सामान्य की बोलचाल में ण्‌' को न्‌' के समान 
बोलते हैं, यथा-गुण>-गुन, प्राण-”प्रान, चरण०--चरन, कगल्टकन वीणा-5 
बीना, प्रण--प्रन आदि । इसे णू-न्‌ का मुक्त परिवर्ते नहीं कहा जा सकता क्योंकि. 
ही जन सामान्य न्‌ को 'ण्‌” के रूप में नहीं बोलता । 
.... हिन्दी में ण्‌' का उच्चारण ८ वगग से पूर्व संयुक्त व्यंजन के रूप में वासिक्य हे हे 
हे है अन्यत्न [ड़ | या [न] वतू हे । संस्कृत के दो शब्दों अक्ष ण्ण , विषण्ण में हिन्दी हा 
_ उच्चारण सामान्यतः उतना दी नहीं होता जितना म्‌, न्‌ दीघं होते हैं। पुण्य, कष्व 
का हिन्दी उच्चारण पुन्त्य, कल्म्व जैसा होता है। 'रुग्ण, पूर्ण के 'ण' का उच्चारण 
व॒त्‌ है । कह पा रा 
हिन्दी के गौण स्वनिम|क ख्‌ ग्‌ जू फहैं। इन में 'क स्पर्श काकल्य है हा 


..._ -ख गु! पश्च|कोमल तालव्य संघर्षी हैं, 'ज वरत्स्यं संघर्षी है ओर 'फ्‌, दन्त्योष्द्य |. 


..... हैं। जत सामान्य इन के स्थान पर क्रमशः|क्‌ खू ग्‌ ज्‌ फू का उच्चारण करते हैं। 





.. संचर्षी। ये स्वनिम विदेशी भाषाओं के अनेक शब्द आ जाने के कारण विकसित हुए 















स्वर | 57 


इस आधार पर इन्हें मुक्त परिव्त कहना/मानना गलत है क्योंकि गोण स्वनिमों के 
स्थान पर ही केन्द्रीय स्वनिमों का उच्चारण होता है, केन्द्रीय स्वनिमों के स्थान पर 
गौण स्वनिमों का उच्चारण नहीं किया जाता | यह एकांगी मुक्त परिवर्ते ही कहा जा 
सकता है। परिनिष्ठित हिन्दी में इन गौण स्वनिमों का प्रयोग शुद्ध उच्चारण पर 
बल देनेवाले लोगों के द्वारा कसरत से किया जाता है। हिन्दी में इन स्वनिमों से 
बने अथ॑ं-भेदक न्यूनतम शब्द-युग्म भी काफी मात्रा में उपलब्ध हैं, यथा-- 


ताक-ताक 
खेर-ख र, खाना-खाना, खोर-खोर 
बाग-बाग, गौर-गौर, बेगम-बेगम 
राज-राजू, जरा-जूरा, जीना-जीना, गज-गजू, सजा-सजा 
फन-फन, फलक-फलक, कफ-कफ 


कः ख्‌ ग्‌ केवल अरबी-फारसी-तुर्की से आगत शब्दों में उच्चरित होते हैं 
ओर 'ज्‌ फ्‌ इन भाषाओं के अतिरिक्त अँगरेजी से आगत शब्दों में भी उच्चरित 
होते हैं। ज, फ का प्रयोग क खग्‌ की अपेक्षा अधिक होता है क्‍योंकि अँगरेजी 
शिक्षण के कारण इन का उच्चारण सिखाने पर बल दिया जाता है । ये दोनों ध्वनियाँ 
हिन्दी की ध्वनि-व्यवस्था के अधिक अनुकल हैं। “ज्‌” अघोष संघर्षी 'स' का सघोष 
संघर्षी युग्म है। 'ज्‌' का प्रयोग अँगरेजी/शु/ (श के घोष रूप, ॥?/---ंग्राकचिणवाांणा। 
' >णाला०७॥०॥००७ में 3), उदू के ज॑ झ ज्वादजोय जाल वर्णों के लिए होता है । सधोष 
व्‌ का अघोष रूप फ' है । ख्‌ -ग्‌ स्वयं अधोष-घोष के युग्म के रूप में आए हैं, इसलिए 
ख्‌ -ग का प्रयोग “क की अपेक्षा अधिक होता है| यदि वतेनी में इन वर्णों से बने 
शब्दों को शुद्ध लिखने का आग्रह रखा जाए तो कोई कारण नहीं कि सामान्‍य पढ़े- 
लिखे लोग इन ध्वनियों का सही उच्चारण न कर सकें, बशर्ते ,कि इन से युक्त शब्दों 
को उसी उदारता से स्वीकार किया जाए जैसे अन्य शब्द स्वीकृत हैं । उद्द-हिन्दी का 
सम्बन्ध केवल सम्पके जन्य सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता; ये दोनों सहोदर भाषाएँ हैं 
या एक ही मूल भाषा की दो अभिव्यक्ति शैलियाँ हैं । 


तमित् जैसी भाषा में भी हठधर्मिता छोड़ी जा रही है। तमिक्क लिपि में/प/ 

को काले टाइप में छाप कर/ब| को व्यक्त किया जाने लगा है | फ/ के लिए भी नया 

. चिहन बना लिया गया है। देवनागरी में तो बिन्दी लगा कर बड़ी आसानी से इन 

 वर्णों बा !जा सकता है। इन गौण स्वनिमों से युक्त हिन्दी में प्रचलित कुछ 
शब्द अरअआआम हु 


क-ताक, कत्ल, क्‌ रान, कुक , कुर्की, अक, बुर्का, इश्क, इश्किया, किश्त, 
किस्म, तस्दीक्‌, नक्शा 


खु--ख र, ख, रियत, खाना, खररी, खेर, ख.च॑ं, सुख, निख', चर्खा 








8 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


सुख रू, ख..द, ख. दा, त.रुता, शख्स, ज्‌.रुम, त खमीना, ब.रुशीश, 


बुखार 
ग--बेगम, गौर, बाग, कागुज, मुर्गा, मुर्गी, न.ग्मा, ग्रीबी, ग्रीबख ना, 
ग्र 
ज--राज, जरा, जीता, गजू, सजा, सब्ज, सब्जी, नब्जू, कागज, अज , 
| अर्जी, कज , फ्ज | ख, दगज्‌ / जे ल्‍म, ज्‌ ल्‍मी, नजला, जज्बात, नज्म, 
कज् जाक, जुहर, जोर, मजा 
फ--फन, फलक, शरीफ, बफ , बर्फी, सिफू, उफ , कुल्फी, जुल्फ, उल्फत 
व क्‍्फ, गु फ्तगू, हफ्ता, गिरफ्त, मुफ्त, लिफ्ट, ले'फ्टनेन्ट, लफ्ज्‌ 
ल फ्जी, अफसाना, गिर फ्तार, दफ्तर 
य, व--श्र्‌ ति/अर्ध स्वर - कुछ भाषाओं में स्वर और व्यंजन की मध्यवर्ती 
ध्वनियाँ प्राप्त हैं, यथा--संस्क्ृत की तथाकथित ऋ, लू स्वर ध्वनियाँ जो स्वनिक 
स्तर पर पूर्ण स्वर नहीं हैं । वैदिक संस्कृत में य र ल व न म अर्ध स्वर ध्वनियों के 
रूप में भी प्रयुक्त थे । अँगरेजी की 7. ४ ४ व्यंजन ध्वनियाँ 80076, 80000707, 
छप्ञ07 में आक्षरिक होने के कारण स्वर का कार्य करती हैं। इस प्रकार ऋ लू 
आक्षरिक होने के कारण स्वनिमिक स्तर पर स्वर होते हुए भी स्वनिक स्तर पर 
व्यंजन हैं; ।. !/ ।४ स्वनिमिक स्तर पर अनाक्षरिक होने के कारण प्राय: व्यंजन 
और कभी-कभी स्वर हैं किन्तु स्वनिक स्तर पर सदैव व्यंजन हैं । 
हिन्दी में यू, व्‌ स्वनिऋस्तर परश्रुति हैं औरस्वनिमिक/प्रकार्य-दृष्टि से स्वनिम 
. हैं। श्रुति (8766 फिसनल) में जीभ एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर फिसल जाती 
है | श्रुति की सत्ता स्वनिक स्तर पर है और व्याकरण/स्वनिम-स्तर पर इसे अर्ध 
स्वर कहा जाता है । लिख->लिखा, पढ़->पढ़ा, चल->चला, भाग->भागा, बैठ->बैठा 
में -आ' भूतकालिक प्रत्यय है | इस प्रत्यय को ग< जा, आ, खा, ला के साथ जोडने 
पर ग आ (>गया), आआ (>>आया), खाआ (>खाया), लाआ (>>लाया) रूप 
बनते हैं । उच्चारण-सौकय/सुविधा के लिए हिन्दी भाषी ऐसे स्थलों पर य' श्रति 
का सदुपयोग करते हैं। इस य' श्रुति की सत्ता केवल स्वनिक स्तरीय है, स्वनिमिक/ 
.. व्याकरण-स्तरीय नहीं। आया” (>-धाय), गया (नगर विशेष) संज्ञा शब्दों में 'य 
.. की सत्ता स्वतनिक और स्वनिमिक/व्याकरण स्तर की है। हिन्दी के संज्ञा शब्दों में 
या अधं स्व॒र का व्यंजन स्वनिम है और क्रिया-रूपों में केवल श्रुति, यथा--संज्ञा 
.._ शब्द आया, खोया (खोआ), दिया (दीपक), सोया (सोआ-पालक), पाया (चारपाई 
. का), खोई/|खोयी (गन्ने की); क्रिया शब्द आया, खोया, दिया, सोया, पाया. 
“ बोई|खोयी हल ०-५... कप 
रा श्रुति शब्द-रचना के मूल में नहीं हुआ करती, जब कि अर्ध स्व॒र॒या व्यंजन... 
.._-की सत्ता शब्द-रचना के मुल में हुआ करती है । क्रिया-रूपों में 'यब' को अन्तर्निहित| 








स्वर | 59 


पूर्व॑ंस्थित अर्धस्वर (क्षण $07/ए09७|) न॑ कह कर आगत (777'प्रशं१७) अर्धे 
स्वर कहा जा सकता है । फूथे के अनुसार क्रिया में यह 7708०4ॉा० है. और संज्ञा में 
?ए॥णा०ग०४० दक्षिण की भाषाओं में 'य, व' श्र्‌ ति शब्द के आरम्भ, मध्य में अनेक 
परिवेशों में मुखर रहती है, जब कि हिन्दी में यह कुछ ही स्वरों के मध्य स्पष्ट सुनाई 
पड़ती है, यधा--ओ-आ (सोया, रोया, खोया; पूर्वी हिन्दी में सोवा, रोवा, खोबा) 
ए-आ ([खेया, सेवा), इ-ओ/ओं (भाइयो, कवियों, जातियों, नाइयों, देवियों देवियों) 
अ-आ (नया, गया; भया बोली रूप), इ-आ (जिया, दिया, पिया, लिया, सिया), आ-आ 
(आया, खाया, पाया, लाया, साया) । परिनिष्ठित हिन्दी' में व” श्रूति का अभाव है, 
पूर्वी हिन्दी की बोलियों में यह प्राप्त है । 

मराठी में अंगरेजी से आगत ५ (हिन्दी में वी/व) युत शब्दों का उच्चारण 
तथा वाचन व्ही/व्ह जैसा होता है तथा हिन्दी' में वी/व जैसा । 

अनुस्वार--संस्क्ृत भाषा के शब्दों में वर्गीय व्यंजनों के अतिरिक्त अन्य व्यंजनों . 
से पूरे आनेवाली' पूर्णत: नासिक्य ध्वनि अनुस्वार (स्वर का अनुसरण करनेवाली) 
कहलाती है, यथा--संयम, संरचना, संलाप, संवाद, संशय, संसार, संहार में क्रमशः 
ये, र, ल, व, श, स, हू के पूर्व की पूर्ण नासिक्य ध्वनि अनुस्वार है। शब्दान्त में 
यह म्‌ बत्‌ उच्चरित होती है, यथा--अहं, स्वयं [अहम्‌, स्वयम |। हिन्दी में इस 
धवनि को उच्चारण परवर्ती व्यंजन के उच्चारण-स्थान से उच्चरित' होनेवाली नासिक्य 
ध्वनि के समान होता है, यथा---[सज्यम्‌, सनन्‍रचना, सन्‍्लापू सम्वाद, सञ्शय, सन्सार, 
सड्हार्‌|। वर्गीय नासिक्य व्यंजनों/डझ ज्य ण न म/ को अनुस्वार कहना भ्रम है 
क्योंकि अनुस्वार और इन नासिक्य व्यंजनों की' उच्चारण-प्रक्रिया में अन्तर है और 
अनुस्वार तथा नासिक्य व्यंजन व्यतिरेकी वितरण में हैं, यथा--वार्डः मय, पराडः मुख 
सुना, चुन, गुणा, गुण, माप, कमाई, काम । इन परिवेशों में अनुस्वार नहीं आता । 
द संस्कृत स्वरों से पूर्व आया अनुस्वार स्वर-संयोग से म' में परिवर्तित हो जाता 
है, यथा--परं/परम्‌ आत्मा (5 परमात्मा), समाहार, परमेश्वर, समुच्चय, समूह, 
समीक्षा । वास्तव में इस प्रकार के अक्षरान्त|शब्दान्त के अनुस्वार का ध्वनि-मुल्य 
'म! है जो 'म' हो जाता है। संस्कृत में अनुस्वार का पूर्ण नासिक्य था जिसे “म/डः 


कक कील डी ले केक 


जैसा कहा जा सकता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं में इस का उच्चारण 'म” किया 
जाता है। देवनागरी-लेखन में अनुस्वार को शीष॑-बिन्दु-- से व्यक्त करते हैं । नासिक्य 
व्यंजन--वर्गीय व्यंजन के लेखन के समय प्राय: शीषे-बिन्दू प्रयोग का प्रचलन बढ़ने 
लगा है, यथा--पंखा, गंगा, कंचन, खंजन, पंडित, दंड, महंत, पंथ, कुदुब, दंभ । 
अँगरेजी से आगत शब्दों में शीषं-बिन्दु के प्रयोग से लेखन-अराजकता लगभग समाप्त 
हो जाएगी, यथा---इंक, बैंक, लंच, बेच, प्रिंट, पेंट । शब्दान्त में मु के स्थान पर 
शीष॑-बिन्दु का प्रयोग किया जाता है, यथा--त्वं, स्वयं/त्वम्‌, 'स्वयम्‌/ । रूपिम-सीमा 





0] हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


पर भी शीर्ष-बिन्दु का प्रयोग उच्चारण में परवर्ती वर्गीय व्यंजन के नासिक्थ व्यंजनवत्‌ 
हो जाता है, यथा--सम्‌-[सें (संगठित, संघटना, संचय, संजीव, संतृप्त, संदेह, 
संभाव्य, संप्रेष्य) | 

पाँचों वर्गीय व्यंजनों के धूर्व अनुस्वार की स्वनिक स्थिति आये, द्रविड़ भाषाओं 
में लगभग समान है। इसे आर्की स्वनिम मानने पर इसके छह उपस्वत हैं--/-/-+ 
[. [ह] क्‌ ख्‌ ग्‌ घू, रूपिम सीमा के म के पूर्व 2. [जा] चु छजझ्न के पूर्व 3 
[ग]ट्ठड़ण के पूर्व 4. [व] त्‌ थ्‌ द धन म्‌ के एवं 5. [म्‌]प्‌ फ्‌ ब भू म्‌ न्‌ के 
पूर्व, शब्दान्त में 6. [-- | अन्यत्र 

हिन्दी में व्यंजन-अनुक्रम--शब्द-मध्य में प्राप्त हैं, यथा--- प्राणमय, विमला, 
बकता, पगली, लगना, सपना, करता, में क्रमशः पणृ-म्‌, म-लू, क-तू, गू-ल, गू-न्‌, 
पू-न्‌, र-त्‌' के व्यंजन-अनुक्रम हैं । मृण्मय, अम्ल, वक्‍ता, आऑग्ल, लग्न, स्वप्न, कर्ती' 
में भी इसी प्रकार का व्यंजन-अनुक्रम है किन्तु पहले और दूसरे शब्दों के उच्चारण में 
स्पष्ट किन्तु सूक्ष्म अन्तर है । पहले शब्दों के उच्चारण में व्यंजन-युग्म के मध्य एक 
अतिक्षीण विराम अनिवायंतः आता है, जब कि दूसरे शब्दों के उच्चारण व्यंजन-युग्म 
के मध्य विराम का अभाव उन्हें संयुक्त व्यंजन बना देता है। व्यंजन-अनुक्रम के सदस्य 
अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखने के कारण अलग-अलग इकाई होते हैं । व्यंजन-अनुक्रम के 


उच्चारण में संयुक्त व्यंजन के उच्चारण की अपेक्षा कुछ अधिक समय लगता है। 


व्यंजन-अनुक्रम में पहले व्यंजन के अन्तनिहित अ' का लोप हो जाता है । 

शब्द-मध्य में प्राप्त 'प' वर्ग के 'अ'-लुप्तज व्यंजन, अनुक्रमवाले कुछ शब्द 
ये हैं--प्‌ -+क/गि/घ/च/छ/ज/ट/म/य/र/ल|व/श[स|ह|ख--उपक्ृत, उपगमन, अपघात, 
उपचार, छप्छपाना, उपजाऊ,, निपटवा अपमान, उपयोगिता, निरप्राध, उपलब्धि 
उपवीत, अपशब्द, अपसरण, उपहार, तोपखाना । फू--क/लू--फ़ुफकार, डफली। ब्‌-+- 
क/ग/ट/ड|त/द/|प/र/ल/स[हि|ड/|ख--उबकाई, ईसबगोल, उबटन, डबडबाना, डबते 
चोबदार, आबपाशी, अबरक, तबला, ख बसूरत, शुबहा, तोबड़ा, शराबखोरी। भू -- 
. क/|चित/दन/र/ल|व---अलाभकर, शुभचिन्तन, चुभता, लाभदायी, चुभना, उभरा 


.. सँमलो, चुभवाना! । मू+क/ग/ध|च|छ/जि|झ[ट|त/द/ध|न/प/ब/य/र/ल/वश/स/हड/ख 


. ग/जू---नमकीन, गुभगीन, जमघट, चमचम, गमछा, श्रमजीवी, समझी, सिमी, ममता 
. आमदनी, समधिन, गमनीय, कमपढ़ी, कमब,र्त, कामयाब, कमरा, विमला, समवयस्का 
- लमहा, दमड़ी, कमखाब, तमगा, कमजोरी | 


2 


इसी प्रकार अन्य वर्गों में भी कई प्रकार की स्थितियों में अ-लुप्तज व्यंजन 


.. अनुक्रम प्राप्त हैं। अ-लुप्तज व्यंजन-अनुक्रम में मध्यवर्ती व्यंजन से पूर्व बाद में अं. 


.._ स्वरयुत या दीघ स्वरयुत व्यंजन होता है, यथा--कमपढ़ी, जनता, लगभग बीस, 


रा डबडबाई आँखों से; लाभूकारी निर्णय, तोपूखाना । पहले ह्‌ रस्व स्वर और बाद में 














स्वर | 6] 


दीर्ष स्व॒र होने पर व्यंजन-संयुक्तता की-सी स्थिति आ जाती है, यथा--ममता, कमला 
सिमटी, करती' आदि । 

हिन्दी के संयुक्त व्यंजनों का बितरण तथा प्रयोग--अति द्वुतगति या असतकता 
से बोलते समय अनक्रम के व्यंजन संयुक्त व्यंजन का रूप ले लेते हैं, किन्तु ऐसा 
सामान्य भाषा-व्यवहार/उच्चारण में नहीं होता, यथा--कम्‌ला-कम्ला, बकते-बक्ते, 
चिमृटा-चिम्टा । द 

दो या अधिक व्यंजनों का ऐसा गुच्छ जिस के मध्य अक्षर-सीमा नहीं होती' 
 व्यंजन-गच्छ कहलाता है । शब्द के आरम्भ में स्वर से पूर्व आनेवाला वष्यंजन-गुच्छ 
आदि व्यंजन गुच्छ; स्वर के बाद शब्दान्त में आनेवाला व्यंजन गुच्छ “अन्त्य व्यंजन 
गुल्छ' और दो स्वरों के मध्य शब्द के बीच में आनेवाला व्यंजन गुच्छ मध्य ष्यंजन 
गुच्छ कहलाता है । 

नह, म्ह, रह, ल्ह, नह को संयुक्त व्यंजन नहीं माना जा सकता क्योंकि ये एकल 
स्‍्वन हैं । हिन्दी में कई व्यंजन-गुच्छ विदेशी भाषाओं से भी आ गए हैं । व्यंजन-यगुर्छ के 
द्वितीय सदस्य के रूप में 'य, र, ल, व” बहुत अधिक व्यवह॒त हैं, प्रथम सदस्य के 
रूप में ये आदि व्यंजन-गुच्छ नहीं बनाते । मध्यवर्ती, अन्त्य व्यंजन गुच्छ में य र ल व 
से पूर्व का अल्पप्राण व्यंजन दीर्घ (/द्वित्व) उच्चरित होता है, यथा - उपन्यास-* 
 उपन्तयास्‌, शाक्य->शावकक्‍्यू, योग्य--योग्ग्यू । मध्यवर्ती, अन्त्य व्यंजन-गुच्छ में यर 
लव से पूर्व का महाप्राण व्यंजन स्ववर्गीय अल्पप्राण व्यंजन से युक्त उच्चरित होता 
है, यथा--अध्यापक->अद्ध्यापकू, अभ्यास->अब्भ्यास्‌ । इस प्रकार लेखन में दो 
व्यंजनों के ऐसे गुच्छ उच्चारण में तीन व्यंजनों के गुच्छ माने जा सकते हैं (वास्तव 
में नहीं) क्योंकि इन में आगत व्यंजन पर अक्षर-सीमा होती है | हिन्दी-उच्चारण में 
लिखित ष' [श]| है और ऋ' [रि/र] है, अतः उच्चारण के आधार पर यहाँ 
व्यंजन-गुच्छ लिखे जा रहे हैं। हिन्दी शब्दों के आदि, मध्य, अन्त में प्राप्त कुछ अति 
प्रचलित व्यंजन-गुच्छ ये हैं--- ८ 
दृविव्यंजनीय व्यंजन-गुच्छ--- 

. आदि ध्यंजन गुच्छ--क्या, क्रम, क्लेश, क्वारा, क्षण (क्षण), ख्याति 
स्थिस्तान, ग्यारह, ग्रह, ग्लानि, ग्वाला, प्राण, च्युत, ज्योति, जुम्भा (ज़िम्भा) 
ज्वाला, ट्यूशन, ट्रन, ट्वीड, ड्योढ़ा, ड्रिल, त्याग, त्नू,टि, त्वचा, द्युति, द्रोह, 
दुवारा, ध्यान, श्रुव, ध्वजा, न्याय, नृप (च्रिप), प्यार, प्रेम, प्लेट, फ्यास, ब्याज 
.. ब्राह मण, ब्लेड, श्रम, स्यान, मृग (म्रिग), म्लेच्छ, व्यापारी, श्मशान, श्यामला, 

श्रद्धा, श्लोक, श्वेत, स्कूल, स्खलन, स्टेशन, स्नेह, स्थान, स्तर, स्पष्ट, स्फटिक 


स्मरण, स्याही, स्रोत, स्‍्लेट, स्वाद, ह रास, हवेल, रुवाब, ख्याल, ज्यादा, फ्लैट, .. 


फ्रांसीसी, .फ्यूज । 


... हिन्दी में प्राप्त आदि व्यंजन गुच्छवाले अधिक शब्द संस्कृत, भरबी-फारसी, द 
बंगरेजी के हैं। हिन्दी में अपने संयरुक्ताक्षर युत शब्द बहुत कम हैं । यही कारण है... 








2 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


कि र--स्पर्श व्यंजनों से बने शब्दों के उच्चारण के समय हिन्दी भाषी जन सामान्य 
को पश्चिमी हिन्दी क्षेत्र में इ/ का आगम करना पड़ता है और पूर्वी हिन्दी क्षेत्र में 
अ' का, यथा--स्पष्ट->[इस्पश्ट्‌/अस्पश्ट | स्टेशन->|[इस्टेशन्‌ अस्टेशन्‌ | । ₹--य/२/ 
ल|व का -व्यंजन-गुच्छ होने पर 'इ! या अ का आगम नहीं करना पड़ता, यथा-- 
स्याही, स्रोत, सलेट, स्वाद [स्थाही, ज्नोत, सलेट, स्वाद || ऐसा य, र, ल, व में 


स्वरत्व का अंश होने के कारण है । 
2. मध्य व्यंजन गृच्छ--कुछ शब्दों के शब्द-मध्य में वर्ण संयोग व्यंजन-गुच्छ 


के रूप में केवल दिखाई देता है किन्तु वास्तव में उच्चारण के समय व्यंजन-गुच्छ 
अक्षर-सीमा पर टूट जाता है। इसलिए परिभाषा के अनुसार ये सभी शब्द मध्य 
व्यंजन गुच्छ युत नहीं माने जा सकते, यथा--मक्खी (मक्‌खी), बुक्चा, शक्ति, 
वाक्यांश (वार क्यांशू), विक्रम (विक्‌ क्रम), शुक्ला, पक्‍वाशय, रिक्शा, कक्षा, 
अक्सीर, विख्यात (विक्‌ ख्यात्‌), बग्घी, रुणणता, दिग्दशन, मुग्धा, नग्नता, दिग्पाल, 
सौभाग्यवती, आग्रह (आगग्रह ), कृतघ्नी, श्लाघ्यता, शीघ्रता, शंका, पंखा (पडः खा), 
रंगीन, कंघी, पराड मुख, संहार, बिच्छ, अच्युत, झज्झर, पूज्या, पंचमी, वाछित 
(वाव्गू छित्‌), गंजा, झंझा, संयम, संशय, मट्ठा, नाट्यकार, पाद्यक्रम, गड़्ढा, 
कुड्मल, षडयन्त्र, धनाढ्यों, कटक, कंठी, पडित, ? ठढा, मृण्मय, पुण्यात्मा, आण्विक, 
सत्कार, उत्खनन, पत्थरों, पत्नी, उत्पन्न, उत्फुल्ल, आत्मा, मृत्यु, कृत्रिम, सत्वर, 
उत्साह, मिथ्या (मितृथ्या), उद्गम, उद्घाटन, योद्धा, उद्बोधन, अद्भुत, पद्मा, 
उद्योग, उद्रे क, उदवेग, अध्यक्ष, विध्वंश, सन्‍्तरे, ग्रत्थकार, अन्दर, अन्धी, उन्माद, 
फुसी, कन्या, अमृत (अम्‌ज्नित), संलग्नीय, अन्वेषण, मजिल, सप्ताह (सप्ताह ), 
स्वप्तवत्‌, ? फुफ्फुस, अभिप्रेत, आप्लावन, कुब्जा, जब्ती, शताब्दी, उपलब्धि, भब्भड़, 
बिनब्याही, अब्राहू मण, पब्लिक, सब्जी, अभ्यास, अश्रक, उम्दा, निम्नलिखित | 
(निम्नूलिखित), सम्पत्ति, ग्रुस्फित, कम्बल, खम्भा, ग्राम्या, सम्राट, इस्ला, संवाद, 
कक शा, सुखेता, स्वगंवास, दीर्घायु, चर्चा, बर्छी, अजित, नि र, काट न, ऑर्डर, वर्णन, 
कर्ता, प्रार्थी, सर्दी, अर्धांश, कनंल, अपित, अबुद, गर्भिणी, धामिक, आर्या, दुर्लभ 
पवत, कुर्सी, मार्शल, गहित, कुर्की, सुख रू, मुर्गा, अर्जी, बर्फी, उल्का, फाल्गुन 
कुल्चा, कल्छी, बाल्टी, सुल्तान, उल्था, हल्दी, कल्पना, अल्बम, प्रगल्भता, ज ल्‍मी 





.. कल्याण, विल्वमंगल, ? जल्सा, इल्जाम, उल्फत, काव्यांग, विवत, मुश्किल, आश्चर्य 


_निशछल, स्पष्टता, गोष्ठी, विष्णु, नाश्ता, प्रश्नोत्तर, पुष्पित, निष्फल, चश्मा, वेश्या 
. सिश्चित, विश्लेषण, विश्वास, इश्किया, नमस्कार, विस्खलित, मस्जिद, पोस्टर 
सस्ता, विस्थापित, तस्दीक, हुस्नपरस्त, इस्पात, कस्बा, किस्मत हास्यास्पद, सहस्रनों 


... मुस्लिम, आस्वादन, मस्खरी, चिहनित (चिन्‌न्हित) ब्राहमणों (ब्रामम्हणों) 
.. ग्राहुयता, आह लादित, गह वर, (व.क्ती, अक्‍्लमन्द, नक्शा, मकसद, तख्ता, 


. त.स्मीना, बरुशना, श्ख्सियत, न.ग्मा, नज्ला, जज्बात, ले फ्ट्नेन्ट, गिर फ्तार, 


50 5 ले पी अपसाना । 














स्वर | 63. 


नगमा, नजला, अफ्साना' जैसे कुछ शब्द वास्तव में नग मा, नज ला, 
अफ साना' जैसे उच्चरित होते हैं। ऐसी स्थिति में तथाकथित द्विव्यंजनीय शब्द 
मध्य के व्यंजन-गुच्छों की संख्या काफी कम हो जाती है। लेखन में अवश्य काफी 
संयुवताक्षर युत शब्द प्राप्त हैं । द 

3. अन्त्य व्यंजन गृच्छ--शब्दान्त में प्राप्त य र ल व' से युक्त व्यंजन-गुच्छ 
उच्चारण के समय त्रिव्यंजनीय व्यंजन गुच्छ जैसे लगते हैं, यथा--शाक्‍्य (शाक॒क्‍्य),. 
किन्तु वास्तव में शाक्‌” पर अक्षर-सीमा होने के कारण ये त्रिव्यजनीय व्यंजन गुच्छ 
नहीं कहे जा सकते । अन्त्य व्यंजन-गुच्छों के कुछ उदाहरण हैं--सिक्‍्ख, रिक्त, हुक्म, 
वाक्य (वाकक्य), चक्र, शक्ल, परिपक्व, वक्ष, टैक्स, मुख्य, रुणण, मुग्ध, तग्न, सुग्म, 
भाग्य, विघ्न, श्लाघध्य, शीघ्र, अंक, शंख, अंग, संघ, स्वच्छ, प्राच्य, पूज्य, वज्ञ, 
पंच, रंज, वश, नाट्य, पाठ्य, खडग, खड़्ढ, धनाढूय, चंट, कंठ, दंड, ? ठंढ, पुण्य, 
कण्व, वीभत्स, यत्न, खत्म, सत्य, मित्र, द्वित्व, कृत्ल, तथ्य, युद्ध, पद्म, वेद्य, 
समुद्र, मध्य, संत, पंथ, बद, अंध, जन्म, धन्य, हंस, गुप्त, स्वप्न, सामीष्य, विप्र, 
टॉप्स, कान्यकुब्ज, शब्द, जब्त, लुब्ध, सब्र, सब्जू, सभ्य, शुत्न, सिम्त, निम्न, 
भूकम्प, गुम्फ, विलम्ब, कुम्भ, साम्य, आम्र, अम्ल, तक, मूर्ख, स्वर्ग, दीघे, चर्च, 
दर्ज, चार्ट, गार्ड, कर्ण, धूत॑, अथे, दर्द, अर्ध, हॉर्न, सप॑, गर्भ, धर्म, आर्य, गवं, 
आदर्श, नस, पूजाहे, अक॑, सुख, मु्ग,, कर्ज, बफ; मुल्क, गोल्ड, जिल्द, गल्प 
गुल्फ, बल्ब, प्रगल्भ, जुल्म, तुल्य, बिल्व, जुल्फ; द्रव्य, विव॒ृत (विव्रित); शुष्क, पश्च 
स्पष्ट, ओोष्ठ, कृष्ण, गोश्त, प्रश्त, पुष्प, चश्म, अवश्य, मिश्र, विश्व, इश्क; वयस्क, 
पोस्ट, स्वस्थ, कसद, हुस्न, दिलचस्प, भस्म, हास्य, सहस्न, नस्ल, ह्‌ रस्व; चिह न 
(चिनन्‍्ह ), ब्रहम, जड़ित जिहव, सहय; वक्त, वकक्‍्फ, अक्‍्ल, न क्श, नुक्‍्स; 
स॒खझ्त, ज्‌ रुम, ब॒रुश, शरुत, ज्‌ ज्ब, न,ज्म; गिर फ्त, लिफ्ट, लफ्ज ।' 

हिन्दी के त्रिव्यंजनीय व्यंजन-गुचछ--हिन्दी के शब्दों के आदि, मध्य तथा अन्त 
में कुछ त्रिव्यंजनीय व्यंजन-गुच्छ प्रचलित हैं । शब्द-मध्य में प्राप्त तथाकथित त्रिव्यंजनीय 
व्यंजन-गुच्छ उच्चचारण में द्विव्यंजनीय व्यंजन-गुच्छ के रूप में रह जाते हैं, यथा--- 
इन्स्पेक्टर [इन्सपेकटर्‌ |, सान्त्वना [सानत्वना] । शब्द-आदि और शब्दान्त में अक्षर- 
सीमा न होने के कारण त्रिव्यंजनीय व्यंजन-गुच्छ उच्चारण में भी त्रिव्यंजन युत 
रहते हैं। द 
.. आदि व्यंजन-गुच्छ---|य, र, व से युक्त कुछ शब्दों के आरम्भ में तीन व्यंजनों 
गुउुछ प्राप्त हैं, यथा--स्क्र, , स्त्री, स्पृह्ा, स्मृति, व्यम्बक । ह 

. शब्द-सध्य में प्राप्त व्यंजन-गुच्छ--फ कट्री, वक्‍तृत्व, लक्ष्मी, लक्ष्याथं, इक्वाकु, 

 दिः्श्नम, अन्त्यस्त्र, व्यंग्या्, संग्राम, आकांक्षा, पंक्ति, उच्छ खलता, उच्छवास, टुण्डा, 


ज्योत्स्ना, तादात्म्यता, उत्लेक्षा, उत्कृष्ट, उत्क्षिप्त, उद्भ्रान्‍्त, उद्धृत, मन्त्रणा, इन्द्रिय,..... 
अन्त्येष्टि, सान्त्वना, सन्ध्या, दुवन्द्वात्मक, इंस्पेक्टर, संस्कार, संस्मरण, संसृति, | 








64 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


पुश्चली, संश्लिष्ट, प्राप्त्याशा, सम्न्रम, संवृत, सम्प्रति, क्यू , आद्रता, ऊध्वता 
भर्त्वा, भत हरि, पार्श्विक, ईर्ष्या, राष्ट्रीय, निष्प्रभ, परिष्क्ृत, विस्तृत, अस्पृश्य, 
तिरस्कृत, विमृत 
शब्दान्त में प्राप्त व्यंगनन-गरुछ--तीक्ष्ण, सुक्ष्म, लक्ष्य, वंदर्ध्य, कृच्छू दण्ड्य 
कण्ठय, तादात्म्य, वैचित्र्य, मत्स्य, मन्त्र, वन्दूय, इन्द्र, अन्त्य, सान्ध्य, रन्ध्न, दवन्दव, 
हिंस्र, कम्प्प, आई, ऊध्व, वर्त्स, पाश्वे, राष्ट्र, ओष्ठ्य, स्वास्थ्य, अस्तु । 
स्वातन्त्य, वत्स्यं, शब्दों के अन्त में चार व्यंजनों के व्यंजन-गुच्छ प्राष्त हैं । 
हिन्दी में तीन, चार व्यंजनों के व्यंजन-गुच्छ प्रायः संस्कृत से आगत शब्दों में ही प्राप्त 
हैं । इन का व्यवहार भी संस्कृतनिष्ठ, साहित्यिक भाषा में होता है। इन व्यंजन- 
गुच्छों में। य, र, व/के योग से बने व्यंजन-गुच्छों का ही आधिकय है। 
हिन्दी में प्राप्त दीर्घ/गुरु व्यंजन-वितरण तथा प्रयोग--हिन्दी में (कुछ संघर्षी 
महाप्राणों के अतिरिक्त) महाप्राण व्यंजनों; ड़, ड, ज्य का दीर्घ या गुरु रूप अध्राप्त है । 
स्वनिक/उच्चारण-स्तर के शब्द-मध्य के दीर्घ व्यंजन स्वनिमिक स्तर पर द्वित्व हैं क्योंकि 
आक्षरिक व्यंजन में इन का प्व॑वर्ती भाग पहले अक्षर के साथ और परवर्ती भाग 
पिछले अक्षर के साथ रहता है, यथा--ऋबड़्डी' [क बड़ डी |, दुलत्ती [दु लत ती]। 
दीघे व्यंजनों के कुछ उदाहरण हैं-- द 
क--पक्‍का, मक्कार, कू--रु क का, ग--सुर्गा, लग्गी, च--बच्ची, कच्चा, 
ज---सज्जन, निलेज्ज, ह--खटूटी, मिट॒टी, ड--लड॒डू, कबड्डी, ण--विषण्ण, 
त--कुत्ता, दुलत्ती, इ--गद्दा, चदृदर, त--पन्‍ता, भिन्‍न, प--चप्पल, कुंष्पी, 
ब--गुब्बारा, पतडुब्बी, म--अम्मा, चम्मच, य--शय्या, र--हरे, रोजूमर्र, ल--- 
पिल्‍ला, शेखचिल्ली, ब--फ्व्वारा, श--निश्शंक, स--रस्सी, गुस्सा, जु--ल. ज्जूत 
क ज्जाक, फ--ल फ्फाजी, लफ्फाज, खु--अ ख्खाह, ह--आह हा, अह हा । ख, फ्‌ 
ह॑ के दी उच्चारण में विशेष प्रयास की आवश्यकता पड़ती है। 
: व्यंजन-वुद्धि--कुछ शब्दों में स्वर जोड़ कर नया शब्द बनाते, समय अन्तिम 
: व्यंजन की बुद्धि हो जाती है अर्थात्‌ उस में दीघतता आा जाती है, यथा--गप “>-ई-- 
. गप्पी, चुप >-ई--चुप्पी, जिद->-ई--जिददी । इन शब्दों के सादृश्य पर 'धम 
... फिच, ठन, भिन-भिन, चर (से), खट को 'धम्म, फिल्च, भिन्‍न-भिन्‍न, चर, खटट 
- लिखना और बोलना अमानक है।..... 
हिन्दी में ष, क्ष तथा ज्ञ की स्थिति--हिन्दी में संस्कृत भाषा के लिखित 


क शब्दों में परम्परानुगामी वतनी का अनुकरण करते हुए ष' को लिखा तो जाता है किन्त । 
.. उच्चारणमें इसका रूप [श्‌| है। बोलियों में यह [स्‌ | रूप में उच्चरित है । उत्तर भारत 


० की हिन्दी-इतर भाषाओं में भी इस का उच्चारण [श|स्‌] हैं। दक्षिण भारत की 


मो यू भाषाओं में भी इस का उच्चारण प्राय [श|स्‌ | है, मलयात्ठम में इस का उच्चारण । (. ; 
०० . मुर्धा के पास से किए जाने के कारण [ष्‌|या [ष्‌]वंत है। हा | 











स्वर | 65 


क्ष<कक्‍्ष केवल संस्कृत से आगत शब्दों में लेखन के समय प्रयुक्त होता है, 
यथा--कक्षा, गवाक्ष, क्षमा, क्षोभ, तीक्ष्ण, भिक्षा, लक्ष्य, शिक्षा आदि। हिन्दी में 
एक लम्बे अरसे से 'ष' ध्वनि का अभाव होने से इस का उच्चारण [क्ष] नहीं होता 
वरन्‌ [क्छ/छ] जैसा होता है, कुछ लोग [क्श्‌] जैसा उच्चारण भी करते हैं। विदेशी 
भाषाओं से आगत 'क्श” युक्त शब्दों को क्ष/ से नहीं लिखा जाता, यथा--एक्शन, 
नदेशा, डिक्शनरी, रिक्शा (न कि* रिक्षा) | हिन्दी में क्ष थुत आगत अनेक शब्द 
स्त्रीलिंग रूप में प्रचलित हैं, यथा--अपेक्षा, उपेक्षा, दीक्षा, द्वाक्षा, परीक्षा, प्रतीक्षा, 
भिक्षा, रक्षा, लाक्षा, शिक्षा | उच्चारण-प्ताम्य के कारण “रिक्शा [* रिक्छा/रिक्षा | को 
सत्नीलिंग में प्रयोग करता अशुद्ध है। उपयुक्त अनेक तदभव शब्द क्ष>ख युत हो 
कर स्त्रीलिंग में प्रचलित हैं, यथा--दाख < द्राक्षा, परख < परीक्षा, काँख<< कक्ष, 
भीख < भिक्षा, लाख< लाक्षा, सीख < शिक्षा । हिन्दी में क्ष! का स्वनिक परिवतेन 
ख/क्ख; छ/च्छ' स्वनों में हुआ है, यथा--पक्ष >>पाख, पक्षी >> पंछी, मक्षिका >> मक्खी, 
परीक्षा > परख, परीक्षक, >पारखी, भिक्षु >भीख, लाक्षा >> लाख, लक्ष >> लाख । कन्नड़ 
में क्ष को 'क्‍्ष' रूप में लिखा जाता है। यदि हिन्दी में भी इसे 'क्य/ रूप में लिखा 
जाए तो इस के उच्चारण में परिवर्तन आ सकता है । 
ज्ञ< ज्व्य को कुछ लोग संस्कृत में व्यंजन-गुच्छ न मान कर नासिका विवर 
से उच्चरित तांलव्य स्पर्श-संघर्षी स्वन मानते हैं। इस प्रकार यह मूलतः: एक स्वन 
ठहरता है, दो स्वनों का संयुक्त रूप नहीं । कुछ लोग हिन्दी में उच्चरित 'ग्य' को 
तालव्यीकृत कण्ठ्य ध्वनि मानते हैं, संयुक्त व्यंजन नहीं । वे ग्यान्‌, अग्यान्‌, वि ग्यान्‌ 
के ग्य' के मध्य अक्षर-सीमा नहीं मानते । वास्तव में हिन्दी शब्दों के मध्य में इस का 
उच्चारण “ग्य वत्‌ होता है, यथा-- विगृग्याँनू, अगृग्येयू, अर्याँनू, | वि ग्याँनू, * 
अ ग्येयूर्न अ गेयू, “*अ ग्यान्‌]। कुछ शुद्धतावादी इस का उच्चारण “ज्यों वत 
करते हैं । द ह् द 
.. हिन्दी में केवल “व्य' ही ऐसी नासिक्य ध्वनि है जिस का उच्चा रण संयुक्ताक्षर 
रूप में शब्द मध्य में प्राप्त है, शब्द-आदि, शब्दान्त में नहीं। भारतीय भाषाओं में 
इस के विभिन्‍न उच्चारण प्राप्त हैं, यथा--न/ग्न्य (उड़िया, तेलुगु, कन्नड, गुजराती) 
दुन/दुन्‍्य (मराठी) क्ञ (तमित्), ज्ञ्य|ड्व्य (मलयाक्रम्‌), ज्य॑/ग्य/ग्येँ (हिन्दी, पंजाबी, 
बंगाली), ग्य (मणिपुरी) | भारतीय भाषाओं में मलयात्ठम्‌ के शब्द-आदि में ज्या 
योग प्राप्त है, यथा--ज्यान्‌! (+-मैं) । मलयाक्रम में 'ज्ञ| का उच्चारण संस्कृत 
में रहे उच्चारण के' निकट का माना जा सकता है । 





&छ 


बलाघात, विवि तथा अनुतान 


बलाधात--बोलते समय उच्चारण (ए६७7970०8) के प्रत्येक अंश पर समान 


बल नहीं दिया जाता । वाक्‍्यों के शब्दों पर सदेव समान बल नहीं होता। इसी 


प्रकार एकाधिक अक्षरवाले शब्दों में सभी अक्षरों पर समान बल नहीं दिया जाता । 
एकाक्षरी शब्दों में शी पर सर्वाधिक बल दिया जाता है ओर पूव-गह वर, पर-गह वर 
पर कम । उच्चारण के समय ध्वनि से ले कर वाक्य-स्तर तक दिया जानेवाला वायु/ 
उच्चारण-बल बलाघात (57853) कहलाता है | बलाधात की चर्चा तुलनात्मक दृष्टि 
से ही की जाती है। जिस अंश पर सर्वाधिक बल दिया जाता है, उसे ही बलाघात- 
युक्त कहा जाता है। शेष अंश तुलनात्मक दृष्टि से कम बलाघातयुकत होते हैं। 
यद्यपि बोलते समय वक्ता किसी भी ध्वनि/अक्षर/शब्द पर अधिक या 


ह ] ] ॥ 
सर्वाधिक बल डाल सकता है, यथा--बुराई बुराई बुराई, तथापि भाषा के सहज या 


सर्वेमान्य उच्चारण के अनुसार दूसरा उच्चारण ही स्वाभाविक माना जाएगा, पहला 
और तीसरा उच्चारण बवावटी या हिन्दी भाषा की प्रकृति के प्रतिकल माना... 
जाएगा । हिन्दी में बलाघात का स्थल शब्द की स्विक संरचना पर निर्भर होता है । 


बलाघात के समय फेफड़ों से वायु-प्रवाह अधिक शक्ति के साथ होता है और उच्चारण- 
अवयवों में सामान्य से कुछ अधिक तनाव. (7७7भं०70) भा जातो है। कभी-कभी 


वक्‍ता के अन्य अंग (नथने, भौंहें; हाथ, कंधे, पैर आदि) भी बलाघात के कारण 


सामान्य से अधिक सक्ष्य हो जाते हैं। हिन्दी में इन स्तरों पर बलाघात देखा जा 


सकता हैं-- 

द (क) ध्वनि-स्तरीध बलाधात--एकाधिक ध्वनियोंवाले एकाक्षरी शब्द में शीर्ष 

.. (केन्द्रक) पर ध्वनि-स्तरीय बलाघात होता है, यथा--पान, खौर, एक, कि' में 
. क्रमशः आ, ईं, ए, इ! पर बलाघात है क्योंकि इन शब्दों में ये स्वर ध्वनियाँ ही शी 
का काम कर रही हैं। हिन्दी में ध्वनि-स्तरीय बलाघात अनुमेय (600०४96) 


ह । हर होता है | 








बलाघात, विव॒ृति तथा अनुतान | 67 


(ख) अक्षर-स्तरीय बलाघात--एकाधिक अक्षरवाले शब्दों में किसी एक अक्षर 
पर प्रमुख/उच्च बलाघात होता है, तथा अन्य पर गौण/निम्न या निम्नतर अथवा 
निम्नतम । अँगरेजी, रूसी आदि कुछ भाषाओं में बलाघात-भेद कोशीय अर्थ-भेद 
कारक है किन्तु हिन्दी में यह कोशीय अथे-भेद कारक नहीं हैं, यथा---?076807(, 
(0.07टप८ में पहले अक्षर पर बल देने पर शब्द संज्ञा रहता है, जब कि दूसरे अक्षर 
पर बल देने से शब्द क्रिया हो जाता है। 0००82 7॥, ?श008/48[99, ?00- 
8800 में क्रमशः पहले, दूसरे और तीसरे अक्षरपर बलाघात है । हिन्दी में आक्षरिक 
बलाघात अस्वनिमिक होने के कारण निरथेक है, फिर भी हिन्दी शब्दों में अक्षर- 
बलाघात (उच्चारण) का लगभग एक सव्वमान्य स्वरूप स्वीकृत है जो शब्द के किसी 
अक्षर विशेष पर रहता है । गलत अक्षर का बलाघात शब्दोच्चा रण को अस्वाभाविक 
बना देता है । 

अति विस्तृत हिन्दी-क्षेत्र में थोड़ी-बहुत उच्चारण-भिन्‍तता के कारण अक्षर- 
स्तरीय बलाघात में कभी-कभी/कहीं-कहीं थोड़ा-बहुत अन्तर भी मिलता है। हिन्दी में 
अक्षर-बलाघात को भी अनुमेय (766ी०७४०॥९) कहा जा सकता है। एकाधिक अक्षर- 
वाले शब्दों में अक्षर-बलाघात के नियम ये हैं--!. एकाधिक अक्षरवाले शब्दों में 
सभी अक्षर समान स्तरीप (ह रस्व॒/मिध्यम/दीघं/अतिदीर्ध) होने पर उपान्त ( 5 अन्तिम 
से थवे) अक्षर पर बलाघात होता है, यथा--र घृ, स मिं ति, ला था री, सम्‌ वल 
कर्म युक्त, काम गार । 

2. ह रस्व, मध्यम, दीर्घ, अतिदीर्ष अक्षरों से युक्त शब्दों में प्राथमिकता की 
दृष्टि से क्रमशः मध्यम, दीघे या अतिदीघ अक्षर पर बलाघात होता है, बशर्ते शब्द 
में इन से सम्बन्धित एक ही अक्षर हो, यथा-जि सी, अ मिट, सुपरि चित 
(ह रस्व तथा एक मध्यम अक्षर से बने शब्द); स पूत, अ नार, वि भिन्‍न, स्व तन्‍्त्र, 
पा बन्द, ला चार (ह रस्व/मध्यम तथा एक दीर्घ अक्षर से बने शब्द); अ प रि हायें, 
म हा पात्र, निर्‌ व्याप्त (ह्‌ रस्व/मध्यम/दीर्घ और एक अति दीर्घ अक्षर से बने शब्द) 

3. एकाधिक अतिदीधष/दीर्घ/मध्यम/ह रस्व अक्षरों से युक्त शब्दों में क्रमशः 
उपान्त अतिदीर्ष/दीघ॑/मध्यम/ह रस्व की' प्राथमिकता के आधार पर बलाघात होता 
है, यथा---रा धि का, लड़्‌ ड्‌, श्यापत ला, रोज गार, रे डियो, अना वष टि, संस 
कार, बा जी गरी, कि राया, अमा वस, पूछ ताछ, सौन्‌ दये, सन श या लु, 
अनासक्‌ ति। 

4. किसी शब्द से निर्मित दूसरे शब्द/शब्दों में अक्षर-बलाघात मूल शब्द के. 


लाचात के अनुतार भी हो सकता है और परिवर्तित भी हो सकता है, यथा--म 
घुर->म घुर ता (मूलवत्‌); सुन्‌ दर->सुन्‌ दर ता (परिवर्तित) 


अक्षर-बलाघात के कुछ अन्य उदाहरण हैं--बिलू ली, बित्‌ दी, पिल पि ला, 


सर स॒ री, गुद गु दा। साँ-बाप, चाल-ढाल, गुस्ल खा ना, बोल ने वा ला, ल कड़ 
हा रा, म दद गार | 








68 | हिन्दी' का विवरणात्मक व्याकरण 


(ग) शब्द-स्तरीय बलाघात--एकाधिक शब्दोंवाले वाक्यों में अर्थ वैशिष्टय 
हेतु किप्ती शब्द विशेष पर मुख्य/|उच्च बल दिया जाता है, यथा--तुम ने बच्चे के 


गाल पर चाँटा मारा । तुम ने बच्चे के गाल पर चाँटा मारा । तुम ने बच्चे के गाल 


पर चाँटा मारा । तुम ने बच्चे के गाल पर चाँटा मारा | तुम ने बच्चे के गाल पर 
चाँटा मारा । 
वक्ता की इच्छा के अनुसार वाक्य में शब्द-बलाघात परिवर्तित होने के कारण 


अनुमेय नहीं है। वाक्योच्चारण के सहज/सामान्‍्य प्रवाह में पड़नेवाले शब्द/पद- 


बलाघात को अनुमेय कहा जा सकता है, यथा--- 
. वाक्य में प्रयुक्त आज्ञा्थंक रूप सामान्य की अपेक्षा अधिक बलाघात युत 


होता है, यथा--त्‌ वहाँ मत जा--मैं वहाँ जा रहा हूँ । 


2, वाक्य में व्याकरणिक इकाइयों की अपेक्षा आर्थी/कोशीय इकाइयों पर 


अधिक बलाधात होता है, यथा--किसान ने साँप को लाठो से मार डाला । वे 
आगरा तक जा रहे हैं। बच्ची तो नहीं खाएगी । 


3. 'ही, भी” पर वक्‍ता की इच्छानुसार बलाघात हो भी सकता है और नहीं. हु 


भी, यथा--नौकर ही/भी लाएगा--नौकर ही/भी लाएगा । 


4. वाक्य में आए प्रश्ववाचक शब्द पर सशक्त बलाघात होता है, यथा-- _ 
आजकल तुम कहाँ रह रहे हो ” लड़के को कितनी तन झ्वाह मिलती है ! तुम वहाँ... 


अकेले कसे रहोगे ? 


०. पूरक विशेषण/क्रियाविशेषण पर सशक्त बलाघात होता है, यथा--रेखा 


सुन्दर लड़की है। मेरा साला अमीर था। आजकल मेरा गला खराब है। वह अच्छा... 


_नाचती है । मेरा घोड़ा बहत तेज दौड़ता है । 


6. निषेधवाचक वाक्यों में नकारात्मक अव्ययों पर सशक्त बलाघात होता है, 
यथा--आप न उठाएं, हम उठा लेंगे । तुम बीच में मत बोला करो । मैं नहीं 


जाऊगी । 


हिन्दी में शब्द-स्तरीय बलाघात स्वनिभिक होने के कारण अथे-भेदक 


(सामान्य, निश्चय, आधिक्य, समाहारी, आज्ञा, तुलना आदि का सूचक) है, यथा-- 
कम-से-कम' शर्बत पीजिए--कभ्-से-कम शब॑ंत पीजिए। 


उन्हें एक रोशनदानवाला कमरा चाहिए था--उन्‍्हें एक रोशनदानबाला रे ५ 


कमरा चाहिए था । 
हे आज तुम कप्त-से कम्त बोलीं--आज तुम कम-से-कम बोलीं । 


रोगी उठा और दुध पी कर सो गया--रोगी उठा और दूध पी कर सो गया । 


हक क्‍ (पहला और “- धार्त द्सरा और +-7707/6 अधिक ) 





पा, एक लड़की खड़ी है--एक लड़की खड़ी है। (पहला 'एक'>-कोई; दूसरा | 
.. एक-एक ही) ह 


2 ककउउसल लए ३ हत 7 का इस 





बलाघात, विवृति तथा अनुतान | ०9 


चाय बहुत मीठी थी--चाय बहुत मीठी थी! (बहुत * बहुत अधिक/बहुत 


ही) । 


मैं अभी और पढ़ गा---मैं अभी और पढ़. गा। (और८"-"और भी) 

लगता है तुम कभी नहीं सुधरोगें--लगता है. तुम कभी नहीं सुधरोगे । 
(कभी -+ कभी भी) 

(तूृ/तुम ने यह) पत्र लिखा-- (तू यह) पत्र लिख।। (लिखा आज्ञा्थ) । 

तुम्हारी किताबें कहाँ हैं ? (किताबें +- 800८5)---तुम्हारी किताबें कहाँ हैं ? 
(किताबें 55 [6 90025) । 

सामान्यतः सभी' भारतीय भाषाओं में शब्दों पर बल देने से इस प्रकार की 
आर्थी विशेषताएँ आ जाती हैं; अतः इसे 0808। ४8655 ऐच्छिक बलाघात कहा जा 
सकता है । द 

(घ) वाक्य-स्तरीय बलाघात--किसी प्रसंग में एक साथ एकाधिक वाक्यों का 
उच्चारण करते समय अपनी बात स्पष्ट करने या भावों का अतिरेक व्यक्त करने 
अथवा व्यंजित अथ व्यक्त करने के लिए वक्‍ता अपनी इच्छानुसार बल देने के लिए 
किसी पूरे वाक्य या उस के एक अंश पर बलाघात दे सकता है । इस के अतिरिक्त 
वह अन्य कई भाषेतर कारकों का सहारा ले सकता है, यथा-- 

एक दिन की छुट्टी ले कर चार दिन बाद आ रहे हो, मुझे नहीं रखना ऐसा 
नोकर, भाग जाओ यहाँ से । क्‍ 

में यहाँ इसलिए नहीं आई _हूं कि रात-दिन नौकरानी की तरह काम में 


खटती रहूँ, मेरा भी अस्तित्व है । 
बलाघात युत वाक्य/वाक्यांश सामान्य वाक्य/वाक्यांश की अपेक्षा कुछ विशेष 

अथे-बेशिष्ट्य या मनोभावयुक्त होता है, अत: हिन्दी में वाक्यांश, वाक्य-स्तरीय बलाचात 
को स्वनिमिक कहा जा सकता है। किसी वाक्यांश पर बल देने के लिए बलाघात 
के अतिरिक्त निपात (ही, भी, तो, तक आदि) का प्रयोग भी किया जाता है। कभी- 
कभी वाक्य के सामान्य पद-क्रम को बदल दिया जाता है, यथा--क्राँटे ही मिलेंगे 
तुम्हें इस पथ पर ! 

. वाक्‍्य-स्तरीय बलाघात वक्‍ता की इच्छा पर निर्भर रहने के कारण अनुमेय 
नहीं कहा जा सकता । 

... बलाघात-प््ञाव--. बलाघातित मुल शिथिल ध्वनि कुछ दृढ़ और मूल द्ढ़ 
ध्वनि कुछ दृढ़तर हो जाती है; यथा--प्रगति, समिति, अतिथि में क्रमशः उपान्त अ 
(ग), इ (मि), इ (ति) पर बलाघात होने के कारण मूलतः: शिथिल 'अ, इ, इ अन्य. 
अ, इ ध्वतियों की अपेक्षा दृढ़ हैं । इसी प्रकार मूलतः दृढ़ आ! “आसानी” शब्द के. 


उपान्त में बलाघातयुत हो कर दृढ़तर हो गया है | शब्द की अन्य ध्वनियों की स्थिति. 
इस से विपरीत हो जाती है । 





70 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


2. वलाघातयुत ह्‌ रस्व स्वर कुछ दीर्घ और दीर्ष स्वर कुछ दीघंतर हो जाता 
है, यथा-- आवारा, आसानी, प्रगति, समिति के उपान्त 'आ, अ, इ! बलाघात युत होने 
के कारण कुछ दीर्घतर, कुछ दी्घे हैं। शब्द की अन्य ध्वनियों की स्थिति इससे 
विपरीत हो जाती है । 

3. बलाघातयुत अक्षर की अल्पप्राण ध्वनि कभी-कभी' महाप्राणवत्‌ सुनाई पड़ती 
है, यथा--क्‍्या है, चैन से बैठा भी नहीं जाता । वाक्य में क्या-*ख्या वत्‌ उच्चरित। 
बलाघात-हीन महाप्राण ध्वनि में महाप्राणता की मात्रा कुछ कम हो जाती' है, यथा--- 


ठिठोली में 'ठि । 
4. बलाघातयुत स्वर अपेक्षाकृत अधिक मुखर (50707078$) होने के कारण 


श्रवणीयता की दुष्टि से प्रमुख (2०7ांपरथा) हो जाता है, यथा--बूरा, कहारी, 
नीलामी में बू, हा, ला अपेक्षाकृत अधिक मुखर तथा दूर तक श्रवणीय हैं । बलाघात- 
रहित ध्वनियाँ अपेक्षाकृत कम मुखर तथा कम श्रवणीय हो जाती हैं । 

5. वाक्य में बलाघातयुत अक्षर/शब्द सामान्य से कुछ अधिक उच्च तानवाला 
हो जाता है । बलाधघात-रहित अक्षर/शब्द का तान कुछ नीचा हो जाता है। | 

6. वाक्य में बलाघातयुत अल्पप्राण कभी-कभी दीर्घ हो जाता है तथा महाप्राण 
के पूर्व उस का अल्पप्राण आ जाता है, यथा--क्रोई फड़कता हुआ ऐसा गाना गाओ 
कि “(र्गाना)। निकल जा यहाँ से, अपने बाप की छाती पर जा कर मूंग 
दल । (छाती) 

विवृति (2770776)--बोलते समय एक ध्वनि से दूसरी ध्वनि के मध्य का 
संक्रमण (धद्ा/०7) तथा विराम (78756) विवृति/संगम/संहिता कहलाता है। 
दो ध्वनियों के मध्य विवृति उत्पन्त होने के तीन कारण हो सकते हैं--. दोनों 
ध्वनियों का असम स्थानीय होना, यथा--जानकार, कपटी, मसन्मथ 2. अ्थ॑-स्पष्टी- 
करण हेतु मौन/विराम की आवश्यकता का अनुभव होना, यथा--तुम ने पीलीवाली 
दवा पी ली ? वह कम बलवाला आदमी नहीं था । 3. वाकक्‍्य-स्तरीय लम्बे उच्चारों 


के सध्य साँस लेने या अथे स्पष्ट करने या दोनों की आवश्यकता का अनुभव होना 
यथा--रोको, मत आने/जाने दो--रोको मत, आने/जाने दो । 


सम स्थानीय ध्वनियों के मध्य उच्चारण-अवयवों को संक्रमण में किसी प्रकार 


.. का व्यवधान नहीं होता, अतः वहाँ विवृति नहीं होती, यथा--कम्पन, कम्बल, अह॒डः - 


कारी, हिन्दुओं” में म-प, म्‌ू-ब, डः-क्‌, न-द्‌! के मध्य । 

..... लेखन में विवृति को -+- चिह न से प्र्दशित करते हैं, यथा-- . स्वर-|- स्वर 
(सु+अवसर->सुअवसर, चलो--अब->चलो अब, क्‍या बनाओगी---आज->क्या 

बनाओगी आज) 2. व्यंजन-- व्यंजन (चिम-- ठा->चिमटा, बक--बक->बकबक, तुम 





_ नहारी--तुम्हारी, इन + कार--इनकार, मन--माफिक--मन माफिक) 3. स्वर-[ 


-.. व्यंजन (पिला+दो->पिला दो, ले+-लो-> ले लो, पी--लिया->पी लिया/पीलिया) 6 | 
4. व्यंजन--स्वर (बच--आई-२बच आई/बचाई, आज--आना->आज आना|आ 


्ह जाता, सह--अनुभूति ->सह-अनुभूति/सहानु भूति) 











. बलाघात, विबृति तथा अनुतान | 74 


समय की दृष्िट से विवृति मौन-काल/विराम-काल है। हिन्दी में इस के मूख्य 
तीन भेद किए जाते हैं---. अत्यल्पकालिक बिवृति शब्द के अन्दर स्वर--स्वर; 
व्यंजन -+ व्यंजन; व्यंजन-- स्वर; स्वर-+-व्यंजन; अक्षर--अक्षर के मध्य और दो 
शब्दों के मध्य अर्थ-स्पष्टता हेतु आती है, यथा--इन्‌ --कार-? इनकार, चिम्‌->ठा 
“रे चिमटा, चिप्‌-+-को-३ चिपको, लिखू--वा-? लिखना, चम्‌--चा“हेचमचा, तिन्‌ 
पका-शतितका, नप््‌-+करीवडेनसकीन, अनू +पढ़-ल्अनपढ़, न-+-दी->नदी, 
पी-+-लिया->पीलिया, हो--ली-*होली, बर्फी--ले->बर्फीलि, सिर -|- का ->सिरका 

2. अल्पकालिक विवृति अर्थ की दृष्टि से वाक्य के किसी खंड/घटक को 
किन्‍्हीं अन्य घटकों/खंडों या इकाइयों से अलग दिखाने के लिए आती है जिसे लेखन 
में अल्पविराम से व्यक्त करते हैं, यथा--तुमः आ गई हो , अतः मुझे खाना बनाने की 
झंझट से छुट्टी मिली । वे बोले, हम आज ही लौट जाएँगे । तुम जो मेरे साथ इतनी' 
उदारता दिखा रहे हो, कहीं इतने ही कठोर तो न हो जाओगे ? अल्पकालिक विवति 
अर्थ की स्पष्टता और साँस लेने या दोनों कारणों से आती है । 

दीघंकालिक विवृति दो वाकयों के मध्य आती है जिसे लेखन में ।? ! 

चिह नों से व्यक्त किया जाता है ! दीघेकालिक विवति अर्थ-स्पष्टीकरण तथा साँस 
लेने के उद्देश्य की पूति करती है। छोटे-छोटे वाक्‍्यों के उच्चारण के समय प्रति 
वाक्य/श्वास-वर्ग (05४ 8707७) के बाद यह विवृति आती है किन्तु बड़ा वाक्य 
होने पर एकाधिक वाक्य खंड/श्वास-वर्ग के बाद अल्पकालिक विवृति आती है । 

अरथं-भेदक होने के कारण हिन्दी में विवृति स्वनिमिक है, यथा--पी ली--- 
पीली, हो ली--होली, बर्फी ले---बर्फीलि, बतासा ले--बता साले, मन का--मनका 
बरछी ने--बर छीने, जाग रण का यह समय है--जागरण का यह समय है, सनकी 
हर्सन की, मिलाया--मिल आया, खा ली--खाली, वह घोड़ा गाड़ी खींच रहा 
है--वह घोड़ागाड़ी खींच रहा है, काम में न रम--काम में नरम, सोओ, मत उठो--- 
“सीओ मत, उठो; नफीस--न फीस; बहादुर बच्चे, रोते नहीं--बहादुर बच्चे रोते 
नहीं । आदि 

वाक्यान्त विवृति के पूर्व सुर आरोही/अवरोही/सम होता है । प्रश्नाथैक 
आश्चयंसूचक वाक्यों में आरोही; सूचनाथथंक में अवरोही और अधरे वाक्य में सम सुर 
रहता है। उच्चार-मध्य की अर्थ-भेदक विव॒ति को स्वनिमिक विवति और वाक्य- 
मध्य की विवृत्ति अभ्यन्तर विवृति ([प्राष्यप्रथ 090॥ ॥ए7०77०) कहलाती है, यथा--- 


वे+आ--गए--कक्‍्या | वे--आ--गए |, हे 
द  अरे--वे--तो-|भआा-+-भी पगए। बीमार+लाचार-+-और':'/लन> 
मिलन क#आया--मिलाजया. वे-+- +बे+-ईमान--है 


भनुतान (7074007)---वाक्यों के उच्चारण के समय सुर/लहजे के 
उतार-चढ़ाव/अवरोह-आरोह को अनुतान कहते हैं, यथा-- हे रे 








2 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


ग्राहक--अंगूर किस भाव दिए हैं ! 

दुकानदार - बारह रुपये किलो 

ग्राहक--बा रह रुपये किलो ? पड़ोस में दस रुपये किलो बिक रहे हैं, और 
तुम बारह कह रहे हो : 

दुकानदार--पड़ोस की दुकान से ही ले लीजिए, वहाँ बीजवालें और खटटे 
आठ रुपये किलो भी मिल जाएंगे । 


वाक्योच्चा रण के समय घोष तथा अघोष ध्वनियों का प्रयोग होता है। घोष 


ध्वनियों के उच्चारण के समय स्वरतन्त्रियों में होतेवाली कम्पन-आवृत्ति (8760प७॥०ए 


० ए97६8४००) चुर ((०॥) या ताव (7076) कहलाती है । एकाधिक घोष ध्वनियाँ 


लगातार उच्चरित होने पर सुर-लहर/अनुतान का निर्माण करती हैं, यथा---मैं अभी 
नहीं जाऊंगा वाक्य-उच्चारण के समय म्‌, ऐं, अ, भू, ई, न, अ, हू, ईं, जू, आ 
ऊँ, गृ, आ 4 भिन्न-भिन्न सुर परस्पर मिल कर एक विशेष प्रकार की सुर-लहर 
का निर्माण करते हैं । अधोष ध्वनियों के उच्चारण के समय अत्यल्प कम्पन होने के 
कारण सुर का अभाव रहता है। वाक्‍्यों में अधोष ध्वत्ियों ([लगभग' 20%--22%) 
की अपेक्षा घोष ध्वनियों (लगभग 78%, --80%) का व्यवहार अधिक होने के 


कारण वाकयों में आदयन्त सुर लहर/अनुतान की प्रतोति होती है। अतः वाक्‍्य- 
उच्चारण के समय ध्वनियों के सुरों के आरोहावरोह का क्रम अनुतान कहलाता है । 


लगभग सभी भाषाओं में अनुतान-भिन्‍नता से वाक्य|वाक्यांश में अर्थ-भिन्‍्तता 
आ जाती है, यथा-- वे आ गए । ? !” वाक्य को तीन प्रकार की अनुतान में बोलने 


पर तीन प्रकार के अर्थ की सूचना मिलती है--सामान्य कथन, प्रश्नसूचक कथन 
आश्चर्यसूचक कथन । हिन्दी का अच्छा” शब्द विभिन्‍न अनुतानों में बोलने पर विविध 
प्रकार के अर्थों का सूचक होता है, यथा--- 

तुम्हारा यह नौकर तो अच्छा लगता है (>>भला) । हरीश भी पास हो गया 
अच्छा ! (--आश्चय ) । बहुत देर से लिख रहे हो, अब लिखना बन्द करो; अच्छा 


 ("-अनिच्छा) । हमें अभी चल देना चाहिए; अच्छा । (स्वीकृति)। आप इस बात 
का अर्थ समझ रहे हैं न ? अच्छा | ("-जी हाँ) द 
हिन्दी में सामान्यतः: तीन प्रकार के अनुतान-साँचे (गराणाब्रा0॥ 94678) 

मिलते हें--!. निम्त 2. सामान्य 3. उच्च। कभी-कभी अति उच्च या अत्यन्त उच्च... 
अनुतान-साँचा भी मिल जाता है । निम्न को अवरोही (एथा8)»,, सामान्य को सम. 
_(॥०४०४)-> और उच्च को आरोही (7578) /7 भी कहा जाता है। आरोह-अवरोह 

. के मिश्चित रूप को आरोहावरोह (परंभागड़ 48798) /“",; अवरोह-आरोह के मिश्रित... 


रूप को अवरोहावरोह (708न70॥78)५ 2 कहते हैं। 


रा हिन्दी में सामान्यतः पाँच प्रकार के वाक्यों (सामान्य, प्रश्ससूचक, आश्चय- 
... सूचक, आज्ञासूचक, निर्षधसतूचक) और अभिवादन के लिए कई प्रकार के अनुतान-साँचों .. 

.._ का प्रयोग होता है, यथा--- न 
8 . सामान्य (निश्चयाथंक) वाक्‍्यों में 2 3 । के अनुतान-साँचें का प्रयोग होता... 








बलाघात, विवृति तथा अनुतान | 73 


है। वाक्यान्त में अवरोही सुर रहता है, यथा--मकान काफी बड़ा है । तुम्हारी आदत 
2 3 ] ली 


बहुत गन्दी है। आज हम आपके यहाँ खाएँगे, कल अपने दोस्त के घर में । सामान्य 
,  टे 3 0, 2 3 ! 
बातचीत, भाषण, कहानी-कथन के सन्दर्भ में निश्चयाथेक वाक्यों के अनुतान-साँचों में 
गड़ा-बहुत अन्तर अवश्य होता है । 
2. प्रश्नसचक वाक्य चार प्रकार के होते हैं, जिन के अनुतान-साँचे भी' भिन्‍न- 
भिन्‍न होते हैं, यथा-- (क) प्रश्तसूचक शब्द-रहित वाक्य का अनुतान-साँचा 2.3 3 


होता है। वाक्यांत में आरोही सुर रहता है, यथा--मेहमान चले गए ? चाय बन 
#:/ 3... ..) 2५ -) 


गई ? तुम ने स्कूल का काम कर लिया ? 
७ पट डे 2 
(ख) वाक्यांत में प्रश्ससूचक शब्दवाले वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 2 होता 
है। 3, 2 के मध्य विराम (5) होता है। वाक्यांत में आरोही सुर रहता है, यथा-- 
वे चली गईं कया? तुम वहाँ तक चढ़ोगी कैसे ? 
2 0 रद डे 3 रा 2 
(ग) वाक्य-मध्य में प्रश्नसूचक शब्द आ जाने पर 2 3 | का अनुतान-साँचा 
रहता है । वाक्‍्यांत में अवरोही सुर रहता है, यथा--आप कब चल रहे हैं? तालाब 
क्‍ क्‍ 2 3 7| 2 
में कितना पानी है? 
3 | 
(घ) 'न-युक्‍त वाक्य का अनुतान-साँचा 23 2 होता है। वाक्यान्त में 
किचित आरोही सुर रहता है, यथां-- तो कल चल रहे हो न? डखिड़कियाँ ठीक 
क्‍ 2 3. . 0) 
से बन्द करदी हैं न ? 
| 3 2 
>« आश्चयंसूचक वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 2 होता है। वार्क्यात में 
किचित अवरोही सुर रहता है, यथा--तुम ने दो किलो दध पी' लिया /!! पड़ोसी बुड्ढा 
8, ० 
चल बसा | 
2. 4 
द 4. आज्ञासूचक वाक्य दो प्रकार के होते हैं, जिन के अनुतान-साँचे भी भिन्‍न- 
भिन्‍न होते हैं, यथा-- 
(क) सामान्य आज्ञा-वाक्य का अनुतान-साँचा 2 | होता है। वाकक्‍्यांत में 


अवरोही सुर रहता है, यथा--बाहर बैठो । यहीं रुको । 
3 कम जहर अल 26% [08 « 








74 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


; (ख) निषेध आज्ञा-वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 । होता है। वाक्यांत में 
अवरोही सुर रहता है, यथा--बाहर मत बैठो । आप वहाँ न जाइए । 

| ४ .: 7] है 3. | 

>. निषेधसूचक वाक्य भाठ प्रकार के होते हैं, जिनके अनुतान-साँचे भी भिन्‍न- 
भिन्‍न होते हैं, यथा--- 

(क) नहीं -युकत वाक्य का अनुतान-सांचा 2 3 | होता है। वाक्यांत में 
अवरोही सुर रहता है। वाक्यारम्भ में आनेवाले नहीं” का अनुतान-साँचा 3 रहता है, 
यथा--नहीं, मैं नहीं रक पाऊंगा । तुम्हें चोरी नहीं करनी चाहिए थी । 

3 नी ४ 0 | 5 3 ] 

(ख) 'मता*-युक्त वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 | होता है। वाक्यांत में 
अवरोह रहता है, यथा--पहाँ बेकार बैठगा मना है। फूल तोड़ना मना है । 
क्‍ 2 5 2 3] 

(ग) निषेधवाची उपसर्ग (अ, अन, गैर, ना, ला आदि) युक्त वाक्य का अनुतान- . 
साँचा 2 3 | होता है। वाक्यांत में अवरोही सुर रहता है, यथा--यहकाम 

आई हज 2 
ग्‌ं रकानूनी है। तुम्हारी बीमारी लाइलाज है। 
कह मी डा मरा 2 500 + ८ 0 

(घ) “थोड़े ही-युवत वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 | होता है | वाक्यांत 


में अवरोहावरोह रहता है,यधा--मैं ने थोड़े ही उसे मारा था। वह यहाँ 
 > 2 3 |। 


[ ह ह ४ ५ 
.. (ड) “चुक'-युक्त वाक्य का अनुतान-साँचा 23] होता है। वाक्यांत में 


द अवरोह होता है, यथा--तुप् तो हो चुके पास। ऐसे तो वह पा चुकी काम । 
की 2 3.  7]| 3 3 ॥ 


आप (च) 'रह'-युक्त वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 | 2 होता है। वाकयांत में 
अवरोही सुर रहता है, यथा-वे तो वहाँ जाने से रहे । मैं तो यहाँ सोने से रही' । 
हक क्‍ 2 2 


.. नौकरी करने घोड़े ही आया था। 


लि 3 [2 
" (8) वाक्य-मध्य में आए प्रश्नयूचक शब्द युक्त वाक्य का अनुतान-साँचा 
. < 3 होता है। वाक्यांत में अवरोही सुर रहता है, यथा - तुम कब के धन्नासेठ 
.. हो! बहाँयेरी कौन हुसाहै! 


.. ...(ज) वाक्यारस्त्र में आए 'भला“युक्त वाक्य का अनुतान-सांचा 22 3 ] रा 








बलाघात, विवृति तथा अनुतान | 75 


होता है । वाक्यान्त में अवरोही सुर रहता है, यथा--भला, यह भी कोई काम 
2 कक्‍-+ 2 3 


है? भला, यह आप के बस की बात है? 
2. कद 2 जे ह 

6. अभिवादन-सूचक शब्दों/|वाकक्‍्यों का अनुतान-साँचा | 2 3/2 3 होता है। 
अन्त में अवरोह रहता है, यथा--न म स्कार न मस्कार | न मस्‌ ते न मस्‌ ते । 

ते इक! आज 0000 25% 

कहिए,. कैसे हैं? कहिए, कैसे हैं? 
3245%327| 30 3 के 30 3, 73 

वक्ता की मनःस्थिति, मनोबृत्ति, वक्‍ता-श्रोता के सामाजिक सम्बन्ध और 
परिस्थिति आदि के कारण अनुतान-साँचों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन होना स्वाभाविक है। 

7. अधूरे या अस्वतन्त्र वाक्‍यों के उच्चारण में लगभग सम सुर रहता है 
जिस का अनुतान-साँचा  /7 ] | होता है, यथा--दीदी गई" “(तो मैं भी 

 । 
जाऊं) । दीदी सिनेमा जा रही है “(तो मैं भी जाऊँगा) । 
। [ . 


यद्यपि लिखित रूप में विरामादि चिह नों का प्रयोग कर अनुतान की सूचना 
देने का प्रयत्न किया जाता है, तथापि यह प्रयत्न अधूरा ही है क्योंकि अनुतान-स्वरूप 
वक्‍ता के मनोभावों पर आधारित है और उच्चारण की चीज है, यथा--- 

मैं जा रहा हूँ। मैं जा रहा हूँ ? मैं जा रहा हूँ ! 

मैं जाऊं? |अच्छा। ॥ अच्छा , जाओ | 

उसे पुलिस पकड़ ले गईं । | अच्छा !/बहुत अच्छा /! 

अच्छा | वह भी पास हो गया ? कौन ? सतीश ? 

अच्छा, तुम बोल रहे हो ” अच्छा, तो अब चल ? अच्छा, फिर कभी । 








१ 


बर्ण्माला 


संसार की कोई भी भाषा किसी भी उपयुक्त लिपि में अंकित की जा सकती 


। उपयुक्त लिपि से यहाँ तात्पयं है--उस भाषा में प्रयुक्त समस्त खण्ड्य स्वनिमों 
ओर विशिष्ट उपस्वनों के लिए पृथक-पृथक लिपि-चिह नों का होना । भाषा की' 


आवश्यकता के अनुरूप अधिखंडीय या खण्ड्येतर स्वनिमों के लिए भी उपयुक्त लिपि- 
चिह नों का होना अच्छी लिपि की विशेषता है। सामान्यतः बहुत लम्बे समय तक 


कोई भाषा विशेष जब किसी लिपि विशेष में लिखी जाती रहती है, तो उस लिपि 
को ही उस भाषा की लिपि मान लिया जाता है और जन सामान्य का भाषा के 
साथ-साथ उस लिपि के साथ भी भावनात्मक लगाव हो जाता है, यथा--अभँगरेजी- 
रोमन, हिन्दी-देवनागरी, मराठी-देवनागरी, तमिछ-तमिदठ, कनन्‍्नड-कन्नड, पंजाबी- 
गुरुमुखी आदि । द 
वर्णमाला (49॥987668) का वर्ण शब्द कई अर्थों का सुचक रहा है, यथा-- 
रंग (सं.), जैसे--विवर्ण (+- जिस का रंग उड़ गया हो), रक्‍त/गौर/पीत वर्ण; वर्ण- 
क्रम ($607'०7) । चतुव॑र्ण--ब्राह मण, क्षत्रिय, -वश्य, शूद्र; ॥.०(७', वर्णमाला में 
अन्तिम अथे के रूप में वर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है । मान किसी' व्यापार/आच रण/ 
वस्तु आदि के स्तर/मृल्य को आँकने की इकाई, यथा--मानदण्ड' (५87050 ८४८), 
नेतिकता का मानदण्ड । मान शब्द से मानक ($8970470) शब्द का निर्माण हुआ 
है । देवनागरी लिपि का उपयोग संस्क्ृत-प्राकृत-पाली-अपभ्र श-मराठी, हिन्दी, 
नेपाली के लेखन के लिए कसरत से होता है। अन्य भाषाएँ भी इस में सरलता से 
लिखी जा सकती हैं । भारत सरकार के प्रयत्नों से 4959 में देवनागरी को मानक 
.. रूप देते का प्रयास किया गया और व967 में मानक देवनागरी पर एक पुस्तिका 
_ प्रकाशित की गई जिस में भारत की प्रधान भाषाओं को देवनागरी में अंकित करने के 
लिए आवश्यक वर्ण भी जोड़े गए हैं । 


हिन्दी भाषा-लेखन के लिए मुख्यतः देवनागरी/नागरी लिपि का प्रयोग किया रा 


हर _ जाता क्‍ है। प्रायः भ्रम के कारण देवनागरी-वर्णमाल। को ही' हिन्दी की ध्वनियाँ कह 








वर्णमाला | 77 


दिया जाता है, ऐसा कहना/मानना गुलत है । हिन्दी के लिए प्रयुक्त मानक देवनागरी 
वर्णमाला में ये स्वर, व्यंजन वर्ण हैं--- 
अआइईउऊकऋ एऐओओअंअ: अँ ऑएँ 
क खगघधडझडः चछजझबजचज्ा टडठडड्ढ्ण तथदधन 
पफबभम यरलवशषसह क्षत्रज्ञ श्रक्ुखगजफ्‌ 
ड़ढ़्द्ठ द 
इस वर्णमाला में 'अइ उ ऋ' ह रस्व स्वर वर्ण हैं, 'आ ई ऊएऐ ओ आऔ' 
दीघे वर्ण. हैं। 'अं' अनुस्वार-चिह्‌ न (), अः' विसर्ग-चिह न (:), अ अनुनासिकता- 


चिहन (), भाँ, एऐँ हिन्दी-इतर भाषाओं के स्वर वर्ण हैं । व्यंजनों में क वर्ग, 


च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग तथा प वर्ग की ध्वनियों के लिए 5-5 वर्ण हैं। क्षत्रज्ञ श्र 
संश्लिष्ट संयुक्ताक्षर/संश्लिष्ट संयुक्त वर्ण हैं । 'त्र' त्र का परम्परागत रूप है । अन्य 
सरलाक्षर/एकल/सरल वर्ण हैं । क्‌ खू ग्‌ ज्‌ फ्‌' विदेशी व्यंजनों के वर्ण हैं । 'ड़ ढ़ छ 
कुछ शताब्दियों पूर्व हिन्दी वर्णमाला में जोड़े गए हैं। देवनागरी वर्णमाला के सभी 
व्यंजन वर्णों में अन्तनिहित अ' (70766 ७) वर्तमान होने से इन्हें भी स्वर वर्णों 
की भाँति अक्षर' कहा जाता है क्‍योंकि ये भी साँस के एक-एक झटके में उच्चरित 
होते हैं । 

वर्ण-रचना की समानता की दृष्टि से ये वर्ण-समूह दृष्टव्य हैं--छ ऊ अ आ 
ओओऔअं अःओआ इईहडड़रदझ गमगनभसरएऐएखख पफफ 
णषयथघधश वबककचजजुञत्र टठढढ़छकछतल क्षज्ञऋश्र। 


स्व॒र-वर्णों के सात्रा-चिह्‌ न----अ' का कोई मात्रा-चिह न प्रचलित नहीं है । 


अन्य स्वर-वर्णों की भाँति यदि अ' वर्ण का मात्रा-चिहू न (यथा-- 0 या इसी प्रकार 


का कोई अन्य चिह न) बना लिया जाता है, तो देवनागरी की वैज्ञानिकता में चार 


चाँद लग जाएगे। अ' का मात्रा-चिह न न होने के कारण शब्द-मध्य, शब्दान्त के 


अकेले व्यंजन वर्ण कभी' अ' युत बोले जाते हैं और कभी' 'अ'-रहित, यथा--'कमल, 
काम में पहला 'म अ-युत बोला जाएगा, दूसरा 'म! अ-रहित । 

कुछ व्यंजन वर्णों में प्रयुक्त । को अ' का मात्रा-चिह न कहना भ्रम है क्‍योंकि 
इड्टठडढरहड़ढ़क में । का अभाव है। प्रत्येक अकेले व्यंजन वर्ण में 
की मात्रा परम्परित है। अन्य स्वर-वर्णो के मात्रा-चिह न क्रमश: ये हैं | 
3) 7 यथा--(क) का कि की कुक्‌ कु के कै को कौ कं के क: का के । 


् 


र के साथ _ का उप-रूप प्रचलित है, यथा--रु (रुपया (रूप) । ये दोनों 


चिह न अध्येता पर अनावश्यक बोझ हैं क्योंकि रपया और रप लिखने तथा वाचन में 
किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं पड़ती | 


वर्धा-समिति द्वारा दिया गया सुझाव कि सभी स्वर अ' के साथ मात्रा- 


चिहन लगा कर बनाए जाएँ (यथा--अ आ आओ भी भर अ जे जै ओ औ अं अ ) 


५5 + 





८2 उनत०८दतअधटतय८42-8 “3:८८ 2न्थपपप+८ कर & ९८+ 2-35: <--अल्लप- 


। 
| 
| 
|| 
। 
। 
| 
क्‍ 
है 
| 


देन यत्पपपरपट 22242 चर ला आ2 5०५ अध्यापक उथपनचरवदरतसदपपापल्‍ 5 अप अर 











78 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 

अवैज्ञानिक होते के कारण अमान्य रहा है क्योंकि अ--इ/अन-उ रखने से अइ[ऐ, 
अउ|ओ होता है, इ/छ नहीं । व्यंजन वर्ण के साथ तो स्वर वर्ण की मात्रा जोड़ी जा 
सकती है किन्तु स्वर वर्ण के साथ दूसरे स्व॒र वर्ण की मात्रा जोड़ना अवेज्ञानिक है। 


हाँ, यदि अ' को बिना किसी ध्वनि-मूल्य का वर्ण स्वीकार कर के उस में किसी भी _ 


स्वर की' मात्रा जोड़ना वैज्ञानिक रहेगा । 

अँगरेजी से आगत कुछ शब्दों को लिखने के लिए । का प्रयोग किया जाता है, 
यथा--डॉक्टर, चॉँक, बॉल, हॉल आदि । का प्रयोग ह्‌ रस्व ए की ध्वनि को व्यक्त 
करने के लिए (विशेषतः दक्षिण भारत की भाषाओं के शब्दों के लिए) किया जाता 
है। श' के साथ 'क' की मात्रा लगाने पर शु/श्षु रूप होगा। श्र को श' रूप 
में लिखना अधिक सुविधाजनक है किन्तु टाइप राइटरों में श्र" होने के कारण “श्र 
लिखना/टाइप करना अवेज्ञानिक है । 

व्यंजन वर्णों के आधे|संयक्त रूप--परिनिष्ठित देवनागरी के व्यंजन वर्णों के 
आधे रूप (अ-मात्रा रहित) चार प्रकार से बनाए जाते हैं, यथा--- 


() पूर्ण खड़ी पाईवाले वर्णों की खड़ी पाई हटा कर, यथा--रू १८5 ज ३ 
उ्ण्त्थ्धन्प्बभ्स्यह्वश्ष्स्क्5्ज्ञ श्ररु + ज (यथा-ख्याति, ग्यारह, विध्न, 


बच्ची, ज्योति, कञ्ज, पुण्य, पत्ता, पथ्य, ध्यान, पन्थ प्यार, ब्याज, सभ्य, म्यान, शय्या 
कल्याण, व्यास, श्वास, पुष्ट, स्नेह, लक्ष्य, व्यम्बक, श झुस, नग्मा, ज्यादा) हिन्दी के 
लिए इ | की आवश्यकता नहीं पड़ती' । 


(2) छोटी-सी खड़ी पाईवाले वर्णों के नीचे हल्‌ू () चिहन लगा कर हे 


यथा--डः छ टू ठडढू द ह [ के आधे रूपों की आवश्यकता नहीं पड़ती) 
यथा--शहः का, वाझु अय, उच्छवास, टटटू, शाठयम्‌, लड॒ड्‌, धनाढुय, विद्या, गद्दी 
विह वल, प्रह लाद । 

(3) हुकवाले वर्णों की हुक हटा कर, यथा--क कफ (फ के आधे रूप की' 
ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती । केवल एक शब्द 'फुफ्फुस' अवश्य अध॑ 'फ॑' से लिखा 
जाता रहा है) , यथा--पक्‍का, हुक्‍्का, न क्‍्काशी, दफ्तर, मुफ्त । 

द . (4) २ के मुख्य तीन रूप, यथा--- | किसी' व्यंजन से पूर्व ' आता है 
यथा--कर्म, चच, बर | किसी व्यंजन के बाद , आते हैं।इन में छोटी खड़ी 
पाईवाले व्यं जनों के बाद आता है, यथा--ड्रामा, राष्ट्र, द्रव और पूर्ण खड़ी पाईवाले 
व्यंजनों के बाद, यया--क्रम, प्रेय, वजत्च । __ वास्तव में पूर्ण 'र' उच्चरित होते हैं 
. अर्थ *र' नहीं, अतः इन का प्रयोग अवैज्ञानिक है।_ को हटा कर क्रम, प्रेम, 


... वज्र, लेखन से शुद्ध वाचन में कोई बाधा नहीं पड़ती । _ को हुटा कर भी ड्रामा, 
.._ राष्ट्र, द्रव लेखन और शुद्ध वाचन में कोई अड़चन नहीं होगी । 


स्वनीय सूचना के लिए किसी भी पूर्ण व्यंजन वर्ण के नीचे हलू चिहन लगा. ्ज 





वर्णमाला | 79 


कर उस के अ-रहित/अध व्यंजन रूप को व्यक्त किया जा सकता है, यथा-ग्‌ पू छ ह्‌ 
क फू र्‌ । शब्द-आरम्भ या शब्द-मध्य में अध व्यंजन वर्ण आने पर अ-रहित उच्चा- 
रण ही होता है, यथा--प्या र, पुस्तक । शब्दान्त/अक्षरान्त में पूर्ण वर्ण होने पर भी 
अ-रहित उच्चारण होता है, यथा-प्यार, पुस्तक [प्यार, पुस्तक ] 
देवनागरी के सानकेतर वर्ण---मानक वर्णों के अतिरिक्त आजकल भी 
देवनागरी में कुछ अन्य पुराने वर्ण-रूप प्रचलित हैं जिन्हें मानक वर्णों की तुलना 
में मानकेतर कहा जाएगा । मानकेतर वर्णों की जानकारी पुराने साहित्य के वाचन 
की दृष्टि से आवश्यक एवं उपयोगी है । इन के लेखन के अभ्यास की आवश्यकता 
नहीं है । मानकेतर वर्णों का मानक रूप कोष्ठक में लिखा गया है, यथा--- 
अआा ऋ भश्रो श्री अ अ: 
(अ आ ऋ ओ औ अं अः) 
खछमभेणघमलणशक्षश 
(ख छझणधभलश क्ष ज्ञ) 
के छू च ज्य दु ड क्वत्तक्त द क्ष भ॒ द ब्बह्य ह्लुआदि। 
(क्क हुक जब ज्ज टूट डड त्त त्त कत दूद दूम दूभ दूय ब्ब हू म हू ल) आदि । 
उपयु कत अनेक मानकेतर संयुक्ताक्षरों/संयुक्त वर्णों में मूल वर्णों के अस्तित्व 
का पता सरलता से नहीं चल पाता था। मुद्रण और टंकण के अतिरिक्त लेखन में 
भी काफी परेशानी होती थी और कभी-कभी अथे का अनर्थ भी हो जाता था, 
यथा--खाना, खा को 'खाना/खाना', खा/खा' दोनों प्रकार से पढ़ा जा सकता था । 
कुछ मानकेतर वर्णों में संरचक रेखाओं (8870/:65) की संख्या भी अधिक है । 
देवनागरी वर्णों में सुडौलता बनाए रखने के लिए सुलेख-अभ्यास हेतु आरम्भ 
में पाँच पंक्तियोंवाली पुस्तिका पर लेखन-अभ्यास किया/कराना चाहिए । इन में 
ऊपर, नीचे की दो-दो पंक्तियों के मध्य का स्थान मात्रा-चिह॒ नों के लिए होता है । 
कुछ अभ्यास होने/करने के बाद तीन पंक्तियों में और ब+द में एक पंक्ति पर लेखन 
किया जाए। अच्छा अभ्यास हो जाने के बाद ही बिना पंक्ति के कागज पर 
लिखा जाए 
देवतागरी-वर्णों का प्रयोग तथा प्रकार्य--लिखित वर्णों का प्रयोग वाचन के 
लिए होता है । हिन्दी के कुछ क्षोत्रों में 'अ” का वाचन 'ऐ/आ' जैसा करते के कारण 
कमल को के मे लै>कमल या का मा ला 5 कमल बोलते हैं। ऐसा बोलना 
अज्ञानता/अल्प ज्ञान का सूचक है। कमल! को क म॑ ल"-कमल कहना ही 
शुद्ध है । 
शब्द-आदि में तथा उपसग के बाद शब्द-मध्य में अ” लिखा जाता है 


यथा--अपना,. सुअवसर । सूअर, कुअर (<कुआरा)/कुवर (<: कुमार) जैसे दो 
चार शब्दों के मध्य में अ' लिखा जाता है । शब्दान्त में 'अ' का प्रयोग नहीं होता। 





| 
४! 
| 
! 
॥' 
' 
॥ | 
| 
|| 
॥। 
| 
| 
हे 
। 
है | 
] 
५] 
| 
| 
|] 
१; 
थे 
हि 
| 
| 
॥॥ 
| 
] 
] 
| ६ 
| 
| 
।; 
! 


उद्च222म८2००१०७२०: तल सउसच भा “सनम 


६-०८ मम नरम; रतन ८++>- भरता न यय यम अरमउ सा 
्य्य्न्च््य्य्य्य्््श्य्य्ल््््््य्य्य्य्स्य्स्डड 5 स्डसर 


कि मम अब की न 
्ज्््््ज््््््स््््ज्स््ज 


22० ८2 पल८ 3702-८8 ९०७ ८ अधकक 2०4८-३० 50०५ ८०० 22 रद: पय 222० ८६:३ मा दाना ना कांप कमधभर+ रथ यान कर रन, डर 
3 अतन+क+:म+ लव कमला प न ०+-7 ६ 5 /पक- सजी लक अं ०220० ९०+ ८०८ मनन ब्लड पिकडटसपर: 





78 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अवैज्ञानिक होने के कारण अमान्य रहा है क्योंकि अ--इ/भ--उ रखने से अइऐ 
अउ|ओ होता है, इ/छ नहीं । व्यंजन वर्ण के साथ तो स्वर वर्ण की मात्रा जोड़ी जा 


सकती है किन्तु स्वर वर्ण के साथ दूसरे स्व॒र वर्ण की मात्रा जोड़ना अवेज्ञानिक है। 
हाँ, यदि अ' को बिना किसी ध्वनि-भ्ल्य का वर्ण स्वीकार कर के उस में किसी भी 
स्वर की' मात्रा जोड़ता वैज्ञानिक रहेगा । द 
अँगरेजी से आगत कुछ शब्दों को लिखने के लिए 4 का प्रयोग किया जाता है 
यथा--डॉक्टर, चॉक, बॉल, हॉल' आदि । का प्रयोग हू रस्व ए की ध्वनि को व्यक्त 
करने के लिए (विशेषतः दक्षिण भारत की भाषाओं के शब्दों के लिए) किया जाता 
है। श' के साथ “ऋ' की मात्रा लगाने पर शु/श्यु' रूप होगा। “श्र को शु' रूप 
में लिखना अधिक सुविधाजनक है किन्तु टाइप राइटरों में श्र” होने के कारण श्र 
लिखना/टाइप करना अवैज्ञानिक है । 
व्यंजत बर्णों के आधे|संयुक्त रूप--परिनिष्ठित देवनागरी के व्यंजन वर्णों के 
आधे रूप (अ-मात्रा रहित) चार प्रक्रार से बनाए जाते हैं, यथा-- कल 
() पूर्ण खड़ी पाईवाले वर्णों की खड़ी पाई हटा कर, यथा--रू ग ६७ ज इ 
व्ण्त्थ्ध्न्प्ब्भ्म्यल्वश्ष्स्क्ष)््श॑श्षरू 7 ज (यथा-ख्याति, ग्यारह, विध्न 
बच्ची, ज्योति, कज्ज, पुण्य, पत्ता, पथ्य, ध्यान, पन्थ प्यार, ब्याज, सभ्य, स्थान, शय्या 
कल्याण, व्यास, श्वास, पुष्ट, स्नेह, लक्ष्य, ज्यम्बक, श रुस, नस्मा, ज्यादा) हिन्दी के 
लिए इ ज्ञ| की आवश्यकता नहीं पड़ती । ्ि 
(2) छोटी-सी खड़ी पाईवाले वर्णों के नीचे हलू () चिहन लगा कर, 
यथा--ड छ दूृठ बढ द्‌ ह (ड़, ढ़ के आधे रूपों की आवश्यकता नहीं पड़ती) 
यथा--शहू का, वाह मय, उच्छवास, टटट, शाठयम्‌, लड॒ड, धनाढ्य, विद्या, गददी 
विह बल, प्रहलाद। द 
(3) हुकवाले वर्णों की हुक हटा कर, यथा--क क फ (फ के आधे रूप की 
ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती । केवल एक शब्द 'फुफ्फुत” अवश्य अधे फ' से लिखा 
जाता रहा है) , यथा--पक्‍का, हुक्‍्का, न.क्काशी, द फ्तर, मु फ्त । 

(4) किसी' व्यंजन से पूर्व आता है 
यथा--कर्म, चर्च, बरे | किसी व्यंजन के बाद ,_ आभाते हैं। इन में | छोटी खड़ी 
पाईवाले व्यंजनों के बाद आता है, यथा--ड्रामा, राष्ट्र, द्रव और पूर्ण खड़ी पाईवाले 
व्यंजनों के बाद, यया--क्रम, प्रेय, वत्भध । वास्तव में पूर्ण 'र उच्वरित होते हैं, 





. अंथे 'र' नहीं, अतः इन का प्रयोग अवैज्ञानिक है।_ को हटा कर क्रम, प्रेम, 


.. वजर, लेखन से शुदध वाचन में कोई बाधा नहीं पड़ती । | को हटा कर भी ड्रामा, 


.._ राष्ट्र, द्रब लेखन और शुद्ध वाचन में कोई अडचन नहीं होगी । 





स्वनीय सूचना के लिए किसी भी पूर्ण व्यंजन वर्ण के नीचे हल चिह्न न लगा 








वर्णमाला | 79 


कर उस के अ-रहित/अध॑ व्यंजन रूप को व्यक्त किया जा सकता है, यथा--ग प्‌ छ ह॒ 
के .फ्‌ र । शब्द-आरम्भ या शब्द-मध्य में अर व्यंजन वर्ण आने पर अ-रहित उच्चा- 
रण ही होता है, यथा-प्यार, पुस्तक । शब्दान्त/अक्षरान्त में पूर्ण वर्ण होने पर भी 
अ-रहित उच्चारण होता है, यथा-प्यार, पुस्तक [प्यार्‌, पुस्तक ] 
देवनागरी के मानकेतर वर्ण---मानक वर्णों के अतिरिक्त आजकल भी 
देवनागरी में कुछ अन्य पुराने वर्ण-रूप प्रचलित हैं जिन्हें मानक वर्णों की तुलना 
में मानकेतर कहा जाएगा । मानकेतर वर्णों की जानकारी पुराने साहित्य के वाचन 
की दृष्टि से आवश्यक एवं उपयोगी है । इन के लेखन के अभ्यास की आवश्यकता 
नहीं है । मानकेतर वर्णों का मानक रूप' कोष्ठक में लिखा गया है, यथा--- 
अग्माऋ ओ ओऔअभ अ: 
(अ आ ऋ भो औ अं अः) 
खछुभशघभ रण शक्षश 
(खछझणधभलशक्ष कज्ञ) 
के छू से जद इड बक्त्तक्त ह क्ष कक्ष द्य]8३ब्बहा हक्वआदि। 
(कक झ के उचब ज्ज टूट ड्ड त्त त्त कत दूद दूम दूभ दूय ब्ब हू म हू ले) आदि। 
उपयु कत अनेक मानकेतर संयुकताक्षरों/संयुक्त वर्णों में मूल वर्णों के अस्तित्व 
का पता सरलता से नहीं चल पाता था। मुद्रण और टंकण के अतिरिक्त लेखन में 
भी काफी परेशानी होती थी और कभी-कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता था, 
यथा--खाना, खा को 'खाना/खाना”, खा/खा' दोनों प्रकार से पढ़ा जा सकता था । 
कुछ मानकेतर वर्णों में संरचक रेखाओं (80068) की संख्या भी अधिक है । 
नागरी वर्णों में सुडौलता बनाए रखने के लिए सुलेख-अभ्यास हेतु आरम्भ 
में पाँच पंक्तियोंवाली पुस्तिका पर लेखन-अभ्यास किया/कराना चाहिए। इन में 
ऊपर, नीचे की दो-दो पंक्तियों के मध्य का स्थान मात्रा-चिह नों के लिए होता है । 
कुछ अभ्यास होने/करने के बाद तीन पंक्तियों में और ब।द में एक पंक्ति पर लेखन 
किया जाए। अच्छा अभ्यास हो जाने के बाद ही बिना पंक्ति के कागज पर 
लिखा जाए 
देवतागरी-बर्णों का प्रयोग तथा प्रकार्य--लिखित वर्णों का प्रथोग वाचन के 
लिए होता है । हिन्दी के क॒छ क्षोत्रों में 'अः का वाचन ऐ/आ' जैसा करने के कारण 
कमल को के मे लैज+कमल या का मा ला 55 कमल बोलते हैं ! ऐसा बोलना 
अज्ञानता/अल्प ज्ञान का सूचक है। कमल! को क मे लज"कमल कहना ही 
शुद्ध है । 
. शब्द-आदि में तथा उपसर्ग के बाद शब्द-मध्य में 'अः लिखा जाता है 
पवा-अपना. सुअवसर | सूअर, कुअर (<कुआरा)/कुबर (<: कुमार) जैसे दो- 
चार शब्दों के मध्य में 'अ! लिखा जाता है । शब्दान्त में अ! का प्रयोग नहीं होता । 





80 | हिन्दी का विवरणा त्मक व्याकरण 


आ, इ, ई, उ, ऊ में केवल 'इ, उ' का शब्दान्त में प्रयोग नहीं होता। 
बोलियों के शब्दों में इन का लेखन हो सकता है। ये सभी वर्ण शब्द-आरम्भ, शब्द- 
मध्य में आ सकते हैं। आ, ई, उ, ऊ के मात्रा-चिह न शब्दों के मध्य, अन्त में लिखे 
जा सकते हैं, केवल इ' का मात्रा-चिहू न शब्द के आरम्भ में (यथा--कि, हिन्दी) 
लिखा जाता है । 

ऋ”" वर्ण तथा इस के मात्रा-चिह न का प्रयोग केवल संस्क्ृत से आगत शब्दों 
के लेखन में ही होता है । 'ऋ से युक्त शब्दों का वाचन (और उच्चारण भी) मानक 
हिन्दी में 'रि है। विन्ध्याचल के दक्षिण की विभिन्‍न भाषाओं में इस का मानक 
वाचन (और उच्चारण भी) रु माना जाता है। हिन्दी की कुछ बोलियों में इस का 
वाचन “र' भी है । इस अकार आज भारत की किसी भी भाषा में ऋ!' का मूल 
स्वर रूप प्राप्त नहीं है। वास्तव में पाणिनि के काल में ही 'ऋ, लू मूल स्वर नहीं... 
रह गए थे, इसीलिए पाणिनि ने दोनों को अष्टाध्यायी में मुल स्वरवाले पहले सूत्र 
'अइउण्‌' में न रख कर दूसरे सूत्र 'ऋलुक्‌' में रखा है। ॥2#णा०ा68 40 4॥70०ंथां 
एती&' में इस के अनुमानित उच्चारण-समय का विभाजन इस प्रकार किया गया 


है----+ हक जि गुण सन्धि में ऋ 'र' में परिवर्तित है और “र' व्यंजन है।इस . . 


प्रकार ऋ वर्ण 'र' के साथ मूल स्वर अ/इ/उ' की मात्रा का युक्त रूप है, जैसे अन्य 
व्यंजनों में स्वरों की मात्राएँ जड़ती हैं । द 
ए, ऐ, ओ औ वर्ण तथा इन के मात्रा-चिह न शब्द-मध्य ओर शब्दान्त में _ 
आते हैं। मात्रा-चिह न शब्द-आरम्भ में नहीं आते। हिन्दी-इतर भाषी लोगों को 
ए, ऐ वर्ण तथा इन के मात्रा-चिह्‌ न परेशानी पैदा करते हैं। अच्छा रहता यदि 
ए, ऐ पर भी ओ, औ' की भाँति एक, दो मात्रा-चिहु न होते । ओ, औ' वर्णों का 
. आ वर्ण पर मात्रा-चिह न लगा कर निर्माण करना अवैज्ञानिक है। 

... अं, अः से व्यक्त होनेवाली ध्वनियों को अनुस्वार, विसगग कहा जाता है... 
क्योंकि ये ध्वनियाँ स्व॒रों की भाँति अबाध रूप से उच्चरित नहीं होतीं, किन्तु इन का. 
प्रयोग स्व॒र-वर्णों के मात्रा-चिह नों की तरह दूसरे व्यंजनों के साथ किया जाता है, 

.. यथा--पंखा, अंगूर, कंचन, डंडा, चंपक, बंधन, अतः, प्रायः आदि । ये दोनों 
. ध्वतियाँ अन्य व्यंजनों की भाँति स्वरों के पू्ष न आ कर स्वरों के बाद ही आती. 
. हैं। चूंकि ये दोनों ध्वनियाँ पूणंत: न तो स्वरों से' मिल पाती हैं और न व्यंजनों से, 
इसलिए इन्हें अयोगवाह (अ >-नहीं, योग > मेल, वाह" वहन करना/रखनता) कहा 
जाता है। मल हे । 
.....॑._ अं का वाचन तीन प्रकार से किया जाता है--अम्‌/अडः /अत्‌ । इस वर्ण | 
... का ध्वन्यात्मक मूल्य भी पाँच प्रकार का है--छ्‌, व्यू , ण्‌, नू, म्‌ । स्वर से पूर्व आने. 
.. पर अनुस्वार संस्कृत में म्‌ बन जाता है, यथा--सं +-आहा र/उच्चय/ईक्षा +< । 








वर्णमाला | 8 


समाहार, समुच्चय, समीक्षा । “अं वर्ण का मात्रा-चिह न () शिरोरेखा बिन्दु/शीर्ष 
बिन्दु (या बिन्दी) कहा जाता है। शब्द-आदि में केवल अं! आता है, अम्यत् ()। 
अः वर्ण का मात्रा-चिह न (:) विसर्ग कहा जाता है। विसग्ग का प्रयोग केवल 
संस्कृत से आगत शब्दों के लेखन में होता है । विसर्ग-चिह न शब्द-आदि में नहीं 
आता, शब्द-मध्य, शब्दान्त में आता है। इस का वाचन (उच्चारण भी) अघोष हू 
की भांति होता है । 

अनुनासिकता-युकत स्वरों को लिखते समय (”) चन्द्रबिन्दु चिहन का प्रयोग 
किया जाता है, यथा--ऊ ट, आँधी । जब शिरोरेखा के ऊपर चन्द्रबिन्दु के अतिरिक्त 
पहले से ही कोई अन्य चिह न और होता है, तब चल्द्रबिन्दु के स्थान पर केवल 
शी बिन्दु का प्रयोग करते है, यथा--ईंट, क्‍यों, में, आयों। आचाये कि शोरीदास 
वाजपेयी, पं० सीताराम चतुर्वेदी आदि कई विद्वान प्रत्येक स्थिति में चन्द्रबिन्दु-प्रयोग 
के समर्थक रहे हैं। मुद्रण, टंकण में अनुनासिक स्वर का शुद्ध रूप बनाए रखने के 
लिए शीर्ष-शुन्य/शिरो रेखा शुन्य (--) का व्यवहार विभिन्‍न परेशानियों को दूर करने में 
अति सहायक सिद्ध होगा । उत्तर भारत (तथा बन्य क्षेत्रों) से प्रकाशित कई समाचार 
पत्र-पत्रिकाएँ प्रत्येक स्थिति में चन्द्रबिन्दु के स्थान पर शीष॑बिन्दु का प्रयोग कर 
अहिन्दी भाषियों के लिए ही नहीं (कभी-कभी हिन्दी भाषियों के लिए भी) मानक 
वाचन की कठिनाई पैदा करने लगी हैं । ) | 

संस्क्ृत-व्याकरण का अनुकरण करते हुए कुछ व्याकरण-अ्रन्थों में हिन्दी की 
कई ध्वनियों को वर्णमाला में समाहित न कर केवल तीन वर्गों में देवनागरी वर्णमाला 
को विभाजित किया गया है, यथा--]. स्पश व्यंजन--क वर्ग (क ख गघ छः), च 
वर्ग (चछ ज झ ज्य), ट वर्ग (टठ डढ ण), त वर्ग (त थ द ध न), प वर्ग (पफ 
ब भ म) 2. अन्तस्थ व्यंजन (य र ल व) 3. ऊष्मः व्यंजन (श ष सह)। यह वर्गीकरण 
संस्क्ृत-सन्धि व्यवस्था को समझने में अवश्य सहायक है किन्तु देवनागरी वर्णमाला का 
पूरा परिचय नहीं कराता । द 0, 

संस्कृत-परम्परा का अनुकरण करते हुए कुछ व्याकरण-प्रन्थों में क्ष त्रज्ञ श्र 
का संयुक्त व्यंजनों के रूप में विशेष उल्लेख किया जाता है। वास्तव में इन में त्र/त्र/ 
तर, श्र|श्र जितने स्पष्ट संयुक्त रूप हैं, 'क्ष, ज्ञ! उतने ही जटिल रूप हैं और वैसा ही 
जटिल इन का वाचन (या उच्चारण) है । का 5 आय 

व्यंजन वर्णों में 'ड, जग, ण, ड़, ढ' शब्द-आरम्भ में नहीं आते । शेष सभी 
व्यंजन शब्द-आदि, शब्द-मध्य, तथा शब्दान्त में आते हैं। 'ब' का प्रयोग केवल 
संस्कृत से आगत शब्दों के लेखन में ही होता है। हिन्दी भाषा में इस का वाचन 
(तथा उच्चारण) “श्‌* वत्‌ है, इसलिए क्‌--ष+ क्ष! का वाचन तथा उच्चारण 'क्श' । 
(कुछ लोगों में क्छ) वत्‌ होता है। 'क्ष' का लेखन केवल संस्कृत से आगत शब्दों में . 


होता है, यथा--कक्षा, रक्षा, दीक्षा, क्षात्र, कक्ष आदि। कर 








नि 635 


82 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


'घ! से युक्त कुछ शब्द हैं--षट्‌, षड्यन्त्र, पडुऋतु, षष्मुख, घडानत, षट्कोण, 
पोडश, घोडशी; षष्ठि, निष्कपट, निध्पाप, निष्फल, नष्ट (<नशू--त), प्रविष्ट 
(< प्र+-विश्‌--त), ऊष्म, ईर्ष्या, विष्णु, सहिष्णु । ही | 

ज्ञ (< ज्व्म) का प्रयोग केवल संस्कृत से आगतं शब्दों के लेखन में ही होता 
है । हिन्दी के अपने किसी शब्द में 'व्य' का व्यवहार नहीं होता । इसलिए '्ञ का 
वाचन और उच्चारण ग्य' वत्‌ होता है। 'ज्ञ के निकट कोई नासिक्य ध्वनि आ 
जाने पर इस का वाचन तथा उच्चारण “गयाँ वत्‌ होता है, यथा--यज्ञ, अज्ञ [यग्ग्य 
अग्ग्य |, ज्ञान, विज्ञान [ग्याँगू, विग्यान | । कुछ लोग इस का वाचन तथा उच्चारण 
ज्यं बत्‌ भी करते हैं, यथा--यज्ञ [यज्ज्य | 

(:) विस चिह नों का प्रयोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों के लेखन में ही 
होता है। हिन्दी का अपना कोई शब्द विसर्गयुत नहीं है, अतः छह को छः लिखना 
गलत है। संस्कृत के सभी विसर्गान्‍त शब्दों का वाचन, उच्चारण हान्‍त वत्‌ होता है 
यथा--पुनः, वस्तुतः, पूर्णतः, अतः, प्रायः [पुनह , वस्तुतह, पृर्णतह , अतह प्रायह | 
हिन्दी में संस्कृत के अनेक शब्द विसर्ग (न्‍स कारानत) हटा कर ग्रहण कर लिए 
गए हैं, यथा--तप<तपः (तपस्‌), तम< तमः (तमस्‌), तभ<नभः (नभस्‌), मन 
<मनः (मनस्‌), यश < यशः (यशस्‌), सिर<शिरः (शिरस)। प्रातः, प्रातःकाल में 
विसर्ग का स्पष्ट उच्चारण है किन्तु संस्कृत दुःख को अब लोग बिना विसर्ग के ही 
बोलते हैं ओर प्राय: दुख” ही लिखने लगे हैं । 


(.) का प्रयोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों के लेखन में ही होता है । 
हिन्दी के अपने किसी शब्द में ऋ'” के मात्रा-चिह न का प्रयोग नहीं होता। शा का 
अधे व्यंजन (१) है। पुरानी नागरी में यह (श्र) था, यथा--काश्त (काश्त), श्याम । 
(श्याम) । श--ऋ| >श्यू (श), श--रज/श्र. (श्र/|श्र) | टंकण कल में श्ञ न 
होने के कारण श्वगार लिखना या छापना अशुद्ध है। इसे शुगार या शुगार _ 

लिखना ही उचित है । है क्‍ 
द (-) शिरोरेखा-बिन्दु/शीर्ष-बिन्दु का प्रयोग तीन प्रकार की ध्वनियों को 
..सुचित करने के लिए होता है, यथा--() वर्गीय नासिक्य ध्वनि को व्यक्त करने के... 
लिए विकल्प से, जैसे--पंखा (पड खा), चंचल (चञ्चल), अंडा (अण्डा), कुदन 
(कुन्दन), संभाषण (सम्भाषण) । (2) अनुस्वार ध्वनि को व्यक्त करने के लिए, 
यथा--सयम, संरचना, संलाप, संवाद, वंशी, संसार, संहार। विशुद्ध अनुस्वार 
. ध्वनिवाले शब्द केवल संस्कृत से आगरत शब्द ही हैं, अत: इन में शिरोरेखा-बिन्दु का 
ही प्रयोग किया जाता हैं। (3) शिरोरेखा के ऊपर कोई अतिरिक्त चिह न होने पर 
..._  अनुनासिकता की ध्वनि को व्यक्त करने के लिए चन््रबिन्दु के स्थान पर केवल बिन्दु|.. 
..._ शीर्ष बिन्दु का प्रयोग किया जाता है, यथा--ईंधन, में, हैं, क्‍यों, भौं, कर्मों । लिखू- | 
लिखें, कुआँ-कुओं, चिड़ियाँ-चिड़ियों में अनुनासिकता के लिए दुहरे लिपि-चिहू नों का... 





मु 
रा 





वर्णमाला | 83 


प्रयोग चिन्तनीय है। हिन्दी-शब्दों के अन्त में केवल अनुनासिकता ही. आती है । 
शब्दान्त में नासिक्य व्यंजन वर्णों का पूर्ण रूप लिखा जाता है, केवल एवं, स्वयं 
(एवम्‌, स्वयम्‌) में शिरोरेखा-बिन्दु का प्रयोग होता है । 


वा, ण का श्रयोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों में ही मिलता है । लेखन 
में इन के अर्घ रूप के स्थान पर शिरोरेखा-बिन्दु का प्रयोग बढ़ चला है। हः का 
प्रयोग यद्यपि हिन्दी के शब्दों में भी प्राप्त है, तथापि लेखन में इस के अर्ध रूप के 
स्थान पर शिरोरेखा- बिन्दु का प्रयोग बढ़ चला है। न, म का प्रयोग अन्य नासिक्य 
व्यंजन वर्णों की अपेक्षा बहुत अधिक होता है। इन के अधे रूप के लिए शिरोरेखा- 
बिन्दु का प्रचलन अभी विकल्प से, तथा कुछ कम ही है। संस्कृत से आगत कुछ 
शब्दों के लेखन में शिरोरेखा-बिन्दु का प्रयोग न हो कर केवल अर्ध पंचमाक्षर का ही' 
प्रयोग होता है, यथा--पम्ृण्मयी, तन्‍्मय, वाडः मय आदि । 
देवनागरी-लेखन में बर्ण-संयोजन दो प्रकार का होता है--. व्यंजन--स्वर 
2. व्यंजन--व्यंजन, यथा--क [क्‌]--अज"ःक, क-+-आ॥/इ (/  )5--का|कि; क-+- 
क--क्क कक । 'क्‍क्र जेसे संयोजन को संयुकताक्षर रूप भी कहा जाता है। 
एकाकी' वर्ण को सरलाक्षर कह सकते हैं, यथा--अ आ क गे आदि। “अ' का मातता- 
चिह॒न न होने से और हिन्दी में अ-लोप के साथ उच्चारण होने के कारण हिन्दी 
शब्दों में समस्त व्यंजन वर्णों के दो-दो ध्वन्यात्मकः मुल्य (07०0० एकवए०७) हैं-- 
सहित, यथा--'कमला का 'क” अ-सहित (क--अ) है 2. 'अ'-रहित, यथा--- 
तमक का के अ-रहित (क-अ) [क्‌]है। 
संयुक्त व्यंजन के रूप में “र' के तीन रूप प्रचलित हैं--- . र -[-व्यंजन-- 
+ व्यंजन, यथा-- कर्म, बर्र"-कर्म, बर॑ 2. लघु खड़ी पाई के अतिरिक्त अन्य 
व्यंजन--र > व्यंजन--+ यथा--उगर, चक्र>-ऊझग्न, चक्र (वास्तव में यह देवनागरी 
की अपनी कमी है क्योंकि यहाँ पूर्ण “र के स्थान पर अधे र्‌ का प्रयोग किया जा 
रहा है) 3. लघु खड़ी पाईवाले व्यंजन (यथा--छ ट ठ डः ढ़ द)--र >- व्यंजन -- 
यथा--राष्ट्र, ड्रामाज"-राष्ट्र, ड्रामा (यह भी देवनागरी की अपनी कमी है 
क्योंकि यहाँ पूर्ण 'र के स्थान पर अध॑ र्‌ का प्रयोग किया जा रहा है) । 
संयुक्ताक्षरों के साथ 'इ' की मात्रा (() का लेखन--वृद्धि, समृद्धि 
बुद्धि, चिह नित, चिट्ठियाँ, स्थिति, परिस्थिति, शक्ति आदि को बुद्ध, वदिध 
स्थिति, शक्ति” जैसा लिखना अशुद्ध है क्‍योंकि दि” में एक साथ दो मात्रा-चिह नों 
(_अजोप चिह न, 5३) का प्रयोग सिद्धान्ततः तथा व्यवहारत: अशुद्ध 
ठहरता है। द्‌ का (शब्दान्त में) अलग से अस्तित्व (शरद, परिषद्‌ में) प्राप्त है 
अतः द्ध संयुकताक्षर है न कि एक पूर्ण वर्ण । द की भाँति 'क तो शब्दान्त में 
प्राप्त हैं, यथा--वाक्‌, तेजस्‌ किन्तु 'ब र नहीं । आरम्भिक कक्षाओं के हिन्दी 
सीखनेवाले छात्र 'बु दि ध, व्‌ दि ध, रु थि ति' आदि के वाचन में अत्यन्त कठिनाई 





.._ रडड, रण, र॒त|ते, र॒थ/थ॑, र॒द[द, र॒ध/ध, र॒त|ने, र॒प(पं, रृब/ब, रुभभ, रुम|मं, 








84 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


का अनुभव करेंगें। बुद्धि, वृद्‌ थिः में अक्षर-विभाजन भी स्पष्ट है, जब कि 
स्थिति, शक्ति में अस्पष्ट है । क्‍ 

संयकक्‍ताक्षर/संयकक्‍्त वर्ण--ऐसे दो या अधिक व्यंजन वर्ण जिन के मध्य अ 
लुप्त रहता है संयोगी/संयुक्त व्यंजन या वर्ण कहलाते हैं। इन्हें संयुक्ताक्षर भी कहा 
जाता रहा है। हिन्दी में प्राप्त संयुक्ताक्षर ये हैं--- 

क--क्क, क्ख, कच, वत्त, कम, क्‍्य, वर/क्र, कल, क्‍्व, वष/क्ष, क्टर/क्ट्र, क्श, कस 

ख---ख्य, रर/स्थ्र 

ग>रग्ग, ग्घ, ग्ण, रद, ग्ध, ग्त, ग्प. ग्म, ग्य, रर/ग्र, ग्ल, ग्व, गन्‍य, ग्भ्र/ग्श्र 

घ--घ्न, ध्य, घर 

ह--इनक, डुख, ह॒ग, ड्घ, हम, डःकक्‍्त, हः ग्य, झूरर[हि्ग्र 

च---च्च, चुछ, च्य, उ्छव 

छ--छ र/छ 

ज--ज्ज, ज्ञ, ज्ञ्ञज्ञि, ज्य, ज्र/|ज़र, ज्व 

वब्य--अच, उछ, ज्ज, उस 

ट-“डूट, दूठ, दूय, ट्र|ट्र, टूव. 

5ठ-.ठय, द्र/द 

ड-ड्ग, डड, डढ, डम, ड्य, डर/ड्र 

ढ--ढूय, ढूर/ढ 

ण--ण्ट, ण्ठ, ण्ड, ण्ढ, ण्ण, ण्म, ण्य, ण्व, ण्ठय, ण्ड्य, ण्ड्र/ 


त-त्क, त्ख, त्त, त्थ, त्न, त्प, त्फ, त्म, त्य, त्र,[व्र|ति, त्ल, त्व, त्स, त्क्ष, 
स्प, त्म्य, त्स्न, त्स्थ, व्यत्यि । 


- थ--थ्य, थर/थ्र, थ्व 
द--दूग, दूध, दृद, द्ध, दन, दव, दभ, दम, दूय, द्र|दु, दव, द्भ्र(दुश्र . 
ध-ध्न, ध्म, ध्य, धर, धर, ध्व कर 

. न+्त, न्‍्थ, न्द, न्ध, न्‍्न, नम, न्‍्य, नव, नस, (नह), न्त्व, न्दूय, न्ध्र, नसप, 

_ च्द्र/न्र, न्ध्य, न्त्र, न्‍्दय, न्त्य, न्व्य, न... श 
प-प्त, प्त, प्प, प्म, प्य, 'एरप्र, प्ल, प्स, प्त्य ९७३३० ४ | द | 
ब--«्ज, ब्त, ब्द, ब्ध, ब्न, ब्ब, ब्भ; ब्य, ब्र,|त्र, ब्ल, ब्श, ब्ज द 
सभ-भन, भय, भर/भ्र... 

.. म--स्त, मद, मत, म्प, म्फ, म्ब, म्भ, मम, मय, मर|स्र, म्ल, म्व, (मह), 
| ज्प्य, भप्र[|म्प्रि 

व यह: य--्य्य 
..... र-र्‌क/के, रुख/खं, रगगं, र॒ध/घं, रच/चं, र्‌छ/ 


बच 


सलपंख न कउभबुक५न्‍ताराक ८ का पक्का न । तक न 5 बाय ना | हक खाट - हे ्- 





वर्णमाला | 85 


रुयर्थ, र्र/रं, रुल/लं, रुव/वं, र॒श/शं, रृष/पं, र॒स/सं, रह/हैं, रृक/क, रख/ख', 
र॒ग|ग, रज/ज , रफ/फ्‌; र॒फ्य/फरय, रद्र|द्रं, रृध्व/ध्वं, र॒त्स/त्सं, र॒भ|भ्रे, रख!खे, 
रृष्य|ष्ये, र॒त्स्य/तत्स्य द 

ल---ल्क, हग, लच, हछ, हट, ल्ड, लत, लथ, हद, ल्प, ल्फ, लब, ल्भ, ल्‍म', लय, 
ल्‍ल, लव, ल्‍स, ल्‍ज, ल्फ 


ब--व्य, ब्व, वर/त्र 
श-४क, श्च, शछ, श्त, श्न, श्म, श्य, एर/श्र, श्ल, श्व, शश, श्क 
ष-ष्क, ष्ट, ष्ठ, ष्ण, ष्प, ष्म, प्य, ष्व, ष्ट्राष्ट्र, 'ष्ठ्य, एप्र|ष्प्र 
स- स्क, स्ख, स्ज, स्ट, स्त, स्थ, रद, सन, स्प, स्फ, सब, सम, स्य, रे 
स्‍ल, स्व, स्स, स्ख्‌, स्थ्य, स्त्र/स्त्र/स्त्र 
. हु“ हनन, हम, हू य, ह्‌ र/ह, हल, हू व 
क्ष-दक्ष्म, क्षण, क्ष्य, क्षव .. 
क--कत, कफ, कल, कश, कस 
 खू>--खूत, रूम, रूय, रूव, रुश 
गू-ग्म 
जुू--ज्ज्‌, ज्ब, ज्म, ज्य 
फू--फट, फ्त, पर/फ्र फ्ल, फ्य, फज, फ्फ 
देवनागरी अंक--१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, €, ० 


र/ख्र, 





4 | हिन्दी' का विवरणात्मक व्याकरण 


का अनुभव करेंगे। बुद्‌ धि, वृद्‌ थिः में अक्षर-विभाजन भी स्पष्ट है, जब कि 
'स्थिति, शक्ति” में अस्पष्ट है । 
संयकताक्षर/संयक्‍त वर्ण--ऐसे दो या अधिक व्यंजन वर्ण जिन के मध्य 'अ 
लुप्त रहता है 'संयोगी/संयुक्त व्यंजन या वर्ण कहलाते हैं। इन्हें संयुक्‍्ताक्षर भी कहा 
जाता रहा है। हिन्दी में प्राप्त संयुक्‍ताक्षर ये हैं--- 
क--क्क, क्ख, क्च, वत्त, कम, क्‍य, कर/क्र, कल, कव, वष/क्ष, कद र/क्ट्र, क्श, कस 
ख--ख्य, झर/व्थ्रि 
ग-ग्ग, ग्घ, ग्ण, रद, ग्ध, ग्त, ग्प, ग्म, ग्य, रर/ग्र, ग्ल, ग्व, ग्न्य, ग्भ्र/्श्र 
घ--ध्न, ध्य, घर/क्ष 
इ--डा के, झख, हु ग, ढहुघ, ढा म, डुकक्‍्त, झ ग्य, डागर[हिग्न 
च--च्च, उछ, च्य, उछव 
छ--छर/छ 
ज--ज्ज, ज्ञ, ज्ञ्ञज्ञ, ज्य, ज्र/ज्र, ज्व 
व्व--ञ्व, ञछ, ज्ज, ज् 
ढट-“टूट, टूठ, दय, ट्र|ट्र, दृव 
ठ--दय, ठर/ठ 
. ड>ड्ग, डड, डढ, डम, ड्य, डर/ड्र 
ढ--ढय, दर/ढ ः 
ण--ण्ट, ण्ठ, ण्ड', णह, गण, ण्म, ण्य, ण्व, ण्ठय, ण्डय ण्ड्रा 3०] 
त-त्क, त्ख, त्त, त्थ, त्न, त्प, त्फ, त्म, त्य, त्र,|वि/त्र, त्ल, त्व, त्स, त्क्ष, 
त्म, त्म्य, त्स्‍्न, त्स्थ, व्यतत्यि द 
थ--थ्य, थ्र/थ्र, थ्व द 
- ब--दूग, दूध, दृद, दूध, दून, दुव, दूभ, दूम, दूय, द्र(दू, दुव, द्भ्र|दश्र.. 
ध--धन, ध्म, ध्य, धर, धर, ध्व हे आम आम 
. न+-न्त, न्थ, न्‍द, न्ध, न्‍न; नम, न्‍य, नव, नस, (नह), न्त्व, न्दूय, न्क्र, न्‍सप, 
न्द्र/न्द्र, च्ध्य, न्त्न, न्द्य, न्त्य, न्त््य, न्‍्ज । रा कक कम 
प-प्त, प्त, ण्प, प्म, प्य, एर|प्र, प्ल, प्स, प्त्य ३ 5 ह । 


ब--ब्ज, व्त, ब्द, ब्य, ब्ल, ब्ब, व्य, ब्य, बर,|ब्र, ब्ल, ब्श,ब्जू. ४ ः 

भ-+भ्त, भय, भर|भ्रि... ३ ० । 

.. भ+>सम्त, मद, मत, म्प, म्फ, स्व, म्भ, मम, म्य, मर|म्र, मल, म्व, (म्ह), 
म्प्य, म्प्र/म्प्र आम झ द 





पय--थ्प 








वर्णमाला | 85 


रुयर्थ, र॒र/रं, र॒ुल/लं, र॒व/वं, र॒श/शे, रृष/पं, र॒स/से, रह/हं, रक/क', रृख/ख्‌ , 
र॒ग|ग, रृज/जें, रफ्‌/फूं; रृफ्य/फर्य, रुद्र/ह, र॒ध्व/ध्वं, र॒त्स/त्से, र॒भ/अ्र, रख. 
रृष्य|ष्ये, र॒त्स्य/त्स्ये द 

ल--स्क, हग, ल्च, ल्छ, ल्ट, लड, लत, लथ, लद, लप, ल्‍्फ, ल्ब, 
हल, लव, ल्‍स, ल्‍लज॒, ल्फ 

ब--व्य, व्व, वर/तब्र 

श-श्क, श्च, शछ, श्त, श्न, श्म, श्य, एर/|श्र, श्ल, श्व, श्श, शक 

ष--ष्क, ष्ट, ८्ठ, ष्ण, ष्प, ्म, ष्य, ष्व, ष्ट्रष्ट्र, 'ष्ट्य, ष्प्रष्प्रि 

स-- स्क, स्व, स्ज, स्ट, स्त, स्थ, रद, सन, स्प, स्फ, स्व, सम, स्य, सरस्रि, 
स्‍ल, स्व, स्स, स्ख्‌, स्थ्य, स्त्र/स्त्र/स्त्र 

ह-हुन, हम, हू य, ह्‌ र/ह, हल, हू व 

क्ष-क्ष्म, दण, क्ष्य, क्षय 

कू--वत, कफ, कल, कश, कस 

खू--खूत, रूम, रूय, रूव, रूश 

गू>-गुस 

जु-ज्जु, जब, ज्म, ज्य, 

फ-फट, फ्त, प्र/फ्र फ्ल, फ्य, फ्ज, फफ 

देवनागरी अंक--१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, ० 


ल्भ, ल्म, लय, 





84 | हिन्दी' का विवरणात्मक व्याकरण 


का अनुभव करेंगें। बुद्‌ धि, वृद्‌ धि. में अक्षर-विभाजन भी स्पष्ट है, जब कि 
स्थिति, शक्ति में अस्पष्ट हैं । 

संयक्ताक्षर/संयकक्‍्त वर्ण--ऐसे दो या अधिक व्यंजन वर्ण जिन के' मध्य 'अ 
लुप्त रहता है 'संयोगी/संयुक्त व्यंजन या वर्ण कहलाते हैं। इन्हें संयुक्ताक्षर भी कहा 
जाता रहा है। हिन्दी में प्राप्त संयुक्ताक्षर ये हैं--- 


क--क्क, क्ख, क्च, वत्त, कम, क्‍्य, वर/क्र, कल, क्व, वष/क्ष, क्ट्र/क्ट्र, क्श, कस 


ख--खरूय, रूर/स्थ 
ग>ग्ग, ग्घ, ग्ण, रद, ग्ध, ग्त, ग्प. ग्म, ग्य, रर/ग्र, ग्ल, ग्व, ग्न्य, ग्भ्र/ग्प्र 
घ--घ्न, घ्य, घ्रध्र 
ड--ड क, हुख, डग, डघ, डम, डक्‍्त, झग्य, हू ग्र/डिग्र 
च--5्च, चछ, च्य, च्छव 
छ--छर|छ 
ज--ज्ज, ज्ञ, ज्ञञज्ञ, ज्य, ज्र/ज, ज्व 
 जव--ञ्च, झछ, ज्ज, उस 
ट--टूट, टूठ, दुय, ट्र/ट्र, दव 
ठ--ठय, दर/ठ 
ड-ड्ग, ड्ड, डढ, ड्म, ड्य, ड्र/ड्र 
ढ--ढूय, ढर/ढ 
ण--ण्ट, ण्ठ, ण्ड, णढ, ण्ण, ण्म, ण्य, एव, ण्ठय, ण्ड्य, ण्ड्र/ण्ड 


त-त्क, त्ख, त्त, त्थ, त्न, त्प, त्फ, त्म, त्य, त्र,त्रत्रि, त्ल, त्व, त्स, र्क्ष, 
स्प्र, त्म्य, त्स्‍्त, त्स्थ, व्यत्यि 


. थ--थ्य, ध्र/थ्र, थ्व 


.. द--दूग, दूध, दद, दध, दून, दव, दभ, दम, दय, द्र|द्‌, दृव, दृभ्र(दश्र . 


ध--धनत, 5म, ध्य, धर, ध्र, ध्व .. हम 
.. न+-्त, न्‍थ, न्द, न्ध, न्त, नम, न्य, नव, नस, (नह), न्त्व, न्दय, न्थ्व, न्स्प, 
.. न्द्र|व्रि, व्य, न्त्, न्‍्दय, न्त्य, न्व्य, न्‍ज 2 पड 

.  प+प्त, प्न, प्प, प्म, प्य, पर|प्र, प्ल, प्स, प्त्य 

फ---फ्य ४ 

ब--ब्ज, ब्त, ब्द, ब्ध, ब्त, ब्ब, ब्भ, ब्य, बर,|ब्र, ब्ल, ब्श, ब्ज्‌ 

भ-भत, भ्य, भर/प्र क्‍ 


स--स्त, म्द, मत, म्प, म्फ, म्ब, स्‍्भ, सम, मय, मर/म्र, मल, म्व, (म्ह), 


म्प्प/म्प्र 
.. य>-य्य 


 । रा र₹-र्‌कके, रुख/खं, र्‌ग/ग, रृघ/घं, र्‌च/चं, रछ/छे, र॒ज/जें, रुझ|झें, र॒ट[ट 
_.....  र्‌डड, र॒णणं, र॒तति, र॒थ/थ, रृद/दं, र॒ध/ध्, रतन, र॒प/प, रब |/ब, र॒भ/भ, र॒म/में 








2 
!' 

! ४ 
|] 
/! 

| 








वर्णमाला | 85 


रुय/यं, र॒र/रं, रृल/लें, रुव/वं, र॒श/श, रृष/बं, र॒स/पं, रह/है, रक/क, र्‌ख/ख, 
रुग|ग, रज/ज , र॒फ्‌/फ्‌, रृफ्य/फर्य, रृद्र|॥रं, रृध्व/ध्व॑, र॒त्स/त्से, र॒भ/प्रे, रख/खं, 
रृष्िय/ष्यं, र॒त्स्य/त्स्ये 

ल--ल्‍्क, लग, ल्च, लछ, लट, लड, लत, ल्‍थ, लद, ल्प, ल्फ, ल्ब, 
ल्‍ल, लव, लस, लज, लफ 

ब--व्य, व्व, वर/त्र 

श-श्क, श्च, श्छ, श्त, श्त, श्म, श्य, श्र/श्र, श्ल, श्व, श्श, श्क्‌ 

ष--ष्क, ष्ट, ष्ठ, एण, षप, ्म, ष्य, ष्व, ष्ट्राष्ट्र, ष्ठ्य, ष्पर/ष्प्र 

स-- स्क, स्ख, स्ज, स्ट, स्त, स्थ, सूद, सत, स्प, स्फ, सब, सम, 
स्‍ल, स्व, स्स, स्ख, स्थ्य, स्त्र/स्त्र/स्त्र 

ह-हन, हम, हू य, ह र/छ, हल, हू व. 

- क्ष-क्ष्म, क्षण, क्ष्य, क्षव 

कू--वं,त, कफ, कल, कश, कस 

खु--रूत, रूम, रूय, रुव, रूश 

गूमग्म 

जू--ज्जु, ज्ब, ज्म, ज्य 

फ-फट, फ्त, पर/फ्र फ्ल, फ्य, फ्ज, फफ 

देवनागरी अंक--१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ६, ० 


ल्भ, ल्म, लय, 


स्य, स्र/स्र, 











84 | हिन्दी' का विवरणात्मक व्याकरण 


का अनुभव करेंगे। बुद्‌ धि, वृद्‌ धि' में अक्षर-विभाजन भी स्पष्ट है, जब कि 
स्थिति, शक्ति में अस्पष्ट है । 
संयुक्ताक्षर/संयक्त वर्ण--ऐसे दो या अधिक व्यंजन वर्ण जिन के मध्य अ” 
लुप्त रहता है संयोगी/संयुक्त व्यंजन या वर्ण कहलाते हैं । इन्हें संयुक्ताक्षर भी कहा 
जाता रहा है। हिन्दी में प्राप्त संयुक्ताक्षर ये हैं-- 
क--कक, क्ख, क्च, वत्त, कम, क्‍्य, वर/क्र, कल, क्य, वष/क्ष, क्ट्र/क्ट्र, क्श, कस 
ख--खूय, रुर/ग्थ्र 
ग>ग्ग, ग्घ, ग्ण, रद, ग्य, गत, ग्प, सम, ग्य, रर/ग्र, ग्ल, ग्व, र्तय, ग्भ्र/ग्न्न 
घ--ध्न, ध्य, ध्र/प्र 
इ--डक, ड्ख, छग, हुघ, हम, डक्‍्त, हःग्य, झूगर/झ ग्र 
च--5च, चछ, च्य, च्छव _ 
छ--छर/छ्‌ 
ज--ज्ज, ज्ञ, ज्ञ्ञज्ञि, ज्य, ज्र|ज़, ज्व 
व्य--अच, जछ, ज्ज, उस्न 
ट-“टूट, दूठ, टूय, ट्रट्र, ट्व 
ठ5--ठय, दर/द 
ड--ड्ग, ड्ड, डढ, डूम, ड्य, ड्र|ड्र 
ढ--ढूय, ढ़ र/ढ 
ण->“ण्ट, ण्ठ, ण्ड, ण्ड, ण्ण, ण्म, ण्य, ण्व, ण्ठय, ण्ड्य, ण्ड्र/ण्ड 
त-्क, त्ख, त्त, त्थ, त्त, त्प, त्फ, त्म, त्य, त्र,त्र|त्रि, त्ल, त्व, त्स, त्क्ष, 
एंप्र, त्म्य, त्स्त, त्स्य, व्यत्यि कप 
. थ--थ्य, थ्र/थ्र, थ्व 5 | हे 
द--दुग, दूध, दृद, दूध, दून, दुव, दभ, दम, दुय, द्र|दु, दुव, दृभ्रद्भ्र .. 
ध-ध्न, ध्म, ध्य, धर, धर, ध्व हे 
न--न्‍्त, न्‍थ, न्‍्द, न्ध, न्‍न, नम, न्‍य, नव, नस, (नह), न्त्व, न्दय, न्ध्र, न्स्प, 
त्ट्र/न्द्र, च्ध्य, न्त्र, नदय, न्त्य, न्त्य, न्‍ज ; हे 
प-प्त, प्त, प्प, प्म, प्य, पर|प्र, प्ल, प्स, प्त्य | 
ब--ब्ज, ब्त, ब्द, ब्ध, ब्त, ब्ब, ब्भ, ब्य, ब्र,|ब्र, ब्ल, ब्श, ब्ज 
>भ-भ्न, भय, भर/भ्र का है 
.. . मस्त, मद, मत, मरप, मफ, म्ब, म्भ, मम, म्य, मर|म्र, म्ल, म्व, (म्ह), 
.. म्प्य, म्प्र/म्प्र क्‍ 
हक लए 





बे, र्‌ 


भू 


" शड डे, रण/णं, र॒त|ते, र॒थ/थं, रद, रधध, र॒त/नं, र॒प/पं, रृब/बं, र॒भ/भं, र॒म/म, 





वर्णमाला | 85 


रुय|यं, र्‌रारं, रुल/ल॑, रुव/वं, र॒श/शं, रृष/वं, र॒स/सं, रह/हं, रुक/क', रख/ख', 
रुग|ग, रुज/ज , रृफ/फ्‌; रृफ्य/फ्य, र॒द्र|द्रं, रृध्व/ध्व, र॒त्स/त्सं, रुभ|प्रे, रुख, 
रृष्य|ष्ये, र॒त्स्य/त्स्ये 

ज7क, ला, ल्च, ल्छ, ल्ट, लड, लत, ल्‍्थ, लद, लप, लफ, ल्‍ब, ल्भ, ल्‍म, लय, 
ल्‍ल, लव, लस, लज, ल्फ्‌ 

ब--व्य, व्व, वर/तब्र 

श-?क, रच, रछ, शत, शने, श्म, श्य, शर|श्र, श्ल, श्व, शश, शक 

ष-ष्क, ष्ट, ८ष्ठ, रण, ष८प, एम, ष्य, ष्व, ष्ट्रष्ट्र ष्टय, एपर/पप्र 

स- सके, स्ख, स्ज, स्ट, स्त, स्थ, रद, स्त, स्प, स्फ, सब, सम, स्य, सरस्रि, 
स्‍ल, स्व, स्स, स्ख्‌, स्थ्य, स्तर/स्त्र/स्त्र द 

ह-हन, हम, हू य, ह्‌ र/ह, हू ल, हू व 

क्ष-क्ष्म, क्षण, क्ष्य, क्षव 

कू--क,त, क्फ्‌, कल, कश, कस 

खू-रूत, रूम, रूय, रूव, रुूश 

गू+ग्म | 

जु-ज्ज्‌, ज्ब, ज्म, ज्य 

फ-फट, फ्त, पर/फ्र फल, फ्य, फजु, फफ 

देवनागरी अंक--१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, €, ० 





5 
वर्तनी 


किसी भाषा के शब्दों में ध्वनियों का जिस क्रम से प्रयोग होता है, उस ध्वनि 
क्रम को उस शब्द की वर्तनी (5/०7778) कहते हैं। वर्तेनी (5-शब्द के उच्चरित 
रूप का अनुवर्तन को अक्षरी/हिज्जे/वर्ण-विन्यास भी कहते हैं। लिखित शब्दों में 
ध्वनियों का स्थान ध्वनियों के प्रतीक (अर्थात्‌ वर्ण) ले लेते हैं; अतः शब्द विशेष के 
लेखन में वर्ण-संयोजन के क्रम को .अक्षरी/वर्ण-विन्यास' कहा जाता है।. 

प्रत्येक भाषा की अपनी वतंनी-व्यवस्था होती है, यथा--अँगरेजी, पुट्‌, बद्‌ 
उच्चरित शब्दों का वर्ण-विन्यास है--[27४, 9ए. वर्णों के संयोजन-क्रम में अन्तर होने 
से वतंनी-भेद/शब्द-भेद हो जाता है, यथा--र स के विविध संयोगों से 'रसा, सार, 
सारा, रास, सरस, सारस शब्दों का निर्माण हो जाता है। द 

वर्तनी के स्तर पर लिखित भाषाएँ. परम्परा से अधिक नियन्त्रित रहती हैं 
यथा--पुद्‌, बट्‌, ब्रिजू, चॉक्‌, राइट शब्द अँगरेजी में प6, 90, 97786, णाक्षॉ(, 
पर8॥/ल्‍श76 लिखे जाते हैं । तेलुगु और कन्‍्नड़ शब्दों में अध संयुक्ताक्षर पूर्ण व्यंजन 
_ वर्ण के रूप में भौर पूर्ण व्यंजन अर्ध व्यंजन वर्ण के रूप में लिखे जाते हैं, यथा--- 
दुग्धालय, विद्वान्‌ में “, द्‌ पूर्ण व्यंजन वर्ण लिखे जाएँगे, 'ध, व” अर्ध व्यंजन _ 
वर्ण । हिन्दी के कुछ शब्दों में पूर्ण 'र व्यंजन अर्थ व्यंजन वर्ण के रूप में लिखा 
जाता है, यथा-प्रेम, द्रव, ड्रामा (प्रेम, दूख, ड्रामा)। स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति 
.. परम्परागत वतंनी में स्वेच्छा से परिवर्तेतन नहीं कर सकता । भाषा विशेष का समाज 

ही वतंनी की उन कमियों को दूर कर सकता है, जिन्हें कोई व्यक्ति संकेतित 
करता है। कम 

.... भाषाओं के उच्चरित रूप में जितनी जल्दी परिवतेन होता है, उतनी जल्दी 
लिखित भाषाओं में परिवर्तन नहीं हो पाता/नहीं किया जा सकता। यान्त्रिक सुविधा- 
असुविधा आदि के कारण भी ऐसा सम्भव नहीं हो पाता । यही कारण है कि सैकड़ों... 
। .... 86 














207७-08 22 7 7 कद च अप मम बन 


वतेनी | 87 


वर्षों से लिखी चली आ रही जीवित भाषाओं के उच्चरित और लिखित रूप में शत- 
प्रतिशत साम्य नहीं हुआ करता। अन्तर की मात्रा का थोड़ा-बहुत भेद विभिन्‍न 
भाषाओं में होता ही है। कहा जा सकता है कि परम्परागत लिपियों में लिखी चली 
आ रही भाषाओं के उच्चारण/वाचन और लेखन में शत-प्रतिशत साम्य नहीं होता । 

... प्रचलित भाषाओं में दो प्रकार की वर्तनी देखी जा सकती है---]. उच्चारणा- 
नुगामी बरतनी उच्चारण के ध्वनि-क्रम का यथावत्‌ अनुसरण करती है, यथा--आओ, 
बेठो; लीची खाओ [आओ बैठो; लीची खाओ] 2. परम्परानुगामी बतेती उच्चारण 
के ध्वनि-क्रम का यथावत्‌ अनुसरण नहीं करती । उच्चारण और लेखन का यह अन्तर 
कभी कम और कभी अधिक हुआ करता है, यथा--क्यों कि, हनुमान, डाकघर, ऋषि, 


रहना [क्यों का, हँनुमाँनू, डाक्घर्‌, रिश्‌, रह नाँ]। अन्य भाषाओं की भाँति हिन्दी 


भाषा की लेखन/वर्तनी-व्यवस्था में दोनों प्रकार के वर्तनी-रूप प्राप्त हैं । 
... इतर भाषाओं से आगत शब्द अर्थात्‌ स्नोत और प्रक्ृति-प्रत्यय-उपसर्गादि के 
योग से निर्मित शब्द/शब्द-सिद्धि की दृष्टि से भी वर्तनी के सम्बन्ध में विचार किया 
जाता है। इतर भाषाओं से आगत और निर्मित शब्दों में से. कुछ शब्द उच्चारणानुगामी 
वर्तनीवाले हो सकते हैं और कुछ परम्परानुगामी' वर्तनीवाले, यथा--जनवरी, माचे, 
खुदा, दोसा, कानूनी; ख्‌ दा, कानूनी, गए, गई, दुबारा, दुख, तेतीस; गये, गयी, 
दोबारा, दुःख, तेंतीस आदि । क्‍ 
जिस प्रकार भाषा-व्यवहार में शुद्ध|परिनिष्ठित उच्चारण का महत्त्व है, 
उसी प्रकार शुद्ध/परिनिष्ठित/|मानक वर्तनीयुत लिखित भाषा का महत्त्व है । शुद्ध 
वर्तती-युत भाषा का अर्थ स्पष्ट होने में कठिनाई नहीं होती, किन्तु अशुद्ध वर्तनीयुत 
भाषा का अर्थ या तो अस्पष्ट रहता है या उस से अनथे/विपरीतार्थ उत्पन्न हो सकता 
है। अशुद्ध वर्तनी से भाषा-बोध में भ्रम उत्पन्त हो जाता है; पत्र, तार आदि कहीं- 


. कै-कहीं पहुँच जाते हैं; भाषा का सौष्ठव भी विक्ृत हो जाता है, यथा---पेर की दाल 


पर चिरिया; बढ़ियाँ सारी; कार खाना (पेड़ की डाल पर चिड़िया; बढ़िया साड़ी; 
कारखाना) । 

भाषा विशेष की ध्वनियों और ध्वनि-प्रतीकों (वर्णों) में जितना नियमित 
सम्बन्ध होता है, - वर्तनी शुद्धि की उतनी ही' अधिक सम्भावता रहती है । रोमन 
और अँगरेजी में यह सम्बन्ध बहुत अनियमित है । रोमन के कई वर्णों के ध्वन्यात्मक 
मूल्यों में पर्याप्त अन्तर है, यथा--2 (ए, ऐ, भा एय, ऑ), ४ (ई, ए, & यू), 
। (आई, आय, इ, ई, अ), 0 (ओ, ओछ, ऑ, अ, ऊ, उ, आ, व्या, भाव), 0 (यू, 


. 3, अ, यो, 2 ), ८ (सू, क्‌, शू, 5) 0 (ज्‌, गूृ,9 ), $ (शू, सू, ज्‌,), 7 (ट, 


थ्‌, ध्‌, द, शू, चू, 2 )। अनेक शब्दों में कई अनुच्चरित वर्णो का प्रयोग मिलता है, 


यथा -- 8, पति, 5, 4., 7, पर, का रि, फ. 


यद्यपि देवनागरी लिपि अन्य कई भारतीय लिपियों की भाँति कुछ सीमा 
तक वैज्ञानिक है तथापि एक या एकाधिक कारणों के प्रभावस्वरूप हिन्दी भाषी और 








8 
वर्तनी 


किसी भाषा के शब्दों में ध्वनियों का जिस क्रम से प्रयोग होता है, उस ध्वनि 
क्रम को उस शब्द की बर्तनी (57०॥॥8) कहते हैं । वर्तेनी (>>शब्द के उच्चरित 
रूप का अनुवर्तन को अक्षरी/(हिज्जे|वर्ण-विन्यास भी कहते हैं। लिखित शब्दों में 


ध्वनियों का स्थान धवरनियों के प्रतीक (अर्थात्‌ वर्ण) ले लेते हैं; अतः शब्द विशेष के 
लेखन में वर्ण-संयोजन के क्रम को .अक्षरी/वर्ण-विन्यास' कहा जाता है।. 

प्रत्येक भाषा की अपनी वततंनी-व्यवस्था होती. है, यथा--भँगरेजी, पुट्‌, बढ़ 
उच्चरित शब्दों का वर्ण-विन्यास है--9फ, 5प्रा, वर्णों के संयोजन-क्रम में अन्तर होने 


से वर्तती-भेद/शब्द-भेद हो जाता है, यथा--र स। के विविध संयोगों से 'रसा, सार, 


सारा, रास, सरस, सारस शब्दों का निर्माण हो जाता है। 


वर्तनी के स्तर पर 'लिखित भाषाएँ” परम्परा से अधिक नियन्त्रित रहती हैं, 


यथा--पुट्‌, बद, ब्रिज, चॉक्‌, राइट शब्द अँगरेजी' में 700, 0पा, 07086, ००, 
78॥/9776 लिखे जाते हैं। तेलुगु और कन्‍्नड़ शब्दों में अर्ध॑ संयुक्ताक्षर पूर्ण व्यंजन 
वर्ण के रूप में और पूर्ण व्यंजन अर व्यंजन वर्ण के रूप में लिखे जाते हैं, यथा--- 
दुःधालय, विदवान्‌ में *, द्‌ पूर्ण व्यंजन वर्ण लिखे जाएँगे, 'ध, व अधे व्यंजन 
वर्ण । हिन्दी के कुछ शब्दों में पूर्ण 'र व्यंजन अर्थ व्यंजन वर्ण के रूप में लिखा 
जाता है, यथा--प्रेम, द्रव, ड्रामा (प्रेम, दुख, डरामा)। स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति 
परम्परागत वतंती में स्वेच्छा से परिवर्तन नहीं कर सकता । भाषा विशेष का समाज 
ही वतंनी की उन कमियों को दूर कर सकता है, जिन्हें कोई व्यक्ति संकेतित 
करता है । 


86 








भाषाओं के उच्चरित रूप में जितनी जल्दी परिवतंच होता है, उत्तनी जल्दी . 
. लिखित भाषाओं में परिवर्तन नहीं हो पाता/नहीं किया जा सकता। थान्त्रिक सुविधा- ; 
असुविधा आदि के कारण भी ऐसा सम्भव नहीं हो पाता । यही कारण है कि सैकड़ों है 


वि क  र &अ>7036 7757 2|> 5 हक के 


मिरक कलम लक न पम 





वतंनी | 87 


वर्षों से लिखी चली आ रही जीवित भाषाओं के उच्चरित और लिखित रूप में शत- 
प्रतिशत साम्य नहीं हुआ करता। अन्तर की मात्रा का थोड़ा-बहुत भेद विभिन्‍न 
भाषाओं में होता ही है। कहा जा सकता है कि परम्परागत लिपियों में लिखी चली 
आ रही भाषाओं के उच्चारण/वाचन और लेखन में शत-प्रतिशत साम्य नहीं होता । 

... प्रचलित भाषाओं में दो प्रकार की वर्तनी देखी जा सकती है--. उच्चारणा- 
नुगासी वर्तती उच्चारण के ध्वनि-क्रम का यथावत्‌ अनुसरण करती है, यथा--आओ, 
बेठो; लीची खाओ [आओ, बैठो; लीची खाओ] 2. परम्परानुगामी वर्तंनी उच्चारण 
के ध्वनि-क्रम का यथावत्‌ अनुसरण नहीं करती । उच्चारण और लेखन का यह अन्तर 
कभी कम और कभी अधिक हुआ करता है, यथा--कयोंकि, हनुमान, डाकघर, ऋषि, 
रहना [क्यों कु, हँनुमाँनू, डाकूघर्‌, रिश्‌, रह नाँ]। अन्य भाषाओं की भाँति हिन्दी 
भाषा की लेखन/वर्तनी-व्यवस्था में दोनों प्रकार के वर्तनी-रूप प्राप्त हैं । 

... इतर भाषाओं से आगत शब्द अर्थात्‌ स्रोत और प्रक्ृति-प्रत्यय-उपसर्गादि के 
योग से निभित शब्द/|शब्द-सिद्धि की दृष्टि से भी वर्तंनी के सम्बन्ध में विचार किया 
जाता है । इतर भाषाओं से आगत और निर्मित शब्दों में से कुछ शब्द उच्चारणानुगामी 
वर्तनीवाले हो सकते हैं और कुछ परम्परानुगामी वर्तनीवाले, यथा-- जनवरी, मार्च, 
खुदा, दोसा, कानूनी; ख्‌ दा, कानूनी, गए, गई, दुबारा, दुख, तेतीस; गये, गयी, 

दोबारा, दुःख, तेंतीस आदि। कम जे, 

जिस प्रकार भाषा-व्यवहार में शुद्ध/परिनिष्ठित उच्चारण का महत्त्व है, 
उसी प्रकार शुद्ध/परिनिष्ठित/|मानक वतंनीयुत लिखित भाषा का महत्त्व है । शुद्ध 
वर्तनी-युत भाषा का अर्थ स्पष्ट होने में कठिनाई नहीं होती, किन्तु अशुद्ध वर्तंनीयुत 
भाषा का अर्थ या तो अस्पष्ट रहता है या उस से अनथे/विपरीताथ उत्पन्न हो सकता 
है । अशुद्ध वर्तेनी से भाषा-बोध में भ्रम उत्पन्त हो जाता है; पत्र, तार आदि कहीं- 
. के-कहीं पहुँच जाते हैं; भाषा का सौष्ठव भी विक्वृत हो जाता है, यथा---पेर की' दाल 
पर चिरिया; बढ़ियाँ सारी; कार खाना (पेड़ की डाल पर चिड़िया; बढ़िया साड़ी; 
कारखाना) । ः 

. भाषा विशेष की ध्वनियों और ध्वनि-प्रतीकों (वर्णों) में जितना नियमित 
सम्बन्ध होता है, वर्तनी शुद्धि की उतनी ही अधिक सम्भावना रहती है। रोमन 
और अंगरेजी में यह सम्बन्ध बहुत अनियमित है। रोमन के कई वर्णों के ध्वन्यात्मक 
मूल्यों में पर्याप्त अन्तर है, यथा--४ (ए, ऐ, आ एय, आऑँ), ४8 (ई, ए, यू), 
(आईं, आय, इ, ई, अ), 0 (ओ, ओछ, ऑ, अ, ऊ, उ, आ, व्या, भाव), ए (यू, 
उ, भ, यो, 2 ), ८ (स्‌, कू, शु, & ) 0 (ज्‌, ग्‌, 9 ), $ (शू, सू, ज्‌,), 7' (ट, 
थ्‌, ध्‌, द, शू, चु, 2 )। अनेक शब्दों में कई अनुच्चरित वर्णों का प्रयोग मिलता है, 
यथा--8, क्र, &, ॥., 9, ५, ?, 7२, ए. | 3-88 ० हम जज 5 आज अड 

. यद्यपि देवनागरी लिपि अन्य कई भारतीय लिपियों की भाँति कुछ सीमा. 

तक वैज्ञानिक है तथापि एक या एकाधिक कारणों के प्रभावस्वरूप हिन्दी भाषी और 





88 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अहिन्दी भाषी अध्येताओं के लेखन में वर्तनी सम्बन्धी विभिन्‍न प्रकार की ज्वटियाँ 


हो जाती हैं। वर्तती-दोष और उन के कारण संक्षेप सें ये हैं --. अशुद्ध उच्चारण- 
परापत|प्रापत (प्राप्त), दुलहा (दूल्हा), इस्कूल/|अस्कूल/सकूल (स्कूल), लखमन 


(लक्ष्मण), दोका (धोखा), थोरा (थोड़ा) आदि 2. लिपि का अपूर्ण ज्ञान--ऐसा 


(ऐसा), अिमली (इमली), विद्वान (विद्वान), मुफत (मुफ्त), पृन्य/पुय (पृण्य), 
रंगना (रंगना), गाँधी (गांधी/गान्धी), 3. असावधानी और अतिशीक्रता--अकास्मिक 
(आकस्मिक), सैदव (सदेव), होगें (होंगे), ठलिफोन (टेलीफोन), आदि 4. क्षेत्रीय 
प्रभाव--सेन्स (साइन्स), सिट्ि (सिटी), हैकोट/हायकोट्ट (हाईकोर्ट), टिप्पड़ीं (टिप्पणी), 
जजमान (यजमान), उल्सव (उत्सव), घमला (गमला) आदि 5. सादृश्य--बुरायी 
(बुराई), सीधासाधा (सीधासादा), नके (नरक), सूष्टा (स्रष्टा) आदि 6. व्याकरण, 
शब्द-रचना तथा अर्थ-भेद का अपूर्ण/अनिश्चित ज्ञान--एकतारा (इकतारा), बकरीयाँ 
(बकरियाँ), कुत्तिया (कुतिया), निरपराधी (निरपराध), चाहिएँ (चाहिए), प्राणीमात 
(प्राणिमात्र), गौर (गौर), ताज (नाज), फन (फून) आदि । 


हिन्दी-व्तनी के मानकीकरण के लिए केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय तथा भारत 
सरकार के शिक्षा-मन्त्रालय की 'वरततेनी-समिति' ने कुछ नियम स्वीकार किए थे । 


इन नियमों में से कुछ में कहीं-कहीं विकल्प और कहीं-कहीं तर्कहीनता है | यद्यपि. 


कुछ सरकारी संस्थाएं इन नियमों का काफी मात्रा में अनुसरण कर रही हैं, किन्तु 


अधिकतर व्यक्तिगत लेखनादि में इन्न नियमों को पूर्णतः स्वीकार नहीं किया गया 


है । वर्तती के मानकीकरण के समय हिन्दी भाषा की' प्रकृति (अश्लिष्टता), उच्चारण, 
परम्परा, व्याकरण, शब्द-रचना, हिन्दी-शिक्षण प्रक्रिया (छोटे बच्चों और अहिन्दी 


भाषियों को आरम्भिक कक्षाओं में श्र तलेख लिखवाने आदि में), सरलता” का ध्यान... 
रखना अत्यावश्यक है । इन सभी पक्षों का ध्यान रखते हुए यहाँ मानक हिन्दी-वर्तनी 


.. के कुछ नियम दिए जा रहे हैं-- 


. कारक-चिह न लेखन--सभी कारक-चिह नों को प्रत्येक स्थिति में 


सम्बन्धित शब्द से अलग लिखना एकरूपता और सरलता की दृष्टि से उचित है। 


- घुज्ञा, स्थानवाची, कालवाची शब्दों से अलग ओर सर्वंनाम शब्दों के साथ मिला कर 


... लिखने में, और यदि दो कारक-चिह्‌ न एक साथ हों तो पहले को मिला कर और 
. . दूसरे को अलग लिखने का कोई ओचित्य नहीं है, यथा--श्याम को, यहाँ से, कमरे 


... में से, कल से, सोमवार को, मुझ से, उन्हों ने, तुम ने, इन में से (न कि मुझसे 
: उन्होंने, तुमने, इनमें से)। आप ही के लिए, मुझ तक को । (इस स्थिति में तो सवे- 


.. नामों के साथ कारक चिह त सटा कर लिखे ही नहीं जा सकते, अतः एक ही सरल. । 
..... नियम का पालन तके-संगत और उचित है, न कि तीन नियमों और उन के अपवादों... | 
..... .. का अनुपालन) ०. द । 














वतेनी | 89 


2. निपात-लेखन-- ही, भी, तो, तक” आदि निपातों को प्रत्येक स्थिति में. 
सम्बन्धित शब्द से अलग लिखना एकरूपता तथा सरलता की दृष्टि से उचित है, 
यथा--मुरारी ही के लिए; यहाँ तक तो; आप के भी' । 

3. हल चिहन ( )-लेखन--संस्कृत से आगत कुछ शब्द मूलतः हल चिह न 
युत हैं, यथा--जगत्‌, जाम्बवतू, पृथक्‌, प्राकू, भागवत्‌, महत्‌, वाकू, शरतू/शरद, 
श्रीमत्‌, सत्‌ । हिन्दी-उच्चारण में परिवतंन होने के कारण यद्यपि “ जगत्‌-जगत, 
सत्‌-सत' का उच्चारण/|वाचन “अ-रहित ही होता है किन्तु अर्थ-भेद एवं सन्धि- 
प्रक्रिया में हल्‌ के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता, यथा--मताधिकार (मत-- 
अधिकार), सदनुभव (सत्‌--अनुभव) | दूव, दम, दूय, ड्य आदि में भी' हलू चिह न 
लगाना आवश्यक है ही । दक्षिण भारतीयों ने नामों के शब्दान्त में हल चिह न लगाना 
या न लगाना हिन्दी भाषियों की दृष्टि से तो समान है, किन्तु दक्षिण भारतीय 
धप्रकाशम, सुरेशन को निश्चय ही “प्रकाशमा, सुरेशना” समझेंगे और बोलेंगे। हल्‌ 
चिह न लगाने से लेखन-सोष्ठवः की कोई हानि नहीं होगी, आवश्यकता है उन शब्दों 
को पहचानने की जो मूलत: हल्‌ चिह न युत हैं, यथा--प्रत्युत्‌, भविष्यत्‌, बुद्धिमान्‌, 
भाग्यवान्‌, श्रीमान्‌ू, विधिवत्‌, सच्चित्‌, पृथक, एवम्‌, स्वयम्‌, प्रकाशम्‌, सुरेशन, 
वासुदेवन आदि । 

4. संयुक्त क्रिया-लेखन--एकरूपता तथा सरलता की' दृष्टि से सभी क्रियाओं 
(मुख्य, सहायक) को अलग-अलग लिखना ही. उचित है, यथा “कहा जा सकता है; 
कहते चले आ रहे थे; सुनाता रहँगा आदि । 

“. पुर्वकालिक क्रिया-लेखन--एकरूपता तथा सरलता की दृष्टि से पृ्वंकालिक 
रूप कर , 'कर के” को प्रत्येक स्थिति में अलग-अलग लिखना ही उचित है, 
यथा--खा कर, रो कर, हो कर, कर के । इन्हें मिला कर लिखने पर जोर देने में 
कोई तकसंगति नहीं है, क्‍योंकि संयुक्त क्रियाएँ भी अलग-अलग लिखी जाती हैं । 
_आकर-आ कर; करके-कर के; पाके (< पा कर); ताके जैसे शब्दों से जटिलता ही 

बढ़ती है । कक 

6. सादृश्य सूचक शब्द-लेखन--सादृश्य सूचक शब्द “सा/-सी/-से, जैसा। 
_ ज॑सी/जैसे, सरीखा/सरीक्षी/सरीखे” से पूर्व योजक चिह न (-) के प्रयोग से स्पष्टता 
बनी रहती है, यथा--तुम-सा/जैसी/स रीखे; यहाँ-जैसी गर्मी; कल-जैसी आँधी । 

_7. तत्पुरुष समास-लेखन--तत्पुरुष समास शब्द के पूृवंपद और उत्तर पद के 
मध्य अर्थ स्पष्टता हेतु आवश्यकतानुसार योजक चिह न लगाया जा सकता है । जहाँ 
अरश्रम की सम्भावना (अधिक) हो, वहाँ योजक चिह्‌ न का प्रयोग करना ही उचित 
है, यथा - भूतत्त्व--भू-तत्त्व, संस्कृत शब्द--संस्क्ृत-शब्द । १ 
.. 8. दुवन्दव समास-लेखन--दुवन्दव समास के पदों के मध्य (आवश्यकता- 
नुसार) योजक चिह न लगाना उचित है, यथा--दाल-भात, श्वेत-श्याम, राधा-कृष्ण, _ 


१ 


सूर्य-चन्द्र, राम-लक्ष्मण, पति-पत्नी, बड़े-बड़े, छोटे-छोटे ।. 








90 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


9. संस्कृत से आगत शब्दों का लेखन--हिन्दी-लेखन में. संस्क्ृत-शब्दों का | 
प्रयोग दो रूपों में होता है--. सामान्य लेखन में संस्क्ृत-शब्दों का प्रयोग 2. संस्क्षत- ० 
उद्धरणों में संस्क्ृत-शब्दों का प्रयोग । एकरूपता तथा सरलता की दृष्टि से दोनों 
रपों में संस्कृत-परम्परा का पालन करना ही उचित है न कि सामान्य लेखन में हत्‌ 
चिह न न लगाना और उद्धरणों में हल चिह न लगाता; सम्धि-नियम समझाने, छत्त- ५ 
ज्ञान के लिए हलू चिहन लगाना। ऐसा करना कोई तके-संगत नियम नहीं है। 
जगत-जगत्‌ में अर्थ-भेद भी है । 'श्रीमान, महान, विद्वान, अर्थात” संस्कृत में अग्राहय 
हैं। यह कहना कि जिन शब्दों के प्रयोग में हिन्दी में हलू चिह न का लोप हो चुका. 
है, उन में हल चिह न लगाने की आवश्यकता नहीं! तकहीन कथन है। देवनागरी 
के कुछ वर्णों का अध॑ रूप बिना हलू चिह्‌न के सम्भव नहीं है। “जगस्ताथ” का 
विश्लेषण जगत्‌--नाथ ही होगा, जगत--नाथ नहीं । इसी प्रकार “दिग्गज, वाग्जाल, .. 
किचित्‌, उल्लास” आदि का सन्धि-विश्लेषण क्रमशः ' दिक्‌--गज, वाक--जाल, 
किम्‌--चित्‌, उत्‌--लास” करना पड़ेगा 'दिक, वाक, किम, उत्त' लिख कर काम. 
नहीं चला सकते । | द 
टे, ग, प, क्ष, : का प्रयोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों में होता है। 
यद्यपि हिन्दी में इन का उच्चारण/वाचन परिवर्तित हो चुका है किन्तु संस्क्ृत-शब्दों 
में परम्परानुगामी वर्तती का ही प्रयोग करना होगा, यथा--- ऋषि, ऋण, कृषक, 
कक्षा, क्षात्रधमं, अतः, प्रायः (न कि रिशि, रिड़/रिन, क्रिशक/क्रशक, ककक्‍्छा, छात्र- 
धर्म, अतह, प्रायह) । इन वर्णों से युक्त कुछ शब्द हैं-.- दर 
अचुगृहीत, पृष्ठ, निवृत्ति, उच्छुखल, क्ृतक्ृत्य, गहस्थ, पृथक्‌, प्रवृत्त, संगृहीत, 
सदृश, श्र खला, श्र्‌ गार, वृष्टि, कृषक, ऋषि, ऋणी, पैतृक, सृष्टि।... द 
... कृष्ण, क्षण, क्षीण, प्रण, भूषण, वरुण, विष्ण, कण, कोण, गुण, गण, गणिका, 
_गगाक्‍्य, बाण, मणि, साणिक्य, लवण, वणिक, वाणी, वीणा, वेणी, वेणु, निपुण । 
: जनिष्ट, इृष्ट, गरिष्ठ, घनिष्ठ, ज्येष्ठ, पृष्ठ, आमिष, कनिष्ठ, उत्कर्ष, भीष्म, | 
यथेष्ट, विभीषिका, विभीषण, विषण्ण, शुश्ूषा, सुषमा, विश्लेषण, मुमृष॑, सन्तुष्ट, 





0 
कि 
है 
हा] 
है 
गत 
( 





_ हितेषी, प्रेषित, प्रतिष्ठा, वर्ष, बष्ठ, सृष्टि |... द 
अत्तिय, क्षात्र, कक्षा, अक्षय, अधीक्षक, अक्ष, क्षण, क्षीण, क्षमा, क्षेम, क्षोभ, . 

तीकषण, दीक्षा, निरीक्षक, नक्षत्र, परीक्षा, परीक्षक, निरीक्षण, शिक्षा, साक्षी, समीक्षा 
समक्ष । हम के क्‍ के 
गा, .. अतः नाय:, तम;, ढु:, तेजः निः, पुत्र,, पय:, मनः, दुःख आदि। इन में 
. कई शब्द केवल सन्धि-प्रक्रिया के समय ही अथुक्त होते हैं । |, 
0. ई|ए बनाम यी/ये-लेखन--हिन्दी ध्वनि-उच्चारण व्यवस्था के अनुसार | 
... कुछ शब्दों के. मूल में या ध्वनि ने होने पर भी कुछ परिस्थितियों में (ही) श्र्ति | 
. हुपमें अ का उच्चारण होता है। हिन्दी में “ई, ए” के आने पर “यः श्रूतिकी | 








वर्तती | 9] 


शरुखरता लुप्त हो जाती है | जिन स्थितियों सें 'य' का श्र्‌ति रूप में मुखर उच्चारण 
होता है, वहाँ यः का लिखना उचित है, यथा--गया, आया, खाया, भाइयों / भाइयों, 
किया, दिया, सोया । जहाँ शब्द के मूल में 'य' है, वहाँ शब्द-सिद्धि या परम्परानुगामी 
वर्तनी की दृष्टि से ई।ए के संयोग में भी 'य का लिखना तकं-संगत है, यथा--रुपया- 
रुपये, दायी (<दाय>-देना)->उत्तरदायी, अंशदायी, उत्तरदायित्व, आनन्ददायी; 
स्थायी, स्थायित्व भी इसी प्रकार । द 


... दक्षिण भारतीय भाषाओं में य, व श्रूति आगम की स्थितियाँ हिन्दी की 
अपेक्षा बहुत अधिक हैं। गया, आया” आदि क्रिया-रूपों में 'य' श्र्‌ति का आगम 
हुआ है और यह श्रुति मुखर भी है किन्तु हुआ-हुई-हुई-हुए, गई-गई -गए. सोई-सोई- 
सोए' क्रिया रूपों में श्रति-आगम नहीं है। क्रियाओं में -आ/-ई/-ई/-ए प्रत्यय जड़ते हैं, 
यथा--लिखा-लिखी-लिखीं-लिखे । किया-की-कीं-किए; रोया-रोई-रोई-रोए में भी 
वे ही प्रत्यय जुड़े हैं, न कि -या/-यी/-यीं/-ये । स्वनिक स्तर पर हिन्दी में केवल 'अ- 
आ, इ-आ/ओ/जओं, ओ-आ के मध्य ही य' श्र्‌ति मुखर है, अन्य स्थितियों में इस की 
मुखरता पूर्णतः: लुप्त है। आरम्भिक स्तर पर लेखन सीखनेवाले हिन्दी क्षेत्र के 
बच्चे, अहिन्दी क्षेत्र के किशोर और विदेशी प्रौढ़ों को अधिकतम उच्चारणानुगामी 
वर्तती ही सरल लगती है। व्याकरणिक आधार पर उन्हें उस स्तर पर इधर-उधर 
भटकाना जटिलता उत्पन्न करता है । 


-यान्तवाली भूतकालिक, पुल्लिग, एकवचन की क्रियाओं के स्वीलिंग एकवचन, 
बहुवचन और पुल्लिग बहुबचन में यी/यीं/ये” के लेखन का तक जटिलता उत्पन्न 
करता है। -यान्त संज्ञाओं में -ई, -ए रखने की बात और अधिक जटिलता उत्पन्न 
करती है, यथा--पाया (पायी/पायीं/पाये); पाया-पाये, चारपायी; खोया (खोयी/ 
खोयीं/खोये); खोआ-खोए-खोई आदि । क्रिया-शब्दों को नयी/-यीं/-ये से और संज्ञा 
शब्दों को -ई/-ए से और विधि आदि रूपों को ए से लिखने में जटिलता ही बढ़ती है । 
जब अध्येता संज्ञा, क्रिया को ई, ए; यी, ये के साथ लिखित रूप में देखते ही पहचानने 
के स्तर पर पहुँचता है, तब वह यह भी जान जाता है कि हिन्दी में क्रिया प्रायः 
वाक्यान्त में ही आती है। उच्चरित भाषा-व्यवहार में यह लिखावट फिर भी कोई 
मदद नहीं कर पाती।...... क्‍ 


हिन्दी क्रिया के विधि रूप में---0 प्रत्यय जुड़ता है, यथा--वह लिखे/पढ़े/चले । 

आइए, जाइए, सोइए, कहिए, सुनिए, कीजिए आदि में -ए/-इए लिखना ही तके-संगत 

है न कि 'ये'। ये” लिखने के लिए यह तक॑ देना कि संस्कृत में प्रति-|- एक 5 प्रत्येक 

होता है, अत: आइए, कहिए' आदि में भी 'ये” लिखा जाए, भ्रम का सूचक है । 

हिन्दी क्रियाओं के इन रूपों पर संस्कृत भाषा का. सन्धि-नियम लागू नहीं होता, 
वरन्‌ यहाँ स्वरानुक्रम है।........ ० ली आज आप आह की 








92 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


संस्कृत में आई स्वरानुक्रम का अभाव है, अतः संस्कृत से आगत शब्दों को 
परम्परागत वतंनी' के अनुसार--यी युक्त लिखना अवश्य उचित केंहा जा सकता है, 
यथा--भाषायी, उत्तरदायी आदि । इन शब्दों के युल में या है। द 

अविकारी शब्दों 'इसलिए, लिए, चाहिए' में सेव 'ए! लिखना ही तकं-संगत 
है । इस प्रकार जहाँ 'य' श्र्‌ति मुखर है या जहाँ मूल शब्द में 'थ' का अस्तित्व है 


उन शब्दों को ही या/यी/ये/यीं से लिखा जाए, शेष शब्दों में “आ/-ई/-ए/-ई ही ; | 


लिखा जाए। क्‍ 
!. ऐ, औ का संयुक्त स्व॒रत्व-लेखन--ऐ, ओऔ वर्णों के दो-दो ध्वन्यात्मक 


पल्य हैं--. मूल स्वर ध्वनि 2. संयुक्त स्वर ध्वन्रि । ऐसा, है, हैं, और, कौन, भों... 


में ये मूल स्वर ध्वनियों के सूचक हैं। नैया, गवेया, सुरैया, कौआ, पौआ, होआ 
में ये संयुक्त स्वर ध्वनि के सूचक हैं । गवय्या, सुरय्या, कब्बा, पव्वा” जैसी वत॑नी 


. किसी प्रकार भी सही नहीं बैठती । सथुक्त स्वर ॒ ध्वनियुक्त कुछ ही शब्दों के लिए... 


अभी कोई चिह ते नहीं बना है, अतः )/ऐ औ से ही काम चलाना होगा | 


]2. आओ -लेखन--परिनिष्ठित हिन्दी में अँगरेजी' से आगत कुछ शब्दों में 


आ ध्वनि है। उन्हें लिखते समय आई का प्रयोग करना उचित है, यथा -- ऑफिस, 
डॉक्टर, हॉस्पीटल, कॉलेज, ऑपरेटर आदि | 


3. शिरोरेखा-बिन्द/शी्ष बिन्दु. और चन्रबिच्दु (( , ” - लेखन--. 
सामान्यतः वर्गीय अध॑ नासिक्य के स्थान पर शीर्ष बिन्दू का प्रयोग किया जा सकता _ 


है, यथा-- पंखा, कंचन, डंडा, नंद, कंपन | आंशिक, संसार, वंशी, संहार, संरक्षक, 


संयत, संवाद' में शीर्ष बिन्दु लेखन ही मानक है। अन्य, साम्य, अन्न, सम्मति/ 
: सनन्‍्मति, वाडः मय, पराडः मुख, काम्य आदि शब्दों में शी बिन्दु का प्रयोग परम्परागत 


वर्तनी तथा शब्द रचना और उच्चारण की दृष्टि से अशुद्ध है | हः व्यू ण के लिए 


. शीषं बिन्दु का प्रयोग लाधव की. दृष्टि से भी स्वीकाय है। ० का प्रयोग केवल 


_सैंस्क्रत से आगत शब्दों के साथ परम्परागत वत॑नी की दृष्टि से उचित भी लग सकता 


है, किन्तु संस्क्ृत-इतर शब्दों के पताथ नहीं, यथा--झण्डा, पैण्ट, लण्डन” को झंडा, 
पेंट(पैन्‍्ट, लंडन/लन्दन' लिखना ही उचित है। संस्कृत-इतर शब्दों (यथा---गंजी, 


जंगली, टैंक, पंछी, रंज, लुगी आदि) को पंचमाक्षर के साथ लिखना हास्यास्पद-सा _ 


लगता है। : -.-- 


+ किले  कें उपर कोई अन्य चिहून होने पर अनुवासिकता के लिए भी. 


.. शीष॑ बिन्दु का प्रयोग प्रचलन में है, यथा--में, मैं, ईंट, बिधना, क्यों, भौं, आयों। 
...._ शीष बिन्दु के कारण जिन शब्दों का वचन दुहरा रूप ले सकता है (यथा--हिंदी, | 
2० 5 7 बिंदी, में वरीय बह दी, विंदी/विनदी, पिंड/पिष्ड, पिंडली/पिष्डली), उनके. ; 





न 











वतंनी | 93 


हिन्दी, बिन्‍्दी, पिण्ड, पिण्डली/पिड़ली--पिड़ली। शिरोरेखा के ऊपर कोई अन्य चिह न 
न होने पर अनुनासिकता के लिए चन्द्रबिन्दु का प्रयोग ही तर्कसंगत है, अन्यथा 'हँस- 
हंस, अगता-अंगना' का अर्थ-भेद अस्पष्ट रहेगा । ५. हु थे क्‍ 

अहं, एवं के अतिरिक्त हिन्दी के शब्दों के अन्त में प्राय: (') नहीं आता, 
( ) चिह न ही आता है । शब्दान्त के नासिक्य व्यंजनों के लिए () का प्रयोग 
नहीं किया जाता । संस्क्ृत के शब्दों में (“ ) का प्रयोग नहीं होता । सम्बन्ध! जैसे 
कुछ शब्द कई प्रकार से लिखें जा रहे हैं, यथा--सम्बन्ध, संबंध, सम्बंध, संबन्ध । 
इन में पहले दो रूप एकरूपता की दृष्टि से अधिक ग्राहय हैं। नासिक्य व्यंजन अन्य 
तासिक्य या वर्गेतर व्यंजनों से पूर्व आने पर या द्वित्व होने पर शिरोरेखा बिन्दु से 
नहीं लिखे जाते, यथा--अन्न, मुन्ना, अन्य, गन्ना, जिम्मा, अम्मा, जन्म, अम्ल, 
सम्यक्‌, सम्मान, सम्राटु[ंसम्राट । 'एन्थोनी, कम्ब रुत, पम्प, बन्द, लम्बा, सिन्‍्थाल! 
आदि में न, म का प्रयोग आपत्त्जिनक नहीं माना जा सकता । सन्‍्यास (सं--स्यास) 
अधिक प्रचलित रूप है, सन्‍न्‍्यास कम प्रचलित रूप है, सनन्‍्यास अशुद्ध रूप है । 

4. विदेशी आगत शब्द-लेखन--जो विदेशी शब्द हिन्दी की ध्वनि-व्यवस्था 
के अनुरूप हों और लेखन में कठिनाई उत्पन्न न करते हों, उन्हें तत्सम रूप में लिखना 
ही उचित है, यथा--लैन्टन, बॉइकॉट, कागूजू, ग्रीब, फून, राजू, कानून, नाज, 
खाना, खतरा आदि | इन का तद्भव रूप दिखाने के लिए इन्हें लालटेन, बाइकाट, 
कागज, गरीब, फन, राज, कानून, नाज, खाना, खतरा” भी लिखा जा सकता है 
किन्तु खाना-खाना, बाजू-बाज, राजू-राज, फन-फन, गौरी-गौरी, गुम-गम जेसे अर्थ- 
भेदक युग्मों के कारण सामान्य लेखन में अधोबिन्दु का प्रयोग करना तर्क-संगत है 
क्योंकि कागज, कारखाना” शब्द ही शुद्ध हैं, कागज, कारखाना अशुद्ध नहीं तो 
शुद्धेतर/मानकेतर अवश्य हैं । हा 

. 5. (:) विसर्गं-लेखन--संस्क्ृत से आगत विसर्गयुत शब्दों में परम्परागत 
वर्तनी के आधार पर विसगे लगाया जाता है, यथा--अतः, प्रातः, प्रायः, स्वान्तः 
पुखाय;, दुःख। इन्हें हू के साथ लिखना मानकेतर (या अशुद्ध) लेखन होगा । 
सुख के सादृश्य पर 'दुख' के मध्यवर्ती अघोष 'ह' ध्वनि का लोप हो चुका है, अतः 
दुःख को दुख भी लिखा जाने लगा है। परम्परागत वतनी की दृष्टि से शुद्ध रूप 
दुःख” ही है । ः बे कल 
अंगरेजी से आगत कुछ विशिष्ट शब्दों की वर्तनी--अंगरेजी से आगत कुछ 
शब्दों की वतंनी में अभी भी अभनिश्चितता बनी हुई है । हिन्दी की ध्वनि-व्यवस्था के. 
अनुरूप वर्तनी रखने से अनिश्चतता की स्थिति धीरे-धीरे समाप्त हो सकती है। 
अंगरेजी से आगत शब्दों में कोई शब्द हिन्दी में 'इ” से उच्चरित नहीं होता, अतः 
अंगरेजी शब्दों के अन्त में 'इ नहीं लिखी जानी चाहिए, यथा--सिटि, पि० टि० पे 
उषा, एन० टि० रामाराव” हिन्दी में लेखन की दृष्टि से ये अशुद्ध हैं, इन्हें (सिटी, 





94 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


पी० टी० उषा, एन० टी० रामाराव' लिखना चाहिए। अक्षरान्त में भी 'ई” का प्रयोग 
किया जाता है, यथा--ठेलीविजुन, इंजीनियर, एडीटर, पेटीकोट । सिनेमा, कमेटी को. 
अब 'सिनीमा/सनीमा, कमिटी” नहीं किया जा सकता । 


अँगरेजी ह्‌ रस्व स्वर 9 से युक्त शब्दों को प्रायः 'ए! से (भाषाविज्ञान में एँ 
से) लिखा जाता है, यथा--पेन, मेस, बेल, डेस्क, बेंच, टेम्परेरी, सेन्टर, रेजीमेन्ट; 
एक्ट, एडवोकेट, एश ट्रं, एम्बुलेंस । ४ युक्त कुछ शब्दों को 'ऐ” से लिखा जाता है, 
यथा---कैन्टूनमेन्ट, गैस, पैड, बैंड, बैटरी, मैन, लैम्प । 


. जिन शब्दों की मूल वतंनी में र (२) है, उन्हें र॒ के साथ ही लिखा जाता 
: है, यद्यपि ऐसे अनेक शब्द अँगरेजी में 'र' रहित ही उच्चरित होते हैं, यथा--कार, 
मदर, फादर, डॉक्टर, वार। ऑपरेशन, ऑपरेटर, कॉपी, कॉमन, कॉलेज, ऑर्डर, 
डॉक्टर, लॉ, पॉलिश, लॉटरी, हॉल, बॉल, कॉल' जैसे शब्दों को [/ऑँ के साथ लिखने 
में कोई परेशानी नहीं है। तत्सम 'ऑफीसर, बॉक्स' तथा तद्भव अफस्तर, बक्सा/ 
बक्‍्स' दोनों रूप प्रचलित हैं । द 

अँगरेजी की 9, ०:, | ध्वनि को »भ' से सूचित किया जाता है, यथा-- 
अकाउंट, अरेंज, इनकम, बटर, वाटर; अर्थ, टनें, नसे, बडे, बर्थ: कट, ब्रश, मग 
रबर। अंगरेजी फॉमंसी, प्रोफंसर, लाइब्ररी' को 'फार्मसी/फॉमेंसी, प्रोफ सर, 
लाइब्रेरी” लिखा जा रहा है। 


अँगरेजी के संयुक्त स्वर कुछ स्थलों पर संयुक्त स्वर/स्वरानुक्रम के रूप- में 
ओर कुछ स्थलों पर मूल स्वरों के रूप में लिखे जा रहे हैं, यथा--० (ऐँइ):-> ए+-- 


मेल, जेल, सेल, मेन, गेंम, गेंट, प्लेन, सेन्ट, पेन्ट, ब्रेन । ०० (ओउ) >> ओ--कोट 
गोल, बोट, बोर, रोड, रोम । था (आइ)>>आइ--काइट, टाइप, टाइम, फाइट 


फाइन, लाइट, माइक, राइट, साइकल/साइकिल । इन्हें 'केट, टेप, टेम, फूट, फून 
लेट, मेक, रेट, सैकल/सैकिल' लिखना एकदम. गुलत है क्‍योंकि ऐसी स्थिति में इन 
का वाचन मूल स्व॒रवत्‌ होता है । ७० (आउ) >आउ---ठाउन, पाउंड, राउंड, लाउड 


साउंड, साउथ । इन्हें टोन, पौंड, रोॉंड, लौड, सौंड, सोथ” लिखना एकदम गलत है 


.. क्योंकि ऐसी स्थिति में इन का वाचन मूल स्वरवत्‌ होता है | 49 (इअ) >> इय--बिय र| 


बीयर । 89 (एअ):>एय--चेयर, शेयर । ए० (उभ):> उअ--पुअर|पूअर । 3 
_ जऔइ)->ऑय/आऑँइ---बाँय, नॉइजु, जॉइन । जा 
9, ५ से युक्त शब्द प्रायः व युक्त ही लिखे जाते हैं, यथा--वाटर, वेस्ट, |. 
वेदर, वाशिंगटन, वेरीमच । इन्हें व्ह' से लिखना नितान्त अशुद्ध है।......ः 
| 9 से युक्त शब्द फ से और 2 से युक्त शब्द 'जु से लिखे जाते हैं, यथा--. | 
_ फॉँम, फू ड, फॉरेस्ट, फिजिक्स; ज॒ , साइज, प्राइज । ' 














वतंनी' | 95 


पए', 0 को क्रमशः टठ, डा से, 70 (9; &) को थ|थ, द से व्यक्त किया 
जाता है, यथा-दूर/दुअर, टेम्पों, टाइम, डाउन, डेस्क, डेल्टा, डॉक्टर; शो श्र 
थूमंस/थर्मस, थर्मल/थर्मल, होमियोपैथी/होमियोपैथी; फादर, मदर, देयर । 

०07०४६४ को कांक्रीट>कंकरोट लिखा जा रहा है। 

बतंनी शुद्धि-अशुद्धि अभिज्नान--वरतंनी-अशुद्धि के पृवलिखित कारणों के 
प्रभाव स्वरूप वर्तती सम्बन्धी विभिन्‍न प्रकार की (कभी-कभी एक शब्द में एक से 
अधिक भी) अशुद्धियाँ हो जाती हैं। परिनिष्ठित हिन्दी शब्दों की कौन-सी व्तनी 
शुद्ध है और कौन-सी अशुद्ध, इस की जानकारी के लिए कुछ विशिष्ट शब्दों की 
शद्ध वर्तती कोष्ठक में लिखी गई है । कविता में प्रयक्‍त बोलियों के शब्दों को वर्तनी- 
अशद्धि के अन्तर्गत नहीं गिनना चाहिए, यथा--करम, भरम, सरवर गुन, नारे 
आदि । द 

स्वर वर्ण सम्बन्धी बतंनी-अशुद्धियाँ--इस प्रकार की अश्द्धियों में कहीं 
अनिवाय॑ स्वर वर्ण/मात्रा-चिह न का लोप देखा जाता है और कभी अनावश्यक स्वर 
वर्ण/मात्रा चिह न का योग कर दिया जाता है। कभी-कभी स्वर के स्थान पर स्वर 
युत व्यंजन भी लिख दिया जाता है। इसी प्रकार ' ”: के लेखन में भी' अशुद्धियाँ 
मिलती हैं, यथा-- क्‍ 

अनिवार्य ।-लोप--अकांक्षा (आकांक्षा), अगामी (आगामी), अन्‍्त्यक्षरी 
(अन्त्याक्षरी), अहार (आहार), अध्यात्मिक (आध्यात्मिक), अल्हाद (आह लाद), 
जमाता (जामाता), नदान (नादान), नराज (नाराज), नरायण (नारायण), भगीरथी 
(भागीरथी), मतन्तर (मतान्तर), महात्म (माहात्म्य), ललायित (लालायित) 
व्यवसायिक (व्यावसायिक), संसारिक (सांसारिक), सप्ताहिक (साप्ताहिक), सहास 
(साहस), समसमायिक (समसामयिक), सम्राज्य (साम्राज्य) 

अनावश्यक -योग--आधीन (अधीन), अनाधिकार (अनधिकार), चारदीवारी 
(चहारदीवारी), बारात (बरात), याज्ञावल्क (याज्ञवल्क्य), लागान (लगान), हाथिनी 
(हथिनी), हस्ताक्षेप (हस्तक्षेप) 

अनिवार्य इ/ -लोप---आजीवका (आजीविका), आध्यात्मक (आध्यात्मिक), 
कुमुदनी (कुमुदिनी), गृहणी (गृहिणी), नीत (नीति), नायका (नायिका), परिस्थित 
(परिस्थिति), प्रतिनिध (प्रतिनिधि), मट॒टी (मिट्टी), मैथलीशरण (मैथिलीश रण), 
मानसक (मानसिक), युधिष्ठर (युधिष्ठिर), रचयता (रचयिता), लिखत (लिखित), 
वाहनी (वाहिनी), विरहणी (विरहिणी), शिवर (शिविर), सरोजनी (सरोजिनी ), 
क्षणक (क्षणिक) । सा द 


अनावश्यक -योग--अहिल्या (अहल्या), कवियित्नी (कवयित्री), कियारी क्‍ 


(क्यारी), छिपकिली (छिपकली), तिरिस्कार (तिरस्कार), द्वारिका (द्वारका) 
प्रदशिनी (प्रदर्शनी), वापिस (वापस), व्यापित (व्याप्त), सामिश्री (सामग्री) 








54 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


[ड] शब्दारम्भ में--डाली, डींग, डुबकी; अँगरेजी से आगत शब्दों में--- 
डालडा 
शब्द मध्य में-- (डड/--ड)--अड्डा, गुड़डी, अंडा, पंडित । अँगरेजी 
देशी भाषाओं से आगत शब्दों में--सोडा, इडली । 
उपसर्गयुत शब्दों तथा पुनरुक्त शब्दों में--तिडर, 
डिग, सडील; डीलडोल, डुगड़गी | 
शब्दान्त में-- (डड्‌/--ड)--खड्ड, झुड, दंड । अँगरेजी से आगत 
शब्दों में--रोड, कार्ड, रोल्ड गोल्ड । 
[ड्‌] शब्दमध्य में--(स्वर-मध्य में)-बड़ा, गाड़ी, झाड़ी, लड़ाई। 
जब्दान्त/वक्षरान्त में--पेड़ , साँड़्‌, लड़का 
[ढ़ | शब्दारम्भ में-- ढाल, ढोलक, ढंग । 
शब्दमध्य में--(ड्ढ/--ढ/ड्य)--बुड्ढा, गड॒ढा; ? ठंढक, धनाढुय 
शब्दान्त में--(डढ /---ढ6)-- ठंढ 
[ढ़] शब्दमध्य में---(स्वर-मध्य में)--बुढ़ा, पढ़ाई, मेंढक 
शब्दान्त/अक्षरान्त में--बाढ़ , रीढ़, पढ़ ना, चढ़ ना, गढ़ वाली 
इस प्रकार ड, द रूप के आरम्भ में; अक्षर-आरम्भ/अक्षरान्त में सवर्गीय 
स्वन के पास या बाद में और व्यंजन-यगुच्छों में प्राप्त हैं। ड़, ढ़, प्रथम अक्षर के . 
बाद, अक्षरान्त में/अक्षर-सीमा पर प्राप्त हैं। गैंडा-गैंडा, लौंडा-लौंडा, लौंडिया* 
लौंडिया' के तथाकथित अथभेदकारी युग्म इन को स्वनिम सिद्ध नहीं कर पाते 
क्योंकि अरबी-फारसी के माध्यम से आए युग्मों के पहले शब्दों या गोल्ड, रोड, 
रेडियो, डालडा आदि आयगत शब्दों के आधार पर इन्हें हिन्दी की मुल ध्वनि- 
व्यवस्था का साँचा घोषित नहीं किया जा सकता । वास्तव में गेडा, लौंडा, लौंडिया' 
शब्द क्रमश: गंण्डा, लोण्डा, लोण्डिया' हैं जो नासिक्य ध्वनियुक्त हैं न कि अनु- 
नासिकतायुत । 
द प्रांग सम्प्रदाय की आर्की स्वनिम ७7०7 ए॥०॥९77७6 की संकल्पना के भाधार 
पर भी ड ढू स्वनिम तथा ड-ड़, द-ढ़! उपस्वप्न हैं। यदि कोई स्वनिम भिन्‍न- 
भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न रूप धारण करता है, तो वह आर्की स्वनिम कहलाता 
.. है, यथा--आयं, द्रविड़ समुदाय की भाषाओं में अनुस्वार आर्की स्वनिस है जो पाँचों 
व्यंजन वर्गों के साथ क्रमशः डर ज्य म्‌ के रूप में तथा शेष व्यंजनों के साथ 
_(->) अनुस्वार के रूप में प्रतिफलित है। इसी प्रकार ड ढ' आर्की स्वनिम हैं जो 
स्वरों के बाद ड़, ढ़ हैं, अन्यत्न डू, ढू, यथा--खंडहर-खेंड़हर, हॉडिका-हंड़िया, 
षंड-साँड़, मंड-माँड़; बुड्ढा-बृढ़ा, ढाई-अढ़ाई, मुडढ-मृ ड़, गढ़ । 


हे हिन्दी में महाप्नाण व्यंजन एकाकी या सामान्य व्यंजन हैं न कि संयुक्त व्यंजन । 
.. नह म्ह ल्‍ह भी ख घ भढ की भाँति एकाकी सामान्य व्यंजन हैं। देवनागरी में 














स्वर | 55 


न, मे, ल' की महाप्राणता को व्यक्त करने के लिए नये घ्यंजन वर्णों का निर्माण 
न कर के इन में हू” का योग कर के व्यक्त करने लगे हैं, उच्चारण में ये अन्य 
महाप्राण व्यंजनों की भाँति उच्चरित होते हैं। रोमन में 'एच' के योग से, उर्दू में 
दुचश्मी हे या हम्जा के योग से महाप्राणता व्यक्त करते हैं । इन लिपियों के प्रभाव 
से उन्हें, जिन्हें, तुम्हारा, तुम्हें, दुल्हा, भाल्हा, कुल्हाड़ी, कुल्हड़, अल्हुड़, मल्हार 
को “उन्‌ हैं, जिन्‌ हैं, तुम्‌ हारा, तुम्‌ हें, दुल हा, आल्‌ हा, कुल हाड़ी, कुल हड़, अल 
हड़” उच्चारण करना बअशुद्ध है । हिन्दी की महाप्राण ध्वनियों को संयुक्त व्यंजन 
सिद्ध करने के लिए कई उल्टी-सीधी दलीलें दी जाती हैं किन्तु हिन्दी की स्वनिमिक 
व्यवस्था की संगति, आक्षरिक संरचना तथा वितरण सम्बन्धी विशेषताओं आदि के 
आधार पर महाप्राण व्यंजनों को एकल/एकाकी/सामान्य|सरल/मूल व्यंजन ही कहा। 
माना जा सकता है न कि संयुक्त । 
हिन्दी हु --शब्दारम्भ और शब्द-मध्य में ह” का उच्चारण घोष है 
यथा--हम, हार, हीरा, महान्‌, ,विहार, सुहाग । अक्षरान्त (मुख्यतः शब्दान्त) में 
इस का उच्चारण अघोष (और कभी-कभी बहुत हलका) होता है, यथा--बारह, 
स्नेह, बाहरी, देहरी । शब्दान्त में बहुत हलका उच्चारण होने के कारण दीघे स्वरों 
के बाद कुछ शब्दों में इस का लोप-सा प्रतीत होता है, यथा--तफरीह-तफरी 
रगाह-दरगा, परवाह-परवा। अक्षरानत और शब्दान्त के 'अह' के उच्चारण में 
हलकापन होने के कारण हु? अस्पष्ट हो जाता है और “अ' में दीघेता सुनाई पड़ती 
है, यथा--ग्या रह-ग्यारा, बारह-बारा; फिर भी बारा, तेरा' और बारह, तेरह' के 
उच्चारण में सूक्ष्म भेद रहता है । | 
लिखित-अह_-युत शब्दों के अ' का उच्चारण निम्न अग्न स्वर ऐ” जैसा हो 
जाता है, यथा--कहर, जृहर, तहत, नहर, पहन, पहल, बहन, वहम, बहल, महर, 
रहट, रहन, रहम, लहर, शहर, सहन; कहना, गहना, गहरा, जृहरीली, नहला, 
नहले प॑ दहला, तहमत, पहला, पहनना, पहचान, बहका, बहरा, रहना, रहमान, 
लहँगा, सहमा, शहरी; अहसान। हू के साथ दीघं॑ स्वर होने पर पूर्ववर्ती अ' में 
कोई परिवर्तन नहीं होता, यथा--कहाँ, कहो, कही, महीन, महा, रही, शहीद, सही 
लहू । लिखित रूप में बहन, रहट, शहर' जैसे दो अक्षरवाले कुछ शब्द उच्चारण में 
एकाक्षरी होने लगे हैं। 'कहकहा, चहचहाना, चहचहाहट' जैसे कुछ शब्दों के पहले 
अक्षर के अ' में भी परिवर्तन आ जाता है। “बहुत, बहुतायत' का उच्चारण अनेक 


लोग 'बो-्त, बो-्तायत' जैसा करते हैं । द 

. है के कारण पूव॑वर्ती स्वर के उच्चारण में जो परिवतंन होता है, उसे इन 
'शब्द-युग्मों के उच्चारण के समय अनुभव किया जा सकता है--मेजर-मेहर, सेमर 
सेहत, सेवला-सेहरा । इस उच्चारण-परिवर्तन का प्रभाव लेखन में भी पड़ने लगा है 
यथा--(क) 'अ' युत शब्द--कहना, पहचान, पहल, पहला, रहना, रहम, लहर, |( 





6 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 
तेहरान, बेहतर, मेंहदी, सेहत, सेहरा (ग) 


अहसास-एहसास, महमान- 
लीगत, बैयक्तिक और 


शहर (ख) ए युत शब्द--एहतियात, 
अ>-ए युत शब्द--जहन-ज्‌ हेते अहसान-एहसान 
मेहमान, महर-मेहर । गा वर्ग के वैकल्पिक लेखन पर श 
स्थानीय प्रयोग का प्रभाव भी स्वीकार किया जाता है । 
भगिनी शब्द का विकास बहिन के रूप में माना जाता है किन्तु बहन > 
बहनोई को बहिनोई' लिखना खटक पंदा करता है । इसी प्रकार 'पहिला' मानकेतर 
है. पहला' मानक है । महिला महिमा, रहित, सहित शब्द मूलतः इ युत हैं । 
द्विन्दी-क्षेत्र के कैहना, पैहना, मेहमान, रेहता/रेना जे से वर्तती एवं उच्चारण-दोषों 
का दुष्प्रभाव हिन्दी-इतर भाषियों पर भी पड़ सकता है । 
उ्द' से आगत हु. युत अनेक शब्द हिन्दी में प्रचलित हैं, यथा--ुनाह, 
निकाह (पु), अफवाह, जिरह, तरजीह, तरह, तन ख्वाह, तफ्रीह, तह, निगाह, 
पनाह, परवाह, फूजर, वजह, सतह, चुलह, सुबह (स्त्री) 
हिन्दी में पाँच नासिक्य स्वनिम हैं। ()/न/स्वतिम के चार उपस्वन हैं-- 
[ह]क्ख्‌ ग्घ्‌ से पूर्व संयुक्त व्यंजन के रूप में शब्दों में अक्षर-सीमा पर 
यथा--वाडः मय, पराडः मुख 2. [व्यू] च्‌ छ ज्‌ झ्‌ से पूर्व संयुक्त व्यंजन के रूप में 
3. [न]त्‌थ्‌द्‌ध्‌से पूर्व संयुक्त व्यंजत के रूप में 4. [न्‌| अच्यत्र । (मम 
स्वनिम है। न, म का अरभेदक श्यतिरेक प्राप्त है यथा---नाली-माली, कानी- 
कामी, कान-काम (3)/मह /स्वनिम है! म्‌-म्ह का अर्थ-व्यतिरेक प्राप्त है, यथा-- 
कुमार-कुम्हार । (4) नह स्विनिम है। न्‌-न्ह' का अथं-व्यतिरेक प्राप्त है, यथा-- 
काना-कान्‍्हा । (5) /ण्‌/ स्वन्तिम है। न्‌-ण्‌ः के अथ व्यतिरेकी शब्द-युग्म हैँ--रन- -" 
. रण, अनु-अणु, कर्त-कर्ण । जन सामान्य की बोलेचाल' में णृ” को न के समान 
बोलते हैं, यथा--गुण--गरुत, प्राण->प्रान, चरण>-चरन, कण”०“कन बवीणा[-5 
वीना, प्रण--प्रन आदि । इसे ण्‌-त्‌ का मुक्त परिवततें नहीं कहा जा सकता क्योंकि 
वही जन सामान्य न्‌! को 'ण्‌” के रूप में नहीं बोलता । द 
हिन्दी में 'ण्‌ु” का उच्चारण ट वर्ग से पूर्व संयुक्त व्यंजन के रूप में नासिक्य 
है, अन्यत् [डे] या [न] वत्‌ है । संस्कृत के दो शब्दों अक्षण्ण', 'विषण्ण' में हिन्दी- 
उच्चारण सामान्यतः उतना दी्घे नहीं होता जितना म्‌, न्‌ दीर्घ होते हैं। पुण्य, कण्व 
का हिन्दी उच्चारण 'पुस्न्य, कन्स्व' जैसा होता है। 'रुग्ण, पूर्ण के ण का उच्चारण 
.. *ड व॒त्‌ है। | 
8 . हिन्दी के गौण स्वनिम/कख्‌ ग्‌ ज फ्‌हिं। इन में क्‌ स्पर्श काकल्य है, 
ः खू ग्‌! पश्च|कोमल तालव्य संघर्षी हैं, 'ज्‌/ वत्स्ये संघर्षी है और 'फ दन्त्योष्द्य हर 
.. संघर्षी | ये स्वनिम विदेशी भाषाओं के अनेक शब्द आ जाने के कारण विकसित हुए । 
 हैं। जन सामान्य इन के स्थान पर क्रमशःक्‌ खू ग्‌ ज्‌ फू| का उच्चारण करते हैं।... 


रा] 
२ 
ः 





स्वर | 57 


इस आधार पर इन्हें मुक्त परिव्त कहना/मानना गलत है क्योंकि गौण स्वनिमों के 
स्थान पर ही केन्द्रीय स्वनिमों का उच्चारण होता है, केन्द्रीय स्वनिमों के स्थान पर 
गौण स्वनिमों का उच्चारण नहीं किया जाता । यह एकांगी सुक्‍त परिवर्ते ही कहा जा 
सकता है। परिनिष्ठित हिन्दी में इन गौण स्वनिमों का प्रयोग शुद्ध उच्चारण पर _ 
बल देनेवाले लोगों के द्वारा कसरत से किया जाता है। हिन्दी में इन स्वन्रिमों से 
बने अथ-भेदक न्यूनतम शब्द-युग्म भी काफी मात्रा में उपलब्ध हैं, यथा--- 

ताक-ताक 

खैर-ख र, खाना-खाना, खोर-खोर 

बाग-बाग, गौर-गौर, बेगम-बेगम 

राज-राज, जरा-ज्रा, जीना-जीना, गज-गजू, सजा-सजा 

फन-फन, फलक-फलक, कफ-कफ 


क ख ग्‌ केवल अरबी-फारसी-तुर्कों से आगत शब्दों में उच्चरित होते हैं 
और “ज्‌ फ्‌ इन भाषाओं के अतिरिक्त अँगरेजी से आगत शब्दों में भी उच्चरित 
होते हैं। जू, फ का प्रयोग कु ख ग्‌ की अपेक्षा अधिक होता है क्‍योंकि अँगरेजी' 
शिक्षण के कारण इन का उच्चारण सिखाने पर बल दिया जाता है । ये दोनों ध्वनियाँ 

हिन्दी की ध्वनि-व्यवस्था के अधिक अनुकूल हैं। 'ज्‌” अघोष संघर्षी 'स' का सघोष 
संघर्षी युग्म है। ज्‌! का प्रयोग अँगरेजी/शु/ (श के घोष रूप, 774--..]74ण्ष 
' शणाला८०७॥9॥900७ में 3), उद के ज॑ झूँ ज्वाद जोय जाल वर्णों के लिए होता है। सघोष 
'ब्‌ का अघोष रूप 'फ' है। ख -ग स्वयं अघोष-घोष के युग्म के रूप में आए हैं, इसलिए 
ख-ग का प्रयोग 'क की अपेक्षा अधिक होता है | यदि वतेनी में इन वर्णों से वने 
शब्दों को शुद्घ लिखने का आग्रह रखा जाए तो कोई कारण नहीं कि सामान्य पढ़े- 
लिखे लोग इन ध्वनियों का सही उच्चारण न कर सकें, बशर्ते ,के इन से युक्त शब्दों . 
को उसी उदारता से स्वीकार किया जाए जैसे अन्य शब्द स्वीकृत हैं। उर्द-हिन्दी का _ 
सम्बन्ध केवल सम्पक्क जन्य सम्बन्ध नहीं कहा जा सकता; ये दोनों सहोदर भाषाएँ हैं 
या एक ही मूल भाषा की दो अभिव्यक्ति शैलियाँ हैं । 


तमित जेसी भाषा में भी हठधर्मिता छोड़ी जा रही है । तमिक लिपि में/प/ 
को काले टाइप में छाप कर/ब| को व्यक्त किया जाने लगा है | /फ/ के लिए भी नया 








चिह्‌न बना लिया गया है। देवनागरी में तो बिन्दी लगा कर बड़ी आसानी से इन... 


वर्णों को लिखा जा सकता है। इन गौण स्वनिमों से युक्त हिन्दी में प्रचलित कुछ 


.. शब्द ये हैं-- 


क--ताक, कत्ल, क रान, कुक, कुर्की, अक , बुर्का, इश्क, इश्किया, किश्त, 
... किस्म, तस्दीक, नक्शा द बा 
... खु--ख र, खरियत, खाना, खगरी, खेर, ख.चं, सुख, निख', चर्खो, 








58 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


सुख रू, ख द, ख. वा, तरुता, शख्स, ज्‌ रूम, त खमीना, ब रुशीश, 


बुखर 
ग--बेगम, गौर, बाग, कागज, मुर्गा, मुर्गी, न,ग्मा, गरीबी, ग्रीबख,ना, 
ग्र 
जू--राजू, जुरा, जीता, गज, सजा, सब्जु, सब्जी, नब्जु, कागुजू, अज्‌ , 
अर्जी, कर्ज, फर्ज, ख, दगज्‌ , ज्‌ ल्‍म, ज्‌ ल्‍मी, नजूला, जज्बात, नज्म, 
कज् जाक, जुहर, जोर, मजा 
फ--फून, फलक, शरीफ, बफ , बर्फी, सिफ, उफ , कुल्फी, जुल्फ, उल्फत, 
व क्‍्फ, गु फ्तगू, ह.फ्ता, गिरफ्त, मुफ्त, लि.फ्ट, ले(फ्टिनेन्ट, ल.फ्ज, 
ल फ्जी, भअफसाना, गिर फ्तार, द फ्तर 
य, व--श्र्‌ ति/अर्धे स्वर - कुछ भाषाओं में स्वर और व्यंजन की मध्यवर्ती 
ध्वनियाँ प्राप्त हैं, यथा--संस्क्ृत की तथाकथित क्र, लू स्वर ध्वनियाँ जो स्वनिक 
स्तर पर पूर्ण स्वर नहीं हैं | वैदिक संस्कृत में य॒ र ल व न म” अधे स्वर ध्वनियों के 
रूप में भी प्रयुक्त थे । अँगरेजी की 7, !( ' व्यंजन ध्वनियाँ 8000०, 806077, 
फैणा०7 में आक्षरिक होने के कारण स्वर का काये करती हैं। इस प्रकार ऋ लु 
आक्षरिक होने के कारण स्वनिमिक स्तर पर स्वर होते हुए भी स्वनिक स्तर पर 


व्यंजन हैं; 7, )४ ।४ स्वनिमिक स्तर पर अनाक्षरिक होने के कारण प्राय: व्यंजन 


ओर कभी-कभी स्वर हैं किन्तु स्वनिक स्तर पर सदैव व्यंजन हैं । 
हिन्दी में यू, व्‌ स्वनिऋस्तर परश्रुति हैं औरस्वनिमिक/प्रकाय॑-दृष्टि से स्वनिम 
हैं। श्रुति (8706 फिसनल) में जीभ एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर फिसल जाती 


है। श्रुति की सत्ता स्वनिक रतर पर है और व्याकरण/स्वनिम-स्तर पर इसे अधे 


स्वर कहा जाता है । लिख->लिखा, पढ़-*पढ़ा, चल->चला, भाग->भागा, बैठ->बैठा 
में -आ' भूतकालिक प्रत्यय है । इस प्रत्यय को ग<: जा, आ, खा, ला के साथ जोडने 
पर ग आ (>गया), आआ (>>आया), खाआ (>खाया), लाआ (>>लाया) रूप 


बनते हैं । उच्चारण-सोकय/सुविधा के लिए हिन्दी भाषी ऐसे स्थलों पर 'य' श्रति 


.. का सदुपयोग करते हैं। इस य' श्रुति की सत्ता केवल स्वनिक स्तरीय है, स्वनिमिक/ 
.. व्याकरण-स्तरीय नहीं | आया” (>-धाय), गया” (नगर विशेष) संज्ञा शब्दों में 'य 
की सत्ता स्वनिक और स्वनिमिक/व्याकरण स्तर की है। हिन्दी के संज्ञा शब्दों में 


य अधे स्वर का व्यंजन स्वनिम है और क्रिया-रूपों में केवल श्रुति', यथा--संज्ञा 


शब्द आया, खोया (खोआ), दिया (दीपक), सोया (सोआ-पालक), पाया (चारपाई 


सा क्‍ खोई/खोयी* 


खोई/खोयी (गन्ने की); क्रिया शब्द आया, खोया, दिया, सोया, पाया 


...._ श्रुति शब्द-रचना के मूल में नहीं हुआ करती, जब कि अर्थ स्वर या व्यंजन. 
..._ की सत्ता शब्द-रचना के मूल में हुआ करती है। क्रिया-रूपों में 'ब* को अन्तर्निहित/ 








स्वर | 59 


पृवेस्थित अधैस्वर ([77/007६ 507790४९]) ने कह कर आगत (7प/४७) अर्घ 
स्वर कहा जा सकता है। फर्थ के अनुसार क्रिया में यह ?7०४००४० है और संज्ञा में 
ए॥7०7०7८६० दक्षिण की भाषाओं में य, व' श्र्‌ति शब्द के आरम्भ, मध्य में अनेक 
परिवेशों में मुखर रहती है, जब कि हिन्दी में यह कुछ ही स्वरों के मध्य स्पष्ट सुनाई 
पड़ती है, यथा--ओ-आ (सोया, रोया, खोया; पूर्वी हिन्दी में सोवा, रोवा, खोबा) 
ए-आ (खेया, सेवा), इन्‍्ओ/ओं (भाइयो, कवियों, जातियों, नाइयों, देवियों देवियों) 
अ-आ (तया, गया; भया बोली रूप), इ-आ (जिया, दिया, पिया, लिया, सिया), आ-आ 
(आया, खाया, पाया, लाया, साया) । परिनिष्ठित हिन्दी में “व” श्र्‌ति का अभाव है 
पूर्वी हिन्दी की बोलियों में यह प्राप्त है । 

मराठी में अगरेजी से आगत ५ (हिन्दी में वी/व) युत शब्दों का उष्च्चारण 
तथा वाचन व्ही/ब्ह जसा होता है तथा हिन्दी में वी/व जैसा । 

अनुस्वार--संस्क्ृत भाषा के शब्दों में वर्गीय व्यंजनों के अतिरिक्त अन्य व्यंजनों . 
से पूर्व आनेवाली पूर्णत: नासिक्य ध्वनि अनुस्वार (स्वर का अनुसरण करनेवाली) 
कहलाती है, यथा--संयम, संरचना, संलाप, संवाद, संशय, संसार, संहार में क्रमशः 
ये, र, ल, व, श, स, है के पूर्व की पूर्ण नासिक्य ध्वनि अनुस्वार है। शब्दान्त में 
यह म्‌ वत्‌ उच्चरित होती है, यथा--अहं, स्वयं [अहम्‌, स्वयम्‌ |। हिन्दी में इस 
धवनि को उच्चारण परवर्ती व्यंजन के उच्चारण-स्थान से उच्चरित होनेवाली नासिक्य 
धवनि के समान होता है, यथा---[सज्यम्‌, सनन्‍्रचुना, सन्‍्लापू सम्बाद, सछ्शय्‌, सन्सार, 
सडः्हार्‌|। वर्गीय नासिक्य व्यंजनों/ डः ज्य ण न म/ को अनुस्वार कहना भ्रम है 
क्योंकि अनुस्वार और इन नासिक्य व्यंजनों की उच्चारण-प्रक्रिया में अन्तर है. और 
अनुस्वार तथा नासिक्य व्यंजन व्यतिरेकी वितरण में हैं, यथा--वार्डः मय, पराडः मुख, 
सुना, चुन, गुणा, गुण, माप, कमाई, काम । इन परिवेशों में अनुस्वार नहीं आता । 

संस्कृत स्व॒रों से पूवें आया अनुस्वार स्वर-संयोग से 'म” में परिवर्तित हो जाता 
है, यथा--परं/परम्‌ --आत्मा (> परमात्मा), समाहार, परमेश्वर, समुच्चय, समूह, 
समीक्षा । वास्तव में इस प्रकार के अक्षरान्त|शब्दान्त के अनुस्वार का ध्वनि-मृल्य 
'म है जो 'भ' हो जाता है । संस्कृत में अनुस्वार का पूर्ण नासिक्य था जिसे 'म/डः 


कक कि | छह के की के 


जैसा कहा जा सकता है। दक्षिण भारतीय भाषाओं में इस का उच्चारण भम” किया 
जाता है। देवनागरी-लेखन में अनुस्वार को शीष-बिन्दू-- से व्यक्त करते हैं । नासिक्य 
व्यंजन--वर्गीय व्यंजन के लेखन के समय प्राय: शीष॑-बिन्दु प्रयोग का प्रचलन बढ़ने 
लगा है, यथा--पंखा, गंगा, कंचन, खंजन, पंडित, दंड, महंत, पंथ, कुटुब, दंभ। 
.. अँगरेजी से आगत शब्दों में शीर्ष-बिन्दु के प्रयोग से लेखन-अराजकता लगभग समाप्त 

.. हो जाएगी, यथा--इंक, बैंक, लंच, बैंच, भ्िंट, पेंट । शब्दान्त में मूं के स्थान पर. 
. _ शीर्ष-बिन्दु का प्रयोग किया जाता है, यथा--त्वं, स्वयं/त्वम्‌, ' स्वयम्‌/ । रूपिम-सीमा _ 

















0 | हिन्दी का विवरणात्मक ध्याकरण 


पर भी शीर्ष-विन्दु का प्रयोग उच्चारण में परवर्ती वर्गीय व्यंजन के नासिक्य व्यंजनवत्‌ 
हो जाता है, यथा--सम्‌-|सं (संगठित, संघटना, संचय, संजीव, संतुप्त, संदेह, 
संभाव्य, संप्रेष्य) | द 

पाँचों वर्गीय व्यंजनों के पूर्व अनुस्वार की स्वनिक स्थिति आयें, द्रविड़ भाषाओं 
में लगभग समान है। इसे आर्की स्वनिम मानने पर इसके छह उपस्वन हैं--/-/-* 
. [ह] क्‌ खू ग घू, रूपिम सीमा के म के पूर्व 2. [हज] च्‌ छ जश्ञ के पूर्व 3. 
[प्‌]ट्ठ्ड्ण्‌के पूर्व 4. [व] तू थ्‌ दधून्‌ म्‌ के पूर्व 5. [म्‌| प्‌ फू ब भ्‌ म्‌ न के 
पर्व, शब्दान्त में 6. [--| अन्यत्र द 

हिन्दी में व्यंजन-अनुक्रम--शब्द-मध्य में प्राप्त हैं, यथा--- प्राणमय, विमला 
बकता, पगली, लगता, सपना, करता, में क्रमशः 'णू-म्‌, मू-लू, क-तू, गू-ल, ग-त्‌, 
पू-न्‌, र-त्‌ के व्यंजन-अनुक्रम हैं | मृण्मय, अम्ल, वक्‍ता, आग्ल, लग्न, स्वप्न, कर्ता 
में भी इसी प्रकार का व्यंजन-अनुक्रम है किन्तु पहले और दूसरे शब्दों के उच्चारण में 
स्पष्ट किन्तु सृक्ष्म अन्तर है। पहले शब्दों के उच्चारण में व्यंजत-युग्मः के मध्य एक 
अतिक्षीण विराम अनिवायंतः आता है, जब कि दूसरे शब्दों के उच्चारण व्यंजन-युग्म 
के मध्य विराम का अभाव उन्हें संयुक्त व्यंजन बना देता है। व्थंजन-अनुक्रम के सदस्य 


अपनी स्वतन्त्र सत्ता रखने के कारण अलग-अलग इकाई होते हैं। व्यंजन-अनुक्रम के द 
उच्चारण में संयुक्त व्यंजन के उच्चारण की अपेक्षा कुछ अधिक समय लगता है। 


व्यंजन-अनुक्रम में पहले व्यंजन के अन्तनिहित अ' का लोप हो जाता है । 


शब्द-मध्य में प्राप्त 'प' वर्ग के 'अ-लुप्तज व्यंजन, अनुक्रमवाले कुछ शब्द 


ये हैं--प्‌ +-क/ग/ध|चि/छ/ज/ट/म/य/र/ल/|वश/स/|ह/ख--उपक्ृत, उपगमन, अपघात, 


उपचार, छत्छपाना, उपजाऊ,, निपटना अपमान, उपयोगिता, निरपराध, उपलब्धि, 


उपवीत, अपशब्द, अपसरण, उपहार, तोपखाना । फ्‌ू--क/लू--फुफकार, डफली। ब्‌-- 
क/ग/ट/ड/|त/द|प/र/ल/स|[ह|डर/|खि--उबकाई, ईसबगोल, उबटन, डबडबाना, डबते 
चोबदार, आबपा शी, अबरक, तबला, ख्‌ बसूरत, शुबहा, तोबड़ा, शराबखोरी । भ्‌ -- 


न क/च/तद/न/र/ल|ब---अलाभकर, शुभचिन्तन, चभता, लाभदायी, चभना, उभरा 
सभलो, चुभवाना। । स्‌--क/ग/ध|च|छ/ज/झ/ट/त|[द/ध|न[|पब/य/र/ल/व/श/स/हैं/डि/|खि 


ग/जु---वसकीन, गूभगीत, जमघट, चमचम, गमभछा, श्रमजीवी, समझी, सिमटी, ममता 
.. आमदनी, समधित, गमनीय, कमपढ़ी', कमब रुत, कामयाब, कमरा, विमला, समवयस्का 
. लमहा, दमड़ी, कमखाब, तमगा, कमजोरी । 


इसी प्रकार अन्य वर्गों में भी कई प्रकार की स्थितियों में अ-लुप्तजः व्यंजन मे 


: अमुक्रम प्राप्त हैं। अ-लुप्तज व्यंजन-अनुक्रम में मध्यवर्ती व्यंजन से पृ्॑ बाद में 'अ 


.._ स्व॒स्युत या दी स्वस्युत व्यंजन होता है, यथा--कम्‌पढ़ी, जनता, लगभग बीस, 
... डबूडबाई आँखों से; लाभूकारी निर्णय, तोपूखाना । पहले ह रस्व स्वर और बाद में... 





हि 
पा 
प् 
"बे 
[। 
)े 
दे 
५ 
। 
|! 
| | 
;' 
हि 
हे 
है] 
हे 


री 





स्वर | 6 


दीर्घ स्वर होने पर व्यंजन-संयुक्तता कौ-सी स्थिति आ जाती है, यथा--ममता, कमला 
सिमटी, करती आदि । 

द हिन्दी के संयुक्त व्यंजनों का वितरण तथा प्रयोग--अति द्रतगति या असतर्क॑ता 
से बोलते समय अनुक्रम के व्यंजन संयुक्त व्यंजन का रूप ले लेते हैं, किन्तु ऐसा 
सामान्य भाषा-व्यवहार/उच्चारण में नहीं होता, यथा--कम्‌ला-कम्ला, बकते-बक्ते, 
चिम्‌टा-चिम्टा । द 

दो या अधिक व्यंजनों का ऐसा गुच्छ जिस के मध्य अक्षर-सीमा नहीं होती' 
व्यंजन-गुच्छ कहलाता है । शब्द के आरम्भ में स्वर से पूर्व आनेवाला व्यंजन-गुच्छ _ 
आदि व्यंजन गुच्छ॑; स्वर के बाद शब्दान्त में आनेवाला व्यंजन गुच्छ “अन्त्य व्यंजन 
गुच्छः और दो स्वरों के मध्य शब्द के बीच में आनेवाला व्यंजन गुच्छ मध्य व्यंजन 
गुच्छ कहलाता है । 

नह, म्हं, रह, ल्ह, नह को संयुक्त व्यंजन नहीं माना जा सकता क्‍योंकि ये एकल . 
स्वन हैं । हिन्दी में कई व्यंजन-गुच्छ विदेशी भाषाओं से भी आ गए हैं । व्यंजन-गुर्छ के 
दवितीय सदस्य के रूप में 'य, र, ल, व” बहुत अधिक व्यवहृत हैं, प्रथम सदस्य के 
रूप में ये आदि व्यंजन-गुच्छ नहीं बनाते । मध्यवर्ती, अन्त्य व्यंजन गुच्छ में 'य र ल व! 
से पू्वे का अल्पप्राण व्यंजन दी्घ॑ (/(द्वित्व) उच्चरित होता है, यथा -- उपन्यास“ हे 
 उपन्य्यासू, शाक्य->शावकक्‍्यू, योग्य--योग्ग्यू । मध्यवर्ती, अन्त्य व्यंजन-गुच्छ में यर 
लव से पूर्व का महाप्राण व्यंजन स्ववर्गीय अल्पप्राण व्यंजन से युक्त उच्चरित होता 
है, यथा--अध्यापक->अदुृध्यापक, अभ्यास->अब्भ्यास्‌ । इस प्रकार लेखन में दो 
व्यंजनों के ऐसे गुच्छ उच्चारण में तीन व्यंजनों के गुच्छ माने जा सकते हैं (वास्तव 
में नहीं) क्योंकि इन में आगत व्यंजन पर अक्षर-सीमा होती है। हिन्दी-उच्चारण में 
लिखित ष' [श] है और ऋ'" [रि/र] है, अतः उच्चारण के आधार पर यहाँ 
व्यंजन-गुच्छ लिखे जा रहे हैं। हिन्दी शब्दों के आदि, मध्य, अन्त में प्राप्त कुछ अति 
प्रचलित प्यंजन-गुच्छ ये हैं--- 

द्विष्यंजनीय व्यंजन-गुच्छ--- 

. आदि घ्यंजन गुच्छ--क्या, क्रम, क्लेश, क्वारा, क्षण (क्षण), ख्याति 
खिस्तान, ग्यारह, ग्रह, ग्लानि, ग्वाला, श्राण, च्युत, ज्योति, जुम्भा (जिम्भा) 
ज्वाला, ट्यूशन, ट्रन, टवीड, ड्योढ़ा, ड्रिल, त्याग, त्न्‌टि, त्वचा, दयुति, द्रोह, 
दुवारा, ध्यान, भ्रुव, ध्वजा, न्याय, नृप (त्रिप), प्यार, प्रेम, प्लेट, फ्यास, ब्याज, 
. ब्राहमण, ब्लेड, भ्रम, म्यान, मृंग (म्रिग), स्लेच्छ, व्यापारी, श्मशान, श्यामला, 
श्रद्धा, श्लोक, श्वेत, स्कूल, स्खलन, स्टेशन, स्नेह, स्थान, स्तर, स्पष्ट, स्फटिक 
.. स्मरण, स्याही, स्रोत, स्‍लेट, स्वाद, ह रास, हवेल, रुवाब, झुयाल, ज्यादा, फ्लैट 
.. फ्रांसीसी, फ्यूज । मा 
.. हिन्दी में प्राप्त आदि व्यंजन गुच्छवाले अधिक शब्द संस्कृत, अरबी-फारसी' 


.. अंगरेजी के हैं। हिन्दी में अपने संयुक्ताक्षर युत शब्द बहुत कम हैं। यही कारण है 








.. ल.फ्जी, अपसाना। 





62 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


कि ₹--स्पर्श व्यंजनों से बने शब्दों के उच्चारण के समय हिन्दी भाषी जन सामान्य 
को पश्चिमी हिन्दी क्षेत्र में 'इ/ का आगम करना पड़ता है और पूर्वी हिन्दी क्षेत्र में 
अ'ः का, यथा--स्पष्ट->[इस्पश्ट्‌/अस्पश्ट | स्टेशन-> [इस्टेशन्‌ /अस्टेशन्‌ | । र-- य/र/ 
ल/व का व्यंजन-गुच्छ होने पर इ* या “अ' का आगम नहीं करना पड़ता, यथा--- 
स्याही, स्रोत, स्लेट, स्वाद [स्थाही, स्रोतू, स्लेट, स्वाद ]। ऐसा 'य, र, ल, व में 
स्वरत्व का अंश होने के कारण है । | 

2. सध्य व्यंजन गुच्छ--कुछ शब्दों के शब्द-मध्य में वर्ण संयोग व्यंजन-गुच्छ 
के रूप में केवल दिखाई देता है किन्तु वास्तव में उच्चारण के समय व्यंजन-गुच्छ 
अक्षर-सीमा पर टूट जाता है। इसलिए परिभाषा के अनुसार ये सभी शब्द मध्य 
व्यंजन गुच्छ युत नहीं माने जा सकते, यथा--मक्‍खी (मकखी), बुक्चा, शक्ति, 
वाक्यांश (वाक्‌ क्यांश्‌), विक्रम (विक्‌ क्रम), शुक्ला, पक्‍वाशय, रिक्शा, कक्षा, 
अक्सीर, विख्यात (विक्‌ ख्यात्‌), बग्घी, रुणणता, दिग्दर्शन, मुग्धा, नग्नता, दिग्पाल, 
सौभाग्यवती, आग्रह (आगग्रह ), कृतघ्नी, श्लाध्यता, शीघ्रता, शंका, पंखा (पहू खा), 


रंगीन, कंधी, पराड मुख, संहार, बिच्छु, अच्युत, झज््वर, पूज्या, पंचमी, वांछित. 


(वाज् छितू), गंजा, झंझा, संयम, संशय, मट्ठा, नाट्यकार, पाठ्यक्रम, गड़्ढा, 
3डुमल, पड़यन्त्र, धनाढ्यों, कटक, कंठी, पडित, ? ठढा, मृण्मय, पुण्यात्मा, आण्विक, 
पत्कार, उत्बनन, पत्थरों, पत्नी, उत्पन्न, उत्फुल्ल, आत्मा, मृत्यु, कृत्रिम, सत्वर, 
उत्साह, मिथ्या (मितृथ्या), उद्गम, उद्घाटन, योद्धा, उद्बोधन, अद्भुत, पदुमा, 
उद्योग, उद्र क, उद्वेग, अध्यक्ष, विध्वंश, सन्‍्तरे, ग्रन्थकार, अन्दर, अन्धी, उन्माद, 
फुसी, कन्या, अमृत (अम्‌ृच्नित), संलग्नीय, अन्वेषण, मजिल, सप्ताह (सप्ताह ), 
स्व्नवत्‌, ? फुफफुस, अभिप्रेत, आप्लावन, कुब्जा, जुब्ती, शताब्दी, उपलब्धि, भब्भड़, 
बिनब्याही, अब्नाहू मण, पब्लिक, सब्जी, अभ्यास; अशभ्रक, उम्दा, निम्नलिखित 


(तिम्नूलिखित), सम्पत्ति, गुस्फित, कम्बल, बम्भा, आस्या, सम्राटू, इम्ला, संवाद, 


कक शा, मुखंता, स्वगंवास, दीर्घायु, चर्चा, बह्ीं, अजित, निम्न॑र, कार्टू न, ऑडर, वर्णन, 
कर्ता, प्रार्थी, सर्दी, अर्धाश, कन॑ल, अपित, अबु द, गर्भिणी, धामिक, आर्या, दुलंभ, 


पर्वत, कुर्सी, माशल, गहित, कुर्की, सुख रू, मुर्गा, अर्जी, बर्फी, उल्का, फाल्गुन, 


उल्चा, कल्‍्छी, बाल्टी, सुल्तान, उल्था, हल्दी, कल्पना, अल्बम, प्रगल्थता, ज्‌ लमी, 
. कल्याण, विल्वमंगल, ? जल्सा, इल्जाम, उल्फत, काव्यांग, विवृत, मुश्किल, आश्चर्य, 
. निशछल, स्पष्टता, गोष्ठी, विष्णु, नाश्ता, प्रश्नोत्तर, पुष्पित, निष्फल, चश्मा, वेश्या, 
_सिश्चित, विश्लेषण, विश्वास, इश्किया, नमस्कार, विस्खलित, मस्जिद, पोस्टर, 
सस्ता, विस्थापित, तस्दीक, हस्नपरस्त, इस्पात, कस्बा, किस्मत, हास्यास्पद, सहसरों, 


मुस्लिम, आस्वादन, मस्ख्री, चिहनित दा (चिन्न्हित्‌ पा ब्राहमणों (ब्राम्म्हणों), 
2 ता) आह लादित, गह वर, (व.क्ती, अक्लमन्द, नक्शा, मकसद, तस्ता, 


. त.स्मीता, बरुशना, शॉस्सयत, न्मा, नज्ला, जज्बात, ले. फ्टनेन्ट, गिर फ्तार, 











स्वर | 63 


नगमा, नजुला, अफ्साना' जैसे कुछ शब्द वास्तव में नग मा, नज ला, 
अफ साना' जैसे उच्चरित होते हैं। ऐसी स्थिति में तथाकथित द्विव्यंजनीय शब्द 
मध्य के व्यंजन-गुच्छों की संख्या काफी कम हो जाती है। लेखन में अवश्य काफी 
संयुवताक्षर युत शब्द प्राप्त हैं । द द 

3. अन्ध्य व्यंजन गुच्छ--शब्दान्त में प्राप्त य र ल व' से युक्त व्यंजन-गुच्छ 
उच्चारण के समय त्रिव्यंजनीय व्यंजन गुच्छ जैसे लगते हैं, यथा--शाक्‍्य (शाक्‌क्‍्य), 
किन्तु वास्तव में शाक्‌ पर अक्षर-सीमा होने के कारण ये त्रिव्यजनीय व्यंजन गुच्छ 
नहीं कहे जा सकते । अन्त्य व्यंजन-गुच्छों के कुछ उदाहरण हैं--सिक्‍्ख, रिक्त, हुक्म, 
वाक्य (वाकक्य), चक्र, शक्ल, परिपक्व, वक्ष, टैक्‍स, मुख्य, रूप्ण, मुग्ध, नग्न, युग्म, 
भाग्य, विघ्त, श्लाघध्य, शीघ्र, अंके, शंख, अंग, संघ, स्वच्छ, प्राच्य, पूज्य, वज्च्र, 
पंच, रंज, वश, नाट्य, पाठ्य, खडग, खड़ढ, धनाढ्य, चंट, कंठ, दंड, ? ठंढ, पुण्य, 
कण्व, वीभत्स, यत्न, खत्म, सत्य, मित्र, द्वित्व, कत्ल, तथ्य, युद्ध, पदम, वैद्य, 
समुद्र, मध्य, संत, पंथ, बद, अंध, जन्म, धन्य, हंस, गुप्त, स्वप्न, सामीष्य, विप्र, 
टॉप्स, कान्यकुब्ज, शब्द, जब्त, लुब्ध, सनब्न, सब्जू, सभ्य, शुभ्र, सिम्त, निम्न, 
भूकम्प, गुमफ, विलम्ब, कुम्भ, साम्य, आम्र, अम्ल, तक, मुख, स्वर्ग, दीर्घ, चर्च, 
दर्ज, चार्ट, गाडे, कर्ण, धृतें, अर्थ, दर्द, अं, हॉर्न, सपं, गर्भ, धर्म, आय, गवं, 
आदशे, नस, पूजाहँ, अक , सुख , मुग, कज्‌, बफ ; मुल्क, गोल्ड, जिल्द, गल्प 
गुल्फ, बल्ब, प्रगल्भ, जुल्म, तुल्य, बिल्ब, जुल्फ; द्रव्य, विवृत (विव्वित); शुष्क, पश्च 
स्पष्ट, ओष्ठ, कृष्ण, गोश्त, प्रश्न, पुष्प, चश्म, अवश्य, मिश्र, विश्व, इश्क; वयस्क, 
पोस्ट, स्वस्थ, करूद, हुस्न, दिलचस्प, भस्म, हास्य, सहस्न, नस्ल, ह रस्व; चिह न 
 (चिनन्‍्ह), ब्रहम, जड़ित जिह व, सहय; वक्त, वक्‍्फ, अ.क्ल, न क्श, नु क्स; 
सख्त, ज्‌ रूम, ब॒रुश, श रुत, ज्‌ ज्ब, नज्म; गिर फ्त, लि.फ्ट, लफ्ज ।' द 

हिन्दी के त्रिव्यंजनीय व्यंजन-गुच्छ--हिन्दी के शब्दों के आदि, मध्य तथा अन्त 
में कुछ त्रिव्यंजनीय व्यंजन-गुच्छ प्रचलित हैं । शब्द-मध्य में प्राप्त तथाकथित त्रिव्यंजनीय 
व्यंजन-गुच्छ उच्चारण में दविव्यंजनीय व्यंजन-गुच्छ के रूप में रह जाते हैं, यथा--- 
. इन्स्पेक्टर [इन्सपेकटर |, सान्त्वना [सानृत्वना] । शब्द-आदि और शब्दान्त में अक्षर- 
सीमा त होने के कारण त्रिव्यंजनीय ष्यंजन-गुच्छ उच्चारण में भी त्रिव्यंजन युत 
रहते हैं । 
हर आदि व्यंजन-गुच्छ---[य, र, व| से युक्त कुछ शब्दों के आरम्भ में तीन व्यंजनों 

भुच्छ प्राप्त हैं, यथा स्त्री, स्पृहा, स्मृति, व्यम्बक । क्‍ 

शब्द-सध्य में प्राप्त व्यंजन-गुछ्छ--फर कट्री, वक्‍तृत्व, लक्ष्मी, लक्ष्या्थे, इक्ष्वाकु, 
_ दिग्श्रम, अग्न्यस्त्र, व्यंग्याथ, संग्राम, आकांक्षा, पंक्ति, उच्छ खलता, उच्छवास, ट॒ण्ड्रा 
ज्योत्स्ना, तादात्म्यता, उत्प्रेक्षा, उत्कृष्ट, उत्क्षिप्त, उद्भ्रान्‍्त, उद्धृत, मन्त्रणा, इन्द्रिय 
अन्त्येष्टि, सानत्वना, सन्ध्या, द्वन्द्वात्मक, इंस्पेक्टर, संस्कार, संस्मरण, संसूति, 








4 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


पु शचली, संश्लिष्ट, प्राप्त्याशा, सम्घरम, संवत, सम्प्र' ति,क फ्यू, आह्वता, ऊध्वता 
भत्संता, भरत हरि, पाश्विक, ईर्ष्या, राष्ट्रीय, निष्प्रभ, परिष्कृत, विस्तृत, अस्पृश्य 
तिरस्कृत, विमृत । 
शब्दान्त में प्राप्त व्यंजन-गचछ--तीद्षण, सूक्ष्म, लक्ष्य, वेंदरध्य, कृच्छ दण्ड्य 
कण्ठ्य, तादात्म्य, वैचित्र्य, मत्स्य, मन्त्र, वन्दूय, इन्द्र, अन्त्य, सान्ध्य, रन्ध्र, दुवन्दुव, 
हिख्र, कम्प्य, आदर, ऊध्वे, वरत्स, पाश्वे, राष्ट्र, ओष्ठ्य, स्वास्थ्य, अस्तु । 
“पस्वातन्त््य, वर्त््य॑, शब्दों के अन्त में चार व्यंजनों के व्यंजन-गुच्छ प्राप्त हैं । 
हिन्दी में तीन, चार व्यंजनों के व्यंजन-गुच्छ प्रायः संस्कृत से आगत शब्दों में ही प्राप्त 
हैं । इन का व्यवहार भी संस्कृतनिष्ठ, साहित्यिक भाषा में होता है। इन व्यंजन- 
गुच्छों में। य, र, व/के योग से बने व्यंजन-गुच्छों का ही आधिक्य है । 
हिन्दी में प्राप्त दीर्ध/गुरु व्यंजब-वितरण तथा प्रयोग--हिन्दी में (कुछ संघर्षी 
महाप्राणों के अतिरिक्त) महाप्राण व्यंजनों; ड़, ड. ज्य का दीर्घ या गुरु रूप अप्राप्त है। 
स्वनिक/उच्चा रण-स्तर के शब्द-मंध्य के दीर्घ व्यंजन स्वनिमिक स्तर पर द्वित्व हैं क्योंकि 
आक्षरिक व्यंजन में इन का पूव॑वर्ती भाग पहले अक्षर के साथ और परवर्ती भाग 
पिछले अक्षर के साथ रहता है, यथा--ऋबड्‌डी [क बड़ डी |, दुलत्ती [दूं लत ती|। 
दी व्यंजनों के कुछ उदाहरण हैं--- 
क--पकक्‍का, मक्‍कार, कू--रु क का, ग--सुग्गा, लग्गी, कष--बच्ची, कच्चा, 
ज---सज्जन, निलंज्ज, ह--खटूटी, मिट्टी, ड--लडडू, कबड्डी, ण--विषण्ण, 
त--जुत्ता, दुलत्ती, इ--गद्‌दा, चदृदर, न--पतन्‍्ना, भिन्‍त, प--चप्पल, कुष्पी, 
ब--पुब्बारा, पनडुब्बी, स--अम्भा, चम्मच, य--शय्या, र--हरं, रोजमर्रा, ल-- 
पिल्‍ला, शेखचिल्ली, ब--फ्व्वारा, श--निश्शंक, स--रस्सी, गुस्सा, ज--ल.ज्जुत, 
के ज्जाक, फू--ल फ्फाजी, लफ्फाज, खु--अ रूखाह, ह--आह हा, अहहा। ख, फ्‌ 
ह' के दीर्घ उच्चारण में विशेष प्रयास की आवश्यकता पड़ती है । द 
व्यंजन-वुद्धि--कुछ शब्दों में स्वर जोड़ कर नया शब्द बताते समय अन्तिम 
व्यंजन की वृद्धि हो जाती है अर्थात्‌ उस में दीघता आ जाती है, यथा---गप “> -ई--- 
_ गष्पी, चुप>-ई---चुप्पी, जिद:>-ई--जिद दी । इन शब्दों के सादश्य पर 'धम 
. फिच, ठन, भिन-भिन, चर (से), ख्ट को 'धम्म, फिज्च, भिन्‍न-भिन्‍न, चरं, खटट 
लिखना और बोलना अमानक है। हु 
- हिन्दी में ष, क्ष तथा ज्ञ की स्थिति--हिन्दी में संस्कृत भाषा के लिखित 
.. शब्दों में परम्परानुगामी वर्तनी का अनुकरण करते हुए '(ष” को लिखा तो जाता है किन्तु 
. उच्चारण में इसका रूप [श्‌ | है। बोलियों में यह [स्‌ | रूप में उच्चरित है । उत्तर भारत... 
की हिन्दी-इतर भाषाओं में भी इस का उच्चारण [श|स्‌] है। दक्षिण भारत की 


... . भाषाओं में भी इस का उच्चारण प्राय [श| ] है मलयात्ठम में इस का उच्चारण ० 


हक _ मूर्धा के पास से किए जाने के कारण [ष्‌ या [ष्‌] वंत है । 








स्वर | 65 


क्ष< वंष केवल संस्कृत से आगत शब्दों में लेखन के समय प्रयुक्त होता है 
यथा--कक्षा, गवाक्ष, क्षमा, क्षोभ, तीक्ष्ण, भिक्षा, लक्ष्य, शिक्षा आदि। हिन्दी में 
एक लम्बे अरसे से 'ष ध्वनि का अभाव होने से इस का उच्चारण [क्ष] नहीं होता 
वरन्‌ [क्छ/छ | जैसा होता है, कुछ लोग [क्श] जैसा उच्चारण भी करते हैं । विदेशी 
भाषाओं से आगत 'क्श” थुक्त शब्दों को क्ष! से नहीं लिखा जाता यथा--ए क्शन 
नवशा, डिक्शनरी, रिक्शा (न कि* रिक्षा)। हिन्दी में कक्ष युत आगत अनेक शब्द 
सत्रीलिग रूप में प्रचलित हैं, यथा--अपेक्षा, उपेक्षा, दीक्षा, द्राक्षा, परीक्षा, प्रतीक्षा 
भिक्षा, रक्षा, लाक्षा, शिक्षा । उच्चारण-पसताम्य के कारण 'रिक्शा' [* रिक्‍्छा/रिक्षा] को 
सत्नीलिंग में प्रयोग करना अशुद्ध है। उपयुक्त अनेक तद्भव शब्द क्ष>ख युत हो 
कर स्त्रीलिंग में प्रचलित हैं, यथा--दाख < द्राक्षा, परख < परीक्षा, काँख<: कक्ष 
भीख< भिक्षा, लाख< लाक्षा, सीख < शिक्षा । हिन्दी में 'क्ष! का स्वनिक परिवर्तन 
ख/क्ख; छ/च्छ' स्वनों में हुआ है, यथा--पक्ष >>पाख, पक्षी >पंछी, मक्षिका >> मक्खी 
परीक्षा > परख, परीक्षक,>पारखी, भिक्ष्‌ >भीख, लाक्षा:> लाख, लक्ष >लाख | कन्नड 
में क्ष को क्‍ष रूप में लिखा जाता है। यदि हिन्दी में भी इसे 'क्ष” रूप में लिखा 
जाए तो इस के उच्चारण में परिवर्तन आ सकता है। 

ज्ञ< ज्व्ग को कुछ लोग संस्कृत में व्यंजन-गुच्छ न मान कर नासिका विवर 
से उच्चरित तांलव्य स्पर्श-संघर्षी स्वन मानते हैं। इस प्रकार यह मूलतः: एक स्वन 
ठहरता है, दो स्वनों का संयुक्त रूप नहीं । कुछ लोग हिन्दी में उच्चरित “ग्य को 
तालव्यीकृत कण्ठ्य ध्वनि मानते हैं, संयुक्त व्यंजन नहीं । वे 'ग्यान, अग्यान, वि ग्यान 
के ग्य' के मध्य अक्षर-सीमा नहीं मानते । वास्तव में हिन्दी शब्दों के मध्य में इस का 
उच्चारण 'ग्य वत्‌ होता है, यथा--- विग्ग्याँनू, अगग्येय, अग्ग्यान, * वि ग्याँन, 
अ ग्येयून-* अ गेयू, “अ ग्यान]। कुछ शुद्धतावादी इस का उच्चारण “ज्यँ वक्‍त 
करते हैं। 

हिन्दी में केवल “ज्य' ही ऐसी नासिक्य ध्वनि है जिस का उच्चारण संयुक्ताक्षर 
रूप में शब्द मध्य में प्राप्त है, शब्द-आदि, शब्दान्त में नहीं। भारतीय भाषाओं में 
इस के विभिन्‍त उच्चारण प्राप्त हैं, यथा--रन/ग्ल्य (उड़िया, तेलुगु, कन्नड, गुजराती) 
दुन/दुन्‍्य (मराठी) कम (तमित्ठ), ज्ञञ|ज्व्य (मलयातह्मम्‌), ज्यँग्य/ग्यें (हिन्दी, पंजाबी 
. बंगाली), ग्य (मणिपुरी) | भारतीय, भाषाओं में मलयात्वम्‌ के शब्द-आदि में 
का प्रयोग प्राप्त है, यथा--ज्वान्‌! (मैं) । मलयाक्रम में 'ज्ञ” का उच्चारण संस्कृत 
में रहे उच्चारण के' निकट का माना जा सकता है । 











बलाघात, विवृति तथा अनुतान 


बलाधात--बोलते समय उच्चारण (08७7८) के प्रत्येक अंश' पर समान 
बल नहीं दिया जाता । वाक्यों के शब्दों पर सदैव समान बल नहीं होता । इसी 
प्रकार एकाधिक अक्षरवाले शब्दों में सभी अक्षरों पर समान बल नहीं दिया जाता । 
एकाक्षरी शब्दों में शीर्ष पर सर्वाधिक बल दिया जाता है और पृर्व-गह वर, पर-गह वर 
पर कम । उच्चारण के समय ध्वति से ले कर वाक्य-स्तर तक दिया जानेवाला वायु/ 
उच्चारण-बल बलाघात (5865७) कहलाता है । बलाघात की चर्चा तुलनात्मक दृष्टि 
से ही की जाती है । जिस अंश पर सर्वाधिक बल दिया जाता है, उसे ही बलाघात- 
अन्त कहा जाता है। शेष अंध तुलनात्मक दृष्टि से कम बलाधातयुकत होते हैं । 

यद्यपि बोलते समय वकक्‍ता किसी भी ध्वनि/अक्षर/शब्द पर अधिक या 


सर्वाधिक बल डाल सकता है, यथा--बुराई बुराई बुराई, तथापि भाषा के सहज या 
सर्वमान्य उच्चारण के अनुसार दुसरा उच्चारण ही स्वाभाविक माना जाएगा, पहला 
और तीसरा उच्चारण बवावटी या हिन्दी भाषा की प्रकृति के प्रतिकूल माना 
जाएगा। हिन्दी में बलाघात का स्थल शब्द की स्वनिक संरचना पर निर्भर होता है । 
बलाघात के समय फेफड़ों से वायु-प्रवाह अधिक शक्ति के साथ होता है और उच्चारण- 
अवयवों में सामान्य से कुछ अधिक तनाव (प॥भंठ0) भा जाता है। कभी-कभी 
वक्‍ता के अन्य अंग (नथने, भौंहें, हाथ, कंधे, पैर आदि) भी बलाघात के कारण 
सामान्य से अधिक सक्षिय हो जाते हैं। हिन्दी में इन स्तरों पर बलाघात देखा जा 
०8 अत हनन न न 2 का है 
द (क) ध्वनि-स्तरीय बलाघात--एकाधिक ध्वनियोंवाले एकाक्षरी शब्द में शीर्ष 
.. (किख्रक) पर ध्वनि-स्तरीय बलाधात होता है, यथा-- पान, खीर, एक, कि! में 
. कैमशः जा, ई, ए, इ! पर बलाघात है क्‍योंकि इस शब्दों में ये स्वर ध्वनियाँ ही शीष॑... 
.... का काम कर रही हैं। हिन्दी में ध्वनि-स्तरीय बलाघात अनुमेय (शब्ताणबका० ' 





बलाघात, विवृति तथा अनुतान | 67 


(ख) अक्षर-स्तरीय बलाघात--एकाधिक अक्षरवाले शब्दों में किसी एक अक्षर 
पर प्रमुख/उच्च बलाघात होता है, तथा अन्य पर गौण/निम्न या निम्ततर अथवा 
निम्नतम । अँगरेजी, रूसी आदि कुछ भाषाओं में बलाघात-भेद कोशीय अथे-भेद 
कारक है किन्तु हिन्दी में यह कोशीय अर्थ-भेद कारक नहीं है, यथा--2/65०7६, 
(०7०४० में पहले अक्षर पर बल देने पर शब्द संज्ञा रहता है, जब कि दूसरे अक्षर 
पर बल देने से शब्द क्रिया हो जाता है। ?#गव्ह्डाब्का, शात०आा97ए9, 2॥00- 
8900 में क्रमश: पहले, दूसरे और तीसरे अक्षरपर बलाघात है । हिन्दी में आक्षरिक 
बलाघात अस्वनिमिक होने के कारण निरथंक है, फिर भी हिन्दी शब्दों में अक्षर- 
बलाघात (उच्चारण) का लगभग एक सर्वमान्य स्वरूप स्वीकृत है जो शब्द के किसी 
अक्षर विशेष पर रहता है । गलत बअक्षर का बलाघात शब्दोच्चा रण को अस्वाभाविक 
बना देता है । द 

अति विस्तृत हिन्दी-क्षेत्र में थोड़ी-बहुत उच्चारण-भिन्‍नता के कारण अक्षर- 
स्तरीय बलाघात में कभी-कभी/कहीं-कहीं थोड़ा-बहुत अन्तर भी मिलता है। हिन्दी में 
अक्षर-बलाघात को भी अनुमेय (2076०060०७06) कहा जा सकता है। एकाधिक अक्षर- 
वाले शब्दों में अक्षर-बलाघात के नियम ये हैं--]. एकाधिक अक्षरवाले शब्दों में 
सभी अक्षर समान स्तरीप (ह रस्व॒/मध्यम/दीघं/अतिदीर्ध) होने पर उपान्त ( अन्तिम 
से थव) अक्षर पर बलाघात होता है, यथा--र घ्‌, स मि ति, ला चा री, सम्‌ वल 
कर्म युक्त, काम गार । 

2. हरस्व, मध्यम, दीर्घ, अतिदीर्ष अक्षरों से युक्त शब्दों में प्राथमिकता की 
दृष्टि से क्रमशः मध्यम, दीर्घ या अतिदी्घ अक्षर पर बलाघात होता है, बशर्ते शब्द 
में इन से सम्बन्धित एक ही अक्षर हो, यथा--जि सी, अ मिट, सुपरि चित 
(ह रस्व तथा एक मध्यम अक्षर से बने शब्द); स पूत, अ नार, वि भिन्‍न, स्व तन्‍त्र, 
पा बन्द, ला चार (ह रस्व/मध्यम तथा एक दीर्घ अक्षर से बने शब्द); अ प रि हाय॑ 
महा पात्र, निर्‌ व्याप्त (ह रस्व/मध्यम/दीर्घ और एक अति दीघं अक्षर से बने शब्द) 

.. 3. एकाधिक अतिदीघ॑/दीघं/मध्यम/ह रस्व अक्षरों से युक्त शब्दों में क्रमश 
उपान्त अतिदीर्ष/दीघ॑/मध्यम/ह रस्व की प्राथमिकता के आधार पर बलाघात होता 
है, यथा--रा धि का, लड़्‌ डू, श्याम ला, रोजु गार, रे डियो, अना वृष टि, संस 
कार, बा जी गरी, कि राया, अमावस, पूछ ताछ, सौन्‌ दय॑, सन्‌ श या लु, _ 
अनासक ति। 

4. किसी शब्द से निर्मित दूसरे शब्द/शब्दों में अक्षर-बलाघात मूल शब्द के 
बलाघात के अनुतार भी हो सकता है और परिवर्तित भी हो सकता है, यथा--म 
धुर->म घुर ता (गुलवत्‌); सुन दर->सुन्‌ दर ता (परिवर्तित) 

... अक्षर-बलाघात के कुछ अन्य उदाहरण हैं--बिल्‌ ली, बित्‌ दी, पिल पि ला 


. सर स्‌ री, गुद गु दा। साँ-बाप, चाल-ढाल, गुस्ल खा ना, बोल ने वा ला, ल कड़ 
हां रा, म दद गार । है 











68 | हिन्दी' का विवरणात्मक व्याकरण 


(ग) शब्द-स्तरीय बलाघात--एकाधिक शब्दोंवाले वाक्यों में अर्थे वेशिष्टय 
हेतु किसी शब्द विशेष पर मुख्य|/उच्च बल दिया जाता हैं, यथा--तुम ने बच्चे के 
गाल पर चाँटा मारा । तुम ने बच्चे के गाल पर चाँटा मारा । तुम ने बच्चे के गाल 
पर चाँटा मारा । तुम ने बच्चे के गाल पर चाँटा मारा । तुम ने बच्चे के गाल पर 
चाँटा सारा । 

वक्ता की इच्छा के अनुसार वाक्य में शब्द-बलाघात परिवर्तित होने के कारण 
अनुमेय नहीं है। वाक्योच्चारण के सहज/सामान्य प्रवाह में पड़नेवाले शब्द/पद- 
बलाघात को अनुमेय कहा जा सकता है, यथा--- क्‍ 

[. वाक्य में अ्युक्त आज्ञाथेंक रूप सामान्य की अपेक्षा अधिक बलाघात युत 
होता है, यथा--तृ्‌ वहाँ मत जा---मैं वहाँ जा रहा हु । 

2. वाक्य में व्याकरणिक इकाइयों की अपेक्षा आर्थी/कोशीय इकाइयों पर 
अधिक बलाघात होता है, यथा--किसान ने साँप को लाठो से मार डाला । वे 
आगरा तक जा रहे हैं। बच्ची तो नहीं खाएगी । द 

3. ही, भी” पर वक्‍ता की इच्छानुसार बलाघात हो भी सकता है और नहीं 
भी, यथा--नौकर ही/भी लाएगा--नौकर ही/भी लाएगा । 

4. वाक्य में आए प्रश्नवाचक शब्द पर सशक्त बलाघात होता है, यथा-- 


आजकल तुम कहाँ रह रहे हो ? लड़के को कितनी तन ख्वाह मिलती है ! तुम वहाँ 


अकेले कसे रहोगे ? 

5. पूरक विशेषण/क्रियाविशेषण पर सशक्त बलाघात होता है, यथा--रेखा 
सुन्दर लड़की है | मेरा साला अमीर था। आजकल ' मेरा गला खराब है । वह अच्छा 
नाचती है। मेरा घोड़ा बहुत तेज दौड़ता है । 

. 6. निषेधवाचक वाक्यों में नकारात्मक अव्ययों पर सशक्त बलाघात होता है 


यथा--आप न उठाएँ, हम उठा लेंगे | तुम बीच में सत बोला करो । मैं नहीं 


 जाऊगी । 

हिन्दी में शब्द-स्तरीय बलाघात स्वनिभ्तिक होने के कारण अथे॑-भेदक 

. (सामान्य, निश्चय, आधिक्य, समाहारी, आज्ञा, तुलना आदि का सूचक) है, यथा-- 

कम-से-कम शर्बंत पीजिए--कस-से-कस शबंत पीजिए। 

उन्हें एक रोशनदानवाला कमरा चाहिए था--उन्‍्हें एक रोशनदानवाला 
कमरा चाहिए था । द 

आज तुम कप्त-से कम बोलीं--आज तुम कम-से-कम बोलों । 

रोगी उठा और दूध पी कर सो गया--रोगी उठा और दूध पी कर सो गया । 

(पहला और “था; दूसरा और +--7078 अधिक) 


.. “एक! «एक ही) 





एक लड़की खड़ी है--एक लड़की खड़ी है। (पहला 'एक'>कोई; दूसरा... 





बलाघात, विवृति तथा अनुतान | 69 


चाय बहुत मीठी थी--चाय बहुत मीठी थी। (बहुत बहुत अधिक/बहुत 
ही) । 

में अभी और पढ़, गा--मैं अभी और पढ़,गा | (और--और भी) 

लगता है तुम कभी नहीं सुधरोगे--लगता है तुम कभी नहीं सुधरोगे । 
(कभी +- कभी भी) 

(तू तुम ने यह) पत्र लिखा-- (तू यह) पत्र लिख।। (लिखा आज्ञार्थ) 

तुम्हारी किताबें कहाँ हैं ? (किताबें + 80०:5)--तुम्हारी किताबें कहाँ हैं ? 
(किताबें +- 6 000]:8) । 

सामान्यतः: सभी' भारतीय भाषाओं में शब्दों पर बल देने से इस प्रकार की 
आर्थी विशेषताएँ आ जाती हैं; अत: इसे !08708। ४&४7655 ऐच्छिक बलाघात कहा जा 
सकता है । । 

_[(घ) वाक्य-स्तरीय बलाघात--किसी प्रसंग में एक साथ एकाधिक वाक्यों का 
उच्चारण करते समय अपनी बात स्पष्ट करने या भावों का अतिरेक व्यक्त करने 
अथवा व्यंजित अर्थे व्यक्त करने के लिए वक्‍ता अपनी इच्छानुसार बल देने के लिए 
किसी पूरे वाक्य या उस के एक अंश पर बलाघात दे सकता है ! इस के अतिरिक्त 
वह अन्य कई भाषेतर कारकों का सहारा ले सकता है, यथा--- द 

एक दिन की छुट्टी ले कर चार दित बाद आ रहे हो, मुझे नहीं रखना ऐसा 
नौकर, भाग जाओ यहाँ से । क्‍ 
में यहाँ इसलिए नहीं आई _हूँ_ कि. रात-दिन नोकराती की तरह काम में 


खटती रहूं, मेरा भी अस्तित्व है। 
.. बलाघात युत वाक्यवाक्‍्यांश सामान्य वाक्य/वाक्‍्यांश की अपेक्षा कुछ विशेष 
थे-बंशिष्ट्य या मनोभावयुकत होता है, अत: हिन्दी में वाक्यांश, वाक्‍्य-स्तरीय बलाघात 
को स्वनिमिक कहा जा सकता है। किसी वाक्यांश पर बल देने के लिए बलाघात 
के अतिरिक्त निपात (ही, भी, तो, तक आदि) का प्रयोग भी किया जाता है। कभी- 
कभी' वाक्य के सामान्य पद-क्रम को बदल दिया जाता है, यथा--काँटे ही मिलेंगे 
तुम्हें इस पथ पर । द 
वाक्य-स्तरीय बलाघात वक्‍ता की इच्छा पर निर्भर रहने के कारण अनुमेय 
नहीं कहा जा सकता । 
बलाघात-प्रभाव--. बलाघातित मुल शिथिल ध्वनि कुछ दृढ़ और मूल वढ़ 
ध्वनि कुछ दृढ़तर हो जाती है; यथा--प्रगति, समित्ति, अतिथि में क्रमश: उपान्त अ 
(ग), इ (मि), इ (ति) पर बलाघात होने के कारण मूलतः शिथिल “अ, इ, इ' अन्य 
अ, इ ध्वनियों की अपेक्षा दुढ़ हैं । इसी प्रकार मूलतः दृढ़ 'आ! आसानी” शब्द के 


उपान्त में बलाघातयुत हो कर दृढ़तर हो गया है । शब्द की अन्य ध्वनियों की स्थिति 
इस से विपरीत हो जाती है । 














0 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


2. बलाघातयुत ह्‌ रस्व स्वर कुछ दीर्घ और दी्घ स्वर कुछ दीघंतर हो जाता 


है, यथा-- आवारा, आसानी, प्रगति, समिति के उपान्त आ, अ, इ' बलाघात युत होने 


के कारण कुछ दीघंतर, कुछ दीघ्घ हैं। शब्द की अन्य ध्वनियों की स्थिति इससे 
विपरीत हो जाती है । 

3. बलाघातयुत अक्षर की अल्पप्राण ध्वनि कभी-कभी' महाप्राणवत्‌ सुनाई पड़ती 
है, यथा--क्या है, चैन से बैठा भी नहीं जाता । वाक्य में क्या->ख्या वत्‌ उच्चरित । 
बलाघात-हीन महाप्राण ध्वनि में महाप्राणता की मात्रा कुछ कम हो जाती है, यथा-- 


ठिठोली में 'ठि । ह 
4. बलाघातयुत स्वर अपेक्षाकृत अधिक मुखर ($070707&) होने के कारण 


श्रवणीयता की दृष्टि से प्रमुख (?7077767) हो जाता है, यथा--बृूरा, कहारी, 
नीलामी” में 'बू, हा, ला अपेक्षाकृत अधिक मुखर तथा दूर तक श्रवणीय हैं । बलाघात- 
रहित ध्वनियाँ अपेक्षाकृत कम मुखर तथा कम श्रवणीय हो जाती हैं। 

5, वाक्य में बलाधातयुत अक्षर/शब्द सामान्य से कुछ अधिक उच्च तानवाला 
हो जाता है । बलाघात-रहित अक्षर/शब्द का तान कुछ नीचा हो जाता है । 

6. वाक्य में बलाघातयुत अल्पप्राण कभी-कभी दीर्घ हो जाता है तथा महाप्राण 
के पूर्व उस का अल्पप्राण आ जाता है, यथा--कोई फड़कता हुआ ऐसा गाना गाओ 
कि.” “(ग्गाता)। निकल जा यहाँ से, अपने बाप की छाती पर जा कर मृग 
दल । (च्छाती) 


विवि (7प070007०)-- बोलते समय एक ध्वनि से दूसरी ध्वनि के मध्य का क्‍ 


संक्रण (#&॥8007) तथा विराम (7००४७) विवृति/संग्रम/संहिता कहलाता है। 
दो ध्वनियों के मध्य विवृति उत्पन्त होने के तीन कारण हो सकते हैं---. दोनों 
ध्वनियों का असम स्थानीय होना, -यथा --जानका र, कपठी, मन्सथ 2. अर्थ-स्पष्टी- 
करण हेतु मौन/विराम की आवश्यकता का अनुभव होना, यथा--तुम ने पीलीवाली 
दवा पी लीं ? वह कम बलवाला आदमी नहीं था | 3. वाक्य-स्तरीय लम्बे उच्चारों 
के मध्य साँस लेने या अथे स्पष्ट करने या दोनों की आवश्यकता का अनुभव होना, 
 यथा--रोको, मत आने/जाने दो--रोको सत, आने/जाने दो 
सम स्थानीय ध्वनियों के मध्य उच्चारण-अवयवबों को संक्रमण में किसी प्रकार 
का व्यवधान नहीं होता, अतः वहाँ विवृति नहीं होती, यथा---कम्पन, कम्बल, अहुडः - 
कारी, हिन्दुओं” में मू-प, मू-ब, डः-क्‌, न-दू के मध्य । 
.... लेखन में विवृति को -+- चिह॒न से प्रदर्शित करते हैं, यथा--! . स्वर--स्वर 
(सु+अवसर->सुअवसर, चलो--अब->चलो अब, क्‍या बनाओगी---आज->ेक्या 
 बनाओगी आज) 2. व्यंजन -+- व्यंजन (चिम-|- टा->चिमटा, बक-बक->बक बक तुम 


.... पहारी-तुम्हारी, इन + कार--इनकार, मन-+-माफिक--मंन माफिक) 3. स्वर-|- 

-. व्यंजन (पिला-+-दो->पिला दो, ले-++लो->ले लो, पी--लिया->पी लिया/पीलिया) 
... . . 4. व्यंजन--स्वर (बचर--आई-बच आई/|बचाई, आज--आना-,आज आना/आ 
..... जाना, सह-+-भअनुभूति-?सह-अनुभुति/सहानुभूति) 


अवललानगकाकाबकलूतपकपकज-+ जलन 77 2५५ नर चलाए विनायव- डा नाप>-+ ५ शदरपककननलम «न > ५ क. “०० ५ ८० डे > ४ ५३३5 २५ ५ पटक नकल 


बलाघात, विबृति तथा अनुतान | 7/ 


समय की दृष्टि से विवृति मौन-काल/विराम-काल है । हिन्दी में इस के मृख्य 
तीन भेद किए जाते हैं--. अत्यल्पकालिक विवृति शब्द के अन्दर स्वर--स्वर; 
व्यंजन -- व्यंजन; व्यंजन -+-स्वर; स्वर--व्यंजन; अक्षर--अक्षर के मध्य और दो 
शब्दों के मध्य अर्थ-स्पष्टता हेतु आती है, यथा--इन्‌--कार -? इनकार, चिम्‌+ठा 
“2 चिमटा, चिप्‌+-को-> चिपको, लिख--ना-? लिखना, चम्‌ --चा“>ेचमचा, तिन्‌ 
+का-तिनका, नप्ू-+-कीनटेसलमकीसल, अन्‌ +पढ़->अनपढ़,  न-+-दी->वदी, 
पी--लिया->पीलिया, हो--ली->होली, बर्फी-+-ले->बर्फीलि, सिर्‌--का ->सिरका । 

... 2. अल्पकालिक विबृति अथे की दृष्टि से वाक्य के किसी खंड/घटक को 
किन्‍्हीं अन्य घटकों/खंडों या इकाइयों से अलग दिखाने के लिए आती है जिसे लेखन 
में अल्पविराम से व्यक्त करते हैं, यथा--तुम आ गई हो , अतः मुझे खाना बनाने की 
झंझट से छुट्टी मिली । वे बोले, हम आज ही लौट जाएँगे । तुम जो मेरे साथ इतनी 
उदारता दिखा रहे हो, कहीं इतने ही कठोर तो न हो जाओगे ? अल्पकालिक विव॒ति 
अथ्थ की स्पष्टता और साँस लेने या दोनों कारणों से आती' है । 

3. दीघेकालिक विवृति दो वाक्यों के मध्य आती' है' जिसे लेखन में । ? ! 
चिह नों से व्यक्त किया जाता है ! दीर्घकालिक विव॒ति अथ॑-स्पष्टीकरण तथा साँस 
लेने के उद्देश्य की पूतति करती है। छोटे-छोटे वाक्‍्यों के उच्चारण के समय प्रति 
वाक्य/श्वास-वर्ग (68070 87009) के बाद यह विवृति आती है किन्तु बड़ा वाक्य 
होने पर एकाधिक वाक्य खंड/श्वास-वर्ग के बाद अल्पकालिक विवृति आती है । 

अर्थे-भेदक होने के कारण हिन्दी में विवृति स्वनिमिक है, यथा--पी ली--- 
पीली, हो ली--होली, बर्फी ले---बर्फीलि, बतासा ले---बता साले, मन का--मनका, 
बरछी ने--बर छीने, जाग रण का यह समय है---जागरण का यह समय है, सनकी 
“सन की, मिलाया--मिल आया, खा ली--खाली, वह घोड़ा गाड़ी खींच रहा 
है--वह घोड़ागाड़ी खींच रहा है, काम में न रम--काम में नरम, सोओ, मत उठो--- 


ऊैसोओ मत, उठो; तफीस---न फीस; बहादुर बच्चे, रोते नहीं--बहादुर बच्चे रोते 


नहीं । आदि 

वाक्यान्त विवृत्ि के पूर्व सुर आरोही/अवरोही/सम होता है । प्रश्ना्थंक 
आश्चयंसूचक वाकक्‍यों में आरोही; सूचनाथेक में अवरोही और अधूरे वाक्य में सम सुर 
रहता है । उच्चार-मध्य की अरथै-भेदक विवति को स्वनिमभिक विवति और वाक्य- 


मध्य की विवृति अभ्यन्तर विवृत्ति ([7/७य। 090॥ उणाढप्र७) कहलाती है, यथा-- 


वे--आ--गए--क्या | वे--आ--गए $ 


अरे--वे--तो-+आ--भी + गए |. बीमार+लाचार--औरःा'न> 


मिल-- +-आया--मिला--या.. वे-+- +बे+-ईमान--है द 
अनुतान (/04४०7)---वाक्यों के उच्चारण के समय सुर/लहजे के 
. उतार-चढ़ाव/अवरोह-आरोह को अनुतान कहते हैं, यथा-- 





पडता ८५ पलपल नन्‍्कपपभज५+ ३० रधमभराात& उजम55८पाा+पारारअ ८८८5८ राधा पअ तय अपना 94८40:227>प।०:--2+->2 >> चने 











2 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


ग्राहक--अंगूर किस भाव दिए हैं ? 

दुकानदार - बारह रुपये किलो । 

ग्राहक--बा रह रुपये किलो ? पड़ोस में दस रुपये किलो बिक रहे हैं, और 
तुम बारह कह रहे हो ' 

दुकानदार--पड़ोस की दुकान से ही ले लीजिए, वहाँ बीजवाले और खटटे 
आठ रुपये किलो भी मिल जाएँगे । 

वाक्योच्चारण के समय घोष तथा अधघोष ध्वनियों का प्रयोग होता है। घोष 
ध्वनियों के उच्चारण के समय स्वरतन्त्रियों में होनेवाली' कम्पन-आवृत्ति (#760प०7९५ 
ग शात्रब्ांणा) सुर (०7) या तान (7076) कहलाती है । एकाधिक घोष ध्वनियाँ 
लगातार उच्चरित होने पर सुर-लहर/अनुतान का निर्माण करती हैं, यथा---मैं अभी 
नहीं जाऊंगा वाक्य-उच्चारण के समय म्‌, ऐं, अ, भू, ई, नू, अ, हू, ईं, जू, आ, 
ऊँ, गूृ, आ' 4 भिन्न-भिन्न सुर परस्पर मिल कर एक विशेष प्रकार की सुर-लहर 
का निर्माण करते हैं । अधघोष ध्वनियों के उच्चारण के समय अत्यल्प कम्पन होने के. 
कारण सुर का अभाव रहता है । वाकयों में अघोष ध्वनियों (लगभग 20%--229) .. 
की अपेक्षा घोष ध्वनियों (लगभग 78% --80%) का व्यवहार अधिक होने के 


कारण वाक्यों में आदूयन्त सुर लहर/अनुतान की' प्रतोति होती' हैं। अतः वाक्य- 
चारण के समय ध्वनियों के सुरों के आरोहावरोह का क्रम अनुतान कहलाता है । 


लगभग सभी भाषाओं में अनुतान-भिन्‍तता से वाक्य /वाक्‍्यांश में अथ-भिन्‍नता 
आ जाती है, यथा-- वे आ गए । ? !” वाक्य को तीन प्रकार की अनुतान में बोलने 
पर तीन प्रकार के अथ की सूचना मिलती है--सामान्य कथन, प्रश्सूचक कथन 
आश्चयंसूचक कथन । हिन्दी को अच्छा' शब्द विभिन्‍न अनुतानों में बोलने पर विविध 
प्रकार के अर्थों का सूचक होता है, यथा--- 
द तुम्हारा यह नौकर तो अच्छा लगता है (>भला) । हरीश भी पास हो गया 
अच्छा ! (>-आश्चय) । बहुत देर से लिख रहे हो, अब लिखना बन्द करो; अच्छा 
(>> अनिच्छा) । हमें अभी चल देना चाहिए; अच्छा । (स्वीकृति)। आप इस बात 
का अर्थं समझ रहे हैं न ? अच्छा | (>-जी हाँ) 
ह हिन्दी में सामान्यतः तीन प्रकार के अनुतान-साँचे (॥7/07400॥ [8&86778) 
मिलते हं---. निम्त 2. सामान्य 3. उच्च। कभी-कभी अति उच्च या अत्यन्त उच्च 
अनुतान-साँचा भी मिल जाता है । निम्त को अवरोही (४2078) "|, सामान्य को सम 
(॥0४०।)-> और उच्च को आरोही (7४78) ,/7 भी कहा जाता है। आरोह-अबरोह 
के मिश्चवित रूप को आरोहावरोह (एरंशा।8 40798) //"; अवरोह-आरोह के मिश्रित _ 
रूप को अवरोहावरोह (थि8-7878) ५ कहते हैं। 
.आछ हिन्दी में सामान्यतः पाँच प्रकार के वाक्यों (सामान्य, प्रश्ससूचक, आश्चय॑- 
. सूचक, आज्ञासूचक, निर्षेधसूचक) और अभिवादन के लिए कई प्रकार के अनुतान-साँचों 
का प्रयोग होता है, यथा--- 
. सामान्य (निश्चयाथेक) वाक्‍यों में 2 3 । के अनुतान-साँचें का प्रयोग होता 








बलाघात, विवृति तथा अनुतान | 73 


है। वाक्यान्त में अवरोही सुर रहता है, यथा--मकान काफी बड़ा है । तुम्हारी आदत 
2 3 है 


बहुत गन्दी है। आजहम आपके यहाँ खाएँगे, कल अपने दोस्त के घर में । सामान्य 
3 4 2 3 ॥ 2 3 | द 

बातचीत, भाषण, कह्ानी-कथन के सन्दर्भ में निश्चयार्थंक वाकयों के अनुतान-सांचों में 
थोड़ा-बहुत अन्तर अवश्य होता है । 

. 2. प्रश्नससूचक वाक्य चार प्रकार के होते हैं, जिन के अनुतान-साँचे भी' भिन्‍न- 

भिन्‍न होते हैं, यथा-- (क) प्रश्नसूचक शब्द-रहित वाक्य का अनुतान-साँचा 2.3 3 

होता है | वाक्यांत में आरोही सुर रहता है, यथा--मेहमान चले गए ? चाय बन 

2 3. 3 टे डे 


गई ? तुम ने स्कूल का काम कर लिया ? 
3५ ४2 ई, उ 
(ख) वाक्‍्यांत में अ्रश्नसूचक शब्दवाले वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 2 होता 
है । 3, 2 के मध्य विराम (८5) होता है। वाक्यांत में आरोही सुर रहता है, यथा-- 
वे चली गई क्या? तुम वहाँ तक चढ़ोगी कैसे ? 
2 3+<># 2 2 3 # 2 
(ग) वाक्य-मध्य में प्रशनसूचक शब्द आ जाने पर 2 3 | का अनुतान-साँचा 


रहता है । वाक्‍्यांत में अवरोही सुर रहता है, यथा--आप कब चल रहे हैं ? तालाब 
2... 3 ः 


में कितना पानी है? 
3 


(घ) न*-युक्त वाक्य का अनुतान-साँचा 232 होता है। वाक्यान्त में 

किचित आरोही सुर रहता है, यथां-- तो कल चल रहे हो न? खिड़कियाँ ठीक. 
2 3 8 2 ॒ | 

से बन्द करदी हैं न ? 
| हा 2 

3. आश्चयंसूचक वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 2 होता है। वाक्यांत में 
किचित अवरोही सुर रहता है, यथा--तुम ने दो किलो दूध पी लिया < पड़ोसी बुड़ढा . 
हु हि द 2 3. 9. किक 


चल बसा। 
3 2... . े द रा | 
4. आज्ञासूचक वाक्य दो प्रकार के होते हैं, जिन के अनुतान-साँचे भी सक्‍िन्‍्न- 
भिन्‍न होते हैं, यथा--- के क्‍ जे क्‍ 

._ (क) सामान्य आज्ञा-वाक्‍्य का अनुतान-साँचा 2 ] होता है। वाबयांत में 
अवरोही सुर रहता है, यथा गन के है हे का । 




















4 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(ख) निषेध आज्ञा-वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 । होता है। वाक्यांत में 

अवरोही सुर रहता है, यथा--बाहर मत बैठो । आप वहाँ न जाइए । 
० है 3 ! 

5. निषेधसूचक वाक्य आठ प्रकार के होते हैं, जिलके अनुतान-साँचे भी भिन्‍्न- 
भिन्‍न होते हैं, यथा-- द 

(क) 'नहीं-युक्‍त वाक्य का अनुतान-साँचा 23 | होता है। वाक्यांत में 
अवरोही सुर रहता है। वाक्यारम्भ में आनेवाले' नहीं! का अनुतान-साँचा 3 रहता है, 
यथा--नहीं, . मैं नहीं रुक पाऊँगा । तुम्हें चोरी नहीं करनी चाहिए थी । 

3 +£ 2 3 | 2 3 ] 

(ख) मना -युक्त वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 होता है। वाक्यांत में 
अवरोह रहता है, यथा-यहाँ बेकार बैठना मना है। फूल तोड़ना मना है 

द 4 3 | 2 3 | 

(ग) निषेधवाची उपसर्ग (अ, अन, गैर, ना, ला आदि) युक्त वाक्य का अनुतान- 

साँचा 2 3 | होता है। वाकयांत में अवरोही सुर रहता है, यथा--यह काम 
्ः हर 2 


मरकानूनी है। तुम्हारी बीमारी लाइलाज है। 
3 ] 2 आओ! 
_(घ) “थोड़े ही“-युक्त वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 । होता है । वाक्यांत 
में अवरोहावरोह रहता है, यथा--मैं ने थोड़े ही उसे मारा था। वह यहाँ 
हे आल तक पक कक, क्‍ ] 
नौकरी करने घोड़े ही आया था। 
जा 3 8 0 
द (ड)) चुक'-युकत वाक्य का अनुतान-साँचा 23व होता है। वाक्यांत में 
अवरोह होता है, यथा--तुम तो हो चुके पास । ऐसे तो वह॒पा चुकी काम । 
४ ठ [ 2 3.. [ 
... (च) 'रह-युक्त वाक्य का अनुतान-साँचा 2 3 2 होता है। वाक्यांत में 
. अवरोही सुर रहता है, यथा--वे तो वहाँ जाने से रहे । मैं तो यहाँ सोने से रही । 
ह 22 3 5 5 जी 8 
(छ) वाक्य-मध्य में आए प्रश्तसूचक शब्द युक्त वाक्य का अनुतान-साँचा _ 
2 3 होता है। वाक्यांत में अवरोही सुर रहता है, यथा - तम॑ कब के धन्‍्नासेठ 
3 20 | 5 कह 
. हो ? यहाँ मेरी कौन सुनता है ? द 


.... (ज) वाक्यारम्भ में आए 'भला-युक्‍त वाक्य का अनुतान-साँचा 223 ] 








. बलाघात, विवृति तथा अनुतान | 75 


होता है । वाक्‍्यान्त में अवरोही सुर रहता है, यथा--भला, यह भी कोई काम 
2 न -+ 2 3 

है? भला, यह आप के बस की बात है? 
[| 2 पड 2 हट ३ | 

6. अभिवादन-सूचक शब्दों/वाक्यों का अनुतान-साँचा | 2 3/2 3 । होता है । 
अन्त में अवरोह रहता है, यथा--न म स्कार न मस्कार। न मस्‌ ते नमस ते। 

ही 5 8 3 जा 0 3 2०4 5] 

कहिए, कैसे हैं? कहिए, कैसे हैं? 
324+5+327 223 5 22 5 

वक्‍ता की मनःस्थिति, मनोवृत्ति, वक्‍ता-श्रोता के सामाजिक सम्बन्ध और 
परिस्थिति आदि के कारण अनुतान-साँचों में थोड़ा-बहुत परिवर्तन होना स्वाभाविक है। 

7. अधूरे या अस्वतन्त्र वाक्‍्यों के उच्चारण में लगभग सम सुर रहता है 
जिस का अनुतान-साँचा | ]/] | ] होता है, यथा--दीदी गई" (तो मैं भी 
| [.|94 
जाऊँ) । दीदी सिनेमा जा रही है. “(तो मैं भी जाऊँगा) । 

हज जी द 


यद्यपि लिखित रूप में विरामादि चिह नों का प्रयोग कर अनुतान की सूचना 
देने का प्रयत्न किया जाता है, तथापि यह प्रयत्न अधूरा ही है क्योंकि अनुतान-स्वरूप 
वक्‍ता के मनोभावों पर आधारित है और उच्चारण की चीज है, यथा--- द 

_मैंजा रहा हूँ। मैं जा रहा हूँ ? मैं जा रहा हूँ ! क्‍ 
मैं जाऊँ? ($अच्छा। |अच्छा , जाओ। 
.. उसे पुलिस पकड़ ले गई । | भच्छा !/बहुत अच्छा ! 
अच्छा ! वह भी पास हो गया ? कौन ? सतीश ? 
अच्छा, तुम बोल रहे हो ? $ अच्छा, तो अब चलू ? अच्छा, फिर कभी । 














/ 


बर्णमाला 


संसार की कोई भी भाषा किसी भी उपयुक्त लिपि में अंकित की जा सकती 


है । उपयुक्त लिपि से यहाँ तात्पयं है--उस भाषा में प्रयुक्त समस्त खण्ड्य स्वनिमों 
और विशिष्ट उपस्वनों के लिए प्ृथक्‌-पृथक लिपि-चिह नों का होना । भाषा की' 
आवश्यकता के अनुरूप अधिखंडीय या खण्ड्येतर स्वनिमों के लिए भी उपयुक्त लिपि- 
चिह नों का होना अच्छी लिपि की विशेषता है। सामान्यतः बहुत लम्बे समय तक 
कोई भाषा विशेष जब किसी लिपि विशेष में लिखी जाती रहती है, तो उस लिपि 
को ही उस भाषा की लिपि मान लिया जाता है और जन सामान्य का भाषा के 
साथ-साथ उस लिपि के साथ भी भावनात्मक लगाव हो जाता है, यथा--अँगरेजी 
रोमन, हिन्दी-देवनागरी, मराठी-देवनागरी, तमित्ठ-तमितठछ, कन्नड-कन्नड, पंजाबी 
गुरुमुखी आदि । 

वर्णमाला (377&788) का वर्ण शब्द कई अथों का सूचक रहा है, यथा--- 
रंग (सं.), जेसे--विवर्ण ("जिस का रंग उड़ गया हो), रक्‍्त/गोर/पीत वर्ण; वर्ण 
क्रम (99600'प7) । चतुवंरण--ब्राह्‌ मण, क्षत्रिय, - वेश्य, शूद्र; [.0/0', वर्णमाला में 
अन्तिम अथे के रूप में वर्ण शब्द का प्रयोग हुआ हैं। मान किसी' व्यापार/आच रण| 
वस्तु आदि के स्तर/मूल्य को आँकने की इंकाई, यथा--मानदण्ड (५०7१5४०८), 
नैतिकता का मानदण्ड । मान शब्द से मानक ($0870470) शब्द का निर्माण हुआ 
है । देवनागरी लिपि का उपयोग संस्कृत-प्राकृत-पाली-अपभ्र श-मराठी, हिन्दी, 
नेपाली के लेखन के लिए कसरत से होता है। भय भाषाएँ भी इस में सरलता से 
लिखी जा सकती हैं । भारत सरकार के प्रयत्नों से 959 में देवनागरी को मानक 


रूप देने का प्रयास किया गया और 967 में मानक देवनागरी पर एक पुस्तिका _ 


प्रकाशित की गई जिस में भारत की प्रधान भाषाओं को देवनागरी में अंकित करने के 


... लिए आवश्यक वर्ण भी जोड़े गए हैं । 
पा हिन्दी भाषा-लेखन के लिए मुख्यतः देवनागरी/नागरी लिपि का प्रयोग किया _ 
. जाता है। प्रायः भ्रम के कारण देवनागरी-वर्ण मा ॥ को ही हिन्दी की ध्वनियाँ कह _ 


46 


तानतानलसमकषमकेस आयनकन का सलकफवतत पक न-म०न्‍प शा +नशचललुन रस मककरनपत पनत "५ ताल मे. पधतिरणधाकलेपलिलय बाप टुनता इज पटयटयप- चयए 7 दादरात जपपतउययकधल- दाता पथ पट ५३० कप 2० -८-:कद- १७ ५प+४-+-७- “७०० “०३ प2-००-: ० काल कक 2 मिलर तर के वि 2 ४: 





वर्णमाला | 77 


दिया जाता है, ऐसा कहना/मानना गलत है । हिन्दी के लिए प्रयुक्त मानक देवनागरो 
बर्णमाला में ये स्वर, व्यंजन वर्ण हैं-- 

अआइईएउऊकऋणफएऐआओ ओऔअंअः भें आएं 

कखगघडा. चछजझज्य टठडढण तथदधन 

पफबभम  यरलवशषसह क्षत्रज्ञ श्रकखग्‌जफ 

ड़्ढ़्छ द क्‍ 

इस वर्णमाला में 'अ इ उ ऋ'" ह रस्व स्वर वर्ण हैं, आ ई ऊ ए ऐ ओ ऑऔ' 
दीर्घ वर्ण हैं। अं! अनुस्वार-चिह न (), अः विस्ग-चिह न (:), अँ अनुनासिकता- 
चिहन (), “आ, ऐ हिन्दी-इतर भाषाओं के स्वर वर्ण हैं । व्यंजनों में क वर्ग, 
च्‌ वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग तथा प वर्ग की ध्वनियों के लिए 5-5 वर्ण हैं। क्ष त्रज्ञश्र' 
संश्लिष्ट संयुक्ताक्षर[संश्लिष्ट संयुक्त वर्ण हैं। 'त्र' त्र का परम्परागत रूप है । अन्य 
सरलाक्षर|एकल|सरल वर्ण हैं । क्‌ ख ग्‌ ज्‌ फ्‌' विदेशी व्यंजनों के वर्ण हैं। “ड़ ढ़ छ' 
कुछ शताब्दियों पूर्व हिन्दी वर्णमाला में जोड़े गए हैं। देवनागरी वर्णमाला के सभी 
व्यंजन वर्णों में अन्तनिहित 'अ' (7/७7०० 4) बतेमान होने से इन्हें भी स्वर वर्णों 
की भाँति अक्षर कहा जाता है क्‍योंकि ये भी साँस के एक-एक झटके में उच्चरित 
होते हैं । 

वर्ण-रचना की समानता की दृष्टि से ये वर्ण-समृह दृष्टव्य हैं--छ ऊ अ आ 
ओओऔअं अःओऑ इईहडड़डदझ गमगनभसरएऐएऐखख पफफ 
णषयथघधश वबककचजज्‌ञत्र टठढढ़छछतल क्षज्ञकऋश्र। 


स्वर-वर्णो के मात्रा-चिह्‌ न---अ' का कोई मात्रा-चिह न प्रचलित नहीं है । 
अन्य स्वर-वर्णों की भाँति यदि अ' वर्ण का मात्रा-चिह न (यथा-- 0 या इसी' प्रकार 
का कोई अन्य चिह न) बना लिया जाता है, तो देवनागरी की' वैज्ञानिकता में चार 
चाँद लग जाएँंगे। अ' का मात्रा-चिह न न होने के कारण शब्द-मध्य, शब्दान्त के 
अकेले व्यंजन वर्ण कभी' 'अ' युत बोले जाते हैं और कभी' 'अ'-रहित, यथा-- कमल, 
काम' में पहला 'म अ-युत बोला जाएगा, दूसरा 'म” अ-रहित । द 

कुछ व्यंजन वर्णों में प्रयुक्त । को 'अ' का मात्ना-चिह न कहना भ्रम है क्योंकि 
झइटठडढ रहड़ढ़क' में । का अभाव है। प्रत्येक अकेले व्यंजन वर्ण में 'अ' 
की मात्रा परम्परित है । अन्य स्वर-वर्णों के मात्रा-चिह्‌ न क्रमशः ये हैं-- *  _ हि 
7११“: 7 यथा---(क) का कि की कु क्‌ क के कै को कौ क॑ के क: को के । 
र' के साथ __ का उप-रूप _ प्रचलित है, यथा--रु (रुपया), रू (रूप) । ये दोनों 
चिह न अध्येता पर अनावश्यक बोझ हैं क्योंकि रपया और रप लिखने तथा वाचन में 
किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं पड़ती द 

वर्धा-समिति द्वारा दिया' गया सुझाव कि सभी स्वर अ के साथ मात्ा- 
चिहून लगा कर बनाए जाएँ (यथा--अ आ भि ओ' भर आू जे थे ओ औ अं अ:ः) 


] 














78 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अवैज्ञानिक होने के कारण अमान्य रहा है क्योंकि अ--इ|अ--उ रखने से अइ(ऐ, 
अछऊउ|ओ होता है, इ/उ नहीं । व्यंजन वर्ण के साथ तो स्वर वर्ण की मात्रा जोड़ी जा 
सकती है किन्तु स्वर वर्ण के साथ दूसरे स्वर वर्ण की मात्रा जोड़ना अवेैज्ञानिक है। 


हाँ, यदि अ' को बिना किसी ध्वनि-भूल्य का वर्ण स्वीकार कर के उस में किसी भी 


स्वर की मात्रा जोड़ना वैज्ञानिक रहेगा । 

अँगरेजी से आगत कुछ शब्दों को लिखने के लिए 7 का प्रयोग किया जाता है, 
यथा--डॉक्टर, चॉक, बॉल, हॉल' आदि । का प्रयोग ह्‌ रस्व ए की ध्वनि को व्यक्त 
करने के लिए (विशेषतः दक्षिण भारत की भाषाओं के शब्दों के लिए) किया जाता 
है। शा के साथ ऋ'" की मात्रा लगाने पर शु/श्ष रूप होगा। श्र को शु' रूप 
में लिखना अधिक सुविधाजनक है किन्तु टाइप राइटरों में श्र" होने के कारण श्र 
लिखना/टाइप करना अवैज्ञानिक है। 

व्यंजन वर्णों के आधे/संवक्‍त रूप--परिनिष्ठित देवनागरी के व्यंजन वर्णों के 


आधे रूप (अ-मात्रा रहित) चार प्रकार से बनाए जाते हैं, यथा--- मम 


_ () पूर्ण खड़ी पाईवाले वर्णों की खड़ी पाई हठा कर, यथा--रू ग ८ जूझ 
झण्त्थ्धन्पब्भ्स्यहव्श ४ स्क्ष5ज्ञ श्रछू 7 ज (यथा-ख्याति, ग्यारह, विध्न, 
बच्ची, ज्योति, कड्ज, पुण्य, पत्ता, पथ्य, ध्यान, पन्‍्थ प्यार, ब्याज, सभ्य, म्यान, शय्या, 
कल्याण, व्यास, श्वास, पुष्ट, स्नेह, लक्ष्य, व्यम्बक, श॒ रुस, न ग्मा, ज्यादा) हिन्दी के 
लिए झइ ह्ञ| की आवश्यकता नहीं पड़ती । 

(2) छोटी-सी खड़ी पाईवाले वर्णों के नीचे हलू () चिहन लगा कर, 
यथा--डः छ द 5 डढू द्‌ ह (ड़, ढ़ के आधे रूपों की आवश्यकता नहीं पड़ती), 
यथा--शहः का, वाह मय, उच्छवास, टट॒टू, शादयम्‌, लडड्‌, धनाढ॒य, विद्या, गद्दी, 
विहु वल, प्रह लाद । 


(3) हुकवाले वर्णों की हुक हटा कर, यथा--क क फ (फ के आधे रूप की 

ज्यादा आवश्यकता नहीं पड़ती । केवल एक शब्द 'फुफ्फुन! अवश्य अध॑फ' से लिखा 
जाता रहा है) , यथा--पकक्‍का, हुक्‍का, नक्काशी, दफ्तर, मुफ्त । 

द (4) 'र' के मुख्य तीन रूप, यथा-- |_ किसी व्यंजन से पूर्व ' आता है, 

यथा--कर्म, चर्च, बरं | किसी व्यंजन के बाद काते हैं।इन में छोटी खड़ी 

_ पाईवाले व्यंत्रनों के बाद आता है, यथा--ड्रामा, राष्ट्र, द्रव और पूर्ण खड़ी पाईवाले 

 ध्यंजनों के बाद, यथा--क्रम, प्रेव, वज्ञ । __ वास्तव में पूर्ण 'र उच्वरित होते हैं 


.._ अं “र' नहीं, अतः इन का प्रयोग अवैज्ञानिक है।_ को हटा कर 'क्रम, प्रेम, 


3 लक लेखन से शुद्ध वाचन में कोई बाधा नहीं पड़ती । ._ को हटा कर भी ड्रामा, 
राष्ट्र, द्रव लेखन और शुद्ध वाचन में कोई अड़चन-नहीं होगी । 


स्वतीय सूचना के लिए किसी भी पूर्ण व्यंजन वर्ण के नीचे हल चिष्ठन लगा 


पूकानलकलराकलपनी कान 5.० ०० “पर पिकलएकनना-ाकनललकर यान परत चतपाय ५९ पानतपशयककडलकापनत- वपममान- तट लानयान्‍क न पा 5... 7 याद वाल किलनत+ "ता दिए 5 बयार ते ५77 एन यका पापा ननचकिले कया पतन कट स्कक्‍ कट लनन पक दस जा याई ही एन 


अमन ममिनम ि अ  पकल आ न 





वर्णमाला | 79 


कर उस के अ-रहित/अध॑ व्यंजन रूप को व्यक्त किया जा सकता है, यथा-ग्‌ प्‌ छ ह्‌ 
क ,फू्‌ र्‌ । शब्द-आरम्भ या शब्द-मध्य में अधे व्यंजन वर्ण आने पर अ-रहित उच्चा- 
रॉ ही होता है, यथा>-प्यार, पुस्तक । शब्दान्त/अक्षरान्त में पूर्ण वर्ण होने पर भी 
अ-रहित उच्चारण होता है, यथा-प्यार, पुस्तक [प्यार्‌, पुस्तक ] 
देवनागरी के मानकेतर वर्ण--मानक वर्णों के अतिरिक्त आजकल भी 
देवनागरी में कुछ अन्य पुराने वर्ण-रूप प्रचलित हैं जिन्हें मानक वर्णों की तुलना 
में मानकेतर कहा जाएगा । मानकेतर वर्णों की जानकारी पुराने साहित्य के वाचन 
की दृष्टिट से आवश्यक एवं उपयोगी है । इन के लेखन के अभ्यास की आवश्यकता 
नहीं है । मातकेतर वर्णों का मानक रूप कोष्ठक में लिखा गया है, यथा--- 
अगझा ऋ झो ओऔदश्र अर: 
(अ आ ऋ ओ औ अं अः) 
खछुमभीेणघम ण शक्षरों 
(ख छझणधभलशक्षकज्ञ) 
की छू थे ज्य दु डे क्रत्तक्त हु श भ य ब्बह्य ह्नआदि। 
(क्क डक उत्र ज्ज टूट डड त्त त्त क्त दूद दम दूभ दय ब्ब हम हल) आदि । 
उपयु क्‍त अनेक मानकेतर संयुकताक्षरों/संयुक्‍त वर्णों में मूल वर्णों के अस्तित्व 
का पता सरलता से नहीं चल पाता था। मुद्रण और टंकण के अतिरिक्‍त लेखन में 
भी काफी परेशानी होती थी और कभी-कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता था, 
यथा--खाना, खा को 'खाना/खाना?, 'खा/खा' दोनों प्रकार से पढ़ा जा सकता था । 
कुछ मानकेतर वर्णों में संरचक रेखाओं ($500/:58) की संख्या भी अधिक है । 

: देवनागरी वर्णों में सुडोलता बनाए रखने के लिए सुलेख-अभ्यास हेतु आरम्भ 
में पाँच पंक्तियोंवाली पुस्तिका पर लेखन-अभ्यास किया/कराना चाहिए। इन में 
ऊपर, नीचे की दो-दो पंक्तियों के मध्य का स्थान मात्रा-चिह नों के लिए होता है । 
कुछ अभ्यास होने/करने के बाद तीन पंक्तियों में और बदधद में एक पंक्ति पर लेखन 
किया जाए। अच्छा अभ्यास हो जाने के बाद ही बिना पंक्ति के कागज पर 
लिखा जाए। द 

देवतागरी-वर्णों का प्रयोग तथा प्रकार्य--लिखित वर्णों का प्रयोग वाचन के 
लिए होता है| हिन्दी के कुछ क्षेत्रों में अ! का वाचन 'ऐ/आ' जैसा करने के कारण 
कमल को के में लैजू॑कमल या का मा ला 5 कमल बोलते हैं! ऐसा बोलना 
अज्ञानता/अल्प ज्ञान का सूचक है। कमल” को क म लज-कमल कहना ही 
शुद्ध है । 

शब्द-आदि में तथा उपसर्ग के बाद शब्द-मध्य में 'अ' लिखा जाता है 
यथा--अपना. सुअवसर । सूअर, कुअर (<कुआरा)/कुवर (<: कुमार) जैसे दो 
चार शब्दों के मध्य में अ! लिखा जाता है | शब्दान्त में अ' का श्रयोग नहीं होता। 








80 | हिन्दी का विवरणा त्मक व्याकरण 


आ, इ, ई, उ, ऊ में केवल 'इ, उ' का शब्दान्त में प्रयोग नहीं होता । 
बोलियों के शब्दों में इन का लेखन हो सकता है। ये सभी वर्ण शब्द-आरम्भ, शब्द- 
मध्य में आ सकते हैं। आ, ई, उ, ऊ के मात्रा-चिह न शब्दों के मध्य, अन्त में लिखे 
जा सकते हैं, केवल 'इ” का मात्रा-चिहू न शब्द के आरम्भ में (यथा--कि, हिन्दी) 
लिखा जाता है । 

ऋण" वर्ण तथा इस के मात्रा-चिह न का प्रयोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों 
के लेखन में ही होता है। 'ऋ से युक्त शब्दों का वाचन (और उष्च्चारण भी) मानक 
हिन्दी में रि' है। विन्ध्याचल के दक्षिण की विभिन्‍्त भाषाओं में इस का मानक 
वाचन (और उच्चारण भी) रु माता जाता है | हिन्दी की कुछ बोलियों में इस का 
वाचन 'र भी है । इस अकार आज भारत की किसी भी' भाषा में “ऋ' का मूल 
स्वर रूप प्राप्त नहीं है। वास्तव में पाणिनि के काल में ही “ऋ, लु मूल स्वर नहीं 
रह गए थे, इसीलिए पाणिनि ने दोनों को अष्टाध्यायी में मूल स्वरवाले पहले सृत्र 
अइउण्‌' में न रख कर दूसरे सूत्र ऋलुक्‌ में रखा है। ॥श0ा6ां08 गा 4॥णंथा। 
पाता में इस के अनुमानित उच्चारण-समय का विभाजन इस प्रकार किया गया 


है--.- हा या का पर गुण सन्धि में ऋ 'र' में परिवर्तित है और “र' व्यंजन है। इस 


प्रकार ऋ वर्ण 'र' के साथ मूल स्वर 'अ|इ|उ' की मात्रा का युक्त रूप है, जैसे अन्य 
व्यंजनों में स्वरों की मात्राएँ जड़ती हैं । 

ए, ऐ, ओ औ वर्ण तथा इन के मात्रा-चिह न शब्द-मध्य और शब्दान्त में 
आते हैं। मात्रा-चिह्‌ न शब्द-आरम्भ में नहीं आते। हिन्दी-इतर भाषी लोगों को 
ए, ऐ वर्ण तथा इन के मात्रा-चिहून परेशानी पैदा करते हैं। अच्छा रहता यदि 

ए, ऐ पर भी ओ, औ” की भाँति एक, दो मात्रा-चिह न होते । ओ, औ' वर्णों का 

. अ! वर्ण पर मात्रा-चिह न लगा कर निर्माण करना अवैज्ञानिक है । 
. अं, अः से व्यक्त होनेवाली ध्वनियों को अनुस्वार, विसर्ग कहा जाता है 
क्योंकि ये ध्वनियाँ स्व॒रों की भाँति अबाध रूप से उच्चरित नहीं होतीं, किन्तु इन का 


प्रयोग स्व॒र-वर्णों के मात्रा-चिह नों की तरह दूसरे व्यंजनों के साथ किया जाता है, 


 यथा--पंखा, अंगूर, कंचन, डंडा, चंपक, बंधन, अतः, प्रायः आदि । ये दोनों 
ध्वनियाँ अन्य व्यंजनों की भाँति स्वरों के पूवं न आ कर स्वरों के बाद ही आती 
_ हैं। चू कि ये दोनों ध्वनियाँ पूर्णतः: न तो स्वरों से मिल पाती हैं और न व्यंजनों से, 


इसलिए इन्हें अयोगवाहु (अ- नहीं, योग > मेल, वाह -- वहन करना/रखना) कहा 


- जाता है। 


.. का ध्वन्यात्मक मुल्य भी पाँच प्रकार का है--हछू , ज्य , णू, न्‌, म्‌ । स्वर से पूर्व आने 
. पर अनुस्वार संस्कृत में म्‌' बन जाता है, यथा--सं--आहा र/उच्चय/[ईक्षा + 





अं का वाचन तीन प्रकार से किया जाता है--अम्‌अडः /अन्‌ । इस वर्ण 


रू 
॥ 
। 
के 








वर्णमाला | 8] 


समाहार, समुच्चय, समीक्षा । “अं वर्ण का मात्रा-चिह न () शिरोरेखा बिन्दु/शीर्ष 
बिन्दु (या बिन्दी) कहा जाता है। शब्द-आदि में केवल “अं” आता है, अम्यत्न () । 
अः वर्ण का मात्रा-चिह न (:) विसग॑ कहा जाता है। विस का प्रयोग केवल 
संस्कृत से आगत शब्दों के लेखन में होता है। विसर्गं-चिह न शब्द-आदि में नहीं 
आता, शब्द-मध्य, शब्दान्त में आता है। इस का वाचन (उच्चारण भी) अघोष हू 
की भाँति होता है । कं क्‍ द 
अनुनासिकता-युक्त स्वरों को लिखते समय () चन्द्रबिन्दु चिहन का प्रयोग 
किया जाता है, यथा--ऊ ट, आँधी । जब शिरोरेखा के ऊपर चन्द्रबिन्दु के अतिरिक्त 
पहले से ही कोई अन्य चिहू न और होता है, . तब चब्द्रबिन्दु के स्थान पर केवल 
शीर्ष बिन्दु का प्रयोग करते है, यथा--ईट, क्‍यों, में, आयों। आचाये किशोरीदास 
वाजपेयी, पं» सीताराम चतुर्वेदी आदि कई विद्वान प्रत्येक स्थिति में चन्द्रबिन्द-प्रयोग 
के समर्थक रहे हैं। मुद्रण, टंकण में अनुनासिक स्वर का शुद्ध रूप बनाए रखने के 
लिए शीष॑-शुन्य/शिरो रेखा शुन्य (--) का व्यवहार विभिन्‍न परेशानियों को दूर करने में 
अति सहायक सिद्ध होगा । उत्तर भारत (तथा अन्य क्षेत्रों) से प्रकाशित कई समाचार 
पत्न-पत्रिकाएँ प्रत्येक स्थिति में चन्द्रबिन्दु केः स्थान पर शी्ष॑ंबिन्दु का प्रयोग कर 
अहिन्दी भाषियों के लिए ही नहीं (कभी-कभी हिन्दी भाषियों के लिए भी) मानक 
वाचन की कठिनाई पेंदा करने लगी हैं । बे ः द 
.. संस्क्ृत-व्याकरण का अनुकरण करते हुए कुछ व्याकरण-प्रन्थों में हिन्दी की 
कई ध्वनियों को वर्णमाला में समाहित न कर केवल तीन वर्गों में देवनागरी वर्णमाला 
को विभाजित किया गया है, यथा--. स्पशै व्यंजन--क वर्ग (क खगघ डः), च 
वर्ग (चछजझ ज्य), ट वर्ग (टठ डढ ण), त वर्ग (त थ द ध न), प वर्ग (पफ 
ब भ म) 2. अन्तस्थ व्यंजन (य र ल व) 3. ऊष्म व्यंजन (श ष स ह)। यह वर्गीकरण 
संस्कृत-सन्धि व्यवस्था को समझने में अवश्य सहायक है किन्तु देवनागरी वर्णमाला का 
पूरा परिचय नहीं कराता । हे हि कर 
संस्क्रत-परम्परा का अनुकरण करते हुए कुछ व्याकरण-प्रन्‍्थों में 'क्ष त्र ज्ञ श्र 
का संयुक्त व्यंजनों के रूप में विशेष उल्लेख किया जाता है। वास्तव में इन में त्र/त/ 
रर, श्र|श्र जितने स्पष्ट संयुक्त रूप हैं, 'क्ष, ज्ञ| उतने ही जटिल रूप हैं और वैसा ही 
जटिल इन का वाचन (या उच्चारण) है।......््र्र्््ऱ़् हा 
व्यंजन वर्णों सें. 'ह, जय, ण, ड, ढ' शब्द-आरम्भ में नहीं आते । शेष सभी 
व्यंजन शब्द-आदि, शब्द-मध्य, तथा शब्दान्त में आते हैं। 'घ” का प्रयोग केवल 
संस्कृत से आगंत शब्दों के लेखन में ही होता है । हिन्दी भाषा में इस का वाचन 
(तथा उच्चारण) 'श्‌* बत्‌ है, इसलिए क--ष -- क्ष' का वाचन तथा उच्चारण 'क्श' 
(कुछ लोगों में कछ) वत्‌ होता है। 'क्ष' का लेखन केवल संस्कृत से आगत शब्दों में 


होता है, यथा--कक्षा, रक्षा, दीक्षा, क्षात्र, कक्ष आदि।..* 














80 | हिन्दी का विवरणा त्मक व्याकरण 


आ, इ, ई, उ, ऊ में केवल इ, उ' का शब्दान्त में प्रयोग नहीं होता । 
बोलियों के शब्दों में इन का लेखन हो सकता है। ये सभी' वर्ण शब्द-आरम्भ, शब्द- 
मध्य में आ सकते हैं । आ, ई, उ, ऊ के मात्रा-चिह न शब्दों के मध्य, अन्त में लिखे 
जा सकते हैं, केवल ह का मात्रा-चिहून शब्द के आरम्भ में (यथा--कि, हिन्दी) 
लिखा जाता है। 

ऋ" वर्ण तथा इस के मात्रा-चिह न का प्रयोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों 
के लेखन में ही होता है। 'ऋ से युक्त शब्दों का वाचन (और उच्चारण भी) मानक 
हिन्दी में रि! है। विन्ध्याचल के दक्षिण की विभिन्‍न भाषाओं में इस का मानक 
वाचन (और उच्चारण भी) रु माना जाता है। हिन्दी की कुछ बोलियों में इस का 
वाचन 'र' भी है । इस प्रकार आज भारत की किसी भी भाषा में ऋ' का मूल 
स्वर रूप प्राप्त नहीं है। वास्तव में पाणिनि के काल में ही “ऋ, लु मूल स्वर नहीं 
रह गए थे, इसीलिए पाणिनि ने दोनों को अष्टाध्यायी में मूल स्वरवाले पहले सूत्र 
अइउण्‌' में न रख कर दूसरे सूत्र ऋलूक में रखा है। ॥?#076008 470 4॥0ंशा॥४ 
एपता4' में इस के अनुमानित उच्चारण-समय का विभाजन इसे प्रकार किया गया 


है--.77 रा णण जे गुण सन्धि में ऋ “र' में परिवर्तित है और “र' व्यंजन है । इस 


प्रकार ऋ वर्ण 'र' के साथ मूल स्वर अ/इ/|उ की मात्रा का युक्त रूप है, जैसे अन्य 


व्यंजनों में स्वरों की मात्राएँ जुड़ती हैं । 
ए, ऐ, ओ औ वर्ण तथा इन के मात्रा-चिह न शब्द मध्य और शब्दान्त में 
आते हैं। मात्रा-चिह न शब्द-आरम्भ में नहीं आते । हिन्दी-इतर भाषी लोगों को 
ए, ऐ वर्ण तथा इन के मात्रा-चिहू न * परेशानी पैदा करते हैं। अच्छा रहता यदि 
ए, ऐ पर भी ओ, औ” की भाँति एक, दो मात्रा-चिह न होते । भो, औ'” वर्णों का 
अ' वर्ण पर माता-चिहु न लगा कर निर्माण करना अव॑ज्ञानिक है । द 
अं, भः से व्यक्त होनेवाली ध्वनियों को अनुस्वार, विसर्ग कहा जाता है 


क्योंकि ये ध्वनियाँ स्वरों की भाँति अबाध रूप से उच्चरित नहीं होतीं, किन्तु इन का _ 


प्रयोग स्व॒र-वर्णों के मात्रा-चिह नों की तरह दूसरे व्यंजनों के साथ किया जाता है, 


यथा--पंखा, अंगूर, कंचन, डंडा, चंपक, बंधन, अतः, प्रायः आदि | ये दोनों 


 ध्वनियाँ अन्य व्यंजनों की भाँति स्वरों के पूव न आ कर स्वरों के बाद ही आती 
हैं। च्‌कि ये दोनों ध्वनियाँ पुणंत: न तो स्वरों से मिल पाती हैं और न व्यंजनों से, 

इसलिए इन्हें अयोगवाह (अ>>नहीं, योग > मेल, वाह" वहन करना/रखना) कहा 
जाता है। 

. अं का वाचन तीन प्रकार से किया जाता है--अम/|अडः /अन्‌ू । इस वर्ण 


. का घ्वन्यात्मक मूल्य भी पाँच प्रकार का है--छ, व्यू, णू, न्‌, मू । स्वर से पूर्व आने. 


. पर अनुस्वार संस्कृत में म्‌' बन जाता है, यथा--सं--आहार/उच्चय[ईक्षान८ 





“ड+7 २० हपरड सनक पर 4८८2 _- सर -वव्रक्षत कक 2० कलन्‍च- ५“ “तन “कम-55 च्मापडस 


तय उमारकपरशुपापकहउरास आपका उक- ८ पटलिकलन सर <न्‍ कप 











वर्णमाला | 8] 


समाहार, समुच्चय, समीक्षा । “अं वर्ण का मात्रा-चिह न () शिरोरेखा बिन्दु/शीर्ष 
बिन्दु (या बिन्दी) कहा जाता है। शब्द-आदि में केवल “अं” आता है, अम्यत्र ()। 
अ: वर्ण का मात्रा-चिहू न (:) विसर्ग कहा जाता है। विसर्ग का प्रयोग केवल 
संस्कृत से आगत शब्दों के लेखन में होता है । विसर्ग-चिह्‌ न शब्द-आदि में नहीं 
आता, शब्द-मध्य, शब्दान्त में आता है। इस का वाचन (उच्चारण भी) अधघोष हू! 
की भाँति होता है । कं द 
अनुनासिकता-युक्त स्वरों को लिखते समय (*) चन्द्रबिन्दु चिहू न का प्रयोग 
किया जाता है, यथा--ऊ ट, आँधी । जब शिरोरेखा के ऊपर चन्द्रबिन्दु के अतिरिक्त 
पहले से ही कोई अन्य चिह न और होता है, तब चब्द्रबिन्दु के स्थान पर केवल 
शीष॑बिन्दु का प्रयोग करते है, यथा--ईट, क्‍यों, में, आयों। आचाय॑ किशोरीदास 
वाजपेयी, पं० सीताराम चतुर्वेदी आदि कई विद्वान प्रत्येक स्थिति में चन्द्रबिन्दु-प्रयोग 
के समर्थक रहे हैं। मुद्रण, टंकण में अनुनासिक स्वर का शुद्ध रूप बनाए रखने के 
लिए शी्ष-शुन्य/शिरोरेखा शून्य (--) का व्यवहार विभिन्‍न परेशानियों को दूर करने में 
अति सहायक सिद्ध होगा । उत्तर भारत (तथा अन्य क्षेत्रों) से प्रकाशित कई समाचार 
पत्र-पत्निकाएँ प्रत्येक स्थिति में चन्द्रबिन्दु के स्थान पर शीष॑बिन्दु का प्रयोग कर 
अहिन्दी भाषियों के लिए ही नहीं (कभी-कभी हिन्दी भाषियों के लिए भी) मानक 
वाचन की कठिनाई पैदा करने लगी हैं । का क्‍ 
संस्कृत-व्याकरण का अनुकरण करते हुए कुछ व्याकरण-प्रन्थों में हिन्दी की 
कई ध्वनियों को वर्णमाला में समाहित न कर केवल तीन वर्गों में देवनागरी वर्णमाला 
को विभाजित किया गया है, यथा--. स्पश व्यंजल--क वर्ग (क खगघछ-), च 
वर्ग (च छ ज झ जग), ट वर्ग (टठ डढ़ ण), त वर्ग (त थ द ध न), प वर्ग (पफ 
ब भ भ) 2. अन्तस्थ व्यंजन (य र ल व) 3. ऊष्म व्यंजन (श ष सह) । यह वर्गीकरण 
संस्कृत-सन्धि व्यवस्था को समझने में अवश्य सहायक है किन्तु देवनागरी वर्णमाला का 
पूरा परिचय नहीं कराता । द के हा 
संस्कृत-परम्परा का अनुकरण करते हुए कुछ व्याकरण-प्रन्धों में क्ष तर ज्ञश्रा 
का संयुक्त व्यंजनों के रूप में विशेष उल्लेख किया जाता है। वास्तव में इन में त्र/त्र/ 
तर, श्र/श्र जितने स्पष्ट संयुक्त रूप हैं, 'क्ष, ज्ञ! उतने ही जटिल रूप हैं और वसा ही. 
जटिल इन का वाचन (या उच्चारण) है । जा मा हे 
. व्यंजन वर्णों में डा, ज्य, ण, ड़, ढ़' शब्द-आरम्भ में नहीं आते। शेष सभी 
: व्यंजन शब्द-आदि, शब्द-मध्य, तथा शब्दान्त में भाते हैं। 'ब” कः प्रयोग केवल 
संस्कृत से आगंत शब्दों के लेखन में ही होता है । हिन्दी भाषा में इस का वाचन 
(तथा उच्चारण) 'श' वत्‌ है, इसलिए क्‌ू--ष - क्ष! का वाचन तथा उच्चारण 'क्श 
(कुछ लोगों में कछ) वत्‌ होता है। 'क्ष” का लेखन केवल संस्कृत से आगत शब्दों में... 
होता है, यथा--कक्षा, रक्षा, दीक्षा, क्षात्र, कक्ष आदि।......्््र्र्र्र््रः 
हा हक आप शी 8 














82 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


'घ से युक्त कुछ शब्द हैं--षद्‌, षड़यन्त्र, पड़ऋतु, षष्मुख, षडानन, षट्कोण, 


घषोडश, षोडशी; षष्ठि, निष्कपट, निष्पाप, निष्फल, नष्ठ (<नश--त), प्रविष्ट 
(< प्र--विश्‌ --त), ऊष्म, ईर्ष्या, विष्णु, सहिष्णु । द द 

ज्ञ (< ज्व्य) का प्रयोग केवल संस्कृत से आगतं शब्दों के लेखन में ही होता 
है । हिन्दी के अपने किसी शब्द में 'व्य' का व्यवहार नहीं होता । इसलिए न्ञ का 
वाचन और उच्चारण “गय” वत्‌ होता है। 'जश्ञ के निकट कोई नासिक्य' ध्वनि आ 
जाने पर इस का वाचन तथा उच्चारण “गँ बत्‌ होता है, यथा--यज्ञ, अज्ञ [यग्ग्य 
अग्य |, ज्ञान, विज्ञान [ग्याँग्‌, विग्ग्यॉन]। कुछ लोग इस का वाचन तथा उच्चारण 
ज्यं बत्‌ भी करते हैं, यथा--यज्ञ | यज्ज्य | 


(:) विस चिह नों का प्रयोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों के लेखन में ही' 


होता है। हिन्दी का अपना कोई शब्द विसगंयुत नहीं है, अतः छह को छ: लिखना 
गलत है। संस्कृत के सभी विसर्गान्‍्त शब्दों का वाचन, उच्चारण हान्त वत्‌ होता है, 
यथा--पुनः, वस्तुतः, पूर्णतः, अतः, प्राय: [पुनह, वस्तुतह , पूर्णतह , अतह प्रायह | 
हिन्दी में संस्कृत के अनेक शब्द विसर्ग (-स कारात्त) हटा कर ग्रहण कर लिए 


गए हैं, यथा--तप< तप: (तपस), तम< तमः (तमस्‌ू), नभ<नभः (नभस्‌), मन 


< मनः (मनस्‌), यश< यशः (यशस्‌), सिर< शिरः (शिरस) | प्रातः, प्रातःकाल में 


विसर्ग का स्पष्ट उच्चारण है किन्तु संस्कृत दुःख को अब लोग बिना विसग्ं के ही 


बोलते हैं और प्राय: 'दुख' ही लिखने लगे हैं । 


(.) का प्रथोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों के लेखन में ही होता है।।... 


हिन्दी के अपने किसी शब्द में “ऋ के मात्रा-चिह न का प्रयोग नहीं होता। श' का 
अधे व्यंजन (४) है। पुरानी नागरी में यह (श्र) था, यथा--काशथ्रत (काश्त), शयाम 
(श्याम) | श--ऋ| >श्यू (श), श--र"-"श्र. (श्र/श्र) । टंकण कल में अल न 
होने के कारण श्वगार लिखना या छापना अशुद्ध है। इसे श्यृगार या शुगार 
लिखना ही उचित है।.. -+. 

(-:) शिरोरेखा-बिन्दु/शीर्ष-बिन्दु का प्रयोग तीन प्रकार की ध्वनियों को 


.. सूचित करने के लिए होता है, यथा-- () वर्गीय नासिक्य ध्वनि को व्यक्त करने के 


लिए विकल्प से, जेसे--पंखा (पडः खा), चंचल (चव्चल), अंडा (अण्डा), कु दन 
(कुन्दन), संभाषण (सम्भाषण) । (2) अनुस्वार ध्वनि को व्यक्त करने के लिए 
यथा--संयम्र, संरचना, संलाप, संवाद, वंशी, संसार, संहार। विशुद्ध अनुस्वार 
ध्वनिवाले शब्द केवल संस्कृत से आगत शब्द ही हैं, अतः इन में शिरोरेखा-बिन्दु का 
ही प्रयोग किया जाता है। (3) शिरोरेखा के ऊपर कोई अतिरिक्त चिह न होने पर 


हे अनुनासिकता की ध्वनि को व्यक्त करने के लिए चन्द्रबिन्दु के स्थान पर केवल बिन्दु| 
...... शीर्ष बिन्दु का प्रयोग किया जाता है, यथा--ईधन, में, हैं, क्यों, भौं, कर्मों । लिखू- _ 
पा थे लिखें, कुआँ-कुओं, चिड़ियाँ-चिड़ियों में अनुनासिकता के लिए दुहरे लिपि-चिह तों का _ 





नम अं 





वर्णमाला | 83 


प्रयोग चिन्तनीय है। हिन्दी-शब्दों के अन्त में केवल अनुनासिकता ही आती है । 
शब्दान्त में नासिक्य व्यंजन वर्णों का पूर्ण रूप लिखा जाता है, केवल एवं, स्वयं 
(एवम्‌, स्वयम्‌) में शिरोरेखा-बिन्दु का प्रयोग होता हा | द 
वा, ण का श्रयोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों में ही मिलता है । लेखन 
में इन के अर्ध रूप के स्थान पर शिरोरेखा-बिन्दु का प्रयोग बढ़ चला है। ह का 
प्रयोग यद्यपि हिन्दी के शब्दों में भी प्राप्त है, तथापि लेखन में इस के अर्ध रूप के 
स्थान पर शिरोरेखा-बिन्दु का प्रयोग बढ़ चला है। न, मं का प्रयोग अन्य नासिक्य 
ध्यंजन वर्णों की अपेक्षा बहुत अधिक होता है। इन के अध॑ रूप के लिए शिरोरेखा- 
बिन्दु का प्रचलन अभी विकल्प से, तथा कुछ कम ही है। संस्कृत से आगत कुछ 
शब्दों के लेखन में शिरोरेखा-बिन्दु का प्रयोग न हो कर केवल अर्ध पंचमाक्षर का ही 
प्रयोग होता है, यथा--मृण्मयी, तन्मय, वाडः मय आदि । द 
देवनागरी-लेखन में बर्ण-संयोजन दो प्रकार का होता है--. व्यंजन-|-स्वर 
2. व्यंजन--व्यंजन, यथा--क [क्‌]-अ८"-क, क--आ|इ (/) न|का/कि; क-+- 
क --क्-क कक । कक ज॑से संयोजन को संयुक्ताक्षर रूप भी कहा जाता है । 
एकाकी' वर्ण को सरलाक्षर कह सकते हैं, यथा--अ आ क गे आदि । 'अ' का मात्रा 
चिहन न होने से और हिन्दी में अ-लोप के साथ उच्चारण होने के कारण हिन्दी 
शब्दों में समस्त व्यंजन वर्णों के दो-दो ध्वन्यात्मक मुल्य (7॥07600 ९4०९४) हैं-- 
. 'अ-सहित, यथा--'कमला' का 'क” अ-सहित (क-- अ) है 2. 'अ-रहित, यथा--- 
'तमक का के अ-रहित (क-अ) [क] है। | 
संयुक्त व्यंजन के रूप में 'र! के तीन रूप प्रचलित हैं-- . र_-+-व्यंजन-- 
व्यंजन, यथा--कर॒म, बर्र"-कर्म, बर॑ 2. लघु खड़ी पाई के अतिरिक्त अन्य 
व्यंजन रव्यंजन- यथा--उरर, चक्र--ऊग्न, चक्र (वास्तव में यह देवनागरी 
की अपनी कमी है क्योंकि यहाँ पूर्ण 'र” के स्थान पर अध॑ र्‌ का प्रयोग किया जा 
रहा है) 3. लघु खड़ी पाईवाले व्यंजन (यथा--छ ट ठ ड ढ़ द)--र - व्यंजन -- 
» वा“दाप्टूर, ड्रामा >राष्ट्र, ड्रामा (यह भी देवनागरी की अपनी कमी है 
क्योंकि यहाँ पूर्ण 'र के स्थान पर अध॑ र्‌ का प्रयोग किया जा रहा है) । | 
संयुक्ताक्षरों फे साथ 'इ” की मात्रा () का लेखन--वुद्धि, समृद्धि, 
बुद्धि, चिह नित, चिट्ठियाँ, स्थिति, परिस्थिति, शक्ति आदि को बुद्धि, वृद्ध, 
स्थिति, शक्ति” जैसा लिखना अशुद्ध है क्योंकि दि” में एक साथ दो मात्रा-चिह नों 
(_अ-लोप चिह न, >5३) का प्रयोग सिद्धान्ततः तथा व्यवहारत: अशुद्ध 
ठहरता है। द्‌ का (शब्दान्त में) अलग से अस्तित्व ('शरद्‌, परिषद्‌ में) प्राप्त है, 
अतः दूध संयुक्‍ताक्षर है न कि एक पूर्ण वर्ण । 'द्‌ की भाँति 'क्‌, स्‌' तो शब्दान्त में 
आप्त हैं, यथा--वाक्‌, तेजस्‌! किन्तु '१९ नहीं । आरम्भिक कक्षाओं के हिन्दी... 
सीखनेवाले छात्र 'बु दि ध, व्‌ द्‌ ध, स्थि ति” आदि के वाचन में अत्यन्त कठिनाई 











84 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


का अनुभव करेंगें। बुद्‌ धि, वृदू थि” में अक्षर-विभाजन भी स्पष्ट है, जब कि 
'स्थिति, शक्ति' में अस्पष्ट है । द ््ि 

द संयकताक्षर/संयुकत वर्ण--ऐसे दो या अधिक व्यंजन वर्ण जिन के मंध्य 'अ 
लुप्त रहता है संयोगी/संयुक्त व्यंजन या वर्ण कहलाते हैं। इन्हें संयुक्ताक्षर भी कहा 
जाता रहा है। हिन्दी में प्राप्त संयुक्ताक्षर ये हैं--- 


क--क्क, कख, कवच, कत, कम, क्‍्य, वर/क्र, कल, क्व, वष/क्ष, क्ट्र/क्ट्र, क्श, कस 


ख--ख्य, रर|्थ्र 
ग--ग्ग, ग्घ, गण, ग्द, ग्ध, ग्ने, ग्प. ग्म, ग्य पर/ग्र ग्ल, ग्ब, ग्न्य भ्भ्रा भर 
घ--ध्न, ध्य, धर/क्र 
इ--डझक, डुख, हुग, डुूघ, हम, हकक्‍त, डसर्य, ठारर/हग्र 
च--च्च, च्छ, च्य, च्छव 
छ--छ र/|छ 
ज--ज्ज, ज्ञ, ज्ञ्ञज्ञि, ज्य, ज्र/ज्र, ज्व 
ब्ा-ज्व, वुछ, जज, उझ 
ट-“दूट, दूठ, दूय, ट्र/ट्र, ट्ब 
. 5--ढय, द्र|दि 
ड-डग, डड, डढ, डम, ड्य, ड्र/ 
ढ--ढूय, ढर/ढ 
ण्‌--ण्ट, ण्ठ, एण्ड, णढ, ण्ण, ण्म, ण्य, ण्व, ण्ठय, ण्डय ण्ड्र/ ड़ 


तत्क, त्ख, त्त, त्थ, त्न, त्प, त्फ, त्म, त्य, त्र,(व्रि/व, त्ल, त्व, त्स, त्क्ष, 


स्तर, त्म्यं, त्स्न, त्त्य' व्यत्र्य द 
..  थ--थ्य, थ्र/थ, थ्व... ह ४ 
द--दूग, दूघ, दृद, दूध, दन, दव, दुभ, दम, दय, द्र/द्‌, दव, दृभ्र/द्श्र : 
ध--ध्न, ध्म, ध्य, धर, श्र, ध्व द 
द न--न्त, न्‍थ, न्‍्द, न्ध, न्‍न, नम, नव, नस, (नह), न्त्व, न्दय, न्ध्र, न्सप, 
न्द्र/न्द्र, न्ध्य, न्त्र, न्‍न्दय॑, न्त्य, न्व्य, न्‍ज | 
.. प+प्त, प्न, प्प, प्म, प्य, प्र प्र, प्ल, प्स, प्त्य 
_ फ-फ्य से द 
ब--ब्ज, ब्त, ब्द, ब्ध, ब्त, ब्ब, व्यू, ब्य, बर,त्र, ब्ल, ब्श, ब्जू 
भ-भ्न, भय, भर/भ्र 
म---म्त, म्द, म्न, म्प, म्फ, सब, म्भ, सम, मय, मर|म्रै, म्ल, म्व, (म्ह) 
| प्प्य, म्प्रम्प्रि... 
उट यनन्‍नय्य 
र--र्‌क/के, रृख/खं, र्‌ग/गं, र॒ध/घं, रृच/च, रुछ/छ, र॒ज/जं, र॒झ|शे, र्‌टटें, 


.. र्‌ड॑ड, रुणर्ण, रृत/त, रृथ/यं, रृददे, रृधध, र॒त|नं, र॒पप, रुब/बं; र॒भ[भें, रुम/मं, 


् 





वर्णमाला | 85 


र्‌य/य, र्र/रं, र॒ल/ले, र॒ुव/वं, र॒श/शं, रृष/षं, र॒स/प्े, रह/ह, रुक/क, रख/ख 
र॒ग|ग्‌, रज/ज्‌ , र॒फ/फ; र॒फ्य/फयं, र॒दर/द्र, रृध्व/ध्व॑ र॒त्स/त्स, र॒भ/भ्रें, रख/खं, 
रृष्य|ष्ये, र॒त्स्य/त्स्ये 

ल--ल्‍क, लग, लच, लछ, ल्‍ट, लल्‍ड, लत, लथ', लव, एप, ल्फ ल्ब, 
ल्‍ल, लव, लस, लल्‍जू, लफ 

ब---व्य, व्व, टरतव्र 

श-श्क, श्च, शछ, श्त, श्च, श्म, श्य, श्र|श्र, श्ल, श्व, श्श, श्क 

प--७्क, एट, 55, एण, ष्प, एम, ष्य, ष्व, ष्ट्रष्ट्र, प्य, प्परष्प्र 

स-- स्क, स्ख, सज, स्ट, स्त, स्थ, रद, सन, स्प, स्फ, सब, सम, स्य स्र/स्र,. 
स्‍ल, स्व, स्स, स्ख, स्थ्य, स्त्र/स्त्र/स्त्र द 

ह- हनन, हू म, हू य, ह्‌ र/ह, हल, हव 

क्ष+-क्ष्म, क्षण, क्ष्य, क्षव 

क--व,.त, कफ, कल, कश, क्स 

खू-रू.त, ख्म, रूय, रुूव, रुश 

शूट स 

0 आल 0 ज्ब, ज्म, ज्य 

फू--पट, फ्त, पर/फ्र फ्ल, फ्य, फजु, फफ 

देवनागरी अंक--१, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८५, €, ० 


ल्‍्भ, लम, लय, 











8 


बरतनी 


किसी भाषा के शब्दों में ध्वनियों का जिस क्रम से प्रयोग होता है, उस ध्वनि 


क्रम को उस शब्द की वर्तती ($7०॥॥78) कहते हैं । वर्तनी (5-शब्द के उच्चरित 
रूप का अनुवतंन को अक्षरी/हिज्जे|वर्ण-विन्यास भी कहते हैं। लिखित शब्दों में 
ध्वनियों का स्थान ध्वनियों के प्रतीक (अर्थात्‌ वर्ण) ले लेते हैं; अतः शब्द विशेष के 
लेखन में वर्ण-संयोजन के क्रम को अक्षरी|वर्ण-विन्यास' कहा जाता है । 


प्रत्येक भाषा की अपनी वतनी-व्यवस्था होती है, यथा--अँगरेजी, पुट्‌, बद्‌ 
उच्चरित शब्दों का वर्ण-विन्यास है--90०४, 9०. वर्णों के संयोजन-क्रम में अन्तर होने... 


से वततनी-भेद/शब्द-भेद हो जाता है, यथा--र स ॥ के विविध संयोगों से 'रसा, सार, 
सारा, रास, सरस, सारस शब्दों का निर्माण हो जाता है। 


वर्तती के स्तर पर 'लिखित भाषाएँ” परम्परा से अधिक नियन्त्रित रहती हैं, 


यथा--पुट्‌, बट्‌, ब्रिज, चॉक, राइट शब्द अगरेजी में 970, 0पा, 0008०, थाथए, 


78॥0/ण9776 लिखे जाते हैं। तेलुगु और कन्‍्नड़ शब्दों में अर्धे संयुक्ताक्षर पूर्ण व्यंजन 


वर्ण के रूप में और पूर्ण व्यंजन अर्ध व्यंजन वर्ण के रूप में लिखे जाते हैं, यथा--- 


दुः्धालय, विद्वान में “, द्‌ पूर्ण व्यंजन वर्ण लिखे जाएँगे, 'ध, व अध्धे व्यंजन 


वर्ण । हिन्दी के कुछ शब्दों में पूर्ण 'र॒ व्यंजन अर्धे व्यंजन वर्ण के रूप में लिखा 

जाता है, यथा--प्रेम, द्रव, ड्रामा (प्रेम, दुख, डरामा)। स्पष्ट है कि कोई व्यक्ति 

. परम्परागत वतंनी में स्वेच्छा से परिवर्तेत नहीं कर सकता । भाषा विशेष का समाज 

ही बतेनी की उन कमियों को दूर कर सकता है, जिन्हें कोई व्यक्ति संकेतित 
करता है । _ 


भाषाओं के उच्चरित रूप में जितनी जल्दी परिवतंन होता है, उतनी जलल्‍दी' 


.._ लिखित भाषाओं में परिवतंन नहीं हो पाता|नहीं किया जा सकता। यान्त्रिक सुविधा- 
.... असुविधा आदि के कारण भी ऐसा सम्भव नहीं हो पाता । यही कारण है कि सैकड़ों 


86 








वंतेनी | 87 


वर्षों से लिखी चली आ रही जीवित भाषाओं के उच्चरित और लिखित रूप में शत- 
प्रतिशत साम्य नहीं हुआ करता । अन्तर की मात्रा का थोड़ा-बहुत भेद विभिन्‍न 
भाषाओं में होता ही है। कहा जा सकता है कि परम्परागत लिपियों में लिखी चली' 
आ रही भाषाओं के उच्चारण/वाचन और लेखन में शत-प्रतिशत साम्य नहीं होता । 

प्रचलित भाषाओं में दो प्रकार की वरंनी देखी जा सकती है---, उच्चारणा- 
नुगामी वर्तती उच्चारण के ध्वनि-क्रम का यथावत्‌ अनुसरण करती है, यथा---आओ, 
बैठो; लीची खाओ [आओ, बैठो; लीची खाओ] 2. परम्परानुगामी वर्तती उच्चारण 
के ध्वनि-क्रम का यथावत्‌ अनुसरण नहीं करती । उच्चारण और लेखन का यह अन्तर 
कभी कम और कभी अधिक हुआ करता है, यथा--क्योंकि, हनुमान, डाकघर, ऋषि, 
. रहना [क्योंर्का, हँनुमाँनू, डाकूघर्‌, रिरश्‌ल, रैह नाँ]। अन्य भाषाओं की भाँति हिन्दी 
भाषा की लेखन/वर्तनी-व्यवस्था में दोनों प्रकार के वर्तनी-रूप प्राप्त हैं । 

.. इतर भाषाओं से आगत शब्द अर्थात्‌ ज्रोत और प्रक्नृति-प्रत्यय-उपसर्गादि के 
योग से नि्चित शब्द/शब्द-सिद्धि की दृष्टि से भी वत॑नी के सम्बन्ध में विचार किया 
जाता है। इतर भाषाओं से आगत और निर्मित शब्दों में से कुछ शब्द उच्चारणानुगामी 
वर्तनीवाले हो सकते हैं और कुछ परम्परानुगामी वरतेनीवाले, यथा--जनवरी, मार्च, 
खुदा, दोसा, कानूनी; खू दा, कानूनी, गए, गई, दुबारा, दुख, तेतीस; गये, गयी, 

दोबारा, दुःख, तेंतीस आदि । कल 
जिस प्रकार भाषा-व्यवहार में शुद्ध/परिनिष्ठित उच्चारण का महत्त्व है, 
उसी प्रकार शुद्ध|परिनिष्ठित/|मानक वर्तंबीयुत लिखित भाषा का महत्त्व है । शुद्ध 
वर्तनी-युत भाषा का अर्थ स्पष्ट होने में कठिनाई नहीं होती, किन्तु अशुद्ध वर्तनीयुत 
भाषा का अर्थे या तो अस्पष्ट रहता है या उस से अनर्थ/विपरीतार्थ उत्पन्न हो सकता 
है । अशुद्ध वर्तनी से भाषा-बोध में भ्रम उत्पन्त हो जाता है; पत्र, तार आदि कहीं- 
_ के-कहीं पहुँच जाते हैं; भाषा का सौष्ठव भी विक्रत हो जाता है, यथा---पेर की दाल 
पर चिरिया; बढ़ियाँ सारी; कार खाना (पेड़ की डाल पर चिड़िया; बढ़िया साड़ी; 
कारखाना) । द 
. भाषा विशेष की. ध्वनियों और ध्वन्ति-प्रतीकों (वर्गों) में जितना नियमित 
सम्बन्ध होता है, वर्तनी शुद्धि की उतनी ही अधिक सम्भावना रहती है। रोमन 
और अंगरेजी में यह सम्बन्ध बहुत अनियमित है। रोमन के कई वर्णों के ध्वन्यात्मक 
मूल्यों में पर्याप्त अन्तर है, यथा---6 (ए, ऐ, भा एय, था), 8 (ई, ए, 8 यू), 
व (आई, आय, इ, ई, अ), 0 (ओ, ओछ, आऑ, अ, ऊ, उ, आ, व्या, भाव), ए (यू, 


हक यो, ५ ), ९ (स्‌, क्‌्‌, शू, ध् ) ह (ज्‌, ग्‌, धर )) 5 (श्‌, स्‌, ज्‌,), हब (टू, 
थ्‌, ध्‌, द, शू, चू, 2 )। अनेक शब्दों में कई अनुच्चरित वर्णों का प्रयोग मिलता है, 
यथा--35, मे, 76, ।., 9, ७, ए, 7९, ५9,“ है ॥ ओर पलक 


यद्यपि देवनागरी लिपि अन्य कई भारतीय लिपियों की भाँति कुछ सीमा 


तक वैज्ञानिक है तथापि एक या एकाधिक कारणों के प्रभावस्वरूप हिन्दी भाषी और 











88 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अहिन्दी भाषी अध्येताओं के लेखन में वर्तनी सम्बन्धी विभिन्‍न प्रकार की त्र टियाँ 
हो जाती हैं। वर्तती-दोष और उन के कारण संक्षेप में ये हैं--. अशुद्ध उच्चारण- 
. परापत/प्रापत (प्राप्त), दूलहा (दूल्हा), इस्कूल/अस्कूल/सकूल (स्कूल), लखमन 
(लक्ष्मण), दोका (धोखा), थोरा (थोड़ा) आदि 2. लिपि का अपूर्ण ज्ञान---ऐसा 
. (ऐसा), जिमली (इमली), विदवान (विद्वान), मुफत (मुफ्त), पुन्य/पुय (पृण्य), 
रंगना (रंगना), गाँधी (गांधी/गान्धी), 3. असावधानी और अतिशीघ्रता---अकास्मिक 
(आकस्मिक), सैदव (सदेव), होगें (होंगे), टलिफोन (टेलीफोन), आदि 4. क्षेत्रीय 
प्रभाव--सँन्‍्स (साइन्स), सिटि (सिटी), हैकोटं/हायकोर्ट (हाईकोर्ट), टिप्पड़ीं (टिप्पणी), 
जजमान (यजमान), उल्सव (उत्सव), घमला (गमला) आदि 5. सादृश्य--बुरायी 
(बुराई), सीधासाधा (सीधासादा), नरक (नरक), सुष्टा (स्रष्टा) आदि 6. व्याकरण, 
शब्द-रचना तथा अर्थ-भेद का अपूर्ण/अनिश्चित ज्ञान--एकतारा (इकतारा), बकरीयाँ 
(बकरियाँ), कुत्तिया (कुतिया), निरप्राधी (निरपराध), चाहिएँ (चाहिए), प्राणीमात्र 
(प्राणिमात्र), गौर (गौर), नाज (नाजु), फन (फून) आदि । 


हिन्दी-वतंनी के मानकीकरण के लिए केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय तथा भारत 
सरकार के शिक्षा-मन्त्रालय की “वरतंनी-समिति ने कुछ नियम स्वीकार किए थे । 
इन नियमों में से कुछ में कहीं-कहीं विकल्प और कहीं-कहीं तकंहीनता है। यद्यपि 
कुछ सरकारी संस्थाएं इन नियमों का काफी मात्रा में अनुसरण कर रही हैं, किन्तु 


अधिकतर व्यक्तिगत लेखनादि में इन्न नियमों को पूर्णतः स्वीकार नहीं किया गया 
है। वर्तती के मानकीकरण के समय हिन्दी भाषा की प्रकृति (अश्लिष्टता), उच्चारण, . 


परम्परा, व्याकरण, शब्द-रचना, हिन्दी-शिक्षण प्रक्रिया (छोटे बच्चों और अहिन्दी 
भाषियों को आरम्भिक कक्षाओं में श्र तलेख लिख वाने आदि में), सरलता” का ध्यान 


रखना अत्यावश्यक है । इन सभी पक्षों का ध्यान रखते हुए यहाँ मानक हिन्दी-वर्तनी 


के कुछ नियस दिए जा रहे हैं-- 


. कारक-चिह न लेखन--सभी कारक-चिह नों को प्रत्येक स्थिति में 
सम्बन्धित शब्द से अलग लिखना एकरूपता और सरलता की दृष्टि से उचित है। 
घंज्ञा, स्थानवाची, कालवाची शब्दों से अलग ओर स्वेनाम शब्दों के साथ' मिला कर 


.. लिखने में, और यंदि दो कारक-चिह न एक साथ हों तो पहले को मिला कर और 


_ दूसरे को अलग लिखने का कोई ओचित्य नहीं है, यथा--श्याम को, यहाँ से, कमरे 


. में से, कल से, सोमवार को, मुझ से, उन्हों ने, तुम ने, इन में से (नकि मुझसे, ... 
.. उन्होंने, तुमने, इनमें से)। आप ही के लिए, मुझ तक को । (इस स्थिति में तो सबं-.. 
.... नामों के साथ कारक चिहन सटा कर लिखे ही नहीं जा सकते, अतः एक ही सरल 
-.. नियम का पालन तकं-संगत और उचित है, न कि तीन नियमों और उन के अपवादों 





- का अनुपालन) 


82:22: 25<4/274:: 25372 








बतेनी | 89 


| निपात-लेखन--- ही, भी, तो, तक' आदि निपातों को प्रत्येक स्थिति में 
सम्बन्धित शब्द से अलग. लिखना एकरूपता तथा सरलता की दृष्टि से उचित है 
यथा--मुरारी ही के लिए; यहाँ तक तो; आप के भी । 

3. हल चिह न ( )-लेखन--संस्क्ृत से आगत कुछ शब्द मूलतः: हल चिह न 
युत हैं, यथा--जगत्‌, जाम्बवतू, पृथक्‌, प्राकू, भागवत्‌, महत्‌, वाकू, शरत्‌/शरद्‌, 
श्रीमत्‌, सत्‌ । हिन्दी-उच्चारण में परिवर्तत होने के कारण यद्यपि 'जग्रतृ-जगत, 
सत्‌-सत”' का उच्चारण/वाचन “अ-रहित ही होता है किन्तु अर्थ-भेद एवं सन्धि- 
प्रक्रिया में हल के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता, यथा--मताधिकार (मत-- 
अधिकार), सदतुभव (सत्‌--अनुभव) । दूव, दम, दूय, ड्य आदि में भी हल चिह न 
लगाना आवश्यक है ही । दक्षिण भारतीयों ने नामों के शब्दान्त में हल चिह् न लगाना 
या न लगाना हिन्दी भाषियों की दृष्टि से तो समान है, किन्तु दक्षिण भारतीय 
धप्रकाशम, सुरेशन को निश्चय ही “प्रकाशमा, सुरेशना” समझेंगे और बोलेंगे। हल्‌ 
चिह न लगाने से लेखन-सौष्ठवः की कोई हानि नहीं होगी, आवश्यकता है उन शब्दों 
को पहचानने की जो मूलतः हल्‌ चिह न युत हैं, यथा--प्रत्युतूु, भविष्यत्‌, बुद्धिमान, 
भाग्यवान्‌, श्रीमान्‌ू, विधिवत, सच्चितृ, पृथक, एवम्‌, स्वयम्‌, प्रकाशम्‌, सुरेशन, 
वासुदेवन आदि । 

4. संयकक्‍त क्रिया-लेखन--एकरूपता तथा सरलता की' दृष्टि से सभी' क्रियाओं 
(मुख्य, सहायक) को अलग-अलग लिखना ही उचित है, यथा--कहा जा सकता है 

कहते चले आ रहे थे; सुनाता रहूंगा आदि । 
| 5. पुर्वकालिक क्रिया-लेखन---एकरूपता तथा सरलता की दृष्टि से पृवंकालिक 
रूप कर, कर के को प्रत्येक स्थिति में अलग-अलग लिखना ही उचित है, 
यथा--खा कर, रो कर, हो कर, कर के | इन्हें मिला कर लिखने पर जोर देने में 
कोई तकंसंगति नहीं है, क्योंकि संयुक्त क्रियाएँ भी अलग-अलग लिखी जाती हैं । 
आकर-आ कर; करकेनकर के; पाके (<पा कर); ताके जैसे शब्दों से जटिलता ही 
बढ़ती है। 

6. सादृश्य सुचक शब्द-लेखन--सादृश्य सूचक शब्द “-सा/-सी/-से, जैसा। 
_ जेसी/जैसे, सरीखा/सरीक्षी/सरीखे” से पूृवं योजक चिहन (-) के प्रयोग से स्पष्टता 
बनी रहती है, यथा--तुम-सा/जैसी/सरीखें; यहाँ-जेसी गर्मी; कल-जैसी आँधी | 

7. तत्पुरुष समास-लेखन---तत्पुरुष समास शब्द के पृवंपद और उत्तर पद के 
मध्य अर्थ स्पष्टता हेतु आवश्यकतानुसार योजक चिह्‌ न लगाया जा सकता है । जहाँ 
अथंभ्रम की सम्भावना (अधिक) हो, वहाँ योजक चिह न का प्रयोग करना ही उचित 
है, यथा - भूतत्त्व--भू-तत्त्व, संस्कृत शब्द--संस्क्ृत-शब्द । द प्लस 
... 8. द्वन्दव समास-लेखन--द्वन्द्व समास के पदों के मध्य (आवश्यकता- 
. नुसार) योजक घिह न लगाना उचित है, यथा--दाल-भात, श्वेत-श्याम, राधा-कृष्ण, 

सूर्य-चन्द्र, राम-लक्ष्मण, पति-पत्नी, बड़े-बड़े, छोटे-छोटे । 








है कुछ शब्दों के मूल में 'य ध्वनि न होने पर भी कुछ परिस्थितियों में (ही) श्र ति 





90 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


9. संस्कृत से आगत शब्दों का लेखन--हिन्दी-लेखन में संस्क्रत-शब्दों का. 
प्रयोग दो रूपों में होता है--. सामान्य लेखन में संस्कृत-शब्दों का प्रयोग 2. संस्क्ृत- 
उद्धरणों में संस्क्ृत-शब्दों का प्रयोग । एकरूपता तथा सरलता की दृष्टि से दोनों 
रूपों में संस्कृत-परम्परा का पालन करना ही उचित है न कि सामान्य लेखन में हल. 
चिहू न न लगाना और उद्धरणों में हलू चिहू न लगाना; सम्धि-नियम समझाने, छल्द- 
ज्ञान के लिए हलू चिह॒न लगाना । ऐसा करना कोई तके-संगत नियम नहीं है। 
. जगत-जगत्‌ में अथं-भेद भी है। श्रीमान, महान, विद्वान, अर्थात" संस्कृत में अग्राहय 
हैं । यह कहना कि जिन शब्दों के प्रयोग में हिन्दी में हलू चिहन का लोप हो चुका 
है, उन में हल चिह न लगाने की आवश्यकता नहीं! तकहीन कथन है । देवनागरी 
के कुछ वर्णों का अध॑ रूप बिना हलू चिहन के सम्भव नहीं है। जगल्ताथ का 
विश्लेषण जगत्‌--नाथ ही होगा, जगत--नाथ नहीं । इसी प्रकार “दिग्गज, वाग्जाल, ... 
किचित्‌, उल्लास' आदि का सन्धि-विश्लेषण क्रमशः दिक्‌ +गज, वाक्‌ +जाल, 
किम्‌--चित्‌, उत्‌--लास” करना पड़ेगा 'दिक, वाक, किम, उत' लिख कर काम 
नहीं चला सकते । 5 

ऋ., ण, ष, क्ष, : का प्रयोग केवल संस्कृत से आगत शब्दों में होता है। . 
यद्यपि हिन्दी में इन का उच्चारण/|वाचन परिवर्तित हो चुका है किन्तु संस्क्ृत-शब्दों 
में परम्परानुगामी वतंती का ही प्रयोग करना होगा, यथा--ऋषि, ऋण, कृषक, 
कक्षा, क्षात्रधर्म, अतः, प्राय: (त कि रिशि, रिड़/रिन, क्रिशक/क्रशक, कक्‍्छा, छात- 
धर्म, अतह, प्रायह) । इन वर्णों से युक्त कुछ शब्द हैं--- द 


अनुगृहीत, पृष्ठ, निवृत्ति, उच्छे खल, क्ृतक्ृत्य, गृहस्थ, पृथक, प्रवृत्त, संगृहीत, 
सदश, श्र खला, धर गार, वृष्टि, कृषक, ऋषि, ऋणी, पेतक, सृष्टि । 

कृष्ण, क्षण, क्षीण, प्रण, भूषण, वरुण, विष्ण, कण, कोण, गुण, गण, गणिका 
चाणक्य, बाण, मणि, माणिक्य, लवण, वणिक, वाणी, वीणा, वेणी, वेण, निपण । 

अनिष्ट, दृष्ट, गरिष्ठ, घनिष्ठ, ज्येष्ठ, पृष्ठ, आमिष, कनिष्ठ, उत्कर्ष, भीष्म, 
यथेष्ट, विभीषिका, विभीषण, विषण्ण, शुश्रूषा, सुषमा, विश्लेषण, मुमूर्ष, सन्तुष्ट, , 
हितषी, प्रेषित, प्रतिष्ठा, वर्ष, षष्ठ, सृष्टि । 

क्षत्रिय, क्षात्र, कक्षा, अक्षय, अधीक्षक, अक्ष, क्षण, क्षीण, क्षमा, क्षेम, क्षोभ, 
तीक्ष्ण, दीक्षा, निरीक्षक, नक्षत्र, परीक्षा, परीक्षक, निरीक्षण, शिक्षा, साक्षी, समीक्षा 
समक्ष |... 


. अतः प्रायः, नमः, दुः, तेज? नि:, पुनः, पयः, मनः, दुःख आदि । इन में 
कई शब्द केवल सन्धि-प्रक्रिया के समय ही शयुक्त होते हैं । 


.._0. ई|ए बनास यी/ये-लेखन---हिन्दी ध्वनि-उच्चारण व्यवस्था के अनुसार 





लक कह] कलनपइममवननन तन करकतिता एक 5 पगए नायर एड हे -।ए 
शा आम 332 93232: ++ 2 _ अर (3 पक 2 77 2 कि 


5५ 5०शवपकन4अअप कस कुसपनपन5 जि उपर बन चररप 56 पपर८ कपल सडनट ट 


.. कहूप में य का उच्चारण होता है। हिन्दी में 'ई, ए! के आने पर यश्रूतिकी | 





वतंतनी | 9] 


मुखरता लुप्त हो जाती है । जिन स्थितियों में 'य का श्र्‌ति रूप सें सुखर उच्चारण 
होता है, वहाँ य' का लिखना उचित है, यथा--गया, आया, खाया, भाइयो, भाइयों 
किया, दिया, सोया । जहाँ शब्द के मूल में 'य' है, वहाँ शब्द-सिद्धि या परम्परानुगामी 
वर्तनी की दृष्टि से ई/ए के संयोग में भी 'य का लिखना तकं-संगत है, यथा--रुपया- 
रुपये, दायी (<दाय>-देना)->उत्तरदायी, अंशदायी, उत्तरदायित्व, आननन्‍्ददायी 
. स्थायी, स्थायित्व भी इसी प्रकार । 


दक्षिण भारतीय भाषाओं में 'य, व श्रति आगम की स्थितियाँ हिन्दी की 
अपेक्षा बहुत अधिक हैं। गया, आया आदि क्रिया-रूपों में 'य! श्र ति का आगम 
हुआ है और यह श्रुति मुखर भी' है किन्तु 'हुआ-हुई-हुई -हुए, गई-गई-गए. सोई-सोई- 
सोए' क्रिया रूपों में श्र्‌ति-आगम नहीं है। क्रियाओं में -आ/-ई/-ई/-ए प्रत्यय जड़ते हैं 
यथा--लिखा-लिखी-लिखीं-लिखे । किया-की-कीं-किए; रोया-रोई-रोइ "रोए में भी 
वे ही प्रत्यय जुड़ हैं, न कि -या/-यी/-यीं/-ये । स्वनिक स्तर पर हिन्दी में केवल 'अ- 
आ, इ-आ/ओ/ओं, ओ-आ के मध्य ही य' श्र्‌ति मुखर है, अन्य स्थितियों में इस की 
मुखरता पूर्णतः लुप्त है। आरम्भिक स्तर पर लेखन सीखनेवाले हिन्दी क्षेत्र के 
बच्चे, अहिन्दी क्षेत्र के किशोर और विदेशी प्रौढ़ों को अधिकतम उच्चारणानुगामी 
वर्तनी ही सरल लगती है । व्याकरणिक आधार पर उन्हें उस स्तर पर इधर-उधर 
भटकाना जठिलता उत्पन्न करता है । 


_नयान्तवाली भूतकालिक, पुल्लिग, एकवचन की क्रियाओं के स्त्रीलिंग एकवचन 
बहुवचन और पुल्लिग बहुवचन में 'यी/यीं/ये" के लेखन का तक जटिलता उत्पन्न 
करता है। -यान्त संज्ञाओं में -ई, -ए रखने की बात और अधिक जटिलता उत्पन्न 
करती है, यथा--पाया (पायी/पायीं/पाये)। पाया-पाये, चारपायी; खोया (खोयी/ 
खोयीं/खोये); खोआ-खोए-खोई आदि । क्रिया-शब्दों को -यी/-यीं/-ये से और संज्ञा 
. शब्दों को -ई/-ए से और विधि आदि रूपों को ए से लिखने में जटिलता ही बढ़ती है । 

जब अध्येता संज्ञा, क्रिया को ई, ए; यी, ये के साथ लिखित रूप में देखते ही' पहचानने 
के स्तर पर पहुँचता है, तब वह यह भी जान जाता है कि हिन्दी में क्रिया प्राय 
वाक्यान्त में ही भाती है। उच्चरित भाषा-व्यवहार में यह लिखावट फिर भी कोई 
मदद नहीं कर पाती । 


हिन्दी क्रिया के विधि रूप में---0 प्रत्यय जुड़ता है, यथा--वह लिखे/पढ़े/चले । 
आइए, जाइए, सोइए, कहिए, सुनिए, कीजिए आदि में -ए/-इए लिखना ही तकं-संगत 
है न कि ये । ये” लिखने के लिए यह तके देना कि संस्कृत में प्रति|-एक -- प्रत्येक 
होता है, अतः “आइए, कहिए” आदि में भी ये”! लिखा जाए, भ्रम का सूचक है। 
हिन्दी क्रियाओं के इन रूपों पर संस्कृत भाषा का सन्धि-नियम लाग नहीं होता 
वरन्‌ यहाँ स्वरानुक्रम है। द 








2 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


संस्कृत में आई स्वरानुक्रम का अभाव है, अतः संस्कृत से आगत शब्दों को. 


परम्परागत वर्तनी के अनुसार--यी युक्त लिखना अवश्य उचित कहा जा सकता है, 
यथा--भाषायी, उत्तरदायी आदि । इन शब्दों के मुल में 'य है। 

अविकारी शब्दों इसलिए, लिए, चाहिए' में सदैव 'ए' लिखना ही तकं-संगत 
है । इस प्रकार जहाँ 'य श्रुति मुखर है या जहाँ मूल शब्द में 'य का अस्तित्व है 
उन शब्दों को ही या/यीयि/यीं से लिखा जाए, शेष शब्दों में -आ/-ई/-ए/-ईं ही 
लिखा जाए। 


!]. ऐ, औ का संयुक्त स्व॒रत्व-लेखन--ऐ, ओ वर्णों के दो-दो ध्वन्यात्मक 
मूल्य हैं---! . मूल स्वर ध्वनि 2. संयुक्त स्व॒र ध्वनि । ऐसा, है, हैं, और, कौन, भौं 


में ये मूल स्वर ध्वनियों के सूचक हैं। नैया, गवैया, सुरैया, कौआ, पौआ, हौआ 


में ये संयुक्त स्व॒र ध्वनि के सूचक हैं । 'गवय्या, सुरय्या, कब्वा, पव्वा! जैसी वतेनी 
किसी प्रकार भी सही नहीं बैठती । संयुक्त स्व॒र ध्वनियुक्त कुछ ही शब्दों के लिए 
अभी कोई चिह न नहीं बना है, अतः: |ऐ ओ से ही काम चलाना होगा । 


2. आए -लेखन--परिनिष्ठित हिन्दी में अँगरेजी! से आगत कुछ शब्दों में... 
आऑ ध्वनि है। उन्हें लिखते समय आ[ का प्रयोग करना उचित है, यथा > ऑफिस, . 


डॉक्टर, हॉस्पीटल, कॉलेज, ऑपरेटर आदि । 


3. शिरोरेखा-बिन्दुशशीर्ष बिन्दु और चस्धबिल्दु ( , ?) -लेखत-- 
सामान्यतः वर्गीय अर्ध नासिक्य के स्थान पर शी बिन्दु का प्रयोग किया जा सकता -. 


है, यथा-- पंखा, कंचन, डंडा, नंद, कंपन । आंशिक, संसार, वंशी, संहार, संरक्षक 


संयत, संवाद में शीर्ष बिन्दु लेखत ही मानक है। अन्य, साम्य, अन्न, सम्मति/ 


 सन्‍्मति, वाह मय, पराडन मुख, काम्य आदि शब्दों में शीर्ष बिन्दु का प्रयोग परम्परागत 


अरइलितननानकलमिलश पका पता एपकनतासक पट चर "एम प्किका ना 5 - 4 - ५ आर 


वर्तती तथा शब्द रचना और उच्चारण की दृष्टि से अशुद्ध है । डः व्यू गके लिए 


शीर्ष बिन्दु का प्रयोग लाघव की दृष्टि से भी स्वीकाय है। ० का प्रयोग केवल 
संस्कृत से आगत शब्दों के साथ परम्परागत वतंनी की दृष्टि से उचित भी लग सकता 
है, किन्तु संस्क्ृत-इतर शब्दों के साथ नहों, यथा--झण्डा, पैण्ट, लण्डन” को झंडा 
पैंट(पैन्ट, लंडन/लन्दत लिखना ही उचित है। संस्क्ृत-इतर शब्दों (यथा--गंजी 


जंगली, टैंक, पंछी, रंज, लुगी आदि) को पंचमाक्षर के साथ लिखना हास्यास्पद-सा 


ह लगता है । द 
शिरोरेखा के ऊपर कोई अन्य चिह्‌ न होने पर अनुनासिकता के लिए.भी 


.._ शीर्ष बिन्दु का प्रयोग प्रचलन में है, यथा--में, मैं, ईंट, बिधना, क्‍यों, भौं, आरयों । - 

... शीर्ष बिन्दु के कारण जिन शब्दों का वाचन दुहरा रूप ले सकता है (यथा--हिंदी,  । 
.._ बिंदी, पिंड, पिडली [हिंदी/हिन्दी, बिंदी/बिन्दी, पिंड/पिण्ड, पिंडली/पिण्डली |), उनके 

- लेखन में वर्गीय अर्धे नासिक्य व्यंजन वर्ण का लेखन तके-संगत है; यथा--केन्द्रीयं, - । 














वतेनी | 93 


हिन्दी, बिन्‍्दी, पिण्ड, पिण्डली/पिड़ली “-पिंडली। शिरोरेखा के ऊपर कोई अन्य चिह न 
न होने पर अनुनासिकता के लिए चन्द्रबिन्दु का प्रयोग ही तकेसंगत है, अन्यथा हंस- 
हंस, अँगना-अंगना' का अर्थ-भेद अस्पष्ट रहेगा। 


अहं, एवं' के अतिरिक्त हिन्दी के शब्दों के अन्त में प्राय: () नहीं आता, 
(*) चिह न ही आता है । शब्दान्त के नासिक्य व्यंजनों के लिए () का प्रयोग 
नहीं किया जाता । संस्क्ृत के शब्दों में (/ ) का प्रयोग नहीं होता । सम्बन्ध जैसे 
कुछ शब्द कई प्रकार से लिखे जा रहे हैं, यथा--सम्बन्ध, संबंध, सम्बंध, संबन्ध । 
इन में पहले दो रूप एकरूपता की दृष्टि से अधिक ग्राहय हैं। नासिक्य व्यंजन अन्य 
नासिक्य या वर्गेतर व्यंजनों से पूर्व आने पर या द्वित्व होने पर शिरोरेखा बिन्दु से 
नहीं लिखे जाते, यथा--अन्‍न्न, मुन्ना, अन्य, गन्ना, जिम्मा, अम्मा, जन्म, अम्ल, 
सम्यक, सम्मान, सम्राट/सम्राट्‌ ॥ एन्थोनी, कम्ब रुत, पम्प, बन्द, लम्बा, सिन्थाल' 
आदि में 'न, म' का प्रयोग आपत्त्जिनक नहीं माना जा सकता । सनन्‍्यास (सं--नन्‍्यास) 
अधिक प्रचलित रूप है, सनन्‍त्यास कम प्रचलित रूप है, सन्‍्यास अशुद्ध रूप है । 


4, विदेशी आगत शब्द-लेखन--जो विदेशी शब्द हिन्दी की ध्वनि-व्यवस्था 
के अनुरूप हों और लेखन में कठिनाई उत्पन्न न करते हों, उन्हें तत्सम रूप में लिखना 
ही उचित है, यथा--लैन्टन, बॉइकॉट, कागूजु, गरीब, फून, राजू, कानून, नाज 
खाना, खतरा आदि | इन का तदभव रूप दिखाने के लिए इन्हें (लालटेन, बाइकाट 
कागज, गरीब, फन, राज, कानन, नाज, खाना, खतरा” भी लिखा जा सकता है 
किन्तु खाना-खाना, बाजू-बाज, राजु-राज, फन-फन, गौरी-गौरी, गम-गर्' जसे अथ- 
भेदक युग्मों के कारण सामान्य लेखन में अधोबिन्दु का प्रयोग करना तके-संगत है 
क्योंकि कागज, कारखाना शब्द ही शुद्ध हैं, कागज, कारखाना अशुद्ध नहीं तो 
शुद्धेतर|मानकेतर अवश्य हैं । 

_ 5. (:) विसर्ग-लेखन--संस्क्रत से भागत विसर्गयुत शब्दों में परम्परागत 
वर्तनी के आधार पर विसर्ग लगाया जाता है, यथा--अतः, प्रातः, प्रायः, स्वान्तः 
सुखाय:, दुःख । इन्हें 'ह_' के साथ लिखना मानकेतर (या अशुद्ध) लेखन होगा । 
सुख के सादृश्य पर 'दुख' के मध्यवर्ती अधोष हु ध्वनि का लोप हो चुका है, अतः 
दुःख को दुख भी लिखा जाने लगा है | परम्परागत वतेनी की दृष्टि से शुद्ध रूप 
दुःख ही है। 

.. अँगरेजी से आगत कुछ विशिष्ट शब्दों की वर्तती--अंगरेजी! से आगत कुछ 
शब्दों की वतंनी में अभी भी अनिश्चितता बनी हुई है । हिन्दी की ध्वनि-व्यवस्था के 
अनुरूप वर्तनी रखने से अनिश्चतता की स्थिति धीरे-धीरे समाप्त हो सकती है। 
अँगरेजी से आगत शब्दों में कोई शब्द हिन्दी में 'इ' से उच्चरित नहीं होता, अतः 
भँगरेजी शब्दों के अन्त में 'इ” नहीं लिखी जानी चाहिए, यथा---सिटि, पि० टि० 
उषा, एन० टि० रामाराव” हिन्दी में लेखन की दृष्टि से ये अशुद्ध हैं, इन्हें सिटी, 








94 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


पी० टी० उषा, एन० ठी० रामाराव” लिखना चाहिए। अक्षरान्त में भी 'ई” का प्रयोग 


किया जाता है, यथा--ठेलीविजुनं, इंजीनियर, एडीटर, पेटीकोट । सिनेमा, कमेटी को 
अब 'सिनीमा[सनीमा, कमिटी” नहीं किया जा सकता । 


अँगरेजी ह्‌ रस्व स्वर 7 से युक्त शब्दों को प्रायः 'ए! से (भाषाविज्ञान में ऐँं 


से) लिखा जाता है, यथा--पेन, मेस, बेल, डेस्क, बेंच, टेम्परेरी, सेन्टर, रेजीमेन्ट; 


एक्ट, एडवोकेट, एश ट्रं, एम्बुलेंस । & युक्त कुछ शब्दों को 'ऐ! से लिखा जाता है 
यथा--कैन्‍्टूनमेन्ट, गैस, पैड, बैंड, बैटरी, मैन, लैम्प । 


जिन शब्दों की मूल वतंनी में र (१२) है, उन्हें र के साथ ही लिखा जाता 
: हैं, यद्यपि ऐसे अनेक शब्द अँगरेजी में 'र' रहित ही उच्चरित होते हैं, यथा--कार, 


मदर, फादर, डॉक्टर, वार। आपरेशन, ऑपरेटर, कॉपी, कॉमन, कॉलेज, ऑडर, 
डॉक्टर, लॉ, पॉलिश, लॉटरी, हॉल, बॉल, कॉल' जैसे शब्दों को /आऑ के साथ लिखने 
में कोई परेशानी नहीं है। तत्सम “ऑफीसर, बॉक्स” तथा तदभव अफसप्तर, बक्सा/ 


बवस' दोनों रूप प्रचलित हैं। ः 
अँगरेजी की 9, ०:, | ध्वनि को अ' से सूचित किया जाता है, यथा-- 


अकाउंट, अरेंज, इनकम, बटर, वाटर; अर्थ, टर्ने, नस, बडे, बर्थ; कट, ब्नूश, मग, 


रबर । अँगरेजी 'फॉमंसी, प्रोफुंसर, लाइब्ररी' को 'फार्मेसी/फॉमेंसी, प्रोफेसर, 


लाइब्रे री' लिखा जा रहा है । 
अँंगरेजी के संयुक्त स्वर कुछ स्थलों पर संयुक्त स्वर/स्वरानुक्रम के रूप में 


.._ और कुछ स्थलों पर मूल स्वरों के रूप में लिखे जा रहे हैं, यथा--० (एऐँइ)-> ए-- 
. मैल, जेल, सेल, मेन, गेम, गेंट, प्लेन, सेन्ट, पेन्ट, ब्रेन | ०५ (ओउठ) >> ओ--कोट 
गोल, बोट, बोर, रोड, रोम । & (आइ) >>आइ--काइट, टाइप, टाइम, फाइट, 


फाइन, लाइट, माइक, राइट, साइकल/साइकिल । इन्हें “कैट, टैप, टैम, फैट, फ ने 
लेट, मेक, रेट, सैकल/सैकिल' लिखना एकदम. गुलत है क्योंकि ऐसी स्थिति में इन 
का वाचन मूल स्वरवत्‌ होता है। ॥&प८ (आउ) >आउ---टाउन, पाउंड, राउंड, लाउड 


 साउंड, साउथ । इन्हें टोन, पौंड, रौंड, लौड, सौंड, सौथ” लिखना एकदम गलत है 


_ क्योंकि ऐसी स्थिति में इन का वाचन मूल स्वरवत्‌ होता है । 79 (इअ) >>इय--बियर| _ क्‍ 
बीयर । 89 (एअ) >एय--चेयर, शेयर । ए० (उअ) >> उअ--पुअर|वृअर । 3 


(आइ) > भॉय/ऑइ--बॉय, नॉइजू, जॉइन । 


... ४, ५ से युक्त शब्द प्राय: “व युक्त ही लिखे जाते हैं, यथा--वाटर, वेस्ट, 
.. वेदर, वाशिगटन, वेरीमच । इन्हें व्ह' से लिखना नितान्त अशुद्ध है।..| 
है 7 से युक्त शब्द 'फ से और 2 से युक्त शब्द 'जु' से लिखे जाते हैं, यथा-- 
.. फॉम, फू ड, फोरेस्ट, फिजिक्स; ज , साइज, प्राइज । हि 0 














बतंनी' | 95 


पु, 7) को क्रमशः ट, ड' से, ह॥ (92; &) को थ/थ, द से व्यक्त किया 
जाता है, यथा--दूर/दुअर, टेम्पो, टाइम, डाउन, डेस्क, डेल्टा, डॉक्टर; थ्रो थ्र, 
थर्मस|थर्मस, थर्मल/थर्मल, होमियोपैथी/होमियोपैथी; फादर, मदर, देयर । 

००॥०४६ को कांक्रीट>>ककरोंट लिखा जा रहा है। 

बतंनी शुद्धि-अशुद्धि अभिन्नान---वतंनी-अशुद्धि के पूवलिखित कारणों के 
प्रभाव स्वरूप वर्तनी सम्बन्धी विभिन्‍न प्रकार की (कभी-कभी एक शब्द में एक से 
अधिक भी) अशुद्धियाँ हो जाती हैं। परिनिष्ठित हिन्दी शब्दों की कौन-सी वर्तेनी 
शुद्ध है और कौन-सी अशुद्ध, इस की जानकारी के लिए कुछ विशिष्ट शब्दों की 
शदध वरततेंनी कोष्ठक में लिखी गई है । कविता में प्रयक्‍त बोलियों के शब्दों को वर्तंनी- 
अशदधि के अन्तर्गत नहीं गिनना चाहिए, यथा--करम, भरम, सरवर, गुन, नारे 
आदि । द 

स्वर वर्ण सम्बन्धी बतेनी-अशुद्धियाँ--इस प्रकार की अशुद्धियों में कहीं 
अनिवारय॑ स्वर वर्ण/मात्रा-चिह्द व का लोप देखा जाता है और कभी अनावश्यक स्वर 
वर्ण/मात्रा चिह न का योग कर दिया जाता है। कभी-कभी स्वर के स्थान पर स्वर 
यूत व्यंजन भी लिख दिया जाता है। इसी प्रकार _”: के लेखन में भी अशुद्धियाँ 
मिलती हैं, यथा-- द 

अनिवार्य ।लोप--अकांक्षा (आकांक्षा), अगामी (आगामी), अच्त्यक्षरी 
_ (अन्त्याक्षरी), अहार (आहार), अध्यात्मिक (आध्यात्मिक), अल्हाद (आह लाद), 
जमाता (जामाता), नदान (नादान), नराज (नाराज), नरायण (नारायण), भगीरथी' 
(भागीरथी), मतन्तर (मतान्तर), महात्म (माहात्म्य), ललायित (लालायित), 
व्यवसायिक (व्यावसायिक), संसारिक (सांसारिक), सप्ताहिक (साप्ताहिक), सहास 
(साहस), समसमायिक (समसामयिक), सम्राज्य (साम्राज्य)। 

अनावश्यक योग--आधीन (अधीन), अनाधिकार (अनधिकार), चारदीवारी' 
(चहारदीवारी), बारात (बरात), याज्ञावल्क (याज्ञवल्क्य), लागान (लगान), हाथिनी . 
(हथिनी), हस्ताक्षेप (हस्तक्षेप) द 

अनिवार्य इ/-लोप---आजीवका (आजीविका), आध्यात्मक (आध्यात्मिक), 
कुमुदनी (कुमुदिनी), गृहणी (गृहिणी), नीत (नीति), नायका (नायिका), परिस्थित 
(परिस्थिति), प्रतिनिध (प्रतिनिधि), मदटी (मिट्टी), मैथलीशरण (मैथिलीश रण), 
मानसक (मानसिक), युधिष्ठर (यूधिष्ठिर), रचग्रता (रचयिता), लिखंत (लिखित) 
वाहनी (वाहिनी), विरहणी (विरहिणी), शिवर (शिविर), सरोजनी (सरोजिनी), 
क्षणक (क्षणिक) द 

... अनावश्यक “्योग--अहिल्या (अहल्या), कवियित्री (कवर्यित्री), कियारी 

(क्यारी), छिपकिली (छिपकली), तिरिस्कार (तिरस्कार), द्वारिका (द्वारका), 
प्रदशिनी (प्रदर्शनी), वापिस (वापस), व्यापित (व्याप्त), सामिग्री (सामग्री) । 











96 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 
इ के स्थान पर ई/)/यि-प्रयोग--आयिए (आइए), अतिथी (अतिथि) 
) 
क्योंकी (क्योंकि), कालीदास (कालिदास), तिथी, (तिथि), तेलांजली (तिलांजलि), 
दधिची (दधीचि), नीति (नीति), निवृती (निवुत्ति), पूर्ती (पूर्ति), भ्राप्ती (प्राष्ति) 
परिस्थिती (परिस्थिति), परिणती (परिणति), ब्रिटीश (ब्रिटिश), मुनीगण (मुनिगण) 


(क्षत्रिय) 
ई।) के स्थान पर ई/ -प्रयोग--अद्वितिय (अद्वितीय), आशिर्वाद (आशीर्वाद), 


. गुणि (ग्रुणी), दिपिका (दीपिका), द्रविभूत (द्रवीभूत), निमिलित (निरमीलित), निरिह । 


(निरीह), निरिक्षण (निरीक्षण), नारि (नारी), परिक्षा (परीक्षा), पत्नि (पत्नी), 


परिक्षण (परीक्षण), प्रेयसि (प्रेयसी), बिमारी (बीमारी), महिना (महीना) भस्मिभूत 


(भस्मीभूत), रितिकाल (रीतिकाल), वाल्मिकी (वाल्मीकि), शारिरिक (शारीरिक), 
शुद्धिकरण (शुद्धीकरण), श्रीमति (श्रीमती), सूचिपत्न (सूचीपत्न)। द 


उ| के स्थान पर ऊ/-प्रयोग --ऊत्थान (उत्थान), दूबारा (दुबारा), धूओँ हि 
(धुआँ), पृन्‍्य (पुण्य), मधू (मधु), मुमुर्ष, (मुमर्ष), साधू (साधु), साधूवाद (साधुवाद), 


सुई (सुई), हिन्दुओं (हिन्दुओ), हिन्दुस्थान (हिन्दुस्थान|हिन्दुस्तान) क्‍ 
ऊ/, के स्थान पर उ|-प्रयोग--अनुकुल (अनुकल), अनुदित (अनूदित) 
(जाहू), तुफान (तुफान), दूसरा (हुसरा), नुपुर (नूपुर), पुर (पु), पुज्य ( 


(वधू), सुरज (सूरज), सिन्दुर (सिन्दुर), सुय॑ (सूय), हिन्दु (हिन्दू) । 


दम ए| के स्थान पर ऐ/ यि-प्रयोग---ऐक (एक), चाहिये (चाहिए), लीये 
. (लिए), भाषायें (भाषाएँ), वैश्या (वेश्या), सेना (सेना), हुये (हुए); देहिक (दैहिंक), 


देविक (देविक), एतिहासिक (ऐतिहासिक) 


यि के स्थान पर इ का प्रयोग--दाइत्व (दायित्व), निछावर (न्योछावर) 
रचइता (रचयिता)। 


द . उत्तरदाई (उत्तरदायी), विजई (विजयी) । 


ै/ओ के स्थान पर ।|ओ/उ का प्रयोग--अलोकिक (अलौकिक), उपन्यासिक 


... (औपन्यासिक), ओदुयौगिक (ओऔदुयोगिक), कोतुहल (कौतृहल), गोतम (गौतम) 


3|ओ के स्थान पर/ऊ/वो|यो का प्रयोग--त्यौहार (त्योहार), पड़ौसी 


(पड़ोसी), क्यूँ (क्यों), आवो (आओ), जावो (जाओ), आँसुयो (आँसुओ) 


र * 


अभीमान (अभिमान), उनन्‍्मीलीत (उन्‍्मीलित), उनन्‍नती (उन्नति), उर्मी (ऊम), हे 


लीये (लिए), लड़ायियाँ (लड़ाइयाँ), वृष्टी' (वृष्टि), शिवी (शिवि), शकती (शक्ति) का 
समीति (समिति), स्थायीत्व (स्थायित्व), सृष्टी (सुष्टि), हासील (हासिल), क्षत्रीय 


प्रतिकुंल (प्रतिकूल), बुढ़ा (बूढ़ा), भुधर (भूधर), मुहुतं (मुह॒त), रुठ (रूठ), वध 


ही 8 ई के स्थान पर यी का प्रयोग--मिठायी (मिठाई), लड़ायी (लड़ाई), लिखायी' 
....._ (लिखाई) हज 
यी के स्थान पर ई का प्रयोग--अनुयाई (अनुयायी), आतताई (आततायी), 











बतेनी | 97 


ऋ के स्थाव पर र-प्रयोग--अनुग्रहीत (अनुगृहीत), गिरस्ती (गृहस्थी), 
क्र ष्ण (कृष्ण), क्रश्न (कृष्ण), त्रितीय (तृतीय), प्रथक (पृथक), पैत्रिक (पैतृक), द्रश्य 
(दृश्य), जत्यु (मुत्यु), श्रगार (शव गार), मातरभूमि (मातृभूमि), संग्रहित (संगृहीत) । 

. “के स्थान पर ' का प्रयोग --अंगना< आँगन (अँगना), अंधेरा (अँधेरा), 
आंख (आँख), आंधी (आँधी), अंधेरी (अंधेरी), उंगली (उगली), उंचाई (ऊंचाई), 
कंगना, (कंगना), कांच (काँच), गंवार (गँवार), गृगा (गूगा), चांद (चाँद), 
. छठांक (छर्टाक), जाति-पांति (जाति-पाँति), जहां' (जहाँ), जाउंगा (जाऊँगा), डांट 
 (डाँट), तांत (ताँत), दांत (दाँत), दूंगा (हूगा), पहुंच (पहुँच), पांचवां/पांचवां' 
(पाँचवा), बांस (बाँस), बंदरिया (बँदरिया), मंहगा (महँगा), मृह (सु ह), रंगरेज्‌ 
(रंगरेज), लंगोटी (लँगोटी), सांकल (सॉकल), संवारना (संवारता), संभालना 
(सँभावना), हंसिया (हँसिया), हंसमुख (हँसमुख) । च 

अनावश्यक /-प्रयोग--चाहिएँ (चाहिए), जांति (जाति), दुनियाँ (दुनिया), 
डांका (डाका), नें (ने), पूछ कर (पूछ कर), बढ़ियां(बढ़ियाँ (बढ़िया), सोंच-विचार 
(सोच-विचार), सोचेंगें (सोचेंगे) 

: के स्थान पर ॥/यर-प्रयोग---अधप्तन (अध:पतन), अंताकरण (अन्तःकरण ) 
अन्तर्साक्ष्य (अन्तःसाक्ष्य), मूलतयः (मूलतः) 

व्यंजन वर्ण सम्बन्धी चर्तेनी-अशुद्धिंाँ--व्यंजन वर्ण सम्बन्धी अशुद्धियों 
में घोष-अघोष, अल्पप्राण-महाप्राण, ण-न, ड़ ढ->ड ढ , , र,ड/लि, व-ब, छ्क्ष, 
श-पन्‍स आदि से सम्बन्धित अशुद्धियाँ होती हैं। इन अशुद्धियों में कभी-कभी इन 
वर्णों का पारस्परिक व्यत्यय भी मिलता है। व्यंजन वर्ण सम्बन्धी वर्तेनी-अशुद्धियों 
के कुछ उदाहरण दृष्टव्य' हैं--- 

क्रधोष ध्वनि-वर्णों के स्थान पर घोष ध्वनि-वर्णों का प्रयोग--अजेना 
(अचेता), कंगत (कंकण), उंजाई (ऊँचाई), नूबुर (नृपर), नाडग (नाटक), सूजीपत्न 
(सूचीपत्र), समदा (समता) 

सहाप्राण ध्वनि-वर्णों के स्थान पर अल्पप्राण ध्वनि-वर्णों का प्रयोग --अन्तर्दान 
(अन्तर्धान), इकट्टा (इकट्ठा), काना (खाना), गनिष्ट (घन्िष्ठ), गदव (गर्दभ) 
बस्म (भस्म), बुृदर (भूदर), सांदु (साधु), बगवती (भगवत्ती), अपरादी (अपराधी), 
प्रपुल्ल (प्रफुल्ल), क्र तंग्त (कृतघ्न) । हे द द 

अ के स्थान पर ब-प्रयोग--कंकतन (कंकण), कन (कण), -कल्यान (कल्याण), 
गत (गण), गुन (गुण), गनित (गणित), चरन (चरण), टिप्पनी (टिप्पणी), नरायन| 
. नारायन (नारायण), प्रनाम (प्रणाम), प्रॉगन (प्रांगण), प्रमान (प्रमाण), परिनाम 
(परिणाम), परिमान (परिमाण), प्रान (प्राण), प्रन (प्रण), मुन्मय (सृण्मय), मरन 
(मरण), रनभूमि (रणपूमि), रामायन (रामायण), वनिक (वण्णिक), विस्मरत 








98 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(विस्मरण), बीना (वीणा), वानी (वाणी), वन (वर्ण), वहन (वरुण), विसुन 

(विष्णु), विसन्‍न (विषण्ण), श्रवन (श्रवण), क्षन (क्षण), रमायन (रामायण) 

निरवान (निर्वाण) । द द 

रसायण (रसायन), पाणी (पानी), मणीआडर (मनीऑडेर), फण (फन), 

रण (रन) | द 
 ड, ढ़ के स्थान पर ड, ढ-प्रयोग--झाड़ू (झाड़ ), क्रीडांगन (क्रीड़ांगन), पडता 

(पड़ता), पढता (पढ़ता), बूढा (बूढ़ा), मेंढक/मिडक (मेंढक), लडकी (लड़की) । 

..... ड़, ढू, ड, ढ़ का पारस्परिक व्यत्यय--ढेर (ढेर), बडाई (बड़ाई), कढ़ाही 

(कड़ाही), कड़ाई (कढ़ाई), लुड़कना (लुढ़कना), सीड़ियाँ (सीढ़ियाँ), घोड़ा (सोडा), 

ढाई (ढाई), डेर (ढेर), गड़ाई (गढ़ाई), चडाई (चढ़ाई) । द 


र के स्थान पर ड/लि-प्रयोग--घबड़ाना (घबराना), टोकड़ी (टोकरी), छोकड़ी' 


(छोकरी), प्रालब्ध (प्रारब्ध) । 

ब, व का पारस्परिक व्यत्यय--दवाब (दबाव), बर्ष (वर्ष), बिष (विष), 
बधू (वधू), बनस्पति (वनस्पति), ब्रत (व्रत), बन (वन), बंदेही (वेदेही), बसन्‍्त 
(वसनन्‍्त), सबेरा (सवेरा), बर (वर), बह (वह), बार (वार), धिम्ब (विम्ब), बिलास 


(विलास), बिकराल (विकराल), ब्यवहार (व्यवहार), बिनाश (विनाश), बन्धु 


(वन्धु), नञ्ाब (नवाब), बिश्लेषन (विश्लेषण), बिराट (विराट), बिधी (विधि), 
सर्ब (सर्व) । क्‍ आल, 
शब्द (शब्द), विन्दु (बिन्दं), सुबह (सुबह), वीज (बीज), वन्धन (बन्धन) । 


व-ब के अथ-भेदक कुछ शब्द-युग्म हैं--रव-रब, वह-बह, वली-बली, वाद- 


बाद, वात-बात, वार-बार, शव-शब । द 
... क्षं-छ का पारस्परिक व्यत्यय--आककांछा (आकांक्षा), नछलत्र (नक्षत्र), 


हे भहत्वाकांछा (महंत्त्वाकाँक्षा), लछ्मन/लछिमन (लक्ष्मण), लच्छन (लक्षण), छमा 
.. (क्षमा), छत्निय (क्षत्रिय), छेम (क्षेम), प्रत्यच्छ (प्रत्यक्ष), तत्छन (तत्क्षण), समच्छ 
5 (समक्ष)।. द क्‍ 


..क्षत्र (छत्त), क्षात्र (छात्र), वांक्षनीय (वांछनीय) 

....... श-ष-स का पारस्परिक व्यत्यय---कलस (कलश), पिचास/पिसाच (पिशाच) 
. प्रसंशा (प्रशंसा), मैथलीसरन (मैथिलीशरण), स्मसान (श्मशान), स्रवण (श्रवण) 
... शुश्नषा (सुश्रूषा), सूखला (श्र खला), सुरपेन्खाँ (शुपंणखा), शसि (शशि), श्राप 
... (शाप), साशीपरिषद (शासीपरिषद) 


. . आमिश (आमिष), पुश्प/पुस्प (पुष्य), आविस्कार/आविश्कार (आविष्कार), . 
.. निसाद (निषाद), विसाद (विषाद), वास्प (वाष्प), विसन्‍त (विषष्ण), सुसमा 


..._ (सुषमा), विश्लेशन (विश्लेषण), सुसुष्ति (मुषुष्ति), हितेशी (हिलैषी) 








वतंती | 99 


. अनुशरण (अनुसरण), अमावश्या (अमावस/अमावस्यथा), कैलाश (कैलास), 
आष्पद (आए्पद), कुशाशन (कुशासन), तिरिष्कारतिर्स्कार (तिरस्कार), प्रशाद 
(प्रसाद), साशन (शासन), श्रोत (स्रोत) । हि 

स्वर, व्यंजन वर्ण सम्बन्धी कुछ अन्य सिली-जुली अशुद्धियाँ---इन अशुद्धियों 

में आगम, लोप, व्यत्यय सम्बन्धी मिली-जुली अशुद्धियाँ/होती हैं, यथा---अ/इ-आगम, 
अ-लोप, य-आगम, य-लोप, त“-थ ट «- ->ठ, अनावश्यक हल, हलू-लोप, त्व“-त्त्व | 
इस प्रकार की कुछ अशुद्धियों के उदाहरण हैं-- ः 

... अभ्यस्थ (अभ्यस्त), अस्थाव/इस्थान (स्थान), अरमूद (अमरूद), अन्‍्तर्ध्यात 

(अन्तर्धान), अनिष्ठ (अनिष्ट), अध्यत (अध्ययन), अच्यना (अचेना), अच्ताक्षरी 
(अन्त्याक्षरी), अवन्नति (अवनति), अपन्हुति (अपह नुति), आहवान (आह वान), आद॑ 
(आदं), ईर्षा (ईर्ष्या), इकठठा (इकट्ठा), उचित्‌ (उचित), उत्पात्‌ (उत्पात), 
उच्युखल (उच्छ खल), उपलक्ष (उपलक्ष्य), उँचाई (ऊँचाई), भौद्योगीकरण 
(उददयोगीकरण), कनिष्ट' (कनिष्ठ), कार्यक्रम (कार्यक्रम), कृत्यक्ृत्य (कृतकृत्य), 
. कन्हय्या (कन्हैया), केन्द्रीयकरण (केन्द्रीकरण), गद॒ध॑व (गर्दभ), गडर (गुड़), गोष्यनीय 
(गोपनीय ), गृहस्थ्य (गृहस्थ), गरिष्ट (गरिष्ठ), घनिष्ट (घनिष्ठ), चिन्ह (चिह न) 
चर्मोत्कर्ष (चरमोत्कष॑), च्युत्‌ (ज्यूत), जेष्ट (ज्येष्ठ), त्याज (त्याज्य), तत्व (तत्त्व), 
दुवन्द (द्वन्द्व), प्रन्तु (परन्तु), पृथक (पृथक), पक्‍क (एक्व), प्रव॒र्त (प्रव॒त्त), प्रयाप्त 
(पर्याष्त), प्रत्युत (प्रत्युत्‌), प्रज्ज्वलित (प्रज्वलित), पृष्ठ (पृष्ठ), प्रसेश्वर (परमैश्वर) 
फालूगुण (फाल्गुन), ब्रम्ह (ब्रह म), ब्राम्हन (ब्राहमण), भर (भरत), भैय्या (भैया), 
भाग्यमान (भाग्यवान), भागवत्‌ (भागवत), महत्व (महत्त्व), यथेष्ठ [यथेष्ट), 
राज्यमहल (राजमहल), लिक्खा (लिखा), वनोवास (वनवास), व्योहार (व्यवहार), 
वांगमय (वाडः मय), श्याम (शाम), श्रीमान (श्रीमान), श्रीयुत (श्रीयुत), शत्र्‌ हू न 
(शत्र घ्न), सिध/सिंग (सिह), संतुष्ठ (संतुष्ट), सरवर (सरोवर), सदृश्य (सदश), 
सत्व (सत्त्व), समन्वय (समन्वय), स्वास्थ (स्वास्थ्य), स्थाई (स्थायी), स्मर्ण 
(स्मरण), सम्बाद (संवाद), हिरण्मयी (हिरण्यगयी), हिरण्यकश्यपु (हिरण्यकशिपु), 
अनुयाई (अनुयायी), उत्तरदाई (उत्तरदायी), दाइत्व (दायित्व), स्थाई (स्थायी), 
विधिवत (विधिवत्‌), बुबधिवान (बुद्धिमान), भविष्यत (भविष्यत्‌), सतचित 
(सच्चित) । द डर हि क्‍ 
लिह ग-प्रभावज वतंनी-अशुद्धियाँ--ये अशुद्धियाँ प्राय: संबंधित लिग के 
सही रूप का ज्ञान न होने के कारण होती हैं, यथा--अनाथिनी (अनाथ अनाथा), 
अश्वी (अश्वा), कोमलांगिनी (कोमलांगी), कृशांगिनी (कृशांगी), गरायकी (गायिका), 


.. गोपिनी (गोपी|गोपिका), चातकिनी (चातकी), त्रितयनी (चत्रिनयना), दिंगग्बरी; 


(दिगम्बरा), पिशाचिनी (पिशाची), भुजंगिनी (भुजंगी), विहंगिनो (विहंगी), 
सुलोचनी (सुलोचना), श्वेतांगिनी (श्वेतांगी) | जा अं म आ 








]00 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


प्रत्यय-प्रभावज वर्तेनी-अशुद्धियाँ-- इस प्रकार की अशुद्धियाँ शब्द-निर्माण 
के लिए लगनेवाले प्रत्यय के सही रूप या प्रत्यय के योग के समय मूल शब्द में होनेवाले 


रूप-परिवर्तन का सही ज्ञान न होने के कारण होती हैं, यथा--अनुसंगिक (आनुषंगिक), 


अभ्यन्तरिक (आशभ्यन्तरिक), अध्यात्मक (आध्यात्मिक), असहनीय/असहीय (असह य), 
अधीनस्थ (अधीन), आवश्यकीय (आवश्यक), इतिहासिक (ऐतिहासिक), उत्कर्षता 
(उत्कर्ष), एकत्रित (एकत्न), ऐक्यता (ऐक्य/-एकता), कौशलता (कौशल/|कुशलत्ता), 
गोपित (गुप्त), चारुताई (चारुता), चातुयता (चातुर्य/चतुरता), जानतांत्रिक 
(जनतांबिक), ज्ञानमान्‌ (ज्ञानवान्‌), तत्व (तत्त्व), त्रिवाषिक (त्रवाषिक), तत्कालिक 
(तात्कालिक), देहिक (दैहिक), दारिद्रता (दरिद्रता/दारिद्र य), दरसल में (दरअसल/ 


असल में), दवेवाधिक (द्विवार्धिक), धैयेता (धैय/धीरता), तावीन्‍्य (नवीन/|नवीचता), 


नैपुण्यता (नैपुण्य/निपुणता), निश्चयता (निश्चय), निरफ्राधी' (निरपराध), नीतिक 
(नैतिक), पौर्वात्य (प्राच्य/पौविक), पूज्यनीय. (पृज्य/पूजनीय), प्रफ़ुल्लित (प्रफुल्ल), 
प्रदेशिक (प्रादेशिक), प्रतिनिधिक (प्रातिनिधिक), प्रभाणिक (प्रामाणिक), पौरुषत्व 
-(पौरुष/पुरुषत्व), पूज्यास्पद (पूजास्पद), पृष्टी (पुष्टि), बाहुल्वता (बाहुलथ/बहुलता), 
बुद्धिमानता (बुद्धिमत्ता), महता (महत्ता), महत्व (महत्त्व), मैत्रता (मैत्री/मित्रता), 
माधुयता (मधुरता/माधुय), मान्यनीय (माननीय/मान्य), लब्ध प्रतिष्ठित (लब्ध 
प्रतिष्ठ), व्यवसाइक (व्यावसायिक), व्याकुलित (व्याकुल), व्यवहारित (व्यवहृत), 
विदूयवान (विद्यमान), व्यापित (व्याप्त), वास्तविक में (वास्तव में/वस्तुतः) 
वेधव्यता (वैधव्य), वेमनल्यता (वैमवस्थ), श्रीमान (श्रीमन|श्रीमान्‌), ण्ठम (षष्ठ) 
सनन्‍्यास (संन्यास), सर्वजतीन (सावेजनीन/सावेजनिक), साम्यता (साम्य|समता), 
सोख्यता (सौख्य), सुन्दरताई (सुन्दरता), सौन्दर्यता (सौन्दर्य /सुन्दरता); साहाप्यता 


_ (सहायता/साहाय्य), सप्ताहिक (साप्ताहिक), समुद्रिक (सामुद्रिक/समुद्री), सम्पककित 


. (सम्पुक्त), संसारिक (सांसारिक) । 


सन्धि-प्रभावज वतंनी-अशुद्धियाँ--इस प्रकार की भशुद्धियाँ संधि-्रक्तिया 


के सही नियम न जानने या संधि करते समय शब्द के सही रूप का ज्ञान न होने 
के कारण होती हैं, यथा--अधगति (अधोगति), अत्याधिक (अत्यधिक), अत्योक्ति 
(अत्युक्ति), अद्यपि (अद्यापि), अक्षोहिणी (अक्षौहिणी), अधस्पतन (अधःपतन), 
अन्तकरण/अन्तष्करण (अन्तःकरण), अन्तसदिय (अन्तः:साक्ष्य/अन्तस्साक्ष्य), अन्तस्पुर/ 
.. अन्तपु र (अन्तःपुर), अनाधिकार (अनधिकार), अनधिकारी (अनधिकारी), भधतल| 
- अधोतल (अधस्तल), इतिपूर्व (इतःपृर्व), उज्जल (उज्वल), उच्छास (उच्छवास), 


.. उपरोक्त (उपयुक्त), किमूवदन्ती (किवदन्ती), छत्तछाया (छत्नच्छाया), जगतेश[ 
... . जगतीश (जगदीश), जगबन्धु (जगदुबन्धु), जगधात्री (जगद्धात्री), ज्यात्याभिमान 
... जजात्यभिमान), जाग्रदवस्था (जाग्रदावस्था), जगतनाथ (जगन्नाथ), ज्योतीस्दध 


मे (ज्योतिरिच्र), तरुछाया (तरुच्छाया), तदोपरान्त (तदुपरान्त), दुस्कर (दुष्कर), 








वर्तेनी | 04 


दुरावस्था (दुरवस्था), नमष्कार/तमश्कार (नमस्कार), नभमंडल (नभोमंडल), निरस 
(नीरस), निरोग (नीरोग), निर्शेष (निश्शेष), निर्षेक्ष (निरपेक्ष), निर्षक्ष/निश्पक्ष 
(निष्पक्ष), पयोपान (पयःपान), पिन्नीण (पितृण), पुरष्कार (पुरस्कार), पुनररचना 
(पुनर्रचना), पुनराभिनय (पुनरभिनय), प्रतिछाया (प्रतिच्छाया), भाष्कर (भास्कर) 
भविष्यतवाणी (भविष्यवाणी), मनोकष्ट (मनःकष्ट), मनहर (मनोहर), मनोमोहन 
(मनमोहन), मनयोग (मनोयोग), मनोसाधना (मनःसाधना), मनोकासता (सन 
कामना), यशत्राभ (यशोलाभ), यावत्‌जीवन (यावज्जीवन), रीत्यानुसार (रीत्यनुसार), 
वयक्रम (वयःक्रम), वयवृद्ध (वयोवुद्ध) , विछेद (विच्छेद), वयोप्राप्त (वय:प्राप्त), 
शिरोपीडा (शिर:पीडा), सन्‍्मुख (सम्मुख), सम्हार (संहार), समृवरण (संवरण), 
समवाद (संवाद), सदोपदेश (सदुपदेश), सरवर (सरोवर), स्वयम्‌वर (स्वयंवर), 
हस्ताक्ष प (हस्तक्षेप) 


समास-प्रभावज वर्तती-अशुद्धियाँ--इस प्रकार की अशुद्धियाँ समास-प्रक्रिया 
के सही नियम न जानने या समास करते समय शब्द-रूप में होनेवाले परिवरतंत का 
ज्ञान न रखने के कारण होती हैं, यथा--अहोरात्रि (अहोरात्र), भअष्टावक्र (अष्टवक्र), 
आत्मापुरुष (आत्मपुरुष), एकतारा (इकतारा), उच्चश्रवा (उच्चे:अवा), एकलौता 
(इकलौता), कुतघ्नी (कृतघ्न), ग्रुणीगण (ग्रुणिगण), दुरात्मागण (दुरात्मगण), 
दिवारात्रि (दिवारात्र), निर्दोषी (निर्दोष), निग्रुणी (निगुण), निर्दंयी (निर्देय), 
नेतागण (नेतृगण), पक्षीगण (पक्षिगण), पक्षीराज (पक्षिराज), पितागण (पितृगण), 
पिताभकति (पितृभकति), प्राणीमात्र (प्राणिमात्न), प्राणीवुन्द (प्राणिवुन्द), भ्रातागण 
(भ्रातृगण), मातादेव (मातृदेव), मन्त्रीवर (मन्त्रिवर), माताभक्ति (मातृभक्ति), माता- 
हीन (मातृहीन), महात्मागण (महात्मगण), महाराजा (महाराज), मन्त्रीमंडल (मन्त्ि- 
मंडल), मनीषीगण (मनीषिगण), योगीवर (योगिवर), योगीराज (योगिराज), 
'राजापथ (राजपथ), राजागण (राजगण), राजापुत्र (राजगण), वक्‍तागण (वक्‍तृगण), 
विदयार्थीगण (विदयाथिगण), शशीभूषण (शशिमृषण), स्वामीभक्‍त (स्वामिभक्त), 
सशंकित (सशंक), सलज्जित (सलज्ज) , सकुशलपूर्वक (सकुशल/कुशलपूर्वक), सानन्दित 
(सानन्द), सूचीपत्र (सूचिपत्न) 
कुछ विशिष्ट शब्दों का वतंनी के बारे सें स्पष्टीकरण---आगे दिए गए शब्दों 
में से कुछ शब्दों की शुद्ध वर्तती का आधार परम्परागत वर्तनी है, कुछ का आधार 
शब्द-ख्रोत है, कुछ का उच्चारण-सौकये । कुछ शब्दों की शुद्ध वर्तती का आधार 
शब्द-निर्माण प्रक्रिया है. और कुछ का व्युत्पत्ति। स्पष्टीकरण संक्षेप में दिया 
गया है-- द 
... अक्सर (अ' लोप के आधार पर “अक्सर अधिक प्रचलित है, अकसर _ 
बहुत कम प्रचलित है। उदृ में भी अक्सर है । अगरचे (< अगरचहू, उच्चारणानु- 
गामी वतंनी)। अतएवं (<-अतः--एवं) । आदि (८-इत्यादि, वर्ग रह), आदी 








02 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(< आदत) आदती' अशुद्ध । विशेषण आलसी < संज्ञा आलस < आलस्य । इन्दिरा 
(लक्ष्मी), इख्द्राणी (--इन्द्र-पत्ती)। इनकार (इंकार [इडः कार ||इन्कार अगुह- 
णीय) । उपयुक्‍त (<उपरि--उक्त) अतः “उपरोक्त त्याज्य है। इसी प्रकार 





_पुनरक्‍त (पुनः--उक्त), पुनरुक्ति (पुनः--उर्क्ति), न कि 'पुनरोकत, पुनरोक्ति। 


उज्ज्वल (<उत्‌--ज्वल) 'उज्वल' अशुद्ध । उस्सीदवार (उम्मेदवार अग्रहणीय | 


 उदू में 'उम्मीद' प्रचलित)। उलदा (<उलट--आ), उल्टा त्याज्य। उषा 
(<उष:काल; ऊषःकाल हिन्दी में अगृहीत । एकत्र (अन्यत्र, सवंत्न के वजन पर), 


विस्तारित, प्रचारित, व्याख्यायित के बजुन पर 'एकत्रित' अशुद्ध शब्द-निर्माण । एका- 
एक (<यकायक यक-ब-्यक) । करता (<कर---ता), कर्ता (< सं ५/क्) | कवयित्री 


 (<सं.कव्‌ > कवि, कवयित्री) कवियित्री” अशुद्ध । कार्यकारिणी (<कारी-- -नी), 
'कार्यकारणी अशुद्ध । कार्रवाई (८ 3००0), कार्यवाही (5-770०6९००४5) । 
कृति (निर्मित रचना) । कृती (-> रचनाकार), केंचुआ ( ++ £4790777), केंचुली 


(जन्साँप की ऊपरी खाल) । कोश ( न"7»लांगाक्षाए) , कोशिका (<- सब से छोटा ०७॥|), 
कोष (>निधि)। -खोर (>|खानेवाला, यथा--घूसखोर), -खोरो (>-खाता, 


यथा--घूसखोरी) इस अर्थ में खोर, खोरी” अशुद्ध । खोमचा (संज्ञा, खोमचेवाले) 
खोंचा (< खोंचना का पूर्ण पक्ष रूप)। गलती (<गलत-- -ई), गलती” त्याज्य । 
गर्मी (गरमी का उच्चारणानुगामी रूप) तथा कर्म के सादृश्य पर गर्म। गरम 
करम के सादुश्य पर अगृहीत | गुरू <गुरु (व्यंग्याथे चालाक/बदमाश)। गुहीत 
(<4/गृह से झदन्त विशेषण), ग्रहीत, 'अनुग्रहीत” अशुद्ध । ग्रहण (संज्ञा) >> 


अनुप्रह, उपग्रह | यृह (>> घर) >> गृहिणी, ग्रह (+-नक्षत्र)। चमत्कारक (<:चम- 


त्कार-- -क) चमत्कारिक अशुद्ध। चाबी (<पृतं० चावी) चाभी” अग्राह य । 
चाहिए (<५/चाह-- -इए) चाहिये अग्राहय । चिघाड़ ग्राह य विग्घाड़' अग्राह य । 


घग्घर <घर-घर (->एक नदी-ताम), घ॒ण्घू (>-घू-धूं करनेवाला भर्थात्‌ उल्ल 


पक्षी) । चुनांचे<चुनान्चह, चुनाचहु। छह (<:षष्‌) से छहो/छहों ग्राहूय 'छ 
-भशुद्ध क्योंकि हिन्दी के अपने शब्दों में विसर्गान्‍्त शब्दों का अभाव है। 'छे” छह 


का उच्चरित रूप । जागना (१/जाग), जगाना ग्राहुय, 'जगना” अग्राहय | इसी 


प्रकार भागना, भगाना ग्राहू य, भगना' अग्राहू य | जूमोंदार (< जुमीन -- -दार) 
- जुमीनदा र* में पहला रूप उच्चारण-सौकर्य के कारण अधिक ग्राह य । झज्झर < झर- 


झर (>पानी का बतेन)। झोंपड़ी ग्राहूय. (पश्चिमी हिन्दी में 7ें का उच्चारण 


भचलित) , सम्भवत: उच्चारण-अभावस्वरूप झौंपड़ी” रूप प्राप्त किन्तु अग्राहुय । 
.. ठंड (>-+मौसम-विशेषता, मौसम), ठंडक (->प्रिय ठंड), 'ठंढ' ठंढा, ठंढक' (-णू- -- 


) हिन्दी-प्रकृति के अनुरूप न होने के कारण त्याज्य । डुबाना (<ड्बना) ग्राहय, 


.._डुबोना' अग्राह य; इसी प्रकार भिगाना (<भीगना), चुभाना (<चुभना) ग्राहय 


._भिगोना, चुभोता' अग्राहू य। तनहा>तनहाई ग्राहू य; नहा त्याज्य | तत्त्व (<< 


. तत -- -त्व), तत्व (त+ -त्व|तत-- -व) अशुदध । तलाश >> तलाशी (जेब 


न नमधुच्या८ 2 >दापाण खरे परत पत 77 एटा 77 आम्इालकत 








बतंती | 03 


की तलाशी, नौकरी की तलाश; घर-धर की' तलाशी, प्रेमी की तलाश) | तोल 
(>भारोत्तोलन), तोलना ग्राहूय, तोल, तौलना' अग्नाहू य; तोला (5 तोलाज--+] 
छटठाँक) से भेद करने की दृष्टि से सम्भवतः तौला ("तोलनेवाला) शब्द का 
प्रचलन हुआ होगा जिस से तौल, तौलना शब्द पश्चिमी हिन्दी में चल पड़े हैं । 
त्योहार ग्राहूय, त्यौहार अग्राह य; इसी प्रकार न्योता ग्राहय, न्योता” अग्राह य । 
दस्पति (<दम्‌ स्त्री, पति>पुरुष) ग्राहु य, 'दम्पती/दम्पत्ति” अग्राहय | -दायी 
< -दाय--उत्तरदायी, उत्तरदायित्व, अंशदायी ग्राहूुय, “-दाई” अग्राहय किन्तु 
दाई (<धाय) ग्राहूय । दर्जा उच्चारण-सौकर्य के कारण भ्राह य, दरजा' अग्राह य । 
दुकान उच्चारण-सौकर्य के कारण ग्राहू य, दूकान' अग्राह य । दुःख, दुःखद परम्परा- 
नुगामी वर्तती के कारण अधिक ग्राहय, दुख, दुखद” उच्चारण-सौकरयें के कारण 

ग्राहुय । दुनिया शुद्ध ; शायद 'मजनू', रुमाँ आदि के सादश्य पर “दुनियाँ” प्रच- 
 लित, किन्तु अग्राहू य | दुविधा (-- पशोपेश ॥)]07779) शुद्ध, द्विवधा' अशुद्ध । 
बहुविध” की भाँति द्बिबिध ग्राह य, द्विविधाएँ” भी अग्राह य | द्रष्टव्यू (<< दृष्टि), 
द्रष्टा शुद्ध, दुृष्टव्य, दुष्टा' अशुद्ध। धारिणी (<धारण) शुद्ध, धारणी' 
अशुद्ध । धोखा शुद्ध, 'धोका' अशुद्ध । नरक (सं.) शुद्ध, स्वर्ग के सादृश्य पर 
बना शब्द, 'नको अशुद्ध । निदेशक ("संस्थान का प्रमुख अधिकारी ॥)6००7 ० 
थ7। 80४0॥), निर्देशक (-- निर्देशन देनेवाला /976007 ००2 7 ९८०.) , 
_ निर्दिष्ठ (< निर्देश -> बताना/दिखाना) । परवाह शुद्ध, 'परवा' अशुदध; प्रतिपदा 
>पड़वा>-परवा प्रचलित । पहन (< ,/पहनना) शुद्ध, 'पहिच”ः अशुद्ध । पहचान 
शुद्ध, पहचानतं, पहिचानत” हिन्दी में अस्वीकृत । पुर्बाग्नह (< पृ्व॑--आग्रह, किसी' 
बात को पहले से ही आग्रहपूर्वक मान बैठना), पूव॑ग्रह' ( < पूर्व--ग्रह, पहले से 
पकड़े हुए होना--किसी बात/सिद्धान्त को) अस्वीकार्य । पौंड (> इँगलैंड की 
मुद्रा), पाउंड|पाउण्ड ( वजन विशेष); अँगरेजी में दोनों शब्दों की वर्तती, उच्चारण 
एक ही है। पौधा (>>छोटे आकार का आरम्भिक वक्ष), पौद (5>एक स्थान से 
दूसरे स्थान पर रोपे जानेवाला पौधा), पौदा, पौध सादृश्यः पर निर्मित शब्द 
- अस्वीकार्य । प्रणय (प्रेम), परिणय (>-विवाह)। प्रतिशत पारिभाषिक शब्द है 
प्रति शा (विशेषण--विशेष्य नहीं है) अग्राहूय। प्रथा (>> रिवाज/परम्परा), 
पृथा (- कु तिभोज की पुत्री कुन्ती”) प्रविष्ठ (< प्रवेश करना” का क्ृदन्‍्त रूप) 
होना, प्रविष्टि (+ इंदराज संज्ञा< दर्ज )। बचपन (<बच्चा--पत८-बाल अवस्था) 
>बचपना) 5 अबोधता/नासमझी) । बंढे. (< बँटना <बाँटना) की' अनुनासिकता- 

क्षीणता के कारण बदे गणित में प्रयुक्त यथा--2$ +>दो सही तीन बढे ( | बढा) 
. चार | बहन (< बहिन < भगिती) >> बहनोई.( < बहन-+- -ओोई), बहरा, बहकना, 
. पहला, रहना के अनुकरण पर स्वीकार्य, बहिन, बहिनोई, बहिरा, बहिकना, पहिला, 
.. रहिना, 'पहिचान! अस्वीकार्य । बुड़ढा (>-कुछ तिरस्कार भावनायुत वृद्ध), 
बूढ़ा (>न्वृद्धः होने की स्थिति), बुड॒ढी, बुढ़िया (कुछ तिरस्कार भावनायुत 








04 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


वृद्ध महिला), बूढ़ी (>बृद्ध महिला)। बुधवार (>बुध ग्रह का दिन, ने कि 
भगवान्‌ बुदूध का दिन अतः) बुद्धवार! अशुद्ध। भट (--राजा का योद्धा) 
भट्ट (>-ब्ाह मणों की एक उपजाति)। भव्भड़ (<भड़भड़) । भर्तो (< भर-- 


-ती) उच्चारण-सौकर्य के कारण ग्राह य, 'भरती' (< भरत-- -ई के भ्रम के कारण 


भी) अप्रचलित । सदद :> इम्दाद|इमदाद(* मदत, * मददें) | महत्त्व (< महत्‌ -- 
एव), महत्व (<मह-- -त्व|/महत्‌-- -व) अशुद्ध । सुकदसा परम्परानुगामी 
वर्तेती होने के कारण शुद्ध, “मुकद्दमा' अशुद्ध । मुस्कराता शुद्ध, “भुस्कुराना' 
उच्चारण भीः प्राप्त, किन्तु लेखन में अशुद्ध । रखा (< रख-- -आ) शुद्ध; 
बलाघात के कारण “रक्खा' उच्चारण भी प्राप्त, किन्तु लेखन में अशुद्ध । रिक्‍्तता 
( >>सूनापत, <रिक्त--खाली), रिक्ति ( -++ ४४८४॥०५) । रिक्शा जापानी शब्द 
हैं, अतः 'रिक्षा/रिक्षा' अशुद्ध । ललचाना (<< लालच) शुद्ध, 'ललचना' अशुद्ध । 
लिखा (< लिख-- -आ) शुद्ध, बलाघात के कारण 'लिक्खा' उच्चारण भी प्राप्त, 
किन्तु लेखन में अशुद्ध। बकतन फवक्तन ( >> कभी-कभी) > * वक्‍त बेवक्त 
(शब्द दोष युक्त प्रचलन) । वापसी (<_ वापस) ग्राह य, 'वापिसी' अग्राह य । वेश 
(>वेश-भूषा) ग्राह य, वेष/भेस” अग्राहूय । शताब्दी (<सं. शताब्दि। शब्या 


(<सं.९/शे >शय्‌, शयन, शायिका, “शायी) ग्राह य; गैया, मैया, ततैया की तर्ज । 
पर शेया प्रचलित, किन्तु अग्राहय। श्ूगार (सं.) शुद्ध, श्वगार/अगार 


अयुदथ। संघटन (<सं.९/ घट संयोग, मेल; रचना, निर्माण) का विलोमार्थी 
विघटन शुद्ध, “* विगहन” अशुद्ध; संगठन, संगठित (< गठन << १/गठ नाम- 
धातु >संगठन - संयोग, सेल; रचना, निर्माण) शुद्ध, 'घटनः अशुद्ध । सँसलना, 
संभालना, अँधेरी, जँभाई (--अन्हेरी, जम्हाई) की भाँति ग्राहू य; “अन्हेरी, जम्हाई' 
की भाँति सम्हालना' त्याज्य। सचाई (<सच< सच्च << सत्य) प्राहू य, 'सच्चाई' 
(<सच्चा-- -ई) अग्राहये। सम्मान (<< सम्‌-मान > अच्छी तरह मान|आदर 
करना) के अर्थ में सम्मान! (<सत्---मान - अच्छा भ न/आदर करना) अग्राह य । 


: सबेरा, सबेरे अधिक प्रचलित, सबेरा, सबेरे' भी कहीं-कहीं प्राप्त । सुबह (अरबी)... 


. आहय, सुबह अग्राह्‌ य | सांख्यिकी (< संख्या) ग्राहय, सांख्यकी (< सांख्य--की) 
अशुद्ध । सांस्कृतिक (< संस्कृति-|- -इक), सांसारिक (<संसार-|- -इक) शुद्ध, 
_सॉस्क्ृतिक, साँसारिक' अशुद्ध; इसी प्रकार गाँधी” अशुद्ध, गान्धी/गांधी (< गंध 


इन) शुद्ध; किन्तु आँधो शुद्ध, 'आंधी' अशुद्ध, अंधी शुद्ध | सारिणी . 


 (<-सं. सू न-णिनि 5 706 समय-सारिणी) सरिणी (सं.) -+ रक्त पुननेवा, गन्धसारिणी 
.. सारणी (<सरण“-सारण-- -ई >नहर, नदी, जलमार्ग । साहित्यिक (< साहित्य 


गा इक) शुद्ध, 'साहित्यक' (< साहित्य - क) अशुद्ध । सुगन्ध (<सु-- गंध), 


8 724 धे' : न्धि ै हा 
०7 अईव, सुग्ंधि, (<सु--गन्धि) युद्ध । जबित (< स्राव) शुद्ध, 'स्त्रवित/स्त्रावित' 
... अशुद्व। द्रष्टा (<सृष्टि) शुद्ध, सृष्ठा अशुद्ध । स्रोत 


मन म ही हे 7 शुद्ध, इस के स्थान पर 
स्त्रोत लि ता जयुदध सहल्न शुद्ध, सहस्त्र/सहस्त्र' अशुद्ध । हरिद्वार, हरिजन, 








रु 
"- 
पा 
हे 
ः 
हां 
न्‍ 
0, 
! 
पी 
१ 
हि 
है 
हर, 
पे 
ः 
१ 
् 
ि 
+ 2 हि 
हा 
भर, 
गा 
पर 
दे 
हे 
| 
| 
४ 
हम 
५ 
हम 
है 
ः' ।; 
कं 
| 
, 
रा 
! 
| 
५ 








>> 0४90४ 9224: 





बरतनी | 05 


(< हरि) शुद्ध, हरीद्वार, हरीजनः अशुद्ध | कहीं-कहीं 'हरद॒वार' (<हर-- 
दवार) शब्द भी प्रचलित किन्तु 'हरजन' अशुद्ध । हरेक (<हर--एक) अधिक 
ग्राह य, हर एक हरएक कुछ एक की तज़्रह कम ग्राहय। हलुआ से अधिक हलवा 
(<: हलवाई) ग्राहूय, 'हलुवा अग्राहुय। हिमाचल (<हिम--अचल>ब.फे क 
पहाड़), हिमाचल (< हिंम --अंचल - बफ का क्षेत्र) 
द विरासादि चिह न 
वर्तनी का परोक्ष सम्बन्ध विरामादि चिहनों से भी है। भाषा-उच्चारण में 
जो संगम है, लेखन में वही विराम है। विराम का अथे है--विश्वाम या रुकना । 
भाषा-व्यवहार में कभी एक पूरे वाक्य के बाद, कभी वाक्यांश पर और कभी एक शब्द 
के बाद भी वकक्‍ता कुछ क्षण के लिए रुकता है । इस विश्वाम को लेखन में विरामादि 
चिह नों से व्यक्त किया जाता है। क्‍ 
विरामादि चिह नों का उपयुक्त प्रयोग वाक्य के आशय को स्पष्ट कर भाषा 
को सौष्ठव प्रदान करता हैं। इन चिह नों के प्रयोग से भाषा में उपयुक्त प्रवाह, 


संयम और बोधगम्यता आ जाती है। विराम चिह नों का अनुपयुकत प्रयोग' कभी- 


कभी अर्थ का अनर्थ भी कर देता है और भाषा को दुर्वोध बना देता है, यथा-- 
खाओो, मत फेंको--खाओ मत, फेंकी । हिन्दी में अचलित विरामादि चिहनों के 
नियम अभी पूर्णतः स्थायित्व नहीं पा सके हैं क्‍योंकि अन्य भारतीय भाषाओं की 
भाँति हिन्दी में भी विरामादि चिहनों के प्रयोग का प्रचलन कुछ सौ वर्ष प्राना 
ही है । अगरेजी भाषा के प्रभाव से इन का प्रयोग बढ़ा है। प्रचलित विरामादि 
चिह नों के प्रयोग-नियस ये हैं--- 


() अल्प विराम (,) अल्प विराम का अर्थ है--थोड़ी देर के लिए रुकना| 
टहरना|आराम करना । लेखन में लेखक अल्प विराम की आवश्यकता का अनुभव 


करने पर इस चिहन का प्रयोग करता है। इस चिह॒न का प्रयोग इन स्थितियों 
किया जाता है--- 


. दो से अधिक समान स्तरीय पदों/पदबंधों/उपव!क्यों में पार्थ॑क्‍्य प्रदर्शन 


के लिए, यथा--- 


हरीश, रमेश, दिनेश ओर सभी बच्चे सिनेमा देखने गए हैं। छोटी, हलकी 
अंडाकार तथां चित्रकारीवाली तश्तरी लाना। तुम्हारे भाई साहब तो बहुत सवेरे 


ही उठ कर, नहा-घो कर और नाश्ता कर के ऑफिस चले गए। ये छात्र साहित्य, 
 शर्शनशास्त्र, समाजशास्त्र, गणित और विज्ञान पढ़ते हैं । 


अल्प विराम अन्तिम दो सभान स्तरीय पदों के मध्य नहीं आता । कछ लेखक _ 
बड़े-बड़े पदबन्धों/उपवाक्यों को “और' से जोड़ते समय अँगरेजी के अनुकरण पर 


ओर से पूर्व भी विशेष अवधारण हेतु अल्प विराम लगाते हैं, यथा--वह कमरे में. 














06 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


घुप्ती, अन्दर से दरवाजा बन्द किया, और सोफे पर पाँव फैला कर पसर गई। उस 
का कथन निन्दनीय, अहंकार पूर्ण है, और इसीलिए त्याज्य है । 


2. भावात्तिरेक में बल देने के लिए पदों की पनरावत्ति करते समय और 


अस्तु हाँ, जी हाँ, देखो, लो जैसे कुछ शब्दों के बाद, यथा--- 


देखो, देखो, वह इधर ही आ रही है। नहीं, नहीं, मैं ऐसा कभी' नहीं 
करूगी । मैं यहाँ देर से, काफी देर से आप का इन्तजार कर रहा हू | हाँ-हाँ, ले 
लो, कोई कुछ नहीं कहेगा । "३ 

3, वाक्य में अन्तर्वती (?/थआाएं०४5) या समानाधिकरण पदपदबन्धउप- 
वाक्य आ जाने पर उन्हें पृथक करने के लिए, यथा--- 

अयोध्या-नरेश, दशरथ, के तीन रानियाँ थीं। 959 में रामचन्द के नेतृत्व 
में कानपुर में जो टेस्ट खेला गया, वह दूसरा टेस्ट मैच था, जिस में आस्ट्रेलिया को 
पराजय स्वीकार करती पड़ी थी, यद्यपि आस्ट्रेलिया के सामने वह हमारी पहली 
विजय थी। क्रोध, चाहे जैसा भी हो, मानव मात्र को दुबंश बनाता है। राजा 
दशरथ, तीन पत्नियों के पति और राजा राम, एक पत्नीब्रतधारी के गृहस्थ जीवन 
का अच्छा चित्रण हुआ है। वे सभी यात्री, जो विमान दुर्घटना के शिकार हुए थे, 
अब स्वस्थ हैं । 


अँगरेजी के अनुकरण पर इस प्रकार का अनुवाद हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल . 
न होने के कारण अग्राह य है, यथा--9॥0, 6 हाय ए0७६ दा लगंत6, ए88.. 
. & ४०४०0]७', इलियट, महान्‌ कवि तथा आलोचक, बड़े विद्वान्‌ थे। ग्राहूय रूप 


होगा--महान्‌ कवि तथा आलोचक इलियट बड़े विद्वान थे । 


4. अँगरेजी में 88 ॥, 0 छक्षा779/0, ॥0ए6फएट',. प्रग॒शात डश्ावी॥ड, 
800 85, ६00 आदि के बाद अल्प विराम का प्रयोग कसरत से होता है । इस के. 


अनकरण पर हिन्दी (विशेषत, कथा साहित्य) में भी कथन पर बल देने के लिए 


“निश्चय ही, फिर भी, उदाहरण के लिए, तो, और, वस्तुत: के बाद तथा किन्तु, अतः 


इसलिए, क्योंकि, इसी से, जिस से, तथापि, पर, परन्तु” से पूर्व अल्प विराम लगाने 
. लगे हैं, यथा-- 


उदाहरण के लिए, तुम्हें इस तरह का व्यवहार शोभा नहीं देता । और, 


.. एक तुम्हारे पिता हैं जिन के लिए आराम हराम है। आज वे बहुत थके हुए हैं, अतः 

.. उन्हें विश्राम करने दो । मैं ने इसे काफी समझाया, किन्तु वह मानी ही नहीं । आज... 
.... मैं काम पर नहीं जा सक्‌ थी, क्योंकि मेरी तबीयत ठीक नहीं है। भाषाएँ भिन्‍त-भिन्‍त 
.. रहें, लेकिन लिपि एक रहे तो देश का कल्याण हो जाए। । 


हक किसी को सम्बोधित करने पर सम्बोधित शब्द के बाद अल्प विराम का 
हे ५ प्रयोग होता है, यथा--- “|. 























वतंवी | 07 


दोस्त, तुम्हें मेरा यह काम कराना ही पड़ेगा । देवियों और सज्जनों अब 
वह समय आ गया है जब हम सब को मिल कर देश को संकट से उबारना होगा। 
बटे, अब तुम घर जाओ । 


6. वाक्य के मध्य में अब, तब, तो, यह, या, वह, कि, सो, और तथा 
किसी अन्य योजक शब्द के लोप होने पर या अभाव में लुप्त शब्द से पूर्व अल्प विराम 
का प्रयोग होता है, यथा--- 

सदन खेल रहा है, रमा पढ़ रही है। (और'-लोप) | तुम ऐसा उपाय करो, 
जिस से साँप भी मर जाए और लाठी भी न टुठे। ('कि-लोप) । जवानों से युद्ध 
भूमि पट गई, दोनों ओर से दल के दल उमड़ पड़े, तलवारें चमकीं, भाले चले और 
बात की बात में रक्त की सरिता बहु निकली । (और“-लोप) । माँ जो कह रही हैं, 
ध्यान से सुनो । (वह*-लोप) । मैं कब तक मैसूर में रहेगा, कह नहीं सकता। 
(यह'-लोप) तुम जहाँ जाते हो, बैठ जाते हो | ('वहीं-लोप) हमें जो कहना था सो 
कह दिया, आगें तुम जानो । (अब*-लोप) द 

7, दो से अधिक शब्द-यर्मों के एक साथ आने पर अन्तिम शब्द-यग्स के 
अतिरिक्त शेष के मध्य, यथा-- 


तुम में से कौन ऐसी है जो खाना-पीना, पहचना-ओढ़ना, रोना-हँसना, पढ़ना- 
. लिखना और गाना-बजाना नहीं जावती ? हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश 
विधि हाथ । (कविता के कारण अन्तिम शब्द-यूग्म से पूर्व भी) 


8, कर्ता के बाद आनेवाले रीतिवाचक पदबन्ध के पूर्व और बाद में या 
एक लम्बे वाक्य में एक से अधिक स्वतन्त्र उपवाक्य होने पर अल्प विराम का प्रयोग 
होता है, यथा-- 


महात्मा बुद्ध ने, मायावी जगत्‌ के दुःख को देख कर, तप' आरम्भ किया । 
शैलजा, घर-गृहस्थी के क्‍्लेश से ऊब कर रेल के नीचे कट मरी । उस ने भी चाहा 
था, ऐसे कुलाँचें भरे, ज॑से हिरणी मैदान में दौड़ती है, ऐसे बोले, जैसे कोयल बसन्‍्त 
आने पर ककती है । 


9. एक से अधिक इकाई के रूप में अक-लेखन के समय, यथा--- 

|, 2, 34 0 06% 50 “600 7/0"5७७. | 200 300 "४३8३ 

0. उद्धरण चिह॒ न से पूवें, यथा--. 

चाची बोली, चलो, अब सब मेहमानों से परिचय करवा दूं । शशिकांत' 
ने कहा, “भागो, डाकू आ रहे हैं। क्‍ हर 

]. दिनांक/[तिथि को सन्‌|संवत्‌ से पृथक करने के लिए, यथा-- .. 

[] फरवरी, 988 को केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, मैसूर केन्द्र की स्थापना 

हुई । !9 से 25 मां, 989 तक का भविष्य-दर्शन । 








08 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


]2. बस, वस्तुतः, अतः, अच्छा, हाँ, नहीं, सच, सचमुच वाक्य-आरम्भक 
शब्दों के बाद अल्प विराम का प्रयोग होता है, यथा--- 
... बस, बहुत हो गया; अब बन्द भी कीजिए, अपनी झाँय-झाँय । अच्छा, यह 
चाल चली है तुम ने मेरे साथ । सचमुच, तुम बड़ी भोली हो । 
(2) अर्ध विराम (;) अल्प विराम से कुछ अधिक देर के लिए रुकने/ठहरने 
की दृष्टि से लेखन में इस चिह॒ न का प्रयोग इन स्थितियों में होता हैं-- 
). संयकक्‍त वाक्य के उपवाक्यों में प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होने पर, यथा--- 
.. फलों में कमल को सर्वश्रेष्ठ फल माना जाता हैं; किन्तु कश्मीर की घाटी 
में और ही प्रकार के फूल विशेष रूप से देखे जा सकते हैं । 
. 2, योजक शब्दों से जुड़नेवाले छोटे-छोटे वाक्‍्यों के मध्य विकल्प से (योजक 
शब्दों का प्रयोग न करने पर), यथा--- 
... हम महादेवी जी की कोठी पर पहुँचे; वे मिलीं; हमें देखा भी; किन्तु किसी 
वेषय पर कोई चर्चा न हो सकी । 
3. एक ही मृख्य विषय से जूड़े हुए वाक्‍्यों के मध्य, यथा--- 
यह सही है कि तुम ने वेदों का अध्ययन कर लिया है; श्र्‌ तियों का गहन 
चिन्तन किया है; उपनिषदों को छान मारा है; किन्तु गीता जैसा गूढ़ तत्त्व तुम्हें 
कहीं नहीं मिलेगा । द हर 
(3) अपूर्ण विराम (:) अर्ध विराम से कुछ अधिक देर के लिए रुकने|ठहरने 
की दष्टि से लेखन में इस चिह॒न का प्रयोग इन स्थितियों में होता है--- क्‍ 
. किसी कथ्य के मुख्यांग तथा गौणांग में पृथकता-प्रदर्शन के लिए, 
यधा-- 
(क) सूरदास : एक विवेचनात्मक अध्ययत (ख) रामचन्द्र शुक्ल : दर्शन 
और चिन्तन द 
2. किसी सम्बद्ध तथ्य के घठकों के' मध्य, यथा[--- 
(क) समय : तीन घंटे... प्रर्णाक : 00 
.._ (ख) वर्ष : 40. अंक : 9 (ग) देश-देशान्तर : 20 (घ) खबरों के आगे- 
पीछे : विश्वनाथ : 45 द द । 
(4) पूर्ण विराम (|) पूरी तरह रुकने/ठहरने को पूर्ण विराम कहा जाता 
. है। सामान्यतः बोलने या लेखन में जहाँ वाक्य अन्तिम रूप ले लेता है, वहाँ पूर्ण 
विराम का प्रयोग होता है । इस चिह न का प्रयोग इन स्थितियों में होता है--- 
. सामान्‍य वाक्य के पूर्ण होने पर इस चिहन का प्रयोग होता है 


गाज 





.. ... मैथिलीशरण गुष्त आधुनिक हिन्दी के प्रमुख कवि थे। पं० महावीर प्रसाद 
. दुविवेदी ने उन्हें खड़ीबोली हिन्दी में कविता लिखने के लिए प्रोत्साहित किया था। 




















बरतनी | 09 


2. दोहा, चौपाई, सवैया आदि की प्रत्येक पंक्ति के पश्चात्‌ एक पूर्ण विराम 
और पूरे छन्‍्द के अन्त में दो पूर्ण विराम चिह नों का प्रयोग होता है, यथा--- 
देख पराई चूपड़ी, मत ललचावँ जीय। 
रूखी सूखी खाय के, ठंडा पानी पीय ॥| 


3. कभी-कभी किसी' व्यक्ति/वस्तु/बटना/क्रिया-व्यापार का सजीव वर्णन 


प्रस्तुत करते समय (सामान्यतः स्वतन्त्र) वाक्‍्यांशों के अन्त में अर्ध विराम के स्थान 
पर पूर्ण विराम का प्रयोग होता है, यथा-- 


साँवला सलौना रंग। गालों पर हलकी-सी ललाई । पतले-पतले बिम्बाफल 
-से रक्तिम ओठ । धनुषाकार पतली भौंहों के बीच से कुछ ऊपर चित्नित बिन्दी । 
बालों की एक लट माथे पर बल खाती हुई इठलाती-सी । कमल कलौ-सी' बड़ी-बड़ी 
आँखों में सरोवर की गहराई । 
(5) प्रश्मसूचक चिह न (?) इस चिह न का प्रयोग किसी भी प्रकार के ऐसे 
वाक्य के अन्त में होता है जिस से किसी प्रकार के प्रश्त का बोध हो, यथा--- 
. प्रश्नसूचक पूर्णांग या अपूर्णांग वाक्यान्त में, यथा-- द 
... तुम कहाँ जा रहे हो ? क्‍या कहा ? झूठी ? आप शायद महाराष्ट्र के रहनेवाले 
हैं? अरे भाई, जहाँ घूसखोरी का बोलवाला हो, वहाँ ईमानदारी और कार्य-निष्ठा टिक 
सकती है भला ? इक्क्रीसवीं सदी के स्वागत का सब से बड़ा शिष्टाचार है-- 
भ्रष्टाचार, है न ? द 
(6) विस्मयादिसुचक चिह॒न (!) इस चिह न का प्रयोग विविध प्रकार 
के मनोद्गारों को व्यक्त करने और किसी को सम्बोधित करने के लिए इन स्थितियों 
में किया जाता है-- 
« मनोवेगों/उदगारों (हर, विषाद, भय, करुणा, घुणा, आश्चयें आदि) के 
सूचक शब्दों के बाद; आवश्यकतानुसार वाक्यांत में भी, यथा--- 
वाह ! खूब ! यह तो अच्छी खबर सुनाई तुम ने ! अच्छा ! अब तुम लोग 
ऐसे नहीं मानोगे । देख ली आप की भी सहानुभूति ! वाह ! भई वाह ! क्‍या 
कहने हैं तुम्हारे ! देखा, कितना अच्छा गीत गाया था उस ने ! 
2, सम्बोधित शब्दों के बाद, यथा-- 
हे ईश्वर ! मेरे बेटे की रक्षा करना | है राम ! अब तुम्हीं भेरे कष्ट दूर कर 
सकते हो। शिवाजी--ताना जी ! अब आप ही इस दुर्गे की रक्षा कर सकते हैं । 
. 3. छोटों के प्रति शुभकामनाएँ या सदभावनाएँ व्यक्त करते समय वाक्यांत 
.. में, यथा-- 


देश के यशस्वी सपृत कहलाओ 


प्रिय मनोज [ स्नेहाशी्वाद ! भगवान उन सब का भला करे | तुम सब _ 


| 
*!)॥ 
(३! १! द 
8 
| 
ना 
हि! 
) 
| 
५४ 
रु 
| 


| 
/| 
री 
( 
(१ 
| 
१58 
है 
हर | 
0 
॥।क्‍ 
| 
| *' 

'. ॥| 
हद! 
40) 
' 
; 

५ ॥ । 
है 
48 
|] 
] 
6 
| 
2 
| 
। 








80 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(7) उद्धरण चिह न (/ ) इस के दो रूप प्रचलित हैं--दुहरा उद्धरण 
चिहन “ ” , इकहरा उद्धरण चिहुन ' । इन के प्रयोग इन स्थितियों में 
होते हैं--- द द 
!. “कोई वाक्य, अवतरण का अंश ज्यों-का-त्यों उद्धृत करते समय अथवा 
किसी शब्दादि विशेष की ओर पाठक का ध्यान आकषित करने के लिए दुहरे उद्धरण 
चिह न का प्रयोग .किया जाता है, यथा-- रा 


अध्यक्ष ने बताया, “सभी प्रस्ताव बहुमत से पास किए जाएंगे । 


37 (६; 


स्वतन्त्रता 


हमारा जन्मसिदूध अधिकार है --लोकमान्य तिलक । “कमला । उस ने संजीदगी 


से कहा, छोड़ क्‍यों नहीं देती उसे । 2 रा 
2. किसी पुस्तक, समाचार पत्र, लेखक|कवि-उपनाम, ले ख-शीर्षक आदि 
उद्धृत करते समय इकहरे उद्धरण चिह न का प्रयोग किया जाता है, यथा--+ 
'क्रामायनी” जयशंकर प्रसाद कृत एक दाशंनिक काव्य है। लेखिका को 
अपने व्यंग्य लेख का शीर्षक रखना चाहिए था--जागो, राधा प्यारी । ये फिल्में 
करती हैं नारी का दोहरा शोषण' लेख में लेखिका का दृष्टिकोण एकपक्षीय है। 
“निराला को पागल कहनेवाले खुद पागल हैं। द 


(8) निर्देशक चिह॒न (---) पूर्ण विराम से पूर्व की अवस्था को निद्दिष्ट हि 


करने के लिए इन स्थितियों में इस चिह त का प्रयोग होता है-- 


. 'कह, लिख, बता, बोल, सुन. धातुओं से बनी क्रियाओं के बाद; जैसे, 
यथा, उदाहरणार्थ! शब्दों के बाद, यथा-- पर न 


/ै र 


बाहर का दरवाजा खोल कर देखा'''''' .+ 
३ 2, नाटक के पात्र के कथन से पूर्व, जैसे-- 
ताना जी--महाराज, मैं प्रतिज्ञा करता हू कि । 
- 3. संकेतित आदेश विशेष पर बल देने के लिए, उदाहरणाथ--- 
निम्नलिखित अनुच्छेदों में से किन्हीं दो की सप्रसंग व्याख्या कीजिए-- 
4. किसी तथ्य को स्पष्ट करने का संकेत करने के लिए, यथा-- 
आइए, एक दशाब्दी पीछे चलें-- ॥। वह नया सुहल्ला था--बहुत खुला 


उस ने कहा--सुझे तुम से सहानुभूति है। वे बताते हैं-- 7 -30 बजे मैं ने. 


.... (9) योजक चिह॒न (-) इस चिह॒न का हिन्दी में बहुत प्रयोग (सदुपयोग के 


साथ-साथ कभी-कभी दुरुपयोग भी) होता है । संश्लेषणात्मक प्रकृति की भाषा 


.... 'संस्कृत' में इस चिह न का प्रयोग अत्यल्प होता है, किन्तु विश्लेषणात्मक अक्ृृति की. 
गा भाषा' हिन्दी में इस का प्रयोग अनेक अवसरों पर करना पड़ता है। योजक 
चिह॒न का सही प्रयोग न होने से अर्थ तथा उच्चारण सम्बन्धी भ्रम की गुजाइश है, 


.. यथा-- 


. हुआ, साफ-सुथरा ।_ एक थे कपूर साहब--किसी बड़ी कम्पनी के बड़े ऑफीसर | ः 





ह 
ः 
0 
' 
॥ 


कट -युपमकसमपानकनलतप>ञुभानलकशन कपास सलपनन«+-4 कल लत चमापिल पा बच पड 7 पड ३ न 5:8६ 56 28 22:55 


नजचुबरकककलपधइटननप मसल म परत उ2+ पक नरन पसदा नाप पर टन 











बतंनी | [|| 


भू-तत्त्व (>> भूमि/पृथ्वी से सम्बद्ध तत्त्व); भूतत्व (>> भूत का भाववाची 
रूप) कुशासन (>-कुश से निर्मित आसन); कु-शासन (>बुरा शासन); उप-माता 
(-- सौतेली माँ); उपसाता (उपमा देनेवाला) । 


सामान्यतः योजक चिहृ न का प्रयोग इन स्थितियों में होता है--- 
]. एकार्थी सहचर शब्दों, विपरीतार्थक शब्दों, पुनस्कत शब्दों तथा अनुक्त 
या लुप्त और' योजक के पदों के मध्य योजक चिह्‌ न लगता है, यथा-- 


. भोग-विलास, दीन-दुखी, जी-जान, हँसी-ख शी, नौकर-चाकर; हानि-लाभ, 
स्वर्गं-नरंक, ग्रीब-अमीर, आकाश-पाताल; गली-गली, बात-बात, कण-कण, चप्पा- 
चप्पा; धीरे-धीरे, आगे-आगे, थोड़ा-थोड़ा, अभी-अभी; उलटा-पुलटा, खाना-वाना, 
झूठ-मूठ; धर्म-अधम , माता-पिता, फल-फूल आदि । 


2. दो मूल सामान्य (रूपी) संयुक्त क्रियाओं, सामान्य एवं प्रेरणा्थंक क्रियाओं, 
दो प्रेरणार्थक क्रियाओं के मध्य योजक चिह न लगता है, यथा-- 


सोना-जागना, कहना-सुनना, खाना-पीना, पढ़ना-लिखना, लेटना-लिठाना, 


पीवा-पिलाता, उड़ना-उड़ाना, सोना-सुलाना; कटाना-कटवाना, डराना-डरवाना, 


जिताना-जितवाना । 


3. पृनरक्‍त शब्दों के सध्य आए 'से, का, न, ही के पूर्व एवं पश्चात्‌, सा| 


_ सीति/जैसा/जैती/जैसे|सरीखा|सरीखी/सरीखे/सम्बन्धी जोड़ कर बनाए गए विशेषण 


शब्द में इन शब्दों से पूर्व योजक चिह न लगता है, यथा--- 

आप-से-आप, आप-ही-आप, ज्यों-का-त्यों, कोई-न-कोई, किसी-न-किसी, कम- 
से-कम, अधिक-से-अधिक; बहुत-सी बातें, छोटा-सा काम, थोड़े-से लोग, तुझ-जसा 
तालायक, तुम-जैसी भोली, उन-जैसे दुष्ट; तुझ-सरीखी नादान; महाभारत-सम्बन्धी' 
वार्ता, भाषा-प्रम्बन्धी चर्चा, विद्यालय-सम्बन्धी' निर्णय । 


4. दो निश्चित संख्यावाची शब्द एक साथ आने पर, दो विशेषण पद (संज्ञा- 
बत्‌ प्रयोग होने पर) योजक चिह न से जड़ते हैं, यथा-- 


चार-छह, दो-चार, एक-दो, चौथा-पाँचवाँ, दूसरे-तीसरे; अन्धे-बहरे, लूली- 
लंगड़ी, भूखा-प्यासा |... दी 
5. 'का|की|कि' लुप्त|अनुक्त होने पर दो पदों के मध्य योजक चिह्न लगता 
है, यथा-- . अ्ज द 
प्रकाश-स्तम्भ, लीला-भूमि, लेखन-कला, भाषा-कौशल । 


6. पंक्ति के अन्त में अधरे रहे शब्द के अक्षर के बाद योजक चिहू न रखा 
जा सकता है । ऐसे समय शब्द के खंडित अंशों में ताल-मेल रहना चाहिए, यथा--- 








]2 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


इन के अलावा वे. अनेक विदेशी विश्व- 
विद्यालयों और संस्थानों में अतिथि प्राध्यापक भी हैं। 
इस कड़े मुकाबले के बाद टायसन ने कहा 

“मुझे कोई नहीं हरा सकता । मैं दुनिया का सवे- 
श्रेष्ठ मुक्केबाज हू । 


'न्णाउल्याथा फ्राजाटा-8:ऋ, 








जहाँ तक सम्भव हो, योजक चिह॒व का कम प्रयोग करना ही अच्छा है । 
निम्नलिखित प्रकार के अनेक शब्दों को बिना योजक चिह न के लिखने का प्रचलन 
(विशेषतः अँगरेजी के प्रभाव से या प्रयत्न-लाघव प्रव॒त्ति के कारण) बढ़ रहा है--- 


: तत्पुर्ष समासज शब्द- मनगढ़न्त, ग्रुझभाई, तिलचट्टा, रसोईपघर 
राष्ट्रभाषा, घुड़दौड़, देशनिकाला, गंगाजल, मदमाती, आनन्दमरन, गोबरगणेश, 
धर्मशाला, करपलल्‍लव, कमलनथत, डाकगाड़ी, वायुयान आदि । 


2, अव्ययीभाव समासज शब्द--आजकल, पहलेपहल, रातभर, दिनरात 
यथासमय, यथाशक्ति, सौ रुपये मात्र आदि । द 

3. पूर्ण, मय, युक्त, पूर्वक, स्वरूप, मात्र, भर, द्वारा, गण, रूपी, व्यापी, 
आदि शब्दों के पूर्व योजक चिहन नहीं रखा जाता, यथा-- । 

रोषपूर्ण मुद्रा, विनोदपृर्ण स्वर, मंगलमय कामना; करुणामय, प्रत्यययुकत, 
 लोभयुक्‍त, श्रद्धापूर्वक, भक्तिपूर्वक, परिणासस्वरूप, प्रसादस्वरूप, मानवमात्र, 
दयामात्र, रातभर, पेटभर; अध्यक्ष दवारा, विदया सभा द्वारा, छात्रगण, देवतागण 
लक्ष्मी रूपी कन्या रत्न, कमलरूपी' नयन, विश्वव्यापी समस्या, देशव्यापी भ्रष्टाचार ! 

4. विशेष्प और विशेषण के मध्य सामान्यतः योजक चिह न नहीं लगाया. 
जाता, यथा-- 
5. कलकत्तावासी, शुभ समाचार, साब्ध्य गोष्ठी, हिन्दी पत्चकारिता, विधवा 
विवाह, सुमधुर स्वर, अहिन्दी' भाषा भाषी/अहिन्दी भाषी आदि । (अंजुमन-ए-इस्लाम 
. आईन-ए-अकबरी जैसे लम्बे शब्दों में उच्चारण सौकये की दृष्टि से योजक चिह॒ न 
लगा सकते हैं) । न 
ह 5. नञ्य_ समासज शब्दों में योजक चिह॒ न नहीं लगाया जाता, यथा-- 
अनगिनत, बेशमार, नाख श, अनचाहा, बेमजा, नालायक आदि । क्‍ 
.... 6. अँगरेजी की अन्धी नकल पर उप-, भूतपू्व-, अ- के बाद योजक चिह न 
नहीं लगाया जाए, यथा-- ३ 2 है क्‍ 
उपसभापति, भूतपूर्व मन्त्री, अपहयोग आन्दोलन, उपप्रधानाध्यापक, भुतपूर्वे . 


.... सैनिक अहिसक वत्ति। 





(40) कोष्ठक ( ) [ 3) ] इन चिह नों का प्रयोग गणित के अतिरिक्त 
. सामान्य भाषा-व्यवहार में इन स्थितियों में किया जाता है--- 














बरतनी | 3 


!. ( ) का प्रयोग किसी शब्द के अथ॑/स्पष्टीकरण|विकल्प को सूचित करने 
के लिए किया जाता हैं, यथोा-- | 

उन की नीचता (छल-छिद्र) को तुम नहीं जानते । 

2. नाटक में किए जानेवाले अभिनयादि की सूचना के लिए, यथा-- 

नल--(दुःखी हो कर, माथे पर हाथ रखते हुए) हैं विधाता $ तू ने मेरे 
दुर्भाग्य के साथ दमयन्ती के भाग्य को क्‍यों जोड़ दिया । 

3. विषय-विभाग सूचक अंकों/अक्षरों को प्रकंट करने के लिए, यथा-- 

व्याकरण के तीन विभाग हैं--() ध्वनि विचार (2) शब्द विचार (3 ) 
वाक्य विचार । क्‍ 

4. प्रसंगवश आई हुई सामान्‍य बात को स्पष्ट करने के लिए, यथा--- 


कहा जाता है कि भूषण ने शिवा जी को यह पद अठारह बार सुनाया था. 
(यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि भूषण वीर रस के प्रमुख कवि थे), शिवा जी 


ने भी प्रसन्‍न हो कर भूषण को बहुत पुरस्कार दिया था । 
5. ६ ) का प्रयोग सामान्यतः भाषावैज्ञानिक दृष्टि से रूपिम की सूचना के 
लिए किया जाता है, यथा-- | 
(-ओ).. -ओऑं| ओ/, (-ए|, /एए|, (आँ|, (० 
6. [ ] का प्रयोग लिखित वर्ण|अक्षर/शब्द[वाक्‍्य के उच्चरित रूप को प्रकट 
करने के लिए किया जाता है, यथा--- 
उपन्यास [उपन्‍्न्‍्यास्‌), ल [ल्‌ू+-अ | 
(]]) लाघव चिहन (०) इस चिह॒त का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति में 
होता हैं-- द 
।. कुल-नाम, पदवी या डिग्री आदि को संक्षेप में लिखने के लिए, यथा--- 
पं० जवाहरलाल नेहरू । मा० ताराचन्द | (पं० ८ पंडित ; मा०"-मास्टर) 
डॉ० 5 डॉक्टर ; एम० ए० तमास्टर ऑफ आटूस | द 


(] 2) छूट सुचक चिह्न (#) इसे हंस पदकाक पद चिंहत भी कहते हैं । 


इस का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति में होता है-- पी 
..._[. लिखते समय भूल से छूट गए शब्दअक्षर|वांयांश|वाक्य को प्रदर्शित 

करने के लिए, यथा--- द 
.. अरे, मैं अपना बटुआ घर पर ही भूल आई । महिलाएँ स्वभावतः बहुत ही 
भावुक होती हैं।.... हा है हक 
(3) लोप घचिह न (- ----(>८ ६ ») इसे आपूर्ति सूचक चिहृ न भी कहते 


.. हैं। इस चिह्‌ न का प्रयोग अग्नलिखित स्थिति में होता है... 


8 


बस नरम कल तक्‍ 
>> 33232 2222 2 


5 | 
। 
[! 
; । |! 
हि 
| 
का | 
|] 
] 
) ! 








_44 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


[. उद्धरण के मध्य जिस अंश को लेखक अनावश्यक समझ छोड़ देना 


चाहता है या किसी अतिरिक्त विषयवस्तु की ओर मात्र संकेत करना चाहता है, उस 
समय इन चिह नों में से किसी एक का प्रयोग किया जाता है, यथा--- 


लोगों का विश्वास है कि मानव के प्राणों से परे भी एक वस्तु है, और वह. 
है--परमात्मा । »८ $८ ५८ इस जगत्‌ में जो कुछ हो रहा है, उसी' की मर्जी से हो. 


रहा है । 


मैसूर, दिल्‍ली - -- - । 


व्यक्तिवाचक संज्ञा के उदाहरण हैं--कालिदास, दमयन्ती, नर्मदा, हिमालय, 


(4) समानता सूचक लचिहन (-) इसे तुल्यता सूचक चिह न भी कहते 


हैं । इस चिह न का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति में होता है--- 


[. किन्हीं दो या अधिक तथ्यों की समानता का बराबर की सूचना देने के 
लिए, यथा-- द 
हिम--आलय 5-5 हिमालय ; तड़ित -- आकाश की बिजली ;: 999 चचह] 
हे 5) पुनरक्तिसुच्चक चिह न (,,) इस चिह न का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति 
ता क्‍ 


चिननअअन्मल-मन 


. पूर्व लिखें गए अंश को पुनः शब्दों/अंकों में बिना लिखे उस की सूचना 


देने के लिए, यथा--- 
[5 आदमी किसी काम को पूरा करते हैं ->30 दिन सें 


0 उसी ,, 3. 67 


के 9 5 )7 2४99७ ७७ वाल 


ब-्45 


(6) समाप्ति सूचक चिह न (-- &--- ०--) इस चिह॒न का प्रयोग 


निम्नलिखित स्थिति में होता है-- द 
.... किसी लेख, अध्याय, पुस्तक॑ के लिखित अंश की समाप्ति पर, यथा--- 
एल या कक न 


टंकण तथा मुद्रण का लेखन (वर्तती और विरामादि चिह न) से गहरा सम्बन्ध 


है। देवनागरी के टंकण यन्त्रों से संस्कृत, अपन्रंश, प्राकृत, पाली, मराठी, नेपाली हे 
. और हिन्दी का टंकण तो होता ही है, अन्य भारतीय भाषाओं/बोलियों तथा विदेशी 


भाषाओं के टंकण के लिए भी देवनागरी टंकण यन्त्र के उपयोग की आवश्यकता 
. दिनोंदिन बढ़ने लगी है । कार्यालयों, व्यापार-संस्थाओं, विज्ञान और उच्च स्तरीय 


अध्ययन की दृष्टि से देवनागरी के टंकणयन्त्रों में इन वर्णों और चिहनों को समा- 


. योजित करने का प्रयास करना अत्यावश्यक है । यदि टाइप राइटर में 'की” की संख्या द 


'बढ़ानी पड़े तो उस के संबंध में भी तकनीशियनों को सोचना चाहिए-- 














हा आय आओ कलर व वो छाए क टेक व त्ड 
डक पक कटर ल5 2 एंस हुक इ | 7 2:374:5:6-4-8 9-0; «कट: 


.. 2(0[]#% 5४६ कढ-ह8७ 





फैके, 


शब्द समूह. 
शब्द-व्युत्पत्ति 
. 3. शब्द-अर्थे. _ 
. शब्द-रचना 
शब्द-रूपान्तरण 
संत्ञा 
. सर्वेतास 
 विशेषण 
:. 9. किया 
40. अव्यय 
4. शब्द-प्रयोग सतकता 


हे 


98 ञज. छत. (ए 


3 


42.. शब्द-भेदों की पद-व्याख्या 





था शब्द-व्याख्या 





























प्र 








हि 


> -सललमेडनसतमक>ल कस नीलम रप८म<८ 





रद 









































हु 























ः [ रूप तथा शब्द-व्यवस्था 
किसी भाषा के शब्द-भण्डार/शब्दकोश के शब्दों, उन के भेदों, उन की 
व्युत्पत्ति, उन की रचना (रूपान्तर) और उन के प्रयोग की चर्चा रूप तथा शब्द- 
व्यवस्था के अन्तर्गत की जाती' है । 
उच्चारण की दष्टि से भाषा की लघृतम इकाई ध्वनि मानी जाती' हैं किर 
सार्थकता की दृष्टि से शब्द|रिप को भाषा की लघुतम इकाई माना जाता है। भाषा 
की लघतम सार्थक इकाई रूप है, तो भाषा की लघुतम सार्थक स्वतन्त्र इकाई शब्द है । 
संस्कृत भाषा में शब्द का मुल९/शब्द्‌ माना गया है। शब्द धातु का बथे है--ध्वति 
करना । इस आधार पर शब्द का मूल अथे ध्वनि/आवाज है । निश्शब्द, निश्शब्दता 
में शब्द का अर्थ आवाज” है। दक्षिण भारत की भाषाओं में शब्द का यह अधे 
सामान्य भाषा व्यवहार में प्रचलित है । शब्दबेधी वाण में शब्द का अर्थे ध्वनि ही है। 
शब्द' के अन्य अर्थ हैं--भाषा, वचन, कथन या बात (पड़ोसी अ फ्रीकनों के शब्द 
तो मेरी समझ में ही नहीं आते); शब्दप्रमाण (सन्त कबीर या सन्त ग्रुदनानक के सबद 
< शब्द); रूप या पद की रचना का आधार (हिन्दी शब्दानुशासन); ध्वनियों या 
वर्णों से बना वह संकेत जो किसी भाव, कार्य या बात का बोधक होता है । इस अथ 
में शब्द साथेक ध्वनिध्वनि समूह (ल.फ्जू, वर्ड) शब्द है। कम रआ ्वत्तियों या 
वर्णों में सार्थंकता का अभाव है किन्तु इन्हीं ध्वनियों या वर्णों से बने शब्दों 'काम 
मार, रास, आम, आक, कमर, कमरा” आदि में सार्थंकता (अर्थ देने की क्षमता) है । 
.... साथंकता रहने पर भी शब्द में प्रयोग योग्यता का अभाव रहता है । 
शब्दकोश में सहस्रों शब्द होते हैं किन्तु उन का उसी रूप में प्रयोग नहीं किया जाता । 
शब्दकोश के शब्दों को वाक्‍यों में प्रयोग करते समय उन में आवश्यक परिवर्तेत करना 
पड़ता है, यथा--'चलना' शब्द वाक्य में प्रयोग के समय . चलता, चलता है।था, चल 
रहा है।होगा, चला है।था, चलू , चलें, चले, चलेगा, चल कर, चलना, चलने आदि | 
चलना' शब्द के ये अनेक रूप जिस प्रक्रिया से सिद्ध होते हैं उसे रूप व्यवस्था कहा 
जाता है+ इस प्रकार शब्दकोश के शब्द शब्द हैं, वाक्य में प्रयुक्त शब्द पद हैं । 
जब कोई ध्वनि/ध्वनि-समूह व्यवहार (व्याकरणिक प्रयोग) में अर्थबोध कराने 
की क्षमतायुक्त होता है तब वह ध्वनि/ध्वनि समूह शब्द कहलाता है। इस प्रकार 
शब्द भाषा की अर्थ स्तरीय लघतम स्वतन्त्र इकाई है। शब्द का एक स्पष्ट अर्थ 
.. होता है। यह अर्थ के स्तर पर लघुतम होता है क्योंकि अर्थ के - स्तर पर शब्द से 
... बड़ी इकाइयाँ हैं--पद, पदबन्ध, उपवाक्य, वाक्य । शब्द ध्वनि स्तरीय लघुतम _ 
द रे । 4[5 । 








]6 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


हकाई नहीं है--क्योंकि एक शब्द में एक ध्वनि भी हो सकती है (यथा--तू आ 
में आ') और एक से अधिक ध्वनियाँ भी (यथा--लड़का आया) । शब्द अर्थ स्तरीय 
स्वतन्त्र इकाई है क्‍योंकि 'प्रबलता' के बल” में जुड़े प्र- (उपसगग), -ता (प्रत्यय) 
बल' शब्द के अभाव में अर्थहीन हैं। बल' को अथ॑ व्यक्त करने के लिए किसी 
अन्य शब्द या शब्दांश की आवश्यकता नहीं हैं । 

एक समय पर एक शब्द से सामान्यतः एक ही भावांश|विचारांश प्रकट होता 
है । पूर्ण भाव|विचार को व्यक्त करने के लिए एक से अधिक शब्दों/पदों का उपयोग 
करना पड़ता है, यथा--गाय आई (दो शब्द/पद); रेलगाड़ी धीरे-धीरे जा रही थी 
(छह शब्द|पद) । एकल ध्वनि से किसी' प्राणी, पदार्थ, गुण या उन के पारस्परिक 
सम्बन्ध का बोध नहीं होता किन्तु एकाधिक ध्वनियों का व्यवस्थित योग कोई-न-कोई 
अथे बोध कराता है, यथा-र ए लग आ ड़ ई (एकल ध्वनियाँ), रेलगाड़ी (शब्द) । 
कभी-कभी व्याकरणिक दृष्टि से एकल ध्वनि को भी शब्द कहा जाता है, यथा-- 
आ, ओ, ए, ऐ' मनोवेगबोधक शब्द हैं । 


. भाषा के सब से छोटे सार्थक खंड को रूप कहते हैं। रूप शब्द-निर्माण का 
आधार है। व्याकरण में व्यक्त उपसगं, प्रत्यय 'रूप! ही हैं । प्रत्येक भाषा के सभी 
साथक न्यूनतम खंड उस भाषा के रूप (77090) होते हैं । रूपों को दो वर्गों में बाँटा 
जा सकता है :--. स्वतन्त्र/मुक्‍्त रूप (॥766 77077) इन्हें शब्द! भी कहते हैं. 
2. बद्ध रूप (90प76 7 रण), यथा-- -ए (घोड़े), -ता (मनुष्यता)। प्रकार्ये की 
दृष्टि से समान सभी रूप एक रूपिम के सहरूप/समरूप/संरूप (807707) कहलाते 


हैं, यथा--हिन्दी में संज्ञा बहुबचन के रूपिम (-ओं) के सहरूप हैं--. /-ओं/, 


सपरसर्ग शब्दों में, 2. /ओ/ सभी संबोधन में, 3. /-ए। आकारात पु ० ऋजु रूप में 
4.| -एँ इ/ई/ इयान्त के अतिरिक्त) सभी स्त्री ० ऋज रूप में, 5. |-आँ/ इ/ई/इयान्त स्त्री ० 
ऋणजु रूप में, 6. /०/ सभी पु० ऋजु रूप में । समान रूपों में अधिक प्रचलित/आवृत्ति 


युक्‍त/प्रमुख एक रूप को रूपिम मान लिया जाता है। इस प्रकार एक या एकाधिक 


संख्पों का प्रतिनिधित्व करनेवाला रूप रूपिम कहलाता है। प्रकाय के आधार पर 
रूप, संख्प, रूपिम, शब्द, पद नाम दिए गए हैं।. क्‍ 

भाषा-व्यवहार (वाक्य) में शब्दों की स्थिति पदों के रूप में दो तत्त्वों से 
संगुफित मिलती है---. प्रकृति तत्त्व 2. प्रत्यय तत्त्व । भाषा के उन आधारभूत 
अंगों (शब्दों) को प्रकृति तत्त्व कहा जांता है जित से विभिन्‍न वस्तुओं, भावों-विचारों 


क्रिया-व्यापारों, गुणों आादि के अर्थ का बोध होता है। मेज, जुदाई, दौड़, मीठा 

.. प्रक्ृति तत्त्व के सूचक हैं । प्रकृति तत्त्व से भिन्‍्त जिन शब्दों/शरब्दांशों में वस्तुओं, .. 
..  भावों-विचारों, क्रिया-व्यापारों, गुणों आदि के अर्थ-बोध की स्वतन्त्र सामथ्य॑ नहीं 

.. होती, उन गौण अंगों (शब्दों/शब्दांशों) को प्रत्यय तत्त्व कहा जाता है। “-भों, -ता, 

.. वि- ही, ने! आदि प्रत्यय तत्त्व के सूचक हैं। प्रत्यय तत्त्वों की साथेकता प्रकृति... 


लव सविटियने 39; सै ५ 3० _सटेकललडरिलल्‍ज5८तडपत- तर तक 2 


न 





0 












34७०७७४७ ७२६३७ आम अप म 2 ज रमन कक वजह न जम की जज के हे 





बरतनी! | 7 


तत्त्वों के साथ जुड़ कर ही अत्यक्ष या परिलक्षित होती है। प्रकृति तत्त्व आश्रयी और 
प्रत्यय तत्त्व आश्रित होते हैं। आश्रयी का स्वतन्त्र अस्तित्व होता है किन्तु आश्रित 
का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता । 

प्रकृति तत्त्व धातु, प्रातिपदिक तथा पद के रूप में मिलते हैं। क्रियार्थक 
तत्त्व धातु कहा जाता है, यथा--१/चल, 4/सो, ९/खा, ९/पी आदि । सत्त्वबोीधक 
तत्त्व श्रातिपदिक - कहा जाता है, यथा--घर, आम, मीठा आदि । विभक्तियुक्त/ 
परसगंयुकत शब्द पद कहा जाता है, यथा--मभैदान में, लड़कों को आदि । 


प्रत्यय-योजन प्रक्रिया की दृष्टि से प्रकृति तत्त्वों को तीन वर्गों में रखा जा 
सकता है-- !. मूल प्रकृति 2. व्युत्पन्न प्रकृति 3. पद प्रकृति । वे चरम रूप (शब्द ) 
जिन का अर्थ की दृष्टि से विभाजत नहीं हो सकता मूल प्रकृति कहलाते हैं, यथा-- 
बाजार, घर, मेजु, श्याम आदि सत्त्व बोधक शब्द; खा, पी, सो, जा क्रियार्थंक शब्द । 
मूल प्रकृति के दो भेद हैं--(क) मूल धातु वे क्रियार्थक चरम रूप हैं जो अन्य रूपों 
से व्युत्पन्न नहीं होते, यथा--चल, कर, सो । (ख) मूल प्रातिपदिक वे सत्त्व प्रधान 
चरम रूप हैं जो अन्य रूपों से व्युत्पन्न नहीं होते, यथा--फश, पुस्तक, जल, मकान। 
वे रूप (शब्द) जो मूल प्रकृति या व्युत्पन्न प्रकृति से ध्युत्पत्न होते हैं व्युत्पन्त प्रकृति 
कहलाते हैं, यथा--मूल प्रकृति चमक, लचीला से व्युत्पन्त व्युत्पन्न प्रक्ति-- 
चमकीला, लचीलापन। च्युत्पन्न प्रकृति 'रोजुगार' (रोजू-- -गार) से व्युत्पन्त 
व्युत्पन्न प्रकृति--बेरोजुगार । इस से व्युत्पन्त व्युत्पन्न प्रकृति--बे रोजुगारी । 
व्युत्पन्त प्रकृति के दो भेद हैं--(क) व्युत्पन्न धातु (ख) ब्युत्पन्न प्रा तिपदिक । 
व्युत्पन्न धातु के अन्तर्गत 'नामधातु, सकर्मक धातु, प्रेरणार्थक धातु' की गणना को 
जाती है। व्यूत्पत्न प्रातिपदिक के अन्तगंत संज्ञा, सर्वेताम, विशेषण, अव्यय के 
प्रातिपदिकों की गणना की जाती है। ये प्रातिपदिक “मूल धातु, मूल प्रातिपदिक 
व्युत्पन्त धातु, व्युत्पन्त प्रातिपदिक से व्युत्पन्त होते हैं । वाक्य में प्रयोज्य शब्द-रूप 
पद प्रकृति कहलाते हैं। पद की रचना के आधार हैं-- 4. गूल धातु <. मूल 
प्रातिपदिक 3. व्युत्पन्त धातु 4. व्युत्पन्न आतिपदिक; यथा--मैदान में खेल (मूल 
प्रातिपदिक +- मूल धातु); हलवाई को बुलवाऊं (व्युत्पन्त प्रातिपदिक - च्युत्पन्न 
धातु) । पद प्रकृति के अन्तर्गत संज्ञा, स्वताम, विशेषण, क्रिया, अव्यय पद की गणना 
की जाती है । क्‍ 

भाषा में प्रयुक्त उपसर्ग (प्र-, आ- -- प्रबल, आचार), पर पत्यय (5ई, -हट, 


 --चढ़ाई, अकुलाहट), कारक-चिह न (ने, को), निपात (ही, तो) का अकेले में कोई 
अर्थ बोध न होने के कारण इन्हें स्वतन्त्र शब्द नहीं कहा जाता। वेशब्दांश या 


बद्ध शब्द कहे जाते हैं । 'हम, हमारा, विघ्न, नाशक, विघ्तनाशक ” अलग-अलग 5 
शब्द हैं जो मूलतः तीन शब्द (हम, विघ्त, नाश) हैं। जिन प्रत्ययों के पश्चात्‌ दूसरे 
प्रत्यय नहीं जोड़े जा सकेते उन्हें चरम प्रत्यय॑|परसर्ग (विश्लिष्ट विभवित भी) कहा 








8 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


जाता है, यथा-- लकड़हारों ने' में लकड़ी >लकड़-- -हारा-- -ऑं के बाद आनेवाले 
ते” के पश्चात्‌ कोई अन्य श्रत्यय नहीं जड़ सकता। ' ते' चरम प्रत्यय जुड़ने से पूर्व 
का शब्द 'लकड़हारा' मूल शब्द है, जिस में वाक्य प्रयोज्या्थ -ओं. विकारसूचक 
प्रत्यय जोड़ा गया है। इस प्रकार लकड़हारा' मूल शब्द और लकड़हारों ' पद है। 
'लकड़हारों ने! को पदबन्ध या वाक्यांश कहा जाता है । क्‍ 

.. संस्कृत-व्याकरण के अनुसार विभक्ित रहित शब्द 'शब्द' है ओर विभक्त 
सहित शब्द पद है। शब्द और पद का भ्ेदक तत्त्व विभक्ति|चरम प्रत्यय माता 
गया है । संस्कृत भाषा की संश्लेषणात्मक प्रकृति के कारण कारक विभक्तियाँ मूल 
शब्द में जोड़ी जाती हैं जबकि हिन्दी भाषा की विश्लेषणात्मक प्रकृति के कारण कारक- 
चिह न|परसम मूल शब्द से सटा कर नहीं रखे जाते । विभक्ति-योग से शब्दों में 
प्रयोग योग्यता आती है, अर्थात्‌ उन्हें परस्पर अन्वय-आधार मिल जाता है। पाणिनि 
ने इसी बात को एक सूत्र में इस प्रकार स्पष्ट किया है-- सुप्तिडन्त॑ पद्म! अर्थात्‌ 
सुप्‌ (5८ संज्ञा|नाम-विभक्तियाँ), तिड ( क्रिया-वि भक्तियाँ) के योग से पद-रचना 


होती है । बिना पद बने शब्दों का वाक्य प्रयोग नहीं हो सकता । अँगरेजी में ' पद 


की संकल्पना न होने के कारण उस के लिए किसी पारिभाषिक शब्द का प्रयोग नहीं 
होता । पद को भँगरेजी में & ए०१॥॥ 008 8०१०० कहा जा सकता है । पद-रचना 


के लिए मूल शब्द|अर्थ तत्त्व|प्रकृति और रूपान्तरक/रचना तत्त्व[प्रित्यय की आवश्य- 
कता होती है । (पद-रचना के संबंध में शब्द-रूपान्तरग अध्याय 3 में विस्तार से 


लिखा जाएगा)। 





जि 


न न 











शब्द समूह 

किसी भाषा में प्रयुक्त होनेवाले समस्त (सक्रिय, निष्क्रिय) शब्दों के समृह/ 
भंडार को उस भाषा का शब्द-समूह (५००८४४०पंक्षापर) कहा जाता है। शब्द समूह को 
'शब्द भंडार|शब्द कोश” भी कहा जाता है । किसी जीवित भाषा के समस्त शब्द समूह 
की गणना करना या सही-सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं है क्योंकि जीवित भाषा 
में अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करने की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है और 
आवश्यकतानुसार नये शब्दों का गढ़ना भी जारी रहता है। मृत भाषाओं के शब्द- 
समूह की गणना उपलब्ध सामग्री के आधार पर अवश्य की जा सकती हैं । 


_ मोनियर विलियम्स के अनुसार संस्कृत में लगभग 25000 शब्द (मूल शब्द) 
होंगे । वर्तमान अँगरेजी में. लगभग 560000 शब्द हो सकते हैं । बृहत्‌ हिन्दी कोश 
के आधार पर हिन्दी में लगभग 50000 शब्द प्रचलित हैं। भाषा की. भाँति ही 
प्रत्येक ग्रन्थ या प्रत्येक व्यक्ति का भी शब्द समूह होता है। अपढ़ लोगों का शब्द 
समूह प्रायः 500-800 के मध्य हुआ करता है । पढ़े-लिखे लोगों का शब्द समूह 
4500-80000 के मध्य हुआ करता है। जिस प्रकार बचपन से मृत्यु के निकट तक 


व्यक्तियों के शब्द समृह में परिवर्तन होता रहता है, उसी प्रकार जीवित भाषाओं के 


शब्द समूह में भी परिवर्तेन होता रहता है । भाषाओं के शब्द समूह में परिवर्तन के 
दो मुख्य आधार हैं-- ।. प्राचीन शब्दों का लोप 2. नवीन शब्दों का ग्रहण । 
..._]. प्राचीन शब्द-लोपन के कई कारण होते हैं, जैसे---(क) रीति-रिवाजों 


का लोप--जिन रीति/रिवाजों या कर्मों का समाज से लोप हो जाता है, उन से 


संबंधित परम्परागत अनेक शब्दों का लोप हो जाता है.। हिन्दी क्षेत्र में प्राचातकालीन 


यज्ञ परम्परा के लोप के कारण कई शब्दों (जेसे-- खूच, शम्या, शतावदान, कूचे, 


49 








]20 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


प्राशिवहरणे, अभ्रि, चात, षडवत्त, मुलेखात आदि) का प्रचलन समाप्त हो गया है। 
(ख) रहन-सह॒न में परिवर्तत--खान-पान, रहन-सहन, वेशभूषा आदि में परिवततंत 
होने के कारण सम्बन्धित शब्दों का लोप हो जाता है। हिन्दी क्षेत्र में भात<< भक्त 

मालपूआ/पूआ< अपूप; सत्तु<सकतुक शब्द तो ग्रचलित रहे किन्तु मंथ 
(धान को मथ कर बनाया गया सत्तू), यावक (>-जौ से बनाया जानेवाला एक 
विशेष खाद्य), संयाव (+-एक विशिष्ट प्रकार का हलवा/हलुआ) जैसे शब्द लुप्त 
हो गए। कुरीर (-- मस्तक का एक विशेष आभूषण), हिरज्जयवरतिनी (+- कमर का 
एक विशेष आभूषण) जैसे शब्दों का प्रचलन भी समाप्त हो चुका है । (ग) अश्लीलता 
--सामाजिक रूढ़ियों, परम्पराओं के आधार पर जिन शब्दों को समाज अश्लील 
. मान लेता है, उन का प्रचलन समाप्त होने लगता है। हिन्दी क्षेत्र में मैथून, शोच 
_ आदि से संबंधित अनेक शब्दों (लिंग, गुदा, योनि, सम्भोग, शौच आदि के लिए 
तथाक्रथित असभ्य और गँवार लोगों में बोले जानेवाले शब्दों) का परिनिष्ठित हिन्दी 
में लोप हो चुका है। शब्द-लोप के अन्य कारण, यथा--अन्धविश्वास, शब्द-घिसाव 
और पर्याय का परिनिष्ठित हिन्दी शब्द-लोप पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं 
पड़ा है । 


2. नवीन शब्द-प्रहण--जीवित भाषाओं में एक दूसरी भाषा से शब्द आदान 
करन की प्रवृत्ति पाई जाती है, साथ ही आवश्यकतानुसार नवीन शब्द गढ़ने की प्रवृत्ति 
भी होती है । किसी भाषा में अन्य भाषा|भाषाओं के शब्दों के आगमन और नवीन 
शब्द निर्माण के कई कारण होते हैं-- (क) सभ्यता-विकास--सम्यता-विकास के _ 
साथ-साथ विभिन्‍न प्रकार की नवीन वस्तुओं का निर्माण होता है जिन के लिए नये 
शब्दों का निर्माण करना पड़ता है या अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करने पड़ते हैं।. 
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हुए सभ्यता-विकास के कारण हिन्दी में अन्य भाषाओं से 
'इडली, दोसा, नीरा, पोलीथिन, किलो, लीटर, स्मैक, रोबोट, स्पृतनिक” आदि शब्द 
ग्रहण हो कर प्रचलन में आ चुके हैं। वैज्ञानिक विकास के कारण सैकड़ों शब्दों का 
निर्माण किया गया है, यथा--निविदा, लेखापाल, वातानुकूलन, अग्निशास्त्र आदि । 
(ख) सामाजिक चेतना-विकास--राजनतिक, सांस्कृतिक चेतता का विकास नवीन शब्द 
. निर्माण और अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण की प्रवृत्ति को बढ़ाता है । परिनिष्ठित हिन्दी 
यें 'डाकघर, पत्र मंजूषा, जिलाधीश, दूरभाष, दूरदर्शन, दूरसंचार, आकाशवाणी, गोली 
कायलय, प्रदेश, अधिकारी जेंसे शब्द राजनैतिक एवं सांस्कृतिक चेतना-विकास के 
_ कारण 'पोस्ट ऑफिस, लेटर बॉक्स, कलक्टर, ठेलीफोन, टेलीविजुन, ठेलीकम्यू- ' 


हा . निकेशन, रेडियो, गोलकीपर, ऑफिस, सूबा, ऑफीसर' को अपदस्थ कर रहे हैं। 





... नवीन शब्द ग्रहण के अन्य कारणों (यथा--अन्य भाषा-सम्पर्कं, अनुकरणात्मकता और 
- साम्य) का परिनिष्ठित हिन्दी पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा है । 








सका 5-24न+मतवपउतलल8०७म रन सपकलापबसस& २५5३ ++रतझ 4 +-सपनमप सपब पक ता +-नापुता +ातथ--कतर- ला पूरा सका उस न्‍क उस किउसेल सर 
ह् कं 62080 ८2 ४४२७४७७४८-७३४७४ ४ 5 कक वन मीिनमिल 


3 बल सम 


अं क >>2 मम जम अकाल 


सकल इसकरणक त+ | न 





शब्द समूह | 42] 


भाषा की प्रकृति और आवश्यकताओं से अपरिचित लोग प्रायः समाचार पत्रों, 
आकाशवाणी और दूरदर्शन आदि की भाषा पर क्लिष्टता का आरोप लगाते रहते 
हैं। ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों के विषयों (यथा--परमाणु भौतिकी, उपग्रह 
सम्प्रेषण, कम्प्यूटर, इलेक्ट्रोनिक्स, राजनीति, विधि, अथेशास्त्र, विज्ञान, समाजशास्त्र, 
कला आंदि) की चर्चा के लिए पारिभाषिक शब्दावली की अनिवार्यता को नकारा 
नहीं जा सकता । सामान्य अँगरेजी जाननेवाले लोगों को भी प्रगतिशील बनने के 
लिए अनेक पारिभाषिक शब्दों को जानने की आवश्यकता पड़ती है और वे इन्हें जानने 
और समझने का प्रयत्त भी करते देखे जाते हैं, यथा---८प08%9, 6०४/0705, 
ए8050, #प्रआ00, 06876, ्र070९०वंह, ाह्वाा0), (7//609708, 075060व४, 
?094॥479 आदि । हिन्दी में भी ऐसे नये पारिभाषिक शब्दों को जानने, समझने के 
लिए प्रयत्न करता होगा । विचार न जाननेवाले लोग शब्दों से माध्यम से प्रत्यय-बोध 
प्राप्ति की ओर बढ़ सकते हैं और विचार जाननेवाले लोग केवल नये शब्दों से 


परिचित होने की ओर बढ़ सकते हैं । 
पारिभाषिक शब्द से व्यक्त होनेवाला विचार वक्‍ता और श्रोता की दृष्टि से 
सावंदेशिक होता है । पारिभाषिक शब्दावली सें पर्याय की गु जाइश न के बराबर है। 
बोलचाल की भाषा में श्लेष अलंकार है, किन्तु पारिभाषिक शब्दावली के लिए यह 
दोष! है। विषय की गहनता और विचारों की सम्बद्धता को दृष्टि से एक मूल 
शब्द से सम्बदध अनेक लगभग समानझूपी पारिभाषिक शब्दों का निर्माण किया जा 
सकता है, यथा--ऑकक्‍्सीजन, ऑकक्‍्साइड, डाइऑक्साइड, ऑक्सीजनेशन (एक सूल 
विचार से उद्भूत शब्द); -एट, -आइड से जुड़े विशेष अथे के सूचक शब्द, यथा--- 
कार्बोतिट, नाइट्रेट, सल्फ ठ, हाइड्रे ट; आक्साइड, सल्फाइड । 
पारिभाषिक शब्दावली-निर्माण के समय इन बातों का ध्यान रखा जाना 
आवश्यक है-- !. भाषा में पूर्व प्रचलित पारिभाषिक शब्द को यथासम्भव उसी 
रूप और अर्थ में ग्रहण किया जाए 2. यथावश्यक अंगरेजी/अन्तरराष्ट्रीय शब्द उसी 
रूप और अर्थ में ग्रहण करते हुए स्व-भाषा की प्रकृति के अनुरूप अन्य शब्द-निर्माण 
का आधार बनाया जाए, यथा--ऑक्सीकृत, कार्बबीकरण, न्यूकलीय, लिग्नीभवत 
आदि 3. यथासम्भव भारतीय भाषाओं में प्रचलित पारिभाषिक शब्द भी ग्रहण किए 
जाएँ 4. संस्कृत भाषा के सहयोग से नये शब्द गढ़े जाएं। अखिल भारतीय पारि- 
भाषिक शब्दावली की चर्चा|वकालत वे लोग ही करते हैं जो भिन्‍न-भिन्‍न भाषाओं 
की उच्चारण व्यवस्था, शब्द रचना व्यवस्था और वाक्य विन्यास व्यवस्था की 
भिन्‍नताओं में सपरिचित नहीं हैं । 
किसी भाषा में नवीन शब्द ग्रहण के सुख्य दो स्रोत माने जाते हैं-- 4. नवीन 
. शब्द निर्माण 2. शब्द आदान। . नवीन शब्द निर्माण के ये रूप हो सकते हैं-- 
_(क) दो शब्दों के योग (समास प्रक्रिया) से तीसरा शब्द बना लिया जाता है, यथा-- 











22 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अक्ल-- मन्द +- अक्लमन्द ; अर्जी -- नवीस + अर्जीनवीस ; जमा--बन्दी -- जमाबन्दो; 
अजायब-- घर" अजायबधघर ; चिड़िया-+-खाना ८ चिड़ियाखाना ; दल--बन्दी -- 
दलबन्दी ; देश--निकाला>-"देशनिकाला ; रेल-गाड़ी -- रेलगाड़ी ; रसोई-- घर ८ 
रसोईघर ; पाव--रोटी >-पावरोटी ; पाव--भाजी > पावभाजी (2) व्यक्तिवाचक 
नामों के आधार पर गढ़े गये शब्द भी' परिनिष्ठित हिन्दी में प्रचलित हैं, यथा-- 
सैंडो बनियान; एटलस साइकल; फिलिप्स रेडियो; सुर्ती; चीनी; मिस्री; बनारसी 
ठग आदि (ग) सादृश्य के आधार पर गढ़े गये शब्द भी परिनिष्ठित हिन्दी में प्रचार 
पा चुके हैं, यथा--शहराती, घराती, फिल्माना, दागना, लतियाना, बतियाना'" 
क्रमशः 'दिहाती, बराती, दिखाता के सादृश्य पर गढ़े गये हैं (घ) शब्द-संक्षिप्ति के 
रूप सें गढ़े गए शब्द भी परिनिष्ठित हिन्दी में प्रचलित हैं, यथा-- इंका (इंदिरा 
कांग्रेस), भाजपा (भारतीय जनता पार्टी), भालोद (भारतीय लोक दल), जद (जनता 
दल), उ० प्र० (उत्तर प्रदेश), पाक (पाकिस्तान), कॉपी (कॉपी), बुक, लेब (लैबो- 
रेटरी), एग्जाम (एग्जामिनेशन), साइकल (बाइसिकल), फोन (टेलीफोन), शाला 
(पाठशाला), एन० सी० सी०- (नेशनल कीैडेट कोर), ए० आई० आर० (ऑल 
इंडिया रेडियो), डी० एम० (डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट), दि० न० नि० (दिल्ली नगर 
निगम), एम० ए० (मास्टर ऑफ आर्ट स) आदि। (ड) अनुवाद के आधार पर गहे 
गए शब्द भी परिनिष्ठित हिन्दी में प्रचलित हैं, यथा--शुभ रात्रि (गुड नाइट/शब्बा 
खेर), शुभ प्रभात (गुड मॉनिग), कुल सचिव (रजिस्ट्रार), अकादमी (एकेडेमी), 
एकक (यूनिट), तदर्थ (एडहॉँक), प्रवेशपत्र (एडमीशन काड्ड) । द 


. 2. शब्व आदान तीन प्रकार की भाषाओं से सम्भव है -(क) देशी तथा 
विदेशी आधुनिक अन्य भाषाओं से ग्रहण किए गए कुछ नवीन शब्द परिनिष्ठित हिन्दी 
में प्रचलित हैं, यथा-- ऑफिस, कॉफी, टिन, मटन, निब, पिन, अगस्त, दिसम्बर, 
मोटर, रन, क्रिकेट, इकरार, कब्जा, कु.दरत, शौक, अखबार, खामोश, दिमाग, 
ग्रीब, आजादी, जरूरत, हाजिरी, तारीफ, फासला, हफ्ता, इडली, दोसा, नीरा, 
चिल्लर आदि । (ख) स्वदेशी प्राचीन भाषा (संस्कृत) से ग्रहण किए जा रहे (विशेषत 
पारिभाषिक) कुछ नवीन शब्द हैं-- स्वनिम, निर्वात, उपग्रह, अभिस्वीकृति, सारणी, 
वेकल्पिक, जैविक, लोकसभा, अभ्यावेदन, तेथिक, वाधिकी, अतिक्रमण आदि। 
पारिभाषिक शब्दों के अतिरिक्त सामान्य शब्दों के ग्रहण के समय हिन्दी ने एक विशेष 
नियम का पालन किया है--संस्क्ृत से लिए हुए अधिकतर शब्द प्रथमा विभक्ति को 
. हटा कर ग्रहण किए गए हैं, यथा-- चन्द्रमा:> चन्द्रमा, नभ, मन, यश आदि । कुछ 
शब्दों में विसगगें की उपस्थिति का पता गुहीत व्युत्पत्तन शब्दों से लगता है, यथा--- 
.. पयोधर, मनोभाव, शिरच्छेद, शिरस्त्राण । मनोकामना सादुश्य के आधार पर चल 
. पड़ा है। (ग) स्व बोलियों से ग्रहण किए गए कुछ शब्द हैं--लेंहड़ा, ढुकना, हेटी, 
. -ठंठा, झाँबी, लहवार, ठड़ढा आदि।... 





जम र्जकपरकप रब फस सु २३२०० २०८८० २:००+ :.. 
«७०७७४ ८ हनन मल चझाए- परी बनललपुनररसन 


0४७४७७४८७०३३३३-&5 3 2 


एलन पथर;उक-यूक ५८०९३ ज मन कउ कदर म+ २५०५७ -+८- :"+5५ ० + "००--+--+ 


'ज्सबकर कल 5 समललप::३4--८५० ८5 :26%:5 ५ -३:२४- 





पर्याय कोश; मुहावरा कोश; लोकोक्ति कोश; विश्वकोश आदि । हिन्दी में एक 














शब्द समूह | 23 


शब्द संकलन-प्रकार (कोश) के आधार पर हिन्दी के शब्द समृह कई रूपों 
(कोशों) में प्राप्त होते हैं, यथा-- (क) व्यक्ति कोश--तुलसी कोश, सूर कोश, 
प्रसाद कोश आदि (ख) पुस्तक कोश--रामचरितमानस कोश ; सूरसागर कोश आदि 
(ग) भाषा कोश--ये कई प्रकार के होते हैं, यथा--शब्द कोश; पारिभाषिक कोश; 


भाषीय, दृविभाषीय और त्िभाषीय अनेक कोश उपलब्ध हैं, यथा-- मानक कोश; 
प्रामाणिक हिन्दी शब्दकोश; बहद्‌ हिन्दी कोश; हिन्दी शब्दसागर; नालन्दा शब्द- 
कोश; भार्गव हिन्दी शब्दकोश; हिन्दी साहित्य कोश आदि । 

... हिन्दी भाषा के शब्द समूह-वर्गीकरण के चार प्रमुख आधार हैं---. शब्द- 
व्युत्पत्ति 2. शब्द-अर्थ 3. शब्द-रचना 4. शब्द-रूपान्तरण । इन चारों पर क्रमशः 
अध्याय 40, [], 2, 3 में प्रकाश डाला जाएगा । 








शब्द-व्युत्पत्ति 


शब्द व्युत्पत्ति (>> विशेष/विशिष्ट उत्पत्ति) के शास्त्र को संस्कृत में निरूकत 
कहा गया है तथा अँगरेजी में 7/9770]089 कहा जाता है। गुरू के व्याकरण का _ 
अनुकरण कर कई व्याकरणों में 'शब्द-रचना को व्युत्पत्ति कहा गया है । यद्यपि 
किसी' शब्द से दूसरा शब्द व्युत्पन्त किया जा सकता है, यथा--लड़का >लड़कपन, 
मीठा >मिठाई आदि, तथापि शब्इ-भाषा स्रोत या शब्द-इतिहास की चर्चा का शास्त्र 
व्युत्पत्तिशास्त्र कहलाता है । इस आधार पर यहाँ शब्द-व्युत्पत्ति के अन्तगंत हिन्दी 
शब्द-समृह के भाषा स्रोत/उद्गम या शब्द-इतिहास को सम्मिलित किया गया है। 
गुरू ने हिन्दी व्याकरण के दूसरे भाग के तीसरे परिच्छेंद में व्यूत्पत्ति (पहला 
अध्याय) के बारे में कहा है “व्यूत्पत्ति प्रकरण में केवल यौगिक शब्दों की रचना का 
विचार किया जाता है, रूढ़ शब्दों का नहीं । वे आगे लिखते हैं-- “परन्तु 'रसोई' 
और 'घर' शब्दों की व्युत्पत्ति किन भाषाओं के किन शब्दों से हुई है यह बात 
व्याकरण विषय के बाहर की है ।” इन दोनों वाक्यों में गुरू व्युत्पत्ति शब्द का 
दो भिन्‍न-भिन्‍न अर्थों में प्रयोग कर रहे हैं । 

किसी भी भाषा के समस्त शब्द-समृह को अपनापन की दष्ष्टि से दो वर्गों 
में बाँठा जा सकता है-- () स्वकीय (2) परकीय । स्वकीय शब्दों को पुनः दो वर्गों 
. में बाँठा जा सकता है-- . परम्परागत 2. निर्मित । परम्परागत शब्द दो प्रकार 
. के होते हैं--- (क) ज्ञात व्यूत्पत्तिक (ख) अज्ञात व्यूत्पत्तिक । ज्ञात व्युत्पत्तिक शब्दों: 
. को प्राचीन तद्भव कहा जाता है और अज्ञात व्यृत्पत्तिक को देशज । द 

424 | 


शिया आप 2 अल 








कि ८ 2 अमल + आकलन 





- [प्राचीन तद्भव) (देशज) 





शब्द-घ्युत्पत्ति | 25 


परकीय शब्दों को दो वर्मों में बाँठा जा सकता है-- (!) स्वदेशी (2). 


विदेशी । दोनों वर्गों के ये शब्द दो प्रकार के हो सकते हैं-- !. तत्सम 2. तत्समेतर । 
तत्समेतर स्वदेशी' शब्दों को पुनः तीन वर्गों में रखा जा सकता है -- (क) तत्समाभास 
(ख) अर्ध तत्सम (ग) तद्भव । तत्समेतर विदेशी शब्दों को दो वर्गों में रखा जा सकता 
है--(क) तत्समाभास (ख) तद्भव । आरेख में इस वर्गीकरण को इस प्रकार रखा 





. जा सकता है-- 
हिन्दी शब्द-समह 
। | 
| | 
स्वकीय प्रकीय 

क्‍ | | 

| | | | 

प्रभ्परागत निर्मित स्वदेशी . विदेशी 








ज्ञात व्यूत्पत्तिक अज्ञात व्यूृत्पत्तिक | तत्सम तत्समेतर तत्सम तत्समेतर 


मदर विनििश्कशी | कि क्‍ 
| ५ था] पी! | 
| 


>> क»++मननन-+मन-3५)५+9०+-- निननरभननिनीनन-नननननननीन- न लिन - सन पिन नलननन वन लक जल सीन मन-+मनन-+०>> 3, न्‍ (40 


(5 ६] | | 
349 कक 
सन्धिज समासज प्रत्ययज माभास 

व्याकरण की बहुत-सी पुस्तकों में व्युत्पत्ति|भाषा-स्रोत/शब्द-इतिहास/शब्द- 
उद्गम की दृष्टि से प्रायः चार प्रकार के शब्द लिखें गए हैं--- !. तत्सम 2. तद्भव 
3, देशी/देशज 4. विदेशी । इस वर्गीकरण में देशी, तत्सम, तदभव” शब्दों के बारे 
में परिभाषा या लक्षण की दृष्टि से सम्यक विचार नहीं किया गया है। यहाँ ऊपर 
सुझाए गए वर्गीकरण के अनुसार हिन्दी शब्द-समूह पर व्यत्पत्ति की दृष्टि से प्रकाश 


डाला जा रहा है । 


स्वकीय शब्द--किसी व्यक्ति की धन-सम्पदा में उन समस्त वस्तुओं, जुमीन- 
जायदाद, रुपया-पैसा आदि को गणना की जाती है जो उसे पुरखों से मिली है, उस 
ने अपने जीवन काल में स्वयं अजित की है और उस ने अपने साथी, रिश्तेदार आदि 
से उधार ले कर या किसी अन्य रूप में प्राप्त की है। किसी भाषा के शब्द-सम ह में 


. दो प्रकार के वे शब्द स्वकीय शब्द कहे जाएँगे जो उस भाषा को भाषा विकास की 


| तत्स- अध॑तत्सम तद्भव तत्समाभास तदुभव 


प्रक्रिया में पूव॑वर्ती भाषा से प्राप्त हुए हैं और जिन शब्दों को उस भाषा के जीवन- 


- काल में गढ़ा गया है । 








28 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


मार्ग, मृग, मेघ आदि 3. बीसवीं सदी में संस्कृत व्याकरण के आधार पर निर्मित 
संस्कृत शब्द, यथा--कटिबद्ध, जलवायु, नगरपालिका, निदेशक, पत्राचार, प्रभाग, 
प्राध्यापक, रेखाचित्त, लघुशंका, वायुयान, वाक्य विश्लेषण आदि 4. संस्कतेतर 
भाषाओं से गृहीत संस्कृत शब्द, यथा-- उपन्यास, कविराज, अभिभावक, अभ्यर्थ॑ना, 
बक़ता, गल्प, सन्देश, निर्भर, तत्त्वावधान, आपत्ति, सम्भ्रान्त, स्वष्निल, उमिल, 
धन्यवाद (बंगला); प्रगति, वाइ मय (मराठी) । 

हिन्दी में प्रयुकुत॒ तथाकथित संस्कृत तत्सम शब्द संज्ञा, सर्वेनाम, बिशेषण, 
क्रिया तथा अव्यय हैं । संज्ञा शब्द दो प्रकार के हैं-- !. संस्कृत-प्रातिपदिक, यथा-- 
. अस्थि, कुसुम, कृष्ण, दि, देव, पत्र, पुष्प, पुस्तक, फल, बालक, मनुष्य, मित्र, राम, 
वक्ष, जगत्‌; कन्या, निशा, वाला, भार्या, रमा, विद्या; अग्ति, ऋषि, कपि, कवि, 
पति, मति, मुनि, रवि, रुचि, वारि, विधि, पति, हरि; लक्ष्मी, नदी, सुधी, स्त्री; 
गुरु, जन्तु, धेनु, पशु, प्रभु, भानु, मधु, वस्तु, विष्णु, शत्त्‌ , शिशु, साधु; चमू, भू, 
वधू, स्वयम्भू आदि 2. संस्कृत-प्रथमा एकवच्चन, यथा-- आत्मा, करी, कर्ता, धर्म, 
जामाता, तपस्वी, दाता, दुहिता, धनवान्‌, नाग, नेता, पिता, पृथ्वी, ब्रह मा, भ्राता, 
भगवान्‌, महिमा, माता, युवा, वणिक, विद्वान, राजा, सखा, सम्राट, सीमा, स्वामी, 
हस्ती आदि । सर्बनास--तव, सम । विशेषण (प्रातिपदिक), यथा--चिरन्तन, तीव्र, 
नव, नवीन, नृतन, पुरातन, श्वेत, सुन्दर भादि क्रिया--स्वीकार अव्यय--धिक्‌, प्रातः, 
पृथक, शर्मेंट, सहसा, साथ, नित्यम्‌ । 


बीसवीं शताब्दी में हिन्दी-उद संघ में हिन्दी के अनेक तद्भव शब्दों को 
तत्सम शब्दों सें स्थानापत्त करना आरम्भ कर दिया था। धामिक, युगधर्म, कमे- 
निष्ठ, कर्मचारी, कर्मठ, कर्मंवाद” जेसे शब्दों का प्रयोग होने से धरम, करम जैसे 
शब्दों का प्रचलत बन्द हो चला है। इन का स्थान धर्म, कर्म ने लिया है। केवल 
मुहावरेदार प्रयोगों में (यथा--उस के तो करम ही फूट गए, करमजली, कुछ धरम- 
क्रम भी किया कर) में ही तदभव शब्दों का प्रयोग बच रहा है। हिन्दी की' भाँति 
. अन्य भारतीय भाषाओं में भो इसी प्रकार से तत्सम/संस्कारित शब्दों (5878/070860 
ए07058) का प्रचलन बढ़ा है। 


ध्वनि तथा अर्थे-तत्समता की दृष्टि से हिन्दी में गृहीत केवल संस्कृत भाषा 
के ही नहीं वरन्‌ अन्य भारतीय भाषाओं ओर विदेशी भाषाओं से गहीत शब्दों पर 
. विचार करता आवश्यक है। वास्तव में यह चिन्तन एवं वर्गीकरण विशेष शोध की 


.... आवश्यकता रखता है । 


तत्समेतर शब्द--वे प्रकीय शब्द हैं जो किसी भाषा में तत्सम कोटि से 
.. इतर कोटि के होते हैं। (दे० तत्समाभास, अध॑ तत्सम और तद्भव शब्दों के विविध 


. छदाहरण) . 





- वतेनी | 3 





( ) का प्रयोग किसी शब्द के अर्थ|स्पष्टीकरण/विकल्प को सूचित करने 
के लिए किया जाता है, यथा--- 
उन की नीचता (छल-छिद्र) को तुम नहीं जानते । 
2, नाटक में किए जानेवाले अभिनयादि की सूचना के लिए, यथा--- 
(दुःखी हो कर, माथे पर हाथ रखते हुए) हे विधाता ; तू ने मेरे. 
दुर्भाग्य के साथ दमयन्ती के भाग्य को क्‍यों जोड़ दिया २ 
3. विषय-विभाग सूचक अंकों/अक्षरों को प्रकट करने के लिए, यथा--- 
व्याकरण के तीन विभाग हैं--() ध्वनि विचार (2) शब्द विचार (3) 
वाक्य विचार । 


4, प्रसंगवश आई हुई सामान्य बात को स्पष्ट करने के लिए, यथा--- 


कहा जाता है कि भूषण ने शिवा जी को यह पद अठारह बार सुनाया था 
(यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि भूषण वीर रस के प्रमुख कवि थे), शिवा जी 
ने भी प्रसन्‍न हो कर भूषण को बहुत पुरस्कार दिया था । 


5. ६ ) का प्रयोग सामान्यतः भाषावैज्ञानिक दृष्टि से रूपिम की सूचना के 
लिए किया जाता है, यथा-- 
(“औओ) [-ओं/ /ओ/, /-ए/ /-एँ|, /ऑ, -०/ 
6. [ | का प्रयोग लिखित वर्ण/अक्षर[शब्द[वाक्य के उच्चरित रूप को प्रकट 
करने के लिए किया जाता है, यथा--- 
उपन्यास [उपन्न्यास्‌ |, ल [ल्‌--अ | 
(]) लाघव चिह॒ न (०) इस चिह॒ न का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति में 
होता है--- 
« कुल-नाम, पदवी या डिग्री आदि को संक्षेप में लिखने के लिए, यथा--- 
द पं० जवाहरलाल नेहरू । मा० ताराचन्द । (पं० पंडित ; मा० ८ मास्टर) 
डॉ० >> डॉक्टर ; एम० ए० >भास्टर ऑफ आदूस । द 
(।2) छूट सुचक चिह न (४) इसे हंस पद/काक पद चिह न भी कहते हैं । 
इस का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति में होता है--- 
]. लिखते समय भूल से छट गए शब्द/अक्षर/वार्क्याश[वाक्य को प्रदर्शित 
करने के लिए, यथा--- द 
अरे, मैं अपना बदुआ घर पर ही भूल आई। महिलाएँ स्वभावत: बहुत ही 
भावक होती हैं । 


(3) लोप चिह न (-----| 2८ 2८ »८) इसे आपूर्ति सूचक चिह्न भी कहते 


हैं । इस चिह न का प्रयोग अग्नलिखित स्थिति में होता है--.. 
है 








28 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


मार्ग, मृग, मेघ आदि 3. बीसवीं सदी में संस्कृत व्याकरण के आधार पर निर्मित 
संस्कृत शब्द, यथा--केटिबद्ध, जलवायु, नगरपालिका, निदेशक, पत्नाचार, प्रभाग, 
प्राध्यापक, रेखाचित्र, लघ॒शंका, वायुयान, वाक्य विश्लेषण आदि 4. संस्कृतेतर 
भाषाओं से गृहीत संस्कृत शब्द, यथा-- उपन्यास, कविराज, अभिभावक, अभ्यथ्थना, 
बकृता, गल्प, सन्देश, निर्भर, तत्त्वावधान, आपत्ति, सम्भ्नान्त, स्वष्निल, उमिल, 
धन्यवाद (बंगला); प्रगति, वाडइ मय (मराठी) । 

हिन्दी में प्रयुक्त तथाकथित संस्कृत तत्सम शब्द संज्ञा, सर्वंनाम, बिशेषण, 
क्रिया तथा अव्यय हैं | संज्ञा शब्द दो प्रकार के हैं-- . संस्कृत-प्रातिपदिक, यथा-- 
. अस्थि, कुसुम, कृष्ण, दधि, देव, पत्र, पुष्प, पुस्तक, फल, बालक, मनुष्य, मित्र, राम, 
वक्ष, जगत्‌; कन्या, निशा, वाला, भार्या, रमा, विद्या; अग्ति, ऋषि, कपि, कवि, 
पति, मति, सुनि, रवि, रुचि, वारि, विधि, पति, हरि; लक्ष्मी, नदी, सुधी, स्त्री; 
गुरु, जन्तु, धेनु, पशु, प्रभु, भानु, मधु, वस्तु, विष्णु, शत्र, शिशु, साधु; चमू, भू, 
वधू, स्वयम्भू आदि 2. संस्कृत-प्रथमा एकवच्चन, यथा-- आत्मा, करी, कर्ता, चर्म, 
जामाता, तपस्वी, दाता, दुहिता, धनवान, नाग, नेता, पिता, पृथ्वी, ब्रह मा, भ्राता, 
भगवान्‌, महिमा, माता, युवा, वणिक्‌, विद्वान, राजा, सखा, सम्राट, सीमा, स्वामी, 
हस्ती आदि । सर्बनाम--तव, मम । विशेषण (प्रातिपदिक), यथा--चिरन्तन, तीव्र, 
नव, नवीन, नूतन, पुरातन, श्वेत, सुन्दर आदि क्रिया--स्वीकार अव्यय--धिक्‌, प्रातः, 
पृथक, शर्नें:, सहसा, साथ, नित्यम्‌ । ' 


बीसवीं शताब्दी में हिन्दी-उ्द संघर्ष में हिन्दी के अनेक तद्भव शब्दों को 
तत्सम शब्दों में स्थानापन्‍त करना आरम्भ कर दिया था। धामिक, युगधर्म, कर्म- 
निष्ठ, कमंचारी, कमंठ, कमंवाद' जैसे शब्दों का प्रयोग होने से धरम, करम जैसे 
शब्दों का प्रचलन बन्द हो चला है। इन का स्थान धरम, कर्म ने लिया है। केवल 
मुहावरेदार प्रयोगों में (बथा---उस के तो करम ही' फूट गए, करमजली, कुछ धरम- 
करम भी किया कर) में ही तदभव शब्दों का प्रयोग बच रहा है। हिन्दी की भाँति 
अन्य भारतीय भाषाओं में भी इसी प्रकार से तत्सम/संस्कारित शब्दों ($875/070860 
४०705) का प्रचलन बढ़ा है। 


ध्वनि तथा अर्थ-तत्समता की दृष्टि से हिन्दी में गहीत केवल संस्कृत भाषा 
के ही नहीं वरन्‌ अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं से गहीत शब्दों पर 
विचार करना आवश्यक है। वास्तव में यह चिन्तन एवं वर्गीकरण विशेष शोध की 
.. आवश्यकता रखता है । 


तत्समेत्र शब्ब--वे परकीय शब्द हैं जो किसी भाषा में तत्सम - कोटि से क्‍ 
... इतर कोटि के होते हैं। (दे० तत्समाभास, अधे तत्सम और तद्भव शब्दों के विविध 


... उदाहरण)व4 





वर्तती | 3 


. ( ) का प्रयोग किसी शब्द के अर्थ|स्पष्टीकरण|विकल्प को सूचित करने 
के लिए किया जाता है, यथा-- ' 
उन की नीचता (छल-छिद्र) को तुम नहीं जानते । क्‍ 
2, नाटक में किए जानेवाले अभिनयादि की सूचना के लिए, यथा--- 
नल--(ुःखी हो कर, माथे पर हाथ रखते हुए) है विधाता | तू ने मेरे 
दुर्भाग्य के साथ दमयन्ती के भाग्य को क्यों जोड़ दिया 59 32 द 
3, विषय-विभाग सूचक अंकों/अक्षरों को प्रकट करने के लिए, यथा-- 
व्याकरण के तीन विभाग हैं--() ध्वनि विचार (2) शब्द विचार (3) 
वाक्य विचार । पा क्‍ द 
4. प्रसंगवश आई हुईं सामान्य बात को स्पष्ट करने के लिए, यथा-- 


कहा जाता है कि भूषण ने शिवा जी को यह पद अठारह बार सुनाया था 
(यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि भूषण वीर रस के प्रमुख कवि थे), शिवा जी 
ने भी प्रसन्‍त हो कर भूषण को बहुत पुरस्कार दिया था। 


5. [ ) का प्रयोग सामान्यतः भाषावैज्ञानिक दृष्टि से रूपिम की सूचना के 
लिए किया जाता है, यथा-- द 


(-ओं).. |-ओं|, /ओ॥, /-ए|, (-एँ/, (ऑ|, (० 


(5 


6. [ ]का प्रयोग लिखित वर्ण/अक्षर|शब्द|वाक्‍्य के उच्चरित रूप को प्रकट | 
करने के लिए किया जाता है, यथा--- 
उपन्यास [उपन्त्यास्‌ू), ले [ल्‌--भ] ह 
_ (]) लाघव चिहन (०) इस चिह्‌न का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति में 
होता है-- का, ह 
।. कुल-नाम, पदवी या डिग्री आदि को संक्षेप में लिखने के लिए, यथा-- 
पं० जवाहरलाल नेहरू । मा० ताराचन्द | (पं० पंडित ; मा०८-मास्टर) 
डॉ० > डॉक्टर ; एम० ए० मास्टर ऑफ आद्स । 
(2) छूट सूचक चिह्‌ न (6) इसे हंस पद|काक पद चिह॒ न भी कहते हैं । 
इस का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति में होता है--- क्‍ 
._]. लिखते समय भूल से छूट गए शब्द/अक्षर/वाक्‍्यांश[वाक्‍्य को प्रदर्शित 
करने के लिए, यथा--- 02 म 
.. अरे, मैं अपना बटुआ घर पर ही भूल आई। महिलाएँ स्वभावत: बहुत ही 
भावुक होती हैं। हर 


.. (3) लोप चिहु न (----- २६ २ ५९ ) इसे आपूर्ति सूचक चिह न भी कहते 


.. हैं। इस चिह न का प्रयोग अग्रलिखित स्थिति में होता है-- 





8... 








4 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


_4. उद्धरण के मध्य जिस अंश को लेखक अनावश्यक समझ छोड़ देना 
चाहता है. या किसी अतिरिक्त विषयवस्तु को ओर मात्र संकेत करना चाहता है, उस 
समय इन चिहृनों में से किसी एक का प्रयोग किया जाता है, यथा--- क्‍ 

... लोगों का विश्वास है कि मानव के प्राणों से परे भी एक वस्तु है, और वह 
है--परमात्मा । ८ २९ & इस जगत्‌ में जो कुछ हो रहा है, उसी' की मर्जी से हो 
रहा है । 

ही व्यक्तिवाचक संज्ञा के उदाहरण हैं--कालिदास, दमयन्ती, नर्मदा, हिमालय 
मैसूर, दिल्‍ली ----। 


द (4) समानता सूचक चिहन (5-) इसे तुल्यता सूचक चिह न भी कहते. 
हैं। इस चिह न का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति में होता है--- 


.. ]. किन्‍्हीं दो या अधिक तथ्यों की समानता का बराबर की' सूचना देने के 

लिए, यथा--- क्‍ 
हिम--आलय 5-5हिमालय; तड़ित-- आकाश की बिजली ; 9»८9|8]. 
(5) पुनरुक्तिसुच्चक चिह न (,,) इस चिह न का प्रयोग निम्नलिखित स्थिति 

में होता है 


. पूर्व लिखे गए अंश को पुनः शब्दों/अंकों में बिना लिखे उस की सूचना 
देने के लिए, यथा--- पक 
5 आदमी किसी काम को पूरा करते हैं +30 दिन में 
आए बी जे बा का | 

न्‍ः 5 


..._(6) समाप्ति सूचक चिह न (-- &--/- ०--) इस चिह्न का प्रयोग 
निम्नलिखित स्थिति में होता है--- 
.... . किसी लेख, अध्याय, पुस्तक के लिखित अंश की समाप्ति पर, यथा-- 
ना: 2 -+ था --०-- 
टंकण तथा मुद्रण का लेखन (वर्तती और विरामादि चिह न) से गहरा सम्बन्ध 
. है। देवनागरी के टंकण यन्त्रों से संस्कृत, अपश्रंश, प्राकृत, पाली, मराठी, नेपाली 
और हिन्दी का टंकण तो होता ही है, अन्य भारतीय भाषाओं |बोलियों तथा विदेशी 
.. भाषाओं के ठंकण के लिए भी देवनागरी टठंकण यन्त्र के उपयोग की आवश्यकता 
. दिनोंदिन बढ़ने लगी है। कार्यालयों, व्यापार-संस्थाओं, विज्ञान और उच्च स्तरीय 


... अध्ययन की दृष्टि से देवनागरी के टंकणयन्त्रों में इन वर्णों और चिह नों को समा- 


.. योजित करने का प्रयास करना अत्यावश्यक है। यदि टाइप राइटर में 'की' की संख्या 
.. बढ़ानी पड़े तो उस के संबंध में भी तकनीशियनों को सोचना चाहिए--- 


 अइउऋणएा[ व... -:,. क्खरघ्चछइल्टठडढफ्त४ 


_.  दद्चनण्पेब्स्मस्यर हव्श्ष्स्हक्३६]2345.67890 | 


()[ |] ४ ₹ ४६ %#छ-88$ 





| है | 
ऐ 
ड़ 
रा 
६३ 
! रा 
' हे ५, 

ह॥॥ 

फ् 
का 

3 * 
शी 
ही 


खण्ड ॥] 


रूप तथा शब्द-व्याख्या 


हिला. 


शब्द समूह द यु | 
2. शब्द-व्युत्पत्ति द हे पक | कक 
3. शब्द-अर्थे द डर द ँ 

4. शब्द-रचना कक 53 


5. शब्द-रपान्तण.......... पा 


6. संज्ञा... कि रा कर 
7. संबंनास 
8. विशेषण 
9. किया... पी क्‍ - 
0. अव्यय.... क्‍ ० 
4. शब्द-प्रयोग सतर्कता... कम हे क्‍ 
. १2. शब्द-भेदों की पद-व्याख्या . . .. ||/|/|/औयऔखर<ऋ के 


५ ह॒ 
का | 



































हि 








] 
* 
क 
प 





हि 





भ्‌ 




















॥ रूप तथा शब्द-व्यवस्था 
किसी भाषा के शब्द-भण्डार/|शब्दकोश के शब्दों, उन के भेदों, उन की 
ब्युत्पत्ति, उन की रचना (रूपान्तर) और उन के प्रयोग की चर्चा रूप तथा शब्द- 
व्यवस्था के अन्तर्गत की जाती है । द 
उच्चारण की दृष्टि से भाषा की लघुतम इकाई ध्वनि मानी जाती है किन्तु 


सार्थकता की दृष्टि से शब्द/रूप को भाषा की लघुतम इकाई माना जाता है। भाषा 


की लघुतम सार्थक इकाई रूप है, तो भाषा की लघुतम सार्थक स्वतन्त्र इकाई शब्द है । 
संस्कृत भाषा में शब्द का मुल९/शब्द्‌ माना गया है। शब्द धातु का अर्थे है--ध्वनि 
करना । इस आधार पर शब्द का मूल अर्थे ध्वनि/आवाज है । “निश्शब्द, निश्शब्दता' 
में शब्द का अर्थ आवाज” है। दक्षिण भारत की भाषाओं में शब्द का यह अर्थ 
सामान्य भाषा व्यवहार में प्रचलित है । शब्दबेधी वाण में शब्द का अर्थ ध्वनि ही है । 
शब्द! के अन्य अर्थ हैं--भाषा, वचन, कथन या बात (पड़ोसी अभफ्रीकनों के शब्द 
तो मेरी समझ में ही नहीं आते); शब्दप्रमाण (सन्त कबीर या सन्‍्त गुरुनानक के सबद 


. < शब्द); रूप या पद की रचना का आधार (हिन्दी शब्दानुशासन); ध्वनियों या 


वर्णों से बना वह संकेत जो किसी भाव, काये या बात का बोधक होता है। इस अर्थ 


में शब्द साथेक ध्वनि/ध्वनि समूह (ल.फ्जू, वे) शब्द है। क मर आ' ध्वनियों या 


वर्णों में साथंकता का अभाव है किन्तु इन्हीं ध्वन्तियों या वर्णों से बने शब्दों काम 


. मार, राम, आम, आक, कमर, कमरा” आदि में साथेकता (अर्थ देने की क्षमता) है । 


सार्थकता रहने पर भी शब्द में प्रयोग योग्यता का अभाव रहता है। 
शब्दकोश में सहस्रों शब्द होते हैं किन्तु उन का उसी रूप में प्रयोग नहीं किया जाता । 


शब्दकोश के शब्दों को वाकयों में प्रयोग करते समय उन्त में आवश्यक परिवतेन करना 


पड़ता है, यथा---चलना' शब्द वाक्य में प्रयोग के समय चलता, चलता है/था, चल 
रहा है।होगा, चला है|था, चल, चलें, चले, चलेगा, चल कर, चलना, चलने आदि। 


चलना शब्द के ये अनेक रूप जिस प्रक्रिया से सिद्ध होते हैं उसे रूप व्यवस्था कहा 
. जाता है। इस प्रकार शब्दकोश के शब्द शब्द हैं, वाक्य में प्रयुक्त शब्द पद हैं । 


. जब कोई ध्वनि/ध्वनि-समूह व्यवहार (व्याकरणिक प्रयोग) में अर्थबोध कराने 


की क्षमतायुकत होता हैं तब वह ध्वनि/ध्वनि समूह शब्द कहलाता है। इस प्रकार 
.. शब्द भाषा की अर्थ स्तरीय लघुतम स्वतन्त्र इकाई है। शब्द का एक स्पष्ट अथे 
. होता है। यह अथे के स्तर पर लघृतम होता है क्योंकि अर्थे के स्तर पर शब्द से 
. बड़ी इकाइयाँ हैं--पद, पदबन्ध, उपवाक्य, वाक्य । शब्द' ध्वनि स्तरीय लघुतम- 


$ 40) 








ढ़ 
ऊ 
४० ४ 
लक 
































ु 
+ 

क 

रु 
के ॒। 

पे 
ऊ 
कं 
* ह | 5 
४ है + 
) के ०2 2 न्‍] 
0 «५ 


] 

+ 

* 
रु 
१ 
+ 
2 
+ 
नह ॥ 
पु है] 


























६; 
रा 
बन 
अं 
ढ 
गढ़ 


श् 
कु 





च 
ञ 
बे 
मे 


5 
हे 





४ 
$ 
4 4 

बे ५ 

५३ के 
(;॒ 
ड> 
+ मम आम * 


व इक 








॥ रूप तथा शब्द-व्यवस्था 

किसी भाषा के शब्द-भण्डार/शब्दकोश के शब्दों, उन के भेदों, उन की 
व्युत्पत्ति, उन की रचना (रूपान्तर) और उन के प्रयोग की चर्चा रूप तथा शब्द- 
व्यवस्था के अन्तर्गत की जाती' है । 

उच्चारण की दृष्टि से भाषा की लघुतम इकाई ध्वनि मानी जाती है किन्तु 
सार्थकता की दृष्टि से शब्द/रूप को भाषा की लघुतम इकाई माना जाता है। भाषा 
की लघुतम साथक इकाई रूप है, तो भाषा की लघुतम सार्थक स्वतन्त्र इकाई शब्द है । 
संस्कृत भाषा में शब्द का मुल९/शब्द माना गया है। शब्द धातु का अर्थे है--ध्वनि 
करना । इस आधार पर शब्द का मूल अर्थे ध्वनि/आवाज है। निश्शब्द, निश्शब्दता' 
में शब्द का अथं आवाज' है। दक्षिण भारत की भाषाओं में शब्द का यह अर्थ 


सामान्य भाषा व्यवहार में प्रचलित है । शब्दबेधी वाण में शब्द का अर्थ ध्वनि ही है । 
शब्द! के अन्य अर्थ हैं--भाषा, वचन, कथन या बात (पड़ोसी अभफ्रीकनों के शब्द 


तो मेरी समझ में ही नहीं आते); शब्दप्रमाण (सन्त कबीर या सन्त गुरुतानक के सबद 
< शब्द); रूप या पद की रचना का आधार (हिन्दी शब्दानुशासन); ध्वनियों या 
वर्णों से बना वह संकेत जो किसी भाव, कार्य या बात का बोधक होता है। इस अर्थ 
में शब्द साथेक ध्वनि/ध्वनि समूह (लफ्जू, वर्ड) शब्द है। 'क मर आ ध्वनियों या 
वर्णों में साथेकता का अभाव है किन्तु इन्हीं ध्वनियों या वर्णों से बने शब्दों काम 


. मार, राम, आम, आक, कमर, कमरा' आदि में साथेकता (अं देने की क्षमता) है । 


- साथ्थेक्रता रहने पर भी शब्द में प्रयोग' योग्यता का अभाव रहता है। 


शब्दकोश में स हुसख्ों शब्द होते हैं किन्तु उन का उसी रूप में प्रयोग नहीं किया जाता । 


शब्दकोश के शब्दों को वाक्यों में प्रयोग करते समय उन में आवश्यक परिवर्तन करना 
पड़ता है, यथा--'चलना' शब्द वाक्य में प्रयोग के समय चलता, चलता है|था, चल 
रहा है।होगा, चला है/था, चल, चलें, चले, चलेगा, चल कर, चलना, चलने आदि। 
चलना शब्द के ये अनेक रूप जिस प्रक्रिया से सिद्ध होते हैं उसे रूप व्यवस्था कहा 


जाता है। इस प्रकार शब्दकोश के शब्द शब्द हैं, वाक्य में प्रयुक्त शब्द पद हैं। 


ब कोई ध्वनि/ध्वनि-समूह व्यवहार (ब्याकरणिक प्रयोग) में भर्थबोध कराने 


की क्षमतायुकत होता है तब वह ध्वनि/ध्वनि समूह शब्द कहलाता है। इस प्रकार _ 


शब्द भाषा की अर्थ स्तरीय लघ॒तम स्वतन्त्र इकाई है। शब्द का एक स्पष्ट अथ 


होता है। यह अथे के स्तर पर लघुतम होता है क्योंकि अर्थ के स्तर पर शब्द से 
बड़ी इकाइयाँ हैं--पद, पदबन्ध, उपवाक्य, वाक्य । 'शब्दः ध्वति स्तरीय लघुतमः 


4 05 








6 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


इकाई नहीं है--क्योंकि एक शब्द में एक ध्वनि भी हो सकती है (यथा--तू आा' 
में आ!) और एक से अधिक ध्वनियाँ भी (यथा-लड़का आया) | शब्द अर्थ॑ स्तरीय 
स्वतन्त्र इकाई है क्योंकि प्रबलता' के बल में जुड़े प्र- (उपसगे), -ता (प्रत्यय) 
बल' शब्द के अभाव में अर्थहीन हैं। 'बल' को अर्थ व्यक्त करने के लिए किसी 
अन्य शब्द या शब्दांश की आवश्यकता नहीं है । 

एक समय पर एक शब्द से सामान्यतः एक ही भावांश[विचारांश प्रकट होता 
है । पूर्ण भाव|विचार को व्यक्त करने के लिए एक से अधिक शब्दों/पदों का उपयोग 
करना पड़ता है, यथा--गाय आई (दो शब्द/पद); रेलगाड़ी धीरे-धीरे जा रही थी 
(छह शब्द|/पद) । एकल ध्वनि से किसी प्राणी, पदार्थे, गुण या उन के पारस्परिक 
. सम्बन्ध का बोध नहीं होता किन्तु एकाधिक ध्वनियों का व्यवस्थित योग कोई-न-कोई 
अर्थ बोध कराता है, यथा--र ए लग आ ड़ ई (एकल ध्वनियाँ), रेलगाड़ी (शब्द)। 
कभी-कभी व्याकरणिक दृष्टि से एकल ध्वनि को भी शब्द कहा जाता है, यथा-- 
आ, ओ, ए, ऐ' मनोवेगबोधक शब्द हैं । 


भाषा के सब से छोटे साथक खंड को रूप कहते हैं। रूप शब्द-निर्माण का 

आधार है। व्याकरण में व्यक्त उपसगं, प्रत्यय 'रूप! ही हैं। प्रत्येक भाषा के सभी 
सार्थक न्यूनतम खंड उस भाषा के रूप (7090) होते हैं। रूपों को दो वर्गों में बाँदा _ 
जा सकता है :--. स्वतन्त्र|मुक्त रूप (#768 77077) इन्हें शब्द भी कहते हैं. 
2. बद्ध रूप (80070 7रण.90), यथा--- -ए (घोड़े), -ता (मनुष्यता)। प्रकार्य की 
दृष्टि से समान सभी रूप एक रूपिम के सहरूप/समरूप/संरूप (307707/) कहलाते 
हैं, यथा--हिन्दी में संज्ञा बहुबचत के रूपिम (-ओं) के सहरूप हैं--. /-भों|, 
सपरसर्ग शब्दों में, 2. /ओ| सभी संबोधन में, 3. /-ए/ आकारात पु० ऋजु रूप में 
[-एँ इ|ई| इयान्त के अतिरिक्त) सभी स्त्री ० ऋज रूप में, 5. /-आँ/ इई/इयास्त स्त्री० 
ऋणजु रूप में, 6, |०/| सभी' पु० ऋजु रूप में । समान रूपों में अधिक प्रचलित/आवृत्ति 
युक्‍त/प्रमुख एक रूप को रूपिम मान लिया जाता है। इस प्रकार एक या एकाधिक 
संरूपों का प्रतिनिधित्व करनेवाला रूप रूपिस कहलाता है। प्रकायें के आधार पर 


रूप, संरूप, रूपिम, शब्द, पद नाम दिए गए हैं । 
भाषा-व्यवहार (वांक्य) में शब्दों की स्थिति पदों के रूप में दो तत्त्वों से. 


..  संग्रुफित मिलती है---!. प्रकृति तत्त्व 2. प्रत्यय तत्त्व । भाषा के उन आधारभूत 


अंगों (शब्दों) को प्रकृति तत्त्व कहा जाता है जिन से विभिन्‍न वस्तुओं, भावों-विचारों 
. क्रिया-व्यापारों, गुणों आदि के अर्थ का बोध होता है। मेज, जुदाई, दौड़, मीठा 


.. प्रकृति तत्त्व के सूचक हैं। प्रकृति तत्त्व से भिन्‍न जिन शब्दों/शब्दांशों में वस्तुओं, 
.. भावों-विचारों, क्रिया-व्यापारों, गुणों आदि के. अर्थ-बोध की स्वतन्त्र सामथ्ये नहीं 
_.... होती, उन गौण अंगों (शब्दों(शब्दांशों) को प्रत्यय तत्त्व कहा जाता है। “भों, -ता, 
.. वि- ही, ने! आदि प्रत्यय तत्त्व के सूचक हैं। प्रत्यय तत्त्वों की सार्थकता प्रकृति 








वर्तंनी' | 7 


: तत्त्वीं के साथ जुड़ कर ही प्रत्यक्ष या परिलक्षित होती है । प्रकृति तत्त्व आश्रयी' और 
प्रत्यय तत्व आश्वित होते हैं। आश्रयी का स्वतन्त्र अस्तित्व होता है किन्तु आश्रित 
का अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता । 


प्रकृति तत्त्व धातु, प्रातिपदिक तथा पद के रूप में मिलते हैं। क्रियार्थक 
तत्त्व धातु कहा जाता है, यथा--९/चल, 4/सो, ६/खा, ५/पी आदि | सत्त्ववोधक 
तत्त्व प्रातिपदिक कहा जाता है, यथा--घर, आम, मीठा आदि । विभक्तियुक्त/ 
परसगगयुक्त शब्द पद कहा जाता है, यथा--भैदान में, लड़कों को आदि । 


प्रत्यय-योजन प्रक्रिया की दृष्टि से प्रक्ृति तत्त्वों को तीन वर्गों में रखा जा 
सकता है--- [. मूल प्रकृति 2. व्युत्पन्त प्रकृति 3. पद प्रकृति । वे चरम रूप (शब्द) 
जिन का अर्थ की दृष्टि से विभाजन नहीं हो सकता मूल प्रकृति कहलाते हैं, यथा-- 
बाजार, घर, मेज, श्याम आदि सत्त्व बोधक शब्द: खा, पी, सो, जा क्रियार्थक शब्द | 
मूल प्रकृति के दो भेद हैं--(क) मूल धातु वे क्रियार्थद चरम रूप हैं जो अन्य रूपों 
से व्युत्पन्न नहीं होते, यथा--चल, कर, सो । (ख) मूल प्रातिपदिक वे सत्त्व प्रधान 
चरम रूप हैं जो अन्य रूपों से व्युत्पन्त नहीं होते, यथा--फर्श, पुस्तक, जल, मकान। 
वे रूप (शब्द) जो मूल प्रकृति या व्युत्पन्न प्रकृति से व्युत्पन्त होते हैं व्युत्पन्न प्रकृति 
कहलाते हैं, यथा--मूल प्रकृति वमक, लचीला से व्युत्पत्त “व्युत्पन्न प्रकृति'-- 
 चमकीला, लचीलापन। व्युत्पन्त प्रकृति 'रोजुगार' (रोजु-- -गार) से व्युत्पर 
व्युत्पन्त प्रकृति--बेरोजुगार । इस से व्युत्पन्त <व्युत्पन्त प्रकृति'--बेरोजगारी । 
व्युत्पन्त प्रकृति के दो भेद हैं--(क) व्युत्पन्न धातु (ख) व्युत्पत्न प्रातिपदिक | 
व्यूत्पस्त धातु के अन्तर्गत 'नामधातु, सकमंक धातु, प्रेरणार्थक धातु” की गणना की 
जाती है| व्यूत्पन्न प्रातिपदिक के अन्तगंत संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, अव्यय' के 
प्रातिपदिकों की गणना की जाती' है। ये प्रातिपदिक “सूल धातु, मूल प्रातिपदिक 
ब्युत्पन्त धातु, व्युत्पन्त प्रातिपदिक से व्युत्पन्त होते हैं । वाक्य में प्रयोज्य शब्द-रूप 
पद प्रकृति कहलाते हैं। पद की रचना के आधार हैं-- १. मूल धातु 2. मूल 
प्रातिपदिक 3. व्युत्पन्त धातु 4. व्युत्पन्न श्रातिपदिक; यथा--मैदान में खेल (मूल 
प्रातिपदिक +- मूल धातु); हलवाई को बुलवाऊं (व्युत्पन्न प्रातिपदिक +- व्युत्पन्न 
धातु) । पद प्रकृति के अन्तर्गत संज्ञा, सर्वताम, विशेषण, क्रिया, अव्यय पद की गणना 
की जाती है । 


भाषा में प्रयुक्त उपसर्ग (प्र-, आ- - प्रबल, आचार), पर प्रत्यय (-ई, -हट 
“पढ़ाई, अकुलाहट), कारक-चिह न (ने, को), निषपात (ही, तो) का अकेले में कोई 
. अर्थ बोध न होने के कारण इन्हें स्वतन्त्र शब्द नहीं कहा जाता। वे शब्दांश या. 
_ बद॒ध शब्द कहे जाते हैं । हम, हमारा, विध्न, नाशक, विध्ननाशकः अलग-अलग 5 
शब्द हैं जो मूलतः तीन शब्द (हम, विध्त, ताण) हैं। जिन प्रत्ययों के पश्चात्‌ दूसरे 
प्रत्यय नहीं जोड़े जा सकते उन्हें चरम प्रत्यय/प्रसर्ग (विश्लिष्ट विभक्ति भी) कहा... 











[8 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


जाता है, यथा--लकड़॒हारों ने! में लकड़ी >लकड़-- -हारा+॑- -थों के बाद आनेवाले 
ते! के पश्चात्‌ कोई अन्य प्रत्यय नहीं जुड़ सकता। "ने चरम प्रत्यय जुड़ने से पूर्व 
का शब्द 'लकड़हारा' मूल शब्द है, जिस में वाक्य प्रयोज्याथं “ओं विकारसूचक 
प्रत्यय जोड़ा गया है। इस प्रकार लकड़हारा' मूल शब्द और लकड़हारों' पद है। 
'लकड़हारों ने! को पदबन्ध या वाक्यांश कहा जाता है । 
संस्कृत-व्याकरण के अनुसार विभकिति रहित शब्द शब्द है और विभक्ित 
सहित शब्द पद है। शब्द और पद का भेदक तत्त्व. विभक्ति|चरम' प्रत्यय माना 
गया है । संस्कृत भाषा की संश्लेषणात्मक प्रक्ृति के कारण कारक विभक्तियाँ मूल 
शब्द में जोड़ी जाती हैं जबकि हिन्दी भाषा की विश्लेषणात्मक प्रकृति के कारण कारक- 
चिह न/परसर्ग मूल शब्द से सटा कर नहीं रखे जाते । विभवित-योग से शब्दों में 
प्रयोग योग्यता आती है, अर्थात्‌ उन्हें परस्पर अन्वय-आधार मिल जाता है। पाणिति 
ते इसी बात को एक सूत्र में इस प्रकार स्पष्ट किया है-- सुप्तिडनन्तं पद्म अर्थात्‌ 
सुप्‌ (-संज्ञानाम-विभक्तियाँ), तिडः (“क्रिया-विभक्तियाँ) के योग से पद-रचना 
होती है । बिना पद बने शब्दों का वाक्य प्रयोग नहीं हो सकता । अँगरेजी में पद 
की संकल्पना तन होने के कारण उस के लिए किसी पारिभाषिक शब्द का प्रयोग नहीं 
होता । पद को अगरेजी में & ७०१ ॥॥ ॥6 $९॥/०॥०९ कहा जा सकता है । पद-रचना 
.. के लिए मूल शब्द/अ्थ तत्त्व|प्रकृति और रूपान्तरक/रचना तत्त्व|प्रत्यय की आवश्य- 
 क॒ता होती है। (पद-रचना के संबंध में शब्द-रूपान्तरणः अध्याय 3 में विस्तार से 
लिखा जाएगा) 











शब्द समूह 


किसी भाषा में प्रयुक्त होनेवाले समस्त (सक्रिय, निष्क्रिय) शब्दों के समूह| 
भंडार को उस भाषा का शब्द-सम्‌ह (५०८४७प/५9) कहा जाता है। शब्द समूह को 
शब्द भंडार|शब्द कोश” भी कहा जाता है । किसी जीवित भाषा के समस्त शब्द समूह 
की गणना करना या सही-सही अनुमान लगाना सम्भव नहीं है क्योंकि जीवित भाषा 
में अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करने की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है और 
आवश्यकतानुसार नये शब्दों का गढ़ना भी जारी रहता है। मृत भाषाओं के शब्द- 
समूह की गणना उपलब्ध सामग्री के आधार पर अवश्य की जा सकती हैं । 


 मोनियर घिलियम्स के अनुसार संस्कृत में लगभग' 25000 शब्द (मूल शब्द) 
होंगे । वर्तमान अँगरेजी में लगभग 560000 शब्द हो सकते हैं । बृहत्‌ हिन्दी कोश 
के आधार पर हिन्दी में लगभग 50000 शब्द प्रचलित हैं। भाषा की भाँति ही 
प्रध्येक ग्रन्थ या प्रत्येक व्यक्ति का भी शब्द समूह होता है। अपडढ़ लोगों का शब्द 
समूह प्रायः 500-800 के मध्य. हुआ करता है। पढ़ें-लिखे लोगों का शब्द समूह 
500-80000 के मध्य हुआ करता है। जिस प्रकार बचपन से मृत्यु के निकट तक 
व्यक्तियों के शब्द समृह में परिवर्तन होता रहता है, उसी प्रकार जीवित भाषाओं के. 
शब्द समूह में भी परिवर्तन होता रहता है। भाषाओं के शब्द समूह में परिवतंन के . 
दो मुख्य आधार हैं-- ।. प्राचीन शब्दों का लोप 2. नवीन शब्दों का ग्रहण । 


[. प्राचीन शब्ब-लोपन के कई कारण होते हैं, जेसे---(क) रीति-रिवाजों 


का लोप--जिन रीति|रिवाजों या कर्मों का समाज से लोप हो जाता है, उनसे 
_ संबंधित परम्परागत अनेक शब्दों का लोप हो जाता है । हिन्दी क्षेत्र में प्राचीनकालीन 
. यज्ञ परम्परा के लोप के कारण कई शब्दों (जैसे-- ख्ू.च, शम्या, ख॒तावदान, कूच, 

हम 9 








20 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


प्राशिन्नहरणे, अभ्रि, चात, षडवत्त, मुलेखात आदि) का प्रचलन समाप्त हो गया है। 

(ख) रहन-सहन में परिवर्तत--खान-पान, रहन-सहन वेशभूषा आदि में परिवतंन 
होने के कारण सम्बन्धित शब्दों का लोप हो जाता है। हिन्दी क्षेत्र में भात<_ भक्‍त 

मालपुआ/पृआ<अपूप; सत्तू<सकतुक शब्द तो श्रचलित रहे किन्तु मंथ 
(< धान को मथ कर बनाया गया सत्तू), यावक (--जों से बनाया जानेवाला एक 
विशेष खाद्य), संयाव (+-एक विशिष्ट प्रकार का हलवा[हलुआ) जैसे शब्द लुप्त 
हो गए। कुरीर (>- मस्तक का एक विशेष आभूषण), हिरज्जयवरतिनी (-> कमर का 
एक विशेष आभूषण) जैसे शब्दों का प्रचलन भी समाप्त हो चुका है। (ग) अश्लीलता. 
--सामाजिक रूढ़ियों, परम्पराओं के आधार पर जिन शब्दों को समाज अश्लील 
मान लेता है, उत का प्रचलन समाप्त होने लगता है। हिन्दी क्षेत्र में मैथुन, शोच. 
आदि से संबंधित अनेक शब्दों (लिंग, गुदा, योनि, सम्भोग, शौच आदि के लिए 
तथाक्रथित असभ्य और गँवार लोगों में बोले जानेवाले शब्दों) का परिनिष्ठित हिन्दी 
में लोप हो चुका है। शब्द-लोप के अन्य कारण, यथा--अन्धविश्वास, शब्द-घिसाव 
और पर्याय का परिनिष्ठित हिन्दी शब्द-लोप पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं 
पड़ा है। 


2. नवीन शब्द-ग्रहण--जीवित भाषाओं में एक दूसरी भाषा से शब्द आदान 
करन की प्रव॒ुत्ति पाई जाती है, साथ ही आवश्यकतानुसार नवीन शब्द गढ़ने की प्रवृत्ति 
भी होती है | किसी भाषा में अन्य भाषा|भाषाओं के शब्दों के आगमन और नवीत 
शब्द निर्माण के कई कारण होते हैं-- (क) सभ्यता-विकास--सभ्यता-विकास के 
साथ-साथ विभिन्‍न प्रकार की नवीन वस्तुओं का निर्माण होता है जिन के लिए नये 
शब्दों का निर्माण करना पड़ता है या अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण करने पड़ते हैं । 
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद हुए सभ्यता-विकास के कारण हिन्दी में अन्य भाषाओं से 
“इडली, दोसा, नीरा, पोलीथित, किलो, लीटर, स्मैक, रोबोट, स्पृततिक” आदि शब्द 
ग्रहण हो कर प्रचलन में आ चुके हैं । वैज्ञानिक विकास के कारण सैकड़ों शब्दों का 
निर्माण किया गया है, यथा--निविंदा, लेखापाल, वातानुकूलन, अग्निशास्त्र आदि । 
(ख) सामाजिक चेतना-विकास--राजन॑ तिक, सॉंस्क्ृतिक चेतना का विकास नवीन शब्द 
निर्माण और अन्य भाषाओं से शब्द ग्रहण की प्रवत्ति को बढ़ाता है । परिनिष्ठित हिन्दी 

यें 'डाकधर, पत्र मंजूषा, जिलाधीश, दूरभाष, दूरदेशंन, दूरसंचार, आकाशवाणी, गोली 
.. कायालय, प्रदेश, अधिकारी जैसे शब्द राजनैतिक एवं सांस्कृतिक चेतना-विकास के 
कारण पोस्ट ऑफिस, लेटर बॉक्स, कलक्टर, ठेलीफोन, टेलीविजन, टेलीकम्यू 


.._ निकेशन, रेडियो, गोलकीपर, ऑफिस, सूबा, ऑफीसर' को अपदस्ंथ कर रहे हैं । 


..._ नवीन शब्द ग्रहण के अन्य कारणों (यथा--अन्य भाषा-सम्पर्क, अनुकरणात्मकता और 
.. साम्य) का परिनिष्ठित हिन्दी पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा है । 








शब्द समुह | 2 


क्‍ भाषा की प्रकृति और आवश्यकताओं से अपरिचित लोग प्रायः समाचार पत्रों, 
आकाशवाणी और दूरदर्शन आदि की भाषा पर क्लिष्टता का आरोप लगाते रहते 
हैं। ज्ञान-विज्ञान के अनेक क्षेत्रों के विषयों (यथा--परमाणु भौतिकी, उपग्रह 
सम्प्रेषण, कम्प्यूटर, इलेक्ट्रीनिक्स, राजनीति, त्रिधि, अथेशास्त्र, विज्ञान, समाजशास्त्र 

कला आदि) की चर्चा के लिए पारिभाषिक शब्दावली की अनिवार्यता को नकारा 
नहीं जा प्कतता । सामान्य अंगरेजी जाननेवाले लोगों को भी प्रगतिशील बनने के 
लिए अनेक पारिभाषिक शब्दों को जानने की आवश्यकता पड़ती है और वे इन्हें जानने 
और समझने का प्रयत्त भी करते देखे जाते हैं, यथा--(प्रशरंध0, 6०70705, 
छ्चछणंडआ॥, कप्रशणा, 0876, स0ए00०१७, ीव्राा07, 0/608708, 078०वां, 
?0ए४॥07५ आदि । हिन्दी में भी ऐसे नये पारिभाषिक शब्दों को जानने, समझने के 
लिए प्रयत्न करना होगा । विचार न जाननेवाले लोग शब्दों से माध्यम से प्रत्यय-बोध 
प्राप्ति की ओर बढ़ सकते हैं और विचार जाननेवाले लोग केवल नये शब्दों से 

परिचित होने की ओर बढ़ सकते हैं । 


पारिभाषिक शब्द से व्यक्त होनेवाला विचार वक्‍ता और श्रोता की दृष्टि से 
सावंदेशिक होता है। पारिभाषिक शब्दावली सें पर्याय की गु जाइश न के बराबर है। 
बोलचाल को भाषा में श्लेष अलंकार है, किन्तु पारिभाषिक शब्दावली के लिए यह 
दोष! है। विषय की गहुनता और विचारों की सम्बदधता की. दृष्टि से एक मूल 
शब्द से सम्बद्ध अनेक लगभग समानरूपी पारिभाषिक शब्दों का निर्माण किया जा 
सकता है, यथा--ऑकक्‍्सीजन, ऑक्साइड, डाइऑक्साइड, ऑक्सीजनेशन (एक सूल 
विचार से उद्भूत शब्द); -एट, -आइड से जड़े विशेष अर्थ के सूचक शब्द, यथा--- 
काबोनिट, नाइट्रेंट, सल्फ ट, हाइडू ट; आकसाइड, सल्फाइड । 
द पारिभाषिक शब्दावली-निर्माण के समय इन बातों का ध्यान रखा जाना 
आवश्यक है-- !. भाषा में पूर्व प्रचलित पारिभाषिक शब्द को यथासम्भव उसी 
रूप और अर्थ में ग्रहण किया जाए 2. यथावश्यक अँगरेजी/अन्तरराष्ट्रीय शब्द उसी 
रूप और अर्थ में ग्रहण करते हुए स्व-भाषा की प्रकृति के अनुरूप अन्य शब्द-निर्माण 
का आधार बनाया. जाए, यथा--ऑक्सीकृत, कार्बनीकरण, न्यूकलीय, लिग्नीभवन 
आदि 3. यथासम्भव भारतीय भाषाओं में प्रचलित पारिभाषिक शब्द भी ग्रहण किए 
जाएँ 4. संस्कृत भाषा के सहयोग से नये शब्द गढ़े जाएं। अखिल भारतीय पारि- 
भाषिक शब्दावली की चर्चा|वकालत वे लोग ही करते हैं जो भिन्‍न-भिन्‍न भाषाओं 
.. की उच्चारण व्यवस्था, शब्द रचना व्यवस्था और वाक्य विन्यास व्यवस्था की 
.. भिन्‍नताओं में सुपरिचित नहीं हैं। ३ कु 
या किसी भाषा में नवीन शब्द ग्रहण के मुख्य दो स्रोत माने जाते हैं-- . तवीन _ 
शब्द निर्माण 2. शब्द आदान। !. नवीन शब्द निर्माण के ये रूप हो सकते हैं--- 
.._(क) दो शब्दों के योग (समास प्रक्रिया) से तीसरा शब्द बना लिया जाता है, यथा--- 








|22 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अक्ल -- मन्द +- अक्लमन्द ; अर्जी - नवीस > अर्जीनवीस ; जमा --बन्दी <- जमाबन्दी 
अजायबर----घर>-अजायबघर ; चिड़िया--खाना > चिड़ियाखाना ; दल--बन्दी +- 
दलबन्दी ; देश--निकालाज+देशनिकाला ; रेल-+-गाड़ी 5 रेलगाड़ी ; रसोई--घर 
रसोईघर ; पाव--रोटी>-पावरोटी ; पाव--भाजी > पावभाजी (2) व्यक्तिवाचक 
नामों के आधार पर गढ़े गये शब्द भी परिनिष्ठित हिन्दी में प्रचलित हैं, यथा-- 
सैंडो बनियान; एटलस साइकल; फिलिप्स रेडियो; सुर्ती; चीनी; मिश्री; बनारसी 
ठग आदि (ग) सादृश्य के आधार पर गढ़े गये शब्द भी परिनिष्ठित हिन्दी में प्रचार 
पा चुके हैं, यथा--शहराती, घराती, फिल्माना, दागना, लतियाना, बतियाना' 
क्रमशः: देहाती, बराती, दिखाना” के सादृश्य पर गढ़े गये हैं (घ) शब्द-संक्षिप्ति के 
रूप में गढ़े गए शब्द भी परिनिष्ठित हिन्दी में प्रचलित हैं, यथा--- इंका (इंदिरा 
कांग्रेस), भाजपा (भारतीय जनता पार्टी), भालोद (भारतीय लोक दल), जद (जनता 
दल), उ० प्र० (उत्तर अदेश), पाक (पाकिस्तान), कॉपी (कॉपी), बुक, लैब (लैबो- 
रेटरी), एग्जाम (एग्जामिनेशन), साइकल (बाइसिकल), फोन (टेलीफोन), शाला 
(पाठशाला), एन० सी० सी० (नेशनल कैडेट कोर), ए० आई० आर० (ऑल 
इंडिया रेडियो), डी० एम० (डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट), दि० न० नि० (दिल्ली नगर 
निगम), एम० ए० (मास्टर ऑफ आर्टस) आदि। (डः) अनुवाद के आधार पर गढ़े 
गए शब्द भी परिनिष्ठित हिन्दी में प्रचलित हैं, यथा--शुभ रात्रि (गुड नाइट/शिब्बा 
खेर), शुभ प्रभात (गुड मॉनिंग), कुल सचिव (रजिस्ट्रार), अकादमी (एकेडेमी), 
एकक (यूनिट), तदर्थ (एडहाँक), प्रवेशपत्र (एडमीशन काड्ड) । न 


ड़ 2. शब्द आदान तीन प्रकार की भाषाओं से सम्भव है--(क) देशी तथा 

_ विदेशी आधुनिक अन्य भाषाओं से ग्रहण किए गए कुछ नवीन शब्द परिनिष्ठित हिन्दी 
में प्रचलित हैं, यथा-- ऑफिस, कॉफी, टिन, मठन, निब, पिन, अगस्त, दिसम्बर, 
मोटर, रन, क्रिकेट, इकरार, कब्जा, कुदरत, शौक, अखबार, खामोश, दिमाग, 
ग्रीब, आजादी, जुरूरत, हाजिरी, तारीफ, फासला, ह फ्ता, इडली, दोसा, नीरा, 
चिल्लर आदि | (ख) स्वदेशी प्राचीन भाषा (संस्कृत) से ग्रहण किए जा रहे (विशेषतः 
_ पारिभाषिक) कुछ नवीन शब्द हैं--- स्वनिम, निर्वात, उपग्रह, अभिस्वीकृति, सारणी, 
वैकल्पिक, जैविक, लोकसभा, अभ्यावेदन, तैथिक, वाधिकी, अतिक्रमण आदि। 
पारिभाषिक शब्दों के अतिरिक्त सामान्य शब्दों के ग्रहण के समय हिन्दी ने एक विशेष 
- नियम का पालन किया है--संस्कृत से लिए हुए अधिकतर शब्द प्रथमा विभक्ति को 
हटा कर ग्रहण किए गए हैं, यथा--- चन्द्रमा:-> चन्द्रमा, नभ, मन, यश आदि। कुछ 


.._ शब्दों में बिसर्ग की उपस्थिति का पता गुहीत व्युत्पन्त शब्दों से लगता है, यथा-- _ 
.. _ पयोधर, मनोभाव, शिरच्छेद, शिरस्त्राण । मनोकामना सादृश्य कें आधार पर चल 


... पड़ा है | .(ग) स्व बोलियों से ग्रहण किए गए कुछ शब्द हैं--लेंहड़ा, हुकना, हेटी, 
.._ टंटा, झाँबी, लहवार, ठडढा आदि । 





है 
$ 


शब्द समृह | 23 


. शब्द संफलन-प्रकार (कोश) के आधार पर हिन्दी के शब्द समूह कई रूपों 
कोशों) में श्राप्त होते हैं, यथा-- (क) व्यक्ति कोश--तुलसी कोश, सूर कोश, 
प्रसाद कोश आदि (ख) पुस्तक कोश--रामचरितमानस कोश ; सूरसागर कोश आदि 


(गे) भाषा कोश--ये कई प्रकार के होते हैं, यथा--शब्द कोश; पारिभाषिक कोश; 


पर्याय कोश; मुहावरा कोश; लोकोकिति कोश; विश्वकोश आदि। हिन्दी में एक 


भाषीय, दृविभाषीय और त्रिभाषीय अनेक कोश उपलब्ध हैं, यथा-- मानक कोश; 


प्रामाणिक हिन्दी शब्दकोश; बृहद हिन्दी कोश; हिन्दी शब्दसागर; नालन्दा शब्द- 
कोश; भागंव हिन्दी शब्दकोश; हिन्दी साहित्य कोश आदि । 
हिन्दी भाषा के शब्द समूह-वर्गोकरण के चार प्रभुख आधार हैं--. शब्द- 


ब्युत्पत्ति 2. शब्द-अर्थ 3. शब्द-रचना 4. शब्द-रूपान्तरण । इन चारों पर क्रमशः 


अध्याय 40, 4, 2, 43 में प्रकाश डाला जाएगा। 


ला 
| अक्नफीअककेमर 
जग 








शब्द-व्युत्पत्ति 


शब्द व्युत्पत्ति (-- विशेष/विशिष्ट उत्पत्ति) के शास्त्र को संस्कृत में निरूक्‍त 
कहा गया है तथा अँगरेजी में 7/४770029 कहा जाता है। गुरू के व्याकरण का 
अनुकरण कर कई व्याकरणों में 'शब्द-रचना को व्युत्पत्ति कहा गया है । यद्यपि 
किसी शब्द से दूसरा शब्द व्युत्पन्त किया जा सकता है, यथा--लड़का >> लड़कपन, 
मीठा >>मिठाई आदि, तथापि शब्द-भाषा स्रोत या शब्द-इतिहास की चर्चा का शास्त्र 
व्युत्पत्तिशास्त्र कहलाता है । इस आधार पर यहाँ शब्द-व्युत्पत्ति के अन्तर्गत हिन्दी 
शब्द-समृह के भाषा स्रोत/उद्गम या शब्द-इतिहास को सम्मिलित किया गया है । 
गुरू ने हिन्दी व्याकरण के दूसरे भाग के तीसरे परिच्छेद में व्युत्पत्ति (पहला 
अध्याय) के बारे में कहा है “व्यूत्पल्ति प्रकरण में केवल यौगिक शब्दों की रचना का 
विचार किया जाता है, रूढ़ शब्दों का नहीं । वे आगे लिखते हैं-- “परन्तु 'रसोई' 
और धर शब्दों की व्यत्पत्ति किन भाषाओं के किन शब्दों से हुई है यह बात 
व्याकरण विषय के बाहर की है |” इन दोनों वाक्यों में गुरू व्यूत्पत्ति शब्द का 
दो भिन्‍त-भिन्‍न अर्थों में प्रयोग कर रहे हैं । 

किसी भी भाषा के समस्त शब्द-समृह को अपनापन्त की दृष्टि से दो वर्गों 
में बाँदा जा सकता है-- (!) स्वकीय (2) परकीय । स्वकीय शब्दों को पुनः दो वर्गों 
में बाँठा जा सकता है-- !. परम्परागत 2. निर्मित। परम्परागत शब्द दो प्रकार 
के होते हैं-- (क) ज्ञात व्यूत्पत्तिक (ख) अज्ञात व्यूत्पत्तिक । ज्ञात व्यूत्पत्तिक शब्दों 


को प्राचीन तदभव कहा जाता है और अज्ञात व्यत्पत्तिक को देशज । 
!24 











शब्द-ध्युत्पत्ति | 425 


परकीय शब्दों को दो वर्गों में बाँठा जा सकता हैं--- () स्वदेशी (2) 
विदेशी । दोनों वर्गों के ये शब्द दो प्रकार के हो सकते हैं-- . तत्सम 2. तत्समेतर । 
तत्समेतर स्वदेशी' शब्दों को पुनः तीन वर्गों में रखा जा सकता है -- (क) तत्समाभास 
(ख) अधे तत्सम (ग) तद्भव । तत्समेतर विदेशी शब्दों को दो वर्गों में रखा जा सकता 
है--(क) तत्समाभास (ख) तद्भव । आरेख में इस वर्गीकरण को इस श्रकार रखा 


जा सकता है-- 
हिन्दी शब्द-समह 


| 


5 ७ | 


| 


स्वकीय परकीय 


| | 


। | | 


| 
परम्परागत निर्मित स्वदेशी विदेशी 


| 


हे 
| | | | 


| 
| 
ज्ञात व्यत्पत्तिक अज्ञात व्यूत्पत्तिक | तत्सम तत्समेतर तत्सम तत्समेतर 
| 
| 





(प्राचीन तदभव) (देशज) 2 ' 


७०-33. -नननननननानिनिदणएण।. "दाग क्‍ ४ नल एल 


ऐ ७ | 


[.....][. [ तत्स- धर्धतत्सम तद्भव तत्समाभास तद्भव 
सन्धिज समासज प्रत्ययज माभास 


व्याकरण की बहुत-सी पुस्तकों में व्युत्पत्ति/भाषा-स्रोत/शब्द-इतिहास/शब्द- 
 उदगम की दृष्टि से प्राय: चार प्रकार के शब्द लिखें गए हैं-- !. तत्सम 2. तदभव . 
3, देशी/देशज 4. विदेशी । इस वर्गीकरण में देशी, तत्सम, तद्भव” शब्दों के बारे 
में परिभाषा या लक्षण की दृष्टि से सम्यक विचार नहीं किया गया है। यहाँ ऊपर 
सुझाए गए वर्गीकरण के अनुसार हिन्दी शब्द-सम्‌ह पर व्यत्पत्ति की दृष्टि से प्रकाश 
डाला जा रहा है । मं 


स्वकीय शब्द--किसी व्यक्ति की धव-सम्पदा में उन समस्त वस्तुओं, जमीन- 
जायदाद, रुपया-पेता आदि की गणना की जाती है जो उसे पूरखों से मिली है, उस 
ने अपने जीवन काल में स्त्रयं अजित की है और उस ने अपने साथी, रिश्तेदार आदि 
से उधार ले कर या किसी अन्य रूप में प्राप्त की है। किसी भाषा के शब्द-सम ह में 
: दो प्रकार के वे शब्द स्वकीय शब्द कहे जाएँगे जो उस भाषा को भाषा विकास की 
प्रक्रिया में पूव॑वर्ती भाषा से प्राप्त हुए हैं और जिन शब्दों को उस भाषा के जीवन- 

. काल में गढ़ा गया है। जा 





]26 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


परकीय शब्द--किसी भाषा के शब्द-समूह में दो प्रकार के वे शब्द परकीय 
शब्द कहे जाएँगे जो उस भाषा ने स्वदेश ओर विदेश की भाषाओं से ग्रहण किए हैं। 
प्रकीय शब्दों को उधार लिए हुए शब्द (0%॥ ५४०१5) कहना तकंसंगत नहीं है 
क्योंकि कोई भी भाषा गृहीत या आगत शब्द/शब्दों को लौठाया नहीं करती | परकीय 
शब्दों को गृहीत/आगत शब्द भी कहा जा सकता है । परकीय वर्ग के स्वदेशी, विदेशी 
शब्दों के भेदों और उपभेदों पर अभी शोध कार्य होना है । 


परम्परागत शब्द--किसी भाषा के उद्भव/विकास काल में प्र॒व॑वर्ती भाषा 
से सहज रूप में प्राप्त शब्द परम्परागत शब्द कहलाते हैं | हिन्दी भाषा के परम्परागत 
शब्द वे हैं जो हिन्दी के उद्भव और विकास काल में संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रेश 
आदि से उसे मिलते रहे हैं । पति 

निर्मित शब्द--कोई भाषा अपने विकास काल में आवश्यकतानुसार जिन 
शब्दों का निर्माण करती है, उन्हें निमित शब्द कहा जाता है। (हिन्दी में शब्द 
निर्माण प्रक्रिया के कई रूप हैं जिन पर अध्याय 2 'शब्द-रचना' में विस्तार से चर्चा 
की जाएगी ।) द क्‍ हर 
स्वदेशी शब्द--कोई भाषा अपने विकास काल में स्वदेश की विभिन्‍न जीवित 


भाषाओं के सम्पर्क में आ कर उन से जो शब्द ग्रहण करती है, उन्हें स्वदेशी शब्द... 


कहा जाता है। इन्हें कुछ लोग देशागत या देशगृहीत शब्द भी कहते हैं। हिन्दी में हे ' 
आधुनिक भारतीय भाषाओं से कई शब्द ग्रहण किए गए हैं । सा 


विदेशी शब्द--कोई भाषा अपने जीवन काल में विदेश की विभिन्‍न जीवित से | 
भाषाओं के सम्पर्क में आ कर उन से जो शब्द ग्रहण करती है, उन्हें विदेशी शब्द 


कहा जाता है दे हे कुछ लोग विदेशागत या विदेश गृहीत शब्द भी कहते हैं ताचीन 


पंडितों की दृष्टि में विदेशी शब्द 'म्लेच्छ शब्द क्‍ हैं। हिन्दी में आधुनिक कई विदेशी द हि 


भाषाओं से अनेक शब्द ग्रहण किए गए हैं । 


ज्ञात व्युत्पत्तिक शब्द--वे परम्परागत शब्द जिन के बारे में निश्चित पता... 
है कि वे किस भाषा से उद्भूत हो कर इस भाषा (या हिन्दी) को प्राप्त हुए हैं, ज्ञात... 


व्युत्पत्तिक शब्द कहलाते हैं । ऐसे शब्दों को व्याकरण ग्रन्थों में प्राय: तद्भव कहा 
जाता रहा है । के 
.. अज्ञात व्यत्पत्तिक शब्द--वे परम्परागत शब्द जिन के बारे में निश्चित पता 


. नहीं चल पाया है कि वे किस भाषा से उद्भूत हो कर इस भाषा (यो हिन्दी) को 
.. प्राप्त हुए हैं, अज्ञात व्युत्पत्तिक शब्द कहलाते हैं। ऐसे शब्दों को ध्याकरण ग्रन्थों में... 
.. प्रायः वेशज कहा जाता रहा है। 'देशज' का अर्थ है--देश में जन्मा हुआ या उत्पन्‍्त 
... ज्ञात च्युत्पत्तिक तथा स्वदेशी शब्द भी देशज ही होते हैं। जो शब्द कुछ वर्ष पूर्व तक । | | 

. तथाकथित 'देशज वर्ग के माने जाते रहे थे (यथा--हेमचन्द्र के ग्रंथ देशी ताममाला....... 








शब्द-व्युत्पत्ति | 427 


के अनेक शब्द), उन में से अनेक अब विदेशी तथा तद्भव की कोटि में रखे जाने 
लगे हैं । वास्तव में तकनीकी दृष्टि से देशज” शब्द तकसंगत नहीं है । इन शब्दों 
में द्रविड तथा मुंडा भाषाओं से आगत कुछ शब्दों को रखा जाता रहा है। हिन्दी में 
प्रचलित कुछ अज्ञात व्युत्पत्तिक शब्द ये हैं--कबड़डी, खादी, घपला, घूट, चंपत, 
चूहा, झंझट, झगड़ा, टट॒दू, टीस, ठेठ, ठेस, तेंदुआ, थोथा, धब्बा, पेठा, पेड़ आदि । 


तत्सम शब्द--तत्सम” शब्द का अर्थ है--उस के (तत्‌) समान (सम) । 
सामान्यतः व्याकरण ग्रन्धों में 'तत्‌' से संस्कृत भाषा का भर्थे ही' स्वीकार किया 
जाता रहा है। वे परकीय शब्द जो किसी भाषा से ध्वनि और अ्थ॑-व्यवस्था में 
तद्रूप या यथावत्‌ ग्रहण किये जाते हैं, 'तत्सम” कहलाते हैं। व्याकरण ग्रन्थों में 
प्रायः संस्कृत-शब्दों को ही तत्सम शब्दों की श्रेणी में सम्मिलित किया जाता . 
रहा है जो तकसंगत नहीं है। कुछ लोगों के अनुसार तत्सम शब्द का अर्थ है--बिना 
किसी स्वनिक परिवतेन के हिन्दी में आगत संस्कृत शब्द । इस अथ में शब्दों की 
तत्समता केवल ध्वनि स्तर तक ही त्ीमित रखी गई है । द 
यद्यपि संस्कृत भाषा में भी उस के विकास काल में कई भाषाओं से अनेक 
_ शब्द गृहीत हुए थे तथापि हिन्दी भाषा में ग्रहण की दृष्टि से उन्हें संस्कृत से आगत 
ही मान जाएगा क्‍योंकि वे शब्द हिन्दी में संस्कृत के माध्यम से ही गृहीत हैं 
यथा--पुष्प, कला, गण, नाना, शव, मककट, रात्रि (द्रविड); क्रमेल/क्रमेलक, द्रम्य/ 
द्रम्य(द्रम, होडा, यवतन, समिता/समिदा, सुरंग/सुरुग, होडा, केन्द्र, कंस्तूरी, कंगु, 
खलिन, कस्तीर (यूनानी); लौह, गौ (सुमेरी)। असुर (असीरियन); कप, शलाका 
(फिनोउग्रियन); परशु (अक्कादी); गंगा, लिंग, वाण, पिनाक, कदली, तांबूल 
(आस्ट्रिक); दीनार, रोमक, रोमन (लातीनी/लैटिन); सहम, रमल' (अरबी); चीन, 
तसर, कीचक, सिन्दूर, लीचो, मुसार (चीनी); मुद्रा, मिख्री/मिश्री (मिश्री); खज्चर, 
तुरुष्क, ठक्कुर (तुर्की); क्षत्रप, निःशाण, बालिश, दिपि, कुन्दुरु, मिहिर, मग, गंज, 
तीर, तृत, निपिस्त (ईरानी) । द 
. संस्कृत से आगत तथाकथित तत्सम शब्दों को कुछ लोग पुराने तत्सम और 
नये तत्सम शब्दों में रखते हैं, यथा--पुराने तत्सस वे शब्द हैं जो हिन्दी में अपने मूल 
नये या केवल पुराने/नये अर्थ में प्रयुक्त होते हैं, यथा---अन्तरिक्ष, देश, आयुक्त _ 
आदि। नये तत्सम वे शब्द हैं जो हिन्दी में संस्क्ृत के शब्दों और प्रत्ययों के आधार पर 
बनाए गए हैं, यधा--उत्पादनशील, क्रयशक्ति, जीवनशास्त्र, प्रतिक्रांति, प्राविधिक, 
भाषा-वेत्ता, विस्तारवाद आदि । कुछ विद्वानों ने परिनिष्ठित हिन्दी में प्रयुक्त संस्कृत. 
के तथाकथित तत्सम शब्दों को चार वर्गों में बाँटने का प्रयास किया है-- ॥. प्राकृतों 
में होते हुए हिन्दी में आगत संस्कृत शब्द, यथा--अधघ, अचल, अचला, काल, कुसुम, 


जन्तु, दण्ड, दम आदि 2. हिन्दी के भक्तिकाल और आधुनिक काल में ग्रहण किए... 


7६ संस्कृत शब्द, यथा--कर्म, कुशल, कृष्ण, क्षेत्र, ज्ञान, पुष्प, सद्य, सधुर, मत्त्य, 











28 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


मार्ग, मृग, मेघ आदि 3. बीसवीं सदी में संस्कृत व्याकरण के आधार पर निमित 
संस्कृत शब्द, यथा--कटिबद्ध, जलवायु, नगरपालिका, निदेशक, पत्राचार, प्रभाग, 
प्राध्यापक, रेखाचित, लघुशंका, वायुयान, वाक्य विश्लेषण आदि 4. संस्कृतेतर 


भाषाओं से गृहीत संस्कृत शब्द, यथा--- उपन्यास, कविराज, अभिभावक, अभ्यर्थना, 


वकृता, गल्प, सन्देश, निर्भर, तत्त्वावधान, आपत्ति, सम्भ्रान्त, स्वष्निल, उमिल, 
धन्यवाद (बंगला); प्रगति, वाड मय (मराठी) । 

हिन्दी में प्रयुक्त तथाकथित संस्कृत तत्सम शब्द संज्ञा, सर्वनाम, बिशेषण, 
क्रिया तथा अव्यय हैं । संज्ञा शब्द दो प्रकार के हैं-- . संस्कृत-प्रातिपदिक, यथा--- 
अस्थि, कुसुम, कृष्ण, दि, देव, पत्र, पुष्प, पुस्तक, फल, बालक, मनुष्य, मित्र, राम, 
वक्ष, जगत; कन्या, निशा, वाला, भारया, रमा, विदुया; अगिति, ऋषि, कृषि, कवि, 
पति, मति, मुनि, रवि, रुचि, वारि, विधि, पति, हरि; लक्ष्मी, नदी, सुधी', स्त्री; 
गुरु, जन्तु, धेनु, पशु, प्रभु, भानु, मधु, वस्तु, विष्णु, शत्र , शिशु, साधु; चमू, भृ, 
वधू, स्वयम्भू आदि 2. संस्कृत-प्रथमा एकक्‍चन, यथा-- आत्मा, करी, कर्ता, चर्म, 
जामाता, तपस्वी, दाता, दुहिता, धनवान्‌ , नाग, नेता, पिता, पृथ्वी, ब्रह मा, श्राता, 
भगवान्‌, महिमा, माता, युवा, वणिक्‌, विद्वान्‌ू, राजा, सखा, सम्राट, सीमा, स्वामी, 
हस्ती आदि । सर्वताम--तव, मम । विशेषण (प्रातिपदिक), यथा--चिरन्तन, तीक्र, 
नव, नवीन, नूतन, पुरातन, श्वेत, सुन्दर आदि क्रिया--स्वीकार अव्यय--धिक्‌, प्रात, 
पृथक, शर्तें, सहसा, सायं, नित्यम्‌ । 


बीसवीं शताब्दी में हिन्दी-उद्द संघर्ष में हिन्दी के अनेक तद्भव शब्दों को 


तत्सम शब्दों में स्थानापन्‍त करना आरम्भ कर दिया था। धार्मिक, युगधमं, कम- 


निष्ठ, कर्मचारी, कर्मठ, कमंवाद” जैसे शब्दों का प्रयोग होने से 'धरम, करम' जैसे 


शब्दों का प्रचलन बन्द हो चला है। इन का स्थान धर्म, कर्म! ने लिया है । केवल 

मुहावरेदार प्रयोगों में (यथा--उप्त के तो करम ही फूट गए, करमजली, कुछ धरम- 
करम भी किया कर) में ही तद्भव शब्दों का प्रयोग बच रहा है। हिन्दी की भाँति 
अन्य भारतीय भाषाओं में भी इसी प्रकार से तत्सम/संस्कारित शब्दों (3६॥8/078866 
४0708) का प्रचलन बढ़ा है । 


ध्वनि तथा अर्थ-तत्समता की. दृष्टि से हिन्दी में गहीत केवल संस्कृत भाषा 


_ के ही नहीं वरन्‌ अन्य भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं से गृहीत शब्दों पर 
विचार करना आवश्यक है। वास्तव में यह चिन्तन एवं वर्गीकरण विशेष शोध की... 


.. आवश्यकता रखता है। 


3 तत्समेतर शब्द--वे परकीय शब्द हैं जो किसी भाषा में तत्सम कोटिसे 
.. इतर कोटि के होते हैं। (दे० तत्समाभास, अरध॑ तत्सम और तद्भव शब्दों के विविध... 
उदाहरण) ता दि लिज कल अल 8 





कप अल: ६: पत्कप; हल पल लत्ज सके पटल 





शब्द-व्यूत्पत्ति | 729 


तत्सभाभास शब्द--वे प्रकीय शब्द हैं जो किसी भाषा में तत्सम' होने का 
आभास देते हैं व्याकरण ग्रन्थों में जिन अनेक संस्कृत शब्दों को तथाकथित तत्राम 
कहा जाता रहा है, उन में से कई शब्द ध्वनि एवं अर्थ-व्यवस्था में संस्कृत के समान 
नहीं रह गए हैं । कुछ शब्दों की तत्समता पर ध्वनि-व्यवस्था और अर्थ-व्यवस्था की 
दष्टि से प्रश्न चिह् न लगाया जाने लगा है, यथा-- 


राम, कृष्ण, हनुमान, ऋण, संज्ञा, भाषा, चञ्चल, कृषक, ऋषि, शाप' 
आदि अनेक शब्द हिन्दी में संसक्रत भाषा के समान उच्चरित नहीं हो सकते क्योंकि 
हिन्दी की ध्वनि-व्यवस्था संस्कृत की ध्वनि-व्यवस्था से बहुत-कुछ भिन्‍न है । हिन्दी 
8वनि-व्यवस्था के अनुसार इन शब्दों को लगभग इस प्रकार उच्चरित किया जाता 
है--[राँम्‌, क्रिश्न/क्रिश्डं, हँनुमाँगू, रिन्‌/रिड, सडग्या/सडझज्याँ, भाशा/भासा, 
चन्चल, क्रिशक्‌/क्रशक/क्रिसक्‌, रिशि, शाप्‌ |। ध्वनि-व्यवस्था की दृष्टि से ऐसे अनेक 
णशब्द तत्सम नहीं कहे जा सकते । इन्हें तत्समेतर शब्द कोटि में रखना ही अधिक 
तकंसंगत है । अथं-व्यवस्था की दृष्टि से भी अनेक शब्द तत्सम नहीं कहे जा सकते 
क्योंकि हिन्दी में उनं के अथे पूर्णतः: संस्कृत के समान नहीं रह गए हैं, यथा-- कठि 
(सं. अर्थ कूल्हा, नितम्ब; हि. अर्थ कमर), जंघा, (सं. घुटने और टखने का मध्य 
भाग; हि. जाँघ), परिवार (सं. घेरनेवाला, नौकर-चाकर, अनुयायी, म्याव; हि. 
कूटुम्ब), पतंग (सं. सूर्य, पक्षी, शलभ; हि. गुड्डी [06 भी), ब्नूदि (सं. दूट, टूटना; 
हि. भूल, दोष), शीर्षक (सं. सिर; हि. 9०४0/78), पदढवी (सं. रास्ता, पथ; हि. 
उपाधि), निर्भर (सं. बहुत अधिक, पूर्ण, भरा; हि. आश्वित, अवलम्बित, मुनहसिर 
भी), प्रान्त (सं. सीमा, अन्त, किनारा, कोना; हि. सूबा/प्रदेश भी), सूची (सं. सूई, 
हि. तालिका भी) । अथे व्यवस्था की दृष्टि से ऐसे अनेक शब्द तत्समेतर कहे जा 
सकते हैं, तत्सम नहीं । तत्समेतर कोटि के ये शब्द तत्समाभ्मास वर्ग के हैं--अप्सरा, 
. राम, कृष्ण, हनुमान, ऋण, संज्ञा, भाषा, चंचल, कृषक, ऋषि, लक्ष्मी, मनुष्य, शाप, 
वृक्ष, कटि, जंघा, विष्णु, परिवार, पृथक्‌, पृथ्वी, पतंग, त्.टि, पुष्प, शीषंक, पदवी, 
निर्भर, प्रान्त, सूची, बौषधि, संग्रहीत, अनुग्रहीत, क्षत्राणी, अधीन|आधीन, भंडार 
अन्तर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय, उपयु क्‍्त/उपरोकक्‍त, प्रण, दुढ़, प्रोढ़, होड़ा, नित्य, मनोकामना । 
संस्कृत से आगत ऐसे शब्दों को कछ लोग तद्भव|परवर्ती तद्भव कहते हैं । 


अर्धे तत्सम शब्द- वे परकीय स्वदेशी शब्द हैं जो किसी भाषा में तत्समाभास 
और तद्भव की मध्यवर्ती स्थिति के होते हैं, यथा--परीच्छा, भंवरा, रतन, बरस, 
भगत, किशुत/किशन, करम, चन्दर, चक्कर, छीर, चूरन, जीरन, पत्तर, पच्छी, 
अच्छर, कारज, महेन्दर, किरपा, अगिन, बच्छ, आश्चर्ज आदि । तद्भवीकरण की 
प्रक्रिया परवर्ती काल में आरम्भ होने - के कारण कुछ लोग ऐसे शब्दों को परवर्ती 





30 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 
द तदभव कहना उचित मानते हैं। किन शब्दों के तद्भवीकरण की प्रक्रिया पूव॑वर्ती है 


और किन की परवर्ती, इस का निर्णय करना पर्याप्त कठिन कार्य है । 


तबृभव शब्द--तदुभव' का शाब्दिक अर्थ है--उस से (ततू) उत्पत्न/उद्भूत| 
विकसित (भव) । तद्भव' वे परकीय तत्समेतर शब्द हैं जो किसी भाषा में ध्वनि 


और अर्थ-व्यवस्था में तदरूप में ग्रहण न किए जा कर परिवर्तित/|विक्ृत रूप में प्रहण _ 


किए गए हैं । व्याकरण की पुस्तकों में केवल संस्कृत भाषा के घिस-पिटकर परिवर्तित 
रूप में सीधे प्राकृत से या प्राकृत के माध्यम से आगत शब्दों को ही तद्भव शब्द कहा 
गया है। तदभव को '>” चिह न से व्यक्त करते हैं, यथा---दुग्ध >> दूध (दुग्ध शब्द 
से व्युत्न्‍नन शब्द दूध है। दृध< दुग्ध (दूध शब्द दुग्ध शब्द से व्युत्पन्त हुआ है) 

हेमचन्द्र ने तद्भव शब्दों को संस्कृत योनि शब्द कहा है। इन्हें अपभ्रष्ट/अपप्रंश 
शब्द भी कहा जाता है। हिन्दी में प्रचलित कुछ तद्भव शब्द ये हैं-- (संस्कृत भाषा 
के शब्दों से व्युत्पन्न तद्भव शब्द) अँगूठा< भंगुष्ठ, अधेरा< अंधकार, भंधा< अंध, 


बाँख <_ अक्षि, आग < अग्नि, अटोरी<अद्टालिका, आज<अद्य, आधा<बर्धन- 


अद्धं, आठ <भअष्ट, आम<आम्र, आँसू<अश्न, आसरा<:आश्रय, अचरज< 


आश्चर्य, उंगली < भंगुलि, उजला<: उज्ज्वल, उठान|उठाना< उत्थान, इकट्ठा< 


एकत्र, ईट< इष्टिका; ओठ>-भंठ < होठ < ओष्ठ; ओष्ठ, कवल < कमल, कछआ 
< कच्छप, करो < करु, काँटा< कंटक, कंगन < कंकण, कपूर< कप र, कान < कर्ण, 


काम < कमे, काठ <काष्ठ, कृम्हार<कुम्भभार, काज< कार्य, किवाड़< कपाट, 


कपूत < कृपुत्र, कुआऑ/कृआँ< कप, कोठा<कोष्ठ, कोढ़< कृष्ठ, कोयल< कोकिल, 


चाँद< चन्द्र, चाक<चक्र, चिड़िया<चटका, खीर<क्षीर, खेत<क्षत्र, गधा... 


“<<गर्दभ, गाँठ< ग्रन्थि, गाँव< ग्राम, गाहक< ग्राहक, घर< गृह, घाम<घमर्म, घी 
<घृत, चमार< चमंकार, चाम < चमं, चना< चूर्ण, छेद < छिद्र, जाँघ< जंघा 
जीभ< जिह वा, जेठ < ज्येष्ठ, जोगी < योगी, जोबन < यौवन, झीना< जी, ताँबा 
<ताम्र, ताव< ताप, तीन< त्रीणि, तुरंत< त्वरित, थन< स्तन, थान < स्थान 
डडा < दण्ड, दाँत< दन्त, दसवाँ< दशभ, दही < दधि, दूध < दुग्ध, दुबला < दुबंल, 
दो < दवी, धीरज< धैर्य, धुर्मा/धूआँ<धूम्र, तंगा< नग्न, नित< नित्य, नींद< 
निद्रा, नेह < स्नेह, पक्का < पक्‍व, पत्ता< पत्न, पीठ< पृष्ठ, परख< परीक्षा, प्यास 


. <पिपासा, फूल < पुष्प, (बास< वंश, बाँह<बाहु, बहु< वधू, बाघ<व्याप्र, 
बिगाड़ < विकार, बूढ़ा< वृद्ध, . भँवर/भौंरा<_ भ्रमर, भीख< भिक्षा, भाई< पघ्रातू, 
. भूसा|भूसी< भूषिका, भैंस<महिषी, माथा< मस्तक, मिट्टी< मृत्तिका, मुह< 
मुख, मोती < मौक्तिक, मोर <मयूर, रात< रात्रि, लाख<लक्ष, लुहार->लोहार 
_ <लौहकार, सच-< सत्य, साग< शाक, सिंगार< पश्यूगार, सूत< सूत्र, हाथ<हस्त, 


है हाथी < हस्ती 








ने लललउनात ता लनन।7य + 7 कह अलरयल 5 मर 


70/47/2572: एक 


अरबी-फा रसी' भाषाओं के शब्दों से व्युत्पन्त तद्भव शब्द--- 


तदभव शब्द 
अहला 
आका 
आफत 
इशारा 
कत्ल 
कद 
कवर,किब्र 
कागज 
कानून 
कैंची 
कदी 
खाक 
खन 
खराब 
खत 
खजाना 
खतम|खत्म 
खारिज 
ग्म 
गरीब 
गलीचा . 


मूल शब्द 
अल्लाह 
आका 
आफत 


इशारह 


क्त्ल 
क्‌द 
कब्र 
कागज 
कानून 
कची 
क दी 
खाक 
खन 
खराब 
खत 
खजानह 
खत्म 
खारिज 
ग्‌म 
ग्रीब 
गलीचह 


शब्द-व्युत्पत्ति | 3] 


तद्भव शब्द 
चुगलखोर 
जमींदार 
जहाज 
जिला 
जमीन 
तकदी र/|तगदी र 
तमभा 
दरोगा 
नजर 

नकद 

फन 

फकीर 
बाजार/|बजार 
बेगम' 
बफं/बरफ 
बगीचा 
मजहब 
मजबूर 
राज 

सजा 


मूल शब्द 
चुगूलखोर 
 जूमींदार 
जहाजु 
जिला 
जमीन 
तकदीर 
तमगा 
दारोगह 
नज्र॒ 
नकद 
० 
फ्कीर 
बाजार 
बेगस 
बफ 
बागीचह 
मजुह॒ब 
मजबूर 
राजू 


तो 


सजा 


अंगरेजी और अन्य विदेशी भाषाओं के शब्दों से व्युत्पन्त तद्भव शब्द--- 


तद्भव शब्द... 
अफस र|आफीसर 
आफिस 

आडर 
 कालेज|कालिज 
कोरट|कोट 
के 
 ग्रामोफोन 
चाकलेट 


मूल शब्द 
ऑफिसर 


. ऑफिस 


ऑडर 
कॉलिज 


कोर्ट. 

0 के पं. 
.. ग्रामोफोन 

चॉकलेट 


तद्भव शब्द 
जाकिट/जाकेट 
जार 

टेलीफोन 
टेलीग्राफ 
डाक्टर 


न फुटबाल 
फीस 
द स्पृतनिक 


मूल शब्द 


जॉकिट 

जार 
टेलिफोन 
टेलिग्राफ्‌ 


प्डॉक्टर - 

द फ्‌ टबॉल ० 
पा 
स्फुृतनिक 





30 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


तदभव कहना उचित मानते हैं। किन शब्दों के तद्भवीकरण की अ्रक्रिया पूर्॑वर्ती है 
और किन की परवर्ती, इस का निर्णय करना पर्याप्त कठिन कार्य है । 


क्‍ तवृभ्व शब्द-- तद्भव” का शाब्दिक अ्थ है--उस से (तत्‌) उत्पन्न|उद्भूत| 

विकसित (भव) । तद्भव' वे परकीय तत्समेतर शब्द हैं जो किसी भाषा में ध्वनि 
और अर्थ-व्यवस्था में तद्रूप में ग्रहूण न किए जा कर परिवर्तित/विक्वृत रूप में ग्रहण 
किए गए हैं । व्याकरण की पुस्तकों में केवल संस्कृत भाषा के घिस-पिट कर परिवर्तित 
रूप में सीधे प्राकृत से या प्राकृत के माध्यम से आगत शब्दों को ही तद्भव शब्द कहा 
गया है। तद्भव को >>” चिह न से व्यक्त करते हैं, यथा--दुग्ध>दृध (दुग्ध शब्द 
से व्युत्पन्न शब्द दूध है। दूध < दुग्ध (दूध शब्द दुग्ध शब्द से व्युत्पन्त हुआ है) । 
हेमचन्द्र ने तद्भव शब्दों को संस्कृत योनि शब्द कहा है। इन्हें अपभ्रष्ट|अपभ्रंश 
शब्द भी कहा जाता है। हिन्दी में प्रचलित कुछ तद्भव शब्द ये हैं-- (संस्क्ृत भाषा 
के शब्दों से व्युत्पन्न तदभव शब्द) अँगूठा < भंग्रुष्ठ, अंघेरा< अंधकार, भअंधा< अंध, 
आँख <_ अक्षि, आग < अग्नि, अटोरी<अट्टालिका, आज<अद॒य, आधा< अधे-- 
अद्धं, आठ <अष्ट, आम<आम्र, आँसयू<अश्च, आसरा<:आश्रय, अचरज< 
आशएचयें, उंगली< भंगुलि, उजला<: उज्ज्वल, उठान/उठाना< उत्थान, इकट्ठा< 
एकत्र, ईट< इृष्टिका; ओठ“-ओंठ < होठ < ओष्ठ; ओष्ठ, कँवल < कमल, कछआ 


«<-कच्छप, करो < करु, काँटा < कंटक, कंगत < कंकण, कपूर<कपू र, कान< कर्ण, 
काम < कर्म, काठ5<काष्ठ, कृम्हार<:कुम्भभार, काज<कार्य, किवाड़ < कपाट, 


केपूत < कृपुत्र, कुआऑ/कूआँ< कप, कोठा<कोष्ठ, कोढ़< कृष्ठ, कोयल<कोकिल, 
चाँद< चर्॑र, चाक<चक्र, चिड़िया<चटका, खीर< क्षीर, खेत< क्षत्र, गधा 
<<गर्दभ, गाँठ < प्रन्थि, गाँव< ग्राम, गाहक< ग्राहक, घर<गह, घाम< घर, घी' 
<घृत, चमार< चर्मकार, चाम < चमं, चूना< चूर्ण, छेद< छिद्र, जाँघच<:जंघा, 
जीभ< जिह वा, जेठ< ज्येष्ठ, जोगी < योगी, जोबन < यौवन, झीना< जीणं॑, ताँबा 
< ताम्र, ताव< ताप, तीन< त्रीणि, तुरंत< त्वरित, थन< स्तन, थान < स्थान, 


डडा < दण्ड, दात< दत्त, दसवाँ < दशम, दही < दधि, दूध < दुग्ध, दुबला < दुबंल, 


दो <दूवी, धीरज< धैर्य, धुआ(धूआँ< धूम्र, नंगा< नग्न, नित< नित्य, नींद< 


निद्रा, नेह < स्नेह, पक्‍का< पकव, पत्ता< पत्र, पीठ< पृष्ठ, परख< परीक्षा, प्यास 
 <पिपासा, फूल < पुष्प, (बाँस< वंश, बाँह<बाहु, बहु< वधू, बाघ<व्याप्र, 
_बिगाड़< विकार, बूढ़ा<वृद्ध, भंँवर/भौंरा< भ्रमर, भीख< भिक्षा, भाई< प्रात, 
भूसा/भूसी < भूषिका, भैंस <महिषी, माथा<मस्तक, मिट्टी<मृत्तिका, मुह< 
मुख, मोती < मौक्तिक, मोर <मयूर, रात< रात्रि, लाख<लक्ष, लुहार>-लोहार 
. <लौहकार, सच< सत्य, साग< शाक, सिंगार<झश्ूगार, सृत<सूत्र, हाथ<हस्त, 
हाथी < हस्ती ला 








>एम्न्यालडकसनक-ततसव हू कथइन ा .। विकाट इक | ।23 


अरबी-फारसी भाषाओं के शब्दों से व्युत्पन्त तद्भव शब्द-- 


तदभव शब्द 
अल्ला 
आका 
आफत 
इशारा 
कत्ल 
कद 
कवर/किन्र 
कागज 
कानून 
कैंची 
कैदी 
खाक 
खन 
खराब 
खत 
खजाना 
खतम|खित्म 
खारिज 
गम 
गरीब 
गलीचा 


मूल शब्द 
अल्लाह 
आका 
आफत 


इशारह 


कत्ल 


खाक 
खन 
खराब 
खत 


,खजानह 


. खत्म 
खारिज 
गम 
ग्रीब 
गलीचह 


शब्द-च्युत्पत्ति | 43/ 


तद्भव शब्द 
चुगलखोर 
जमींदार 
जहाज 
जिला 
जमीन 


तकदी र|तगदीर 


तमगा 
दरोगा 
नजर 
नकद 
फन 
फकीर 
बाजार/|बजार 
बेगम 
बर्फ/बरफ 
बगीचा 
मजहब 
मजबूर 
राज 
सजा 


मूल शब्द 
चुगूलखोर 
जमींदार 
जहाज्‌ 
जिला 
जमीन 
तकदीर 
तमगा 
दारोगह 
नज्र 
नकद 
फ्न 
फकीर 
बाजार 
बेगम 
बफ 
बागीचह 
मजहनब 
मजबुर 
राजू 
सजा 


अंगरेजी और अन्य विदेशी भाषाओं के शब्दों से व्युत्पन्न तद्भव शब्द--- 


तद्भव शब्द 


अफसर |आफीसर 


आफिस 

आइड'र 

. कालेज|कालिज _ 
कोरट[कोट 
 कपयू.. 

ग्रामोफोन 

चाकलेट 


.. मूल शब्द 
ऑफिसर 
ऑफिस 
 ऑडर 
 कॉलिज 


कोर्ट 
क्‌फ्यू 


ग्रामोफोन 
चॉकलेट 


तद्भव शब्द 


द जाकिट|जाकेट 


जार 
टेलीफोन 
ठेलीग्राफ 
डाक्टर 


. फूटबाल 


फीस 
स्पृतनिक 


मूल शब्द 
जॉकिट 
जार. 
टेलिफोन 
टेलिग्राफ्‌ 
डॉक्टर... 
फ्‌ टबॉल 
फी 


स्फुत निक 





॥] 


शब्द-अर्थ 


विभिन्‍न भाषिक इकाइयों (शब्द, रूप, वाक्य, वाक्यांश, मुहावरा आदि) से. 
होनेवाली मानसिक प्रतीति को अर्थ कहा जाता है। विभिन्‍न भाषिक इकाइयों में 


व्यक्ति जो कुछ बोलता (अथवा लिखता) है, उस से किसी-न-किसी अथे की प्रतीति 
होती है। भाषिक इकाइयाँ किसी-न-किसी अर्थ का बोध कराती. हैं । मावसिक 


प्रतीति (अमूर्ते अर्थ) को सूर्ते रूप विभिन्‍न भाषिक इकाइयों से ही प्राप्त हो 


पाता है । 


अथे की प्रतीति स्वानुभव (स्वयं अनुभव करने) से और परानुभव (अन्य 
लोगों के अनुभव) से होती है । परम्परा से प्रत्येक भाषा भाषी समाज विभिन्‍न शब्दों 


को विभिन्‍न अर्थों के प्रतीक संकेत स्वीकार करता चला आ रहा है। किसी वस्तु, 


भाव या क्रिया आदि के साथ शब्द का सम्बन्ध-स्थापन संकेत-ग्रह कहलाता है।. 
संकेत-ग्रह के कारण ही. किसी शब्द विशेष के विशेष अर्थ का बोध होता है । शब्द 


और अर्थ में देह तथा आत्मा का-सा सम्बन्ध माना जाता है। शब्दकोशों में शब्दों 
के अर्थ दिए गए होते हैं किन्तु विभिन्‍न अथों में प्रयोग के लिए शब्दों के रूपों में 
परिवतंन करने की आवश्यकता पड़ती है । इस आवश्यकता की पूति व्याकरण से ही 


हो पाती है; अतः शब्दों के सम्यक्‌ और उपयुक्त अथे की अभिव्यक्ति के लिए _ 


शब्दकोश और व्याकरण दोनों ही सहायता प्रदान करते हैं । 


सानसिक प्रतीति या अर्थ बोध के आधार पर शब्दों को दो प्रकार का माना 
. जाता रहा है--. सार्थक शब्द 2. निरर्थक शब्द | सार्थक शब्द वे शब्द हैं जिन की' 
वक्‍ता/लिखक और श्रोता/वाचक के मस्तिष्क में कोई-न-कोई मानसिक प्रतीति बनती 


है या जिन से किसी-न-किसी अथ का बोध होता है। प्रत्येक भाषा में सभी शब्द 


 किसी-न-किसी रूप में अथं-बोध कराने के कारण साथेक होते हैं, यथा---घर, हम, 


काला, दौड़ना, यहाँ, धीरे-धीरे, चीं-चीं, खटखटाना, ताबड़तोड़, पानी-वानी, रोटी- 


हा वोटी, आमने-सामने, अल्ल-बल्ल आदि। तिरथंक शब्द वे शब्द हैं जिन की कोई' हु ० 
... मानसिक प्रतीति नहीं बनती या जिन से किसी अथे का बोध नहीं होता । कोई भाषा. 


32 





ान्‍/ममममतगामकीपवंबाजंपा कान ताककारैसापरत रतन०रापभथन55 5... 7००: "रास 





शब्द-अर्थ | 33 


निरर्थक शब्दों का व्यवहार नहीं करती। हिन्दी भाषी समाज के लिए 'चिबाई, 
ठुरो, महा ठाउले; मज्व्वलू, मेशा, पोगुन्नु; हाकु, साकु, बेकु' जैसे शब्द निरथेक हैं, 
किन्तु इन में से पहले तीन शब्द मिजोउ' भाषा के होने के कारण मिजोउ समाज के 
लिए साथ क हैं; दूसरे तीन शब्द मलयाठठम्‌ भाषा के होने के कारण मलयाब्ठी समाज 
के लिए साथेक हैं; और अन्तिम तीन शब्द कनन्‍नड भाषा के होने के कारण कन्नड 
समाज के लिए साथ कक हैं । 

शब्दों में समाज द्वारा प्रक्षिप्त अर्थ-शक्ति (अभिधा, लक्षणा, व्यंजन) के 
आधार पर साहित्य शास्त्र में शब्द-प्रयोग को आधार बनाते हुए शब्दों को तीन वर्गों 
में विभक्‍त किया गया है--. वाचक/अभिधाथक 2. लाक्षणिक/लक्ष्या्थंक 3. व्यंजक/ 
व्यंग्याथंक । वाचक/अभिधाथंक वे शब्द हैं जिन से मुख्य या सामान्य अर्थ का बोध 
होता है, यथा--बैल किसानों के लिए बहुत उपयोगी पशु है। यहाँ बैल, पशु शब्दों 
से उन के मुख्य/सामानन्‍्य अर्थ का बोध हो रहा है। इस वाक्य में “बैल, पशु' शब्द को 
वाचक/अभिधार्थक्. और उन से प्रतीत मुख्य/सामान्य अथे को वाच्य/वाच्याथे| 
अभिधाथं/मुख्यार्थ कहा जाता है। भाषा में सामान्यतः बाचक शब्दों का प्रयोग 
अधिकतम होता है। लाक्षणिक(लक्ष्यार्थंक वे शब्द हैं जिन से किसी रूढ़ि या प्रयोजन 
के कारण मुख्याथ से सम्बद्ध किसी' अन्य अथे का बोध होता है, यथा--यार, तुम 
तो पूरे बैल हो । इस वाक्य में 'बैल' शब्द से उस के मुख्य/सामान्‍्य अथ का बोध 
नहीं हो रहा है, वरत्‌ बैल के सदृश' (अर्थात्‌ जड़/|घृखें) होने का भाव-बोध हो रहा 
है | यहां बैल” शब्द को लाक्षणिक/लक्ष्या्थंक/लक्ष्यक तथा उस से प्रतीत विशेष अर्थ 
को लक्ष्याथे/लक्ष्य[लिक्षणाथे कहा जाता है। व्यंजक/व्यंग्यार्थक वे शब्द हैं जिन का 
मुख्याथें और लक्ष्या्थ से भिन्‍त कोई गढ़ या सांकेतिक अर्थ होता है, यथा--आचार्य 
ने छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा “रे, सूर्यास्त भी हो गया ! इस वाक्य को 
सुनते ही छात्र समझ गए कि आचार्य जी सन्ध्योपासना के लिए जाना चाहते हैं । 
यहाँ सूर्यास्त शब्द को व्यंजक/व्यिंग्याथेंक और उस से प्रतीत गृढ़/सॉंकेतिक अथे को 
व्यंग्याथे|गृढ़ार्थ/संकेताथे/व्यंजनाथें कहा जाता है। वास्तव में वाक्य-प्रयोग से ही शब्द 
के तीनों प्रकार के अथ्थे स्पष्ट होते हैं । 


व्यंग्य (98709577) में वक्‍ता अव्यक्त/प्रच्छन्‍न रूप से अपना आशय प्रकट 
करता है। कथित बात का प्रसंग से भिम्न अर्थ व्यंजित होने के कारण इसे व्यंग्य 
कहा जाता है । व्यंग्य से वक्‍ता सोचा हुआ गूढ़ किन्तु कथ्य का विपरीत अर्थ व्यक्त 
करता है-। इस प्रकार व्यंग्योक्ति का अभिधाथे भिन्‍न होता है और निहिताथे भिन्‍न । 
तीखे व्यंग्य में वक्‍ता श्रोता का दिल दुखाने के लिए निहितार्थ को प्रकट करता है; . 
. सूक्ष्म व्यंग्य में वक्‍ता केवल अपने मन्तव्य को व्यक्त करता है, दिल दुखाने का भाव _ 
उस में नहीं होता । व्यंग्य शब्दों की कोई अलग सूची नहीं है | सामान्य उक्तियों में - 
प्रसंग के अनुकूल ही व्यंग्या्थे व्यक्त होता है। अत्युक्ति के कारण भी व्यंग्यार्थ प्रकट _ 





34 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


होता है, यथा--बाजार से कल तक लौट आओगे न ? रख दे मेरे सिर पर। प्रसंग 
से विपरीत कथन में व्यंग्याथ हो सकता है, यथा--और आइसक्रीम खा ले, गला 
बिलकुल ठीक हो जाएगा । ः द 


हिन्दी भाषा में अभिव्यक्तित के स्‍तर पर आठ प्रकार के अर्थ अभिव्यकत हो 
सकते हैं---!. मुख्याथे 2. लक्ष्या्थ 3. व्यंग्याथ 4. समाजाथ 5. व्याकरणार्थे 
6. बलाथ 7. शलीयार्थ 8. अनुतानार्थ । . सुख्याथं--हिन्दी भाषा-व्यवहार में 
मुख्याथ का सब से अधिक प्रयोग होता है । विविध खंज्ञा (यथा--घर, गाय, बच्चा 
मन, कालिमा), स्वंनाम (यथा--मैं, आप, तू, मेरा, तेरा), विशेषण (यथा-«लाल 
बड़ा, एक, कु), क्रिया (यथा--आतना, बैठना, उड़ता, सोना), अव्यय (यथा--आज, 
तभी, यहाँ, उधर, धीरे) शब्दों का भुख्याथ में प्रयोग होता है। व्यवहार में मुख्याथ 
दो प्रकार के मानसिक बिस्बों का निर्माण करता है---(0) स्थुल बिम्ब (यथा--घर, 
गाय, बच्चा), (7) सुक्ष्म बिम्ब (यथा--कालिमा, दया, सहानुभूति, तभी, धीरे) । 
2. लक्ष्याथं--समाज की संस्कृति, परम्परा, सादुश्य, आलंकारिक प्रयोग, सामान्य 
प्रयोग-विचलन आदि के कारण मुख्यार्थ ही लक्ष्यार्थ का बोधक हो जाता है, यथा--- 
ठेढ़ी टाग--ठेढ़ी लड़की; लोटे में पानी--आभाँखों में पानी; खेत में बैल--बैल आदमी; 
कड़वी दवा-- कड़बी बात । इत उदाहरणों में पहला शब्द मुख्यार्थ का सूचक है और 
दूसरा शब्द लक्ष्यार्थे का। हिन्दी' में लक्ष्याथें का प्रयोग' भी काफी होता है, यथा+-- 
गाय (>-सीधा), बैल (“मूर्ख पानी (>चमक, इज्जत), गंगा (>>पवित्र), 


तुलसी (+पवित्र), कली (“निरीह), कॉटा (-कर), गधा (मूर्ख), हीरा... 


.(++ बहुत बढ़िया), तूतू-मैंमँ (-- कहा-सुनी), मेरा-तेरा (55 अपना-पराया), दबाना 
( >+हँराना), इधर-उधर (>> गड़बड़), आजकल (“>टाल-मटोल) | हिन्दी में प्रयुक्त 
कई हजार मुहावरे केवल लक्ष्याथ के ही बोधक हैं, उन का मुख्याथथ नहीं होता । 
3. व्यंजनाथें--वकक्‍्ता के कथन की गृढ़ता तथा सांकेतिकता सन्दर्भ के आधार पर 
मुख्याथें और लक्ष्याथं से भिन्‍न व्यंजनाथ से उद्भूत होती है, यथा--हौं सुकुमार 
नाथ बन जोगू (- मैं सुकुमारी नहीं हूँ); आप बड़े हरिश्चन्द्र हैं! (-- महा झूठे); 
आइए, पहलवान जी ! (>-दुबला-पतला); अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, 
 आँचल में है दूध, और आँखों में पानी !---मैंथिलीशरण गुप्ता (>अतिशय 
वात्सल्य) । आँचल का वाच्यार्थ 'साड़ी का अंचल; लक्ष्यार्थ पयोधर[स्तन' है । 
. इसी प्रकार “विद्युत की इस चकाचौंध में देख दीप की लौ रोती है; अरी, हृदय को 

थाम भहल के लिए ज्ञोंपड़ी बलि होती है ।--निराला” (>-अतिशय विलासिता में 
डूबे लोग) | महल का वाच्याथे भवन, लक्ष्या्थ महल के निवासी” है । व्यंजनाथे। 
व्यंग्या्थ शब्दगत और काकुगत (सुर का आरोह-अवरोह) होता है। कभी-कभी 
-बोलचाल में श्लेष से भी व्यंग्य की अभिव्यक्ति होती है। 4. समराजार्थ--सामाजिक 
. व्यवस्था को जटिलता और शिथिलता के अनुरूप शब्दों के प्रयोगगत रूप में भिन्‍नता 





शब्द-अर्थ | 35 


के आधार पर समाजारथे|सामाजिक अथ की अभिव्यक्ति होती है, यंथा--(५०४) 
ग्रंड। 75 ए० ८ (तूतुम/आप) इस काम को खत्म करें/करो/कीजिए। 708 
मरना सामान्य अर्थ; समाजार्थं---ब्रह मलीन होना, स्वर्गंवासी होना, दिवंगत होना, 
ख्‌ दा को प्यारा होना, कुत्ते की मौत मरना । राम/श्रीराम अयोध्या के राजा थे--- 
रावण लंका का राजा था। का ॥85 ०076--पिता जी आए/आ गए हैं । सेठ 
जी के सब से बड़े बेटे अमेरिका गए हैं। बिराजना--बैठना, पधारना--आना, 
भोजन पाइए/भोजन कीजिए/जीमिए---खाना खाओ। हिन्दी भाषा में सामान्य और 
सामाजिक अर्थ की दृष्टि से इस प्रकार की अनेक अभिव्यक्षितयाँ प्रचलित हैं । 
5. व्याकरणार्थ--भाषा के अनेक प्रकायंपरक शब्दों, रूपों का कोई सामान्‍य अथे 
नहीं हुआ करता, प्रयोग के अनुरूप ही उन का व्याकरणिक अथे स्पष्ट हो पाता है 
यथा--मैं ने ऐसा सोचा भी न था ("कर्ता कारक), मालाएँ [ बहुवचन ) 
शेरनी (-ती > स्त्रीलिग) 6. बलार्थं--भाषा-व्यवहार में वक्‍ता जिस घटक पर बल 
देता चाहता है, उस के लिए कोई भी' प्रक्रिया अपना सकता है, यथा--ही' प्रयोग 
(तुम्हीं को यह काम करना है--तुम को यह काम ही करना है); पदक्रम-परिवतंन 
(तुम कहाँ जा रहें हो ?--कहाँ जा रहे हो तुम ?); वाच्य (बृढ़ा चने नहीं चबा 
सकता--बूढ़े से चने नहीं चबाए जाते); बलाघात (अभी तुम वहाँ मत जाओ ।--- 
इस वाक्य को वक्‍ता इच्छानुसार किसी पद पर बलाघात देते हुए बोल सकता है) 
7. शेलीयार्थ--हिन्दी की सामान्यतः तीन शैलियाँ प्रचलित हैं--प्रस्क्ृतनिष्ठ हिन्दी 
सामान्य हिन्दी, हिन्दुस्तानी/उद बहुल हिन्दी । एक ही बात को भिन्‍्न-भिनन्‍्त ढंग से 
प्रस्तुत कर शैलीगत अर्थ-भेद व्यक्त किया जा सकता है, यथा--आप का शुभ स्थान : 
कहाँ है ?--आप का घर कहाँ है 7आप का दौलत खाना कहाँ है ? बिराजना- 
बैेठना---तशरीफ्‌ रखना; शुभ नाम---नाम--इश्म शरीफू; पिता जी - बाप---वालिद/ 
पापा; माता जी-- माँ--वालिदा/मम्मी । हिन्दी भाषा शेलीय अथं-भेद की दृष्टि से 
अन्य कई भाषाओं की अपेक्षा अधिक सम्पन्न है। शैलीय अर्थ-भेद ध्वनि, शब्द और 
वाक्य रचना-भेद में देखा जा सकता है, यथा--काली-काछी (हरियानवी), लौकी- 
घिया-कद््‌ दू, पत्र डालना--चिट्ठी डालना--चिट्ठी छोड़ना--चिट्ठी गेरना--लैठर 
पोस्ट करना आदि । 38. अनुतानार्थ--वाक्य-कथन में शब्दों के आवरोह-अवरोह की 
भिन्‍तता के. आधार पर एक ही शब्द-वाक्य या पूर्ण वाक्य के अर्थ दयोतन में 
विविधता आ जाती है, यथा--पिता जी चले गए । (सामान्य सुचना), पिता जी चले 
गए ! (आश्चयं), पिता जी चले गए ? (प्रश्न) | दावत कैसी थी ? प्रश्न के उत्तर में 
कहा गया वाक्य अच्छी थी” विभिन्‍न अनुतानों में बोलने पर कई अर्थों का सूचक 
होगा-- ठीक थी; बढ़िया थी; न बहुत अच्छी थी न बहुत ख़राब थी; बहुत अच्छी 
थी” आदि । द 


अभिधेयार्थी शब्दों को उन की अर्थ-बोधक क्षमता के आधार पर कई वर्गों में 





]36 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


बाँठटा जा सकता है--. एकार्थी 2. अनेकार्थी/बह वर्थी 3. समानार्थी/पर्यायवाची 
4. विलोमार्थी/विपरीतार्थी 5. श्र्‌ तसम भिन्‍नार्थी ! 

, एकार्थों शब्द वे शब्द हैं जिन का सामान्यतः: एक ही वाच्याथे हुआ करता 
है, यथा--इन्दिरा गान्धी, मुहम्मद अली जिन्‍्ना, श्री कृष्ण (व्यक्ति नाम); भारत, 
पाकिस्तान, न्यूजीलैंड, रूस (देश ताम); दिल्ली, मास्को, मद्रास, पेरिस (नगर नाम); 
अतरीली, टू इला, डाकौर, जाजऊ (ग्राम, कस्बा नाम); गंगा, गोदावरी, अमेजन, 
मिसीसियी (नदी नाम); हिमालय, एल्प्स, फ्‌ जीयामा (पवंत नाम); जनवरी, 
सितम्बर, सावन, मार्गशीषं (सास वाम); सोमवार, बुधवार, शनिवार (दिन नाम); 
 प्रतिपदा, दोज, अमावस (तिथि नाम); निराला, गालिब, रत्नाकर (उपाधि नाम); 
वास्तुकला, संगीतकला, काव्य (कला नाम); भौतिकी, जीव विज्ञान, इतिहास, 
राजनीति शास्त्र (विषय नाम); हिन्दी, रूसी, संस्कृत, लैटिन (भाषा नाम); फ्लू, 
बुखार, यक्ष्मा, केन्सर (रोग नाम); अपराध, गवाही, अभियोग, न्यायाधीश, पेशी, 
वादी, प्रतिवादी, धमनी, इस्पात, दुर्धमापी, तापमापी, चिकित्सा (विधि, विज्ञान 
आदि के पारिभाषिक नाम); पुस्तक, पेन्सिल, लेखनी, मेज, घर, दीवार, फशं, 
खिड़की, पंखा, रेडियो, वीडियो, शीशी, साबुन, तेल, पानी, दूध (वस्त/पदार्थ नाम) 
क, दस, सो, हजार, लाल, सफेद, काला, हरा, प्यारा (विशेषण] आदि । लक्षणा 
और व्यंजता के आधार पर एकार्थी शब्दों से वाच्याथ के स्थान पर कभी-कभी 
लक्षणाथे, व्यंजनार्थ का काम भी लिया जा सकता है, यथा--कश्मीर को भारत 
का स्विट्जरलेंड माना जाता है। उस की आँखों का पानी सूख गया है | तू बड़ी 
सती सावित्नी है ! 

2. अनेकार्थी शब्द वे शब्द हैं जिन के सामान्यतः एक से अधिक वाच्याथे हो _ 
सकते हैं । लक्षणा, व्यंजना, सादृश्य आदि विविध कारणों से विकसित ये वाच्याथे 
एक से अधिक वाक्यों में ही स्पष्ट हो पाते हैं। शब्दकोशों में अनेकार्थी शब्दों के. 
अनेकार्थ लिखे रहते हैं, यथा--बर्ण >> रंग, 00७7/, जाति (गोरे वर्ण के बहुत-से लोग 
श्याम वर्ण के लोगों के प्रति हीनभावना रखते हैं। क ख गअ आ इ वर्ण हैं । 
बाह मण, क्षत्रिय आदि चार वर्ण माने जाते हैं।) यहाँ कुछ अनेकार्थी शब्द, उन के 
व्यावहारिक अथे-सन्दर्भ लिखे जा रहे हैं-- द हि 

.. अंकतूफिंगर; गोद; नाटक खंड; नम्बर (!, 2, 3 अंक; माँ के अंक में, 

टक के दूसरे अंक में; परीक्ष; के अंक) क्‍ है कण पर अक 

ह अकाल --दुर्भिक्ष; अनपेक्षित समय (987 का भारत में अकाल; अकाल. 
७ नह अंगर--भाग; अवयव; देह (वाक्य के अंग; वृक्ष के अंग; मोटे अंग की लड़की) 


अक्षर > वर्ण, अविनाशी; अपरिवर्ततशील; नाश रहित (सुन्दर अक्षरों में... 


.._. लिखना; परमात्मा का एक नाम अक्षर भी है; जगत्‌ में कुछ भी अक्षर नहीं है) 








शब्द-अर्थ | 37 


अक्ष--धुरी; आँख; पासों का खल (चक्र का अक्ष; कमलाक्ष; कौरव-पांडवों 
के मध्य की अक्ष क्रीड़ा) 
अज - अजन्मा; ब्रह मा; कामदेव; दशरथ-पिता (विश्व निर्माता ब्रह मा को 
अज भी कहते हैं; रति-पति अज; अज-पुत्र दशरथ) 
अक > सूर्य; मदार; अरक (अके ज्योति; अके रस पागल कर देता है; अदरक 
का अके) द 
अर्थ >न्धन: मतलब; निमित्त (देश को लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था; शब्दा्थ; 
परमार्थ ) 
अशोक >- वक्ष विशेष; सम्राट विशेष; शोक रहित (अशोक वाटिका; महाराजा 
अशोक; नाम अशोक जीवन सशोक) 
आम्त>- आम्रफल; सर्वेसामान्य; सर्वंविदित (मीठा आम; आम चुनाव; जाम 
बात) 
उत्तर"-दिंशा विशेष; जवाब; पीछे (उत्तर दिशा; प्रश्न का उत्तर; समास 
का उत्तर पद) क्‍ 
कर >+ टैक्स; किरण; हाथ; सूंड (आयकर; विरहिंणी के लिए असहू य चन्द्र 
के शीतल कर; करबद्ध प्रणाम; करभोरु) । 
कुल > सब; वंश; केवल (कुल बीस रुपये; तुम्हारा कुल; सौ रु० कुल) 
कोटि - वर्ग; करोड़; धतुष-सिरा (निम्नकोटि के लोग; तेतीस कोटि देवता; 
धनुषकोटि) द 
.. क्षण >- अत्यल्प समय; अवसर; मुहतं (एक क्षण रुको; किसी भी क्षण आ 
सकते हो; फेरों का क्षण) द . 39 
खर->>गधा; रावण-भ्राता; तीक्ष; तिनका (खरगोश; खरदूषण; खर विष 
का प्रभाव; खरपतवार) ः 
_ गति>- चाल; दशा; मोक्ष (तीव्रतम गति की रेलगाड़ी; दुर्गति; राम नाम 
सत्य है, सत्य बोलो गत्य< गति है) द द 
गुरु->आचाये; पूज्य पुरुष; दो मात्राओंवाला अक्षर; भारी (दिव गुरु 
बृहस्पति; गुरुजन के प्रति श्रद्धा; छन्‍्द का गुरु वर्ण; गुरु भार) क्‍ 
गोली >"गोलाकार पिंड; बठी; विस्फोटक टोपी (मिट्टी की गोली; दर्द 
की गोली; बन्दूक की गोली) द पु हु 
घन -- बादल; बड़ा हथौड़ा; अंक » अंक ८ अंक (घनगर्जन; लुहार का घन; 
5 का घन "5 25) हि 5 | 
. चब्द्--चाँद; मयूरपंख-चंदोवा; सोना (सूरें तथा चर्ध; कृष्णचन्द्र; 
चन्द्रप्रभावटी ) सी ही आम 
... चरं> दूत; जासूस; चलनेवाला (दरबार में चर-प्रवेश; गुप्तचर; अनुचर) 








[38 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


चीर--वस्त्र; चिथड़ा; पट्टी (चीर-आभूषण; विरहिणी का मलिन चीर: 
घाव पर बाँधने के लिए 2 इंच की चीर) 
छाया >-परछाँई; छाँह; क्षीण आभास; चित्र का हलका रंग ( कुर्सी की 
छाया; घने वृक्ष की छाया में; सभ्यता की छाया; चित्र में छाया एवं प्रकाश) 
छोड़ता >+पकड़ से अलग करना; छुटकारा देना; अपराध क्षमा करना; परि- 
त्याग करता, साथ न लेना; वेग से वस्तु फेंकना (5 तितली को छोड़ दो; पिल्‍ले को 
कहाँ छोड़ दिया; बेचारे को माफी माँगने पर छोड़ भी दो; पति को छोड़ दिया; उसे 
छोड़ो, हम चलें: बन्दुक से गोली छोड़ो) 
जड़-- अचेतन; मूख; ठिदुरा हुआ; मूल; नींव; कारण (जड़-चेतन सृष्टि; 
जड़ लोग; अत्यधिक ठंड से जड़ हुई उँगलियाँ; वृक्ष की जड़: बात की जड़; झगड़े 
को जड़) 
झाड़ -- पाधे की झाड़ी; रोशनी का भाड़; डॉट-ड्पट; मन्त्रोपचार (गुलाब का 
झाड़; सो ज्ञाडोंवाली बरात; नौकर को शाड़ लगाना; नीम की टहनी से झाड़ 
लगाना) ' 
टॉका- सिलाई; धातुएँ जोड़ने का माया; घाव की सिलाई (जूते/कु्ते के 
टकि; अँगूठी में टॉँके की मात्रा; ऑपरेशन के टॉके) द 
ठाकुर >ददेवमूति; जूमींदार; क्ष ल्रिय; स्वामी; चाइयों की' उपाधि; बंगाली 
ब्राह मणों की उपाधि (ठाकुर जी' की हजा; ठाकुर साहब के खेत: ठाकुर जाति का; 
ग्रीबों के ठाकुर; नाई की बरात में सभी टाऊुर, हुक्‍का कौन भरे; रवीन्द्रनाथ ठाकुर) 
डंडी-- पतली लकड़ी; मुठिया; डाँड़ी; वृक्ष-नाल (मरम्मत के लिए एक डंडी 
लाओ; अच्छी-सी डंडीवाली छड़ी; इंडीमार बनिया; आम की डंडी पर लगे बोर) 
ढीला ++ तनाव/कसाव-रहित; शिथिल; पतला; पुस्त (सितार के ढीले तार; 
ढीली पकड़; ढीला घोल; ढीला नौकर) द 
तार--धातु-तागा; टेलीग्राम; सूत; संगीत-सप्तक (सोने-चांदी का तार; ख्‌शी 
का तार; महीन तार का कपड़ा: तार सप्तक) 
. दंडर-डंडा; डंडे के आकार की उस्तु; विशिष्ट कसरत; सजा (ध्वज दंड: 
भूजदंड/पिरुदंड; दंड-बैठक; अ्थंदंड) द हा 
दल - भाग; पौधे के पत्ते; फूल की पंखड़ी; झू ड; मंडली; सेना (द्विदलवाले 
अन्न का आहार; तुलसीदल; पृष्पदल,; ट्ड्डीदल; संन्यासीदल; कौरवदल) 
.. इस्ता >- मूठ; पृष्पुच्छ; गारद; 24 कागज (छरी का दस्ता; गुलदस्ता; 
: पुलिस का एक दस्ता; एक दस्ता कागज) ही दी जे द 
.. दिल ऋ< रक्तसंचारक/हृदय; मन; साहस; इच्छा (दिल की धड़कन; दिल में... 
. सोचा; बड़े दिलवाला पहलवान; दिलसे काम करना)... बीज आज 
पैन +- सम्पत्ति; जीवन-सर्वस्व; --चिह न; मूल इ जी (धन-दौलत; गोधन, 





शब्द-अर्थ | 39 


गजधन बाजिधन और रतन धन धाम; मेरे जीवनधन; पाँच धन (--) छह बराबर 
(<>) ग्यारह; व्यापार में लगा धन) 

नाक >-नासिका; नासिका-मल; प्रतिष्ठा-बस्तु; अंतरिक्ष; दुविदल का नुकीला 
भाग (लम्बी नाकवाला आदमी; नाक निकलना; गावस्कर, क्रिकेट की नाक थे; 
नाकपति इन्द्र; चने मं गफली की नाक) क्‍ 

पत्थर - प्रस्तर; सड़क-नाप सूचक; वर्षोपल; रत्त; अत्यन्त कठोर वस्तु; 
अभाव (लाल पत्थर से बना किला; मील का पत्थर; वर्षा के साथ गिरे पत्थर, 
अँगूठी में जड़ा बहुमूल्य पत्थर; पत्थर जैसी दाल; इस बारे में तुम क्‍या पत्थर 
जानते हो) 

3, समानारथोपर्यायवाच्ी शब्द वे शब्द हैं जो वाच्याथे (आशय/किथे) की 
दष्टि से प्रायः सम लक्षी (समान) होते हैं। सच्चे अर्थों में किसी भाषा में शत-प्रतिशत 
समानार्थी या पर्यायवाची (59॥07978) शब्द नहीं हुआ करते । पर्यायता का निर्णय 
इन छह बातों के आधार पर किया जाता है--. समान सन्दर्भ---पर्याय शब्द समान 
भाषिक और भौतिक सन्द्भों में प्रयोग-क्षमतावाले होते हैं, यथा--पानी' (/ जल) 
पीजिए । इतनी कड़ी धूप में बिना पानी (/ जल) पिए बाहर मत जाओ । 2. समान 
अवयव --पर्याय. शब्द समान अवयव/रूपिम प्रयोगवाले होते हैं, यथा--चातुर्ये 
(चतुर--न्‍्य)--चतुराई (चतुर---आई), कालिमा (काला >काल---इमा)-- 
कालापन (काला-+--पन) ! 3. समान घटक-- पर्याय शब्दों के अर्थीय घटक समान 
होते हैं, वथा--युवक (--मानव--वयस्क-+- पुरुष)--नौजवान (-+-मानव--वयस्क 
+पुरुष) । 4. समान विलोस--पर्याय शब्दों के विलोम परस्पर पर्याय होते हैं, 
यथा--उचित--उपयुक्‍त (अनुचित--अनुपयुक्त) । 5. समात उर्वेर--पर्याय शब्द 
नव शब्द निर्माण में समान रूप से उर्वर होते हैं, यथा - सहिष्णु--सहनशील 
(सहिष्णुता--सहनशीलता, असहिष्णु--असहनशील) । 6. सम्तान अर्थ--पर्याय शब्दों 
की अर्थ॑-प्रतीति समान होती है, यथा--क्ृंषक--किसान; गृह--मकान---घर; वायु--- 
हवा; वस्त्र--कपड़ा आदि । भाषा में प्रचलित (तथाकथित) पर्याय इन छह आधारों 
की पूति नहीं कर पाते, विशेषतः समान या एक ही' सन्दर्भ में भाषा एक ही शब्द का 
: प्रयोग[व्यवहार करती है । पर्याय का सम्बन्ध मुख्यतः अर्थ से है, अतः अर्थ की दृष्टि 
से समान विलोम, समान घटक भौर समान अर्थंवाले शब्दों को पर्याय माना 
जाता है । 

उपयुक्त विवेचन|कसौटी के आधार पर पर्याय शब्दों के दो भेद हो सकते. 
हैं---. पर्यायभासी 2. अपूर्ण पर्याय । !. पर्धायभासी या लगभग एकार्थी वे शब्द 
होते हैं जो अर्थ की दृष्टि से कुछ रुन्दर्शों में प्रायः एक-दूसरे का स्थान ले सकते हैं, 
यथा--मुझे टेस्ट/परीक्षण में 20 में से ।8 अंक/नम्बर मिले । अँधेरा/अंधकार छा 
जाने पर कुछ भी दिखाई नहीं देता । भाषा के सभी सन्दतों में बिना अथ॑-परिवर्तन 





40 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


के एक-दूसरे को स्थानापन्‍त करनेवाले शब्द ही पूर्ण एकार्थी या पूर्ण पर्याय कहे जा 
सकते हैं किन्तु ऐसा भाषा-व्यवहार में सम्भव नहीं है; इसलिए पर्यायभासी शब्दों को 
पूर्ण पर्याय नहीं कहा जा सकता । 2. अपूर्ण पर्याय या लगभग समातार्थी वे शब्द हैं 
जो अर्थ की दृष्टि से लगभग समातार्थी होते हुए भी वाक्य में अधिकतर एक-दूसरे 


का स्थान नहीं ले पाते । अपूर्ण/आंशिक पर्याय शब्दों में शेली, विचार, प्रयोग आदि 


की दृष्टि से अन्तर पाया जाता है। शब्दों के मर्म को समझने/जाननेवाले विद्वान्‌ 
अपूर्ण पर्यायों के प्रयोग में सृक्ष्म भेद का ध्याव रखते हैं। प्रत्येक शब्द की अपनी' 


अर्थ-छवि होती है जिस के कारण उस का स्थान सदैव दूसरा शब्द नहीं ले पाता । किसी _ 


विशेष प्रसग में या विशिष्ट अर्थ-प्राप्ति वी दृष्टि से कौन-सा शब्द उपयुक्त रहेगा-- 
इस का सूक्ष्म ज्ञान प्राप्त करता अच्छा लेखक/वक्‍ता बनने के लिए उपयोगी रहता है । 


व्याकरण की पुस्तकों में संस्कृत भाषा से आगत अनेक पर्याय (पर्यायभासी) 


शब्दों की सूची दी जाती है। इन पर्यायों का प्रयोग प्रायः कविता में होता है । 
नाटक, कहानी, निबन्ध रचनादि में इत का प्रयोग कम ही होता है और देनन्दिन 
. बोलचाल की भाषा में तो बहुत ही कम; अतः पर्यायों को रटवाने में छात्रों का समय 
गैर शक्ति का अपव्यय नहीं कराया जाता चाहिए। कविता में अथ-सौन्दय लाने के 
लिए पर्यायवाची शब्दों की बहुत आवश्यकता पड़ती है. क्‍योंकि मिलते-जुलते सूक्ष्म 
भाव-विचारों के लिए एक ही शब्द के बार-बार प्रयोग से अथे-रमणीयता में कमी आ 
. जाती है। पर्याय शब्दों के प्रयोग के समय इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि 


पर्याय शब्द मूल शब्द से अधिक कठिन न हो, साथ ही ऊपरी दृष्टि से समानार्थी _ 


होते हुए भी अर्थान्तर पैदा न करता हो । पर्याय शब्दों का प्रयोग करते समय विषय 


और प्रसंग का पूरा-पूरा ध्यान रखना अति आवश्यक है। प्रचलित शब्दों का प्रयोग 


भाव-प्रकाशन में प्रभावोत्पादकता लाता है। साहित्य-बोध और साहित्य-सर्जनात्मकता 
की दृष्टि से पर्याय शब्दों का अपना महत्त्व है । 


लगभग समानार्थी या अपूर्ण पर्याय शब्दों में से प्रयोग में शैली-दृष्टि से एक 
वाक्य में एक ही शब्द आ सकता है, यथा--कार्यालय में दोपहर के भोजन के लिए. 


आधा घंटे का अबकाश रहता है । कार्यालय की छुट्टी शाम को पाँच बजे होती है । 


राधा-कृष्ण का प्रेम भारतीयों को प्रेरणादायक है। शीरी-फरहाद एक-दूसरे से काफी 
.. सोहब्बत करते थे । वह अभी किशोरावस्था में ही है। प्राचीन आय॑ सौ वर्ष की 
आयु भोगने के लिए ईश्वर से प्राथेना किया करते थे । पहले पच्चीस वर्ष की उम्र में | 
.. लड़कों की शादी हुआ करती थी । जाज्ञा इजाजत, अवश्य-जुरूर, बेशक-निःसन्देह, 
.  असीम-बेहद, ख बसूरती-सौन्दर्य का अन्तर शैलीय है। वैचारिक दृष्टि से लगभग 
.. समानार्थी या अपूर्ण पर्याय शब्द अर्थ-सूक्ष्ता की दृष्टि से भिन्न-भिन्न होते है। ० 
.... यथा -पाठशाला-स्कूल-मकतब-मदरसा-शाला-विदूयालय;.... डॉक्टर-हकीम-वैद्य- 
..._ कविराज; देखना-घ्रना-निहारना-अवलोकन करना हे आय कद 





नि न 502»: 0: 





शब्द-अर्थ | 4] 


शैलीय और वैचारिक अन्तर न होने पर भी' परम्परागत प्रयोग-दृष्टि के . 
कारण अपूर्ण पर्याय या लगभग समानार्थी शब्दों में से एक के स्थान पर दूसरा नहीं 
आ सकता, यथा-- जलपान! के लिए पानीपान/नीरपान नहीं कहा जा सकता | 
शर्म के मारे मैं पानी-पानी हो गई में पानी के स्थान पर जल/वीर' नहीं आ 
सकता । हिन्दी भाषा का शब्द भंडार कई स्रोतों से पुष्ट होने के कारण हिन्दी में 
पर्यायभासी शब्द काफी प्रचलित हैं | अधिक प्रचलित पर्यायभासी/लिगभग' एकार्थी कुछ 
शब्दों की सूची निम्नलिखित है-- 


अधिक प्रचलित तथाकथित कुछ पर्यायवाची शब्द 


अग्नि--आग, आँच, पावक, अनल, वह नि, दव, क्ृशानु, ज्वलन, दहन, 
वैश्वानर, हुताशन द 

अनोखा--अनुपम, अद्भुत, अनूठा, अद्वितीय, अतुल, अपूर्वे 

अमृत--सुधा, सोम, अमी', अमिय, पीयूष 

अर्जुन--पार्थ, कौन्तेय, धनंजय, कपिध्वज, गुडाकेश 

असुर--दैत्य, दानव, दनुज, राक्षस, निशाचर, रजनीचर, तमीचर 

अहंकार--अभिमान, गवें, दपं, घमण्ड, मद, अहं, दम्भ 

आँख--नेत्र, नयन, दग, लोचन, चक्ष,, अक्षि, चख, दीदा, ईक्षण 

आकाश---अआसमान, .नभ, शुन्य, गगन, व्योम, अम्बर, अन्तरिक्ष, अनन्त, 
दिव, अनंत, अश्र 

आनन्द--हषे, ख शी, आमोद, प्रमोद, सुख, चेन, प्रसत्तता, उल्लास, विहार 

आम--आम्र, रसाल, सहकार, पिकवन्धु, चूत 

इच्छा -- कामना, अभिलाषा, लालसा, आकांक्षा, उत्कंठा, मनोरथ 

.. इच्द्र-देवराज, सुरपति, देवेन्द्र, महेद्र, शवीपति, शक्र, पुरन्दर, सहस्राक्ष, 

मघवा, पुरहुत, पाकशासन, पाकरिपु 

इन्द्राणी--इन्द्रवध, ऐन्द्री, माहेन्द्री, शची, इन्द्रा 

ईश्वर--प रमात्मा, प्रभू, भगवान, परमेश्वर, परमेश, जगतृपिता, जगदीश, 
जगदीश्वर, पारब्रह म, जगन्नाथ, अगोचर, अनादि, अलख 
द  कपड़ा--वस्त्र, वसन, पट, चीर, दुकूल, अम्बर 

कसल--जलज, पंकज, सरोज, नीरज, अम्बुज, पद्म, पुडरीक, कोकनद, 
सरसिज, अरविन्द, राजीव, शतदल, इन्दीवर, नलिन, उत्पल | 

 कामदेव-- अनंग, मदन, मनन्‍्मंथ, काम, मनोज, मनसिज, रतिपति, रतिसखा, 
कन्दपे, मीनकेतु, कुसुमबाण, पुष्पचाप, पंचशर 
किरण--कर, किरन, रश्मि, मयूख, मरीचि, अंशु हक 
कुवेर--किन्नर-तरेश, यक्षराज, धनाधिपति, धनाधिप, अलकाधिपति, धनद 
कोयल--कोकिल, पिक, वसनन्‍्तदृत, परभुत है 








]42 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


क्रोध--कोप, रोष, गुस्सा, आक्रोश, अमर्ष 

कौआ--काक, काग, वायस, पिशुन 

क्ृष्ण--हरि, ब्रजेश, मुरलीधर, वंधीधर, कंसारि, गोपाल, ब्रजराज, यदुनाथ 
राधारमण, द्वारिकाधीश 

खल-दृुष्ट, अधम, नीच, पामर, कुटिल, धूत॑, दुर्जन 

गंगा--भागी रथी, सुरसरि, जाह नवी, त्रिपथगा, देवनदी 

गधा--गर्दभ, रासभ, खर, वे शाखनन्दन 


गणेश--गणपति, गजानन, लम्बोदर, विनायक, मोदकप्रिय, गिरिजानन्दन, 


भवानीनन्दन, गणाधिप, विध्ननाशक, गौरीसुत 


घर--गृह, गेह, भवन, निकेत, सदन, मकान, आलय, आगार, आवास, 


अयन, निलय, निकेतत, ओक, आयतन, निकेतशाला, धाम 
घोड़ा--अश्व, हय, बाजि, घोटक, तुरंग, सैन्धव 
चतुर-पटु, कुशल, निपुण, प्रवीण, योग्य, दक्ष, विज्ञ, नागर 


चन्द्रभा--चन्द्र, चाँद, सुधांशु, शशि, निशाकर, निशापति, मयंक, हिमांशु, 
राकेश, सुधाकर, कलानिधि, सोम, सारंग, इन्दु, विधु, मृगांक, केलाधर, शर्शाके, 


हिमकर, रजनीपति द 
चाँदनी--चन्द्रिका, ज्योत्स्ता, कौमुदी, चन्द्रप्रभा 
जमुना--यमुना, कालिन्दी, रविसुता, तरणिजा, सू्येंसुता, अकेजा 
जल--पानी, नीर, सलिल, तोय, अम्बु, जीवन, वारि, पय, रस, सारंग 
तलवार--चन्द्रहास, खड़ग, कृपाण, असि, करवाल 
तालाब--ताल, सरोवर, सर, तड़ाग, जलाशय, पुष्कर, पद्माकर 
दास--सेवक, चाकर, नोकर, भृत्य, किकर, अनुचर 
दित--दिवस, दिवा, वासर, वार 
दु ख--कष्ट, पीड़ा, क्लेश, वेदना, संताप, क्षोभ, यातना 
दुर्गा--कालिका, चंडी, चंडिका, कल्याणी, चामुडा, सिहवाहिनी, रोहिणी 
अजा, धात्नी, कामाक्षी, सुभद्रा 


देवता--देव, सुर, अमर, अमत्यं, आदित्य, अज, तिदश, निर्जर 
द्रब्य--धन, दोलत, वित्त, सम्पत्ति, सम्पदा, विभूति 
 नदी--सरिता, तटिनी, तरंग्रिणी, निम्नगा, आपगरा 
सरक--यमपुर, यमलोक, यमालय, दुगंति, संघात 
बाव--नोका, तरिणी, जलयान, जलवाहन, पतंग, बेड़ा, जलपात्र 
... पक्षी - खग, विहग, पर्खेरू, परिन्दा, द्विज, अंडज, शकुनि 
... पंडित--विद्वान्‌, विज्ञ, बुध, सुधी, मनीषी, प्राज्ष, कोविद, धीर 
... पति--भर्ता, भरतार, स्वामी, वललभ, बालम 





शब्द-अथे | 43 


पत्नी--भार्या, सहधमिणी', प्राणप्रिया, प्रिया, कलत्न, वधू, बहू, वामा 

पत्थर--प्रस्तर, पाहन, पाषाण, शिला, उपल 

पहाडु--पव ते, गिरि, शैल, नग, अचल, भूधर, महीधर 

पाव॑ंती--उमा, भवानी, दुर्गा, सती, शैलसुता, सर्वेमंगला, आर्या, अपंणा 

पुत्न-बेटा, सुत, पूत, तनय, तनुज, आत्मज, लड़का, ननन्‍्द 

पुत्री--बेटी, सुता, तनया, तनुजा, आत्मजा, लड़की, कन्या, दुहिता 

पुष्प--फूल, सुमन, कुसुम, प्रसून, लतानन्‍्त, मंजरी 

पेड़--वक्ष, विटप, पादप, द्र म, तरु, पर्णी, शाल 

प्रकाश--ज्योति, चमक, दयुति, उजाला, आलोक, प्रभा, दीप्ति, तेज, छवि 

प्रेम--स्नेह, प्यार, प्रीति, अनुराग, राग 

पृथ्वी--भू, धरा, धरणी, धरित्री, अवनि, वसुधरा, धरती, भूमि, अचला, 
मही, मेदिनी, जमीन, जगती 

बन्दर--बानर, कपि, मर्कंट, शाखामृग, हरि 

बाण--शर, तीर, सायक, शिलीमुख 

बादल--मेंघ, जलधर, वारिद, पयोद, पयोधर, नीरद, जलद, घन, अंबुद 
जगजीवन 

बिजली--चंचल, चपला, चंचला, विद्युत, दामिनी, सौदामिनी, क्षणप्रभा, 
अशनि 

ब्रहूसा-स्वयंभू, चतुरानन, विधाता, प्रजापति, विरंचि, पितामह, अज, 
आत्मभू, हिरण्यगर्भ, आत्मभू, सदानन्द, लोकेश 

ब्रह सभ--विप्र, भूदेव, दृविज, अग्रजन्मा, गुरु 

भोंरा--भ्रमर, अलि, मधुप, मधुकर, शिलीमुख, मिलिन्द 

मछली--मीन, मत्स्य, सख, मकर, भंडज, शकुची, जलजीवन 

महादेव--शिव, शंकर, हर, पशुपति, गिरीश, त्रिलोचन, नीलकंठ, भूतनाथ 
पिनाकी, केलाशनाथ द 

भमोर--मयूर, केकी, सारंग, नीलकंठ, भुजंग, अहिभक्षी 

सोक्ष--कैवल्य, निर्वाण, मुक्ति, परमपद, परमधाम 

यम---धर्ं राज, दंडधर, हरि, जीवितेश, जीवनपति, शमन 

रमा--इन्दिरा, लक्ष्मी, कमला, पद्मा, श्री, समुद्रजा, हरिप्रिया 

राजा--नृ पति, नृप, नरेश, नरपत्ति, महीपतति, भूषति, सम्राट, नरेन्द्र, भूप, 
भूपाल 

रावण--दशानन, दशवदन, दशकंठ, दशकंध, लंकेश, लंकाधिपति 


 बन--बन, अरण्य, विपिन, कानन, जंगल 
_ विष्णु---चक्रपाणि, केशव, माधव, लक्ष्मीपति, चतुभ्‌ ज, सुकुन्द, पीतांबर 
गोविन्द, मधुरिपु, जलशायी, शेषशायी 











44 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


शरीर--देह, तन, वपु, गात, अंग, कलेबर, विग्रह, मूर्ति, घट, वाय 
सब--स म्पृ्ण, पूर्ण, स्व, सकल, कुल, तमाम, समस्त, अखिल, निखिल 
समुद्र--सागर, सिन्धु, उदधि, पयोधि, रत्नाकर, जलधि, जलनिधि; वारिधि 
पारावार, नीरनिधि द 
सम्‌ह--व॒ न्द, राशि, दल, जत्था, झुड, मंडली, गण, संघ 
सरस्वती +-भारती, गिरा, वाणी, शारदा, वागेश्वरी, वीणावादिनी, 
महाश्वेता, वाचा, इला, भाषा 
पं--साँप, अहि, भजंग, उरग, नाग, फणी, मणी, विषधर, सारंग 
सिह - शेर, मृगराज, मृगेन्र, केहरि, केशरी, नाहर, वनपति, बहुबल 
सुन्दर--मनोहर, रमणीक, ललित, ललाम, चित्ताकषक, आकर्षक, कमनीय, 
रंजक ्ि 
_सर्थ -रवि, सूरज, दिनकर, दिवाकर, प्रभाकर, भास्कर, मातंण्ड, मरीची 
सेना--फौजू, चम्‌ू, दल, कटक, अनी द 
सोना--स्वर्ण, कंचन, कनक, हेम, हिरष्य, जातरूप 


सत्नरी--अबला, नारी, वनिता, ललना, कानन्‍्ता, रमणी, कामिनी, औरत, 
कलत् 


स्वगं---सुरलोक, देवलोक, नाक 
हवा--पवन, वायु, समीर, वात, अनिल, समीरण, प्रकम्पन 


हाथी--गज, दुविपु, हस्ती, कुजर, दंती, नाग, कुम्भी, मातंग, करि, गयन्द, 


सिधुर, वितुड 


अपूर्ण पर्याय/लगभग समानार्थी कुछ अधिक प्रचलित शब्दों की सूची उन के 
सूक्ष्म अर्थ-भेद और प्रयोग-संकेत के साथ दी जा रही है । 


अपूर्ण पर्याय/लगभग समानार्थो शब्द 


।. अज्ञात जो ज्ञात न हो किन्तु जिसे जाना जा सके । (उस की आत्महत्या... 


का कारण अभी अज्ञात है) 
क्षज्षेय> जो जाना न जा सके | (परमात्मा अज्ञय है) 


होते हैं) 


अनभिन्न-> मनुभवहीन॒पृर्णश्ञान-रहित (हिन्दी से अनभिन्न लोग ही अँगरेजी 

का गुणगान करते हैं) । 

द अज्ञ>नज्जो जाता न हो। ..ः मम 

8. 3. अभिमान > स्वयं को दूसरों से बड़ा समझना । (उसे अपनी सुन्दरता पर - 
. बड़ा अभिमान है) मल 0 वा के 8 





2. अज्ञान--तासमझ । (छोटे बच्चे सांसारिक बातों के बारे में अज्ञान | 


गा 


उर्माप्यानाइनइलिकलालाना- 7त7ए 5 दिल 


शब्द-अर्थ | 45 


अहंकार > स्वयं को अवांछित महत्त्व देना/अपने गुणों को सर्वाधिक समझ 
कर गव॑ करना । (रावण का अहंकार उसे ले ड्बा) 

4. अभिननन्‍दन -- बड़ों को विधिवत्‌ दिया गया सम्मान । 

स्वागत -- किसी के आने पर दिया गया सम्मान । 

5. अमूल्य - मूल्य से भी अप्राप्त वस्तु । 

बहुमूल्य -- बहुत मूल्यवान वस्तु । 

6. आयु"-जीवन का सम्पूर्ण समय । (शिवाजी ने अप्रनी समस्त आयु राष्ट्र 
को अधित कर दी थी) 

अवस्था -- जीवन-वर्ष । (उस की अवस्था इस समय १6 व है) 

. बय--आयु का पूर्ण हुआ अंश । (वे व्योवृद्ध हैं, ये ज्ञानवदध) 

उम्र८- आयु, वय, अवस्था 

7. आधिल्‍- मानसिक कष्टपीड़ा (बेटी के ब्याह की चिन्ता मेरे लिए बड़ी 
आधि है)... 
व्याधि -- शारीरिक कष्ट/पीड़ा (बुढ़ापे में अनेक व्याधियाँ शरीर पर आक्रमण 
करने लगती हैं । 

8. आतंक"-विविध कष्ट-आशंका के कारण मानसिक दृष्टि से भयभीत । 
(भारत में आज भी जनता पर पुलिस का आतंक है) 

भय < अनिष्ट-चिन्ता से उत्पन्त मानसिक विकार । (साँप से मुझे बहुत भय 
लगता है) 

9. अंस्त्र --फंके जानेवाला हथियार | (बाण अस्त्र है) 

शस्त्र >-हाथ में रहनेवाला हथियार | (गदा, तलवार, लाठी शस्त्र हैं) 

आयुध - युद्ध के विविध हथियार 

हथियार -- अस्त्र-शस्त्र 

40., असाधारण -- सामान्य से अधिक । (भीम में असाधारण बल था) 

अलोकिक>जो सांसारिक न हो । (धर्मग्रन्थों में अवतारों के अलौकिक कार्यों 
की भरमार है) 
क्‍ 4[. अवकाश -- काय-मध्य का सामान्य अन्तराल | (आज वह आकस्मिक 
अबकाश पर है) क्‍ हे ले 

छुट्टी >> कार्य-बन्धन मुक्ति अवसर। (चलो, इन की चखचख से छटटी 
मिली ) क्‍ 
. .. 42. अनुच्छेद - पराग्राफ्‌ । (इस लेख का अन्तिम अनुच्छेद बहुत मार्भिक है) 
_ परिच्छेद सर्ग, अध्याय । (उस पुस्तक के सभी परिच्छेद रोचक हैं) 
.. अध्याय > गदूय ग्रन्थ के परिच्छेद । (इस पुस्तक में 32 अध्याय हैं) 

0 





]46 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


सर्ग >+काव्य ग्रन्थ के परिच्छेद | (महाकाष्य में कम से कम आठ सं होते हैं) 


3, अचंना > विधि-विधानयुत पूजा । (बहुत-से लोग शक्ति प्राप्ति हेतु देवी... | 


अर्चना करते हैं) 
पृजा++ सामान्य पूजन । (मेरी छोटी बहन पूजा में एक धंटा लगा देती है) 
4, अनुयायी ++ किसी के विचारों को माननेवाला । (महात्मा गान्धी का 
सच्चा अनुयायी बिरला ही होगा.) 
सेबक 5 सेवा करनेवाला । (दीनों के सेवक ईश्वर-प्रिय होते हैं) | 
अनुच र> स्वामी की इच्छा के अनुरूप काये करनेवाला । (हनुमान जीवन 
भर राम के अनघर बने रहे) 
द 85. अनुसंधान 5 अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर वास्तविक बात का पता 
लगाना । (वे किस विषय पर अनुसंधान कर रहे हैं) 


आविष्कार -- पहले से अज्ञात वस्तु या बात को प्रत्यक्ष करता। (एडिसन ने 


. कई आविष्कार किए थे) 


6. अपराध --विधि-विधान के विरुद्ध दंडनीय कार्य । (चोर को चोरी के 


अपराध की सजा मिलनी ही चाहिए) 


_ पाप >-बुरा माना जानेवाला और अशुभ फल देनेवाला कार्य । (समाज में 


झूठ बोलना पाप माना जाता है) 


7. अभिभाषण " लिखित व्याख्यान । (राष्ट्रपति गणतन्त्र दिवस की पूर्व 


सम्ध्या पर अपना अभिभाषण पढ़ते हैं) 
होता थ।) 


होगा) 


5, अन्त:करण > मन, चित्त, बुदधि, अहंकार की समष्टिसद-असद्‌ का 


ज्ञान करानेवाली इन्द्रिय । (मेरा अन्तःकरण रिश्वत माँगने की आज्ञा नहीं देता) 


चित्त - स्मृति, विस्मृति, स्वप्न आदि की समष्टि/चिन्‍्तन करनेवाली इच्धिय 


(माँ की सीख मेरे चित्त में बस गई है) 
हँदय +- मंतोविका रयुत ज्ञानेन्द्रिय (बच्चों का हृदय निएछल हुआ करता है) 


सन >- सेंकल्प-विकल्प करनेवाली अन्तःकरण की वत्ति। (मैं क्‍या जातू 


तुम्हारे भन में क्‍या है) 


9. अद्भुत 5 विस्मयजनक । (अय्यारी तथा तिलस्मी उपस्यासों में अद्भुत... 


घटनाओं का वर्णन होता है) 


...... अपूर्व"'>जिस का पहले से अनुभव न किया गया हो। [न्याग्रा फॉल का... 
..._ अपूर्व सौन्दर्य देख कर मेरी अ तृप्त हो गईं) कील 





भाषण - मौखिक व्याख्यान । (सुभाषचर्द्र बोस का भाषण बड़ा प्रभावशाली 


प्रवचनब्-थ्धामिक व्याख्यान। (कल गीता! पर पुजारी जी का प्रवचन. 


०.४ 92कललपकललककाएकप्टरत 7८ 


 शब्द-अर्थ | 47 


अनुपप्त - उपमा-रहित/बेजोड़ । (सीता का सौन्दय अनुपम्त था) 
विचित्र + कई रंग्ोंवाला । (गणतन्त्र-दिवस पर बविचित्न-वेशभूषा पहने लोगों 
को देखा जा सकता है) 
30, आज्ञा बड़ों दूवारा छोटों को किसी काये के लिए कहता । (सेवक 
को आज्ञा दीजिए और सब काम समय पर पूरे हो जाएँगे) 
. अनुमति प्रारथंता करने पर बड़ों दूवांरा दी गई सहमति । (यदि आप की 
अनुमति हो तो मैं भी कुछ निवेदन करू) द 
आदेश +-कार्याधिकारी द्वारा दी गई आज्ञा ! (अधिकारी के हस्ताक्षरों के 
बिता कोई भी कार्यालय-आदेश वैध नहीं माना जाता) 
24, आवेदन -+ किसी कार्य हेतु निजी विशेषताओं के साथ प्रार्थना करना । 
(सचिव पद के लिए कई आवेदन पत प्राप्त हुए हैं) 
निवेदन -- अन्य के इच्छानुकूल विनम्नतायुक्त स्व-विचार प्रस्तुति। (निवेदन 
है कि इस मामले में आप व्यक्तिगत रुचि लेने की क्ृपा करें) 
. प्रार्थना >- किसी कार्य हेतु विनम्न भाव से इच्छा प्रकट करना । (छटटी पर 
जाने से एव तुम्हें प्रार्थना पत्र देना होगा) 
22. ईर्ष्या -पर-सुख से दुःखी होता । (उस की सुन्दर पत्नी को देख क 
तुम्हें क्यों ईर्ष्या होती है) द द 
दृवेष-- किसी के प्रति स्थायी ईर्या रखना । (पाकिस्तान का जन्म ही 


भारत-द्वेष से हुआ है) क्‍ 
स्पर्धा + पर-प्रयत्त से बढ़ कर प्रयत्न करना । (विज्ञान के क्षोत्र में हम स्पर्धा 


से ही कुछ पा सकते हैं) 
2 ?. इच्छा -- किसी वस्तु के प्रति मत्त की लगन काभाव । (हमारी इच्छाएँ 


अनन्त हैं) द 
उत्कंगा >प्रतीक्षायुकत प्राप्ति की तीब्र इच्छा | (परीक्षा-परिणाम जानने की 
बच्चों को बड़ी उत्कण्ठा है) ह 
आशा प्राप्ति की सम्भावना हेतु इच्छा का समन्वय । (मुझे तुम से ऐसी 
आशा नहीं थी कि तुम किसी और की हो जाओगी) द 
कामना +- मन की इच्छा । (मेरी कामना है कि तुम्हारी विजय हो) 
24. भार्या पत्नी । (अनेक पुरुष अपनी भार्या के सहयोग से महापुरुष 
बने हैं) क्‍ 
महिला -- कुलीन नारी । (भारतीय महिलाओं ने देश की प्रगति के कई क्षेत्रों. 
में अपूर्व सहयोग दिया है) स द 
.... स्त्री--नारी वर्ग । (वेद काल की स्त्रियों में पर्दा-प्रथा नहीं थी) 
पत्नी -- स्‍्व-विवाहिता । (आप की पत्नी का नाम क्‍या है) 





[48 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


25, भक्ति >देवतादि के प्रति उत्पन्त पृज्य भाव। (सूरदास के हृदय में 


श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति थी) 

श्रदूधा बड़ों के गुणों के आधार पर उत्पन्न भावना । (महात्मा गांधी क 
प्रति लोगों में आज भी श्रद्धा है) द 

_ स्‍्मेह -- अनुराग/प्रेम । (राखी भाई-बहन के स्थवेह का प्रतीक है) 

प्रेम > प्यार । (गोपियाँ बचपन से ही कृष्ण से प्रेम करती थीं) 

वात्सल्य >-छोटों के प्रति बड़ों का स्नेह। (माँ बड़ी उम्र के बच्चों के प्रति 
भी वात्सल्य भाव रखती है) 

26. कष्ट - मन में होनेवाला वह अप्रिय अनुभव जिस से मनुष्य बचना 


लक. 


या छूटकारा पाना चाहता है। (पता नहीं, इस कमर दर्द के कष्ट से कब मुक्ति 


मिलेगी) 
क्लेश-- मानसिक वेदना । (रोजु-रोज की कलेश से तो अच्छा है एक दिन 
जी भर कर मन की भड़ास निक्राल लो) 
क्षोध--अनिष्ट के क्रारण उत्पन्त क्रोधजन्य व्याकुलता | (तुम्हारे अभद्र 
व्यवहार पर मुझे बहुत क्षोभ है) 
खेद -- किसी उचित, आवश्यक या प्रिय बात के न होने पर मन में होनेवाला 
दुःख | (एक घंटा देर से पहुँचने पर मुझे खेद है) 
दुःख -+ किसी के अभाव का अनुभूतिजन्य कष्ट । (यहाँ आ कर भी आप के 
दर्शन न कर पाने का मुझे दुःख है) क्‍ द 
पश्चाताप - स्व-त्रूटि पर उत्पन्न खेद । [तुम्हें गाली देने पर उसे 
पश्चाताप है) यक 


विषाद"-अत्यधिक मानसिक कष्ट या पीड़ा । (कैकेयी के दोनों वर दशरथ 


के लिए विषाद जनक थे) ड़ द द 
.. व्यथा>- आघात जन्य कष्ट या पीड़ा । (पत्थर से चोट लगने पर बुड्ढे को 
बड़ी व्यथा हुई) । द 


.. शोक "-भ्रिय की मृत्यु से उत्पन्न कष्ट । (दशरथ-समृत्यु पर सारी अयोध्या 
शोक-मग्न हो गई) 


27. करुणा+-मन का वह दुःखद भाव जो दूसरों के कष्ट देखने से उत्पन्न 


होता है और जो उन कष्टों को दूर करने की प्रेरणा देता है। (आग में फंसे हुए 
बच्चों की चीखों से लोगों के हृदय करुणा पूर्ण हो गए) 
..... सहानुभूति किसी का दुःख देखकर उसी की तरह दुःखी होना । (पड़ोसी के 
... पिता की मृत्यु पर तुम्हें कुछ तो सहानुभूति प्रकट करनी चाहिए) 


सह-अनुभूति-- किसी की अनुभूति का सहभारी होना । (पति-पत्नी में सह- 


गे 'अहभुति भाव रहता चाहिए) 





एमलेकलससथपकातकरच;बलइ पतन ननजरस सकितन नर हट पक पाला पलक: क्‍वइलपरिलता 7 + 


मा कट 


+धमरवलबस बलिदान तर क- पतन न०८ एखतनदप 








शब्द-अथ्थ | 49 


दया +- निबलों के प्रति किया जानेवाला उपकार । (सभी जीवों पर दया 
करनी चाहिए 


कृपा >छोटों के प्रति किया जानेवाला उपकार । (मेरी क्टिया में पधार कर 
आप ने महान कृपा की) क्‍ 
28, प्रलाप--निरथंक बातें । (बहुतं-से लोग आत्मश्लाघा में प्रलाप किया 
करते हैं) । 
बविलाप दुःख में रोता। (माँ-बाप की एकसाथ मृत्यु होने पर बच्ची का 
बिलाप सीमातीत था) के क्‍ 
आलाप + बातचीत/सम्भाषण । (उन दोनों के मध्य बहुत देर से आलाप चल 
रद्दा है ।) | 
29. तृप्ति-- इच्छा-पूर्ति से उत्पन्त शान्तिभाव । (कल किए गए भोजन से 
हमें बड़ी तृप्ति मिली) 
सनन्‍्तोष -- उपलब्ध धन आदि से उत्पन्न शान्ति-भाव ! (मुझे तो !20/- 
में भी सन्‍्तोष था, 200/- में भी और 3700/- में भी) 
सन्तुष्िट -- सन्‍्तोष-प्राप्ति का भाव । (अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, मुझे - 
. ऐसे रहने में पूर्ण संतुष्टि है) क्‍ | 
द 30. सामान -- व्यक्तिगत वस्तुएँ । (घर का/खाने-पीने का/यात्रा का सामान/ 
फकक्‍ट्रो से 50 हजार का सामान चोरी चला गया)... क्‍ 
माल >-व्यापार/उत्पादन की वस्तुएँ/धन-दोलत | (मालगाड़ी, कच्चा माल 
साल उड़ाना, मालमता, मालदार, मालामाल-। डकतों के लिए सम्पन्न यात्री: स्त्री 
लोलुप के लिए सुन्दर लड़की/महिला; शराबी के लिए शराब 'साल' है) द 
3. स्वीकार"-स्वयं के लिए प्राप्त करना । (उसे आप की बात स्वीकार 
। यह छोटी-सी भेंट स्वीकार कीजिए) की 
स्वीकृति -- प्रस्ताव, शर्तें आदि मान लेने का भाव । (बच्चों को अपनी बात 
_ कहने को स्वीकृति दीजिए । उन की' स्वीकृति मिलते ही) 


स्वीकृत -- अन्य के लिए मंजूरी/स्वीकृति देना । (पाँच दित का आकस्मिक 
अवकाश स्वीकृत करें) 


32. कक्षा -- (455 (प्रथम कक्षा/पाँचवीं कक्षा" ) 

वर्ग --७९८४०॥ (वर्ग-संघर्ष/उच्च या निम्न बर्ग/छठी कक्षा के सी वर्ग के... 
छात्र) द 7 का 

श्रेणी 9 शंभ्रंणा (प्रथम या द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण होना आवश्यक है) 

दरजा 7 ९855/2शंभंणा (अव्वल दरजे का -- श्रे ष्ठ) शक 2 दम अमन 

33. रास्ता लन्गन्तव्य स्थान तक की दूरी; गच्तव्य तक का गमन-सार्ग 

(रास्ता चौड़ा/सँकरा नहीं होता । अपने रास्ते पर चलो | मैं बाजार का रास्ता भूल 





48 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


25. भक्ति -देवतादि के प्रति उत्पन्न पूज्य भाव। (स्रदास के हृदय में 


श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य भक्ति थी) द 
श्रदृधा > बड़ों के गुणों के आधार पर उत्पन्न भावना । (महात्मा गांधी के 
प्रति लोगों में आज भी श्रद्धा है) 
स्नेह >> अनुराग/प्रेम । (राखी भाई-बहन के स्नेह का प्रतीक है) 
प्रेम - प्यार । (गोपियाँ बचपन से ही कृष्ण से प्रेम करती थीं) 


वात्सल्य >- छोटों के प्रति बड़ों का स्नेह । (माँ बड़ी उम्र के बच्चों के प्रति 


भी वात्सल्य भाव रखती है) 


206. कष्ट -- मन में होनेवाला वह अप्रिय अनुभव जिस से मनुष्य बचना 
या छुटकारा पाना चाहता है। (पता नहीं, इस कमर दर्द के कष्ट से कब मुक्ति 
मिलेगी) 


 क्लेश--मानसिक वेदना । (रोजू-रोजू की बलेश से तो अच्छा है एक दिन 


जी भर कर मन की भड़ास निक्काल लो) 


क्षोभ->अनिष्ट के कारण उत्पन्त क्रोधजन्य ब्याकुलता | (तुम्हारे अभद्र 
व्यवहार पर मुझे बहुत क्षोभ है) 


खेद -- किसी उचित, आवश्यक या प्रिय बात के न होने पर मन में होनेवाला 


दुःख । (एक घंटा देर से पहुँचने पर मुझे खेद है) 


दु:ख -+ किसी के अभाव का अनुभूतिजन्य कष्ट । (यहाँ आ कर भी आप के 


दर्शन न कर पाने का मुझे दु:ख है) क्‍ 

पश्चाताप > स्व-त््‌ टि पर उत्पत्न खेद । [तुम्हें गाली देने पर उसे 
पश्चाताप है) द 
के लिए विषाद जनक थे) 


बड़ी व्यथा हुई) 


शोक-मग्न हो गई) 


27. क्ररुणान्‍-मन का वह दुःखद भाव जो दूसरों के कष्ट देखने से उत्पन्न 
होता है और जो उन कष्टों को दूर करने की प्रेरणा देता है। (आग में फंसे हुए... 


बच्चों की चीखों से लोगों के हृदय करुणा पूर्ण हो गए) 
.. सहानुभूति 5 किसी का दुःख देखकर उसी की तरह दुःखी होना । (पड़ोसी के 
. पिता की मृत्यु पर तुम्हें कुछ तो सहानुभूति प्रकट करनी चाहिए) 


सह-अनुभूति >- किसी की अनुभूति का सहभारी होना । (पति-पत्नी में सह- 


रे अनुभूति भाव रहना चाहिए)... 





विषाद>"-अत्यधिक मानसिक कृष्ट या पीड़ा । (कैकेयी के दोनों वर दशरथ 
व्यथा --" आधात जन्य कष्ट या पीड़ा । (पत्थर से चोट लगने पर बुड्ढे को. 


वीक >-विय की मृत्यु से उत्पन्न कष्ट । (दंशरथ-सृत्यु पर सारी अयोध्या 





अउनपरर्टूसन्ट:ाहथलव्लएल्‍कञनललधत लए 5 5८ तक 





शब्द-अर्थे | 49 


दया -- निबलों के प्रति किया जानेवाला उपकार । (सभी जीवों पर दया 
करनी चाहिए 


कृपा >छोटों के प्रति किया जानेवाला उपकार । (मेरी क्टिया में पधार कर 
आप ने महान्‌ कृपा की) 

26, प्रलाप+-निरथेक बातें । (बहुतं-से लोग आत्मश्लाघा में प्रलाप किया 
करते हैं) न 

बिलाप > दुःख में रोता। (माँ-बाप की एकसाथ मृत्यु होने पर बच्ची का 
बिलाप सीमातीत था) क्‍ | क्‍ 

आलाप + बातचीत/सम्भाषण । (उन दोनों के मध्य बहुत देर से आलाप चल 
रद्द है ।) क्‍ 

29. तृप्ति -- इच्छा-पूर्ति से उत्पन्न शान्तिभाव । (कल किए गए भोजन से 
हमें बड़ी तृप्ति मिली) द 

सनन्‍्तोष -- उपलब्ध धन आदि से उत्पन्न शान्ति-भाव | (मुझे तो !20/- 
में भी सन्‍्तोष था, 200/- में भी और 3700/- में भी) 

सन्तुध्टि - सन्‍्तोष-प्राप्ति का भाव । (अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, मुझे - 
ऐसे रहने में पूर्ण संतुष्टि है) द 

30. सामान व्यक्तिगत वस्तुएँ । (घर का/खाने-पीने का/यात्रा का सामान/ 
फ॑ क्ट्री से 50 हजार का सामान चोरी चला गया) 

माल  व्यापार/उत्पादन, की वस्तुएँ/धन-दोलत । (मालगाड़ी, कच्चा माल 
साल उड़ाता, मालमता, मालदार, मालामाल | डकतों के लिए सम्पन्न यात्री: स्त्री- 
लोलुप के लिए सुन्दर लड़की/महिला; शराबी के लिए शराब 'माल है) 

3. स्वीकार--स्वयं के लिए प्राप्त करना । (उसे आप की बात स्वीकार 
है । यह छोटी-सी भेंट स्वीकार कीजिए) 

. स्वीकृति ८ प्रस्ताव, शर्तें आदि मान लेने का भाव । (बच्चों को अपनी बात 

, कहने की स्वीकृति दीजिए । उन की स्वोकृति मिलते ही ) 


स्वीकृत - अन्य के लिए मंजूरी/स्वीकृति देना । (पाँच दिन का आकस्मिक 
अवकाश स्वीकृत करे) 


32. कक्षा -- (455 (प्रथम कक्षा/पाँचवीं कक्षा" ) 
बग--56८४०॥ (वर्गे-संघर्ष/उच्च या निम्न वर्ग/छठी कक्षा के सी वर्ग के. 
छात्र) 
श्र णी +])शंअंणा (प्रथम या द्वितीय श्रेंणी में उत्तीर्ण होना आवश्यक है) 
दरजा 75 ९858/0[शंभञंणा (अव्वल दरजे का -- श्र ष्ठ) 
33. रास्ता >गन्तव्य स्थान तक की द्री; गन्तव्य तक का गमन-मार्ग 
. रास्ता चौड़ा/सँकरा नहीं होता । अपने रास्ते पर चलो । मैं बाजार का रास्ता भूल 














50 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


गया । कोई-न-फहोई रास्ता निकल ही आएगा। दुश्मन को अपने रास्ते से हटाना 

ही होगा) 

सड़क-- भौतिक अर्थ में प्रयुक्त मार्ग (सड़क पर मोटर/बम्घी/भीड़ 

यह सड़क कहाँ जाती है अर्थात्‌ इस सड़क पर चल कर कहाँ पहुँचेंगें । जी० टी० 

रोड काफी लंबी है । मैं इस सड़क का नाम भूल गया हूं । यह सड़क काफी चौड़ी/ 

सकरी है) द 
मार्ग -- रास्ते का संस्कृत रूप । (सा्गदर्शक; लम्बा मार्ग; सन्‍्सार्ण) 

पथ -- रास्ते का संस्कृत रूप । (पथ प्रद्शक;। आजकल कूछ सड़कों के ताम 
'मार्ग/पथ' शब्दयुक्त रखे जाने लगे हैं, यथा- डॉ० राजेन्द्र प्रसाद मार्ग; राजपथ; 
महात्मा गांती मार्ग ' 

34, सबक >-पाठ्यपुस्तक के ॥65507 के अर्थ में आजकल इस का प्रयोग 
कम हो गया है, मुहावरेदार प्रयोग में यह शब्द शिक्षा अथे में अधिक प्रयुक्त 
(सबक सिखाना/मिलनालिना) र 

.. पाठ >-पाठ्यपुस्तकक का कोई पाठ। (पुस्तक का पाँचर्बाँ पाठ खोलो) । 
मुहावरेदार प्रयोग पाठ पढ़ाना प्रचलित । ; द ः 

4. बिलोमार्थो/विपरीतार्थंक शब्द---अनुलोम' (> ऊपर से नीचे की ओर 
जानेवाला; स्वाधाविक; नियमित) शब्द का उलठा अथी देनेवाला शब्द है--विलोम/ 
प्रतिलोम (७770797) | किसी भी शब्द के प्रचलित अथे के विपरीत अर्थ प्रकट 
करनेवाला शब्द विलोमार्थी/विपरीतार्थक/विपरीतार्थी/भिन्‍नार्थी/विपर्याय. कहा जाता 
है, यथा--दिच «--> रात; सुख«-->दुःख । सामान्यतः एक अतुलोम शब्द का एक 
ही विलोम शब्द हुआ करता है किन्तु विलोमता के भिन्‍न आधारों के कारण एक से 
अधिक विलोम भी हो सकते हैं, यथा--राजा-प्रजा (शासक-शाषित आधार); 
राजा-रंक (धन-आधार); राजा-रानी (लिग-आधार) । के 

.. विलोमार्थी होने के लिए तीन आधार माने जाते हैं--(।) विषम सन्दर्भ-- 
. भाषिक अथवा भौतिक विषम सन्दर्भों में प्रयुक्त शब्द विलोमार्थी होते हैं, यथा-- 
.. सूर्य निकलते ही रात का अँधेरा दिन के उजाले में बदल जाता है। (2) विषम 
संरचना--विरोधी तत्त्वों से निर्मित शब्द विलोमार्थी होते हैं, यथा--स्पष्ट-अस्पष्ट 
. सबल-निर्बल, अकारण-सकारण, सुपुत्र-कृपुत्र, होनी-अनहोनी, लायक-नालायक 
.. (3) बिषस घटक - विरोधी अर्थीय घटकों से युक्त शब्द विलोसार्थी होते हैं, यथा--- 
.. युवक (-+-मानव-- वयस्क--पुरुष)--युवती (-+मानव-- वयस्क---पुरुष) 
हिन्दी में प्राप्त विलोमार्थी शब्द सभी वाग्भागों से संबंधित हैं, यथा--राम- 


.... रावण, जल-थल, आदमी-औरत, उन्नति-अवनति, लाल-हरा, ऊँचा-नीचा, आना- 
..._ जाना, उठना-बैठना, ऊपर-नीचे, आगे-पीछे । पा यश 0 


हिन्दी में विलोमता इन क्षेत्रों में प्राप्त है--( ।बोलि आदमी जातन 




















। 
हर 
| 
।' ) 
|] 


“कलम करवा ०77 "52. अं>वयननतयमनसन्‍थुनककरवापन्‍ «ता ५. >> ८-- _ +-..... + पासाउकलमा नस 


५522 वमलपनन कवर नस स9रम उमर ८ कबर2ररलससकपन्‍८क्‍2८«न्‍थ>«+ेा 5.7" “५५ 57 परत अल 








; 
|; 
रे 
। द 
। 





 शब्द-अथ | 5] 


मानव-दानव (2) लिग--ताऊ-ताई, राजा-रानो (3) पद--उच्च श्र णी लिपिक--- 
लघ॒ श्रेणी लिपिक (4) स्थिति--खड़ा-बठा, वास्तविक-काल्पनिक (5) काल--- 
प्रचीन-अर्वाचीन, आजनकल (6) गति--सचल-अचल (7) अस्‍्तित्व--हाजिरि- 


 गैरहाज्िर, सबल-तिबंलस. (8) भात्रा-दुर्बल-सबल, अक्लखसन्द-कमअक्ल 


(9) आकार सरल-कूटिल, लम्बा-ताटा (0) रंग--स्थाह-सफोंद, काली-गोरी 
(4) व्यापकता--एकदेशीय-स्वदेशीय, एक भाषा भाषी-बहु भाषा भाषी 
(2) आदयन्त शुरूआखिर, श्रीगर्णंश-इति (3) अच्छा-बुरा--सुपुत्न-कपुत्र, 
सच्चरित्र-दुश्चरित्र (4) सरल-कठित--सुगम-दुर्गभ, सुकर-दुष्कर (5) स्व-पर-- 
स्वकीया-परकीया, अपना-पराया (6) ऊपर-तीचे--उत्कर्ष-अपकर्ष, अआकाश-पाताल 
(7) बाहर-भीतर--आन्‍्तरिक-बाहू य, अन्तरंग-बहिरंगः (!8) अधिक-कप्त-- 
ज्यादा-कम । हि 

भाषा में प्रचलित सभी शब्दों के विलोम नहीं हुआ करते, यथा--मकान 
चाकू, घास, कर्सी, कागज, कपड़ा, सोफा, रेडियो जैसे शब्दों के विलोमार्थी नहीं 


हुआ करते । विलोम किसी शब्द के विपरीत/वि रोधी/उलटे/असमान कभ्ष्थ का बोध 


कराता है जब कि पर्योय किसी शब्द के समान|लगभग समान अर्थ का बोध कराद. 
है, यथा--दित का विलोगार्थी रात (< रात्रि) है, दिन का पर्याय है--दिवस । 
अर्थ-विलोम और गठन/संरचना-विलोम प्रधानता के आधार पर विलोम शब्दों के दो 
प्रकार माने जा सकते हैं--(क) स्वतन्त्र बिलोम (ख) सम्बद्ध विलोम । 

(क) स्वतन्त्र बिलोम शब्द संरचना तथा अथ की दृष्टि से स्वतन्त्र होते हैं 
यथा--हा र-जीत, छोटा-बड़ा, लाभ-हानि । ये शब्द अपने मूल रूप में संरचना स्तर 
पर असम्बद्ध, स्वाभाविक, स्वतन्त्र होते हैं। इन्हें कुछ लोग सामान्य विलोभ शब्द 
भी कहते हैं। इन्हें युग्म प्रयोगी शब्द भी कहा जाता है, यथा--अथ-इति, अधिक- 
कम |न्यून, अपना-पराया, अमृत-विष, आकाश-पाताल, अच्छा-बुरा, अन्धकार-प्रकाश, 


 आदि-अन्त, आगे-पीछे, आय-वब्यय, उतार-चढ़ाव, उत्थान-पतन, उत्तम-अधम, उष्ण- 
शीतल, ऊँचा-नी चा, कच्चा-पक्‍्का/पका, कट॒-मधु र, कड़वा-मीठा, कठित-सरल, कम- ज्यादा 


खरा-खोटा, गाय-बैल/साँड़, गुण-दोष, गीला सूखा, घृणा-प्रेम, छोटा-बड़ा, जन्म-मरण/ 
मृत्यु, जड़-चेतन, जीवन-मरण|मुत्यु, झूठ-सच, तीक्र-मन्द, त्याज्य-ग्राहू य, थोड़ा-बहुत 


' दिन-रात, धनी-दरिद्र, नया-पुराना, नर-मादा, निन्दा-स्तुति, निकटनदूर, पक्‍का/पिका- 
कच्चा, पाप-पुृण्य, प्रशन-उत्तर, पुरुष-स्त्री, प्रकाश-अन्धकार, प्रसारण-संकोचन, 
_ प्राचीनन्‍नवीन/भर्वाचीन, प्रेम-घुणा, बच्चा-बृढ़ा, बहु-अल्प, बाहर-भीतर, माता-पिता, 


मुख्य-गौण, महंगा-सस्ता, राग-दवेष, राजा-रंक/रानी, रात-दिन, लाभ-हानि, वुद्ध- 
बाल, विस्तत-संक्षिप्त, शत्र -मित्न, सरल-कठिन, सुख-दुःख, सुबह-शाम, स्त्ी-पुरुष 


: स्वर्ग-नरक, स्तुत्य-निन्‍्दुय, हार-जीत । 


(ख) सम्बदध बविलोस शब्द संरचना तथा भर्थ की दृष्टि से परस्पर जुड़े हुए 





52 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


होते हैं, यथा--पुत्र शब्द से बने विलोमार्थी शब्द सुपुत्र-कुपुत्र' शब्द । इन्हें कुछ लोग 
स्पष्ट बिलोम शब्द कहते हैं। यश-अपयश, गति-दुर्गं ति, (दुर्गति-सद्गति), दुजन- 
सज्जन, सुमति-कमति आदि सम्बद्ध विलोम शब्द हैं। ये शब्द प्राय: उपसर्ग, प्रत्यय 
लगा कर या समास दवारा बनाए जाते हैं। 

शब्द-निर्माण प्रक्रिया के आधार पर हिन्दी में विलोम शब्दों के ये प्रकार हो 
सकते हैं--() मूल विलोम शब्द, यथा--जड़-चेतन, सुख-दुःख, प्रेम-घुणा, अमृत- 
विष, स्वरगं-नरक (7) यौगिक बिलोम शब्द--अ) असम्बद्ध ग्राह य-त्याज्य, पालतृ- 
जंगली, मानवीय-पाशविक (आ) सम्बदध--ये चार प्रकार के होते हैं---([क) समासज 
विलोम शब्द (ख) उपसर्गज विलोम शब्द (ग) प्रत्ययज विलोम शब्द (घ) मिश्र 
विलोम शब्द ' 

.. [(क) समासज़ विलोम शब्द कुछ शब्दों/शब्दांशों (यथा--सहित, रहित, 
हीन, शून्य, नेक, खूब, खुश, सम्पन्त, बद, स्व, पर, परम आदि) के योग से 
समास प्रक्रिया दवारा बनाए जाते हैं, यथा--प्रमाणसहित-प्रमाणरहित, नीतिसम्मत- 
नीतिविरुदंध, चेतनाशुन्य-चेतनासम्पन्त, स्वदेशी-परदेशी/विदेशी, ख बसूरत-बद्सूरत, 
काननी-ग रकानूनी, नेकनीयत-बदनीयत । 

(ख) उपसगंज बिलोस शब्द विपरीतार्थंक उपसरगों (यथा--अ-, अन-, अप- 
अब-, सु-, कु-, दुर्‌-, निर्‌-, ना-, न-, वि-, बहि-, अनु-, प्रति-, उत्‌-, उप-, स-, सत्‌- 
आदि) के योग या परिवतंन से बनाए जाते हैं, यथा--जेय-अजेय, सत्य-असत्य 
उपयुक्त-अनुपयुक्त, इच्छा-अनिच्छा, चाल-कचाल, पात्र-कृपात्र, उपयोग/सदुपयोग- 
दुरुपयोग, आचार/सदाचार-दुराचार, आस्तिक-तास्तिक, राग-विराग, अनुलोम- 
प्रतिलोम । 

नकारात्मक उपसगंज कुछ विलोभ शब्द हैं--अन्त-अनन्त, अभिज्ञ-अनभिन्ञ, 
अर्थ-अनथं, आचार-अनाचार, आदर-अनादर, आदि-अनादि, आवश्यक-अनावश्यक, 
इच्छा-अनिच्छा, आस्तिक-नास्तिक, आहृत-अनाहुत, उचित-अनुचित, उदार-अनुदार, 
उपयुकत-अनुपयुकत, उपयोग-अनुपयोग /दुरुपयोग, कीति-अपकीर्ति, ज्ञान-अज्ञान, गत- 

गत, घात-प्रतिघात, चेतन-अचेतन, जय-पराजय, छली-निश्छल, जाति-विजाति 
धीर-अधीर, नित्य-अनित्य, पठित-अपठित, पक्ष-विपक्ष, पुणं-अपुर्ण, भ्रान्त-निर्नान्‍्त, 
समान अपमान, योग-वियोग, राग-विराग, यश-अपयश, लौकिक-अलौकिक, लिप्त- 


' निलिण्त, वादी-प्रतिवादी, विश्वास-अविश्वास, बेतनिक-अवैेतनिक, सत्य-असत्य 


« संतोष-असंतोष, सभ्य-असभ्य, शकन-अपशकन, शांति-अशांति, स्पष्ट-अस्पष्ट, स्वस्थ- 
- अस्वस्थ, हिसा-अहिसा । आम हर 8 
द विलोमार्थी उपसर्गंज कुछ विलोम शब्द हैं -अतिवुष्टि-अनावृष्टि, अनुकूल- 


... प्रतिकूल, अनुराग-विराग, अनुलोम-प्रंतिलोम|विलोम, अपमान-सम्मान, आयात- 


..: निर्यात, आदान-प्रदान, उत्कष॑ं-अपकर्ष, उत्कृष्ट-निकृष्ट, उन्‍नति-अवनति, उपकार- 














2 अंकल कब कल तन्‍ कप मर < «५५ “पं ५ तन मानधनकपतकलब कल सर५स5 पध्भस+तसनकध तक पम्प 5 दुज पट 2 तमाउमनतवयात लाया 





केचकनपकप>कर- तर रिबेककक। ?बापमपजालप-नन-पटन«-+तयद न धान “० 27-:: मसलन सससककतसउतमकपपत5२.- «.२2....3-- (“77 पल करन य कक ततयपसइरडच५९<१५३-०८+-२२८६ 


शब्द-्अर्थे | 53 


अपकार, कुप्रबन्ध-सुप्रबन्ध, दुराचारी-सदाचारी, निष्काम-सकाम, निरक्षर-साक्षर 
प्रवत्ति-निव॒ त्ति, परतन्त्र-स्वतन्त्र, व्यष्टि-पमष्टि, विपत्ति-सम्पत्ति, विधवा-सधवा 
विमुख-उन्मुख, संयोग-वियोग, सदाचार-दुराचार/कदाचार, सकल्प-विकल्प, सचेष्ट- 
निश्चेष्, सजीव-निर्जीब, सज्जन-दुर्जन, सरस-तीरस, सहयोगी-प्रतियोगी, सुपुत्र- 
कृपुत्र, सपूत-कपूत, सुमार्ग-कुमार्ग, साकार-निराकार, सुमति-कुमति/दुर्गति, स्वाधीन- 
पराधीन, साथंक-निरथथंक, सुकाल-अकाल/[दुकाल, सुगन्ध-दुर्गन्ध, सुकरमम-दुष्क्म, 
सुलभनदुर्लभ । 

(ग) प्रत्यवज विलोभ शब्द विपरीताथेक प्रत्ययों के योग से बनाए जाते हैं, 
यथा--क्तज्ञ-क्ृतव्न, गर-वारी, बालक-बालिका, ब्राहमण-ब्राह मणी, भगवान्‌- 
भगवती, लड़का-लड़की, श्रीमान-श्रीमती, शेर-शेरनी, (प्राणिवाची शब्दों को 
विलोमार्थी कहने की अपेक्षा विपरीत लिगी शब्द (यथा-- घोड़ा-घोड़ी, नर-तारी) 


कहना अधिक तकंसंगत है । 


(घ) मिश्र विलोस शब्द एक से अधिक शब्द शब्द-निर्माण प्रक्रिया के सहयोग 
से बनाए जाते हैं, यथा--धनहीन-धनी, बली-निबंल, सरस-रसहीन, बुद्धिमान- 
बुद्धिहीत, ससाधन-साधनशुन्य, विवेकी-विवेकशुन्य/विवेकरहित/विवेकहीन । 

हिन्दी भाषा-व्यवह्ार में कभी-कभी एक ही शब्द के एकाधिक विलोम शब्द 


प्राप्त होते हैं । इस प्रकार की बिलोमता के पाँच आधार माने जाते हैं--() सह- 


प्रयोगजन्य एकाधिक अथें--सूखीगीली/हरी-हरी-भरी/नरम/मोटी यथा--सूखी 
साड़ी-गीली साड़ी, सूखी बेल-हरी/हरी-भरी बेल, सुखी रोटी-नरम रोटी, सूखी 
लड़की-मोटी लड़की; काली कमीजू-सफ्‌ द कमीजू, काली औरत-गोरी औरत, काली 
कहाड़ी-चमकती कड़ाही' (2) पारस्परिक सम्बन्ध जन्य एकाधिक पक्ष -राजा-रानी, 
राजा-प्रजा, राजा-रंक; साला-साली, साला-सलहज; चाचा-चाची, चाचा-भतीजा 
(3) संरचनाजन्य घटक--सुपरिणाम-कुपरिणाम[दुष्परिणाम. जड़बुद्धि/मन्दबुद्धि- 
तीक्ष्णबुद्धि/प्रखर बृद्धि/क॒शाग्रबुद्धि, आदर-निरादर/|अतनादर (4) संरचना जन्य एवं 
स्वतन्त्र अस्तित्व --मूख /कमअ कल बुद्धिहीन/बुद्धू-बुद्धिमान/अ क्लमन्द|चतुर/ 


होशियार, राग/अनुराग-वि राग/द्वेष (5) पर्याय जन्य स्वतन्त अस्तित्व-- आदमी/ 


मर्द /पृरुष/नर-औरत-स्त्री/ना री/मादा, रात-रात्रि/निशा/रजनी-दिव/|दिवस/वासर/वार, 
स्वर बैक 5/बिहिएत--बहिश्त/जनन्‍नत-नरक/दोजुख/जह॒न्तुम/रसातल 
हिन्दी में शब्देतर विलोमता पद, पदबन्ध, लोकोक्ति-मुहावरा, वाक्य-स्तरं 


पर प्राप्त है, यथा--- 


पदस्तरीय विलोम--आता-जाता, गिरती-उठती, हँसता-रोता 
पदबन्धस्तरीय बिलोम-- बहुत कुछ खरीद कर-सब कछ बेच कर, हँसते 


खेलते बच्चे-रोते-बिस रते बच्चे 


बिलोम लोकोक्ति-मुहावरा--भाँख का अन्धा-गाँठ का पूरा, ऊची' दुकान- 





52 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


होते हैं, यथा--पुत्र शब्द से बने विलोमार्थी शब्द सुपुत्र-कुपुत्र शब्द । इन्हें कुछ लोग 
स्पष्ट बिलोम शब्द कहते हैं। यश-अपयश, गति-दुर्गं ति, (दुर्गंति-सद्गति), दुर्जन- 
सज्जन, सुमति-कमति आदि सम्बद्ध विलोम शब्द हैं। ये शब्द प्राय: उपसर्ग, प्रत्यय... 
लगा कर या समास द्वारा बनाए जाते हैं । ; 

शब्द-निर्माण प्रक्रिया के आधार पर हिन्दी में विलोम शब्दों के ये प्रकार हो 
सकते हैं--(!) मूल बिलोम शब्द, यथा-जड़-चेतन, सुख-दुःख, प्रेम-घृणा, अमृत- 
विष, स्वर्ग-नरक (7) यौगिक विलोम शब्द--: अ) असम्बदध ग्राह य-त्याज्य, पालतू- 
जंगली, मानवीय-पाशविक (आ) सम्बदध--ये चार प्रकार के होते हैं---(क) समासज 
विलोम शब्द (ख) उपसर्गज विलोम शब्द (ग) प्रत्ययज विलोम शब्द (घ) मिश्र 
विलोम शब्द | क् 
(क) समासज़् बिलोम शब्द कुछ शब्दों/शब्दांशों (यथा--सहित, रहित, 
हीन, शून्य, नेक, खूब, खश, सम्पन्त, बद, स्व, पर, परम आदि) के योग से 
समास प्रक्रिया दवारा बनाए जाते हैं, यथा--प्रमाणसहित-प्रमाणरहित, नीतिसस्मत- 
तीतिविरुदध, चेतनाशूुन्य-चेततासम्पन्न, स्वदेशी-परदेशी/विदेशी, ख बसूरत-बदसूरत, 
कानूनी-मं रकाननी, नेकनीयत-बदनीयत । द 

(ख) उपसगंज बिलोम शब्द विपरीतार्थंक उपसरगों (यथा--अ-, अन-, अप-, 
अब-, सु-, कु-, दुर्‌-, निर-, ना-, न-, वि-, बहि-, अनु-, प्रति-, उत्‌-, उप-, स-, सत्‌- 
आदि) के योग या परिवतेंन से बनाए जाते हैं, यथा--जेय-अजेय, सत्य-असत्य, 
उपयुक्त-अनुपयुक्‍त, इच्छा-अनिच्छा, चाल-कचाल, पात्र-कृपात्न, उपयोग/सदुपयोग- 
दुरुपयोग , आचार/सदाचार-दुराचार, आस्तिक-नास्तिक, राग-विराग, अनुलोम- 
प्रतिलोम । 

नकारात्मक उपसगंज कुछ विलोभ शब्द हैं---अन्त-अनन्त, अभिज्न-अनभिन्न, 
अर्थ-अनथे, आचार-अनाचार, आदर-अनादर, आदि-अनादि, आवश्यक-अनावश्यक 
इच्छा-अनिच्छा, आस्तिक-नास्तिक, आहुत-अनाहुत, उचित-अनुचित, उदार-अनुदार, 
उपयुक्त-अनुपयुक्‍त, उपयोग-अनुपयोग/दुरुपयोग, कीति-अपकीर्ति, ज्ञान-अज्ञान, गत- 
आगत, घात-प्रतिघात, चेतन-अचेतन, जय-पराजय, छली-निश्छल, जाति-विजाति, 
धीर-अधीर, नित्य-अनित्य, पठित-अपठित, पक्ष-विपक्ष, पूर्ण-अपूर्ण, भ्रान्त-निर्श्रान्‍्त, 
मात अपमान, योग-वियोग, राग-विराग, यश-अपयश, लौकिक-अलौकिक, लिप्त- 
निलिप्त, वादी-प्रतिवादी, विश्वास-अविश्वास, वैतनिक-अवैतनिक, सत्य-असत्य, 
संतोष-असंतोष, सभ्य-असभ्य, शक्‌न-अपशकन, शांति-अशांति, स्पष्ट-अस्पष्ट, स्वस्थ- 


है  अस्वस्थ, हिसा-अहिसा । 


विलोमार्थी उपसर्गंज कुछ बिलोम शब्द हैं -अतिवृष्टि-अनावृष्टि, अंनुकूल- 


. प्रतिकूल, अनुराग-विराग, अनुलोम-प्रतिलोम|विलोम, अपमान-सम्मान, आयात- 


निर्यात, आदान-प्रदान, उत्कर्ष-अपकर्ष, उत्कृष्ट-निकृष्ट, उन्‍्तति-अवनति, उपकार- 

















4 533 3 मम 3 223,35 २+3:5 न 


बी 3 न 


2200७ ७३३३2 26 का 











शब्दन्ञर्थं | 53 


अपकार, कुप्रबन्ध-्सुप्रबन्ध, दुराचारी-सदाचारी, निष्काम-सकाम, निरक्षर-साक्षर, 
प्रवुत्ति-निव॒त्ति, परतन्त्र-स्वतन्त्र, व्यष्टि-पमष्टि, विपत्ति-सम्पत्ति, विधवा-सधवा, 
विमुख-उन्मुख, संयोग-वियोग, सदाचार-दुराचार/|कदाचार, सकल्प-विकल्प, सचेष्ट- 
निःचेष्ट, सजीव-निर्जीब, सज्जन-दुर्जन, सरस-तीरस, सहयोगी-प्रतियोगी, सुपुत्र- 
कृपुत्र, सपूत-कपूत, सुमार्ग-कुमार्ग, साकार-निराकार, सुमति-कुमति/दुर्गंति, स्वाधीन- 
प्राधीन, साथक-निरथंक, सुकाल-अकाल[दुकाल, सुगन्ध-दुर्गन्ध, सुकरम्म-दुष्कमें, 
सुलभ-दुर्लभ । 

(ग) प्रत्ययज विलोभ शब्द विपरीतार्थंक प्रत्ययों के योग से बनाए जाते हैं, 
यथा--क्तज्ञ-कृतघ्न, नर-चारी, बालक-बालिका, ब्राहमण-ब्राह मणी, भगवान्‌- 
भगवती, लड़का-लड़की, श्रीमान्‌-श्रीमती, शेर-शेरती, (प्राणिवाची शब्दों को 
विलोमार्थी कहने की अपेक्षा विपरीत लिगी शब्द (यथा-- घोड़ा-घोड़ी, तर-तारी) 
कहना अधिक तकंसंगत है । 

(घ) मिश्र विलोस शब्द एक से अधिक शब्द शब्द-निर्माण प्रक्रिया के सहयोग 
से बनाए जाते हैं, धनहीन-धनी, बली-निबंल, सरस-रसहीन, बुद्धिमान- 
बुद्धिहीन, ससाधन-साधनशुत्य, विवेकी-विवेकशुन्य/विवेकरहित/विवेकहीन । 

हिन्दी भाषा-व्यवह्ार में कभी-कभी एक ही शब्द के एकाधिक विलोम शब्द 
प्राप्त होते हैं। इस प्रकार की बिलोमता के पाँच आधार माने जाते हैं--() सह- 
प्रयोगजन्य एकाधिक अर्थं--सुखीगीली/हरी-“हरी-भरी/नरम/मोटी यथा--सूुखी 





साड़ी-गीली साड़ी, सूखी बेल-हरी/(हरी-भरी बेल, सुखी रोटी-तरम रोटी, सुखी 


लड़की-मोटी लड़की; काली कमीजू-सफ द कमीजू, काली औरत-गोरी औरत, काली 


कहाड़ी-चमकती कड़ाही (2) पारस्परिक सम्बन्ध जन्य एकाधिक पक्ष -- राजा-रानी, 


राजा-प्रजा, राजा-रंक; साला-साली, साला-सलहज; चाचा-चाची, चाचा-भतीजा 
(3) संरचनाजन्य घटक--सुपरिणाम-कुपरिणाम[दुष्परिणाम, जड़बुद्धि/भन्दबुद्धि- 
तीक्ष्णबुद्धि/प्रखर बृुद्धि/कुशाग्रबुद्धि, आदर-निरादर/अनादर (4) संरचना जन्य एवं 
स्वतन्त्र अस्तित्व --मुख |कमअ क्ल_बुद्धिहीन/बुद्धू-बुद्धिमान/अ क्लमन्द[चितुर| 
होशियार, राग/भनुराग-विराग/द्वेष (5) पर्याय जन्य स्वतन्त अस्तित्व-- आदमी/ 
मर्द /प्रुष/तर-औरत-स्त्री/ना री/मादा, रात-रात्रि/निशा/रजनी-दिन/|दिवस/वासर/वार 


.. स्वरगंबैक ठ5/बिहिश्त--बहिश्त/जन्नतत-नरक/दोजुख/जहन्नुम/रसातल 


हिन्दी में शब्देतर विलोमता पद, पदबन्ध, लोकोक्ति-मुहावरा, वाक्य-स्तरं 
पर प्राप्त है, यथा--- द 
... पदस्तरीय विलोम--आता-जाता, गिरती-उठती, हँसता-रोता 
.. पदबन्धस्तरीय बिलोम-- बहुत कुछ खरीद कर-सब कुछ बेच कर, हँसते 


खेलते बच्चे-रोते-बिसरते बच्चे 


बविलोम लोकोक्ति-मुहावरा--भाँख का अन्धा-गाँठ का पूरा, ऊँची दुकान- 














54 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


फीका पकवान, आँखों, का तारा-आँख का काँटा, फलों की सेज-काँटों की सेज, फल- 
सी कोमल-वज्ञ-सी कठोर 

बिलोस वाक्य--क्षणे रुष्ट क्षणे तुष्ट रुष्ठं तुष्टं क्षणे-क्षणे (संस्कृत-उद्धरण)। 
तू दयाल दीन हों, तू दानि हों भिखारी । हों प्रसिद्ध पातकी', तू पाप पु जहारी ॥ 
बली पुरुष को निरबंल नारी । 


5. श्र तसम भिन्‍्तार्थी शब्द सुतने तथा वर्तनी की दृष्टि से लगभग समान _ 
ध्वनि/वर्णवाले भिन्‍नार्थी शब्द होते हैं । इन्हें ईषघत श्र तसम/|ईषत्‌ वर्तनीसम शब्द भी 


कहा जाता है! ऐसे कछ शब्दों की सूची निम्नलिखित 

अंतर-अनंतर, अनुसार-अनुस्वार, आचार-आचायय, उपस्थित-उपस्थिति 
उधार-उद्धार, ओर-और, ओटना-औटना, करोड़-क्रोड़, किला-कीला, कोड़ी-कौड़ी- 
कोढ़ी, कथा-कत्था, कर्म-क्रम, कुमार-कुम्हार, खोलना-खौलना, गह-ग्रह, गड़ता- 
गढ़ता, गृ थना-गू धता, चमं-चरम', चिता-चीता, चिर-चीर-चील, जलाता-जिलाना, 
जलनानझलना-छलना, जूठा-झूठा, डीठ-ढीठ, ढलाई-डलाई-ढिलाई, डॉँट-डाट, दशा- 
दिशा, दीप-दुवीप-द्विप, नहर-ताहर, निर्धत-निधन, नीर-तीड़, निर्माण-निर्वाण, 
परदेश-प्रदेश, परवाह-प्रवाह, पाव-पाँव, पटु-पट्टू, परिणाम-प्रमाण-परिमाण-प्रणाम, 


पग्न प्ति-प्राप्त, बताना-बिताना, बलि-बली-बल्ली, बहाना-भाना, बाद-वदा, बाल-बॉल.. 
भवन-भुवन, मेला-मेला, मुख-मुख्य, योगेश्वर-योगीश्वर, लक्ष-लक्ष्य, लपट-लंपट- 


लिपट, लगन-लग्न, लोटना-लौटना, वाद-बादय, शुल्क-शुक्ल, समिति-सम्मति-सम्मत, 
सास-साँस, सुखी-सूखी, सुगन्ध-सौगन्ध, सुर-सूर-शुर, हट-हुठ-हाट, हय-हिय, हुंस-हँस, 


 हाल-हॉल । 


काफी-कॉफी, राज-राज, बाअन्बाजु, जरान्ज्रा, खेर-खौर, बाग-बाग, 
फन-फन । ५ 

.. प्रारम्भक शब्द---कुछ लोग वाक्य के आरम्भ में कुछ ऐसे शब्दों (एक या 
एकाधिक शब्द) का प्रयोग करते हैं जिन का अर्थ की दष्टि से वाक्य के कथ्य से कोई 
प्रत्यक्ष संबंध नहीं होता। इन शब्दों के प्रयोग का उद्देश्य वक्ता दुवारा वाक्य- 
आरम्भ में अभिव्यक्ति के समय कुछ सहायता प्राप्त करता होता है। ऐसे शब्दों को 


. धारसमरूाभधक शब्द (गरा0ठ.र/09[श?०स्‍फांगक्षए एण०05) कहा जाता है। हिन्दी में 
प्रचलित कुछ प्रारम्भक शब्द हैं-- अच्छा; अच्छा देखो; ऐसा है कि; तो; फिर; बात 


यह है कि; सुना; हाँ तो । इन का चयन व्यक्तिगत रुचि और आदत पर निर्भर है। 


प्रारम्भक शब्द तीन्र गति से चलनेवाले विचार क्रम तथा धीमी गति से . 

.. चलनेवाली अभिव्यक्ति के मध्य की दूरी को कम करने में सहायता देते हैं । प्रारम्भक 

.. शब्द तकिया कलाम से भिन्‍न होते हैं। तकिया कलाम गाली, प्रार्थना या वक्‍ता की... 

:.. रुचि के किसी शब्द/शब्द-समूह के रूप में वाक्य के अन्तर्गत वाक्य-पूर्ति के लिए आते... 
:... हैं। ये प्रयुक्त सन्दर्भ में निर्थंक होते हैं। कभी-कभी कुछ प्रारम्भक शब्द (यथा-- _ 





28 88 अब 


पररकसला टन कट भा: ८८-२7 7 दर टलपइलपिताा+ ..- --. -- +-- --.:>काक देश त-त5पथन्वमकमेक बसपा 2कर लि तिजना। थ५ पिकनान “टन विलय पसन्द: 


क्काड्ल्कनर 





। 
। 











शब्द-अर्थ | 55 


अच्छा, तो फिर) तकिया कलाम के रूप में आ जाते हैं। हिन्दी में प्रचलित कछ 


तकिया कलाम हैं--- क्‍ द 

साला/साली, ससुर/ससुरा/ससुरी, कम्ब रत, हाँ, न, कसम से, मेरी कसम 
क्या कहने, क्‍या, हैं/ऐं, मतलब, यार आदि। हिन्दी फिल्मों में तरह-तरह के तकिया 
कलामों का प्रयोग होता रहता है । | 

तकिया कलाम की भाँति आश्रय शब्द-प्रयोग की प्रवत्ति बच्चों में अधिक 
ब्रौढ़ों में कम पाई जाती है । आश्रय शब्द का प्रयोग ऐसे अवसर पर होता है जहाँ 
वक्‍ता का मस्तिष्क सही शब्द की खोज या सही वाक्य-रचना के निर्णय में तल्लीन 
होता है | कुछ आश्रय शब्द/शब्द-समूह हैं--सच्ची; हाँ तो, मैं क्या कह रहा था; हाँ, 


क्‍ तो मैं कह रहा था; मैं कह रहा था न; वह हमारे घर आई, आई थी न ? आदि । 








279. 
| कप कक 


शब्द-रचना 


विचार/चिन्तन करने ओर अभिव्यक्ति की न्यूनतम इकाई वाक्य है। वाक्य- 
रचना के मूलाधार शब्द हैं। मनुष्य की प्रयत्त-लाघव की प्रवृत्ति भाषा-व्यवहार में 
अनेक स्थलों पर देखी जा सकती है। कम शब्दों का प्रयोग कर अधिक अथंबोध के 
लिए व्यक्ति शब्द रचना के विभिन्‍न प्रकारों का सदपयोग करना चाहता है। शब्द- 
रचना की यह प्रक्रिया उपसगगं-योग, प्रत्ययन्योग, सन्धि, समास, पनर॒क्ति और ऋण 
अनवाद के रूप में हिन्दी भाषा में प्रचलित है । 


शब्द रचना की दृष्टि से हिन्दी भाषा का समस्त शब्द समृंह दो प्रकार का 
है--. रूढ़ शब्द 2. यौगिक शब्द । 


!. रूढ़ शब्द वे मूल शब्द हैं जिन के साथ्थंक खंड नहीं हो सकते, यथा-- 
आँख, मेज, घोड़ा । रूढ़ शब्दों को अयौगिक शब्द भी कह सकते हैं। इन शब्दों को 
सरल शहद भो कहा जाता है। रूढ़ शब्दों में समहवाची शब्द विशेष प्रकार के होते 
हैं। ये शब्द सजातीय कुछ वस्तुओं के समूह के द्योतक होते हैं. यथा--क्राफिला (ऊरटों 
का), कुज (लताओं का), गिरोह (डाकुओं/बदमाशों/लुटेरों का), जत्था (स्वयंसेवकों 
का), झुड (पक्षियों का), टीम (खिलाड़ियों की), दुकड़ी (सिपाहियों/पुलिससिता . 
की), ढेर (अनाज/रुपये-पैसों/कपड़ों/मिट्टी/किताबों/लकड़ियों आदि का), दल 
टिड्डियों/चिड़ियों/यात्रियों/छात्र-छात्राओं आदि का), बेड़ा (जहाजों/नावों का), 
भीड़ (मनुष्यों की), मंडली (गायकों की), रेबड़ (भेड़-बकरियों का), श्वु खला 
(पवेतों की), संघ (राज्यों/राष्ट्रों का) द हक 
2. योगिक शब्द वे योगज शब्द हैं जो रूढ़ शब्दों तथा सार्थक शब्द खडों। 

. शब्दांशों/शब्दों के योग से निर्मित होते हैं, यथा--झटपट (झट--पट), निगुण 
_(नि:-+गुण), राजपुरुष (राज < राजा-+पुरुष) | इन शब्दों को सरलेतर शब्द भी 

.. कहा जाता है। सरलेतर शब्दों को तीन वर्गों में बाँठा जा सकता है-- 

. (क) सरलाभास शब्द वे शब्द हैँ जिन में एक स्वतन्त्र अंश और एक या एकाधिक 

गा «56 








रा 
7 
रू 








गा :: 7०: कमल िलम अइ काकालस+५ 9-5 5० >* १०८६7: न जरा सरान तब रपसत ५9 कर उाजर३००८ ८८०० प्तानस< 





शब्द-रचना | 57 


बदध रूप हो सकते हैं (ख) संयुक्त शब्द वे शब्द हैं जिन में एक से अधिक स्वतन्त्र 
रूप होते हैं | संयुक्त शब्द के स्वतन्त्र रू अलग-अलग अर्थों के दयोतक न हो कर 
एक समन्वित अथे के दयोतक होते हैं । (ग) सरलाभास और संयुक्त शब्दों से निष्पन्न 
शब्दों को सिश्र शब्द कहा जा सकता है । मिश्र शब्द रूपसिद्ध ([76०(७0), व्युत्पस्त 
(0०7ए%०१) होते हैं । 

शब्द रचना की दृष्टि से योगिक शब्द होते हुए भी जो शब्द किसी विशिष्ट 
या रुढ़ अथ्थ में व्यवहृत होते हैं, उन्हें योगरूढ़ शब्द कहा जाता है, यथा--पंकज 
(पंकर-न-जच-कीचड़ में जन्मा हुआ) का रूढ़|प्रचलित अथथं है 'कमल' | इसी प्रकार 
जलधर (जल--धर+ पानी को धारण करनेवाला) का रुढ़/प्रचलित अथ॑ है 
बादल' | 

योगरूढ़ शब्दों का वास्तविक आधार अर्थ है, अतः शब्द रचना में ऐसे शब्दों 
की चर्चा नहीं की जाती। रूढ़ शब्दों के साथेक खण्ड न होने के कारण शब्द 
रचना/शब्द निर्माण प्रक्रिया में रूढ़ शब्दों की भी चर्चा नहीं की जाती । यौगिक शब्द 
निर्माण की पाँच विधियाँ/प्रक्रियाएँ प्रचलित हैं---. सन्धि प्रक्रिया 2. समास प्रक्रिया 
3, प्रत्ययन प्रक्रिया 4. पुनरुकित प्रक्रिया । आगत शब्दानुवाद प्रक्रिया में इन चारों 
प्रक्रियाओं की छाया मिलती है इसलिए इसे 5. मिश्च प्रक्रिया कहा जा सकता है। 
इन पाँचों प्रक्रियाओं पर अलग-अलग विचार किया जाएगा । 

. सन्धि पर 

सन्धि प्रक्रिया में शब्द सीमा के अन्तगंत (पूर्व पद के अन्त में, उत्तर पद के 
आरम्भ में) दो ध्वनियों के पास-पास आने के कारण जो विकार-परिवतंन होते हैं 
उन पर विचार किया जाता है, यथा--नर--इन्द्र नरेन्द्र; सत्‌ृ+जन सज्जन; 
दुः-लभ >> दुलभ । सन्धि में योग होनेवाली दोनों ध्वनियाँ सामान्यतः तीसरी ध्वनि 
के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं । 

द्रत उच्चारण के समय जब दो शब्दों या शब्दांशों की दो ध्वनियाँ अत्यन्त 
पास-पास आ जाती हैं, तब उन्त में कुछ विकार/परिवतेन आ जाता है। यह विकार 
या परिवर्तन ही सन्धि कहलाता है, यथा--हिमा--आलय <- हिमालय; तत्‌-+-शरीर + 
तच्छरी र । 'संयुकताक्ष र' में भी दो व्यंजन ध्वनियाँ पास-पास आती हैं किन्तु उन में 
कोई विकार नहीं होता, यथा--उत्पत्ति; शुक्ल । यहाँ केवल व्यंजन ध्वनियों में ही 


. संयोग होता है। सन्धि में पास-पास आनेवाली ध्वनियों में से कभी एक में, कभी' 
दोनों में विक्रार/परिवर्तत होता है और कभी उन दोनों के स्थान पर तीसरी ही 


ध्वनि आ जाती है । इस प्रकार एक शब्द का दूसरे शब्द या रूप के साथ संयोग होने 
प्र उन दोनों शब्दों में या किसी एक शब्द में होनेवाला स्वनिक परिवर्तन सन्धि * 
कहलाता है । 





58 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


संस्कृत से हिन्दी में आगत उन्हीं संधिज शब्दों में सन्धि मानी जा सकती है 


जो शब्द संधि होने से एवं या पश्चात्‌ भी हिन्दी में भी साथेक हों; हिन्दी के लिए 
साथेक रूप न होने के कारण 'नयन, भवन्त, नायक, पावक, निष्ठर' जैसे शब्दों के 


सन्धि-विच्छेद का हिन्दी में कोई ओचित्य नहीं है। संस्कृत से आगत शब्दों में 


प्राप्त सन्धि नियम हिन्दी या उद्द के शब्दों पर लागू नहीं होते । वास्तव में 'सन्धि' 
का सम्बन्ध मूलतः संस्कृत भाषा के शब्दों से है। हिन्दी में प्राय: लिखित संस्कृत 
भाषा के संधिज शब्दों का प्रयोग होता है, फिर भी कभी-कभी नये संधिज शब्द 
बनाने के लिए कुछ सामान्य नियमों का जान . लेना हितकर ही रहेगा । परम्परागत 


हिन्दी व्याकरणों में जित तीन प्रकार की सन्धियों की चर्चा है, वे वास्तव में संस्कृत 


की संधियाँ हैं हिन्दी की नहीं । हिन्दी में भानूदय (भानु--उदय), सुबन्त (सुप्‌-+- 
अन्त), निरिच्छा (निः--इच्छा) आदि शब्द संस्कृत भाषा से संधिज शब्द के रूप में 


ग्रहण कर लिए गए हैं न कि उन के पूर्व पद और उत्तर पद में हिन्दी ने कोई सन्धि 


प्रक्रिय लागू की हैं। हिन्दी की प्रकृति विश्लेषणात्मक है, अतः हिन्दी में अपने 
संधिज शब्दों का प्रायः अभाव है । 


संस्कृत-संधियाँ तीन प्रकार की हैं--). स्वर संधि 2. व्यंजन संधि 


3. बिसर्ग संधि | 
: स्वर सन्धियाँ 
अक्षरों या शब्दों के दो स्वर अत्यन्त पास-पास आने पर उन में होनेवाला 
विकार स्वर संधि (अच्‌ संधि) कहा जाता है। स्वर संधियाँ पाँच प्रकार की' होती 
हैं-- (अ) दीर्घ (आ) गुण (इ) वृद्धि (ई) यण्‌ (छ) अयादि । 
(अ) दीघं स्वर संधि (आ ई ऊ ऋ)--दों सजातीय स्वर पास-पास आने 
पर सजातीय दीघे स्वर में परिवर्तित हो जाते हैं, यथा--- 


अन-आत्आ परमर्न-अर्थ रपरमार्थ, (वेदान्त, भावाथे, दीपावलि 
3  शस्त्रासत्न्‍रन, रामावतार, स्वार्थी, 


अन्यान्य, देवाचंन, सरलाथ, सूर्यास्त, 
सत्यार्थी, धर्मा्थें, पुरुषार्थ, चराचर,. 


वीरांगना) 


अन--आा ततआ पुस्तक-+आलय पुस्तकालय, (देवालय, भोजनालय, 
| हे .. कुशासन, नवागत, हिमालय, धर्मात्मा, 


शिवालय, सत्याग्रह) 


.... आनु-अननआ विद्या-अभ्यास ८ विद्याध्यास, (शिक्षास्यास, परीक्षार्थी, 
शिक्षार्थी, विद्यार्थी, . दिशान्तर, 


सीमान्‍्त, दीक्षान्त, मायाधीन) 





निकल के ०-8 उपमा2भ५ाथनसपकिका- पद मी पथ _पाराश८नरनव्कपशकलप८++ व वर सपा वमउत जीती धर कार दिवस तल जील कट तप कि 4 तीर कप विवेक करी कप 











शब्द-रचना | 59 


. आ-+आरुआ महा--आशय- महाशय, (महानन्द, दयानन्द, रामाधार, 
। विद्यालय, वार्तालाप,  मायाचरण, 
। विद्यानन्द) . 

। इ--इ चर ई कवि-|- इन्द्र > कवीन्द्र, (मुनीन्द्र, रवीन्द्र, गिरीन्द्र, अतीव, 
| . अभीष्ट) द 
। इ-ई-5ई हरि-ईश  "5हरीश, (सुनीश, कवीश्वर, गिरीश, 
। क्‍ अधीश्वर, मुनीश्वर) 

॥॒ . ई-.-इू नई मही --इनद्र >-महीन्‍द्र, (शचीन्दु, देवीच्छा, लक्ष्मीच्छा, 
2 तारीन्‍्दु) क्‍ 

। ई-ईचाई. नदी--ईश "नदीश, (महीश, रजनीश, श्रीश,, 
| नारीश्वर) 

* उर्कठत्ऊ भानु-+-उदय “*भानूदय, (विधूदय, गुरूपदेश) 

। उन्‍नाऊ जतऊ  सिन्धु--अर्भि ब्ूसिन्धूर्मि, (लघूृमि, धातृष्मा) 

। ऊर्नड >ऊ  वधू--उत्सव ८ वधूत्सव, (स्वयम्भ्दय; चमृत्तम) 

; 'ऊनै-ऊकचर भू+ऊष्व॑ >>भृध्वे, (भूजित, श्र धवे) 


ऋणौ-कऋ -ऋ /ऋ पित्‌ +-ऋण -- पितृ ण/पितृण, (मात्‌ ण/मात्‌ ण) 
; दीर्घे स्‍्व॒र संधि के नियमों को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है-- 
|. अभान-अजगा >आ; इई + इई >> ई; छ/ऊ--उ/|ऊ>ऊ; ऋ--ऋ >> ऋ (ऋ-- ऋ 





| संधिज शब्दों का हिन्दी में बहुत कम प्रयोग होता है) 

। (आ) गृण स्वर संधि (ए ओ अर्‌)--अ/आ के बाद इई होने पर दोनों 
।. मिल कर ए; उ/|ऊ होने पर दोनों मिल कर ओ'; ऋ होने पर दोनों मिल कर 

। . “अर्‌' हो जाते हैं, यथा-- क्‍ 

। +इईचःए देव-+इन्द्र ज-देवेन्द्र, (नरेन्द्र, स्वेच्छा, पुष्पेन्द्र, सत्येन्द्र, 

। द सुरेन्द्र, ईश्वरेच्छा) 

| अ--ई>ए सुर--ईश सुरेश, (परमेश्वर, नरेश, उपेक्षा, तपेश, गणेश 


सोमेश) 

आझ--ई६$७ए महा +इन्द्र 5 महेन्द्र, (रमेन्द्र) 
आ--ईन"-ए रमा+ईश “रमेश, (महेश, राकेश, उमेश) द 
अ--उ >ओ हित--छउपदेश - हितोपदेश, (नरोचित, पुरुषोत्तम, मानवोचित 

हा आत्मोत्सगं, चन्द्रोदय, सूर्योदय, वीरोचित) 
अन-ऊचत्ओ जल-+-ऊमि ८ जलोमि, (नवोढ़ा, सागरोभि, समुद्रोमि) 
आ--3>-भो महा-- उत्सव महोत्सव, (महोदर, गंगोदक, महोदधि 

..._  महोष्ण ) 

आन॑-ऊचन्जी गंगा--ऊमि >गंगोमि, (महोर्जा, दयोभि) 





सइामाउसप> पान _+ पलक मा८ भा रभल८ असम म रियल नकानक लत. 











60 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अ--ऋज-अर सप्त-+ऋषि -सप्तर्षि, (हिमतु , देवषि, राजधि) 

आ+-+-ऋ ८" अर महा -+-ऋषि -- महर्षि 

(अपवाद--अक्ष-+-अहिणी -- अक्षौहिणी;  प्र-+-ऊढ्प्रौढ; प्र--ऊढा 
प्रौढा) क्‍ द द 

गुण स्वर सन्धि के नियमों को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है-- 
अ|आा-+-इ/ई >ए; बआन-उ|ऊ>ओ; अ/भआा--ऋ >> अर 

(इ) वृद्धि स्वर संधि (ऐ औ)-- अ|भा के बाद ए( होने पर दोनों मित्र 
कर ऐ?; ओ/|ओ होने पर दोनों मिल कर “औ' हो जाते हैं, यथा-- 


अ-+-ए >ऐ एक-एक -5एकक, (मतकता) 
अ--ऐ>ऐ मत+ऐक्य ज>>मतैकक्‍्य 
आ-+-ए-"-ऐ सदा+ए नसदेव, (तथव) 
आन+ऐकज-ऐ महा-+ऐश्वर्य > महैश्वर्य 
अन--भओो 5" औ वन--अआौषधिज-वरौषधि, (जलौघ, सुन्दरोदन, दस्तौष्ठय 
दन्तोष्ठय भी, कंठोष्ठय/कंठोष्ठय भी) 
अर---औ-- औ परम-+- ओदाय -- ८ रमौदाय (परमौषध, देवौदार्य) 
आ-+ ओ 5 औओ महान-ओज "5 महोज, (महौषध) 
आ--औ -औ महा औदाय --महौदाय, (महौत्सुक्य) 
बुद्धि स्वर संधि के नियमों को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता 
है-- अ/आ-+ए/[ऐ >ऐ-००अए; अ|भा +-भो|औ >> भौट- अओ 
(ई) यण्‌ स्वर संधि (यू व्‌ र)--इ/|ई/उ/उ|ऋ के बाद कोई विजातीय स्वर 
होने पर इ, ई के स्थान पर य: उ, ऊ के स्थान पर व”: ऋ के स्थान पर 'र' हो 
जाता है, यथा-- 
एअन्न्य यदि--अपि ल्ययद्ूयपरि, (अत्यल्प) 
इ--आनन्‍्या इति--भादि "इत्यादि, (अत्याचार) 
इ+उन्न्यू प्रति + उपकार >प्रत्युपकार, (अभ्युदय, अत्युत्तम) 
इकछउनल्यू नि#+ऊन . नून्‍्यून ः 
इन-ए नये प्रति+-एक उैप्रत्येक 
इ--ऐ >ये अति+ऐश्वयं नज्अत्येश्वर्य, (जात्यैक्य) 
इ--ओ > यो दशधि--ओदन+-दध्योदन 
इ--औ 5 यो मति-+-औदाय॑ +- मत्यौदाय॑ 
ईन--अ जय गोपी --अर्थ गोप्यथे, (नद्यपंण, देव्यपंण) 
.. ईनआतन्यया देवीन-आगम्-देव्यागम, (नद्यामुख, नद्यागमन) 
. ईन-उ यु सखी--उकत _सस्युक्त, (स्त्युपयोगी) 





शब्द-रचना | 6] 


उ--अ <+ व अनुन-अय 5 अन्वय, (स्वल्प) 
उर-आ 5 वा सु+आगत उ_“ स्वागत, (सुगुवर्क्विति) 
उ--इ ज5 वि अनु+इति ऋ जअन्विति 





उन-ई वी अनुर्न-ईक्षण 5 अन्वीक्षण 
उरन-ए 5 वे अनु+एषण - अन्वेषण 
उ-+-ऐ “5 वे बहु+ऐश्वय -> बह वेश्वये 
उ-+ओ 5 वो लघु--ओष्ठ 5 लघ्वोष्ठ 


उ--भौ रू वौ गुरु+-ओदाये >> गुर्वोंदार्य 

ऊर--अ ज> व सरयू--अम्बु 55 सरस्वम्बु 

ऊर+-आ 5 वा वधू--आगम 5 वध्वागम क्‍ 

। ऋषण-अ ल्‍ र पित॒--अनुमति 5 पित्नतुमति, (मात्र्थं, धात्र श) 

| ऋ२-/आ - रा मातृ+-आनन्द - मात्रानन्द, (पित्राज्ञा) 

।  ऋष--इ ८5 रि मातु-इच्छा रु मात्रिव्छा 

[ यण्‌ स्वर संधि के नियमों को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है-- 
| ई-इतर स्वर>'यूं' आगम ; उ|ऊर-+इतर स्वर>वर आगम; ऋ--इतर 
..... स्व॒र:> र! आगम । द 


ता कु >सललबनाभतक लक ुसनललसपन्‍नसलथतरसन्‍+ «न कभक+» कमल .7 7 पट थ 


(उ) अयादि स्वर सन्धि (भय आय अब्‌ आव्‌)--ए, ऐ, ओ, औ के बाद 
|... कोई विजातीय स्वर होने पर ए के स्थान पर “अय्‌', ऐ के स्थान पर “आय, ओ के 
_ स्थान पर 'भव्‌, औ के स्थान पर 'आव्‌' हो जाता है, यथा-- 
ए--अ ऋ। अय ने+-अन ल्‍ नयनत 
ऐ---अ -5 आय नै-+-अक 55 नायक, (गायक) 
ओ--अ अब पो--अन 5 पवन, (भवन) 
ओ--४ +5 अवबि पो-+इत् 5 पवित्र 
औ--अ -5 आवब पौ-+-अक 5 पावक 
 औ--इ ल्‍ आबि भौ--इनी जन भाविनी 
औ--उ - आवब भौन-उक + भावक 
अयादि स्वर सन्धि के नियमों को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता 
--एऐ--इतर स्वर >> 'अयू, आय आगम; ओ/ओऔ-- अव्‌ भाव! आगम । 
(संस्कत में अक्षरान्त के 'ए, ओ' के बाद अ' होने पर अ' का लोप कर के 
अवग्रहलुप्ताकार चिह न ($) का भी प्रयोग हो सकता है, यथा--ते--अपि 5 ते$पि 
- तै+अकत् >-तेहत्र; मन:--अनुकूल >मनो -+-अनुकल < मनोइतुकूल; मनो न अभिलाषा 
_ >> मनो5भिलाषा) शा 


हिन्दी के शब्दों में अवग्नह/लुप्ताकार चिह न का प्रयोग नहीं होता । 
]] । 





62 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


व्यंजन संधियाँ क्‍ 
अक्षरान्त या शब्दान्त के व्यंजन के बाद आनेवाले स्वर या व्यंजन के कारण 
व्यंजन में होनेवाला विकार/परिवरतेन व्यंजन सन्धि कहा जाता है। 
संस्कृत भाषा के शब्दों में व्यंजन संधियाँ कई प्रकार की होती हैं। यहाँ उन 
के कुछ नियम लिखे जा रहे हैं । 
() क चु ट त्‌ प्‌ के बाद किसी स्वर यथा वर्गीय तीसरे या चोथे अक्षर या 
रल वह के आने पर क्‌ चुद त प्‌ के स्थाव पर क्रमशः ग ज्‌ ड द्‌ व हो जाता 
है, यधा--- 
दिक्‌--गज 5 दिग्गज, वाक्‌+दत्त > वाग्दत्त, वाक्‌--ईश>”-वागीश, 
वाक्‌-दान >-वारदान, वाक्‌--इन्द्रिय>-वागिन्द्रिय,, दिक्‌--अम्बर 5 दिगम्बर, 
दिक्‌ +दर्शन >> दिग्दशन, धिक्‌ -याचना +5धिग्याचना, वाक्‌ +-विलास - वाग्विलास | 
अच्‌ --भादि 5 भजादि, अच्‌ --अन्त > अजन्त । 
घट्‌-आनन > षडानन, षट्‌--दर्शन">घड़दशंत, षट्‌--रिपु -- षडरिपु । 
भगवत्‌ --गीता > भगवद्गीता, तत्‌ --अनुसार न तदनुसार, सत्‌ -+आनन्‍द 
सदानन्द, जगत्‌--इन्द्र - जगदिन्द्र, सत्‌--उत्तर >सदुत्तर, सत्‌--भावना >>सद्‌- 
भावता, महत्‌ +-औषध -- महदोषध, सत्‌--वंश --सदवंश, पशुवत्‌ --गामी >>पशु 
वद्गामी, तत्‌--रूप"-तद्रूप, महत्‌ --धनुष-- महद्धनुष, उत्‌--गम -- उद्गम, 
सत्‌+धर्म "5 सद्धम, उत्‌ -+-अय 5 उदय, सत--आचार><सदाचार, ज॑ंगत्‌-+-भम्बा 
>-जगदम्बा, जगत्‌--ईश -- जगदीश, महत्‌--ओज -- मह॒दोज, उत्‌ -- योग ८5 उद्योग 
भविष्यत्‌ ---वाणी >> भविष्यद्वाणी, उत्‌--घाठन >- उद्घाटन, सत्‌ --उपदेश +-सदु 
पदेश, जगत्‌--बन्ध -- जगद्बन्ध, भगवत--भक्ति -- भगवदभक्िति । 
अपू-+ज >> अब्ज, अप्‌--भूति -- अब्भूति, सुप्‌ अन्त -« सुबन्त । द 
इस संधि के नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है--अघोष 
स्पर्श-घोष (--नासिक्य) > घोष स्पर्श क्‍ द 
. (2) क्‌ चू ट्‌ त्‌ प्‌ के बाद किसी नासिक्य व्यंजन के आमने पर क् च्‌ टू तू 
प्‌ के स्थान पर क्रमशः छः ज्य ण्‌ न म्‌ हो जाता है, यथा--- 
वाक्‌ +मय >- वाह मय, प्राक्‌ मुख -- प्राड मुख 
षट्‌--मुख -- षण्मुख, घट --मास -- षण्मास द द 
क्‍ उत्‌-+-माद -- उन्‍्माद, उत्‌--मत्त--उन्मत्त, सत्‌-मार्ग --सन्‍्माग, जगत्‌ 
पताथज"-> जगन्नाथ, उत्‌ ---नयन ८ उन्नयन । द 
अप्‌ “मय +-अम्मय 
इस संधि के नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार रख सकते हैं--अघोष स्पशे-- 
. नासिक्य >तद॒वर्गीय नासिक्य द 


कल वा बाद, जु|भ ट/5, दइ/ढ, ल हो तो तृ/द के स्थान पर 

















शब्द-रचना | 63 


उत्‌--चारण 5- उच्चारण, शरत्‌--चरद्र -- शरच्चन्द्र,, सत्‌--घरित्रन्‍्रर 
सच्चरित्र, संत+-चिदाननन्‍्द -- सच्चिदानन्द, विद्युत्‌ --छटा --विद्युच्छटा, उत्‌-- 
छिन्‍त >। उच्छिन्त, महत्‌ +-छाया >> मह॒च्छाया, उत्-+-छेद - उच्छेद, महत्‌ --छाया 
>-महच्छाया, जगत्‌ --छाया --> जगच्छाया, सत्‌ --जन"-सज्जन, उत्‌ + ज्वल ८८ 
उज्ज्वल, सत्‌+जाति >सज्जाति, विद्युत्‌|-जाल - विद्युज्जाल, तत्‌--जय+-- 
तज्जय 
बहत्‌-+ टीका नन्बृहटूटीका, तत्‌--टीका 5 तट्टीका, उत्‌ +- डयन-- उद्डडयन 
बहत्‌ +डमरू-+ बृहड्डमरू 

उत-+-लास * उल्लास, उत्‌--लेख - उल्लेख, तत्‌-- लीन « तललीन 

इस संधि के नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार रख सकते हैं--त्‌/द--च/छ >> 
च्च, तूद्‌--ज|झ >ज्ज, तू/द्‌-+-टठ>> टूट, त्‌द््‌--ड/|ढ>ड्ड, त्‌/द्‌ू-ल->ल्ल। 

(4) तद के बाद श्‌ होने पर तृ/द के स्थान पर च; श्‌ के स्थान पर छ 
हो जाता है; त/द्‌ के बाद ह होने पर तू/द्‌ के स्थान पर दूं; ह्‌ के स्थान पर ध्‌ हो 
जाता है, यथा-- 

सत--शास्त्र"-सच्छास्त्र, उत्+श्वास -- उच्छवास, तत्‌-+-शरण -- तच्छरण 
उत्‌--शिष्ट -- उच्छिष्ट, तत्‌--शरीर “ तच्छरीर, हनुमत्‌ +शास्त्री -- हनुमच्छात्री, 
 उत्‌+-श्रखल 55 उच्छ खल, उत्‌--हार -- उद्धार, उत्‌--हित--उद्धित, तत्‌+हिंत 
ञनतंद्धित, उत्‌ +हत >5 उद्धत, उत्‌ --ह॒त > उद्धृत, उत्‌्--हरण -++ उद्धरण 

इस संधि के नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार रख सकते हैं--त्‌ +श >> छ; 
तृनह>द्ध 

(5) 'द” के पश्चात्‌ अघोष व्यंजन आने पर द के स्थान पर त्‌ हो जाता 
है, यथा -- 

सद-+-कारज"-सत्कार, उद--साहज"-उत्साह, तद्‌-+पर "तत्पर, क्षृद्‌ -- 
पिपासा > क्ष॒त्पिपासा 

नियम-सूतर--द्‌ +-अघोष व्यंजन >> त्‌ 

(6) संधीय पदों के दृवितीयांश के आरम्भ में 'छ होने पर संधिज शब्द में 
च्‌ का आगम हो जाता है, यथा--- क्‍ 

अव--छेद -- अवच्छेद, वि-|-छेंद -- विच्छेद, व॒क्ष--छाया + वृक्षच्छाया, परि 
+छेंद -परिच्छेद, अनु --छेद ++ अनुच्छेद, छत्र-छाया-->छत्रच्छाया, श्री +- छाया <- 
श्रीच्छाया, आ--- छादन -<5 आच्छादन 

नियम-सूत्रन--स्वर- छ >> 'चू आगम 
द (7) म्‌? के बाद वर्गीय व्यंजन होने पर म्‌ के स्थान पर तद्॒वर्गीय नासिक्य' 
व्यंजन. हो जाता है; अन्तस्थ या ऊष्म व्यंजन होने पर अनुस्वार हो जाता है; स्वर 
होने पर 'म्‌ ही रहता है, यथा--- 








62 [ हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


व्यंजन संधियाँ क्‍ 

कक्षरान्त या शब्दान्त के व्यंजन के बाद आनेवाले स्वर या व्यंजन के कारण 
व्यंजन में होनेवाला विकार|परिवरतन व्यंजन सन्धि कहा जाता है। 

संस्कृत भाषा के शब्दों में व्यंजन संधियाँ कई प्रकार की होती हैं। यहाँ उन 
के कुछ नियम लिखे जा रहे हैं । 

(!) क्‌ चु ट्‌ त्‌ प्‌ के बाद किसी स्वर था वर्गीय तीसरे या चौथे अक्षर या 
यू रुलू व्‌ ह के आने पर क्‌ चुद त्‌ प्‌ के स्थान पर क्रमशः ग्‌ ज्‌ ड्‌ द्‌ ब हो जाता 
है, यथा 

दिक्‌-+गज ८ दिग्गज, वाक्‌+दत्त > वाग्दत्त, वाक्‌--ईश>"-वागीश, 
वाक्‌ -दान जू-वारदान, वाक्‌--इन्द्रिय>-वागिन्द्रियय, दिक--अम्बर - दिगम्बर, 
दिक्‌ +दर्शन >> दिग्दर्शन, धिक्‌ -याचना 5-5 धिग्याचना, वाक्‌+-विलास < वागर्विलास। _ 

अच्‌ --आदि > अजादि, अच्‌ +-अन्त -- अजन्त । 

षट्‌-+आनत >- षडानन, षट्‌--दर्शन"+घडदशंन, षट्‌--रिपु - षड्रिपु । 

भगवत्‌ --गीता < भगवद्गीता, तत्‌ --अनुसार -- तदनुसार, सत्‌--आतच्द ८ 
सदानन्द, जगत्‌--इच्ध > जगदिन्द्र, सत्‌--उत्तर >सदुत्तर, सत्‌--भावनान्न्सदू- 
भावना, महत्‌ ---औषध -- महदौषध, सतू--वंश >-सदवंश, पशुवत्‌ --गामौ->पशु 
वद्गामी, तत्‌-+-रूप">तदरूप, महत्‌--धनुष >> महद्धनुष, उत्‌--गम -- उद्गम, 
सत्‌ -- धर्म 5 सदधम, उत्त--अय 5- उदय, सत्‌--आचार>5सदाचार, जगत --अम्बा 
>>जगदम्बा, जगत्‌ --ईश - जगदीश, महत्‌--ओज -- मह॒दोज, उत्‌ योग *« उद्योग 


भविष्यत्‌ -- वाणी ->भविष्यद्वाणी, उत्‌--घाटन -- उद्घाटन, सत्‌ --उपदेश -सदु- 
पदेश, जगत्‌ --बन्ध -- जगदबन्ध, भगवत--भक्ति >- भगवदभक्ति । 


अप्‌ --ज -- अब्ज, अपू --भूति -- अब्भृत्ति, सुप--अन्त +- सुबंन्त । 

इस संधि के नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार रखा जा सकता है--अघोष 
स्पश-- घोष (--नासिक्य) >घोष स्पर्श 

. (2) क्‌ च्‌ टू तृ प्‌ के बाद किसी नासिक्य व्यंजन के आमे पर 

प्‌ के स्थान पर क्रमश: ह ज्व ण्‌ न म्‌ हो जाता है, यथा-- 

वाकू+भय >- वाह मय, प्राक्‌ +-मुख -- प्राडः सुख 

पट्‌--मुख -- षण्मुख, घट --मास - षण्मास द द 

उत्‌--माद -- उन्‍्माद, उत्‌--मत्त--उन्मत्त, सत्‌--मार्ग >-«सनन्‍्मार्ग, जगत्‌ 
पवाथज"> जगन्नाथ, उत-+-नयन < उन्‍्तयन | | 

अप्‌ -++मय --अम्मय क्‍ री हे 

इस संधि के नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार रख सकते हैं--अघोष स्परश-- 
. नापिक्य >तदवर्गीय नासिक्य 


(3) त्‌।द्‌ के बाद च/छ । ज|झू, ट/5, इ/ढ, ल हो तो तृ/द के स्थान पर | 
चू|जू/ट|ड/ल हो जाता है, यथा-- क्‍ 


लक 


ढ्तू 


ञ्च 


























शब्द-रचना | 63 


उत्‌-+चारण 5- उच्चारण, शरत्‌--चनरद्र -- शरच्चन्द्र,, सत्‌-+-चरित्रन 
सच्चरित्र, सत्‌+चिदानन्द "-- सच्चिदानन्द, विद्युत्‌--छटा --विद्युच्छटा, उत्‌-- 
छिन्‍त > उच्छिन्तन, महत्‌ +-छाया ++ मह॒च्छाया, उत्‌--छेद +- उच्छेद, महत्‌ --छाया 
>महच्छाया, जगत्‌ +-छाया "5 जगच्छाया, सत्‌--जन-"-सज्जन, उत्‌ + ज्वल ++ 
उज्ज्वल, सत्‌-+-जाति >- सज्जाति, विद्युत जाल - विद्युज्जाल, तत्‌--जय - 
तज्जय 
बहत्‌- टीका>-बुहटटीका, तत्‌+-टीका | तट्टीका, उत्‌ +- डयन-- उद्धडयन, 
बहत्‌ +डमरू-+ बृहड्डमरू 
उत--लास 55 उल्लास, उत्‌--लेख - उल्लेख, तत्‌-+- लीन * तल्लीन 
इस संधि के नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार रख सकते हैं--त्‌/द्‌--च/छ >> 
च्च, तूद्--ज|झि >ज्ज, तू(द्‌--टठ5>> टूट, त्‌/द्‌--ड/ढ>ड्ड, त्‌/द्‌ू-ल'>ल्ल। 
क्‍ (4) तद के बाद श्‌ होने पर त्‌/द के स्थाव पर चृ; श्‌ के स्थान पर छ 
हो जाता है; त्‌/द्‌ के बाद ह होने पर तू/द्‌ के स्थान पर द; ह के स्थान पर ध्‌ हो 
जाता है, यथा--- 
सत--शास्त्र/"-सच्छास्त्, उत्त+श्वास ८-5 उच्छवास, तत्‌-+-शरण -- तच्छरण 
उत्‌--शिष्ट -- उच्छिष्ट, तत्‌--शरीर « तच्छरीर, हनुमत्‌ --शास्त्री +- हनुमच्छाती 
उत्‌--श्रु खल -- उच्छ॑ खल, उत्‌---हार उद्धार, उत्‌--हित"-उद्धित, तत्‌--हिंत 
न्तद्धित, उत्‌ +-हत >5 उद्धत, उत्‌ --हृत > उद्धृत, उत्‌ --हरण 55 उद्धरण 
इस संधि के नियम को सूत्र रूप में इस प्रकार रख सकते हैं--त्‌ -श >> चछ; 
तृ+ह7>द्ध 
... (5) 'द के पश्चात्‌ अघोष व्यंजन आने पर 'दू! के स्थान पर 'तू हो जाता 
है, यथा -- 
सद्‌-+कारज"-"सत्कार, उद्‌+साहज"”उत्साह, तद्‌+पर तत्पर, क्षद्‌ -- 
पिपासा 5 क्ष॒त्पिपासा द 
नियम-सूत्र---द्‌ +-अघोष व्यंजन >>त्‌ 
(6) संधीय पदों के द्वितीयांश के आरम्भ में 'छ' होने पर संधिज शब्द में 
च्‌ का आगम हो जाता है, यथा--- 
द अव--छेद -- अवच्छेद, वि--छेंद -- विच्छेद, वृक्ष--छाया - वुक्षच्छाया, परि 
छेद -परिच्छेद, अनु --छेंद -+ अनुच्छेद, छत्तर छाया -> छत्च्छाया, श्री न छाया 5८ 
श्रीच्छाया, आ-|--छादन-<आच्छादन 
नियम-सूत्र---स्वर +-छ >> चू. आगम 
हि (7) 'म! के बाद वर्मीय व्यंजन होने पर म्‌ के स्थान पर तदूवर्गीय नासिक्य 
व्यंजन हो जाता है; अन्तस्थ या ऊष्म व्यंजन होने पर अनुस्वार हो जाता है; स्वर 
होने पर 'म ही रहता है, यथा-- 





64 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अलम्‌ --कार >- अलंका र/|अलडः कार, (अहंकार/भहडः कार, संकल्प|सड्ः कल्प 
संगम/सझ गम); किम्‌-चित्‌ >>किचित्‌/|किड्चितू, (संचय/सझ्चय); सम्‌ --तोष « 
संतोष/सन्‍्तोष, (संत्ताप/सन्‍्ताप);। सम्‌+-बन्ध > संबंध/सम्बन्ध संबुद्धि/सम्बुद्धि, 
सेंबंधी/सम्बन्धी); सम्‌ भव सं भव/सम्भव; (स्वयंभू/स्वयम्भू); सम्‌ --पूर्ण +-संपृर्ण| 
सम्पूर्ण: सम्‌-+यभ > संयम, (संयोग); सम्‌--रक्षकर--संरक्षक, (संरक्षा, संरक्षण); 
सम्‌--लग्न > संलग्न, (संलय, संलाप); सम्‌--वत्‌ >"संवत्‌, (स्वयंवर, संवाद); 
सम्‌-+शय > सशय; सम्‌--सारज>-संसार; सम्‌+हारज-संहार; सम्‌--आचार- 
समाचार, सम्‌--उदाय 5 समुदाय, सम्‌-+-ऋद्धि ८ समृद्धि, त्वम्‌ --एवं >> त्वमेव 
नियम-सूत्न--म्‌ नवर्गीय व्यंजन > तदवर्गीय नासिक्य व्यंजन; म्‌--मंतस्थ| 
ऊष्म व्यंजन >अनुस्वार; म्‌-+-स्वर >> म्‌ 
(सम्राट, सम्राशी, साम्राज्य' में सम” का म्‌ अनुस्वार नहीं बनता) 
(8) ऋ, र्‌, ष्‌ के तुरन्त बाद[द्वितीयांश में ना हो तो “न ण हो जाता 
है यथा-- ह क 
कृष न ++ कृष्ण; भूष--अन <- भूषण; विष--नु 55 विष्णु; परीक्षा >परीक्ष 
प+अन "परीक्षण; पोध्‌ (< ,/पुष)--अन 5 पोषण; प्र--मान प्रमाण; पुर--न 
पूर्ण; राम-+अयन - रामायण; नार-+-अयन र नारायण; परि-+-मान ८ परिमाण; 
मर्‌ (< ,/ मृ)-+अन >मरण; ऋ--न> ऋण; शिक्ष--अन शिक्षण; तृष्‌--ना 
रन तृष्णा 
नियम-सूत्र--ऋ/र/|ष्‌-त >> ण द 
(9) र्‌ के बाद र्‌ होने पर प्रथम र का लोप हो कर उस से पूर्व का इ ई 
हो जाता है, यथा--- 
निर्‌-- रोग ८ नी रोग, निर्‌ --रस -- नी रस 
नियम-सूत्र--३- -र+र>७ई---र्‌ 
.. (0) तूदन्‌ के बाद लू होने पर त्‌/द/न्‌ के स्थान पर लू हो जाता है, त्‌. 
वाले अंश में अनुस्वार का अतिरिक्त योग हो जाता है; यथा-- 
उत्‌+लंधघन + उल्लंघन, (उल्लेख, उल्लास, तललीन); महान्‌ --लाभ रू 
सहाल्लाभ ! | 
नियम-सूतत--त्‌/दु +ल >> लल, न्‌+ल >> ल्‍्ल॑ं द 
(]) संधीय पदों के दृवितीयांश के आरम्भ में स हो और प्रथमांश में अ| 
के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर हो तो स्‌ के स्थान पर ष्‌ हो जाता है, यथा-- 
वि-+-सम्‌ -- विषम, (सुषृप्त, अभिषेक, अनुषंगी, निषेध) 
(अपवाद--विस गे, विस्मरण) 
नियम-सूत्र - (--अ/|भा) स्वर-+स >पे 


9५ +0७-.उ2रकराकराकवानपर न जन 5५० 


| 
! 
! 








35८ 25 07200 कर २ बइकीर-फीक स्‍ज+ -व्मप्प--ह -मचछ- 





>ननमयकनायुवइलनयसननबक>>कभबल्‍मपकलका टन. ऋनरानथ 





का 50305 % 0 यम मम अल? मल मल पर रन रपवरिक नकली 





शब्द-रचना | 65 


(।2) ष्‌ के बाद तू/थ्‌ होने पर त्‌/थ्‌ के स्थान पर क्रमशः ट/ढ हो जाता है, 
पथा--- 

आक्ृष्‌--त+-आक्ृष्ट, (उत्कृष्ट, तुष्ट, दुष्ट, इष्ट); षष्‌ --थ -- षष्ठ, (पृष्ठ) 

नियम-सूत्र--ष्‌ +त्‌/थ्‌ >>८/ 

(3) कुछ अन्य संधिज शब्द--- 

सम्‌-+-कति-- संस्कृति, सम्‌ +-कत <- संस्क्ृत, सम्‌--- कार - संस्कार 

अनू न-आचार 5 अनाचार, निर्‌ --उद्देश्य -- निरुद्देश्य, निर्‌--उद॒यम-> 


निरुद्यम, पुनरु-+ईक्षण > पुनरीक्षण 
तत--काल >> तत्काल, तद्‌--रूप >तदरूप, सम-न्यास -- संन्यास 


विसर्ग सन्धियाँ 
अक्षरान्त या शब्दान्त के विसर्ग के बाद आनेवाले स्वर/व्यंजन के कारण 
विसर्ग में होनेवाला विकार 'विसग्ग सन्धि' कहा जाता है | 
संस्कृत में विस सन्धियाँ कई प्रकार की होती हैं। यहाँ उन में से कुछ के 
बारे में नियम, उदाहरण लिखे जा रहे हैं। 
.._() विसर्ग के बाद चूछ; दद; त/थ्‌ होने पर विसर्ग के स्थान पर क्रमशः 
श॒; प्‌; स्‌ हो जाता है, यथा--- 
निः+चघल ++ निश्चल, (पुनश्चर्या, निश्चय, निश्चेष्ट, निश्चित, दुश्चरित्र); 
नि:--छल 55 निश्छल 
धनु:-टंकार>-धनुष्टकार 
मनः-+ताप < मनस्ताप, (निस्तेज, दुस्तर, निस्तार) 
नियम-सूत्र--:+च्‌/छ >> श्च्‌ /श्छ; :-द्‌/ठ >ष्ट्‌/ष्ट; :--त्‌/थ्‌ > स्त|स्थ 
(2) अः/उः के बाद श्‌ष/स्‌ होने पर विसर्ग के स्थान पर विकल्प से परवर्ती 
ध्वनि आती है, यथा-- 
दू:-शील 5 दुःशील/दुश्शील, (दुःशासन,/दुश्शासन अन्तःशक्ति|अन्तश्शक्ति, 
नि:शब्द|निश्शब्द, निःशेष/निश्शेष, निःशुल्क/निश्शुल्क) 
बहि:--षट्‌ >> बहि:षट्‌/बहिष्षट्‌ 
दुः-स्वप्त > दुःस्वप्न/दुस्स्वप्न, (निःसंतान/निस्संतान, दुःसाहुस/दुस्साहस, 
निःसंदेह/निस्संदेह, निःसंकोच/निस्संकोच, पुन:स्मरण/पुनस्स्मरण, मन:स्थिति/मनस्स्थिति 
नियम-सूत्र--अः/उः +- शू/षस्‌ >>:/१९| 
.. (3) इः|उ: के बाद क/ख/ठ।/प्‌/फ्‌ होने पर विसर्ग के स्थान पर ष्‌ हो जाता 
है, किन्तु अः होने पर कोई विकार नहीं होता, यथा-- द 
.. नि:-+कपट,>निष्कपट, (दुष्कर, दुष्काल, चतुष्कोण, दुष्कर्म, दुष्प्रकृति, 


_निष्कलंक, निष्काम, निष्क्रिय); नि:--ठर रू निष्ठर 





66 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


नि:-पाप + निष्पाप, (निष्प्रभ, निष्पक्ष, दुष्प्रयोजन, दुष्प्रक्ृति, निष्फल) 
नियम-सूृतर--ह:/उ:--अधोष स्पर्श ज्ष्‌ 
(4) किसी स्वर के पश्चात्‌ के विसगग के बाद कोई स्वर ” वर्गीय तृतीय, 
चतुर्थ, पंचम ध्वनि; यू/लू/व/ह होने पर विसर्ग के स्थान पर र्‌ हो जाता है, यथा-- 
नि:-आशा+- निराशा, (निरपराध, निराधार, पुनरपि, पुनरागत, दुराचार, 
निरथंक, दुरुपयोग, निरिच्छा, निरौषध, अन्तराग्नि )। 
नि:+ग्रुण >निगुण, (नि्विकार, निर्यात, दुलंभ, दुगु ण, निर्जन, निज॑ल, 
निबंल, मिल, निर्लज्ज, निर्गम, निश्न॑र, निविध्त, निविवाद, निधन, निर्भय, दुर्भाव, 
दुर्गति, दुर्नीति, बहिमु ख, बहिदश, पुनर्वात, पुनमिलन, अन्तर्गत, पुन्जेन्म, अन्तर्धान, 
अन्तविरोध; निर्माण < नि:--मान; 
_नियम-सुत्र-- :--घोष ध्वनि >र्‌ 
भंगरेजी [787 का पर्याय “अन्तर” स्वीकार किया गया है व कि 'अन्तर्‌'; 
अतः अन्तरप्रान्तीय, अन्तरजातीय, अन्तरराष्ट्रीय, अन्तरविभागीय' शब्द इसके 
योग से निर्मित एवं प्रचलित हैं। इन में अन्त: के योग से संधि नहीं हुई है। 
अन्तरदेशीय' [7806 - अन्त:--देशीय में संधि है । द 
संस्कृत शब्दों में “नि, नि, का व्यतिरेक और बहुमुखी वेपरीत्य (0970$-. 
६0४) मिलता है, यथा--- डे 
नि:-स>स्स, यथा--निस्सीम, निस्सन्‍्देह, निस्सार। निसंग, निसहाय 
(वैकल्पिक रूप) । क्‍ 
लि-स:>अपरिवतंन, यथा--निसर्ग, निसूदन । हि 
नि:--र > विसर्ग-लोप, यथा--निस्वार्थ, निस्पन्‍द, निस्पृह । निस्स्वाथे/ 
ति/स्वार्थ (वेकल्पिक रूप) क्‍ द द 
 ति--रु >अपरिवतंन, यथा--निस्तब्ध (>-बहुत अधिक स्तब्ध).... 
नि:-+तवे >स्त, यथा--निस्तार, निस्तीर्ण, निस्तोद (-चुभन/गहरा 
चुभना)।.. हे 2 0. 5०७ १९१७, 
(5) अः के बाद वर्गीय तृतीय, चतुर्थ, पंचम ध्वनि, यू/र्‌/ल/ब/ह. होने पर 
अः के स्थान पर ओ हो जाता है, यथा-- द के 
मत: (<मनसू)--गत--मनोगत, (मनोज, _ मनोज्ञ, मनोरथ, मनोरम, 
मनोनीत, मनोहर, मनोभाव, सनोयोग, मनोबल, मनोविकार, मनोरंजन, मनोवेग, 
पयोधर, पयोनिधि, तमोगुण, अधोगति, अधोमति, अधोभाग, यशोदा, यशोधर, अधो- 
_मुखी, तेजोमय, सरोवर, सरोज, तपोवन, तपोबल, “तपोनिधि, तपोभूमि, पयोद, 
.. तैजोराशि)। ः यह है. उमर 
कप नियम-सूत्र--अ: -- घोष व्यंजन >ओ _ ला जप कु 
.. मतः--कामनार+-#ुै मनोकामना सादृश्य पर निर्मित अशुद्ध संधिज शब्द 

















शब्द-रचना | 67 


किन्तु हिन्दी में बहु प्रचलित । मनः--स्थिति ++ #% मनोस्थिति सादृश्य पर निर्मित 
अशुद्ध संधिज शब्द) द 

(6) अ३/इ: के बाद र्‌ होने पर विसर्ग के लोप के साथ अ, इ के स्थान पर 
. आ, ई हो जाता है, यथा-- द 

नि:--रस >+ नी रस, (नीरन्ध्न, नीरोग, नीरेफ, नीरव, पुनारचना) 

नियम-सूतर---अः/|ई: -- र >> आई 

(7) भथ:ः के बाद अ होने पर लुप्ताकार चिह्‌ न के साथ ओ रखते हैं, यथा-- 

यश:--अभिलाषी -- यशो$भिलाषी, (मनोइनुसार, नवो5कुर, मनोडभिराम, 
कोडपि, प्रथमोष्ध्याय, मनो&वधान) ह 

नियम-सूत्र---अः -+-अ >> ओ$ 

(8) कखि/प्‌/फस्‌ से पूर्व आनेवाले प्रथमांश के अन्त के अ: में कोई परिवतेत 
नहीं होता, यथा--- 

मनः--कल्पित >> मन:कल्पित, (प्रातःकाल, अन्तःकरण, पुनःफलित, अध:ः 
पतन, अन्तःपुर, पुनःसंस्कार) | 

नियम-सुत्र 5 अ:--अधोष व्यंजन >> अ: 

(9) कुछ अन्य संधिज शब्द--- 

पुर:-कार -- पुरस्कार (नमस्कार, तिरस्कार, भास्कर) तस्कर, मनस्क, 
वयस्क), मनः-कामना > मनःकामना, तेज:--आभास >-लेजआभास, अतः--एवं 
अतएव, दुःख >-दुःख, दुः--सह > दुस्सह, नि:-+सहाय>»निस्सहाय, वक्ष:-- 
स्थल ८ वक्षस्थल, अध:-पतनज""अध:पतन; अन्त:--पुर८-भअन्तःपुर, पय:--पान 
पय: पान, यश:-- इच्छा -+ यशइच्छा 

कुछ संधिज शब्दों के लिए नियमन्सूत्र अ:--अ--इतर स्वर >> विसगं-लोप 


हिन्दी-संधियाँ 

विश्लेषणात्मक प्रकृति की भाषा होने के कारण हिन्दी में संधि-प्रक्रिया अत्यल्प 
मात्रा में ही प्राप्त है। हिन्दी की कुछ सन्धियाँ संस्कृत-संधियों के सादश्य पर और 
कुछ निजी आधार पर बनी हुई कही जा सकती है । हिन्दी में संस्कृत की ऋ की 
सवर्ण दी्घ संधि ; ऋछ की यण्‌ संधि; ऐ, औ को वृद्धि संधि; अयादि संधि ; षत्व 
संधि ; विसगग संधि का अभाव है। हिन्दी की कुछ संधियाँ संस्कृत भाषा के संधि- 
नियमों के विपरीत भी ठहर सकती हैं किन्तु उन्हें हम हिन्दी में प्रचलन के आधार 
पर अस्वीकार नहीं कर सकते । हिन्दी में प्राप्त संधि-प्रक्रिया रूपस्वनिमिक परिवतंत/ 
विकार का ही एक रूप है। यहाँ हिन्दी में प्रचलित कुछ संधिज शब्द लिखे जा 

रहे हज 
.. लोप के आधार पर बने कुछ संधिज शब्द--खरीद--दार"-ख रीदार; 
 जब-+-ही > जभी; अब-+ही >अभी; कब--ही >- कभी; इस--ही +- इसी; 





66 | हिन्दी का विवरणाश्मक व्याकरण 


नि: गापाप  निष्पाप, (निष्प्रभ, निष्पक्ष, दुष्प्रयोजन, दुष्प्रकृति, निष्फल) 
तियम-सूत्र--३:/उ:--अघोष स्पर्श > ष्‌ 
(4) किसी स्वर के पश्चात्‌ के विस के बाद कोई स्वर / वेर्गीय तृतीय, 
चतुर्थ, पंचम ध्वनि; यू/लू/व|ह होने पर विस के स्थान पर र्‌ हो जाता है, यथा-- 
नि:--आशाज- निराशा, (निरपराध, निराधार, पुनरपि, पुनरागत, दुराचार, 
निरथंक, दुरुपयोग, निरिच्छा, निरीषध, अन्तराण्नि )। क्‍ 
_नि:+ग्रुण >तिगुण, (निविकार, निर्यात, दुर्लभ, दुगु ण, निर्जन, निजंल, 
निरबेल, निर्मेल, निर्लज्ज, तिर्गंम, मिश्र, निविध्त, निविवाद, निर्धन, निरभय, दुर्भाव, 
दुर्गति, दुर्नीति, बहिमुंख, बहिदेश, पुनर्वास, पुनर्मिलन, अन्तगंत, पुनर्ज॑न्म, अन्तर्धान, 
अन्तविरोध; निर्माण < नि:-- मान; 
नियम-सुत्र--- :--घोष ध्वनि >र्‌ 
अँगरेजी ।7&7 का पर्याय अन्तर' स्वीकार किया गया है न कि अन्तर; 
अतः अन्तरप्रान्‍्तीय, अन्तरजातीय, अच्त राष्ट्रीय, अन्तरविभागीय' शब्द इसके 
योग से निम्ित एवं प्रचलित हैं। इन में “अन्त: के योग से संधि नहीं हुई है। 
अन्तर्देशीय' परञाकात - अन्त: --देशीय में संधि है । द 
संस्क्ृत शब्दों में “नि, नि, का व्यतिरिक और बहुमुखी वैपरीत्य (0990फ- 
४0०7) मिलता है, यथा--- द 
नि:--स >स्स, यथा--निस्सीम, निस्सन्देह, निस्सार। निसंग, निसहाय 
(वैकल्पिक रूप) । 
ति-+स:>अपरिवतंन, यथा--निसर्ग, निसूदन । 
नि:-स > विसर्ग-लोप, यथा--निस्‍्वार्थ, निस्पन्‍द, निस्पृह । निस्स्वार्थ/ 
निशस्वार्थ (वैकल्पिक रूप)... द 
नि >>अपरिवर्तन, यथा--निस्तब्ध (-- बहुत अधिक स्तब्ध) 
नि:-+वे >स्त, यथा--निस्तार, निस्तीर्ण, निस्तोद (-चुभन/गहरा 
चुभना)। डक मा 
(5) भः के बाद वर्गीय तृतीय, चतुर्थ, पंचम ध्वनि, यू/र्‌/ल/वब/ह होने पर 
अः के स्थान पर ओ हो जाता है, यथा-- आओ द 
मनः (<मनस्‌)--गत--मनोगत, _ (मनोज, मनोज्ञ, मनोरथ, मनोरम, क्‍ 
मनोनीत, मनोहर, मनोभाव, मनोयोग, मनोबल, मनोविकार, मनोरंजन, मनोवेग, 

. प्योधर, पयोनिधि, तमोगुण, अधोगति, अधोमति, अधोभाग, यशोदा, यशोधर, अधो- 
मुखी, तेजोमय, सरोवर, सरोज, तपोवन, तपोबल, “तपोनिधि, तपोभूमि, पयोद, 
तेजो राशि) । 8 कह, हक 

..... नियम-सूत्र-अः--घोष व्यंजन ->बो 7 पड हा कं 

(मन: कामना +- # मनोकामना सादृश्य पर निर्मित अशुद्ध संधिज शब्द 














शब्द-रचना | 67 


किन्तु हिन्दी में बहु प्रचलित । मनः--स्थिति -- # मनोस्थिति सादश्य पर निर्मित 
धशुद्ध संधिज शब्द) 

(6) अआः|इ: के बाद र्‌ होने पर विसर्ग के लोप के साथ अ, इ के स्थाव पर 
. आ, ई हो जाता है, यथा-- 

ति:-+-रस >> नी रस, (तीरन्ध्न, नीरोग, नीरेफ, नीरव, पुनारचना) 

नियम-सूत--अः/ई:--र->> आई 

(7) अः के बाद अ होने पर लुप्ताकार चिह न के साथ ओ रखते हैं, .यथा-- 

यशः--अभिलाषी>-यशोडभिलाषी, (मनोइनुसार, नवो5कुर, मनोडभिराम, 
कोइपि, प्रथमोष्ध्याय, मनोइवधान) 

नियम-सूत्र--अः --अ >> ओ$ 

(8) क|खि/प्‌/फस से पूर्व आनेवाले ग्रथमांश के अन्त के अः में कोई परिवर्तन 
नहीं होता, यथा--- 

मनः-+केल्पित >> मन:कल्पित, (प्रातःकाल, अन्तःकरण, पुनःफलित, अध:ः 
पतन, अन्तःपुर, पुनःसंस्कार) ह 

नियम-सूत्र - अ:- अघोष व्यंजन >> भः 

(9) कुछ अन्य संधिज शब्द-- 

पुर:-कार > पुरस्कार (नमस्कार, तिरस्कार, भास्कर) तस्कर, मनस्क, 
वयस्क), मनः-कामना >> मनःकामना, तेज:--आभास >> तेजआभास, अत:--एवं 
अतएवं, दुः-ख "दुःख, दुः-+सह>दुस्सह, नि:--सहाय>«निस्सहाय, वक्ष:-- 
स्थल > वक्षस्थल, अधः:-प्तन"-अधःपतन; अन्त:--पुर>-भनन्‍्तःपुर, पय:--पान 
पय: पान, यश:--इचछा -| यशहइच्छा 

कुछ संधिज शब्दों के लिए नियमन्सूत्र अः--अ--इतर स्वर >विसगं-लोप 

हिन्दी-संधियाँ 

विश्लेषणात्मक प्रकृति की भाषा होने के कारण हिन्दी में संधि-प्रक्रिया अत्यल्प 
माता में ही प्राप्त है। हिन्दी की कुछ सन्धियाँ संस्कृत-संधियों के सादृश्य पर और 
कुछ निजी आधार पर बनी हुई कही जा सकती है । हिन्दी में संस्क्ृत की ऋ की 
सवर्ण दीर्घ संधि ; #ढ की यण्‌ संधि; ऐ, ओ को वृद्धि संधि; अयादि संधि ; षत्व 
संधि ; विसर्ग संधि का अभाव है। हिन्दी की कुछ संधियाँ संस्क्ृत भाषा के संधि- 
नियमों के विपरीत भी ठहर सकती हैं किन्तु उन्हें हम हिन्दी में प्रचलन के आधार 
पर अस्वीकार नहीं कर सकते । हिन्दी में प्राप्त संधि-प्रक्रिया रूपस्वनिमिक परिवर्तत| 
विकार का ही एक रूप है। यहाँ हिन्दी में प्रचलित कुछ संधिज शब्द लिखे जा 
: “रहें हैं-- 
ह लोप के आधार पर बने कुछ संधिज शब्द--खरीद--दार --ख रीदार; 
.  जब+ही >जभी;। अब+ही अभी; कब-+ही कभी; इस--ही 55 इसी; 





68 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण ह 


उस --ही 5 उसी; किस--ही > किसी; यहाँ--ही रू यहीं; वहाँ--ही - वही कह 
नही कहीं; यह-+ही + यही, वह--ही वहीं; घोड़ा-- -ई८”-घोड़ी, काना-- 
"औढ़ा >- कनौढ़ा; काठ--उल्ल ल्‍ कठलल्‍ल; जिला--अधीश >> जिलाधीश | 
आगम के आधार पर बने कुछ संधिज शब्द--दीन --नाथ - दीनानाथ 
मूसल--धार >मूसलाधार; विश्व--मित्र -- विश्वामित्र (संस्क्ृत में भी प्रचलित); 
मन “कामना >- मनोकामना; उत्तर--खंड -- उत्तराखंड, दक्षिण --खंड--दक्षिणा- 
खंड; लिख (ता)-+-(पढ़ (ना) >+ लिखापढ़ी । क्‍ 
अ|आ/|ओ[|इ (<ई/ए) -++ न्‍औआा/ -ऑँ/ -भों/-ओ >> ये! आग्रम, यथा+--गर-- 
नआानच्््ग्या;। आन न्‍आन्य आया; ला-+- च्ञाज्ज्लाया खा-- +-आ < खाया: 
छा-- -आूू"छाया; धो-- -आ >धोया, सो-- -भा > सोया, रो-- -आ  रोया; 
रीति-- -आाँ > रीतियाँ; नीति-- -आँ--नीतियाँ; पक्षि (< पक्षी) -- -भों-* 
पक्षियों; हाथि (<हाथी)-- -ओं हाथियों; भाई (< भाई)--ओ “-भाहयो 
लि (<ले)-- “आलिया; दि (< दे)-- -आ # दिया; कि (<कर)-- -आ 
न+किया । द 
.. दे>दी-+- “इए "दीजिए; ले>ली'-+- लीजिए; पी-- *हृए -- 
पीजिए; कर>की-- -इए >- कीजिए 
है रस्वीकरण के आधार पर बने कुछ संधिज शब्द---() प्रथम पदीय 
है रस्वता--घोड़ा-+-चढ़ी>- घुड़चढ़ी, दूध--मु हा * दुधमु हा, कान--कटाज्ूकन- 
कटा, क्राउ-+-फोड़ा >> कठफोड़ा, फूल--वाड़ी  फुलवाड़ी, ठाकुर--आइन  ठकुराइन, 
टुकड़ा-+खो र*+ टुकड़खोर, काना--ओड़ा >कनौड़ा, लोटा-- -इया रलुटिया, _ 
बाबू -+- -आइन -« बबुआइन (7) उभयपदीय हू रस्वता--काट--खाना <« 
कटखता, घास--खोद (ना) - घसखुदा, मूछ--काट (ना) -- मु छकटा । द 
द दीर्घोकरण के आधार पर बने कुछ संधिज शब्द---हिल (ना)--मिल (ना) 
नत्हेलमेल, मिल (ना)--जल (ना)ज-मेलजोल 


2. समास | 
.. समास एक प्रक्रिया है, जिस का शाब्दिक अथ है--सम्‌ पास; आस 5८ 
_ बिठाता/रखना (दो सम्बदध शब्दों को पास-पास ला बिठाना/रखना)। इस शब्द का 


.._ अर्थ है--संक्षेपीकरण, यथा--कमल के समान सुन्दर मुख-कमलानन । दोया दो 


... कहलाता है। 


. से अधिक परस्पर सम्बन्धित शब्दों के मिलने से बने स्वतन्त्र साथेक शब्द समस्त| 
. सामासिक/समासज शब्द|पद कहलाते हैं। शब्दों का इस प्रकार का योग समास _ 


समाश-विग्रह का अर्थ है--समासज शब्दों के मध्य के सम्बन्ध को स्पष्ट ढ ० 


.... करता । समासज शब्दों के विग्रह के समय किश्ली-त-किसी अतिरिक्त शब्द या विभविंत 








शब्द-रचना | 69. 


का प्रयोग होता है, जब कि संधिज शब्दों के विग्रह्व के समय ऐसा नहीं होता, यथा--- 
राजमन्त्री ने "राजा के मन्त्री ने; गौरीशंकर की >गौरी की तथा शंकर की 
पत्नोत्तर पत्र का उत्तर ; चन्द्रमुख --चन्द्र-प्ा मुख । 

समास होते समय सम्बन्ध बतानेवाले शब्दादि का हो लोप नहीं होता, वरन 
समासज शब्द के पदों में कुछ ध्वन्यात्मक विकार भी हो जाता है; यथा--घोड़े का 
सवार" घुड़सवार; काठ की पुतली+- कठपुतली; हाथ के लिए कड़ी-5हथकड़ी । 

सन्धि, समास, उपसमं-प्रत्यय के योग से बने शब्दों की रचना-प्रक्रिया में 
अन्तर होता है । 

सन्धिज शब्द शब्दांश/शब्द--शब्दांश/शब्द से बनते हैं। 

समासज शब्द शब्द/उपसर्ग --शब्द से बनते हैं । 

उपसर्ग-प्रत्ययज शब्द उपसर्ग|प्रत्यय--शब्द से बनते हैं । 

.. समासज शब्द के पश्चात्‌ ही कारक-चिह्‌ न का प्रयोग होता है किम्तु उस 
शब्द का प्रत्येक खंड कारक-चिह न से प्रभावित रहता है, यथा--घुड़सबार ने उतर 
कर मन्दिर में शिव-पार्वंती की पूजा की । क्‍ 

इस वाक्य में उतरने, पूजा करनेवाला सवार' है न कि घोड़ा; पूजा 'शिव' 
और पावंती दोनों की की गई है न कि किसी एक की । 
द समासज शब्दों में कभी अ्थम खंड प्रधान होता है, तो कभी दूसरा; कभी 
: दोनों पद प्रधान होते हैं, तो कभी कोई नहीं | प्रधानता को आधार बनाते हुए संस्कृत 
में चार प्रकार के समास माने गए हैं--!. अव्ययीभाव 2. तत्पुरुष 3. द्वन्द्व 
4. बहुब्नीहि । तत्पुरषः समास में कर्मधारय और द्विगु समास का समाहार हो 
जाता है । 

द अव्ययीभाव समास--जब समासज शब्द का प्रथम खंड प्रधान होता है 
तथा समस्त पद अव्यय का कार्य करता है, तब उसे अव्यवीभाव ससास कहते हैं 
पथा--यथाशत्रित (शक्ति के अनुसार); प्रतिदिन (प्रत्येक दिन); बेखटके (खटठके के 
बिना); भरपेट (पेट भर कर) । 

अव्ययीभाव समास में प्रथम खंड अव्यय[|उपसर्ग होने तथा प्रधान होने के कारण 
पूरे शब्द को अव्यय बना देता है। अनेक अव्ययीभाव समासज शब्दों के विग्रह के समय 
कोई विभक्ति|कारक-चिह न नहीं लगता !। कभी-कभी संज्ञाओं की दविरुक्ति से भी 
अव्ययीभाव समास बनते हैं । हिन्दो में संस्कृत, हिन्दी, उदू के अव्ययीभाव समासज 
शब्द प्रचलित हैं, यथा--(संस्कृत)--अनुरूप, आमरणं, आजीवन, यावज्जीवन, 
यथासम्भव, यथाशक्ति, यथाशीघ्र, यथास्थान, यथासाध्य, प्रतिदिन, प्रत्यक्ष, परोक्ष, 
व्यथं, अनुदिन, अकारण, सहर्ष, यथाविधि, प्रतिमास, निडर द 


(हिन्दी)--हाथोंहाथ, बार-बार, एकाएक, पहले-पहल, रातोंरात, अनजाने, 


निधड़क, बीचोंबीच, धड़ाधड़, गाँव-गाँव, अनजाने, धीरे-धीरे, बेखटके, भरपेट, 
पीछे-पी छे 





70 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(उदू )--बेशक, हररोज, दरअसल, दरहकीकत, रोज-रोजु, साल-ब-साल 

उपयु क्‍त समासज शब्द अव्यय का काल करने के कारण अव्ययीभाव समास 
के उदाहरण हैं । कुछ अव्ययीभाव समासज शब्दों का विग्रह नीचे लिझखा जा 
रहा हैं-- 

आजीवन--जीवन तक|पर्यन्त;। आभरण-पृत्उु तक|पर्यन्त, (आजन्म); 
प्रतिदिन--दिन-दिन/प्रित्येक दिन; यथाशक्ति--शक्ति के अनुसार, (यथाविधि); भरपेट 
--पेटभर कर; हाथथोहाथ-- एक हाथ से दूसरे हाथ (होते हुए); रातोंरात--रात ही 
रात में; यथास[मथ्यं--स्ामथ्ये के अनुसार, (यथागति); प्रत्येक--एक-एक; एकाएक 
अचानक; हरसाल--स्षाल-साल, (हररोज); बेकाम--काम के बिना, (बेशक); बा 
अदब---अदब के साथ; निस्सन्देह--सन्देह के बिना । 

2. तत्पुरुष ससास में पहला पद विशेषण का और दूसरा पद विशेष्य का 
काम करता है, अतः दूसरा पद प्रधान होता है । तत्पुरुष समासज शब्दों में कर्ता, 
सम्बोधन के अतिरिक्त अन्य कारक-चिह नों--को, से, के, लिए, का/कीके, में, पर--- 
(संस्कृत व्याकरणानुसार विभकतियों) का लोप होता है। इस आधार पर तत्पुरुष 
समास के छह भेद हो जाते हैं-- (क) कर्म तत्पुरुष (ख) करण तत्पुरुष (ग) सम्प्रदान 
तत्पुरुष (घ) अपादान तत्वुद्पर (7) सम्बन्ध तत्पुरुष (च) अधिकरण तत्पुरुष । द 

तत्पुरुष शब्द का शाब्दिक अर्थ है---तत्‌ (+- वह/|उस का), पुरुष (७- आदमी ), 
जैसे--राजपुरुष (राजा/राज्य का पुरुष) 

(क) कर्म तत्पुरूष (द्वितीया तत्पुरुष) में कर्मकारक के चिहून को या 
द्वितीया विभक्ति का लोप हो कर एक समासज शब्द बनता है, यथा--दिंवँ (+- स्वर्ग) 
को गया हुआ -दिवंगत; परलोक को जाता >परलोकगमन; मूह को तोड़नेत्राला न 
मुंहतोड़ । इसी प्रकार स्वगंप्राप्त, ग्रामगत, शरणागत, देशगत, आशातीत, गिरहकट, 
चिड़ीमार, गंगनचुम्बी, कठफोड़वा क्‍ 

(ख) करण तत्पुरुष (तृतीया तत्पुरुष) में करण कारक के चिहन से या 
तृतीया विभक्ति का लोप हो कर एक समासज शब्द बनता है, यथा-ग्रुण से 
युक्त -- गुणयुक्त; ईश्वर द्वारा प्रदत्त -- ईश्वरप्रदत्त । इसी प्रकार 'मदमाता, ईश्वरदत्त, 
गुरुदत्त, बिहारी रचित, तुलसीकृत, भुखभरा, मनमाना, भक्तिवश, कष्टसाध्य, 
मनचाहा, वाग्दत्ता, रेखांकित, प्रेमातुर, हस्तलिखित, शोकातुर, मर्दांध, दयादे 

(ग) सम्प्रदान तत्पुरुष (चतुर्थी तत्पुरुष) में सम्प्रदान कारक के चिह्न के 
_ लिए|को' या चतुर्थी विभकित का लोप हो कर एक समासज शब्द बनता है, यथा-- 
राह के लिए खुचे +- राहुखचे; बलि के लिए पशु>-+बलिपशु, इसी प्रकार 'हवनसामग्री, 
... रोकड़बही, हुष्णापंण, रणनिमन्त्रण, हथकड़ी, आरामकुर्सी, नेतसुखद, गुरुदक्षिणा, 
... गौशाला, देशानुराग, देशभवित, रसोईघर, देवबलि, सत्याग्रह, युद्धभूमि, देशापंण, 


..... रशाज्यलिप्सा, डाकगाड़ी, मा गेव्यय, इन्द्रबलि' 








॥) 





शब्द-रचना | 7| 


(घ) अपादान तत्पुरुष (पंचमी तत्पुरुष) में अपादान कारक के चिहन से 
या पंचमी विभक्ति का लोप हो कर एक समासज शब्द बनता है, यथा--पद से 
मुक्त - पदमुक्त; जन्मान्ध -- जन्म से अन्धा । इसी प्रकार आकाशपतित, भयभीत, 
लक्ष्यभ्रष्ट, जातिश्रष्ट, पदच्युत, धर्मंविमुख, पथप्रष्ट, देशनिष्कासित, गृणहीन, 
जीवनमुक्त, ज्ञानमुक्त, ऋणमुक्त, देशनिकाला, जन्मान्ध' द 

(ड) सम्बन्ध तत्पुरुष (षष्ठी तत्पुरुष) में सम्बन्ध कारक के चिह न का/की। 
के या षष्ठी विभक्ति का लोप हो कर एक समासज शब्द बनता है, यथा--घोड़ों 
की दौड़--घुड़दौड़, सेना का पति८- सेनापति | इसी प्रकार 'जलधारा, राष्ट्रपति, 
अमचूर, राजसभा, जलधारा, ऋषिकत्या, राजकुमार, वनमानुस, बैलगाड़ी, सिरदर्द, 
रामकहानी, आत्मकथा, गंगाजल, देशसेवक, देवस्थान, ब्राह्‌ मणपुत्रे, दिनचर्या, देवमूर्ति, 
जीवनसाथी, अम्नृतधारा, भातृस्नेह, विदयाभंडार, दीनानाथ, लोकततन्त्र, पराधीन, 
पवनपुत्र, ईश्वरभकत, देशोद्धार, प्रेमसागर, भारतवासी, लखपति” 

(च) अधिकरण तत्पुरुष (सप्तमी तत्पुरुष) में अधिकरण कारक के चिह्न 
में।पर' या सष्तमी विभकिति का लोप हो कर एक समासज शब्द बनता है, यथा--- 
अपने पर बीती > आपबीती; जल में मग्न--जलमग्त । इसी प्रकार 'कविराज, 
दानवीर, निशाचर, पुरुषोत्तम, मनमौजी, जगत्यसिद्ध, शास्त्रप्रवीण, रणकौशल, 
आवन्दमग्त, श्रेसनिसरत, डिब्बाबन्द, वनवास, गृहप्रवेश, दानवीर, रणवीर, नगरवास, 
लोकप्रिय, कलाप्रवीण, जनप्रिय, आत्मविश्वासी, धमंवीर' 

तत्पुरुष समास के उपयु कत सामान्य प्रकारों के अतिरिक्त चार भेद और 
माने जाते हैं--0) लुप्तपद तत्पुरुष (7) नञ्य तत्पुरुष (पी) कमंधारय तत्पुरुष 
(५) द्विगु तत्पुरुष । गा द 

जब कोई कारक चिह्‌ न पूरे पद सहित लुप्त हो, तब उसे लुप्तपद तत्पुरुष 


सम्मास कहते हैं, यथा - पवन से चलनेवाली चक्‍की < पवनचक्करी; तुला में बराबर 


कर के दिया जानेवाला दान -तुलादान; दही में पड़ा हुआ बड़ा"-दहीबड़ा; बैलों से 
चलनेवाली गाड़ी -- बैलगाड़ी क्‍ 2 
' जब निषेधसू चक अ/अन” के प्रयोग से समासज शब्द बनता है, तब उसे 


. नञ्ञ _तत्युरुष समास कहते हैं, यथा--अभाव, असम्भव, अनन्त, अहित, अपूर्ण 


अनागत 

.. 3. कर्सधारय समास में एक पद विशेषण या उपसान/उपमावाचक और दूसरा 
पद विशेष्य या उपभेय होता है, यथा--महापुरुष >> महा (विशेषण) -|- पुरुष (विशेष्य); 
आणप्रिय-प्राणों (उपमान) के समान प्रिय (उपमेय) । इसी प्रकार काली भिचं, 
बड़ाघर, नीलगाय, कालापानी, अध॑चन्द्र, नवयुग, कृष्णमुख, पूर्णचन्द्र, अध॑चन्द्र, महान. 
राजा, महावीर, सुन्दरलाल, भलामानस, अधमरा, अंकालग्रस्त, छुटभेया, अल्पसंख्यक: 
श्यामसुन्दर, मुखचन्द्र, चरणकमल, घनश्याम, नरप्िंह, ज्ञानामृत, अन्धविश्वास, 





दाह हे 


 अथा--कमल-्से नेत्नवाला है जो (अर्थात्‌ विष्णु) 5 कमलनेत्र; पीले अम्बर (वस्त्र[ 


[72 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


मलनयत, देहलता, कनकलता, करकमल, चन्द्रमुख, पीताम्बर, तीलगगन, नीलकमल, 
भहषि (महत्‌--ऋषि), देहलता (--लतारूपी देह) 

5. दुविगू समास में पूवंपद संख्यावाची होता है और पूरा शब्द समुदाय/ 
पमाहार (समूह) का बोधक होता है, यथा--सप्त सिन्धुओं का समूह -- सप्तसिन्धु; 
गो रातों का समुह--नवरात्र; दो पहरों का योग -- दोपहर । इसी प्रकार 'पंचवटी, 
तिभुवन, त्रिकाल, ब्विलोक, झताब्दी, सप्तशती, सप्ताह, ब्रिमूरति, पंचामृत, नवग्रह, 
तवरत्त, त्रिकोण, सप्तषि (सप्त-- ऋषि); चौअन्नी, चौराहा, अठवारा, चोमासा, 
इट्टा, पंपेरी, सतसई, दुअन्ती, अठन्नी, पँचसढ़ी' द 

०. दवन्द॒व समास में दोनों पद प्रधान होते हैं और दोनों पदों के मध्य और। 
तथा/अथवा/या[एवं शब्द का लोप हो कर समासज शब्द बनता है, यथा--आगा और 
पीछा--आगा-पीछा; पिता तथा पुत्र-- पिता-पुत्र; पाप या पुण्य--पाप-पुण्य । 

दुवन्दुव समास मिलते-जुलते/समानार्थी या विलोमार्थी शब्दों से और सभी 
गब्द-भेदों से बनते हैं । द्वन्द्व समास के पदों के अस्तित्व-स्तर के आधार पर दो 
भेद माने जाते हैं--(अ) इतरेतर दुवन्द्व (आ) समाहार दुवन्द्व 

(अ) इतरेतर द्वन्द्व समास में दोनों पद अपना समान स्तरीय अस्तित्व रखते 
हैं, थथा--तन, मत और धन + तन-मन-धन; पत्न और पुष्प -- पत्न-पुष्प । इसी प्रकार 
'पिता-पुत्र, ऋषि-मुनि, राम-कृष्ण, माता-पिता, राम-लक्ष्मण, राजा-रानी, आचार- 
विचार, अस्त-जल, राजा-प्रजा, लोभ-मोह, जलवायु; रात-दिन, रोटी-पानी, कलम- 
उवात, लोटाडोरी, बापदादा, नीचे-ऊपर, आगा-पीछा, आजकल, नदी-नाले, आवोहवा 
(आब--ओ -- हवा)! ः 

(आ) समाहार द्वन्द्व समास में प्रत्येक पद एक दूसरे पद पर निर्भर रहता है, 
> मी वृथक्‌ अस्तित्व अर्थ की दृष्टि से महत्त्व नहीं रखता, यथा -- दाल और रोटी/ 
रोटी और दाल -- दालरोटी/रोटीदाल; रुपया और पैसा -+-रुपया-पैसा । इसी प्रकार 
सुख-दु:खे, नोनतेल, जीजान, घटबेढू ५ 0०३ 20 पा त्य 5 ्््ि 

संज्ञा शब्दों के दृवन्द्वों में उठतरपद का रूपान्तर होता है और इसी पद के 
अनुसार समासज शब्दों का लिंग निर्धारण होता है, यथा--भेड़-बकरिय |, गाय-भैसें, 
तभा-सम्मेलनों में । अन्य शब्द-भेदों के दुवन्दवों में दोनों पदों का रूपान्तर होता है, 

तथा--सड़क ऊची-तीची है; लड़ती-झगड़ती बकरियाँ। भनुष्य बोधक द्वन्द्व सामान्यतः 
पुल्लिय बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं, यथा--पत्ति-पत्नी जाग पड़े । सजातीय वस्तुओं का _ 
समूह नामोद्दिष्ट करनेवाले संज्ञा शब्दों के दृवन्द्व उत्तर पद के लिंग के बहुबचन 


. में प्रयुक्त होते हैं, यथा--पशु-पक्षी, भेड़-बकरियाँ, पेड़-पौधे । _ 


7: चहुब्ीहि समास में दोनों पदों में से कोई भी पद प्रधान नहीं होता। 
दोनों पद सिलकर किसी तीसरे पद (व्यक्ति या वस्तु) के विशेषण का कार्य करते हैं, 








शब्द-रचना | !73 


वाला है जो (अर्थात्‌ विष्णु/क्षष्ण) > पीताम्बर; अंशुमाली--अंशु ( <+ किरणें) माला हैं 
जिस की (अर्थात्‌ सूर्य); हृषीकेश (हृषीकर-ईश) - इन्द्रियों का स्वामी, (2ऋषिकेश 
सादृश्य पर गड़ा गया शब्द है) | इसी प्रकार “दशमुख/दशानन (-- रावण), नौलकंठ/ 
मृत्यु जय/चन्द्रमौलि/चन्द्रचू ड/चन्द्रशेखर ( +- शिव), पुष्पश्चन्वा (+- कामदेव), लम्बोदर/ 
गजानन (गणेश), चक्रधर/चक्रपाणि/|चतुभू ज (-विष्णु), वीणापाणि/पदमासना 
(सरस्वती), शान्तचित्त, सुलोचना, दुरात्मा, धर्मात्मा, तीक्ष्णणति, विषधर, 
(-- सर्प), मृग्रेद्ध (-- सिंह), पवनपुत्र/महावीर (- हनुम।न), कुसुमाकर (-- वसब्त), 
प्रधानमन्त्री, उदारहृदय, मयू रवाहुत (--कार्तिकेय), पंकज, घनश्याम. (*« श्रीकृष्ण); 
मु हतोड़, बारह॒सिंगा, कनफटा, इकतारा, अनहोनी” 

कर्मंधारय तथा बहुब्नीहि समास में अन्तर--कर्मंधारय समास में समासज 
शब्द का एक पद दूसरे पद का विशेषण होता है और इस में समासज शब्द का अर्थ 
ही प्रधान होता है, यथा--घनश्याम -> काले बादल । बहुब्नीहि समास में समासज 
शब्द के दोनों पदों में विशेषण-विशेष्य का सम्बन्ध नहीं होता, वरन्‌ समस्त पद किसी 
अन्य पद [संज्ञादि) का विशेषण होता है, यथा--घनश्याम -- घन (बादल) के समान 
श्याम हैं जो (अर्थात्‌ श्रीकृष्ण) । 

कर्मंधारय तथा दूविगु समास में अन्तर--कमंधारय समास में समस्त पद के 
परवेषद और उत्तर पद में विशेषण-विशेष्य/विशेष्य-विशेषण का सम्बन्ध होता है जब 
कि दुविगू समास के समस्त पद में पूर्व॑पद संख्यावाचक विशेषण होता है और उत्तर- 
पद विशेष्य, यथा--देहलता -» लता रूपी देह (कर्मंधारय), त्रिफला >-तीन फलों का 
सम्ृह (द्वियु) 

बहुब्नीहि तथा द्विगु समास में अच्तर--बहुन्नीहि समास में समस्त पद किसी 
अन्य पद का विशेषण हो जाता है जब कि द्विशु समास में समस्त पद का उत्तर 
पद संख्यावाची पूर्वपद का विशेष्य होता है, यथा--पंचवटी > पाँच वटी हैं जहाँ वह 
(स्थल विशेष)--बहुब्रीहि; पंचवटी--पाँच वट वक्षों का समूह । 

_सन्धि तथा समास में अनच्तर--यद्यपि संधिज तथा समासज दोनों प्रकार 
के शब्दों में कम से कम दो-दो पद होते हैं, तथापि समासज शब्दों. के दोनों पदों में 
पहले सम्मास क्रिया होती है, तत्पश्चात्‌ संधि | समास होने पर विभक्ति/कारक-चिह न 
आदि शब्दों/पदों का लोप हो जाता है, परन्तु संधि होने पर पूर्व पद की अन्तिम ध्वनि 
और उत्तरपद की आदि ध्वनि के योग से स्वर, व्यंजन या विसगं में कोई न कोई 
परिवर्तन/विकार आ जाता है। समास प्रक्रिया में दोनों पदों के मध्य के पूर्ण शब्द 
या विभक्ति चिह न या वाक्यांश का लोप होता है, जब्रकि संधि में एक स्वर, व्यंजन 
या विस का, यथा--दूर से आगत > दृरागत (समास) ; दूर--आगत+>दूरांगत 
(सत्धि) । पहले उदाहरण में 'से” कारक-चिह न का लोप है, दूसरे उदाहरण में “ 
के अ का। 


प 

] 

2 
* 
है 
। 
हू 
;. हि 
0 
है] 
] 
|| 
कं 
॥॒ 
/ 


टू 
. 

| 

. 


207 
2१, 
ई$ 
| 
। 
ढ 
& । 
। 





]72 | हिन्दी का विवरणात्मक वध्यांकरण 


कमलनयन, देहलता, कनकलता, करकमल, चन्द्रमुख, पीताम्बर, नीलगगन, मनीलकमल, 
महषि (महत्‌ +-ऋषि), देहलता (+-लतारूपी देह) 

4. द्विगु समास में पूर्वंपद संख्यावाची होता है और पूरा शब्द समुदाय/ 
समाहार (समूह) का बोधक होता है, यथा--सप्त सिन्धुओं का सम्ृह - सप्तसिन्ध 
नौ रातों का समृह--नवरात्र; दो पहरों का योग > दोपहर । इसी प्रकार 'पंचवटी 
विभुवन, व्रिकाल, त्िलोक, शताब्दी, सप्तशती, सप्ताह, व्विमृति, पंचामृत, नवग्रह, 
नवरत्न, त्रिकोण, सप्तर्षि (सप्त--ऋषि); चौअन्नी, चौराहा, अठवारा, चौमासा, 
दुपट्टा, पंसेरी, सतसई, दुअन्ती, अठन्नी, पँचसढ़ी 


5. द्वन्दव समास में दोनों पद प्रधान होते हैं और दोनों पदों के मध्य “और/ 
तथा/अथवा/या[एवं' शब्द का लोप हो कर समासज शब्द बनता है, यथा--आगा और 
पीछा>-आगा-पीछा; पिता तथा पुत्न"-पिता-पुत्र; पाप या पुण्य--पाप-पुण्य । 

दवन्द्व समास मिलते-जुलते/समानार्थी या विलोमार्थी शब्दों से और सभी 
शब्द-भेदों से बनते हैं। दवन्दव समास के पदों के अस्तित्व-स्तर के आधार पर दो 
भेद माने जाते हैं--(अ) इतरेतर दुवन्द॒व (भा) समाहार दृवन्द्व 

(अ) इतरेतर द्वन्दव समास में दोनों पद अपना समान स्तरीय अस्तित्व रखते 
हैं, यथा--तन, मत और धन > तन-मन-धन; पत्र और पृष्पन्‍-पत्र-पुष्प । इसी प्रकार 
'पिता-पुत्र, ऋषि-मुनि, राम-क्ृष्ण, माता-पिता, राम-लक्ष्मण, राजा-रानी, आचार- 
विचार, अन्न-जल, राजा-प्रजा, लोभ-मोह, जलवायु; रात-दित, रोटी-पानी, कलम- 
दवात, लोटाडो री, बापदादा, नीचे-ऊपर, आगा-पीछा, आजकल, नदी-नाले, आबोहबा 


(आब-+-ओ -+-हवा ) क्‍ 
(आ) समाहार द्वन्द्व समास में प्रत्येक पद एक दूसरे पद पर निर्भर रहता है, 
उस का पृथक अस्तित्व अर्थ की दृष्टि से महत्त्व नहीं रखता, यथा--दाल और  रोटी/ 


रोटी और दाल >- दालरोटी/रोटीदाल; रुपया और पैसा ->रुपया-पैसा । इसी प्रकार 


सुख-दुःखं, नोनतेल, जीजान, घटबढ़ 
संज्ञा शब्दों के दबन्दवों में उटतरपद का रूपान्तर होता है और इसी पद के 


अनुसार समासज शब्दों का लिग निर्धारण होता है, यथा--भेड़-बकरियाँ, गाय-भैंसें, 


सभा-सम्मेलनों में । अन्य शब्द-भेदों के द्वन्द्‌वों में दोनों पदों का रूपान्तर होता है, 
यथा--सड़क ऊँची-तीची है; लड़ती-झगड़ती बकरियाँ। मनुष्य बोधक द्वन्द्व सामान्यत 
पुल्लिग बहुबचन में प्रयुक्त होते हैं, वथा--पति-पत्नी जाग पड़े | सजातीय वस्तुओं का 
समूह नामोद्दिष्ट करनेवाले संज्ञा शब्दों के दुवन्दव उत्तर पद के लिंग के बहुबचन 
में प्रयुक्त होते हैं, यथा--पशु-पक्षी, भेड़-बकरियाँ, पेड़-पौधे | द 

ढ 6. बहुब्नीहि समास में दोनों पदों में से कोई भी पद प्रधान नहीं होता । 
दोनों पद मिलकर किसी तीसरे पद (व्यक्ति या वस्तु) के विशेषण का कार्य करते हैं 


.. थ्था--कमलस-&से नेत्रवाला है जो (अर्थात्‌ विष्णु) - कमलनेत्; पीले अम्बर (वस्त[ 








शब्द-रचना | 73 


वाला है जो (अर्थात्‌ विष्णु/क्ृष्ण) - पीताम्बर; अंशुमाली--अंशु( +> किरणें) माला हैं 
जिस की (अर्थात्‌ सूर्य); हृषीकेश (हषीक--ईश) -+ इन्द्रियों का स्वामी, (2&ऋषिकेश 
सादृश्य पर गड्ढा गया शब्द है) | इसी प्रकार 'दशमुख/दशानन (-- रावण), नौलकंठ/ 
मृत्यु जय/चन्द्रमौलि/चन्द्रचू ड/चन्द्रशेखर ( <- शिव), पुृष्पधन्चा (-- कामदेव), लम्बोदर| 
गजानन (वू|गणेश), चक्रधर|चक्रपाणि/|चतुभु ज (5-विर्णु), वीणापाणि/परदुमासना 
(>-सरस्वती), शान्तचित्त, सुलोचना, दुरात्मा, धर्मात्मा, तीक्ष्णमति, विषधर, 
(> सर्प), मृग्ेद्ध (- सिंह), पवनपुत्र/सहावीर (-- हनुमान), कुसुमाकर (-- बसनन्‍्त), 
प्रधानमन्त्री, उदारहदय, मयूरवाहव (--कारतिकेय), पंकज, घनश्याम. («« श्रीकृष्ण); 
मुंहतोड़, बारहसिंगा, कतफटा, इकतारा, अनहोनी' 

कर्मंधारय तथा बहुबन्नीहि समास में अन्तर--कर्मधारय समास में समासज 
शब्द का एक पद दूसरे पद का विशेषण होता है और इस में समासज शब्द का अथे 
ही प्रधान होता है, यथा--घनश्याम -- काले बादल । बहुब्नीहि समास में समासज 
शब्द के दोनों पदों में विशेषण-विशेष्य का सम्बन्ध नहीं होता, वरन समस्त पद किसी 
अन्य पद (संज्ञादि) का विशेषण होता है, यथा--घनश्याम -- घन (बादल) के समान 
एयाम हैं जो (अर्थात्‌ श्रीकृष्ण) । 

कर्मंधारय तथा द्विगु समास में अन्तर--कमंधारय समास में समस्त पद के 
पुवंपद और उत्तर पद में विशेषण-विशेष्य/विशेष्य-विशेषण का सम्बन्ध होता है जब 
कि दविगू समास के समस्त पद में पूवपद संख्यावाचकः विशेषण होता है और उत्तर- 
पद विशेष्य, यथा--देहलता ->लता रूपी देह (कमंधारय), त्रिफला>-तीन फलों का 
समूह (दविगु) 

बहुबत्रीहि तथा द्विगु सम्ास में अन्तर--बहुव्रीहि समास में समस्त पद किसी 
अन्य पद का विशेषण हो जाता है जब कि द्विशु समास में समस्त पद का उत्तर 
पद संख्यावाची पू्वेपद का विशेष्य होता है, यथा--पंचवटी > पाँच बटी हैं जहाँ वह 
(स्थल विशेष)---बहुत्रीहि; पंचवटी->>पाँच वट वक्षों का समूह । 

सन्धि तथा समास में अन्तर--यदयपि संधिज तथा सम्रासज दोनों प्रकार 
के शब्दों में कम से कम दो-दो पद होते हैं, तथापि समासज शब्दों के दोनों पदों में 
पहले समास क्रिया होती है, तत्पश्चात्‌ संधि । समास होने पर विभक्ति/कारक-चिह न 
. आदि शब्दों/पदों का लोप हो जाता है, परन्तु संधि होने पर पूर्व पद की अन्तिम ध्वनि 

और उत्तरपद की आदि ध्वनि के योग से स्व॒र, व्यंजन या विस में कोई न कोई 

परिवर्तत/विकार आ जाता है। समास प्रक्रिया में दोनों पदों के मध्य के पूर्ण शब्द 
या विभक्ति चिह न या वाक्यांश का लोप होता है, जब्बकि संधि में एक स्वर, व्यंजन 
या विस का, यथा--दूर से आगत > दूरागत (समास) ; दूर--आगत-"-दूरागत 
(सन्धि) । पहले उदाहरण में 'से” कारक-चिह न का लोप है, दूसरे उदाहरण में “र 
के अ का। डे दल 





[74 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


आधुनिक हिन्दी में कुछ ऐसे संयुक्त/सामासिक/समासज शब्द प्रचलित 
हो गए हैं जो दो भिन्‍न भाषाओं के शब्दों के योग से बने या व्युत्पन्न हैं। ऐसे शब्दों 
को संकर शब्द कहते हैं, यथा--रेलगाड़ी, टिकटचर, जेलखाना, सीधा-सादा, टिकट- 
खिड़की । भाषा की व्यवस्था के विपरीत शब्दों का निर्माण खठक उत्पन्न करता है, 
यथा--जिलाधीश, कपड़ा मन्‍त्री, कोठा व्यवस्था, लाइसेंस शुदा/लाइसेंस-प्राप्त, पुलिस 
विभाग, प्रेस-अधिवेशन । संकर शब्द निर्माण के समय सहन्प्रयोग (८०॥0८थ६०07) 
का ध्यान रखना चाहिए। जंगे आजादी, स्वतन्त्ता संग्राम भाषा-व्यवस्था के अनुरूप 
हैं किन्तु आजादी संग्राम/आजादी का संग्राम, स्वतन्त्रता की जंग में खटक है । मौजूदा 
हालात/वर्तमान स्थिति, अमतपसन्द/शांतिप्रिय शैली भेद के आधार पर स्वीकायं है। 
हिन्दी, उद्दू में सामान्य भंश ((०शाशठा (०7०) बहुत-कुछ समान होने के कारण 
अनेक संकर शब्द प्रचलन में हैं, यथा--खानापुरी, घरबार, पेशाबधर, मनपसन्द, 
घनदौलत, बालवच्चे, रंगढंग आदि । 


3. प्रत्ययन 
प्रत्ययन्त प्रक्रिया के भन्तगंत किसी प्रकृृति|शब्द के आदि/पृर्व/आरम्भ में जोड़े 
जानेवाला शब्दांश (/अक्षर[प्रत्यय अक्षर-समृह) पूर्षप्रत्यय/उपसर्ग कहा जाता है, यथा--- 
हार में जोड़े गए वि-, आ-, प्र-, सें-' उपसर्गों(पव्व प्रत्ययों से (विहार, आहार, प्रह्मर, 
संहार, नये शब्द बने हैं । 


किसी प्रकृति/शब्द के बाद/पश्चात्‌/अन्त में जोड़े जानेवाला शब्दांश (/अक्षर/ 
प्रत्यय/अक्षर-समूह) परप्रत्यय|प्रत्यय कहा जाता है, यथा--सोना, लोहा' में जोड़े 
गए “आर प्रत्यय से 'सुनार < सोनार, लुहार < लोहार' नये शब्द बने हैं । 


पूकप्रत्यय तथा परप्रत्यय' या 'उपसर्ग और प्रत्यय' प्रकृति के साथ संश्लिष्ठा- 
वस्था में रहते हैं । इन का कोई स्वतन्त्र/मानसिक प्रतिबिम्बीय अथ न होने के कारण 
इत की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती, जब कि शब्द का कोई न कोई स्वतन्त्र अर्थे 


होने के कारण उस की स्वतन्त्र और पृथक सत्ता होती है। शब्दों का स्वतन्त्वतापूर्वक 


प्रयोग सम्भव है, किन्तु उपसर्ग, प्रत्ययों का स्वतन्त प्रयोग सम्भव नहीं है। उपसर्ग 
(विन, आ-, प्र- सं- और प्रत्यय “आरा का कोई स्वतन्त्र अथे नहीं है किन्तु हार, 
सोना, लोहा' शब्दों के साथ जुड़ कर इन्होंने नये अर्थों में नये शब्दों का निर्माण 


किया है | उपसर्ग और प्रत्यय जिन शब्दों के साथ जुड़ते हैं, उन के अथ में परिवर्तन 


या कोई वेशिष्ट्य ला देते हैं । हिन्दी में प्रचलित उपसर्ग, प्रत्ययों को भाषा-स्रोत के 


. आधार पर मुख्यतः तीन वर्गों. में विभक्त किया जा सकता है--(क) संस्कृत उपसर्ग, 
प्रत्यय, (ख) हिन्दी उपसर्ग, प्रत्यय, (ग) अरबी-फारसी आदि विदेशी भाषाओं के 
 उपसगं, प्रत्यय । न जि हे 








शब्द-रचना | 75 


उपसर्ग 

उपसर्ग नामक शब्दांश सदैव एक ही रूप में रहने के कारण “अव्यय” की 
कोटि में रखे जा सकते हैं । कभी-कभी एक से अधिक उपसर्ग भी एक मृल शब्द/ 
प्रकृति में जुड़ जाते हैं, यथा--सुव्यवहार (सु- --वि- -+-अब- --हार), निरभिमान _ 
(निरु- +अभि- --मान), दुष्प्रयोग (दुष- -+-प्र- +-योग) द 

जिस प्रकार एक मूल शब्द या प्रकृति' में विभिन्‍त उपसर्ग जड़ कर विभिन्‍न 
अर्थवाले शब्दों का निर्माण करते हैं, उसी प्रकार एक ही उपसर्ग विभिन्‍न मूल शब्दों 
के साथ जुड़ने पर विभिन्‍न अर्थों का दुयोतक बन जाता है, यथा--अति- (अतिसार, 
अत्याचार), अधि- (अधिकार, अध्ययन); प्र- (प्रकृति, प्रभात), उप- (उपनयन 
उपवास) | यहाँ विभिन्‍न उपसर्ग उन के कुछ प्रमुख प्रचलित अर्थों में विभिन्‍न शब्दों 
के साथ लिख जा रहे हैं । 


संस्कृत उपसर्ग मुख्यतः संस्कृत शब्दों के साथ जुड़ते हैं, यथा--- 

अति- (अधिक, सीमोलंघन, परे)--अत्युक्ति, अत्युत्तम, अत्याचार, अतिरंजन, 
अत्यन्त, अतिवृष्टि, अतीत, अतिमानव' 

अधि- (श्रेष्ठ, मुख्य, ऊपर, स्थान में)--अधीश, अधीक्षण, अध्यादेश, अध्यक्ष 
अधिकार, अभधिराज, अधिदेव 

अनु- (पीछे, समान, छोटा)--अनुज, अनुस्वार, अनुवाद, अनुशासन, अनुभाग 

अप- (बुरा, विरुद्ध, अभाव, हीन)--अपकीति, अपशब्द, अपकार अपशकुन, 
अपमान, अपयश, अपराध 

अभि- (ओर, पास, सामने, इच्छा श्रेष्ठ)--अभिमुख, अभ्यागत अभ्युदय, 
अभियुक्त, अभिप्राय, अभिलाषा, अभिसार, अभिजात 

अव- (नीचे, अपकर्ष, हीन)--अवगाहन, अवतार, अवनति, अवगुण, अवरोह, 
अवगत, अवकाश | 

आ- (से, अल्पता, तक/पर्यन्त, सहित, विपरीत)--आजन्म, आशंका, आभास 
आरक्त, आजानु, आसेतु, आजीवन, आमरण 

उत्‌- (ऊपर, श्रेष्ठ)--उत्कण्ठा, उत्तम, उत्पत्ति, उत्करष, उद्भव, उद्योग 
उल्लास, उन्नति, उज्ज्वल, उच्छवास । 

उप- (समान, समीप, गौण/सहायक) --उपनयन, उपकल, उपनाम, उपवन, 
उपमंत्री,, उपाध्यक्ष, उपमान क्‍ क्‍ 

दुर/दुसू- (कठिन, बुरा, दुष्ट)--दुर्गंग, दुष्कर, दुलंभ, दुस्तर दुराचार, 
दुश्चरित्र; दुरवस्था, दुस्साहस 

नि- (अन्दर/भीतर, नीचे, बड़ा/बहुत)-- निमग्न, निरोध, निरूफण, निगढ़, 
निष्ठा, न्याय, नियम, निपात द 








76 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


निर/निस्‌- (विना/निषेध, बाहर)--निर्दंय, निबंल, निगुण, निरपराध, 
निर्दोष, निश्शब्द, तिष्कपट, निश्चय, तिःश्वास 

परा- (उलटा, पीछे, परे)--पराजय, पराक्रम, पराभव, परावतंन, पराडः मुख 

परि- (आसपास|चारों ओर, पूर्ण, दोष-कथव)--परिवार, परिजन, परिवतेन, 
परिक्रमा, परिहास, परिवाद, परिपक्व, परिश्रम 

प्र- (अधिक, आगे, ऊपर, पूर्ण का एक खड)--प्रबल, प्रताप, प्रकाश 
प्रयास, प्रपौत, प्रगति, प्रयोग, प्रदेश, प्रभाग 


प्रति- (निरुदूध, बदला, सामने, समान, हरएक)--प्रतिकूल, प्रतिवाद, 


प्रतिकार, प्रतिमान, प्रतिभागी, प्रतिस्पर्धा, प्रतिदिन, प्रत्येक 
वि- (विशेष, भिन्‍न, विरोध)--व्युत्पत्ति, व्यवहार, विनायक, विशुद्ध, 
विदेश, विजातीय, विव्रवा, विस्मरण 
सम्‌|सं- (पूर्ण, अच्छा, साथ)--संकोच, सम्मान, संस्कार, संयोग, संसार, 
सन्‍्तोष, संगीत, सम्मुख द 
सु (अच्छा, सहज)--सुपुत्र, सुकमं, सुधार, सुगम, सुलभ - 
उपसर्गवत्‌ प्रयुक्त कुछ संस्कृत-विशेषण, अव्यय (गति शब्द) 
अ-अन्‌- (अभाव, निषेध)--अकारण, अधरम, अनीति, अभाव, अशकक्‍त; 
अनधिकार, अनेक, अनन्त, अनाकषंक, अनादर द 
अधस्‌|अधः- (नीचे )--अधोगति, अधः:प्तन, अधोवस्त्र, अधोभाग, अधोमुख 
अन्तर्‌/अच्त:- (भीतर)--अन्तर्राष्ट्रीय, अन्त:पुर, अन्त:करण, अच्तगंत 
कु- (बुरा)--क्रुपुत्र, कुकम, कुरूप, कुयोग, कापुरुष (का- -+-पुरुष) 
चिर- (देर का)--चिरकाल, चिरकुमार, चिरंजीवी 
तत्‌- (वही)--तत्काल, तनन्‍्मय, तल्‍लीन, तत्सम _ 
स- (अभाव)--नतपुसक, नास्तिक जिस 
प्र- (अन्य)--परदेशी, पराधीन, परोपकार हि 
पुनर्‌|पुत्रः- (फिर)--पुनविवाह, पुनर्जन्म, पुनरुकत, पुनरुक्ति, पुनरुद्धार 
. पुर: (सामने)--पुरस्कार, पुरश्चरण, पुरोहित 
पुरा- (पहले)-पुरातत्त्व, पुरातन, पुरावृत्त 
पूर्वें- (पहला) --पूर्व पक्ष, पूर्वादध, पृ निश्चित 
बहिर/बहि:- (बाहर)--बहिष्का र, बहिदर्वार, बहि्ग॑मन 
हु- (अधिक)--बहुमत, बहुमूल्य, बहुबचन द 
स- (सहित)--सफल, सगोत्र, सजीव, सहर्ष, सचेत, स्विनय द 
. सतूसिद्‌- (अच्छा)--सत्पात्न, सत्कर्म --सद्व्यवहार, सदाचार, सज्जन 
.. सह- (साथ)--सहोदर, सहपाठी, सहचर ह बडे 
... हव- (अपना, निजी)स्वतन्त्र, स्वदेशी, स्वराज्यं, स्वकर्म, स्वदेश, स्वधर्म 
... स्वयं (अपने आप, ख द)--स्वयंसेवक, स्वयंवर, स्वयंभू, स्वयंसिद्ध 


न मनन 





शब्द-रचना | 77 


हिन्दी-उपसर्ग (संस्कृत, हिन्दी शब्दों के साथ प्रयुक्त) 
अ-(अभाव, नहीं)-- अजान, अचेत, अछूत, अटल, अथाह 
अन-(अभाव, नहीं)--अनमोल, अनगिनत, अनपढ़, अनसुनी, अनमना 
उ-(भरा हुआ, से मुक्त)--उनींदा/उनींदी, उऋण 
उन-<_ सं. ऊन (कम, थोड़ा)--उनन्‍्तीस, उनसठ, उनहत्तर 
औ-<_सं. अब (नीचे, हीन)--औतार, भौगुन, औढर, औघट 
क-/कु- (बुरा)--कपूत, कुठौर, कुठेव, कुचाली 
ढु-(सं. दुरदुः (बुरा)-- दुबला, दुकाल, दुलार 
नि<-सं. निर्‌/निः (रहित)--निडर, निकम्मा, निधड़क, निहत्या, निपूता 
स-सु-(अच्छा)--सपूत, सचेत, सुडौल, सुजान, सुघड़ 
उपसर्गंवत्‌ प्रयुक्त कुछ हिन्दी शब्द 
अध-<- आधा < से. अदृध (आधा)--अधपका, अधकच्चा, अधकचरा, 
अधखिला, अधजला, अधमरा (ये सभी वाक्य/वार्क्यांश स्तरीय रचनाएँ हैं) 
ढु-< दो <- सं. दवो (दो)--दुगुना, दुधारी, दुपट्टा, दम हा 
बित-< बिना (बिना)--बिनब्याही, बिनमाँगा, बिनबिका 
भर-< भरा (पूरा)--भरसक, भरपेट, भरपूर 
उद्द -उपसर्ग (उदूं, हिन्दी शब्दों के साथ प्रयुक्त) 
द अल-(निश्चित)--अलबत्ता, अलगरज, अलबिदा 
. ऐन-(ठीक)--ऐनव कक्‍्त, ऐनमौ के, ऐनजवानी 
कम-(थोड़ा)--कमजूो र; कमउम्र, कमसमझ । (इतनी. कम आमदनी से' में 
कम विशेषण है) 
_-खुश-(अच्छा)--.खुशमिजाज्‌, ,खुशकिस्मत । ('आज वह बहुत खश हैः में 
खश' विशेषण पुरक है)... 
. ग॑ र-(हूसरा/भिन्‍न/अन्य)--ग रहाजिर, गूँ रमुल्क, गँ रकानूनी, गै रमुनासिब, 
गूं रजिम्मेदार । (“मैं कोई गर थोड़े ही हूँ में 'गर' विशेषण है) 
दर--- (में )--दरकिनार, दरमियान, दरहककीकत, दरअसल/दरअस्ल । (ये' 
शब्द वाक्यांश संरचना स्तरीय हैं, अत: दर उपसगंवत्‌ प्रयुक्त है, उपसर्ग नहीं) 
.. ना“ (अभाव, कमी, बिना)--नापसन्द, नादान, नाख श, नालायक, नासमझ 
फिल-- में )---फिलहाल 2 5 
(प्रति)--फी आदमी । (उपसगंवत्‌ प्रयुक्त विशेषण शब्द) 
 ब--(अनुसार, में, ओर)--बकौल, बदस्त्र, बनाम, बदौलत, बइजलास 
हु 5 | | प हर 7. " 








80 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


भलाई), -पत (कालापन, पागलपन), -हट (चिकनाहट, कड़वाहट), -आपा (बुढ़ापा, 
रंडापा, मोटापा), -आस (मिठास, खटास), -आयत (बहुतायत), -इख (कालिख), 
-औती (बपौती, बुढ़ौती), -डा (दुखड़ा, झगड़ा), -त (रंगत, संगत), -नी (चाँदनी), 
-क (ठंडक, धसक), -आना (ठिकाना), -ठी (कर्नठी), -गी (ताजुगी, सादगी) 

संस्कृत के -अ, -इमा, इमनू, ता, -त्व, न्‍य से निर्मित भाववाचक संज्ञा शब्द, 
यथा-- -अ (गौरव, कौशल, यौवन, शैशव, लाधव), -इसा (लालिमा, महिमा, 
, रक्तिमा, लधिमा), “ता (सज्जनता, दुज॑नता, सुन्दरता), -त्व (ब्राह मणत्व, सतीत्व, 

गुरुत्व, प्रभुत्व), -य (पॉडित्य, माधये, चांचल्य, धेये) ; 

(घ) लघुतासूचक तद्धित प्रत्यय--संज्ञा शब्दों में जुड़ कर लघुता/|लाघव/ 
छोटेपन का बोध करानेवाले संज्ञा शब्दों का निर्माण करते हैं । इन्हें ऊनवाचक/ 
लाघववाचक तद्धति प्रत्यय भी कहा जाता है। इन प्रत्ययों से बने कुछ शब्द हैं-- 
-आ (बबुआ, पिलुआ), -इथा (लुटिया, खटिया, डिबिया, अँबिया, गठरिया), -ई 
(लेंगोटी, कटोरी, ब्टोकरी, पहाड़ी), "डी (चमड़ी, बछड़ी, पंखड़ी), -ड़ा (सुखड़ा, 
दुखड़ा, बछड़ा), -वा (बचवा, चमरवा), “भोला (खटोला, गढ़ोला, संपोला), -क 
(ढोलक, तुपक), -ची (संदुकची, बगीची), -टा (रोंगटा), -ली (बटुली, खदुली) 

(ड)) कर्तृवाचक तद्धति प्रत्यय- ये संज्ञा शब्दों में जुड़ कर 'करनेवाले, 
बनानेवाले/घड़नेवाले” आदि का बोध करानेवाले प्रत्यय हैं, यथा-- -आर (सुनार, | 
लुहार, कुम्हार), -इया (आढ़तिया, मखनिया), -ई (कोठारी, तेली, गंधी, भंडारी, 
योगी, द फ्तरी), -उआ (मछुआ), -एरा (सँपेरा, कसेरा), -वान (हाथीवान, 





गाड़ीवान, पीलवान), -वाल (कोतवाल), -बाला (टोपीवाला, घरवाला), -हाश .. 


(पनिहारा, लकड़हारा, चुड़िहारा), -ड़ी (भंगेड़ी), -गर (जादूगर, कारीगर, कलईगर) 


-ची (मशालची, खचानची), -दार (जूमींदार), -यारा (घसियारा), -दार (लेनदार, | 


देनदार); -कर (दिनकर, प्रभाकर, हितकर, सुखकर), -काट (स्वर्णंकार, चमेकार 
कु भका र, ग्र थकार, चित्रकार), -धर (जलधर, हलधर, विषधर) .. - 

(च) सम्बन्धवाचक तद्धति प्रत्यय--ये संज्ञा शब्दों में जड़ कर विभिन्‍न 
प्रकार के संबंधों/स्वजन संबंधों/नाते-रिश्तों/अपत्य (संतान) आदि का बोध करानेवाले .. 
: प्रत्यय हैं, यथा-- -आयन (वात्स्यायन, कौशल्यायन), -इ (दाशरथि), -ई (भागीरथी, 
 आरुणी; पंजाबी, ईसाई, रामानन्दी) (भारतीय, महाराष्ट्रीय), -एय (वैनतेय, 
राधेय, कोन्तेय), -भ सं - अण्‌ (पांडव, वेष्णव, शैव, बौद्ध, जैन, सौमित् 


जामदरत्य, दानव, मानव, यादव, काश्यप, पाथे), -आल (ससुराल, ननिहाल) 
ओती (कठोती, 'औटी (हथौटी), -ज<सं. जात (पंकज, जलज) (भतीजा 





 भानजा), -एरा (ममेरा, फुफेरा, चचेरा), -द्ान|-दानी (पानदान, गुलाबदान, | 


 पीकदान, चायदानी, मच्छरदानी), “खाना (डाकखाना, कारखाना), -हंर (खंडहर) 
. आना (दस्ताना, नज्राना), -का (मायका/मैका), -ची (घड़ौंची) 











78 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


बद--(वुरा)--बदनीयत, बदबू, बदनाम, बदहवास, बससूरत, बदकिस्मत, 
 बदइन्तजाम । (बद अच्छा बदनाम बुरा” में बद संज्ञावत्‌ प्रयुक्त) 

बा-- (अनुसार, सहित)-- बाकायदा, बातमीज्‌, बाजाप्ता 

बिला--(बिमा)--बिलाशक, बिलाकसूर, बिलानागा 

बे--(बिना)--बेचारा, बेरहम, बेईमान, बेचेत, बेजोड़, बेल, ज्जृत, बेगुनाह,. 
बकार, बेहोश, बेफिक्र, बेमतलब 

ला--(बिना, सीमा का पार, अभाव)--लापरवाह, लाजवाब, लापता 
लाचार, लावारिस 

सर- (मुख्य)/--सरपंच, सरताज, सरदार द 
हम--(साथी)--हम उम्र, हमदद, हमसफर, हमराज 

हर--प्रत्येक /--हररोज, हरघड़ी, हरदम, हरएक, हरकोई, हरसाल । 
(उपसर्ग वत्‌ प्रयुक्त विशेषण शब्द) 
द श्रत्ययं 

भाषा-व्यवस्था में मात्रा तथा गुण की दृष्टि से उपस्गों की अपेक्षा प्रत्ययों 
का महत्त्व अधिक है। प्रकार्थ की दृष्टि से प्रत्ययों को दी वर्गों में रखा जा 
सकता है--- 

-[. व्यत्पादक प्रत्यय--शब्द स्तर पर कार्य करनेवाले इन प्रत्ययों को परि- 

वर्तक प्रत्यय या शब्द-निर्माणक प्रत्यय भी कहा जाता है। व्युत्पादक प्रत्यय दो प्रकार 
के होते हैं-- (अ) प्रतीक परिवर्तक (आ) वर्ग परिवत क। प्रतीक परिवंतंक प्रत्यय 
संज्ञा शब्दों के लिंग में परिवर्तन लाते हैं और कुछ प्रत्यय विशेषण शब्दों के तुलना 
त्मक स्वरूप में स्तर परिवततंन । इस आधार पर इन्हें (7) लिग परिवत कः (7) स्तर 
. परिवत क प्रत्यय कह सकते हैं। वर्ग परिवतेक प्रत््यय एक वर्ग के शब्द को दूसरे वर्ग 
में परिवर्तित करते हैं। इस दृष्टि से ये पाँच प्रकार के हो सकते हैं--(क) कत वाचक 
संज्ञा निर्माणक प्रत्यय (ख) भाववाचक संज्ञा निर्माणक प्रत्यय (ग) लघुतासूचक संज्ञा 
निर्माणक प्रत्यय (घ) स्वजनतावाचो संज्ञा निर्माणक प्रत्यय (डः) गुणवाच्रक विशेषण 
निर्माणक प्रत्यय । मूल रूप के साथ जुड़ने के आधार पर वर्ग परिवतक प्रत्ययों के 
तीन भेद हो सकते हैं-- ($) तद्धित प्रत्यय (7) क्ृत्‌ प्रत्ययः (पा) उभय क्षेत्रीय 
प्रत्यया। 
($) तद्धित प्रत्यय--वे प्रत्यय हैं जो क्रिया-धातु के अतिरिक्त अन्य किसी 
मूल या सिद्ध शब्द के पश्चात्‌ जुड़ कर क्रिया के अतिरिक्त किसी अन्य तद्धितांत 
शब्द-भेद का निर्माण करते हैं, यथा-- -त्व, “दार, “इया, -ता से निर्मित शब्द 
.._पुरुषत्व, समझदार, खटिया, विशेषता क्‍ 


(7) कृत प्रत्ययं--वे प्रत्यय हैं. जो किसी. क्रिया-धातु में जुड़ कर क्रियापद | 


के हे क्के अतिरिक्त किसी अन्य यौगिक शब्द-भेद (संज्ञा, विशेषण आदि) का निर्माण करते 


2 धग3 सह अ सार सकमसकर७ज++- “०.5 


-++१ल्‍जनमुमकेलेडमनुकारपसा८बककंान+ २००० >प- 5५: + - 


छ बर्कपमथण न-त तायायश्ासनलममदापवकमकबकला-+- ८ ५ ०. .2० «- सनम केबल 8 सर 03 २ 








. शब्द-रचना | 79 


यथा-- -वंट, “हट, -ऊ, -आक से निर्मित शब्द सजावट, अकुलाहट, कमाऊ, 
तैराक' । कृदन्त प्रत्यय जोड़ने से बने शब्द कृदन्त कहलाते हैं और तद्धित प्रत्यय 
जोड़ने से बने शब्द तदधितान्त । द द न्‍ 
(7) उभ्य क्षेत्रीय प्रत्यय--वे प्रत्यय हैं जो नाम रूपिमों और क्रिया- 
धातुओं के साथ जुड़ कर क्रिया शब्दों की रचना करते हैं। इन प्रत्ययों में से कुछ 
प्रत्यय नाम वर्ग के रूपिमों/शब्दों को क्रिया रूपों में परिवर्तित करते है; और कुछ 
प्रत्यय अकर्मक से सकमंक, समकमंक से अकर्मक, अकर्मंक-सकर्मक से प्रेरणार्थक 
बनाते हैं, कु 
“. रूपान्तरक श्रत्यय--वाक्य स्तर पर काय करनेवाले इन प्रत्ययों को 
व्याकरणिक प्रत्यय या परिचालक प्रत्यय या रूप-साधक प्रत्यय भी कहा जाता है । 
ये प्रत्यय मूलप्रकृति या व्युत्पन्न प्रकृति के शब्दों को पदों में रूपान्तरित करते हे, 
यथा--भाई-- -ओों >- भाइयों, बस-- -ए--बसे। रूपान्तरक प्रत्ययों में वचन, 
कारक, कालादि सूचक प्रत्ययों की गणना की जाती है। भाइयों को, बसों में , बसों 
के ऊपर भी, भाइयों के पीठ पीछे ही आदि पदों/पदबन्धों में विभक्ति अंश (-ओं), 
परसर्ग अंश (को, में), परसर्गाभास अंश (के ऊपर, के पीठ पीछे), निश्षिप्त अंश 
निपात (भी, ही) प्रत्ययों की श्रेणी में रखे जाते रहे हैं । | द 
(यहाँ केवल व्युत्पादक प्रत्ययों का विवरण ही प्रस्तुत किया जा रहा है, 
रूपान्तरक प्र॒त्ययों का विवरण सम्बद्ध अध्यायों में किया जाएगा) 
तद्धित प्रत्यय-भेद--विभिन्‍न तद्धित प्रत्ययों को उन के 7कार्य के आधार 
पर इन वर्गों में रखा जा सकता है-- कक न ली हे 
.._[क) लिग परिवर्ताक तद्धति प्रत्यय--वे युग्मप्रक प्रत्यय हैं जो पुब्लिग या 
सत्रीलिंग बताने के लिए प्रयोग में लाए जाते हैं । ये मूल शब्द के प्रतीक में परिवतंन 
लाते हैं, उस के वर्ग में नहीं । हिन्दी में कई लिंग परिवतंक प्रत्यय हैं, यथा--आ-> 
ई (लड़का-+लड़की, थैला-सथैली), 2 -+नी (शेर->शेरनी, मोर->मो रनी), ई-+ 
. आ (मौसी-ल्मौसा) आदि । (लिंग परिवतंक प्रत्ययों की विस्तृत चर्चा अध्याय 4 
संज्ञा में की जाएगी) क्‍ कम आर मम 
(ख) स्तर परिवत क तद्धित' प्रत्यय--वे प्रत्यय हैं जो कुछ गुणवाचक 
विशेषणों के साथ जुड़ कर तुलनात्मक दृष्टि से उन के स्तर में परिवतंन पैदा करते 
. हैं, यथा--9& “>तर->तम (उच्च-»उच्चतर->उच्चतम; अधिक-+अधिकतर-+ 
. अधिकतम) आदि । (स्तर परिवतंक प्रत्ययों की विस्तृत चर्चा अध्याय 6 'विशेषण' 
में की जाएगी) मी वि मय तह 
..._(ग) भाववाचक तद्धित प्रत्यय--ये संज्ञा या विशेषण शब्दों में जुड़ कर 
. भाववाचक संज्ञा बनाते हैं, यथा-- -आ (खटका, झोंका, बोझा), -आई (चिकनाई, 
ढिलाई, पंडिताई, भलाई), -आन (उँचान, निचान)- -ई (खती, महाजनी, बुराई, 














80 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


भलाई), -पन् (कालापन, पागलपन), -ह॒ड (चिकनाहुठ, कड़वाहट), -आपा (बुढ़ापा, 
संडापा, मोटापा), -आस (मिठास, खटास), -भायत (बहुतायत), -इख (कालिख), 
-औती (बपौती, बुढ़ौती), -ड़ा (दुखड़ा, झगड़ा), -त (रंगत, संगत), -नी (चाँदनी), 
-क (ठंडक, धसक), -आना (ठिकाना), -ठी (कर्नठी), -गी (ताजगी, सादगी) 

संस्कृत के -अ, -इमा, इसनू, ता, -त्व, -य से निर्मित भाववाचक संज्ञा शब्द, 
यथा-- -अ (गौरव, कौशल, यौवन, शैशव, लाघव), -इमा (लालिमा, महिमा, 
, रक्तिमा, लघधिमा), “ता (सज्जनता, दुज॑नता, सुन्दरता), -त्व (ब्राह मणत्व, सतीत्व, 

गुरुत्व, प्रभुत्व), -य (पांडित्य, माधुये, चांचल्य, धेय) द 

(घ) लघुतासुचक तद्धित प्रत्यय--संज्ञा शब्दों में जुड़ कर लघुता/लाघव[ 
छोटेपन का बोध करानेवाले संज्ञा शब्दों का निर्माण करते हैं । इन्हें ऊनवाचक/ 
लाघववाचक तद्धति प्रत्यय भी कहा जाता है । इन प्रत्ययों से बने कुछ शब्द हैं-- 
-आ (बबुआ, पिलुआ), -इथा (लुटिया, खटिया, डिबिया, अँबिया, गठरिया), -ई 
(लेंगोटी, कटोरी, «टोकरी, पहाड़ी), “डी (चमड़ी, बछड़ी, पंखड़ी), -ड़ा (मुखड़ा, 
दुखड़ा, बछड़ा), -वा (बचवा, चमरवा), -ओला (खटोला, गरढ़ोला, संपोला), -क 
(ढोलक, तुपक), -ची (संदुकची, बगीची), -टा (रोंगठा), -ली (बटुली, खटुली) 

(डः) करत बाचक तद्धति प्रत्यय- ये संज्ञा शब्दों में जुड़ कर करनेवाले 
बनानेवाले/घड़नेवाले! आदि का बोध करानेवाले प्रत्यय हैं, यथा--- -आर (सुनार 
लुहार, कुम्हार), -इया (आढ़तिया, मखनिया), -ई (कोठारी, तेली, गंधी, भंडारी, 
योगी, द फ्तरी), -डआ (मछआ), -एरा (सँपेरा, कसेरा), -वान (हाथीवान, 
गाड़ीवान, पीलवान), -वाल (कोतवाल), -वाला (टोपीवाला, घरवाला), -हारा 
(पनिहारा, लकड़हारा, चुड़िहारा), -ड़ी (भँगेड़ी), -गर (जादृगर, कारीगर, कलईगर) 
“वी (मशालची, खुचानची), -दार (जूमींदार), -यारा (घसियारा), -दार (लेनदार 
देनदार); -कर (दिनकर, प्रभाकर, हितकर, सुखकर), -काठ (स्वणंकार, चमंकार, 
कुभकार, ग्रथकार, चित्रकार), -धर (जलधर, हलधर, विषधर) 

(च) सम्बन्धवाचक तद्धति प्रत्यय--ये संज्ञा शब्दों में जुड़ कर विभिन्‍न 
प्रकार के संबंधों /स्वजन संबंधों /नाते-रिश्तों|अपत्य (संतान) आदि का बोध करानेवाले 
प्रत्यय हैं, यथा-- -आयन (वात्स्यायन, कौशल्यायन), -इ (दाशरथि), -ई (भागीरथी, 
 आरुणी; पंजाबी, ईसाई, रामानन्दी), “ईंय (भारतीय, महाराष्ट्रीय), -एय (वैनतेय, 
राधेय, कोन्तेय), -अ सं - अण्‌ (पांडव, वेष्णव, शैव, बौद्ध, जैन, सौमित, 
.. जामदस्न्य, दानव, मानव, यादव, काश्यप, पार्थ), -आल (ससुराल, ननिहाल), 

- -औती (कठौती, 'औटी (हथौटी), -ज<सं. जात (पंकज, जलज), -जा (भतीजा, 
... भानजा), -एरा (ममेरा, फुफेरा, चचेरा), -दान/-दानी (पानदान, ग्रुलाबदान, 
.. पीकदान, चायदानी, मच्छरदानी), -खाना (डाकखाना, कारखाना), -हंर (खंडहर), 

. "आता ([दस्ताना, नज॒राना), -का (मायका/मैका), -चो (घड़ौंची) कम 





शब्द-रचना | 48] 


(छ) गुणवाचक तद्धित प्रत्यय--ये संज्ञा सवेनाम शब्दों में जुड़ कर गुण का 
बोध करानेवाले प्रत्यय हैं, यथा-- -आ (प्यासा, ठंडा, भूखा, कुबड़ा, निगोड़ा), -आऊ 
(पंडिताऊ, अगाऊ), -इयल (दढ़ियल), -ई (ख,नी, थुलाबी, गुणी, देशी, विदेशी), 
-ऊ (पेटू घरू, बाजारू, गर जू, ढालू), -ईला (रोबीला, गँंठीला, रंगीला, रसीला, 
छबीला, जहरीला, सजीला), -वर (दिलावर, नामवर), -आहा (दखिनाहा, 
उत्तराहा), -ऐल (नखरेल, दुधेल, दंतेल), -ऐया (बनेया, घरैया), -ऐत (लठैत, नचैत, 
डकत), -एला (बघेला, सोतेला), ऐला (बतैला, विषैला)। -ला (अगला, पिछला) 
“वाल (काशीवाल, दिल्‍लीवाल), -वाला (आपवाला, श्यामवाला), -सा (ऐसा, बसा), 
हर (छुतहर, भुतहर), -हरा (सुनहरा, रुपहरा), -हा (छुतहा, भुतहा); -बार 
(मालदार, हिस्सेदार, जिम्मेदार, इ ज्जुतदार, मज दार), -आना (सालाना, दोस्ताना), 
“गीन (गमगीन), -ताक (दर्दनाक, खौफनाक), -बान (निगहबान, मेहरबान), “बन्द 
(हथियारबन्द, मोर्चाबन्द), -मन्‍्द (अक्लमन्द, दौलतमन्द), -बर (ताकतवर, कृवतवर), 
“बार (घंटेवार, नम्बरवार, भाषावार), -सार (खाकसार), -गार (मददगार), -बाज 
(दगाबाज); -आलु (दयालु, कृपालु), -इक (सामाजिक, धाभिक, दैनिक, ऐतिहासिक, 
नेतिक, राजनतिक, भौगोलिक, पौराणिक), -इत (ख डित, कलित, तरंगित, आनन्दित, 
पुलकित, दुःखित), “इष्ठ (गरिष्ठ, पापिष्ठ, बलिष्ठ), -इष्ठ (स्वादिष्ट), -ईय 
(भारतीय, राष्ट्रीय, स्वर्गीय), -ईन (प्राचीन, अर्वाचीन, कुलीन, ग्रामीण), -तन 
(पुरातन) -सय (दयामय, जलमय, शांतिमय), य (ओष्ट्य, कंठूय, दन्त्य), “मान्‌ 
(श्रीमान्‌, बुद्धिमानू, मतिमान्‌), -बानू (धनवान, ग्रुणवार्न, ज्ञानवान्‌, विदयावान्‌), 
-ल (वत्सल, श्यामल), -बी (तपस्वी, तेजस्वी, मायावी), -बन्त (कुलवन्त, दयावन्त) 


(ज ) क्रमवाचक तव॒धित प्रत्यय---ये गणनावाचक शब्दों में जुड़ कर क्रम का 
बोध करानेवाले प्रत्यय हैं, यथा-- -ला (पहला), -रा (दूसरा, तीसरा), -था (चौथा 
-ठा (छठा), -वाँ (पाँचवाँ, सातवाँ, सौर्वा); -भ (प्रथम, पंचम, सप्तम, नवम), -तीय 
(द्वितीय, तृतीय) -थ (चतुर्थ), -ठ (षष्ठ) 

(झ) सादृश्यवाचक तद्धित प्रत्यय--ये संज्ञा/सर्वनाम/|विशेषण शब्दों में जड़ 
कर सादृश्य का बोध करानेवाले प्रत्यय हैं, यथा-- -सा (आप-सा, क्लाग-सा, काला- 
सा), -बत्‌ (पुत्रवत्‌, सूर्यवत्‌ ) 

(जग) अव्यय निर्माणक तद्धित प्रत्यय - ये अव्यय शब्दों के अतिरिक्त अन्य 
शब्दों में जुड़ कर अच्ययों का निर्माण करनेवाले प्रत्यय हैं, यथा-- -आँ (यहाँ, वहाँ 
कहाँ, जहाँ), -भों (कोसों, घंटों, पहरों, मुद्दतों), -न (मसलन, अन्दाजुन, कानूनन) 

इन (येन केन प्रकारेण, सुखेन), -चित्‌ (किचित, कदाचित्‌, क्वचित्‌), -तः (विशेषत 
_ स्वतः, अंशतः, पुर्णत:), -तया (साधारणतया, पूर्णतया, सम्भवतया), -था (स्ेथा 
अन्यथा), -दा (सवंदा, एकदा), -धा (बहुघा, दुविधा), -शः (क्रमशः, अल्पश:) 
पूर्वक (विधिपूर्वक, दृढ़तापूर्वक) 


५ सललकाारमा+-5 4 लिकपलाकाइनतम५नरकलकतदररक्‍ञप 5. टच दान +# हु 











82 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरग 


क्ृत्‌ प्रत्यय-्भेद--प्रकायें के आधार पर क्ृत्‌ प्रत्ययों के तीन भेद हो सकते 
हैं--. संज्ञा-निर्माणक 2. विशेषण निर्माणक 3. क्रियाविशेषण-निर्माणक । कऊँतू 
प्रत्ययों से बने कृदन्‍त शब्द असमापिका क्रियापद के रूप में भी कार्य करते हैं, यथा--- 
ज्रा-जुरा सी बात पर तुम्हारा हठना मुझे अच्छा नहीं लगता (संज्ञा); फटा|फटा 
हुआ दूध दही नहीं बन सकता (विशेषण); तुम उठ कर/उठते ही/उठते हुए पहले 
क्या करते हो ? (क्रियाविशेषण) । श्याम शब्द संज्ञा, विशेषण और क्रियाविशेषण 
के अतिरिक्त असमापिका क्रिया का कार्य भी कर रहे हैं। -आ, -ता, -ना समापिका 
क्रिया के भी प्रत्यय हैं, यथा- मैं ने पत्र लिखा, मैं नहीं जाता, मुझे नहीं जाता । 
कृत प्रत्यय व्युत्पादक तथा रूप-साधक होते है । के 
]. पंज्ञा-निर्माणक कृत्‌ प्रत्यथय--इन अ्रत्ययों के योग से विभिन्‍त संज्ञा शब्दों 
का निर्माण होता है। इन प्रत्ययों को इन के प्रकायं के आधार पर चार वर्गों में 
रखा जा सकता है--(क) भाववाचक संज्ञा निर्माणक (ख) वकतू्‌ वाचक संज्ञा निर्माणक 
(ग) करण|साधनवाचक संज्ञा निर्माणक (घ) कमंवाचक संज्ञा निर्माणक द 
(क) भावबाचक संशा निर्माणक कूत्‌ प्रत्यय--ये प्रत्यय भाव (क्रियाव्यापा र). 
का बोध करानेवाले शब्दों का निर्माण करते हैं, यथा-- 2 (पहुंच, मार, सोच, 
विचार), -अंत (भिडंत, रटंत), -अन (शयन, गमन, लगन), -आ (पूजा, शिक्षा, 
घाटा, छापा, घेरा), -आई (पढ़ाई, लिखाई, सिलाई), -आन (उड़ान, मिलान, 
उठान), "आप (मिलाप), -आब (लगाव, बहाव, छिड़काव), -आबट (रुकावट, 
दिखावट, मिलावट), -आबा (पछतावा, दिखावा, बुलावा), -आस (निकास, हुलास, 
प्यास), -इ (कृषि, रुचि, -ई (हँसी, बोली, धमकी), एरा (बसेरा, निबटेरा/ 
निबटारा), -औती (मनौती, चुनौती), -त (बचत, खपत, लागत), -ती (बढ़ती, 
चढ़ती, घटती), -त (चलन, लेन, देन, मोहन, उच्चाटन), -ता (चलना, मरना, 
खाना), “भी (करनी, भरनी, होनी, छंटनी ), -बट (मिलावट, दिखावट, सजावट), 
._-हुट (चिल्लाहट, एस जलाहट) घबड़ाहट, झल्लाहट) ् क्‍ द 
.._(ख) कर्तुवाचक संज्ञा निर्माणक इत्‌ प्रध्यय-- ये प्रत्यय क्रिया-ध्यापार के 
करनेवाले संज्ञा शब्दों का बोध कराते हैं, यथा-- -भ (चर, चोर, सर्प), -अक 
(पाठक, लेखक), “अन (मोहन, साधन), -इन्‌ >ई (कामी, लोभी, योगी), -तु 77 
तॉबी (कर्ता, नेता, कर्ती, नेत्री), “झा (भूंजा), “का. (उचक्का), “र (झालर) । 
कई कत्‌वाचक शब्द विशेषणवत्‌ होते हैं; विशेषण-निर्माणक श्रत्ययों में भी कई 
प्र्यय कव बाचक निर्माणक हैं ।. न हा ह 
.... (ग) करण/साधनवाचक संज्ञा निर्माणक छृत्‌ प्रत्यय-ये प्रत्यय क्रिया-व्यापार 


... के करण[साधनवत्‌ प्रयुक्त होनेवाले संज्ञा शब्दों का निर्माण करते हैं, यथा- वा 


.._ (घोटा, झूला, ढे 





किक 


-ठेला, डोला), -आनी (मथानी), “ई (बुहारी, रेती, फाँसी, लग्गी), 
. नऊ (झाड़,) -औटी (कसौटी), -भौना (खिलौना), -त (बेलत, ढक्कन, झाड़न), 





" अन-- चर वर ललहर 











शब्द-रचना | 83 


-ता (बेलता, ढकना, छनना/छन्‍्ता, ओढ़ना), -नी (कतरनी, धौंकनी, बेलनी, घोटनी, 
छलनी, सुमरती, कुरेदनी), -पा (ख रपा), -री (कटारी) द 

(घ) कर्मवाचक संज्ञा निर्माणक कृत्‌ प्रत्यय--ये प्रत्यय क्रिया-व्यापार के 
कर्मव॒त्‌ प्रयुक्त होनेवाले संज्ञा शब्दों का निर्माण करते हैं, यथा-- 9 (दाल), -औना 
(बिछौना), -ना (ओढ़ना), नी (ओढ़नी, सुघनी, ख॑ नी) 

2. विशेषणनिर्माणक कृत प्रत्यय--इन प्रत्ययों के योग से विभिन्‍न विशेषण 
शब्दों का निर्माण होता है। इन प्रत्ययों को इन के प्रकार्य के आधार पर तीन वर्गों 
में रखा जा सकता है--(अ) ग्रुणवाचक विशेषण निर्माणक (आ) कतवाचक विशेषण 
निर्माणक (इ) क्रियार्थी विशेषण निर्माणक 

(अ) गुणवाचक विशेषण निर्माणक कृत प्रत्यय--ये प्रत्यय विभिन्‍न गुणवाचक 
विशेषणों का निर्माण करते हैं, यथा-- -आऊ (दिखाऊ, बिकाऊ टिकाऊ), -अनीय 
(करणीय, निन्‍्दनीय, स्मरणीय), -चना (डरावना, लुभावना, सुहावना), -इया 
(घटिया, बढ़िया), -वाँ (कटवाँ, ढलवाँ, चुसवाँ), -उआ (पड़ आ), -त (कृत, भूत, 
श्रूत, नष्ट) -इत (कथित, त्रिदित), -य (खाद्य, निन्‍द्य, पेय, देय), -ई (छली ) 

(आ) कतृ वाचक विशेषण निर्माणक कृत्‌ प्रत्यय--इन प्रत्ययों के योग से 
बने शब्दों से किसी प्राणी के कतू व्य का बोध होता है । शब्द व्यवहार प्रक्रिया में ये 
विशेषण शब्द कतू वाची होने के कारण संज्ञावत्‌ भी' प्रयुक्त होते हैं, यथा-- -आक 
(तैराक), -आका (लड़ाका, उड़ाका), -आड़ो (खिलाड़ी), -आलू (झगड़ालू, लजालू, 
शरमालू ), -इयल (अड़ियल, सड़ियल), -इया (जड़िया, धुनिया), -ऊ/-आऊ (करू, 
डरू, खाऊ, पीऊ, कमाऊ, उड़ाऊ), -एरा (लुटेरा, कमरा), -ऐत (लड़ेत), -ऐया 
(बिठेया, रखे या), -ओड़ (हँसोड़), -ओड़ा (भगोड़ा), -भोरा (चटोरा) (मारक, 
याचक, धारक), -अक्कड़ (भुलक्कड़, :घुमक्‍्कड़, पियक्कड़, कुदक्कड़) “ना/-नी 
(रोता, रोनी--रोना बच्चा, रोनी (सूरत की) लड़की), -वाला (पढ़नेवाला, 


आनेवाली, बोलनेवाले), -बैया (गवेया, खिवैया< खंबैया), -सार (मिलनसार), 


-हार (होनहार), -हारा (राखनहारा) 

(इ) क्रियार्थों विशेषण निर्माणक कृत प्रत्यय--इन प्रत्ययों के योग से बने 
शब्द क्रिया-व्यापार का बोध कराने के साथ विशेषण का काम भी करते हूँ । इन 
प्रत्ययों के योग से शब्द-निर्माण की प्रक्तिया शब्द-स्तर की न हो कर पदबन्ध स्तर 


की होती है | पदबन्ध स्तरीय ये शब्द असमापिका क्रिया के सूचक होते हैं । प्रकाये 


के आधार पर इन्हें दो वर्गों में रख सकते है--(क) वर्तमानकालिक क्रृदन्त निर्माणक 
(ख) भूतकालिक कृदन्त निर्माषमक व 
(क) वर्तमानकालिक कृदन्त निर्माणक कृत प्रत्यय--इन प्रत्ययों के योग से 


बने शब्द वर्तमानकालिक असमापिका क्रिया. के रूप में विशेषण का कार्य करते हैं... 


यथा-- -ता/-ती/-ते (दौड़ता लड़का, उड़ती चिड़िया भूकते कुत्ते से)... 








[84 | हिन्दी का विवरण त्मक व्याकरण 


(ख) भूतकालिक कदन्त निर्माणक कृत प्रत्यय--इन प्रत्ययों के योग से बने 

शब्द भूतकालिक असमापिका क्रिया के रूप' में विशेषण का कार्य करते हैं, यथा-- 
आ-ई/ए (पढ़ा-लिखा आदमी, पढ़ी-लिखी औरत, पढ़े-लिखे लोग, दिया हुआ 
दान, खोई हुई अंगूठी, बिखरे हुए मोती) 

संस्कृत “त<क्‍्त' से यूक्‍त क्ृदन्‍्त शब्द भी हिन्दी में प्रयुक्त होते हैं, 
यथा--बहिष्कृत ध्यक्ति, प्रज्वलित अग्नि; भुक्त, आहत, गत, प्रचारित, प्राप्त, 
व्यक्त, प्रेषित, आगत, प्रदत्त, घोषित 

(ई) क्रियार्थी क्रियाविशेषण निर्माणक कत्‌ प्रत्यय--इन प्रत्ययों के योग से 
बने शब्द क्रिया-व्यापार का बोध कराने के साथ क्रियाविशेषण का काम भी करते 
हैं । इन प्रत्ययों के योग से शब्द-निर्माण की प्रक्रिया शब्द-स्तर की न हो कर पदबन्ध 
स्तर की होती है। पदबन्ध स्तरीय ये शब्द असमापिका क्रिया के सूचक होते हैं । 
प्रकाय के आधार पर इन्हें चार वर्गों में रख सकते हैँं--(क) पूर्वकालिक क्दन्त 
निर्माणक (ख) तात्कालिक क्ृदन्‍्त निर्माणक (ग) अपूर्ण ता सूचक क्ुदन्त निर्माणक 
 (घ) पूर्णता सूचक क्ृदन्त निर्माणक द 

(कक) पृ कालिक कृदन्‍्त निर्माणक कृत्‌ प्रत्यय--क्रिया धातु--कर के योग से 
पृवंकालिक कृदन्त का निर्माण होता है, यथा-- -कर (पानी में रह कर मगर से बैर, 
कुछ खो कर बहुत कुछ पाने की इच्छा) 

(ख) तात्कालिक कछुदन्‍्त निर्माणक कृत्‌ प्रत्यय--क्रिया धातु+- - ते के 
पश्चात्‌ ही या हुए शब्द रख कर तात्कालिक का निर्माण होता है, यथा-- -त्रे 
ही/हुए (खाते ही बोला, खाते हुए बोला) 

(ग) अपूर्णतासूचक कृदन्‍्त निर्माणक कृत प्रत्यय-क्रिया धातु-- -ते के योग 
से अपूर्ण क्रियासूचक क्ृदन्‍्त का निर्माण होता है, यथा-- -ते मेरे रहते तुम्हें चिन्ता 
करने की आवश्यकता नहीं है, वह मरते-मरते बची है) 

(घ) प्‌र्णतासूच्क कृदन्‍्त निर्माणक कृत्‌ प्रध्यय---क्रिया धातु-- -ए के योग 
से पूर्ण क्रियासूचक क्ृदन्त का निर्माण होता है, यथा-- -ए (स्वतन्त्रता मिले कितने 
वर्ष हो गए, बैठे-बेंठे सो गया) 

.. उभय क्षेत्रीय प्रत्यय-भेद--प्रकायं के आधार पर इलन प्रत्ययों को तीन वर्गों 
में रखा जा सकता है--(क) नाम धातु निर्माणक प्रत्यय (ख) अकमंक «>> 
सकमेक धातु निर्माणक प्रत्ययः (ग) प्रेरणा्थंक धातु निर्माणक प्रत्यय । (इन तीनों 
. प्रकार के प्रत्ययों की चर्चा अध्याय 7 “क्रिया” के अन्तगंत विस्तार से की जाएगी) 
4. पुन्रुक्ति क्‍ बल 
.... अन्य भाषाओं की भाँति हिन्दी में भी पुनरुकित प्रक्रिया से विविध प्रकार के 
.. शब्दों की रचना की जाती है। पुन्रुक्ति (>-दोहराना) को द्विरुक्ति, पुनरावृत्ति 
_ भी कहते हैं । जब एक शब्द/पद ज्यों का त्यों या स्वल्प परिवर्तन के साथ या उस के हे 


२ 
ा 
व 
है |. 
रे 
ही 
पु 
9. 
पु 
हम 
। 
| 
/ 
] 
। ॥ 
/ 
ऐः 
0५5 





शब्द-रचना | 85 


समानार्थी के साथ दोहराया जाता है तो वह समस्त शब्द पुनरुक्त/द्विरुकत या 
पुनरावृत्त शब्द(पद कहलाता है। पुनरुक्ति से शब्द के भाव में अधिक सबलता 
पष्टता तथा प्रभाव आ जाता है। सन्दर्भानुसार पुनसक्‍त शब्दों से पूर्णता, अपूर्णता 
समग्रता, अनेकत्व, व्यष्टि, अतिशयता, निरन्तरता, प्रथकता और सजातीयता आदि 
का बोध होता है, यथा--डगर-डगर (यथावत्‌ ध्वनि-द्‌ विरुक्ति), पानी-वानी (स्वल्प 
परिवर्तित ध्वनि-द्विरुक्ति), लाज-शर्म (समानार्थी शब्द दुविरुक्ति), दाना-पानी' 
(समवर्गीय शब्द दृविरुक्ति), ऊच-नीच (विलोमार्थी शब्द द्विरुक्ति); भिखारी पेट 
पालने के लिए घर-घर चक्कर लगाते हैं। (हर घर का); पीले पीले आम एक तरफ 
रखो और हरे-हरे एक तरफ्‌ । (पीले आम, हरे आम अलग-अलग हैं); चार-चार 
लड़ कियाँ एक-एक लाइन में खड़ी हों । (इतनी ही संख्या के समूह में); मैं तो दिन 
भर बेठे-बेठे थक गईं । (कार्य लगातार हुआ); खाने-पीने को कुछ-न-कुछ तो चाहिए 
ही । (कुछ' में अथं-वेशिष्ट्य); अरे, घर में कोई नहीं है, बाल-बच्चे कहाँ भेज 
दिए ? (बाल-बच्चे ८ सारा परिवार अर्थ में बल/विस्तार); बड़े-बड़े अमरूद लाया 
हूँ । (आकार की अतिशयता, 

द्विरुक्ति संज्ञा, स्वनाम, विशेषण, क्रिया और अव्यय शब्दों की हो सकती 
है । अपनी बात को ठीक से तथा प्रभावपूर्ण ढंग से सम्प्रेषित करने के उद्देश्य से 
वक्ता केवल शब्दों की ही नहीं, कभी-कभी वाक्य की भी पुनरुक्ति करता है, यथा-- 
लड़की को देखने वे कब आ रहे हैं १” आप ने कोई जवाब नहीं दिया--लड़की 
को देखने लड़केवाले कब आ रहे हैं ? तुम ने अपने लाड़ले को बहुत बिगाड़ लिया 
है--ठीक कह रही हु न ?--तुम क्पने लाड़ले को खब बिगाड़ रहे हो | यद्यपि 
भाषा के सभी अंग पुनरक्त हो सकते हैं; तथापि अर्थंयुकत ढंग से उपवाक्य और 
प्रकार्यात्मक शब्दों की पुनरुक्ति नहीं हुआ करती । वाक्यांश-सं रचना के अन्तर्गत 
शब्द रचना-स्तर पर ध्वनियों और रूपों की पुनरुक्ति अधिक प्राप्त होती है । 


ध्वनि तथा अथें के आधार पर बने पुनरुक्‍त शब्द पाँच प्रकार के होते हैं-- 
. पूरणंध्वनीय पुनरक्त 2. अपूर्ण ध्वनीय पुनरुक्त 3. समानार्थी पुनरुकत 4. समवर्गीय 
पुनरुक्त 5. विलोमार्थी पुनरुक्त । पुनरुक्ति वाक्य के |कसी भी अंग के रूप में व्यवहृत 
हो सकती है । द । द 


..._4. पूर्ण ध्वनीय पुनतरुकत शब्द में प्रथमांश और दवितीयांश की ध्वनियाँ 
शत-प्रति शत समान होती हैं, यथा- गली-गली, घड़ी-घड़ी, घर-घर. टकड़े-ट्कड़े 
मुहल्ले-मुहल्ले, हंसी-हंसी (संज्ञा)) अपना-अपना, कोई-कोई (सर्वंनाम); काले-काले 
छोटे-छोटे, दो-दो, मीठे मीठे, अच्छा-भच्छा, थोड़ी-थोड़ी (विशेषण); चलते चलते 
बैठे बेठे, पिला-पिला कर, बैठा बैठा, हँसते-हँसते (क्रिया)। अलग-अलग ऊपर-ऊपर 


.. वाह-वाह (अव्यय) | पूर्ण ध्वनीय पुृनरुक्‍्ता शब्द ब (फारसी पू्वेसरगं), ही, सा, पर 
. का, में के योग से भी बनते हैं। -ब- से यक्‍त पनरुक्ति आवत्ति व्यकत करती है 





486 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


ओर घटना की व्यष्टिता प्रकट करती है, यथा--दिन बे दिन, साल ब साल, रोज 
ब रोज; -ही-' थे 3 धुनरुक्ति प्रसंगानुसार अ्थ॑ +र बल डालती है और अनेक 


इणंता, समग्रता व्यक्त क रते हुए अथं की परक्तता, अनेकत्व था व्यष्टि व्यक्त करती 
है, यथा--साल का हाल, घर का घर, पलटन की लिटन, झुड का झ ड. शुड के 
झुड, हफ्ते के ह फ्ते,. महीने के महीने साल के _; “पर-” से युक्त पुनरुकषित 
आवृत्ति के साथ-साथ बटना की व्यष्टिता व्यक्त करती है, यथा- “दिन पर दिन, 
पाले पर साल, कदम पर कदम, “का- “में! से शुकत 3नरुक्ति मूल अथ पर बच्न 
डालती है, यथा--बात की तात में, दम के दम में, आन की आन में | 


2. अपूर्ण ध्वनीय अनरुक्त शब्द या प्रतिध्वनिमूलक शब्द में अथमांश और 
द्वितीयांश की ध्वनियों में थोड़ा-बहुत अन्तर हुआ करता है। इन शब्दों से एक 
अंश/शब्द सार्थक होता है, दूसरे अं श/शब्द की रचना पहले के स्वनिक अंश की 
प्रतिध्वनि जैसी होती है। ऐसे शब्दों में प्रतिध्चनित अंश/शंब्द कभी पहले आता है, 
कभी बाद में, यथा कागज-वागज झूठ-मृठ, मिठाई-बिठ ई, छेड़छाड़, दवछात, .. 
भीड़-भाड़, बाट-वाट गलामाल, धूमधाम, टीमटाम (संज्ञा), मैं-वें (स्वनाम) खाली- 
बूली, इने-गिने, दुनादुन, डीलाढाला, दूटाटाटा, ठीकठ क (विश्येषण), ऋाटना-चूटना, 
धुन-सुना कर (क्रिया), आमने-सामने, चुपचाप, पुनसान, बीचोबीच' (अव्यय).... 

. अ्रथमांश या द्वितीयांश की भतिध्वनि था सादृश्य पर निर्मित होने के कारण | 
ऐसे शब्दों को प्रतिध्वनि शब्द भी कहा जाता है। इस पुनरुक्ति में साथक तत्त्व का. 
अथे और अधिक सशक्त हो जाता है। यह पुनरुक्ति अथे में अधिक सशकतता लाने द 


के साथ-साथ अनेकत्व को भी व्यक्त करती है, यथा--. कहीं नहीं है उस के दर्दंबद । 


दोनों अंश/शब्द _ अलग-अलग रहने पर निरथंक ही कहे जा सकते हैं किन्तु एकसाथ 
आने पर अथंवान्‌ हो जाते हैं, यथा--अफ रा-तफ्री- अंट-संट, अनाप-शनाप, अंड- 
बेड, ऊँटपर्टांग, ऊबड़-खाबड़, गादन, हक्‍का बक्‍का । ऐसे अप्त्ण ध्वतीय पूनरक्‍्त 
शब्द का एक अंश भायः स्वतन्त्र रूप से +जक्त नहीं किया जाता | कुछ अन्य अपूर्ण _ 
ध्वनीय पृनरुक्‍्त शब्द ये हैं--आस-पास, देला-बदला, आमने सामने, इने-गरिने, 

_अक-बक, अता-पता, अड़ोसी-पड़ोसी, _ अगल-बधल, आरअपार, . उलटा-पलटा, 


इपछात, धूमधाम, खाना वाना, रोटी-बोदी,. कागज-वागज, मिठाई-विठाई/सिठ। ह 


हा पानी-वानी, चिट्ठी-विट॒ठी, जूता-ऊता < बता, झूठमूठ, सचमच, बछताछ, चुपचाप, | 


हक 8 


: ढ, ढ़ढांढ़, वारुचा, खालीखूली, गूलत सलत, वा जाना; टेठी अदा 











 शब्द-रचना | 87 


लगभग समानार्थी होते हैं । ऐसे पुनरुकत शब्द के दोनों अंशों में से प्रत्येक का स्वतन्त्र 
प्रयोग हो सकता है। ऐसे शब्दों को कुछ लोग दुबन्द्‌व शब्द भी कहते हैं, यथा-- 
बाल-बच्चे, धन-दौलत, रंग-ढंग, आदर-सम्मान, कूड़ा-कचरा, साधु-सन्त, हाट- 
बाजार, कपड़ा-लत्ता (संज्ञा), थका-माँदा, भरा-्पूरा, हृष्ट-पुष्ट, (विशेषण), काट- 
छाँट, मारना-पीटना, सोच-समझ कर, मिलता-जुलना, हिलते-इुलते (क्रिया), सदा- 
सवंदा (अव्यय) । ये शब्द युग्म अर्थ को सशकतता तथा समूह का भाव ब्यक्त करते 
हैं, यथा-मेरे पास न धन-दौलत है, न महल-अटारी, और न नौकर-चाकर । 

4. समवर्गीय पुनरुक्‍त शब्द में प्रथमांश, द्वितीयांश अर्थ की दृष्टि से एक 
ही वर्ग के होते हैं, यथा--दूध-दही, दीन-ईमान, भूख-प्यास (संज्ञा), ग्‌गा-बहरा 
दीन-दुःखी (विशेषण), गाना-बजाना, लिखना-पढ़ता, लेना-देना (क्रिया), जब-तब 
जैसे-तैसे (अव्यय) । इस वर्ग के शब्द युग्म का अर्थ समाहारात्मक होता है । ह 

5. विलोसार्थी पुनरक्त शब्द में प्रथमांश, द्वितीयांश अथे की दृष्टि से 
विपरीतार्थी होते हैं, यथा--उत्थान-पतन, उनन्‍नति-अवनति, हित-अनहित, आय-चब्यय, 
हानि-लाभ, धूप-छाँह (संज्ञा), तू-तू--मैं-मैं, अपना-पराया (सर्वनाम), नया-पुराना, 
कम- ज्यादा (विशेषण), आना-जाना, लेना-देना (क्रिया), आज-कल, ऊपर-नीचे, 
इधर-उधर (अव्यय) 

पुनरुकत शब्दों पर तीन दुष्टियों से विचार किया जा सकता है--. शब्द- 
गठ न दृष्टि (संरचतापरक अध्ययन) 2. शब्द-अर्थ दृष्टि (अथैपरक अध्ययन) 3. शब्द- 
प्रकाय॑ दृष्टि (व्याकरणिक अध्ययन) द के 5 

(क) संरचनापरक अध्ययन में पुनरक्त शब्द के दोनों अंशों के ध्वनि पक्ष की 
दृष्टि से विचार किया जाता है, यथा--गाँव-गाँव, हाय-हाय विकरण रहित पूर्ण 
 पुनरकत शब्द हैं। गाँव का गाँव, हाथ पर हाथ, हाथ में हाथ, कहाँ से कहाँ, रेत 
ही रेत, हाथों हाथ बिकरण सहित पूर्ण पुनरक्त शब्द हैं। लप-लप, छम-छम 
भड़ भड़ अन्रणात्मक पूर्ण पुनरुकत शब्द हैँं। चमाचम, धड़ाधड़, सरासर, आ 
आगमयुत पूर्ण पुनरुकत शब्द हैं। ताला-वाला, बीज-ईज, हल्ला-गुल्ला, औने-पौने 
ठीकठाक, चाट-चूट अपूर्ण पुनरुक्त शब्द हैं आय 

(ख) अथपरक अध्ययन में पुनरुक्त शब्द के दोनों अंशों के अथे की दृष्टि से _ 
विचार किया जाता है, यथा--!. जतिशयता बोधन--दाने-दाने (को मुहंताज), 
2. निरन्तरता बोधन--बैठे-बैठे (थक गई), लड़ते-लड़ते (गिर पड़े) 3. पुनराबत्ति 
बोधन--पूछले-पूछते (आ गया), पिघल-पिघल (कर खत्म हो गई) 4. पृथकता 
बोधन--रोम-रोम (काँप गया), घर-घर (की बात), पैसा-पैसा (जोड़ कर) 
5, भिन्‍नता बोधन - तरह-तरह (की' बातें), फूल-फूल (का सौन्दर्य) 6. संख्या-सम्‌ ह 


हे  बोधन--दो दो (लड़के आएँ), दस-दस. (रुपये निकालो) 7. सजातीण्ता बोधन-- 


_ लड़के-लड़के (इधर), लड़कियाँ लड़ क्रियाँ (उधर) 8. अवधि बोधन--लिखते-लिखते 





88 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(सवेरा हो गया), पीते-पीते (सुबह से शाम हो गई) 9. स्थिति बोधन-- कहां से 
कहाँ (पहुँच गया), भीतर का भीतर (रह गया) 0. रीति बोधन--जल्दी -जहदी 
(जाओो), घृट-घूट (पी) 4. आवंग बोधन--छि-छि ! अरे-अरे ! 2, ब्यूनता 
बोधन- खट्टी-खट्टी' (डकारें), उड़ी-उड़ी (सी तबीयत) 3. अपूर्णता बोधन--- 
मरते-मरते (बचे), पढ़ते-पढ़ते (पो गई) 4. पारस्परिक सम्बन्ध बोधन-- भाई-भाई 


(का प्रेम), धर्म-धर्म (की एकता) 5. निश्चय बोधन-- (हाँ, मैं यही काम) करूगा- 


करूँगा; (निश्चय ही तुम आज शाम यहाँ) आओगी-आओगी ॥6, संशय बोधन--- 
(वह) आई-आई ने आई; जा रहा हँ-जा रहा हूँ (कह रहे हो, पर“) 
7. अनिश्चय/अनिर्णय बोधन--(कोई दिलचस्प) किताब-विताब (हमें भी दे दो) 
8. अनुमान बोधव--(पैर में कोई) कील-वील (लग गई है क्‍या ?) 9. भावपूर्ण 
संबोधन--अब्बा-अब्बा ! (हमें भी ईदगाह ले चलो) 

3. व्याकरणपरक अध्ययन में पुनरुक्‍त शब्द के दोनों अंशों के व्याकरणिक 
पक्ष की दृष्टि से विचार किया जाता है, यथा--शब्द-आधार प्रातिपदिकीय 


पुनरक्ति---आटा-वाटा, कौन-कौन, गीला-बीला; प्रातिपदिक-आधार धातु रूपीय 
पुनरक्ति---उलटा-पुलटा, देखा-दाखी, मारा-मूरी; पदबन्ध-आधार पद पुनरुक्ति-- 


दूवार-दवार, पूरा का पूरा, उठते-बेठते, भागे-भागे; निजवाचक विशेषण प्‌नरुक्ति-- 
अपना-अपना । _ 

पुनरुक्‍त शब्दों में एक बड़ी संख्या अनुकरणात्यक शब्दों' की है। ये शब्द 
किन्‍्हीं ध्वन्तियों या दुश्यों के अनुकरण पर गढ़े गए हैं, यथा - खटपट, फटफटिया, 


चमाचम, झिलमिल, सकपकाना, छटठपटाना, हिचकिचाहुट । ऐसे शब्दों को. 


अनुकरणमूलक/अनु रणनात्मक/अनुकार|[प्रतिबिम्बित, शब्द भी कहा जाता है 
अनुकरण-आधार पर ऐसे शब्दों के दो भेद हो सकते हैं--. ध्वन्यात्मक शब्द 
2. दृश्यात्मक शब्द । 

... ध्वन्यात्मक शब्द किसी वस्तु या प्राणी की ध्वनि के अनुकरण के आधार पर 
बने होते हैं, यथा--(कौआ की) काँव-काँव; (बन्दर का) किकियाना; (मुर्गा की) 
कुकड़ कू; (मोर का) कुहकना; (हंस का) कजता; (क्रोयल का) कूकना; (भालू की) 


खों-खों; (भौरे का) गुजारता; (कबृतर की) ग्रुटरगू; (बाघ का) गुर्राना; (उल्लू 


का) घुघुआना; (चिड़िया का) चहचहाना; (चूहे की) च-च्‌; हाथी की (विंघाड़); 
'(तोते की) टें-टें; (मेंढक की) टरं-टरं; (साँड़ का) डकरना; (शेर की) दहाड़; 
(पपीहे की) पी-पी; (साँप की) फुफकार; (ऊंट का) बलबलाना; (कुत्ते का) भूकना; 


(बकरी का) सिमियाता ; (बिल्ली की) म्वाऊ-स्थार्>ं; (गाय का) रँभाना; (गधे का) 


. रकना; (घोड़े की) हिनहिनाहुठ।.. आओ अति हो 
द (बिजली का) कड़कता; (दाँतों का) कठकटाना; (पत्तों का) खड़कना; 


... (चूड़ियों का) खनखनाना; (पायल का) छनछनाना; (बादलों का) गरजना; (चिता... 





87250 072: -&<423एाओ था 








शब्द-रचना | 89 


का) चटचटावा; (जूते का) चरमराना; (झरने की) झर-झर; (घड़ी की) टिक-टिक; 
(नाव का) डगमसगाना; (दिल का) धड़कना; (पंख/कपड़े का) फड़ फड़ाना; (जीभ का) 
लपलपाना । गा 

दृश्यात्मक शब्द किसी दृश्य के अनुकरण के आधार पर बने होते हैं, यथा-- 
(दीपक का) टिमठिमाना; (तारों का) ज्ञिलमिलाना; (गहनों की) चमाचम; (रंगीन 


कपड़े की) झकाझक; (बिन्दी की) चमक । 


अनुकरणात्मक शब्द सामान्यतः संज्ञाएँ और क्रियाएँ होते हैं, यथा--- 
(स्त्री लिय संज्ञाएँ) कुड़कुड़, कड़कड़, चहचहाहट, | गुनगुन, कचकच, बड़बड़ चटचट 
अनुकरणात्मक क्रियाएँ प्रायः अनुकरणात्मक संज्ञाओं से व्युत्पन्त हैं, यथा--कड़कड़ाना, 
बड़बड़ाता, कुड़कुड़ाना, कचकचाना, चहचहाना, ग्ुनगुनाना, चटचटाना।। ये क्रिया 
धातुएँ अकमंक, सकमंक हो सकती हैं, यथा--थपथपाना, खटखटाना सकमंक हैं, 
चटचटाना, कड़कड़ाना अकमंक हैं । द । 

शब्द भेद-उबरता के आधार पर अनुकरणात्मक शब्दों को दो वर्गों में रखा 
जा सकता है---!. उ्वेर 2. अनुवेर क्‍ ः द 

[. उबर अनुकरणात्मक शब्द वे हैं जिन के एकाधिक शब्द-भेद उपलब्ध हैं, 
यधा--भा-भों, भौंकना; में-में, सिमियाना; कड़ (कड़क, कड़का, कड़की, कड़ाका, 


ह 


कड़कड़, कड़कड़ाना); छप (छपक, छपाक, छपाका, छपछप, छपछपाना) 
.. 2. अनुवर अनुकरणात्मक शब्द वे हैं जिन के एकाधिक भेद उपलब्ध नहीं 
हैं; यथा--कॉवि-काँव; कुकड़ -क्‌, चूचू, गुटर-गू', ढिशुम-दिशुम 
.. हिन्दी में लगभग 75 अनुकरणात्मक धातुओं का प्रयोग होता है । गठन 
की दृष्टि से ये धातुएँ इन चार वर्गों में रखी जा सकती हैं--... द 
(क) मूल धातुएँ, यथा--खट (ना), गड़ (ना), अचकचा , ना), सिटपिटा 
(ना) चमक (ना), भड़क (ना) 3; ५ टी + 
(ख) संयुक्त धातुएँ, यथा--किलबिला (ना), खटपटा (ना), खड़बड़ा (ना) 
छटपटा (ना) हे 
(ग) पूर्ण पुनरुक्त धातुएँ/नाम धातुएँ, यथा--कटकटा (ना), खटखटा (ना), 


श्च 


रै 


फड़फड़ा (ता), भितभिना (ना), धड़धड़ा (ना). हिनहिना (ना) 


(घ) अपूर्ण पुनरक्‍्त धातुएँ, यथा--कलबला (ना), कलभला (ना), खलभला 
(ना) हा का का 2 हज 
अनुक रणात्मक शब्दावली सर्वत्रामों (तू-तू, मैं-मैं, अपना-अपना) के अतिरिक्त 


; ैष चार शब्दवर्गों (संज्ञा, विशेषण, क्रिया, अव्यथ) सेसंबंधित होती है, यथा-- 


(अ) अनुकरणाध्मक संज्ञाएँ---खखार, पोंपों, फटफटिया, भोंपू; खटखट, 


| बनखन, चरमर, चू-चू, गुदगुदी, गिलगिली, तड़ातड़ी, सन्नाटा, सरसर 





92 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


में विश्वास न रखता हो), अथाह (जिस की गहराई न नापी जा सके), अनपढ़ (जो 
पढ़ा-लिखा न हो), अभक्ष्य (जो खाने के योग्य न हो), अनुपम (जिस की बराबरी 
न हो), अतुलनीय (जिस की तुलना न हो सके), अवध्य (मारने के अयोग्य), 
अक्षरश: (अक्षर-अक्षर के अनुरूप), अज (जिस का कभी जर्न्म॑ न हुआ हो), 
अमानृषिक (जो मनुष्यता से दूर हो), अपवाद (साधारण नियम से भिन्न), अभियोक्‍ता 
(जो मुकदमा करे), अभियुक्त (जिस पर मुकदमा किया जाए), अधमर्ण (ऋण 
लेनेवाला), अतिव्ययी (जों अधिक खर्च करता हो), आशुतोष (शीघ्र प्रसन्‍न होने 
वाला), उत्तमर्ण (ऋण देनेवाला), उद्दण्ड (जिसे दण्ड का भय न हो), कामचोर 
(काम से जी चुरानेवाला), कुलीन (उच्च कुल का), जिज्ञास्‌ (जानने की इच्छा 
रखनेवाला), छिद्वान्वेषी (दूसरों के दोष दू ढ़नेवाला), दिवालिया (जो ऋण चुकाने में 
असमर्थ हो गया हो), निर्लेज्ज (लज्जा न करनेवाला), निबंल (जिस में शक्ति का 
अभाव हो), निरीह (जिस की कोई अभिलाषा न हो), दुग्धाहारी (केवल दूध पर 
निर्वाह करनेवाला), प्रातः स्मरणीय (प्रातः स्मरण करने योग्य), पेतुक, सम्पत्ति 
(बाप-दादा से चलती आई हुई सम्पत्ति), भूतपूर्व (जो बात या घटना पहले हो चुकी 
हो), मिथ्याभाषी (जो झूठ बोलता हो), सदाचारी (जिस का आचरण अच्छा हो), 
सहधर्मी (समान धर्म को माननेवाला), सहिष्णू (जिस की सहनशक्ति अच्छी हो), 
स्वयंसेवक (जो अपनी इच्छानुसार सेवा करे) हा 
यौगिक शब्दों में कुछ ऐसे शब्द उपलब्ध हैं जिन्हें संक्षिप्त शब्द कह सकते 
हैं। संक्षिप्त शब्दों का प्रयोग प्रायः उन लोगों की भाषा में अधिक होता है जो 
अँगरेजी भाषा-व्यवस्था से जाने-अनजाने प्रभावित हैं। उच्चारण और लेखन की 
सुविधा की दृष्टि से बड़ शब्दों को छोटा करने की अँगरेजी भाषा की प्रवृत्ति का 
अन्य भारतीय भाषाओं की भाँति हिन्दी में भी अनुकरण होने लगा है। संक्षिप्त 
शब्दों का प्रयोग देनन्दिन बोलचाल की भाषा में कम ही होता है । संरचना की _ 
दृष्टि से संक्षिप्त शब्दों को चार वर्गों में रखा जा सकता है--(क) पूर्व पदीय शब्द 
(ख) उत्तर पदीय शब्द (ग) प्रथमाक्षरी संक्षिप्ति (घ) प्रथमाक्षरी शब्द. कै 
...... (क) पूर्वपदीय शब्द(पृश--ऐसे संक्षिप्त शब्दों में योगिक शब्दों के उत्तर 
पद को छोड़ते हुए पूर्व पद का प्रयोग किया जाता है, यथा--कॉपी (कॉपी बुक), 
... फोटो (फोटोग्राफ), माइक (माइक्रोफोन), लैब (लेबोरेटरी), बाइक (बाइसिकल), . 


.. वीडियो (वीडियो कैसेट), पाक (पाकिस्तान) 


(ख) उत्तर पदीय शब्द|डश--ऐसे संक्षिप्त शब्दों में यौगिक शब्दों के पूर्व. 
पद को छोड़ते हुए उत्तर पद का प्रयोग किया जाता है, यथा--फोन (टेलीफोन), 
(एयरोप्लेन), बस (ऑमनी बस), मैटिनी (सिनेमा मैटिनी), अमेरिका _ 


..... (यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका), शाला (पाठशाला) 





(ग) प्रथमाक्षरी संक्षिप्ति|प्रसं--व्यंग्य, अव्यक्त कथन, गुप्त भाषा, लम्बे 





शब्द-रचना | 93 


व्यक्तिवाचक नामों आदि की संक्षिप्तीकरण को प्रक्रिया से निर्मित रूप को प्रथमाक्षरी 
संक्षिप्ति, प्रथमाक्षरी शब्द कहा जा सकता है । इस प्रक्रिया में प्रायः यौगिक शब्द के 
विभिन्‍न पदों के प्रथम अक्षर को ले कर शब्द बना लिए जाते हैं । सामान्यतः संस्थाओं, 
परियोजनाओं, वैज्ञानिक आविष्कारों और उपकरणों आदि के लिए प्रथमाक्षरी 
संक्षिप्ति, प्रथमाक्षरी शब्द बनते रहते हैं। ज० द०/ज० लो० द० (जनता लोक दल), 
जद/जलोद में 'जद/जलोद' प्रश है तथा 'ज० द०/ज० लो० द० प्रसं । प्रसं में दो या 
तीन वर्णों का उच्चारण अलग-अलग स्वतन्त्र इकाई के रूप में अवरोध के स्लाथ किया 


जाता है । प्रश, प्रसं बनाने की प्रवृत्ति अँगरेजी में बहुत अधिक है । पत्रकारिता तथा 


लेखकों के अतिरिक्त राजनेताओं को भी प्रस॑ तथा प्रंश की दैनन्दिन जीवन में आवश्यकता 
पड़ती है। हिन्दी में प्रचलित प्रसं के कुछ उदाहरण ये हैं--(अ) डॉ० (डॉक्टर), 
प्रो० (प्रोफु सर), रु० (रुपया), पै० (पैसे), भू० (भूतपूब), स्व० (स्वर्गीय) (आ) 
उदा० (उदाहरणार्थ), एल० डी० सी० (लोअर डिवीजून क्लक॑), य्रू० डी० सी० 
(अपर डिवीजुन कलकं), बी० एस० एफ्‌० (बॉरडेर सीक्योरिटी फोस), डी० एस० पौ० 
(डिप्टी सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस), 3० प्र० (उत्तर प्रदेश), आँ० प्र० (आन्ध्र प्रदेश), 
हि० प्र० (हिमाचल प्रदेश), यू० एस० ए० (यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका), यू० कै० 
(यूनाइटेड किगडम), एफ० आर० जी० (फ्रेंडरल रिपब्लिक आँफ्‌ जम॑न), यू० एन० 
ओ० (यूनाइटेड नेशन्स ओऑर्गेनाइज शन), एन० सी० सी० (नेशनल कैडिट कोर), 
एल० टी० सी० (लीव ट्रंवबल कन्सेशन), आई० ए० एस० (इंडियन एडमिनिस्ट्रे टिव 
सर्विस), सी० ए० (चार्टेड एकाउन्टेन्ट), पी० एम० (प्राइम मिनिस्टर), जी० एम० 
(जनरल मैनेजर), टी० सी० (ट्रान्सफर सर्टीफिकेट), एस० एल० सी० (स्कल लीविंग 
सर्टीफिकेट), एम० ए० (मास्टर ऑफ आदउटस), एम० एस-सी० (मास्टर ऑफ 


साइंस), एम० लिट० (मास्टर ऑफ लैटसे/लिटरेचर), बी० ए० (बैचलर ऑफ 
आद स), बी० एस-सी० (बैचलर ऑफ साइंस), पी-एच० डी० डी० फिल० (डॉक्टर 


ऑफ फिलोसफी), डी० लिट० (डॉक्टर ऑफ लेटस/ लिटरेचर), एल० भाई० सी० 

(लाइफ्‌ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन), डी० डी० ए० (दिल्ली डवलपमेन्ट अथॉरिटी), दि० न० 

नि० (दिल्ली नगर निगम) । हम 2 आम कि मक 
(घ) अचमाक्षरी शब्द/प्रश--हिन्दी में प्रचलित कुछ प्रश हैं--नभाटा 


(नवभारत टाइम्स), राउप (राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद्‌), भालोद (भारतीय 


लोकदल), भाक्रांद (भारतीय क्रांति दल), संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी), जद 
(जनता दल), मिधानि (मिश्र धातु निगम), दिननि (दिल्ली नगर निगम) । यूनेस्को, 


| यूनिसेफ, नाटो, द सीटो, के भेल ( 870) ॥. बेल (80) ? इम्पा (7779) [ इकार (०७7), ह | के 


. इक्रिसेंट (0788) बेंगरेजी से आगत, अनुकरण पर बने श्रश हैं।.. 


हर ५ हा 3 ह हे 


व. 


५2205 020 5 22223 बलमकप के >त पपक न फीन्‍क9+9थ +०+3++>>>स _+5 ८८ +->प+ पक सपा 3 कप २००3५ सब न+लत ८ "न कपन न + जाप सफल एरिया जय का था अजिभानाचव चला टआाण 
कक पलविनकमा५लमकरेय पपकपसतल ५ पर रस ५ अली पे पीस ३ ५+सफलतपब तक रलन्‍ तल दस रन टस अ 38266 रे ५ हे के 








92 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


में विश्वास न रखता हो), अथाह (जिस की गहराई न नापी जा सके), अनपढ़ (जो 
पढ़ा-लिखा न हो), अभ्नक्ष्य (जो खाने के योग्य न हो), अनुपम (जिस की बराबरी 
न हो), अतुलनीय (जिस की तुलना न हो सके), अवध्य (मारने के अयोग्य), 
अक्षरशः (अक्षर-अक्षर के अनुरूप), अज (जिस का कभी जन्म न हुआ हो), 
अमानृषिक (जो मनुष्यता से दूर हो), अपवाद (साधारण नियम से भिन्न), अभियोक्‍ता 
(जो मुकदमा करे), अभियुक्त (जिस पर मुकदमा किया जाए), अधमर्ण (ऋण 
लेनेवाला), अतिव्ययी (जो अधिक खर्चे करता हो), आशुतोष (शीघ्र प्रसन्‍न होने 
वाला), उत्तमर्ण (ऋण देनेवाला), उद्दण्ड (जिसे दण्ड का भय न हो), कामचोर 
(काम से जी चुरानेवाला), कुलीन (उच्च कुल का), जिज्ञास्‌ (जानने की इच्छा 


रखतेवाला), छिद्रान्वेषी (दूसरों के दोष ढू ढ़नेवाला), दिवालिया (जो ऋण चुकाने में 


असमर्थ हो गया हो), निर्लेज्ज (लज्जा न करनेवाला), निर्बल (जिस में शक्ति का 
अभाव हो), निरीह (जिस की कोई अभिलाषा न हो), दुग्धाहारी (केवल दूध पर 
निर्वाह करनेवाला), प्रातः स्मरणीय (प्रातः स्मरण करने योग्य), पेतुक, सम्पत्ति 
(बाप-दादा से चलती आई हुई सम्पत्ति), भूतपूर्व (जो बात या घटना पहले हो चुकी 
हो), मिथ्याभाषी (जो झूठ बोलता हो), सदाचारी (जिस का आचरण अच्छा हो), 
सहृधर्मी (समान धर्म को माननेवाला), सहिष्णु (जिस की सहनशक्ति अच्छी हो), 
स्वयंसेवक (जों अपनी इच्छानुसार सेवा करे) 


यौगिक शब्दों में कुछ ऐसे शब्द उपलब्ध हैं जिन्हें संक्षिप्त शब्द कह सकते 


हैं। संक्षिप्त शब्दों का प्रयोग प्राय: उन लोगों की भाषा में अधिक होता है जो 
अँगरेजी भाषा-व्यवस्था से जाने-अनजाने प्रभावित हैं। उच्चारण और लेखन की 
सुविधा की दृष्टि से बड़ शब्दों को छोटा करने की अँगरेजी भाषा की प्रवृत्ति का 


अन्य भारतीय भाषाओं की भाँति हिन्दी में भी अनुकरण होने लगा है। संक्षिप्त 


शब्दों का प्रयोग दैनन्दिन बोलचाल की भाषा में कम ही होता है। संरचना की 
दृष्टि से संक्षिप्त शब्दों को चार वर्गों में रखा जा सकता है--(क) पूर्व पदीय शब्द 
(ख) उत्तर पदीय शब्द (ग) प्रथमाक्षरी संक्षिप्ति (घ) प्रथमाक्षरी शब्द 


. (क) पूवेपदीय शब्द/प्ूश--ऐसे संक्षिप्त शब्दों में योग्रिक शब्दों के उत्तर 


_ पद को छोड़ते हुए पूर्व पद का प्रयोग किया जाता है, यथा--कॉपी (कॉपी बुक) 


... फोटो (फोटोग्राफ), माइक (माइक्रोफोन), लैब (लैबोरेटरी), बाइक (बाइसिकल), . 
. वीडियो (वीडियो कैसेट), पाक (पाकिस्तान) 
(ख) उत्तर पदीय शब्द|डश--ऐसे संक्षिप्त शब्दों में यौगिक शब्दों के पूर्व 


पद को छोड़ते हुए उत्तर पद का प्रयोग किया जाता है, यथा--फोन (टेलीफोन) 


| के -. प्लेन (एयरोप्लेन), बस (ऑमनी बस), मटिती (सिनेमा मैटिनी), अमेरिका 
..... [यूनाइटेड स्टेट ऑफ अमेरिका), शाला (पाठशाला) क्‍ क्‍ 


(ग) प्रयमाक्षरी संक्षिप्ति/प्रस॑--व्यंग्य, अव्यक्त कथन, गुप्त भाषा, लम्बे 


। 


। 


। 
। 


४-७७७७४७४७४७७७७४७॥४७४४४४४४ क्र कििल की; 





कारक पा पनाना परत कलक नल." ०ककतपकटेकिलसासधवलकबक ८०..." ०-५ -न्‍०-म 


शब्द-रचना | 93 


व्यक्तिवाचक नामों आदि की संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया से निरमित रूप को प्रथमाक्षरी 
संक्षिप्ति, प्रथमाक्षरी शब्द कह्ा जा सकता है । इस प्रक्रिया में प्रायः यौगिक शब्द के 
विभिन्‍न पदों के प्रथम अक्षर को ले कर शब्द बना लिए जाते हैं। सामान्यतः संस्थाओं, 
परियोजनाओं, वैज्ञानिक आविष्कारों और उपकरणों आदि के लिए प्रथमाक्षरी 
संक्षिप्ति, प्रथमाक्षरी शब्द बनते रहते हैं। ज० द०/ज० लो० द० (जनता लोक दल), 
जद/जलोद में 'जद/जलोद' प्रश है तथा 'ज० द०/ज० लो० द० प्रसं । प्रसं में दो या 
तीन वर्णों का उच्चारण अलग-अलग स्वतन्त्र इकाई के रूप में अवरोध के साथ किया 
जाता है। प्रश, प्रसं बनाने की प्रवृत्ति अँगरेजी में बहुत अधिक है । पत्रकारिता तथा 
लेखकों के अतिरिक्त राजनेताओं को भी प्रस॑ं तथा प्रंश की दैनन्दिन जीवन में आवश्यकता 
पड़ती है। हिन्दी में प्रचलित प्रसं के कुछ उदाहरण ये हैं--(अ) डाॉ० (डॉक्टर), 
प्रो० (प्रोफ़ु सर), रु० (रुपया), पै० (पैसे), भू० (भूतपूव॑), स्व० (स्वर्गीय) (आ) 
उदा० (उदाहरणाथथं), एल० डी० सी० (लोअर डिवीजून क्लकं), यू० डी० सी० 
(अपर डिवीजून कलकं), बी० एस० एफ० (बॉर्डर सीक्योरिटी फोस), डी० एस० पी० 
(डिप्टी सुपरिन्टेंडेंट ऑफ पुलिस), 3० प्र० (उत्तर प्रदेश), आँ० प्र० (आन्श्र प्रदेश), 
हि० प्र० (हिमाचल प्रदेश), यू० एस० ए० (यूनाइटेड स्टेट शॉफ्‌ अमेरिका), यू० के० 
(यूनाइटेड किंगडम), एफ्‌० आर० जी० (फ्रें डरल रिपब्लिक आँफ जर्मन), यू० एन० 
ओ० (यूनाइटेड नेशन्स ओऑर्गेनाइज शन), एन० सी० सी० (नेशनल कैडिट कोर), 
एल० टी० सी० (लीव ट्रंबल कन्सेशन), आई० ए० एस० (इंडियन एडमिनिस्ट्रटिव 
सर्विस), सी० ए० (चार्टेड एकाउल्टेन्ट), पी० एम० (प्राइम मिनिस्टर), जी० एम० 
(जनरल मैनेजर), टी० सी० (ट्रान्सफर सर्टीफिकेट), एस० एल० सी० (स्कूल लीविंग 


. सर्टीफिकेट), एम० ए० (मास्टर ऑफ आदस), एम० एस-्सी० (मास्टर ऑफ 


साइंस), एम० लिट० (मास्टर ऑफ लैटठसं/लिटरेचर), बी० ए० (बैचलर ऑफ 
आद स), बी० एस-सी० (बेचलर ऑफ साइंस), पी-एच० डी०/डी० फ़िल० (डॉक्टर. 


ऑफ फिलोसफी), डी० लिट० (डॉक्टर ऑफ लैटसं/ लिटरेचर), एल० आई० सी० 


(लाइफ्‌ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन), डी० डी० ए० (दिल्ली डवलपमेन्ट अथॉरिटी), दि० न० 
नि० (दिल्ली नगर निगम) । _ हर ५ 

प (घ) प्रथसाक्षरी शब्द/प्रश--हिन्दी में प्रचलित कुछ प्रश हैं--नभाटा 
(नवभारत टाइम्स), राउप (राष्ट्रीय उत्पादकता परिषद्‌ ), भालोद (भारतीय 


लोकदल), भाक्रांद (भारतीय क्रांति दल), संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी), जद 


(जनता दल), मिधानि (मिश्र धातु निगम), दिननि (दिल्ली नगर निगम) । यूनेस्को, 


के यूनिसेफ, नाटो, सीटो, भेल (87०), बेल (80), इम्पा ([774), इकार (6&/), 
.. इक्रिसेंट (0]54) भंगरेजी से आगत, अनुकरण पर बने प्रश हैं। वि जज 


व. 





]3 


शब्द-रूपान्तरण 


भाषा के शब्द-समृह/शब्द कोश के अनेकानेक साथक शब्दों में वाक्य-प्रयोग 
योग्यवा नहीं होती। वाक्यों में प्रयोग करने से पूर्व उन में सन्दर्भ तथा वाक्य- 
संरचना के अनुरूप कुछ-न-कुछ परिवतंत करना पड़ता है। वांछित अथ॑-सूचनार्थ 
वाक्य-संरचना के अनुरूप शब्दों में किया जानेवाला परिवरतेन 'शब्द-रूपान्तरण' 
कहलाता है । वाक्य में प्रयुक्त कोशीय शब्दों को पारिभाषिक शब्दावली में पद कहा _ 
जाता है । शब्दों से पद बनाने की प्रक्रिया को पदक्षिचार या रूपविचार कहा जाता 
है । विभक्तियों/सम्बन्ध तत्त्वों के योग से वाक्य में प्रयोगाह शब्दों में प्रयोग-योग्यता 
आती है अर्थात्‌ उन में परस्पर अन्बय हो सकता है। अन्वय के अभाव में वाक्य की 
साथेकता अस्पष्ट या अधूरी रह जाती है । द 

पद-रचना के लिए मुख्यतः प्रकृति/अर्थ तत्त्व तथा प्रत्यय (रचना तत्त्व/ 
विकारक तत्त्व/परिचालक तत्त्व) की आवश्यकता होती है, यथा--लम्बा लड़का 
नाच रहा है; लम्बी लड़की नाच रही है; लम्बे लड़के नाच रहे हैं; लम्बी लड़कियाँ 
नाच रही हैं। इन वाक्यों में लम्बा, लम्बी, लम्बे! एक कोशीय शब्द के रूपान्तर 
हैं । इसी प्रकार 'लड़का, लड़की, लड़के, लड़कियाँ, रहा, रही, रहे, है, हैं। शब्द- 
रूपों/पदों के बारे में कहा जा सकता है । 

.... प्रत्येक वाक्य में मूलतः दो तत्त्व होते हैं---4. प्रधान तत्त्व 2. गौण तत्त्व । 
प्रधान तत्त्व को अर्थ तत्त्व और गोण तत्त्व को सम्बन्ध तत्त्व कद्दा जाता है। गौण 
त्व|सम्बन्ध तत्त्व का कार्य है--वाक्य में विभिन्‍न अर्थ तत्त्वों के मध्य पारस्परिक 

सम्बन्ध स्थापित करना, यथा--शकुन्तला ने दुष्यन्त को पत्न लिखा । इस वाक्य में 
'शकुन्तला, दुष्पन्त, पत्र, लिख (ना) अर्थ तत्त्वों को ने, को-आ' सम्बन्ध तत्त्व 
परस्पर अन्वय योग्य बना रहे हैं । 

वाक्यों में आए सभी शब्दों के रूपान्तर की प्रक्रिया समान नहीं हुआ करती 
वाक्य में प्रयुक्त कुछ शब्द रूपान्तरशील होते हैं और कुछ रूपान्तर रह्ित। वाक्य- 
.. प्रयोग या रूप-परिवतंन की दष्टि से जो शब्द वर्ग रूपान्तरशील होते हैं, उन्हें विकारी 


.... शब्द कहा जाता है, अर्थात्‌ (लिंग, वचन, कारक, पुरुष, काल आदि के कारण जिन 





494 


शब्द-रूपान्तरण | 95 


शब्दों में रूपपरिवर्तत या विकार होता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं। संज्ञा, 
सवंताम, विशेषण, क्रिया विंकारी शब्दों के शब्द वर्ग हैं। वाक्य-प्रयोग या रूप- 
परिवर्तन की दृष्टि से जो शब्द रूपान्तरशील नहीं होते, - उन्हें अविकारी शब्द कहा 
जाता है, अर्थात्‌ लिंग, वचन, कारक, पुरुष, काल आदि के कारण जिन शब्दों में 
रूप-परिवर्तत या विकार नहीं होता, उन्हें अविकारी शब्द कहते हैं । अविकारी शब्दों 
को अव्यय (जिन का व्यय नहीं होता, अर्थात्‌ जो बिना किसी: घट-बढ़ के ज्यों के 
त्यों बने रहते हैं) भी कहते हैं । 

शब्द-रूपान्तरण/रूपविचार|पदविचार  वैयाकरणों की दृष्टि से व्याकरण 
शास्त्र का मुख्य विषय है। कुछ विद्वानों ने व्याकरण को ऐसा शास्त्र माना है जो 
शब्दों के रूपों और प्रयोगों को निरूपित करता है। ध्वनि और शब्द-निर्माण उन की 
दृष्टि में व्याकरण से भिन्‍न विषय हैं । द 


विकारी शब्दों में दो प्रकार का विकार सम्भव है--. आन्तरिक विकार 
2. बाहूय विकार । शब्द|प्रकृति के अन्तगंत होनेवाला ध्वनिगत विकार आन्तरिक 
विकार कहा जाता है, यथा--लड़का-लड़के-लड़को-लड़कों, लड़की- लड़कियाँ-लड़कियों- 
लड़कियो; मैं-मुझ-मुझे-मुझी-मेरा-मे री-मेरे; हम-हमें-हमीं-हमारा-हमारा-हमारी आदि । 
शब्द|प्रकृति के अन्तर्गत कोई ध्वनिगत विकार न हो कर उस के साथ जुड़नेवाले तत्त्व 
में जो विकार होता है, उसे बाहुय विकार कहते हैं, यथा--श्याम (ने/को/सि/में/ 
पर आदि), लाऊं-लाता-लाया-लाए-ला (चुका/रहा/सकता था--है होगा आदि)। 

हिन्दी में प्राप्त सम्बन्ध तत्त्वों के ये रूप प्राप्त हैं--]. पद-स्थान--कुछ 
सामासिक शब्दों में पद-स्थान के परिवतंन से सम्बन्ध तत्त्व और शब्दार्थ में अम्तर 
आ जाता है, यथा--पग्राममल्‍्ल>-गाँव का पहलवान, मल्लग्राम--पहलवानों का 
गवि, धनपति +- धन-स्वामी /कुबेर, पतिधन >- पत्ति का धन; सदनराज « गृहराज/बहुत 
. बड़ा तथा सुन्दर घर, राजसदन -- राजमहल । कभी-कभी शब्द-स्थान परिवतंन से पद 
का व्याकरणिक कायें परिवर्तित हो जाता है, यथा--दाल उफन रही है (कर्ता), मैं दाल 
बना रही हूँ (कर्म) 2. शब्द मूल-रूप/|शुन्य योग--कभी-कभी शब्दों को मूल रूप में 
रखते हुए या शब्द में शुन्य योग से सम्बन्ध तत्त्व का काम लिया जाता है, यथा-- 
तू आ; घर गिर पड़े; लाल साड़ियाँ; हम कहाँ हैं? इन वाक्यों में काले टाइप के 
' पदों में शुन्य योग से विभिन्‍न सम्बन्ध तत्त्वों (प्रत्यक्ष विधि, एकवचन, मध्यम पुरुष; 
बहुवचन, पुल्लिय, कर्ता; बहुवचन, स्त्लीलिंग; कर्ता, बहुवचन, उत्तमपुरुष) का बोध 
कराया गया है। 3. संबंध तत्त्व सूचक शब्द/(शब्दांश-- ने, को, से“, -आ-|ई/-ए, . 
-ता/-ती-ते' आदि विभिन्‍न सम्बन्ध तत्त्व सूचक शब्द/शब्दांश हैं। 4. ध्वनि-प्रति- 
स्थापन--पद-अयोग के समय सूल शब्द की कुछ ध्वनिययाँ (स्वर, व्यंजन, स्वर-व्यंजन) 
के प्रतिस्थापन से सम्बन्ध तत्त्व का काय॑ सम्पन्न होता है, यथा--जा-> गया; पुत्र-> 
पौत्; चाचा +> चाची आदि । 5. सुर--काकु_वक्रोक्ति, बलाघात से सम्बन्ध तत्त्व 





.. स्तीलिंग में नहीं होते, यथा--दारा 





96 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


का काम लिया जाता है, यथा--हां सुकुमार नाथ बन जोगू !, वे जा रहे हैं ! वे जा 


रहे हैं ? वे जा. रहे हैं !; ५“जा--जा (आज्ञा) ५/लिख--लिख (आदेश) | 

हिन्दी पदों में अर्थंतत्त्व और सम्बन्ध तत्त्व का अस्तित्व इन रूपों में प्राप्त 
है--(क) पूर्ण संपोग--अथ तत्त्व में सम्बन्ध तत्त्व का अस्तित्व पूरण॑तः समीक्ृत हो 
जाता है, यथा--शुन्य संबंध तत्त्व तथा सुर संबंध तत्त्व का अर्थ तत्त्व में समीक्षत 
होना (ख) अपूर्ण संयोग--अर्थ तत्त्व और संबंध तत्त्व का अस्तित्व संयोग होने पर 
भी तिलतंडूलवत्‌/चावल-दाल मिश्रण के समान रहता है, यथा--जानता (जान ---ता), 
जाऊंगा (जा-+--ऊँगा), लड़कों (लड़क---ओं) (ग) अयोग--अथेतत्त्व और संबंध तत्त्व 
स्थान की दृष्टि से समीप होते हुए अयुक्त रहते हैं, यथा--लड़के ने, साँप को 
लाठी से।.. 

भाव-विचारों की पूर्ण अभिव्यक्ति वाक्य से ही सम्भव होती है, किन्तु व्यवहार 
में अधिकतर वाक्य श्रोता या पाठक के अनेक तत्संबंधित प्रश्नों/जिज्ञासाओों का 
समाधान नहीं कर पाते । श्रोता या पाठक स्थूल रूप से संद््भपिक्षी थोड़ा-बहुत अर्थ 
समझ कर सस्तुष्ट हो जाते हैं। सम्बन्ध तत्त्व भाषा में अभिव्यंजना संबंधी सूक्ष्मता 
. तथा निश्चयात्मकता उत्पन्न करते हैं। विकारी शब्दों में व्याकरणिक अथं|विशेषता 
दुयोतन व्याकरणिक कोटियों से होता है। लिंग, वचन, पुरुष, कारक, काल, वृत्ति 
आदि व्याकरणिक कोटियों/विकारक तत्त्वों से यह सूक्ष्मता तथा निश्चयात्मकता 
लाने का प्रयास किया जाता है। हिन्दी के विकारी शब्दों में व्याकरणिक कोटियों 
के अनुरूप परिवतंन/|विकार होते हैं। रूप परिवर्तत के माध्यम से व्याकरणिक अर्थ 
प्रकट करनेवाला तत्त्व व्याकरणिक फोटि कहलाता है। हिन्दी भाषा में व्याकरणिक 
कोटियों के ये रूप प्राप्त हैं-- 


.._|. लिग--लिंग शब्द का शाब्दिक अर्थ है--चिंह न, जिस से किसी चीज 
को पहचाना जाता है । लिंग संज्ञा शब्दों में निहित कोटि है जो अव्यक्त रहती है। संज्ञा 
शंब्द के लिग का ज्ञान उस की विशेषता या क्रिया की अन्विति से होता है। विशेषण 
तथा क्रिया में यह बिम्बित कोटि है। लिंग एक व्याकरणिक व्यवस्था का नाम है। 


इसी से मिलता-जुलता एक शब्द है यौन”, जो प्रकृति या लोक में वर्तमान प्राणियों में 


नर-मादा का सूचक है। सभी भाषाएँ प्राकृतिक /लौकिक लिंग या यौन-व्यवस्था का 
शत-प्रतिशत अनुगमन नहीं करतीं, यथा--माता-पिता, स्त्री-पुरुष, गाय-बैल, लड़का- 
लड़की आदि शब्द प्राकृतिक लिग/योन-व्यवस्था के सूचक हैं, साथ ही व्याकरणिक 
लिग-व्यवस्था के भी, किन्तु कान-नाक, पेट-पीठ, मु ह-मू छ,. स्तन-छाती, ग्रन्थ-पुस्तक 
आदि शब्द केवल व्याकरंणिक लिंग-व्यवस्था के सूचक हैं। इन में प्राकृतिक या 


. लौकिक लिंम/यौन-व्यवस्था का अभाव है। संस्कृत भाषा में पत्नीवाची शब्द सदैव क्‍ 
हा [रा (पुल्लिग), भार्या (स्त्रीलिग) कलत (नपुसक- 
..... लिंग) भंगरेजी में 877 (पुल्लिग), /(४००४ (स्त्रीलिंग) है। रूसी भाषा में चन्द्रमा 





अटनालन्त- 2० असम सजा कक कला: 2... “कट हज >पल 4 शक महक 8 मरइनननकसकरीलताए जिधाहए गए 5, न ् 5 लक नए का टतनरक। कस 532 ० ८ -+ ऋकान न कह जो टीफिल+ 53०३ > ५५ के ५2224088: : के 


शब्द-रूपान्तरण | 97 


का सूचक शब्द लूता स्त्रीलिंग है, सुयें का सूचक शब्द सोन्‍्त्से” नपुसकलिंग है । 
कन्नड में बच्चा शब्द नपुसकलिग है। अफ्रीका की चेचेन भाषा में छह लिगों का 
विधान है । 

व्याकरणिक लिंग का कोई तकंसंगत आधार नहीं होता। किसी भाषा में 
लिग-व्यवस्था का आधार नर-मादा' है, किसी में सचेतन-अचेतन , किसी में 
“अश्रंष्ठता-हीनता” ओर किसी में इन का मिला-जूला रूप । हिन्दी में लिग-व्यवस्था 


न तो पूर्ण रूप से व्याकरणिक (शब्दान्त रूप पर आधारित) है और न पूर्ण रूप से 


ताकिक (शब्द-अर्थ पर आधारित) । यह ष्यक्त कोटि भी नहीं है, अर्थात्‌ कुछ शब्दों 
में शब्द-रूप से लिग का स्पष्ट बोध नहीं होता । हिन्दी में लिंग-व्यवस्था का पदबन्ध 
तथा वाक्य-स्तर पर व्याकरणिक अन्विति पर व्यापक प्रभाव पड़ता है बर्थात्‌ संज्ञा, 
सवंनाम, विशेषण, क्रिया शब्दों की अन्विति लिंग-व्यवस्था के अनुसार रहती है, 
यथा--थैला फट गया--थैली फट गईं | कल मैं घर में ही थी--कल मैं घर में 
ही था। काला घोड़ा--काली घोड़ी । 

यथार्थ या कल्पित पुरुष/नर जाति के बोधक शब्द पुल्लिग माने जाते हैं, 
यथा--बच्चा, साँड़, नगर, वृक्ष । यथाथे या कल्पित स्त्री/मादा जाति के बोधक 
शब्द स्त्रीलिंग साने जाते हैं, यथा--बच्ची, गाय, नगरी, लता । हिन्दी में लिग संज्ञा 
तथा सवेनाम की निहित कोटि है और विशेषण तथा क्रिया की बिम्बित। हिन्दी 
संज्ञा शब्दों में लिंग अव्यक्त रहता है, व्यक्त नहीं । हिन्दी में लिंग विभाजक कोटि 
का काम करता है, अर्थात्‌ या तो शब्द पुल्लिग में होगा या स्त्रीलिंग में । हिन्दी में 
लिग-सूचना सामान्यतः दो तरीकों से मिलती है--. प्रत्यय-योग से 2. तत्संबंधी 
स्वतन्त्र शब्द अस्तित्व से, यथा--हिरन-> हिरनी, बाघ->बाघिन, कुत्ता->कुतिया 
(प्रत्यय-योग); चतुर पुरुष--चतुर स्त्री, सुन्दर राजा--सुन्दर रानी, कागज जल 
गए हैं--कापियाँ जल गई हैं । द 


हिन्दी संज्ञा शब्दों के लिंग का बोध उपयु कत तरीकों से हो सकता है, किन्तु 
सर्वनाम शब्दों के लिग निर्णय के लिए सन्दर्भ ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है, यथा-- 
श्याम आया (बह आया), गीता आई (वह आई) । हिन्दी में संज्ञा, विशेषण तथा... 
क्रिया शब्दों में “भा, -ई! लिंग कोटि के सूचक प्रमुख रूप-साधक प्रत्यय हैं, यथा-- 
मेरा काला घोड़ा दौड़ा था--मेरी काली घोड़ी दौड़ी थी। हिन्दी में पदबन्ध स्तर 


तथा वाक्य स्तर पर पदों में लिग-अन्विति का रहना अपरिहायें है, यथा--लम्बे 


काले बालोंबाली लड़फी--लम्बे काले बालोंवाली लड़की नाच रही हैं । लम्बे काले 
... बालोंबाला लड़का--लम्बे काले बालोंवाला लड़का नाच रहा है। । 
हिन्दी में अर्थ की दृष्टि से लिग-व्यवस्था दी रूपों में दृष्टिगत होती है-- 


() केवल पुल्लिग/स्त्रीलिंग शब्द, यथा--पिता-माता, बैल-गाय, मोर-मोरनी, नद- 


नदी (2) दोनों लिंगों के जीवों को समाहित कर लेनेवाले केवल पुल्लिग/स्त्रीलिंग का 





98 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


शब्द (जो नर/|मादा शब्द के साथ निलिगी हो जाते हैं), यथा--कौए काँव-काँव कर 
रहे हैं (>>केवल नर या केवल मादा या नर और मादा दोनों); कोयलें कुह-कुह 
कर रही हैं (>केवल नर या केवल मादा या नर और मादा दोनों) । पेड़ पर एक 
मादा कौआ है""पिजड़े में एक मर कोयल है (कौआ, कोयल निलिग सूचक है) | 
जड़ वस्तुओं के सन्दर्भ में हिन्दी के कुछ लिग-प्रत्यय लिग-भैद के साथ-साथ आकार 
की लघूता भी प्रकट करते हैं, यथा- रस्सा-रस्सी, लोटा-लुटिया, ताल-तलैया । कुछ 
प्रत्यय केवल आकार-लघुता ही प्रकट करते हैं, यथा--गठरी-गठरिया, खाट-खटिया, 
डिब्बी-डिबिया, बेटी-बिटिया । 


2. बचन--लौकिक|प्राक्नेतिक व्यवस्था की' संख्या-व्यवस्था का बोध व्याकरण 
में वचन-व्यवस्था से होता है। कुछ पुल्लिग शब्दों को छोड़ कर अन्य संज्ञा शब्दों 
में वचन व्यक्त तथा निहित कोटि है। वचन क्रिया रूपों में भी बिम्बित होता है । 
संख्याओं के अनेक भेद हैं, किन्तु व्याकरण में वचन-व्यवस्था एक, अनेक के भेद पर 
आधारित है | एक के बोधन के लिए एकबचन और बनेक के बोधन के लिए बहुबचन 
की स्वीकृति है । संस्कृत, लिथआनी में दृविवच्चन की भी स्वीकृति है। वचन-व्यवस्था 
लौकिक संख्या-व्यवस्था का सर्देव शत-प्रतिशत अनुगमन नहीं करती । संख्या की 
दृष्टि से किसी समूह में अनेक व्यक्ति या वस्तुएँ होने पर भी समूहवाची शब्द एक- 
वचन होते हैं, यथा--चाबियों का गुच्छा कहाँ है ? पुलिस के डर से भीड़ भागों जा 
रही है। जातो एकवचनम्‌” नियम के अनुसार व्यक्ति/वस्तु की अनेकता होने पर 
भी जातिगत एकत्व के कारण एकवचन का ही प्रयोग किया जाता है, यथा--कृत्ता 


स्वामिभकक्‍त होता है । मनुष्य सब से अधिक बुद्धिमान प्राणी है। इन वाक्यों में... 
प्रयुक्त कुत्ता, मनुष्य सभी कुत्तों (कुत्ता-जाति), मनुष्यों (मनुष्य-्जाति) के बोधक 
होने के कारण एकवचन में प्रयुक्त हैं। संस्कृत में बीस से ऊपर के संख्यावाची शब्द 


एकवचन-रूपवाले होते हैं। संस्कृत में ही 'एक, दो, तीन, चार” तक के शब्द तीनों 
लिगों में प्रयुक्त होते हैं, आगे यह लिंग-व्यवस्था-भेद भी समाष्त हो जाता है। संस्कृत 


.. में एक पत्नी का सूचक शब्द ददारा:” रूप की दृष्टि से बहुवचन है। हिन्दी में 'लोग, 
दर्शन, होश, प्राण, समाचार, भाग्य, हस्ताक्षर' शब्द बहुत्व की भावना के कारण 
नित्य बहुवचन हैं । ख न-पसीना, पसीने-पसीने की भाँति आँसू की ताकत, आँसू बा. 


गए-- एकवचन, बहुवचन में प्रयुक्त हैं । 


हिन्दी संज्ञा और स्वंताम में वचन व्यक्त कोटि है तथा विशेषण और क्रिया 


.. में बिम्बित । हिन्दी में वचन विस्तारक कोटि है अर्थात्‌ प्रायः सभी संज्ञा शब्द कभी 
... एकवचन में और कभी उस से व्युत्यन्च बहुवचन में व्यवहार में आते हैं । हिन्दी में 
... आदर भाव के कारण एकार्थी एकवचन के स्थान पर आदरार्थी बहुबचन का प्रयोग... 

_ करते हैं, यथा--दोस्त, इस समय तुम कहाँ जा रहे हो ? हिन्दी में बहुवचन-ध्यवस्था 


जरसताभसमसध लकिशकब८र>फनातत- ८ ००५ «०५ ००४ ० « 





शब्द-रूपान्तरण | 99 


दो रूपों में देखी जा सकती है--(क) +-एक से अधिक--आदर (यथा--लड़कियाँ 
तैर रही हैं) (ख) -आदर--एक (यथा--राष्ट्रपति जा रहे हैं) । 


हिन्दी में वचन-व्यवस्था का प्रभाव पदबन्ध तथा वाक्य-स्तर पर पड़ता है । 
हिन्दी में बहुबचन सर्वेत्राम शब्द प्रायः स्वतन्त्र शब्द हैं, किन्तु संज्ञा, विशेषण, क्रिया 
शब्दों में कुछ प्रत्यय ( -ए, “ऐ, 'ई आदि) जोड़ कर बहुवचन की सूचता दी जाती 
है, यथा--मैं-हम, किस-किन (सर्वनाम); छोटा बच्चा इधर बेठ सकता है-- छोटे 
बच्चे इधर बैठ सकते हैं। छोटी बच्ची उधर सो सकती है--छोटी बच्चियाँ उधर 
सो सकती हैं । 


3. पुरुष--क्रथ्य का कोई वक्‍ता (लेखक), श्रोता (|पाठक) और विषय हुआ 
करता है। इस आधार पर सव्वनामों में व्याकरणिक पुरुष कोटि का अस्तित्व स्वीकार 
किया गया है, यथा--वक्‍ता--उत्तम पुरुष (अँगरेजी के अनुसार प्रथम पुरुष), 
श्रोता--मध्यम पुरुष (अँगरेजी के अनुसार दुवितीय पुरुष), विषय--अन्य पुरुष 
(अँगरेजी के अनुसार तृतीय पुरुष) । सभी संज्ञाएँ अन्य पुरुष की होती हैं क्‍योंकि 
सभी संज्ञाएँ वक्‍ता और श्रोता के मध्य विषय बनती हैं। सामान्यतः संज्ञा शब्दों के 
सम्बन्ध में पुरुष-कोटि की चर्चा नहीं की जाती । पुरुष की कोटि विशेषण में बिम्बित 
नहीं होती क्योंकि सामान्यतः सर्वनामों के विशेषण नहीं होते । पुरुष लिग की भाँति 
विभाजक कोटि है। पुरुष तथा वचन का घनिष्ठ सम्बन्ध है। पुरुष का क्रिया से 
परोक्ष सम्बन्ध है | पुरुष और वचन की संयुक्‍तता वाक्य स्तर पर कुछ क्रिया रूपों में 
स्पष्ट देखी जा सकती है, यथा-- का 

मैं हूँ (-3)--उ० पु० एक० हम हैं/।हम लोग हैं (-ऐ)--3० पु० बहु० 
तू है (-ऐ)--म० पु० एक» तुम हो/तुम लोग हो (-औौ)--म० पु० बहु? 

वह है (-ऐ)--अ० पु० एक०  वै हैं/वि लोग हैं (-ऐ)--अ० पु० बहु० 
क्‍ न्‍ आप हैं/आप लोग हैं (-ऐँ)--म० पु० 
बहु० आदराथे 
4. कारक-- १/क्व से निष्पन्न कारक शब्द का शाब्दिक अर्थ है--करने- 
वाला | व्याकरण में विभिन्‍त साधनों से क्रिया-निष्पादक को कारक कहा जाता है । 
संस्कृत भाषा में संज्ञा और क्रिया के मध्य रहनेवाला सम्बन्ध कारक कहलाता है । 
हिन्दी भाषा में वाक्यान्तर्गत संज्ञा/सवेनाम पदों का पारस्परिक एवं क्रिया के मध्य 
का सम्बन्ध कारक कहा जाता है। विभिन्‍न भाषाओं . में कारकों की संख्या भिन्‍न- 
भिन्‍न है, यथा--जमंन में चार---कर्ता, कम, सम्प्रदान, संबंध; ग्रीक में पाँच---करण, 
अपादान, संबंध, अधिकरण, संबोधन; लैटिन में छह --कर्ता, कमें, सम्प्रदान, अपादान, . 
संबंध, संबोधन; रूसी में छह--कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, संबंध, परसर्गीय; - 
संस्कृत में छह--कर्ता, कम, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण ; हिन्दी, कई _ 








200 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


भारतीय भाषाओं में आठ--कर्ता, कम, करण, सम्प्रदान, अपादान, सम्बन्ध, 
 भधिकरण, संबोधन । द 


कारक संज्ञा और स्वनाम की व्यक्त कोटि है और विशेषणों की बिम्बित । 
कारक की अन्विति वाक्यांश के भीतर होती है । यह कोटि क्रिया वाक्यांश में बिम्बित 
नहीं होती । यह प्रकायं बोधक एक व्याकरणिक कोटि है। वाक्य में शब्दों/पदों के 
मध्य उभरने बननेवाला सम्बन्ध कारक कहा जाता है। वाक्य में आए नाम पद क्‍या 
कार्य कर रहे हैं--इस का प्रत्यक्षीकरण कारक से होता है। अर्थ/सम्बन्ध/प्रकायें की 
दृष्टि से कारकों की संख्या आठ से भी अधिक हो सकती है । शब्दों के रूप-परिवतंन 
और प्रयोगगत विशेषताओं को दिखाने की दृष्टि से कारकों की संकल्पना उपयोगी 
: है। क्रिया से प्रत्यक्षतः संबंध कर्ता (क्रिया का करनेवाला), कर्म (क्रिया-व्यापार का 
परिणामी फल-आधा र), करण (क्रिया सम्पादन का साधन), अधिकरण (क्रिया-व्यापार 
सम्पादन का स्थल, समय) से है। सम्प्रदान (क्रिया-व्यापार सम्पादन का हेतु/फल 
भोक्‍्ता, प्राप्त कर्ता), अपादान (क्रिया-स्थान/समय से अलगाव) से क्रिया का परोक्षत: 
सम्बन्ध है। संबंध कारक क्रिया के अतिरिक्त वाक्य के किसी अन्य पद से सम्बद्ध 
होता है । संबोधन कारक किसौ को पुकारने या चेताने की (प्रक्रिया की) सूचना देता 
है। कारकों को सूचित करनेवाले चिह॒नों को संस्कृत में विभकति (दो कारकों को 
विभक्त करनेवाला रूप) कहते हैं | हिन्दी में कारक-चिह नों के लिए परसगगं शब्द का 
प्रयोग किया जाने लगा है। कारकों के साथ लिंग, वचन की कोटियाँ सम्पुक्त रूप 
में रहती हैं । रूप-प्रक्रिया के आधार पर हिन्दी में तीन प्रकार से रूप परिवर्तित होते 
हैं--. प्रत्यक्ष ([सरल/मूल/ऋजु) रूप विभकत या परसग या कारक-चिह न-रहित 


होते हैं 2. परोक्ष (तियंक्‌) रूप विभक्ति या परसर्ग या कारक चिहन सहित होते 


हैं 3. संबोधन रूप में केवल संबोधन तत्त्व रहता है । 


कारक-अध्ययन तीन दृष्टियों से किया जा सकता है*।. अथे|प्रकाय॑-दृष्टि 


2. रूप रचना-दृष्टि 3. संकेत व्यवस्था-दुष्टि । अथ या प्रकार की' दृष्टि से कारकों की _ 


संख्या आठ मानी जाती रही है। रूप रचना की दृष्टि से कारकों की संख्या तीन 


कही जा सकती है। संकेत व्यवस्था (वाक्य-घटकों के पारस्परिक संबंध को व्यक्त _ 


करनेवाले तत्त्व) की दृष्टि से कारक-संकेत मुख्यतः दो वर्गों में रखे जा सकते हैं--- 
. संश्लिष्ट विभक्ति 2. विश्लिष्ट विभक्ति | विश्लिष्ट विभक्ति को परसरग्ग (मय 


 परसर्गीय शब्दावली) कह सकते हैं । 


5. बृत्ति--क्रिया-व्यापार के साथ वक्‍ता की मानसिकता/अभिवृत्ति.. 
.._वृत्ति-व्यवस्था का विषय है। वक्‍ता के किसी कथन में आज्ञा, आदेश, अनुरोध, 7 ऑ 
.... चेतावनी, इच्छा, निश्चय, संदेह, सम्भावना, अनुमान, संकेत/शर्ति; शक्यत्ता आदि 

. में से किसी एक का भाव पाया जा सकता है। वृत्ति क्रिया-वाक्यांश की व्यक्त 


उसेकलडक 4३२७२ समता रद 5 2आरछकत-ल्‍-++ ० ५. ००+ >> के -॥ 


शब्द-रूपान्तरण | 20] 


तथा विस्तारक कोटि है। इसे कुछ लोग अथे और कुछ लोग प्रकार या प्रयोग भी 
कहते हैं । 

6. पक्ष--क्रिया-व्यवस्था के प्रति वक्‍ता के मन में अवस्थित पूर्णता (फल- 
प्रधानता) या अपूर्णता (क्रिया व्यापार-प्रधानता) की भावना का सम्बन्ध पक्ष कोटि 
से है। पक्ष का बोधन रँंजक, सहायक क्रियाओं से प्रमुख रूप से होता है। यह क्रिया 
वाक्यांश की व्यक्त तथा विस्तारक कोटि है। हिन्दी' में धरुख्यतः दो पक्ष हैं--. पूर्ण 
पक्ष 2. अपूर्ण पक्ष । अपूर्ण पक्ष की नौ दशाएंँ हो सकती हैं--आरम्भ, आरम्भपू्व॑, 
घटमान, अभ्यास, नित्यता, अवस्थिति, व्धंभान, समाप्ति, वीप्सा । 

7. काल--व्याकरणिक काल-व्यवस्था और प्राकृतिक |लौकिक काल या 
समयन-संकल्पना में पर्याष्त अन्तर है। लोक में केवल वर्तमान समय का क्षणिक 
अस्तित्व होता है। भाषायी व्यवहार में गत्यात्मक घटना-अनुक्रम बोध “काल' है । 
घटनाओं के अनुक्रम बोध का क्षण प्रतीति-बिन्दु/बरतंमान कहलाता है ! इस प्रतीति- 
बिन्दु से पूवं घटित घटनाओं के अनुक्रम-बोध को वक्‍ता स्मृति, अनुभव के आधार 
पर भूतकाल में व्यक्त करता है । भाषा-व्यवहार में भूत 'स्मृत-अनुभूत घटना-अनुक्रम 
है। प्रतीति-बिन्दु के पश्चात्‌ घटनीय घटनाओं के अनुक्रम-बोध को वक्ता प्रत्याशा 
या संभावित दृष्टि से भविष्य काल में व्यक्त करता है। भाषा-व्यवहार में भविष्य 
'प्रत्याशित घटना-अनुक्रम”' है। क्रियानव्यापार या घटनाओं और प्रक्रियाओं की 
अभिष्यक्ति क्रियापद से होती है, अत: काल का सम्बन्ध क्रियापद की रूप- 
प्रक्रिया से है। क्रिया-निष्पत्ति के क्षणों के आधार पर हिन्दी में तीन काल माने 
जाते हैं-- . भूत 2. वर्तमान 3. भविष्य । संस्कृत और रूसी भाषा में क्रिया 
के काल भेद का आधार पक्ष" है। काल क्रिया वाक्यांश की व्यक्त तथा विस्तारक 
कोटि है। 

8. वाच्य--वाक्य-संरचना की दृष्टि से वाच्य-व्यवस्था पर विचार किया 
जाता है। वाच्य में यह देखा जाता है कि क्रिया-व्यापार की दृष्टि से वाक्य में कर्ता 


की प्रधानता है, या कम की या केवल भाव/कार्य की। प्रधानता के आधार पर 
कतृ वाच्य तथा कर्तेतर वाच्य माने जाते हैं। कर्तेतर वाच्य को पुनः तीन वर्गों में 
विभकत किया जा सकता है--कमंवाच्य, भाववाच्य, निर्वाच्य । कुछ लोग वाच्य को 
व्याकरणिक कोटियों में गणनीय नहीं मानते । वे इसे वाक्य रचना-प्रक्रिया के तत्त्वों/ 
पक्षों (चयन, शब्दक्रम, अन्विति, नियमन, अनुतान) के साथ छठा तत्त्व मानते हैं। 
इस दृष्टि से भी वाच्य शब्द-रूपान्तरण का एक आधार है। भाषावैज्ञानिक नाइडा 
_945) के अनुसार संसार की भाषाओं में 20 व्याकरणिक कोटियाँ हैं। उन्हों ने 
वाच्य, प्रेरणा्थेंक को भी व्याकरणिक कोटि कहा है। हे 
..._  भाषा-व्यवहार में प्रयुक्त अर्थ तत्त्व और सम्बन्ध तत्त्व के सूचक शब्दों। 
शब्दांशों को बाक्‌ भाग[वाग्भाग कहते हैं । विकारी वाग्भाग चार हैं---सज्ञा, स्वेनाम, 








202 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


विशेषण क्रिया । अविवाकारी वाग्भागों को 'अव्यय” अपने में समेट लेते हैं। अध्यय 
कई प्रकार के हैं--क्रियाविशेषण, समुच्चयबोधक, संबंधबोधक विस्मयादिबोधक, 
निपात आदि । उपयुक्त सभी व्याकरणिक कोटियों पर संबंधित वाग्भागों की चर्चा 
करते समय विस्तार से प्रकाश डाला जाएगा । 

हिन्दी के संज्ञा शब्दों में तीत--लिंग, वचन, कारक; सववंतामों में चार--- 
लिंग, वचन, पुरुष, कारक; क्रियाओं में आठ--लिग, वचन, पुरुष, कारक, काल, 
पक्ष, वृत्ति, वाच्य कोटियाँ प्राप्त हैं। विशेषण संज्ञा की कोटियों को ही बिम्बित 
करता है । 


&38 


संज्ञा--लोक में वर्तमान या कल्पित किसी भी प्राणी, पदार्थ, स्थान, गुण 
भाव या कम के बोधक विकारी शब्द संज्ञा कहलाते हैं। भाषाओं में संज्ञा शब्द 
असंख्य होते हैं तथा सम्बन्धित भाषायी समाज की. गतिविधियों के साथ घटते-बढते 
रहते हैं। जीवित भाषाएं अन्य भाषाओं के सम्पर्क में आने पर संज्ञा शब्दों को सरलता 


से और अधिक संख्या में ग्रहण करती हैं। बच्चा सबसे पहले संज्ञा शब्द ही बोलना 


सीखता है । द 
संस्कृत-व्याकरण में नाम शब्द के अन्तर्गत संशा, सवंनाम, विशेषण की 
गणना की गई है। यद्यपि इन तीनों का सीमा-क्षेत्र लगभग समान है, तथापि तीनों 
में विशेष अन्तर होने के कारण तीन अलग-अलग शब्द हैं। सवंनाम संज्ञा के स्थान 
पर आ सकता है किन्तु सम्बोधन के रूप में नहीं | संज्ञा, सर्वनाम की रूपावली के 
प्रत्यय अलग-अलग हैं । कुछ विशेषणों के संज्ञावत्‌ प्रयोग सम्भव हैं, किन्तु विशेषणों द 
की भाँति किसी सज्ञा के पूर्व अधिक, कम जं॑से प्रविशिषक (विशेषण का विशेषण) 
नहीं लग सकते । संज्ञा शब्द 'बस्तुत्व अर्थ के बोधक होते हैं। व्याकरणिक दष्टि से 
ज्ञामें लिंग, वचत, कारक ओर प्राणिवाचकता/अप्राणिवाचकता का अस्तित्व रहता 
है । संज्ञा शब्द एक रूप रचनात्मक प्रणाली के अनुसार बदलते हैं। वाक्य में ये मुख्यतः 
उद्देश्य तथा कम के रूप में आते हैं। प्रसंगश: इन के कुछ अन्य वाक्यगत प्रकार 


भी देखे जा सकते हैं । 


संज्ञा-वर्मोफरण के सात आधार माने नाते हैं---! . श्लोत 2. संरचना 3. तत्त्व 
बोधन 4. गणना 5. प्राणत्व 6. प्रकार्य 7. सम्बदधता । 
- शब्द-स्रोत की दृष्टि से संज्ञा शब्दों को तत्सम, तदभव, विदेशी, देशी 
आदि वर्गों में बाँठ जा सकता है। (इन वर्गों के अनेक संज्ञा शब्द अध्याय 0 
शब्द-व्युत्पत्ति” में बताए जा चुके हैं) द 
.... 2. शब्द-संरचना की दृष्टि से संज्ञा शब्दों को रूढ़ (|सरल/मूल), यौगिक 
(व्युत्पन्त/|उपसगं, प्रत्यययुक्त), समस्त (/सामासिक/ समासज) वर्गों में बाँठा जा सकता 


है। (इन वर्गों के अनेक संज्ञा शब्द अध्याय !2 शब्द-रचना'” में बताए जा चक्े हैं।) - 


203 








204 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


3. तत्त्व-बोधन की दृष्टि से संज्ञा शब्दों के दो मुख्य वर्ग हो सकते हैं--- 


(क) पदार्थेवोधक (ख) भावबोधक । किसी जड़ या चेतन पदाथ॑/पदार्थ-समूह के _ 


बोधक शब्द पदार्थब्रोधक संज्ञा कहलाते हैं, यथा--रमेश, रान्क्रोी, बकरा, कुर्सी, 
कलकत्ता, पानी, कक्षा, सेना आदि । पदार्थबरोधक संज्ञाओं के दो वर्ग हो सकते हैं-- 
(अ) व्यक्तिवाचक (आ) जातिवाचक; जातिवाचक संज्ञा शब्दों के अन्तर्गत (क) द्रव्य- 
बोधक, (ख) समुदायबोधक शब्दों का भी समावेश हो जाता है। इस प्रकार पदार्थे- 
वाचक संज्ञाओं के चार उपभेद हो जाते हैं--() व्यक्तिवाचक, (7) जातिवाचक 
(7) समूहवाचक ([९) द्रव्यवाचक । अतः: तत्त्ववोधन की दृष्टि से संज्ञा शब्दों के 
पाँच भेद किए जा सकते हैं-- (क) व्यक्तिवाचक (ख) जातिवाचक (ग) भाववाचक 
(घ) द्रव्यवाचक (ह) समूहवाचक ॥ तत्त्ववोधन के स्थान पर कुछ लोगों ने इस 
वर्गीकरण को अर्थ” आधार कहा है, किन्तु यहाँ अर्थ शब्द प्रामक है। 


(क) किसी प्राणी (व्यक्ति या पशु आदि), पदार्थ, देश, परिघटना आदि के 
विशिष्ट (व्यक्तिगत) नाम के दुयोतक सज्ञा शब्द व्यक्षिवाचक कहलाते हैं, यथा-- 


राजीव, सीता, किट॒टी, शेर, इलाहाबाद, रामायण, हिन्दी साहित्य-सम्मेलन, गंगा, 


चिलका आदि । व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्द एकवचन-सूचक होता है। यदि प्रयोग में 


व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्द बहुवचन का सूचक हो, तो वह जातिवाचक संज्ञा शब्द बन 
जाता है, क्योंकि उस समय उस से उस व्यक्ति/पदार्थ विशेष का बोध नहीं होता, 


वरन्‌ उस के विशिष्ट धर्म/गुण आदि का बोध होता है, यथा--कलियुग में भी 
हरिश्चन्द्रों की! कमी नहीं है। प्राचीन काल से ही विभीषणों और मीरजाफ्रों से 


देश का अहित होता रहा है।” यहाँ काले टाइप में मुद्रित शब्दों का अर्थ क्रमश) _ 


है--सत्यवादियों, देशद्रोहियों, विश्वासधातियों । इसी प्रकार रावण, भीम, लक्ष्मी 
आदि शब्दों का जातिवाचक संज्ञा के अथे में प्रयोग सम्भव है । 


व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्द अपने बोधक पदार्थादि का किसी विशेष गुण/लक्षण 


का बोध नहीं कराते, यथा--'मद्रास, सतपुड़ा, सुन्दरलाल' । इन पदार्थादि को समाज 
कोई अन्य नाम भी दे सकता है।था। दिशाओं के नाम व्यक्तिवाचक संज्ञा हैं, जिन 


के नामों में विकल्प मिलता है, यथा--पू्वे >> प्रब, पश्चिम >>पच्छिम, उत्तर, 
दक्षिण/दक्खिन । उदू में इन्हें क्रमशः मशरिक, मगुरिव/मगरब, शुमाल, जनूब 
कहते हैं। -ई जोड़ कर इन से व्यक्तिवाचक विशेषण बनते हैं। छोर, किनारा से 
. पहले उत्तरी या पश्चिमी आदि शब्द रखे जा सकते हैं किन्तु दिशा से पहले उत्तर 


या पश्चिम शब्द ही जोड़ा जाता है। दाक्षिणात्य (>-दक्षिणी), पाश्चात्य ( 


. पश्चिमी) विशेषण शब्द हैं। दो दिशाओं के मध्य की दिशाओं के नाम हैं--उत्तर- 
...  पू्, उत्तर-पश्चिम, दक्षिण-पूर्वं, दक्षिण-पश्चिम, पूर्वोत्तर, पश्चिपोत्तर, ईशान, 
का .- नेऋ तिऋत, अग्निकोण, वायव्य। विक्रम संवत्‌ के अनुसार महीनों के नाम हैं--- 
.. चैत<चेत्र, बसाख<वैशाख, जेठ<जेष्ठ, असाढ़ <आपषाढ़, सावन-<श्रावण, भादों 


"ला +-470 “7 जज लप ला मदर अंल्‍न पक सकाश मनन पल 


संज्ञा | 205 


<<भाद्रपद, क्वार< (आश्विन), कातिक< कारतिक, अगहन <अग्नहायण (मार्गशीर्ष ) 
पूस <पोष, माह/माघ<माघ, फागुन<फाल्गुन। अँगरेजी महीनों के हिन्दी में 
प्रचलित रूप हैं--जनवरी, फ्रवरी, मार्च, अप्रैल, मई, जून, जुलाई, अगस्त 
सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर, दिसम्बर । सप्ताह/हफ ते के दिनों के नाम व्यक्तिवाचक 
संज्ञा हैं, जित के नामों में विकल्प मिलता है, यथा--रविवार/इतवार|भानुवार 
सोमवार|चन्द्रवार, मंगलवार/|भौमवार, बुधवार बृहस्पतिवार/गुरुवार/वी रवार 
शुक्रवार, शनिवार/शनिश्चर/शनीचर/सनीचर । बोलचाल में इन्हें 'रवि सोम, मंगल 
बुध, गुरु/बृहस्पति, शुक्र, शनि कहते हैं। 'भानुवार, वीरवार, भौसवार' शब्द कम 
प्रचलित हैं। उद्ू में अरबी-फारसी से आगत ये शब्द प्रचलित हैं--इतवार, पीर, 
मंगल,शिशंबा (<-शंबा -- दिन), चहार शंबा, जुमेरात, जुमा/जुम्मा, हफ्ता | अरबी से 
आगत ये शब्द उद्द साहित्य तक ही सीमित हैं--योम (--द्विन) -डल- (--का) 
अहृद (-- रवि/इत), इस्वेन, सलासा, अरब आ, खमीस, जुमअ, सब्त । इन के पूर्व 
योम-उल' जड़ता है । 

(ख) प्राणियों, पदार्थों, परिघटनाओं, लक्षणों, अवस्थाओं आदि के सर्वसामान्य 
(जातिगत) नाम के द्योतक संज्ञा शब्द जातिबाचक कहलाते हैं, यथा--मनुष्य 
औरत, नगर, कुत्ता, पुस्तक, संस्था, नदी, झील आदि । इसी प्रकार की अन्य अनेक 
चीजों के सूचक शब्द मृतंवाचक/जातिवाचक संज्ञा कहलाते हैं। जब कभी कोई 
जातिवाचक संज्ञा शब्द एक विशिष्ट व्यक्ति या पदार्थ का बोध कराता है तब वह शब्द 
व्यक्तिवाचक संज्ञा बन जाता है, यथा--गांधी (--मोहनदास करमचंद गांधी) 
राष्ट्रपिता थे । मैं कल पुरी (>-जगन्नाथ पुरी) जा रहा हूँं। गुरुदवारे में ग्रन्थ 
(गुरु ग्रन्थ साहब)-सेवा की जाती है। यहाँ काले टाइप के शब्द व्यक्तिवाचक 
संज्ञा हैं। इसी प्रकार देवी, दाऊ, संवत्‌, भारतेन्दु, गुसाईं' आदि शब्दों का व्यक्ति 
 वाचक संज्ञा (दुर्गा, बलदेव, विक्रम, बाबू हरिश्चन्द्र, तुलसीदास) के अथ॑ में प्रयोग 
सम्भव है। जातिवाचक संज्ञा शब्द अपने बोधक पदार्थादि के किसी गुणलिक्षण का. 
बोध कराते हैं; यथा--गाय, नगर, पशु, मनुष्य” आदि । इन पदार्थादि को समाज 
अब अन्य नाम नहीं दे सकता । "हो 

(ग) जिन संज्ञा शब्दों से अनेक वस्तुओं या प्राणियों के समूह का समग्र रूप 
में बोध होता है, उसे समृहवाचक संज्ञा कहा जाता है, यथा--गुच्छा, झुड, परिवार 
भीड़, संघ, सेना आदि । ये शब्द सजातीय वस्तुओं के समूह को एक इकाई के रूप 
में व्यक्त करते हैं। समूहवाचक संज्ञा जातिवाचक संज्ञा का ही एक उपभेद है। 
_कुटुम्ब, सभा, दल आदि अलग-अलग प्राणियों/पदार्थों को नहीं कहा जा सकता । द 
(घ) जिन संज्ञा शब्दों से ऐसे अगणनीय पंदार्थों का बोध हो जिन का परिमाण 


(माप, तोल) हो सकता है, उन्हें ब्रव्यवाचक/पदार्यवाच्रक संज्ञा कहा जाता है, यंधा--.._ 
आटा, अन्त, घास, घी, दाल, जल, ताँबा, लोहा, सोना आदि। सामान्यतः: द्रव्यों के अलग- 








206 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अलग खंड नहीं होते; खंड किए जाने पर उन खंडों को अलग-अलग नाम नहीं दिया 
जा सकता । द्रव्यवाचक संज्ञा को 'उपादानवाचक संज्ञा भी कहा जाता है । द्रव्यवाचक 
. संज्ञा शब्दों के बोधक पदार्थों से प्रायः दूसरों वस्तुएँ बनती हैं। द्रव्यवाचक संज्ञा 
जातिवाचक संज्ञा का ही एक उपभेद है। द्र॒ध्यवाचक संज्ञा शब्द एकवचन के सूचक 
होते हैं। जब कभी कोई द्रव्यवाचक संज्ञा शब्द बहुबचन के रूप में किसी द्रव्य के प्रकारों 
का बोध कराता हैं, तब वह शब्द जातिवाचक संज्ञा बन जाता है, यथा--यह मेज 
चार प्रकार की लकड़ियों से बनी है। लगता है इस ग्लास में कई शराबे मिला दी 
गई हैं । यहाँ काले टाइप के शब्द जातिवाचक संज्ञा हैं । 

(डः) जिन संज्ञा शब्दों से (पदार्थादि में पाए जानेवाले अगणनीय) भाव/ 


अवधारणा [दशा/अवस्था/धमे [गुण या कार्यं-व्यापार का बोध होता है, उन्हें भावषाचक 
संज्ञा/अमूत संज्ञा कहते हैं, यथा--क्रोध, हष, शैशव, बुढ़ापा, धेये, वीरता, चौड़ाई, 


लंबाई, ऊंचाई, लिखाई, बुनावट, सिलाई, सुन्दरता, भददापन आदि। भाववाचक 
संज्ञा शब्दों से बोधक तत्त्वों/बातों की मन[हिदय से अनुभूति होती है, उस का प्रत्यक्षी 
करण नहीं होता । प्रत्येक पदार्थे कुछ विशेष धर्मों (विशेषताओं) के मेल से बना 
हुआ तत्त्व है । प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक पदार्थ के समस्त धर्मों से सुपरिचित नहीं हो 


पाता, किन्तु उस के कम से कम एक धर्म से अवश्य परिचित होता है। पदार्थ का 
धर्म पदार्थे से अलग कर के अनुभूत नहीं किया जा सकता । जब कभी भाववाचक संज्ञा 


शब्दों से बहुवचन का बोध होता है, तब वे शब्द जातिवाचक संज्ञा कहलाते हैं, 
यथा--कल मुहल्ले में कई चोरियाँ हो गईं । भारत में तरह-तरह के पहनावे प्रचलित 
हैं । बुराइयों से बचना सीखो । यहाँ काले टाइप के शब्द जातिवाचक संज्ञा हैं । 


भाव का यहाँ व्यापक अथ है--(क) धर्म-गृण आदि (यथा--गर्मी, शीत्तलता, 


मधुरता, धैय॑, बुद्धिमानी, क्रोध आदि), (ख) अवस्था आदि (यथा--पीड़ा, दरिद्रता, 


नींद, स्वच्छता, बीमारी, उजाला, अंधकार आदि), (ग) क्रिया-ब्यापार आदि (यथा--- 
भजन, दात, प्रार्थना, चढ़ाई, बहाव, दोड़, चाल, पढ़ना, - सोचना, हँसना, रोना, 
 बोलचाल आदि) । ९६/ बच > बचाव (पु०), बचत (स्त्री०) । शुरू > शुरूआत/शुरुआत; 


शुरू में (“"आरम्भ में) यथा--नौकरी के शुरू में/आरम्भ के दिनों में; फिर से 


शुरू/आरम्भ करो; झगड़े/लड़ाई की शुरूआत | विशेषण - प्रारम्भिक समय--शुरू 
. का वक्‍त; आरम्भिक स्थिति--आरम्भ की स्थिति- शरू की हालत । शुरुआत शुरू 
के पूर्व का आरम्भिक बिन्दु है और शुरू परवर्ती । | 

कुछ भाववाचक संज्ञाओं का निर्माण चार प्रकार के शब्दों से होता है-- 
. क्रिया शब्दों से, यथा--काटना >>काट, मारना->मार, छटपटाना->छटपटाहुट 


... /ऋ->काय्ये, कृति, क्रिया; ५“मुह-*मोह; ९/वंच->वंचना; चलना->चाल, चलन; _ 
... चढ़ना->चढ़ाई 2. जातिवाचक संज्ञा शब्दों से, यथा--राजा->राज्य, पंडित 
_.. पंडिताई, मुति->मौत, मनुष्य->मनुष्यता, मनुष्यत्व; बच्चा->बचपन 3. विशेषण 





कआ+- “" अ्मपरथत-+-० - “कद -बला "८ंतव्यवनमब्यययडुलिकमपबपननपपपा-प- ८ नकमपमन- एन का एज पमता ने पर लक ककिलिशशलपकवारदपमरटरपर+->«+.". ० 55८ न «7 फ्िलिशलकानसकन 





संजशा | 207 


शब्दों से, यथा--मीठा >मिठास, पीला->पीलापन; भला->भलाई; धीर->घैये; 
लघु->लघिमा, लघुता; कडुआ-+ कड़ आहट; कठोर-> कठो रता; गमं-- गर्मी; 
चतुर--चतुराई 4. स्वंनाम शब्दों से, यथा--अहंं--अहंकार, मम--ममता, ममत्व; 
अपना--अपनापन; आप--आपा । भावधाचक संज्ञा शब्दों में से अनेक शब्द “-ई, 
"त्व, -ता, -पन, -पा, -वट, -हटठ, -सा, -न्‍्त' से युक्त होते हैं । 

कुछ व्याकरणों में एक छठा भेद क्रियाबाचक संज्ञा या संज्ञाथेंक क्रिया 
क्रियार्थक संज्ञा' भी माना गया है। वास्तव में इस भेद से व्यक्त संज्ञार्थी शब्दों 
(यथा--उस का यहाँ आना; सेब काटने की कला) का समावेश भाववाचक संज्ञा शब्दों 
में हो जाता है । 

4. गणना के आधार पर संज्ञाओं के दो वर्ग बनाए जा सकते हैं--(अ) गष्य/ 
गणनीय (आ) अगणनीय/गणनेतर/गष्येतर । (अ) गणनीय संज्ञाएँ वे शब्द हैं जो गिने जा 
सकनेवाले प्राणियों या पदार्थों के बोधक होते हैं, यथा--पुस्तक, बच्चा, धोती, कुर्सी 
कुत्ता आदि । इन के साथ संख्यावाची शब्दों का प्रयोग हो सकता है। इन संज्ञाओं 
के रूप वचन के अनुसार बदलते हैं। गणनीय संज्ञाओं का उत्तर 'कितने|कितनी' 
प्रश्न से मिलता है, यथा--कितनी किताबें ? (एक किताब; चार किताबें), कितने 
थैले ? (एक थेला; दो थैले) आदि । जातिवाचक संज्ञाएँ गणनीय संज्ञाएँ हैं। गणनीय 
. संज्ञाएँ एकवचन तथा बहुवचन में प्रयुक्त हो सकती हैं, यथा--अआाशा-आशाएँ, विचार 
में-विचारों में । (आ) अगणनीय संज्ञाएँ वे शब्द हैं जो न गिने जा सकनेवाले पदार्थों, 
भावादि के बोधक होते हैं, यथा- भीड़, तेल, आनन्द, यौवन, प्रेम, प्यार आदि। 
अगणनीय संज्ञाओं का उत्तर 'कितना/कितनी” प्रश्व से मिलता है, यथा--कितना दूध ? 
(एक लीठर/चार लीटर दूध), कितनी शर्म ? (बहुत/जुरा-सी शर्म) आदि। समूह- 
वाचक, द्रव्यवाचक, भाववाचक संज्ञाएँ अगणनीय संज्ञाएँ हैं। अगणनीय संज्ञाएँ केवल 
एकवचन में होती हैं। सामान्यतः इन संज्ञा शब्दों के सांथ संख्यावाची शब्दों! का 
प्रयोग नहीं होता । कभी-कभी कुछ पदाधेवाचक तथा भाववाचक का बहुवचन में भी 


प्रयोग होता है, यथा--दिल की गहराइयों से; शांति की शक्तियों ने; तेज शराबों से । _ पु 


5, प्राणत्व के आधार पर संज्ञाओं के दो वर्ग बनाए जा सकते हैं--(क) 
. प्राणिवाचक (ख) अप्राणिवाचक । प्राणिवाचक वे संज्ञा शब्द हैं जिन से विभिन्‍न 
प्राणियों के नामादि की सूचना मिलती है, यथा--महेश, लड़की, पक्षी, पतंगा आदि । 
_अप्राणिवाचक वे संज्ञा शब्द हैं जिन से प्राणियों से भिन्‍न वास्तविक, कल्पित पदार्थादि 
के नाम, वंश, प्रकार, स्वरूप आदि के बारे में सूचना मिलती है, यथा--मैसूर, दिल्ली, 
कामायनी, गोदान, आम, संतरा, गेहूँ, बाजरा, प्रेम, दया, क्षमा, आशा, विचार, स्वीकृति 
भेंट आदि प्राणिवाचक संज्ञाओं को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है---() मानव- 
बाची (7) मानवेतरवाची । ($) मानवबाची वे प्राणिवाचक संज्ञा शब्द हैं जिन से पुरुष या 
स्त्री के नाम, वंश, वर्ग या जाति के बारे में सूचना मिलती है, यथा--वसुदेव, देवकी 








208 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


दशरथ, कौशल्या, मनुष्य, स्त्री, हिन्दू, ईसाई आदि। (7) भानवेतरवाची वे प्राणि- 
वाचक संज्ञा शब्द हैं जिन से मानवों से भिन्‍त अन्य प्राणियों के नाम, वंश, वर्ग या 
जाति आदि के बारे में सूचना मिलती है, यथा--पष्पी, जॉन, भूरा, पूसी (पालतू 
कुत्ते-बिल्लियों के नाम); कुत्ता, गाय, बुलबुल, चौंटा, मक्खी आदि । 

प्राणिवाचक संज्ञाएँ संकेतक/विशेषक के बिना आने पर भी कम के प्रकाय॑ में 
नियमित विकारी कारक के रूप में प्रयुक्त होती हैं, यथा--हम वहाँ बकरियों का 
झुड देख रहे हैं। अप्राणिवाचक संज्ञाएँ संकेतक/विशेषक के साथ आने पर भी प्रधान 
कर्म के प्रकार्य में अविकारी कारक के रूप में प्रयुक्त होती हैं, यथा--हमारा बेटा यह 
दूध नहीं पीएगा । 

.. हिन्दी भाषा में व्यक्ति (पुरुष/स्त्री) के सामाजिक रिश्ते कई प्रकार के होते 
हैं । रिश्तों के सूचक ये शब्द प्राय: निदर्शनात्मक/संकेतक (२४/०७/०॥०४०/]) होते हैं । 
कुछ शब्द संबोधन के रूप में प्रयुक्त होते हैं। कुछ प्रतिनिधि स्वजन शब्दों के लिए 
बोलियों/संस्कृत/उद्‌ /भैंगरेजी के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है, यथा--पिता (बाप, 


वालिद, अब्बा, पापा), (बड़ी) बहन (दीदी, जीजी, भगिनी, सहोदरी, आपा, 


सिस्टर), जीजा (बहनोई), साला (निस्बती बिरादर), पोता (पौत्न), नाती (दौहित, 
नवासा) । चचेरा/ममेरा/फुफेरा भाई (/बहुन) के अतिरिक्त कभी-कभी सगा।/धर्म/ 
मु हबोला भाई (बहन) का प्रयोग भी मिलता है। सभी बड़े भाइयों की पत्तियों को 
' आाभी', सभी बड़ी बहनों के (छोटी बहुनों के भी) पतियों को 'जीजा, बहुनोई' कहते 
हैं। अपने से छोटे सभी भाइयों, भानजों, भतीजों की पत्नियों को 'बहु' कहते हैं। 


6. प्रकार्य के आधार पर संज्ञा शब्द वाक्य में 'कर्ता, कम, पूरक, संबोधन... 


के रूप में आ सकते हैं । संज्ञा पदबन्ध में ये शब्द अक्ष/|शीष॑किैन्द्रीय घटक या संबंधी 
विशेषक के रूप में आ सकते हैं, यथा--बच्चों ने अभी तक ताजमहल नहीं देखा 


है। (कर्ता); कल बच्चियों ने जी भर मिठाई खाई थी। (कर्म); अकबर ने कुछ 
दिनों के लिए फतेहपुरसीकरी को भपनी राजधानी बनाया थ। (प्रक); दोस्तो, हमें इस 


मसले पर गहराई से सोचना है | (संबोधन); कोई घोषणा करने से पूवे हम अपनी- 
अपनी जेबें देख लें | (अक्ष स्थान); अब हमें अपनी छोटी' बेटी की शादी कर देनी 
चाहिए । (संबंधी विशेषक) 


7. सम्बदधता के आधार पर वाक्य के अन्य पदों के साथ प्रयोग-पोग्यत्ता की 


.. वृष्टि से संज्ञा शब्दों के दो वर्ग बनाए जा सकते हैं, यथा--(क) विशेषण सम्बदध 

.._ (ख) क्रिया सम्बदध । (क) विशेषण सम्बद्ध वे संज्ञा शब्द हैं जो किसी विशेष विशेषण 
.... शब्द के साथ सम्बदध होने की प्रयोगनन्‍योग्यतावाले होते हैं, यथा--काला वस्त्र 
....... ([आदमी/ पु ह|साँप|चोर|निमक|पानी/|बादल) आदि । (ख) क्रिया सम्बदध वे संज्ञा 
.... शब्द हैं जो किसी विशेष क्रिया शब्द के साथ सम्बदध होने की प्रयोग-योग्यतावाले 





५ 2, अ«े -अक्ा धाजम-बंब+ -५८3+८२-+ उस5अ २२२८५... है ५: 
कु कस 3 न 59० नल ननन नरक पट 33 च्क आर ५ 


संज्ञा | 209 


होते हैं । विभिन्‍न क्रिया शब्दों के साथ प्रयोग हो सकने या न हो सकने की योग्यता रखने 
वाले संज्ञा शब्दों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है---(7) सहज प्रयोज्य (#) आरो- _ 
पित प्रयोज्य (7) अप्रयोज्य । () सहज प्रयोज्यं वे संज्ञा शब्द हैं जो विभिन्‍न क्रियाओं 
के व्यापार वैशिष्ट्य के आधार पर लोक में सहज/सामान्य रूप से प्रयुक्त हो सकते 
हैं, जेसे-- खाना के साथ विविध खाद्य पदा्थे, यथा--रोटी, भात, तम्बाक, पान 
मिठाई, सब्जी, फल, मांस आदि सहज प्रयोज्य हैं। इसी प्रकार पहनना के साथ! 
विविध धारणीय पदार्थ, यथा--वस्त्र, भाभूषण, जूते, मुखोटा, पदक आदि; 'सोना 
के साथ स्वभावत: सोनेवाले प्राणियों के बोधक शब्द, यथा--बच्चा, महिला, गाय 
शेर, बाज, साँप आदि। चलना” के साथ गतिशील पदाथ॑वाची शब्द, यथा--बच्चा 
लड़की, गाय, बकरा, गिद्ध, इंजन, मोटर आदि । (#) आरोपित प्रयोज्य वे संज्ञा 
शब्द हैं जो विभिन्‍न क्रियाओं के व्यापार वैशिष्टय के आधार पर लोक में विशेष 
रूप से सन्दर्भ, आवश्यकता के अनुसार आरोपित प्रयोज्य होते हैं, जैसे--खाना! 
के साथ विविध असामान्य खाद्य पदाथे, यथा--मल, ब्लेड, कंकड़-पत्थर, पत्ता, 
कागज, सिर, जूता, लात-घू सा, घूस, कमीशन, दलाली आदि। पहनना” के साथ 
विविध असामान्य धारणीय पदार्थ, यथा--मु डमाल, जूतों की माला, कागज, वल्कल 
आदि | सोना” के साथ असामान्य प्राणरोपित शब्द, यथा--पैर, पुष्यकली, दुनिया 
नदी, जंगल, चक्‍की आदि | चलना के साथ असामान्य गतिशील पदार्थवाची शब्द 
यथा--तल, रिश्वत, पेट रेल, बस, गाड़ी, मन, लेन-देन, तीर, गोली, लाठी 
पत्ता, मोहरा, गोठ आदि । (77) अप्रयोज्य वे संज्ञा शब्द हैं जो विभिन्‍न क्रियाओं 
के व्यापार वैशिष्ट्य के आधार पर भाषा में व्यवहार में नहीं लाए जाते, जैसे-- 
खाना क्रिया के साथ विविध अखादय पदार्थों के बोधक शब्द, यथा--आसमान 
पहाड़, स्टोव, पंखा, बचपन आदि; पहनना” क्रिया के साथ विविध अधारणीय 
पदार्थ, यथा--पेन्सिल, मेजू, चूल्हा, रोटी, नाश्ता आदि। 'सोना” क्रिया के साथ 
अप्राणिवाचक शब्द , जैसे---श्यामपट, चॉक, कपड़ा, पुस्तक, तेल आदि। “चलना 
क्रिया के साथ गतिहीन पदार्थशूचक, यथा--मकान, पहाड़, तेल, चित्र, क्रोध आदि । 


संज्ञा शब्दों का रूपान्तरण --संज्ञा शब्दों का रूपान्तरण एक मिश्चित 
व्याकरणिक संरचना है । प्रत्येक संज्ञा पद का. नाभि अंश पुल्लिग अथवा स्त्रीलिंग 
प्रातिपदिक होता है जिस में वचन-प्रत्यय तथा कारक-सूचक प्रत्यय/विभकति का योग 
होता हैं। इस प्रकार संज्ञा की तीन व्याकरणिक कोटियाँ हैं--]. लिंग, 2. वचन 
3. कारक । संज्ञा शब्दों का लिंग एक आसन्‍्तरिक या अन्तनिहित व्याकरणिक कोटि 
है । पुल्लिव या स्त्रीलिंग प्रत्येक संज्ञा प्रातिपदिक से प्रसंग-निरपेक्ष रूप में सदैव द 

: जुड़ा हुआ रहता है। कोई संज्ञा प्रातिपदिक किस लिंग. में है--इस का निर्णय रूढ़ _ 

या लोक-प्रयोग से होता है । लिग-ज्ञान हेतु जन-प्रयोग, शब्द-कोश और अभ्यास की' 
द 0 जो हा है 





240 | हिन्दी का विवरणात्मक ष्याकरण 


आवश्यकता है। संज्ञा शब्दों के रूपान्तरण में उन के कोशीय तथा व्याकरणिक/ 
सन्दर्भीय पक्ष का प्रभाव पड़ता है। कोशीय दृष्टि से वक्‍तालिखक शब्द-चयन में 
स्व॒तन्त्र है किन्तु उस शब्द का लिंग, रूप/आकार स्वतः. निर्धारित रहता है। 
संस्कृत संज्ञा शब्दों की भाँति ही शब्द की अंतिम ध्वनि के स्वरूप के अनुरूप 
संज्ञा शब्दों का रूपान्तरण होता है, किन्तु हिन्दी में रूपतालिका की दृष्टि से संज्ञा 
शब्दों के केवल 4 उपवर्ग हैं--उपवर्ग . (आकारान्त पुल्लिंग वर्ग, यथा--बेटा 
आदि शब्द), उपवर्ग 2. (अविकारी आकारांत तथा शेष पुल्लिग शब्द, यथा--बालक 
आदि शब्द), उपवर्ग 3. (इई/याकारान्त स्त्रीलिंग शब्द, यथा--बेटी आदि शब्द), 
उपवर्ग 4. (शेष स्त्रीलिंग शब्द, यथा--बालिका आदि शब्द) । इन उपवर्गों के अन्तर्गत 
आनेवाले कुछ शब्द ये हैं--उपवर्ग । के अन्तर्गत आनेवाले कुछ शब्द--बेटा, लड़का, 
घोड़ा, बकरा, मुर्गा, कमरा, थैला, साया, नाला, साला, रोआँ | उपयर्ग 2 के अन्तर्गत 
आनेवाले कुछ शब्द--बालक, मनुष्य, पुरुष, सिंह, रीछ, घर, जहाज, हाथी, भाई, 
दही, पानी, घी, आदमी, माली, बहनोई, मुन्ति, पति, गुरु, भानु; साधु, डाकू, आल, 
चौबे, दुबे, गेहूँ, जौ, कोदों, रासो । उपयर्ग 3 के अन्तर्गत आनेवाले कुछ शब्द-- 
बेटी, लड़की, घोड़ी, बकरी, मुर्गी कोठी, नाली, नदी, भाभी, साली, शक्ति, मति, 
बुद्धि, जाति, हानि, रीति, चिड़िया, गुड़िया, डिबिया, बुढ़िया फुड़िया । उपयर्ग 4 के 
अन्तगंत आनेवाले कुछ शब्द--बालिका, पुस्तक, किताब, मेज, बस, परात, बहन, 
चम्मच, तस्वीर, चप्पल, छाँह, माला, शोभा, सभा, हवा, प्रार्थना, घटना, रसना, छाया, 
धेनु, धातु, लू, बालू, जू, बहू, साड़ , गौ, सरसों । उपवर्ग 4 के ये अपवाद शब्द उपबंगं 


2 में गणनीय हैं--पिता, योद्धा, देवता, राजा, विधाता, महात्मा, वक्‍ता, नेता, भ्राता, ...“' 


दाता, परमात्मा, विजेता, श्रोता, विक्रेता, अभिनेता, कर्ता, ब्रह मा, गुणा, नाना, 
दादा, काका, चाचा, मामा, बाबा, दादा, जीजा, फूफा, बाप-दादा, पापा, अगुआ, मुखिया; 
अंखुआ, पुरखा, लाला, समस्त ष्यक्तिवाचक नाम, यथा-- एशिया, अफ्रीका, अमेरिका, 
न्याग्रा, आस्ट्रे लिया, जिनेवा, कनाडा; गयाना|गाइना, ल्हासा, पटना (पटने जानाऊ 


... पटना शहर को जाना/प्रिम में फेंसने जाना), गया, अयोध्या, मथुरा, आगरा, दरभंगा 


अगरतला, रावतपाड़ा, कोटला, वजीरपुरा, द्वारका, अवंतिका, गौंडा, वर्धा, गोलकु डा 

विजयवाड़ा, गुलबर्गा, बड़ौदा; अब्बा, मुल्ला, अल्ला, मौला, आका, मिर्या, दादरा 

अल्फा, गामा, बीटा आदि। 

क्‍ हिन्दी में संज्ञा शब्दों की रूपावली इन तीन कारक-रूपों से बनती है-- 

. अविकारी 2. विकारी 3. संबोधन । अविकारी को मूल|सरल/ऋजु भी कहते हैं 


... . और विकारी को तियंक । 





उपयर्ग--4 'बेटा' वंग._ | हा .. उपवर्ग--2 'बालक' वर्ग 
० शकचन बहुवचन. एकवचन बहवबचन पा, 
. ऋजु--बेटा (2). बेटे (-ए) बालक (2) बालक (8) 





संज्ञा | 2!! 
तियेंक-- बेटे ने (-ए) बेटों ने (ओं) बालक से (2 ) बालकों से (-ओं) 
संबोधन-- बेटे | (-ए) बेठो ! (-ओ) बालक ! (2) बालको ! (-ओ) 


कोष्ठक बद्ध सुप्‌-प्रत्ययः वचन तथा विभक्त के संमिश्चित प्रत्यय हैं जिन में 
से वचन, विभक्ति के अंश को अलग कर पाना दुःसाध्य है। 


उपयर्ग ---3 '“्रेटी' वर्ग ... उपधर्ग---4 ध्वालिका' वर्ग 
एकबचन बहुवचन एकवचन : बहुवचन 


ऋजु-- बेटी (92) बेटियाँ. (-आँ) बालिका (2 ) बालिकाएँ. (-एँ) 
तियंक्-- बेटी को (2 ) बेटियों को (-ओं) बालिका का (9 ) बालिकाओं का (-ओं) 
संबोधन -- बेटी ! (2 ) बेटियो ! (-ओ) बालिका ! (2) बालिकाओं ! (-ओ) 
द बाप-दादे, बाप-दादों, राजे-महाराजे” रूप कुछ विशिष्ट प्रसंगों में ही विरल 
प्रयुक्त है। उपवर्गं---2 के ईकारान्त, उकारान्त शब्दों में-ओं जुड़ने से पूर्व ई> इ, 
ऊ>उ हो जाता है । इ- -ओं/-ओ|-आँ के मध्य उच्चारण-सुविधा के लिए -य- का आगम 
हो जाता है, यथा--हाथियों, डाकुओं । 

उपयु कत चारों उपवर्गों के ऋजु, तियंक, सम्बोधन शब्द-रूप अलग-अलग 
इतने होते हैं--बेटा, बेटे, बेटों, बेटो (4); बालक, बालकों, बालकों (3), बेटी, बेटियाँ 
बेटियों; बेटियो (4), बालिका, बालिकाएँ, बालिकाओं, बालिकाओं (4) 

व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्दों के सामान्यतः तियेक्‌ रूप नहीं बनते । -वाला| 
-वाजदान/-दानी से युक्त बने संयुक्त शब्दों का मुल शब्द तियंक्‌ रूप में आता है 
यथा--कपड़ा, चना, मसख्रा, चूना, कूड़ा->कपड़ेवाला, चनेवाला, मसखरेबाज 
(नखरेबाज), कूड़ेदान, चूनेदानी ; छापाखाना--में - छापेखाने में 


संज्ञा शब्दों की लिग-व्यवस्था--हिन्दी संज्ञा शब्दों के लिंग विधान पर संज्ञा 
शब्दों के वर्ग-विभाजन का प्रभाव देखा जा सकता है। संज्ञाएँ चेतन (मानव, मानवे- 
तर), जड़ (पदार्थ--भौतिक, अपदार्थ---भाव-विचा रादि) वर्गों में विभक्‍त की जा 
सकती हैं । मानवेतर को उच्चवर्गीय, निम्नवर्गीय चेतन प्राणियों में विभकत कर सकते 
हैं। हिन्दी में सभी संज्ञाओं (व्यक्तिवाचक, जातिवाचक समृहवाचक, द्रव्यवाचक 
भाववाचक) के शब्द पुल्लिग या स्त्रीलिंग में होते हैं, यथा--पुल्लिग शब्द-मदनमोहन 
रंदास, महादेव, नागपुर; कौआ, मच्छर, टोप, भवन; बंडल, कुटुब, गिरोह, झुड 
गुच्छा; स्वण, तेल, दूध, अनाज; शैशव, बुढ़ापा, क्रोध, उत्तर, लोभ, जाना, झगड़ना 
आदि। स्त्रीलिग शब्द--राधा, मीरा, लक्ष्मीबाई, जगन्नाथ पुरी; मछली मुर्गी 
. सड़क, साड़ी; सेना, कक्षा, सभा, टोली, मंडली; धातु, चाँदी, मिट्टी, ग्िट॒टी, चाय 
हँसी, इच्छा, मुस्कराहुट, मूखंता, बुद्धिमानी, थकान, सूचना, सेवा, करनी |. 
.. प्राणिवाचक संज्ञा शब्दों में कुछ शब्द नित्य पुल्लिग होते हैं--पक्षी, उल्लू 
नेवला, कौआ, भेड़िया, मेमना, चीता, कछआ, भनगा, पतंगा, खटमल, केंचुआं, 
तोता, मच्छर, चींटा । इन का स्त्रीलिंग बनाने के लिए “मादा” शब्द जोड़ा जाता है, 








242 | हिन्दी का विवरणाह्मक व्याकरण 


यथा--मादा उल्लू, मादा चीता | प्राणिवाचक संज्ञा शब्दों में कुछ शब्द नित्य स्त्नीलिग 
होते है--कोयल, मैना, चील, मछली, जोंक, बटेर, गिलहरी, मकड़ी, मक्खी, तितली, 
दीमक, चींटी, गिलहरी । इन का पुल्लिग बनाने के लिए “नर” शब्द जोड़ा जाता है, 
यथा--नर कोयल, नर तितली | कुछ प्राणिवाचक स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द केवल स्त्रियों 
के विशिष्ट धर्म के सूचक होते हैं, अत: उन के पुल्लिग शब्द नहीं होते, यथा--- 
अप्सरा, अहिवाती< अभिवाद (सौभाग्यवती स्त्री), गर्भवती, गाभिन, चुड़ेल, डायन, 
धाय, सुहागिन, सौत । हिन्दी में कुछ शब्दों को स्पष्ठतः: पुल्लिग या स्त्रीलिंग का 
नहीं कहा जा सकता क्‍योंकि ये शब्द दोनों लिगों में व्यवहृत हैं, अतः इन्हें उभ्र्यालगी 
शब्द कहना उचित रहेगा, यथा--मन्त्री, सचिव, डॉक्टर, राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री, 
इंजीनियर, वकील, जज, इंस्पेक्टर, कलाकार आदि पद-सूचक तथा व्यवसाय बोधक 
शब्द, जैसे--हमारे मन्‍्त्री/राष्ट्रपति/डॉक्टर--हमारी मन्त्री/राष्ट्रपति/डॉक्टर । 


हिन्दी में संज्ञा शब्दों के लिंग की अभिव्यक्ति दो स्तरों पर होती है-- 
() रूपप्रक्रियात्मक स्तर पर (शर्थात्‌ संज्ञा के बहुवबचन रूप दवारा), यथा--इस 


कमरे में तीन दरबाज ओर चार खिड़कियाँ हैं. (-ए पु० अन्त्य प्रत्यय;--आभाँ स्त्री ० 
अन्त्य प्रत्यय) (॥) वाक्य स्तर पर विकारी विशेषण, क्रमवाची संख्या शब्द, स्वंनाम, 


कृदन्‍्त, क्रिया के पुरुषनियत रूप, परसगग 'का”, सादुश्यवाचक “सा/-जैसा' की 
तत्संबंधी संज्ञा से (लिंग संबंधी) अन्विति होती है, यथा--यह बड़ा कमरा है; यह 
तीसरा भवन है; वह मेरा दोस्त है; शैतान हँस रहा था; नौकरानी आएगी; सोने 


की जंजीर पहन कर मत जाओ; ये काजू कुछ कड़बे-से हैं.। 


... अप्राणिवाचक संज्ञा शब्दों के लिग-बोध का कोई व्यापक तथा सिद्ध नियम 
नहीं है । एक ही तत्त्व के बोधक भिन्न-भिन्न संज्ञा शब्दों में कुछ शब्द पुल्लिग होते 
हैं, कुछ शब्द स्त्रीलिंग, जैसे--नेत्र (पु ०)--भाँख (स्त्री०), मार्ग (पु०)--बाद 
(स्त्री०) | इसी प्रकार समान ध्वनि से अन्त होनेवाले भिन्न-भिन्न संज्ञा शब्दों में 


कुछ शब्द पुल्लिग होते हैं, कुछ शब्द स्त्नीलिग, यथा - कोदों (पु ०)--सरसों (स्त्री०)। 
अप्राणिबाचक संज्ञा शब्दों के लिग-निर्णय के अव्यापक तथा अपूर्ण कुछ नियम दो 
आधारों पर बनाए गए हैं-- () तत्त्व बोधन (ग) शब्दान्त रूप । तत्त्व बोधन को 


कई व्याकरणों में अथ लिखा है जो ताकिक दृष्टि से श्रामक है। शब्दान्त को कई. 
- व्याकरणों में रूप. लिखा है जो ताकिक दृष्टि से ब्रामक आधार ही कहा जाएगा। 


_ प्राणिवाचक अनेक शब्दों का लिग-निर्णय भी प्रायः तत्त्व-बोधन आधार पर होता है। 


... प्राणिवाचक जोड़ों में पुरुषबोधक संज्ञा शब्द पुल्लिग में, स्त्रीबोधक संज्ञा शब्द सत्रीलिंग 

में होते हैं, यथा--लड़का, बकरा, मोर (पु ०), लड़की, बकरी मोरनी (स्त्री०)। संतान, 

.... सवारी तित्य स्व्रीतिंग हैं। प्राणियों के समुदायवाचक कुछ शब्द व्यवहार के अनुसार _ 
.... . घपृु० या स्त्री० में होते हैं--परिवार, समुदाय, क्रुटुब, समूह, संघ, दल, मंडल 





क् पा ननी "न लमकक गए किन ८ सतभनपत्र<स तक ससभनकक नरक परत ता 5५ « “०-० पन्कदनकथ कमल 
> ४ ४३४२४ हि 


संज्ञा | 23 


(पु ०); सभा, प्रजा, सरकार, ठोली, फौज, भीड़ (स्त्री०) | मानवरवर्गीय संज्ञा शब्दों 
का लिंग लेंगिकता/यौन पर आधारित है । द 


तत्त्व-बोधन की दृष्टि से निम्नलिखित प्रकार के संज्ञा शब्द पुल्लिग होते 
हैं । लगभग प्रत्येक वर्ग के कुछ अपवाद शब्द हैं-- 


(क) धातु वर्ग--लोहा, सोना, ताँबा, पीतल, सीसा, काँसा, पारा, रूपा, 
टिन, राँगा (चाँदी, धातु, मिटटी, सिलवर स्त्री०) 

(ख) रत्न॑ व्ग---हीरा, मोती, मूंगा, माणिक, नीलम, पन्‍ना (पन्‍नी, मणि 
स्त्री०) द क्‍ 

(ग) भोजन वर्ग--पराठा, भात, रायता, पूआ, रसगुल्ला, लड़डू, पेड़ा, 
हलवा/।हलुआ, समोसा, मोहनभोग, फल, (रोटी-दाल; पूड़ी, कचौड़ी, खीर, सब्जी, 
तरकारी, मेवा, मिठाई, जलेबी, इमरती, गुलाबजामुन, खिचड़ी, कढ़ी स्त्री ०) 

(घ) धानन्‍्य वर्गं--गेहूँ, जौ, चना, धान, चावल, बाजरा, उड़द, तिल (मक्का, 
अरहर, जुआर, मूृग, मसूर, मटर स्त्नी०) रु | 

(डः) द्रव वर्ग--घी, पानी, तेल, सिरका, इत्र, दूध, दही, शबं त, मही/मट्ठा 
आसव (छाछ, स्याही, मसि स्व्री०) द 

(च) जल-थल वगं--द्वीप, पहाड़, पर्वत, हिमालय, विन्ध्याचल, सतपुड़ा, 
अरावली, समुद्र, सरोवर, सागर, अरब सागर (नदी, झील, घाटी, पहाड़ी स्त्री०) 

(छ) वक्ष व्गं---अशोक, नीम, बबूल, पीपल, बरगद, गूलर, शीशम, सागौन 
कदम्ब (मौलसिरी, कचनार स्त्री०) . 

.. (ज) देश-प्रदेश वर्ग--देश, प्रदेश, नगर, गाँव, ग्राम, शहर, भारत, रूस 

जापान, इटली, अमेरिका, इंग्लैंड, महाराष्ट्र, पंजाब, उत्तर प्रदेश 

(झ) ग्रह वर्ग--सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, आकाश 
पाताल (पृथ्वी स्त्री०) क्‍ 

व्यू) माह-दिन वर्ग--चैत, बैसाख, जनवरी फरवरी, सोमवार, मंगलवार 

(ट) फल वर्ग--आम, पपीता, तरबूजु, खरबूजु, सेब, केला, संतरा, नींबू, 
(जामुन, लीची, नारंगी, ककड़ी स्त्नी०) हज 

(5) शरीरांग वर्ग---सिर, मस्तक, तालु, ओठ, दाँत, दंत, मुख/मु हू, पेट, पर, 
कान, बाल, गाल, हाथ, पाँव, रोम, नख, नाखन, ख्‌ न, चमड़ा, सींग, खुर, अयाल 
(आँख, नाक, जीभ, पीठ, जाँच, खाल, चमड़ी, नस, स्त्री०) क्‍ 
द (ड) वर्ण वर्ग--अ, आ, उ, ऊ, ए, ऐ, भो, भौं, क, ख, ग'**“(इ, ई, 
द तर स्त्नी०) 5०.8 हक बा हे को 2 है 
(ढ) सामान्यतः ककंश, कठोर, बुहदाकार, भयावह समझे जानेवाले जीव, पदार्थ, _ 
 यथा--शेर, रीछ, पहाड़, पत्थर, वक्ष, अंधेरा... द 





24 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


तत्त्व-बोधन की दृष्टि से निम्नलिखित प्रकार के संज्ञा शब्द स्त्रीलिंग होते 
हैं । लगभग प्रत्येक वर्ग के कुछ अपवाद शब्द हैं--- 

(क) सामान्यतः कोमल, मृदु, लघ्वाकार, मनोहर समझे जानेवाले जीव 
पदार्थ --चहिया, मछली, नदी, लता 

(ख) नदी-झील वर्ग--गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, ताप्ती, कृष्णा 
कावेरी, नर्मदा, नील, सॉाँभर, चिलका; सोन, सिंधु, ब्रह मपुत्र (ब्रह मपुत्र नंद पु.) 

(ग) नक्षत्र वर्गं---आर्द्रा, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, अश्विनी 

(घ) तिथि वर्ग-पड़वा, प्रतिपदा, दोज, दूवितीया, तीज, चौथ, पृर्णमासी, 
पुृणिमा, पूनम, अमावस्या, अमावस 

(छः) किराना वर्ग--लौंग, इलायची, सौंफ, सुपाड़ी, जावित्री, जायपत्नी, 
दालचीनी, काली मिर्च, रतनजोत (कपूर, तेजपात पु०) 

(च) भाववाची शब्द--इच्छा, ऋद्धि, सिद्धि, अचंता, गरिमा, महिमा 
लघिमा, कटुता, ईर्ष्या (प्रेम, प्यार, क्रोध, स्नेह पु ०) 

(छ) अनुकरणात्मक शब्द--श्षकझक, झंझट, बड़बड़, हड़बड़ी, झंझट 

(ज) आहार वर्ग--रोटी, पड़ी, कचौड़ी, दाल, तरकारी, खिचड़ी, खीर 
कढ़ी, तरी, गुझिया (फुलका, हलवा|हलुआ, भातं, रायता, पुआ, मगौड़ा, बड़ा, मोहन 
भोग १०) 

(झ) भाषा-बोली, लिपि-ताम--हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, उ्ू,.. 
अँगरेजी, देवनागरी, रोमन, बंगला, तमिल, कन्नड़ 

शब्दान्त की दृष्टि से निम्नलिखित प्रकार के संज्ञा शब्द पुल्लिग होते हैं । 
कुछ वर्गों में अपवाद शब्द भी प्राप्त हैं-- 

(क) खान्त, जान्त संस्क्ृत शब्द--दुःख, नख, भुख, लेख, शंख, सुख, अनुज, 
. जलज, मलयज, सरोज, जलज, पिंडज, स्वेदज, सरोज 

(ख) अकारान्त संस्कृत शब्द--कौशल, त्याग, पाक, मोह, दोष, क्रोध, वाद 
वेद, शेशव, स्पशं (हिन्दी हार-जीत के सादुश्यः पर संस्कृत जय-विजय स्त्री० में 
प्रयुक्त) ह क्‍ ० कह । 
द (ग) -अन प्रत्ययान्त संस्कृत शब्द--गठन, दान, बन्धन, गंमन, दमन, नयन, 
बन्धन, मोहन, वचन, साधन, पोषण, हरण, पालन, पवन... द 
ः (घ) त्र अन्तवाले संस्कृत शब्द--क्षेत्र, गोत्र, चरित्न, चित्र, नेत्र, पात्र 
.. शस्त्र, शास्त्र 

(ड) तान्‍त संस्कृत, हिन्दी शब्द--गणित, गीत, अक्षत, मत, स्वागत, 
.. विश्वासघात, घात-न्प्रतिघात ; भात, करेंत, गांत<गात्र, पुृत- पुत्र; मृत<मृत्र, 
.. मीत< मित्र, पात< पत्र (विदयुत, रजत, रंगत, बात, रात स्त्री०)... 








संज्ञा | 25 


(च) नान्‍त संस्कृत शब्द--प्रश्न, यत्न, स्वप्त 

(छ) -त्य/त्व/-व|-य॑ प्रत्ययान्त संस्कृत शब्द--कृत्य, नृत्य, कृतित्व, 
गुरुत्व, बहुत्व, मनुष्यत्व, सतीत्व, गौरव, लाघव, माधुय, धैये, कार्य, सौन्दर्य 

(ज) -आय/-आर/-आस अन्तवाले संस्कृत शब्द--अध्याय, उपाय, समुदाय, 
विकार, विस्तार, संसार, उल्लास, विलास, हास-परिहास 

(ञव्ग) -य प्रत्ययान्त (संस्कृत शब्द--सत्य, व्यय, साम्य, ऐक्य, स्वातन्त्र्य 
(आय, सहाय स्त्री०) 


(ट) -आन्त हिन्दी शब्द--आटा, कपड़ा, गन्ना, घड़ा, माथा, पैसा, पहिया 
चमड़ा, घेरा, जोड़ा, झटका, झगड़ा, फेरा, बोझा, रगड़ा 

(5) -आव/-भावायुक्त हिन्दी शब्द--घुमाव, पड़ाव, बहाव, सुझाव, छलावा, 
बहुकावा, भुलावा क्‍ 

(उ) “ना युक्‍त संज्ञा्थेक क्रिया--आना, गाना, चलना, जागना, तैरना, देना, 
लेना, सोना, रोना 

(ढ) -आव/-आन/-पन|-पा प्रत्ययांत हिन्दी शब्द--चढ़ाव, बहाव, मिलान, 
उठान, खानपान, लगान, पिसान, नहान (उड़ान, पहचान, मुस्कान स्त्री०) 

(ण) -आब युक्‍त उद शब्द---कबाब, गुलाब, जवाब, हिसाब (कमखाब 
किताब, ताब, मिहराब|[मिहराब, शराब स्त्री०) 
(त) “खाना प्रत्ययान्त उर्दू (अरबी-फारसी शब्द)--गाड़ीखाना, डाकखाना, 
चिड़ियाखाना 

क्‍ (थ) -आन|-आर युक्त उद्द शब्द--अहसान, इम्तिहान, मकान, सामान, 

इकरार, इनकार, इश्तिहार (दुकान, तकरार, सरकार स्त्री०) द 
द (द) -दान प्रत्ययान्त अरबी-फारसी शब्द--इत्नदान, कमलदान, गुलाबदान 
फूलदान 
द (ध) -ह>-आ युक्‍कत उदूं शब्द--किस्सा, गुस्सा, तमगा, पर्दा, चश्मा 
(दफा स्त्री०) द 

(न) -त यकत अरबी-फारसी शब्द--खंत, तरूत वक्‍त, बालिश्त, ग्रोश्त 
शहतूत, दस्तखत द 

(प) बहु० -आत प्रत्यय युक्त उद्ू (अरबी-फारसी) शब्द--सवालात 
. मकानात, ताल्लुकात, इंतजामात, वाकयात, कागजात द 
शब्दान्त की दृष्टि से निम्नलिखित प्रकार के संज्ञा शब्द स्त्रीलिग होते हैं । 
कुछ वर्गों में अपवाद शब्द भी प्राप्त हैं-- 
...._ (क) -ना युक्त संस्कृत शब्द--प्रस्तावना, प्रार्थना, कल्पना, घटना, भावना, 
_बन्दना, वेदना, सान्त्वना, रचना, सूचना, अ्रणा 6 8 कक 








26 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(ख) -आ युक्त संस्कृत शब्द--कृपा, क्षमा, दया, पूजा, माया, लज्जा, शिक्षा, 


शोभा, सेवा, सभा 


(ग) -इ युक्त संस्कृत शब्द--अग्ति, केलि, छवि, कृषि, निधि, परिधि, 


राशि, रुचि, विधि, मति, रति, गति, जाति, तृप्ति, प्रीति, शक्ति, ग्लानि, हानि 


_ योनि, बुद्धि, सिद्धि, ऋद्धि, समृद्धि (आदि, गिरि, जलधि, बलि, वारि, 


पाणि पु०) 

(घ) “या -सा युक्त संस्क्ृत शब्द--क्रिया, विद्या, पिपासा, मीमांसा 
(ड.) -इसमा प्रत्ययान्त संस्कृत शब्द--कालिमा, गरिमा, महिमा, लघिमा, 
लालिमा 

(च) -ता प्रत्ययान्त संस्कृत शब्द--एकता, गम्भीरता, दरिद्रता, योग्यता, 
महत्ता, महानता, जड़ता, नम्नता, प्रभूता, समता, समानता, स्वतन्त्रता, सुन्दरता, 
मान्यता, काम्यता, लघुता 
(छ) «ई युक्त हिन्दी शब्द--उदासी, रोटी, गली, चिट्ठी, टोपी, नदी, रस्सी 
(जी, घी, दही, पाती, भाई, मोती, मही, हाथी पु ०) 

(ज) -इया प्रत्ययान्त हिन्दी शब्द--खटिया, डिबिया, पुड़िया, फुड़िया 
लुटिया 

(झ) -ऊ युक्त हिन्दी शब्द--झाड़, , दारू, बालू, लू. (आलू, आँसू, टेसू, 
रतालू, गेहूँ, गेरू पु०) द 

(ज्व) -ख युक्त हिन्दी शब्द--भाँख, ईख, काँख, कोख, चीख, देखरेख, 
परख, भूख, मेख, राख, लाख (< लाक्षा), साख (रूख, पाख< पक्ष प्‌ ०) 

(ट) -त युक्त हिन्दी शब्द--बचत, खपत, लागत, रंगत, चाहत, छत, बात, 
रात, लात, घात, प्रीत, रीत, कौरत, मूरत, संगत < संगति, गत< गति, जात< 
जाति थ(खित, गात, दाँत, भात, सूत पू ०) 


(5) धातुज संज्ञा शब्द--अकड़, कराहु, कूक, खोज, चमक, चहक, चोट 
छाप, छूट, जाँच, झपट, तड़प, देखभाल, दौड़, पकड़, पहुँच, पुकार, फूट, मार, लगन, 
_ लूट, समझ, संभाल (उतार, खेल, नाच, बिगाड़, बोल, मेल पु ०) 


(ड) -अन युक्त हिन्दी शब्द--उलक्षत, जलन, रहन, सूजन, लगत (रहन-सहन, 


चलन, चालचलन पु ०) ह द 

....._ (ढ) -ठ| -वर्| -हट युक्त हिन्दी शब्द--झंझट, बनावट, मिलावट, सजावट 
आहट, घबराहुट, चिकनाहुट, चिल्लाहठ, दिखावट । 

। (ण) -स युक्त हिन्दी शब्द--निंदास, प्यास, मिठास, रास. (--लगाम), 
साँस (काँस, निकास, बाँस, रास (>>नृत्य) प्‌ ०) 5 8 


(त) -आई प्रत्ययान्त हिन्दी शब्द--ऊँचाई, गहराई, चौड़ाई, लम्बाई, 


का . भच्छाई, बुराई, भलाई, लड़ाई, सगाई, मिठाई, बनवाई, बुनाई, सिलाई 


५ “ज-+स३-ककम+>+ मन कन-+-नक नकल: ८ 2०७. न १४०-- अप कन नबक 7 न 7 अनन्त टन अमित >न न का 


2-20 (2: -५०॥०.कममपा४+जरकमरेकिमनकिरनक सकी24 ९१ 7० ०+--++५ - ८ "न तत+ाल पृधव जम लमकफिवकेन9ककनर- २०४ ++ ८०८५० “टन सन लनआ+ न सिक्स शान एल ल्‍ | 





संज्ञा | 2!7 


(थ) - युक्त हिन्दी शब्द--खड़ाऊँ, यौं (-सुयोग), जोखों < जोखिम, च्‌, 
दोौं/धौं, सरसों (कोदों, सोहूँ पु ०) द 

(न) -श युक्त अरबी-फारसी शब्द--कोशिश, तलाश, नालिश, बारिश 
मालिश, लाश (होश, ताश पु ०) 

(प) -ई युत उद्द्‌ -भाववाचक शब्द--गर्मी, ग्रीबी, चालाकी, तैयारी 
नवाबी, सर्दी, बीमारी 

(फ) -त युत अरबी-फारसी शब्द--अदालत, इज्जुत, कसरत, कोमत, दौलत 
सूरत, सीरत, बुत, बात, इनायत, पतं/परत, नफ्रत, मुलाकात, हजामत, हिमायत 
हिमाकत, शराफृत, < शरीफ, ज्‌ रत, फरजीहत, खुराफात, नौबत, सोहबत, खिदमत 
ताकत, ख्‌ रात, दवात, दावत, नफरत, दहशत, मुहब्बत, रिश्वत, मात, मिल्कियत, 
राहुत, तबीयत, कीमत (शबंत; दस्तखत, बन्दोबस्त, व क्‍त, तख्त पु०) 

(ब) -आ/-ह युक्त अरबी-फारसी शब्द--जमा, दवा, बला दुनिया 
सजा, हवा, दगा, आह, तरह, राह, सलाह, सुबह, सुलह (मजा, गुनाह, माह पु०) 

(भ) -ईर/-ईल युक्त उददृ शब्द--जागीर, तसवीर, तफ्सील, तहसील, 
तामील क्‍ द 

अंगरेजी से आगत संज्ञा शब्दों का लिग-निर्णय तत्त्व-बोधन तथा शब्दान्त-ध्वनि 
के आधार पर किया जाता है। जिन शब्दों के लिग-निर्णय के सम्बन्ध में दुविधा की 
स्थिति हो, उन्हें सामान्यतः पुल्लिग में गणनीय माना जाता है। अँगरेजी से आगत 
कुछ शब्दों का लिग-निर्णय निम्नलिखित है-- 

(अ) समानार्थी हिन्दी शब्द का लिंग स्वीकृत--कोट (अँगरखा), बूट (जूता), 
नम्बर (अंक), लेक्चर (व्याख्यान), लेम्प (दीपक), वारंट (चालान)--पुल्लिग । 
कमेटी (सभा), कम्पनी' (मंडली), चेन (साँकल), फीस (दक्षिणा)--स्त्रीलिंग । 

(आ) आकारान्त पुल्लिग---केमरा, डेल्टा, सोडा 

.._(इ) ईकारान्त स्त्रीलिग--गिनी, चिमनी, डिक्शनरी, म्यूनिसिपेल्टी, लायब्न री 
ह्स्द्री 
है (ई) व्यंजनांत स्त्रीलिग--अपील, कांग्रेस, काउंसिल/कौंसिल, रिपोर्ट, प्लेग 
मोटर, रेल, पिस्तौल । पुल्लिग---स्टेशन,- मेल 
हिन्दी में समान ध्वनि से अन्त होनेवाले अनेक शब्द पुल्लिग, स्त्रीलिंग होते 


हैं, यथा--- . 
पुल्लिग ... स्त्रीलिंग... 
अश्रु, तालु मधु, हेतु, सेतु... आयु, मृत्यु, वायु 
. ओचित्य, स्वातन्त्य, स्वास्थ्य, .. बलाय< बला 
सामथ्य, कथ्य पा 


. परमात्मा, किला, पुतत|.... आत्मा, कला 








28 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


_- आलू, गेरू, पहलू, बाजू उदू, बालू 
.. ज्ञमक, फाठक चेचक, नाक, लीक, पीक 
ढोंग, दागू, दिमाग, प्लेग द उमंग, लाग, लोंग 
अखरोट, पनघट, मुकुट इंट, ओट, प्लेट, लट, सिगरेट 
ओठ, काठ गाँठ, सोंठ 
तीड़, पहाड़, पापड़ आड़, जड़, भीड़ 
खेत, भात, सूत छत, बात, रात, लात 
गुलाब, हिसाब किताब, शराब 
आम, मरहम, मोम अफीम, कलम, चिलम, फिल्‍म, सेम 
उतार, पनीर, पहर खीर, नहर, मार 
खेल, बाल, मील, मेल खपरेल, खाल, झील, पिस्तौल, 
द द बगल, सँभाल, साइकल 
निकास, पलास, रास नस, बास, मिठास 
निकाह, विवाह, ब्याह, मु ह जगह, बाँह, राह 


सामान्यतः: समासज शब्दों का लिग पर/उत्तर पद का लिग होता है, यथा--- 
माँ-बाप (पु०), धर्मेशाला (स्त्री०), रसोईघर (पु०) 

पुल्लिग-स्त्रीलिंग निर्माण-नियमादि--. -आ, “आइन, “आती, -इका, -इन 
“इया, -ई, -नी प्रत्यय जोड़ कर पुल्लिग से स्त्रीलिग संज्ञा शब्दों का निर्माण होता 


है, यथा--- 
० | हम 


“अाहन-- 


पंडित-पंडिता, पात्न-पात्रा, पूज्य-पृज्या, प्रिय-प्रिया, बाल-बाला, अध्यक्ष- 
अध्यक्ष, आचाय॑ं-आचार्या, शिष्य-शिष्या, क्ृष्ण-कृष्णा, शुद्र-शुद्रा, सुत- 
सुता, शिव-शिवा, वश्य-वश्या, महाशय-महाशया । (-आ युत इस प्रकार 
के शब्दों का प्रयोग संस्कृतनिष्ठ शेली में होता है। हिन्दी में सामान्यत 


पंडित, अध्यक्ष, पात्र, पूज्य” का दोनों लिगों में प्रयोग प्रचलित); मुद्दई- 


मुद्दइया, वालिद-वालिदा, साहब-साहिबा, खालू-खाला 
ठाकुर-ठकुराइन, दुबे-दुबाइन, चोबे-चौबाइन, पाठक-पठकाइन, पाँड़े- 


पेंड़राइन, पांडे-पंडाइन, बनिया-बनियाइन, बाबू-बबुआइन, मिसिर-मिसिरा- 
इन, लाला-ललाइन, सुकुल-सुकुलाइन (हिन्दी में आजकल ऐसे स्त्रीलिंग 


शब्दों का प्रयोग कम ही होता. है) 


आनो--- चोधरी-चौध रानी, खत्नी-खत्तानी जेठ-जिठानी/जेठानी देवर-देवरानी' 
 नौकर-नौकरानी, पंडित-पंडितानी, मेहतर (मिहंतर)-मेहतरानी/मिहत- 


रानी), सेठ-सेठानी; इन्द्र-इद्राणी; भव-भवानी, रुद्र-रुद्राणी, वरुण-वरुणानी, 
 शव॑-शर्वाणी रा: द हा 


मम मा जम अमन कीनमनकक अमन न 





संज्ञा | 29 


-“इका--  लेखक-लेखिका, याचका-याचिक, वाचक-वाचिका, सहायक-सहाथिका 
उपदेशक-उपदेशिका, नायक-नायिका, पाठक-पाठिका, पृत्नक-पृत्रिका 
गायक-गायिका, बालक-बालिका, सेवक-सेविका; मलिक-मलिका । 

“इन -- अहीर-अहीरिन, कु जड़ा-कु जड़िन, तेली-तेलिन, धोबी-धोबिन, नातौ- 
नातिन, बाघ-बाघित, माली-मालिन, लुहार-लुहारिन, सॉप-साँपिन, सुनार- 
सुनारिन, जमादार-जमादारिन, चमार-चमारिन, जुलाहा-जुलाहिन, भंगी- 
भंगिन, कहार-कहारिन, मजदूर-मजदूरिन 

“इया---  कुत्ता-कुतिया, बच्छा-बछिया, बंदर-बँदरिया, बुड़ढा/बुढ़ा-बुढ़िया, बेटा- 
बिटिया, गगरा-गगरिया, चूहा-चुहिया, फोड़ा-फुड़िया, लोटा-लुटिया 

“ई--- कुकर-कुकरी, गधा-गधी, गीवड़-गीदड़ी, घोड़ा-घोड़ी, तीतर-तीतरी, चेला- 
चेली, लड़का-लड़की, पुतला-पुतली, टोकरा-टोकरी, बकरा-बकरी, बंदर- 
बँदरी, मेंढ़क-मेंढकी, हिरन-हिरनी, बेटा-बेटी, आजा-आजी, काका-काकी, 
लठ-लाठी; भगवान्‌ < भगवत्‌-भगवती, राजा< राजन्‌-राज्ञी, विद्वान्‌ <: 
विद्वस्‌-विदुषी, श्रीमान्‌< श्रीमत्‌-श्रीमती;। कर्ता<_कतृ -कर्त्ती, कवि/ 
कवयिता <_ कवयितृ-कवयित्री, ग्रथकर्ता < ग्रंथकत्‌ “ग्र थकर्त्नी, नेता < नेतृ- 
नेत्री; मुर्गा-मुर्गी, शाहजादा-शाहजादी द द 

ननौ--. ऊँट-ऊँटनी, टहलुआ-टहलनी, बाघ-बाधघनी, सिह-सिंहनी, सूअर-सूभरनी 
इंस्पेक्टर-इंस्पेक्टरती, मुल्ला-मुल्लानी, हाथी-हथिनी, सियार-सियारतरी 
तपस्वी-तपस्विनी 

2. कुछ पुल्लिग संज्ञा शब्द स्त्नीलिंग संज्ञा शब्दों में प्रत्यय लगाकर बनाए 
जाते हैं, यथा--जीजी-जीजा, ननद-नचदोई, फूफी-फूफा, बहन-बहुनोई, मौसी-मौसा 


रॉड़-रड़ आ, भेड़-भें हा, भेंस-भसा 

3. कुछ संज्ञा शब्द रूप की दृष्टि से परस्पर पुल्लिग-स्त्रीलिंग के जोड़े-से 
प्रतीत होते हैं, किन्तु वास्तव में वे शब्द तत्त्व बोधन तथा सन्दर्भ की दृष्टि से भिन्‍न- 
भिन्‍न हैं, यथा--कुर्ता-कुर्ती, चोला-चोली, जूता-जूती, टुकड़ा-टुकड़ी, डिब्बा-डिब्बी' 
चमड़ा-चमडी, कंठा-कंठी, झंडा-झंडी, चिट्ठा-चिट्ठी, शीशा-शीशी, पापड़-पापड़ी/ 


. पपडी, ताला-ताली, भटठा-भटटी, चौका-चौकी, किनारा-किनारी, बीड़ा-बीड़ी' 


जाला-जाली द 
('कोयल-कोयला, चींटी-चींटा, घड़ा-घड़ी, अँगूठी-अँगूठा, कोठी-कोठा' 


... जैसे शब्द झामक स्त्रौलिग पुल्लिग शब्द-युग्स हैं । इन में पुल्लिग शब्दों का स्त्रीलिंग 
. शब्दों से तात्विक दृष्टि से कोई सम्बन्ध नहीं है।) । 


4. कुछ पुल्लिग संज्ञा शब्दों के एक से अधिक स्त्नीलिंग शब्द होते हैं, यथा-- 


. आचाय॑ं-आचार्या ( > शिक्षिका)/आचार्याणी (>>आचायं-पत्नी); उपाध्याय-उपाध्याया 


(5 शिक्षिका), उपाध्यायी/उपाध्यायानी _ (->उपाध्याय-पत्नो); क्षत्रिय-क्षत्रियी 















220 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(>> क्षत्रिय-पत्नी), क्षत्रिया/क्षत्रियाणी (5 क्षत्रिय वर्ण की महिला); मातुल-मातुली/ 
मातुलानी; पंडित-पंडिता, पंडिताइन/पंडितानी, साला-साली ( पत्नी-बहन)/|सलहज 
(सूसाला-पत्नी), भाई-बहन, भाभी/भावज/भौजाई (>-भाई-पत्नी), बेटा-बेटी, 
बहु (बेटा-पत्नी), पति-पत्नी, पतिवन्ती (55 सधवा); खान-खानम, बेगम 

5. कुछ पुल्लिग संज्ञा शब्दों के स्त्रीलिंग संज्ञा शब्द स्वतन्त्र होते हैं, पथा-- 
मर्द/आदमी-औरत, पिता-माता, पुरुष-स्त्री, बैल[सॉड़-गाय, बाप-माँ, राजा-रानी 
ससुर-सास, नर-मादा, साहब-मेम, बादशाह-बेगम, विधुर-विधवा, सम्राट-स'म्राज्ञी 
पुत्न-कन्या, बेटा-बहू, वर-वधू, भाई-बहन|भाभी 

6, संस्कत में पदसूचक, व्यापार-कतृ त्वसूचक, व्यावसायिक, प्रशासनिक, 
सामाजिक स्थिति के बोधक कुछ शब्दों के पुल्लिग, सत्रीलिग अलग-अलग थे, यथा--- 
कवि-कवयित्री, मंत्री-मंत्राणी, अधिष्ठाता-अधिष्ठात्वी, विद्वानू-विदृषी, दाता-दात्नी, 
किन्तु हिन्दी में ये पुल्लिग शब्द उभयलिंगी ((एकॉलिगी/अलिंगी/निलिगी) बन गए 
हैं । स्पष्ट लिग-द्योतन के लिए ऐसे शब्दों के पूर्व पुरुष, महिला/स्त्री/औरत शब्द का 
प्रयोग करना पड़ता है, यथा--हमारे प्रधानमन्त्री-हमारी/((महिला) प्रधानमन्त्री, डॉक्टर- 
महिला डॉक्टर, मजदूर, औरत मजदूर, पुरुष छात्रावास-महिला छात्रावास, सचिव- 
महिला सचिव, राष्ट्रपति-महिला राष्ट्रपति, जिलाधीश-महिला-जिलाधीश, जज-महिला 
जज । लिपिक, निदेशक, सचिव, पुलिस, डॉक्टर, लेखा-अधिकारी, संयोजक, न्यायमूर्ति, 
राजदूत, नियन्त्रक, अध्यक्ष, सहायक निरीक्षक पुल्लिग, स्त्रीलिंग के लिए समान रूप 
से प्रयोग में लाए जा रहे हैं, किन्तु (विमान-परिचारिका तो है, “विमान-परिचारक 
शब्द अभी प्रचार में नहीं आया है ! 

7. मनुष्येतर प्राणिवाचक कुछ विशेष (निरलिगी) शब्दों के पूर्व पुल्लिग के. 
लिए नर, स्त्रीलिंग के लिए मादा” शब्द जोड़ा जाता है, यथा--नर मछली-(मादा) 
मछली, (नर) खरगोश-मादा खरगोश । अन्य शब्द हैं--जोंक, कोयल, खटमल, बाज, 
चीता, लोमड़ी, गिलहरी, मना, कौआ, उल्ल, भेड़िया, गैंडा, तोता, मकक्‍खी । 

8. हिन्दी में भगत. संस्कृत के कुछ शब्द संस्कृत से भिन्‍न लिंग में प्रयुक्त 
होते हैं, यथा--अग्नि (पु ०->स्त्री ०), आत्मा (पु ०->स्त्री ०), आयु (नपू ०-»स्त्री ०), 
जय (नपु ०-+स्त्री ०), तारा (स्त्री०->प्‌ ०), देवता (स्त्री->प्‌ ०), देह (प्‌ ०->स्त्री ०) 
पुस्तक (नपु ०->स्त्री ०), वस्तु (नपृ०“टेस्त्री ०), राशि (पु ०-२स्त्री०), व्यक्ति (स्त्री० 
“>पु ०), शपथ (पु०-ल्स्त्री०))। जी हु द 

5 उद्ू चर्चा' पूृ० हिन्दी में स्त्री० है । | आस 

9. कुछ समस्वनीय शब्द पु० स्त्री० में भिन्‍न अर्थों के दयोतक हैं, यथा-- कल 


..._पु० आनेवाला/बीता हुआ दिन ; स्त्री० चैन, मशीन का पुर्जा), काँच (पु० शीशा 8 0, 
.... स्त्री० गुदा का अंग, काछ), चाप (पु० धनुष ; स्त्री० पैरों की ध्वनि), ढीका (पु० 
... तिलक, स्त्री० व्याख्या), बाद (पु० तोल-मान ; स्त्री० रास्ता/राह), -बेल (पु द 





संज्ञा ] 22 


बिल्वरफल, स्त्री० लता), हार (पु० गले की माला ; स्त्री० पराजय), तारा (पु० 
नक्षत्र, स्त्नी० किसी स्त्री का नाम) ४ छुआ वोट ५ 

. ]0. कुछ लगभग समानार्थी शब्दों में लिग-भेद प्राप्त है, यथा--पुल्लिग 
ग़ब्द (अभ्याप्त, इन्तजाम, इंतजार, इम्तिहान, खून ; नुकसान, प्रयत्न, न्यायालय 
पल/क्षण/लमहा, मकान/भवन, मदरसा/स्कूल, साया)->स्त्री ० शब्द (आदत, व्यवस्था 
प्रतीक्षा, परीक्षा, हत्या, हानि, कोशिश, अदालत/कचहरी, घड़ी, इभारत, पाठशाला 
छाया) । आईना/शीशा/दपंण, अपराध/दोष/गुनाह के स्त्रीलिग समानार्थी अप्राप्त हैं। 
सेवा/|खिदमत, भित्ति|दीवार, तारीफ/स्तुति|प्रशंसा, शिक्षा-तालीम, शर्म/लज्जा, जीभ 
ज्‌ बान, आशा उम्मीद, दृष्टि|नज्र के पुल्लिग समानार्थी शब्द अग्राष्त हैं । 


संज्ञा शब्दों की बचन-व्यवस्था--सामान्यत: व्यक्तिवाचक, भाववाचक 
द्रव्यवाचक संज्ञा शब्दों का प्रयोग एकवचन में होता है। जब इन संज्ञाओं के सूचक 
शब्द बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं तो वे जातिवाचक संज्ञा बन जाते हैं। जातिवाचक 
और समूहवाच॒क संज्ञा शब्द दोनों वचनों में प्रयोज्य हैं । 


हिन्दी में संख्या (एक से अधिक) के आधार पर तो बहुवचन की सूचना 
मिलती ही है, संख्या की दृष्टि से एक होने पर भी आदरार्थे|समाहार्थ बहुबंचन का 
प्रयोग होता है, जिस की सूचना सन्दभ्भ से मिलती है, यथथा--पिता जी सो रहे हैं । द 
आज प्रिन्सीपल साहब कार्यालय में नहीं आए । महाराजा शिवाजी भारत के सच्चे 
. सपृत थे । प्राचायें महोदय सूचना प्रसारित करा रहे हैं ) मेरे बड़े भाई बहुत भोले हैं । 
दयानन्द सरस्वती ब्रहमचारी थे। भाइयों ! हमारे नेता जी अपनी माँग मनवाने के 
लिए अहिंसक आन्दोलन का रास्ता अपनाएँगें। 'महाशय, शास्त्वनी, स्वामी, बाई, 
देवी, श्रीमान्‌, श्री, श्रीयुत, श्रीमती, कुमारी, महात्मा' आदि सम्मानसूचक शब्दों का 
भी प्रयोग होता है। बाबूजी, बाबू” शब्दों के प्रयोग में अर्थभेद, वचन भेद है । 
बाबूजी ++ स्व-पिता, पिता तुल्य वृद्ध व्यक्ति के लिए निदर्शनात्मक, सम्बोधन सूचक 
आदराथे शब्द; बाबू -क्लके (बड़े बाबू, छोटे बाबू, डाकबाबू में सम्मान ; बाबू 
तबका, बाबू मनोब्‌त्ति)) निकट के औपचारिक मित्रों के नाम के बाद संबोधन में 
आदरा्थ, यथा--कहिए, गोपाल बाबू ! आजकल क्या हाल-चाल हैं? 


संज्ञा शब्दों के एफवचन-बहुबचन बनाने के नियसादि निम्नलिखित हैं--- 
. मूल/अविक्वृत/सरल/|ऋजु रूप में पुल्लिग आकारान्त एकवचन संज्ञा शब्द 
. को बहुवचन में एकारान्त कर दिया जाता है, यथा--केला-केले, संतरा-संतरे। 
बापदादा-बापदादे, छापाखाना--छापेखाने, लड़का बच्चा-लड़के बच्चे । (अपवाद 
_ शब्दों की सूची पहले लिखी जा च॒की है ।) रे 


2. ऋणजु रूप में -आ से इतर ध्वनि होने पर पूल्लिग क्‍ शब्द दोनों वचतनों में 
समान रहते हैं, यथा--एक या दस घर ((ऋषि/मुनि/गुरु/भाई/पक्षी/बालकसाधु/ 





222 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


आलू/डाकू/चौबे/रासौ|जी) । इन शब्दों के बहुवबचन की सूचना के लिए शब्द से पूर्व 
दो या दो से अधिक संख्यासूचक शब्द अथवा संज्ञा शब्द के बाद लोग, जन, गण, 
वर्ग, वन्द' शब्द रखते हैं, यथा--योद्धा लोग, शिक्षकगण, गुरुजन, पाठक वां, 
देवतावुन्द । 


3, ऋज॒ रूप में “ई, -इ, -इया' से अन्त होनेवाले स्त्रीलिंग एकवचन संज्ञा 


शब्दों के बहुवचन “-आँ जोड़ कर बनते हैं। कुछ शब्दों में -आ जूड़ने पर थोड़ा-सा 
ध्वनि-परिवर्तत हो जाता है, यथा--जाति-जातियाँ, तिथि-तिथियाँ, टोपी-टोपियाँ, 
नदी-नदियाँ, खटिया-खटियाँ, गुड़िया-गुड़ियाँ 

4. ऋजु रूप में “इ -ई/-इया' से इतर ध्वनि होने पर स्त्नीलिंग एकवचन 
संज्ञा शब्दों के बहुतचन “ए' जोड़ कर बनते हैं, यथा--आँख-अआँखें, गाय-गायें, कथा- 
कथाएँ, अधप्परा-अध्सराएँ, जू-जु एं, लू-लुएँ, गौ-गौएँ, वस्तु-वस्तुएँ । 

5. ने/कोसिमिं|(पर|का/की/।के आदि जुड़ने पर लगभग सभी एकवचन संज्ञा 
शब्दों के बहुवचन में -ओं जोड़ते हैं । कुछ शब्दों में -ओं जुड़ने पर थोड़ा-सा ध्वनि 
परिवर्तन हो जाता है, यथा--ऋषि को-ऋषियों को, माली का-मालियों का, हिन्दू 
के-हिन्दुओं के । 

6. सम्बोधन में बहुवबचन के लिए “ओ' जोड़ा जाता है, यथा--लड़को ! 
बहनो !, भाइयो !, बहुओ ! सम्बोधन एकवचन में तियंक्‌ एकबचन का रूप रखा 
जाता है, यथा--लड़के !, बेटी !, बहन !, बहू !, भाली !, कुछ संस्कृत शब्दों के 
एकवचन संबोधन रूप हिन्दी, संस्कृत-व्यवस्था के अनुसार प्रचलित हैं, यथा--हे राजा/ 
प्रभ/मुनिदिवी/माता|/सीता--है राजन [प्रभो|मुने|देवि/मातः/सीते 

7. अरबी-फारसी से आगत कुछ बहुवचन संज्ञा शब्द (-आत, -आन युक्त) 
यथावत्‌ प्रचलित हैं, यथा--कागुजात, रुूयालात, मकानात, जंगलात, काश्तकारान, 
मालिकान, साहबान आदि । कुछ बहुवचन शब्द एकवचन में प्रचलित हैं, यथा--- 


अखबार, असबाब, औकात, ओऔलाद, ओऔलिया, कब्ाइद, तवारीख, तहकीकात, _ 


वारदात आदि । अवहाल<- हाल, अतराफ्‌< तरफ, हक क< हक जैसे शब्द सामान्यत 
हिन्दी में प्रयुक्त नहीं होते; प्रयोग करने पर उदू शैली कही जाएगी। कुछ शब्दों 
. में एकवचन, बहुवचन के अथे में अन्तर आ गया है, यथा--जोहर-जवाहिर; खबर- 

अखबार; तारीख-तवारीख; वक्‍्त-ओकात; अजब-अजायब (घर); जुर्म-जरायम 
. [पेशा) द 


8. विदेशी भाषाओं से आगत संज्ञा शब्दों का बहुवबचन प्राय: हिन्दी-व्यवस्था 


... के अनुसार बनता है, यथा--एक फू ट-चार फ्‌ ठ, स्कूल में-स्कलों में, पालसी- 


क्‍ _ पालसियाँ, अलमारी-अलमा रियाँ, कॉपी-कॉपियाँ, टाइयाँ, डायरियाँ, डिग्रियाँ, पार्थियाँ, 


सा ; पल | बेगम-बेगमें, शाहुजादा-शाहजादे, हकीम से-हकीमों से, एक मेम-पाँच मेमें, दवा- है 
... दवाएँ, लेडी-लेडियाँ) पक 











संज्ञा | 223 


9. समस्त जाति के स्वभाव के बोधन के लिए एकवचन संज्ञा का प्रयोग 
होता है, यथा--गधा बुद्धू होता है। बंदर चंचल होता है। कुत्ता स्वामिभक्त 
जानवर है। वर्ग-सदस्य बहुवचन में आता है; वर्ग-प्रतिनिधि के वचन से अर्थ में 
अन्तर नहीं पड़ता, यथा--उधर एक औरत बैठी है--उधर कई औरतें बैठी हैं । 
(हरियाणा का) किसान बहुत मेहनती होता है--(हरियाणा के) किसान बहुत मेहनती 


' होते हैं । 


0. चार बीघा जमीन; दो सौ रुपया; पाँच मीटर की साड़ी; दस रुपये. 
का नोट' समाहारात्मक इकाई का बोध करानेवाले संज्ञा शब्द एकवचन में प्रयुक्त 
होते हैं । द 
क्‍ . पदार्थों की बड़ी संख्या, परिमाण, समूह-बोधन के लिए एकबचन जाति- 
वाचक संज्ञा शब्दों का प्रयोग होता है, यथा--क्षृषि प्रदर्शनी भें सभी ओर गाँव का 
आदमी ही दिखाई दे रहा था। भिखारी के पास काफी रुपया निकला । इस साल 
संतरा बहुत हुआ है । 

. 42., केश, रोम, अश्वु, प्राण, दर्शन, हस्ताक्षर, समाचार, दास, होश, भाग्य/ 
करम' प्रायः नित्य बहुबचन हैं, यथा--उस के केश बहुत लम्बे हैं। तुम्हारे तो भाग्य 
खुल गए । लोग कहते हैं कि”***““। पिछले जाड़ों में, अगली गरभियों में (यहाँ जाड़ा, 
गर्मी, सर्दी ऋतु अथ में बहुवचन में हैं) | मेरे बाल गिरने लगे हैं; लेकिन रोटी दाल 
बाल आ गया । 'हाल, मिजाजू, ठाठ, रुतबे, रोब, अलवे, हल्ले' को उच्च स्तरीय 
व्यक्ति के संबंध में व्यक्त करते समय बहुबचन में प्रयोग करते हैं। स्वयं वक्‍ता 
अपने लिए इन का एकवचन में प्रयोग करता है, यथा--मेरा हाल कुछ न पूछो; 


पर आप बताइए, आप के क्‍या हाल हैं ? 


3. संस्कृत से आगत कुछ शब्दों के साथ दल, वुन्द, जन, वर्ग, गण” जोड़ 


. कर और हिन्दी के शब्दों के साथ लोग” जोड़ कर बहुत्व का बोध कराया जाता है, 


यथा--अध्यापकवुन्द, प्रजाजन, तारागण, सेवादल, बच्चेलोग, महिला वर्ग । 
4. जल, फ्रेम, गिरि, याचना, क्षमा, क्रोध, वारि, छाया, पानी आदि 


कुछ शब्द दोनों वचनों में समान रहते हैं । 
5, दम्पति (दम - स्त्री, पति>- पुरुष) (०४96 एक० पु० की भाँति पति- 


पत्नी के कारण बहुवचन में प्रयुक्त, यथा--हमारे पड़ोस में एक अफ्रीकी दम्पत्ति 
(रहता है) रहते हैं । न्‍>, 


6. आँसू, पसीना, साँस (सासें फूलना) प्रायः बहुवचन में प्रयुक्त, यथा-- 


 आँस (पसीने) बह रहे थे । आँस, पसीने का कण व्यक्त होते समय एकवचन में प्रयोग, 


यथा--एक आँसू की कीमत एक मोती से भी ज्यादा है। खू न पसीना एक करना 


.... पसीना बहा कर; पसीने की कमाई । 











224 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


वचन-भेद से अथ्थ॑ं-भेद, यथा--जाड़ा/गर्मी लगना--गर्भियों में/जाड़ों में। 
दाढ़ी (एकवचन), मूछें (बहुवचन), बाल (एक०, बहु०), केश (बहु०), कपड़ा 
(बिना सिला) -कपड़े (सिले हुए); छाती (पेट-गदंन के मध्य का भाग)--छातियाँ 
(स्तन), पैसा (एक रु० का 00. वाँ भाग; धन)--पैसे (कई पैसे) 

47. &००००॥/५०८००४7४ लिखा' पारिभाषिक पु० एक० शब्द हैं। इस से 
सम्बद्ध शब्द हैं--लेखा विभाग (/परीक्षण/अधिकारी/लिपिक/विवरण) । %#लेखे। 
#लेखों/<४ लेखाओं का प्रयोग अनुपयुक्त । 

8. कई मुहावरों में बहुबचन रूप का ही प्रयोग, यथा--भ्राम के आम 
गुठलियों के दाम; नाजों पालना; भूखों मरना; बाँसों उछलना; खोसें निपोरना; बातों 
बातों में; बगलें झाँकना; दाँतों तले उंगली दबाना; लातों के देव बातों से नहीं 
मानते, हौसले बुलंद हैं । 

9. कुछ संयुक्त|सामासिक शब्द लिग-वचन की दृष्टि से और, या, पर्याय- 
संबंध के कारण कभी-कभी जटिलता उत्पन्त करते हैं, यथा--माँ-बाप (बहु०), 
भाई-बहन (बहु०) -भाई-बहनों (केवल बहन का तियंक्‌ रूप); ईमान-धरम (एक०), 
किताब-काॉँपी (स्त्री० एक०/बहु०)--किताब-कापियाँ (स्त्री० बहुबचन) । द 

20. गाय-भैंसें, रीति-रिवाजों, गाय-बैलों, भाई-बहनों, कपड़े-लत्ते, कपड़े- 
लत्तों, गददे-तकिये --गद्दे-तकियों, बच्चे-बृढ़े--बच्चे-बढ़ों, बृढ़े-बुढ़ियाँ-- बढ़े-बुढ़ियों 
में दूसरा घटक तियंक बहुवचन रूप लेता है । 

.. 2. पदार्थवात्री संज्ञाएँ, यथा--सोना, चाँदी, दूध, आटा, लोहा, पानी 
आदि एकवचन में प्रयुक्त। भाववाचक्र (गुण, विशेषता, व्यापार, अवस्थासूचक) 
संज्ञाएँ, यथा--लम्बाई, चौड़ाई, पढ़ाई, दृढ़ता, मिठास, जवानी, प्रेम (एकबचन में), 
. बीमारी-बीमारियाँ (बहुबचन में भी प्रयुक्त)। व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ, यथा--क्ृष्ण 
ताजमहल, दिल्‍ली, मद्रास एकबचन में । कुछ गोत्र/आस्पद नाम समुहवाची अर्थ में 
आने पर बहुवचन में प्रयुक्त, यथा--बिरलाओं, टांटाओं को राष्ट्रीय हित सर्वोपरि 
रखना चाहिए | कुछ समूह तथा इकाई सूचक शब्द, यथा--रुपया, पैसा, माल, ताश 
सामग्री आदि एकवचन में । 

.... संज्ञा शब्दों की कारक-व्यवस्था--वाक्य में संज्ञा रूपों से प्रकार्य के अनुसार 
व्यक्त स्थान नाम कारक कहलाते हैं। कारकों की अभिव्यक्ति कारक-चिहू नों 
. (अश्लिष्ट, श्लिष्ट विभक्तियों या परवर्गों तथा पारसर्भीय शब्दावली) से होती है ।. 
... वाक्य में किसी पद|पद-समुच्चय के पश्चात्‌ आबद्ध रूप में प्रथुक्त अंश 
_पश्चाश्रयी कहलाते हैं। पश्चाश्रयी अंश विभकति, परसगग (परसर्गीय शब्दावली/जटिल 
_परत्तगे), निपात के रूप में देखे जा सकते हैं। विभक्ति अंश मुक्त अवस्था में अर्थहीन 
होते हैं, किन्तु बद्ध अवस्था में सा्थकता ग्रहण कर क्रम, सम्प्रदान कारकीय संबंध 





संज्ञा | 225. 


(केवल सर्वनामों के साथ आ कर) व्यक्त करते हैं, यथा -वह >उस-(--ए उसे 


तुम:>तुम्ह+--एँ > तुम्हें । विभक्ति पदबन्ध के प्रत्येक घटक से जुड़ी होती है किर 


पररर्ग अन्तिम नियन्त्रित शब्द के बाद जाता है, यधा---हमारे बड़े बेटे की शादी 
में में 'हमारा, बड़ा, बेटा” विभक्त युक्‍त हैं तथा विकारी/तियंक्‌ रूप में प्रयुक्त हैं । 
जिन आवबदुध अंशों के जुड़ने पर पद बनते हैं, उन्हें विभक्ति कहा जाता है और पदों 
के पश्चात्‌ जो आबदुध अंश (की, में आदि) व्याकरणिक सम्बन्ध ध्यक्त करते हुए 
वारक्यांशीय/पदवन्धीय रचना बनाते हैं, उन्हें परसर्ग कहा जाता है। विभक्तियों और 
प्रातिपदिकों या धातुओं के मध्य युक्त संक्रमण होता है किन्तु परसर्गों और पदों के 
मध्य (कुछ सर्वनाम पदों को छोड़ कर) मुक्त संक्रमण होता है, यथा--लड़का---ए[ . 
“ओं>- लड़के, लड़कों; लड़के-- से -- लड़के से; लड़कों --का -- लड़कों का । परसर्ग 

तथा विकारी कारक रूप के मध्य अवधारक निपात आ सकता है किन्तु विभकति और 
शब्द के मूल रूप|विकारी रूप के मध्य नहीं, यथा--रास्ते ही में; तुझ ही में । 
परसर्गीय शब्दावली या जटिल परसभ्ों की प्रकार्य-प्रकति परसर्ग के समान ही है । 
रचना की दृष्टि से परसर्गों को दो मुख्य वर्गों में रखा जा सकता है-- ।. अव्यत्पस्न| 
सामान्य परसभमर दूसरे शब्द भेदों से व्युत्पन्त नहीं होते, यथा--ले, को, से, में, पर 
का आदि 2. व्यृत्पन्न परसगग दूसरे शब्द भेदों से व्युत्पन्न होते हैं। सामान्य परसर्ग 
समेत, सहित” जटिल परसर्ग और संयुक्त परसगं व्युत्पन्न होते हैं। 'समेत, सहित 


. संस्कृत कृदन्तों से बने हैं। व्युत्पन्त जटिल परसर्यों के चार वर्ग हैं--(क) नामजात 


व्युत्पन्न जटिल परसर्ग संज्ञाओं, विशेषणों से बनते हैं, यथा--की ओर (संज्ञा); के 
योग्य (विशेषण। (ख) अव्ययजात व्यृत्पन्न जटिल परसर्ग, यथा--के भीतर, के सामने 
से पीछे (ग) क्रियाजात व्युत्पस्त जटिल परसगं,-यथा--के लिए के मारे (घ) पूबं- 


सगजात व्यत्पन्न जटिल परसम् --के बगौर, के बिना । 


पश्चाश्रयी रचना में पश्चाश्रवितों (परसर्यों, निपात) के संयुक्त प्रयोग भी 


' मिलते हैं । संयुक्त पश्चाश्रयी रचवाएँ तीन प्रकार की मिलती हैं--(अ) परसर्गीय 


संयुक्त प्रयोग में एक परसर्ग के पश्चात्‌ दूसरा परवतर्ग भी आता है, यथा--चोर छत 
पर से हो कर भागा है। इन पुस्तकों में से देख कर नोट बनाओ ॥ (आ) निषातीय 
सं युक्त: प्रयोग में एक साथ दो निपात आते हैं, यथा--तुम्हारे यहाँ होने मात्र ही से . 
पिता जी को आपत्ति हो सकती है । यह तुमने ही तो कहा था। तुम भी तो आओगी। 
(इ) उभ्य संयुक्त प्रयोग में या तो परसर्ग के पश्चात्‌ निपात आता है या निपात के 
पश्चात्‌ कोई परसर्ग या तीन अथवा अधिक पश्चाश्रयी, यथा--बहन मेरी, मेरे (|उस 
के) तो एक लड़की ही हुई । उस लड़के ने ही चोरी की होगी । मानव भात्र की सेवा 


करनी चाहिए | इसे अपने तक ही सीमित रखना । एक घट भर प्तें ही समस्या का. और! 
हल निकाल लगा । दम बट 


[के 








224 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


वबचन-भेद से अथं-सेद, यथा--जाड़ा|गर्मी लगता-गर्भियों में/जाड़ों में। 
दाढ़ी (एकवचन), मुछें (बहुबचन), बाल (एक०, बहु०), केश (बहु०), कपड़ा 
(बिना सिला) - कपड़े (सिले हुए); छाती (पेट-गदन के मध्य का भाग)--छातियाँ 
(स्तन), पैसा (एक रु० का 00. वाँ भाग; धन)--पैसे (कई पसे) 

47. &००००॥(/५०८०ए०॥४ लिखा पारिभाषिक पु० एक० शब्द है । इस से 
सम्बद्ध शब्द हैं-लेखा विभाग (/परीक्षण/अधिकारी/लिपिक/विवरण) । #लेखे। 
#लेखों/<£लेखाओं का प्रयोग अनुपयुक्त । 

8, कई मुहावरों में बहुवचन रूप का ही प्रयोग, यथा--आम के आम 
गुठलियों के दाम; नाजों पालना; भूखों मरना; बाँसों उछलना; खीसें निपोरना; बातों- 
बातों में; बगलें झाँकना; दाँतों तले उँगली दबाना; लातों के देव बातों से नहीं 
मानते, हौसले बुलंद हैं । द द 

9. कुछ संयुकक्‍त|सामासिक शब्द लिग-वचन की दृष्टि से और, या, पर्याय- 
संबंध के कारण कभी-कभी जटिलता उत्पन्न करते हैं, यथा--माँ-बाप (बहु०), 
भाई-बहन (बहु०) -भाई-बहनों (केवल बहन का तियंक रूप); ईमान-धरम (एक०), 
किताब-काँपी (स्त्री०.एक०/बहु०)--किताब-कापियाँ (स्त्री० बहुवचन) । 

20. गाय-भेंसें, रीति-रिवाजों, गाय-बैलों, भाई-बहनों, कपड़े-लत्ते, कपड़े- 

त्तों, गददे-तकिये --गद्दै-तकियों, बच्चे-बृढ़े--बच्चे-बूढ़ों, बूढ़े-बृढ़ियाँ-- बढ़े-बुढ़ियों 
में दूसरा घटक तियंक बहुवचन रूप लेता है । 

2(. पदाथ्थवात्री संज्ञाएं, यथा--सोना, चाँदी, दूध, आठा, लोहा, पानी _ 
आदि एकवचन में प्रयुक्त। भाववाचक्र (गुण, विशेषता, व्यापार, अवस्थासूचक) 
संज्ञाएँ, यथा--लम्बाई, चौड़ाई, पढ़ाई, दुढ़ता, मिठास, जवानी, प्रेम (एकबचन में) 
बीमारी-बीमारियाँ  (बहुवचन में भी प्रयुक्त)। व्यक्तिवाचक संज्ञाएँ, यथा--क्षृष्ण, 
ताजमहल, दिल्‍ली, मद्रास एकवचन में । कुछ गोत्र|आस्पद नाम समूहवाची अथ॑ में 
आने पर बहुव॒चन में प्रयुक्त, यथा--बिरलाओं, टाटाओं को राष्ट्रीय हित सर्वोपरि 
रखना चाहिए । कुछ समूह तथा इकाई सूचक शब्द, यथा--रुपया, पैसा, माल, ताश 
सामग्री आदि एकवचन में । द 

संज्ञा शब्दों की कारक-व्यवस्था--वाक्य में संज्ञा रूपों से प्रकार्य के अनुसार 
व्यक्त स्थान नाम कारक” कहनाते हैं। कारकों की अभिव्यक्ति कारक-चिह नों 
(अश्लिष्ट, श्लिष्ट विभक्तियों या परवर्गो तथा पारसर्गीय शब्दावली) से होती है। 

वाक्य में किसी पद/पद-समुच्चय के पश्चात्‌ आबद्ध रूप में प्रयुक्त अंश 
पश्चाश्रयी कहलाते हैं । पश्चाश्रयी अंश विभकित, परसर्ग (परसर्गीय शब्दावली/जटिल 
परतर्ग ), निपात के रूप में देखे जा सकते हैं। विभक्ति अंश मुक्त अवस्था में अर्थहीन 
होते हैं, किन्तु बद्धः अवस्था में सार्थकता ग्रहण कर क्रम, सम्प्रदान कारकीय संबंध 





संज्ञा | 225 


(केवल सर्वेनामों के साथ आ कर) व्यक्त करते हैं, यथा -वह >>उस---ए +-- उसे 
तुम:> तुम्ह---ए > तुम्हें । विभक्ति पदबन्ध के प्रत्येक घटक से जड़ी होती है किर 
पररर्ग अन्तिम नियन्त्रित शब्द के बाद आता है, यथा---हमारे बड़े बेटे की शादी 
में में हमारा, बड़ा, बेटा/ विभक्त युक्त हैं तथा विकारी/तिर्यक्‌ रूप में प्रयुक्त हैं । 
जिन आबदुध कंशों के जुड़ने पर पद बनते हैं, उन्हें विभकति कहा जाता है और पदों 
के पश्चात्‌ जो आबदुध अंश (की, में आदि) व्याकरणिक सम्बन्ध व्यक्त करते हुए 
वाक्यांशीय/पदवन्धीय रचना बनाते हैं, उन्हें परसर्ग कहा जाता है। विभक्तियों और 
प्रातिपदिकों या धातुओं के मध्य युक्त संक्रमण होता है किन्तु परसर्गों और पदों के 
मध्य (कुछ स्वंनाम पदों को छोड़ कर) मुक्त संक्रमण होता है, यथा--लड़का---ए| 
-ओं -- लड़के, लड़कों; लड़के-|- से - लड़के से; लड़कों --का 5- लड़कों का | परसर्ग 
तथा विकारी कारक रूप के मध्य अवधारक निपात आ सकता है किन्तु विभक्ति और 
शब्द के मूल रूप|विकारी रूप के मध्य नहीं, यथा--रास्ते ही में; तुझ ही' में । 
परसर्गीय शब्दावली या जटिल परसभों की प्रकायं-प्रकृति परसर्ग के समान ही है । 
रचना की दृष्टि से परसभ्नों को दो मुख्य वर्गों में रखा जा सकता है-- !. अव्युत्पन्न/ 
सामान्य परसगगं दूसरे शब्द भेदों से व्युत्पन्न नहीं होते, यथा--ने, को, से, में, पर 
का आदि 2. व्युत्पन्न परसगग दूसरे शब्द भेदों से व्युत्पन्त होते हैं। सामान्य परसर्ग 
समेत, सहित' जटिल परसर्ग और संयुक्त परसर्ग व्युत्पन्न होते हैं। 'समेत, सहित 
संस्कृत कृदन्तों से बने हैं। व्युत्पन्न जटिल परसर्गों के चार वर्म हैं--(क) नामजात 
व्यूत्पन्न जटिल परसर्ग संज्ञाओं, विशेषणों से बनते हैं, यथा--की ओर (संज्ञा); के. 
योग्य (विशेषण, (ख') अव्ययजात व्यृत्पल्न जटिल परसर्ग, यथा--के भीतर, के सामने, - 
से पीछे (ग) क्रियाजात व्युत्पस्त जठिल परसगं,-यथा--के लिए के मारे (घ) पूर्ब- 
 सगजात व्युत्पनन जठिल परसग --के बर्ग र, के बिना । 
... पश्चाश्रयी रचना में पश्चाश्रितों (परसर्गों, निपात) के संथुक्त प्रयोग भी 
- मिलते हैं । संयुक्त पश्चाश्रयी रचनाएँ तीन प्रकार की मिलती हैं--(अ) परसर्गीय 
संयुक्त प्रयोग में एक परसर्ग के पश्चात्‌ दूसरा परसर्ग भी आता है, यथा--चोर छत 
पर से हो कर भागा है। इन पुस्तकों में से देख कर नोट बनाओ । (आ) निपातीय 
सं युक्त: प्रयोग में एक साथ दो निपात आते हैं, यथा--तुम्हारे यहाँ होने मात्र ही से 
पिता जी को आपत्ति हो सकती है | यह तुमने ही तो कहा था। तुम भी तो आओगी। 
(६) उभय संयुक्त प्रयोग में या तो परसर्ग के पश्चात्‌ निपात भाता है या निपात के . 
पश्चात्‌ कोई परसर्ग या तीव अथवा अधिक पश्चाश्रयी, यथा--बहन मेरी, भेरे (|उस ! 
के) तो एक लड़की ही हुई । उस लड़के ने ही चोरी की होगी । मानव सात्र की सेवा 





करनी चाहिए | इसे अपने तक ही सीमित रखना । एक घंटे भर में ही समस्या का हा | डे ० 


_ हल निकाल लूगा। 
जि 





226 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


सामान्य[|सरलं, जटिल तथा संयुक्त परसगग कारकीय सम्बन्ध (वे सम्बन्ध जो 
वाक्य में विभिन्‍न शब्दों के मध्य बनते हैं) व्यक्त करते हैं। परसगे वस्तुओं के मध्य 
वस्तु और क्रिया-व्यापार या अवस्था के मध्य समयवाचक, स्थानवाचक, कर्मंवाचक 
आदि सम्बन्ध इंगित करते हैं । प्रसर्भ सहायक शब्द हैं ओर स्वतन्त्र शब्दों के साथ 
प्रयुक्त होते हैं । वाक्य के पदों के पारस्परिक सम्बन्ध तथा प्रकाये या अर्थ की दृष्टि 
से हिन्दी में आठ कारक माने जाते रहें हैं-- द 

।. कर्ता--क्रिया व्यापार का सम्पादक । वात में जिस के विषय में क्रिया 
कुछ विधान करे, उसे कर्ता कहते हैं। इस कारक के सूचक हैं--2, ने, जैसे--- 
लड़का भागा । लड़की हेसी। लड़का मिठाई खा रह! है! लड़की ने मिठाई 
खाई । सूर्य चमक रहा है | स्ठेशन आनेवाला है । पतंग उड़ रही है। ये सभी संज्ञा 
वाक्यांश हैं । पर 

2, कर्म--जिस संज्ञा पर क्रिया-व्यापार का श्रभावया है। पड़ता है उसे 
कर्म कहते हैं। इस कारक के सूचक हैं-7£ , को, जैसे--लड़की लड्डू खा रही है । 
किसान ने साँप को मार डाला | ये सभी संज्ञा वाक्यांश हैं । अप्राणिवाचक को कमें।, 
_प्राणिवाचक को कर्म, कहा जाता है।.._ द 
द 3. करण--जिस साधन से क्रिया-व्यापार के सम्पादन हो उसे करण कहते 
हैं। इस कारक के सूचक हैं-- 2 , से, के दूवारा, के करण जैसे--बच्चे को 
चस्सच से खिलाओ । यह सूचना नोकर के द्वारा आज ही पहुँचानी है। बीमार 
होने के कारण मैं कॉलेज न जा सका । ये रीतिवाची क्रियाविशेषण वाक्यांश हैं । 

4. सम्प्रदान--जिस प्राणी था वस्तु के हित के लिए क्रिया-व्यापार का 
सम्पांदन किया जाता है. उसे सम्प्रदान (समन -दान) कहते हैं। इस कारक के 
सूचक हैं--को, के लिए, जैसे--बीमार को समय पर खाना दो। निर्धनों के लिए 
दान देना चाहिए। डाकुओं ने बिलखती माँ को उस का बच्चा लौटा दिया। ये 
प्राष्तिवाची संज्ञा वाक्यांश हैं । की कि पक 
द 5. अपादान --जिस संज्ञा से क्रिया-व्यापार का जलगाव हो उसे अपादान 
कहते हैं । इस कारक के सूचक हैं--“ 2, से, जैसे--तेल हाथोंहाथ बिक गया । 
गुडों ने उस का सिर धड़ से उड़ा दिया । गंगा हिमालय से निकलती है! ये स्थान 
तथा काल सम्बद्ध अलगाववाची वाक्यांश हैं । आल 

6. सम्बन्ध--वाक्‍य में क्रिया से भिलन किसी अन्य पद से सम्बन्ध सूचित | 
_करनेवाला संज्ञा शब्द-रूप संबंध कहलाता हैं । इस कारक के सूचक हैं--का|की कि, 
जैसे--लड़के का नाम क्या है। लड़के की मेज कहाँ है? लड़के के पिता जी कह हा 


. चले गए ? सर्वनाम शब्दों में 'का|की|के' का स्थान “रा[-री/रे, - ना|-ती-ने' लें... 


लेते हैं, यथा--मेरा/मिरी|मिरे, अपना|अपनी|अपने | यद्यपि इस कारक का क्रिया से 
घरत्यक्षतः सम्बन्ध नहीं जुड़ता, किन्तु अस्तित्ववाची क्रियाओं के साथ पूरक स्थानीय 








संज्ञा | 227 


संज्ञा का संबंध जुड़ता है, यथा--वह पुस्तक श्याम की है/|थी। श्याम की पुस्तक 
विशेषणवत्‌ वाक्यांश की आंतरिक रचना है । 

7. अधिकरण--जो संज्ञा-रूप क्रिया-व्यापार का आधार होता है, उसे अधि- 
करण कहते हैं। इस कारक के सूचक हैं-- 9 , में ,पर, के ऊपर, के/ नीचे, के भीतर 
आदि, जैसे --जेब में पैसे नहीं हैं। मेज पर पुस्तक रख दो । मकान के भीतर चोर 
है। छत के नीचे बल्‍ली लगा दो। ये स्थान तथा काल सम्बद्ध आधारवाची 
वाक्यांश हैं । 

8. सम्बोधन--जिस संज्ञा को सम्बोधित किया (पुकारा या चेताया) जाए, 
उसे सम्बोधन कारक कहते हैं। इस कारक के सूचक हैं-- है, ओ, भरे, ए, ऐ, हलो 
आदि उदगारबोधक शब्द तथा आरोही सुर, जैसे--हे/ओ/अरे/|ए/ऐ लड़के ! इधर 
आना । मेरे दोस्तो और भाइयो, अब तो जाग जाओ । ये स्वयं वाक्यवत्‌ रचनाएँ हैं । 


किसी संज्ञा के बारे में सूचना देनेवाली संज्ञा की समानाधिकरण संज्ञा कहते 
हैं; जिम के बारे में सूचता दी जाती है उसे मुख्य संज्ञा कहते हैं। संमानाधिकरण 
संज्ञा के लिग, वचन तथा कारक मुख्य संज्ञा के अनुरूप ह्वी रहते हैं; यथा --ननक्‌ 
. कुम्हार आगे बढ़ कर बोला । पकड़ लो, बदसाथ नटवर को । अँगरेजों ने बादशाह 
अकबर से व्यापार की आज्ञा ली थी। इन वाकयों में काले शब्द समानाधिकरण संज्ञा 
हैं और 'ननकू, तटवर, अकबर! मुख्य संज्ञा हैं। 


कारक जिह नों/सूचकों का वितरण तथा प्रयोग निम्नलिखित संदर्भो/स्थितियों 
और अर्थों में होता है--- 

(92 ) +सनन्‍्दर्भ के अनुपार शुन्य-चिह न युक्त एक ही शब्द विभिन्‍न कारकों 
में प्रयुक्त हो सकता है, यथा--उस्त का हाथ दुख रहा है। (कर्ता); तुम ने मेरा हाथ 
.. क्यों पकड़ा ? (कर्म); नौकर के हाथ सब्जी भेज देना (करण); एक चिड़िया भी' मेरे 

हाथ नहीं आई । (अधिकरण) । क्‍ 
द यदि बिना कारक-चिह न प्रयोग के वाक्य-अर्थ स्पष्ट हो तो कारक-चिंह न 
का प्रयोग नहीं किया जाता, किन्तु यदि बथे में अस्पष्टता हो तो कारक-चिह न का 
प्रयोग किया जाता आवश्यक है, यथा--ब्रच्चा चित्र देख रहा है ।* बच्चा भाई देख 
रहा है, वाक्य का अय॑ अस्वष्ट है, अत: बच्चे को भाई देख रहा है' या बच्चा भाई 
को देख रहा है” वाक्‍्यों में 'को” क्री आवश्यकता पड़ रही है । कक आम 


शुल्ध चिह न का प्रयोग इन अर्थों तथा प्रयोग-संदर्भों में होता है--. 


उद्देश्य---आँधी आई । 2. उद्देश्यपूतति -यह कुत्ता बहुत वफादार है। साध डाक... 
निकली । 3. स्वतस्त्र कर्ता--हमारे पिताजी मैसूर गए हैं । 4. स्वतन्त्र उद्वेश्यपू्ति-- 


बुडढ का शादी करना सब को बुरा 'लगा । 5. सुरुष कर्म - माँ रोटियाँ बना रही. 


है। 6. कर्मंपृति--राजा ब्राह मण को गृरु माना करते थे। 7. सजातीय केमें:- 2 हा 





228 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


इस सिपाही ने कई लड़ाइयाँ लड़ी हैं। 8. अपरिचिंत/अनिश्चित कर्म --मैं ने (बबर) 
शेर नहीं देखा है। हम पाठ पढ़ते हैं। 9. क्रियाकर का कर्मं--स्वीकार/्याग 
' करना; दिखाई/सुनाई देना । 0. साधन--भूखों/जाड़ों मरना; ऐसा तो न आँखों 
देखा और न कानों सुना। . आवश्यकता-बोधक क्रिया का अप्राणिवाची कर्स-- 
मुझे पत्र डलवाना था|है; ठीक समय पर दवा पिलानी चाहिए । !2. स्थानवाची/ 
कालवाची संज्ञा--इन दिनों|समय उस का दिमाग सातवें आसमान पर था। चलो, 
उधर चलें, इस जगह बहुत भीड़ है। आजकल पाँच बजे सूरज डूब जाता है।.... 
ने -. भूलना, लाना (लेकर आना), समझना (प्रा१७शंक्षार्त) के अति- 
रिक्त अन्य पूर्ण पक्ष (धातु+--आ/-ई/-ए) की क्रियाओं के कर्ता के साथ, यथा-- 
बच्ची ने दूध नहीं पिया (/पिया है|पिया था|पिया होगा)। लड़कों ने सारा खेत गोड़ 
दिया (/दिया है|दिया था|दिया होगा) । क्या यह पत्र तुम्हारे पिता जी ने लिखा है? 
(शायद) बच्चे ने कहा हो ((होता) । 
2. खाँसना, छींकना, मृतना, पादना उद्वेगी क्रियाओं के पूर्ण पक्ष की 
: क्रियाओं के कर्ता के साथ, यथा--बच्चे ने खाँसा/छींका/मृता/|पादा है। नहाना' के 
साथ कुछ लोग ने का प्रयोग करते हैं; कुछ लोग 'स्तान करना” के साथ ने का 
प्रयोग करते हैं किन्तु 'नहाना” के साथ नहीं, यथा--पिता जी अभी नहीं नहाए। 
बहन जी ने अभी तक स्नान भी नहीं किया । क 
3. मुख्य सकमंक क्रिया + सहायक सकमंक क्रिया (एक पूर्ण कृदत्तीय इकाई)... 


होने पर कर्ता के साथ ने” का प्रयोग होता है, यथा--मेहमानों ने खाना खा लिया... 


है। लड़के ने पुस्तक दे दी ((लौठा दी/बेच दी/फाड़ दी) | डाकुओं ने जमीदार को 
मार डाला । बेटी ने यह सब क्‍या लिख मारा है (/डाला है)/ कह रखा है । 2 
4. अनुमतिबोधक (रहने विया/रखने दिया/बोलने दिया), इच्छाबोधक 


(देखना चाहा/पढ़ना चाहा।लिना चाहा|पीना चाहा), अवधारणबोधक (समझ लिया। 


लिख लिया/लिख दिया|फाड़ डाला/तोड़ डाली|सी लिया) संयुक्त सकमंक क्रियाओं के 
कर्ता के साथ। रु 
5. कर्ता के साथ "ने! आने पर सकमंक क्रिया के लिंग, वचन, कर के अनुरूप 

..._ रहते हैं, यथा--बच्चे ने मिठाई खाई (|पापड़ खाया|चार लड्डू खाए)। लड़की ने 
लड़के को लात मारी थी (/डंडा मारा था|कई थप्पड़ मारे थे) द रा 
.. 6. (क) कर्म का प्रयोग न होने पर, (ख) कर्म उपवाक्य के रूप होने पर, 
..._ (ग) प्रश्ववाचक सर्वताम कर्म होने पर, (घ) केवल 'को' युक्त कर्म होने पर कर्ता के 
.. साथ ने आने पर क्रिया एकवचन पुल्लिग में रहती है, यथा--सब लोगों ने 


शक (|बच्चियों ने) शाम को ही खा लिया था । कल ही पत्नी ने मुझे/बच्चे को बताया था... 


कि । तुम्हारे पिता जी ने उन से क्‍या पूछा (/पुछा था) ? माँ ने बेटी को रे जी 


आम . 'बिढों को) पीटा (/पीटा था) 








संज्ञा | 229 


7. इन स्थितियों/संंदर्भों में कर्ता के साथ ने” का प्रयोग नहीं होता--() 
'झूलना, लाना, बोलना (57०७८) के पूर्ण क्ृदन्‍्तीय रूप के साथ (7) अकमंक धातुओं 
के साथ (देलि सहा० क्रि० होने पर भी) (77) सकसमेक धातुओं के अपूर्ण कृदन्तीय 
रूप के साथ (7५) मुख्य सकमेक क्रिया--सहायक अकमंक क्रिया (चुक, बैठ, पड़, जा, 
सक, रह, चल, उठ, उठ, आ, लग, मर)/पा/कर होने पर भी । 


8. बोलना (0७, 080०, म्ांगव०), समझना (0660) का पूर्ण 
पक्षीय रूप होने पर कर्ता के साथ, यथा--बच्चे ने सत्य/झूठ बोला था; अध्यापक ने 
श्रुलेख बोला था (/इमला बोली थी); कया लड़के ने तुम से कुछ बोला था 
. (छेड़छाड़ की थी) ? बच्चों ने समझा कि पेड़ के पास कोई खड़ा है। 


को-- को” परसर्ग कुछ सवंनामों के साथ -ए/-एँ/-हें विभकति रूप में आता 
है, यथा---मुझे, तुझे, इसे, उसे, किसे; हमें; तुम्हें, उन्हें, इन्हें, किन्‍्हें आदि। को' 
का प्रयोग कर्ता, कर्म, सम्प्रदान, अधिकरण कारकों में होता है, यथा--कर्ता +-को-- 
. बाध्यताबोधक क्रिया फा कर्ता, यथा--श्याम (रिखा/मुझ) को वहाँ जाना है 
(होगा|पड़ेगा/था) 2 औचित्यबोधक क्रिया का कर्ता, यथा--अध्यापकों (/हम) को 
इस मुद्दे पर ठंडे दिलोदिमाग्‌ से सोचना चाहिए। इस रचना में सजीव संज्ञा--को-- 
क्या/कुछ--क्रिया आती है, यथा--भाई साहब को कुछ (/क्या) चाहिए (/हो गया 
है) । इस रचना में निर्जीव संज्ञा+-को --संज्ञा-+-क्रिया आती है, यथा--पौधों को 
खाद (/गोड़ना/काटना/[छाँटना/पानी/धूप/हवा) चाहिए । 3. निष्क्रिय क्रिया का कर्ता, 
यथा--बेटे को ((उन्हें) बहू पसन्द हैं । बहु को (उसे) घी अच्छा नहीं लगता । हर 
भारतीय किसान को भी दाशंनिक बातें मालूम हैं। ज्ञात, विदित, स्मरण, याद, 
लग--है” इसी अकार की क्रियाएँ हैं, यथा--मध्ु को ज्ञात ((विदित/स्मरण/याद) है । 
सुनीता को राकेश बुद्ध्‌ (/चतुर/|चालाक/प्यारा/सुन्दर) लगता है। इस रचना में 
सजीव संज्ञा+-को--संज्ञा--क्रिया आती है, यथा--बच्ची को प्यास (/भूख/शर्म/ 
लाज|नींद/|डर|भर) लग रही (/रहा) है । उन्हें इस समय क्रोध (/गुस्सा/होश/बिहोशी/ 
शर्म/नींद) आ रहा (/रही) है । उन्हें धोबा ((होश/क्लेश/दुःख/सुख/संतोष/आनब्द/ 
खेद/|आश्चयं) हुआ । पिता जी को तुम्हारी बातों से दुःख (/सुख/|आराम/क्लेश/ 
संतोष/ शांति) पहुँचेगा (/पहुँचेगी)। क्या आप की बेटी को चाचुना (/गाना/बजाना। 
खेलना|पढ़ना|/लिखना) आता है । बच्चों को फल ((/दृध|दवा/मिठाई/|खिलौना/मारना/ 
भगाता/पीटना/भागना/दौड़ना) चाहिए । विद्यार्थी को पुस्तक (|इनाम/फलसजा/दुध/ 
दण्ड (पुरस्का र|उपाधि) दो (/मिली/मिला)। 4. अधिकारी कर्ता+को अधिकारित 
पूरक (मानसिकनिसर्गिक आवेगादि), यथा--बच्चे को बुखार (/खाँसी/दमा/टी. वी. 
हैजा/धुणा|क्रोध|चिन्ता है (|था|थी/होगा/होगी) । बच्ची को डर लगा (प्यास लगी/ 


दुःब/लेद|मफतोत/रंज हुआ/हँंसी आई|बुलार चढ़ा हुआ है)। 5. कर्ता+को-+- 








230 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


संज्ञायक क्रिया-- २/ह/१/थ, यथा--पिता जी को जाना (/आना/सोना/लिखना) है, 


था)। 6. कर्ता--को--संज्ञा+चाहिए, यथा--माता जी को साड़ी (/रुपये/नौकर/ 
नौकरानी/टॉनिक) चाहिए (चाहिए था) 


कर्म --को--!. कम, (/संकेतक--कम ,)-+ को, यथा--हरी को वहाँ मत - 


भेजो । बच्चे को मत मारो/पीटो | निश्चयात्मकता के लिए को” का प्रयोग अवश्य 
किया जाता है, यथा--क्या तुम ने बिल में प्ताँप को (साँप) देखा था? इस में 
प्राणिवाचक कर्म आता है। इस चित्र को बनाओ! 2. कर्म /--को-+ कर्म, , 
यधा--मैं ने श्याम को अपनी भैंस बेच दी । अभी जा कर सुशीला को उस की 
पुस्तक लौटा आओ | इस रचना में द्विकर्मक क्रिया आती है। 3. कर्म।--को-- 
करे ,- को, यथा--इस साड़ी को माता ःजी को भी दिखाना है/था। 
4. कर ,--को २ संज्ञा से+-कर्मे , +-प्रेरणार्थक क्रिया, यथा--बेटी को (मतरी- 
ऑडर से) पसे भिजवा दीजिए । बेटे को (नौकर के हाथों) सारा सामान पहुँचवाना 
है।था । इस रचना में बुलवाना, लगवाना करवाना आदि का प्रयोग होता है। 
5. सजीव कर्म--को (/निर्जीव कर्म को) --विशेषण, यथा--खिड़की (को) 

कर दो । आँगन (को) साफ कर दिया । सभी छात्रों को पास कर देना । स्वामी को 
प्रसन्‍त रखो । इस रचना में 'कम, अधिक, नष्ट, भ्रष्ट, अच्छा, चंगा, पास, फल, 


उत्तीणं, राजी, खश, नाराज, प्रसन्न, दुरुस्त, ठीक, . गनन्‍्दा, परेशान, तंग” आदि 


विशेषणों का प्रयोग हो सकता है। 6. सजीव कर्मे--को (/निर्जीव कर्म + को)-- 


स्थान|दिशा, यथा---बच्ची को इधर सुलाना (|पुला दो) और पिल्‍ले को उधर। 


(फ्रिज (को) उधर सरका दो ओर डाइनिंग टेबल (को) इधर लगा दो । इस रचना 


में यहाँ, वहाँ, यहाँ-तहाँ, इधर, उधर, इधरं-उधर, ऊपर, नीचे, ऊपर-तीचे, 


दायें, बायें' आदि और रखना, करना, सरकाना, हटाना, बिछाना, लिटाना, बुलाना, 


सुलाना, खड़ा करना, बिठाना, बाँधना' आदि आते हैं। 7. सजीव/निर्जीब कर्म-- . 


को--कर्मेपुति, यथा--परिश्रमीः मिठ॒टी को सोना बना देता है। इस रचना में 'करना 
 बतना, समझना, मानना आदि क्रियाएँ आती हैं । पी 





पूरे पैसे दो । माँ को कम से कम सो रुपये प्रतिमाह भेजा करो । 2. निर्जीव संज्ञा-- 


को-+-सजीद संज्ञा+को, यथा--मिठाई की इस ष्लेट को नौकर को दे दो । इन दोनों 


रचनाओं में दविकर्मेक क्रिया आती है। 3. सजीव संज्ञा--को-- भाव० संज्ञा 


द ( ऊं.क्रिया), यथा-- (मैरी ओर से) बच्चों को प्यार (करता)। परिवार के सभी 
.. सदस्यों को नमस्कार (शुभकामनाएं विधाई/स्नेह/राम-राम|आशीर्वाद) । सेनानायक 
. को सलामी दो । | द द 


सजीव संज्ञा--को-निर्जीव संज्ञा, यथा--नौकर को 


अधिकरण--को--!._स्थान०/दिशा० ऊ को, यथा--थोड़ा पीछे (को) ० 


रे |  लौटो | बायें[दायें (को) हटो (/मुड़ो/बढ़ो/लौटो) । नीचे (को) झुको । ऊपर (को) |: 


पर अककिि कल पार दएत पाए ४ जाए ७%७८४३०० हज लक 


संज्ञा | 23! 


देखो । 2. काल० +-कों, यथा--(आज, परसों, नरसों, प्रातः, सबेरे, सुबह के 


अतिरिक्त) सोमवार को; शाम/दोपहर/रात/आधी रात को; पहली/टूसरी/छठी तारीख 


को; दिनांक आठ[दस को 
उद्देश्य बोधन, साधन, प्रारम्भपूर्वता, आसन्‍्न भविष्य दयोतन के लिए 'को' 


का प्रयोग होता है, यथा--मारने (को) दौड़; पढ़ने को उठा; पीने को दूध, खाने को 


मिठाई; कहने को बहुत है; करने को क्‍या है; देने को कुछ नहीं; आने को वे आ भी 
सकते थे; कहने को कह देंगे पर करंगे नहीं; पाने को क्‍या पाया; देखने-सुतने को 
यही सब था; भागने को तैयार (/उद्यत/कटिबद्ध/उत्सुक); देखने को तरस गई, खाने 


को मन करता है। काटने को छुरी; मारने को डंडा । चलने को हुए लेकिन फिर 


बैठ गए । आँधी आने को है । 


को से इन अर्थों की सूचना मिलती है--. के लिए--सुनने को तुम भी 
सुन लो, 2. के समय--अब जाओ, रात को आना 3. के मन में--उसे तुम से 
प्यार है 4. के शरीर मेँ--दादा जी को बुखार है 5. के प्रति तुम ने उसे गाली 
क्यों दी ? 6. की ओर --नाव पश्चिम को जा रही है 7. के ऊपर--बच्चे को क्‍यों 


पीटते हो ? 


अथ वाले वाक्य न बोल (|लिख) कर इस प्रकार बोले/लिखे जाने चाहिए--नौकर को 
शाम के समय बच्चे को यह दवा पिलानी थी । 

से --से का प्रयोग कर्ता, कमें, करण, सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण कारकों 
में होता है, यथा--कर्ता -से---. कमंवाच्य तथा भाववाच्य के कर्ता के साथ, 
यथा --आजकल उन से (/बच्चे से) चला भी नहीं जाता । बुढ़िया से चर्खा नहीं 
चलाया जाता । इतना. वजन नौकर से हो उठ पाएगा, मुझ से नहीं । मुझ से आजकल 
जल्दी नहीं उठा जाता | 2. प्रेरित कर्ता; के साथ, यथा--आजकल वे अपना सारा 


काम नौकरानी से ही कराती हैं। 3. प्रेरित कर्ता, के साथ, यथा--माँ बच्चे को 


आया से कपड़े पहुनवा रही है । 


कर्म --से---]. गौण करे के साथ, यथा---वह्‌ आप से/मालिक से कुछ कहना २. 


चाहती थी । इस का उत्तर अपने पिता जी से ही पूछना । 


करण--से--!. साधन के साथ, यथा--गोली से छलनी कर दिया। 
मेहनत से काम करो 2. रीति के साथ, यथा--चूहा बहुत तेजी से भागा। 
जल्दी से चलो । धीरे से-धीरे बोलिए। इस रचना में रीतिवाचक--से आते हैं। 
3. कारण के साथ, यथा--धूप से बेल सूख गई । दर्द से परेशान (व्याकुल/बिचेन]िण 
छटपटा रहा) है। 4. के द्वारा के अर्थ में यथा--यह चित्र बड़े सधे हुए हाथों... 


शास को नौकर को बच्चे को इस दवा को पिलाना था! जैसे अस्पष्ट/क्लिष्ट. 


से बनाया गया है । उसी हलवाई से काम कराना ।5. *के प्रति के अथ्थ में, थथा--... | 





232 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


बिलौटा कुत्ते से लड़ रहा है । बेटी माँ से घुणा ((ईर्ष्या/प्यार) करती है। वे दोनों 
एक दूसरी से घुणा करती हैं। 6. के साथ के अर्थ में, यथा--आग से मत खेलो । 
बुराई से लड़ो । शाम को मुझ से मिलना । 7. भोज्य पदार्थ के सहकारी के साथ 
यथा--निर्धन लोग चटनी से (प्याजु से/नमक-मि्च से) ही रोटी खा लेते हैं । 

सम्प्रवान---सै--! . के लिए कि वास्ते के अर्थ में, यथा--तुम तो अपने मतलब 
से आई हो । 

अपादान --से---]. अलगाव, यथा--वह कब तक मुझ से छिपता फिरेगा ? 
इस रचना में संज्ञा+से (5 अव्यय ऊ॑ विशेषण < संज्ञा)--क्रिया आते हैं, 
यथा--पहाड़ से (बड़ी तेजी से बहुत बड़ा पत्थर) लुढ़का । यहाँ से भाग जाओो 
(स्थान/दिशा --से) 2. निकास, यथा --अनेक नदियाँ हिमालय से मिकलती' हैं। इस 
रचना में संज्ञा-+से (+८अव्यय -- विशेषण < संज्ञा)-+- किया आते हैं, यथा--इन 
तिलों से इतना तेल नहीं निकलेगा । 3. पतन, यथा--पेड़ से पत्ते झड़ रहे हैं। इस 
रचना में संज्ञा+-से (< अपव्यय ८ विशेषण -: संज्ञा )--क्रिया आते हैं, यथा--मेरी 
गोद से बच्चा धीरे-धीरे जुमीन पर गिर पड़ा । 4. निष्कासन, यथा--कक्‍्या तुमने 
भाभी को घर से निकाल दिया है ? 5. भय, यथा--बिल्ली कुत्ते से डरती है। 
कमजोर से कौन डरेगा ? 6, दूरी, यथा--आगरा से मद्रास कितनी दूर है ? न्यूया्के 
से लन्‍्दन बहुत दूर है। इस रचना में संज्ञा+से+-विशेषण--क्रिया' आते हैं। 
7, आरम्भ, यथा--यहाँ से आगे बढ़ो । कल से काम पर आना । शनिवार से आ 
जाया करता । इधर से जाओ । इस रचना में स्थान/समय--से आते हैं। 3. तुलना, 
. यथा--वह तुम से गोरी है। वह सबसे सुन्दर है। इस रचना में संज्ञा-+-से-+- 
. विशेषण' आते हैं या विशेषण--से--विशेषण--संज्ञा' आते हैं, यथा--ज्यादा से 


ज्यादा काम; खट्टे से खट्टा आम; दिल्‍ली में मद्रास से अधिक ठंड पह़ती है।. 
9. ग्रहण, यथा--यह चतुराई तुम अपनी माँ से सीख कर आई होगी । ये सारी बातें 


किस गुरु से सीखी हैं? ।0. विरोध, यथा--वे कभी बच्चों को शोर मचाने से नहीं 
रोकते । !. श्रवण-त्रोत, यथा--यहू सब तुम ने किस से सुना ? तुम ने गिरिजाबाई 


से दादरा सुना होगा। 42. कि अनुसार के अर्थ में, यथा--समय से उठा करो। 
. समय से काम करो । 3., के भीतदर' के अर्थे में, यथा--दिल से सच्चा (|कपटी/ 


फबिईमान[खाली) है। इस रचना में संज्ञा--विशेषण--से” आते हैं। 4. के 
बाद के अर्थ सें, यथा--परसों से मत आना । इस रचना में 'समय--से --क्रिया 
आते हैं । । 





.... से का प्रयोग इन अर्थों में होता है--). के दृुवारा---चाकू से काटा । नौकर 

... से झाड़, लगवाओ 2. के ऊपर से---आसमान से पत्थर गिरे। 3. पर से-गंगा, 
..._अथमुना हिमालय से निकलती हैं । 4. में से--तुम्हारी याद अभी तक दिल से निकल 
... नहीं पाई है। 5. की तुलना में--लड़का लड़की से कमजोर है। 6. के कारण से-- 


डक पयकक सपा प पाल 7 ५ 





संज्ञा | 233 


सर्दी ते गला जकड़ गया है। 7. का--दिल से काली/साफू 8. के साथ--मुझ से 
दृश्मनी करना महंगा पड़ेगा । 9. के अनुसार--जाओं, समय से आया करो। 
0. के प्रति--ईश्वर से ब्रार्थना करना रोखो । । 

से! के स्थान पर कभी-कभी के द्वारा/द॒वारा' का भी प्रयोग मिलता है, 
यथा--सामथ्यं या असासथ्य॑-प्रदर्शन हेतु कर्मवाच्य/भाववाच्य का कर्ता--के द्वारा, 
यथा--इस का उद्घाटन तो आपके द्वारा ही होना है। आचाये दूवारा यह आदेश 
निकलवायाः गया है | हनुमान के दुवारा ही समुद्र-लंघन का कार्य सम्भव हो सका था । 
नौकरानी के दवारा तो यह बात नहीं बन पाएगी । 


के साथ से का समानार्थी बनता जा रहा है । संज्ञा साथ' में के' जड कर 
यह परसर्गीय शब्द|जंटिल परसगग बना है। इस का अर्थ इकट्ठा होना” भी है।.. 
तेजी/प्यार|हो शियारी,मेहनत|सावधानी।जो र|रुखाई-- से; से लड़ना (/बातें करना| 
बोलना) प्रयोगों में के साथ” आ। सकता है किन्तु उस की बेवकूफी से; आँधी/वर्षा से; 
मिल बन्द होने/खुलने से प्रयोगों में 'से के स्थान पर 'के साथ” नहीं आता । 

साधन के साथ से का लोप--कानों सुनी बात; आँखों देखी घटना; हाथों- 
हाथ बिक गया । समेत, सहित साहचये, सहाथे व्यक्त करते हैं; यथा---वे अपने परि- 
वार समेत गाँव छोड़ कर शहर चले आए । भारत सहित कई देश अणु बम निर्माण 
के विरुद्ध हैं। तू अपने पिल्‍लों सहित यहाँ क्‍यों आई है ? संबंधी” (->से संबंधित) 
कमंवाचक विशेषक संबंध व्यक्त करता है, यथा--शांति संबंधी प्रयास । वेतन वदधि 
संबंधी प्रश्त । शांति, भूमि ओर श्रम संबंधी चिन्तन । 


सें--- में! का प्रयोग सम्प्रदोन, अधिकरण कारकों में होता है। सम्प्रदाव-- 
में--. संज्ञा-+में; प्रयोग अथें के लिए, यथा--इस मकान सें काफी खर्च 
हो गया । 
अधिकरण --में---]. समयवाचक संज्ञा--समें । इस रचना. में में” का 
प्रयोग इन संदर्भो/अर्थों में होता है--(7) निश्चित अवधि, यथा--यह काम दो महीने 
((चार घंटे/पाँच मिनट) में पुरा होना है । (४) लगभग, यथा--मरहम लगा लो, पाँच 
मिनट में ठीक हो जाभोगें। आप का काम दो-तीन दिन में पूरा हो जाएगा। (7) की 
. अवधि के भीतर, यथा--प्रप्ताह में दो बार नाच सिखाने आना होगा । इतना सारा 
काम एक महीने से कम में पूरा नहीं हो पाएगा । (7५) की अवधि के अन्त में, यंथा -- 
सातवीं पंचवर्षीय योजना में राष्ट्र कहीं से कहीं पहुँच चुका होगा। (४) के बाद 
यथा--वह आई तो थी लेकिन एक मिनट में ही लौट गई थी। (हां) के भध्य, 
यथा--इतने में उस की पत्नी आ गई । 2. स्थानवाचक संज्ञा--में । इस रचना में 
में का प्रयोग इन अर्थों में होता है--0) के भीतर, यथा--कमरे में (/घर में) चोर 


है। (॥) विस्तार, यथा--जंगल में आग लग गई है । आसमान में तारे चमक रहे हैं।... 





234 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


जमीन में गनी नहीं है। भारत की राजधानी दिल्‍ली में है । यहाँ, वहाँ, कहाँ, जहाँ 
इधर, उधर, किध्वर, जिधर' स्थानवाची अव्यय शब्दों के साथ 'में का प्रयोग नहीं 
होता । घर चलो; शायद वे घर हों में भी में! का प्रयोग नहीं होता। 
3. स्थितिबोधक संज्ञा+में. यथा--आरम्भ  (/शुरू/प्रारम्भ/मध्य/बीच/अन्त| 
आखिर) में 4. संज्ञा+में । इस रचना नें में का प्रयोग इन अर्थों में होता 
-[3) तरार्थ में, यथा--मधु और रेखा में कौन सुन्दर है ? इन दोनों (लड़कों) में 
कौन मोटा है ? बच्चे-बच्चे में अन्तर होता है | (7) तमाथे में/ के समूह सें से, रथा--- 
उन चारों भाइयों में राम सब से बड़ें थे। संस्कृत कवियों में कालिदास का स्थान 
अलग है। इन सब में लम्बी यही है । 5. संज्ञा-+में--संज्ञा । इस रचना में 'में का 
: प्रयोग इन अर्थों में होता है. यथा--() गृण, यथा--फूलों में खुशबू; खाने में कड़वा 
(0) मुल्य, यथा--यह घर कितने में खरीदा है; एक रुपये में छह केले (7) अंगांगी 
भाव, यथा -पैर में छह उँगलियाँ (ए) अच्तुभु क्ति, यथा--इस पुस्तक में ताकिक 
शैली में विषय को प्रस्तुत किया गया है। इस लेख में शुरू से ले कर आखिर तक 
क्रांतिकारी विचार भरे पड़े हैं। (५) मवोभाव[स्वभाव, यथा-- उस औरत में दया 
(करुणा|साहस|हिम्मत/अहंका र/ईमानदा री/आत्मबल/मनो बल/आात्मविश्वास[धमंड) है। 
(श) एकवर्गता, यथा--तुम लोगों में अधिकांश की गणना छात्रों (/विद्या्ियों/ 
जदूरों/विद्वानों/मू्खों) में की जाती है। (शा) सदस्यता, यथा--आप के परिवार 
में कितने सदस्य हैं ? (शा) अधिकार सें/पास में होना, यथा--किसी की जिन्दगी में... 
सच्चा सुख नहीं हुआ करता । तुम्हारे हाथ में तो काफी पैसा है। 6. संज्ञा+सें-- 
भाववाचक संज्ञा । इस रचता में 'में' का प्रयोग इन अर्थों में होता है--(8) अच्छी|- 
बुरी दशा, यथा--परिस्थिति में बदलाव (/सुधार/परिवर्तत), इंजन में खराबी 
_(|गड़बड़ी/सुधार); पीने में स्वादिष्ट (|ठीक/बढ़िया|खुराब) 7. भाववाचक संज्ञान 
में (+संज्ञा)--क्रिया । इस रचना में में' का प्रयोग इन अर्थों में होता है-- 
() सानसिक स्थिति, यथा--वे इस समय गुस्से ((क्रोध|चिन्‍्ता/परेशानी/खतरे| 
मुसीबत|आशा/उम्मीद/नशे/बिहो शी) में (काँप/जो/दिव काट रहे) हैं। 8. संज्ञा-- 
संज्ञा--में । इस रचना में में” का प्रयोग इन अर्थों में होता है - () पारस्परिकता| 
के सध्य, यथा--मयूर और मीता में झगड़ा ((प्रेम/प्यार) है। क्या उन लोगों में फट 
.. पड़ गई है ? 9. संज्ञा+में-- विशेषण । प्रयोग-अर्थ--() सामथ्यं/असामथ्यंबोधन, 
 यथा--आने (/जाने/खिलने/खाने/उठने/बैठने) में समर्थ (/असमथथं/मजबुर|विवश| 
.. परेशान) (४) लीनताबोधन, यथा--लिखने (/पढ़ने/गाने/खेलने/खाने/काम/चोरी/नशे) 
में व्यस्त (लीन/मशगूल|खोया/तल्लीन/डूबा/लगा) (77) गृणबोधन; यथा--पढ़ने- 
. लिखने (|कला/काम/बेईमानी) में तेज (/दक्ष/चतुर/सुस्त/प्रवी/|होशियार|खुराब/निपुण| - 4 
... कमजोर/बोदा:>0. संज्ञार्थक क्रिया-- सें-- ४/आ । अयोग-अर्थ---[) असमर्थता- 
..... बोधन, यंथा--इतनी भयंकर आशभ थी कि बुझने में ही नहीं आ रही थी। उस के | 
.... पास इतना रुपया है कि मिनने में ही नहीं आ रहा है। (४) की क्रिया में/ज्ञात-अज्ञात 











ज्ञा | 235 


बोधन, यथा--देखने (/सुनने/पढ़ने) में आया है कि. 777० ऐसा तो कभी देखने 
'सुनने/पढ़ने) में नहीं आया कि! [. अव्यय ऊ सें। प्रयोग-अथे--() स्थिति 


यथा -- पास (निकटठ/भिकेले/अकेजे-दुकले/निकट भविष्य/बाद) में । 
के अन्दर' कुछ सन्दर्भों में में! का पर्याय है; कुछ में दोनों सूक्ष्म अर्थ भेद 


रखते हैं, यथा --स्वास्थ्य मन्त्री ने चिकित्सालय में।के अन्दर प्रवेश किया । रोगी को. 


अस्पताल में (/2# के अन्दर) दाखिला नहीं मिल सका । (एक महीने में! अवधि- 
मात्रा का सूचक है, एक महीने के अन्दर अवधि की उच्चतम सीमा का सूचक है । 

पर--पर' का प्रयोग सम्प्रदान, अधिकरण कारक में होता है। इस के 
पदवन्ध रचना-सुत्र, वितरण तथा अयोग-अर्थ निम्नलिखित 

सस्प्रदान-]-पर :. संज्ञा+पर। प्रयोगन्संदर्भ--धनव/|समय, यथा--इस 
काम (/परकान/कोठी/बीमारी/घोड़े) पर बहुत खर्च किया जा च॒का है। 

अधिकरण--पर !. संज्ञा--पर । प्रयोग-संदर्भ --() सजीव/निर्जीव वस्तु 
पर (के ऊपर) सजीब/निर्जोव वस्तु की अवस्थिति, यथा -घोड़े पर राजा; ऊँठट पर 
काँठी; सोफ॑ पर आदमी; बिस्तर पर कूड़ा (7) की सतह पर, यथा--गाल पर तिल 
टेलीविजन पर फिल्म; कुर्ते पर दाग (प) के ऊपर लटठकती[चिपकी हुई, यथा-- 
दीवार पर चित्र (/तस्वीर/फोटो) (8ए) के ऊपर स्थित, यथा--ऊँचाई पर मन्दिर 
(४) के किनारे, यथा--श्री टॉकीज बाईपास रोड पर है; उस कोने पर (शं) स्थान, 
 यथा--हर चौराहे पर; स्थान-स्थान पर; दसवें किलोमीटर पर; चार मीटर पर; किस 
स्थान ((भुकाम/स्थल/जगह) पर; छत पर; घर पर (शा) समय (/होते ही होते), 
यथा--पाँच बज कर पेंतालीस मिनट (पाँच, सैकण्ड) पर; चार-चार घंटे पर; हर 
पाँच मिनट पर; दस-दस घंटे (/मिनट/सैकण्ड) पर (शा) साधन, यथा--दीवार 
पिहाड़|सीढ़ियों/जीने) पर चढ़ना (5) विस्तार, यथा--सर्प (शिर/छत्|दीवार) पर 
नज्र पढ़ी (5) संज्ञा्थंक क्रिया के बाद क्रिया का घटित होना, यथा--आप के आने 
जिने/नाराज्‌ होने/डॉटने/बिगड़ने/ठीक होने/उठने/बैठने) पर वह भाग गया था 
सोचने पर सिर फटना (50) के बाद, यथा--आम' पर दूध और खरबूज पर शबंत; इस 
परतुर्रा यह है कि: (ता) शरीर,पर, यथा--उप्त पर घोती-कुर्ता खू ब फबता है। 
(5!) के कारण, यथा--चोरी करने पर; उस के कहने पर 2. संज्ञा+पर-- 
संज्ञा । प्रयोग-संदर्भ--() सजीब वस्तु की दुर्वस्था, यथा--बेचारे शिशु पर आपत्ति . 
(/विपत्ति/मूसीबत/मुसीबतों का पहाड़/संकट/आफत/दुःख का बोझ) (7) सजीब बस्तु 
का दायित्व बोधन, यथा--पत्नी पर दायित्व (/उत्तरदायित्व/जिम्मेदारी) ता)... 
लाभालाभ बोधन, यथा--भैंस पर लाभ (/मुनाफा।हानि) (०) आक्रमणादि बोधन, 
 यथा--देश पर आक्रमण (/हमला/वावा/चढ़ाई) (ए) कर बोधन यथा--जनता. पर: 


कर (/आयकर/बिक्लीकर/सम्पत्तिकर/व्यय कर/मृत्युकर) (४) निन्दाबोधन, यथा-- . ह । मु 
.. ऐसे आदमी पर लानत ([खुदा का कहर/दोबारोपण/दोष) (शा) इण्डबोधन, यथा-- गा 3] 





236 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


क्रांतिकारियों पर दण्ड (जुर्माना/अथेदण्ड/आरोप/अभियोग/अथैदण्ड) (श7॥) नियन्त्रण 
बोधन, यथा--शराब पर नियन्त्रण (/पाबन्दी/रोक) (5) के उत्तर में, यथा--नहले 
पर दहला (5) के विषय सें, यथा--अणुबम पर भाषण 3. संज्ञा+पर+- (भाव- 
वाचक) संज्ञा । प्रयोग-सन्दर्भ --() सजीब वस्तु के प्रति (के ऊपर) प्रतिक्रिया, 
यथा--औरतों पर विश्वास (/भरोसा/सन्देह/क्रोध/गुस्सा/शक/शुबहा/तरस/ गवे| 
प्रसत्तता/अधिसान/क्ृपा/[दिया); ईश्वर पर विश्वास (7) के लिए, यथा--सौ रुपयों 
पर ईमान बेचना (77) निरन्तरता, यथा--गाली पर गाली देनां 4. भाववाचक 
संज्ञा पर-- भाववाचक संज्ञा । प्रयोग-सन्दर्भ ---() किसी के प्रति प्रतिक्रिया, यथा--- 
विषय पर प्रकाश; समस्‍या पर बातचीत; स्थिति पर विचार; झगड़े पर निर्णय; 
मुकदमे पर फूसला; बात पर गौर; बात (-बात) पर गुस्सा (/क्रोध/शर्म॑/लज्जा); 
दाश्शनिकता पर विवाद; नीति प्र चर्चा; गतिरोध पर बहस; बिक्री पर छूट 
(/रियायत); आशाओं पर तुषारापात्‌ (गाज/बिजली/बजपात्‌); लाभ पर लाभ; 
मूल पर ब्याज; हानि पर हानि । 5. भाववाचक संज्ञान-पर -+- विशेषण । प्रयोग- 
संदर्भ--() किसी के प्रति प्रतिक्रिया, यथा--बात (/प्रण) पर अटल ((दिढ़); वायदे 
पर डटना; बात पर नाराज (/जमना); इरादों पर दृढ़; सोचने पर मजबूर () के 
सहारे, यथा--आप की दया (,मिहरबानी) पर पलना (४४) के अनुसार; यथा-- 
बड़ों के कहने पर चलो । 6. संज्ञा--पर--क्रिया | प्रयोग-सन्दर्भ--(5) किसी के 
प्रति (के ऊपर) प्रतिक्रिया, यथा--किप्ती समस्या (/प्रश्त/मिसले) पर सोचना; दिमाग 
पर जोर डालना; यात्रा ((दोरे) पर जाना (/निकलना); निर्णय (/निष्कबं/स्थिति) 
पर पहुँचना; टुकड़े ((टुकड़ों/पेसों) पर पलना; बोतल पर जीना; दया (मिहरवानी) 
पर जीना (7) की शक्ल का, यथा--बाप (/मा/मामा/नानी/दादा/दादी), पर गया 
(77) मुल्य, यथा--वह्‌ यह साड़ी 50/- पर नहीं देगा । 7. स्थान बोधक :;८<-- 
पर । प्रयोग-सन्दर्भ---) स्थान, यथा--यहाँ (/वहाँ/कहाँ) (पर) 8. समय बोधक 
--पर | प्रयोग-सन्दरभ--(+) के.लिए, यथा--आज का काम कल पर न छोड़ो 
(/ालो) | 
द पर” तथा के ऊपर' संरचना, प्रयोग-अथे|सन्दर्भ की दृष्टि से कुछ-कुछ 
समान और कुछ-कुछ असमान हैं, यथा--मेज पर (/के ऊपर) घड़ी; चोर की पीठ पर 
कि ऊपर) लाठी से प्रहार; ईश्वर पर (के ऊपर) भरोसा | पाँच बज कर पचास 
मिनट पर (# के ऊपर) | सिर पर (# के ऊपर) पैर रख कर भागना । गाली पर 
 (# के ऊपर) गाली । सोचने पर (# के ऊपर) सिर चकराना । भाई साहब घर . 
पर नहीं हैं--भाई साहब घर के ऊपर नहीं हैं | (दोनों वाक्‍्यों में अथ-वैभिन्‍नय है)... 
इस रेखा पर दूसरी रेखा खींचो--इस रेखा के ऊपर दूसरी रेखा खींचो। (दोनों... 
- वाक्‍यों में अर्थ-वेभिन्‍्न्य है) की 225 | 


3) पर का प्रयोग संज्ञा/अव्यय के बाद होता है, 'ऊपर' का प्रयोग के/रे/नने | के 
.. के बाद । ऊपर' की द्विरुवित सम्भव है (यथा--ऊपर-ऊपर से), किन्तु पर'न्‍की | 











संज्ञा | 237 


नहीं । पर' शब्द-निर्माणक नहीं है, 'ऊपर' शब्द-निर्माणक है, यथा --ऊपरवाला 
ऊपरी, (उपरोक्त) 
का--हिन्दी में सम्बन्ध के लिए 'का/-रा/-वा (का/की/के,-रा/ -री/-रे 

-वा/-नी/-ने) का प्रयोग होता है । “रा” का प्रयोग उत्तम पुरुष तथा मध्यम पुरुष में 
-ना” का प्रयोग निजवाचक सर्वेनाम में और का का प्रयोग शेष स्थलों पर होता है 
यथा--मोहन/राधा/उस/उनत का (|कीकिे), मेरा[हमारा (/मेरी/मिरे/हमारी/(हमारे), 
अपना (/अपनी/अपने) । का, -रा, “ता” के योग से विशेषण शब्दों का भी निर्माण 
होता है, यथा--भारत का /|की/के (>भारतीय), समाज का/कीकि (>-सामा- 
जिक), तगर का/कीकि (नागरिक तिगरवाला/नगरवाली/नर्गरवाले), ऊपर का/की/ 
के (->ऊपरी) । एक वाक्य में “का का प्रयोग कई बार सम्भव है, यथा--आज मेरे 
मित्र के छोटे भाई की अध्यापिका के बड़े बेटे की शादी है । 

का! का प्रयोग संज्ञा, सर्ववाम, विशेषण, अव्यय के साथ (पहले, बाद में) 
हो सकता है। इस का प्रयोग सम्प्रदान, अपादान तथा सम्बन्ध कारकों में होता है । 


सम्प्रदान-+-का--. संज्ञार्थंक क्रिया-फकाकीकि । प्रयोग-सन्दर्भ तथा 
अथें--() के लिए, यथा -- रहने का स्थान (/की जगहके कमरे) नहीं है ((हैं/था 
थी,थि) । हि क्‍ 

अपादान--का--! . समयस्ूचक--का/की/के । प्रयोग-सन्दर्भ तथा अथे-- 
() से, यथा--वह (/वे) कब का (/की/के) इन्तजार कर रहा (/रही/रहे) है (/हैं) । 

सम्बन्ध+-का--! . संज्ञा--काकी/कि--संज्ञा । प्रयोग-सन्दर्भ तथा अर्थ-- 
. (7) अधिकारी, अधिकृत वस्तु (/स्वासित्व), यथा--हमारा रेडियो; पत्नी के आभूषण; 
आप की पुस्तक (7) अधिकृत वस्तु, अधिकारी, यथा--घर की मालकिन; महा- 
विद्यालय के प्राचार्य; दुकान का स्वामी (॥) अंग्री-अंग, यथा-साँड़- का शरीर 
हाथी की आँखें, शुतरमुग के पर (7ए) अवयव-उपअवयव, यथा--पैर का अँगूठा; 
हाथ की उँगलियाँ; उंगलियों के नाखून (९) पूर्ण, भाग, यथा--पलंग' का पाया; 
कुर्सी की टाँग; टीम के खिलाड़ी (शं) स्वजन, सम्बन्ध, यथा--हमारा परिवार; -आप 
का बेटा; तुम्हारी भतीजी (शा) सामाजिक सम्बन्ध, यथा--हमारा विद्यालय; तुम्हारे 


. दोस्त; रेखा की सहेली. (शंधं) लक्ष्य, यथा--हमारा लक्ष्य (/उद्देश्य/मतलब/स्वार्थ) 


(४) स्थिति तथा सनोभाव, यर्था--परिवार की स्थिति (/परिस्थिति/बीमारी/वरे- 
शान); उन का क्रोध (/गुस्सा/प्यार), बच्ची का निश्चय (साहस/उत्साह|सहयोग/ 


- निर्णय/विक), उस की दुष्टता (/शक्ति/हिम्मत); माँ की ममता; डाकू की कठोरता; 3 |! 
(5) कार्य, यथा--जनता की आवाज; रात की ड्यूटी; हाथ का काम; तुम्हारे लेख... 
(4) सूल सामग्री, निस्ित वस्तु (से बनी), यथा--सोने के आभूषण; मिट्ठी का... 


. खिलौना; चाँदी की प्लेट (पता) सदस्य, जाति|वर्ग; यथा--कदम्ब का पेड़; ब्राहमण 





238 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


की जाति; गेंदे के फूल (अा7) संस्था, कर्मचारी, यथा--क्रार्यालय का लिपिक; 
क्लब की स्टेनो; स्कूल के चपरासी (5०) जन सामान्य, नेता, यथा--डाकुओं का 
सरदार; जनता की नेता श्रीमती 7 : चोरों के मुखिया को (5५) द्वारा की गई 
यथा--पेंच की लिखावट (5४) कारण, यथा--लॉटरी का सुख; जोड़ों के दर्द से 
(़णां) गृुणी, गुण, यथा--गालों की लालिमा; सूरज के तेज से; मुख का सौंदर्य 
_ हणा।) समानाधिकरण, यथा--हंत्या का पाप; चोरी का दोष (हां5) क॒तू , कर्म 
(से रचित), यथा--जयशंकर प्रसाद की कामायनी; मीरा के पद; तुलसी का मानस 
(ए5) कर्म, कतूं (के लेखक), यथा--गोदान के प्रेमचन्द; कविता का रचयिता; 
लेख की लेखिका । इन के अतिरिक्‍त अन्य प्रयोग सन्दर्भ तथा अर्थ ये भी हैं-- 


में रखा/रखी, यथा--ग्लास का दूध; शीशी की दवाई; रखने का पात्र, यथा-दृूध 


का ग्लास; दवा को शीशी; में लगे (हुए), यथा--क्यारी के पौधे; गमले की तुलसी 
की कीसत का, यथा--दस रुपये के गेहूँ; सौ रुपये का घी; लम्बा, यथा--नौ गज 
की साड़ी; छह मीटर का साफा; भर की, यथा--चार घंटे की छुट्टी; दो घंटे का 
अवकाश; के लिए, यथा--खाने की जगह, लेटने का स्थान; पीने का पानी; पूजा के 
फूल; पूरा/सब, यथा--बरात की बरात; कुंनवा का कुनबा; अधिक, यथा--ञझुड के 
झूड; के स्थान पर, यथा--राई का पर्वत; राजा का रंक; सिर किकल/महज 


यथा--यह तो बात को बात है (थी); से/द्वारा किया हुआ; यथा--नौकरानी का क्‍ 


काम; मजदूर का काम; से उत्पन्न, यथा--छत की बीमारी, बड़े “बाप का बेटा; 


चाँद की चाँदनी; दशरथ के पुत्र 2. संज्ञा+के--संज्ञा | प्रयोग-संदर्भ--(7) निय- 
'मितता, यथा--रोज्‌ के रोज; साल के साल; महीने के महीने (7॥) स्वजनता, 


यथा--दशरथ के तीन रानियाँ थीं। मेरे एक बेटा हुआ ((है।हुआ है/।हुआ था) । 
मधु के एक बेटी और दो बेटे हैं। तुम्हारे (+पास) दो गायें हैं तो मेरे (+-पास) 
भी दो भेसे हैं। 3. संज्ञा +-का|की|कि --विशेषण । प्रयोग-सन्दर्भ---(!) की दृष्टि से 
यथा --बात का धनी; दिल की छोटी; घर के ग्रीब 4. संज्ञा+-का/कीकि--क्रिया । 
_प्रयोग-सन्दर्भ---() उपयकत, यथा--यहू तो मेरे काम की है, पर वह किसी काम 


की नहीं है । तम तो कुछ मतलब के हो भी, लेकिन वे तो किसी मतलब के नहीं 


निकले (हैं) 5. संशा--का/की|कि--पूर्ण कृदन्त । प्रयोग-सन्दर्भ---(8) के द्वारा 


यथा--शीला की (/मेरी) लिखी हुई पुस्तक; तुम्हारा देखा हुआ मकान; बच्चों के. 


.. बनाए हुए खिलौने । यह पुस्त+ मेरी लिखी हुई है । वह मकान तुम्हारा देखा हुआ 


था। ये खिलौने बच्चों के बनाए हुए होंगे। 6. संज्ञा+-क्री-८बात । अ्रयोग- 5.० 


सन्‍्दर्भ---() से संबंधी, यथा--काफी समझाया, पर उसने मेरी एक (बात) 


_ मानी | आने की (बात) भी तय हो जाए; दिल की (बातें) दिल में ही रह गई। 2 


मा ये (आज) नहीं आने के (+-वे आज नहीं आएंगे); हरीश का मकान इस महीने. क्‍ | द 
। :.« नहीं पूरा होने का (हरीश का मकान इस महीने पूरा नहीं हो पाएगा); मीता । 














संज्ञा | 239 


बैंगन की सब्जी नहीं खाने की (>-मीता बैंगन की सब्जी नहीं खाएगी) 8. विशेषण 
--काकी,कि-- विशेषण । प्रयोग-सन्दर्भ --) निरादर, यथा--मूर्ख का सूख 
बुद्धू का बुद्धू; बेवकूफ के बेवकूफ, तुम बुद्धू की बुद्धू ही रहीं, () अविकार 
यथा--कोरा का कोरा; यह घड़ा कोरा का कोरा रखा है। 9. कहाँ/कहीं/कब नु- 
काकी,कि । प्रयोग सनन्‍्दर्भ---(0) निषेध, यथा--तुम कहाँकिब के ईमानदार 
(पहलवान) हो (तुम ईमानदार/|पहलवान नहीं हो)। वह कहाँकिब का लेखक 
((कवि|विन्तन|साहित्यकार/[योद्धा/सच्चा/ईमानदार/भलामानस) है? (४) निरादर, 
यथा--उल्ल्‌ (/गंदा/बिईमान/दुष्ट/चो र/नालायक/बदमाश) कहीं का । (यह पदवन्ध 
क्रियारहित वाक्य होता है) (#7) देर/ (से), यथा--वहू॑ (/वे) कब की (/का/कि) 
बैठी (/वैठा/बठ) हैं (/हैं) (> वह बहुत देर से बैठी/बैठा है) 0. स्थान/समय '्न- 
का/की/के । प्रयोग-सन्दर्भे-- 0) -बाला (/घटित), यथा - कल की मीटिंग; आज की 
बातें; कल का नाश्ता; उधर का गुसलखाना; ऊपर का कमरा; नीचे की सीढ़ियाँ 
(8) निरादर, यथा--कल की छोकरी; कल का लौंडा; चार दिन का छोकरा 
]. स्थानवाचक --का/की कि -- स्थानवाचक । प्रयोग-सनन्‍्दभे---() विशेष परिवर्तेन/ 
अपरिवतंन, यथा--वह कहाँ की कहाँ पहुँच गई और तुम वहीं की वहीं रह गईं । 
मैं तो जहाँ का तहाँ रह गया और तुम कहाँ के कहाँ पहुँच गए 

जटिल परसर्ग/परसगगीय शब्दावबशी--की/किै|से --संज्ञा/विशेषण/क्रियाविशे- 
षण कृदन्त/पृर्व॑सगं/अव्यय से बने परसर्ग जटिल परसर्ग कहे जाते हैं। इन के उत्तर 
भाग का शाब्दिक अथ प्राय: यथावत्‌ रहता है और नियमतः वही सारे परसग्ग का 
अर्थ होता है। उत्तर भाग के पुल्लिग होने पर के|से”; स्त्रीलिंग होने पर की का 
प्रयोग होता है। 'से से युक्त छह जटिल परसर्ग हैँ--समयवाची (से पहले, से 
पूर्व), स्थातवाची (से ऊपर, से आगे, से पीछे, से बाहर)। जटिल परसर्गों के 
दोनों घटकों के मध्य अवधारक निपात या अन्य स्पष्टीकरण शब्द  आ सकते हैं, 
यथा--मन्दिर के ही सामने; पोस्ट ऑफिस के ठीक ऊपर; देश के काफी अन्दर तक। 
समयवाची शब्दों के पूर्वे संख्थावाची शब्द आने पर के|से का लोप हो जाता है, 
यथा--चार दिन पू्वं; कई सप्ताह पहले; कुछ महीने बाद । कि के साथ आ कर. 
जटिल परत बनानेवाले शब्द हैं--आगे/पामने/सम्मुख/समक्ष/पीछे/पहले/बाद/मध्य/ 
 बीच/दौरान/दरम्यान|व क्त/|प्मय/कारण/मारे/|बहाने/प्रति/लिए/वास्ते|साथ/ अतिरिक्त / 
विना/अलावा/सिवा/अन्दर/भीतर/अन्तर्गत/ऊपर|पास/आसपास|निकट/बदले/बिजाए/नीचे| 
अधीन/मातहत/|समान/बराबर/लगभग/क्रीब/अनुसार/मुत। विक॑/लायक योग्य | काबिल 
. अनुकल/प्रतिकूल|विरुद्ध/खिलाफ/बावजूद । 'की' के साथ आ कर जटिल परसर्ग 
. बनानेवाले शब्द हैं--बदोलत/बाबत/खातिर/तरफओर/जगह/अपेक्षा/बनिस्वत । 


संयुक्त परसर्ग--दो सामान्य या एक जठिल--एक सामान्य परसण्ग से 





बने परसगगं को “संयुक्त परसगं” कहते हैं; यथा--में से, पर से, के आधार पर, 





240 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


के बारे में, के संबंध में, के सिलसिले में, के उपलक्ष में, के संदभ में, के बराबर में 
के क्रीब सें, के नजुदीक में, के स्थान में, के बगल से, की वजह से, की तुलना में, 
की ओर से, की तरफ से, के सामने से, के आगे से, के अन्दर से, के नीचे से, के बीच 
से, के ऊपर से, के ऊपर तक, के अच्दर तक, के बीच तक | इन परसमों के उत्तर 
भाग में 'से/तक' और पूर्व भाग में 'में/पर[की/के' आते हैं । 


स्थानसूचक जटिल रस दिशा सूचना के लिए से” आदि परसर्ग लेते हैं, 
यथा--गुब्बारा मुडेर के ऊपर गिरा--शमुब्बारा मु डेर के ऊपर से गिरा। स्थान- 


वाची, कालवाची अव्यय तथा इन से बने जटिल परसर्गों के अर्थ में विशेष अन्तर 


नहीं होता, यथा--मैं अन्दर सोता हँ--मैं मकान के अन्दर सोता हूँ। माँ ऊपर 
गई हैं--माँ मकान के ऊपर गई हैं--चोर मकान के ऊपर से गया है । इन वाक्यों में 


स्थान, दिशा-+-स्थान, संदर्भित स्थान--दिशा का बोध हो रहा है। इस, उस, किस, 
किसी, इसी, उसी, के बाद के” का ऐच्छिक लोप हो जाता है; यथा-- इस/इसी संबंध में, 
 इसी/|उसी ओरएऐसा “बीच, लिए, बारे में, संबंध में, तरह, समय- वक्त, ओर' के साथ 


होता है । जटिलतथा संयुक्त परसमों के प्रयोग-सन्दर्भ तथा अर्थ निम्नलिखित हैं--- 


के आगे--() दो वस्तुओं/व्यक्तियों का आग्रेग्पीछे होना, यथा--मयूर, मेरे 


पीछे नहीं मेरे आगे (-आगे) चलो । (2) किसी वस्तु का अग्र भाग, यथा--गली 


के आगे एक छोटा-सा मन्दिर है (3) वर्तमान स्थिति से आगे बढ़ना, यथा-- 
अच्छा, आगे बोलो, क्‍या हुआ ? पीछे नहीं, आगे आओ (4) स्थिति का सामना, 
यथा--तानाशाही के आगे हम नहीं झकेंगे (5) समक्ष, यथा--बड़े भिखारी के 
आगे छोटे भिखारी ने हाथ. पसार दिया (6) बाद में, यथा--लाक्षागृह की घटना. 
के आगे पांडवों का क्या हुआ ? (7) से आगे' -तर, -तम भाव, यथा--पढ़ाई में मयुर 
मंजरी से (/सभी छात्रों से) आगे है। (8) से आगे' दूरी क्रम में आगे बढ़ना, 
यथा--तुम .इधर से आगे बढ़ोगें तो एक नाला पड़ेगा (9) आगे से वस्तु; दूरी, 

द कर फेंक दो | चलो, 





भागे से ही मिठाई लेंगें। कसम खाओ, आगे से ऐसा नहीं करोगे। के सामने-- 
() दो वस्तुओं का एक दूसरी की ओर मुह कर के होता, यथा--मन्दिर के सामने... 


.. ही मस्जिद है। (2) परिस्थिति का सामना, यथा--उन्हों ने अत्याचार के सामने 

 झुकना नहीं सीखा था । (3) 'सामने से वर्तमान स्थिति से अलगाव, यथा--भाग 

_ जाओ, मेरे सामने से । के समक्ष/|सम्मुख--() किसी वस्तु/व्यक्ति का किसी के 
सामने प्रस्तुत होता, यथा --आप के समक्ष हम लोग निवेदन करते हैं कि "व 
... अपराधी को कल ही मेरे सम्मुख/समक्ष उपस्थित किया जाए। के पीछे--() दो 
.. वस्तुओं/व्यक्तियों का आगे-पीछे का क्रम, यथा--राम के पीछे सीता और सीता के |. 
.. पीछे लक्ष्मण थे (2) सामने की विरुद्ध दिशा, धंथा--मन्दिर के पीछे बड़ा तालाब, 
(3) परिस्थिति का सामता, यथा--तुम मेरे पीछे क्‍यों पड़ी हो ? (4) पीछे 





लललाएक.. 77: यचजतिटी के 7 जग: 





संज्ञा | 24] 


बाद में, यथा--इस मुद्दे पर पीछे विचार किया जाएगा । (7) से पीछे -तर, -तम 
भाव, यथा-पिछड़ेपन में हमारा देश किसी से पीछे नहीं है (5) के लिए, यथा--- 
झठी शान के पीछे वह बरबाद हो गया । (6) के कारण, शराब के पीछे तुम्हें क्या- 
क्या नहीं सुनना पड़ता । के पहले--() स्थान-क्रम, यथा--रामबाग के पहले 
बाईपास का जवाहर पुल पड़ता है (2) काल-क्रम, यथा--शाम पाँच बजने के पहले 
ही यह काम पूरा होना है (3) क्रिया-क्रम, यथा--मैसूर जाने के पहले आप को हमारे 
यहाँ आना है (4) स्थान/काल सूचक विशेषकर--के पहले”, यथा--दिल्ली के [95 
किलोमीटर पहले आगरा पड़ता है। सूरज डूबने के कुछ देर पहले ही हम वहाँ पहुँच 
जाएँगे। (5) से पहले स्थान|काल/क्रिया बिन्दुओं का अलगाव, यथा--रामबाग्‌ से 
पहले बाईपास का जवाहर पुल है | शाम छह बजने से पहले ही तुम वहाँ चले जाना । 
आगरा जाने से पहले आप हमारे यहाँ अवश्य आएँ | के पश्चात्‌/के बाद--() स्थान 
काल/क्रिया-क्रम, यथा--ग्वालियर के बाद कौन-सा बड़ा स्टेशन पड़ेगा । रात को नौ 
बजे के बाद घर से बाहर निकलना उचित नहीं है । मेरे लौट आने के बाद ही तुम 
वहाँ से जा पाओगे । तुम्हारे लौट आने के कुछ देर बाद ही” * (2) "के बाद से! 
किसी समय विशेष के बाद किसी क्रिया-व्यापार का आरम्भ होना, यथा---साढ़े दस 
बजे के बाद से (शाम साढ़े पाँच बजे तक) मिद्टी का देल बँटेगा (3) “बाद में” 
संज्ञा न होने पर काल-क्रम, यथा--ऐसा न हो कि बाद में तुम्हें पछताना पड़े । तुम 
खा लो, बाद में मैंखा लूगा। के बीच मसें/के सध्य--() स्थान/|काल/क्रिया- 
व्यापार का मध्यवर्ती क्रम, यथा--गली के बीच में क्‍यों खड़े हो ? कल सुबह नौ और 


दस बजे के बीच में आना । तुम कुछ कहने के बीच में ही क्‍यों रुक गये थे ? (2) 


के बीच से/बीच से क्रिया-व्यापार के मध्यवर्ती बिन्दु से आरम्भ, यथा-- इस लकड़ी 
को बीच से काटो । गली के बीच से जाओगे तो जल्‍दी पहुँचोगे। (3) संज्ञा न होने 
पर “बीच में! यथा--तुम बीच में मत बोला करो । बीच में क्‍यों खड़े हो ? बोलते- 
बोलते बीच में क्‍यों रुक गए ?.. के दौरान/|के दरम्थान--() किसी क्रिया-व्यापार 


की पूर्ण अवधि के मध्य सम्पन्न अन्य क्रिया-कलाप, यथा--विदेश यात्रा के दौरान|के _ 
दरस्यान आप को क्या-क्या अनुभव हुए । प्रधानमन्ती के भाषण के दौरान|के दरम्यान. 

कई बार तालियाँ बजीं। के समय|के व क्‍त--() किसी क्रिया-व्यापार की अवधि _ 

के मध्य, यथा--कश्मीर-यात्रा के समय|के वक्त शुरू से ही परेशानियों का सामना 

करना पड़ा था । के कारण/की वजह से--() कारण-सूचना, यथा--पसीने में पानी. 
पीने के कारण (|की वजह से) तुम्हें जुकाम हुआ है । के मारे--() प्राय: कष्टप्रद 
कारण-सूचना, यथा--भूख/प्यास के मारे दम निकला जा रहा है । तुम्हारे मारे तो: 

मैं परेशान हो गया। के आधार पर--(।) किसी कार्य-व्यापार का किसी अन्य काये-..... 
व्यापार आदि पर आधारित होना, यथा--इन गवाहियों के आधार पर यह माना जा... 


3 है: 8: 








242 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


सकता है कि : “के बहाने (+से)--(।) अवास्तविक कारण को काये का कारण 
बनाना, यथा--चाय पीने के बहाने (से) लोग कार्यालय से दो-दो घंटे गायब रहते 
हैं। की बदौलत-- (।) प्रायः किसी अच्छे काय॑ँ के कारण की सूचनी, यथा--मुझे 
इतनी अच्छी नौकरी आप की बदौलत ही मिल सकी है। के सम्बन्ध सें/के बारे सें/ 
की बाबत--(!) किसी वस्तु/|घटना/क्रिया से किसी विचार का संबंध, यथा--इस 
लेख के संबंध में (/के बारे में /क्री बावत) आप की कया राय है ? मुझे तुम्हारी बेटी 
से संबंध में (/के बारे में/की बाबत) कुछ नहीं मालूम । के सन्दर्भ में--(! ) प्रसंग 
विशेष के संबंध में विचार, यथा --कार्यशाला के सन्दर्भ में हमें लोगों से खुल कर चर्चा 
करनी चाहिए । के सिलसिले में--() किन्‍हीं दो घटनाओं का क्रम तथा संबंध बोध, 


यथा--बिजनेस के सिलसिले में इधर आना-जाना पड़ता ही है। के उपलक्ष समें--(।) 


किसी काये को कारण मानते हुए दूसरा कार्य करना, यथा--पुृत्र-जन्म के उपलक्ष में 
अच्छा-सा भोज देना ही पड़ेगा। के प्रति--(!) किसी के संदर्भ में उत्पन्त विचार 
आदि, यथा--आप सब कमंचारियों के प्रति मैं अपना आभार प्रकट करता हूं। के 


लिए--(!) साधन, यथा--नहाने के लिए एक बाल्टी गरम पाती चाहिए। (2). 


प्रयोजन, यथा--यह॒ साड़ी किस के लिए खरीदी है ?* (3) सम्बन्ध, यथा--इधर- 
उधर घूमते के लिए मेरे पास समय कहाँ है ? (4) क्रिया-क्रम, यथा--अब आप 


बोलने के लिए खड़े हो जाइए । (5) कारण, यथा--सभी को देखने के लिए आँखें, । 


सुनवे के लिए कान मिले हैं। (6) स्थान|समय|विचारादि के सन्दर्भ में, यथा--सभी 
गाँवों के लिए पीने के पाती की व्यवस्था होनी चाहिए । कुछ भविष्य के लिए भी 
बचा कर रखना चाहिए। आगरा के विकास के लिए कुछ तो किया जाना चाहिए । 
(7) 'के नाम पर', यथा--भगवान के लिए (के नाम पर) मुझे छोड़ दो । के वास्ते| 
की खातिर--(!) प्रयोजन, यथा--तुम्हारे वास्ते (तुम्हारी खातिर) मैं जान की 
बाजी लगा दूगा। के अतिरिक्‍्त--() निश्चित जानकारी के आधार पर अन्य 
जानकारी की जिज्ञासा, यथा--वेतन के अतिरिक्त और क्या सुविधाएँ मिलेंगी ? 
के सिवाके अलावा--(!) दो विचारादि का व्यतिरेक, यथा--उस की शर्ते मानने के 
सिवा (के अलावा) और कोई चारा भी तो नहीं था। (2) विचारादि का साहचये 
यथा--कुछ लोग घर के अलावा कार्यालय को भी आरामगाह मानते हैं। के बिना--- 
() अनिवाय॑ साहचयं, यथा--मैं तुम्हारे बिना अकेली नहीं रह सकती । (2) 
अनिवायें साधन, यथा--तुम चश्मे के बिना कैसे पढ़ लेते हो ! (3) अनिवाये क्रिया- 


व्यापार, यथा--उन से पूछे बिना मैं कहीं नहीं जाऊगी । की मार्फतके जुरिए|कि 
दुवारा--() करण, यथा--तार की माफ ते (के जरिए|के दवारा) भी मतीऑर्डर 
.. भेजा जा सकता है। (2) भौतिक साधन, यथा--इस छोटी-सी मशीन की साफ्त 
.._ (के ज्रिए|कि दूवारा) तुम दुनिया भर की जानकारी प्राप्त कर सकते हो । (3) प्रेरित , 
कर्ता के साथ, यथा--नौकर की माफ त (के जुरिए|के द्वारा) गोपनीय काम कराना... 


खतरा मोल लेना है। के आसपास--(/) चारों ओर की निकटता, यथा--हमारे 


५ _» वएनदलनाइस पड णं+ बटर प ७ 





संज्ञा | 243 


घर के आसपास कई अ फ्रीकन रह रहे हैं। के निकट--(!) के नजदीक, यथा-- 
मेरे निकट आ कर बेंठो । के पास--(!) अधिकार, यथा-मेरे पास भी ओल्ड 
ठेस्टामेन्ट है (2) गन्तव्य, यथा--कल डॉक्टर के पास जाना (3) निकठता, यथा-- 
मन्दिर के पास ही नाला बहुता है. की तरफ/की ओर--(!) दिशा सूचत, यथा-- 
गाय घर की ओर/तरफ्‌ जा रही है (2) के बारे में, यथा--आप अपनी तन्दरुस्ती 
(/अपने खाने-पीने) की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं देते (3) निदिष्ठ दिशा, यथा-- 
इस/उस/दोनों/किस/दार्यी/बायीं/चारों ओर (4) की ओर से---0) संबदध दिशा से 
अलगाव, यथा--दोनों ओर से ईठ-पत्थर फेंके गए थे (3) सम्बदध वस्तु/क्रिया/ 
व्यक्ति से अलगाव, यथा---आप को इस बच्चे ((घर/काम) की ओर से निश्चिन्त 
रहना चाहिए (४7) प्रतिनिधित्व, यथा--संस्थान के कमंचारियों की ओर से मैं आप 
को धन्यवाद देता हँ । के नीचे--(।) दिशा, यथा--आओ, उस पेड़ के नीचे बैठे । 
(2) अधीनता, यथा--तुम्हारे नीचे कितने लोग काम करते हैं ? (3) 'नौचे'-- 
अवनति, यथा--स्वस्थ नागरिकता के अभाव में देश नीचे गिरता चला जा रहा है । 
(4) के सीचे से" नीचे से ऊपर की ओर, यथा--छप्पर के नीचे से जरा बाहर 
तो आओो । के अधीन|के मातहत--() अधीनता, यथा--तुम्हारे मातह॒त (/अधीन) 
कितने लड़के काम करते हैं। के समान--(।) समानता, यथा--मेघनाद बादल के' 
समान गरजता था। की तरह--() समानता, यथा--आदर्शवादी की दृष्टि से तो - 
हमें हरिश्चन्द्र की तरह सत्यवादी बनना चाहिए। (2) विशिष्ट समानता, यथा--- 
वे तुम्हारी तरह गर जिम्मेदारी से काम नहीं करते। के बराबर--() भौतिक 
समानता, यथा--मन्त्री को उन के वजन के बराबर सिक्‍कों से तोला गया (2) 
वैचारिक समानता, यथा--हमारे रूयालात गहराई में कबीर साहब के रुयालात के 
बराबर होने चाहिए। (3) निकटता, यथा-- हमारे कॉलेज के बराबर एक नदी बहती 
है (4) लगभग/संख्या में निकट साम्य, यथा--मीटिंग में 200 (के बराबर) लोग 
तो आए ही होंगे (5) गुण साम्य, यथा--पड़ोसी हर बात में हमारे बराबर होना 
चाहता है। (6) समय साम्य, यथा--इस आसन में भी पहलेवाले आसन के बराबर 
समय लगाना चाहिए (7) स्थान साम्य, यथा--महात्मा गांधी रोड की चौड़ाई ठंडी 
. रोड की चौड़ाई के बराबर होगी । के बदले|के स्थान पर/की जगह--() व्यक्ति | 
. वस्तु/क्रिया-स्थानापत्ति, यथा--शैम्पू की जगह शिकाकाई का प्रयोग किया करो । 
की तुलना सें--(!) वेषम्यमूलक तुलना, यथा--मेरे बाप की तुलना में मेरी माँ 
ज्यादा काम करती है । के बजाए/की बनिस्वत/की अपेक्षा--(!) वँषम्यमूलक तुलना, 
यथा--घोड़े की अपेक्षा खच्चर ज्यादा बोझ ढो सकता है। (2) कुछ लोग पढ़ाने की ._ 
अपेक्षा (के बजाए/|की बनिस्वत) नकल कराने में ज्यादा विश्वास रखते हैं । के वगुल _ 
में--(7) भौतिक निकटता, यथा--कॉलेज के बगल में ही मेरा घर है। के अनुसार/ 
के मुताबिकु--() व्यवहार-अनुसरण, यथा--तुम ने मेरे कहने के अनुसार (के 
मुताबिक) काम पूरा नहीं किया (2) समय|त्रैक्त की पाबन्दी, यथा--हमारे पिता 








244 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


जी सब काम समय सारिणी के अनुसार पुरा करते हैं। के योग्य|के काबिल|के लायक 
--() योग्यतासूचना, यथा--सुनिए, यह मुहल्ला ( काम) आप के योग्य ((काबिल| 
लायक) नहीं है । के अनुकूल--() दो व्यवहारों की अनुकूलता, यथा--पंजाब की 
जलवायु नारियल के अनुकूल नहीं है । के प्रतिकूल-- () दो व्यवहारों की प्रतिकूलता, 
यथा--तुम्हारा यहू आचरण कुल की मर्यादा के प्रतिकूल है। के विरुद्ध/|के खिलाफ 
--(!) विरोधसूचना, यथा--तुम मेरी आज्ञा के विरुद्ध (के खिलाफ) कोई भी काम 
नहीं करोगे । के बावजूद---() कारण-कार्य विरोध, यथा--इतनी सारी मुसीबतों के 
बावजूद (भी) वह आगे बढ़ता ही गया । के लगभग---(!) संख्या युक्त परिमाण 
साम्य, यथा--वह एक बार में आधा किलो के लगभग घी खा लेता हैं। के क्रीब-- 
() संख्यायुक्त परिमाण साम्य; यथा --मैं तुम्हें रोजाना एक घंटे के करीब पढ़ा दिया 
कहाँगा। (2) स्थान-नैकद्य, यथा--भीड़ पालियामेंट के करीब पहुँच कर नारेबाजी 
करने लगी । द 

में से--(।) अलगाव, यथा--उन में से एक सेब तुम भी ले सकती हो। 
पर से--!. अलगाव, यथा--चोर छत पर से हो कर भागा है। सें का/कीकि - (।) 


अवस्थित, यथा--इस डिब्बे में का एक लड्डू मुझे भी चाहिए। पर का|की/कै-- 


(!) अवस्थित, यथा--उस के चेहरे (पर) की सारी रौनक खत्म हो चली है । तक 


का|की/के--() निश्चित सीमा, यथा--दैर रात तक की घटनाओं का समाचार। 


चंडीगढ़ से अमुतसर तक के गाँव और कस्बे । की/के में--() सम्बद्ध वस्तु के अन्दर, 


यथा--मेरी घड़ी पाँच बजा रही है, . आप की में क्या बज रहा है ? के अन्दर तक. 


की--() सम्बद्ध वस्तु की निदिष्ट सीमा से संबंधित, यथा -पड़ोसिन को हमारे 
घर के अन्दर तक की सभी बातें पता हैं। के ऊपर तक की--() सम्बद्ध वस्तु 


. की निर्दिष्ट सीमा से संबंधित, यथा--किलै के ऊपर तक की दीवार पर पहुंचना क्‍ 


मुश्किल था । के पहले तक का--() सम्बद्ध घटना की निर्दिष्ट सीमा से संबंधित, 


यथा--पुलिस के आने के पहले तक की बयानबाजी और बाद की बातों में काफी द 


फर्क है । 





'जापमरदय मकान 3० >+-स++ --+ २न5्यम 


्््् सकल 2मडरर सबल ०८८३१ ९२८९< २९० रच सरटपटदरपश5 <रपमपभ बन डमलयनब९ककरवर ९+र व रेफपपक सनक दर था फनरचइलतनयह 2८५ तन :फनसाथिपा रमारमकन पास म ३५". पटक का. ०... पककलएल- अपपटय 5५ >जय > पड असल दम पदक 





सर्वनाम 


वे विकारी शब्द जो संबोधन के अतिरिक्त अन्य कारकों में संज्ञा का स्थान 
ले सकते हैं, सर्बनाम कहलाते हैं, यथा--मैं, हम, कोई, कुछ आदि । भाषा-व्यवहार 
में सुगमता स्पष्टता, कसाव तथा सुन्दरता लाने की दृष्टि से सब (< सर्व) नामों 
_ (संज्ञा, विशेषण) के स्थान पर प्रयोग किए जानेवाले शब्दों 'स्वंनामों की आवश्य- 
कता पड़ती है। सभी भाषाओं में पाए जानेवाले स्वंनाम आकार में छोटे और 
संख्या में कम होते हैं। सर्वतामों की रूपतालिका अन्य शब्द-भेदों से भिन्‍न, विचित् 
होती है। उत्तम पुरुष तथा मध्यम पुरुष सर्वनामों को प्रधान और शेष सर्वंनामों को 
अप्रधान पुरुष कह सकते हैं। वाक्यों में स्वेनाम कर्ता, कम, पूरक स्थान पर आ 
सकते हैं, यथा--आप कहाँ जा रहे हैं ? (कर्ता)। सिपाही उसे पीट रहा था । 
(कर्म ) । वे कौन हैं ? (पूरक) । द 

स्वंताम संज्ञा, विशेषण से कुछ बातों (स्थानापत्ति) में समान होते हैं, किन्तु 
कुछ बातों (रूप-रचना) में भिन्‍न होते हैं । संज्ञा संबोधन स्थान पर आा सकता है 
किन्तु सवेनाम कभी सम्बोधन स्थाम पर नहीं आ सकता | संज्ञा, सर्वनाम के सप 
प्रत्यय भिन्‍न-भिन्‍न होते हैं । विशेषण की भाँति प्रधान पुरुष सर्वेनाम कभी भी संज्ञा. 
के पूर्व विशेषक के स्थान पर नहीं आ सकते और न॒सवनामों में तुलनात्मक कोटियाँ 
होती है। स्वंनामों, विशेषणों के सुप्‌ प्रत्यय भी भिन्‍न-भिन्‍न होते हैं। संरचना की ._ 
दृष्टि से सर्वनाम दो प्रकार के होते हैं--(।) सरल/|सामान्‍्य (2) संयुक्त । सरल| 
सामान्य सवंनाम एक शब्द इकाई होते हैं, यथा--मैं, आप, कोई, क्‍या आदि। 
संयुक्त सवंनाभ एकाधिक शब्द-इकाई होते हैं, यथा--जों कोई, कोई-न-कोई, हर 


- एक आदि । 
हर प्रयोग तथा अर्थ की दृष्टि से सरल/ध्षामान्य स्वनाम छह प्रकार के होते 
.. हैं--. पुरुषवाचक. 2. निर्देशाचक 3. अनिश्चयवाचक . 4. सम्बन्धवाचक 


.. 5. प्रश्नवाचक 6. निजवाचक क्‍ 
... 245 











246 | हिन्दी का विवरणात्मक ष्याकरण 


!. पुरुषवाचक सर्वेनाम वक्‍ता, श्रोता तथा विषय का बोध कराते हैं, 
पथा--मैं, तुम, वह। वक्‍ता (बोलनेवाला/कहनेवाला) लेखक (लिखनेवाला) स्वयं 
को मैं या हम कहते हैं: मैं, हम” उत्तम पुरुष या प्रथम पुरुष कहलाते हैं । 
श्रोता (सुननेवाले)/ पाठक (पढ़नेवाले) को तू, तुम, आप! कहा जाता है। (तू, 
तुम, (आदरा्थ) आप' सध्यम पुरुष या द्वितीय पुरुष कहलाते हैं। कथ्य विषय 
(वस्तु या व्यक्ति) को यह, वह से संकेतित किया जाता है। समीपस्थ यह, दूरस्थ 
बहु, आदरार्थ आप' अन्यपुरुष या तृतीय पुरुष कहलाते हैं। इन के अतिरिक्त 
य सभी सर्ववाम कोई, कुछ, जो, सो, क्या, कोन भी अन्य पुरुष कहलाते हैं। 
प्रमुखता की दृष्टि से उत्तम, मध्यम पुरुष को प्रधान तथा अन्य पुरुष को अग्रधान 
पुरुष कहते हैं । पुरुषवाचक सर्वेनामों की कुछ अयोग विशेषताएँ ये हैं-- 


(क) आदरार्थ आप के साथ बहुबवचन की क्रिया आती है। (ख) कुछ 

सन्दर्भों में मैं” में अहंभाव की झलक होने पर प्रायः नम्रता-प्रदर्शनार्थ हम” का 
प्रयोग किया जाता है। (ग) राजा-महाराजा, मन्द्री, उच्च पदस्थ व्यक्ति द्प/बड़प्पन/ 
श्रेष्ठा के कारण में के स्थान पर 'हम' का प्रयोग करते हैं। (घ) सम्पादक, 
लेखक, समाज-प्रतिनिधि आदि प्रतिनिधित्व के कारण में के स्थाव पर हम' का 
प्रयोग करते हैं। (ड) नगरों में उच्च परिवारों की, अच्छी पढ़ी-लिखी महिलाएँ 
महत्त्व|उच्चता -प्रदर्शन के कारण के स्थान पर 'हम का प्रयोग करती हैं । 
(छ) अपने साथियों की ओर से सामूहिक प्रतिनिधि के रूप में बोलनेवाला वक्‍ता 
हुम! का प्रयोग करता है। ऐसे वाकयों में अनेकार्थी बहुबचन ने हो कर समाहार्थी 
बहुवचन होता है । (छ) कुछ स्थलों पर “हम कां प्रयोग एक व्यक्ति के लिए होने 
के कारण बहुबचन-निश्चितता के लिए 'हम लोग, हम सब, हम दोनों” का प्रयोग 
होने लगा है, यथा--हम. (|हम लोग/हम दोनों) इस काम को कर लेंगे, तुम निश्चिन्त 
रहो (ज) वक्‍ता, श्रोता दोनों का समाहार प्रदर्शंभ हम तुम, हम दोनों” से किया 
जाता है, यथा -माँ को बाजार जाने दो, हम तुम (हम दोनों) दावत में चलेंगे । 
यह हम दोनों की अपनी सम्पत्ति है। (झ्ष) त्‌ का प्रयोग छोटे बच्चे, गेंवार| 
अशिक्षित या निम्नस्तरीय व्यक्ति; पति-पत्नी के मध्य प्यार के अधिक उद्वेग में, 
बराबरवाले, अधिक सामीष्य/आत्मीयता प्रदर्शनार्थ माँ, बड़ी बहुन, ईश्वरं के लिए 
क्रोध में उपेक्षा/अनादर/अवशज्ञा/तिरस्कार/तुच्छता/अपमान प्रदर्शन या गाली देने के 
समय किसी के लिए भी किया जाता है। सामान्य बोलचाल में घनिष्ठ संबंध न होने 
पर तु का प्रयोग असभ्यता की निश्ञानी माता जाता है। (जा) नित्य बहुबचन 
आप' का प्रयोग ओपचारिकतावश अपरिचित व्यक्ति के लिए; आदर प्रदर्शन के 
लिए प्रत्यक्ष/परोक्ष में एक व्यक्ति के लिए किया जाता है। (ढ) अधिक आदर/श्रद्धा 
... व्यक्त करने के लिए अन्य पुरुष के लिए भी “आप' का प्रयोग किया जाता है, यथा--- 
 लालबहादुर शास्त्री यद्यपि निर्धन परिवार में जन्मे थे, तथापि आप के विचार 








सर्वेनाम | 247 


बहुत ऊंचे थे । (ठ) तुम” का प्रयोग अनौपचारिकता में; परिचित/|अपरिचित ष्यक्ति 
के लिए बराबर का या स्वयं से छोटा दर्जा प्रदर्शन के समय किया जाता है। (ड) 
. एक से अधिक श्रोत्ता होने पर प्रायः तुम, आप' के साथ 'सब/लोगख का प्रयोग किया 
जाता है। (ढ) अधिक नम्रता-प्रदर्शन के समय मेरा के स्थान पर आप का का 
प्रयोग देखा जाता है, यथा--गुणष्ता जी, यहू बच्चा किस का है ?--जी, आप का 
ही बच्चा है । द | 
2, निर्देशवाचक सर्वेताम--पास था दूर के विषय (व्यक्ति, पदार्थ) का 
निश्चित निर्देश करते हैं ! इस सर्ववाम को निश्चयवाचक/संकेतवाचक भी कहा जाता 
है। निर्देशशाचक सर्वंतरामों को दो वर्गों में बाँट सकते हैं--(क) सामान्य (ख) 
विशिष्ट । सामान्य निर्देशवाचक के दी भेद किए जाते हैं--/. निकटवर्तो|समीपवर्ती 
निर्देशक पहुँच के अन्दर निकटस्थ या प्रत्यक्ष विषय वस्तु की ओर “यह, ये से संकेत 
करते हैं। 2. दूरवर्ती निर्देशक दूरस्थ, अप्रत्यक्ष, प्रत्यक्ष किन्तु पहुँच से दुर विषय 
वस्तु की ओर वह, वे” से संकेत करते हैं। विशिष्ठ निदेशक श्लादराथ आप' 
किसी व्यक्ति (निकटवर्ती या दूरवर्ती) को संकेतित करता है । 
(क) एक ही वाक्य में प्रयुक्त दो संज्ञाओं में से पहली के लिए दूरवर्ती, दूसरी 
के लिए निकटवर्ती सर्वंनाम का प्रयोग किया जाता है, यथा--सन्‍्तों ओर असन्‍्तों 
में मुख्य अन्तर यह है कि वे अन्य-रक्षा में स्व-प्राण देते हैं, और ये स्व-रक्षा में अन्यों 
के प्राण हर लेते हैं। (ख) निश्चयवाचक सर्वताम पदबन्ध, उपवाक्य के स्थातापन्‍्न 
भी होते हैं, यथा--भारत क्रषि प्रधान देश है, यह सब जानते हैं। तुम ने यथाशक्ति 
परिश्रम किया, इसी से अच्छे अंकों में उत्तीर्ण हुए हो । (ग) कभी-कभी एक व्यक्ति 
के लिए यह, वह के स्थान पर आवराथे ये, बे का. प्रयोग होता है, यथा-पं० 
महावीरप्रसाद द्विवेदी युग-प्रवतेक लेखक माने जाते हैं। उन का जन्म रायबरेली 
जिले में सन्‌ 864 ई० में हुआ था । (घ) संस्कृत के 'सः, सा, तत्‌ , अँगरेजी के 
'ही, शी, इट' पुरुषबाचक अन्य पुरुष स्वनाम हैं; अँगरेजी 'दिस, देठ' निश्चयात्मक 
हैं। हिन्दी में इस प्रकार का विभाजन नहीं है । कक चर 
... 3, अनिश्चयवाचक सर्वनाम--पास या द्वुर के किसी अनिश्चित विषय 
(व्यक्ति, वस्तु) के बारे में बोध कराते हैं। किसी अनिश्चित व्यक्ति के बारे में 
'कोई' शब्द से सूचना मिलती है। किसी अनिश्चित (अप्राणिवाचक) पदार्थ के बारे 
में कुछ' शब्द से सूचना मिलती है, यथा--वहाँ तो कोई सो रहा है । पैरों में कुछ 
पहन तो लो । क्या, कुछ' प्रायः अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण और अनिश्चित 
. परिमाणवाचक विशेषण की भाँति प्रथुकत होते हैं, यथा--कोई लड़की, कोई बात; 
.. कुछ लोग, कुछ फल; उधर कुछ (औरतें) नहा रही हैं, कुछ (लड़कियाँ) कपड़े धो 
.... 4. सस्बन्धवाचक सर्वनाम पूर्व॑वर्ती संज्ञा या सर्वनाम की व्याख्या करनेवाले 











248 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


परवर्ती उपवाक्य से पूर्व आ कर दोनों उपवाक्यों में सम्बन्ध स्थापित करते हैं, 
यथा--यह मेरी (वह) बहन है जो दिल्ली में रहती है। मुझे वही चाहिए जो मैं कल 
लाया था। जो" व्यक्ति, पदार्थ के लिए प्रयुक्त हो सकता है। ओ' के साथ प्राय: 
“वह' का प्रयोग होता है। कभी-कभी 'सो' का प्रयोग भी किया जाता है, यथा--जो 
करेगा सो भरेगा । जो, जिस, जिन! विशेषण का भी काम करते हैं। 'सो, तिस, 
तिन! विशेष्य के रूप में आ सकते हैं। सो जो के साथ ही आने के कारण नित्य 
संबंधी सर्वेवाम भी कहा जाता है। कुछ लोग सो” की गणना निर्देशवाचक “दूरवर्ती' 
सर्वंनाम में करते हैं। यथा--जो बोले सो (/वह) घी को जाए। संबंधवाची “जो”, 
नित्य संबंधी सो” एक ही संज्ञा के बदले आते हैं । 

5. प्रश्तववाचक सर्वेतास--किसी व्यक्ति, पदार्थ या घटनादि के बारे में प्रश्न 
का बोध कराते हैं, यथा--कौन' प्राय: प्राणियों के लिए और "क्या प्राय: अप्राणि- 
वाचक (मानवेतर प्राणिवाचक) पदार्थों तथा भाववाचक संज्ञाओं के लिए प्रयुक्त 
होता है। (क) कर्ता कारक के दोनों वचनों में कौन” का एक ही रूप रहता है। 
क्या अपरिवर्तित रहता है। (ख) लक्षण-ज्ञान हेतु अप्राणिवाचक के लिए 'कौन'! और 
प्राणिवाचक के लिए या” का प्रयोग हो सकता है, यथा--साँप क्या है और मनुष्य 





क्या है, तुम नहीं जानते । पाप कौन है और पुण्य कौन है, यह में अच्छी तरह 


जानता हू । 

(ग) कौन, क्या' के कुछ विशिष्ट प्रयोग ध्यान देने योग्य हैं--वे मेरा क्या 
कर लेंगे ? तू मुझे क्या (खाक) मारेगा ! तुम ने नाश्ते में आज क्‍या (क्या-क्या) 
बनाया है ? कुछ ही घंटों में क्या से क्‍या हो गया ! घर में कौन (/कौन-कौन) बैठे 
हैं? आप कौन-सी (कोठी) में रहते हैं ? क्या दिन में भी सो रहे हो ? (क्या >क्यों) 
अरे, तुम यह क्‍या कर बेठे ? 


6. निजवाचक सर्वनाम--पुरुषवाचक स्वनाम का समानाधिकरण होता 
है । निजवाचक स्वेनाम “आप' दोनों वचनों और तीनों पुरुषों में समान रूपी रहता 
है। आप' के अन्य समानार्थी शब्द स्वयं, (अपने) आप, खुद, स्वतः, ख्‌ द-ब-ख द 
का अथे है--बिना किसी की सहायता या प्रेरणा के, यथा--बे आप/स्वयं 
जाएँगे । वह ख दआप ही गड़ढे में गिर रहा है। (क) निजवाचक “आप' के साथ 
. केवल “ता/-ती/-ने ही बाते हैं, जब कि पुरुषवाचक आप' के साथ 'का/की के 


आते हैं। (ख) वाक्य में कर्ता से सम्बद्ध संबंध कारक में केवल अपना/अपनी/अपने! क्‍ 


का विशेषणवत्‌ प्रयोग होता है, यथा--मीता ने अपनी पुस्तक पढ़ ली है ('मीता की' 
अशुद्ध प्रयोग) । उन्‍्हों ने अपना घर बेच दिया (“उनका अशुद्ध प्रयोग)। कौन 
अपने पिता के साथ आया है ! ('किस के” अशुद्ध् प्रयोग) | मैं/वह|बे आप को 


... अपना मानते हैं। (ग) एक से अधिक उपवाक्यों में तत्संबंधी कर्ता के साथ अपना|.. 
.... अपनी/बपने का श्रयोग होता है, यथा--मधु ने अपनी साड़ी पहनी है और रेखा ने _ ५; 


सर्वेनाम | 249 


अपना सूट । (घ) संज्ञावत्‌ प्रयुक्त अपने” के पश्चात्‌ आवश्यकतानुसार ो, से, में, 
पर, लिए' का प्रयोग होता है, यथा--तुम' अपने को पहचानों | वे अपने में ही मग्न 
रहते हैं। वह अपने से ही कुछ कहता रहता है। मुझे अपने पर ही बहुत क्रोध आ 
रहा है । (ड) अधिक बल देने के लिए अपने के साथ अवधारक “आप” का प्रयोग 
किया जाता है, यथा -तुम अपने-आप को पहचानों । वे अपने-आप में ही मग्न रहते 
हैं । वह अपने-आप से ही कुछ कहता रहता है। मुझे अपने-आप पर बहुत क्रोध आ 
रहा है। (च) अव्यय वत्‌ प्रयुक्त अपने-आप के स्थान पर स्वयं/खद” का प्रयोग 
सम्भव हैं, यथा--क्या इतना सारा काम तुम ने अपने-आप (/स्वयं/ख्‌ द) किया है? 
(छ) कर्ता के तुरन्त बाद “आप' का प्रयोग व्यावर्ती अवधारक (#ऋण[प्रश्न॑ए८ शाए4- 
४०) की भाँति होता है । यहाँ कर्ता बिना किसी अन्य की इच्छा के स्वयं ही क्रियाशील 
रहता है यथा--रोओ मत, बच्चे आप ही था रहे होंगे (यह भी अव्ययवत्‌ प्रयोग है । 
इसे निजवाचक का कतु रूप नहीं माना जा सकता) | (ज) अपना -- निजी (विशेषण- 
वत्‌) प्रयुक्त, यथा--क्या संस्थान किराये के भवन में है ?--नहीं, संस्थान का 
अपना भवन है। क्‍या यह आप के भाई की गाड़ी है ?--जी नहीं, यह मेरी 
अपनी गाड़ी है (झ) बहुवचन कर्ता होने पर अपना” की पुनरुक्ति, यथा---आप सब 
अपने-अपने स्थान पर बैठ जाएँ। बच्चों ! सब अपनी-अपनी कॉपी निकालो । (ञ) 
सम्बन्ध कारक स्वंनाम (विशेषणवत््‌ प्रयुक्त) पर बल देने के लिए अपना का प्रयोग, 
यथा--यह हमारा अपना काम है। रेल आप की. अपनी सम्पत्ति है । उस की भी 
अपनी कोई मजबूरी होगी। (5) अपना” का अनावश्यक तथा अशुद्ध प्रयोग--- 
%# अपना कोन है इस दुनिया में । <& अपने (अपन) को भी कुछ मिल जाता तो 
भला हो जाता। +*%£अपनी राय यही है कि । (5) कर्ता से असम्बद्ध 
कारक में अपना नहीं आता, यथा--मैं|वह/वे उसके कमरे पर गए। (3) कर्ता, 
कर्म (प्राणिवाचक) होने पर अपना” कर्ता से सम्बद्ध, यथा--उन्हों ने हनीफ को 
अपनी कोठी दिखाई । एक दिन में तुम सब को अपने घर ले जाऊँगा । अब हम 
तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़े जा रहे है। (इस प्रयोग में कर्म के अनुरूप सम्बन्ध 
कारकीय शब्द आता है-- मुझे मेरे हाल पर; हमें हमारे हाल पर; आप को आप के 
हाल पर आदि) | (ढ) वाक्य के कर्ता से अपना' का सम्बन्ध जुड़ता है, यथा--- 
मैं ने अपने बच्चों को अपनी बहन के घर भेज दिया है । मैं ने अपने बच्चों को उन की 
बहन के घर भेज दिया है । मैं ने उन के बच्चों को अपनी बहन के घर भेज दिया 
है। मैं ते उन के बच्चों को उन की बहन के घर भेज दिया है। (ण) आप मुझे 
अपनी डायरी पढ़ लेने दें (डायरी आप की है/डायरी मेरी है) जैसे समस्यात्मक वाक्य 

का शब्द-क्रम से वांछित अर्थ प्राप्त हो सकता है--आप अपनी डायरी मुझे पढ़ लेने दें. 
(-“डायरी आपकी है) । आप, मुझे अपनी डायरी पढ़ लेने दें (--डायरी मेरी है) । 
(त) निजवाचक 'आप' का प्रयोग किसी अन्य व्यक्ति के निराकरण के लिए भी 
होता है, यथा--5न्‍्हों ने मुझ से तो ठहरने को कहा और आप न जाने किधर 











250 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


खिसक गए । तुम औरों को नहीं, अपने को सुधारने की सोचों। (थ) अवधारणार्थ 
आप' के साथ ही” जोड़ते हैं, यथा--मैं तो आप ही चला आया करू गा। क्या तुम 
इस काम को आप ही कर लोगे ? यह पेड़ आप ही गिर गया । 


संयुक्त सर्ववाम अर्थ और प्रयोग की दृष्टि से सम्बन्धवाचक, निश्चयवाचक 
और अनिश्चयवाचक के समान हैं तथा संरचना की दृष्टि से दो सामान्य/प्तरल सववेनामों 
तथा विशेषण आदि का योग होते हैं, यथा--जों कोई, सब कोई, हर कोई, और 
कोई, कोई और, जो कुछ, सब कुछ, और कुछ, कुछ और, कोई एक, कोई 
भी, कुछ एक, कुछ भी; हर एक, प्रत्येक; कोई न कोई, कुछ न कुछ; कोई-कोई, 
कुछ-कुछ ु 
सर्वनाम-रूपान्तर-- पुरुष, वचन तथा कारक के आधार पर होता है। सब्व- 
नामों में लिंग भेद का अभाव है। संज्ञा की भाँति सवेनामों के भी कारक-चिहृ न 
रहित ऋणजु' (/मूल|सरल/अविकृत) तथा कारक चिह न-सहित तिय॑क्‌ (/विकृत) रूप 
होते हैं। वचन और कारक के आधार पर रूपावली की दृष्टि से सर्वतामों के चार 
उपवर्ग बनते हैं--- 


उपवर्ग ---]. पुरुषवाचक (उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष) सवेनामों की रूपावली 

एक० मैं---मैं, मैं ने, मुझ को (सिमिं/१२), मुझे, मेरा/मिरी/मिरे 

बहु० हम--हम, हम ने (को/से/में/पर), हमें, हमारा/हमारी/हमारे 

एक० तु-तू, तू ने, तुझ को ((सेमें/पर), तुझे, तेरा/तिरी/तिरे 

बहु० तुम--तुम, तुमने (/को/सि/में/पर), तुम्हें, तुम्हारा/तुम्हारी/तुम्हारे 

उभय० आप---आप, आप ने (/कोसि/में/पर/का/की/के ) 

अवधारक 'ही' निपात के साथ आने पर इन के तियेक्‌ रूप 'मुझ, हम, तुझ, 
तुम, आप” के रूप इस तरह के होते हैं--मुझी, हमीं, तुझी, तुम्हीं, आप ही । 

द उपवर्ग --2. निश्चयवाचक-(समीपवर्ती, दुरवर्ती), सर्वेतामों की रूपावली 

एक० यह--यह, इस ने (/को/सि/में/पर/का/की/के), इसे 

बहु० ये--ये, इन्हों ने, इन को ((सि/में/पर/का/की/के), इन्हें 

एक० वह--वहू, उस ने (/को/सि/में/पर|का/की/के ), उसे 

बहु० बे--वे, उन्हों ने, उन को ((सि/में/पर/का/की/किे), उन्हें 





 अवधारक 'ही'” निपात के साथ आने पर इन के तियंक रूप इस, इन्हों, उस. 


उन्‍्हों' के रूप इस तरह के होते हैं--इसी, इन्हीं, उसी, उन्हीं | 
क्‍ उपवर्ग ---3. प्रश्नवाचक, सम्बन्धवाचक सर्वंनामों की रूपावली 
एक ० कौन, क्या--कौन, क्या, किस ने (को/पि/में/पर/का/की/के), किसे ५ 
हे ..._ बहु० कौन, कक्‍्या--कौन, क्‍या, किन्‍्हों ने, किन को (/सि/में/पर/|का/की/के), 
. किन्‍हें 





सवंनाम | 25] 


एक ० जो--जो, जिस ने (/को/सि/में/पर/का/की/के), जिसे 

बह० जो--जो, जिन्‍्हों ने, जिन को [से/में/पर/का/की,कि), जिन्हें 

एक० सो- सो, तिस ने ((को/सि/में/पर/का/की/के), तिसे 

बहु० सो--सो, तिन्‍हों ने, तिन को ((से/मिं/पर/का/की/के, तिन्‍हें 

नित्य संबंधी सो” उस के अन्य रूपों का बहुत कम प्रयोग होता है । 

उपदर्ग --4. अनिश्चयवाचक सव्वेनचामों की रूपावली 

एक ० कोई--कोई, किसी ने (/कोसि/में/पर/का/की/के ) 

बहु० कोई--किन्‍्हीं, ने (/को/से/में/पर/का/की/के ) 

उभय० कुछ--कुछ, कुछ ने (को/सि/में/पर/का/की/के) 

(।) हम समाहारार्थी बहुवचन है, मैं का अनेकवाची बहुवचन नहीं क्‍योंकि 
किसी भी क्षण अनेक मैं नहीं हुआ करते । (2) स्थानापन्‍्त संज्ञाके वचन से स्वेताम 
का वचन प्रभावित होता है और सर्वनाम के वचन से क्रिया का वचन । (3) प्रश्त- 
वाचक; अनिश्चयवाचक, संबंधवाचक सवंनतामों के ऋजु रूप का वचन-भेद क्रिया रूपों से 
व्यक्त होता है, सर्वंताम रूपों से नहीं | (4) क्रिया के पुरुष भेद से स्वोनाम के पुरुष 
भेद की अभिव्यक्ति होती है। (5) क्रिया के लिंग भेद से सवंनाम को लिंग भेद की 
अभिव्यक्ति होती है। (6) प्रश्ववाचक तथा अनिश्चयवाचक कर्ता के चयन में प्राणी- 
अप्राणी भेद का प्रभाव पड़ता है। (7) कौन, कया, जो, उस, कोई की पुनरुक्ति 
से कथ्य में कुछ बल आ जाता है, यथा--कौन-कौन आ गया है (/आ गए हैं); बेटे; 
अब तक तुम ने क्या-क्या पढ़ लिया है ? जो-जो आता जाए (/भाते जाएँ) उस-उस 
(/डन-उन) को सही जगह पर बिठाते जाओ । कोई-कोई काफी समझदार होता है 
(हिते हैं) इतना दु:ःखी होने की आवश्यकता नहीं है, कोई-न-कोई भा ही रहा होगा । 
किसी-व-किसी ने तो तुम्हें देखा ही होगा । (8) सर्वताम संयोगों/संयुक्त स्वनामों 
में 'कोई/किसी दूसरे सदस्य के रूप में होने पर 'अनिश्चय का भाव” बढ़ जाता है, 
यथा--जो कोई प्रथम आएगा, पहला इनाम पाएगा । जिस किसी के पास कोई भी 
अतिरिक्त सामग्री हो, उसे इसी समत यहाँ रख जाए। (9) कुछ अन्य प्रयोगार्थ-- 
में आप आया हूँ (-स्वतः)--मैं अपने आप आया हूँ (>-अपनी इच्छा से) । 
वह्‌ आप-ही-आप बोल रही थी (अन्य श्रोता नहीं था)। जो सोएगा सो खोएगा 
( 55 निश्चय)--जो कोई सोएगा"'“' (अनिश्चय) | जो-जो जाएं, उसे जाने दो 
(:5एक से अधिक) । फोई आया है / आए हैं (+>भनिश्चित एक/अनिश्चित अनेक) 
कोई-कोई यह भी कहते हैं. “(--कुछ लोग) । सब कोई ऐसा कहते हैं (+- सब) 
हर कोई ऐसा ही कहता है (+- प्रत्येक व्यक्ति) । कोई-व-कोई कार्यालय में होगा 
( - एक-न-एक) । कोई-सी साड़ी पहन लो (-- अनेक में से कोई) । कोई और (/कोई 
दूस रा/और कोई/कई अन्य) इस बात को न जाने । खाने को कुछ हो तो दो खाने को 
सब कुछ तो है। खाने को बहुत कुछ (|इतना कुछ) तो है। खाने को कछ और 
चाहिए। ( >पदार्थे मात्र) | खाने को और कुछ चाहिए (-- पदार्थ-प्रकार) | खाने को 











252 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


कुछ-न-कुछ तो चाहिए ही (+>कोई भी पदार्थ) । उन्हें कुछ-कुछ हरारत है ( - थोड़ी) । 


उन्हों ने कुछ का कुछ मान लिया (5-कुछ भिन्‍न) । उधर कौन है (+ एक)--उधर 
कोन-कोन है ((हैं) (प्रत्येक के विषय में जिज्ञासा/एक के विषय में जिज्ञासा) | बे 
कौन-सा (उपन्यास) पढ़ रहे थे ? कल और कौन आया था? (-परिचित से 
इतर) । द 

सर्वनासों के प्रकार्य--विभिन्‍न स्वनामों का वितरण तथा प्रयोग-अर्थ|प्रकार्य॑ 
ये हैं-- 

(।) वाक्यों में सर्वनाम मुख्यतः कर्ता, कम के स्थान पर और कभी-कभी 
पूरक स्थान पर आते हैं । पदबन्धों में ये शीष स्थान पर, सम्बन्धवाचक विशेषण के 
स्थान पर आते हैं, यथा--में नहा रहा (/रही) हूँ । (कर्ता) सिपाही उसे (/उस को 
उन्हें/उन को/किसे/किस को/किन्हें/किन को/किसी को/डसी को पीट रहा था। (कम); 
आप (वे/ये) कौन हैं (/थे) ? (पूरक); तू मुझ से (हम से/उससि/उन से) क्यों 
डरता (/डरती) है ? (शीर्ष स्थान) । घुझ पर (/हम पर/उस पर/उन पर/किसी पर) 
कुछ तो विश्वास करो । (शी स्थान) | बच्ची उन के साथ (/किस के साथ/किन के 
साथ) बाजार गई है (/थी) ? (शीर्ष स्थान)। वहाँ जा कर तुम मेरा नाम 
(|उस का/आप काहमारा/उन का/किसों का नाम) मत लेना। (सम्बन्धवाचक 

विशेषण के स्थान पर) 
द (2) सम्बन्धवाचक सर्वताम “जो” केवल मिश्रवाक्यों के आश्रित विशेषण 
उपवाक्यों में ही आता है, यथा--जो सोता है सो खोता है। जिस ने ऐसा कहा था 
वह कहाँ गया ? 

(3) सम्बन्धवाचक सर्वेताम “जो के बिना न आनेवाले नित्य सम्बन्धी सो 
केवल मिश्रवाकयों के प्रधान उपवाक्यों में आता है, यथा---जो बोएगा सो काठेगा । 

(4) पुरुषवाचक में, हम, तू, तुम, आप' संज्ञा के पूरे कभी भी विशेषण 
 -वत्‌ प्रयुक्त नहीं होते , द 
.... (5) निजवाचक आप' कभी भी कर्ता कारक में प्रयुक्त नहीं होता । इस 

के दो रूप अपने; अपने आप! हैं। वे रूप दोनों लिगों, दोनों वचनों और तीनों 


: पुरुषों के लिए आ सकते हैं । अपने आप' से अथे में अधिक सशकतता आ जाती है। हु 


अपने आप' के साथ से/को/में/पर|के लिए आदि भी आ सकते हैं। 


(6) निश्चयवाचक, प्रश्नवाचक, अनिश्चयवाचक सर्वनाम विशेषणवत्‌ भी... 
प्रयुक्त होते हैं तथा संबोधन के अतिरिक्त अन्य सभी कारकों में आते हैं, यथा--यह 
.... (औरत) उधर जा रही है, ओर वह (औरत) इधर आ रही है । आप क्या/|कौन-सी 

.. (मिठाई) खाएँगे ? घर में कोई (आदमी) नहीं है।... हे 
। (7) सम्बन्धवाचक तथा नित्यसंबंधी सर्वेताम केवल मिश्रवाकयों में आते हैं। . 


पड इयइताजर--7० २ सरइकाजााबानुककाकतनएका० २८ "5 --- 


सर्वताम | 253 


वे विशेषणवत्‌ भी प्रयुक्त होते हैं और पहले सातों कारकों में आते हैं, यथा--जिस 
(थाली) में खाते हो उसी में छेद करते हो। जो जाग्रेगा सो पाएगा । द 

(8) मुझ, हम, तुझ, तुम, इस, उस, इन, उन, किस, किन' में निश्चयार्थी _ 
'ई< ही के योग से निश्चयार्थक रूप बनते हैं। -ई<ही के योग के समय कुछ 
ध्वन्यात्मक परिव्तंत भी हो जाता है, यथा--मुझी, हमीं, तुझी, तुम्हीं, इसी, उसी, 
इन्हीं, उन्हीं, किसी, किन्हीं' 

(9) एकवचन कुछ परिमाणबोधक और बहुवचन “कुछ' संख्याबोधक है। 

(0) तुम, आप आदराथ्थ एकवचन के शब्दों में तुम” निश्चित कोटि का 
शब्द है। इन के बहुवचन होते हैं--तुम लोग, आप लोग । वक्ता की दृष्टि से 
श्रोताओं में यदि एक भी “आप' स्तर का है, तो वक्‍ता तुम लोग” न कह कर “आप 
लोग (आप सब/आप दोनों/आप सभी) कहता है । 

() मुझे आप को (तुम्हें) दस रुपये देने थे (/तुम्हें या आप को मुझे दस 
रुपये देने थे) में व्याकरणिक कर्ता, प्राप्तिकर्ता दोनों में 'को” के कारण अथे में श्लेष 
है। ऐसे वाक्यों की संदिग्धत। को इस प्रकार दूर किया जा सकता है--मेरे आप 
(तुम) पर दस रुपये थे या आप के (तुम्हारे) मुझ पर दस रुपये थे। 'मुझे/मुझ को, 
हम पर' के स्थान पर "मेरे को, हमारे पर” जेसे प्रयोग अमानक हैं । 

(42) तू तुम, आप' के चयन में उच्चता (?०७०/), घनिष्ठता ($0॥- 
0877) का प्रभाव पड़ता है। उच्चता के प्रभावित करनेवाले तत्त्व हैं--वय, पद, 
शक्ति, धन, लैंगिकता का सामाजिक महत्त्व, संस्थागत सम्बन्ध, रिश्ता आदि। 
घनिष्ठता को प्रभावित करनेवाले तत्त्व हैं--रिश्तेदारी, मित्रता, नौकरी का पुरानापन 
आदि। तू-तुम-आप के चयन पर उच्च, सामान्य/मध्य, निम्न स्तर-भेद का सापेक्षिक 
प्रभाव पड़ता है, घनिष्ठता का अधिक । तुम-आप, तू-तुम के चयन में घनिष्ठता का 
प्रभाव पड़ता है। सामान्यतः: अधनिष्ठ-> घनिष्ठ->अतिघनिष्ठ के क्रम में आप->तुम 
->तू का प्रयोग होता है। नया (कभी-कभी पुराना भी) घरेलू नौकर छोटे मालिक 
को “आप' कहता है। मध्यमवर्गीय परिवारों में पिता के लिए “आप; माँ के लिए 
तुम” का प्रयोग सामान्य है। सम्ध्रान्त/उच्च वर्गीय परिवारों में दोनों - “आप हैं 


निम्नवर्गीय परिवारों में दोनों तृ/ हैं। भाई, बहन आदि के साथ भी इन शब्दों के... 


चयन में विभिन्‍न स्तरीय परिवारों में भिन्‍नता देखी जाती है । 


आप' के साथ आओ/जाओ/मत खाओ' जैसे प्रयोग पंजाबी के प्रभाव के _ 
कारण चल पड़े हैं, जो हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप न होने के कारण अमानक हैं । 
कभी-कभी व्यंग्य में या दिखावटी/बनावटी आदर दिखाने के लिए निम्नस्तरीय व्यक्ति 
को आप' कह देते हैं। आरम्भिक कक्षाओं के अहिन्दी भाषी छात्रों को तु! सिखाने 
की कोई आवश्यकता नहीं है। मराठी, गुजराती भाषी आप? के स्थान पर प्रायः 
तुम का प्रयोग करते हैं क्योंकि दोनों भाषाओं में “आप” के समानार्थी शब्द क्रमश 





254 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


तुम्हीं, तमे हैं । इन भाषाओं में तुम के लिए क्रमशः तू, तु हैं। आजकल मानक 
हिन्दी में आप' का प्रयोग अधिक बढ़ रहा है | द 

(3) आप' का अनियमित रूप आपस, केवल सम्बन्ध कारक तथा अधि- 
करण कारक में आता है, यथा--आपस की फूट से लोग बर्बाद हो जाते हैं। पति- 
पत्नी को आपस में सनन्‍्तुलन बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए । 

(4) उर्दू शैली के प्रभाव के कारण वह, वे के स्थान पर वो' का 
उच्चारण अधिक सुनाई पड़ता है, यथा--उन के देखें से जो आती है रौनक मुह 
प्र, वो' (< वह) समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है । 

(5) यह का एक प्रयोग क्रियाविशेषणवत्‌ भी मिलता है, यथा--लो, मैं 
तो यह चली' अपने नेहर । द 

(6) “किस के स्थान पर कुछ बोलियों में, उद्द बोलनेवालों में, काहे को| 
सेकि लिए|का” आदि प्रयोग मिलते हैं। हिन्दी में ये अमानक प्रयोग माने जाते हैं । 

सर्वनामों की पुनरक्ति-- व्यष्टि, अवधारण, विकल्प आदि अर्थ व्यक्त करती 
है, यथा--तुम तो बताते ही नहीं कि उस ने क्या-क्या कहा था ? किस-किस को 
दावत में बुला रहे हो ? पता नहीं वे किन-किन को न्योता दे आए हैं। जिस-जिस 
से पूछा, उस-उस ने सिर हिला दिया । सब को अपनी-अपनी सूझती है । इन कविताओं 
में से तुम ने कौन-कौन सी पढ़ ली हैं ? इन मिठाइयों में से तुम्हें कौन-कौन सी अच्छी 
लगती हैं ? द 
क्या (+का|सि--) क्या का अथे है--बहुत या बिलकुल बदल जाना 
यथा--छह महीने में ही वह क्‍या का (सि) क्‍या हो गया ! किसी को पता ही नहीं 
चला कि क्‍या से क्‍या हो गया । द 

सब के सब मेंले की ओर लपके जा रहे थे । वहाँ जितनी दुकानें थीं सारी 
की सारी जल कर राख हो गई। अब तो तुम ठीक हो गई हो ? हाँ, हो तो गई हूँ . 
क्‌छ-फ्छ । 

वेसा (+का) वसा का अर्थ है--पहले जैसा ही/पहली स्थिति में/पहले जैसी 
ही, यथा--जुमींदार को इज्जुत ऊपर से तो बसी की वेसी बनी हुई है, लेकिन भीतर 
से खोखली हो चुकी है । 

कोई/कुछ (-+न) कोई/कुछ विकल्प सूचक हैं, यथा--जच्चा-बच्चा के पास 
आज रात किसी न किसी को रहना ही चाहिए। हाँ, कोई न कोई तो रहेगा ही । 


आप को कुछ न कुछ तो लेना ही होगा | 'कोई-कोई' व्यष्टि के पुट के साथ अनिश्चित... 
. अनेकत्व का सूचक है, यथथा--कोई-कोई ऐसा भी कहते हैं “। किसी-किसी को... 


ही ऐसी सुविधा मिल पाती है । दर 
कि. ख्‌ द-(-- -ब-) ख्‌द का अर्थ है -काये का स्वयं होना, यथा--तुम इस 
.. मामले को एक दिन में खुद ब खुद समक्ष जाओगे । हे 





सर्वनाम | 255 


संयकक्‍त सर्वनामों के प्रयोग--संबंधवाचक, निश्चयवाचक तथा अनिश्चयवाचक 
सर्वेतामों की भाँति संयुक्त सवंनामों का स्वतन्त्र और विशेषक के रूप में प्रयोग होता 
है, यथा--सब कोई जानते हैं कि वह अच्छी औरत नहीं है। हर कोई उस की 
कमाई का स्रोत जानता है। तुम नहीं, यहाँ कोई और ठहरेगा । किसी और से यह 
मत कह देना कि मैं ने जो कुछ जाता अपने पिता से जाना। आज तुझे 
सब कछ बताना ही पड़ेगा । कोई एक आप से मिलने आया है। ऐसी घड़ी तो 
कोई-भी (/कोई-कोई) खरीद सकता है। हर एक को उत्त की क्षमता तथा योग्यता 
के अनुसार काम मिलना चाहिए। तुम हर बार कोई न कोई चीज माँगती ही रहती 
हो । किसी न किसी को तो घर पर रहना ही होगा । तुम्हें कुछ न कुछ तो लेना ही 
होगा । पिताजी को आराम है ?-- हाँ, कुछ-कुछ है । 

वितरण के आधार पर सर्वंनामों का वर्गीकरण--वाक्य के अन्य शब्दों के 
साथ आने की दृष्टि से सवंनामों को दो वर्गों में बाँठा जा सकता हैं--. संज्ञा- 
सवंनाम 2. संज्ञेतर सबंनाम । अपने प्रका्य के आधार पर एक ही सर्वनाम संज्ञा 
स्वेनाम भी हो सकता है और संज्ञतर स्वंनाम भी, यथा--कोई भा रहा है (संज्ञा- 
सर्वताम), कोई लड़की आ रही है (संज्ञ तर स्वंनाम) । चाहे यह ले लो, या वह--- 
चाहे यह साड़ी ले लो या वह शाल | संज्ञा-सर्वनाम संज्ञा शब्दों को इंग्रित करते हैं 
और संज्ञाओं की भाँति ही वे उद्देश्य, कर्म या विधेव के नामिक अंश होते हैं । 
संज्ञान्सवंनामों में इन शब्दों की गणना की जाती है--मैं, हम, तू, तुम, आप, यह, 
ये, वह, वे; कौन, कया; स्वयं, आप; जो; अपना; सब; कोई, कुछ । आप, स्वयं, 
कुछ' के भतिरिकत अन्य सभी के रूप बदलते हैं। 2. संज्ञ तर सर्वंनास संज्ञा से इतर 
शब्दों (विशेषण, संख्या, क्रियाविशेषण) को इंगित करते हैं। वाक्य में ये विशेषक का 
काम करते हैं | संज्ञ तर सर्वनामों में इन की गणना की जाती है--यह, वह, ये, वे, 
ऐसा, वैसा; क्‍या, कौन, कसा, कौन-सा; मेरा, हमारा, तेरा, तुम्हारा, अपना; जो, 
जैसा; आप, स्वयं, खु द, सब, सारा, समस्त, समूचा, तमाम, हर, प्रति, कोई, कुछ; 
इतना, उतना; कितना; जितना; कई, अनेक, चन्द, बाज । संज्ञंतर सर्वनामों के 
विकारी और अविकारी रूप विशेषणवत्‌ होते हैं । 

कई सर्वतामों के अवधारक रूप एकवचन में ही/-ई से युक्त हो कर तथा 
बहुवचन में ही/-इं से युक्त हो कर अर्थ को और अधिक सशक्त बना देते हैं। सवेनामों 
के अवधारक अविकारी और , विकारी रूप ये हैं--में ही, हम ही/हमीं, तू ही, तुम 
ही/तुम्हीं, यही, ये हो, वही, वे ही; मुझी, हमीं, तुझी, तुम्हीं, इसी, इन्हीं, उसी, 
उन्हीं । अन्य पुरुषवाचक और निर्दशवाचक स्वंधामों के अवधारक रूप एक-से ही 
होते हैं। निश्वयबोधक 'सब' का अवधारक रूप 'सभी” बनता है। सर्वतामों के ये 
अवधारक रूप उद्देश्य, कर्म तथा विधेय के नामिक अंश के रूप में प्रयुक्त हो सकते... 
हैं, यथा--क्या चुहलबाजी के लिए हमोीं रह गए हैं। तुम्हीं जाओ और उन्हीं को 
बुला लाओ | आप की डायरी वही थी । सभी जा चुके है।... कै 











संज्ञा या सर्वंनाम (कभी-कभी विशेषण) शब्दों की विशेषता या वस्तु के लक्षण 
बतानेवाले शब्द विशेषण या विशेषक होते हैं। जिस संज्ञा या सर्वताम शब्द की 
विशेषता बताई गई हो, वह विशेष्य कहलाता हैं, यथा--उस का घर बड़ा (/नया| 
विशाल) है। में बड़ा ((विशाल/[नया) घर खरीदना चाहता था। विशेषण का प्रयोग 
विशेष्य के पूर्व भ्षी हो सकता है, विशेष्य के पश्चात्‌ भी। विशेषण शब्द वस्तु के _ 
गुण, लक्षण या विशेषता को नामोद्दिष्ट करते हैं। ये विकारी तथा अविकारी होते 
हैं। विकारी विशेषण (अपने विशेष्य के) लिंग, वचन तथा कारक के अनुसार बदलते 
हैं। वाक्य में ये विशेषक तथा विधेय के अंश होते हैं। कभी-कभी ये उद्देश्य, कर्म 
या अन्य अंग भी हो सकते हैं । 


विशेषण-भेंद--व्यक्तियों तथा पदार्थों में अनेक प्रकार की विशेषताएं (गुण- 
वगुण) पाई जाती हैं । व्यक्तियों/पदार्थों में प्राप्त विशेषताओं के आधार पर विशेषणों 
के तीन वर्ग बनाए जा सकते हैं--. गुणबोधक 2. संख्याबोधक 3. परिमाणबोधक । 


रचना की' दृष्टि से विशेषणों के दो प्रकार होते हैं--(क) मूल (ख) व्युत्पन्न। ; 


उपयुक्त तीन वर्ग मूल विशेषणों के प्रकार हैं । व्युत्पत्ति के आधार पर भी विशेषणों 
को तीन वर्गों में रखा जा सकता है---]. सावेनामिक 2. कृदन्ती 3. सादृश्यवाचक । 
इन में कुछ विशेषण एक वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ संबंध-लक्षण व्यक्त करते हैं, 
अतः उन्हें संबंधवाचक विशेषण भी कह सकते हैं। इन विशेषणों से व्यक्त लक्षण 
वस्तू में निहित रहते हैं, कम या अधिक नहीं हो सकते । ये प्राय: संज्ञा, क्रिया, शब्दों 
से बनते हैं, यथा--उद्योग->ओदुयो गिक, पहाड़->पहाड़ी, निकलना->निकला (हुआ), 
फटना->फट्टी, भीतर -2 भीतरी, ऊपर-> ऊपरी । द 


.._]. गणबोधकगुणवाचक विशेषण--संज्ञा (विशेष्य) के इन्द्रियों से अनुभुत 


.. विविध गुणों-अवगुणों/लक्षणों का बोध कराते हैं। ये विशेषण अपने विशेष्यों के... 
: अग्रलिखित वर्गों के गुणावगुण का बोध क्राते हैं--- की] 
पे -" देकह बा 


विशेषण | 257 


() गुण--मीठा तरबूज, झूठी बात, चतुर लड़की, अशान्त चित्त, सूनी 
माँग, सहृदय माँ । मूखे, मजबूत, उद्यमी, भला, बुरा, सच्ची, झूठी आदि । 

(2) आकार/आयतन|परिसाण--लम्बा पेड़, चौड़ी स्क्रीन, चौकोर/गोल 
मंदान, लंबी/छोटी लड़की, बड़े-बड़े कंकड़ । मोटा, पतला, ठिगना, चिपटा, सुडौल, 
तिरछा, तुकीला, सीधा, टेढ़ा, सकेरा, तिकोना, नाठा, नीचा, ऊँचा आदि । 


(3) रंग--लाल वस्त्र, पीले गाल, नीला ब्लाउज, हरी घास, श्वेत पत्र, 
काली साड़ी, भूरा खरगोश, सर्फ द कांगूजु। चंपई, गेंदई, गुलाबी, बैंगनी, सुरमई, 
नारंगी, आसमानी, तामई, रूपहला, सुनहरी, चमकीला, ध्‌धला, फीका, मटमैला, 
सिन्दूरी, खाकी, गेहआ, जामनी/जामुनी, फालसई/फालसी, प्याजी, अंगूरी, बादामी', 
धानी, मूं गिया, गेहुंआ, फीरोजी । 

हिन्दी में सात मूल/आधारभूत तथा अन्य व्युत्पन्न रंग-नाम हैं। इन में से 
कुछेक के संस्कृत, उद्द समानार्थी भी प्राप्त हैं, यथा--लाल (रक्तिम|सुखे), पीला 
(पीत/जुर्द), हरा (/हरित|सब्ज), नीला (/नील), भूरा ((पिगल), काला ((श्याम| 
स्याह), सफ द (/श्वेत) । रंगों की छटाएँ/तीव्रता 'हलका/गहरा/गाढ़ा' शब्द जोड़ कर 
व्यक्त करते हैं । कभी-कभी रंग से मिलती-जुलती चीज का प्रयोग किया जाता है 
यथा--हल्‍्दी जेसा पीला, खू न-सा लाल, काई-सा हरा, थोथे जैसा नीला, दूध-सा 
सफे द, कोलतार जेसा काला आदि । कभी-कभी केवल रूढ़ रंगों की पुनरुक्ति का 
प्रयोग किया जाता है, यथा--काले-काले बाल, भूरी-भूरी आँखें, लाल-लाल गाल 

हरे-हरे पत्ते आदि। व्यक्ति गोरे, काले, साँवले, पीले होते हैं, भूरे, स्फ द नहीं । 
मुहावरों में प्रायः आधारभूत रंग शब्द प्रयुक्त होते हैं, यथ/--काली करतूत, लाल 
टोपी, तबीयत हरी होता, मं ह काला करना, काले कारनामे, काला युग, मन काला 
होना, लाल फीता, लाल बत्ती, चेहरा नीला (/फ्क/पीला) पड़ना, मन साफ होना 
गाल लाल होना । न्‍ 


(4) दशा--पतला दुध, सूखे पत्ते । घना, गाढ़ा, पिघला, गीला, सूखा, 
ग्रीब, निर्धन, धनवान, मालदार | द 

(5) काल--प्रावीव कथा, तवीन विचार, भावी योजना, विगत दिवस, परसों 
की बात, सुबह का भूला । अर्वाचीन, आधुनिक, अपक्ष शकालीन, सायंकालीन, प्रातः 
कालीन, नया, पुराना, ताजा, बासी, मौसमी, भूत, वर्तमान, भविष्य, अगला, पिछला 
दोपहर का, सबेरे का, रात का, रात्रिकालीन, आगामी आदि । 


(6) स्थान--बनारसी साड़ी, कश्मीरी महिला, रूसी बेले, ग्रामीण भाषा, 
नागरिक लोग, पहाड़ी रास्ता, मद्रासी' लोग, भारतीय संविधान, ईरानी भाषा। 
भीतरी, बाहरी, स्थानीय, पड़ोसी, दुरवर्ती, निकटवर्ती आदि । आओ 

[7 





258 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


द (काल, स्थान वर्ग के विशेषणों में स्थान/समय से वस्तु-घटनादि का संबंध 
होता है, तथा देश/जाति के होने का भाव होता है) 

(7) स्वभाव--अच्छा मालिक, भला बेटा, सीधी बच्ची, दुष्ट अधिकारी 
नेक नौकर, चिड़चिड़ा बच्चा । दयालु, आलसी, बुरा, कायर, वीर, पालतू, पापी क्‍ 
दानी, न्‍यायी, शांत आदि । 

(8) शारीरिक स्वास्थ्य लक्षण/अवस्था/आयु--स्वस्थ' महिला, जवान बधिया 
बीमार बच्ची । बृढ़ा/बृढ़ी, अन्धा/अन्धी, लगड़ा/लंगड़ी, लूला/लूली, बाँझ, दुबला; 
पतला मोटा, रोगी, बहरा, मजूबत, कमजोर । कई दिन से बीमार <“केन्सर से 
बीमार--केन्सर की बीमारी), बीमार/बीमारों की देखभाल (संज्ञावत्‌) 

(9) मानसिक स्वास्थ्य/चरिचत्र तथा बुद्धि-विशेषताएँ-पागल औरत, बाबला _ 
बुड्ढा, बेवकूफ नोकर। चतुर, होशियार, बुद्धिमान, चालाक, क्र दुध, बहादुर, 
उदार, लालची । 

(।0) दिशा--पूर्वी, पश्चिमी, उत्तरी, दक्षिणी, पुरवाई, पर्छांही, दखनी/ 
दखनाई आदि | द 

(|) पदार्थ--रेशमी साड़ी, रजतपत्न, फौलादी तलवार, ऊनी, सूती, 
कागजी आदि । क्‍ द 

(2) विज्ञान/तकनीक/समाज-सम्बदध अवधारणा--वैज्ञानिक खोज, 
रासायनिक, परीक्षण, सामाजिक सुधार ) भोगोलिक, पारिभाषिक, प्रावधिक आदि।. 

(3) तापमान-गर्म, ठंडा । 

(4) भार--हल़का लट्ठा, भारी सन्दूक, वजनी हॉकी । 

(5) धघरातल--ऊंचा पहाड़, नीचा/|गहरा/छिछला/उथला गड्ढा । 

(46) गति--तेज /भन्‍्द चाल, तीत्र । 
 (7) प्रतीति--सुखद, सुन्दर, अटपटा, आनन्ददायक, प्रीतिकर । द 

([8) स्पर्श--नरम गदुदा, कठोर, खुरदरा, मुलायम, चिकना, लिजलिजा । 
क्‍ (9) बस्तुगत मूल्यांकन वैशिष्दूय--आवश्यक, अनावश्यक, लाभदायक 
हानिकारक, उचित, अनुचित, महत्त्वपूर्ण, सही, गलत, मानक, मानकेतर, परिनिष्ठित _ 
आदि। द 

(20) स्वाद--खट॒टा, मीठा, नमकीन, कड़वा, तीता, तीखा, कसेला, आँवला 
चरपरा, सीठा, कटु, मधुर । हम 
(2) गन्ध -सोंधी, ख शनुमा, मोहक, तेजू, भीनी, हलकी । 
(22) दृश्य--स्वच्छ, साफ, निर्मल, मलिन, मैला, गन्दा, उजाड़, भरापूरा 
गुणवाचक विशेषण प्रायः विशेषक (यथा--उस का भाषण कदु सत्य पूर्ण था 


विधेय के नाभिक अंश (यथा--उस के शब्द भले ही सामूली हों लेकिन उन का भाव । 


।मूलो नहीं था। इस साड़ी में तुम कितनी सुन्दर लगती हो) के रूप में श्रयुक्त होते 





विशेषण | 259 


हैं। संबंधवाचक विशेषण भी विशेषक (यथा--इस स्कूल के बच्चे फौजी बर्दी पहनते 
हैं), विधेय के नाभिक अंश (यथा--इंस प्रकार का चिन्तन ही वैज्ञानिक माना जाता 
है) के रूप में प्रयुक्त हो सकते हैं । 

2. संख्याबोधक/संख्यावाची विशेषण प्रायः जातिवाचक संज्ञा (विशेष्य) कौ 
संख्या (गिनती, क्रम, आवृत्ति आदि) का बोध कराते हैं। संख्या शब्द अंकगणितीय 
संख्या, वस्तु-मात्रा और उन का क्रम व्यक्त करते हैं । इन में गणनावाची शब्द अवि- 
कारी हैं तथा क्रमवाचक और आवृत्तिवाचक शब्द लिंग, वचन तथा कारक के अनुसार 
रूप बदलते हैं! विकारी विशेषणों की भाँति वे भी लिंग, वचन तथा कारक में संज्ञा 
से अन्वित होते हैं | संख्या शब्द अमूर्त अंकों के नाम होते हैं । ये विशेषणों के विशेष्य 
नहीं होते । अधिकांश संख्या शब्दों का लिंग, वचन नहीं होता । संख्या निश्चित, 
अनिश्चित हो सकती है, अतः संख्याबोधक विशेषण दो प्रकार के होते हैं-- 
(क) निश्चित संख्यावाचक (ख) अनिश्चित संख्यावाचक । 


(क) निश्चित संख्यावाचक छह प्रकार के होते हैं--!. गणनावाची 
2. खंडवाची 3. क्रमवाची 4. गुणावाच्री 5. समुदायवाची 6. प्रत्येकवाची () गणना/ 
पूर्णांक बोधक संख्याएँ एक-सप्ती वस्तुओं/व्यक्तियों आदि की' अमृत संख्या की अवधारणा 
को व्यक्त करती हैं, यथा--एक, दो, तीन, दस, सौ, हजार, दस हजार, लाख, दस 
लाख, करोड़, दस करोड़, अरब, दस अरब, खरत्र, दस खरब, नील, दस नील, पदम 
दस पदुम, शंख, दस शंख, महाशंख । दस लाख के स्थान पर मिलियन” अँगरेजी 
शब्द का प्रयोग बढ़ने लगा है। 'सहसख्र, लक्ष, कोटि! का प्रयोग साहित्यिक हिन्दी में 
क्रमश: हजार, लाख, करोड़" के लिए होता है। सामान्य गणनावाची शब्दों में केवल 
एक ही घटक होता है, यथा--एक, नौ, हजार, लाख आदि । जटिल गणनावाची 
शब्दों में दो घटक होते हैं, यथा--ग्यारह, अठारह, इक्कीस, अडतीस, नवासी 
निन्‍नानवे जटिल शब्द हैं किन्तु 'उन्‍नीस, उनतीस, उनतालीस, उन्तसठ” आदि शब्द 
दहाइयों के शब्दों में पृवं उन <ऊन उपसर्ग लगा कर बने शब्द हैं । संयक्‍त गणना- 
वाची शब्दों में दो से अधिक सामान्य या जटिल संख्या शब्द होते हैं, यथा--चार 
सौ बीस, तीन हजार पाँच सौ सेतीस । गणनावाची संख्या शब्दों का प्रयोग स्वतन्त्र 
रूप से भी तथा संज्ञाओं के साथ भी हो सकता है, यथा--उन में से चार मर गए 
अब नहीं लू गा, सुबह से तीन पी चुका हूँ । आज कक्षा में दस बच्चे ही क्‍यों हैं ? 
गगनावाचक सख्या शब्द अविकारी हैं। गणनावांचक संख्या शब्दों की पुनरुक्ति 
व्यष्टि का अथे देती है, यथा--सभी बच्चों को दो-दो रुपये दिए जाएँगे। एक! 
अनिश्चयवाचक 'कोई” के अर्थ में एकवचन तथा अनिश्चितता व्यक्त करता है 
यथा--कल आप को एक आदमी' पूछ रहा था । दे 

उच्चारण तथा वतनी की एकरूपता की. दृष्टि से पूर्णांक संख्यावाची विशेष 
शब्दों को यहाँ लिखा जा रहा है-- व 








ही द्। विवरणात्मक ग्यावारण 
ल्न्् 





| रत शी गीत भा 
260 । हिन्दी का र्थिं र्पा | छु/2 


री की पात आठ नी कम ग्यारह रे के न ] 
कल है 8 है उन्नोग बीस हवन गीत बाईस नेईप च की हर हे पक 
गे ती 22 47 | शू हुँ || | ५ ती न हि स्‌ उब्बीत प३ ता 
एक दे हि एवीस ततीस सौंतीम है रत 
सोलह सतह अदारहे दर # | हकता; क्रय 
अठाईस उन्तीरस हो द्व्टी / | उनवाय प्रवास 
उनतालीस चालीस ८८ कह गेंद साठ हकसठ 

ल्‍- हे 
सैंतालीस अत के 67 इकहल्वर वहत्तर 
बने 

सत्तावन अटा 


इकाबन बे 
पासठ विरसठ चौंसड पैसर 


निहत्तर चौहत्तर पचहत्तर फि७३. 
लक |7 सी इफासी बयानों तिरासी चौरासी परी हि का 
अड़सठ हक अटर्टर6 ; इकानवे बानवे लिरामवे भौरानवे पाने छियातवे जाके. 
अठह॒त्तर उ' हा हे 
अठासी अल हि 5 सी शब्दों के अन्य क्षेत्रीय रूप 
अठानवे न्यात्त व ##रालीस, नवालीस इक्याव 

(कुछ हम बर्िट्टासी, नत्ते हक्यान हर 
अटठाईस हा आम. # में उपर 99 तब; मे संख्याएँ इकाई दहाई के क्रम मे ः 
इक्यासी हक में ]0 “* &ह में अगुक्ता छोती ४, पथधा--2 बारह (बा-2 +छ<क्‌ 

४ केस क्के रहा के. [दैके <८ | प्‌ < बरी ० 0 0) आह 
कर समस्त इबकीस ( ५८ बोधक/खंडवाची गठद अपूर्ण संस्याओं की पूषना को है... 
++0) ] अदुर्णां करनी हि ( रे हज कं अर्थ, ।/3 (एक) तिहाई, ?पोन, तीन बोध... 
%७ ) दो तिहाई, . ![ सवा (8 डेढ़, [हूँ पीने दो, 2 खाते... 
08 सा हे तीन, 5 3/4 पौने छह, गज. श 
डेढ़ हजार, 3500 साढ़े तीन हजार; ([28॥ ... 


भी प्रचलित हैं, बधा-बहाह्‌. 
", ते पन, सत्तावन, अदटावन, देह. 
4, सत्तानवे, निम्यानवे) 















ब, (एक) ० 
यथा---+# है भाग, 2/ “ )/4 पीने तीन 
]/5 48 2 दा मो, ।50॥) 
सात अ 





हट पाढ़ बारह सी, 500 पद्रह तौफ हा. 

जार हा " 

जार/एक हें १ 

हक सौ) ; हि सेझ्या शक्द उस्तुओ/व्य क्तियों आदि की' गिनती करते पम्म रे 
हे (६89) क्रमवार्च जी नर था--पहला (पहली/पहल्ले) इसरा, तौपरा; वौगा 
उन का क्रम निर्दिष्ट ॥ | आंठर्वा, नौबां (/नवाँ), दरसवां ग्यारहवाँ; एक सौ एक 


बाँ, छठा, साला, परकृत से अ गत 'प्रथ 
पा ो तीनवा मी दि! ८१ # में, दशभ एकादश हू 
उठ, सप्तम, गैष्टस , 7“ + 68 भक्ति; अष्टमी तिथि 
ष र मे सि 


हक 
होते हैं, यथा-चलुर्थी __&/गुणाबाची 


मं, दृवितीय, तृतीय चतुर्थ, पंचम 
तादश आदि शब्द साहित्य में प्रयुक्त 
परीक्षा में प्रथम आया/आाई) 











करे पज्या शब्द वस्तु आदि की बावत्ति या गुवा 
.. (0) 'जावृस्तिबी है | डडना/दोगुना, तिगुना/तीनगुमा चोगुना/चारगुना, पँचगुना| 
की सूचना देते हैं, सथा”  », सेतगुना/सातगुना, अठ 





गुना/आठगुना, नौगुना, दस रा 
र भी आवृत्तिवाची विशेषक गद्य 
पंचहरा, छोहरा, सतहरा, धठ्हर 


।, छोगुना/छहगु्त कर “हरा प्रत्यय जोड़ के 
9 'गुता के अर्तिज  छदरा, तिहरा, चौहरा 









विशेषण | 267 


नोहरा, दसहरा आदि । इन के रूप -आ/-ई/-ए जोड़ कर विशेष्य के लिंग; वचन के 
अनुरूप बनते हैं, यथा-दुगुना-दुगुने-दुगुती, दुहरा-दुहरे-दृहरी आदि । इकहरी धोती, 
इकहरे बदत का बच्चा; इस घर के हर कमरे में दृहरे रोशनदान और दुहरी खिड़कियाँ 
हैं । दोगुना का एक रूप दूना भी प्रचलित है । 

(४) समुदायवाची संख्या शब्द वस्तुओं आदि की संख्या को एक समूह के 
रूप में व्यक्त करते हैं । ये अविकारी शब्द हैं यथा--दोनो, तीनो, चारो (दोनों, 
तीनों/चारों) आदि । बीसों, पचासों, हजारों, लाखों में सभी कथित इकाइयों की 
समाविष्टि के अतिरिक्त अधिक का भाव भी निहित है। हि 

(9) प्रत्येकवाची संख्या शब्द वस्तु आदि की. कथित संख्या के एक समूह 
को सूचित करता है, यथा--प्रति, हर, फी | प्रति दो व्यक्तियों को, हर तीन बच्चों 
को, फी आदमी । द 

(ख) अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण शब्द वस्तु आदि की निश्चित संख्या 
के बारे में बोध नहीं कराते । ये छह प्रकार के होते हैं--7. लगभगवाची 2. बहुवाची 
3 अल्पवाची 4. अनुमानवाची 5. पर्याप्तवाची 6. इतरवाची । 

() लगभगवाची शब्द अभिव्यक्ति के आधार पर तीन प्रकार होते हैं--- 
(क) लगभग चार, क्रीब/तक्रीबन हजार ये पंख्या तथा परिभाण के सूचक हैं । 
(ख) कोई पाँच सौ (ग) बीस-एक (<बीसेक), पचास-एक (%£पचासेक) । 

() बहुवाची शब्द व्यक्ति आदि के संख्या के बहुत्व के बोधक होते हैं, 
यथा--बहु, बहुत, बहुतेरे, सब, सैकड़ों, हजारों/लाखों (+-कई हजूर/लाख) 
सर्व, अनेक, कई, बहुत-से, दर्सियों, बीसियों, अधिक, और दससियों/बीसियों (--कई) 
दज्‌ नों (+-अनेक), दज न+ 2 सब, कई से कुछ लोग 'सबों; कइयों” रूप बनाने 


लगे हैं। इसी प्रकार कुछ लोग 'अनेक' से “अनेकों रूप बनाने लगे हैं । कई -- बहुत- 


से, अनेक -- अन-- एक अर्थात्‌ एक से अधिक है। बहुत्व, अधिकता का सूचक अनेकता 
(अनेकता में एकता) प्रचलित है । अनेकानेक +- कई-कई का सूचक पुनरक्त शब्द है। 


अनेक निश्चित संख्या/परिमाण का सूचक है। “कई, सब' सर्वताम के रूप में भी. 


प्रयुक्त होते हैं । बहुत ++ अधिक/ज्यादा, यथा--लोटे में बहुत दूध है, मुझ से नहीं 
पिया जाएगा। बहुत-सा>>कई, यथा--आज तो तुम्हें बहुत-से ग्रीटिंग काडे 
मिले हैं। “ । 


(7) अल्पवाची शब्द व्यक्ति आदि की संख्या के अल्पत्व| के सूचक होते हैं, 


_यथा--अल्प, कम, थोड़े, कुछ आदि। थोड़ा/थोड़ी तथा अन्य अल्पवाची शब्द 


अनिश्चित संख्या/परिमाण के सूचक हैं। 


ही, 


(0) अनुसानवाची शब्द व्यक्षि आदि की संख्या के अन्दाजया अनुमान... 
के सूचक हैं, यथा--एक-दो, तीन-चार, पचास-सौ, दस-बीस,- सोन्‍पचास, उन्तीसन 


बीस, हजार-पाँचसौ बादि। ४ 7 


अक, हल ह 








262 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(५) पर्बाप्तवाची शब्द व्यक्ति आदि की पर्याष्तता के सूचक हैं, यथा-- 
पर्याप्त, काफ़ी, अर्पर्याप्त, नाकाफी । ये शब्द ही अनिश्चित संख्या/परिमाण के 
सूचक हैं । ह 

(शं) इतरवाची शब्द वर्गीय अनिश्चित अनुपस्थित सदस्य की सूचना देते 
हैं, यथधा--अन्य, और, दूसरे लोग 


संख्यावाची शब्दों के प्रयोग आदि के बारे में विशेष--(4) दसी, बीसी, 
सेकड़ा; दुक्‍का, चौका, पंजा'““"”” गणतक शब्द संज्ञाएँ हैं, संख्यावाचक शब्द 
नहीं । इन्हें अंकों में नहीं लिखा जाता। इन के साथ अन्य संज्ञा शब्दों की भाँति 
विशेषक आ सकते हैं । इन का व्याकरणिक लिग होता है । (2) । ला, 2 रा, 3 रा, 
4 था, 5 वाँ, 6 ठा, 7 वाँ आदि मराठी के प्रभाव से हिन्दी में श्रम, समय-बचत 
की दृष्टि से प्रचलित हो चले हैं। (3) वर्ग सदस्य +- जातिवाचक संज्ञा तथा व्यक्ति- 
वाचक संज्ञा--वर्ग की रचना में 'एक' का प्रयोग होता है, यथा--तोता एक पक्षी 
है | गुड़हल एक फूल है। लौकी एक तरकारी है। श्यामा एक अच्छी लड़की है। 
बीजापुर एक ऐतिहासिक नगर है। इन वाक्यों में से 'एक! हटाने पर भिन्‍न प्रकार 
की रचना होगी । यहाँ 'एक' किसी तथ्य के पहली बार उल्लेख का सूचक है। वर्गे- 
सदस्य की इकाई को संख्या की सूचना के लिए 'एक' संख्यावाचक विशेषण का प्रयोग, 
यथा--मेज पर पाँच-पाँच के कुछ नोट पड़े हैं, तुम उन में से एक नोट उठा लो। 
आज मैं ने एक खरबूज खाया था। अँगरेजी में पहली बार उल्लेख की सूचना के 
लिए ४' का प्रयोग होता है और पूत्र निर्दिष्ट वस्तु के लिए “6 का प्रयोग । 
हिन्दी में पूर्ष निर्दिष्ट वस्तु का ही प्रयोग होता है। कभी-कभी यह/वह का भी 
प्रयोग होता है, यथा--घर में कौन है ?-- एक चोर है ? (वह/चोर) कहाँ है *-- 
(वहुचोर) एक कमरे में है। कौन-से कमरे में ?--शयन कक्ष में । (4) अनि्दिष्ट 
समय/स्थान की सूचना के लिए 'एक' का तथा अनिश्चय की सूचना के लिए 'किसी' 
का प्रयोग, यथा--एक (/#्सी) जूमाने में, एक (किसी) देश में, एक (/कोई) 
बादशाह था । एक (/किसी) दिन तुम्हें मेरी याद आएगी । (5) साल महीना, ह फ्ता, 
घंटा, मिचट के साथ 'एक” का प्रयोग संख्यावाचक विशेषण के रूप में ही, अनिश्चय 
की सूचना के लिए नहीं । एक-न-एक' अनिश्चयात्मक है । किसी साल/महीने/ह फ्ते| 
. दिन आ जाना (एक साल/महीने/ह फ्ते/दित आ जाना) । एक बार/|समय (/किसी 
समय) । एक प्रकार से, एक हिसाब से । (6) एक में शामिल/समन्वित” अर्थ के रूप 
में एक' मूल शब्द के साथ जुड़ कर प्रयुक्त, यथा--एकतन्‍्त्र, एकजुट, एकनिष्ठ, 
एकदम, एकवचन, एकरूप, इकतरफा<एकतरफा, एकमुश्त राशि, एकमत 


. हो कर । वे एक मत से चुनाव जीते थे--वे एकमत से चुनाव जीते थे-+ 


... (7) हरेक (हर एक), कुछेक (/कुछ एक), कई एक में 'एक' अनिश्चयबोधक, . 
... महत्त्वहीन-सा है, यथा-- हर (/हर एक/हरेक) बच्चे को दो लड्डू दो। संज्ञावाचक 





विशेषण | 263 


शब्दों के साथ एक लगभर्गा अर्थ-सूचक है, यथा--कक्षा में बीस एक छात्र हो सकते 
हैं। रोजाना कोई सो एक रुपये मिल जाते हैं, ज्यादा नहीं। (8) इतरघाची 
शब्दों के प्रयोग, यथा-क्यों, तुन तीन ही क्‍यों आए हो, और (/अन्य/दूसरे) 
लोग कहाँ हैं ? तुम्हारा और (शेष) सामान कहाँ है ? क्‍या तुम्हारे पास और 
(/अन्य/दूसरे) भी पैन्ट पीस हैं। इन दो से ही नहीं, आग और ('अन्य/दूसरे) बच्चों 
से भी पूछें। ओर'* का पूरकवत्‌ प्रयोग, यथा--अभी एक गुंडा और है जो अभी- 
अभी भाग गया है। अभी अन्दर कितने लोग और हैं | घड़ियों के अलावा मेरे पास 
केलक्यूलेटर और हैं, कहें तो दिखाऊँ ? (9) अन्य विशेषण शब्द प्रश्नवाचक शब्दों 
से तुरन्त पूर्व नहीं आते किन्तु और का प्रयोग सम्भव, यथा-- अभी और कितना 
(कहाँ/किधर/कब) उइलना है? और केसा (/कंसे/कितने/कितना/क्या) चाहिए ? 
(40) और' समय तथा स्थानवाची शब्दों को विशेषीकृत करता है, यथा--आज 
जाओ, और (फिर) कभी आता । यहाँ नहीं, और कहीं जाओ । (4]) और! कुछ 
सवेंनामों को और इन का विशेषण के रूप में प्रयोग होने पर विशेषीकृत करता है, 
यथा--कक्षा में और कोई (लड़का) है या नहीं ? क्‍या आप को और कुछ (सामान) 
लेना है ? (42) और' का प्रयोग इस शब्दों के बाद में अधिक प्रचलित है, यथा--- 
कभी और, कहीं और, कोई और, कुछ और । (43) ज्यादा/अधिक के अर्थ में और! 
का काफी प्रयोग मिलता है, यथा--अभी और लिखो। अभी तुम्हें और पढ़ना 
(/आराम) करना चाहिए। (4) बहुवाची और बहुत की भाँति प्रबलक (उपरा- 
887) है, यथा--और बड़ा (/छोटा/अच्छा/बुरा/दुर/पास/तेजी' से" - )। और 
थोड़ा पहले की मात्रा से कम; भर छोटा--पहले के छोटे से भी छोटा--तुलना- 
त्मक रूप । (45) निश्चित संख्यावाचक शब्दों से तिथिसूचक स्त्रीलिंग संज्ञाओं का 
निर्माण होता है| पूणिमा->्पूर्णिमा के दिनों को क्ृष्ण पक्ष (पृणिमा परवर्ती प्रतिपदा-> 
अमावस्या ), शुक्लपक्ष (अमावस्या परवर्ती प्रतिपदा-> पूणिमा) में बाँठा गया है । 
प्रत्येक पक्ष (>>पाख >>पखवाड़े) में 5 तिथियाँ होती हैं, यथा--पड़वा < प्रतिपदा, 
दूज“““दौज < दुवितीया, तीज < तृतीया, चौथ< चतुर्थी, पॉँचें< पंचमी, छठ<< 
षष्ठी, सातें < सप्तमी, आठे < अष्टमी, नौमी < तवमी, दसमी < दर्शमी, एकादसी < 
एकादशी, दवादस/द्वादसी <: दुवादशी, तेरत < त्रयोदशी, चौदस <._ चतुर्दशी, मावस-- 
अमावस <_ अमावस्या, पुनम>-पूनो < पूणिमा, पूर्णमासी । हिन्दी क्षेत्र में. कई त्योहार 
इन तिथियों से संबंधित हैं, यथा--भैया द्ज, करवा चौथ, गणेश चतुर्थी, जन्माष्टमी/ 
कृष्णाष्टमी, रामनवमी, धनतेरस, अनन्त चौदस, मौती सावस, ग्रुरु पूणिमा। (46) 
आधा/आधी/आधे संज्ञा के लिग-वचन से अन्वित । पौन, सवा आदि संज्ञा के लिग-वचन 
से अन्वित नहीं होते । सवा, डेढ़ एकवचन में आते हैं। पोने दो, दो से आगे की 


संख्याएँ बहुवचन में आती हैं, यथा--सवा रुपया चढ़ाओ | डेढ़ घंटा बाद जाना। 


पोने दो रुपये ले लेना । (47) आधा, चौथाई, पौता संज्ञा शब्द की भाँति भी प्रयुक्त, 


यथा--चौथाई/आधे/पौन (से कुछ कम/अधिक) । खंडवाचक संख्या शब्द अकेले तथा 











260 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


एक दो तीन चार पाँच छह सात आठ नौ दस ग्यारह बारह तेरह चौदह पन्द्रह 
सोलह सत्रह अठारह उनन्‍्तीस बीस इककीस बाईस तेईस चौबीस पच्चीस छब्बीस सत्ताईस 
अठाईस उन्‍्तीस तीस इकतीस बत्तीस तेतीस चौंतीस पैंतीस छत्तीस सेतीस अड़तीस 
उनतालीस चालीस इकतालीस बयालीस तेतालीस चौवालीस पैतालीस छयालीस 
सैंतालीस अड़तालीस उनचास पच्रांस इकावन बावन तिरपन चौवन पचपन छप्पन 
सतावन अटावन उनसठ साठ इकसठ बासठ तिरसठ चौंसठ पैंसठ छियास॒ठ सड़सठ 
अड़सठ उनह॒त्तर सत्तर इकह॒त्तर बहत्तर तिहल्तर चौहत्तर पचह॒त्तर छिहत्तर सतहत्तर 
अठह॒त्तर उनासी अस्सी इकासी बयासी तिरासी चौरासी पचासी छियासी सतासी 
अठासी नवासी नव्वे इकानवे बानवे तिरानवे चौरानवे पचानवे छियानवे सतानवे 
अठानवे न्यानवे सो 


. (कुछ गणनावाची शब्दों के अन्य क्षेत्रीय रूप भी' प्रचलित हैं, यथा--अट्ठा रह, 
अट्ठाईस, तैंतीस, तैंतालीस, चवालीस, इक्यावन, त्रपन, सत्तावन, अटूटावन, ते सठ, 
इक्यासी, सत्तासी, अट्ठासी, नब्बे, इक्यानवे, सत्तानवे, निन्‍्यानवे) 

हिन्दी में ।0 से ऊपर 99 तक की संख्याएँ इकाई--दहाई के क्रम में आा 
कर समस्त शब्द के रूप में प्रयुक्त होती हैं, यथा--!2 बारह (बा--2-+रह<दह 
 -+ 0), 2! इक्कीस (इक 55 , ईस«< बीस -- 20) 

(॥) अ्र्णगाकबोधक/[खंडवाची शब्द अपूर्ण संख्याओं की सूचना देते हैं 
यथा--३ पाव, (एक) चौथाई, $ आधा, अर्ध, /3 (एक) तिहाई, ३पौन, तीन चौथाई, 
/5 पाँचवाँ भाग, 2/3 दो तिहाई, ३ सवा, 4३॥ डेढ़, # पौने दो, 24 सवा दो, 
23 ढाई (अढ़ाई), 2 3/4 पौने तीन, 3३ साढ़े तीन, 5 3/4 पौने छह, 73 साढ़े 
सात आदि, 225 सवा दो सौ, 500 डेढ़ हजार, 3500 साढ़े तीन हजार; (250 
सवा हजार/|एक हजार दो सौ पचास, साढ़े बारह सौ, 500 पन्द्रह सौ|/एक हजार 
पाँच सौ) क्‍ द 

.._[77) क्रमबाची संख्या शब्द वस्तुओं/व्यक्तियों आदि की गिनती करते समय 
उन का क्रम निर्दिष्ट करते हैं, यथा--पहला (/पहली/पहले), दूस'रा, तीसरा, चौथा 
पाँचवाँ, छठा, सातवाँ, आठवाँ, नोवाँ ((नवाँ), दसवाँ, ग्यारहवाँ; एक सौ एकर्वाँ 
दो सो तीनवाँ आदि। संस्कृत से आगत प्रथम, दृवितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम 
षष्ठ, सप्तम, अष्टम, नवम, दशम, एकादश, दवादश आदि शब्द साहित्य में प्रयुक्त 
. होते हैं, यथा--चतुर्थी विभक्त; अष्टमी तिथि; परीक्षा में प्रथम आया/आई) 


. (0) आवृत्तिवाची/गुणाबाची संख्या शब्द वस्त्‌ आदि की आवृत्ति या गुना _ 
- को सूचना देते हैं, यथा--दुगुना/दोगुना, तिग्रुता/तीनगुना, चौगुता/चारगुना, पँचगुना। 
पाँचगुना, छेगुना/छहगुता, सतग्रुना/सातग्रुना, अठग्रुना/आठगुना, नौगुना, दंसगुना 
.. आदि। “गुना के अतिरिक्त “हरा प्रत्यय जोड़ कर भी आवृत्तिवाची' विशेषक शब्द 
.. बनते हैं, यथा--इकहरा, दुहरा, तिहरा, चौहरा, पँचहरा, छहरा, सतहरा, अठहरा, 


विशेषण | 26] 


नौहरा, दसहरा आदि। इन के रूप -आ/-ई/-ए जोड़ कर विशेष्य के लिंग; वचन के 
अनुरूप बनते हैं, यथा--दुग्ुना-दुगुने-दुगुनी, दुहरा-दुहरे-दुहरी आदि। इकहरी धोती, 
इकहरे बदत का बच्चा; इस घर के हर कमरे में दृहरे रोशनदान और दुहरी खिड़कियाँ 
हैं। दोगुना का एक रूप दूना भी प्रचलित है। 

(५) सम्ुदायवाची संख्या शब्द वस्तुओं आदि की संख्या को एक समूह के 
रूप में व्यक्त करते हैं । ये अविकारी शब्द हैं, यथा--दोनों, तीनो, चारो ((दोनों 
तीनों/चारों) भादि । बीसों, पचासों, हजारों, लाखों में सभी कथित इकाइयों की 
समाविष्टि के अतिरिक्त अधिक का भाव भी निहित है। 

(शं) प्रत्येकबाची संख्या शब्द वस्तु आदि की कथित संख्या के एक समूह 
को सूचित करता है, यथा--पश्रति, हर, फी । प्रति दो व्यक्तियों को, हर तीन बच्चों 
को, फी आदमी । 

(ख) अनिश्चितं संख्यावाचक विशेषण शब्द वस्तु आदि की निश्चित संख्या 
के बारे में बोध नहीं कराते । ये छह ग्रक!र के होते हैं--7. लगभगरवाची 2. बहुवाची 
3 अल्पवाची 4. अनुमानवाची 5. पर्याप्तवाची 6. इतरवाची । 

() लगभगवाची शब्द अभिव्यक्ति के आधार पर तीन प्रकार होते हैं--- 
(क) लगभग चार, क्रीब/तक्रीबन हजार ये संख्या तथा परिभाण के सूचक हैं। 
(ख) कोई पाँच सो (ग) बीस-एक (<#बीसेक), पचास-एक (»%£पचासेक) । 

(7) बहुवाची शब्द व्यक्ति आदि के संख्या के बहुत्व के बोधक होते हैं, 
यथा--बहु, बहुत, बहुतेरे, सब, सैकड़ों, हजारों/लाखों (>-कई हजार/लाख) 
से, अनेक, कई, बहुत-से, दस्सियों, बीसियों, अधिक, और दसियों/बीसियों (--कई) 
दज नों (+-अनेक), दजु न "5 2 सब, कई से कुछ लोग 'सबों; कइयों” रूप बनाने 
लगे हैं। इसी प्रकार कुछ लोग' 'अनेक' से अनेकों रूप बनाने लगे हैं। कई -- बहुत- 
से, अनेक 5 अन-+-एक अर्थात्‌ एक से अधिक है । बहुत्व, अधिकता का सूचक अनेकता 
(अनेकता में एकता) प्रचलित है। अनेकानेक <। कई-कई का सूचक पुनरुक्त शब्द है । 
अनेक निश्चित संख्या/परिमाण का सूचक है। कई, सब सर्वताम के रूप में भी 
प्रयुक्त होते हैं। बहुत ++ अधिक/ज्यादा, यथा--लोंटे में बहुत दूध है, मुझ से नहीं 
पिया जाएगा! बहुत-सा"+कई यथा--भाज तो तुम्हें बहुत-से ग्रीटिग कार्ड 
मिले हैं । द " 

(॥) अल्पवाची शब्द व्यक्ति आदि की संख्या के अल्पत्व के सूचक होते हैं, 
यथा--अल्प, कम, थोड़े, कुछ आदि। थोड़ा|थोड़ी तथा अन्य अल्पवाची शब्द 
अनिश्चित संख्या/परिमाण के सूचक हैं । मा मम 

(0०) अनुमानवाची शब्द व्यक्ति आदि की संख्या के अन्दाजु या अनुमान 
के सूचक हैं, यथा--एक-दो, तीन-चार, प्रचास-सौ, दस-बीस, सौ-पचास, उल्तीस- 
बीस, हजार-पाँचसी आंदि। ३ कर दर 








262 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(५) पर्थाप्तवाची शब्द व्यक्ति आदि की पर्याष्तता के सूचक हैं, यथा-- 
पर्याप्त, काफी, अरर्याप्त, नाकाफी । ये शब्द ही अनिश्चित संख्या/(परिमाण के 
सूचक हैं । | 

(शं) इतरवाची शब्द वर्गीय अनिश्चित अनुपस्थित सदस्य की सूचना देते 
हैं, यथा--अन्य, और, दूसरे लोग 


का ] 


संख्यावाची शब्दों के प्रयोग आदि के बारे में विशेष--(4) दसी, बीसी 
सैकड़ा; दुकका, चौका, पंजा'““” गणनक शब्द संज्ञाएं हैं, संस्यावाचक शब्द 
नहीं | इन्हें अंकों में नहीं लिखा जाता। इन के साथ अन्य संज्ञा शब्दों की भाँति 
विशेषक आ सकते हैं । इन का व्याकरणिक लिंग होता है। (2) | ला, 2 रा, 3 रा, 
4 था, 5 वाँ, 6 ठा, 7 वाँ आदि मराठी के ग्रभाव से हिन्दी में श्रम, समय-बचत 
की दृष्टि से प्रचलित हो चले हैं। (3) वर्ग सदस्य -|- जातिवाचक संज्ञा तथा व्यक्ति 
वाचक संज्ञा--वर्ग की रचना में एक का प्रयोग होता है, यथा--तोता एक पक्षी 
है | गुड़हल एक फूल है। लौकी एक तरकारी है। श्यामा एक अच्छी लड़की है। 
बीजापुर एक ऐतिहासिक नगर है । इन वाक्यों में से (एक हटाने पर भिन्‍त प्रकार 
की रचना होगी । यहाँ 'एक” किसी तथ्य के पहली बार उल्लेख का सृचक है। वर्गे- 
सदस्य की इकाई की संख्या की सूचना के लिए 'एक' संख्यावाचक विशेषण का प्रयोग, 
यथा--मैेज पर पाँच-पाँच के कुछ नोट पड़े हैं, तुम उन में से एक नोट उठा लो। 
आज मैं ने एक खरबूज खाया था। अँगरेजी में पहली बार उल्लेख की सूचना के 
लिए “४' का प्रयोग होता है और पूत्र निर्दिष्ट वस्तु के लिए “(6 का प्रयोग । 
हिन्दी में पूर्व निदिष्ट वस्तु का ही प्रयोग होता है। कभी-कभी 'यह/वह' का भी 
प्रयोग होता है, यथा--घर में कौन है ?-- एक चोर है ? (वह/चोर) कहाँ है -- 
(वहु/चोर) एक कमरे में है । कौन-से कमरे में ?--शयन कक्ष में । (4) अनिदिष्ट 
समय/स्थान की सूचना के लिए 'एक' का तथा अनिश्चय की सूचना के लिए 'किसी' 
का प्रयोग, यथा--एक (/स्सी) जमाने में, एक (/किसी) देश में, एक (कोई) 
बादशाह था । एक (/किसी) दिन तुम्हें मेरी याद आएगी । (5) साल महोना, ह फ्ता, 
घंटा, मिनट के साथ 'एक' का प्रयोग संख्यावाचक विशेषण के रूप में ही, अनिश्चय 
की सूचनां के लिए नहीं । एक-न-एक' अनिश्चयात्मक है। किसी साल/मह्ीने/ह फ्ते। 
दिन आ जाना (एक साल/महीने/ह फ्ते/दित आ जाना) । एक बार/समय (किसी 
समय) । एक प्रकार से, एक हिसाब से । (6) 'एक में शामिल/समन्वित” अथे के रूप _ 


सें 'एक' मूल शब्द के साथ जुड़ कर प्रयुक्त, यथा--एकतन्त्र, एकजूट, एकनिष्ठ, 


एकदम, एकवचन, एकरूप .  इकतरफा< एकतरफा एकमुश्त' राशि एकमत 
हो कर । वे. एक मत से चुनाव जीते थे--वे एकमत से चुनाव जीते थे-- 


.... (7) हरेक (हर एक), कुछेक (/कुछ एक), कई एक में एक अनिश्चयबोधक, _ 





हे . महत्त्वहीन-सा है, यथा-- हर (/हर एक/हरेक) जच्चे को दो लड्डू दो | संज्ञावाचक 





विशेषण | 263 


शब्दों के साथ एक लगभर्गा अर्थं-सूचक है, यथा--कक्षा में बीस एक छात्र हो सकते 
हैं। रोजाना कोई सौ एक रुपये मिल्न जाते हैं, ज्यादा नहीं। (8) इतरवाची 
शब्दों के प्रयोग, यथा-कयों, तुन तीव ही क्‍यों आए हो, और (/अन्य/दूसरे) 
लोग कहाँ हैं ? तुम्हारा और (शिष) सामान कहाँ है? क्‍या तुम्हारे पास और 
(/अन्य/दूसरे) भी पैन्ट पीस हैं । इन दो से ही नहीं, आप और ('अन्य/दूसरे) बच्चों 
से भी पूछें। ओर' का पूरकवत्‌ प्रयोग, यथा--अभी एक गरुडा और है जो अभी- 
अभी भाग गया हैं। अभी अन्दर कितने लोग और हैं | घड़ियों के अलावा मेरे पास 
केलक्यूलेटर और हैं, कहें तो दिखाऊं ? (9) अन्य विशेषण छझब्द प्रश्नवाचक शब्दों 
से तुरन्त पूर्व नहीं आते किन्तु और का प्रयोग सम्भव, यथा-- अभी और कितना 
(/कहाँ/किधर/कब) चलना है? और कसा (/कैसे/कितने/कितना/क्या) चाहिए ? 
(40) और' समय तथा स्थानवाची शब्दों को विशेषीक्षत करता है, यथा--आज 
जाओ, और (फिर) कभी आना । यहाँ नहीं, और कहीं जाओ । (4) 'और' कुछ 
सवंनामों को और इन का विशेषण के रूप में प्रयोग होने पर विशेषीकृत करता है, 
यथा--कक्षा में और कोई (लड़का) है या नहीं ? क्या आप को और कुछ (सामान) 
लेना है ? (42) और' का प्रयोग इन शब्दों के बाद में अधिक प्रचलित है, यथा--- 
कभी और, कहीं और, कोई और, कुछ और । (43) ज्यादा/अधिक के अर्थ में और! 
का काफ़ी प्रयोग मिलता है, यथा--भभी और लिखों । अभी तुम्हें और पढ़ना 
(/आराम) करना चाहिए। (4) बहुवाची और बहुत की भाँति प्रबलक ([पराशा- 
&7067) है, यथा--और बड़ा (/छोटा/अच्छा/बुरा/दुर/पास/तेजी से" )। और 
थोड़ा 5 पहले की मात्रा से कम; और छोटा--पहले के छोटे से भी छोटा--तुलना- 
त्मक रूप । (45) निश्चित संख्यावाचक शब्दों से तिथिसूचक स्त्रीलिंग संज्ञाओं का 
निर्माण होता है । पूणिमा->पूर्णिमा के दिनों को कृष्ण पक्ष (पूृणिमा परवर्ती प्रतिपदा-+> 
अमावस्या ), शुक्लपक्ष (अमावस्या परवर्ती प्रतिफ्दा-> पुणिमा) में बाँठा गया है । 
प्रत्येक पक्ष (>पाख->पखवाड़े) में 75 तिथियाँ होती हैं, यथा--पड़वा << प्रतिपदा, 
दूज““थदौज < दुवितीया, तीज < तृतीया, चौथ< चतुर्थी, पाँचें< पंचमी, छठ<:< 
षष्ठी, सातें < सप्तमी, आठे <- अष्टमी, तौमी < नवमी, दसमी < दश्शमी, एकादसी <. 
एकादशी, दवादस/द्वादसी < दूवादशी, तेरस < त्रयोदशी, चौदस <._ चतुर्दशी, मावस-- 
अमावस <_ अमावध्या, पुनम>-पूनो < पूर्णिमा, पूर्णणासी । हिन्दी क्षेत्र में कई त्योहार 
इन तिथियों से संबंधित हैं, यथा--भैया दुूज, करवा चौथ, गणेश चतुर्थी, जन्मा ष्टमी/ 
कृष्णाष्टमी, रामनवमी, धनतेरस, अनन्त चौदस, मौनी मावस्त, गुरु पूणिमा। (6) 
बआाधा/आधी/आधे संज्ञा के लिग-वचन से अन्वित । पौन, सवा आदि संज्ञा के लिग-वचन 
से अन्वित नहीं होते । सवा, डेढ़ एकवचन में आते हैं। पोने दो, दो से आगे की 
संख्याएँ बहुवचन में आती हैं, यथा--सवा रुपया चढ़ाओ । डेढ़ घंटा बाद जाना । 
पौने दो रुपये ले लेना । (87) आधा, चौथाई, पौना संज्ञा शब्द की भाँति भी प्रयुक्त, 


यथा--चौथाई/आधे/पौन (से कुछ कम/अधिक) । खंडवाचक संख्या शब्द अकेले तथा 








264 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


गणनावाची संख्या शब्दों के साथ संज्ञा से पूर्व बाते हैं, यथा---चौथाई/आधा समय; 

एक तिहाई काम । डेढ़; ढाई का प्रयोग संज्ञाओं से पूवे भी होता है और गणनावाची 
सौ, हजार, लाख ) संख्या शब्दों से पहले भी । पौने, सवा, साढ़े केवल गणना- 
वाची संख्या के साथ आते हैं, यथा--साढ़े तीन या अधिक गणनावाची संख्या 
के पूर्व आता है। (8) क्रमवाची संख्या शब्द अपने विशेष्य के लिंग, 
वचन, कारक से अन्वित होते हैं, यथा--तीसरा लड़का, तीसरे लड़के को, तीसरे 
लड़के ! तीसरी लड़की, तीसरी लड़की से, तीसरी लड़की ! (9) संयुक्त क्रमबाधी 
संख्या शब्द में उस की अंतिम संख्या का ही रूप बदलता है, यथा--तीन सौ बत्तीसर्वाँ 
सिपाही; एक सौ सोलहवें कं दी को; दो सी पच्चीसवीं स्त्री (ने)। (20) वाक्य में 
क्रमवाची संख्या शब्द बिशेषक या विधेय के नामिक अंश के रूप में आते हैं, यथा-- 
सुशीला का सोलह॒बाँ साल चल रहा है । आप का डिब्बा इंजन से छठा है। प्रथम 
द्वितीय विश्वयुद्ध । (2) प्रतिशत की अभिव्यक्ति के लिए गणनावाची संख्या 
शब्द के बाद प्रतिशत/फी सदी रख कर की जाती है, यथा--(5%,) पन्द्रह प्रतिशत 
(/फी' सदी) साधारण ब्याज की दर से; भारत की आबादी का 70 प्रतिशत माँवों में 
रहता है। (22) गणनावाची संख्या शब्दों में गुना (अर्थ प्रत्यय) जोड़ कर बने 
आवृत्तिवाची संख्या शब्द विशेष्य के लिंग, वचन से अन्वित होते हैं, यथा--दुगुनी 


उपज, तिगुनी खपत । वाक्य में आवृत्तिवाची संख्या शब्द विशेषक या विधेय के... 


अंश के रूप में आते हैं, यथा--इस योजना का दुगुना विस्तार किया जाना चाहिए । 
भारत के कई नगरों में आबादी चौगुनी बढ़ (हो) गई है। घी का भाव पिछले वर्ष 
की तुलना में इस वर्ष दुगुना (तीन गुना अधिक) है। महँगाई बढ़ने से प्रत्येक 
परिवार का खचं चौगुने से ले कर छह गुने तक बढ़ गया है। (23) 'कई' के साथ 
. आ कर गुना अनिश्चित अनेकत्व की सूचना देता है, यथा--पिछले पाँच वर्षों में 
: भारत और जापान के मध्य लोहे का व्यापार कई गुना बढ़ गया है । मा 
संख्यावाची शब्दों/अंकों के कुछ अन्य प्रयोग--() संस्कृत समासों में संस्कृत 


संख्याओं का प्रयोग होता है, यथा--त्रिकाल, त्रिभुज, त्रिलोक, चतुरंग, चंतुयुंग, | 


चतुभू ज, पंचरात्र, पंचारिन, पंचदेव, षट्कोण, षड़्यन्त्र, षड्रस, सप्तषि, सप्ताह, 

सप्तद्वीप, भष्टांग, अष्टभुज, अष्टछाप, नवरात्र, नवग्रह, नवरत्त आदि । (2) 00 
से कम की संख्याओं के साथ पौने (एक इकाई का चौथाई कम), सबो (एक इकाई 
. का चौथाई अधिक), साढ़े (एक इकाई का आधा अधिक) अथे को व्यक्त करते हैं । 
- सौ, हजार, लाख आदि के साथ ये एक इकाई से संबंध नहीं रखते, बल्कि सम्बद्ध 
संख्या से संबंध रखते हैं, यथा---275 पौने तीन सौ, 225 सवा दो सौ, 4500 साहे.. 


ह चार हजार । हिन्दी में पौने सो (/हजार/लाख) बोलने का प्रचलन नहीं है, इन के... 


.... स्थान पर पचह॒त्तर, सात सौ पचास तथा पचहत्तर हजार बोला जाता है। (3)... 


पौने, सवा, डेढ़, ढाई, साढ़ें का प्रयोग समय/बजे बताने के लिए भी होता है । हिन्दी. 
पौने एक, सवा एक के स्थान पर 'पोत, सवा का अधिक प्रचलन है। 


विशेषण | 265 


(4) खंडवाची शब्दों के लिए प्राचीन हिन्दी में खड़ी पाई (।) का प्रयोग भी होता था, 
यथा---) चौथाई, ॥ आधा, ॥! पौन, १। सवा, १॥ डेढ़, १॥। पौने दो, 2॥ ढाई, 
३॥ साढे तीन । रुपये-आने-पैसे इस प्रकार लिखे जाते थें-- )। एक पैसा, -) एक 
आना, १॥॥ ८ )॥ एक रुपया पन्द्रह आने तीन पैसे (5) 2500 ढाई हजार/पच्चीस 
सौ|दो हजार पाँच सो; 3'50 रु० साढ़े तीन रुपये/तीन रुपये पचास पैसे; !*25 
रु० सवा रुपया|एक रुपया पच्चीस पंसे; :50 रु० डेढ़ रुपया/एक रुपया पचास 
पैसे; 3:75 रु० पौने चार रुपये/तीन रुपये पचहत्तर पैसे; 2*5 सवा दो बजे/दो 
बजकर पन्द्रह मिनट; 40'45 पोने ग्यारह बजे/दस बजकर पैतालीस मिनट; 
3 4|5 तीन सही चार बढ़े पाँच; 3/5 तीन बटे/बढा पाँच (पाँच में से तीन भाग। 
हिस्से; गणनावाची शब्द/भाज्य --९/ बँटना का कृदन्‍्त “बटा/बटे'-- गणनावाची शब्द/ 
भाजक); 9/0 नौ बटे/बटा दस (नौ दसवें भाग/हिस्से) ; ।/7 सातवाँ भाग/हिस्सा, 
एक बटे/बटा सात; 2 5/7 दो सही पाँच बटा/बटे सात (6) दशसलब घिन्‍्न--0-9 
शून्य दशमलव नो; 5:68 पाँच दशमलव छह आठ; एक पंकक्‍ित में नु क्ता/बिन्दु युत 
लिख गए अंक--3 8/5--2 35 तीन सही आठ बटे पनद्रह धन दो दशमलव 
तीन पाँच । 


3. परिमाण्बोधक विशेषण विशेष्य (पदार्थंवाचक या द्रव्यवाचक संज्ञा) के 
परिमाण (मात्रा, नाप-माप-तौल) की सुचना देते हैं। परिमाण निश्चित, अनिश्चित 
हो सकता है, अतः परिमाणवाची विशेषण भी' दो प्रकार के होते हैं--(क) निश्चित 
परिमाणवाचक (ख) अनिश्चित परिमाणवाचक । 


(क) निश्चित परिमाणबाचक विशेषण किसी वस्तु का निश्चित संख्या/मात्रा 
में परिमाण व्यक्त करते हैं, यथा--एक पाव (/सेर/लीटर/किलो) दृध/आटा, पौन 
किलो चने, एक किलो चावल (/किलो भर/मन भर चावल), लोटा भर घी, एक 
कनस्तर/टिन तेल, चार योजन दूरी, पाँच फुट लकड़ी, तीन मीटर कपड़ा। एक 
चोथाई वेतन किराये में चला जाता है । अभी केवल तीच चौथाई काम पूरा हुआ है । 


(ख) अनिश्चित परिसाणवाचक विशेषण किसी वस्तु का न्‍्यूनाधिक अनिश्चित 


परिमाण व्यक्त करते हैं, यथा--बहुत, अधिक, ज्यादा, थोड़ा, कम, जरा, तनिक, 


बेसी; ढेरों, मनों, ठतों; पूरा, अधूरा; इतना, उतना, जितना, कितना: ढेर सारा 
थोड़ा-सा, तनिक-सा, जरा, ढेर-प्ता, सारा, सब, कुछ; करीब-करीब । थोड़ा काम 
थोड़ा (--कुछ) अच्छा/बीमार; थोड़ी गरम/शरारती लड़की; ज्यादा मेहनत; थोड़ी- 
सी शेतान (चंचल/मोटी/दुबली) । 


कुछ लड़कियाँ (अनिश्चित. संख्यावाचक)--कुछ दूध (अनिश्चित परिमाण- द 
वाचक); और बच्चे (अनिश्चित संख्यावाचक)--और दूध (अनिश्चित परिमाण- | 
वाचक ); पुस्तक करीब-क्रीब पूरी हो चुकी है। गिनती या मात्नावाली संज्ञाओं के के 








264 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


गणतावाची संख्या शब्दों के साथ संज्ञा से पूर्व आते हैं, यथा--चौथाई/आधा समय 


एक तिहाई काम । डेढ़, ढाई का प्रयोग संज्ञाओं से पूर्व भी होता है और गणनावाची 


(सौ, हजार, लाख “:) संख्या शब्दों से पहले भी । पौने, सवा, साढ़े केवल गणना- 
वाची संख्या के साथ आते हैं, यथा--साढ़े तीन या अधिक गणनावाची संख्या 
के पूर्व आता है। (8) क्रमवाची संख्या शब्द अपने विशेष्य के लिंग, 
वचन, कारक से अन्वित होते हैं, यथा--तीसरा लड़का, तीसरे लड़के को, तीपरे 
लड़के / तीसरी लड़की, तीसरी लड़की से, तीसरी! लड़की ! (9) संयुक्त क्रमवाच्ी 


संख्या शब्द में उस की अंतिम संख्या का ही रूप बदलता है, यथा--तीन सौ बत्तीसवाँ 
सिपाही; एक सो सोलहवें कं दी को; दो सौ पच्चीसवीं स्त्री (ने)। (20) वाक्य में... 


क्रमवाची संख्या शब्द बिशेषक या विधेय के नामिक अंश के रूप में आते हैं, यथा-- 
सुशीला का सोलह॒वाँ साल चल रहा है । आप का डिब्बा इंजन से छठा है। प्रथम/ 
द्वितीय विश्वयुद्ध । (24) प्रतिशत की अभिव्यक्ति के लिए गणनावाची संख्या 
शब्द के बाद प्रतिशत/फी सदी रख कर की जाती है, यथा--(5%) पनद्रह प्रतिशत 
(/फी' सदी) साधारण ब्याज की दर से; भारत की आबादी का 70 प्रतिशत गाँवों में 
रहता है। (22) गणनावाची संख्या शब्दों में गुना (अर्थ प्रत्यय) जोड़ कर बने 
आवृत्तिवाची संख्या शब्द विशेष्य के लिंग, वचन से अन्वित होते हैं, यथा--दुगुनी 
उपज, तिगरुनी खपत । वाक्य में आवृत्तिवाची संख्या शब्द विशेषक या विधेय के 
अंश के रूप में आते हैं, यथा--इस योजना का दुगुना विस्तार किया जाना चाहिए। 
भारत के कई नगरों में आबादी चौगुनी बढ़ (हो) गई है। घी का भाव पिछले वर्ष 
की तुलना में इस वर्ष दुगुना (तीन गुना अधिक) है। महँगाई बढ़ने से प्रत्येक 

परिवार का खर्च चौगुने से ले कर छह भुने तक बढ़ गया है। (23) 'कई' के साथ 
आ कर गुना अनिश्चित अनेकत्व की सूचना देता है, यथा--पिछले पाँच वर्षों में 

. भारत और जापान के मध्य लोहे का व्यापार कई गुना बढ़ गया है । 


संख्यावाची शब्दों/अंकों के कुछ अन्य प्रयोग--(/) संस्क्ृत समासों में संस्कृत... 
संख्याओं का प्रयोग होता है, यथा--त्रिकाल, व्विभुज, त्रिलोक, चतुरंग, चतुयुंग, 


चतुभू ज, पंचरात्र, पंचारिन, पंचदेव, षट्कोण, षड़्यन्त, षड्रस, सप्त्षि, सप्ताह, 


सप्तद्वीप, अष्टांग, अष्टभुज, अष्टछाप, नवरात्र, नवग्रह, नवरत्न आदि । (2) 00..: 


. से कम की संख्याओं के साथ पौने (एक इकाई का चौथाई कम), सवा (एक इकाई 
. का चौथाई अधिक), साढ़े (एक इकाई का आधा अधिक) अथे को व्यक्त करते हैं। 
सौ, हजार, लाख आदि के साथ ये एक इकाई से संबंध नहीं रखते, बल्कि सम्बद्ध 

संख्या से संबंध रखते हैं, यथा---275 पौने तीन सौ, 225 सवा दो सौ, 4500 साढ़े 

चार हजार । हिन्दी में पोने सौ (/हंजार/लाख) बोलने का प्रचलन नहीं है, इन के 


. स्थान पर पचह॒त्तर, सात भी पचास तथा पचह॒त्तर हजार बोला जाता है। का. । 
. पोने, सवा, डेढ़, ढाई, साढ़े का प्रयोग समय/|बजे बताने के लिए भी होता है | हिन्दी... 
पीने एक, सवा एक'* के स्थान पर “'पौच, सवा का अधिक प्रचलन है। 


विशेषण | 265 


(4) खंडवाची शब्दों के लिए प्राचीन हिन्दी में खड़ी पाई (॥) का प्रयोग भी होता था, 
यथा---) चौथाई, ॥ आधा, ॥॥) पौन, १। सवा, १॥ डेढ़, १॥। पौने दो, 2॥ ढाई, 
३॥ साढ़े तीन । रुपये-आने-पैसे इस प्रकार लिखे जाते थें-- )। एक पैसा, -) एक 
आना, १॥॥ £ )॥। एक रुपया पतन्वह आने तीन पैसे (5) 2500 ढाई हजार/पच्चीस 
सौ/दो हजार पाँच सौ; 359 रु० साढ़े तीन रुपये/तीन रुपये पचास पैसे; !*25 
रू० सवा रुपया(एक रुपया पच्चीस पैसे; :50 रु० डेढ़ रुपया/एक रुपया पचास 
पैसे; 3:75 रु० पौने चार रुपये/तीन रुपये पचह॒त्तर पैसे; 2:5 सवा दो बजे/दो 
बजकर पन्‍न्द्रह मिनट; 40:45 पौतने ग्यारह बजे/।दस बजकर पैंतालीस मिनट; 
3 4/5 तीव सही चार बटे पाँच; 3/5 तीन बदे/बठा पाँच (पाँच में से तीन भाग/ 
हिस्से; गणनावाची शब्द/भाज्य--९/ बँटना का कृदन्‍्त 'बटा/बटे' -- गणनावाची' शब्द/ 
भाजक); 9/40 नो बढे/बटा दस (नो दसवें भाग/हिस्से) ; ।/7 सातवाँ भाग/हिस्सा, 
एक बटे/बटा सात; » 5/7 दो सही पाँच बटा/बढे सात (6) दशमसलव सिन्‍त---0*9 
शून्य दशमलव नौ; 5:68 पाँच दशमलव छह आठ; एक पंकक्‍्ित में नु क्ता/बिन्दू युत 
लिखे गए अंक--3 8/45--2 35 तीन सही आठ बटे पन्‍न्द्रह धन दो दशमलव 
तीन पाँच । 

3. परिमाणबोधक विशेषण विशेष्य (पदार्थेवाचक या द्रव्यवाचक संज्ञा) के 
परिमाण (मात्रा, नाप-माप-तौल) की सुचना देते हैं। परिमाण निश्चित, अनिश्चित 
हो सकता है, अतः परिमाणवाची विशेषण भी दो प्रकार के होते हैं---(क) निश्चित 
परिमाणबाचक (ख) अनिश्चित परिमाणवाचक । 


(क) निश्चित परिसाणवाचक विशेषण किसी वस्तु का निश्चित संख्या/मात्रा 
में परिमाण व्यक्त करते हैं, यथा--एक पाव (/सेर/लीटर/किलो) दृध/आटठा, पौन 
किलो चने, एक किलो चावल (/किलो भर/मन भर चावल), लोटा भर घी, एक 
कनस्तर/टिन तेल, चार योजन दूरी, पाँच फुट लकड़ी, तीन मीटर कपड़ा । एक 
. चौथाई वेतन किराये में चला जाता है | अभी केवल तीन चौथाई काम पूरा हुआ है । 


(ख) अनिश्चित परिसाणवाचक विशेषण किसी वस्तु का न्‍्यूनाधिक अनिश्चित 
प्रिमाण व्यक्त करते हैं, यथा--बहुत, अधिक, ज्यादा, थोड़ा, कम, जरा, तनिक 
बेसी; ढेरों, मनों, टनों; पूरा, अधूरा; इतना, उतना, जिंतना, कितना; ढेर सारा 
थोड़ा-सा, तनिक-सा, जरा, ढेर-सा, सारा, सब, कुछ; करीब-करीब | थोड़ा काम 
थोड़ा (-- कुछ) अच्छा/बीमार; थोड़ी गरम/शरारती लड़की; ज्यादा मेहनत; थोड़ी- 
सी शतान (/चंचल/मोटी/दुबली) । 


कुछ लड़कियाँ (अनिश्चित संख्यावचक)--कुछ दूध (अनिश्चित परिमाण- 
वाचक); और बच्चे (अनिश्चित संख्यावाचक)--और इंध (अनिश्चित परिमाण- 
वाचक ); पुस्तक क्रीब-क्रीब पूरी हो चुकी है। ग्रिनती या मात्रावाली संज्ञाओं के हा 








266 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


साथ थोड़ा-सा' का प्रयोग, अन्यत्न थोड़ा का प्रयोग होता है, यथा --थोड़ी-सी चाय 
(/चीनी/कमीज ), थोड़ी देर (/तकलीफ) थोड़ा दर्द (/आराम)। 

4. सार्वतासिक विशेषण विशेष्य (संज्ञा) से पृ्वे आनेवाले मूल या व्युत्पन्त 
सवेताम शब्द होते हैं। मूल सर्वताम कारक-चिह्‌ न सहित (यथा--मेरा/मिरी/मिरे, 
उस का|की।के आदि) और कारक-चिह न रहित (यथा - यह, वह, इस, उस, इन, 
उन आदि) प्रयुक्त होते हैं। व्युत्पतन स्वताम रूप साहश्यवाची, परिभाणवाची होते हैं 
यथा--ऐसा, बसा, कैसा, जंसा, तेसा; इतना, उतना, जितना, कितना, (तितना) 
मेरी टाई, तुम्हारा कोट, यह लड़का, वह लड़की, कोई-सी पुस्तक, कौन-सी पुस्तक, 
कोई नेता, कौन अभिनेता, जो बच्चे, ऐसी साड़ी, ऐसी-वैसी चीज, कैसा मेला 
कितना घी । यह टोपी मेरी है, तुम्हारी नहीं (सर्वेताम) -- यह मेरी टोपी है--तुम्हारी 
नहीं (विशेषण) | सावनामिक विशेषणों के मूल, व्युत्पल्त रूप--यह (:>ऐसा/ऐसी/ 
ऐसे, इतना /इतनी/इतने), वह (>वसा , उतना) क्‍या (>केसा कितना 
“४. जो (> जैसा: ह जितना“), सो (:>तैसा -* तितना'"«** है 

किसी की बात को दुहराने या उस के बदले में अमुक|फलाँ/|कुलाना' का 
प्रयोग होता है। ये शब्द प्रत्यक्ष उक्ति में नहीं आते, यथा--प्रत्यक्ष उक्ति--तुम 
(किसी दिन/|शाम को/20 तारीख के) सबेरे वडलैंड होटल में मिलो । इस वाक्य की 
पुनः अभिव्यक्ति होगी---उस ने ((उन्हों ने) मुझ से कहा कि मैं फरलाँ दिन (तारीख 
- को) फला होटल में उस से (/उन से) मिल । 

उदू से आगत ऐन शब्द ठीक/उसी' अथ्थ में प्रयुक्त है, यथा--ऐन व क््त 
पर, ऐन मौक पर: । अ 

5. कृदन्‍ती विशेषण भूतकालिक तथा वर्तमानकालिक क्ृदन्तों से व्युत्पन्न 
विशेषण हैं। यथा- फटा (/फटा हुआ) कपड़ा ; टूटा ((दूटा हुआ) प्याला ; बहता 
(/बहता हुआ) पानी ; उड़ती (/उड़ती हुई) चिड़िया ; जमा राशि (/भीड़); कुल जरा 
पूंजी (पाँच सौ रुपये)। दो जमा (धन) पाँच >- सात । (ह्ृदन्तों के बारे में विस्तार 
से अध्याय 7 में लिखा गया है) | ; 

6. सादश्यवाची विशेषण संज्ञा, विशेषण शब्दों के साथ “सा, जैसा, सरीखा 
रख कर बनते हैं, यथा--फूल-सा बदन, कमल-सी आँखें, चाँद-सा मुखड़ा, सिह-सा 
ताकतवर; रेशम जैसे बाल (/रेशम-्से बाल), नागिन जेसी चोटी, हथिनी जैसी चाल; 
हरिश्चन्द्र सरीखा सत्यवादी, अशोक सरीखा राजा । “सा” निकटता|े लगभग अथे 
का दूयोतक है । शहद जेसी (-सी) मिठास, शहद जैसा (/-सा) मीठा । -सा/जैसा। 
सरीखा लगने प्र शब्द तियेक रूप में आता है, यथा--घर जैसा खाना, घोडे जैसी 
चाल, बढ़ों जैसी बातें, बच्चों जेसी चंचलता, तुझ जैसा नालायक, हथिनी सरीखी 


 भारी-भरकम | संज्ञार्न- नप्ता+-विशेषण प्रयोग उपयुक्त है, किन्तु संज्ञान- -सा-न- 


.. संज्ञा के प्रयोग के समय का” का प्रयोग कहीं विकल्प से, कहीं अनिवायं होता है, 





विशेषण | 267 


यथा -- उस जैसा मतलबी, शहद जैसी मिठास; घर-सा खाना/घर का -सा खाना/धर 
जैसा खाना/|घर के खाने जैसा ही खाना 


तीला-सा, थोड़ा-सा, बहुत-्सा में “सा निकट के अर्थ का द्वोतक है । 
अच्छा-सा कम्बल, बड़ी-सी दुकान। मात्रा-दुयोतन के लिए बहुत-सा आता है, 
यथा--उन्हों ने बहुत-सा खाना खाया । क्रिया-व्यापार की अधिकता के लिए “बहुत! 
आता है, यथा--वे बहुत खाना खाते हैं (/पानी पीते हैं), तुम बहुत बातें करते/ 
बनाते हो । 


विशेषण शब्दों की विशेषता/मात्रा (गुण, लक्षण के विभिन्‍न स्तर) बतानेवाले 
विशेषण शब्द प्रविशेष्णप्रबलक कहलाते हैं, यथा--बहुत अधिक चिन्ता करना 
स्वास्थ्य के लिए बहुत घातक है । बहुत अधिक, ज्यादा, थोड़ा, कम, अति, कतई, 
कहीं, जरा, किचितू, और भी, कुछ, बड़ा, काफी, बिलकुल” शब्द प्रविशेषण के रूप 
में प्रयुक्त हो सकते हैं, यथा--तुम्हारी यह साड़ी तो बहुत अच्छी है। उन्हें क्रिया- 
विशेषण मातता/कहुना श्रमात्मक है। आजकल कतई का प्रयोग 'बिलकुल के अर्थ 
में किया जाने लगा है, यथा>-जी हाँ, आप को यह बात कतई वाजिब है। मुझे 
तुम्हारी यह चुहलबाजी कतई नापसन्द है। सही प्रयोग है--'कतई नहीं, यथा-- 
मुझे तुम्हारी इन बातों पर कतई विश्वास/यकीन नहीं है । मुझे तृ॒म्हारी यह हँसी- 
मजाक कतई पसन्द नहीं है| ब्रज आदि हिन्दी-बोलियों में कुछ लोग ज्यादह के स्थान 
पर जास्ती' तथा कम के स्थाव पर 'कमती” शब्द का प्रयोग करते हैं जो अमानक 
प्रयोग हैं। कम >कमी संज्ञा है, कमती विशेषण अमानक है । 


काफी (पर्याप्त का प्रयोग प्रविशेषण/प्रबलक के रूप में तो ठीक है, यथा--कल 
का कार्यक्रम काफी|पर्याप्त अच्छा कहा जा सकता है। शताब्दी एक्सप्रेस काफी। 
पर्याप्त तेजू दौड़ती है ; किन्तु 'कई/अधिक/बहुत' के अर्थ में इन का प्रयोग त्याज्य है, 
यथा---<£कमरे में काफी कुसियाँ थीं। <£बच्चे ने काफी चाकलेट खा ली हैं । 


बाला" अर्ध प्रत्यय का हिन्दी में विशेषण के रूप में व्यापक स्तर पर प्रयुक्त 
होता है। क्रिया को छोड़ कर अन्य शब्दों के साथ यह निर्देश तथा पहचान की सूचना 
देता है, यथा--नीलीवाली, मोटीवाली, सब से ऊपर/नीचेवाली पुस्तक; पगड़ीवाला/ 
मू छोंवाला/टोपीवाला आदमी । माँ, बाहर कोई/एक पगड़ीवाला (आदमी) खड़ा है । 
परसोंवाली घटना, पाकंवाली बात, कॉलेजवाला झगड़ा/मामला । 'का' के प्रयोग से 
संबंध में अन्तर आ जाता है, यथा--पार्कवाली बात--पार्क की बात । वाली' झे 
एक से अधिक बातों में से एक की ओर संकेत हो रहा है, जब कि 'की” से बात का 
संबंध पाक से भी जुड़ा रहा है । कपड़ेवाले जूते, चमड़ेवाला बैग, जरीवाली साड़ी” 
में साधन तथा वस्तु का अंगांगी संबंध है जो का से भी व्यक्त हो तकता है, किर 
वाला से किसी एक की सूचना मिल रही है । सम्भावित परिणाम का संकेत 'वाला 











268 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


से, निश्चित सम्बन्ध का! से प्रकट होता है, यथा--नुकसानवाली बात से"... 
नुकसान की बात से; झगड़ेवाले मामले में: --.._ झगड़े के मामले में । 
सज्ञार्थक क्रिया-+-वाला विशेषण की भाँति काम करते हैं, यथा “-नाचनेवाली ._ 
लड़की, भाषण देनेवाले के पास, लोग बानेवाले हैं, गाड़ी छूटने ही वाली थी कि. - | 
कहीं-कहीं यह निर्देश की सूचना भी देता है, यथा--तबला बजानेवाले से पूछो . 
क्या आप आज रुकनेवाले हैं ? किन्तु 'आँधी आने ही वाली है ; थोड़ी देर में अध्यक्ष 
जी पधारने ही वाले हैं” में निर्देश नहीं है | | 
बाला' को स्थानापत्ति कुछ सन्द्नों में 'जो* से होती है यथा--हज के 


जानेवाले' “(जो लोग हज को जा रहे हैं); हॉल में घुसनेवालों की: 
(जो लोग हॉल में घुसेंगे/प्रवेश करेगे उन की - -- / हमेशा भौंहें चढ़ा कर बोलने 
वाली" “(जो हमेशा भौंहें चढ़ा कर बोलती है. /; वाला से कार्य की 


निकटता, अनुमान की सूचना मिलती है, यथा--जल्दी चढ़ो, गाड़ी चलनेवाली है । 
लगता है वर्षा आनेवाली है। दावत में कितने लोग आनेवाले हैं (/आ रहे हैं) ? 
लगता है आज बिजली नहीं आनेवाली (/बिजली नहीं आएगी) । पिता जी (अभी) 
सोने वाले हैं--पिताजी अभी सोएंगे । द 

वाक्य में वितरण, प्रयोग के आधार पर विशेषणों को उद्देश्य विशेषण, 
विधेय विशेषण कहते हैं । उद्देश्य (/विशेष्य) विशेषण विशेष्य के तुरन्त-पु॑ आते हैं, ४ 
यथा - काली गाय लम्बे-चौड़े खेत में हरी-हरी घास चर २ ही हैं । विधेय विशेषण ._ 
विशेष्य के बाद या क्रिया के पूरक के रूप में आते हैं, यथा--यह लड़का बहुत... 
बदसाश है। वे सारे लोग गृ लाम थे । द हि 

विशेषण-रूपान्तर विशेष्य के लिंग, वचन तथा कारक से प्रभावित होता है। 
कुछ विशेषण शब्द रूपान्तर के समय शून्य प्रत्यय से युक्त होने के कारण अपने पूल. 
. रूप में यथावत्‌ रहते हैं, कुछ शब्द रूपान्तर के समय -आ/-ई/-ए प्रत्यय से युक्त होने... 
. के कारण रूप परिवतंन करते हैं। रूप-परिवत॑न के आधार पर विशेषणों को दा 
वर्गों में रखा जाता है - आ/भाँ युत विकारी शब्द वर्ग --काला वर्ग; -आ/आँ रहित... 
अविकारी हब्द वर्गं--सफ द वर्ग । विकारी वर्ग के विशेषण संज्ञा से अन्वित होते. 
हैं। इन के लिग, वचन और कारक रूप स्वतन्त् नहीं होते, संज्ञा पर आश्रित रहते । 
हैं। अविकारी वर्ग के विशेषण संज्ञा से अन्वित नहीं होते और न उन में कोई रूपान्तर 
होता है।.. हक का लए हक, 

... काला वर्ग (अच्छा, बुरा, छोटा, बड़ा, चौड़ा, लम्बा; दायाँ, बायाँ, ढलवां 

3 पल्लिगत छा 28० . स्त्रीलिंग का 
काला (हाथी) काले (हाथी) काली (हथिनी) काली (हथिनियाँ) 
.. तियंक रूप काले (हाथी ने) काले (हाथियों ने) काली (हथिनी को काली (हथिनियों को... 





विशेषण | 269 


सफ्द वर्ग (गोल, लाल, सुन्दर, सुडोल, बासी, असली, वजनी, सुरमई, 
बाजारू ओदि) । 
पुल्लिग स्त्रीलिंग 
एक ० बहु ० एक ० बहु० 


ऋजु रूप सफंद (घोड़ा) सफेद (घोड़े) सफेद (घोड़ी) सफेद (घोड़ियाँ) . 


तियंकू रूप सफेद (घोड़े पर) सर्फ द (घोड़ों सफूद (घोड़ों का) सफेद (घोड़ियों से) 
पर) 

नाता (अनेक), सवा, जुरा, घटिया, ताजा, बढ़िया, उम्दा, ज्यादा, जिन्दा, 
पुरुता, अदना, आवारा, खसता, चोखा, दुतरफा, ख शनुमा, सालाना, चुनिन्‍्दा, 
पेचीदा, शर्मिन्दा, नादाँ, आमादा, पैदा, जुदा, जमा, फिंदा, खफा, अदा, बिदा, 
सफा; समस्त संख्यावाची शब्द काला वर्ग के अपवाद हैं। इन के रूप अपरिवर्तित 
रहते हैं । 

सार्वतामिक विशेषणों का सवेनामों की भाँति ही रूपान्तर होता है, यथा--- 
उन को--उन लड़कों को, हमारा(हमारी/हमारी (बेटा/बेटी, बेटियाँ/बिटे) । संस्कृत- 
व्यवस्था से प्रभावित कुछ लोग कुछ रूपान्तरित संस्क्ृत विशेषणों का प्रयोग करते हैं, 
यथा--हूपवा न्‌-रूपवती, सुन्दर-सुन्दरी, चंचल-चंचला, सुशील-सुशीला, बुद्धिमान्‌- 
बुद्धिमती, शांतिमय-शांतिमयी, अपराधी-अपराधिनी, कार्यकारी-कार्यकारिणी, महान्‌- 
महती, युवक-युवती, साधु-साध्वी, विद्वान्‌-विदुषी। हिन्दी में 'सुन्दर (/चंचल| 
बुद्धिमान्‌/सुशीला) पुरुष/महिला” का प्रयोग सर्वस्वीकृत है । 


संज्ञावत्‌ प्रयुक्त विशेषणों के रूप संज्ञा शब्दों के समान रहते हैं, यथा--बड़ों 


(बड़े लोगों) का कहना मानना चाहिए । बीरों (/वीर पुरुषों/भहिलाओं) ने क्‍या कुछ 
नहीं किया है। मैं ने सुन्दरी (/सुन्दर लड़की) से रोने का कारण पूछा। 
 उद्द से आए कुछ अविकारी विशेषण विकारी होते जा रहे हैं, यथा--गन्दा, 
सस्ता, सादा, ताजा ।... बट 
.. विशेषण-तुलनावस्था--दो या अधिक प्राणियों या पदार्थों के ग्रुणावगुणों का 
मिलान तुलना कहा जाता है। तुलना के आधार पर विशेषण शब्द रूपों की तीन 
अवस्थाएँ/स्थितियाँ होती हैं--() मूल स्थिति 2. उत्तर स्थिति 3. उत्तम स्थिति । 
£. मूल अवस्था में किसी से तुलना न होने के कारण विशेषण अपने मूल (/प्रथम) 
रूप में रहता है। मूल कोटि रूप के आधार पर अन्य दोनों कोटियों के रूप बनते हैं । 
यथा---यह पलंग बड़ा है। यह अच्छा भी है। (2) उत्तर अवस्था (-- -तर रूप) 


में दो विशेष्यों की तुलना होने के कारण विशेषण शब्द-रूप अपनी उत्तर (द्वितीय) 


अवस्था में रहता है। हिन्दी में उत्तर (उत्‌-- -तर फलवा८) रूप का प्रयोग नहीं 


होता, यथा--यह पलंग उस पलंग से. (काफी) बड़ा है, यह उस से अच्छा भी है। 


(3) उत्तम अवस्था (उत्‌-- -तम) (+ -तमतृतीय अवस्था) में दो से अधिक 





270 | हिन्दी का विवरणात्मक ध्याकरण 


विशेष्यों की तुलना (वस्तु में गुण/लक्षण/|विशेषता न्यूबतम या अधिकतम) होने के 
कारण विशेषण शब्द-रूप अपनी उत्तम अवस्था में रहता है, यह पलंग उन सभ्री 
पलंगों से (काफी) बड़ा है, यह उन सब से अच्छा भी है। हिन्दी में उत्तम (8680) 
के लिए सर्वोत्तम का प्रयोग चल पड़ा है । हु 
उत्तर, उत्तम भवस्थाओं के सूचक -तर, -तम संस्क्ृत-प्रत्यय हैं। संस्कृत से 
आगत अनेक विशेषण शब्दों का हिन्दी में -तर, -तम प्रत्ययों का प्रयोग होता है, 
यथा--सुन्दर-सुन्द रतर-सुन्दरतम , उच्च-उच्चतम, अधिक-अधिकतर-अधिकतम, प्राचीन- 
प्राचीनतर-प्राचीनतम, लघु-लघुतर-लघुतम, गुरु-गुरुतर-गुरुतम, महान्‌.महत्तर-महत्तम, 
बहत्‌-बुहत्तर-बृ हत्तम, तीब्र.तीब्रतर-तीव्रतम, न्यून-न्यूनतर-सन्यूनंतम, निक्षष्ट-निक्ृृष्टतर 
निक्ृष्टतम, उत्कृष्ट-उत्कृष्टतर-उत्कृष्टतम, कुटिल-कुटिलतर-कुटिलतम, विश्ञाल- 
विशालतर-विशालतम, अन्य-अन्यतर-अन्यतम । संस्कृत में प्रयुक्त -ईयस्‌ (श्रेयस्‌), 
-इृष्ठ (श्रंष्ठ) प्रत्ययों में से केवल -इष्ठ प्रत्यय से युकत्त आगत कुछ शब्दों का हिन्दी, 
में रूढ़ अर्थ में प्रयोग होता है, तुलना के रूप में नहीं, यथा--घनिष्ठ, बलिष्ठ, श्रेष्ठ, 
ज्येष्ठ, कनिष्ठ, गरिष्ठ, वरिष्ठ । हिन्दी में इन विशेषणों में इन का उत्तमावस्थावाला 
अर्थ लुप्त प्राय है। इन विशेषणों का प्रयोग प्रायः इन की मुलावस्थावाले अर्थ में 
किया जाता है ! उत्तर, उत्तम अवस्था सूचित करने के लिए कुछ लोग इन में तर, 
-तम प्रत्यय लगाते हैं, जो व्याकरणिक व्यवस्था के आधार पर गलत प्रयोग ही कहा. 
जाएगा, यथा--ज्येष्ठतर-ज्येष्ठतम, श्र ष्ठतर-श्रं ष्ठतम । संस्क्ृतनिष्ठ शैली में संस्कृत 
के -तर, -तम प्रयोगों से युक्त शब्दों का प्रयोग होता है, यथा--महानतम' व्यक्ति, - 
उच्चतर शिक्षा, न्यूनतम वेतन आदि | हीनतम, कोमलतम जसे--शब्दों का प्रयोग 
भी सही है । 
तुलनावस्था को इस प्रकार भी विश्लेषित किया जा सकता है--() निरपेक्ष 
अवस्था (2) (क) उत्तरावस्था (ख) उत्तमावस्था | निरपेक्षावस्था/ 
मूलावस्था में यद्यपि किसी दूसरे विशेष्य की आवश्यकता नहीं होती, फिर भी कुछ 
प्रयोगों में परोक्षतः तुलना-भाव झलकता रहता है, यथा--वह बहुत ही आकषंक है 
यह कपड़ा कुछ भद॒दा-सा है। बच्ची अत्यन्त (/अति) प्यारी है । ः 
उत्तरावस्था; उत्तमावस्था के लिए हिन्दी में विशेषण की मूलावस्था के साथ... 
से, की अपेक्षा, से अधिक, से कम, से कहीं, से बढ़कर, से घटकर, की बनिस्वत, 
की तूलना में, के मुकाबले, के आगे, के सामने” शब्दों का प्रथोग किया जाता है, 
यथा “-हेमा रेखा से (/की अपेक्षा) सुन्दर है। यह मेज उस मेज से कहीं. 
(की बनिस्वत) अच्छी हैं। मेरे पड़ोसी का पुत्र उस की पुत्री से कम (सि अधिक 
समझदार है । हेमा इन सब लड़कियों से (/की अपेक्षा) सुन्दर है। यह मेज उन मेजों 
- से कहीं (/की बनिस्वत) अच्छी है। मेरे पड़ोसी का पुत्र उस के अन्य बच्चों से कम. 
.... (से अधिक) समझ्नदार है। उत्तरावस्था में दोनों में, दोनों में से, उत्तमावस्था में 
... सब से, सब में, सभी में/से/में से” शब्दों का प्रयोग भी किया जा सकता है, यथा--- 








"७ टन ल <ल अलतननललननन>+-+ननन कप नमन पिन नन+- 4५०५० ++ न ---तलनीय न +++3+-५ननननीनन+ जन नननन->»++++97८ “५+.- 777५ 


विशेषण | 277 


इन दोनों में ((दोलनों में से) कौन-सी घड़ी बढ़िया है ? इन घड़ियों में सब से बढ़िया 
घड़ी कौन-सी है ” अच्छी से अच्छी पुस्तक; बड़ी से बड़ी कोठी; बढ़िया से बढ़िया 
चावल; बड़े से वड़ा आदमी आदि । ु 
. आजकल “अधिकतर का अर्थ 'से अधिक' न रहकर 7705, 77059 जैसा 

हो गया है, यथा--आज अधिकतर लोग शासन-व्यवस्था में परिवर्तंत चाहते हैं । क्‌छ 
लोग अधिकांश (अधिक--अंश) का प्रयोग लोग, व्यक्ति, जनता जैसे शब्दों के साथ 
भूल से कर देते हैं। इस का प्रयोग अप्राणिवाची शब्दों के साथ ही किया जाना 
चाहिए, यथा--मेरी अधिकांश सम्पत्ति; आप का अधिकांश समय; लोगों की 
अधिकांश शक्ति । इस का प्रयोग अधिकतर के स्थान पर नहीं किया जाता । 

हिन्दी में उदू (फारसी) के -तर, -तरीन प्रत्यय डिग्री-भेद नहीं दिखाते, 
यथा - बेहतर (-"-अच्छा), बेहतरीन (ज-बहुत अच्छा) । पेशतर, ताजा-तरीन 
साहित्यिक उदय शैली के शब्द हैं। सफ दतर ? मजबूततर ? सफ दतरीन, मजबूत- 
तरीन का प्रयोग कम ग्रचलित। आम बोलचाल में स्तर-भेद. अधिक, बहुत अधिक, 
अत्यधिक, ज्यादा, बहुत ज्यादा” आदि शब्दों से ध्रकट किया जाता है, यथा--- 
आजकल वह ज्यादा ही खू श नजर आती है। वाक्य-स्तर पर स्तर-भेद “इतना: 
कि' से भी व्यक्त किया जाता है, यथा--यह साड़ी इतनी अच्छी थी कि क्‍या कहे । 
वह शतरंज खेलने में इतना होशियार हो गया है कि अपने पिता (/सब साथियों) को 
हरा देता है। अनिश्चित परिमाणवाचक विज्ञेषणों में 'अधिक' ज्यादा, कम” की 
तृलना कोरटियाँ हैं । कुछ गुणावाचक विशेषणों की तुलना कोटियाँ नहीं होतीं, यथा--- 
अभिन्‍न, अक्षम्य, अचल, अटूट आदि; नकारात्मक अर्थबोधक विशेषण ; अन्धा, बहरा, 
गूगा, नंगा आदि इंगित ग्रुणों/लक्षणों के सूचक विशेषण जिन की शाब्दिक अथों में 
तुलना नहीं हो सकती । द 

विशेषण निर्माणआधार--कुछ शब्द वाक्य प्रयोग की दृष्टि से मूलतः 
विशेषण होते हैं तथा कुछ विशेषण शब्द व्युत्पन्‍्न किए जा सकते हैं। रचना के स्तर 
पर व्युत्पन्त विशेषणों के निर्माण के आधार हैं--संज्ञा, सर्वेताम, क्रिया शब्द । क्‌छ 
विशिष्ट प्रत्ययों के योग से व्युत्पन्न विशेषणों का निर्माण किया जा सकता है, यथा-- 
() संज्ञा शब्दों से विशेषण-निर्माण के लिए “इक, “-इत, -इम, -इर, -इल, -ई, -ईन, 
“ईय, -ईला, -निष्ठ, -रीय, -मती, -मय, -मान्‌ू, -य, -र, -रत, -ल, -वती, “वान्‌, 
-वी, -शाली, -स्थ' प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है, यथा--(-इक) अर्थ-आ्िक, 
अलंकार-आलंकारिक, अंश-आंशिक, इतिहास-ऐतिहासिक, करुणा-हारुणिक, कल्पना- 
काल्पनिक, तत्त्व-तात्त्विक, दिन-दैनिक, दैव-दैविक, धर्म धामिक, नीति-नैतिक, पक्ष- 
पाक्षिक, परिवार-पारिवारिक, बुद्धि-बौद्धिक, शब्द-शाब्दिक, संकेत-सांकेतिक, 
संस्क्ृति-धास्कृतिक, समाज-सामाजिक, साम्प्रदाय-साम्प्रदायिक, साहित्य-साहित्यिक, 
स्वरगं-स्वगिक, हृदय-हादिक। (-इत) अंक-अंकित, अपमान-अपमानित, अवलम्ब- 








272 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अवलम्बित, कुूसुम-कुसुमित, क्षुधा-क्षुधित, तरंग तरंगित, ध्वनि-ध्वनित, पल्लव- 
पल्‍लवित, पिपासा-पिपासित, लोह-लोहित, सम्मान-सम्मानित, सुरभि-सुरभित। 
(-इस) आदि-आदिम, रक्‍्त-रक्तिम, स्वर्ण-स्वणिम । (-इर) मद-मदिर, रुचि रुचिर। 
(-इल) ऊर्मि-ऊमिल, जटा-जटिल, पंक-पकिल, फेन-फेतिल । (-ई) अधिकार-अधिका री, 
अनुभव-अनुभवी, अनुराग-अनुरागी, उपयोग-उपयोगी, ऋण-ऋणी, काम-कामी, ज्ञान- 
ज्ञानी, दुःख-दु:ःखी, नाम-तामी, पाप-पापी, प्रेम-प्रेमी, पराक्रम-पराक्रमी, बल-बली, 
भीतर-भीतरी, विजय-विजयी, विनय-विनयी, विरोध-विरोधी, संयम-संयमी । (-ईन) 
कूल-कुलीन, ग्राम-ग्रामीण, प्रातःकाल-प्रात:कालीन, मध्यकाल-मध्यकालीन, रात्रि- 
रात्रिकालीन, विश्वजन-विश्वजनीन । (-ईय) आत्मा-आत्मीय, ईश्वर-ईश्वरीय, कथन- 
कथनीय, क्षेत्र-क्षेत्रीय, चिन्तव-चिन्तनीय, जाति-जातीय, दर्शन-दर्शनीय, दानव-दानवीय, 
देश-देशीय, नरक-नारकीय, पवबत-पववेतीय, प्रान्त-प्रान्तीय, भारत-भारतीय, मानव- 
मानवीय, वर्णन-वर्णातीय, विदेश-विदेशीय. शास्त्र-शास्त्रीय, शासक-शासकीय, सम्पादक- 
सम्पादकीय, स्थान-स्थानीय, स्मरण-स्प्रणीय ,, स्वर्ग-स्वर्गीय । (-ईल,) कंकर-कँकरीला, 
ख्चे-खर्चीला, चमक-चमकीला, जोश-जोशीला, नोंक-नुकीला, पत्थर-पथरीला, बफ- 
बरफीला, रंग-रंगीला। (-निष्ठ) धर्मे-धर्म निष्ठ, सत्य-सत्यनिष्ठ । (-नीय) आदर- 
आदरणीय, पठ-पठनीय, पूजा-पुजनीय, मान-माननीय। (-मती) बुद्धि-बुद्धिमती, 
श्री-श्रीमती'। (-मय) जल-जलमय, दुःख-दुःखमय, सुख-सुखमय । (-सानू) बुद्धि 
बुद्धिमान, मति-मतिमानू, शक्ति-शक्तिमान्‌, श्री-श्रीमान्‌ । (-य) अन्त-अन्त्य, कंठ- 
कंठय, कथा-कथ्य, क्षमा-क्षम्य, चिन्ता-चिन्त्य, जन-जन्य, धन-धन्य, निन्‍्दा-निन्द्य, 

पूजा-पुज्य, मान-मान्य, मुत्यु-मत्य, वन-वन्य, वश-वश्य, सखा-सख्य, सभा-सभ्य, 
सन्ध्या-सान्ध्य, सेवा-सेव्य । (-र) मधु-मधुर । (-रत) कर्म-कमरत, धर्म-धर्मरत। 
(“ल) वाचा-वाचाल । (-बती) ग्रुण-गुणवती, पुत्र-पुत्नरवतती, रूप-रूपबती । (-वान) गुण- 
गुणवानू, नाश-नाशवानू, रूप-रूपवान्‌ू, सत्य-सत्यवानू । (-वी) ओजसू-ओजस्वी, 
तपस्‌-तपस्वी, तेजसू-तेजस्वी, मनस्‌-मनस्वी । (-शाली) गौरव-गौरवशाली, प्रतिभा- 
प्रतिभाशाली, बल-बलशाली, भाग्य-भाग्यशाली । (-स्थ) गृह-गृहस्थ, शरीर-शरीरस्थ | 
(7) सर्वेताम शब्दों से विशेषण-चिर्माण के लिए “सा, -तना' प्रत्यय जोड़े जाते हैं, 
यथा--(-सा) यह-ऐसा, वह-बैसा, कौन-कैसा, जो-जैसा । (-तना) यह-इतना, वह- 
उतना, कौन-कितना, जो-जितना । (77) क्रिया शब्दों से विशेषण-निर्माण के लिए 
“आ|-ई/-ए, -इन, अनीय, -वाला' जत्यय जोड़े जाते हैं, यथा-- (-आ/ई|-ए) उड़- 
उड़ा|उड़ी/उड़े, बीत-बीता/बीती/बीते (हुआ/हुई/हुए) । (-इत) पद्‌-पठित, पत्‌-पतित । 
.. (-अनीय) पूज-पूजनीय, वन्द्‌ू-वन्दतीय । (-बाला) पालना-पालनेवाला/पालनेवाली/ 
. पालनेवाले, भागना-भागनेवाला/भागनेवाली/भागनेवाले । 


पुनरुकत/संयुक्त विशेषण के दोनों शब्द समान लिग, वचन में रहते हैं तथा . 
दूसरा घटक तियंक्‌ बहुवचन में आता है, यथा--अच्छा-अच्छा/अच्छी-अच्छी/अच्छे- 








विशेषण | 273 


अच्छे; छोटे-बड़े-छोटे-बड़ों को । विशेषण शब्द की पुनरुक्ति गुण, लक्षण या विशेषता 
को अधिक सशक्त, भावपूर्ण तथा अभिव्यंजनात्मक बनाती है, यथा--छोटे-छोटे बच्चे; 
लम्बे-लग्बे बालोॉंवाली महिला की गोरी-गोरी वाहें । कभी-कभी पुनरुक्ति से उत्तम 
कोटि की अभिव्यक्ति होती है, यथा--नयी-नयी किताब । पृर्णता और समग्रता व्यक्त 
करनेवाले विशेषण “का” के साथ पुनरुक्त रूप में और सशक्त अर्थ व्यक्त करते हैं, 
यथा--उस ने पूरा का पूरा रसगुल्ला मुह में रख लिया था। 

विशेषणों का संज्ञाकरण--व्यक्तियों की विशेषताएँ व्यक्त करने वाले कुछ 
विशेषण पूर्णतः संज्ञा रूपों में संक्रमित हो सकते हैं और कुछ बिना किसी रूप-परिवतंन 
के संज्ञाओं की भाँति प्रयुक्त होते हैं। विशेषणों का संज्ञाकरण होने पर वे संज्ञा की 
भाँति काये करते हैं, न कि विशेषण की भाँति, यथा--अमीर, अपराधी, अन्धा/अच्धी, 
बहरा/बहरी, गूंगा/गूंगी, गरीब, जवान, प्रधान । कैदी, बन्दी (संबंधवाची विशेषण) 
का संज्ञाओं में पूर्ण संक्रमण हो जाता है। संज्ञाकृत विशेषणों का रूपान्तर तत्संबंधी 
लिग तथा अन्त्य स्वन|प्रत्यववाली संज्ञा के समान ही होता है, यथा--अन्धा-अन्धे 
अन्धों-अन्धो । अन्धी-अन्धियाँ अन्धियों-अन्धियो । धनी-धनी-धनियों-धनियो । ग्रीब- 
ग्रीब-ग्रीबों-ग्रीबो । द 














भाषा-व्यवहार के लिए प्रत्येक वावय में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से क्रिया की 

सत्ता अनिवाये है। क्रिया वाक्‍्य-रचना की दृष्टि से वाक्य का अनिवाय घटक है, 

इसीलिए क्रिया को वाक्य का मूलाधार|प्राण भी कहा जाता है । क्रिया वह शब्द/शब्द- 

समूह है जिस से किसी कार्ये-व्यापार के होने या करने (अथवा किसी सत्ता/स्थिति, 

घटता, व्यापार[संक्रिया, प्रक्रिया या परिवर्तत) की सूचता मिलती है, यथा--ईश्वर 

है । आसमान में बादल हैं। बसे ठकरा गईं । बच्चा खिलोनों से खेल रहा है। दवा 
पीते ही दर्द समाप्त हो गया । दर्जी ने बहुत बढ़िया सूट सिया है । 

प्रत्येक क्रिया के मुल रूप को धातु कहते हैं । धातु में -ना प्रत्यय जोड़ने से 

क्रिया का सामान्य रूप बनता है, यथा--शकुन्तला ने पत्र लिखा वाक्य में 'लिखा' 

क्रिया का मूल रूप 'लिख' है तथा क्रिया का सामान्य रूप है 'लिखना' | हिन्दी भाषा 


में क्रिया/क्रियापद वाक्यान्त में आने के कारण ससापिका क्रिया कहलाता है। हिन्दी 


में भाषा-व्यवहार के समय सामान्यतः: चार स्थानीय क्रिया रूपों का प्रयोग प्राप्त है, 
यथा--ले लिया गया था; कहा जा सकता है। पाँच स्थानीय क्रिया रूपों का प्रयोग 
अपेक्षाकृत कम ही होता है, यथा--बिना खाए-पीए सोना पड़ रहा है। दिनोंदिन 
कोठी गिरती चली जा रही थी । 

दयपि हिन्दी भाषा और उस की बोलियों में पाई जानेवाली क्रिया-धातुओं 


की संख्या लगभग 7000 से अधिक है तथापि मानक हिन्दी में लगभग 000 क्रिया- 


धातुओं का ही प्रयोग प्रचलित है। क्रियामुलक अभिव्यक्ति की विभिन्‍न छवियों की 


पूति के लिए हिन्दी में क्षियाओं का निर्माण पाँच प्रकार से किया जाता है--7. धातु _ 
से क्विया-निर्माण, यथा--पढ़-पढ़ना, लिख-लिखना, सुन-सुतना 2. धातु-इतर शब्दों से... 
क्विया-निर्माण, यथा--(क) संज्ञा शब्दों से--अकड़-अकड़ना, आलस्य-अलसाना, खरीद- 
खरीदना, जन्म-जनमना, ठग-ठगना, डर-डरना, धिक्‍्कार-धिक्कारना, फटकार-फट- 


.. कारता, फिल्म-फिल्माना, रंग-रंगना, हाथ-हथियाना आदि (ख) विशेषण शब्दों से--. 


.._ गर्म-गरमाना, दुहरा-दुहराना, मोटा-म्ुटाना, लेगड़ा-लँगड़ाना, सुस्त-सुस्ताना आदि (ग) 


सर्वेताम शब्द से---अपना-अपनाना (घ) अनुकरणात्मक शब्दों से, यथा--खटखटाना, 


की 





क्रिया | 275 


थपथपाना, गड़गड़ाना आदि । 3, क्रिया-इतर शब्द--क्विया संयोग से क्विया-निर्माण 
यथा--दिखाई देता, सुनाई पड़ना, क्षमा करना, स्वीकार होना आदि । इन्हें यौगिक 
क्रिया कहा जाता है। कुछ लोग इल्हें वामबोधक क्रिया/वामिक क्रिया/जटिल नामिक 
क्रिया भी कहते हैं। 4. क्विया-+-क्लिया के योग से क्लिया-निर्माण, यथा--कह उठना 
गिर पड़ता, मार डालना आदि इन्हें संयुक्त क्रिया कहा जाता है। 5. क्विया-इतर 
शब्द-- क्रिया अनुक्॒म से क्रिया-निर्माण, यथा--बात करना, काम करना । इन्हें 
स्वल्प मिश्र क्विया कह सकते हैं । क्‍ 


हिन्दी क्रिया-रूपों का सही विश्लेषण केवल उन की ध्वन्यात्मक तथा अर्थपरक 
दृष्टि से नहीं हो सकता । इस के लिए उन के प्रकार्य तथा प्रयोजन को भी ध्यान में 
रखना होगा, यथा--(क) कौए जड़ रहे हैं। (ख) पतंग उड़ रही है। (ग) नौकर 
कौए उड़ा रहा है। (घ) नौकर पतंग उड़ा रहा है । इन वाक्‍यों में (क) मूल अकर्मक 
धातु उड़ का मूल कर्ता, व्याकरणिक कर्ता 'कौए' है, (ख) व्युत्पन्न अकर्मेक 'उड़' 
धातु के मूल कर्ता (उड़ानेवाला) का अध्याहार है, व्याकरणिक कर्ता 'पतंग' (कर्म कतृ क) 
है। (ग) में उड़ के व्युत्पन्न प्रेरणाथंक-आभासी रूप 'उड़ा' (सकर्मक) का व्याक- 
रणिक तथा प्रेरक कर्ता नौकर” हैं और मूल कर्ता, व्याकरणिक कम कौए' हैं। 
(घ) में सकमंक उड़ा” का मूल कर्ता, व्याकरणिक कर्ता नौकर! है तथा मूल कर्म 
पतंग है। इस प्रकार सकमेक तथा अकर्मक क्रियाएँ अपने स्वरूप में दो-दो प्रकार की 
होती हैं--मूल (जेसे--खा, देख, लिख सकर्मक; उठ, चल, बैठ अकर्मक); व्युत्पन्त 
(जैसे उठ>उठा; चल>चला सकर्मक; देख > दिख बजा >बज, सी > सिल 
अकमंक) 

हिल्दी क्विया-भेद के सात आधार माने जाते हैं--, क्रिया-व्यापार का परि- 
णाम/कर्मे-अस्तित्व 2. क्रिया-व्यापार का सम्पादन 3. वकक्‍ता का अभिप्रेत अर्थ 4. 
कर्म-पूर्ति 5. कर्मे-संख्या 6, कार्य-ब्यापार प्रधानता 7. तथ्यात्मकता । वाक्य में क्रिया 
के अस्तित्व के साथ ही किसी-न-किसी (प्रत्यक्ष या प्रच्छन्‍न) रूप में उस के सामान्य 
या व्याकरणिक कर्ता/सम्पादक या अभिकर्ता/भोक्‍ता।/प्रेरक|प्रेरित कर्ता का अस्तित्व 
रहता है। प्रत्येक क्रिया के अस्तित्व या कार्य आदि का सम्बन्ध उस क्रिया के कर्ता 
से प्रत्यक्ष या प्रच्छन्‍्त रूप से अवश्य जुड़ा रहता है। कुछ क्रियाओं का सम्बन्ध कर्ता 
के अतिरिक्त उन के कर्म से भी जुड़ता है। () क्रिया-व्यापार के परिणाम या कमें 
के आधार पर क्रिया के दो भेद माने जाते हैं--. सकर्मक 2. अकर्मंक 


. सकर्मोक क्विय--जिस क्रिया के प्रयोग में “कम! की आवश्यकता होती है 
अथवा वाक्य में जिस क्रिया के कार्य-व्यापार का परिणाम ((प्रभाव) स्वयं क्रिया करने 
वाले कर्ता या अभिकर्ता पर न पड़ कर प्रत्यक्षतः कर्म पर पडता है, उसे सकमंक क्रिया 
कहते हैं, यथा--करना, लेना, कहना, करवाना, खाना, पीना, भेजना, पढ़ाना, 
लिखना, लिखाना, देना, चलाना आदि । उदा०--अध्यापक छात्रों को पढ़ा रहा है। 





276 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


हबीब ने सिनेमा देखा होगा। मैं थोड़ी देर बाद मिठाई खाऊँगा। नीलिमा आम खा 
रही है। हनीफ्‌ किताब पढ़ रहा है । ः 

यद्यपि इन वाक्यों के क्रियापदों के व्यापार का परोक्ष प्रभाव अध्यापक, 
हबीब, मैं, नीलिमा, हनीफ' कर्ता/अभिकर्ता पर पड़ रहा है तथापि इन क्रियाओं का 

त्यक्ष परिणाम क्रमश: छात्रों, सिनेमा, मिठाई, आम, किताब' पर पड़ रहा है जो 
'पढ़ा रहा है, देखा होगा, खाऊंगा, खा रही है, पढ़ रहा है! क्रियाओं के कम हैं । 
सकमंक क्रिया का कर्म क्या/किस को|किन को प्रश्न का उत्तर होता है, यथा--- 
किन को पढ़ा रहा है ? (3०--छात्रों को), क्या देखा होगा ? (3०--सिनेमा), क्‍या 
खाऊँगा (3० मिठाई), क्या खा रही है ? (उ०--आम ), क्‍या पढ़ रहा है ? (उ०-- 
किताब) | प्रधान कर्म पर या तो व्यापार का प्रभाव पड़ता है (जंसे---रोटी खाना) 
या वह व्यापार के परिणामस्वरूप' उत्पन्न होता है (जेसे--रोटी बनाना) । 

2. अकमेक क्रिया--जिस क्रिया के प्रयोग में 'कर्म की आवश्यकता नहीं 
होती अथवा वाक्य में जिस क्रिया के कार्य-व्यापार का प्रभाव प्रत्यक्षतः स्वयं क्रिया 
के कर्ता। अभिकर्ता पर पड़ता है, उसे अकमक क्रिया कहते हैं, यथा--आना, घमना 
जाना, दोड़ना, सोना, होना, हँसना, कटना, गिरना, सिलना, हिलना, रोना, जीना 
डरना, डोलना, ठहरना, फाँदना, भीगना, भागता, अकड़ना, बरसना, बैठना, उगना, 
उछलना, कूृदना, घटना, चमकना, जागना, मरना आदि । उदा०--पिताजी सो रहे 
हैं। तुम हमेशा बात-बात पर इतने क्यों हंसते हो ” सड़क पर मोटर दौड़ी जा रही 
थी । पेड़ कट गया है । कोट सिल चुका है। इन वाकयों के क्रियापदों के कार्ये-व्यापार 
का परिणास स्वयं इन क्रियाओं के अभिकर्ता या कर्ता (पिताजी, तुम, मोटर, पेड़, 
कोट' पर पड़ रहा है न कि किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु पर । द 

क्रियाओं की अकर्मकता तथा सकर्मकता उन के प्रयोगगत अर्थ पर निर्भर होने 
के कारण अथ के बदलने पर सकमंक क्रिया अकर्मक रूप में प्रयुक्त हो सकती है 
यथा--ैं प्रेमचन्द का 'गोदान' पढ़ रहा हूँ (सकर्मक), सुशीला बी० ए० में मेरे साथ 
पढ़ी थी (अकमंक)। अकमंक क्रियाओं के साथ प्रधान कर्मंवत्‌ शब्द प्रयुक्त होने पर 
वे सकमंक बन जाती हैं, यथा--बोलना (अकर्मंक) धावा बोलना (सकमंक), खेल 
खेलना, चाल चलना, लड़ाई लड़ना, संग्राम लड़ना । 

कुछ क्रियाएँ प्रयोग के अनुसार अकर्मक तथा सकमेंक दोनों होती हैं। ऐसी 
क्रियाओं को उभयविध|द्विविध या दुरंगी क्रियाएँ कह सकते हैं, यथा--खुजलाता, 
घत़्ाना, ललचाना, भरता, घिसना, बदलना, ऐंठना, भूलना, कसना, फाँदना, _ 
लहराना आदि । उदा०-- | रा 

. अकर्मक प्रयोग ... सकसंक प्रयोग 


.. उसका पर खुजलाता है।.... वह अपना पैर खुजलाता है 
_ मेरा जी घबड़ा रहा है। ...... परीक्षा की चिन्ता उसे घबड़ा रही है 


. रबड़ी देख कर मेरा जी ललचाता है। मिठाई दिखा कर उसे क्‍यों ललचाते हो ! 








क्रिया | 277 


कप में चाय भरी है । माँ ने कप में चाय भरी है। 
रस्सी घिस्त गई है । क्यों पर घिन्त रहे हो ? 

प्रत्येक ऋतु में प्रकृति बदल जाती है। वह अपना स्वभाव बदल चुका है । 
पानी में रस्सी ऐंठती है । नौकर रस्सी ऐुँठ रहा है । 


अभी मैं भूल रहा हूँ, बाद में बताऊंगा । अभी मैं उसका वाम भूल गया हूँ, बाद में 
.. याद आने पर बताऊँगा। 

कुछ मूल तथा व्युत्पल्त अकर्मक और सकमंक क्रियाओं के थुस्म हैं---उखडना- 
उखाड़ना, उठना-उठाना, उड़ता-उड़ाना, उबलना-उबालना, खुलना-खोलना, गड़ना- 
गाड़ना, छिड़ना-छेड़ना, छूटना-छोड़ना, जुड़ना-जोड़ना, जुतना-जोतना, ट्टना-तोड़ना, 
डबना-डबाना, पिटना-पीटना, पिसना-पीसवा, फटना-फाडना फूटना-फो ड़ना, बजना- 
बजाना, विकना-ब्रेचता, बुझता-बुझाना, भीगना-भिगोना, रहना-रखना, लुटना-लूटना 
लेटना-लिटाना, सिकुड़ना-सिकोड़ता, सूखना-सुखाना आदि । इन युग्मों में 
सामान्यतः: व्युत्पत्त क्रिया रूप में ध्वनि-परिवतेत की यह दिशा मिलती है--आ > अ; 
ई|ए >इ; अ|ओं >3उ | कुछ में व्यंजन-परिवरतंन भी है । 

अकर्मक क्रिया एकत्र घटना या प्रक्रिया होती है जिसे कोई एकत्र करनेवाला 
(कर्ता) होता है। जब घटना या प्रक्रिया के प्रति कर्ता निरपेक्ष भाव में रहता है तो 
वह अकर्मक क्रिया सत्तार्थक या अस्तित्ववाची क्रिया कहलाती है, यथा--होना (है, 
हैं, था, थी आदि । सामान्यतः अकमंक क्रिया की घटता था प्रक्रिया के प्रति कर्ता 
सापेक्ष भाव में रहता है, यथा--रोना, जागना, दौड़ना आदि | सकर्मक क्रिया भी 
एकत्र घटना या ब्रक्रिया होती है जिसे कोई एकत्र करनेवाला (कर्ता) होता है और 
साथ ही उस एकत्र घटना या प्रक्रिया का कोई -परिणामी (कर्म) होता है। एकल 
परिणामी होने पर एक कर्मक क्रिया को सकमंक तथा एकाधिक परिणामी होने पर 
सकमंक क्रिया को दुविकर्मक कहा जाता है । 

सामान्‍्यत: अकर्मक क्रियाओं के व्यापार का फल किसी अन्य पर न पड़ कर. 
सीधे कर्ता पर पड़ता है, यथा---कटना, खिंचना, घिरना, घिसना, चटकना आदि। 
जब सकमक क्रिया के व्यापार का प्रभाव क्रिसी विशिष्ट पदार्थादि पर न पड़ कर 
सवमात्य पर पड़ता है, तब उस क्रिया के कर्म का प्राय: उल्लेख नहीं किया जाता 
यथा--भगवान की अनुकम्पा से बहरा (सब कुछ) सुनता है और गूँगा (+-सब 
कुछ) बोलता है । इस विद्यालय में कितने छात्र (+भौतिक विज्ञान) पढ़ते हैं ? 

द (2) क्रिया-व्यापार सम्पादन की दृष्टि से अकर्मक क्रियाएं दो प्रकार की 
होती हैं--. गतिबोधक/गत्यथंक 2. अवस्थाबोधक/अवस्थार्थक | द 
..._. गतिबोधक अकर्मक क्रियाएँ वे हैं जिन के क्रिया-व्यापार कै समय अभिकर्ता 

या कर्ता गतिमान रहता है, यथा---जाना, आना, दौडना पहुंचता, घमता, चलना, 
भागना, उड़ना, उठता, ग्रिरता आदि । गत्यर्थक क्रिया (सदैव) दविस्थान दयोतक 
होती है--. उदगम/आरम्भ स्थान 2. गन्तव्य/लक्ष्य स्थान । यह आवश्यक नहीं है 





278 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


कि हिन्दी वाक्यों में इन दोनों स्थानों का प्रत्यक्ष उल्लेख रहे । इन दोनों स्थानों के 
साथ क्रमशः से, तक' परसग्ग आते हैं | गन्तव्य का उल्लेख होने पर वह बिता परसमं 
के भी तियंक्‌ रूप में आता है, यथा--तुम उस जगह पहुँचो। वे ठीक नौ बजे अपने 
दफ्तर पहुंच जाते हैं। गन्तव्य सूचक शब्द के साथ 'को।में' नहीं आता । में! किसी 
कार्य [संस्था/संगठन में प्रतिभागी या सदस्य के रूप में सम्मिलित होने की सूचना देता 
है न कि गन्तव्य स्थल की, यथा--वे आगरा जा रहे हैं (गन्तव्य)। हम आप के 
शहर में आए हैं (प्रेक्षक[प्रवासी के रूप में)। क्या तुम सर्फों कम्पनी जा रहे हो ? 
(गन्तव्य)--क्या तुम नर्फी कम्पनी में जा रहे हो ? (नौकरी पर) । आइए, हम नदी 
किनारे चलें (गन्तव्य)---आओ, हम दोनों सेना में चले (भर्ती होने) । 

गन्तव्य के साथ प्राय: 'तक' का प्रयोग होता है, यथा--कहाँ जा रहे हो ?--- 
कहीं नहीं, यहीं मन्दिर/स्कूल|बाजार तक। गत्यर्थक क्रियाएँ जाना, चलना परिपूरक 
हैं। वक्ता, श्रोता के मध्य चलना, जाता' का प्रयोग होता है, यथा--तुम भी हमारे 
साथ मन्दिर चलो | तुम मेरे साथ नहीं, पिता जी के साथ जाना। मैं तो तुम्हारे साथ 
ही चल गी, भाई पाहब के साथ नहीं जाऊंगी । साथ चलना सुहावरेदार प्रयोग है 


साथ जाता नहीं । आप स्टेशन जा रहे हैं तो मैं भी साथ चलूगी। पड़ोसित 


बाजार जा रही है, मैं भी उस के साथ जाऊ। किसी संस्था संगठन में सम्मिलित 
होने के अथ में चलना का प्रयोग अमानक है, यथा--*मैं (तुम्हारे साथ) एक गाँव 
(होटल में|सिना में/ केन्टीन में चलूँगा । द 
2, अवस्था बोधक अकमंक क्रियाएँ वे हैं जिन के व्यापार के समय अभि- 
कर्ता या कर्ता या तो तठस्थ (स्थिर) रहता है या अत्यल्प गतिमान, यथा--सोना, 
पड़ना, जलना, खिलना, लेटना, बैठना, रहना, मुरझाना आदि | उदा०--उठो मत, 
लेटे रहो । फूल मुरझा गए हैं। 
(3) बकता के अभिश्रेत अर्थ की दृष्टि से अकर्मक क्रियाओं को दो प्रकार का. 


माना जाता है---!. पूर्ण अकर्मक 2. अपूर्ण अकमेक । द 
[. पूर्ण अकमंक क्रियाएं वे हैं जिन के कथन से वक्‍ता का अभिप्रेत अथ्थे पूर्ण 


हो जाता है । इन क्रियाओं से युक्त वाक्‍्यों में सभी अनिवार्य घटक होने के कारण वे 


अर्थ बोधन में पूर्ण समर्थ होती हैं, यथा--मैं झो नहीं रहा हुँ। घोड़ा दौड़ रहा है । 
बह घर में है । पं० जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री थे । क्‍ 


2. अपुर्ण अकर्मक क्रियाएँ वे हैं जिन के कथन से वक्‍ता के अभिप्रेत अर्थ की 


पूति के लिए कर्ता से संबंध रखनेवाले किसी शब्द विशेष (कतृ पुरक/उद्देश्यपूर्ति) 
की आवश्यकता हो, यथा--कुछ ही दिलों में बहु (मन्त्री) बन गया । मुझे नहीं पता था... 
.... कि तुम इतने (आलसी) निकलोग्रे । मेरा दोस्त (बीमार) हो गया है। कौआ (चालाक 
.. पक्षी , है | इन वाक्‍्यों में कोडठक्रबद्ध शब्द मन्त्री, आलसी, बीम!र, चालाक पक्षी । 
.. कतृप्रक हैं, कम नहीं। अपूर्ण अकर्मक के कर्ता की पूर्ति के लिए प्रयुक्त शब्द 
.._कर्तापुति' या 'उद्देश्यपुरक' कहलाते हैं, यथा--हरीश होशियार है तथा श्यामा 








क्रिया | 279 


परिश्रमी । हिमालय गिरिराज कहलाता हैं। मनोज इंजीनियर बनेगा । मेरा पड़ोसी 
बहुत चालाक निकला । 

वाक्य में कर्ता के होते हुए भी अपूर्ण अकर्मंक क्रिया अर्थ बोधन में असमर्थ 
रहती है । पूर्ण अर्थ वोधत के लिए उस वाक्य में कोई पुरक (अर्थ पूर्ण करनेवाला 
शब्द) जोड़ा जाना अनिवाय॑ है, यथा--पं० जवाहरलाल नेहरू भारत के थे” वाक्य 
संरचना की दृष्टि से सही होते हुए भी अर्थ बोधन की दृष्टि से अधूरा है। पूर्ण अर्थ 
बोधन की दृष्टि से इस में प्रथम प्रधानमन्त्री' पूरक (करत पूरक) जोड़ता अनिवार्य है--- 
पं० जवाहरलाल नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री थे। अपूर्ण अकर्मक क्रियावाले 
वाक्य में पूर्ण अर्थ बोधन के लिए कर्ता से संबंधित जिस शब्द की पूर्ति की जाती है, 
उसे कतृ पूरक कहते हैं क्योंकि ऐसे शब्द का सीधा संबंध कर्ता से रहता है । 

(4) कमे-पुति की दृष्टि से सकमंक क्रियाओं को दो प्रकार का माना जाता 
है--. पूर्ण सकमेंक, 2. अपूर्ण सकमेक ! 

[. पूर्ण सकसेक क्रियाएँ वे हैं जिन के कथन से वक्ता का अभिप्रेत अर्थ पूर्ण 
हो जाता है । इन क्रियाओं से युक्त वाक्‍्यों में सभी अनिवार्य घटक होने के कारण ये 
अर्थ बोधन पूर्ण समर्थ होती हैं, यथा--कुम्हार घड़ा बनाता है। छात्र पाठ याद कर 
रहे हैं । छात्रों ने हरीश को मॉनीटर बनाया । द 

2. वाक्य में एक गौण/मुख्य कर्म होते हुए भी अपूर्ण सकमेक क्रिया अर्थ 
बोधन में अक्षम रहती है । पूर्ण अर्थ बोधन के लिए उस वाक्य में दूसरे मुख्य/गौण 
कर्म की पूर्ति अनिवाये हो जाती है, अतः अपूर्ण सकर्भक क्रियाएँ वे हैं जिन के कथन 
से वक्‍ता के अभिप्रेत अर्थ की पूर्ति के लिए कर्म से संबंध रखनेवाले किसी शब्द 
विशेष (कर्मंयूरक/कर्म पूति) की आवश्यकता हो, यथा--'छात्रों ने हरीश को बनाया; 
छात्रों ने मॉनीटर बनाया” वाक्य संरचना की दृष्टि से सही होते हुए भी अर्थ बोधन 
की दृष्टि से अधूरे हैं। पूर्ण अर्थ बोधन की दृष्टि से इन में मुख्य/गौण कम 'मॉनीटर| 
हरीश को” जोड़ना अनिवाये है--छात्रों ने हरीश को मॉनीटर बनाया । इसी प्रकार 
मैं तुम्हें (भाई) मानती हूँ । हम तो नौकर को (चतुर) समझते थे । सिपाही (जुआरी 
को) दंड देना चाहता था । अपूर्ण सकर्मक क्रियावाले वाक्य में पूर्ण अर्थ बोधन के ._ 
लिए जिस मुख्य/गौण कर्म की पूर्ति की जाती है, उसे कर्मेपुरक/कर्म पृति कहते हैं, जैसे 
उपयु क्‍्त वाक्यों के कोष्ठकबदध शब्द भाई, चतुर, जुआरी को' 

(3) कर्म प्रयोग-संख्या की दृष्ठि से सकरमंक क्रियाएँ दो प्रकार की होती _ 
हैं--. एक कमंक क्रिया 2, दविकर्मक क्रिया । 

. एक कर्मोक क्रियाएँ वे हैं जो वाक्य में प्राणिवाचक या अप्राणिवाचक में 
से एक (मुख्य) कर्म ही लेती हैं, यथा--कुत्ते ने बकरी को काट लिया | वह नक्शा 
बना रहा है। मैं खाना खा रहा हूँ। दर्जी कपड़े सी रहा है । लड़की गीत गा रही 
थी । वाक्यों की इन क्रियाओं में से प्रत्येक का केवल एक ही कर्म है।.. 

2. दृविकर्सक क्रियाएँ वे हैं जो वाक्य में एक साथ प्राणिवाचक (गौण कम) 





280 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


तथा अप्राणिवाचक (मुख्य कर्म) दोनों कर्म लेती हैं, यथा--भिख।रियों को पैसे नहीं 
खाना-कपड़ा दो । उषा ने मुझे गीत सुनाया | में ने हबीब को तेरना सिखाया। वह 
तुम्हें सफलता का रहस्य बताएगा । इन वाक्यों में -ए/को युक्त प्राणिवाचक शब्द 
'भिखारियों को, मुझे, हबीब को, तुम्हें! गौण कर्म हैं और अप्राणिवाचक शब्द 'पैसे| 
खाना-कपड़ा, गीत, तैरना, रहस्य मुख्य कर्म हैं । 

(6) वाक्य में कार्य-व्यापार की प्रमुखता के आधार पर क्रियाओं को दो वर्गों 
में रखा जा सकता है---. मुख्य क्रिया, 2. सहायक क्रिया । 

!, झुख्य क्रिया--वाक्‍्य में कार्य-व्यापार की प्रधानता/प्रमुखता को सूचित 


करनेवाली क्रियाएँ मुख्य क्रिया कहलाती हैं, यथा--चोर कमरे में था। वह आज- 


कल बीमार है । पता नहीं, वे इस समय कहाँ होंगे । क्या आप ने खाता खा लिया. 
है ? वह चार घंटे से सो रही है| तुम एक घंटे से बोलते चले जा रहे हो । इन वाक्यों 
में काले टाइप के क्रिया शब्द मुख्य क्रिया हैं । 

मुख्य क्रिया पाँच ब्रक्तार की होती है--(क) कार्यद्योतक, (ख) घटना 
दयोतक, (ग) अस्तित्व दूयोतक, (घ) योजक, (ड-)) अधिकार द्योतक । 

(क) कार्य दुयोतक क्रिया--जिस क्रिया से किसी कायें के किए जाने की 
सूचना मिलती है, उसे कार्य दयोतक क्रिया कहते हैं, यथा--बच्ची सो रही है।.. .. 
कुत्ता दौड़ रहा था। उन्हों ने फल खाए। आप कब नहाएँगे ? इस वर्ग की क्रियाओं... 
की संख्या सब से अधिक है । हट 

(ख) घटना द्योतक क्रिया--जिस क्रिया से किसी घटना के होने की सचना 
मिलती है, उसे घटना दूयोतक क्रिया कहते हैं, यथा--बच्चा गिर गया । घड़ा फूड 
गया था । मी 
(ग) अस्तित्व दुयोतक क्रिया--जिस क्रिया से किसी वस्तु या प्राणी के... 
अस्तित्व या उस की स्थिति की सूचना मिलती है, उसे अस्तित्व दयोतक क्रिया या 
स्थेतिक क्रिया कहते हैं, यथा--चूहा अलमारी में है | कुत्ता बाहुर था । वह कमरे में 
गैगी । 


(घ) योजक क्रिया--जिस क्रिया से उद्देश्य, उस के धूरक के योजन की सूचना... 


मिलती है, उसे योजक क्रिया कहते हैं, यथा--मेरी बहन डॉक्टर है। हनीफ बीमार 
था | अब वह स्वस्थ होगा। 


(डः) अधिकार द्योतक क्रिया--जिस क्रिया से विधेय पर उददेश्य के अधि-.... 


कार की सूचना मिलती है, उसे अधिकार दूयोतक क्रिया कहते हैं, यथा--दशरथ के 
तीन रानियाँ थीं। उन के पास दो भसें हैं । तुम्हारे कितनी बेटियाँ हैं।हुईं ? 
.. अस्तित्व दूयोतक, योजक तथा अधिकार दयोतक क्रियाएँ काल-सचना भी 
देती हैं । हे 


हा .._ 2. सहायक क्रिया--वाक्य की मुख्य क्रिया की किसी-त-किसी रूप में सहा-.... 
.. यथता करनेवाली क्रिया सहायक क्रिया कहलाती हैं, यथा--मैं ने खाता खा लिया था। 








क्रिया | 28] 


वे अभी तक सो रहे हैं। तू इतनी देर से बोलती ही चली जा रही है। इन वाकक्‍यों 
में काले ठाइप के क्रिया शब्द सहायक क्रिया हैं । 

मुख्य क्रिया के साथ आ कर सहायक क्रियाएँ छह प्रकार के कार्य करती हैं, 
अतः उन के कार्य के आधार पर सहायक क्रियाओं को छह वर्गों में बाँठा जा सकता 
है--(क) काल दूयोतक, (ख) वाच्य दयोतक, (ग) पक्ष दुयोतक, (घ) वृत्ति द्योतक, 
(डछ) रंजक, (च) क्रियाकर । 

(क) काल दयोतक सहायक क्रिया--मुख्य क्रिया के काल की सूचना देने 
वाली क्रिया काल दुयोतक सहायक क्रिया कहलाती है, यथा--बच्ची खेल रही है 
(|थी/होगी) । कल हम इस समय सिनेमा देखेंगे (देख रहे होंगे) । 

(ख) बाच्य दुयोतक सहायक क्रिया--मुख्य क्रिया के वाच्य की सूचना देने 
वाली क्रिया वाच्य दूयोतक सहायक क्रिया कहलाती है, यथा-- बुढ़िया से चने नहीं 
चबाए जा रहे हैं। ऐसी घुटन में मुझ से कैसे बेठा जाएगा ? इसपेड़ के सारे आमतोड़ 
लिए गए हैं । हिन्दी में केवल “जा” धातु वाच्य दूयोतन का भी काम करती है। 

(ग) पक्ष दूबोतक सहायक क्रिया--मुख्य क्रिया के पक्ष (पूर्णता, अपूर्णता 
आदि) की सूचना देनेवाली क्रिया पक्ष दुयोतक सहायक क्रिया कहलाती है, यथा-- 
मेहमान भोजन कर चुके हैं। मेहमान अभी भोजन कर रहे हैं । 

(घ) वृत्ति दयोतक सहायक क्रिया--मुख्य क्रिया के वक्ता की वृत्ति/मनोवृत्ति 
की सूचता देनेवाली क्रिया वृत्ति दूयोतक सहायक क्रिया/वृत्तिक क्रिया कहलाती है, 
यथा--उसे जाना चाहिए ((पड़ेगा।होगा) । 

(डः) रंजक क्रिया--मुख्य क्रिया के अर्थ में रंजकता (भाव-वेशिष्ट्य/अथे- 
गहनता|सुस्पष्टता) उत्पन्न करनेवाली क्रिया रंजक क्रिया कहलाती है, यंथा--तुम ने 
पत्र लिख दिया ((लिया) | यह बदमाश कहाँ से आ मरा (/टपका) | मैंने नहीं सोचा 
था कि तुम यह सब लिख मारोगी। इस रचना में रंजक क्रिया का कोशीय अथी 
महत्वहीन हो जाता है तथा अथे में आया वैशिष्ट्य उभर आता है। 

(च) क्रियाकर--किसी संज्ञा या विशेषण के साथ आ कर मुख्य क्रिया का 
निर्माण करनेवाली क्रिया को क्रियाकर (शथाशांट») कहते हैं। इस प्रक्रिया से 
निर्मित मुख्य क्रिया संभिश्च क्रिया कहलाती है, यथा--याद करो, तुम्हें कल रात क्‍या 
सुदाई पड़ा ((दिया) था ? यह सोफा कितने में मोल लिया गया था ? इन वाक्यों में 
'याद करो, सुनाई पड़ा|सुनाई दिया, मोल लिया संमिश्र क्रिया हैं। कार्य-व्यापार के 
आरंभ होने के लिए 'शुरू हुआ/हुई/हुए! का प्रयोग; शुरू करना' भी प्रयुक्त । 

... (7) तथ्यात्मकता की दृष्टि से हिन्दी क्रियाएँ दो वर्गों में बाँठी जा सकती 
हूँ“. तथ्यपरक क्रियाएँ, 2. तथ्येतर क्रियाएँ।..... डे 0 
|. तथ्यपरक क्रियाएं--जब वाक्य के कथ्य सन्दर्भ में क्रिया-व्यापार या. 
स्थिति तथ्य|सत्य रूप हो । इन क्रियाओं में काल, पक्ष होता है । काल की दृष्टि से 
ये वर्तमान (हैं), या भूत (“था”) में होती हैं। पक्ष की दृष्टि से ये पूर्ण (वस्तुस्थिति . 
में क्रिया की समाप्ति, यथा--खाया) या अपूर्ण (क्रिया का वर्तमान रहना, यथा-- 








280 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


तथा अप्राणिवाचक (मुख्य कर्म) दोनों कर्म लेती हैं, यथा--पिखारियों को पसे नहीं, 
खाना-कपड़ा दो। उषा ने मुझे गीत सुनाया | मैं ने हबीब को तैरना सिखाया । वह. 
तुम्हें सफलता का रहस्य बताएगा । इन वाक्यों में -ए/को युक्त प्राणिवाचक शब्द 
'भिखारियों को, मुझे, हबीब को, तुम्हें गौण कर्म हैं और अपग्राणिवाचक शब्द 'पैसे| 
खाना-कपड़ा, गीत, तेरना, रहस्य मुख्य कर्म हैं। 

(6) वाक्य में कार्य-व्यापार की प्रमुखता के आधार पर क्रियाओं को दो वर्गों 
में रखा जा सकता है---. मुख्य क्रिया, 2. सहायक क्रिया । 

. मुख्य क्रिया--वाक्य में कार्य-व्यापार की अ्रधानता/प्रमुखता को सूचित 
करनेवाली क्रियाएँ मुख्य क्रिया कहलाती हैं, यथा--चोर कमरे में था । वह आज- 
कल बीमार है । पता नहीं, वे इस समय कहाँ होंगे । क्या आप ने खाना खा लिया 
है वह चार घंटे से सो रही है । तुम एक घंटे से बोलते चले जा रहे हो । इन वाक्यों 
में काले टाइप के क्रिया शब्द मुख्य क्रिया हैं । पे 

मुख्य क्रिया पाँच प्रक्तार की होती है--( क) कार्यद्योतक, (ख) घटना. 
दुयोतक, (ग) अस्तित्व दुयोतक, (घ) योजक, (5) अधिकार द्योतक । 

(क) कार्य दुयोतक क्रिया--जिस क्रिया से किसी काये के किए जाने की 
सूचना मिलती है, उसे कार्य दयोतक क्रिया कहते हैं, यथा--बच्ची सो रही है। 
कुत्ता दौड़ रहा था। उन्हों ने फल खाए। आप कब नहाएंगे ? इस वर्ग की क्रियाओं 
की संख्या सब से अधिक है । पक 

(ख) घटना दूयोतक क्रिया--जिस क्रिया से किसी घटना के होने की सूचना... 
मिलती है, उसे घटना दूयोतक क्रिया कहते हैं, यथा--बच्चा गिर गया। घड़ा फूट 
गया था । | भर 
क्‍ (ग) अस्तित्व दूयोतक क्रिया--जिस क्रिया से किसी वस्तु या प्राणी के 

अस्तित्व या उस की स्थिति की सूचना मिलती है, उसे अस्तित्व दुयोतक क्रिया या. 
स्थेतिक क्रिया कहते हैं, यथा--चूहा अलमारी में है | कुत्ता बाहर था । वह कमरे में 
होगी । द सम 
(घ) योजक क्रिया--जिस क्रिया से उद्देश्य, उस के इरक के योजन की सूचना 
मिलती है, उसे योजक क्रिया कहते हैं, यथा--मेरी बहन डॉक्टर है । हनीफ्‌ बीमार _ 
था । अब वह स्वस्थ होगा । द ४ 084 366 “कक गे 
(डः) अधिकार द्योतक क्रिया--जिस क्रिया से विधेय पर उद्देश्य के अधि- 
_ कार की सूचना मिलती है, उसे अधिकार दूयोतक क्रिया कहते हैं, यथा--दशरथ के 
तीन रानियाँ थीं | उन के पास दो भैंसें हैं। तुम्हारे कितनी बेटियां हैं/हुईं ? हा 
... अस्तित्व दुयोतक, योजक तथा अधिकार दूयोतक क्रियाएँ काल-सूचना भी... 
2, सहायक क्रिया--वाक्य की मुख्य क्रिया की किसी-न-किसी रूप में सहां-.. | 
_ यता करनेवाली क्रिया सहायक क्रिया कहलाती हैं यथा---मैं ने खाता खा लिया था। 








क्रिया | 28] 


वे अभी तक सो रहे हैं । तू इतनी देर से बोलती ही चली जा रही है| इन वाक्यों 
में काले टाइप के क्रिया शब्द सहायक क्रिया हैं । 

मुख्य क्रिया के साथ आ कर सहायक क्रियाएँ छह प्रकार के काये करती हैं, 
अतः उन के कार्य के आधार पर सहायक क्रियाओं को छह वर्गों में बाँठा जा सकता 
है--(क) काल दूयोतक, (ख) वाच्य दुयोतक, (ग) पक्ष दुयोतक, (घ) वृत्ति दयोतक, 
(छठ) रंजक, (च) क्रियाकर । 

(क) काल दुधोतक सहायक क्रिया--मुख्य क्रिया के काल की सूचना देने 
वाली क्रिया काल दुयोतक सहायक क्रिया कहलाती है, यथा--बच्ची खेल रही है 
(थी|होगी) । कल हम इस समय सिनेमा देखेंगे (/देख रहे होंगे) । 

(ख) वाच्य दुयोतक सहायक क्रिया--मुख्य क्रिया के वाच्य की सूचना देने 
वाली क्रिया वाच्य दूयोतक सहायक क्रिया कहलाती है, यथा--बुढ़िया से चने नहीं 
चबाए जा रहे हैं । ऐसी घुटन में मुझ से कैसे बैठा जाएगा ? इस पेड़ के सारे आम तोड़ 
लिए गए हैं । हिन्दी में केवल “जा” धातु वाच्य दयोतन का भी काम करती है। 

(ग) पक्ष दूयोतक सहायक क्रिया--मुख्य क्रिया के पक्ष (पूर्णता, अधृर्णता 
आदि) की सूचना देनेवाली क्रिया पक्ष दुयोतक सहायक क्रिया कहलाती है, यथा-- 
मेहमान भोजन कर चुके हैं। मेहमान अभी भोजन कर रहे हैं । 

(घ) बृत्ति दुयोतक सहायक क्रिया--मुख्य क्रिया के वक्‍ता की वृत्ति/मनोवृत्ति 


की सूचना देनेवाली क्रिया वृत्ति दूयोतक सहायक क्रिया/वृत्तिक क्रिया कहलाती है, 
यथा--उसे जावा चाहिए (/पड़ेगा।होगा) । 

(ड़) रंजक क्रिया--मुख्य क्रिया के अर्थ में रंजकता (भाव-बेशिष्ट्य/अथे- 
गहनता/सुस्पष्टता) उत्पन्त करनेवाली क्रिया रंजक क्रिया कहलाती है, यथा--तुम ने 
पत्र लिख दिया ((लिया) | यह बदमाश कहाँ से आ मरा (/ठपका)। मैं. ने नहीं सोचा 
था कि तुम यह सब लिख सारोगी। इस रचना में रंजक क्रिया का कोशीय अथे 
महत्वहीन हो जाता है तथा अथे में आया वैशिष्ट्य उभर आता है। 

(च) क्रियाकर--क्िसी संज्ञा या विशेषण के साथ आ कर मुख्य क्रिया का 
निर्माण करनेवाली क्रिया को क्रियाकर (५४४2०) कहते हैं। इस प्रक्रिया से 
लिमित मुख्य क्रिया संसिश्र क्रिया कहलाती है, यथा--याद करो, तुम्हें कल रात क्या 
सुनाई पड़ा (दिया) था ? यह सोफा कितने में मोल लिया गया था ? इन वाक्यों में 
याद करो, सुनाई पड़ा/सुनाई दिया, मोल लियाः संमिश्र क्रिया हैं। कार्य-व्यापार के 
आरंभ होने के लिए 'शुरू हुआ/हुई/हुए! का प्रयोग; शुरू करना' भी प्रयुक्त]. 

(7) तथ्यात्मकता की दृष्टि से हिन्दी क्रियाएँ दो वर्गों में बाँदी जा सकती 
हैँ“. तथ्यपरक क्रियाएँ, 2. तथ्येतर क्रियाएँ। ः 3 

!. तथ्यपरक क्रियाएं--जब वाक्य के कथ्य सन्दर्भ में क्रिया-व्यापार या द 
स्थिति तथ्य|सत्य रूप हो । इन क्रियाओं में काल, पक्ष होता है। काल कौ दृष्टि से 
ये वतंमान्र (हैं), या भूत (था?) में होती हैं। पक्ष की दृष्टि से ये पूर्ण (वस्तुस्थिति 
में क्रिया की समाप्ति, यथा--खाया) या अपूर्ण (क्रिया का वर्तमान रहना, यथा--- 





282 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


खाता, होता) होती हैं । तथ्यपरक क्रियाओं की वास्तविकता एक भौतिक सत्य है। 
पूर्ण पक्ष के झदनत के लिग-वचन भेद के आधार पर इन के चार रूप प्राप्त हैं--. 
खाया-खाई-खाए-खाई; लिया, दिया, ली, दी; लिए, दिए, लीं, दीं आदि । 

2. तथ्येतर क्रियाएँ--इन क्रियाओं के होने के बारे में (सुदृढ़) अनुमान ही 
किया जा सकता है । वस्तुस्थिति में उस क्रिया की अभी वास्तविकता नहीं है, और 
न भोतिक सत्य है। कालबोधक क्रिया रूप 'है|था तथ्येतर क्रियाओं के साथ नहीं... 
आता । इन क्रियाओं में संभावना्थ '-ए” का योग होता है, यथा--खाए, करे, ले, 
पिएगा, छुएगा । 

क्रिया-धातु--धातु शब्द का एक अथ है 'मूल' । क्रिया शंब्द के सामान्य रूप 


(यथा--खाना, सोना, खुजलाना आदि) में से वा शब्दांश को पृथक्‌ करने पर॒.. 


क्रिया-धातु (ग्रथा--खा, सो, खुजला) शेष रहती है । क्रिया-धातु क्रिया पद के विविध 
रूपों में वर्तमान रहती है, तथा कोशीय क्रिया-ब्यापार का बोधक होती है, यथा-- 
हँसना, हंसो, हँंसता, हसूँ, हँसे, हेसें, हंसूँगी, हँसो आदि में हँस धातु है। इसे 
%५/हेप से भी व्यक्त कर सकते हैं। 
रचना की दृष्टि से क्रिया-धातु दो प्रकार की होती हैं--!. सरल (सामान्य| 
मूल) धातु, 2. यौगिक धातु । द 
. सरल धातु--वे क्रिया-धातु जो भाषा में रूढ़ शब्द के रूप में प्रचलित हैं 
सरल धातु कहलाती हैं, यथा--पढ़, सो, खा, रो, लिख, पढ़, ले, दे, हो आदि। 
प्रकार्य के आधार पर सरल धातुओं का एक उपभेद कालद/कालबोधक धातु... 
है । कालद धातु दो हैं--“ह, थ' । ये क्रमशः वर्तमान तथा भूतकाल के सूचक हैं ॥ये 
दोनों पक्षसूचक क्रियाओं के साथ भी आते हैं । 'है' से युक्त क्रियाएँ व्यापार या स्थिति 
की सत्यता को वक्‍ता के कथन के सत्य के साथ जोड़ती हैं । 'है” कथन के समय वक्ता 
के समक्ष उपस्थित होता है। स्थिति या व्यापार कथन के समय समक्ष न होने पर. 
था' का प्रयोग किया जाता है। स्थितिसचक वाक्यों में 'है, था' अकेले आते हैं। ये 
पक्ष की क्रियाओं के साथ भी आते हैं । द 
2. यौगिक धातु--वे क्रिया धातु जो किसी सरल धातु में कोई प्रत्यय जोड़ 
कर या किसी अन्य शब्द में किसी प्रत्यय अथवा सरल धातु के योग से बनाई जाती... 
हैं, यौगिक धातु कहलाती हैं, यथा--चल---आ (ना)ल्‍>चला (ना); रेंग+-आा 
(ना)--रंगा (ना) लिख---वा (ना)-लिखवा (ना)। रचना की दृष्टि से 
यौगिक धातु तीन प्रकारसे बनाई जाती हैं--!. सरल धातु में कोई प्रत्यय जोड़ कर, 
यथा--पढ़---आर्ूपढ़ा (ना), पढ़---वाजू"पढ़वा (ना)। 2. एकाधिक सरल 
. धातुओं को जोड़ कर अर्थात्‌ अनुक्रम में रख कर, यथा--लिख दे (ना) फाड़ डाल 
(ना); 3. क्रिया-इतर शब्द में कोई प्रत्यय जोड़ कर, यथा--बांत से बतियाना; घिन 
से घिनाना। का 
: संरचना, प्रकार्य तथा प्रयोजन की दृष्टि से यौगिक धातु छह प्रकार की होती |; 








क्रिया | 283 


हैं--. संमिश्र धातु, 2. पुनरुक्त धातु, 3. नाम धातु, 4. अनुकरणात्मक धातु, 5. 
प्रेरणार्थक धातु, 6. संयुक्त धातु । 

।. संभिश्न धातु--कुछ विशिष्ट संज्ञाओं तथा विशेषणों के साथ आ, कर, दे, 
पड़, लग, ले, हो' के योग से बनी धातु संमिश्र कही जाती हैं, यथा--तज्र|याद| 
पसन्द--आ (ना) (४) याद/पसन्‍्द/ग्रहण/स्वीकार/अंगीकार/आरम्भ, (को) याद।/ 
पसन्द [स्वीकार/अंगीकार/प्रणाम|विदा|दाखिल, (-+>को) नष्टबन्द/जुदा/($) प्राप्त/ 
विसरजित/|आयोजित-- कर (ना); दिखाई/सुनाई/(--कोई वस्तु) उधार/नकद/इनाम/ 
दान-+दे (ना) ($) पार(हाथ--लग (ना) (+कोई वस्तु) उधार/मोल/इनाम/ 
नकद/|अपना-+ले (ना) (५) आरम्भ, शुरू|(दाखिल/भर्ती/बन्द/विसजित/भंग/मालूम/ 
याद|भस्म|विदा/मंजूर/नष्ट/माफ|पार/ताराज/खुश--हो (ना)। कुछ विद्वानों ने 
संमिश्र क्रिया को. नॉमितल कम्पाउंड, नामबोधक क्रिया, विशिष्ट संयक्‍त क्रिया 
कंजक्ट बबं, वर्ब्ज कम्पाउण्डेड विद नाउन्‍्ज एण्ड एडजेक्टिव, मिश्र क्रिया' कहा है । 
संयकक्‍त क्रिया की संरचना में शीर्ष स्थान पर क्रिया रहती है, संमिश्र क्रिया की संर- 
चना में शीर्ष स्थान पर संज्ञा या विशेषण शब्द सहायक रूप में यकक्‍त होनेवाली क्रिया 
का अभिन्‍न अंग बन कर व्याकरणिक संरचना तथा अर्थ की दृष्टि से एक इकाई के 
रूप में व्यक्त होता है, यथा--क्‍्या आप को वह॒पुस्तक पसन्द आई ? अपना पाठ 
याद करो । रक्षाबंधन पर बहनें भाइयों को याद करती हैं। अध्यक्ष ने दस मिनट 
बाद ही सभा विसर्जित कर दी | क्या तुम्हें भी छत पर किसी के पेरों की आवाज 
सुनाई दी थी ? माँ को बच्चे का रोना सुनाई (नहीं) पड़ा । बँठवारे में मेरे यह 
दुकान हाथ लगी है । तुम ने उस से कितने रुपये उधार लिए थे ? मेरे साथ मेरी बहन 
भी स्कूल में भर्ती हुई है । 

भाषा-व्यवहार में संभिश्रव धातु संमिश्र संयुक्त धातु का रूप भी ले लेती है, 
यथा--दान दे देना, बन्द हो जाना, दान दे चुकना, बन्द हो चुकना, अणाम कर 
देना/लेना, नजर आ जाना/चुकना आदि | ४ 

(की) प्रतीक्षा/(का) इच्तजार/पीछा/भरोसा/जिक्र/(पर) हमला|प्रहार/|आक्रमण/ 
भरोसा--कर (ना) की संरचना से संमिश्र धातु का निर्माण नहीं होता, यथा --मैंने 
स्टेशन पर कई घंटे आप की प्रतीक्षा की । इंस्पेक्टर ने बहुत दूर तक स्मगलर का 
पीछा किया । भूमिगत विद्रोहियों ने सेता पर एक दिन में चार-चार बार हमले किए. 
हैं। इन वाक्यों में प्रतीक्षा, पीछा, हमले 'की, किया' तथा “किए हैं? क्रिया के क्रमशः 
कर्म हैं। इसी प्रकार माँ ने भिखारित को दान दिया' में दान 'दिया' क्रिया का. 
कम है किन्तु माँ ते भिखारिवन को एक किलो आटा दान विया' में 'दान' दिया! 
क्रिया का कर्म नहीं है, वरत्‌ संमिश्र क्रिया दान दिया! का शीर्ष है । कह 

2. पुनरक्त धातु--किसी एक या अधिक साथेक धातुओं के कुछ अंश की 
पुनरुक्ति से निमित धातु पुतरुकत धातु कहलाती हैं, यथा--कर (ना)-धर (ना) 








284 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


बोल (ना)-चाल (गा); हो (ना)-हवा (ना) । पुनरुकत धातु के दो रूप हैं-- (क) पूर्ण 
पुनरुकत धातु, यथा--उठ-उठ, बेठ-बेठ, देख-देख, शाँक-झाँक आदि: (ख) अपर्ण 
पुनरुकत धातु, यथा--फूट-फाठ, कूठ-काट, उलट-पलट, चीर-फाड़, घम-फिर आदि। 
पुनरक्‍्त धातुएं वाक्य में निम्नलिखित अर्थ-छवि की अभिव्यक्ति करती हैं-- 
तिरन्तरता, यथा-- लड़ते-लड़ते (मर गई), खड़े-खड़े (थक गया) । पौनः पृन्यार्थकता 
यथा--रह-रह्‌ (कर रोती रही), पूछते-पुछते (वहाँ पहुँच ही गए) । संशयात्मकता, 
यथा--चलेंगे-चलेंगे (कहते हैं, पर पता नहीं कब चलेंगे), तुम्हारा क्या ठिकाना आए- 
आए न आए न आए । निश्चयात्मकता, यथा--(तुम) आओगी-आओगी; (मैं यह्‌ 
न) लू गा न लू गा। अवधिसूचना, यथा--पीते-पीते (बेहोश हो गए), पहुँचते-पहुँचते 
(शाम हो जाएगी) । अपूर्णता, यथा--मरते-मरते (बची है), जाते-जाते (क्यों हक 
गया ?) द द 
3. नाम धातु--कुछ विशिष्ट संज्ञा, सर्वत्ताम तथा विशेषण शब्दों से (कभी- 
कभी कुछ ध्वन्यात्मक परिवतंन कर के) जो क्रिया-धातु बना ली जाती हैं, उन्हें धातु 
कहते हैं, यथा---संज्ञा शब्दों से---लाज/लज्जा-लजा (ना), लहर-लहरा (ना), लालच- 
ललचा (ना), आलस्य-अलसा (ना), पीतल-पितरा (ना), ठोकर-ठुकरा (ना), बात- 
बतिया (ना), लात-लतिया (ना), धक्‍्का-धकिया (ना), हाथ-हथिया (ना), शर्म-शरमा 
(ना), पत्थर-पथरा (ना), स्वीकार-स्वीकार (ना), (व्यापार में सकारना), लाढठी- 
लठिया (ना), टक्कर-टकरा (ना), चक्‍कर-चकरा (ना), खुजली-खुजला (ना), झमगड़ा- 
झगड़ (ना), गुजर-गुजुर (ना), बदल-बदल (ना), खूर्च-खर्च (ना), खुरीद-खुरीद (ना), 
दागू-दाग (ना), आजमाइश-आजमा (ना), दुख-दुख (ना), पानी-पनिया (ना), रिस- 
रिसा (ना), आदि। सर्वताम शब्द से--अपना-अपना (ना), विशेषण शब्दों से-- 


चिकना-चिकना (ना), मोटा-मुठा (ना, साठ-सठिया (ना), गर्म-गरमा[ना), ठंडा- 
ठंडा (ना), सुस्त-सुस्ता (ना), आकुल-अकुला (ना), दुहरा-दुहरा (ना), लँगड़ा-लेगड़ा 


(ना), बूढ़ा-बुढ़ा (ना) । 
दी में 'आ, खा, गा, जा, भा, ला कुछ एकाक्षरी धातुओं के अतिरिक्त 


केवल प्रेरणार्थेंक अनुकरणात्मक, और नाम धातु ही आकारान्त हैं। कुछ आलोचक 


लेखक मनमाने ढंग से नामधातु गढ़ने लग जाते हैं। उन में से कुछ तो भाषा की _ . 
आन्तरिक प्रकृति के अनुकूल हो सकती हैं किन्तु कुछ हास्यापद ही ठहरती हैं, यथा-- 
विचारना, संकोचना,, कविताना, जल्दी-जल्दिया (ना), छलाँग-छलाँग (ना), ऊपर- 


. उपरा (ना), तेज-तेजा (ना), धीरे-धिरा (ना) आदि | 


हिन्दी नाम-धातुओं का निर्माण शुन्य, -आ, -इया प्रत्यय या योग से होता है।. 


_ संज्ञाथक क्रिया के रूप में नाम धातुओं का प्रयोग संभव है । 


4. अनुकरेणात्मक धातु--क्रिया प्राणी या वस्तु की वास्तविक या कल्पित | 


ध्वनि या दृश्य के अंनुकरण पर निर्मित क्रिया-धातु को अनुकरणात्मक या आवृत्त 
धातु कहते हैं, यथा--खटखट-खटखटा (ना), टनूटन-टनटना (ना), भनभन-भनभता 


क्रिया | 285 


(ना), घी-बी-चिथिया (ना), गिड़गिड़-गिड़ गिड़ा (ना), भुनभुन-भुवभुना (ना), फुसफुस- 
फुसफुसा (ना), थरथर-थरथरा (ना), सनसन-सनसना (ना), थपथप-थपथपा (ना), छल- 
छला(ना), हिंनहिना (ना), चहचहा (ता), टिसटिसा (ना), चमचमा (ना), जगमगा 
(ना), झिलमिला (ना), तमतमा (ना), फड़फड़ा (ना), किठकिंटा (ना), मिमिया 
(ना), झतनझना (ना), टरटठरा/टर्रा (ना), भोंक (ना), थूक (ना), थिरक (ना) भी 
इसी वर्ग के धातु माने जा सकते हैं। घि7र्घी > घिधिया (ना)>-घी-घी करना, 
रिरिया (ना)5--री-रीरि-रे करता, मिमिया (ना) जमे-मे करता, चुचुआ (ना), चू-च्‌ 
करना, धुँधआ (ना)5"-धूं-धूं करना । न्‍ 

नाम धातु तथा अनुकरणात्मक धातु अकरमंक तथा सकरमंक कोटि की होती हैं । 
सभी बहु आक्षरिक नाम धातु तथा अनुकरणात्मक धातु आकारान्त तथा पुल्लिग होती 
हैं । हिन्दी में लगभग 75 अनुकरणात्मक धातुओं का प्रयोग होता है। इन धातुओं 
को संरचना की दृष्टि से चार वर्गों में बाँठा जा सकता है--. सरल धातु--(क) 
एकाक्षरी, यथा--कड़, खट, गड़, धम, आदि (ख) द्व्यक्षरी, यथा---अचकचा, गिटपिठा, 
सिटपिटा, आदि । 2. संयुक्त धातु, यथा--छटपटा, किलकिला, खटपटा, खड़बड़ा आदि 
3. पुनशक्त धातु, यथा---कलमला, कलबला, आदि 4. आवृत्त धातु, यथा--ख रखरा, 
कड़कड़ा, गड़गड़ा, टनटना, कटकटा, सिनभिना, फड़फड़ा, बुदबुदा आदि (सरल धातु 
की आवृत्ति) । अचुकरणात्मक धातुओं का निर्माण-आ (ना), -क (ना) से होता है, 
यथा-- कड़कड़-कड़कड़ा (ना), चरमर-चरमरा (ना), आदि; कड़-कड़क (ना), खट-खटक 
(ना) आदि । 

5. प्ररणार्थक धातु--मूल या सरल धातु में “-आ-ला' जोड़कर प्रथम प्रेरणा- 
थक और “वा (-ला/-लवा)' जोड़ कर द्वितीय प्रेरणार्थक धातु का निर्माण किया 
जाता है, यथा--बेठ-बिठा-बिठवा, सो-सुला-सुलवा, चल-चला-चलवा, पी-पिला- 
पिलवा, जाग-जगा-जगवा, कह-कहला-कहलवा, देख-दिखा-दिखवा, लिख-लिखा-लिखवा, 
पढ़-पढ़ा-पढ़वा, उड़-उड़ा-उड़वा, दौड़-दौड़ा-दौड़वा आदि । 

क्रियापद के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि वास्तविक क्रिया-व्यापर को 
सम्पादित करनेवाला अभिकर्ता क्रिसी अन्य की प्रेरणा से उस कार्य को करने में 
प्रवृत्त होगा या हुआ है तो वह क्रियारूप 'प्रेरणाथंक रूप” कहलाता है। यथा--माँ 
बच्चे को दूध पिला (/पिलवा) रही है। पिता पुत्र से पत्र लिखवा रहा है। मालिक 
(नोकरों से) पेड़ कटवा रहा है। इन वाक्यों में “पिला|पिलवा, लिखवा, कटवा' 
क्रियाओं के वास्तविक कर्ता/अभिकर्ता क्रमशः बच्चा (दूध पीनेवाला), पुत्र (पत्र 
_ लिखनेवाला), नौकर (पेड़ काटनेवाले) हैं । इन को मूल क्रिया-व्यापार में प्रवृत्त करने 
वाले कर्ता क्रमशः माँ, पिता, मालिक हैं। काय्य॑-व्यापार में प्रवृत्त करनेवाला या 
प्रेरणा देनेवाला कर्ता प्रेरक कर्ता कहलाता है। मूल कार्य-व्यापार में प्रवृत्त होने 
वाला या प्रेरित होनेवाला कर्ता 'प्रेरित|प्रेय॑/प्रयोज्य/|योज्य/-कर्ता' कहलाता है। प्रेरित 
कर्ता को, से” से युक्त होने के कारण कर्म, करण जैसा प्रतीत होता है, यथा--बच्चे 











286 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


ने दवा पी ली (बच्चे ने बिना किसी की प्रेरणा/सहयोग से स्वतः दवा पीने का कार्य । ह 


किया), माँ ने बच्चे को दवा पिलाई (बच्चे ने माँ की प्रेरणा/सहयोग से दवा पीते का. 
कार्य किया), माँ ने (नौकर से) बच्चे को दवा पिलवाई (समाँ ने नौकर को प्रेरणा दी : 


कि वह बच्चे को दवा पिलाए। बच्चे ने नौकर की प्रेरणा/सहयोग से दवा पीने का ' 


कार्य किया) 


कटवाती है । पिता जी मुझे (नौकर से) स्कूल पहुँचवाते हैं ! 
वाक्य-संरचना की दृष्टि से धातुओं के तीन प्रकार के प्रयोग होते हैं-- 


व्याकरण धरातल पर प्रेरणार्थक वाक्यों में प्रेरक कर्ता ही व्याकरणिक कर्ता 
होता है और 'को' युक्त मूल कर्ता (/अभिकर्ता) कर्मवत्‌ रहता है किन्तु से युक्त 
अभिकर्ता करणवत्‌ रहता है। नौकर बालक को चलाता है। माँ (नौकर से) लकड़ी 


. स्वाथिक प्रयोग--जब वाक्य में क्रिया-व्यापार का तात्त्विक कर्ताअभि- 
कर्ता वर्तमान होता है अर्थात्‌ बिना किसी की प्रेरणा से किए जानेवाले क्रिया-व्यापार 


की क्रिया 'स्वाथिक' होती है, यथा--नौकर पेड़ काट रहा है । बच्चा दूध पी रहा. 


था। मैं यह गठ री नहीं उठा सकता । तुम भुझ पर क्‍यों बिगड़ रहे हो ? तुम मेरा 
क्या बिगाड़ लोगे ? 2. कर्मादिकत्‌ क प्रयोग--जब वाक्य में क्रिया-व्यापार का 


तात्त्विक कर्ता या अभिकर्ता वर्तमान न हो या प्रच्छत्त हो, यथा - पेड़ कट रहा है। 


दूध पिया जा रहा हैं; मुझ से यह गठरी नहीं उठ सकती; आजकल यह सड़क दिन- 


रात चलती रहती है। ऐसी क्रिया 'कर्मकतृ क क्रिया' कही जाती है। 3. प्रेरणा्थंक 
प्रयोग--जब वाक्य में क्रिया-व्यापार का तात्त्विक कर्ता/अभिकर्ता प्रेरित कर्ता के 


रूप में हो अर्थात्‌ किसी की प्रेरणा से होनेवाले क्रिया-व्यापार की क्रिया प्रेरणार्थंक 


या द्विकतंक होती है, यथा--नौकर बालक को चलाता है (प्रेरक कर्ता नौकर', 


प्रेरित कर्ता बालक) । वे (नौकर से) घास कटवा रहे हैं । माँ बच्चे को कपड़े पहनवा .. 
रही है । इस गठरी को नौकर से बँधवा लो । तुम (उस से) सारा काम बिगड़वा 


लोगे । 


प्रथम प्रेरणार्थक क्रिया सकर्मक या कभी-कभी दविकर्मक क्रिया होती है। 


यथा--हँस-हँसा, रो-रला, सो-सुला, खेल-खिला, दौड़-दौड़ा, उड़-उड़ा, चल-चला; 


खा-खिला, पी-पिला, पढ़-पढ़ा, सीख-सिखा, पहन-पहना । हिन्दी की तथाकथित. 


प्रथम प्रेरणार्थंक क्रियाएँ संरचना की दृष्टि से या तो सकर्मक क्रियाएँ होती हैं या 
दविकमेंक । बच्चा कबूतर (/पतंग) उड़ा रहा है, में 'उड़ा' क्रिया का कर्म कबूतर 


(पतंग) है किन्तु कबूतर (पतंग) उड़ रहा (/रही) है' में 'उड़' क्रिया का अभिकर्ता : 


. (प्राणिवाची होते के कारण) 'कबूतर' तो है, 'पतंग' नहीं । यहाँ पतंग व्याकरणिक 
: कर्ता या कर्मकतृ क है । “नौकर बच्चे को खाना खिला रहा है में संरचनागत दो कर्म _ 


.. (बच्चा, खाना) हैं। तात्त्विक दृष्टि से बच्चा खा” क्रिया कां कर्ता/अभिकर्ता है। | 
मालिक नौकर से पेड़ कटवा रहा है वाक्य में 'नौकर' प्रेरित कर्ता तथा काट 


हा 
न 


। 
॥; 


। 





क्रिया | 287 


क्रिया का कर्ता/अभिकर्ता है। संरचना स्तर पर “को क्मत्व का सूचक है और 'े' 
कतृ त्व का । 
उमेठना, उलटना, खदेड़ना, ढकेलना, पटकना आदि सकमंक क्रियाओं का 
फल! प्रभाव कर्म तक ही सीमित रहता है, यथा--नौकर ने रस्सी उमेठ दी (? ली); 
नौकर ने चोर को खदेड़ दिया (? लिया); नौकर ने लद्ठा ढक्तेल दिया (? लिया); 
नौकर ने बच्चे को पटक दिया (? लिया) । खाना, पीना, पहनना, सीखना, सुनना 
आदि सकमंक क्रियाओं का फल/प्रभाव कर्म तक सीमित न रह कर कर्ता तक पहुँचता 
है। इन में खाना, पीना आदि भोगाथंक क्रियाएं हैं तथा सीखना, सुनना आदि 
ज्ञातार्थक क्रियाएं हैं। इन क्रियाओं को 'कतु गामी फलद' क्रियाएँ कह सकते हैं। इन 
के साथ लिना' रंजक क्रिया का प्रयोग सामान्य रूप से सम्भव है, यथा--बच्चे ने 
दूध पी लिया (? दिया), मैं ने साइकल चलाना सीख लिया है (? दिया)। केवल 
कतृ गामी फलद क्रियाएँ ही कर्म के अतिरिक्त कर्ता की विशेषता बताती हैं, यथा-- 
पढ़ा हुआ बच्चा ((/अखबार) (*उम्रठा हुआ बच्चा, किन्तु उमेठा हुआ अखबार), पिया 
हुआ नौकर (पानी) (*पटठका हुआ आदमी, किन्तु पटकी हुई मेज) । कतूं गामी 
फलद क्रियाओं के फल का आश्रय कर्ता भी होने के कारण उस में कर्म का गुण भी 
वर्तमान रहता है और इसीलिए दविकर्मक बनते ही इन क्रियाओं का कर्ता 'को' के 
साथ कर्म में परिवर्तित हो जाता है, यथा--माँ गाय को गुड़-दाल खिला रही है । 
प्रेरणार्थंक क्रियाओं की चर्चा में को, से का प्रयोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण तथा 
बेशिष्ट्यपूर्ण है, यथा--अध्यापक छात्रों को निबन्ध लिखा/लिखवा रहा है--अध्या- 
पक छात्रों से निबन्ध लिखा/लिखवा रहा है । मान्त्रिक ने लड़की को चिल्लवाया--- 
मान्त्रिक ने लड़की से चिल्लववाया। इन में 'को' युक्त व्यक्ति तो क्रिया के फल से 
प्रभावित हैं किन्तु से युक्त व्यक्ति क्रिया-फल से अप्रभावित हैं । 
हिन्दी में दुविप्रेरणा्थंक/द्वितीय प्रेरणार्थक क्रियाओं का बहुत कम प्रयोग 
होता है। ब्ववहार में द्वितीय प्रेरणार्थंक क्रियाओं के साथ वास्तविक कर्त्ता का 
उल्लेख (सदैव) आवश्यक नहीं हुआ करता, यथा--हम यहाँ चार बजे पहुँचे । सारा 
सामान ठीक से रखवाया । कमरा तथा चौका साफ कराया; बाजार से कॉफी मँगवाई, 
खद पी और साथ आए दोस्तों को पिलवाई । 
त्त्विक कर्ता या अभिकर्ता की प्रच्छन्‍न अवस्था में सम्पन्न होनेवाले क्रिया- 
व्यापार की क्रिया को 'कर्मकत क क्रिया कहते हैं, यथा--पेड़ कट रहे हैं; कपड़े सिल 
रहे थे। ऐसी क्रियाओं में तात्त्विक कर्म वाक्य-संरचना की दृष्टि से कर्ता या व्याकरणिक 
कर्ता रहता है । इन क्रियाओं को 'अकत क क्रिया' कहने से भ्रम होता है क्योंकि 
प्रत्येक क्रिया का कोई-न-कोई कर्ता अवश्य होता है । तात्त्विक कर्ता या अभिकर्ता की 
प्रच्छनन्‍्त अवस्था में किसी उपकरण के द्वारा सम्पन्त होनेवाले क्रिया-व्यापार की 


क्रिया को 'करणकतृ क कह सकते हैं, यथा--राणा प्रताप की तलवार शत्र ओं के सिर॒_ 


काट-काट कर गिरा रही थी। राम के बाणों ने रावण के दस सिरों को छेद दिया. 








288 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


है 
कर] 


था । आजकल मेरी कलम कोई काम नहीं करती । काले टाइप के शब्द मूलतः करण 
या उपकरण हैं किन्तु यहाँ कर्ता [व्योकरणिक कर्ता) की भाँति प्रयुक्त हैं। इसी प्रकार 
सम्प्रदान, अपादान, अधिकरण कतृ क क्रियाएँ भी हो सकती हैं, यथा--मझे कल 
दिल्‍ली जाना है। उसका फोड़ा बह रहा है। यह रास्ता बहुत चलता है । 
प्रथम प्रेरणाथक क्रियाओं का प्रेरणा स्वरूप स्पष्ट परिलक्षित नहीं होता, किन्तु 
इनका अभिकर्ता (संरचना स्तर पर सकमंक क्रिया का कर्ता) स्वयं कार्य करने के लिए 
उपस्थित रहता है, थथा--'दादा जी बच्चों को कविता सुना रहे हैं । माँ बच्ची को 
पढ़ा रही है | अध्यापक छात्रों को दौड़ाता है ।' इन वाक्यों का अप्रेरणार्थक रूप 
होगा--बच्चे (दादा जी से) कविता सुन रहे हैं। बच्ची (माँ से) पढ़ रही है। 
(अध्यापक के आदेश पर) छात्र दौड़ते हैं। द्वितीय प्रेरणार्थक क्रियाओं का कर्ता 
स्वयं कार्य न कर किसी अन्य को कार्य करने की प्रेरणा देता है। इन क्रियाओं का 
प्रेरणा रूप स्पष्ट परिलक्षित रहता है, यथा--दादा जी. ने (नौकर से) बच्चों 
को कविता सुनवाई । माँ (अध्यापिका से) बच्ची को पढ़वा रही है। प्रधानाचार्य 
(अध्यापक से) छात्रों को दौड़वाते हैं । इन वाक्यों में “दादा जी, माँ, प्रधानाचार्य, 
प्रेरक कर्ता हैं; नौकर, अध्यापिका, अध्यापक' प्रेरित प्रेरक कर्ता हैं; “बच्चों, बच्ची” 
छात्रों, प्रेरित कर्ता (कर्म) हैं। इन वाकक्‍्यों की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है-- 
दादा जी ने नौकर से बच्चों को कविता सुनाने के लिए कहा; नौकर ने बच्चों को 
कविता सुनाई; बच्चों ने कविता सुनी । माँ अध्यापिका से बच्चों को पढ़ाने के लिए... 
कहती है । अध्यापिका बच्चों को पढ़ा रही है। बच्चे पढ़ रहे हैं। प्रधानाचायें. 
अध्यापक से बच्चों को दोड़ाने के लिए कहता है। अध्यापक बच्चों से दौड़ने के लिए 
कहता है। बच्चे दोड़ते हैं । इस प्रकार दवितीय प्रेरणा ही वास्तविक प्रेरणार्थक होती 
है । प्रेरणार्थंक क्रिया बनाने के निश्म निम्नलिखित हैं--- - 
(|) कुछ वयाकरणों के अनुसार आना, कुम्हलाना, गरजना, घिधियाना, टक- 
राना, तुतलाना, पछताना, पड़ना, लेंगड़ाना, सिसकना, आना जाना, खोला, गँवाना, 
पाना, मिलना, चाहना, रुचना, सोचना, पुका रना, जानना, जँचना, होता' का प्रेरणार्थक 
नहीं बनता । प्रेरणार्थक के गहरे विश्लेषण के सन्दर्भ में इन पर पुनविचार की आव- 
श्यकता है। (2) अकमंक धातुएं प्रेरणार्थंक होने पर सकरंक हो जाती हैं और सकमेक 
धातुएं दुविकतृक (कभी-कभी द्विकर्मक भी) हो जाती हैं, यथा--चल-चला 
(ना), उठ-उठा (ना), खा-खिला (नता)-खिलवा (ना), देख-दिखा (गा)-दिखवा 
(ना) । (3) प्रेरणार्थक धातुओं की रचना स्वाथिक धातु में ““आ, “ला, -रा, -लवा' 
प्रत्यया लगा कर की जाती है, यथा--पढ़-पढ़ा-पढ़वा; कह-कहा-कहला-कहलवा; देख- 
दिख[-दिखला-दिखवा-दिखलवा (4) सभी धातुओं के सब रूप नहीं बनते । (5) (क) - 
इन में धातु अपरिवर्तित रहता है---कर-करा, करवा; चर-चरा, चरवा; घिस-घिसा, 
... घिसवा; घल-घला, घलवा; धुल-धला, धलवा; पढ़-पढ़ा, पढ़वा; फिर-फिरा, फिरवा; मिठ-_ 
.. मिटा, मिटवा; लिख-लिखा, लिखवा; सुन-सुना, सुनवा । (ख) कुछ धातुओं में प्रत्यय 





है दि कप ० की का न $ > >८थककलप कलश कक ट वा 2577 हो: हर 7 अ 25 08:26 >अक 





क्रिया | 289 


जुड़ने पर स्वरों में आवश्यक परिवर्तत कर लिया जाता है, यथा--आ >ब, ई/एऐ > 
हू, ऊओ|ओऔ >उ, उदा० काट-कटा, कठवा;। नाच-तनचा, नचवा; जाग-जगा, 
जगवा; नहा-नहला, नहलवा; रीझ्ष-रिज्ञा, रिज्नषवा; बीत-बिता, बितवा; सीख-सिखा, 
सिखवा; लेट-लिटा, लिटवा; खेल-खिला, खिलवा; देख-दिखा, दिखला; दिखवा, 
दिखलवा; भेज-भिजवा; बैठ-बिठा, बिठवा; भूल-भुला, भुलवा; सूख-सुखा, सुखवा; 
बोल-बुला, बुलवा; खोद-खुदा,खुदवा; घोट-घुटा, घुटवा; जोत-जुता, जुतवा । (ग) दीर्घ 
स्वरान्त धातुओं में प्राय: -ला जुड़ने पर स्वर में ह्‌ रस्वता आ जाती है, यथा--खा- 
खिला, खिलवा; नहा-नह॒ला, नहलवा; पी-पिलवा; जी-जिला, जिलवा; सी-सिला, 
सिलवा; दे-दिला, दिलवा; रो-रुला, रुलवा; ढो-ढुलवा; सो-सुला, सुलवा; धो-धुला, 
धुलवा | (6) कुछ मूल अकर्मक, सकमंक धातुओं के ब्युत्पल्त प्रथम, दुवितीय 
प्रेरणार्थक तथा कर्मकतृ क (व्युत्पन्न अकर्मक) रूप इस प्रकार बनाए जा सकते हैं-- 
मूल अकर्मक धातु घूल सकर्मक धातु च्युत्पन्त प्रेरणार्थक धातु कर्मेकर्त क रूप 


उढ उठा ... उठवा 

चल न .. चला, चलवा चल 
ग्ल ध्च् गला, गलवा | 

बैठ न-- ८ बिठा, बिठवा, बिठला, बिठलवा 
सो पा सुला, सुलवा 

ड्ब ... डबो .... डबा, ड्बवा 

जाग न द जगा, जगवा 

मर मार मरा, मरवा 

न . कहला, कहलवा 

न काट . कटवा....||| क्‌ट 
८ . - खटका... _. खटठकवा पा आह 

फेक 5 २ | पढ़. .: - पढ़ा, पढ़वा 

ध् पढ़ा... पढ़वा ._ 

“......... देख... . दिखा, दिखवा, दिखला, दिखलवा 

-- . पहन... पहना, पहनवा द 

भा तोड़ .  तुड़ा, तुड्बा.... दूट 

-“+... खा. ___ खिला, खिवा 

ना सी. . सिला, सलवा...... सिल 

व पी पिला, पिलवा.. 

न ३. काल 5 'फड़वा व फट 
हे फोड़ .  फूड़ा, फुड्बा....... फूट 
|. खोल .. खुला, खुवा खुल 


यह आवश्यक नहीं है कि नियमों के आधार पर जो व्युत्पन्न प्रेरणा्थंक रूप 
. 49 











290 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


. बनाए जा सकते हैं, उन सब का देनन्दिन भाषा-व्यवहार ' में प्रयोग होता ही हो; 
यथा--'माँ आया से बच्चे को दूध पिलवाती है; अरे भाई, अपने नौकर से हमें ठंडा 
पानी/गर्म चाय पिलवाओ' जैसे वाक्य हिन्दी क्षेत्र में शायद ही कहीं, कभी बोले 


जाते हों या साहित्य-विधाओं में प्रयोग में आते हों । व्यवहार में 'बच्चे को दृद् _ 


पिला/पिलवा देता; अरे भाई, जरा ठंडा पानी/गर्म चाय. तो पिलाओ/पिलवाओ' जैसे न्‍ 


वाक्य ही बोले जाते हैं क्योंकि दवितीय प्रेरणाथ्थेक में प्राय: वास्तविक कर्ता का 
उल्लेख नहीं किया जाता | 

6. संयुक्त धातु--कभी-कभी वकक्‍ता/|लेखक अपने भाव-विचार को पृणंत 
स्पष्ट करने के लिए एक से अधिक क्रिया पदों का प्रयोग करता है। एकाधिक मूल 
धातुओं के योग से बनी धातु संयुक्त धातु कही जाती हैं, यथा--खा ले (ना), दे दे 
(ना), लिख चुक (ना), कर डाल (ना), बोल उठ (ना), पी चुक (ना), आजा 
(ना) आदि । जब किसी विशिष्ट अर्थ बोध हेतु एकाधिक भिन्‍्तार्थी (ले, दे समानार्थी 


भी) क्रियाएँ मिल कर एक पूर्ण समापिका क्रिया (पदबन्ध) का निर्माण करती हैं तो क्‍ 


उस क्रिया (पदबंध) को संयुक्त क्रिया कहते हैं, यथ।--दुर्घटचा को देख कर मेरा हृदय 
पीड़ा से भर गया | बिदा होते समय लड़कियाँ प्राय: रो उठती हैं। इन वाक्‍्यों में भरना 
जाना, रोना, उठता भिन्‍तनार्थी क्रियाएँ हैं किन्तु पहली दोनों, दूसरी दोनों भिन्‍्नार्थी 
. क्रियाएँ परस्पर के सहयोग से दो विशिष्ट अर्थों का बोध करा रही हैं। सामान्यतः 


प्रत्येक युग्स की पहली क्रिया मुख्य क्रिया तथा दूसरी क्रिया सहकारी/सहायक क्रिया 


होती है । मुख्य क्रिया वक्‍ता/लेखक के अभिषरेत क्रिया-व्यापार - की सूचक होती है 
जबकि सहायक क्रिया मुख्य क्रिया के क्रिया-व्यापार के सम्पत्न होने आदि के 
शिष्ट्य की सूचक होती है । 


संयुक्त क्रियापदों की रचना निम्नलिखित रीतियों से होती है-- 


() मुख्य क्रियापद-|- एक या अधिक सहायक क्रियापद, यथा--वह (खाना) 
खा चुका । तुम्हीं बोलते चले जा रहे हो । उसे मिटा दिया जा सकता है। 


मुख्य क्रियापद के रूष में 'सक, ग' के अतिरिक्त सभी क्रिया-धातुए प्रयुक्त 


हो सकती हैं, यथा--कया तुम्हारा कर्ज अब भी नहीं चुका ? आप वकील हैं। वे 
बीमार थे। चिड़िया उड़ी । “वह चला आ रहा है। वह चला जाएगा" में 'चलना 
मुख्य क्रियापद नहीं है किन्तु आना, जाता ही मुख्य क्रियापद है। अतः “चला 
आतना|चला जाना' उपर्युक्त नियम के अन्दर नहीं आता |... 


मुख्य क्रियापद के तुरन्त बाद पहले स्थान पर “आना, उठना, करना, चलता, 


. घुकना, जाना, टपकना, डालना, देना, धमकना, पड़ता, पाना, बनना, बसना, बैठता, 
मारना, रखना, रहना, लगना, लेना, सकता, होना' में से कोई भी क्रिया आ सकती 


. है, यथा--यह बदमाश कहाँ से आ ठपका ? वह रोज हमारे यहाँ आ धमकता है।. 
.._बैचारा छोटी उम्र में ही चल बसा । जो भी जी में आया, वही लिख मारा । मुख्य _ 





हे 


क्रिया | 29] 


क्रियापद के बादवाले क्रियापद के बाद दूसरे स्थान पर “आना, करना, चुकना, 
जाना, देना, पड़ना, रहता, लगता, सकना, होना में से कोई भी क्रिया आ सकती 
है, यथा--तुम्हारे प्रश्व॒ का उत्तर दिया जा चुका है । जरा, उसे अपने यहाँ ठहर 
जाने देना । सारा हॉल झंडियों से सजाया जाने लगा। वह अभी सो रहा होगा । 
मुख्य क्रियापद के बाद तीसरे स्थान पर “रहना, सकना, होना में से कोई भी 
क्रिया आ सकती है, यथा--घोड़ी भागी चली आ रही थी । उन से तुम्हारे बारे में 
पूछ लिया जा सकता है। बच्चों को यहाँ के रीति-रिवाज के बारे में बता ही दिया 
गया होगा । मुख्य क्रियापद के बाद चौथे स्थान पर कालबोधक धातुएँ ह, थ, गा 
ही आती हैं, यथा--इस बारे में सब बता दिया जाता रहा है (/था/होगा) । 

इस प्रकार क्रियापदों का यह बितरण , 2, 3, 4, 5 स्थान के रूप में होता 
है जिस में 'सकना' के अतिरिक्त पूव॑वर्ती स्थान के क्रियापद परवर्ती स्थान पर नहीं 
आते किन्तु परवर्ती स्थान के क्रियापद पूवव॑वर्ती स्थान पर आ सकते हैं, यथा--वह 
कमरे में था। वह कमरे में सोया था | वह कमरे में सो गया था । (वह )/उसे कमरे में 
सुलाया जा रहा था। उसे कमरे में सुला दिया जा सकता था । 

“गिर, ड्ब, तिकल, निकाल, पहुँच, फिर, भाग, ला से पूवंवर्ती सुख्य क्रिया- 
पद स्थानीय कुछ क्रियाएँ मुख्य क्रिया न होकर पूर्वकालिकता का बोध कराती हैं, 
यथा--पतंग कहाँ जा गिरी ? वह तुम्हें भी ले ड्बेगा। चोर पुलिस की निगाह से. 
बच कर जेल से निकल भागा । उसे यहाँ पकड़ लाओ । तुम यहाँ कैसे आ पहुँचे ? 

(2) ४/---आ-- 4५/जा---ता/-ती/-ते, यथा--बस, नौकर आया ही जाता 
है। मारे बदबू के सिर फटा जाता था। अरी क्‍यों, मारे कंजूसी के मरी जाती है । 
(तत्परता बोधन) । 

(3) ७&/ ---आ-- १/कर, यथा--गाया करता था; सुना करता हूँ; आया. 
करता है। बारह बरस दिल्‍ली रहे, पर भाड़ ही झोंका किए । वे हमें देखें न देखें, 
हम उन्हें देखा कर । (अभ्यास बोधन) 

(4) ५८---ना--«<६/ चाह, यथा--करना चाहा; मरना ही चाहती थी 
पूछना चाहूँगा। (इच्छा बोधन)। कहीं-कहीं 4/ --आ प्रयोग (विशेषतः पुरानी 
हिन्दी में) प्राप्त, यथा--बारह बजा चाहते हैं। रेलगाड़ी आया चाहती है। लड़के 
ने लड़की को देखा चाहा । 

(5) $&/ -+सक, यथा--दौड़ सकते थे; सुन सकते हो; दौड़ नहीं सकता । 
(शक्ति बोधन) । प्रभूता-प्रदर्शन हेतु कुछ लोग आदेशात्मक क्रिया-प्रयोग के स्थान 
पर शक्ति बोधक क्रिया का प्रयोग करते देखे जाते हैं, यथा--तुम जाओ (/जा सकते. 
हो), वह जाए (/जा संकती है) क्‍ 

द (6) $/-+चुक, यथा--पढ़े चुका हूँ; पहुँच चुका था; लिख चुकूँगा। (पुणंता 
बोधन) द 
(7) ५/---ने-- ९/ लग, यथा--गाने लगा; बन्द करने लगा; जाने 





292 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


लगेगा । (आरम्भ बोधन) । क्यों साथ आने पर नकारात्मकता या असम्भवता की 
सूचता मिलती है, यथा--वह यहाँ क्‍यों आने लगी (वह यहाँ नहीं आएंगी) 


(8) ५/+-ने+-«/ दे, यथा--जाने दो; समाप्त कर लेने दो सुनने 


दीजिए । (अनुमति बोधन) 
(2) ४ --९/प, यथा--खा पाया; लिख पाओगे; चल पाई। (प्राप्ति 


बोधन/|अवकाश बोधन) पुरानी हिन्दी में ५/-|--ने प्रयोग प्राप्त, यथा--तुम यहाँ मे : 


इतनी जल्दी जाने (जा) न पाओगी । पूरी बात न होने (हो) पाई थी कि 

(0) ४/-++-ता/-ती/-ते-- ५/आ, यथा--होती आई है; कहता आया 
हुँ; देखते आए हैं (नित्यता! बोधन) । बेचारी बचपन से ही न जाने कितने दुःख सहती 
आई है। 

(44) 4/---ता/-ती/-ते/-ए -- ५/जा, यथा--बोलते जाओ; कहे जाओ; खाए 
जा रहा है; सुनती जाइए (सातत्य बोधन) । भीड़ नारे लगाती जाती है (--भीड़ 
नारे लगाते हुए जा रही थी) में “लगाती जाती है संयुक्त क्रिया नहीं है । 

(१2) &/+-ता/-ती/-ते/-- ए-- ९/ रह, बथा--सोती रहती है; पहने 
रहता था; सोए रहंता है। (निरम्तरता बोधन) | 'जाता रहना' का मुहावरेदार प्रयोग 

 यथा--मेरी माँ मेरे बचपन में ही जाती रही (>-मर गई); इस हार की सारी चमक 


जाएगा) 


यथा--चोौंक उठा, रो उठी, चिल्ला उठे, बोल उठता है (अचानकता बोधन) । मार 


उंन्कअनर: अंकल :५७७४४2४: 440 / 75 


जाती रही (+-नष्ट हो गई) एक महीने में यह वौकर भी जाता रहेगा (जचला 


| 


(3) 4/+ उठ/बैठ/आ/जा/लि/दे/पड़/डाल/रह/रख/विकल (अवधारण बोधन), .. 


बैदूँगी, कह बैठी, चढ़ बैठा, खो बैठना, उठ बैठा (अचानकता बोधन) । देख आना, 


लोट आइए, बादल घिर आए, मौत के मुंह में से भी बच आया (क्रिया-व्यापार बवता 


की ओर से) । खो जाना, भूल जाना, छा जाना, छू जाना, सी जाना, (पृर्णता, शीघत्रता 
बोधन), हाथी के पैर के नीचे कोई कुचल गया; देखों मत पी जाओ। खा लेना, पी _ । 
लेना, छीत लेना, समझ लेना (क्रिया-व्यापार लाभ कर्ता को प्राप्त), जब तक कोई 
बात नहीं हो लेती, तब तक'*****“(पूर्णता बोधन) । कर देवा, सुना देना, समझा 
देना, कह देना, त्याग देना (क्रिया-व्यापार लाभ कर्ता से भिन्‍न के लिए), चल देना, 


रो दिया, छोंक देगा, हँस दो (अचानकता बोधन) । सुन पड़ा, जान पड़ता है, देख 


पड़ना, सुझ पड़ा, समझ पड़ा (अप्रत्याशित आकस्मिकता बोधन), गिर पड़ा, चौंक पड़े, 
हँस पड़ी, आ पड़ना (अचानक घटित घटना) । फोड़ डाल, काट डाला, फाड़ डालो, 
तोड़ डालना, कर डालना (उप्नता बोधन), मार दूगा>-चाँटे आदि से चोट पहुँचा 
दगा; मार डालगान-प्राण ले लगा । खेल रहा है/था/होगा, खा रही है/थी/होगी 5, 
_(निरन्तरता बोधन) । समझ रखा है, रोक रखी है, 'छोड़ रखना के स्थान पर प्रायः 


..._ “रख छोड़ा का प्रयोग (आत्मनेपदी रूप) । आ निकला, चल निकली (अग्रत्याशित | 


... आकस्मिकता बोधन) 





क्रिया | 293 


(4) /---तै+- ९/बन, यथा--मुझ से पहाड़ पर चढ़ते नहीं बना; पढ़ते 
नहीं बनती; देखते ही बनती है (योग्यता बोधक) 

(45) ५/-+--ए-+- , लेदि/डाल, यथा--मैं बह आम लिए लेता हूँ। मैं 
वह किताब फाड़े देती हूँ । वह बच्चे को मारे डालता है। (निश्चय बोधन) 

(46) ९५/-“ ४ कऊकर// +-ते+- &/-+-ते, यथा--पढ़-पढ़ कर मर 
जाना; खा-खाकर मुटिया गईं है । चलते-चलते थक गई; खाते-खाते पेट फटा जा रहा 
है । (क्रिया-व्यापार की अतिशयता) 

युक्त क्रिया-प्रका्यें---संयुकत क्रियापदों की सहायता से अभिव्यक्त क्रिया- 
व्यापार सम्पादन की रीतियाँ कई प्रकार की होती हैं। कुछ लोग इन रीतियों को 
संयुक्त क्रियापद से व्यक्त अर्थ कहते हैं जो वास्तव में संयुक्त क्रियाओं के प्रकाय॑ 
हैं, यथा---- निश्चयबोधन, यथा--मैं ने उन्हें पत्न॒ लिख दिया है। एक ही. कप 
कॉफी मेगाई गई थी। तुम्हारी चीजें कल लेता आऊंगा। 2. निरम्तरता बोधन, 
यथा--बछड़ा दूध पिए ही चला जा रहा था। बोलते जाओ, मैं सब सुन रहा हूँ । 
इस प्रकार की भूलें कब तक करते जाओगे ? बादल घिरे चले आ रहे हैं । 3. तत्काल 
बोधन, यथा--चाय पी कर जाना, अभी तेयार किए देती हुँ। अब ज्यादा देर न 
लगेगी, जो कुछ लिखना है लिखे डालता हूँ। तुम्हारा टिकट मैं ही लिए देता/लेता 
हैँ । 4. इच्छा बोधन, यथा--इतना खा चुका हुँ कि पेट फठना ही चाहता है। 
कितनी सुन्दर गुड़िया है, लगता है बोलना चाहती है । चढ़ना चाह रहा था कि गाड़ी 
चल दी। 5. आवश्यकता बोधन, यथा--हमें मन्दिरों को समाज-सुधारक का रूप 
देना चाहिए । यह तो तुम्हें पहले ही सोच लेना चाहिए था। 06. बिवशता बोधन, 
यथा--लिखना तो नहीं चाहता था, पर लिखना पड़ गया । लगता है अब यहाँ से 
भागना ही पड़ेगा | पिताजी की तबीयत खराब है तो चार दिन रुकना पड़ सकता है। 
उसे बचाने के लिए मुझे भी झूठ बोलना होगा/पड़ेगा । सभी को अपने कर्मों का फल 
भोगता है/पड़ेगा । 7. अभ्यास बोधन, यथा--तुम रोजाना कितना दूध पिया करते 
हो ? कभी-कभी यहाँ भी हो जाया करो। वह रोजाना/हमेशा कुछ-न-कुछ पढ़ा या 
लिखा करती थी। 8. सामथ्यें बोधन/क्षमता बोधन/शक्यता बोधन, यथा---मैं नहीं 
समझता कि उस से कुछ कहते बन पाएगा । नक्‍्कारखाने की आवाज में तूृती की 
आवाज कौन सुन पाता है। दो मिनट में क्‍या बोल पाओगे ? वह तुम्हें पीट सकता 
है, लेकिन तुम उसे नहीं पीट सकते । राममृरत्ति स्टार्ट की हुई कार को रोक सकते थे । 
तुम कितना दूध पी सकते हो ? 9. असामथ्यं बोधन/अशक्यता बोधन, यथा--क्या 
तुमसे उस के सामने बोलते बन सकेगा । मेरे सामने तो उस बेचारी से बोलते ही नहीं 
बनता । 0. आरम्भ बोधन, यथा--आँधी आने लगी। उत्तर प्रदेश में विद्यालय 
मई से बन्द होने लगते हैं। वह बचपन से ही तुतलाने लगी थी ।  . समाप्ति बोधन 
यथा--क्‍या वे स्तान कर चुके हैं ” रेखा गा चुकी, अब मधु गाएगी। उस ने छोटी-सी 
जिन्दगी में सब कुछ पा लिया है। मैं ने काफी देर पहले ही खा-पी लिया था । हम ने 





294 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अपना पुराना मकान बेच दिया है। पता नहीं इतनी सारी मलाई कोन खा गया ? 


2, नित्यता छोधन/निरनन्‍्तरता बोधन, यथा--महात्मा गांधी प्रतिदित सृत काता 
करते थे । इस दफ्तर के बड़े बाबू ठीक 9*30 पर दफ्तर (में) पहुँचते रहे हैं । अंडमान 
में तो लगभग ल्ति मास पानी बरसता रहता है। तू हमेशा कुछ-व-कुछ बोलती ही 
रहती है । तुमा किश्लर चलते चले गए। 3. आकस्मिकता बोधन, यथा--तुम बीच 
में ही क्यों बोल उठते हो ? यह तुम क्‍या कर बैठे ? बच्चा कीचड़ में गिर पड़ा। 
]4, अन्तराल बीधन/ अवकाश बोधन, यथा--अब तुम यहाँ से निकल नहीं पाओगी। 
अभी उस मुददे पर चर्चा हो भी न पाई थी कि । वह जा भी न पाया था कि"-। 
5, अनिष्ठ बोधन/अनिच्छा बोधन, यथा--भैंस को पागल कुत्ते ने काट खाया था । 
यह सब तुम ने क्‍या लिख मारा है ? 6. अतिशघता बोधन, यथा--बच्ची रोते-रोते 
सो गई। तुम्हारी शिकायतें सुन-सुन कर मेरे तो कान पक गए । मैं तो दिन भर बैठे- 
बैठे थक जाती हूँ । हा द 


संयुक्त धातुओं से निर्मित क्रियापद में मुख्य क्रिया के. साथ आनेवाली क्रिया । 


(रंजक क्रिया) अपना कोशीय अर्थ त्याग कर लाक्षणिक अर्थ ग्रहण कर लेती है। 


रंजक क्रियाओं की संख्या के बारे में मतभेद है किन्तु ये क्रियाएँ मुख्य क्रिया के साथ. 


आ कर अपने मूल अर्थ को छोड़ कर मुख्य क्रिया के व्यापार-सम्पादन में कोई-न-कोई 


विशेषता उत्पन्त कर देती हैं--आ, जा, उठ, बैठ, ले, दे, निकाल, पा, लग, रह, रख, 


कर, सक, चुक, चार्ह,.चल, पड़, बन, डाल, मर, मिल, गुज्र, मार । रंजक क्रियाओं 


का प्रयोग प्रक्रियाबोधक नामों के साथ भी होता है । प्रक्रिया बोधक नाम ऐसा संज्ञा, 
_विशेषण, अव्यय शब्द होता है जिस के अर्थ में प्रक्रियात्मकता का आभास रहता है, 
_ यथा--उधार लेना, कष्ट उठाना, वर्णन करना, नमस्कार करना, धन्यवाद देना, घ््‌स 
देता, पसन्द आना, डुबकी मारता, दया आना/करना, शान्‍्त करना, फीका पड़ना, 














करना/दिखाना/मचाना, पीछे पडना, ना/हाँ करना आदि | प्रक्रियाबोधक नाम अर्थ 
स्तर पर तो मुख्य क्रिया के समान कार्य करते प्रतीत होते हैं, किन्तु संरचना-स्तर 
पर ये क्रियापद की भाँति रूप ग्रहण नहीं कर सकते । इन के साथ आनेवाली रंजक 


हुए हो ? 


क्रिया ही वाक्य में समापिका क्रिया का कार्य करती है, यथा--आप ने मेरे लिए बहुत 
कष्ट उठाया है । इस कमीज्‌ का रंग कच्चा पड़ गया है। तुम क्‍यों मेरे पीछे पड़े 


अटपटा लगना, लंबा करना, नंगा करना, ठंडा पड़ना, आसान करना/पड़ता, जल्दी... 


... -. विशिन्‍त प्रक्रियाबोधक नामों तथा रंजक क्रियाओं के मध्य दो प्रकार का 

संबंध मिलता हैं--- तैनात्मक (सकारात्मक), यथा--कष्ट-|-उठ/मिल, नमस्कार 
-कर/कह/बोल/लिख/पहुँच 2. ऋणात्मक (नकारात्मक), यथां--कष्ट--(*लग/ 
सक/पड़/बन), समस्कार--(*आ/जा/पा/रख) | प्रक्रियाबोधक नामों के अतिरिक्त 
'मूल धातुओं, व्युत्पन्त धातुओं के साथ भी रंजक क्रियाओं का घनात्मक तथा 





क्रिया | 295 


ऋणात्मक संबंध होता है, यथा--कट/काट/कटा/कटवा-- ले/सक/पड़/दे/चाह/डाल । 
रंजक क्रिया-धातुएँ दुविप्रकार्यात्मक होती हैं क्योंकि वे मुख्य क्रिया या मुख्य क्रिया-स्थानी य 
किसी घटक को विशिष्ट अर्थ-छवि प्रदान करने के अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर 
स्वयं मुख्य क्रिया का स्थान भी ले सकती हैं। रंजक क्रियाओं के अतिरिक्त अन्य 
क्रिया-धातुएँ एक प्रकार्यात्मक ही होती हैं। रंजक क्रिया युक्‍त क्रिया पद-रचना में 
रंजक क्रिया ही समापिका क्रिया का भार ग्रहण करती है । समापिका क्रिया का कार्य 
मूल अथवा व्युत्पन्त धातु ही कर सकती है। इस प्रकार संरचनात्मक दृष्टि से धातु 
--कृत प्रत्यय >-क्रियापद होता है जो वाक्य सें विधेय स्थान पर समापिका रूप में 
आता है । 

.क्रिया-रूपास्तरण--संरचनात्मक दृष्टि से वाक्य में क्रिया दो रूपों में आती 
है--. समापिक्ता रूप (क्रिया का वह रूप जो वाक्य-समापन की सूचना देता है) 
2, असमापिका रूप (क्रिया का वह रूप जो वाक्य-समापत् की सूचता न दे कर अन्य 
प्रकार के कार्य-व्यापार की सूचना देता है', यथा--वे खा कर आए थे । चलते बेल 
को मत मारो । हम ठहलने चलें । फढा दूध मत पीओ। तार पढ़ते ही वह रो पड़ी । 
मुझे पानी चाहिए तुम हमारे साथ चलना। इन वाकक्‍्यों में काले टाइप कौ क्रियाएं 
असमापिका क्रियाएँ हैं तथा “आए थे, मारो, चलें, पीओ, रो पड़ी, चाहिए, चलना 
समापिका क्रियाएं हैं। समापिका क्रिया वाक्य में एकल पद, एकाधिक पद के रूप में 
आती है। एकल पद के रूप में यह योजक (उद्देश्य, विधेय का योजन), सहज 
व्यापार सूचक (सहज रूप से व्यापार-अभिव्यक्ति) होती है, यथा--ईश्वर है; तुम 
डॉक्टर हो; गाय दुबली थी । बच्चे घरगए; तुम अभी तक नहीं नहाए; आप कल 
आइए । एकाधिक पद के रूप में यह व्यापारों का धनात्मक योग, व्यापा रो को गुणा- 
त्मक संश्लिष्टि होती है, यथा--वे बाजार जा रहे हैं; वे कल भी आए थे; बच्चे कमरे 
में बैठे होंगे । तुम आज फिर आ गए; आप यह क्‍या कह बेठे; वह बिस्तर पर जा 
पड़ी । धनात्मक योग में अर्थ की एकलयता पाई जाती' है, ग्रुणात्मक संश्लिष्टि में 
मूलार्थ चमत्कृत हो कर व्यक्त होते हैं । 

हिन्दी क्रियापद/क्रियापदबंध (समापिका क्रिया) को संरचना की दृष्टि से 
सभी व्याकरणिक कोटियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभावित करती हैं.। क्रियापद 
की इन व्याकरणिक कोठियों को दो वर्गों में रखा जा सकता है--. विकारोत्पादक, 
2. प्रयोग-नियामक । विकारोत्पादक व्याकरणिक कोटियाँ क्रिया की रूपावली को दो 
रूपों में प्रभावित करती हैं--(क) आस्तरिक प्रभ्नावकारी व्याकरणिक कोटटियाँ क्रिया- 
पद की अन्‍्तःप्रकृति को किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित करती हैं। इन 
कोटियों में ब॒त्ति, पक्ष, काल' की गणना की जाती है। (ख) बाहूय प्रभावकारी 
व्याकरणिक कोटियाँ क्रियापद की बाहय प्रकृति को प्रभावित करते हुए वाक्य के 
नाम पद के साथ अन्वित करती हैं। इन कोटियों में लिग, बचन, पुरुष की गणना 

- की जाती है। प्रयोग-नियासक व्याकरणिक कोठदियाँ “क्रियापदीय और कारकीय 








294 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अपना पुराना मकान बेच दिया है। पता नहीं इतनी सारी मलाई कोन खा गया ! 
2, नित्यता बोधन/निरन्तरता बोधन, यथा--महात्मा गांधी प्रतिदिन सूत काता 
करते थे । इस दफ्तर के बड़े बाबू ठीक 930 पर दफ्तर (में) पहुँचते रहे हैं । अंडमान 
में तो लगभग प्रति मास पानी बरसता रहता है। तू हमेशा कुछ-न-कुछ बोलती ही 
रहती है । तुम किधर चलते चले गए। 3. आकस्मसिकता बोधन, यथा--तुम बीच 
में ही क्यों बोल उठते हो ? यह तुम क्‍या कर बेठे ? बच्चा कीचड़ में गिर पड़ा । 
4, अन्तराल बोधन/ अवकाश बोधन, यथा--अब तुम यहाँ से निकल नहीं पाओगी । 
अभी उस मुददे पर चर्चा हो भी न पाई थी कि: । वहजा भी न पाया था कि“ । 
5, अनिष्ठ बोधन/अनिच्छा बोधन, यथा--भैंस को पागल कुत्ते ने काट खाया था । 
यह सब तुम ने क्या लिख मारा है ? 6. अतिशथता बोधन, यथा--बच्ची रोते-रोते 
सो गई । तुम्हारी शिकायतें सुत-सुन कर मेरे तो कान पक गए। मैं तो दिन भर बेठे- 
बैठे थक जाती हूँ । 


संयुक्त धातुओं से निर्मित क्रियापद में मुख्य क्रिया के. साथ आनेवाली क्रिया 


(रंजक क्रिया) अपना कोशीय अर्थ त्याग कर लाक्षणिक अर्थ ग्रहण कर लेती है । 
रंजक क्रियाओं की संख्या के बारे में मतभेद है किन्तु ये क्रियाएं मुख्य क्रिया के साथ 


आ कर अपने मूल अर्थ को छोड़ कर मुख्य क्रिया के व्यापार-सम्पादन में कोई-त-कोई 


विशेषता उत्पन्न कर देती हैं--आ, जा, उठ, बैठ, ले, दे, निकाल, पा, लग, रह, रख, 


कर, सक, चुक, चाह, चल, पड़, बन, डाल, मर, मिल, ग्रुजर, मार । रंजक क्रियाओं 


का प्रयोग प्रक्रिवावोधक नामों के साथ भी होता है । प्रक्रिया बोधक नाम ऐसा संज्ञा, 
विशेषण, अव्यय शब्द होता है जिस के अर्थ में प्रक्रियात्मकता का अभास रहता है, 
. यथा--उधार लेना, कष्ट उठाना, वर्णन करना, नमस्कार करना, धन्यवाद देता, घूस 
देता, पसन्द आना, डुबकी मारता, दया आता/करना, शान्‍्त करना, फीका पड़ना, 
अठपटा लगना, लंबा करना, नंगा करना, ठंडा पड़ना, आसान करना/पड़ना, जल्दी 
करना/दिखाना/मचाना, पीछे पडता, ना/हाँ करना आदि। प्रक्रियाबोधक नाम. अथ 


स्तर पर तो मुख्य क्रिया के समान कार्य करते प्रतीत होते हैं, किन्तु संरचना-स्तर 


पर ये क्रियापद की भाँति रूप ग्रहण नहीं कर सकते । इन के साथ आनेवाली रंजक 
क्रिया ही वाक्य में समापिका क्रिया का कार्य करती है, यथा--आप ने मेरे लिए बहुत 


कष्ट उठाया है। इस कमीज का रंग कच्चा पड़ गया है। तुम क्‍यों मेरे पीछे पड़े 


हुए हो क्‍ न्‍ 


विभिन्‍न प्रक्रियाबरोधक नामों तथा रंजक क्रियाओं के मध्य दो प्रकार का 


..._ संबंध मिलता है--. धनात्मक (सकारात्मक), यथा--क्ृष्ट -- उठ/मिल,; नमस्कार 
... "+कर/कह/बोल/लिख/पहुँच 2. ऋणात्मक (नकारात्मक), यथा--कष्ठ --(*लग/ 


सक/पड़/बन), नमस्कार --(*आ/जा/पा/रख) | प्रक्रियाबोधक नामों के अतिरिक्त 
मूल धातुओं, व्युत्पन्न धातुओं के साथ भी रंजक क्रियाओं का धनात्मक तथा 











आटा 
्‌ 
किवाकरण ० 
2 
|... 
ह 
| न्‍ 
ा 





क्रिया | 295 


ऋणात्मक संबंध होता है, यथा--कट/काठ/कटा/कटवा -- ले/सक/पड॒/दे/चाह/डाल । 

रंजक क्रिया-धातुएँ दुविप्रकार्यात्मक होती हैं क्‍योंकि वे मुख्य क्रिया या मुख्य क्रिया-स्थानी य 
किसी घटक को विशिष्ट अर्थ-छवि प्रदान करने के अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर 
स्वयं मुख्य क्रिया का स्थान भी ले सकती हैं। रंजक क्रियाओं के अतिरिक्त अन्य 
क्रिया-धातुएँ एक प्रकार्यात्मक ही होती हैं । रंजक क्रिया युक्त क्रिया पद-रचना में 

रंजक क्रिया ही समापिका क्रिया का भार ग्रहण करती है। समापिका क्रिया का काये 
मूल अथवा व्युत्पन्त धातु ही कर सकती है। इस प्रकार सेरचनात्मक दू ष्टि से धातु 
--कझत्‌ प्रत्यय+-क्रियापद होता है जो वाक्य में विधेय स्थान पर समापिका रूप में 
आता है । । 

._ क्रिया-रूपास्तरण--सं रचनात्मक दृष्टि से वाक्य में क्रिया दो रूपों में आती 

है---. समापिक्ा रूप (क्रिया का वह रूप जो वाक्य-समापत्त की सूचना देता है) 

2, असमापिका रूप (क्रिया का वह रूप जो वाक्य-समापत्र की सूचना न दे कर अन्य 

प्रकार के कार्य-व्यापार की सूचना देता है', यथा--वे खा कर आए थे । चलते बैल 

को मत मारो । हम टठहलने चलें । फढा दूध मत पीओ। तार पढ़ते ही वह रो पड़ी । 

मुझे पानी चाहिए तुम हमारे साथ चलना। इन वाक्‍्यों में काले टाइप की क्रियाएँ 

असमापिका क्रियाएं हैं तथा आए थे, मारो, चलें, पीओ, रो पड़ी, चाहिए, चलना 

समापिका क्रियाएँ हैं। समापिका क्रिया वाक्य में एकल पद, एकाधिक पद के रूप में 
आती है। एकल पद के रूप में यह यबोजक (उद्देश्य, विधय का योजन), सहज 
व्यापार सुचक (सहज रूप से व्यापार-अभिव्यक्ति) होती है, यथा--ईश्वर है; तुम 
डॉक्टर हो; गाय दुबली थी । बच्चे घर गए; तुम अभी तक नहीं नहाएं; आप कल 
आइए । एकाधिक पद के रूप में यह व्यापारों का धनात्मक योग, व्यापा रो की गुणा- 

त्मक संश्लिष्टि होती है, यथा--वे बाजार जा रहे हैं; वे कल भी आए थे; बच्चे कमरे 


में बंठ होंगे । तृुम आज फिर आ गए; आप यह ॒ क्या कह बेठ; वह बिस्तर पर जा 


पड़ी । धनात्मक योग में अर्थ की एकलयता पाई जाती है, गुणात्मक संश्लिष्टि में 
मूलार्थ चमत्कृत हो कर व्यक्त होते हैं । ... द 
हिन्दी क्रियापद/क्रियापदबंध (समापिका क्रिया) को संरचना की दृष्टि से 
सभी व्याकरणिक कोटियाँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में प्रभावित करती हैं.। क्रियापद 
की इन व्याकरणिक कोटियों को दो वर्गों में रखा जा सकता है--!. विकारोत्पादक, 
2. प्रयोग-नियामक । विकारोत्पादक व्याकरणिक कोटियाँ क्रिया की रूपावली को दो 
रूपों में प्रभावित करती हैं--(क) आसन्तरिक प्रभावकारी व्याकरणिक कोटियाँ क्रिया- 
पद की अन्‍्तःप्रकृति को किसी-न-किसी रूप में अवश्य प्रभावित करती हैं। इन 
कोटियों में बृत्ति, पक्ष, काल' की गणना की जाती है। (ख) बाहूय प्रभावकारी 
व्याकरणिक कोटियाँ क्रियापद की बाहूय प्रकृति को प्रभावित करते हुए वाक्य के 
नाम पद के साथ अन्वित करती हैं । इन कोटियों में लग, बचन, पुरुष' की गणना 


की जाती है। प्रयोग-नियासक व्याकरणिक कोटियाँ 'क्रियापदीय और कारकीय 











296 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अनुकलता' के अतिरिक्त बाच्य' को व्यक्त करती हैं। हिन्दी क्रियापदों की संरचना 


में इन सभी व्याकरणिक कोटियों का प्रभाव अत्यन्त संश्लिष्ट रूप में पडता है । कहीं- 
कहीं एक ही प्रत्यय एक से अधिक व्याकरणिक कोटियों को व्यक्त करता है और 
कहीं-कहीं प्रत्यय-हीनता (शुन्य प्रत्यय) से ही व्याक्रणिक कोटियों का बोध होता है। 
क्‍ वृत्ति या अभिवृत्ति का सामान्य अर्थ है--मनस्थिति, मानसिकता या मनोभाव। 
वक्‍ता में कथन के क्षण कोई-न-कोई वृत्ति या अभिवृत्ति अवश्य होती है । वाक्य में 
प्रयुक्त क्रियापद का रूप वक्‍ता की एक या एकाधिक मनोव॑त्ति का बोध कराता है। 
कभी-कभी उच्चारण-सुर के उतार-चढ़ाव से एक ही क्रियापद एकाधिक वृत्तियों को 


व्यक्त करता है, यथा-- मैं पढ़ रहा हूँ वाक्य के क्रियापद से निश्चयात्मक, तिरस्का- 


रात्मक, उपेक्षात्मक, विनयात्मक वृत्ति आदि की सूचना मिलती है किन्तु वक्‍ता 
का मुख्य ध्येय. (वृत्ति) है--किसी को यह बताना कि वह (वक्ता) पढ़ने का कार्य 
कर रहा है। वृ॒त्ति को अँगरेजी में 'मुड' कहते हैं जिस का अर्थ है--मस्तिष्क, मन 
या आत्मा की अवस्था | धवृत्ति” को कुछ व्याकरणों में 'क्रिया के अर्थ, “क्रिया के 
प्रकार', क्रिया की अवस्था”, क्रिया के भाव”, “क्रिया की विधि! कहा गया है। 
पारिभाषिक शब्दावली या तकनीकी दष्टि से ये सभी नाम भ्रामक हैं । 
मनोवज्ञानिक दृष्टि से विभिन्‍न मनोभाव दो प्रकार की व॒त्तियों में विभक्त 


किए जा सकते हैं---. तटस्थ/विचारमूलक 2. विधानात्मक/इच्छामूलक । तटस्थ 


या विचारमूलक व॒ृत्ति के समय वक्‍ता आत्मकेन्द्रित रहते हुए किसी कार्य॑-व्यापार 


के बार में निश्चयात्मक, संदेहात्मक, सम्भावनात्मक या संकेतात्मक दृष्टि से विचार 


करता या सोचता है। विधानात्मक या इच्छामूलक वृत्ति के समय वक्‍ता किसी 
क्रिया-व्यापार को किसी अन्य के द्वारा सम्पादित किए जाने की इच्छा रखता है। 


इस प्रकार हिन्दी की क्रियाओं को दो वर्गों में बाँठ सकते हैं---. तथ्यपरक क्रियाएँ . 
2. तथ्येतर क्रियाएँ। तथ्येतर क्रियाओं से निर्दिष्ट क्रिया-व्यापार के होने का केवल... 


अनुमान किया जा सकता है अथवा आश।/आशंका की जा सकती है क्योंकि ये क्रिया- 


व्यापार तथ्यपरक क्रियाओं के क्रिया-व्यापार की भाँति वस्तु-जगत्‌ में घटित या घट- द 


समान सत्य या वास्तविक नहीं होते । अँगरेजी में तथ्येतर क्रियाओं को $पर0]०७०९४४९ 


कहते हैं और हिन्दी में इन्हें रूप के आधार पर संभावनार्थ/संदेहार्थ कहंतें हैं। क्रिया- 


पद-संरचना की दृष्टि से वृत्ति की अभिव्यक्ति दो रूपों में होती है--!. घुक्त रूप... 
शुद्ध रूप में वृत्ति बोधन के लिए ही प्रयुक्त होते हैं। इच्छार्थक (-ऊं-ए+एँ, 


न्‍यओ), जआज्ञार्थक ($,-ओ,-इए) वृत्तियों के प्रत्यय इसी प्रकार के हैं।. 


सनन्‍तदूध रूप अन्य कोटियों को व्यक्त करनेवाले प्रत्ययों तथा नित्यत्व-बोधक होना. 


. के विविध रूपों के योग से व्यक्त होते हैं, यथा--हो, था, -गा, ता, -आ, -ऊ. 


. आदि । वृत्तिबोधक शब्दों यदि, अगर, अनुमान, संदेह, शायद, संभावना, निश्चय 


. के प्रयोग से वृत्ति-रूपों में परिवतेन भी हो सकता है । 


हिन्दी में विचारमूलक तथा इच्छामूलक वृत्ति को तीन रूपों में देखा जा सकता 


है; 





क्रिया | 297 


है---. निश्चयात्मक 2. सम्भावनात्मक 3. विध्यात्मक । सम्भावनात्मक वृत्ति के दो _ 
और उपभेद किए जा सकते हैं--(क) संदेहात्मक (ख) प्रतिबन्धात्मक । इस श्रकार 
इन पाँच वृत्तियों में सभी प्रकार की वृत्तियों का समाहार हो जाता है। 


[, निश्चयात्मक व॒त्ति---क्रियापद का वह रूप जिस से क्रिया-ब्यापार के 
सम्पा दन के बार में निश्चय की सूचना मिले, यथा--मे आज तुम्हार घर आऊगा। 
आज छड़ी है, स्कूल नहीं खुलेगा। क्‍या तुम्हारे पिता जी बाजार गए हैं / निश्चयात्मक _ 
वृत्ति में क्रिया के बारे में कथन, वर्णन, प्रश्न, निर्षेध के रूप में सूचना मिलती है । 
निश्चयात्मक वृत्ति में क्रियापद की संरचना के ये रूप होते हैं---%/ ---ता/-ती/-ते/-आ/ 
-ई/-ए +- हैं।हैं।है।हो; ५/ ---ऊँ/-एँ/-ए/-ओ ---गा/-गीगि; ९५// +--ता/-ती/-ते/-आ/-ई/-ए 
-+-था/थी।थे/थीं।९/ ---आ/-ई/-ए/-ईं । 2. विध्यात्मक वृत्ति---क्रियापद का वह रूप 
जिससे मध्यम पुरुष के सन्दर्भ में क्रिया-व्यापार के सम्पादन के बारे में विधि (आज्ञा/आदेश 
(सुझाव/अनुरोध|चितावनी/इच्छा/आश्वासन/निषेध/परा्थंता /उपदेश/आगग्रह/निर्देश) की 
सूचना मिले, यथा--इधर आओ, यहाँ बैठो। लड़कियो! चुप रहो; शोर मत मचाओ 
आप' उन की राय अवश्य मानिए। है भगवान ! इत पर दया करो । दीनों के साथ हमेशा 
प्रेम का व्यवहार करो | सदैव निष्ठा के साथ कतंव्य-पालन करो । तुम वहाँ जाना और 
उन्हें समझाना । एक ही खुराक लेना, ज्यादा नहीं । आदर प्रदर्शन के लिए धातु-- 
“इए/-इएगा का प्रयोग होता है, यथा--आप आइए/उठिए/बैठिए/देखिए। कभी 
हमारे घर भी आइए/आइएगा/पधारिए/पधारिएगा । लीजिए, दूध पीजिए। थोड़ा 
हमें भी दीजिए/दीजिएगा। निषेध युक्त विध्यात्मक वृत्ति में न, मत' का प्रयोग 
होता है। नहीं का प्रयोग प्रायः नहीं होता । आदर प्रदशव के समय केवल न का 
प्रयोग होता है, यथा---अभी (तू) घर मत जा। अभी (तुम) घर मत जाओ । अभी 
(आप) घर न जानता/जाइए। उत्तम (प्रयम), अन्य (तृतीय) पुरुष में आदेश नहीं दिया 
जाता, केवल मध्यम (द्वितीय) पुरुष को ही आदेश दिया जाता है। विध्यात्मक 
वृत्ति में क्रियापद की संरचना के ये रूप होते हैं--4/ --$४/-ओो/-इए/-इएगा/ 
-ऊ/-ए/-एँ। आज्ञा, सम्भावना के रूपों में बहुत कुछ समानता है। “वह यहाँ 
बैठे; (क्या) मैं जाऊं से आज्ञा, कर्तव्य, प्राथंवा की सूचता मिल रही है। इसे. 
'आज्ञा्थ/प्रवतेताथ/विध्यर्थ' भी कहते हैं । 3. सम्भावनात्मक बृत्ति---क्रियापद का वह 
. रूप जिस से क्रिया-व्यापार के बारे में सम्भावना (अनुमान, आशंका, इच्छा या 
कामना, प्रार्थना, सुझाव, हिदायत, अनुमति/सम्मति, कतंव्य) की सूचना मिलती है, 
यथा--शायद आज वह आए । शायद वह भी सिनेमा जा रही हो । सम्भव 
है, मैं कल भी आऊँ। भगवान तुम्हें सदबुद्धि दे। ईश्वर करे वह स्वस्थ 
हो जाए। हमें चाहिए कि हम अपने माँ-बाप का कहना मानें | अच्छे स्वास्थ्य 
के लिए आवश्यक है कि हम प्रतिदिन योगासन का अभ्यास करें। क्‍या हम 
भी आप के साथ चलें ? अब तो आप उसे बुला ही लें। संभावनात्मक वत्ति में 








298 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


क्रियापद की संरचना के ये रूप होते हैं--4/---ऊ/-ओ/-ए/-एं । सम्भावना- 
त्मक, प्रतिबन्धात्मक या संकेतात्मक वृत्तियों का प्रयोग अंशतः एक-सा होता है। 
शायद संभावना का द्योतक भी है और उस का तिरस्कार भी करता है, यथा-- 
शायद बच्चे आज न आएं | शायद आज आँधी/वर्षा आए/वे शायद ही आएँ । मिट्टी 
का तेल आज शायद ही मिले। विध्यात्मक तथा संभावनात्मक वृत्ति में क्रिया के 
रूप प्रायः समान होते हैं। संदर्भ-भेद से वत्ति-भेद की जानकारी मिलती है। 
संदेहात्मक बृत्ति--क्रियापद का वह रूप जिस से क्रिया-व्यापार के सम्पादन के बारे 
में सन्‍्देह (क्रिया-व्यापार के बारे में अनिश्चय) का बोध हो, यथा--उन्हों ने/तुम ने 
खाना खाया होगा । तुम्हें मेरा पत्र मिला होगा । (शायद) वह आ रहा होगा। 
बच्चा आता (ही) होगा। सन्देहात्मक वृत्ति वर्तमान, भूत की क्रियाओं में मिलती है। “न 
नहीं का योग होने पर इस वृत्ति के वाक्य निश्चयात्मक व॒त्ति के हो जाते हैं, यथा--- 
वह आती होगी; वह आई होगी--वह नहीं आती; वह नहीं आई । संदेहात्मक वत्ति 
की क्रिया-संरचना के ये रूप होते हैं--५» +--ता/-ती/-ते/-आ/-ई/-ए/ --हो/ह +- 
“ऊ5/-ए/-ओ/ए-|--गा/-गी/-गे । इसे संदिसधार्थ।अनुमानार्थ भी कहते हैं। 5. प्रति-' 
बन्धात्मक वृत्ति--क्रियापद का वह रूप जिस से कार्य-कारण का सम्बन्ध रखनेवाली 
क्रियाओं की असिद्धि/असम्पत्तता की सूचना मिलती है। शत या प्रतिबन्ध होने के 
कारण इस वृत्ति के वाक्य सरल वाक्य नहीं होते, मिश्र वाक्य होते हैं । इसे संकेता- 
थैंक/शतंसूचक/हितुहेतुमान भी कहते हैं। उदा०--तुम चाहे जितना कमाओ, पूरा... 
नहीं पड़ सकता । उस ने किसी अच्छे सकल में शिक्षा तो पाई नहीं, फिर उस में सभ्यता 
कहाँ से आती ? ओला पत्थर से बचती तो फसल खलिहान में आती । मुझे अवकाश 
मिलता तो मैं पत्र लिखता ( / और मैं पत्र न॑ लिखता) । यदि वह आया होता तो मैं 
अवश्य चली गई होती । जो/यदि तुम ने परिश्रम किया होता तो सफलता मिली 
होती । यदि तुम जाते तो" / यदि तुम जाते होते तो**/यदि तुम गए होते तो 
प्रतिबन्धात्मक वृत्ति की क्रिया-सरचना के ये रूप होते हैं--4/-+--आ/-ई/-ए --हो +- 


-ता/-ती/-ते । । 
पक्ष--क्रिया-व्यापपर की स्थिति या दशा का बोध करानेवाली व्याकरणिक 


कोटि को पक्ष” कहते हैं। पक्ष को अवस्था भी कहा जाता है। क्रियापद के जिस 
रूप से यह पता लगे कि कार्य-व्यापार पूर्ण हो चुका है या अपूर्ण है उसे क्रिया की 
अवस्था या पक्ष कहा जाता है। इस प्रकार पक्ष क्रिया-व्यापार के आरम्भ से ले कर 
उस की समाप्ति तक की विभिन्‍न स्थितियों/दशाओं/अवस्थाओं का दयोतक है । क्रिया- 


व्यापार का पूर्ण हो जाना (पूर्ण पक्ष। तथा क्रिया-व्यापार का अपूर्ण रहना (आरम्भ- 


_पू्वेत्व, आरम्भत्व, घटमानत्व, वर्धभानत्व, वीप्सा, अभ्यास, नित्यत्व तथा स्थिति) 
“अपूर्ण पक्ष कहा जाता है। -ता वर्तमान का प्रत्यय है. और वर्तमान निरन्तर होने 


. के कारण अपूर्ण है। इसी प्रकार-गा भी अपूर्णता का सूचक है।-आ भूत का 


: भ्रत्यय है और समाप्ति या पूर्णता का सूचक है। पक्षबोधक रंजक क्रियाओं (लग, _ 


अफरन- 





क्रिया | 299 


रह, चुक) तथा मुख्य क्रिया; $/-+--तें वाला/को के योग से बने रूप. को मुल पक्ष 
कह सकते हैं, यथा--हवा चलने लगी (आरम्भत्वसूचक), बच्ची चीखती रही (घट- 
मानत्वसूचक), मैं खा चुका (समाप्तिसूचक), गाड़ी आनेवाली है/थी (आरम्भपूवेत्व 
सूचक), ईंट गिरने को है।हुई (आरम्भपूव॑त्व सूचक) कालवाची सहायक क्रिया तथा 
प्रत्ययों के योग से बने रूप को सम्बदध पक्ष कह सकते हैं । सम्बदध पक्ष में संयुक्त 
होनेवाले तत्व कालबोधक होते हैं, अतः ऐसे काल को पक्षीय काल भी कह सकते 
हैं । यह पक्ष काल की सूचना के साथ-साथ क्रिया-व्यापार की अवस्था/दशा की सूचना 
भी देता है, यथा--ब च्चा हँसता है (/था/होता/होगा/गया) अपूर्ण पक्ष सूचक; बच्चा 
हँसा (है/था/होगा) पूर्णपक्ष सूचक । पूर्ण पक्ष फल-प्रधान होता है तथा अपूर्ण पक्ष 
व्यापार-प्रधात, यथा---रोगी ने दवा खा ली । वे यहाँ आई थीं । जयशंकर प्रसाद ने 
कामायनी लिखी है। मैं यह उपन्यास पढ़ चुका हूँ। (पूर्ण पक्ष)। बच्चे स्कूल जा 
रहे हैं/जा' रहे थे/जा रहे होंगे । हम सवेरे प्रार्थंता करते हैं । (अपूर्ण पक्ष ) । 

हिन्दी में अपूर्ण पक्ष की क्रियाएं व्यापार की आठ दशाओं से सम्बन्धित हैं, 
यथा--- 

!, आरम्भपु्वेत्व--गाड़ी आने/छटने (ही) वाली है । चूहा ज्यों ही रोटी खाने 
को हुआ'****** । 2. आरम्भत्व--गोली खाते ही रोगी सोने लगा। अगले सप्ताह से 
मुझे पूरी तनख्वाह मिलने लगेगी । 3. घटमानत्व--समुद्र में बहुत ऊँची-ऊँची लहरें 
उठ रही हैं। लक्ष्मण को परशुराम की बातें से क्रोध आ रहा था। 4. वर्धमानत्व--- 
चुपचाप सुनते जाइए । ऐसा तो यहाँ होता ही रहता है/था/रहेगा 5. वीप्सा---मैं 
कभी-कभी पी लिया करता हूँ/था ((करूगा)। वह अपनी सहेली के साथ हमारे घर 
आया करती है (|थी)। 0. अभ्यास--वे दिन-रात लिखते रहते हैं।थि । जब वे जा 
चुके होते हैं, तब वह आती हैं। 7. नित्यत्व--सूर्य की तरह पूरा चन्द्रमा भी पूर्व में 
निकलता है | ध्र्‌वतारा हमेशा उत्तर में चमकता/रहता है। 8. स्थिति---वे डॉक्टर 
हैं। माँ बीमार है। पूर्ण पक्ष की क्रिया-संरचना है---+. ---आ/-ई/-ए/-ई, 
यथा--लिखा/लिखी/लिखे/लिखीं, गिरा/गिरी/गिरे/गिरीं । स्वरान्त धातुओं में 
केवल -आ प्रत्यय जुड़ते समय य' का आगम हो जाता है, यथा--खाया/खाई/खाए/ 
खाई; जा>ग-गया/गई/गए/|गईं। जी >जि--जिया/जी/जिए/जीं; पी>पि-- 
पिया/पी/पिए/पीं; रोया/रोई/रोए/रोई; ले > लि--लिया/ली/लिए/लीं; दे > दि-दिया 
(दी/दिए/दीं; सेया/सेई/सेए/सिई; सी >सि--सिया/सी/सिए/सीं; सोया/पोई/सोए/ 
सोईं। हो” तथा 'कर' धातु के विशिष्ट रूप हैं--हो > हु--हुआ/हुई/हुए।हुईं ; 
द हल 88 0682 22 | के कप (आवृत्ति, 2 सातत्य आदि) का 
.. इयोतन ९/ -+--ता-ती/-ते|- था।होगा); ५“ -+-रहा/रही/र हैं/हो/हैँ 

“आशा हि हे (है।था|ह  रहा/रही/रहे +- है/हैं/ हो/हूँ/था / 
..._ काल--किसी क्रिया-व्यापार के (पूर्व या अपूर्व) होने या करने में लगनेवाले 
समय (अवधि) को व्याकरण में काल कहते हैं। यद्यपि समय/अवधि "7० का 
विभाजन अच्य भौतिक पदार्थों की भाँति नहीं हो सकता तथापि मनुष्य अपनी स्मरण 








300 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


शक्ति तथा वेज्ञानिक उपकरणों (घड़ी आदि), प्राकृतिक उपादानों (सूर्य, चन्द्रमा 
तारे) के सहारे काल 7७॥88 को तीन वर्गों में बाँठता रहा है--. वर्तमान, 2 भूत, 
3. भविष्य । भाषा-व्यवहार में काल गत्यात्मक घटनाओं के अनुक्रम का बोध है। 
घटना-अनुक्रम बोध का क्षण प्रतीति बिन्दु कहा जा सकता है। यह प्रतीति बिन्दु 
वक्ता के कथन के क्षण से जुड़ता है। कथन का वह क्षण वर्तमान है तो अनुभूत 
(स्मृति के आधार पर) क्षणों का अनुक्रम भूत और प्रत्याशा में क्षणों का सम्भावित 
अनुक्रम भविष्य कहा जाता है, यथा-- 

«भाषा प्रयोग/कथन-क्षण -> 


स्मृत-अनुभूत अनुक्रम . प्रतीति बिन्दु... सम्भावित अनुक्रम 
(भूत) (वर्तमान ) (भविष्य) 
वह तेरी .. वह तैर रही है वह तैरेगी 


काल का व्याकरणिक अथे है--कथन के क्षण से व्यापार अथवा अवस्था के 
क्षण का सम्बन्ध । यह सम्बन्ध पूवकालिकता, अनुक्रमिकता और समकालिकता के 
रूप में व्यक्त किया जाता है। अन्य भाषाओं की भाँति हिन्दी में भी सिद्धान्ततः 
काल के तीन भेद लाक्षणिक हैं, जगतिक सत्य नहीं । समय के आधार पर काल के 
दो ही भेद हैं--भूत, अ-भूत । अ-भूत को वतंमान तथा भविष्य में बाँदा जा सकता 
है । हिन्दी में अन्य भाषाओं की भाँति कभी-कभी भविष्य के लिए वर्तमान का प्रयोग 
होता है, यथा--आज शनिवार है, कल रविवार है (? होगा) । आज की छठटी है 
कल भी छुटटी है (? होगी)। हिन्दी में काल-रूपों की विविधता का कारण है उन 
में पक्ष तथा वृत्ति तत्त्व का भी निहित रहना । इस प्रकार हिन्दी के काल-रूप तिहरा 
कार्य करते हैं, अर्थात्‌ वे काल-दयोतन के साथ-साथ पक्ष तथा ब॒त्ति का दयोतन भी 
करते हैं। केवल कथन के क्षण से सम्बन्धित क्रिया का काल-रूप' निरपेक्ष काल रूप 
कहा जाता है और किसी अन्य व्यापार के काल से संबंधित क्रिया-रूप सापेक्ष काल 
रूप कहा जाता है। हिन्दी की समापिका तथा असमापिका क्रियाओं में काल का 
अस्तित्व रहता है किन्तु सामान्यतः: समापिका क्रियापदों के काल-भेद की चर्चा ही 
प्रमुख रूप से की जाती है। समापिका क्रियापद की संख्या के आधार पर कांल- 
स्वरूप को दो रूपों में देखा जा सकता है---. सरल काल/मूल काल एक दिशात्मक 
या परिधीय होता है, यथा--राम विनम्र थे। मेरे एक बेटा है। राधा पायलट 


बनेगी । कमला बाजार गई। मैं चाय नहीं पीता । तुम घर जाओ । 2. संयुक्त काल/ 


पक्षीय काल सरल काल की परिधि के अन्तगंत एक बिन्दु होता है, यथा--पाकिस्तान 


_ने भारत पर हमला किया था/है। मैं संस्कृत पढ़ता था/हुँ। (था/है।हैँ की परिधि के. 
. अन्तगगंत-आ/-ता के बिन्दु) । संयुक्त काल की मुख्य क्रिया पक्ष. की और सहायक रा ' 
क्रिया वुत्ति की सूचना भी देती है । काल की सूचना दोनों क्रियाओं के संलग्त 


.. प्रत्ययों के गुणात्मक सम्बन्ध से मिलती है, थथा--बह पढ़ा होता“ में -आ (पूर्ण... 
.. पक्ष भत,) -ता (प्रतिबन्धात्मक वृत्ति वर्तमान), पढ़ा होता (वर्तमानपू्व॑त्व आरोपित 





क्रिया | 30| 


भूतकाल) । हिन्दी कालसूचक धातुएँ तथा प्रत्यय ये हैं-- १/ हो नित्यत्व/सातत्य 
बोधक-> एथ (भूत) ९/ह (वर्तमान), ९/-ग (भविष्य), इत्‌ प्रत्यय ग्आ 
(भुत), -ता (वर्तमान), तिडः प्रत्यव वृत्तिसूचक हैं जो व्यापार को संकेतित करते हैं, 
व्यापार घटित होने की सूचना नहीं देते । इन्हें वर्तमानोत्तर सूचक कह सकते हैं, 
यथा---ऊँ,-एं,-ए,-ओ,-इए । हिन्दी में भूत, वर्तमान, भविष्य, वर्तमानो- 
त्तर सरल कालों के नामों में अधिक मतभेद नहीं है किन्तु संयुक्त कालों के नामों तथा 
संख्या में बहुत मतभेद है क्योंकि हिन्दी में काल के साथ पक्ष, वृत्ति जुड़े होने के 
कारण संयुक्त कालों के नाम और संख्या काल-आधारित, वृत्ति-आधारित, पक्ष- 
आधारित है । क्‍ 

परम्परागत ढंग से काल के तीन भेद माने जाते हैं क्योंकि व्यक्ति वस्तु 
जगत से अपना सम्बन्ध इसी सन्दर्भ में देखता, समझता तथा मानता है--जो बीत 
चुका है, जो है, जो आगे होने वाला है। क्रिया की अवस्था (पक्ष सहित) के आधार 
वर्तमान, भूत, भविष्य क्रिया की सामान्य, अपूर्ण और पूर्ण अवस्था से जुड़ कर 
39८ 3--9 काल बनाते हैं, यथा-- है 


पक हु बाज .. सामान्य |... भर पूर्ण 
वर्तमान, 4. बच्चा सोता है| 4. बच्चा सो रहा है | 7. बच्चा सोया है 
भूत 2. बच्चा सोया | >. बच्चा सोता था | 3. बच्चा सोया था. 
भविष्य | 3. बच्चा सोएगा | 6. बच्चा सोता रहेगा। 9. बच्चा सो चकेगा 


इन 9 कालों में वाक्य संख्या 4, 6, 9 एक से अधिक क्रिया [संयुक्त क्रिया) 
वाले हैं। अतः एक ही क्रिया के अवस्था के आधार पर छह काल बनते हैं---. 
सामान्य वर्तमान 2. धूर्ण वर्तमान 3. सामान्य भूत 4. अपूर्ण भूत 5. पूर्ण भूत 6. 
सामान्य भविष्यत्‌। काल और पक्ष से युक्त क्रिया रूप को एक इकाई. मानने से 
विश्लेषण में जटिलता आती है । इन्हें अलग-अलग रख कर क्रिया-रूप इन घटकों में 
_ विभकत किए जा सकते हैं--!. है 2. था 3. आया 4. आया है 5. आया था 6. 
आया हो 7. आया होगा 8. आया होता 9. आता 0. आता है . आता था 
42, आता हो 3, आता होगा !4. आता होता 5, आएगा 6 आए। 
क्रिया-वृत्ति (/भावअर्थ) की दृष्टि से वर्तमान काल के पाँच भेद माने जाते 
हैं--4. सामान्य 2. प्रत्यक्ष विधि 3. सम्भाव्य 4, संदिग्ध 5. पूर्ण । इसी आधार पर 
भूतकाल के आठ भेद माने जाते हैं--. सामान्य 2. अपूर्ण 3. पूर्ण 4. सम्भाव्य 
5. सन्दिग्ध 6. सामान्य संकेत 7. अपूर्ण संकेत 8. पूर्ण संकेत । इसी आधार पर 
भविष्यकाल के तीन भेद माने जाते हैं--- . सामान्य 2. परोक्ष विधि 3. सम्भाव्य । 
वृत्ति (|अथ।भाव) की दृष्टि से इन काल-भेदों को इन वर्गों में रखा जा सकता है-- 
निश्चयार्थ (6)---. सामान्य वर्तमाव 2. सामान्य भूत 3. सामान्य भविष्यत्‌ 4, 
अपूर्ण भूत 5. पूर्ण भूत 6. पूर्ण वर्तमान । सन्दिग्धार्थ (2)--. सन्दिग्ध वर्तमान 2. 
सल्दिग्ध भूत । सम्भावनार्थ (3)---. सम्भाव्य वतंमान 2. सम्भाव्य भूत 3. सम्भाव्य 
भविष्यत्‌ । संकेतार्थ (3)--. सामान्य संकेतार्थ 2. यूर्ण संकेतार्थ 3. अपूर्ण संकेतार्थ/ 
आज्ञार्थ (2)--. प्रत्यक्ष विधि (वर्तमान) 2. परोक्ष विधि (भविष्यत्‌)। चार्ट में 
इन कान-नेदों को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है---...... 











808 20(|२ 





. 302 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 








>< .. >#€- .. एक ' इकीछ करे - ॥00॥ ७ ह॥2 ४ 
। 4०॥४५)) 33]89]. ४७४ *8 202902]॥8 ॥०090 9 |. 20802]॥8 
+४|ह 4000 2, >< 2८ | >< 8 ॥थ७ 3४ 
(84 9] (२8 ५ 
4/>(8 ॥॥2(४: 82 2६ है >( द । 2(॥९ 3): 
कैफ... ४४६ ९] 3॥भ हे | 2६8 नल *्ु 
20.४ 3/2 ० _डे फपडे डे >८ फू ड़ हम 
फेक 2098 कर | 2७ ॥॥2]४ 'ट] | ४8 पा, 0] ही 028॥88 ०0 5 5 
>< ८... '€ रद >< ा हि [फट हर 
॥0 ॥२४ 2७. | (४७ डक ७४७ ४ $ ॥9४ 8. « 5 कस 222 शक 
>< ४॥४)२४ 02] *ट[। ४७॥४।२४ ॥७।॥+४ ' 38]४] ॥8४२।६ *॥ ४)७)२४ ॥०॥0॥ व्‌ ... फरि9 
(ट8/)292)) छा /डिटिल शा 5४) पिल्डट हि, रे 

















क्रिया | 303 


इन !6 कालों में 4 की रचना धातु से मूल धातु में प्रत्यय जोड़ कर हुई है, 
यथा--- 5. सम्भाव्य भविष्यत्‌ ([ ५ न -ए) / ४2» सामान्य भविष्यत ( ५ हज कह गा 
-गा), 3. प्रत्यक्ष विधि (4/ ---ओ) 4. परोक्ष विधि (१/---ता)। 0 कालों की 
रचना ५/---ता (वर्ततानकालिक कृदन्‍्त रूप) जोड़ कर हुई है, यथा--« 
सामान्य संकेतार्थ (६/---ता), 2. सामान्य वर्तमान (९/-+-ता+-है), 3: 
अपूर्ण भूत (५/---वा-+था), 4. सम्भाव्य वर्तमान ($/कन्ता+हो) 5. 
संदिश्ध वर्तमान (4५/---ता--होगा), 6. अपूर्ण संकेतार्थ (५/---ता-+-होता) । 
6 कालों की रचना . ---आ (भूतकालिक कृदन्‍्त रूप) जोड़ कर हुई है, हे बह 
]. सामान्य भूत (९/---आ), 2. पूर्ण वर्तमान (%$/---आन+है), 3. पूर्ण भूत 
(३/ ---आ-+-था), 4. सम्भाव्य भूत (#/---आ--हो), 5. संदिग्ध हे भूत 
(५/---आ--होगा), 6. पूर्ण संकेत (६/---आ--होता)। <इन कालों के 
प्रयोग और प्रकार्य के बारे में वाक्य-व्यवस्था अध्याय 22 में लिखा जाएगा)। 
क्रिया के लिंग, बचन और पुरुष--हिन्दी क्रियाओं में दो लिंग (पुल्लिग, 
सत्रीलिंग), दो वचन (एकवचन, बहुवचन), तीन पुरुष (उत्तम| प्रथम, मध्यम/दुवितीय, 
अन्य/तृतीय) होते हैं। वाक्य में सत्नीलिंग संज्ञा पद (अभिकर्ता।प्राप्तिकर्ता की वस्तु| 
निरविभक्तिक कम) होने पर क्रिया स्त्रीलिंग में बदल जाती है, अन्यथा उसका रूप 
पुल्लिंग ही रहता है, यथा--बच्चा खेलता है -*बच्ची खेलती है। नौकर ने कप' तोड़ 
दिया ->नोकर ने प्लेट तोड़ दी | श्यामा को इनाम मिला->श्यामा को साड़ी मिली । 
वाक्य में स्त्रीलिय संज्ञापद के बहुबचन के साथ क्रियापद में अनुनासिकता जुड़ती' है । 
भूतकाल के वाक्‍्यों के अतिरिक्त पुह्लिग क्रिया रूप में भी अनुनासिकता आती है । 
पुल्लिग बहुवचन की अभिव्यक्ति के लिए क्रियापद (एकवचन) आ->»(बहुवचन) ए 
हो जाता है, यथा--बच्चा तैरा (|था/है/तिरता होता)->बच्चे तैरे ((थे।हैं/तैरते 
होते) । बच्ची तेरी (/थी/है/तरती होती)->बच्चियाँ तैरीं (/तैरी थीं/हैं/तैरती . 
होतीं)। लड़का गया (/जाएगा/जाता होगा)->लड़के गए (/जाएँगे/जाते होंगे) । 
लड़की गई (/जाएगी/जाती होगी)-+ लड़कियाँ गईं (/जाएँगी/जातीं होंगी) । पुरुष 
कोटि का क्रियापद पर अनियमित प्रभाव देखने को मिलता है। काल की दृष्टि से 
यह केवल वर्तमान एवं भविष्य में मिलता है । उत्तम पुरुष एकवचन “मैं” कर्ता की 
क्रिया- लेती है (यथा--हैं हूँ, मैं बताऊँ), मध्यम पुरुष एकबवचन तथा अन्य पुरुष 
एकवचन तू, वह कर्ता की क्रिया -ऐ लेती है (पथा--तू है, वह है), मध्यम पुरुष 
बहुवचन तुम/तुम लोग” कर्ता की क्रिया -ओ लेती है (यथा--तुम हो, क्‍या तुम 
लोग सोते हो ?), उत्तम पुरुष बहुवचन 'हम/हम लोग, मध्यम पुरुष आदरार्थ आप/ 
आप लोग , अन्य पुरुष बहुबचन “े/वे लोग' कर्ता की क्रिया -ऐं लेती है (यथा--- 
हम/वै/आप पढ़ाते हैं | हम लोग/बे लोग/आप लोग पढ़ाते हैं) रा 
वाच्य--क्रिया-व्यापार किसी-व-किसी प्रकार सम्पन्न हुआ करता है। कभी 
उस व्यापार की सम्पन्नता का स्पष्ट सम्बन्ध अभिकर्ता/कर्ता से प्रत्यक्षत: दिखाई देता 








304 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


है (यथा--गाय घास चर रही है), कभी परोक्षतः (यथा--पत्र लिख दिया गया है) 
और कभी यह संबंध निरपेक्ष रहता है (बथा--यहाँ कैसे बैठा जाए ?) । यह सम्बन्ध- 
बोध क्रिया के वाच्य' से होता है, अत: बाच्य क्रियापद के उस रूप को कहते हैं जिस- 
से यह ज्ञांत हो कि क्रिया-व्यापार की सम्पन्तता (या क्रिया के मुख्य विषय) का. 
सम्बन्ध अभिकर्ता, कर्ता या कर्म में से किस से है या निरपेक्ष है, यथा--नौकर पेड़ 
. काट रहा है। (अभिकर्ता की प्रमुखता), गाड़ी आ रही है। (कर्ता/व्याकरणिक कर्ता 
की प्रमुखता), (नौकर दवारा) पेड़ काटा जा रहा है।पेड़ कट रहा है। (कर्म की 
प्रमुखता), (मुझ से) अब लगातार नहीं बैठा जाता। (क्रिया-व्यापार/भाव की 
प्रमुखता)। _ 

अंगरेजी ४००6८ ने अनुकरण पर वाच्य” की चर्चा करने पर 'भाववाच्य' 
नामक वाच्य का कोई अस्तित्व नहीं रहता । वाच्य को सही अर्थ में व्याकरणिक 
कोटि नहीं कहा जा सकता क्योंकि हिन्दी के सभी पूरक वाकयों में वाच्य-परिवतंन _ 
नहीं होता और कर्ता +-को (भोकता) की रचताओं में भी वाच्य-परिवर्तेन नहीं 
मिलता । हिन्दी के सभी वाक्‍्यों को कतृ वाच्य, कर्मवाच्य में नहीं बाँठा जा सकता | 
अस्तित्वसूचक क्रियाओं से युक्त वाक्‍यों को दबी जुबान' ही कतृ वाच्य कहा जाएगा, 
यथा--शीला बड़ी भोली बच्ची है। माँ रसोईघर में है। वाच्य को वाक्य-रचना _ 
प्रक्रिया के अन्तगंत विचा रणीय तत्त्व माना जा सकता है क्योंकि वाक्य-प्रयोक्‍ता की 
दृष्टि में वाक्य-प्रयोग' के समय कौन-सा तत्त्व अधिक महत्त्वपूर्ण है, अर्थात्‌ क्रिया- 
व्यापार को करनेवाला कर्ता या फल को भोगनेवाला कर्म या स्वयं कार्य 
“क्रिया; अतः वाच्य वाक्य-हूपान्तरण का एक प्रकार है न कि शुद्ध व्याकरणिक 
कोटि । वाच्य में वाक्‍्य-रूपान्तरण की प्रक्रिया पूर्ण पक्षीय कृदन्‍्त --जा से संबंधित 
है | रूपान्तरण की यह प्रक्रिया भी सभी वाक्‍्यों के साथ सम्भव नहीं है, कुछ विशिष्ट _ 
सन्दर्भों में ही ऐसा सम्भव है। इस आधार पर कमकतू क (/अकतृ त्व बोधक) वाच्य 
और असमथंता बोधक वाच्य माने जा सकते हैं। हिन्दी व्याकरण-परम्परा में कर्ता; _ 

क्रिया (भाव) की प्रमुखता के आधार पर तीन वाच्य माने जाते रहे हैं--! 
कतू वाच्य 2, कमंवाच्य 3. भाववाच्य । 

, क॒तु वाच्य --क्रियापद का वह रूप' जिस से यह ज्ञात हो कि क्रिया- 

व्यापार वास्तविक या व्ययकरणिक कर्ता से प्रत्यक्षतट: सम्बन्धित है, यथा--हरेन्द्र 


पस्तक पढ़ रहा है। पूलिस ने चोर को पकड लिया। मकान गिर पडा। ऐसे 


_ क्रियापदों का वास्तविक कर्ता चेतन, प्राणिवाचक होता है, व्याकरणिक कर्ता 


. अचेतन, अप्राणिवाचक । यद्यपि व्याकरणिक कर्ता में कतृ त्व-क्षमता (/कार्य व्यापार: . 
. सम्पादन प्रतिभा) नहीं होती, तथापि' वक्ता उस पर कतृ त्व-सामथ्य॑ का आरोप कर 


उसे कर्ता के समान प्रयुक्त कर लेता है । कतृ वाच्य का कर्ता $ या ने से युक्त रहता... 
है । इस वाच्य की क्रियाएँ अकर्मक तथा सकर्मक दोनों प्रकार की हो सकती है। | 


.... क्रियापद-संरचना में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से “-जा' रूप रहता है। 








क्रिया | 305 द 


2. कर्मंवाच्य--क्रियापद का वह रूप जिस से यह ज्ञात हो कि क्रिया-व्यापार 
वास्तविक कर्ता से परोक्षतः सम्बन्धित है, यथा-कपड़े सिए जा रहे हैं। विवाह की 
चिट्ठियाँ शीघ्र ही भेज दी जाएंगी। पत्थरों को उतरवा लिया जाए। सभी क्म- 
चारियों को सूचित किया जाता है कि“। कल तक इस सम्बन्ध में रिपोर्ट प्रस्तुत 
कर दी जाए (/जानी चाहिए) । कल फैसला सुना दिया जाएगा । चोरी पकडी गई। 
यहाँ के काफी सैनिक मारे गए । इस वाच्य में वाक्य का केन्द्रीय तत्त्व कर्म होता है 
तथा क्रिया-व्यापार को कर्म के ऊपर घटित होता दिखाया जाता है। ऐसे वाक्यों में 
वास्तविक कर्ता अनुपस्थित रहता है। मूल कर्म ही वाक्य का उद्देश्य होता है । 
कर्मवाच्य का रचना सूत्र है-- ९५/सकर्मक---आ/-ई/-ए-|- सहायक क्रिया जा। 

3. भाववाच्य --क्रियापद का वह रूप जिस से यह ज्ञात हो कि क्रिया के 
कर्ता या कर्म में से कोई भी वाक्य का उद्देश्य नहीं है, यथा--इस तेज धूप में कैसे 
बेठा जाएगा ? बिना बिस्तर के कहीं सोया जा सकता है। यहाँ धीमी आवाज में 
बोलजाए (/जाता है) । गुदगुदे बिस्तर पर अच्छी तरह सोया गया (/जाता है।जाएगा) 
अब तुम्हीं सोचो तुम्हारी बातों पर हँसा जाए या रोया जाए। कंल से प्रतिदिन 
प्रात: पाँच बजे उठा जाए और टहलने जाया जाए। इस वाच्य में केवल अकर्मक 
क्रियाएं ही आती हैं । भाववाच्य का रचना सूत्र है--4/अकर्मक-|--आ न-सहायक 
क्रिया जा। भाववाच्य के वाक्‍्यों में वावय-प्रयोकता की दृष्टि क्रिया, उस के भाव पर 
ही होती है, कर्ता या कर्म पर नहीं । ु 

बच्चा पलंग पर है । आजकल पिता जी बीमार हैं । मेरा पडोसी व्यापारी 
है। कल काफी गर्मी थी । उस लडके के हाथ में छह उँगलियाँ हैं। तुम्हें उस 
घटना के बारे में जानकारी थी। मुझे उस से नफ्रत रहेगी मुझे तुम्हारा उस के घर 
जाना पसन्द नहीं (है) जैसे वाक्यों को कुछ लोग कतृ वाच्य के स्थान पर “निर्वाच्य' 
कहना अधिक उचित मानते हैं किन्तु कतृ वाच्य की परिभाषा-सीमा में आने के कारण 
इन्हें कतू वाच्य मानना असंगत नहीं है क्योंकि 'कत वाच्य क्रिया का वह रूप है जिस. 
से यह पता चलता है क्नि वाक्य का उद्देश्य क्रिया का कर्ता है।' द 

_ परम्परागत लीक से हट कर हिन्दी वाक्यों का वाच्य-विभाजन इस रूप में 
किया जा सकता है--. अकतृ त्वबोधक (/कर्संकतृ क) वाच्य---इस वाच्य में मूल 
कर्ता का उल्लेख नहीं होता तथा कर्म व्याकरणिक कर्ता के रूप में क्रिया के साथ 
अन्वित होता है । ऐसे वाकयों में या तो कर्ता गौण होता है या अज्ञात अथवा अस्पष्ट 
तथा क्रिया-व्यापार का उल्लेख ही पर्याप्त होता है, यथा--हमारे विद्यालय में प्रति 
सप्ताह हिन्दी फिल्म दिखाई जाती थी। सड़क पर रास्ता रोक दिया गया है। उत्तर 
प्रदेश के कई नगरों में चीनी बनाई जाती है । व्याकरण की अनेक पुस्तकों में प्राय: 
इस प्रकार के वाच्य-परिवतंन के उदाहरण दिए जाते हैं--राम ने रावण मारा-+? 
राम से रावण मारा गया | उन्हों ने खाना खाया->? उन से खाना खाया गया। 

है गा कविता सुनाई->? बच्चों से ((दवारा) कविता सुनाई गई | हिन्दी भाषा- 








306 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


व्यवहार की व्यवस्था तथा सन्दर्भ की दृष्टि से ये तीनों परिवर्तित वाक्य अग्नाह यहैं | 
इस प्रकार के वाक्यों में मूल कर्ता का उल्लेख नहीं हुआ करता और व्यवहार में 
वाक्यों का यह रूप प्रयुक्त होता है--रावण मारा गया । खाना खाया गया । कविता 
सुनाई गई । 

र्यालयों के क्रिया-व्यापार वयक्तिक न हो कर संस्थागत होने के कारण 
पत्न-व्यवहार में अकतृ त्ववोधक वाच्य का प्रयोग अधिक मिलता है, यथा--इस 
कार्यालय से आप को भेजे गए दिलांक 8 के पत्र की अनुवृत्ति में******** । आप को 
दुबारा सूचना दी जा रही है कि“ । सभी करमंचारियों को सूचित किया जाता है 
कि बढ़ा हुआ वेतन/भत्ता इस माह की -5 तारीख को दिया जाएगा । कुछ सन्दर्भों में 
अभिकरण (88०7०५) का उल्लेख जृरूरी होता है, यथा--इस निगम द्वारा आरम्भ 


-की गई पहली चार परियोजनाएँ-****** । लोकसभा-स्पीकर द्वारा जारी की गई क्‍ 


विशिष्ट सूचना***** । प्रधानाचायं दवारा उठाएं गए अनुशासनात्मक कदम का. 


कॉलेज मैनेजर ने'*। ऐसे प्रयोग सामान्य भाषा में प्रयुक्त नहीं होते। आप के 
दवारा आपत्ति किए जाने पर“-५ पड़ोसी की लड़की द्वारा चप्पल से पिटाई किए 
जाने पर उस ने” वाक्यांशों को इस प्रकार व्यवहृत किया जाता है--आप के 
आपत्तिकरने प्र“; पड़ोसी की लड़की से चप्पलों से पिटने पर/पिट कर उस ने" 


अकतृ त्ववोधक वाक्य कि उपवाक्य में रूपांतरित होने पर दोनों उपवाक्य --जा _ 
वाच्य में आते हैं, यथा--कार्यशाला 4 अगस्त को रखने का निश्चय किया गया .. 


है->यह निश्चय किया गया है कि कार्यशाला 4 अगस्त को रखी जाए।हो/*रखें। 


मुझ से कुछ महीने और मैसूर में रुकने को कहा गया था->मुझ से कहा गया था कि ! 
मैं कुछ महीने और रुक (इस वाक्य में अभिकर्ता उपस्थित होने के कारण दूसरा | 


उपवाक्य -+-जा वाच्य में नहीं है) 
तथ्येतर कार्य-व्यापारों की क्रिया संभावना में आती है तथा कर्ता परोक्ष में 


रहता है, यथा--आइए, यहाँ थोड़ी देर बेठा जाए। आज कोई अंगरेजी फिल्म देखी 


जाए। अगर पत्र मिल गया होता तो ऐसी गलतफूहमी न होती। कर्ता का प्रयोग. 








होने पर वाक्य की रचना दूसरे प्रकार से होती है, यथा--लिखे जाने पर->उन के ._ 
लिखने पर; पीटे जाने के कारण-> उस के पिटने के कारण; पूछे जाने के बाद> 


तुम्हारे पूछने के बाद, दिया गया काम ००७ ००००५ रे आप' ने जो काम दिया था, वह #कक० 2 


इतने परिश्रम से बनाई गई मिठाई->तुम ने इतने परिश्रम से जो मिठाई बनाई 
थी"; केवल पूछे गए प्रश्न का ही उत्तर मुझे चाहिए -- मैं ने जो प्रश्न पूछा है केवल 


उसी का उत्तर चाहिए। प्रत्यक्ष निषेध के अकतृ क वाच्य के कुछ वाक्य हैं-- 

(मछली) ऐसे नहीं पकड़ी जाती । (चने का साग) ऐसे नहीं काटा जाता । तुम्हारी 
.. तरह नहीं पूछा जाता । हे 
......  अकतृ त्वसूचक वाक्‍यों की संरचना तीन प्रकार की होती है--4. ९/+ : 
. -आन॑- */जा, यथा--यह तय किया गया है कि; चलिए, कहीं पार्क में बैठ कर _ 








क्रिया | 307 


मंगफलियाँ चबाई जाएँ । इस संरचना को कुछ लोग 'सही' वाच्य कहते हैं । 2. कर्ता 
के उल्लेख के बिना कमेवाचक वाकयों की क्रिया अकमंक रखी जाने पर “मिथ्यावाच्य' 
(?९5००१००-7०8४आं४०) कहलाता है, यथा--खिड़की खुली (खिड़की खोली गई), पेड़ 
कटा [पेड़ कट गया), रसगुल्ले नहीं बने (रसग्रुल्ले नहीं बन सके/बन पाए/बनाए 
गए)। --जा के सन्दर्भ में काय. करनेवाले किसी-न-किसी व्यक्ति .का अस्तित्व 
स्वीकार करना ही पड़ता है । टूट के साथ करणकर्ता का प्रयोग होता है, यथा--तौकर 
से केतली टूट गई। उन से गलती से दो गिलास टूट गए । हिन्दी में खाना, 
पीना, लिखना, पढ़ना, देखना, भेजना, खरीदना आदि क्रियाओं के अकर्मंक रूप नहीं 
मिलते। इसलिए --जा वाच्य व्यापक है और मिथ्यावाच्य सीमित होता है। 3 

वाच्य के समान एक अकतृ त्वसूचक वाक्य संरचना का प्रयोग आजकल कुछ कम हो 
गया है, यथा--सुनने में आया है (>-सुना गया है), देखने में आता है (>-देखा 
जाता है), कुछ कहने में नहीं आ रहा है (--कुछ कहा नहीं जा रहा है) । इन के 
साथ मेरे/।हमारे/तुम्हार/उस के आदि रूपवाले कर्ता का उल्लेख भी किया जा 
सकता है, यथा--ऐसी घटन! मेरे सुनने में तो अब तक नहीं आई । 

2. असमर्थता सूचक वाच्य में ६“-|--आ-[|- जा के साथ कर्ता (--से -- 
नहीं) का उल्लेख रहता है तथा कार्य की अक्षमता की सूचना मिलती है। असमर्थता 
बोधन में दो संरचनाएं आ सकती हैं--यह बिस्तर मुझ से नहीं बँध रहा है/बाँधा जा 
रहा है। क्या वह ताला तुमसे भी नहीं खुला/खोला गया ? अम्मा जी से अबचल। नहीं 
जा रहा है। ऐसा खाना बच्चों से नहीं खाया जाएगा । असमर्थतासूचक वाच्य में 
संभावना क्रिया नहीं आती, अतः विधि, सुझाव, कामना या आशंका व्यक्त करने 
वाली रचनाएँ नहीं आती । असामथ्यं की सूचना के लिए 'सक, पा का भी. प्रयोग 
किया जाता है, यथा--बच्चे न जाग सकें/पाएँ तो अच्छा रहे | ऐसा न हो कि पिता 
जी लौठ ही न सकें/पाएँ क्‍ 

कारक तथा क्रिया-अनुकूलता--सन्दर्भ के अनुरूप कभी परसभगं क्रियापद के 
रूप को नियन्त्रित करते हैं, यथा--ने' क्रियापद को सकर्मक तथा पूर्ण पक्ष (भूत) 
में रहने के लिए नियन्त्रित करता है (यथा--तुम ने आज कुछ नहीं खाया है); कभी 
क्रियापद परसर्ग को नियन्त्रित करते हैं, यथा--'चाहिए' क्रियापद “कर्ता--को' 
रूप में नियन्त्रित करता है (यथा--मुझे आज ही पैसे चाहिए) । क्रिया तथ्रा कारक 
अनुकूलता को नियमत/|अभिशासत (00एशप्राा८या) भी कहते हैं । (इस विषय पर 
वाक्य व्यवस्था भाग में अध्याय 22 “वाक्य सार्थकता” में विस्तार से लिखा 
जाएगा) । क्‍ 
अन्विति अथवा प्रयोग--अन्विति' में वाक्य और पदबन्ध के विभिन्‍न घटकों 
के मध्य अन्तरपदबन्धीय तथा अच्तपंदबन्धीय अनुकूलन पाया जाता है, बथा---'अच्छा 
बच्चा में विशेषक (अच्छा) और विशेष्य (बच्चा) के मध्य अन्तपंदबन्धीय अंनुकूलन 
है । यह अनुकूलन दोनों में समान कोटि (लिंग, वचन) का है। “बच्चा गिर गया 








308 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


में कर्ता पदबन्ध (बच्चा) और क्रिया पदबन्ध (गिर गया) के मध्य अन्तरपदबन्धीय 
अनुकूलन है । यह अनुकूलन दोनों में समान कोटि (लिंग, वचन) का है। अन्विति 
को अनेक व्याकरणों में 'प्रयोग' कहा गया है । प्रयोग को किसी-किसी व्याकरण म्ें 
वाच्य कह दिया गया है और किसी में उसे वाच्य के साथ जोड़ दिया गया है। 
(अन्विति का क्षेत्र पदबन्ध तथा वाक्य से संबंधित होने के कारण इस पर वाक्य 
व्यवस्था भाग में अध्याय 26 “वाक्य विन्यास' में विस्तार से लिखा जाएगा ।) 

कृदन्त--क्रिया के जिन रूपों का उपयोग दूसरे शब्द-भेंदों के समान होता 
है, उन्हें ऋदन्त (कृत्‌ु--अन्त) कहते हैं, यथा --टहलना (संज्ञावत्‌), दौड़ता खरगोश 
(विशेषणवत्‌), सोच कर (क्रियाविशेषणवत्‌), मारे, लिए (सम्बन्ध सूचकवत्‌) । 
क्रिया-धातु में कुछ प्रत्यय जोड़ कर क्रिया-व्यापार आभासी जो संज्ञा, विशेषण, 
क्रियाविशेषण तथा संबंधसूचकवत्‌ शब्द बनते हैं, उन्हें “कृदन्‍त' कहते हैं। धातु में 
जुड़नेवाले प्रत्यय #्तु' प्रत्ययं कहलाते हैं, यथा--कतरनी, जलन, उड़ान, पहचान, 
बहाव, अनुसरण, अनुगमन (संज्ञा), पढ़ता हुआ, किया हुआ, चलती, बढ़ता (विशेषण) 
जाते-जाते, करते हुए, चल कर (क्रियाविशेषण), मारे, लिए (संबंधसूचक) । 

कृदन्त-भेद--नो प्रकार के क्ृदन्तों के दो मुख्य वर्ग हैं--. विकारी क्ृदन्त 
(4, नामार्थक कदन्त 2. कतृ वाचक कृदन्त 3. वर्तमानकालिक कृदन्‍्त 4. भूतकालिक 


कृदन्त) 2. अविकारी कृदन्त (. तात्कालिक कृदन्‍त 2. मध्यकालिक क्ृदन्त 3. पू्व- द 


कालिक कृदन्त 4. पूर्ण कृदन्त 5. अपू्ण कृदन्त) । 
, नामार्थंक कृदन्‍्त--इसे प्रायः क्रियार्थक संज्ञा या उत्तरकालिक संज्ञा कहा 


जाता रहा है। वास्तव में यह नामार्थक क्रिया है। धातु के बाद -ना/-नी/-ने जोड़- 


कर नामार्थक या संज्ञार्थंक कृदन्‍्त की रचना होती है। सम्बोधन के अतिरिक्त... 
नामार्थक कृदच्त का प्रयोग ऋजु, तियंक्‌ कारक में हो सकता है, यथा--सवेरे ट2हलना 


स्वास्थ्यप्रद है । अकेले जाने में मुझे डर लगता है। नामार्थक कृदन्‍त का सामान्य रूप... 


५/-+--ना (पुल्लिग, एकवचन) “क्रिया का साधारण रूप' है। क्रिया का साधारण 
रूप 'क्रिया' नहीं होता । विधि/आज्ञा के अतिरिक्त इस का प्रयोग संज्ञा (भाववाचक) 


व॒त्‌ होता है। नामार्थंक कदन्त का प्रयोग विशेषण के समान होने पर उस का रूप... 
उस की पूतलि या कमे (विशेष्य) के लिंग, वचन के अनुसार बदलता है, यथा--तुम्हें 


ह मेरी परीक्षा लेनी हो तो ले लो। वनयुवतियों की छवि रनिवास की स्त्रियों में. क्‍ 
. मिलनी दुलंभ है। क्‍ रा ७3" * ३ ० 8 
.. नामाथंक कृदन्त का प्रयोग संयुक्त क्रिया के रूप में 'चाहना, पड़ना, होना, 


..... चाहिए के साथ होता है, यथा--वह जाना चाहती थी; ऐसा सुनना पड़ता है/था| 
...  होगा। बात सुननी चाहिए । संज्ञा, विशेषण, क्रिया के रूप में नामार्थक कृदन्त के... 





प्रयोग इस प्रकार हो सकते हैं--संज्ञावतु प्रयोग--दौड़ना अच्छा है|था|होगा/रहेगा। । 





क्रिया | 309 


दौड़ने से शक्ति बढ़ती है/बढ़ेगी । दौड़ने में मजा आता है। दौड़ने की बात मत 
करो । विशेषणवत्‌ प्रयोग--मुझे चिट्ठी लिखनी थी | हमें ये पुस्तक पढ़नी थीं। 
आप को कई पत्त लिखने हैं । क्रियावत्‌ प्रयोग--दौड़ना चाहिए/चाहिए था। दौड़ना 
पड़ा । दौड़ने लगा। वहाँ दौड़ना । नामार्थक कदन्त में क्रिया का आभास भी रहने के 
कारण उस का कम भी आ सकता ;, यथा-यह लड़का गणित समझने में बहुत 
होशियार है । वह गीत गाने में पदु है । 

नामार्थक कृदन्त संज्ञा शब्दों की भाँति प्रयुक्त हो सकते हैं, यथा--मैं लड्डू 
(जाना) चाहता हूँ । मुझे अभी मिठाई (/जाना) चाहिए । मुझे बुखार (/जाना) है । 
मुझे रबड़ी (/टहलना) पसन्द है । कर्ता के साथ परसरम्ग आने पर सकमंक क्रिया की 
अन्विति कम के अनुसार होने के नियम के आधार पर नामार्थक कृदन्‍त का रूप बद- 
लता है, यथा--मुझे पत्च लिखना है (/ था/चाहिए/पड़ेगा/होगा) । तुम्हें साड़ी धोनी 
है (/थी/चाहिए/पड़ेगी/|होगी) । अन्यत्न पुल्लिग एकवचन रूप आता है, यथा-- 
बारिश होना शुरू हो गया। तुम्हें अगरेजी बोलना आता है। उसे तस्वीर बनाना 
पसन्द है । मैं फिल्‍म देखना चाहता हूँ | खाना, गाना, गोदना” वस्तु, व्यापार (दोनों) 
के सूचक हैं, अत: ये शब्द एकसाथ कम, क्रिया बन कर आते हैं| यथा--खाना 
खाना, गाता गाना, गोदना गोदना | तम्हारे पढ़ने से क्या लाभ ? (नामार्थक कृदन्‍्तीय 
रूप--क्रियाप्रधान), तुम्हारे गाने से क्या लाभ ? (नामार्थक कृदत्तीय रूप--क्रिया एवं 
संज्ञा रूप समान स्तरीय-गाना/गीत) । तुम्हें खाना मिला या नहीं । (मात्र संज्ञा)। 
कथनी <_ कथन, करनी < करना, होनी < होना, मेंगनी < माँगना, भरनी < भरना, 
मनमानी < मानना, छननी < छानना, चलनी < चालना, धौंकनी < धौंकना, कतरनी 

< कतरना, ओढ़नी < ओढ़ना जैसे शब्द नामार्थक क्ृदन्त से बने स्त्रीलिंग संज्ञा शब्दों 
के रूप में प्रचलित हैं, यथा--जैसी करनी वंसी भरनी । 

2. कतृ वाचक कृदन्त--%/-ने--वाला/वाली/वाले अर्थात्‌ नामार्थक 
कृदन्त के विकारी रूप में 'वाला' जोड कर कतृ वाचक कृदन्त की रचना की जाती है । 
इस कृदन्‍त रूप से कतृ वाचक संज्ञा बनती है तथा कर्ता (कार्य करनेवाले) की _ 
सूचना मिलती है, यथा--पाँच किलो रबडी खानेवाला (आदमी) रात मर गया। 
मंच पर नाचनेवाली (लडकी) आ रही है | पत्र॒पानेवाले (अपने रिश्तेदार) का 
पता बोलो । पकड़ो, भागनेवालों को पकडो । आदमी, लडकी, अपने रिश्तेदार' के 
साथ आने पर ये क्ृदन्‍त विशेषण' का काम भी कर रहे हैं, अकेले आने पर 
कर्ता का । है।हैं।हुँ।हो।था/थी/थि/थीं के साथ आने पर इस से आसन्‍्न भविष्य (भविष्य 
कालिक कृदन्‍त विशेषण) की सूचना मिलती है, यथा--मैं आप से यही पूछनेवाली 
थी । मैं आप से यही पूछने ही वाली थी। गाड़ी आने वाली है। गाडी आने ही 
वाली है | बच्चे आज आनेवाले हैं। 

.... 3. बर्तमानकालिक छूदन्‍्त--%/ ---ता/-ती/-ते की रचनावाले इन कृदन्तों 
को 'घटमान कुृदन्त' भी कहते हैं । इन के साथ हुआ/हुई/हुए भी जुड़ सकते हैं। इन 








3]0 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


कृदस्तों का प्रयोग विशेषण तथा संज्ञा के रूप में होता है, यथा--बहता (/बहता हुआ) 
पानी; चलती (/चलती हुई) गाडी; उड़ते (/उडते हुए) पक्षी; रमता जोगी बहता पानी | 
ढलती उम्र में शादी ! | दोड॒ते घोडों की लगाम खींच कर रखना । डूबते को तिनके 
का सहारा । मरता क्‍या न करता । भागतों के पीछे क्‍या भागना ! सहायक क्रियाओं 
के योग से ये मुख्य क्रिया का काम करते हैं, यथा-- बच्चा चलता है (था/होगा/रहा। 
रहेगा/रहता था) द 
4, भूतकालिक कृदन्‍्त-- ६/ +--आ(/-ई/-ए की रचनावाले इन कदन्तों को 'घटित 


कृदन्त' भी कहते हैं । इन के साथ हुआ/हुई/हुए भी जुड सकते हैं । इन कृदन्तों का प्रयोग... 


विशेषण तथा संज्ञा के रूप में होता है, यथा--बीता (हुआ) समय; पका (हुआ) फल; 
पके (हुए) फल; सडी (हुई) लकडी । मुरझाए (पौधे) में खाद और सूखे में पाती दो। 
ये तो पढ़े-लिखों की बातें हैं । मरे को मारे शाहे मदार । मूल अकर्मक धातु से निभित 
भूतकालिक कृदन्त विशेषण कतृ बाच्य के होते हैं, यथा--डूबा हुआ बच्चा; बढ़े हुए पत्ते; 
खिले हुए फूल; आया हुआ माल । सकर्मक धातु से निमित भूतकालिक कृदन्‍्त विशेषण 
कर्मवाच्य के होते हैं, यथा--लगाया हुआ पौधा; बेचे हुए कपड़े; बनाई हुईं तस्वीर. 
(| लगाया गया पौधा; बेचे गए कपड़े; बनाई गई तस्वीर) । -भा|-ई|-ए/-ओ से अन्त... 
होनेवाली धातु में भूतकालिक कृदन्‍्त प्रत्यय -आ जुड़ने पर “य श्रुति का आगम हो 
जाता है, यथा--ला-लाया, खा-खाया, कहला-कहलाया, पी-पिया, जी-जिया, सी- 
सिया, खे-खेया, से-सेया, बो-बोया, रो-रोवा, डुबो-डुबोया । -ई/-ए जुड़ने पर 'य' श्रुति. 
का आगम नहीं होता, यथा-- लाई, लाए, खाई, खाए, कहलाई, कहलाए, पी, पिए, जी, 
जिए, सी, सिए, खेई, खेए, सेई, सेए, बोई, बोए, रोई, रोए, डबोई, डबोए | 'हो, कर 
जा, दे, ले' के रूप विशिष्ट हैं--हुआ, हुई, हुए; किया, की, किए; गया, गई, गए; 
दिया, दी, दिए; लिया, ली, लिए क्‍ 
5. तात्कालिक कृदन्त--%,/ ---ते ही की रचनावाले इन क्ृदन्तों से कृद- 
न्तीय क्रिया के समाप्ति के क्षणों के साथ ही मुख्य क्रिया का होता सूचित होता है, 
यथा-बे आते ही कहने लगे । चाकू लगते ही वह मर गया। तात्कालिक कृदन्त 
क्रियाविशेषण को भाँति काम करते हैं, कभी-कभी तात्कालिक छृदनत तथा मुख्य . । 
क्रिया के लक्ष्य/कार्य में भिन्‍तता भी हो सकती है, यथा--सूरज निकलते ही सूरजमुखी 
खिल उठती है । अध्यापक के आते ही छात्र खड़े हो जाते हैं । तात्कालिक कदन्त को... 
क्रियाविशेषणार्थंक कृदन्‍त भी कह सकते हैं । » 
....._-.6. भ्ध्यकालिक कृदन्‍्त--१/ -+--ते अथवा ६/---ए (अर्थात्‌ अपूर्ण या... 
पूर्ण कृदन्त) की दविरुक्ति से बना कृदन्‍तीय रूप । इस क्ृदन्त से सूचित क्रिया के होने... 
के मध्य में ही मुख्य क्रिया के हो जाने/तकने की सूचना मिल जाती है, यथा-तुम 


.. (तो) बैठे-बैठे (ही) सो लिए । तुम मुझे सारी घटना चलते-चलते सुना सकते थे . 





हे ((हो) । इस कृदन्त से नित्यता, अतिशयता की सूचना मिलती है, यथा--मैं तो यहाँ - ' 


बैठे-बैठे थक गया | इतना सारा बोझा लादे-लादे और कितना चलना पड़ेगा ?. 





क्रिया | 3] 


7. पुर्वकालिक कृदन्त--९./ + कर की रचनावाले इन कृदस्तों से मुख्य क्रिया 
से प्व कदन्तीय क्रिया के होने या विए जाने की सूचना मिलती है, यथा--अब यहाँ 
चुपचाप बैठ कर कहानी सुनो । जो कुछ कहता चाहते हो सोच कर कहो। ब च्न्चे 
केवल दो-दो पूड़ियाँ खा कर गए हैं | &/ कर के साथ के का योग होता है, यथा 

मम प्रा कर के ही आराम करूँगा । कभी केवल धातु से ही पूर्वकालिक कृदन्त 
का काम लिया जाता है, यथा--वह बेचारी ससुराल छोड़ कहाँ जा सकती थी? 
तौलिया मेरे हाथ में थमा (/ पकड़ा) नौकर न जाने कहाँ गुम हो गया ? जब पूव॑- 
कालिक कदन्त की दविरुक्ति (समानार्थी दो धातुओं की भी) होती है, तब कर 
केवल उत्तर पद में ही जुड़ता है, यथा--मैं तुम्हें पानी पी-पी कर कोसू गी। यह 
सब सोच-सोच कर तो मेरा दम निकला जा रहा है । अच्छा अब खा-पी कर सो 
जाओ | पर्वंकालिक कदन्त क्रियाविशेषण का कार्य करता है, यथा--चिलमची यार 
किस के, दम लगा के (/कर) खिस के । दो घूँट पाती पी कर वह आगे बढ़ गया। मैं 
अभी उन से जा कर पछती हूँ । आओ, दौड़ कर आओ । 

. कभी-कभी पूर्वकालिक कृदन्त का लक्ष्य मुख्य क्रिया से भिन्‍नत भी हो सकता है 
यथा--अभी दस बज कर पच्चीस मिनट ही हुए हैं । पंचारिष्ट से पाचन क्रिया दुरुस्त 
हो कर स्वास्थ्य-वृद्धि होती है । इस काम में खर्चे काट कर काफी बचत होने की 
सम्भावना है । पूर्वकालिक #दन्त के कुछ विशिष्ट प्रयोग हैं--मोटर दिल्‍ली (से) 
हो कर जाएगी । दो-दो कर के बैठते जाओ । वहाँ से ले कर यहाँ तक एक भी दरख्त 
दिखाई नहीं दिया । हमारे लिए तुम से बढ़ कर कौन है ? विशेष कर (के) तुम्हारी 
इसी अदा पर हम फिदा हैं । 

वर्तमान तथा भतकाल की भाँति 'पृवकाल' नाम की कोई काल-व्यवस्था 
नहीं होती । इस दृष्टि से यह परम्परागत नाम सही नहीं कहा जा सकता। क्रिया- 
व्यापार के पूर्व घटित होने के आधार पर इसे “पुू्वंघटित कृदन्तः कहना उचित 


रहेगा । 
8. पूर्ण कृदन्‍्त--$९/ -+--ए की रचनावाले इन कृदन्तों से प्राय: मुख्य क्रिया 


के साथ होनेवाले व्यापार की पूर्णता का बोध होता है। यह क्ृदनन्‍्त सदैव क्रिया 
विशेषण का काम करता है, यथा--वे हाथों में मशाल लिये जा रहे थे । दिन चढ़े 
जाना ठीक रहेगा । इतनी रात गए कहाँ गईं थीं ? तेरे कहे क्‍या होगा ? इस घटना 
को घटे कई साल गुजर गए । आज तेरी मरम्मत के लिए लगता है माँ कमर कसे 
बठी है। पूर्ण कृदन्‍्त के साथ कभी-कभी हुए" भी जोड़ा जाता है, यथा--मालिक 
नौकर के सिर पर टोकरा रखवाए हुए जा रहा था। 

9. अपूर्ण क्ृदन्त--4९/ ---ते की रचनावाले इन क्ृदन्तों से प्रायः मुख्य 
क्रिया के साथ होनेवाले व्यापार की अपूर्णता का बोध होता है, यथा--पराया माल 


पचाते उसे ज्रा भी झिझक नहीं लगी। आज मुझे घर लौटते देर हो सकती है। 


हम ने सैकड़ों बग्ुलों को एक पंक्ति में उड़ते देखा । यहाँ तुम्हें रास्ता चलते कष्ट होने 








32 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


की कोई संभावना नहीं है । कुछ लोग अँधरे में घूमते गाँव के पास देखे गए हैं। 
(कृदन्तों के प्रयोग वेशिष्ट्य पर वाक्य व्यवस्था भाग के वाक्य विन्यास 
अध्याय 26 में लिखा जाएगा)। 
कुछ विशिष्द धातुओं के प्रयोग तथा अर्थ छाया-भेद--हिन्दी की कुछ विशिष्ट 
धातुओं की प्रयोग-आवृत्ति अन्य धातुओं की अपेक्षा अधिक है। इन धातुओं के 


विविध प्रयोग होने से उन्त मे विविध अर्थ छाया-भेद भी प्राप्त हैं। यहां अकारादि.. 
क्रम से ऐसी कुछ धातुओं के प्रयोग तथा अर्थ छाया-भेद के बारे में लिखा जा 


रहा है-- 
 4, &/आ--[7) वक्‍ता या उल्लिखित स्थान की ओर गति । उद्गम स्थान 
के साथ से तथा गन्तव्य स्थान के साथ तक या का प्रयोग, यथा--क्या तुम 


बाजार मे आ रहे हो ? मैं मन्दिर से यहाँ तक पाँच मिनट में आ गया । (2) कौशल _ 


जानने के सन्दे में कर्ता (ज्ञाता) के साथ 'को' का प्रयोग, यथा--क्या आप को 


अँगरेजी आती है ? उन्हें तरना नहीं आता । यहाँ आना>-जानना का सूचक है, 
यथा--क्या आप अँंगरेजी जानते हैं ? वे तेरता नहीं जानते | इस अर्थ में इस के 
आया, आ रहा है, आएगा' रूपों का प्रयोग नहीं होता । किसी का विवरण जानने 


के अर्थ में केवल मालूम, जानना” का प्रयोग होता है, यथा--क्या आप को उस का 


पता मालूम है ?/ क्या आप उस का पता जानते हैं ? (3) शारीरिक तथा मानसिक 


उद्वेग एवं क्रिया-व्यापार के संदभ्भे में कर्ता (भोक्‍ता) के साथ “को” का प्रयोग, यथा-- 


बच्चे को नींद (/खाँसी/उलटी/मितली/उबकाईसुस्ती/टट्टी/जेभाई/हँसी) आ रही 


है | बच्चे को बुखार (/ज्वर/पेशाब/गुस्सा/प्यार|क्रोध) आ रहा है । उस समय मुझे 


तुम्हारी बात (|सीख/नसीहत/चीज्‌) याद आई । क्‍या आप को मेरी यह कविता पसन्द 
नहीं आई ? (4) फिट होने के सन्दर्भ में कर्ता (भोक्‍ता) के साथ 'को” का प्रयोग होता 


है, यथा--पहन कर देखों, तुम्हें यह ब्लाउज (/कुर्ता/(पाजामा/लेहगा/गरारा/सरारा/ _ 


कच्छा) फिट|ठीक आएगा । “अटना' के सन्दर्भ में पात्र के साथ 'ें' का प्रयोग होता 


है, यथा--इस डिब्बे में दो किलो दूध (/घी/गुड़/नमक/तेल/पानी) नहीं आ सकता। 


(5) 'मूल्य से प्राप्त” होने के सन्दर्भ में मूल्य के साथ 'में' का प्रयोग होता है, यथा-- 


आजकल रुपये का एक केला आता है, कभी-कंभी दो आ जाते हैं। एक लीटर मिटटी. 
का तेल चार रुपये में आ रहा था। (6) काल/स्थान-गति के सन्दर्भ में, यया--रजाई 
 भरवा लो, जाड़े आ रहे हैं । लो, बातों-बातों में स्टेशन भी आ गया (--हम स्टेशन 
पहुँच गए) । (7) होने/पैदा होने/विकसित होने के सन्दर्भ में, यथा--गुलाब में ढेर... 
: सारे फूल आ रहे हैं । इस वर्ष खूब तरबूज-खरबूज आएंगे । पाँच वर्ष में ही बेटी 


तुम्हारे कंधों तक आ गई । रंजक क्रिया के रूप में 'आ' से दो प्रकार का रंजकत्व 
व्यक्त होता है--() धीमी गति में/धीरे से प्रवाह या गति की सूचना, यथा--बादल 


घिर आए । घटाएँ झुक आईं । उस की आँखें भर आईं | उन के दिल में प्यार उमड़ 


. आया । (2) वक्‍ता या उल्लिखित वस्तु की दिशा में काय॑ होने की सूचना, यंथा-- 


ाकः 
0 





क्रिया | 33 


तुम यहाँ फिर आ धमके । मिठाई छिपा लो, चील आ झपटेगी । यह कमबख्त इस 
समय कहाँ से आ टपका । द क्‍ 

2. ५/कह--( ) सकर्मक तथा ने युक्त कह सामान्यतः अँगरेजी ४89 का 
समानार्थी है, यथा--क्या इस विषय में आप कुछ कहना चाहते हैं ? तुम ने अभी-अभी 
कुछ कहा था । (2) सम्बद्ध व्यक्ति/श्रोता के साथ 'से' आता है, यथा--उन से कहो। 
साहब से कहना कि“ (3) पुनः कथन, यथा--उन्हों ने कहा है कि'*****- (4) 
बताना, यथा--सच-सच कहो । कसम से कहता हूँ मैं ने पैसे नहीं चुराए । 

3. 4/चल--( ) चेतन प्राणियों का चलने के अवयवों से गतिमान होना, 
यथा--हम पैरों से चलते हैं । कुम्भ के मेले में एक साधु हाथों के बल चल रहा था। 
कछुआ धीरे-धीरे चलता है किन्तु शुतरमुर्ग तेज चलता है । (पैर-हीन/पैरों की अस्पष्ट 
गतिवाले प्राणियों के चलने के लिए अलग-अलग शब्द हैं, यथा--चिड़ियों का उड़ना/ 
फुदकना; चीटियों/साँपों/केंचुओं आदि का रेंगना; मछलियों का तैरना)। जिज्ञासा के 
सन्दर्भ में, यथा--क्या साँप भी चलता है ? चिड़ियाँ जमीन पर कैसे चलती हैं ? (2) 
चलनेवाले पुर्जों की मशीनों के लिए, यथा--बिजली ही नहीं है तो पंखा (/कूलर/ 
रेडियो/टीवी/इंजन) कैसे चलेगा ? भारतीय रेल के इंजन कोयला/डीजल/बिजली से 
चलते हैं। ऊंटगाड़ी बहुत धीरे-धीरे चलती है । (3) अप्राणिवाचक पदार्थों में गति- 
कल्पना करने पर, यथा--हवा चल रही है। पहाड़ भी चल सकता है क्‍या ? नल 
चल रहा है, बन्द कर दो । (4) गति के आरम्भ होने का बोधन, यथा--तीन बजे 
के सिनेमा के लिए ठीक ढाई बजे चलेंगे । सीटी बजते ही गाड़ी चलेगी (/चल._ देगी/ 
चल पड़ेगी/चल दी)। (5) वक्‍ता और श्रोता के मध्य साथ जाने के प्रसंग 
में, यथा--मैं (/वह) भी आप के साथ सिनेमा चलूंगा (/चलेगा) । चलो, कहीं चाय 
पी जाए । (6) किसी संस्था/संगठन में सम्मिलित होना, यथा--तुम यह नौकरी 
छोड़ कर सेना में क्यों नहीं चले जाते (/ भर्ती हो जाते)? हम दोनों दिनेश की 
शादी में जा रहे हैं, क्या तुम भी चलोगे (/आओगे/जाओगे) ? (7) किसी कार्य- 
व्यापार की अवधि-सुचना, यथा--ईरान-इराक में आठ वर्ष तक लड़ाई चली । हमारे 


यहाँ शोले फिल्म पूरे एक साल चली थी। नाच-गाना रात के दो बजे तक चला 
(चला था|चलता रहा/चलता रहा था/चलता रहेगा) | (8) -ता क्ृदन्त युत क्रियाओं 
के साथ निरन्तरतासूचक, यथा--सुनते चलो (/जाओ); देखते चलिए (/जाइए); 
बढ़ते चलो (जाओ); करते चलो (/जाओ); (9) किसी साधन/माध्यम का. 
किसी कार्य के लिए लगभग उपयुक्त होना, यथा--भाई, इस समय 
मेरे पास पाँच सौ रुपये तो नहीं हैं, तीन सौ हैं; क्‍या इन से तुम्हारा काम चल. 
जाएगा ! हाँ, किसी-न-किसी प्रकार चल ही जाएगा । दो चम्मच घी से कैसे चलेगा ? 
(अर्थात्‌ यह काफी नहीं है) । (0) कुछ मुहावरेदार प्रयोग--मेरे सामने तेरी एक 
नहीं चलेगी । सूती कपड़ों की अपेक्षा नाइलोन के कपड़े ज्यादा चलते हैं। तुम्हें मेरे 











3]4 | हिंच्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


साथ ऐसी चाल नहीं चलती चाहिए थी । बम्बई का फैशन दूसरे शहरों में चलता है। 


भारत में रुपया चलता है, पोंड या डॉलर नहीं । 
4. ५/चाह--(!) कर्म की उपस्थिति में चाह, चाहिए कुछ सीमा तक 


समानार्थी हैं, यथा--हमें खूब गर्म कॉफो चाहिए (हम खूब गर्म कॉफी चाहते हैं)। 


चाहिए आवश्यकता/अनिवारयंता का सूचक है, चाह इच्छा का । अनिवायंता, इच्छा 
में अन्तर-मात्रा कम होने पर दोनों का विकल्‍प से प्रयोग सम्भव है। (2) ै' के 
अतिरिक्त अन्य सभी सहायक क्रियाओं का चाहिए के साथ प्रयोग, यथा--चाहिए था 
(होगा।हो|होताहोता है) । इन में 'था की आवृत्ति सब से अधिक है, होता, अन्य 
की काफी कम । उन्हें आराम करना चाहिए---वे आराम करना चाहते हैं| में क्रमश 
अंनिवायंता; इच्छा या आवश्यकता की ध्वनि है। (3) नामार्थक क्रिया कर्म के साथ 
अन्वित होती है, यथा--सभी छात्रों को कड़ी मेहनत करनी चाहिए--(सभी छात्र 


कड़ी मेहनत करना चाहते हैं)। कर की अनुपस्थिति में वामार्थेक क्रिया सदैव पुल्लिग, 


एकवचन में, यथा--अब हमें सोना चांहिए-- अब हम सोना चाहते हैं। (4) चाहि 
से पूव नामार्थक क्रिया होने-पर केवल सहायक क्रिया था का प्रयोग, यथा--उन्‍्हें 
अब तक आ जाना चाहिए (/चाहिए था/हो/*होगा/*होता)। (5) चाह विकारी 


है किन्तु 'चाहिए' अविकारी । (5) कुछ लोग भ्रम/अल्पनज्ञान या व्यक्ति बोली के प्रभाव... 
सें 'चाहिएँ' उच्चारण करते हैं। (7) (व्याकरणिक) कर्ता मनुष्येतर प्राणी या अप्राणी .._ 
हो तो कर्ता में “ए/को' नहीं जुड़ता, यथा--इतनी देर हो गई, गाड़ी आजानी 
चाहिए थी (+“''-भेड़ें आ जानी चाहिए थीं) (8) 'चाहिए' के प्रयोग में अथंवेविध्य, 
यथा--(क) ये गिट्टियाँ यहाँ से हट जानी चाहिए । (अनिवायंता); (ख) फसल सूख. 


रही है, अब तो बारिश होनी ही चाहिए। (काम (ग) उस कलमूँहे कातों 
सत्यानाश ही हो जाना चाहिए। (दुष्कामना); (घ) यह कपड़ा अवश्य ही टिकाऊ 
होना चाहिए। (अनुमान) (9) व्यक्तिके नियन्त्रण से बाहर के व्यापार कामना-सूचक 


होते हैं, है! के रूपान्तरवाला वाक्य अनुमान-सूचक माना जा सकता हैं, यथा-- 


कपड़ों से तो उसे किसी बड़े घर का होना चाहिए “कपड़ों से तो वह किसी बंड़े घर 
का है। (0) 'चाहिए' के मूल तथा रुपान्तरित समानार्थी वाक्य अनिवाय॑तासूचक 
 चेतनकर्ता युक्त होते हैं। () 'कि' युक्त उपवाक्य की क्रिया संभावनार्थी होती है 


और दोनों उपचाक्यों का कर्ता समान होता है, यथा--उसे उस समय बोलना नहीं 


चाहिए था--उसे चाहिए था कि वह उस समय न बोलता । 


5. १/चुक--() वृत्तिसूचक (77064) क्रिया 'लग, सक' के समान; कार्य- 
. समाप्ति (किए जा चुके या हो चुके कार्य) की सूचता का बोधक, यथा--वे खाना 
खा चुके हैं (--उन्हों ने खाना खा लिया है) ! मैं उन्हें पत्न लिख चुका हूँ (-- मैं ने उन्हें 
.. पत्र लिख दिया है); सर मेहमान जा चुके हैं (>-संब मेहमान चले गए हैं)। (2) 
वांछित क्रिया तथा क्रिया-समाप्ति हेतु यत्नपूर्वक प्रयास के सन्दर्भ में ही, यथा--आप 


क्‍ की कमीज सिल चुकी थी) (+--आप की कमीज सिल गई थी) किन्तु *आप की कमीज 





क्रिया | 35 


फट चुकी थी । (3) चुका था--कर लिया था; हम ने कल ही तर भेज दिया थरा-- 
हम कल ही तार भेज चुके हैं/थे । चुका हो "कर लिया हो; शायद उन्हों ने खाना बना 
लिया हो--शायद वे खाना बना चुके हों | चुका होगाउ-कर लिया होगा; वारिश बन्द 
हो चुकी होगी और सब लोग जा चुके होंगे--वारिश बन्द हो गई होगी और सब लोग 
चले गए होंगे । चुका होता -+कर लिया होता; वह जा चुकी होती तो हमें सूचता मिल 
गई होती । (4) जब तुम चित्र पूरा कर चुकोगे ((चुके होगे), तब मैं आऊंगी । यहीं 
हालत रही तो कल तक रोगी मर चुकेगा (लिगा/जाएगा) । जब तक दमकल पहुँचेगी, 
तब तक तो दो-चार घर स्वाहा हो चुकेंगे । जब तक तुम बाजार से लौटोगे, तब तक मैं 
घर का सारा काम समाप्त कर चुकूँगी । (5) मुहावरेदार प्रयोग, यथा--इस महँगाई की 
मार से हम टट चके हैं । (6) 'नहीं' के अर्थ में मुहावरेदार प्रयोग (व्याकरणिक कर्ता 
क्रिया के बाद|--तुम जा रहे हो बाजार, तब तो आ चुकी सब्जी और बन चुका 
खाना (अर्थात्‌ सब्जी नहीं आ पाएगी और खाना नहीं बन पाएगा) । (7) “चुक' के 
असम्भव प्रयोग--रंजक क्रियाओं के साथ“कर ले चुका था;*भेज दे चुका हूँ 
चले जा चके थे । 'रहा' के साथ *चुक रहा है।था। छदन्त रूप *चुकते-चुकते; 
*चके-चुके । इच्छा, विधि *वे चाहते थे कि हम काम कर चुकें । *तुम खाना खा 
चको | नहीं के साथ “छात्र काम नहीं कर चुका है। (छात्र काम कर चुका है। 
छात्र ने काम खत्म/समाप्त/पूरा कर लिया है--छात्र ने काम खत्म/प्तमाप्त/पूरा नहीं 
किया है) । ने' के साथ सब ने खाना खा चुके थे । (83) जब सब लोग खा चुकें, 
तब मुझे बता देगा । क्या सब लोग खा चुके ? (किन्तु कया सब लोग आ चुके/सो 
के नहीं) | चुकेगा' की आवृत्ति बहुत कम तथा सन्देहास्पद । द 
6. ५/ जम--(!) केवल दही/आइसक्रीम आदि जमने या जमाने में जमना- 
जमाना का सास्य है, अन्यत्र दोनों भिन्‍्त-भिन्‍न हैं, यथा--मैं ने उस को दो घूसे जमा 
दिए । यह सूट तुम पर खूब जम रहा है। आजजम कर बारिश हुई है। कई दिनों बाद 
आज मैं ने जम कर खाया है । कल भी आज जैसी ही महफिल जमेगी । (2) मुहावरेदार 
प्रयोग---रंग जमना/जमाना; खून जमना/जमाना; रोब जमना/जमाना; धाक जमना। 
जमाना; काम जमना/जमाना । (3) क्ृदन्‍्त रूप--जमा दही; जमी बफं; जमा खन; 
जमा पाती । 

.. 7. ६/जा--(!) एक स्थान से दूसरे स्थान तथा पहुँचने के लिए गति युक्त 
क्रिया, गथा--मैं बंगलोर जा रहा हूँ | वे आगरा गए थे । (पूर्ण पक्ष) ! तुम इन दिनों 
कहाँ जाया करते हो ? (निरच्तरता)। अब सब बच्चे अपने-अपने घर चलें जाएँ (रंजक) । 
(2) रंजक एवं वाच्य के रूप में, यथा--किय//देखा/बेठा/पढ़ा/लिखा जाना; मुझ से 
नहीं वहाँ जाया जाता । (3) 'बिना' के साथ 'गए' का अधिक प्रचलन, जाए! भी 
कभी-कभी प्राप्त यथा--तुम से मना किया था, लेकिन तुम वहाँ -गए बिता माने 
नहीं । तुम से कितना ही मना क्‍यों न किया जाए, तुम वहाँ गए (/जाए) बिना. 
मानोगे थोड़े ही । (4) यौगिक/संयुक्त क्रिया-रचना में सामान्य क्रिया जाना से पूर्व 











36 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


की धातु में प्राय: 'कर' का लोप, यथा--वे अपनी पुस्तकें लें गए (/ले कर गए) 

आप मेरी यह सूचना उन्हें दे जाना ((दे कर जाना) । सब लोग अपने पत्ते रजिस्टर 
में लिख जाएँ (/लिख कर जाएँ) (5) रंजक क्रिया जाना' से पूर्व 'कर' की गृजा- 
इश नहीं, यथा--क्या आप को राशन की चीनी मिल गई। (/* मिल कर गई)। 
(6) रंजक क्रिया के रूप में प्रायः अकमंक क्रियाओं के साथ प्रयोग, यथा--आँधी आ 
गई । बिजली चली गई। (7) रंजक क्रिया के रूप में उन स्थलों पर प्रयुक्त जहां 
पूर्वज्ञान/पू्ष सूचना सम्बन्धी बात का उल्लेख (/के उल्लेख की सम्भावना) हो, यथा 
“लो, बारिश शुरू हो गई। क्या सब लोग आ गए हैं ? क्या तुम्हें वेतन मिल 


गया ? पंजाब में आतंकवादियों की गोली से पन्द्रह किसान मर गए और कई घायल 


हो गए । हमारा कीमती सेट टूट गया । जब हमारे घर में आग लगी थी तब सारा 
ही सामान जल गया था (/“जला/* जला था) | पाँच वर्ष के बाद बच्चों को अधिक 


पोषण की आवश्यकता होती है (/” हो जाती है) । उचित पोषण न मिलने पर बच्चों 


का विकास रुक जाता है (/” रुकता है) । (8) सकमंक क्रियाओं के साथ रंजक क्रिया 
के रूप में खा लेना, पी लेना, दे देना आदि के व्यतिरेक में, यथा--कड़वी है तो 


क्या हुआ, आँखें बन्द कर एक ही घूँड में पी जाओ (/पी लो-का व्यवहार कम ) । माँ- 


माँ, हरीश ने तुम्हारी दवा पी ली (/हरीश तुम्हारी दवा पी गया--स्थानीय प्रयोग) 


कल की भयंकर बाढ़ सेकड़ों वक्ष गिरा गई (/बाढ़ ने" ४** गिरा दिए--कम प्रयुक्त) ल्‍ 
भूखा बच्चा चार ही कौर में पूरी रोटी खा गया (/भूखे बच्चे ने'।***** खाली--कम 


प्रयुक्त) । क्या आप के पड़ौसी यह मकान छोड़ गए/खाली कर गए ? 


8. (/ठहर (4/ रुक, १/रह)--() 'ठहरना' कहीं अस्थायी रूप से रहना। 


इन्तजार में रुकना, यथा--क्या आप मद्बास में होटल में ठहरेंगे ? तुम लोग यहीं 


ठहरो, मैं अन्दर देखता हूँ । (2) 'रुकना' किसी काये के मध्य उसे निलम्बित कर 
क्रियाहीन हो जाना, यथा--रुक जाओ, भागो मत; नहीं तो गोली मार दूंगा । कहते- 
कहते बीच में ही रुक क्‍यों गईं ? कन्याकुमारी पहुँचने से पूर्व हम बंगलौर, मैसूर, कोल्लम 
और तिरुवनन्तपुरम्‌ (में) रुके थे । अब रात में कहाँ जाएँगे, यहीं रुकिए; हमारे यहाँ 


ही ठहरिए | (3) 'रहना' (>-निवास), यथा--हम आगरा में रहते हैं। तुम श्रीनगर 


. में कितने वर्षो (/दिनों) से रह रहे हो ? (4) “रहना” से अस्थायी उपस्थिति की 


सूचना, यथा--मेले में अपने भाई के साथ ही रहना । मैं एक दिन ही दिल्‍ली (में) 


रुकगा, दूसरे दिन आगरा पहुँचूँगा/जाऊँगा । (5) कुछ प्रसंगों में तीनों की परस्पर 
स्थानापत्ति भी, यथा--दीमापुर आओ तो हमारे घर ही रहना/ठहरना/रकना। 
अरे भाई, जरा रुको/ठहरो । कोल्लम में हम डॉ० एन० आई० नारायणन के घर रुके/ 
'ठहरे/रहे । (6) सामान्यतः धमंशाला/होटल में ठहरना; चलते हुए पंखे/इंजन/मशीन/ 


... व्यक्ति को रोकना; होते हुए या किए जाते हुए काम को बीच में ही रोकना । 


...._ 9. ५/ डाल--(!) किसी वस्तु को एक स्थान से दूसरे स्थान पर हठाना/ 
... रखना/फेंकना, यथा--लॉन में दो कुसियाँ और एक मेज डाल दो । बिस्तर में खटमल .... 








क्रिया | 37 


हैं, इसे यहां से नीचे डाल दो । तुम ने मेरी ठाई उधर क्‍यों डाल दी? (2) किसी 
वस्तु में कोई वस्तु जोड़ना, यथा--दृध में ज्यादा पाती मत डालना । इस सब्जी में 
क्या-क्या डाला है ? मटर का अचार कैसे डाला जाता है ? (3) किसी जगह कोई 
चीज जोड़ना, यथा--उस ने मेरे कुर्ते पर रंग डाल दिया । छत पर मिद्टी डलवानी 
है । (्‌ 4) किसी व्यक्तिको प्रभावित करना, यथा--व्य्थ में ही अपना रोब मत डाला 
करो । बेचारे पर (काम का|पैसों का) इतना बोझ मत डालो । (5) रंजक क्रिया के. 
रूप में 'जान-बूझ कर कार्य करना', यथा--कर डालो; धो डाला; बना डालूँ; लिख 
डाली आदि । 

0. «/त्याग--( < त्याग>-कुरबानी, > त्यागी) । (!) बहुधा रंजक क्रिया 
'देना” के साथ महानता के ग्रुण के बोधक रूप में प्रयुक्त, यथा--अब उस ने शराब 
पीना (पीने का दुगगुण) त्याग दिया है | बुद्ध ने भरी जवानी में अपना ग्रह-संसार 
त्याग दिया था। (2) त्याग करना में महानता की भावना का अभाव, यथा--मल 
त्याग करना (>-मल का त्याग करना) । 

[. , दे--(!) द्विकर्मक क्रिया के साथ; मुख्य कर्म (देय वस्तु/प्राणी) 
तथा गौण कर्म (प्राप्तक/अनुभवकर्ता), यथा--बच्चों को रुपया (/घड़ी/मिठाई/धोखा। 
प्यार/शिक्षा/उपदेश/पिल्ले/कबूतर आदि) देना । माँ को बच्चा (/बच्ची/बच्चे) देना। 
(2) प्राप्तिकर्ता के स्थान पर स्थल|विचार का आना, यथा--किसी बात (/विचार/ 
सिद्धान्त) पर बल देता । किसी बात (/दृश्य) पर ध्यान देना । (3) रंजक क्रिया के 
रूप में किसी अन्य के लिए (पू्ज्ञात किसी) किए गए कार्य का दूयोतत, यथा---तुम 
ने पिता जी को मनीऑडेर भेज दिया ? आतंकवादियों ने कई बस यात्रियों को मार 
दिया । उन्होंने अपना मकानबेच दिया (/किराये पर उठा दिया) । नौकरानी ने कूड़े के 
साथ घड़ी भी बाहर फेंक दी थी । बेटे, टी०वी० बन्द कर दिया है न ? (4) अकर्मक _ 
क्रियाओं के साथ 'पड़ना' के समान आकस्मिकता-सूचक, यथा--वे मेरी सही बात पर 
भी हँस दिए (/उठ कर चल दिए/मुस्करा दिए) । अरे, तुम क्यों रो दिए ? (5) “ने 
देना' में कार्य करने की अनुमति, यथा--उन्हें इधर मत आने देना (/उधर जाने 


देना) । कल मुझे भी तो कहने (/करने/खाने/बोलने) देना । (6) “ने दो! में व्यापार... 


को प्रतीक्षा करने|कार्य की अनुमति देने|परवाह न करने की भावना, यथा--अभी 
जाड़े तो आने दो । चलेंगे, पहले बस तो आने दो । बारिश होने दो तब देखना कितने 
केंचुए निकलते हैं | अरे भाई, जाने भी दो, क्‍यों झगड़ा बढ़ाते हो ? (7) मुहावरेदार 
प्रयोग, यथा--बाहर बैठा क्या अंडा (/बच्चा) दे रहा है ? क्‍या तुम अन्त तक मेरा 
साथ दोगी ? अरी, वह तो मुझ पर जान देता था। मसले ( मिामले/कार्य/योजना) _ 
को प्रमुखता ( प्रधानता/विस्तार/|तरजीह/प्रमुखता) देना । काम के लिए समय देना... 
ओर पत्न का उत्तर जल्दी देता।._.ः हज मा 
|. 2. $/पड़--() अप्रत्याशित तथा आकस्मिक व्यापार सूचक रंजक क्रिया, 
या आओ पड़ता, गिर पड़ना, टपक पड़ना, फिसल पड़ना आदि। (2) अपेक्षित 
व्यापार सूचक, यथा--उतर पड़ता, चल पड़ना, निकल पड़ना। (3 ) तीक्र प्रति- 








38 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


क्रियात्मक व्यापार सूचक, यथा->दूठ पड़ना, पिल पड़ना, बरस पड़ना (ये तीनों 


मुहावरेदार प्रयोग हैं) । (4) मुहावरेदार प्रयोग, यथा--गाल पर एक ऐसा चाँठ 
पड़ेगा कि'****** । लोगों पर काम का काफी बोझ पड़ रहा है। बीमार पड़ना; 
असर/प्रभाव पड़ना; फीका पड़ना; दोरे पर दौरा पड़ना; गर्मी/सर्दी/ठंड/पानी पड़ता। 
(5) रंजक क्रिया 'जा' के साथ, यथा--डकीती की बात सुनते ही उस का चेहरा फक 
पड़ गया । दावत में सब्जी कम पड़ गई थी। (6) पूर्ण पक्षीय कृदतत रूप, यथा-- 
बच्ची धूप में पड़ी हुई है । बच्ची पड़ी-पड़ी सो गईं। उधर किस के पैसे पड़े (हुए) 


हैं? (7) लागत/मुल्य|दाम|समय की सूचना मुहावरेदार प्रयोग में, यथा--ऑफिस 


की यह कुर्सी कितने में पड़ी है ” एक श्री पीस सूट कुल मिला कर कितने में पड़ 
सकता है ? होली किस तारीख को पड़ेगी ? रक्षाबन्धन किस दिन पड़ेगा ? अगले 
रविवार को कौन-सी तिथि (तारीख) पड़ेगी ? (8) कुछ अन्य मुहावरेदार प्रयोग, 
यथा--(किसी से किसी का कुछ/कोई) कास पड़ना; (किसी का किसी से) पाला 
पड़ना; (किसी का किसी के) पीछे पड़ना । जो मन में आए करो, मुझे क्‍या 
पड़ी है ? 


. 3. ,/पा--() “नहीं” के साथ रंजक क्रियारूप, यथा--दर्द के मारे रोगी ] 
रात भर सो नहीं पाया (|सका)। “रहा के साथ, यथा-+मूंह में छाले होने के 


कारण वह बोल नहीं पा रहः है। 'सक, चुक' की भाँति विधि, सम्भावना में प्रयोग 
नहीं । (2) तात्कालिक, अनुभूत, वास्तविक व्यापारों के सन्दभे में अक्षमता/असम- 
थंतायूचत, यथा--लाख कोशिश करने पर भी तुम मुझ से आगे नहीं निकल पाओगे 
(सिकोगे) । आप के घर आता तो चाहता था, किन्तु आ नहीं पाया (सका) ठंड 
के कारण वे सबेरे जल्दी उठ नहीं पाते (सकते )। अरे, उसे सहारा दे कर उठाओ, 
बेचारी उठ नहीं पा रही है (*सक) । (3) पा में कर्ता का इच्छापूर्वक प्रयत्त, 


. यथा--चाहते हुए भी मैं एक किलो दूध पी नहीं पाता (सकता) । इस में से आधी ले 
जाओ, इतनी मिठाई मैं नहीं खा पारऊंगा (|सकंगा)। (4) कुछ वांछित व्यापारों के... 


साथ पा, सक' का समान प्रयोग, यथा--वे बीमार हैं, बोल नहीं पाएंगे (/सकेंगे) 


बस समय पर नहीं पहुँच पाई (सकी) । मैं सोच नहीं पा (“सक) रहा हूँ कि अब भागे 4 


क्या करना चाहिए ? (5) कुछ सीमित क्रियाओं के-ने रूप के साथ, यथा--रोके 


रखना, जाने/निकलने/भागने/सोने न पाए. (जाने न पाओगे/*करने नहीं पाया-- 
. जा न पाओगे/पाया; कर नहीं पाओगे|पाया)। (6) मूल क्रिया के कर्ता के साथ ने. 
प्रयोग, यथा--हम ने इन 42 वर्षों में कया खोया, क्या पाया, यह समय ही बता- 
एगा। (हम ने अपने गाँव का विकास भी नहीं कर पाया । तुम ने अभी तक यह 


मैगजीन नहीं पढ़ पाई) 


5 4. ९/बता--बात > बता । () कोई सूचना/जानकारी देना, यथा--तुम 
..... अपना नाम, पता और काम बताओ । आप ने अपना पता नहीं बताया। आज मेरी _ 
.._ सहेली ने अपनी टीचर के बारे में एक बड़ी मजेदार बात बताई। (उस ने कहानी/ 


2 संकवना उप नककाइालपककचहञप>पतण क्‍या “न अन किलिलक पट ए पान विलड 





क्रिया | 39 


कविता सुनाई, न कि*बताई) (2) बताई गई बात|सूचना की ओर संकेत, यथा-- 
पिता जी ने बताया था कि“ । सच-सच बताओ । आप अभी-अभी क्‍या बता 
(बोल/कह) रहे थे । बताइए (/कहिए) क्या द्वाल-चाल हैं? बताओ (/बोलो) घड़ी 
कहाँ गिरा दी । (3) श्रोता/|कर्म के साथ 'को', यथा--बच्चे ने सब को बता दिया । 
कुछ हमें भी तो बताइए । (वीलियों; बम्बई और हैदराबाद में बताना “दिखाना” के 
अर्थ में प्रयुक्त, यधा--मेरे साथ चलकर जरा उन का घर बता दो । अपना लाइसेन्स 
बताओ । अरे, वे चूड़ियाँ बताना ।) 

5, ५/बच--( !) वनाना' का अकर्मेक तथा कर्मकतृ क (|अकतू बोधक) 
रूप, यथा-माँ ने हलुआ बनाया->हलुआ बनाया गया->हलुआ बन गया। क्‍या 
खाना बन गया ” सड़क के लिए पुल बन रहा है । अगले वर्ष उन का पोता डॉक्टर 
वन जाएगा (2) सुन्दर बनना, यथा--बन-ठन कर; बन सँंवर कर; बनाव 
सश्ुगार। (3) एक स्थिति से दूसरी स्थिति में परिवर्तित होना, यथा--अब तो वह 
अच्छा (होशियार/विद्वान/सीधा-सच्चा|ईमानदार) बन गया है। (4) दुश्मनी/ 
मतभेद/|अनबन के अर्थ में, यथा --इन दिनों पड़ोसिनों (/पति-पत्नी) में एक पल को 
भी नहीं बनती । मेरी उस से कभी नहीं बनती । (5) असामथ्यंस्चत, यथा--तुम से 
इतना-सा कास भी करते नहीं बना (/|बनता/बन रहा है/|बतेगा)। करते” की भाँति 
कहते|खाते|पीते|त्रोलते' आदि के साथ । (6) मुद्गावरेदार प्रयोग, यथा-- उल्लू बनना 
(बुद्ध्‌ (मूर्ख|विवकूफ बनना); बनी-बनाई बात; बात यों बनी । 

6, ६/बोल-(!) मूह खोल कर उच्चारण करने का भौतिक व्यापार, यथा--- 
बिल्ली म्याऊँ-म्याऊ बोलती (/करती) है । तुम बहुतं जोर से बोलते हो । सच बोलो । 
(जड़ वस्तुएं सामान्यत: आवाज करती हैं, बोलती नहीं, यथा--घड़ी टिक-टिक करती 
है और किवाड़ें चिर-चिर करती हैं)। (2) भाषण देने के सन्दर्भ में, यथा--आज 
की सभा में कौन-कौन बोलेंगे ? वे इस विषय पर कुछ बोलना (/कहना) चाहते हैं । 
(3) कर्म होने पर ने” का (विकल्प से) प्रयोग, यथां--तुम ने फिर झूठ बोला (/तुम 
फिर झूठ बोले)। कल अध्यापिका ने बहुत कठिन श्रुतलेख बोला था (/लिखवाया 
था)। जैसे मैं ने 'ढह” बोला है, वेसे ही तुम बोलने ((उच्चारण करने) की चेष्टा 
करो । (4) 'ने-रहित' प्रयोग, यथा--कल मैं हिन्दी में बोला (/बोलूँगा)। (5) 
बोलना व्यापार मात्र, श्रोता अनिवाय नहीं, यथा--वह कुछ-न-कुछ बोलता ही रहता 
है। बाहर किसी के बोलने की आवाज आ रही है। जब वे बोलते (/बताते ) हैं 
तब (दिल्ली, हैदराबाद आदि कुछ स्थानों पर लोग कहना, बताना को 
लगभग प्रत्येक सन्दर्भ में बोलना से स्थानापन्‍्न कर देते हैं ।) द 
.... 7.4/ सना --() त्योहार आदि खुशी के कार्यक्रमों का आयोजन, यथा-- 
होली (/दीवाली/|दशहरा/स्वतन्त्रता विवस/|गणतन्त्र दिवस|दो अक्टूबर|ईद|ओणम/ 
बंड़ा दिन/उत्सव|खुशियाँ आदि) मनाना (|मनाया जानता) (/मनना कम प्रचलित)॥. 

(2) झूठे हुए को प्रसन्‍त|खुश करना, यथा--अब उन्हें मना भी लाओ, कब तक झूठी 











320 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


रहोगी ? मैं उन्हें की मनाऊं ? (मान जाना>-मान छोड़ना), अरे, अब मान भी 
जाओ, बेचारी कितनी देर से मना रही है। (मान करना के अर्थ में 'मान जाता 
अप्रचलित) । (3) किसी को अपनी बात मनवाने का प्रयास, यथा--क्‍्या तुम उस 
से अपनी बात भी नहीं मनवा सकतीं ? वे कभी तो मना लेते हैं, और कभी नहीं 
मनाते । 


8. 4/मान--() बात/कहना मानना के अथ में रंजक क्रियारूपः मान 


जाना/मान लेना, यथा--वे कभी तो मान जाते (/लेते) हैं और कभी नहीं मानते । 
लो, अब तो मैं मान गई। मैं ने तो कल ही तुम्हारा कहना मान लिया था। (2) 
रूठना छोड़ना, यथा--कक्‍्या वह अब मान (/मन) गया ? (3) धर्मे/मनौती/मनसा, 
यथा--क्वारी लड़कियाँ गौरा-पावंती से मनौती मानती हैं। आप किस धर्म को 
मानते हैं? 

9. 4/साप, (नाथ, तोल, गित)--() परिमाणवाले (प्रायः द्रव) पदार्थ 
की मात्रा का पता लगाना 'मापना; दूरी/लम्बाई आदि की मात्रा का पता लगाना 


'ापना; ठोस (कभी-कभी द्वव) पदार्थ की मात्रा का पता लगाना 'तोलना' औरगण- 
नीय पदार्थों की संख्या का पता लगाना “नापना', यथा--कितने लीटर/गलन तेब.... 
(माप) दूं ? कितने किलो चीनी (/घी/तेल) तोलूँ ? इस कमरे की लम्बाई मीटर. 
(/गज) में ताप लो। इंच/फुट|मीटर/किलो-मीटर/गजु/मील से लम्बाई या दूरी 
नापते हैं। थर्मामीटर/बिरोमीटर से गर्मी।.हवा का दबाव मापते|नापते हैं। (2) . 


मुहावरेदार प्रयोग, यथा--वे तपी-तुली (--बहुत सोच-समझ कर आवश्यक) बातें... 


करने में विश्वास करते हैं । 


20.4/ मार---() हाथ/|हथियार आदि से किसी (के शरीर) पर आधात क्‍ ल्‍ 
करना, यथा--दीदी ने मुझे (चाँटा/घूँसा/थप्पड़/बिंत/डंडा/पत्थर) मारा । मुझे क्यों मारते... 
हो, मैं ने कुछ नहीं चुराया (/कोई गाली नहीं दी)। (2) (जान से) मार डालना[ 


देना (--हत्या करना) रंजक रूप, यथा--आतंकवादी रोज ही दो-चार को मार 


देते (डालते) हैं । तुम ने उसे वड़पा-तड़पा (नबुढ़ा-कुढ़ा-भूखों|प्यासा) मार डाला 


(/दिया) । अब मैं तुम्हें मार ही दूंगा (-डालूँगा), जिन्दा नहीं छोड़ सकता। (3) 


कुछ विशेष प्रयोग, यथा--धक्‍का मारना (>-धक्‍का लगाना[दिता)) जोर मारता 


(>5शक्ति लगाना|तीज्रता से कार्य करना) आँख मारना (एक आँख से किसी _ ' 
प्रकार का गुप्त संकेत करना) । (4) 'नहीं' के साथ रंजक क्रिया का प्रयोग न होते... 


के कारण सन्दर्भ से ही 'मारना' का अथे स्पष्ट होता सम्भव, यथा--मुझे किसी ने... 


नहीं मारा, मैं गिर गई थी। उन्हें शायद डाकुओं ने नहीं, किसी और ने मारा होगा। 
. नहीं, मैं ने नहीं, तुम्हें इस ने (धक्का) मारा है । (5) मारता का प्रेरणार्थंथ मरवाना, 
मराना, यथा--सेठ उसे अपने गुंडों से मरवाए बिना नहीं मानेगा (>ल्सेठ के गुडे | 

.. उसे मारे बिना नहीं मानेंगे) । (गरदा-योनि) 'मराना' केवल गाली केरूप मेंही 


हा 











क्रिया | 32 


प्रयुक्त, यथा>-तुम साले (-साली) किस-किस से मराते (-मराती) रहते 
(रहती) हो । 

2. ९/मिल--([) दाता-प्रदाता के उल्लेख के बिना प्राप्ति-अग्राप्ति की 
सूचना; प्राप्तकर्ता के साथ को” का प्रयोग, यथा--क्या कल (हमें/हम लोगों को) 
वेतन मिलेगा (/मिलने वाला है) ? तुम्हें कभी समय पर कोई चीज मिलती है ! 
क्या आप को आज यहाँ आने की फुर्सत मिल गई ? (2) श्रम, साधना से अर्जन 
पाना कहीं-कहीं मिलना का स्थानापन्‍न, यथा---जब तुम्हें काम से फुसंत मिल जाए 
(/जब तुम काम से ,फुसत पा जाओ) तब-“*« । किन्तु काम से फुसंत पा कर 
(पाने के बाद) के स्थान पर *काम से फु्सेत मिल कर (/'मिलने के बाद' 
प्रयोज्य)। वेतन (मिलने) का दित (*पाने) । उसे बड़ी दौड़-धूप के बाद यह नौकरी 
मिली है (/उस ने'**““पाई है) । जैसा दोगे (/बोओगे) वैस | पाओगे (/मिलेगा/ 
काटोगे) | (3) (कर्ता तथा सहकर्ता के) पारस्परिक व्यापार की क्रिया, यथा--जब 
मैं उन से पहली बार होटल में मिली *******- (>5जब मैं और वे पहली बार होटल में 
एक-दूसरे से मिले)। मैं तो आप से घर पर ही मिलना चाहता था लेकिन आप 
मुझ से घर पर मिलना ही नहीं चाहते थे । (4) केवल कर्ता की ओर से सक्रियता 
होना, यथा--रास्ते में मुझे तुम्हारे पिता जी मिले थे । मेले में तुम्हें कौन मिला था ? 
(5) साम्य/समानता होना, यथा--बच्चे की शक्ल तो इस के बाबा से मिलती है । 
हेमा मालिनी का चेहरा श्रीदेवी के चेहरे से मिलता (-जुलता) है। (6) दो वस्तुओं 
का योग/संयोजन, यथा--इस दूध में तो बहुत पानी मिला हुआ है । पीला और 
लाल रंग मिल कर नारंगी रंग बन जाते हैं। (7) मुहावरेदार प्रयोग, यथा--मन 
मिलना; मिल कर काम करना; मिल-जुल कर रहना; मिली भगत, मिलनसार 
आदि | हे 

22. ९/लग--(4) मानसिक/श।रीरिक संवेदना (/उद्वेग) प्रकट होने के 
समय अनुभवकर्ता के साथ को, यथा--बच्चे को भूख ( प्यास/ठंड/गर्मी शर्म /चिन्ता) 
लग (/चिन्ता हो) रही है | उन्हें घर में खू न देख कर डर/आश्चर्य लगा (-आश्चय 
हुआ) । परेशानी, अफ्सोस के साथ केवल 'हो' (ना) । गुस्सा/शर्मआना प्रयोज्य; गुस्सा 
लगा अश्रयोज्य वह गुस्सा हुआ ' क्षेत्रीय प्रयोग । (2) अनुभव होना' अर्थ कर्म, कर्म 
पूरक के साथ, यथा --तुम्हें तो सभी (लोग) बुद्धू (/मूख॑/होशियार/चालाक/बदमाश/ 
ईमानदार/वेईमान/बिचैन/परेशान/निष्ठावानू/परिश्रमी) लगते हैं । क्या मैं इन कपड़ों में 
भी (तुम्हें) अच्छी ( /सुन्दर/कुरूप/बदसू रत/आकर्षक/अनाकर्षक/भद् दी ) लग रही हूँ ? 
बताओ, यह घड़ी त्म्हें कैसी लगती है ? (3) मुहावरेदार प्रयोग, यथा--बुरा/अच्छा/ 
बढ़िया लगना । वह हृश्य देख कर कुछ अच्छा नहीं लगा। (4) अनुभव तथा अनुमान 
का व्यतिरेक, यथा--मुझे यह कॉफी ज्यादा मीठी लगती है->मुझे लगता है कि यह 
कॉफी ज्यादा मीठी है (/होगी) । क्या तुम्हें वह पागल लगता है-+ क्या तुम्हें लगता है 
कि वह पागल है (/होगा) ? मुझे इस तरह की पत्निकाएँ अच्छी नहीं लगतीं । -> मुझे 








322 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


लगता है कि इस तरह की पत्रिकाएँ अच्छी नहीं होतीं ((हुआ करतीं/होंगी) । (मुझे) 
लगता है (कि) आज नौकरानी नहीं आएगी । (5) लगना/लगाया जाना “लगाना का 
अकर्मक रूप, यथा--आगरा नगर महापालिका उन दिनों सुभाष पार्क में बहुत-से 
पेड़ लगा रही थी-> (आगरा नगर महापालिका द्वारा) उन दिनों सुभाष पार्क में बहुत- 
"से पेड़ लगाए जा रहे थे उन दिनों सुभाष पाक में बहुत-से पेड़ लग रहे थे। चलिए, खाना 
लग गया है। अरे भाई, अभी तक कुर्सी-मेज भी नहीं लगीं ? क्या सभी लोग अपने- 
अपने काम पर लग गए । उस ने अपती पत्नी के सब गहने बेच कर व्यापार में लगा 


दिए । (6) मुहावरेदार प्रयोग, यथा--दिल/मन लगना; जोर लगना; दाँव लगना; मुह । द 


लगना, हाथ लगना आदि । (7) मुख्य क्रिया के रूप में, यथा--उन दिनों मुझे पान 
खाने की (बुरी) लत लग गई थी । मौका लगा तो हम फिर मिलेंगे । देखो, गुलाब में 
कितने फूल लगे हैं । लिखते-लिखते बेघारे की आँख लग गई (मुहावरेदार प्रयोग)। 
(5) किसी वस्तु का किसी अन्य में जा लगना, यथा--कक्‍्या उँगली में ब्लेड लग 
गया ? मुझे उस की एकही बात लग (/चुभ) गई । भूल से नौकर को गोली लग गई। 
(9) किसी क्रिया-व्यापार, धन्धे आदि में समय आदि का व्यय होना, यथा--आगरा 
से दिल्‍ली पहुँचने में 2;-3 घंटे लगते हैं। इतना खाना बनाने (/बनवाने) में कितना 
पैसा लगेगा ? अच्छी कहानी लिखने में बहुत श्रम तथा समय लगता है। इस काम को _ 
अपनी पूरी शक्ति लगा कर करना । अन्य स्थलों पर लगाना अप्रचलित/अप्रयोज्य । 
(0) वृत्तिसूचक क्रिया के रूप में कार्य-आरम्भ की सूचना, यथा--बच्चे खेलने/रोने/ 
सोने/गाने/डरने/नाचने लगे (+-बच्चों ने खेलना/*“*““शुरू किया)। (4]) नहीं; 
रहा, निरन्तरता सूचक क्ृदन्त, रंजक क्रिया-योग के रूप में अप्रयोज्य, यथा--* वह... 
सोने लग रहा है। “वह गाने नहीं लगी । कभी-कभी विधि के रूप में प्रयुक्त, यथा-- 
उस की देखा-देखी तुम भी रोने लगो (5-रोना शुरू कर दो)। (2) लगना का 
सकमंक रूप “लगाना” का कुछ सन्दर्भों में प्रयोग, यथा--सब लोगों को काम पर _ 
लगा दो । इस कोठी को बनवाने में कितना (पैसा) लगा दिया ? (3) कुछ मुहावरे- 
दार प्रयोग, यथा---आस लगाना, घात लगाना; जान लगाना; जोर लगाना; दाँव/ 
बाजी लगाना; दिल/मन लगाना; मुंह लगाना; हाथ लगाता आदि । द रे 
23. ललचा--(!) लालच >ललचा (ना) नाम धातु अकर्मक रूप, 
यथा--कुछ खट््‌ठा (/चटपटा/मीठा/तीखा/नमकीन) खाने के लिए मेरा (/बहू का)जी 
ललचा रहा है। क्यों बच्चे को ललचा रहे हो ?' कम प्रचलित प्रयोग । ललचा 7 
 ललच (ना) अत्यल्प प्रयुक्त रूप।....््््र्््््र्ऱ कह 
24. ५/ ले--() कहीं-कहीं देता का विपरीतार्थी, दुविकर्मक क्रिया रूप, 
यथा--मालिक ने नौकर को तनझूवाह के पूरे रुपये नहीं दिए (अर्थात्‌ नौकर ने 


मालिक से तनख्वाह के पूरे रुपये नहीं लिए/प्राप्त किए या नौकर को"“““मिले)। 


। तुम ने मुझे बहुत कष्ट दिया है (अर्थात्‌ तुम से*““मिला है । * मैं ने तुम से बहुत कष्ट गे | 
. लिया है। (2) ऐसा 302 च जहाँ देना निहित न हो, यथा--अटैची भारी । 
: है, सिर पर ले लो (/रख लो) । अरे भाई, ज्रा यह गठरी यहाँ तक ले चलो । (3) पृव रा 











क्रिया | 323 


ज्ञान पर आधारित रंजक क्रिया तथा प्रयोजन साम्य होने पर व्यापार का फल 
कर्ता को प्राप्त, यथा--थोड़ी देर आराम कर (/सो/लेट) लो। आप खाना खा 
लीजिए । कुत्ता भी पांडवों के साथ हो लिया। काम कराना है तो निदेशक से मिल 
लो (प्रयोजन असाम्य की स्थिति में 'लेना' अप्रयुक्त, यथा--* फेंक/दि/भगा/मरवा 
लेना) | दाँतों से अपनी ही उँगली काट ली | जितना चाहें काट लीजिए (--काट 
कर) । (4) आत्म/स्वयं के' उद्देश्य हेतु किया गया (/स्वयं पर किया गया) कार्य 
लेना' से व्यक्त, यथा--पेन्सिल छीलते समय बच्चे ने अपनी उँगली काठ ली (* दी) 
(5) समर्थताबोधक लिनता' (यथा--कर लेना; पढ़ लेना; लिख लेना 
आदि रंजक क्रियाभासवत्‌) अपूर्ण पक्ष में प्रयुक्त । पूर्ण पक्ष, रहा, नहीं के साथ अप्र- 
युक्त, यथा--क्या आप उदू पढ़-लिख लेते हैं ? जी हाँ, मैं उद लिख भी लेता हूँ और 
पढ़ भी लेता (/सकता) हूँ । (6) रंजक क्रिया जा के साथ, यथा--ऐसी खटारा 
गाड़ी को भी वह 30 किलोमीटर की रफ्तार से चला ले गया । (7) वार्तालाप/प्रसंग 
आरम्भक शब्द, यथा--लो, आँधी (भी) आ गई । लीजिए, वे सब इधर ही (चले) 
आ रहे हैं। (8) अगवानी करना, यथा--एक बहुत पुराने दोस्त आ गए थे, उन्हें 
(ही) लेने स्टेशन चला गया था। (9) मुहावरेदार प्रयोग, यथा--दवा (/चाय/ 
कॉफी/पान/सिगरेट/शराब) लेना; बदला (भाग/कम/रुचि) लेना; (किसी का) दोष 
अपने सिर (पर) लेना; जिम्मेदारी हाथ में लेना । 

25. $/ सक--वृत्तिसूचक यह क्रिया दो अर्थों में प्रयुकत--) कुशलता/ 
निपुणता/दक्षता/|सूचना के लिए “ता है/-ता था के साथ, यथा--क्‍्या तुम 
भाला फेंक प्रतियोगिता में भाग ले सकते हो ?--नहीं, मैं (भाला फेंक प्रतियोगिता 
में) भाग नहीं ले सकता । हाँ, मैं (भाला फेंक प्रतियोगिता में) भाग ले सकता हूँ। 
मेरी बेटी उन दिनों अच्छेः तरह मलयाक्षम बोल सकती थी । (क) पूर्ण पक्ष में ऐसा 
प्रयोग नहीं होता, यथा--* मेरी बेटी:*“बोल नहीं सकी । पूर्ण पक्ष में यह असमथ्थता- 
सूचक है, यथा--मेहमान आ नहीं सके | (ख) “गा' के साथ सक का प्रयोग 
निपुणता की सम्भावना का सूचक नहीं है, इस के लिए लेना क्रिया का प्रयोग 
करना पड़ता है, यथा--मैं मोटरकार चलाना भी सीख लूंगा । (ग) 'सकूगा' सामथ्यं- - 
सूचक है। कुशलतासूचक सक' का प्रयोग विधि, सम्भावना में तथा “रहा' के साथ 
नहीं होता । इस 'सक! के स्थान पर कभी-कभी 'लेना' का प्रयोग किया जाता है, 
यथा--क्या वह हिन्दी में आशु लेखन कर सकती है ? वह हिन्दी में आशु लेखन तो 
नहीं कर सकती, टंकण कर लेती है। (घ) लेना! भी 'सक' की तरह न पूर्ण पक्ष में 
आता है और न नहीं' के साथ । यह पूर्ण क्षमता का सूचक भी नहीं है, हाँ किसी 
तरह काम पूरा करने की सामान्य-सी क्षमता का दयोतक है, यथा--तुम तमिछ पढ़ 
सकते हो ?--अच्छी तरह नहीं पढ़ सकता, धीरे-धीरे पढ़ लेता हूँ । पूर्णहपेण कुशल 
होने के अथ में 'लेगा' का प्रयोग नहीं होता, सामथ्यें सूचना के रूप में यह आ सकता 
हैं, यथा--*यह अगले छह॒ महीने में तमित बोल लेगी । वह अगले छह महीने में 





324 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


हिन्दी आशु लेखन भी सीख लेगी । (2) सामथ्य|क्षमता की सूचना, यथा--बिजल्री 


न आने के कारण मैं पढ़-लिख नहीं सका । इस अर्थ में 'सक' का प्रयोग विधि, संभा- 


बना में तथा 'रहा' के साथ बहीं होता । (क) पूर्ण पक्ष में 'नहीं' के साथ आने पर 
असमथथतासूचक, यथा --वे पूरा भाषण नहीं दे सके । बच्चे पूरी रात अच्छी तरह सो 
नहीं सके । बिना “नहीं के सामथ्य सूचना हेतु कुछ विशेष वाक्यांश का प्रयोग आव- 
एयक, यथा--(किसी तरह) बड़ी मुश्किल से (/राम-राम कर के) आज खाना बना 


सकी । व्या बच्चे तुम से मिल सके ये ? (थ) अपूर्ण पक्ष में 'सक' दो मिलन ब्चों में... 


आता है---समर्थता एवं इच्छा; असमर्थेता एवं अनिच्छा, यथा-क्या तुम गा सकती 


हो ?--जी नहीं, मैं गा नहीं सकती (/मैं नहीं गा सकती) | मैं गा नहीं सकूँगी (मैं. । 


नहीं गा सकूगी)। (ग) असमर्थता या अनिच्छा काल-निरपेक्ष हैं--मैं माँस नहीं खा 
सकता । 'सकूगा' सम्भावना सूचक है, यथा--क्या तुम आ सकोगे ? मुझे आशा नहीं 
(|नहीं लगता) कि तुम समय पर आ सकोगे (/आओगे) ? (“सकते हो)। हमें नहीं 


लगता कि वह दोड़ सकेगी । वह नहीं दोड़ सकेगी । कुछ सन्दर्भों में 'सकता है, सकेगा' 


समान क्षणों में प्रयुक्त हो सकते हैं, यथा--क्या आप' मुझे कुछ देर के लिए अपनी 
गाड़ी दे सकते हैं ? क्षमा कीजिए, इस समय नहीं दे सकंगा । सामथ्येसवक 'सक' का 


समातार्थी 'पा' केत्रल अक्षमता|अशक्तता सूचित करता है, अनिच्छा नहीं । (3) शर्त... 
सूचक वाक्य, बीते समय में अपूर्ण पक्ष की क्रिया बिता सहायक क्रिया के प्रयुक्त होती 
है, यथा--अगर तुम चलती तो मैं भी तुम्हारे साथ. चला चलता | अगर तुम कहती... 


तो में जा सकता था (/चला जाता) । 


26. ५/ह, +” हो, १/रह--(!) है! निश्चित वस्तु के सन्दर्भ में उस में. 
: वर्तमान/सततकालीन गुण, स्थिति (समयबदूध स्थिति) आदि का सूचक, यथा-- 
पृथ्वी का भीतरी भाग गर्म है। यह नौकर बहुत मेहनती है । वह बहुत लम्बी/जिद॒दी 


औरत है । यह नीला गुलाब है और वह सफ द है। कुमटा उत्तर कर्नाटक में है । 
. क्या आज छूट॒टी (/सोमवार) है ? अभी पिता जी घर (पर) ही हैं । इन दिनों (/आज- 


कल) बहुत गर्मी (/ठंड) है। (2) स्थितिसुचक “है” की स्थानापस्न तीन क्रियाओं के 
विशिष्ट प्रयोग--“ठहर--महाराज, आप ठहरे साधु-सन्‍्त (/महाराज, आप साधु- 


सन्त हैं)। 'रह--भाई वाह, यह भी खब रही (है) । लीजिए, ये रहे आप के 


कागज (/लीजिए, ये आप के कागज हैं)। बहुत ठीक, यह अच्छी (बात) रही (/यह 
अच्छी बात है) | 'हो--देखा, यह हुई न बात (/देखा, यह बात ठीक है) । तो बात 
यों हुई (/तो यह बात है)। (3) होता है' वर्ग के सर्वसामान्य गुण धर्म का सूचक, 
यथा--पश्षियों में प्रायः नर पक्षी मादा की अपेक्षा अधिक सुन्दर होता है (होते 
हैं) । ज्यादातर लड़कियाँ सुन्दर होती हैं। पंजाबी किसान परिश्रमी होते हैं। कुत्ता 


वफादार होता है। गुलाब प्रायः गुलाबी होता है । पंजाबी परिश्रमी होता है। ( 


एक _ अपूृर्ण पक्ष में प्रायः/अक्सर/हमेशा आदि शब्दों के साथ होता/रहता, यथा--यहाँ हर न्‍ | | 
ुसरे शनिवार को आधे दित की छुट्टी होती है (/रहती है) । आजकल यहाँ (बसों | 








हम कमी + 37८ अर 








क्रिया | 325 


में) बहुत भीड़ होती हैं। बंगलौर में जून-जुलाई में (/आजकल/ इन दिनों) सर्दी 
होती है (/रहती है), जनवरी-फूरवरी में गर्मी | हरिद्वार में सदेव गंगा का पानी ठंडा 
होता है (/रहता है) । (3) निश्चित समय-बिन्दु का उल्लेख होने पर, यथा--मैं जब 
(/जब-जब) इधर से गुजरता हूँ, यह पागल यहीं बैठी/सोती होती है। जब मैं घर 
से निकलती हूँ, तभी वह गुंडा सामने से आता होता है। आप जब देर रात गए 
घर आते हैं, बच्चे सोए होते हैं। जब भी मैं आप के कमरे में आती हैं, आप पढ़ते 
(/सोए/सोते/लिखते) होते हैं, बत्ती जल रही होती है; पंखा चल रहा होता है। 
(6) 'रहता है, है का एक प्रकाय्य, विस्तार तथा अवधि सूचना के साथ, यथा--- 
वह अक्सर बीमार रहती है---वह आज बीमार है। स्कूलों में लगभग पाँच महीने 
छुटूटी रहती है--स्कूलों में इस महीने छुट्टी है। मेरे घुटनों में बराबर (/हमेशा 
लगातार/बहुत दिनों से) दर्द रहुता है। क्या आप के पड़ोस की यह ॒ दुकान प्रतिदिन 
बारह बजे तक बन्द (ही) रहती है ? एकल वस्तु के सन्दर्भ में--वर्तमान में स्थिति- 
सूचक है; काल-अभ्रवधि में स्थिति-सुचक “रहता है'। वर्ग के सन्दर्भ में--सामान्य 
गुण-धर्मसूचक होता है; आवृत्ति सूचक होता है'/रहता है । इस मार्कट में ठीक दस 
बज सभी दुकानें खुली होती हैं । (इस मार्कट में कुछ दुकानें रात भर खली रहती 
हैं)। क्या इस मार्केट में रात बारह बजे कोई दुकान खूली नहीं होती ? (क्या इस 
मार्केट में रात बारह बजे तक दुकानें खुली नहीं रहतीं/खुली रहती हैं?) तुम ध्यान 
ही नहीं रखतीं, जब देखो कोई-न-कोई नल खुला होता है (/रहता है) । (7) इन 
वाक्यों की रचना का अन्तर हृष्टव्य है--चिड़िया एक नभचर है--चिड़िया नभचर 
होती है--चिड़ियाँ नभचर हैं और पशु थलचर (हैं )--चिड़ियाँ वभचर होती हैं । 
(5) है! कालसूचक सहायक क्रिया है तथा होना क्रिया-व्यापार तथा स्थिति सूचित 
करनेवाली क्रिया। 'करना' और होना' के अर्थ की निश्चितता साथ आनेवाली 
क्रियाओं से स्पष्ट, यथा--सहायता करना, काम करना, नुकसान करना, बातें करना, 
दुःख होना, भला होना, नुकसान होना । कुछ मानसिक स्थितियों में है', हो 
परस्पर स्थानापन्त, यथा--- बच्चे को पीठ कर माँ दुःखी है (/दुःखी हो रही है/दुःखी 
होती है) । वच्चे को पीटने के बाद माँ को दु.ख था (/हुआ) । किन्तु यहाँ से डाक- 
घर दूर है; यह घड़ी इतनी अच्छी नहीं है; आज यहाँ बहुत ठंड है' स्थितिसूचक 
 वाक्यों में क्रिया-व्यापार सूचक हो” की स्थानापत्ति असम्भव । (9) कर्म-प्रधान 
वाक्य में 'होना', यथा--तुम्हारा व्याकरण पूरा हुआ या नहीं ? कल किस का भाषण 
हुआ था ! (0) स्थितिसूचक होता! का प्रेरणार्थक रूप 'करना' सकमंक वाक्‍्यों द 
में, यथा-तुम्हारी इन बातों (/शैतानियों) ने तो हमें परेशान (/दुःखी) कर दिया 
है। (तुम्हारी इन वातों/शैतानियों से तो हम परेशान/दुःखी हैं।) (8) स्थितिसूचक 
है' के तथ्येतर क्रियारूप--'होगा, हो, होता”, यथा-यदि आप को मुझ से कोई 
काम हो तो मुझे बताइए । यदि मुझे आप से कोई काम न होता तो मैं यहाँ आता 


जब्त. 





326 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


ही क्यों ? लगता है, उन्हें आप से कोई काम होगा, इसीलिए बेचारे इतनी दूर हे 
आए हैं। (2) हो (कर) आना++ जा कर आना, यथा--क्या तुम मैसूर हो आए ? 
(नन्क्या तुम मैसूर जा कर वहाँ से लौट आए ?) मैं यहाँ तुम्हारा इन्तजार करूंगा, 
तुम वहाँ जल्दी हो आओ। (यहाँ 'आ कर जाना/जाना' का प्रयोग प्राप्त; “वह सकल 
जा कर आता है अप्रयुक्त)। 'हो आता” कर-लोप से बनी' क्रिया, अत: 'कर' का पुन: 
योग नहीं, यथा--मैं दफ्तर से लौट कर (/*हो आकर) तृम से बातें करूँगा। (मैं 
द फ्तर हो आया, अब तुम से बातें करूँगा) । 





या 
गः 


की न अमन ला मम यम 











॥8 


अव्यय 





अव्यय---वाक्य में शब्द-प्रयोग के आधार पर वे शब्द या शब्दांश अव्यय 
कहलाते हैं जिन की मूलावस्था में वाक्य स्तर पर कोई विकार (/परिवतंन) नहीं 
होता अर्थात्‌ उन्हें रूपान्तर की प्रक्रिया प्रभावित नहीं करती, यथा--अत्र, अभी. 
यहाँ, यहीं, अत्यन्त, केवल, यथा, त्यों, ही, नहीं, सहित, और, भी, अरे, वाह आदि । 
इन शब्दों में कोई आन्तरिक विकार (यथा--लड़की-लड़कियाँ) तथा बाहूय विकार 
(यथा--घर-घर में) नहीं होता । यद्यपि अनेक संज्ञा शब्दों, सफ्‌द/लाल वर्ग के 
विशेषणों, कुछ स्वनाम भी अविकारी-जैसे लगते हैं किन्तु किसी-त-किसी स्तर पर 
उन में विकार होता ही है, यथा--घरों में, लाल रंगों में, हमें आदि । 'लाल' वर्ग के 
शब्द 'काला' वर्ग के शब्दों के स्थानापन्‍त हैं और काला-काली-काले-कालों जैसे रूपों 
में विकार स्पष्ट परिलक्षित होता है। कुछ अविकारी शब्द दूसरे वर्ग के शब्दों से 
व्युत्पन्त होते हैं किन्तु यह व्युत्पत्ति विकार नहीं कहलाता। न हाँ का प्रयोग 
कभी-कभी संज्ञा शब्द की भाँति मिलता है, यथा--इस विषय में में तुम्हारी “न/नहीं 
नहीं सुनूंगी | हाँ, करना/कहना जितना आसान है, उसे निभाना उतना आसान नहीं 
है। कुछ अव्ययों के पश्चात्‌ हिन्दी में परसगग 'से, का, में, पर, के लिए' का प्रयोग 
भी मिलता है, यथा--यहाँ से; आज का/की/के, बगल में; कल के लिए, उधर के 
आदि | इन प्रयोगों के कारण अव्यय वर्ग के अधिकांश शब्दों का शब्द-वर्ग परिवर्तित 
नहीं किया जा सकता । 
अनेक व्याकरण ग्रन्थों में अँगरेजी व्याकरणों के अनुकरण पर क्रियाविशेषणों 
का संबंध क्रियाओं, विशेषणों, क्रियाविशेषणों (अन्य लक्षणों का लक्षण व्यक्त करने 
वाले) से जोड़ा गया है। विशेषण शब्दों की विशेषता बतानेवाले शब्दों को 
प्रविशिषण', क्रियाविशेषण शब्दों की विशेषता बताने वाले शब्दों को 'प्र-क्रियाविशेषण' 
और केवल क्रिया शब्दों की विशेषता बतानेवाले शब्दों को 'क्रियाविशेिषण कहा 
जाना चाहिए 
.._ रचना के आधार पर अव्यय-भेद---रचना की दृष्टि से अव्ययों को दो वर्गों 
में रखा जा सकता है--!. रूढ़/मूल 2. यौगिक । रूढ़/मुल अव्यय--वे अव्यय शब्द हैं 
कक कह के क्‍ 





328 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


जिन के सार्थक खंड नहीं हो सकते, अर्थात्‌ जो किन्‍्हीं दूसरे शब्दों के योग से नहीं 
बनते, यथा--झट, मत, फिर, अब, दूर, थोड़ा, यों, ठीक, अचानक, नहीं, न, आज, 
अन्दर, आदि | यौगिक अपव्यय--वे अपव्यय शब्द हैं जिन के सार्थक खंड होना सम्भव 
है, अर्थात्‌ जो किन्‍्हीं दूसरे शब्दों में प्रत्यय आदि जोड़ने पर बनते हैं, यथा--अत्यधिक 
(अति-- अधिक), प्रतिदिन (प्रति-- दिन), जैसे-तैसे (जैसे -- वैसे), व्यर्थ (वि--अथ्थ), 
सन से (मन-+-से ), चुपके से (चुपके -|- से) देखते हुए (देखते -- हुए), वहाँ पर (वहाँ-!- पर), 
यहाँ तक (यहाँ-|- तक) आदि । यौगिक अव्ययों की रचना के कई प्रकार हैं-.( ) 
उपसर्ग जोड़कर, यथा--प्रतिदिन, सम्मुख, अधोमुख, निधड़क, बेकार, बेखटके, 
अनुदिन, तत्काल, आजीवन, अलग, व्यर्थ, भरपेट आदि । (2) प्रत्यय जोड़कर, 
ययवा--सम्भवत:, क्रमशः, अन्यत्, सर्वत्र, पूर्णतः, पूर्णतया, विधिपूर्वक, दृढ़तापृवंक, 
द्विधा, बहुधा आदि । (3) आकारान्त संज्ञा/विशेषण को एकारान्त कर के, यथा-- 
सामना -> सामने, पीछा-» पीछे, सबेरा->सवेरे, तड़का-> तड़के, आता हुआ -+ आते 
हुए आदि। (4) शब्द-द्विरुक्ति से, यथा--आर-पार, घर-घर, सा फु-साफ, घड़ी- 
घड़ी, धीरे-धीरे, चलते-चलते, चलते-फिरते, कुछ-कुछ, थोड़ा-थोड़ा, बैठे-बैठे, कभी- 
कभी, कहीं-कहीं, कभी-न-कभी, कहीं-त-क हीं आदि । (5) विशेषण -[- संज्ञा शब्दों 
से, यथा--हंरदम, एकदम, एकसाथ, हरपल, हरदिन आदि । (6) परसर्ग जोड़ कर, 
अथा--(शाम को, रात को, दिन को) अब से, कब से, अभी से, यहाँ से; (सावधानी 
से, ध्यान से, गाड़ी से)) इसलिए, किसलिए, अपने लिए; आने पर, जाने पर; (दिन 
में, दोपहर में, रात में; इतने में); करने में; ( दोपहर तक, सबेरे तक), यहाँ तक, 
कहाँ तक आदि । (7) -कर जोड़ कर, यथा--बैठ कर, पहुँच कर, हो कर, दैड कर 
आदि। (5) सावनामिक विशेषण--संज्ञा शब्दों से, यथा---इसी क्षण, उसी समय, 
उन दिनों, इस समय, उस वक्‍त आदि । (9) दो अव्यय एक साथ रख. कर, यथा-- 
यहीं-कहीं, इधर-उधर, आजकल, जब कभी, आगे-पीछे, जहाँ कहीं, थोड़ा-बहुत, 
ज्यों-त्यों, ऐसे-वंसे, ऊपर-नीचे, नीचे-ऊपर, दाएँ-बाएँ, कल रात, आज सुबह, कल 
सवेरे, कल शाम तक, परसों दोपहर तक, फिर कभी आदि। (40) कुछ स्वनाम 
शब्दों में परिवर्तत कर के, यथा--- रा द 
सर्वेताम गन्तव्य स्थल/ दिशाबोधक रीतिबोधक परिमाणबोधक कालबोधक 


.. स्थानबोधक न कक हे ्ऑं 
यह यहाँ, यहीं इधर .- £यों, ऐसे .. . इतना . --अब अभी. 
वह वहाँ, वहीं उधर. --बैसे उतना “+-+ -++. 
क्या कहाँ, कहीं किधर क्‍यों, कैसे. कितना कब, कभी 
जो... जहाँ, (जहीं).जिधर- : - ज्यों, जैसे जितना. जब, जभी 


._.. सी>तो) तहां, (वहीं)  (तिधर) _. त्यों, तैसे... (तितना) -.. तब, तभी: । 
... ___ भकाये/जिथ की दृष्टि से अव्यय 0 प्रकार के होते हैं--, कालवाचक 2... 
 स्थानवाचक 3. प्रश्ववाचक 4. क्रियाविशेषण 5. सम्बन्धसूचक (परसर्ग तथा पर- _ 























422 ८ 20% 8 50654 5 





अव्यय | 329 


सर्गीय शब्दावली) 0. समुच्चयबोधक 7. सनोभावबोधक (/विस्मयादि बोधक) 8 
उपसर्ग 9. प्रत्यय 0. निपात । 

, कालवाचक--वे अव्यय हैं जिन से क्रिया-व्यापार के समय या अवधि के 
बारे में जानकारी मिलती है, यथा--अभी सो जाओ । पहले खाना खा लो, बाद में 
पढ़ना । निश्चयात्मकता के आधार पर कालवाचक शब्दों को दो वर्गों में रखा जा 
सकता है--(!) निश्चित कालवाचक, यथा--आज, कल, परसों, अभी, झट तुरन्त, 
फौरन, पूर्व, उपरान्त आदि। (2) अनिश्चित कालवाचक, यथा--सदा, हमेशा 
निरन्तर, लगातार, प्रायः, अक्सर, फिर, कभी आदि | समय-सीमा/मात्रा के आधार 
पर कालवाचक शब्दों को तीन वर्गों में रखा जा सकता है--(!) समयबोधक, 
यथा--अब, तब, जब, आज, कल, परसों, (तरसों, नरसों), फिर, सवेरे, सुबह, 
तड़के, झटपट, झट, शीत्र, तुरन्त, फौरन, अभी, तभी, कभी, जभी, पूर्व, पहले, 


: पीछे, तदन्‍्तर, तत्पश्चातु, एकदम, तत्काल, तत्क्षण, सम्प्रति, बाद में, दिन चढ़े, 


शाम ढले आदि में । (2) अवधिबोधक, यथा--निरन्तर, लगातार, सदा, सव्वंदा, 
नित्य, आजकल, जब तक, तब तक, दिन भर, दिन में, इतने में, कब से, कब का, जब 
से, अब से, अभी से, सुबह से शाम तक, रात को आदि । (3) पुनर्भावबोधक, यथा-- 
पुनः, फिर, प्रायः, अक्सर, फिर-फिर, प्रतिदिन, बहुधा, हर रोज, घड़ी-घड़ी, हर 
वार, बार-बार, एक बार, कई बार, घंटे-घंटे, यदा-कदा आदि | तड़का, भोर, सुबह, 
दोपहर, शाम, रात, रात्रि, दिन, घंटा, मिनट आदि शब्द सामान्यतः परसगमं रहित 
रूप में प्रयुक्त होने पर कालवाचक अव्यय होते हैं तथा परसर्ग सहित या बहुवचन 
या कर्ता कारक में होने पर संज्ञा होते हैं, यथा--वे सुबह चार बजे उठ जाया करते 
हैं। मुझे सारी रात नींद नहीं आई । (कालवाचक); सुबह का दृश्य कितना सुहावना 
है । जंगल में बरसाती रातें खतरे से खाली नहीं होतीं। भोर हुई । 

हिन्दी की कुछ बोलियों में आगे का प्रयोग भूतकाल के लिए भो होता 


है, यथा-बेचारी ने आगे (/पहले ही) काफी तकलीफ सही है 


हिन्दी की कुछ बोलियों में 'पीछे' का प्रयोग भविष्यकाल के लिए भी होता है 
यथा--मैं अभी जा रही हूँ, आप पीछे (/मेरे बाद) आ जाना । हम लोग आगे क्‍या. 
करंगे, अभी नहीं बताया जाएगा, समय आने पर बाद में (/पीछे) बताया जाएगा। 
के बाद पूर्व तथा पर के क्रम को व्यक्त करता है, यथा--अब तुम होली के बाद 
आना (काल-क्रम); अच्छे बच्चे हाथ-मूँह धोने के बाद ही कुछ खाते-पीते हैं (कार्य. 
व्यापार-क्रम); चपरासी इंस्पेक्टर के बाद आया (व्यक्ति क्रम)। “पहले” के अर्थ के 


विलोम रूप में 'बाद' क्रम-सूचक नहीं रहता, यथा--अभी जाओ, फिर बाद में द 
आना । (“चार दिन के बाद में); उस ने पहले लिपस्टिक लगाई, बाद में बिन्दी | 


(+लिपस्टिक लगाने के बाद में); पहले आप सुनाइए, बाद में हम सुनाएंगे। (*आप 
के बाद में)। समय-सूचक इकाइयों के साथ 'बाद' का प्रयोग होता है, यथा --चार 
घंटे (/दिन/हफ्ते) बाद; कोई साल भर (/दो साल) बाद; महीनों (/दिनों/सालों/ 





330 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


पक पल मा 3 


ह.फ्तों/) बाद; 20-25 मिनट (/2-3 महीने/3-4 साल) बाद । (*दस मिनटों*दिनों। | 
हफ्तों/महीनों/वर्षों के बाद । के बाद में) - 
2. स्थानवाचक--वे अव्यय हैं जिन से क्रिया-व्यापार की सम्पन्तता के | 
स्थान या दिशा के बारे में जानकारी मिलती है, यथा--यहाँ मत बैठो । वह अन्दर 
सो रहा है। निश्चयात्मकता के आधार पर स्थानवाचक शब्दों को दो वर्गों में रखा. 
जा सकता है--() निश्चित स्थानवाचक, यथा--ऊपर, नीचे, दायें, बायें, दाहिने 
आगे, पीछे आदि (2) अनिश्चित स्थानवाचक, यथा--निकट, पास, दूर परे, बगल, 
तरफ, ओर आदि। स्थिति तथा दिशा के आधार पर स्थानवाचक शब्दों को दो. 
वर्गों में रखा जा सकता है () स्थितिबोधक, यथा-यहाँ, वहाँ, जहाँ, तहाँ, ऊपर, 
नौचे, तले, बाहर, भीतर, पास, आगे, पीछे, सामने, साथ, सवंत्र, अन्यत्र, कहीं, यहीं, 
वहीं, अन्दर, आसपास, यत्त-तत्न-सवंत्र ॥ (2) दिशाबोधक, यथा--इधर, उधर, 
जिधर, (तिधर), दायें, बायें, इस तरफ, उस ओर, चारों ओर,. सामने, दाहिने 
आदि। “यहाँ, इधर' की कुछ प्रसंगों में स्थानापत्ति सम्भव है, यथा--बेटी यहां... 
आओ (,भेरे पास); बेटी, इधर आओ -(/मेरी ओर या तरफ) । आइए, हमवहाँ 
(/उधर) चलें जहाँ (/जिधर) पीली कोठी है । कुछ मुहावरेदार प्रयोग--बोरा फटगया | 
और सारे अमरूद इधर-उधर बिखर गए । तुम्हारी बड़ी बुरी आदत है, चीजों को 
जहाँ-तहाँ छिपा (/रख) देती हो । यहाँ से/इधर से” के प्रयोग में अर्थ-भेद, यथा-- 
8 नंबर की बस यहाँ (>>अशोक स्तम्भ) से जाती है (८-आरम्भ होती है) 
8 नंबर की बस इधर से (>>अशोक स्तम्भ के पास से हो कर) जाती है; 25 
नम्बर की बस यहाँ (--अशोक स्तम्भ) तक आती है (इधर तक)। ओरज-तरफ 
दिशासूचक स्त्रीलिंग शब्द हैं जो देखना, जाता आदि क्रियाओं के साथ काते हैं, 
यथा--लोग मन्दिर की ओर/तरफ (/हमारी ओर“>तरफ) आ (देख) रहे हैं। इन 
के पहले दोनों/चारों संघघधावाचक विशेषण आने पर 'ककी' के स्थान पर के आता 
है, यथा--घर के दोनों (/चारों) ओर । आगे! प्रयोग के विभिन्‍न सन्दर्भे--मन्दिर 
से आगे एक गिरजाघर है। आगे बढ़ो (/जाओ), यहाँ कुछ नहीं मिलेगा। क्यू में 
तुम्हें मेरे पीछे खड़ा होना है, मेरे आगे नहीं । वे जिन्दगी में आगे और आगे ही बढ़ते 
चले गए। दोड़ में मैं उस से आगे नहीं निकल सकता । मैं तुम्हारे (/झूठ के) आगे 


(/सामने) झक नहीं सकता। भिखारी सभी के आगे (/सामने) हाथ पसारते हैं। 
पीछे, आमने-सामने के कुछ प्रयोग--राम-रावण युद्ध में दोनों योद्धा आमने-सामने 


थे, राम के सामने रावण और रावण के सामने राम । जिन्दगी की दौड़ में वह 

बहुत पीछे रह गया (/पिछड़ गया)।... | 

कुछ कालवाचक तथा स्थानवाचक शब्दों के तियंक्‌ रूप--इस (/उस/इसी/ 

. उसी) जगह; इस (/उस/इसी/उसी) स्थान पर; के घर में; इस (/उस) ओर“>तरफ 

इस (/उस/इसी/उसी) रास्ते; इस (/उस/इसी/उसी) क्षण (/विन/ह फ़्ते/भहीने/साल/ 

वर्ष); अगले (प्छले/दूसरे) क्षण (/दिन/ह फ्ते/महीने/साल/वर्ष); इन (/उन/इन्हीं/ | 
नहीं) दिनों; जुलाई में, सोमवार को, 4947 ई० में ।+.. 





7 2-28 आपस अकाश 3० 222 





 अव्यय | 33 


(अनेक व्याकरणों में कालवाचक, स्थानवाचक अव्ययों को क्रियाविशेषण 
का उपभेद लिखा गया है। कालवाचक तथा स्थानवाचक अव्यय वास्तव में क्रिया 
की विशेषता--गुण या वेशिष्ट्य नहीं बताते । क्रिया की विशेषताएँ उस के सम्पन्न 
होने की रीति या परिमाण से प्रकट होती हैं) द 

3, प्रश्नवाचक--वे अव्यय हैं जिन से क्रिया-व्यापार के बारे में किसी प्रकार 
का प्रश्न किया जाए, यथा--वे कहाँ गए हैं ? तुम कब जाओगे ? बच्चा क्यों रो . 
रहा है ? प्रश्नवाचक अव्यय शब्द ये हैं--क्या, कहाँ, कब किधर, कंसे, क्‍यों, किस- 
लिए, कितना, क्योंकर । प्रश्ववाचक शब्दों के कुछ प्रयोग --यह हवाई जहाज कहाँ 
(/*किधर) जाता है ? तुम्हारा कॉलेज कहाँ:-किधर है ? क्या वे पढ़ रहे हैं ? क्या 
लड़की इस बारे में जानती है ? या” युत जसे प्रश्नों के उत्तर “हॉ/नहीं' में होते 
हैं। वे क्या पढ़ रहे हैं ? लड़की इस बारे में क्या जानती है ? 'क्या' युत जैसे प्रश्नों 
के उत्तर व्याख्यात्मक/सूचनात्मक होते हैं। इसी प्रकार अन्य प्रश्नवाचक शब्दों के 
उत्तर विस्तार से देने होंगे । ये प्रश्नवाचक शब्द अकर्मंक तथा सकमंक दोनों प्रकार 
की क्रियाओं के साथ आ सकते हैं । 

4, क्रियाविशिषण--वे अव्यय हैं जिन से क्रिया-व्यापार के बारे में किसी 
प्रकार की विशेषता व्यक्त होती है, यथा--वह बहुत धीरे-धीरे खाता है। श्यामा 
सितार काफी अच्छा बजा लेती है। आप इतने चिन्तित न हों । इन वाक्यों में 'धीरे- 
धीरे, अच्छा, इतने' शब्द क्रिया-व्यापार खाता है, बजा लेती है' क्रदनन्‍त 'चिन्तित' 
की रीति; गुण, परिमाण या स्थिति के सूचक हैं । बहुत, काफी” अपने परवर्ती क्रिया 
विशेषणों का परिमाण बता रहे हैं, अतः ये प्र-क्रियाविशेषण' हैं। अनेक व्याकरणों 
में विशेषण, क्रियाविशेषण के परिमाणबोधक शब्दों को क्रियाविशेषण लिखा गया 
है किन्तु ये प्रविशेषण तथा प्र-क्रियाविशेषण होते हैं, यथा--बहुत अधिक मनोरंजक 
पुस्तक' में 'मनोरंजक' विशेषण; “अधिक” मनोरंजक का प्रविशेषण; “बहुत अधिक 
का प्रविशेषण । दोनों प्रविशिषण । तुम इतना सुन्दर कंस लिख लेते हो ?' में 'कसे' 
 क्रियाविशेषण; सुन्दर' क्रियाविशेषण कैसे का प्र-क्रियाविशेषण; “इतना प्र-क्रिया- 
विशेषण सुन्दर का प्र-क्रियाविशेषण । क्‍ 

. शब्द-रचना की दृष्टि से क्रियाविशेषण दो प्रकार के होते हैं--रूढ़, यौगिक । 
रुढ़ या मुल क्रियाविशेषणों के साथक खण्ड नहीं होते, यथा --अब, आज, दूर. पास, 
यों, थोड़ा, बहुत आदि । यौगिक क्रियाविशेषण उपसर्ग, प्रत्यय या अन्य शब्दों के 
योग से बनते हैं, तथा उन के सार्थक खंड हो सकते हैं, यथा--प्रतिदिन, जेसे-तैसे, 
अत्यधिक, सर्वत्न, बेशक, यथासम्भव आदि। अर्थ या प्रकार्य की दृष्टि से क्रिया- 
_विशेषण दो प्रकार के होते हैं--परिमाणवाचक, रीतिवाचक । 3. परिसाणवाचक 
 क्रियाविशेषण वे क्रियाविशेषण हैं जिन से क्रिया-व्यापार या कृदन्‍त की सम्पन्नता की _ 
मात्रा का अनुमान हो, यथा--ख्‌ ब खाओ-खेलो । जरा तो सोंचों। परिमाणवाचक 
. विशेषण की भाँति ही परिमाणवाचक क्रियाविशेषण के पाँच भेद हो सकते हैं-- 








332 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


() अधिकताबोधक, यथा--अभति, अत्यन्त, निपट, अतिशय, सर्वथा, बहुत, बड़ा 
खूब, बिल्कुल । (2) न्यूनताबोधक, यथा--किचित्‌, लगभग, प्रायः थोड़ा, ज्रा, कुछ 
(टुक) । (3) पर्याप्तिबोधक, यथा--पर्याप्त, यथेष्ट, अस्तु, बस, बराबर, ठीक, चाहे, 
केवल । (4) तुलनाबोधक, यथा--सै--अधिक, कम, बढ़ कर; इतना, उतना, 
जितना । (5) श्रेणिबोधक, यथा--थोड़ा-थोड़ा, क्रम-क्रम से, तिल-तिल, यथाक्रम, 
एक-एक कर, बारी-बारी से । रीतिवाचक क्रियाविशेषण वे क्रियाविशेषण हैं जिन से 
क्रिया-व्यापार के सम्पन्त होने की रीति/ढंग/विधि/प्रकार का अनुमावत हो, यथा-- 


लड़की ने रोते-रोते कहा । बच्चे चुपचाप पढ़ने चला गया । सिपाही काफी तेज दौड़ा । 


लेकिन चोर को न पकड़ सका | में 'रोते-रोते, चुपचाप, तेज, कहने, चले जाने, 
दौड़ने की रीति के सूचक हैं। रीतिवाचक या विधिवाचक क्रियाविशेषणों में क्रिया- 


व्यापार की विशेषता बतानेवाले युणवाचक्र विशेषण शब्दों का भी समाहार हो 
जाता है। ऐसे विशेषणों, क्रियाविशेषणों के प्रयोग में सूक्ष्म अर्थ-भेद रहता है, यथा-- . 


मैं साफू कपड़े पहनता हूँ। (उद्देश्य विशेषण); मेरे पहनने के कपड़े साफ हैं। (विधेय 
विशेषण); मैं पहनने के कपड़े साफ धोता हूँ । (क्रियाविशेषण); तुम ठेढ़ी कील क्यों 


गाड़ रहे हो? (उद्देश्य विशेषण); तुम्हारी गाड़ी हुई कील ठेढ़ी है; (विधेय विशेषण); 


तुम कील ढेढ़ी क्‍यों गाड़ रहे हो ? (क्रियाविशेषण) । 


गुणवाचक विशेषणों को भाँति रीतिवाचक क्रियाविशेषणों की संख्या भी 


काफी है । प्रका्यं के आधार पर रीतिवाचक क्रियाविशेषणों को इन वर्गों में रख सकते 
हैं--(क) प्रकारवाची, यथा--धीरे, तेज, मन्द, शीघ्र, सहसा, सहज, साक्षात्‌, जोर 
से, क्रमश:, ऐसे, बसे, जेसे, (तंसे), जसे-तैसे, यथा, धम से; तथा, मानों, अचानक, 
अनायास, वृथा, यों ही, (हौले), पैदल, स्वयं, स्वतः, आप ही आप', परस्पर, धीरे- 
धीरे, एकाएक, ध्यानपूर्वक, मन से, रीत्यनुसार, यथाशवित, क्योंकर, सुखेन, फटाफट, 
ज्यों-त्यों कर के, तड़ातड़, फट से, येन-केन-प्रकारेण, अकस्मात्‌, कयोंकर, कैसे आदि । 


(ख) निश्चयवाची, यथा--अवश्य, निश्चय, सचमुच, तिःसन्देह, बेशक, जरूर, 


वस्तुतः, दरअसल, यथार्थ में, सही, अलबत्ता, विशेष कर के, मुख्य कर के आदि । 


(ग) अनिश्चयवा ची संभावनावाची, यथा--कदा चितु, शायद, सम्भवत., बहुत कर के, _ 


यथासम्भव । (ध) कारणवाची, यथा-- इसलिए, क्‍यों, (काहे को), भूल कर, मजबूरन 
(ड) मनोरथवाची, यथा--जानबूझ कर, किसलिए, यों ही (च) सहाथंवाची, यथा-- 


मिल कर, एकसाथ, साथ-साथ । (छ) पार्थक्यवाची, यथा--बारी-बारी से, एक-एक 
कर के, अकेले, अकेले-अकेले । कुछ व्याकरणों में 'शीघत्र, जल्द, जल्दी, झट, धीरे, 
धीमे, आहिस्ता, चुपचाप, वीरतापूर्वक, साफ, व्यर्थ, ध्यानपूर्वक, किसी-न-किसी 

तरह, खशी-खशी, जोर से, तेजी से, लापरवाही से, बुदधिमानी से, बहादुराना' आदि _ 


को “गुणवाचक' क्रियाविशेषण लिखा है। ये शब्द क्रिया-व्यापार का कोई गुण 


. बता कर उस की सम्पन्तता की रीति ही बताते हैं। 'जुरूर' क्रियाविशेषण, 'जुरूरी [| 
. विशेषण तथा “जुरूरत” संज्ञा है । 'कही-कहीं, जहाँ-जहाँ, वहाँ-वहाँ, धीमे-धीमे, धीरे- | 





गा 
(ः 
|; 
| 
। ॥ 
|| 
है 
शा 
शी 
3 
।क्‍ 




















नल 


अव्यय | 333 


धीरे, अकेले-अकेले, जल्दी-जल्दी, सवेरे ही सबेरे' आदि में पुनरुक्ति से समृह-बोध, 
पार्थक्य बोध आदि का अर्थ बोधन और भी सशक्त हो जाता है । 

5. सम्बन्धसुचक--वे अव्यय हैं जो संज्ञा या संज्ञावत्‌ प्रयुक्त शब्द के बाद 
आ कर पदबन्ध या वाक्य के विभिन्‍न घटकों के अन्तः:सम्बन्ध को व्यक्त करते हैं, 
यथा--क्या वह आप के यहाँ आया था ? बच्चे की चतुराई देख कर लोग दाँतों तले 
उँगली दबाने लगे । इन वाक्यों में 'के यहाँ आप के साथ, 'तले' शब्द दाँतों के साथ 
संबंध व्यक्त कर रहा है, साथ ही ये शब्द इन शब्दों का संबंध आया था, “दबाने 
लगे! क्रिया से व्यक्त कर रहे हैं । सम्बन्धसूचक शब्द प्राय: तियंक्‌ रूप में आते हैं । 
सम्बन्धसूचक शब्दों के पश्चात्‌ परसम का प्रयोग नहीं होता । इन शब्दों का प्रयोग 
प्राय: संज्ञा शब्दों के साथ होता है। यद्यपि हिन्दी में मूल संबंध सूचकों की संख्या 
त के बराबर है, तथापि भिन्‍न-भिन्‍न शब्दों के प्रयोग संबंधसूचक के समान होते हैं । 
संवंधयूचकों के पूर्व प्रायः के/की/-रे/-री' आते हैं। कुछ संबंधसूचक अव्यय 
बिना परसर्गों के भी आते हैं, यथा--दिया तले अँधेरा; पीठ पीछे बुराई; भरी सभा 
बीच; धन बिना जीना । 

रचना की दृष्टि से सम्बन्धसचक दो प्रकार के होते हैं--रूढ़, यौगिक । 


रूढ़ या मूल संबंध सूचकों में परसगों तथा कुछ अन्य अव्यय शब्दों की गणना की 


जाती है, यथा--ने, को, से, का/की के, में, पर, बिना, पर्थन्त, पूर्वक, (नाई) यौगिक 
संवंधसुचक शब्दों में विभिन्‍न संज्ञा शब्दों तथा कुछ अन्य शब्द वर्गों की गणना की | 
जाती है, यथा--(क) कालसूचक (आगे, पीछे, एवं, अनन्तर, पश्चात्‌, उपरांत, पहले, 
बाद), (ख) स्थानसूचक (आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, तले, सामने, पास, निकट, समीप 
नजदीक, यहाँ, बीच, बाहर, परे, दूर, भीतर, रूबरू) | (ग) दिशासूचक (ओर, तरफ 
आरपार, आसपास, (घ) साधनसूचक (जरिए, द्वारा, हाथ, माफत, जुबानी, सहारे), 
(ड-) हेतुसुचक (लिए, निमित्त, वास्ते, खातिर, सबब, मारे, कारण, हेतु), (च) 
व्यतिरेक/राहित्य सूचक (सिवा, अलावा, बिना, बग र, अतिरिक्त, रहित), (छ) विनि- 
मयसूचक (बदले, जगह, एवज) (ज) साहश्यसूचक (सम, समान, तरह, भाँति, नाई, 
बराबर, तुल्य, योग्य,लायक, सहश, सरीखा, सा, ऐसा, वसा, अनुसा र, अनुकूल, अनुरूप, 
मुताबिक), (झ) विरोधसूचक (विरुद्ध, विपरीत, उल्टा, खिलाफ), (ज) साहचर्यसूचक 
(संग, साथ, समेत, सहित, स्वाधीन, अधीन, पूर्वक, वश), (5) तुलनासूचक (अपेक्षा 
आगे, सामने, बनिस्वत), (5) विषय|उददेश्य सूचक (बाबत, हेतु, लिए, निमित्त, नाम 


| 





नामक, भरोसे, जान, लेखे, मद्धे) । (ड) कारण सूचक (कारण, मारे), (ढ) पार्थक्य 


सूचक (दूर, परे, आगे) । इन यौगिक संबंध सूचकों में कुछ शब्द संज्ञा, विशेषण, काल- 


 वाचक, स्थानवाचक, क्रिया शब्दों से बने हैं, यथा--संज्ञा से (वास्ते, ओर, अपेक्षा, 


विषय, माफ त, नाम, लेखे अदि), विशेषण से (तुल्य, समान, ऐसा, जैसा, योग्य 


सरीखा, जुबानी, उलटा आदि), कालवाचक से (आगे, पीछे, पश्चात्‌, उपरान्त आदि) 





334 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 





स्थानवाचक से (आगे, पीछे, यहाँ, वहाँ, समीप, दूर, भीतर आदि), क्रिया से (लिए 
कर के, मारे, जान) । 
वितरण की दृष्दि से सम्बन्धसूचकों के दो भेद हैं--. सम्बद्ध 2. बनु- 
बदध । सम्बदध संबंधसचक अव्यय .के, को, -री, -रे, से” के बाद आते हैं 
यथा--धन के बिना; पूजा से पहले; मेरे पास; सिह की नाई आदि। अनुबद्ध संबंध 
सूचक अव्यय संज्ञादि के तियेक्‌ रूप के साथ आते हैं, यथा--दोस्तों सहित, किनारे 
के पास, पत्नियों समेत आदि । अनुबद्ध संबंध सूचक बिता परसग्ग के आते हैं। 
प्रयोग (या अर्थ) के आधार पर संबंधसूचकों का वर्गीकरण तकंसंगत नहीं 
है। यौगिक सम्बन्ध सूचकों के निर्माणक शब्द-वर्गों को कुछ व्याकरणों में अर्थ के... 
अनुसार उन के भेद का आधार लिखा गया है । 
अनेक कालवाचक, स्थानवाचक अव्यय प्रयोग के आधार पर सम्बद्ध संबंध- 
सूचक अव्यय बन जाते हैं, यथा--अच्दर मत जाओ (“अन्दर' स्थानवाचक अव्यय); 
कमरे के अन्दर मत जाओ (के अन्दर” सम्बद्ध संबंधसूचक अव्यय); तुम्हें ऐसा 
पहले सोचना चाहिए था ('पहले' कालवाचक अव्यय); यह काम शाम होने से पहले 
पुरा हो जाना चाहिए (से पहले सम्बद्ध संबंधसूचक अव्यय) । 
ओर, तरफ, माफ त, नाई, खातिर, तरह, बदौलत, अपेक्षा-सी' से पूर्व 'की' 
आता है। (ओर' से पूर्व संडयावाचक विशेषण होने पर के” का प्रयोग होता है, 
यथा--सड़क के दोनों ओर; घर के चारों ओर); “आगे, पीछे, पहले, ऊपर, नीचे, 
बाहर' के पूर्व 'के, से में से कोई भी आ सकता है, यथा--घर के आगे; घर से आगे; 
घर के बाहर, घर से बाहर आदि | 'परे, रहित, हीन' के पूर्व 'से” आता है, यथा-- 
भ्रष्टाचार से रहित (/परे) | के के बाद आनेवाले कुछ शब्द हैं--यहाँ, पृर्वं, आगे, 
अतिरिक्त, अनुकूल, अनुसार, बाद, अनन्तर, अलावा, अन्दर, आस पास, आसरे, 
आर पार, इदं-गिर्द, उपरान्त, ऊपर, नीचे, कारण, चलते (पूर्वी हिन्दी में), दरमियान, 
करीब, खिलाफ, निमित्त, द्वारा, नजदीक, परे, पार, पास, पीछे, प्रतिकूल, बजाय 
बदले, बराबर, बहाने, बिना, बीच, मध्य, मारे, वश, वास्ते, विरुद्ध, विपरीत 
समान, सहारे, साथ, सामने, सिवा, सम्मुख, संग, लिए, समक्ष । द 
द क्रभी-कभी के मारे, के बिना का क्रम प्रयोग के समय बल देने के कारण 
बदल जाता है, यथा--मारे प्यास के दम निकला जा रहा है। बिना चीनी के कहीं 
चाय भी पी जा सकती है। आप के कहे अनुसार; आप के कहे बिना; बिना सोचे- 
समझे । आगे, पीछे, तले, रहित, सहित, समेत, पयेन्‍त बिना” से पूर्व कुछ संद्भों में. 


कोई परसगं नहीं आता, यथा -कुछ दिन आगे चल कर; पीठ पीछे बुराई करना; 
पैरों तले की जमीन; जल बिन मीन उदासी; सखियों सहित; दोस्तों समेत; मृत्यु 


- पयन्त; पाप रहित। 
. प्रसर्ग तथा संबंधसूचक अव्यय (/परसर्गीय शब्दावली) प्रकायें की दृष्टि से 
समान हैं । परसर्ग स्वतसन्त्र शब्द न होने के कारण परसर्गीय शब्दावली के शब्दों की _ 


288 मेक + 27/25/5222. 27 20875: शक कम 





! 
| 

श 

गा! 
१8 
| 
है 
! 
हा 
५४ 

/ 
ह| 
री 
!' 
0, 
रु] 
| 
0] 
| 0, 
। 
ही 
शा 
/' 

|] 








52227, 3 55722 49522 नमक 








है 


. अव्यय | 335 


भाँति कोई सार्थक मानसिक बिम्ब का निर्माण नहीं करते। परसमों का वितरण 
क्षेत्र परसर्गीय शब्दावली (संबंधसूचक शब्दों) की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। कुछ 
संबंधसचक अव्ययों के पश्चात्‌ परसग का प्रयोग नहीं होता, ये संबंधसूचक सज्ञा या 
संज्ञावव्‌ शब्द से युक्त होते हैं, यथा--नाई , प्रति, पर्यन्त, पृव॑क सहित, रहित । 
हिन्दी में भिन्‍त-भिन्‍न शब्दों का प्रयोग संबंधसूचक के समान होता है । 

6, समुच्चयबोधक अव्यय--वे अव्यय हैंजोी दो या अधिक शब्दों, पदों, 
पदवंधों, उपवाक्यों को जोड़ते या अलग करते हैं और उन के मध्य अथ्थंपूर्ण संबंध 
व्यक्त करते हैं, यथा--भाई और बहन; दोस्त या दुश्मन; स्वयं करो अथवा किसी 
से कराओ, मुझे काम चाहिए। कल उसे बुखार था इसलिए उस ने खाना नहीं खाया। 
इन में और, या, अथवा, इसलिए” समुच्चयबोधक अव्यय हैं । समृच्चयबोधक को 
कुछ व्याकरणों में, 'योजक' कहा गया है । योजक शब्द केवल योजन तक ही सीमित 
रह जाता है जबकि समुच्चयबोधक योजन के साथ-साथ वियोजन तक पहुँचता है। 
शब्द-रचना की दृष्टि से हिन्दी के समुच्चय-बोधक अव्युत्पल्त/हढ़ (यथा--तथा, एवं, 
अथवा, वा, और, पर, कि, या आदि) तथा व्युत्पन्न/यौगिक (क्रियाविशेषणों, निपातों, 
अन्य शब्दबंधों से बने) होते हैं, यथा--मानों < मानना; चाहे - चाहना; क्योंकि < 
क्योंकि; चूँकि < चूँ--कि; न कि < न--कि; इसलिए कि <यह--लिए-+ कि, 
चाहे“चाहे; न*“न; नहीं तो आदि । द इ 

समुच्चय होनेवाले वाकक्‍्यांशों के स्तर-भेद के आधार पर या वाक्यग्रत प्रंकार्य 
की दृष्टि से समुच्चयबोधक अव्ययों के दो मुख्य भेद हैं--. समानाधारी या समाना- 
घधिकरण 2. असमानाधारी या व्यधिकरण । इन दोनों प्रकारों के शब्दों में कुछ शब्द 
विभिन्‍न संदर्भों में दोनों प्रकार का प्रकार्य करने के कारण दोनों भेदों में सम्मिलित 
हो जातें हैं । । 

प्रयोग-आवृत्ति की दृष्टि से समुच्चयबोधक तीन प्रकार के होते हैं--(क) 
सामान्य (एक बार प्रयुक्त, यथा--और, तथा, लेकिन, पर, कि), (ख) पुनरुकत (दो 


_ बार प्रयुक्त, यथा--न “न, चाहे-“चाहे, या**“या, क्या““क्या), (ग) दृविपंदी, 


यथा--ही नहीं-*“पर, न सिफ “बल्कि (भी), केवल ही नहीं******** बल्कि । 

(4) समानाधारी या समानाधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय--वे अव्यय है जो 
वाक्य के समान स्तरीय विभिन्‍न अंग्रों को जोड़ते या अलग करते हैं। कभी-कभी 
समानाधारी समुच्चयबोधक अव्यय मुख्य/स्वतन्त्र उपवाक्यों को जोड़ कर संयुक्त 
वाक्यों का निर्माण भी करते हैं, यथा--मेरा पड़ोसी बहुत मक्‍्कार और दुष्ट है। 
कल लगातार पानी बरसना तो बन्द हो गया था लेकिन ठंडी हवा चलती रही थी 
ओर कभी-कभी छींटे पड़ जाते थे | यहाँ 'और, लेकिन, और” समानाधारी समुच्चय- 
बोधक अव्यय है | प्रकार्य या अर्थ की दृष्टि से समानाधारी समुच्चयबोधक अव्यय 


पाँच प्रकार के होते हैं--(क) योजक/[संयोजक (ख) वियोजक/विभाजक/विकल्प बोधक 


(ग) विरोधक (घ) परिणामसूचक/फल दर्शक (ड) तुलनात्मक। (क) समानाधारी 





336 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


योजक--दो या दो से अधिक समान स्तरीय शब्दादि को जोड़नेवाले अव्यय, यथा 
“मैं और वह परसों आगरा गए थे। गंगा-यमुना का मैदान बहुत उपजाऊ है तथा 
बहुत घना आबाद है। समुद्र-तट के प्रदेशों में न अधिक गर्मी पड़ती है न अधिक सर्दी। 
कुछ योजक शब्द हैं---और, एवं, तथा, व, न******* नकेवल**“**“अपितु, न सिफं 
बल्कि । 'घर-बार, कपड़े-लत्ते में ध्वन्यात्मक संयोजन है। “बार, लत्ते' का 
स्वतन्त्र प्रयोग नहीं है । बाल-बच्चे, दाल-रोटी, काम-काज, सीधा-सादा, जाब- 
पहचान' का संयोजन रूढ़ संयुक्त शब्द बनाता है। इन दोनों संयोजनों में 'और' नहीं 
आता | मुहावरेदार प्रयोग में विपरीतार्थ शब्द होने पर भी संयोजन के समय 'और' 
नहीं आता, यथा--लड़के-लड़कियाँ (--युवा वर्ग), आना-जाना (--निकटता), लाज- 
पीली (+>-बहुरंगी) । और' वाक्यांश के भीतर की रचना में आता है। उद्ग के कुछ 
रूढ़ शब्दों में व, ओ' के रूप में व्यंजनांत शब्दों के साथ प्रत्ययवत्‌ जुड़ जाता है 
यथा--जानोमाल का खुतरा था; तामोनिशान भी नहीं रहा; अजीबोगरीब आदमी 
है; दिलोदिमाग से; ताजो तख्त; ऐशों आराम; रददों बदल; शरों शायरी; सुबहो 
शाम; शर्मो. हया; होशो हवास; आबो हवा । हिन्दी में यह उत्पादक प्रत्यय की भ्राँति 
प्रयुक्त नहीं हो सकता । ओ' से जुड़े शब्दों के मध्य ( - ) हाइफन' नहीं आता । जुड़े 
हुए शब्द सामान्यतः: अलग-अलग लिखे जाते हैं । हिन्दी में कहीं-कहीं “तथा, एवं, और' 
के स्थान पर 'व' का प्रयोग मिलता है, यथा--कोठी व गाड़ी । “और' वाक्यांश के 
भीतर के वर्गीय शब्दों को जोड़नेवाला योजक है, यथा---आज और कल; खेत और 
श्याम; आना और जाना; गंगा और यमुना आदि । “आप और दहेज, यह तो सोचा 
भी नहीं जा सकता !' यहाँ “आप, दहेज भिन्‍नवर्गीय शब्द होते हुए भी वास्तव में दो 
गौण, संक्षिप्त उपवाक्य हैं, एक वाक्यांश के घटक नहीं हैं। “गीता और सीता बहनें 
हैं या 'राम और लक्ष्मण भाई हैं जैसे वाक्‍यों के अतिरिक्त 'और' अन्तर्निहित उप- 
वाक्यों का संयोजन करता है। अधिक शब्दों के स्थान पर एक शब्द के आने की गृ्‌ जा- 
_इश होने पर वाक्यांश में और' का प्रयोग, यथा--यह एक काला, चिपचिपा और 
' गाढ़ा पदार्थ होता है । भिन्‍न अर्थ-क्षेत्र के विशेषण 'और' से नहीं जुड़ते, यथा--*काली 
और सफेद गाय; “दो और तीन वर्ष, *ठिगनी और लम्बी औरत (किन्तु 'शहर से 
आई हुई एक बनी-ठनी औरत) । इन में “और' का स्थान या' ले सकता है, यथा-- _ 
काली या सफेद गाय; दो या तीन वर्ष; दो-तीन वर्ष; ठिगनी या लम्बी औरत । एक 
उपवाक्य में क्रमिक घटनाओं की क्रियाओं का संयोजन सहज रूप से नहीं मिलता 
.. यथा--ठीक है, मैं 25 को यहाँ आऊँगा, रात भर रुकूंगा और 26 को लोट जाऊगा 
. (*मैं 25 को यहाँ आऊँगा, रुकृंगा और लौट्गा) । और का संघोजकत्व इन संदर्भो में 
दृष्टव्य है---]. कारण-कार्य संबंध, यथा--बाढ़ आई और सब कुछ बह गया | <. 
... क्रमिक घटना-क्रम, यथा--बहुएँ और बेटे एक-एक कर चले गए । 3. संमकालिक 
... घटना-क्रम, यथा--खिलौना कुदक रहा है और बच्चा ताली बजा रहा है। 4 विपरीत 




















अव्यय | 337 


घटना-क्रम, यथा--कितनी देर से चिल्ला रही हूँ और तुम हो कि सुनते ही नहीं । 
5. तुलनात्मक स्थिति, यथा--देखा, उन का मुन्ना कितना शान्त था और तुम : तुम 
ने तो वहाँ ताकों दम कर दिया। 6. भिन्‍न कर्तावाले उपवाक्य, यथा--आप कहें और 
हम न करें, ऐसा भी कभी हुआ है ! 7. तिरस्कार व्यंजना, यथा--मेरा भेजा मत 
चाठो, इसे यहीं रख दो और जाओ । और' के समानार्थी “व का प्रयोग बहुत कम 
है, एवं, तथा' संस्कृत से आए संयोजक हैं जिन का प्रयोग विशिष्ट शैली (संस्कृत- 
निष्ठ) में होता है । कभी-कभी एक ही वाक्य में कई औरों की पुनरावत्ति की 
खटक से बचने के लिए सामान्य बोलचाल की भाषा में एक-दो स्थानों पर एवं / 
तथा' का प्रयोग किया जा सकता है, यथा--नाच-गाने और खाने के आयोजन तथा 
(एवं) पुरस्कार-प्राप्ति के कार्यक्रम में भाग लीजिए। द 

(ख) समानाधारी वियोजक--दो या अधिक समान स्तरीय शब्दों या उप- 
वाक्‍्यों में विकल्प अर्थात्‌ किसी एक के ग्रहण तथा दूसरे के त्याग का बोध करानेवाले 
समुच्चयबोधक अव्यय, यथा--जा रहे हो या यहीं बैठे रहोगे ? प्राचीन भारत की 
जानकारी के लिए रामायण अथवा महाभारत पढ़ना ही चाहिए। मैं तो जाऊँगी ही, 
भले आप नाराज हो जाएँ (/भले ही आप नाराज हो जाएँ, मैं तो जाऊंगी ही) । आप 
चाय पीएँगे कि (/या) कॉफी ? तू यहाँ से भागता है कि ([या) नहीं ? । वा, किवा, 
अथवा' शिष्ट साहित्यिक शैली में 'या' का स्थानापन्‍न है। “कि! प्रायः प्रश्न वाक्‍्यों 
में प्रयुक्त । अधूरे वाक्य के आरम्भ में भरें, यथा--तुम्हारे जाने पर पिता जी 
नाराज हो जाएँगे । भले हों, मुझे उन की नाराजगी की फिक्र नहीं । वियोजक शब्द 
हैं--या, वा, अथवा, किवा, कि, चाहे“ चाहे, न*“न, क्‍्या“““क्या, न कि, नहीं 
तो, या कि, भले (ही), चाहे" अथवा, चाहे““या, चाहे-“या न, या"“या। 'किवा' 
का प्रयोग संस्कतनिष्ठ शैली में । 'या' वाक्यांश के भीतर की रचना में वहीं आता 
उपवाक्य स्तर पर रहता है, यथा--करीम या शमीम में से कोई एक जाएगा (*करीम 
या शमीम जाएगा); तुम चपाती या चावल में से कोई एक चीज ही चुन सकते हो 
(तुम चपाती या चावल ले सकते हो) । इन दोनों वाक्‍्यों में एक-एक उपवाक्य की 
क्रिया का अध्याहार (/लोप) है | आप क्या लेंगे ?--दूध या लस्सी ? (आप दूध लेंगे 
या लस्सी लेंगे--*आप दूध या लस्सी लेंगे)। तुम अभी पढ़ोगे या सोओगे १ तू. 
 लीची खाएगा या चीक्‌ ? तू जाता है या नहीं ? 'या““या' से दो विकल्पों की सूचना 
मिलती है, यथा--वह या तो बीमार है या छुट्टी पर । या तो हम समुद्र-तट पर 
चलें या कहीं चल कर चाय-पकौड़े लें । “चाहे-“या न' से एक विकल्प तथा उस को 
नकारात्मक स्थिति की सूचना मिलती है, यथा--चाहे तुम रुको या न रुको, मैं तो यहीं 
. रुकंगी। चाहे गैस आए या न आए, खाना तो बनाना ही होगा। (चाहे) वे आएं या न आए 
हमें (तो) स्वागत की पूरी तैयारी कर लेनी चाहिए। 'क्या-*“क्या' वाक्य में दो या अधिक 
शब्दों का विभाजन व्यक्त करते हुए उन का समुच्चय करते हैं, यथा--क्य! स्त्री क्‍या 
पुरुष, सब के मन उल्लसित थे । “न"न' दो या अधिक शब्दों में से प्रत्येक का त्याग 

23 क्‍ 





338 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


सूचित करते हैं, यथा--उन दिनों न उन्हें नींद आती थी न भूख-प्यास लगती थी। | 


ने तुम स्वयं पढ़ते हो न दूसरों को पढ़ने देते हो । “न कि' से प्रायः परवर्ती बात का 


निषेध होता है, यथा--तुम यहाँ कुछ ज्ञानार्जन के लिए आए हो न कि ऊददंह | 


बनने । “नहीं तो' से किसी बात के त्याग का फल सूचित होता है, यथा--ैं ने आँदों 
पर रंगीन चश्मा पहन रखा था, नहीं तो मैं बैल्डिग की ओर कैसे देख सकता था | 


(ग) समानाधारी विरोधक--दो वाक्यों में से पूर्वेवर्ती वाक्य का निषेध, । 
विरोध, अपवाद, विपरीत प्रतिक्रिया/दशा या सीमा सूचित करनेवाले अव्यय, । 
यथा--वबह डॉक्टर बनना चाहता था किन्तु ऐसा हो न सका । समझौते के लिए हो. 
वे तैयार हैं मगर तुम तो मानते ही नहीं । विरोधक शब्द हैं--पर, परल्तु, लेकिन, 
मगर, किन्तु, वरन्‌, बल्कि, अपितु, वरना, अन्यथा, फिर, फिर भी, न कि, नहीं तो, . 
नहीं"*“बल्कि, प्रत्युत॥ बल्कि” के दो अथे हैं--. यह नहीं, वह 2. यही नहीं, वह _ 
भी। वरन्‌, प्रत्युत' “बल्कि” के पर्याय हैं जिन का उच्च साहित्य में भी आजकत 
कम प्रयोग होने लगा है । विरोधक अनुरूपता, परिसीमन, भेद, सति, कारण आदि 
के विरोध को व्यक्त करते हैं, यथा--मास्टर जी से चुगली सीमा ने नहीं, बल्कि . 
नीमा ने की थी। आज तो बाहर ही नहीं, बल्कि घर में भी सर्दी (/गर्मी) लग रही 
है। वे जी नहीं रहे (बल्कि) दिन पूरे कर रहे हैं। उन्हों ने जाने के लिए मना किया. 
लेकिन वह माना ही नहीं। यह लुगी सुन्दर तो है, लेकिन टिकाऊ नहीं है। मैं. 


आना तो चाहता हूँ, लेकिन पिता जी नहीं आने देंगे। वह अच्छा गायक तो नहीं है 
लेकिन एक अच्छा वादक है। पर, परन्तु, किन्तु, लेकिन, सगर' लगभग पर्यायवाची 
हैं। 'किन्तु, वरत्‌” का प्रयोग प्रायः निषेधवाचक उपवाक्य के बाद होता है। 

(घ) समानाधारी परिमाणसुचक--पहले वाक्य की क्रिया के परिणाम या 
(कारण-) कार्य की सूचना देनेवाले वाक्य के पूर्व आनेवाले अव्यय, यथा--ओले 


पड़े हैं अत: ठंड तो होगी ही । वारिश हो रही है, इसलिए बाजार नहीं जा पाएँगे। 


परिणामसूचक शब्द हैं---अतः, अतएवं, इसलिए, सो, इसीलिए | 'क्षतः/अतएव/इसलिए/ 
इसीलिए” से पूर्व कारणसूचक उपवाक्य आता है। “इसलिए” के बदले कहीं-कहीं 


“इस से, इस वास्ते, इस कारण, लिहाजा' का प्रयोग भी मिलता है। 'अतः/अतएवं 


का प्रयोग उच्च साहित्यिक हिन्दी में होता है । 'सो' का क्षेत्रीय प्रयोग मिलता है। 
कि योजित सजातीय अंगों में से दूसरा शब्द या उपवाक्य पहले से अधिक महत्त्वपूर्ण 
है। तुलनात्मक समुच्चयबोधक अव्यय ये हैं--न सिर्फ'““““बल्कि (भी); न 
केवल" बल्कि (अपितु) (भी); न केवल नहीं: “बल्कि; न केवल “““वरव्‌ (भी); 





| 


(डः) समानाधारी तुलनात्मक सम्र॒ुच्चयबोधक--ये अव्यय यह व्यक्त करते हैं 


केवल (ही) नहीं-““बल्कि; (ही) नहीं**““बल्कि (भी); ही नहीं" (भी); ही नहीं”“पर 


(भी); ही नहीं"“वरन्‌ भी; नहीं (ही), यथा--वेष्णव हिन्दू नकेवल मांसबल्कि मछली _ 


. और अण्डे भी नहीं खाते । प्राचीन भारत न सिफ ज्ञान का भण्डार था बल्कि उद्योग- 


.. पूर्ण भी था। इस हे पुस्तक से न केवल अहिन्दी भाषी हिन्दी की व्यवस्था के बारे. 
. में जानेंगे वरत्‌ हिन्दी मातृभाषा भाषी भी उस का परिचय प्राप्त कर सकेंगे । अनुसूचित 








इस नया नाकाम पक कस 




















अव्यय | 339 


जाति के छात्रों को अध्ययन काल में न केवल उच्चस्तरीय अंक न लाने की 
छूट है बल्कि उन्हें सरकारी वजीफा भी मिलता है। वे गस्‍्ना ही नहीं उगाते बल्कि 
गेहूँ भी पैदा करते हैं । वे विद्यावात्‌ ही नहीं वरन्‌ दयालु भी थे। बंगलौर कर्नाटक 
के ही नहीं, भारत के बड़े नगरों में से एक है । 


(2) असमानाधारी या व्यधिकरण समुच्चयादिबोधक--वे अव्यय हैं जो 
किसी वाक्य में आए मुख्य तथा आश्वित उपवाक्यों को जोड़ते हैं, यथा---वह डॉक्टर 
ते बन सका क्‍योंकि वह अनुत्तीर्ण हो गया था। यदि तुम नहीं आओगे तो मैं भी 
नहीं आऊंगा । इन वाक्यों में क्योंकि, यदि*“तो” असमानाधारी समुच्चयादिबोधक 
अव्यय हैं । 

संरचना तथा वितरण की दृष्टि से व्यधिकरण समुच्चयादिबोधक अव्यय 
तीन प्रकार के होते हैं-“-(क) सामान्य (सदैव संयुक्त व्यधिकरण वाक्यों के आश्रित 
उपवाक्यों में प्रयुक्त), यथा--कि, क्योंकि, ताकि, जब, मानो/|मानों, गोया, यदि, 
यद्यपि, चाहे, ज्यों ही, जसे ही। (ख) दविपदी (एक संयुक्त व्यधिकरण वाक्य के 
प्रधान उपवाक्य में, दूसरा आश्वित उपवाक्य में आता है), यथा--जब**--““तो/तब; 
अगर/यदि ४ / कहीं" “तो; यद्यपि'**** तथापि/तो भी/फिर भी/लेकिन; 

हाँ““वहाँ। (ग) दो या अधिक शब्दों से बने शब्दबन्ध/संयुक्त शब्दबन्ध (कुछ 
का पहला भाग सदंव प्रधान उपवाक्य में संबंधवाचक शब्द के प्रकाय॑ में प्रयुक्त) 
यथा---इस लिए कि; इसलिए''** **** कि; कि जिस से; कि जिस में; इसे बातके बावजद 
कि; जबकि, जब तक कि; यहाँ तक कि; इस तरह कि आदि | 


अथ को इदृष्हि से व्यधिकरण समुच्चयादिबोधक दो प्रकार के होते हैं-- 


(क) विशिष्ट अर्थयुक्त--जिन का कोई ठोस या विशिष्ट अर्थ होता है । ये निश्चित 


आश्रित उपवाक्यों के साथ प्रयुक्त होते हैं, यथा--'क्योंकि, चूँकि! (कारणवाचक 
उपवाक्यों के साथ), ताकि” (मनोरथवाची उपवाक्यों के साथ), यद्यपि, चाहे 

हालाँकि! (सति-अथंवाची उपवाक्यों के सोौथ) (ख) सामान्य अथंयुक्त--जो वाक्य- 
गतप्रकार्य करते हुए विभिन्‍त आश्रित उपवाक्यों के साथ आते हैं, या--'कि' (उद्देश्य, 
विधेय, कर्म, विशेषक, कारण आदि) विभिन्‍न अर्थों के आश्रित उपवाक्यों को प्रधान: 
उपवाक्य से जोड़ता है। तुलनाबोधक “मानो” उद्देश्य, विशेषक, तुलबावाचक आदि 
से युक्त आश्रित उपवाक्यों को प्रधान उपवाक्य से जोड़ता है। कुछ व्याकरणों में 


इन्हें अर्थथुक्त, अरथहीत कहा है। भाषा में अर्थहीन शब्दों का व्यवहार नहीं 


होता। 

. प्रकायं की दृष्ठिठ से व्यधिकरण/असमानाधारी समुच्चयादिबोधक अव्यय 
आठ प्रकार के माने जाते हैं--(अ) व्याख्यासूचक (आ) कारणसूचक (इ) उद्देश्य- 
पुचक्त (६) कालसुचक (उ) स्थानसूचक. (ऊ) तुलनासूचक (ए) संकेतसूचक 
(ऐ) सत्ति अर्थसूचक । | ० का ग कक 





340 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(अ) व्याख्यासूचक व्यधिकरण अव्यय--एक उपवाक्य में आए पद या पद- 
बंध को स्पष्ट करनेवाले दूसरे उपवाक्य के पूर्व आनेवाले अव्यय, यथा--मन्र में. 
आता है कि आज दिन भर सोती ही रहूँ । कितनी सुन्दर थी वह बच्ची, लगता था 
मानो स्वर्ग से उतरी हुई कोई नन्‍हीं-सी परी हो। इन अव्ययों को स्वरूपवाचक| 
स्वरूपबोधक भी कहा जाता है । व्याख्यासूचक शब्द हैं--कि, जो, जैसे, भर्थात्‌, याने| 
याती, यहाँ तक कि, मानों। ये अव्यय उद्देश्य उपवाक्य, विधेय उपवाक्य, 
विशेषक उपवाक्य, कम उपवाक्य, रीतिवाचक, परिमाणवाचक, कोटिवाचक उपवाक्य 
को प्रधान उपवाक्य से जोड़ते हैं। “कि” का कोई शाब्दिक अर्थ नहीं होता। 'जो' 
विशेषक का कार्य करता है। मानो, जेसे' अनुमान का पुट देते हैं। अच्छा हुआ 
जो तुम बापस आ गए। ऐसा लग रहा था जैसे वे कई महीने से बीमार हैं। इन 
अव्ययों को कुछ लोग 'स्वरूपवाचक'” भी कहते हैं । 

व्याख्यासूचक “कि” किसी बात का आरम्भ या प्रस्तावना' सूचित करता है 
यथा---श्री शुकदेव जी बोले कि महाराज अब आगे की' कथा सुनिए | मुख्य उपवाक्य 
से पूर्व आए हुए आश्रित उपवाक्य का “कि” अव्यक्त रहता है किन्तु उस समय मुख्य 
वाक्य में आश्रित वाक्य का कोई समानाधिकरण शब्द आया करता है, यथा--रबर 
किस से बनता है, यह बात बहुतों को मालुम नहीं होगी। परमेश्वर एक है, यह 
अनेक धर्मों की समान मान्यता है । “कि' के अथे में 'जो' का प्रयोग आजकल बहुत 
कम होता है। पुरानी हिन्दी में प्रयोग है--ऐसा न हो जो कोई आ जाए ।” कभी 
कभी मुख्य वाक्य में आए ऐसा, इतना, यहाँ तक' की व्याख्या कि! युत आश्रित 
उपवाक्य में होती है, यथा--जेबकट ऐसा भागा कि उस का पता ही न लगा। 

(भा) कारणसूचक व्यधिकरण अव्यय---एक उपवाक्य के क्रिया-व्यापार के 

“कारण का बोध करानेवाले (समर्थन करनेवाले) दूसरे उपवाक्य के पूर्व आनेवाले 
अव्यय, यथा--चौकि, क्योंकि, इसलिए कि, इसलिए““कि, चैकि“““इसलिए (अल्प _ 
प्रचलित) । चकि वह बीमार है, अतः दौड़ में भाग नहीं लेगा । गहरे जल में मत 
जाओ क्‍योंकि तुम तैरता नहीं जानते । तुम यहाँ क्‍यों आए हो ?--क्योंकि (|इसलिए 
कि) आपने बुलाया था। मैं ने ऐसा इसलिए पूछा कि आप की सुपुत्री को में ने 
कल किसी के साथ देखा था। “चूँकि! कारणसूचक--कार्यसुचक उपवाक्य से पूर्व _ 
आता है। क्योंकि” के पहले कार्यसुचक उपवाक्य और बाद में कारणसूचक उपवाक्य 

आता है एक ही वाक्य में “क्योंकि, इसलिए कि' का प्रयोग अशुद्ध । इन अव्ययों 

.. को कुछ लोग हेतुबोधक भी कहते हैं । 

हे (इ) उद्देश्यसूचक व्यधिकरण अव्यय--एक उपवाक्य के क्रिया-व्यापार के _ 

... उद्देश्य ((मनोरथ) का बोध करानेवाले दूसरे उपवाक्य के पूर्व आनेवाले अव्यय, 

. यथा--ताकि, जिस से कि, कि, इसलिए (कि) जिस से, (कि) जिस में, सो, 
ला .... जो मैं ने स्वयं ही अपना नाम वापस ले लिया ताकि झग्रड़ा' न हो | जल्दी जाओ 
| गओ .... जिस से कि ठीक समय पर पहुँच सको। ऐसे वाक्यों में कारण तथ्यपरक व्यापार _ 














अंव्यय | 34] 


या वास्तविक घटना न हो कर (सर्देव संभावनाथं) तथ्येतर क्रिया होती है। 'ताकि' 
कार्य का प्रयोजन सूचित करता है, अतः कारण-कार्य वाक्य का कर्ता चेतन प्राणी 
रहता है। जिस से” वास्तविक कारण-कार्य बताता है, अतः जड़ कर्ता भी आ सकता 
है। “जिस से कि! विधि में तथा तथ्येतर क्रियाओं के साथ प्रयुक्त, यथा--बच्चे का 
खाता इसलिए खुलवा दिया है कि वह इस बहाने पैसे जमा करना सीख जाए । वे आप 
के पास इसलिए आए हैं कि जिस से आप से कुछ गुप्त बातें की जा सकें । जोर की 
लहर आई जिस से (इसलिए) हम सभी भीग गए । इस वाक्य में उद्देश्य/मनोरथ 
के स्थान पर परिणाम की अभिव्यक्ति है) । यहाँ तक कि' अव्यय प्रधान उपवाक्य 
से परिणामवाचरी उपवाक्य को जोड़ते हैं, यथा--उस ने शराब पीना न छोड़ा यहाँ 
तक कि शरने:-शर्ने: आधी जायदाद बिक गई। उद्देश्यसूचक अव्ययों को मनोरथसूचक 
अव्यय भी कहते हैं । कुछ लोग इन्हें व्याख्यानवाचक भी कहते हैं। ये अब्यय कार्य- 
कारण संबंध व्यक्त करनेवाले समुच्चयादिबोधक हैं। उद्देश्यवाचक उपवाक्य मुख्य 
उपवाक्य से पूर्व आने पर बिना किसी समुच्चयबोधक के आता है, यथा--आप 
के कार्य में बाधा न पड़े, इसलिए मैं आप के पास नहीं रुका (>>मैं आप के पास इस- 
लिए नहीं रुका ताकि आप के कायें में बाधा न पड़े)) कभी-कभी मुख्य उपवाक्य 
में 'इसलिए' और उद्देश्यसूचक उपवाक्य में (कि का प्रयोग, यथा--इस बात की _ 
चर्चा मैं ते इसलिए की थी कि (ताकि) उस की शंका दूर हो जाए। ताकि' के 
अतिरिक्त अन्य उद्देश्यवाचक अव्यय अन्य अर्थों में भी आते हैं (ताकि, कि के 
अर्थ में 'जो' का प्रयोग केवल पुरानी हिन्दी में ही प्राप्त है, यथा--बाबा से समझा 
कर कहो जो मुझे ग्वालों के संग पठाय दें । द 
(ई) कालसूचक व्यधिकरण अव्यय-- एक उपवाक्य के क्रिया-व्यापार के 
काल का बोध करानेवाले दूसरे उपवाक्य के पूर्व आनेवाले अव्यय, यथा - जब" 
“तब (तो)) तब “जब; जो““तब (तो); जब"“तो; जब-जब"''तब-तब; जब 
कभी; जब “ उस समय; जब भी "तो; जब कभी '''तो; जिस समय तब (तो); 
जिस समय““तो ; जबकि; जहाँ“ तब; जब तक कि ” तब; जब तक “ तब तक, 
तब तक""जब तक, जब तक (कि); जब से““तब-से; जैसे ही" (तो) बसे ही; 
ज्यों ही" (त्यों ही); ज्यों-ज्यों"'''त्यों-त्यों; ज्यों ही; कि। मैं उप्त समय तक कोई 
निर्णय नहीं लूंगा जब तक पिता जी नहीं आ जाते । जब-जब वह मुझ से मिलती है, 
तब-तब किसी न किसी चीज की फ्रमायश करती है । 'जब, जो, जिस समय” दोनों 
उपवाक्यों के व्यापारों के समय का एक ही होना भी व्यक्त करते हैं तथा अलग- 
अलग होना भी ।” “जब तक' व्यापार-निष्पादन की सीमा इंग्रित करता है। ज्यों 
ही, जैसे ही' आश्रित उपवाक्य के व्यापार के तुरन्त बाद प्रधान उपवाक्य के व्यापार 
. के होने की सूचना देते हैं। “कि! आश्रित उपवाक्य के व्यापार/अवस्था के सहसा या 
. अकस्मात्‌ होने की सूचना देता है। जब, जबकि” समयवाची उपवाक्य के अतिरिक्त 
_ उद्देश्यसूचक उपवाक्य तथा विशेषक उपवाक्य को भी प्रधान उपवाक्य से जोड़ 








342 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


सकते हैं, यथा--एक वह दिन था जब हमारे घर सब कुछ था। यह पहला अवसर 
था जब कि मुझे उस के सामने हाथ पसारना पड़ा था। उस दिन की सभा में जब कि 
: वह श्रोताओं पर छाया हुआ था, तुम ने ही उसे चेलेंज दिया था । जैसे ही कार घर 
के सामने आ कर रुकी, (तो) आसपास के लोग भी जमा होने लगे। अभी सूरज 
निकला भी न था कि बाबा की हालत खराब होने लगी। द 

(3) स्थानसूचक व्यधिकरण अव्यय---एक उपवाक्य के क्रिया-व्यापार के 
स्थान का बोध करानेवाले दूसरे उपवाक्य के पूर्व आनेवाले अव्यय, यथा-- जहाँ; 
जहाँ'वहाँ; जहाँ (से)'वहाँ (से); जहाँ भी--वहाँ; जहाँ कहीं"*“वहाँ।वहीं; जहाँ 
से”“"वहाँ से; जहाँ-जहाँ वहाँ (वहाँ); जिधर**'*उधर:; उधर“ जिधर:- जिधर"* 
इधर; इधर*“*“जिधर । वह भागती हुईं वटवृक्ष के निकट पहुँची जहाँ चार लोग बैठे 
हुए थे । जहाँ आज समुद्र हिलोरें मार रहा है, वहाँ कभी ऊंचे-ऊँचे पव॑त थे । वे जहाँ 
भी जाते, वहीं हजारों की भीड़ इकटठी हो जाती । तुम जहाँ हो, वहीं रहो । जहां 
कहीं भी दिखाई दे, वहीं उसे गोली मार दो। ' जहाँ, विधेय” विशेषक उपवाक्यों 
को भी जोड़ सकता है, यथा--राजस्थान में एक ऐसा स्थान भी है जहां 
सर्वाधिक गर्मी पड़ती है। भारत में अभी भी कुछ ऐसे विद्यालय हैं जहां श्यामपट 
भी नहीं है । 

(ऊ) तुलनासूचक व्यधिकरण अव्यय--एक उपवाक्य के क्रिया-व्यापार के 
स्वरूप का बोध करानेवाले दूसरे उपवाक्य के पूर्व आनेवाले अव्यय, यथा--जैसे; 
मानो; जैसे (कि); (कि) जैसे; गोया । ये पुलनावाचक/सैतिवाचक/प रिमाणवाचक!| 
कोटिवाचक उपवाक्य को प्रधान उपवाक्य से जोड़ते हैं, यथा--वह ऐसे बोलती है 
जैसे (कोई) कोयल बोल रही है। आज भी ताजमहल चाँदनी रात में ऐसा दीखता 
है मानो कल ही बन कर तैयार हुआ है। तुम तो ऐसे काँप रही हो गोया तुम्हें 
मलैरिया हो । समानाधारी तथा असमानाधारी तुलनात्मक अव्यय शब्दों और उन के 
प्रकाय की भिन्‍तता उदाहरणों से स्पष्ट है । जि > ० 

(ए) संकेतसूचक व्यधिकरण अध्यय--एक उपवाक्य के क्रिद्ा-व्यापार के 
पूरा होने के बारे में शर्ते या संकेत करनेवाले दूसरे उपवाक्य के पूर्व आनेवाले 
अव्यय, यथा--यदि"”“तो; चाहे”“तो भी; यद्यपि'““फिर भी; जो "तो; यद्यपि" 
तथापि; चाहे”'परन्तु; कि; या; तो भी; अगर““तो; जब““तो तब; अगरचे 
लेकिन; कहीं"““तो; जहाँ”“वहाँ; यद्यपि*““तो भी; चाहे ““लेकिन; गोकि, हालांकि। 
. यदि वह नहीं आया तो काम नहीं बन पाएगा। यद्यपि मेरी कोई सिफारिश नहीं 

थी फिर भी मुझे चुत लिया गया था। अगर हम पाँच मिनट भी लेट हो जाते तो _ 
. हमें गाड़ी न मिलती । जो ऐसी इच्छा है तो आप को “कन्नड सीखिए' पुस्तक ला 


दूं गा। कहीं वे न आएं तो मुझे क्या करना होगा ? उस ने शादी नहीं की, हालाँकि हा 
कई अच्छे घरों से उस के पास शादी के प्रस्ताव आए थे । 'यद्यपि““तथापि (फिर. 


.._ भी) दो उपवाक्यों में कारण-विपरीत कार्य का संबंध दिखाते हैं। अगरचे / अगरचह 























अव्यय | 343 


का प्रयोग यदयपि' के प्रभाव के कारण सीमित हो गया है । भाजकल “हालाँकि 
यद्यपि” के प्रयोग और अर्थ में अन्तर नहीं रह गया है । बीसवीं सदी के पूर्वाद्धे 
तक हिन्दी में संस्कृत के योजक युग्म “यद्यपि” तथापि' का प्रयोग बहुत होता था 
किन्तु उत्तराध॑ में इस युग्म का प्रयोग कम हो गया। “यद्यपि! के साथ तथापि? 
का स्थात फिर भी” ने ले लिया है, यथा---यद्यपि उस के पास बहुत कम पैसे थे, 
फिर भी उस ने हिम्मत नहीं हारी ॥ यद्यपि को छोड़ने पर 'फिर भी' का प्रयोग 
अनिवायय होता है, यथा--माँ ने मना किया था, फिर भी दीदी पड़ोसी के यहाँ 
टी० वी० देखने चली गई है । कारणसूचक वाक्य के साथ हालाँकि जुड़ता है, यथा-- 
वह दौड़ में प्रथथ न आ सकी, हालाँकि उस ने जी-जान एक कर दी थी। वे कभी 
शराब नहीं पीते, हालाँकि (यद्यपि) उन की शराब की दुकान है। कभी-कभी 
हालाँकि! उपवाक्य के आरम्भ में भी आ सकता है, यथा-हालाँकि उन दिनों मेरे 
पास पैसे नहीं थे, फिर भी मैं ने मकान बनवाना शुरू कर दिया था । 

कभी-कभी शरतंसूचक उपवाक्य का शर्तंसूचक शब्द छोड़ दिया जाता है, 
यथा--(यदि/अगर) रुपये न मिलें तो तुम तुरन्त लौट कर सूचना देना। शतंसूचक 
वाक्य दो प्रकार के होते हैं--() भावी घटनाओं के सन्दभेवाले, यथा--यदि तुम 
आए ((आओ।/आशओगे), तो मेरा काम बन जायगा।. आए/|आओ तथ्येतर क्रियाएँ भावी 
घटना के सन्दर्भ में प्रयुक्त हैं। आए” घटित वास्तविक व्यापार का सूचक न हो कर 
भविष्य में उक्त व्यापार की पृूर्णता के पूर्वानुमान (?768प77007) के सन्दे में है । 
हिन्दी की लगभग सभी क्रियाएँ “अगर' से युक्त हो सकती हैं, यथा--अगर'''खाता 
है, (खा गया/नहीं खा सकता|खा चुका है| खाया जा चुका है) । अगर वह सोया हुआ 
है तो ठीक है । अगर तुम ने फिर कभी गाली दी तो तुम्हारा सिर फोड़ दूगा। इस 
प्रकार अगर' वाले वाक्य दो प्रकार के हैं--(क) प्रतिवक्‍तव्य के संबंध में प्रतिक्रिया 
व्यक्त करनेवाले (ख) कारण-कार्य संबंध दिखानेवाले | माँ पूछें तब न कुछ कहूँ, 
आप रुकेंगे तो मैं भी रुक जाऊँगा। «/ +॑- -ए का प्रयोग कामना, सुझाव, आशंका 
आदि सन्दर्भों में होता है। %/-- -एगा का प्रयोग भविष्य में घटनीय व्यापार 
के अधिक पुष्ट अनुमान के सन्दर्भ में होता है। (2) बीते काल|समय के सन्दर्भवाले 
_वाक्यों में सहायक क्रिया रहित क्ृदन्त रूप का प्रयोग होता है, यथा--अगर तेल होता 
तो खाना बन जाता ("तेल नहीं था, खाना नहीं बना) | घटित/|अघटित व्यापार के 
सन्दर्भ में विपरीत व्यापार की स्थिति कारण-कार्य सम्बन्ध दिखाती है। भूतकाल का 
व्यापार वास्तविक होता है और तथ्यात्मक/निश्चयाथेवाला होता है। कल्पित 
व्यापार अवास्तविक, तथ्येतर और प्राय: नकारात्मक होता है । वास्तविक किन्तु 
-अघटित नकारात्मक व्यापार की कल्पित स्थिति में निश्चयाथ क्रिया होती है, यथा--- 
आप चलते तो मैं भी चलता (आप नहीं गए, मैं भी नहीं गया); आप न जाते 
तो मैं चला जाता (+-आप गए, मैं नहीं गया), आप जाते तो मैं न जाता (5"5आप 
नहीं गए, मैं चला गया); आप न आते तो मैं न जाता (--आप आए, मैं चला गया) । 





344 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अगर आप कहते|आप ने कहा होता; अगर आप पत्र लिख देते आप ने पत्र 
लिखा होता (पू्ण पक्ष कुदन्‍्त--होता)। उन्हों ने पहले से कहा होता, तो हम यह 
न आते। काल्पनिक स्थितियों पर आधारित. भूतकाल के सन्दर्भ में, यथा-बगर 
आप लड़की होते; अगर तुम भारत के प्रधानमन्त्री होते । ऐसे वाक्यों में वर्तमान 
की विपरीत स्थितियों में कल्पित स्थिति का उल्लेख होता है। इस रचना में निश्चित 
कल्पनाएँ व्यक्त की जाती हैं; यथा--आदमी के पंख, होते; चिड़ियों के चार पैर 
होते, समुद्र का पानी मीठा होता आदि । 


बशतें/बशर्ते (कि) का अर्थ है इस शर्त पर (कि) । इस में “कि” वैकल्पिक 
ऐच्छिक है । इस के साथ सदव संभावनाथ क्रिया आती है, यथा--मैं वहाँ जाने के 
लिए तयार हूँ (/था), बशर्ते (कि) मुझे दोनों ओर का किराया और खाने का दर 
मिल जाए (/मिल जाता) | पूर्ण पक्ष की क्रिया के साथ कार्य-कारण सम्बन्ध सुचित 
करते समय इस का प्रयोग नहीं होता | पूर्ण पक्ष में शर्ते की सूचना के लिए 
सम्भावना से भिन्‍न रचना बनती है, यथा--मैं ने यह घड़ी इस शर्त पर खरीदी थी 
कि जरा भी समय में अन्तर बताने पर आप इसे वापस कर लेंगे । 


(ऐ) सति-अर्थसुच्रक व्यधिकरण अव्यय--मुख्य उपवाक्य से सत्यरथसूचक 
उपवाक्य को जोड़नेवाले समुच्चयबोधक अव्यय, यथा--यद्यपि, यद्यपि““तथापि 
(तो भी, फिर भी, लेकिन पर), चाहे (लेकिन, परन्तु, पर) गो (कि), हालाँकि। अब 
में अधिक कुछ नहीं कहूँगा, यद्यपि कहने के लिए बहुत-सी बातें हैं । यद्यपि फीस सेट 
जी दे रहे थे पर और भी कई ऊपरी खच थे । ड्यूटी पर तो पहुँचना ही होगा, चाहे 
आँधी आए या तूफान । चाहे हमारी विचारधारा भिन्‍न है पर देश तो हम सब का 
है । मम्मी मुझे छोटे भाई के साथ ही जाते देती हैं गोकि वह अभी पाँच ही वर्ष का 
है । खेत कट रहे थे हालाँकि भीमा ने चोरी न करने की कसम खा रखी थी। 

इन समानाधारी, असमानाधारी समुच्चयादिबोधकों के अतिरिक्त 'पृरक 
व्याख्यासूचक' समुच्चयादिबोधक अव्यय यानी, अर्थात्‌” में समानाधिकरण तथा 
व्यधिकरण दोनों के व्याकरणिक अर्थ मिले होते हैं। ये सामान्य तथा संयुक्त वाक्य 
के अंगों को जोड़ते हैं किन्तु इन से न वाक्य आरम्भ होता है और न ये सजातीय 
अंगों को जोड़ते हैं । इन की पुनरुवित भी नहीं होती । संयुक्त वाक्य में ये व्याख्या- 
परक उपवाक्य के साथ आते हैं। पूरक व्याख्यास्चक अव्यय साधारण संयुक्त 
वाक्य के दो भागों के मध्य व्याख्या का सम्बन्ध व्यक्त करते हैं। उत्तर भाग पू्॑ 
भाग का स्पष्टक|व्याख्यापक होता है, यथा--3 फरवरी को यानी शुक्रवार को"॥ 

इस स्टेशन पर करीब हर मिनट-डेंढ मिनट के अन्दर से गाड़ियाँ आती जाती हैं 


.._ अर्थात्‌ँयानी एक घंटे में चालीस-पचास गाड़ियाँ चलती हैं । दक्षिण में कई स्वयंसेवी 





. होटल हैं अर्थात्‌ उन में बरे नहीं होते, आप को स्वयं ही काउन्टर से अपना सामाव 
उठाना पड़ता है । 








अव्यय | 345 


नित्य सम्बन्धी समुच्चयादिबोधक प्राय: जोड़े के रूप में वाक्य में आते हैं, 
यथा--यदि तो; जो""तो; यद्यपि““तथापि; जब'“'तब; ज्यों*“त्यों; अहाँ”'' 
वहाँ; जिधर'**उधर; जो भी" सो भी; अगर्चे*“ताहम; न न; न सिफ*" बल्कि 
(भी); न केवल"'“बल्कि (अपितु) (भी); न केवल नहीं"'बल्कि; न केवल वरन्‌ 
(भी); केवल (ही) नहीं”“बल्कि; (ही) नहीं'““बल्कि (भी); ही नहीं”“” (भी); ही 
तहीं'पर (भी); ही नहीं"“वरन्‌ भी; या (तो)”"या; चाहे चाहे; क्या“ क्‍या; 
चाहे या; चाहे““अथवा; जब““तो; अगर” तो; कहीं““तो; इसलिए*““कि; 
चूँकि“ इसलिए; तब*'“'जब; जो" तब (तो); जब-जब''' तब-तब; जब भी*-तो; 
जब कभी “““तो; जब**उस समय; जिस समय “तब (तो); जब तक*तब तक; 
तब तक““जब तक; जब से”“'तब से; ज्यों ही" (त्यों ही); जैसे ही“ (तो) वैसे 
ही; जहाँ से““वहाँ (से); जहाँ कहीं वहाँ; जहाँ भी"'वहाँ; उधर"“जिधर; जहाँ- 
जहाँ““वहाँ-वहाँ; कहीं''''तो । क्‍ 


7. मनोभावबोधक (/विस्सयादिबोधक) अव्यय--वकक्‍ता के लह॒जे (उच्चा- 
रण-सुर) के साथ विस्मय, हष॑, शोक; ग्लानि, लज्जा, स्वीकृति, तिरस्कार, सम्बोधन, 
अनुमोदन, व्यंग्य आदि ,मनोभावों की सूचना देनेवाले शब्द (कभी-कभी शब्द- 
वाक्य भी) मनोभावबोधक कहलाते हैं। यथा--हें राम ! मैं मर्र!। शाबाश ! ऐसे 
ही खेलते जाओ । इन्हें दयोतक, आवेगी या विस्मयादिबोधक भी कड़ा जाता है । 
मे अव्यय मनोभावों (उदगारों, सांकल्पिक, प्रेरणादि) को व्यक्त करते हैं, उन्हें 
नामोद्दिष्ट नहीं करते । ये न तो स्वतन्त्र शब्द हैं, और न सहायक शब्द | वाक्य 
की व्याकरणिक संरचना में इन का कोई स्थान नहीं होता । ये अन्य स्वतन्‍्त्र शब्दों 
की भाँति अभिधान प्रकाये नहीं करते और न इन का रूपान्तर होता है। ये सहायक 
शब्द-भेदों की भाँति कोई व्याकरणिक संबंध भी व्यक्त नहीं करते क्योंकि ये 
वाक्यगत बंधनों से मुक्त होते हैं। इन के साथ शब्द-निर्माणक प्रत्ययों का योग नहीं 
_ होता, साथ ही इन के उच्चारण का विशेष अनुतान होता है। ये व्युत्पन्त (जिन का 
. दूसरे शब्द-भेदों से सहसंबंध होता है) तथा अव्युत्पन्न (जिन का दूसरे शब्दभेदों से 

_सहसंबंध नहीं होता) होते हैं। व्युत्पन्त मनोभावबोधक कुछ विशिष्ट सज्ञा, विशे- 
षण, क्रिया, स्थानसूचक, प्रश्नसूचक शब्दों से बन सकते हैं। - उस क्षण वे केवल 
भावनाएँ, उदगार या प्रेरणा व्यक्त करते हैं, अपता अभिधान प्रकायं नहीं, यथा-- 
अफसोस, राम-राम (संज्ञा), अच्छा, बहुत अच्छा (विशेषण), लो, जियो (क्रिया- 
रूप), दूर (स्थानसूचक), कया, क्‍यों (प्रश्तसूचक), जी (निपात), क्‍या खूब (शब्द- 
बंध) । अव्युत्पन्त मनोभावबोधक प्रायः पुनरुक्त होते हैं, यथा--वाह-वाह !; 5. छि- 
छि; तौबा-तौबा ! हिन्दी के कई. मनोभावबोधक बहुअर्थी हैं तथा विभिन्‍न उद्गार 
व्यक्त करते के लिए प्रयुक्त होते हैं। प्रकार्य|अर्थ के आधार पर भनोभावबोधकों 
को प्रमुख चार वर्गों में बाँठा जा सकता है--. उद्गार व्यक्तक, 2. विभिन्‍न संकल्प, 





4558. / कह 





344 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


अगर आप कहते|आप ने कहा होता; अगर आप पत्र लिख देते|आप ने पह 
लिखा होता (पूर्ण पक्ष कृदन्‍त--होता) हों ने पहले से कहा होता, तो हम यहां 
न आते । काल्पनिक स्थितियों पर आधारित: भूतकाल के सन्दर्भ में, यथा-ब्गर 
आप लड़की होते; अगर तुम भारत के प्रधानमन्त्री होते । ऐसे वाक्यों में वर्तमान 
की विपरीत स्थितियों में कल्पित स्थिति का उल्लेख होता है । इस रचना में निश्चित 
कल्पनाएँ व्यक्त की जाती हैं; यथा--आदमी के पंख, होते; चिड़ियों के चार पैर 
होते, समुद्र का पाती मीठा होता आदि । 


बशर्ते|बशर्तें (कि) का अर्थ है 'इस शर्त पर (कि) । इस में “कि! वैकत्पिक 
ऐच्छिक है । इस के साथ सदव संभावताथे क्रिया आती है, यथा--मैं वहाँ जाने हे 
लिए तैयार हूँ (|था), बशर्ते (कि) मुझे दोनों ओर का किराया और खाने का बच 
मिल जाए (/मिल जाता) | पूर्ण पक्ष की क्रिया के साथ कार्य-कारण सम्बन्ध सूचित 
करते समय इस का प्रयोग नहीं होता । पूर्ण पक्ष में शर्त की सूचना के लिए 
सम्भावना से भिन्‍नत रचना बनती है, यथा--मैं ने यह घड़ी इस शर्तें पर खरीदी थी 
कि जरा भी समय में अन्तर बताने पर आप इसे वापस कर लेंगे । 


(ऐ) सति-भ्र्थसुचरक व्यधिकरण अव्यय--मुख्य उपवाक्य से सत्यर्थसूचक 
उपवाक्य को जोड़नेवाले समुच्चयबोधक अव्यय, यथा--यद्यपि, यद्यपि““तथापि 
(तो भी, फिर भी, लेकिन पर), चाहे" (लेकिन, परन्तु, पर) गो (कि), हालाँकि । अब 
मैं अधिक कुछ नहीं कहुँगा, यद्यपि कहने के लिए बहुत-सी बातें हैं। यद्यपि फीस सेट 
जी दे रहे थे पर और भी कई ऊपरी खचचे थे। ड्यूटी पर तो पहुँचना हीं होगा, चाहे 
आँधी आए या तूफान । चाहे हमारी विचारधारा भिन्‍न है पर देश तो हम सब वा 
है । मम्मी मुझे छोटे भाई के साथ ही जाने देती हैं गोकि वह अभी पाँच ही वर्ष का 
है। खेत कट रहे थे हालाँकि भीमा ने चोरी तन करने की कसम खा रखी थी । 

इन समानाधारी, असमानाधारी समुच्चयादिबोधकों के अतिरिक्त पूरक 


.._ व्याख्यास्चक समुच्चयादिबोधक अव्यय यानी, अर्थात्‌” में समानाधिकरण तथा 


व्यधिकरण दोनों के व्याकरणिक अर्थ मिले होते हैं। ये सामान्य तथा संयुक्त वाक्य 
के अंगों को जोड़ते हैं किन्तु इन से न वाक्य आरम्भ होता है और न ये सजातीय 
अंगों को जोड़ते हैं । इन की पुनरुक्ति भी नहीं होती । संयुक्त वाक्य में ये व्याख्या 
परक उपवाक्य के साथ आते हैं। पुरक व्याख्यास्चक अव्यय साधारण संयुक्त 
वाक्य के दो भागों के मध्य व्याख्या का सम्बन्ध व्यक्त करते हैं। उत्तर भाग पूर्व 
भाग का स्पष्टक/व्याख्यापक होता है, यथा--3 फरवरी को यानी शुक्रवार को 

इस स्टेशन पर करीब हर मभिनट-डेढ़ मिनट के अन्दर से गाड़ियाँ आती जाती हैं, 


_अर्थात्‌/यानी एक घंटे में चालीस-पचास गाड़ियाँ चलती हैं । दक्षिण में कई स्वयंसेवी 
.. होटल हैं अर्थात्‌ उन में बैरे नहीं होते, आप को स्वयं ही काउन्टर से अपना सामान 
उठाना पड़ता है । पद 














अव्यय | 345 


नित्य सम्बन्धी समुच्चयादिबोधक प्राय: जोड़े के रूप में वाक्य में आते हैँ 
यथा-यदि "तो; जो"“तो; यदयपि-““तथापि; जब'“तब; ज्यों-नत्यों: हा 
वहाँ; जिधर““उधर; जो भी” सो भी; अगचें*“ताहम; न न; न सिफ”” बल्कि 
(भी); न केवल"“बल्कि (अपितु) (भी); न केवल नहीं”बल्कि; न केवल वरन 
(भी); केवल (ही) नहीं"““बल्कि; (ही) नहीं” बल्कि (भी); ही नहीं“ (भी) 
नहीं'''पर (भी); ही नहीं"“वरन्‌ भी; या (गो)““या; चाहे चाहे; क्या“ क्‍या 
चाहे या; चाहे““अथवा; जब““तो; अगर” तो; कहीं““तो; इसलिए-“कि; 
चूँकि इसलिए; तब”“जब; जो““तब (तो); जब-जब"'“तब-तब; जब भी--“तो 
जब कभी “तो; जब***उस समय; जिस समय “तब (तो); जब तक““तब तक; 
तब तक”“जब तक; जब से"“तब से; ज्यों ही'“(त्यों ही); जैसे ही (तो) वैसे 
ही; जहाँ से ““वहाँ (से); जहाँ कहीं''''वहाँ; जहाँ भी "वहाँ; उधर-जिधर; जहाँ- 
जहाँ ““वहाँ-वहाँ; कहीं''''तो 


7. मनोभावबोधक (/विस्मयादिबोधक) अव्यय--वक्‍ता के लहजे (उच्चा- 
रण-सुर) के साथ विस्मय, हष॑, शोक, ग्लानि, लज्जा, स्वीकृति, तिरस्कार, सम्बोधन, 
अनुमोदन, व्यंग्य आदि .मनोभावों की सूचना देनेवाले शब्द (कभी-कभी शब्द- 
वाक्य भी) मनोभाववोधक कहलाते हैं। यथा--हे राम ! मैं मर्रा। शाबाश ! ऐसे 
ही खेलते जाओ | इन्हें दुयोतक, आवेगी या विस्मयादिबोधक भी कड़ा जाता है। 
ये अव्यय मनोभावों (उद्गारों, सांकल्पिक, प्रेरणादि) को व्यक्त करते हैं, उन्हें 
नामोद्दिष्ट नहीं करते । ये न तो स्वतन्‍्त्र शब्द हैं, और न सहायक शब्द | वाक्य 
की व्याकरणिक संरचता में इन का कोई स्थान नहीं होता । ये अन्य स्वतन्त्र शब्दों 
की भाँति अभिधान प्रकाय नहीं करते और न इन का रूपान्तर होता है | ये सहायक 
शब्द-भेदों की भाँति कोई व्याकरणिक संबंध भी व्यक्त नहीं करते क्योंकि ये 
वाक्यगत बंधनों से मुक्त होते हैं। इन के साथ शब्द-निर्माणक प्रत्ययों का योग नहीं 
होता, साथ ही इन के उच्चारण का विशेष अनुतान होता है। ये व्यत्पन्त (जिन का 
दूसरे शब्द-भेदों से सहसंबंध होता है) तथा अव्यत्पन्न (जिन का दसरे शब्दभेदों से 
सहसंबंध नहीं होता) होते हैं । व्युत्पन्त मनोभावबोधक कुछ विशिष्ट सज्ञा, विशे- 
षण, क्रिया, स्थानसूचक, प्रश्नसूचक शब्दों से बन सकते हैं। उस क्षण वे केवल 
भावनाएं, उदगार या प्ररणा व्यक्त करते हैं, अपना अभिधान प्रकाय नहीं, यथा--- 
अफसोस, राम-राम (संज्ञा), अच्छा, बहुत अच्छा (विशेषण), लो, जियो (क्रिया- 
रूप), दूर (स्थानसूचक), क्या, क्‍यों (प्रश्नसूचक), जी (निपात), क्या खू ब (शब्द- 
बंध) । अव्युत्पन्त सनोभावबोधक प्रायः पुनरुक्त होते हैं, यथा--वाह-वाह !; 5. छि- 


... छि; तौबा-तौबा ! हिन्दी के कई मनोभावबोधक बहुअर्थी हैं तथा विभिन्‍न उद्यार 
.. व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त होते हैं। प्रकार्य/अर्थ के आधार पर भनोभावबोधकों 
है, को प्रमुख चार वर्गों में बाँदा जा सकता है--- उद्गार व्यक्तक 2. विभिन्‍न संकल्प 





346 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


प्रेरणादि व्यक्तक, 3. सम्भाषी-कथन प्रतिक्रिया व्यक्तक, 4. अभिवादन, आधार 
कामनादि व्यक्तक । इन वर्गों के उपवग्ग ये हैं--- 

() उद्गार व्यक्तक पाँच प्रकार के होते हैं-- (क) विस्मय सूचक, यथा-- 
उफ्‌ !, एऐ ! ऐ! आहा ! ओ हो ! है ! हैं ! क्‍यों ! क्या ! ओह ! अहो ! वाह ! सच | 
अरे |! अच्छा |! अजी ! ओ ! (उफ्‌, कितनी भीड़ है ! ओो हो, इतना दिन चढ़ आया) 
(ख) अनुमोदन, प्रोत्साहन, हे, संतोष, प्रशंसासूचक, यथा--ठीक ! वाह ! 

छा ! हाँ-हाँ ! जी हाँ ! हाँ ! हूँ ! ठीक-ठीक ! भला ! अवश्य ! आहा ! अहाहा ! 
अहा ! वाह-वाह ! धन्य-धन्य ! शाबाश ! वाह वा ! ओह ! खु ब !, बहुत अच्छा 
(क्या) खूब ! (वाह-वाह, कितना अच्छा हुआ !, ओह ! याद आ गया) (गर) भय, 
सहायता पुकार सूचक, यथा--आह ! दुहाई ! बाप रे ! राम-राम ! (दुह्ाई, 
बचाओ. !) (ध) खेद, दुःख, शोक, व्यथा, वेदना, थकान, झू झलाहटसूचक, यथा-- 
अफसोस ! आह ! हाय ! ओह ! हा-हा ! बाप रे ! राम रे! हे राम ! क्ाहि- 
त्राहि ! हा देव ! उह ! उफ ! दिया रे ! मैया री ! राम-राम ! तौबा(-तौबा) ! 
हा ! भरे रे | ओफ्‌ ! काश ! (उफ ! कितना थक गया हूँ। हाय-हाय ! अब मैं 
कहाँ जाऊं ?) (७) घृणा, तिरस्कार, प्रताड़नासूचक, यथा--उफ ! छि !छी! 
थू ! छी-छी ! दुर ! घधिक्‌ ! घिक्‍्कार | चुप ! हुश ! हट ! राम-राम ! मुर्दाबाद ! 
(छि ! जरा भी शर्म नहीं । चुप ! कितनी गंदी बातें करते हो ) । हा 

(2) विभिन्‍न संकल्प, प्रेरणादि व्यक्तक छह प्रकार के होते हैं-- (क) असम्पर्क- 
इच्छासूचक, यथा--हूट ! दूर ! हश ! (ख) चेतावनीसूचक, यथा--खबरदार !. 
सावधान ! (खबरदार, जो एक कदम भी' आगे बढ़े तो तुम्हारे बॉस को गोली मार 
दूगा)। (ग) ध्यानाक्षण सूचक, यथा--ए ! ऐ ! ओ! अबे ! अरी ! अजी | 
अरे ! जहे ! अहो ! ओ ! रे! री! है! (अजी, सुन रहे हो अपनी लाइली की 
फ्रमायश ?) । (घ) निश्चेष्टता/निश्शब्दता सचेतक, यथा--चुप ! बस ! हैं ! शी- 
शी ! लो ! (चुप ! मैं कुछ भी नहीं सुनना चाहता) । (ह) ग्रहणार्थ प्रेरणासचक 


यथा--ले ! लो ! (लो ! मैं तुम्हारी मम्मी को नहीं बताऊँगी)। (घ) समूहार्थ 


प्ररणासुचक, यथा--आओ ! आइए | लाओ ! चलो ! (आओ ! हम दोनों कहीं 


भाग चलें ) । 
(3) सम्भाषो-कथन प्रतिक्रिया व्यक्तक तीन प्रकार के होते हैं--(क) स्वीकृति _ 


सूचक, यथा--अच्छा ! बहुत अच्छा ! ठीक ! हाँ ! हाँ-हाँ ! हूँ | सही!; (तुम तैयार 


हो न ?--हूँ !) (श्र) अस्वीकृतिसूचक, यथा--ऊहूँ ! न ! न-न ! (ग) व्यंग्यसूचक 
- यथा---भला [ हूँ ! हा 

(4) अभिवादन, आभार, कामनादि व्यक्तक तीन प्रकार के होते हैं--(क) 
. अभिवादनसूचक, यथा--नमस्कार ! नमस्ते ! राम-शम ! प्रणाम ! बंदगी | 
. सलाम | हलो ! (नमप्ते ! मैं चला)। (ख) संबोधनसूचक, यथा--कृपया, छुपा... 
कर के, मेहरबानी करके, जुरा, (कृपया, थोड़ी देर प्रतीक्षा करें) । (ग) आभार, शुभ- 








अव्यय | 347 


कामना, आशीर्वादादि सूचक, यथा--धन्यवाद ! शुक्रिया | थैंक यू ! भला हो ! 
जय हो ! जियो ! जीते रहो ! दीर्घायु हो ! चिरंजीव ! ज्न्दाबाद ! मुबारकबाद ! 
(धन्यवाद !|शुक्रिया ! आप के सहयोग के लिए अनेकश; धन्यवाद) । 


मनोभावबोधकत्व होने पर ही कोई संज्ञा, सबंनाम, क्रिया, अव्यय, शब्द- 
वाक्य विस्मयादिबोधक में . गणनीय होता है, यथा--हाय-हाथ ! मैं तो लुट 
गई (विस्मयादिबोधक)--क्यों हाय-हाय मचा रखी है? (संज्ञा)) सारी जनता 
ब्राहि-बाहि पुकार उठी (संज्ञा)-स्वंनाश ! मैं तो लुट गया (विस्मया दिबोधक) । 
हिन्दी में अच्छा' की तरह 'राम-राम” पुनरुकत शब्द का प्रयोग कई सन्दर्भों में प्राष्त 
है--([) अभिवादन--राम-राम ! चौधरी साहब ! (2) विदा--अच्छा पंचो |! 
(हम चले) राम-राम । (3) समवेदनता--राम-राम ! बेचारी बेहोश हो गई (4) 
घृणा--राम-राम ! ब्राह्मण, और ये कर्म ! (5) हल्की प्रताइ़ना--राम-राम, पापा 
न कहीं खुदटूटी करते हैं ? (6) स्वयं को सही सिद्ध करने की भावना--कल की एक 
किलो चीनी आठ सौ ग्राम ही बंठी है, सेठ जी ![-राम-राम ! आप भी कैसी 
बातें करते हैं, बाबू जी ! हमारी दुकान पर कभी ऐसा हुआ है ? (7) दुःख प्रकट 
करता--(अवरोही स्वर में) राम-राम ! बड़ दुःख का समाचार सुनाया आप ने । 
(8) प्रशंसायुक्त विस्मय--(आरोही स्वर में) राम-रांम ! इतनी छोटी बच्ची ने 
इतना बड़ा इताम पाया ! (9) प्राथेता/भजन आदि के सन्दर्भ में--कब्र में पैर लट- 
काए बंठी हो, सुबह-शाम राम-राम ही भजा करो । (0 ) सन्‍्तोष रखने हेतु-- 
राम-राम कहो, जो मिला है, कम नहीं है । (4) कार्य-कठिनाई संकेत--राम-राम 
कर के बेटी की शादी के लिए चार पैसे जोड़े थे कि पिता जी. चल बसे । (42) 
: अपशब्द-कथन वर्जेता--शायद यह मेरी आप के साथ आखिरी मुलाकात हो-- 
. राम-राम, ऐसी बुरी बात कहते हैं? (43) पर-कथन खण्डन!प्रतिवाद--अरे-भरे, 
. तुम भी क्या कह रहे हो ? राम-राम कहो (/राम का नाम लो) । 


वाक्य विधान में मनोभावबोधकों से कोई सहायता न मिलने के कारण 
वाक्य-संरचना स्तर पर इन का विशेष महत्त्व नहीं है। वाक्य के अर्थ की अपेक्षा 
अधिक तीत्र भाव-सुचन की आवश्यकता होने पर ही इन का प्रयोग किया जाता है । 
अब आप क्या करेंगे ?” वाक्य वक्‍ता की अभीष्सित भावना।दृष्टि से प्रश्ववाचक, 
शोकसूचक, समवेदनासूचक, चिन्तासूचक हो सकता है। यदि शोक, समवेदना या 
चिन्ता की तीव्रता भी सूचित करनी हो तो इस वाक्य से पूर्व हाय ! [ऐं ! है!” 
जोड़ देते हैं। विस्मयादिबोधक संरचना की हृष्टि से शब्द होते हुए भीअर्थं-स्तर 
पर शब्द-वाक्य होते हैं। विस्मयादिबोधक अव्यय व्यक्ति के हाव-भावों के दवारा 
+ व्यक्त मनोविकारों की अपूर्ण भाषिक अभिव्यक्ति है। कभी-कभी पूरा वाक्य या 
. वक़्यांश भी सनोभावबोधन का काम करता है, यथा--क्या कहना ! बहुत अच्छा! 
क्या बात है ! धन्य महाराज ! स्वनाश हो गया ! मरी री ! चल हट, निपूती ! 





348 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


आदि । सभी मनोभावबोधक वाक्यों, वाक्यांशों को विस्मयादि बोधक अव्ययों की 
श्रेणी में नहीं रखा जा सकता । द 

8. उपसगं--(इन की चर्चा “शब्द तथा रूप व्यवस्था” खण्ड के अध्याय |) 
शब्द-रचना' में की जा चुकी है ।) 


9. प्रत्यय--(इन की चर्चा 'शब्द तथा रूप व्यवस्था” खण्ड के अध्याय !? 
शब्द-रचना' में की जा चुकी है ।) 
0, निषात--वे सहयोगी अध्यय जिन से वाक्य या उस के किसी अंग को 
विशिष्ट अथ॑च्छटा प्राप्त होती है। निपात का प्रयोग किसी शब्द, एदबन्ध या उप 
वाक्य विशेष को अतिरिक्त भावार्थ (बल या विशिष्टता) प्रदान करने के लिए किया 
जाता है, यथा--ही, भी, तो, न आदि । (डॉ० वी. रा. जगरन्ताथन ने 'प्रयोग और 
प्रयोग” में केवल सात निपात माने हैं-- ही, भी, तो, तक, न, भर, भला। इन में 
ही, भी, तो, तक' उपवाक्य या वाक्य स्तर से ऊपर के प्रयोग हैं। संवाद-स्तर पर 
इन से दो वाक्यों का अन्त:संबंध व्यक्त होता है। बिना सन्दर्भ के सरल वाक्यों 
मैं इन का प्रयोग नहीं होता । “न, भर, भला सरल वाक्य|उपवाक्य के भीतर था 
सकते हैं क्योंकि ये उस उपवाक्य के कथन को विशिष्ट अथे प्रदान करते हैं ।) कभी- 
कभी कुछ निपात कुछ व्याकरणिक प्रकायें भी कर सकते हैं। अन्य सहायक शब्द- 
भेदों (परसगं, समुच्चयादिबोधक) से निपात इस रूप में भिन्‍न हैं कि उन का निश्चित 
व्याकरणिक प्रकार्य होता है। वे वाक्यों में शब्दार्थी-वाक्यगत संबंधों की सिद्धि 
करते हैं, जबकि निपात अभिधान (#7०7्रांग्रध/४८) प्रकार्य नहीं करते, अतः ये 
अपने सामान्य प्रयोग में वाक्य के अंग नहीं बनते। जिन निपातों का संज्ञाकरण 
होता है, वे वाक्य के निश्चित अंगों का कार्य करते हैं, यथा--तब सब उस वी 
“हाँ में हाँ मिलाने लगे । तुम “न' नहीं कहोगे । इन में “हाँ में हाँ', “न” निपात नहीं 
संज्ञावत्‌ प्रयुक्त हैं। निपात सहयोगी अव्यय होते हुए भी मृल वाक्य-संरचना के अंग 
नहीं बनते, बल्कि वे अपनी प्रयोग-विशेषता के कारण वाक्य के समग्र अर्थ को 
प्रभावित करते हैं। निपातों की सहायता से प्रश्न, अस्वीकृति/नकारता, भावनात्मक 
रुख, बल आदि की अभिव्यक्ति होती है, यथा--बच्ची सो गई है न ? (प्रश्न), मैं 
कल सारी रात नहीं सोया । (नकारता), कया सुन्दर फूल है ! (भावनात्मक रुख), 
तू अभी तक यहीं बैठा है। (बल) । निपात वाक्य में ध्यानाकषित शब्द/शब्दबंध 
के पूर्व या पश्चात्‌ आ सकते हैं। ये संबंधित शब्द के साथ आए परसगं से पू्व या 
. पश्चात्‌ आ सकते हैं, यथा--मुझ तक को तो उस ने बुलाया नहीं । यही हाल हमारे 

घर का भी है । जटिल परसगों के घटकों के मध्य भी निपात आ सकते हैं, यथा-- 
: छात्र प्रोफेसर के भी खिलाफ नारे लगाते रहे। शब्दबंधों या क्रिया के विश्लिष्ट 


.. रूपों के अर्थ पर बल देने के लिए एक/दो/तीन निपात संबंधित शब्दबंध/क्रियापद के 





३ घटकों के मध्य आ सकते हैं, यथथा--क्या आज दिन भर सोते ही रहोगे ? आज 














अव्यय | 349 


हम पाँच-छह किलोमीटर पैदल चल कर भी तो आए हैं। सिवाय इस के मैं कुछ 
कर भी तो नहीं सकती । 

विवरण की दृष्टि से निपात वाक्य के आरश्भ में, अन्त में और वाक्य-मध्य में 
ध्यानाकर्षित शब्द/शब्दबन्ध के पूर्व या पश्चात्‌ आ सकते हैं। कुछ निपात (यथा-- 
मात्र, ही, भर) सीमाबद्धक होते हैं तथा कुछ (यथा--भी, तो, तक) समाहारक । 
मिरुक्‍्तकार यास्क के अनुसार “निपात” शब्द के कई अर्थ हैं, इसीलिए ये निपात 
कहलाते हैं--उच्चावच्चेषु अर्थेष्‌ निपातन्नीति निषाता: (नि० /2)। निपाद पाद-पूरक 
भी होता है--निपाता: पादपुरण:। निपात लिंग, वचन की दृष्टि से उदासीन 
होता है क्योंकि यह अव्यय वर्ग का है। यास्‍्क ने तीन प्रकार के निपात बताएं हैं-- 
उपमार्थक, कर्मोपसंग्रहाथंक, पदप्रणाथंक ।. निपातों में प्रयोग-सन्दर्भ से सार्थकता 
उत्पन्त हो जाती है। निपातों को शुद्ध अव्यय भी नहीं कहा जा सकता क्‍योंकि 
संज्ञादि के साथ प्रयुक्त अन्य अव्ययों का अपना अर्थे होता है, किन्तु निपातों का प्रयोग 
निश्चित शब्द, शब्दबंध[पदबन्ध, वाक्य को विशेष भावाथ प्रदान करने के लिए 
होता है। निपात सम्बद्ध शब्दादि को निम्नलिखित अथ्थे-वेशिष्ट्य प्रदान करते हैं--- 
(() स्वीक्षति (हाँ, जी, जी हाँ, हाँ जी (2) अस्वीकृति (नहीं, जी नहीं, नहीं 
न, ता, ताहीं, भला), (3) निषंध (मत), (4) प्रश्न - (क्या, क्‍यों, न, ता), (5) 
विस्मय (क्या, काश), (6) तुलनाथंक बल (सा), (7) आदर (जी), (8) 
ध्यानाकषंक सीमा (भर, सिर्फ, केवल, मात्र), (9) बलाथंक सीमा (तो, ही, भी, 
तक, जो, न, ना) (१0) अवधारण (ठीक), (4) निर्देश (ले, लो) | अवधारणा तथा 
बल प्रदात करनेवाले निपातों को “प्रबलक” भी कहते हैं । अस्वीकृति सूचकों को 
नकारात्मक' भी कहा जाता है । 

. हिन्दी वाक्यों|वाक्यांशों में एक से अधिक निपात आ सकते हैं, यथधा--आप 
नें ही तो ऐसा कहा था। आप (/हम) को भी तो वहाँ जाना है। तुम ही क्‍यों, वह 
भी तुम्हारे साथ जाएगी। पिता जी तो चलेंगे ही, तुम भी चलो न ! इतने पैसों में 
तुम्हें किराये पर कोठी तो मिलेगी नहीं; हाँ, फ्लैट मिल सकता है। द 

निपात-प्रयोग--उपयु क्त निपातों में से कुछ (न, नहीं, ही, भी, तो) विभिन्‍न 
भाव, उद्गार व्यक्त करने के अतिरिक्त अनिश्चयवाचक स्ंनाम, क्रियाविशेषण 
समृच्चयबीधकादि का कार्य भी कहते हैं। विभिन्‍न निपातों का प्रयोग इस प्रकार 
' होता है--- 
द () “स्वीकृतिवाच्ी निपात-प्रयोग--(क) प्रश्न का स्वीकारार्थंक उत्तर, 
कथन-पुष्टि, विचार का ठीक/सही होता आदि व्यक्त करते हैं तथा वाक्‍्या रम्भ में 
आते हैं। हाँ! से सामान्य स्वीकृति, यथा--तुमने खाना खा लिया ?--हाँ। वह भी. 
साथ चल रही है क्‍या ?--हाँ । (ख) हाँ” की पुनरक्ति स्वीकृति को और अधिक 
पशकक्‍्त बनाती है, यथा--सूरज छिपने तक लौट आओगे न ? --हाँ-हाँ, लौट आऊँगा 
. वायदा रहा। (ग) “जी” से सम्मानसूचक स्वीकृति, यथा--तुम ने खाना खा लिया ? 





--+्च 


350 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


-“-जी । वह भी साथ चल रही है क्‍या ?--जी । (घ) “जी हाँ सम्मानपर्वक स्वी 


कृति, यथा--तुम ने खाना खा लिया ?--जी हाँ। वह भी साथ चल रही है क्या? 
-जी हाँ । (3) हाँ जी' जी हाँ' का पंजाबी लहजा | (चर) है! कभी-कभी उत्तप । 


पुरुष के रूप में दिया गया स्वीकृतिसूचक उत्तर, यथा--सुन रही हो न ? हूँ। 


। 
। 
| 
| 
| 
। 





(2) अस्वीकृृतिवाची निपात-प्रयोग--सामान्यतः वाक्य के कथन को नकाखे 


(/अस्वीकार करने) के समय संक्षिप्त वाक्य (|वाक्यारम्भ, वाक्य-मध्य, वाक्यांत] 
में । (क) “नहीं निश्चयाथेक क्रियायुकत (खाता है, खा रहा है, खाया, खाएगा; है, 
चाहिए, सक, पा) वर्तमान, भूत के वाक्यों में इस का अधिक प्रयोग, यथा--पिम्रेमा 
देखने के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं ([थि) | तुम से जल्दी तैयार भी नहीं हुआ जाता । 
भुझे नहीं जाना तुम्हारे साथ । उन की बातें मुझे अच्छी नहीं लग रही हैं ((थीं) 
. (ख) भविष्यकाल तथा संभावना में नहीं” का प्रयोग अस्वीकृति को अधिक बलयुक्त 
बना देता है, यथा-- सर, वे नहीं उठेगे यहाँ से। सब से कह दो--तीन बजे तक,कोई 
मेरे पास नहीं (|न) आए । यदि वे नहीं आए (आते) तो परेशानी खड़ी हो सकती 
है (|खड़ी हो जाएगी) । (ग) सामान्यतः वाक्य के कथन को नकारने या वास्तविक 
माने जानेवाले व्यापारों/ तथ्यों की अस्वीकृति व्यक्त करते समय संक्षिप्त वाक्य में, 
यथा--तुम ने खाना खा लिया ?--नहीं । (अर्थात्‌ मैं ने खाना नहीं खाया है)। (ध) 
बोलचाल में संक्षिप्त उत्तरवाला नहीं, प्रतिवकक्‍तव्य का संज्ञा नहीं! कभी-कभी “ना! 


से स्थानापन्‍न, यथा--प्याला किस ने तोड़ा है ? तुम ने ?--नहीं (/ना)। पैसों के बारे. 


में उस ने नहीं (/ना) कह दिया। (3) वाक्यारम्भ का “नहीं किसी बात से हढ़ 
इन्कार या पूव॑वर्ती विचार की अस्वीकृति व्यक्त करता है, यथा--आइए, खाना 


खाइए---नहीं, मैं अभी-अभी खा कर आ रहा हूँ । तुम जहाँ चाहो, मैं वहाँ आ जाऊ-- 
नहीं, मैं ही तुम्हारे पास आ जाऊँगा, तुम्हें मेरे पास आने की जूछूरत नहीं है। में 


भी तुम्हारे साथ चलूँ--नहीं, तुम मेरे साथ नहीं अपनी माँ के साथ जाता। (च) 
स्वतन्त्र रूप में नकाराथंक उत्तर, यथा--तुम डॉक्टर हो ?--नहीं । (छ) साधारण 


वाक्य में विरोधसूचक सम्बन्ध व्यक्त करते समय, यथा--तुम इन्सान नहीं, हैवान हो । 


कल नहीं आज ही । (ज) कभी-कभी “नहीं-न' युग्म रूप समुच्चयबोधक के घठक के _ 
रूप में, यथा--उस के प्रश्न के उत्तर में मैं कुछ नहीं बोली, (और) न मैं ने उस से 
बैठने के लिए कहा । (झ) द्विपदी समुच्चयवोधकों के घटक के रूप में, यथा 


केवल नहीं'"''बल्कि; नहीं"“बल्कि आदि; यथा--उन्त के सामने दीन बन कर , 


नहीं, बल्कि एक मित्र के रूप में जा सकता हूँ । -(व्य) “कोई नहीं, कुछ नहीं, कदापि 


नहीं, कभी नहीं, कहीं नहीं! आदि में स्वेनाम तथा अन्य अव्ययों के सहकारी के रूप | । 
में, यथा--आप ने कभी बच्चों की ओर ध्यान नहीं दिया । (5) संज्ञाकृत रूप में, यथा. 
देखिए, अब 'नहीं' न कहिए (/(कीजिए)। (5) “नहीं जी विनम्र नकारात्मक 


.. उत्तर में, यथा--आइए, मेरे साथ कोठी में रहिए ।--जी नहीं, मुझे यहीं रुकने 


. दीजिए। (ड) “हीं जी” पंजाबी लहजे का प्रभाव। “न! प्रयोग के भी “नहीं के 











अव्यय | 35] 


समान विविध सन्दर्भ हैं, यथा--(क) साधारण वाक्य में विरोधसूचक संबंध व्यक्त 
करते समय क्रिया धातु से पूर्व, यथा--दूल्हा घोड़े पर न बैठ पैदल ही चलने लगा । 
(था) संज्ञाऊंत होते पर स्वतन्त्र रूप में, यथा--आज तुम्हारी 'न' (| ना?) नहीं 
सुनूंगा। देखिए, इस बार ना ((ता/नहीं) न कहना । (गर) "न कि', 'न केवल 

बल्कि' दृविषदी योजक के घटक के रूप में, यथा--मुझे मेरी बहन चाहिए न कि 
एक लाख रुपये | वह न केवल रजिस्ट्रार से बल्कि निदेशक से भी अकड़ कर बोलता 
है। (घ) अनिश्चयवाचक सर्वनामों, स्थानवाचक की पुनरुक्ति के घटक के रूप में, 
यथा--आइए, कोई-न-कोई तो दफ्तर में मिलना ही चाहिए । जल्दी ही हमें इस 
मामले पर कुछ-न-कुछ करना चाहिए। और ढूंढ़ो, कहीं-न-कहीं तो मिलेगी । (ह) 
अनिश्चयवाची स्वनाम, स्थानवाचक, कालवाचक के साथ, यथा--मन लगा कर 
पढ़ना, खच की कोई चिन्ता न करना ; मुझे कुछ भी सुनाई न पड़ा। मैं ने इस 
आदमी को पहले कभी देखा न था। ऐसी साड़ी तुम्हें कहीं न मिलेगी । (च) कुछ 
मान लेने ((अभिधारणा) के अथ्थ में न सही*, यथा-- ठीक है, तू न सही, तेरी मां 
ही सही । स्कूटर न सही, फ्रिज ही सही । (छ) प्रकारतासूचक शब्द जाने” के साथ 
यथा--न जाने में उस की ओर क्‍यों झुकती चली गई । (ज) वस्तु/व्यापार का चरम 
लक्षण व्यक्त करनेवाले सति .अर्थक्ष उपवाक्य में, यथा--गोपन भी मानव-स्वभाव 
का एक अंग है, चाहे यह कितना ही उचित या अनुचित क्‍यों न हो । (झा) पुनरुक्‍्त 
समुच्चयबोधक न न के घटक के रूप में, यथा--त तुम मेरे घर आये (और) न 
मुझे अपने घर बुलाया । '(ज्ञ) परोक्ष विधि में निषेध, कम दृढ़तापृर्वक अस्वीकति 





महीने से मतीऑडर न भेजना (भेजिए) । मेरी समझ में उन की चुहलबाजी न आ 
सकी। मंसूर में तुम अकेली न रह सकोगी। बच्चे के जन्म दिन पर मुझे 
बुलानां न भूल जाता (/भूलिए/। भूलिएगा) । (यदि) तुम न बताते, तो वह मेरे बारे में 
न जात पाता। (5) हाँ-अपेक्षी” प्रश्नयुक्त वाक्यान्त में, यथा--खाना बन चुका है 
न ?--(जी हाँ) | भला प्रयोग--(क) अस्वीकृतिसूचक वाक्यान्त में, यथा--बे चारी 
बच्ची इस के बारे में क्या जानती है ? (अर्थात्‌ बेचारी"''में कुछ नहीं जानती; तुम 
क्या करोगे भला ?-- (अर्थात्‌ तुम कुछ नहीं कर सकते) । 
(3) निषेधवाची निपात 'सत' का प्रयोग--(क) “मत” आज्ञा (प्रत्यक्ष तथा 
परोक्ष विधि) के साथ किसी क्रिया-व्यापार का निषेध करते समय, यथा--त्‌ वहाँ 
मत जा (/जाना) । उसे बहुत जोर से मत डाँटना । (तुम) उधर मत जाओ । बोलो 
मत, चुप रहो । मुझ से मत बोलो । मुझ से बोलो मत। (ख) 'मत' का स्थान 
बदलने पर अर्थ में प्रसंगगत कुछ-न-कुछ अन्तर आ जाता है, यथा--तुम मत जाओ 
(सामान्य निषेध), तुम जाओ मत (कठोरता युत निषेध) । (ग) आप के साथ 'मत 


के स्थान पर न का प्रयोग ही अधिक प्रचलित । “आप हमारे साथ मत आइए जैसे 
प्रयोग क्षेत्रीय /व्य क्तिबोलीगत हैं । द 








352 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(4) प्श्नसूचक निपातों का प्रयोग--(क) क्या” वाक्य का प्रश्नसूवक 
अर्थ व्यक्त करते समय सामान्यत वाक्यारम्भ में, किन्तु अधिक बल देते समय 
वाक्यांत में, यथा--क्या, यह कुर्ता है ? यह कुर्ता है क्या ? कोई विशेष बात थी 
क्या ? (ख) 'क्यों' का प्रयोग सामान्यतः: बराबर के या छोटे व्यक्ति के सन्दर्भ में 


संबोधनाथे, यथा--कक्‍यों बेटे, सोते ही रहोगे ? क्‍यों भोलू, आज सब्जी नहीं लाओगे? 


क्यों प्यारे, आज तो बड़े ख श नजर आ रहे हो ? (ग) “न” प्रश्ववोधक सुर तथा पृण्ण 
विश्वास भाव के साथ स्वीकृतिपरक उत्तर की आशा में, यथा--ये सन्‍्तरे मीठे ँ 
व्‌ ? (जी हाँ, बिल्कुल मीठ हैं) । वक्‍ता के अनुतान के अनुरूप प्रश्नबोधक सुर तथा 
शंकायुत भाव के साथ उत्तर की अपेक्षा में, यथा--तुम जाग रही हो न? (नहीं 
मुझे नींद आ रही है) ? हलके-से प्रश्त-भाव तथा कथन की निश्चितता|अनिश्चितता 


(|विश्वास|सन्देह) व्यक्त करते समय, यथा--मैं अभी पढ़ रहा हूँ न ? कल तुम बीमार. 


थींन ? 

(5) विस्मयादिबोधक निपातों क्या, काश का प्रयोग--(क) कथन में 
अधिक अभिव्यंजना लाने या' अधिकता बोध के लिए 'क्या', यथा--क्षया खूबसूरत 
घोड़ी है ! वह स्वयं को न जाने क्या समझती है ! (ख) कथन में अधिक अफसोस 


भावना लाने के लिए "काश, यथा--काश, शास्त्री जी ताशकन्द न गए होते ! काश, 


कि ऐसा न हुआ होता ! 


(6) तुलनारथोी बलसूचक निपात सा का प्रयोग--(क) सा! लिंग, वचन _ 
तथा कारक के अनुसार से, सी” बनने के कारण साहश्यवाची विशेषणवत्‌ । इस का _ 


प्रयोग तुलना, समानता, अनुरूपता, समरूपता पर विशेष बल देता है, यथा--तुम्हारा- 


सा घर; काली-सी पेन्ट; तुझ-सा नालायक; इस छोटे-से गाँव में; इस माभूली-से काम 


में; बड़ी-सी इमारत के पीछे (ख) कभी-कभी परसगं की भाँति आ कर सा पू्व॑वर्ती 
शब्द को विकारी बना देता है, यथा--लड़कियों-सी चाल; बच्चों-सा खेल; तुझ-सा 
लड़का; तुझ-सी कोई न थी। तू और वनौकरों-सा नहीं है। (ग) का/कीकि 
के पश्चात्‌ सहशता व्यक्त करने के लिए, यथा--यह बच्चा तुम्हारे पड़ोसी का-सा 


लगता है । यह कमीज मुझे उस की-सी लगती है। ये लोग रूस के-से लगते हैं। (घ) 


विशेषणों के गुण/मात्रा को और सशक्त बनाने के लिए, यथा--बड़ा-सा, बहुत-सा, 
थोड़ा-सा, छोटा-सा । (डः) पुनरुक्त संज्ञा के मध्य सामान्यता” का अर्थ देने के लिए, 
यथा--लड़का-सा लड़का नहीं है, और बातें इतनी बड़ी-बड़ी करता है कि"“। मित्र- 


सा मित्र, घर-सा घर, किताब-सी किताब । (च) कृदन्तों के साथ 'प्रतीति' जेसा अथ 


देने के लिए, यथा--आप कुछ थक-से गये हैं । धरती खिसकने-सी लगी । उसे कहीं 
देखा-सा है। लड़की लजा-सी गई। वह पलंग पर लुढ़क-सा पड़ा। अपरिचित[ 
_ परिचित-सा चेहरा; घबराई हुई-सी; डरे हुए-से, बुझी-बुझी-सी अधखुली आंखें, काँपती 


.. हुई सी; खोई-खोई-सी, झुझलाए हुए-से । 


(7) आदरसूचक निपात “जी' का प्रयोग--(क) व्यक्तिवाचक, जातिवाचक 











अव्यय | 353 


संज्ञा, उपाधि, पद, आस्पद सुचित करनेवाले शब्दों के बाद आदर प्रदर्शनाथ, यथा 
--रामलाल जी, गान्धी जी; माता जी; शर्मा जी; गुरु जी; वैद्य जी; बाबू जी 

दा जी, पंडित जी; मोटेराम जी (ख) “जी' का प्रयोग शब्द में आदरार्थ बहुवचन 
का भाव ला देता है। (ग) स्वतन्त्र प्रयोग भी, यथा--जी, अपना बच्चा अपने 
पास ही रखिए । जी, मैं इस समय एक विशेष काम से यहाँ आया हूँ। क्‍यों जी, 
तम यहाँ क्या कर रहे (/रही) हो ? 

(8) ध्यानाकर्षक सीमासूचक निषातों का प्रयोग-- भर (क) निपात के 
रूप में जिन शब्दों के बाद आता है उन की पूर्णता, समग्रता या सीमितता का ताकिक 
बोध कराता है, यथा--दिन भर काम करते-करते वह थक जाता है। दुनिया भर 
के आँसू उस की आँखों में भरे हुए थे । उसे अपनी किताब भर देना, नोट्स नहीं । 
अगर आप को कहीं गलत लगे तो आप बता भर दें। इस मामले में तुम्हारा खड़ा 
होना भर काफी है। इन लोगों को एक बार का खाना भर मिल जाए, फिर तो 
येसिर पर ही चढ़ता चाहते हैं। (ख) समस्त, सारा के अर्थ में भर”, यथा--घर 
भर में छान मारा | तुम्हारे दिमाग में दुनिया भर की खूराफातें भरी हुई हैं। (ग) 
.. भरना < भर, यथा--पेट भर खाओ, मन भर नहीं । केवल, सिफ (क) जिन शब्दों 

के पू॑ आते हैं, उन्हें तारिक बल प्रदान करते हैं, यथा--मैं केवल इस बारे में 
थोड़ी-सी जानकारी चाहता था। वह सिफ उसे देखना चाहती थी। तुम सिफ एक 
चक्कर भर लगा जाया करना । हम यह जानते हैं कि तम्हारी उस से सिफ मला- 
कातव भर है। मात्रा (क) अधंप्रत्यय 'मात्र' का प्रयोग परिसीमन हेतु, यथा--भारत 
का चीन के साथ मात्र सीमा विवाद है । एकमात्र, जलमात्र, प्रयोगमात्र, जीवमातन्र । 


(9) बलाथंक सीमासूचक निपातों का प्रयोग--तो” (क) किसी शब्द/शब्द- - 
बंध के बाद आ कर उसे और अधिक सशक्त बनाने के लिए, यथा--खा तो रहा हूँ । 
तुम तो मेरी बात भी नहीं सुनते । (ख) वाक्य के प्रारम्भिक शब्द के रूप में पिछले 
वाक्य के कथ्य के आधार पर योजक/प्रासंगिक शब्द की भाँति, यथा--तो यह बात 

थी। तो अब हम लोग चलें । तो वे आज ही आ रहे हैं। तो तुम जाओगे ही । (ग) 
. कभी-कभी व्यधिकरणं वाक्यों के उपवाक्यों के मध्य समुच्चयबोधक के रूप में 
यथा--आप ने कहा होता तो वह अवश्य आती ।. (घ) आदेशात्मक वाक्य की क्रिया 
के साथ आदेश, अनुरोध के अथे को सशक्त बनाते हुए अभी” के अर्थ में, यथा--- 
फिर पढ़ो तो; सुनो तो; लीजिए, देखिए तो सही । देखो तो, बाहर कौन खड़ा है ? 
(ड:) प्रश्नवाचक वाक्य में 'सन्देह, असमंजस, आशंका” का भाव व्यक्त करने के लिए 
.. यथा--चघर में ख रियत तो है ? तुम पास तो हो गए ही होगे ? बच्चों ने आप को _ 
. तकलीफ तो नहीं दी? आप दःखी तो नहीं हैं न? (च) तकारात्मक वाक्य में 
अनुमान का भाव व्यक्त करने के लिए, यथा--वह बीमार तो नहीं है । तुम पागल 
तो नहीं हो गई हो । (छ) वक्तव्य में कथित! प्रस्तावित बात का प्रतिवक्‍तव्य में खण्डन 





354 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


करते समय या अपनी ओर से विकल्प की पुष्टि के लिए, यथा--तुझे सच-सच बताना 
होगा--मैं तो कुछ नहीं बताऊगा । कल हमारे घर खाना खाइए---कल मुझे कहीं बाहर 
. जाना था, आप कह रहे हैं तो आप के यहाँ आ जाऊंगा। मैं चाय नहीं लेता-- 
तो शबंत चल सकता है न ? (ज) क्या” सही, यों, और” आदि शब्दों के साथ वा. 
कर मुहावरेदार प्रयोगों की रचना, यथा--नहीं तो; और तो और; फिर तो । जल्दी 
जाओ, नहीं तो गाड़ी निकल जाएगी । क्‍या तो, तुम भी वहाँ नहीं गए ? मैं आता 
तो सही, लेकिन मेरी गाड़ी ही छूट गई थी । यों तो वह मुझे अपना मित्र कहता है 
किन्तु । और तो और वह रात में भी घर में नहीं रुकता । कहने को तो वे मुह से. 
एक भी शब्द नहीं बोलते, लेकिन*“। हो” (क) यह प्रबलक जिस शब्द|पदबख 
. के पश्चात्‌ आता है उसे और अधिक सशक्त बना देता है। एक प्रकार से यह कही 
गई बात की पुष्टि करता है, यथा--उन्हों ने बहू को मार ही डाला । तुम जाओगे -.. 
हाँ, मैं ही (वहाँ) जाऊँगा | दूध लोगे ?--दूध ही नहीं बिस्किट भी लाओ। कत्र 
किधर जा रहे थे, ससुराल ? हाँ, ससुराल ही जा रहा था । (ख) ही परसर्ग से पूर्व॑ 
या पश्चात्‌ भी प्रयुक्त, यथा--तुम्हारे लड़के ही ने ऐसा' कहा था । तुम्हारे लड़के ने ही 
ऐसा कहा था। (ग) 'केवल' जेसा अर्थ, यथा--आज चार ही छात्र आये हैं। (घ) 
क्रिया-व्यापार की निश्चितता/पूर्णता, यथा--तुम इधर आए ही क्यों थे ? बरे, मैं. 
कमरे की चाबी तो भूल ही गया था। मैं ने यह पुस्तक पढ़ ही ली। सभी लोग इस 
प्रस्ताव का स्वागत ही करेंगे । सभा में सभी गण्यमान लोगों को हम देख ही लेंगे । आज _ 
तो वह चला ही जाएगा । (ड)) “जब तक, ज्योंही' जेसा अर्थ, यथा--मैं ने रेडियो खोला _ 
ही था कि बिजली चली गई | वह खा ही रहा था कि चील ने झपटुटा' मार दिया। 
वे आलिग्रित होने को ही थे कि दो लोग उधर आ निकले । (च) नहीं, ज्यों, ज॑से, 
थोड़े, साथ, कसा, कितना, जितना, शायद” आदि शब्दों के साथ संयुक्त, द्विपदी 
मुच्चयबोधक के रूप में, यथा--वह खाता ही नहीं । उस ने मुझे खाना ही नहीं 
दिया बल्कि कपड़े भी दिए । ज्यों ही उस ने पति की मृत्यु का समाचार सुना त्यों ही 
वह बेहोश हो गई । ज्यों ही उसे लॉटरी का नम्बर मिला, वह एकदम उछल पड़ा। 
जसे ही वह आए, साहब के पास भेज देना । जैसे ही मुझे उस पर विश्वास होने 
लगेगा, मैं उस की मदद करना शुरू कर दूँगा। अब तुम थोड़े ही मुझे पहचानोगी ? 
उस ने थोड़े ही पैसे चुराये थे । क्या मैं ने तुम्हें इतने रुपये यों ही दे दिए थे ? बच्चों 
को अच्छी शिक्षा देने के साथ ही तुम्हें अपनी परिस्थिति का भी ध्यात रखना. 
चाहिए। कसी ही मजबूत साड़ी क्‍यों न हो, वह छह महीने में फाड़ डालती है। 


. कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो, लोभ की कोई-न-कोई मात्रा उस में होती ही है। 


भले ही तुम मुझे भुला दो मगर मैं तुम्हें नहीं भुला पाऊंगी । जितना ही वह सभलने 


पा की कोशिश करता, वह गिर-गिर जाता था । देखते ही देखते बादल घिर आए | साथ _ 
..._ ही साथ उसे ट्यूशन भी करने पड़ते थे। बच्चे मन ही मव खुश हो रहे थे। आप . 





.. की यह आशा शायद ही पूरी हो पाएगी। (छ) “थोड़े ही, भले ही, शायद ही. 





अव्यय | 355 


मुहावरेदार प्रयोग प्राय: नकारात्मक अर्थंसुचक हैं । भी (क) जिस शब्द या पदबन्ध 
के पश्चात आता है, उसे बल प्रदान करने के साथ-साथ 'के अतिरिक्त" भाव का बोध 
कराता है। यह कथन का दूसरे सन्दर्भ में विस्तार करता है, यथा--वह हमें भी 
सिनेमा दिखाएगा । तुम जाओगी तो मैं भी जाऊँगा । उसे मेरी डाँट की भी चिन्ता 
नहीं है । क्या आप भी चल रहे हैं ?--हाँ, मैं भी चल रहा हूँ। तुम कल भी अनु- 
पस्थित थे | शायद वह उसे पसन्द भी नहीं करेगी । पड़ोस के शर्मा जी कलर टी-वी. 
ले आये हैं, आप भी वसा ही ले आइए न! (ख) क्रिया-व्यापार की असमाप्ति, 
आग्रह भी, यथा--अभी मुझे नींद भी नहीं आयी थी कि बारह की सीटी बज गई । 
अरे यार, बैठो भी । अब छोड़िए भी इन बातों को । (ग) और' तो, फिर, पर, जो, 
कोई, कुछ, कितना, कैसा” आदि के साथ, यथा--बच्ची का रोना और भी बढ़ गया 
था। उस के मन में भी तो वही डर बंठा हुआ है। फिर भी वह उस पर अपनी 
जान न्‍्योछावर करती थी । मेरी फटकार पर भी उस ने वहाँ जाना नहीं छोड़ा । 
गे भी काम देंगे, उसे खशी से करूगा । कोई भी मेरी बात को नहीं समझ सका । 
कुछ भी हो, वह तुम्हारा कहना नहीं टालेगा । कितनी भी खर्च में कमी करो, पाँच 
सौ से कम नहीं लगेंगे । कसा भी छोटा काम क्‍यों न हो, मन लगा कर करना ही 
चाहिए । डी० लिट॒ु० होते हुए भी उस में विषय की गहराई नहीं है । मार खा कर भी 
बच्चा चुप नहीं हुआ । (घ) नकारात्मक वाक्य में पार्थथ्य की अथेच्छठा, यथा--- 
भ्षर्पेट खाना नहीं मिलता, माँ को भी और बच्चे को भी। तक (क) जिस शब्द 
के पश्वात्‌ आता है, उसे बल प्रदान करने के साथ उस की सीमा भी निर्धारित करता 
है, यथा--उप्त ने तो मेरी बात तक नहीं सुनी । मैं ने तो बटुआ देखा तक नहीं । तू 
तो क्या तेरा बाप तक भाग कर नहीं जा सकेगा । मेरे घर से स्कूल तक की दूरी दो 
किलोमीटर है । (यहाँ तक” का परसर्गीय प्रयोग है।) “जो' (क) वाक्य में किसी 
भी शब्द-भेद के अर्थ को सशक्त बनाता है, यथा--साथी जो आप का समर्थन कर रहे 
हैं; आप ने पहले वचन जो दिया था; हाँ, माँ ! में देवी का प्रसाद जो लाई हूँ; तुम 
उन दिलों मुझ से दूर-दूर जो भागते थे; मैं पापिन जो हूँ; तू अकेली जो है; मैं ने कह 
जो दिया कि आज मैं सारी रात काम करूगा । आधी रात गए जागती जो रहती 
हो | तुम्हारे साथ इस बार पिक्चर जो देखती है। 'न|ना' (क) इन का प्रयोग शब्द| 
_ शब्दबंध के साथ न हो कर पूरे वाक्य के साथ होता है। (ख) स्वीकाराथक वाक्यान्त 
में आए, न, ना! स्वीकृत बात के अर्थ पर जोर डालते हैं, यथा--पिता जी ने कहा 
न कि मैं तुम्हें सिनिमा ले जाऊ। आज तक वह तुम्हारी मित्र थी न॥ तुम डॉ० शर्मा 
_ की पोती हो ना (|न) । शराब पी कर गाड़ी चलाओगे तो दुघंटता तो होगी ही न। 
.. उस दिन तुम मेरे पास आए थे, आठ तारीख थी न । (ख) विधि वाक्यों में “न, ता. 

. आदेश, आज्ञा, अनुरोध के अथे पर बल देते हैं, यथा--आओ यार बेठछो न! आओ 
ना! आप तो मास्टर हैं, अब आप ही इसे समझाइए न ! कह, 








356 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(0) अवधारणा सूचक 'ठीक' संबंधित शब्द से पूर्व या अकेले आ कर 
यथातथ्यता या सटीकता के अर्थ पर विशेष बल देता है, यथा--सौ ही भिन्न 
टीक ?--ठीक । नहीं” ठीक नहीं है तो 'हाँ? ही कब ठीक है ?--ठीक है न? 

(|) निर्देशात्मक लि लो, लीजिए! किसी व्यक्ति/वस्तु को इंग्रित करते हैं 
यथा--लो, इतनी जल्दी खाना भी. तैयार हो गया । लीजिए, वे दोनों इधर ही 
चली आ रही हैं। लो, (देख बे), अब आएगा मजा, दोनों (ही) बराबर हे 
पहलवान हैं । द | 





33 2523355% 


|] 
"ः | 
! दे 
<ा 
0, 
2. 
20 


शब्द-प्रयोग सतकंता 


छइललबचपरत कर: 








५अफ्दाकाधफलक, 


भाषा का प्रयोग समाज में होता है | प्रत्येक समाज की कुछ मान्यताएं होती 

हैं जिन का पालन भाषा-व्यवहार में भी किया जाना अनिवाय है, यथा--“थन” शब्द 

का प्रयोग केवल पशु-मादा के सन्दर्भ में ही होता है, जबकि 'स्तन' शब्द का प्रयोग 

तारी के सन्दर्भ में (कभी-कभी पशु-मादा के सन्दर्भ में भी) होता है । हिन्दी को 

दूसरी या अन्य भाषा के रूप में सीखनेवालों को तो इस दृष्टि से विशेष सतक॑ रहने 

की आवश्यकता है क्योंकि विभिन्‍न भाषाओं के सम्पर्क से कभी-कभी सीखी हुई और 

सीखी जानेवाली भाषा में (लगभग) समान उच्चारण !वतंनीवाले ऐसे शब्दों का प्रयोग 

होता है जिन के केन्द्रीय अथे/भभिधार्थ भिन्‍न-भिन्‍न होते हैं, यथा--पशु (हिन्दी 

अथ चौपाया; मलयालम अथ' गाय”), संसार (हिन्दी अर्थ “विश्व”: कन्‍्नड अर्थ 

परिवार”), शिक्षा (हिन्दी अथे “80प्८थ४07'; मलया०, कन्‍्नड अथे “दण्ड'), लोटा 

(हिन्दी अर्थ घड़े के आकार का श्वातु का बहुत छोटा बतेन, कनन्‍नड “धातु 

का ग्लास!) । इसी प्रकार के बीसियों शब्द दो भाषाओं में भिन्‍तार्थी रूप में मिल 

सकते हैं जिन की अर्थ-भिन्‍नता के आधार पर प्रयोग-सन्दर्भ में भी भिन्‍नता रहना 

अनिवाय है । द 

भय, आशंका, घछृणा/जुगुप्सा, लज्जा/शमं, आदर आदि के कारण अनेक 

वस्तुओं|क्रिया-व्यापारों/विचारों को हम सीधे या सामान्य शब्दों में प्रकट न कर 

संकेतात्मक रूप में या घुमा-फिरा कर दूसरे शब्दों में व्यक्त करते हैं । इस प्रकार का 

कथन “अव्यक्त कथन|सांकेतिक कथन|तियेक्‌ कथन '8एणा८ण्रंआ7!' कहलाता है। 

इस प्रकार के कथन में वरजित शब्दों 'टेव्‌” के प्रयोग से सामाजिक मान्यताओं के 
अनुरूप बचना पड़ता है। वर्जित शब्द प्रयोगकर्ता/समाज के स्तर-भेद के अनुसार 

भिन्‍त-भिन्‍न हो सकते हैं, यथा--'मुतना', पेशाब करना, लघु शंका करना, बाथरूम 

जाता! में क्रमशः शिष्टता-वृद्धि अनुभव की जाती है। ठदूटी (--आड़|पर्दा/टटिया), 
पाखाना (>-पेर रखने का स्थान), जंगल जाना, दिशा जाना, मल त्याग, शौच... 
न शुद्धि) जाना, स्टूल जाना, टॉयलेट - जाना, फ्रागत (क्त छुटकारा) » मेदान 3 मे 








358 ! हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


जाना, पोखरे जाना, बड़े घर जाता, विलायत जाना, नं० 2 के लिए जाता हत्का 
हो लेना', शब्दों के प्रयोग में याहच्छिकता देखी जा सकती है। 
भूत को हवा; साँप को रस्सी/कीड़ा; चेचक को माता; वैधव्य को सुहाग 
लुटना माँग पुछता|घर-संसार लुटना; मृत्यु होना को चल बसना/गुज्र जाना; 'मैं ऐसा 
रूगा/|कर सकता हूँ के अहं से बचने के लिए “भगवान ने चाह्म' तो ऐसा 
हो जाएगा|[सकता है! ; भगवान की/उस की कृपा से” कहना समाज स्वीकृत 
मान्यताओं का अनुपालन है। आदर भाव, उम्र, पारिवारिक सम्बन्ध आदिद्वे 
कारण दूसरों के भाई, बहन, भाभी, चाची, चाचा, माँ/माता, ताऊ, ताई, मौसी 
बाबा, पिता आदि को इन्हीं शब्दों से स्वयं भी सम्बोधित करना । सामान्य त्ोगों 
में पति-पत्नी का आपस में नाम न' लेना; स्वयं कहने को अज्‌ (+-निवेदन) करता 
हैँ, दूसरे से कहने के लिए 'फ्रमाइए!' (#>>आज्ञा दीजिए) कहना। अपना घर 
ग्रीबखाना', श्रोता का घर दौलतखाना; स्वयं/खुद 'नाचीज” और श्रोता हुब्र' 
है। मर जाना के लिए स्वर्ग सिधारना; खुदा को प्यारे होना; हमें अनाथ कर 
जाना; राम की (श्री) चरण-पादुका (“चप्पल/जूता' नहीं) होती हैं। चरणोदक 
(>5परों से छुआ पानी); भोग लगाना; दिव्य दर्शन आदि शब्दों|शब्दबंधों का 
प्रयोग-व्यवहार समाज-स्वीकृत है । ४७ 
वर्जता की भावना शिक्षा, विवेच्य विषय, सामाजिक स्तर, विश्वास”“आदि 
के अनुरूप परिवर्तित हो जाती है। छोटे बच्चों का खेल-खेल में, अशिक्षित[गँवार 
लोगों का झगड़ते समय यौनांगों से संबंधित शब्दों का प्रयोग करना; पढ़े-लिखे 
लोगों दवारा चेचक; लिंग, योनि (शिष्ट पारिभाषिक शब्द बन जाने के कारण) 
शब्दों का प्रयोग करता॥ कभी-कभी जो शब्द एक भाषा में शिष्ट होता है, अन्य 
भाषा में वह वर्जित शब्द होता है, यथा-- कुडी” (दक्षिण की तीन भाषाओं में 
चतड़') का प्रयोग इन भाषा-भाषियों के मध्य धड़ल्ले से नहीं किया जा सकता। 
इसी प्रकार के अन्य दरस्सियों शब्द हो सकते हैं। भाषा-व्यवहार के समय वक्ता, 
श्रोतः अपनी समस्त मान्यताओं तथा भावनाओं से युक्त होते हैं। डालना, घुर्ता _ 
देना' जसे कुछ शब्द प्राय: वर्जित शब्द हैं। इसी प्रकार “कद्दू, सीताफल, कुम्हड़ा, 
काशीफल; घीया, लौकी” जैसे शब्दों के प्रयोगों में प्रादेशिक तथा सामाजिक _ 
अन्तर है। द 
किसी शब्द का सन्दर्भो चितसही अर्थ जाने बिना या जल्दी में गलत सन्दभ 
में उस शब्द का प्रयोग करना शब्द-भ्रांति ((६॥8०॥7८३5) कहा जाता है, यथा-- 
किसी जीवित व्यक्ति को श्रद्धा' के स्थान पर 'अ्रदर्धांजलि' अपित करना । 'संस्था- 
संस्थान, दुःखी-शोकाकुल', “जाग्रत-जागरूक” जैसे तथाकथित पंडिताऊ शब्दों के 


... प्रयोग के समय प्राय: इस प्रकार की भूलें होने की अधिक संभावना है। पंडिताऊ 


. शब्दों (९६०8० फ्०१5), यथा--“ज्वर, गृह, ऊष्मा, दंत” आदि शब्दों का 


बा _. देनन्दिन ब्रोलचाल में प्रयोग करना हास्थास्पद रहता है। स्वाभाविकता की दृष्टि से 








शब्द-प्रयोग सतकेता | 359 


इन के स्थान पर क्रमशः बुखार, घर, गरमी/गर्मी, दाँत” बोलना ही उचित है। 
दंत चिकित्सक पीड़ा/रोग” चल सकते हैं। सामान्य बोलचाल के सरल शब्दों के 
स्थान पर भारी-भरकम दुरूह (साहित्यिक, पारिभाषिक) शब्दों का अ्योग पंडिताऊ 
प्रयोग कहलाता है। इस प्रवृत्ति से बचने का प्रयास किया जाना चाहिए। कुछ 
विशेष विषयों के सन्दर्भ में प्रयोग किये जानेवाले पारिभाषिक शब्द (यथा--आपूर्ति, 
उपभोक्ता, मुद्रा-स्फीति, विनिमय) पंडिताऊ प्रयोग नहीं कहे जा सकते । 


कभी-कभी ईषत श्रत/वर्तंनी सम शब्दों के प्रयोग के समय शब्द-भंति 
(४४४००7ंभ7) हो जाती है, यथा--जपेक्षा-उपेक्षा, आदि-आदी, बूरा-भूरा, 
परिणय-प्रणय, महरूम-मरहम, विदुर-विधुर, शोक-शौक, सादा-साधा” जैसे शब्द- 
युग्मों के शुद्ध प्रयोग में भूलें हो जाती हैं। कभी-कभी शब्द के मूल को समझे 
बिता प्रयोक्ता अटकलवाजी से शब्द-भ्रान्ति की भूल (799]65$) कर बैठता है, यथा 
“-बनिया जो बन चुका है; लाभकर जो स्वयं का लाभ करता है; लाला जो हमेशा 
ला-ला करता है; दशरथ जिस के दसरथ थे” आदि। इस प्रकार की भूलों का मुख्य 
कारण लोक व्युत्पत्ति (?07 20970]029) से अधिक प्रभावित होना है । 


'कसम/सौगन्ध' के साथ खाना/खिलाना, देना/दिलाना का प्रयोग होता है । 
हिन्दी-समाज में कसम खाने के विविध रूप. प्रचलित हैं, यथा--भगवान/बच्चों 
की कसम या सौगन्ध,''; खुदा।ईश्वर/भगवान के नाम पर““; भगवान साक्षी है 
(जानता है) कि““आदि । कसम के तिकट का अर्थवोधक शब्द शपथ पारिभाषिक 
है । शपथपत्र” का पर्याय हलफूनामा' है। हलफ' के साथ उठाना का प्रयोग होता 
है और 'शपथ' के साथ लिना, दिलाना' का। किसी काम को करने का हृढ़ निश्चय 
प्रतिज्ञा|सिकल्प|प्रण/ कहा जाता है। प्रतिन्ना करता, संकल्प करना (/लेना), प्रण 
करना का प्रयोग होता है। प्रतिज्ञा के अर्थ में बचचन; वादा <; वायदा < वायदह का _ 
प्रयोग वचन देना, वादा करना, वचन या वादा याद दिलाना” के रूप में होता है । 
गलत या अनुपयोगी काम करने के बाद फिर कभी वैसा न करने की प्रतिज्ञा 'तोबा 
है जो तोबा ! तोबा !” या तोबा करना के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसे 


 'तौबा' भी कहते, लिखते हैं। 'लाभान्वितल्‍-लाभ से युक्त; लाभान्वित होना, 


लाभान्वित करना प्रयोग प्रचलन में हैं । 


.. श्रोता/विष्य॑ व्यक्ति|वण्यं वस्तु का अवबंगुण प्रकट करने या सम्बद्ध व्यक्ति 
का दिल दुखाने अथवा उस से असन्तुष्ट ((रुष्ट[पीड़ित) होने पर वक्‍ता गाली का 
. प्रयोग करता है । गाली तीखे व्यंग्य की भाँति चुभनेवाली उक्ति होती है लेकिन 

इस का अथ व्यंग्य की भाँति प्रच्छन्‍न नहीं होता । गाली में बड़े/महांत्‌ को छोठा या _ 


5 .. क्षुद्र बताते हैं, व्यंग्य में छोटे को बड़ा। पहले से तिरस्क्ृत, निकृष्ठ तथा निम्न दल हे 
_अभिधार्थ में प्रचलित शब्द गाली की शब्दावली में सम्मिलित कर लिए जाते हैं। 


.. गाली सूचक संज्ञा शब्द दुहरा प्रतीक होता है, यथा--गधा, गधे की दुम, बैल, 








360 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


उल्लू, कुत्ता, कुतिया, आदि । गाली दो रूपों में प्रयुक्त होती है--. प्रत्यक्ष कथन... 
संबोधन में, यथा--गधे, उल्लू, उल्लू का पद्ठा (संज्ञापद); कुए/भाड़ में जा (विधि 
वाक्य); तुम तो उल्लू हो (|गधे हो) । तेरा सत्यानाश हो । आदि (निश्चयाथे वाक्य| 
कहावत । 2. परोक्ष|अप्रत्यक्ष कथन, यथा--गधा, उल्लू (संज्ञा पद); भाड़[कुएं में 
जाए (संभावनार्थ वाक्य); वह तो गधा/उल्लू है (निश्चयार्थ वाक्य) । गालियों की 
आधारभूत शब्दावली कई वर्गों से संबंधित होती है, यथा--पशु बर्गें--गधा उल्लू 
सुअर|सुअर, कुत्ता, कुतिया, भैंस, ऊंट, बन्दर; गधे/बन्दर की दुम; गधे (उल्लू, . 
सूअर) का बच्चा (की औलाद) । सब्जी वर्गं--कद्दू, बेंगन, भिण्डी, टिण्डा । रिश्ते 

“साला, साली, ससुर/ससुरा, ससुरी, मामा, (बछिया के) ताऊ। पेशा--वेश्या 
रंडी, चमार, बनिया, भंगी । दुग्रुण--अधम, नीच, कमीना, चोर, बदमाश, मक्कार 
उचक्का, चुगुलखोर । अकुशलता--बुदधू, बेवकूफ, मुख, नासमझ, सिरफिरा 
तादान । पेदाइश--*“*““की औलाद, हरामी, हरामजादा, दोगला, बदजात। अंग-दोष 
-“अंधा, लुला, लगड़ा, कुबड़ा, बहरा, काना, पागल, लंबू, मुटियल, बन्दर-सा मु ह। 
मानव-जाति--म्लेच्छ, शैतान । यौनांग-- चूतिया, लौंड़ा, लौंडे का आदि | 
यौन-व्यापार--गाँड़ , मादरचोद (<मादर फ्रा०5-माँ), बहनचोद भादि। गालियों 
के कई प्रयोग-सन्दर्भ हैं, पधा--. झिड़कते समय 2. अपमानित करते समय 
3. तीत्र वाक्‌-युद्ध के समय 4. शाप देते समय 5. बच्चों को लाड़ करते समय 
6, मित्रों के मध्य (अभिवादनादि के समय) 7. तकिया कलाम के रूप में | गातियों: 

के प्रयोग में पुरुष वर्ग /पुल्लिग बेजान वस्तु के लिए पुल्लिग और स्त्री वर्ग[स्त्रीलिंग 

बेजान वस्तु के लिए स्त्रीलिंग शब्दों का प्रयोग किया जाता है। गालियाँ वर्जित 

शब्द हैं तथा असभ्यता का लक्षण हैं । 


एक ही बात को दो पर्यायों या समान. वाक्यांश से व्यक्त करना पुनरुकत 
दोष (72५0089) कहलाता है। ऐसे दोष से बचने की आवश्यकता है। पुनरुक्ति 
दोष युक्त कुछ वाक्यांश हैं-- वापस लौटा; अखंडित एकता भंग होने का भय; एक 
वर्ष बीतने के वाद; इन कारणों की वजह से; काफी पर्याप्त होगा; मन के अन्दर 
में; उस की यह खास विशेषता (थी); काम पर नियुक्त करना (चाहा); गोल-गोल 
चक्कर (लगा रहा था); थोड़े-से कुछ रुपये (उधार दे दो); (इस काम को) शुरू 
से आरम्भप्रारम्भ (करो); परस्पर सहयोग की अपेक्षा; फिर बाद में (मिलूगा) 
पाँच सौ रुपये का दान प्रदान (किया); विद्यालय की) सारी व्यवस्था को अच्छी _ 
तरह व्यवस्थित करना (होगा); दोनों परस्पर गले मिले । आदि । हा औ 


द कार्य करना, खेल खेलना, चाल चलना, दौड़ दौड़ना, मार मारना, लड़ाई .. 
.._ लड़ना, हँसी हंसना' में पुनरुक्त दोष नहीं है। इन में पहला शब्द वर्गीय कम है तथा 
.. हिन्दी भाषा-व्यवस्था का स्वीकृत रूप है । 


परवाह (>-विन्ता) के साथ नहीं! के योग से कुछ सन्दर्भों में उपेक्षा/ 5 


शब्द-प्रयोग सतकता | 36] 


अनादर का भाव व्यक्त होता है, यथा--मुझे तुम्हारी (कोई) परवाह नहीं । दक्षिण 
भारत में परवाह नहीं का अर्थ है 'कोई बात नहीं” । इस अथ में उपेक्षा या अनादर 
का भाव नहीं है, वरन्‌ यह दक्षिण भारत की भाषाओं में शिष्ठ प्रयोग के रूप में 


स्वीकृत है | 
विभिन्‍न सन्दर्भों में प्रयुक्त एक शब्द-भेद दूसरे शब्द-भेद की भाँति हो जाता 


है, यथा-- 
स्‍ (!) विशेषणवत्‌ संज्ञा--अब आप बाजार भाव सुनिए। यह कंसी शिक्षा 
संस्था है ? राष्ट्रभाषा हिन्दी परिषद्‌ की स्वर्ण जयन्ती । 

(2) क्रियाविशेषणवत्‌ संज्ञा--तुम यहाँ से जल्दी भाग जाओ । 

(3) विशेषणवत्‌ अध्रधान सर्ववाम--कौन महिला आई है ? आप का क्‍या 
प्रनन है? कोई काम हो तो बताता । वह लड़का कहाँ गया जो *“। यह बकरी 
चार किलो दूध देती है । वे मेजें यहाँ रखो । जो बात मैं ने आप से कही थी,” **-॥ 
उन्हों ने खाए होंगे कोई 24-25 लड्ड । कुछ चीजें मेरे पास हैं । 

(4) अव्ययवत्‌ क्षप्रधान सर्वेनाम- लो, मैं तो यह चली, तुम यहीं बैठे 
रहो | (यह--अब|अभी) । तुम मुझ से क्या जीत पाओगे ? (क्या>-नहीं) । जो तुम 
मेरे साथ चलो, तो मैं भी चलू । (जो"-यदि) । क्‍या दृश्य है ! 

(5) विशेषणबत्‌ असमापिका क्रिया--सुनी-सुनाई बात पर विश्वास करना । 
बोलता पत्थर देखोगे ? 

(0) संज्ञावत्‌ विशेषण--छोटों के प्रति स्नेह, बड़ों के प्रति श्रद्धा रखो । 
उन्‍्हों ने बहुतों का भला किया है। तुमने उसे बहुत खरी-खोटी सुनाई। जेसे को 
तसा मिले, मिले नीच को नीच । क्या इतनी जल्दी लम्बी तान कर सो गए ? 

(7) सर्वनामवत्‌ विशेषण--एक आया और दूसरा चला गया । क्या दोनों 
ही भाग गए ? 

(8) भव्ययवत्‌ विशेषण--तुम्हारा घोड़ा अच्छा दौड़ता है । अरे ! वह तो 
कब का ठंडा पड़ा है। उस रात वह बहुत तेज भागा था। मैं ने उप्ते बहुत समझाया । 
वह कसा पढ़ती है ? क्‍या तुम ऊँचा सुनते हो ? हि 

(9) क्रियाविशेषणवत्‌ सर्वताम--वह अपने आप चली गई। वे कुछ 
मुस्कराए। ् 

(40) रीति-समय-स्थानवाची अव्यय---इसे बार-बार पढ़ा। (रीति०)-» 
वह यहाँ बार-बार आती थी । (समय ०) । आगे एक तालाब है । (स्थान०)->कहो, 
आगे ऐसा नहीं करू गा। (समय ०) । डाकघर पीछे है। (स्थान०)->पीछे देख लेंगे । 

_सिमय०) । वे यहाँ रहते हैं। (स्थान०)->मैं अपने एक रिश्तेदार के यहाँ रहता. 
है। (संबंधसुचक) । यह काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। (समय ०)->यह 
काम जाने से पहले हो जाना चाहिए। (संबंधसूचक) । 





े 


है 
| 
रा 
| 

न्‍] 





362 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


वाक्य-प्रयोग (सन्दर्भ के आधार पर अनेक शब्द एक से अधिक शब्द 
भेदों के रूप में प्रयुक्त हो सकते हैं, यथा--- 

अच्छा - भच्छों की संगति में रहने से ही अच्छे बन सकोगे । (संज्ञा) । बच्चे 
बच्चे बड़ों का कहना मानते हैं। (विशेषण) | उस का नाच सबसे अच्छा लगा था। 
(क्रियाविशेषण) । अच्छा, यह भी कोई बात है ! (आवेगवाची) । 

आदि--वैद, महाभारत, रामायण, कुरान आदि धामिक म्रन्य हैं। (सर्व- 
नाम) । मनु को आदि पुरुष कहा जाता है। (विशेषण) 

आप--अंब आप ही बताइए । (मध्यम पुरंषवाचक सर्वनाम) । स्व० जय 
शंकर प्रसाद कवि थे। आप नाटककार भी थे। (अन्य पुरुषवाचक सवनाम)। मैं 
आप पढ़ लू गा । (निजवाचक सवनाम) । 

द एक--एक बोला । एक सोता है तो एक जाग जाता; है । (स्वेनाम) । एक 
कमरा मुझे भी चाहिए। एक बार मुझे “माँ कहो | (विशेषण) । एक तो पैसे नहीं . 
लौटाता, दूसरे गाली देता है। एक तो वे वृद्ध हैं, दूसरे दिल के मरीज हैं। 
(अव्यय) । द 
ऊपर--ऊपर मत जाओ । (स्थानसूचक) । वह तो ऊपर (ही) पांच रुपये 
मार ले गया । (क्रिया विशेषण) | 

ऐसा--ऐसा भी कहीं हो सकता है ? ऐसा मत कहो । (सर्वनाम)। ऐसा 
होशियार नौकर तुम्हें कहाँ मिला ? (प्रविशेषण) । ऐसा वर चिराग ले कर हंढ़ने पर 
भी न मिलेगा। (विशेषण) । ऐसा ही करो । बच्चा ऐसा भागा कि लड़खड़ा कर 
गिर पड़ा | (क्रियाविशेषण) । कु 
ओऔर--औरों से भी सलाह लेनी होगी। (सर्वताम) । और लड़कियाँ किधर _ 
हैं? (उद्देश्य विशेषण) | दस रुपये और निकालों । (विधेय विशेषण) । डाकू और 
तेज भागे। ([प्र-क्रियाविशेषण) । बच्चे के पास एक गेंद और दो बल्ले हैं। (समुच्चय 
.._ बोधक) का 
कारण--इस का कारण में बताता हूँ। (संज्ञा)। बीमार होने के कारण मैं _ 
संस्थान न आ सका। (संबंधसूचक) । वह नहीं आई, इस कारण मैं भी नहीं गई। 
(समुच्चयवीक्षक) । ४५ 
. कुछ--तुम्हारी जेब में कुछ तो होगा । (सवंनाम) । कुछ रुपये उधार दे दो। 
 (संख्यावाचक विशेषण) । कुछ मलाई इधर भी भेज दो । (परिमाणवाचक विशेषण)। 
. तुम कुछ सोते हो, कुछ जागते हो । (परिमाणवाचक क्रियाविशेषण) । 2 
कोई--थाने से कोई आया था। (सर्वनाम)। कोई (भी) बच्चा यहाँआ _ 


। | जाए । (विशेषण) । वहाँ कोई बीस आदमी रहे होंगे । (प्रविशेषण) । 





....... कौन--उधर कौन खड़ा है ? (सर्वेनाम) । कौन आदमी है जो बड़बड़ कर ; 
... रहा है? (विशेषण) । उन्हें मना लेना कौन बड़ा काम है। (प्रविशेषण) 





शब्द-प्रयोग सत्तकेता | 363 


क्या--वह क्या कर रहा है ? (सवंत्ाम) । सच-सच बताओ, क्‍या बात थी ? 
(विशेषण) । तू क्या जाएगा, मुझे ही जाना पड़ेगा । (अव्यय) 
चाहे- त्‌ जो चाहे, ले ले। (क्रिया)। चाहे घर रहो चाहे ऑफिस जाओ । 
(धंयोजक) ! मैं चाहे जितना खूँ, कोई लाभ नहीं । (प्र-क्रियाविशेषण) 
जैसा- जैसा करोगे, वेसा भरोगे। तुम जंसा चाहती थीं, वैसा ही प्रबंध 
कर दिया गया हैं । (क्रियाविशेषण) । भगवान्‌ आप के जंसी बधृ सब को दे। (संबंध- 
पुचक) जैसा ताम, वसा रूप | (विशेषण) । 
गरी--जों साड़ी पसन्द हो, पहन लो । (विशेषण) । जो करेगा सो भरेगा 
(मर्वताम) । उस ने जो कमरा खोला, तो चीख पड़ी। (जो८"-ज्यों ही) (क्रिया 
विशेषण) । वह इतनी मूर्ख नहीं जो तुम्हारी चालाकी न पकड़ सके । (संयोजक) । 
ठीक--ठीक कहना है! (विशेषण) । ठीक बोलो, ठीक तोलो। (क्रिया 
विशेषण) । ठीक, वे भी ऐसा ही कह रहे थे । (आवेगी) । 
डबता--तुम डबते तो मैं बचा लेता । (क्रिया) | डबती नाव से पाँच आदमी 
ही बच पाए | (विशेषण) । ड्बते को तिनके का सहारा। (संज्ञा) । 
दूसरा-- तुम्हें दूसरों से क्‍या मतलब ? (सवंनाम) । यह दृश्तरी बात है। 
 (विशेषण) 
बहुत--बहुतों का ऐसा मानना है। (संज्ञा) | उस के पास बहुत माल है । 
(वैशेषण) । बच्ची माँ से बिछुड़ कर बहुत रोई। (क्रिया विशेषण) । चाय बहुत 
मीठी थी। (प्र-विशेषण) । चोर बहुत तेजी से भागा । (प्र-क्रियाविशेषण) । 
सला--भगवान्‌ सब का भला करे। (संज्ञा) । वह भली महिला है। (विशे- 
पण)। इस समय तुम भले आए। (क्रियाविशेषण)। हम भले ही जाओ, वह नहीं 
जाएगा। (संयोजक) । भला ! इस में में क्या कर सकता था ? (आवेगी) 
सरा--एक बल सरा, एक बछड़ा। (समापिका क्रिया)। भरे व्यक्ति को 
. क्या गाली देवा । (विशेषण) | मरों के बारें में क्या सोचना । इस मरी में हजारों 
मर गए | (संज्ञा) । एक मरा पिल्‍ला उधर पड़ा है। (कृदन्त) । द क्‍ 
साथ--सुख में सब कोई साथ देंते हैं। (संज्ञा) | सब बच्चे साथ खेलते हैं। 
(क्रियाविशेषण) । मैं माता जी के साथ जानेवाली थी। (संबंधसूचक) । उसे यह 
पत्र देना, साथ ही उस से कहना क्रि”“ (संयोजक) । 
द सुन्दर--सुन्दर, इधर आओ | (संज्ञा) | कितना सुन्दर फूल है ! (विशेषण)। 
तुम बहुत सुन्दर नाचती हो (क्रियाविशेषण) न - 


ये हिन्दी में कुछ शब्द-रूप विभिन्‍न सन्दर्भों में अर्थ की दृष्टि से ही भिन्‍न नहीं . कम 
होते, कभी-कभी शब्द-वंगं की दृष्टि से भी भिन्‍त होते हैं । ऐसे शब्द-रूपों के प्रयोग के... 


.. समय सतकेता रखने की आवश्यकता है, यथा-- 


अहुडानपड़ाव: अतिचार का स्थान (संज्ञा) ।- कड़ानल्कलाई का गहना 





364 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(संज्ञा) । कठोर (विशेषण) । खुत-- चिट्ठी; कानों के पास के बालों का खत (संज्ञा) 
खोलीस|गिलाफ; घर/कमरा (संज्ञा) । ५/खोल्‌---ई (क्रिया) । गढ़>-किता 
(संज्ञा) । ,“ गढ़ (धातु)। गलार-पग्रीवा/गर्दन; आवाज (संज्ञा)। 4/गल-+-आ 
(क्रिया) । ग्रोल--वृत्त; गायब; लक्ष्य (संज्ञा)। वृत्ताकार (विशेषण)। घृर- 
कूड़ा-कचरा (संज्ञा) । ,/घ्र (धातु)। जल८ पानी (संज्ञा)। ५/जल्‌ (धातु) | 
जीना-- जिन्दगी (संज्ञा) । «/जी---ना (क्रिया का सामान्य रूप)। तेज-- चभक 
(संज्ञा) । <तेजु >मेघावी, धारदार, अधिक (विशेषण) । जोर से (क्रिय ।विशेषण)। 
फल+>केला आदि फल; परिणाम; भविष्य (संज्ञा) । «/फल (धातु)। बाल-- 
केश ; ५/बॉलकजरगेंद (संज्ञा) । ४बाल्‌ "जलाना (धातु) । बोली>--भाषा- 
. बोली; व्यंग्य; मोल भाव: सटृ८ की बोली (संज्ञा) । %/ बोल्‌ ---ई (समापिका 
क्रिया) । ५/बच्च -- 875 (संज्ञा) । पर्याप्त/काफी (अव्यय) $/बस (धातु) । 











॥ 
ता 
0 
का 
४ 
५ 
कं 5 
॥ 
| 
। | 
हा 





शब्द-भेदों की पद-व्याख्या 





पद-व्याख्या का अर्थे है--वाक्य में आए हुए शब्द की व्याकरणिक व्याख्या । 


हिन्दी व्याकरणों में पद-व्याख्या के स्थान पर अन्य कई नाम मिलते हैं, यथा--पद- 


परिचय, पदान्वय, पदनिदेश, पदनिर्णय, पदविन्यास, पदच्छेद | पद-व्याख्या' इन 
सब नामों से अधिक बातों तथा विस्तार को अपने में समेटे हुए है। सामान्यतः ये 
सभी ताम एक ही का के सूचक हैं--वाक्य में प्रयुक्त शब्दों अर्थात्‌ पदों की व्याकरण 
सम्मत विशेषताएँ बताता । वाक्य में आए हुए सभी पदों के स्वरूप का उल्लेख करते 


. हुए उन का पारस्परिक सम्बन्ध बताना पद-व्याख्या का क्षेत्र है । पद-व्याख्या में एक 


प्रकार से समस्त व्याकरण का सार आ जाता है। कुछ लोगों का यह कहता है कि 
संस्कृत व्याकरण-परम्परा में पद व्याख्या का कोई स्थान नहीं है और न यह कोई 
नयी व्याकरणिक जानकारी देती है, केवल अँगरेजी व्याकरण की परम्परा का हिन्दी 
व्याकरण में अंधानुकरण उचित नहीं । इस संबंध में हमारा यह कहना है कि हिन्दी 
व्याकरण लेखन में किसी भी भाषा के व्याकरण का अन्धानुकरण उचित नहीं, बह 
चाहे संस्कृत हो, चाहे अंगरेजी या कोई अन्य भाषा-व्याकरण । पद-व्याख्या कोई नयी 
व्याकरणिक जानकारी तो नहीं देती किन्तु प्राप्त व्याकरणिक जानकारी की पुष्टि 
(परीक्षा) अवश्य करती है। व्याकरण-अध्येता ने ध्वनि-क्षेत्र को छोड़ कर शब्दों के 
बारे में वाक्य के सन्दर्भ में जो कुछ जाना है उस की अच्छी परीक्षा पदव्याख्या' में 
हो जाती है और अध्ययन-अध्यापन में अभ्यास तथा परीक्षा के महत्त्व को नकारा 
नहीं जा सकता । पद-व्याख्या” अधीत व्याकरण को आवश्यकतानुसार क्रमिक रूप में 
प्रस्तुत करने के लिए अभ्यास-क्षेत्र प्रस्तुत करती है। इस प्रकार पद-व्याख्या 
सेदधान्तिक व्याकरण का व्यावहारिक उपयोग है। पद-व्याख्या में इन बातों का _ 
उल्लेख किया जाता आवश्यक है-- 


(!) संज्ञा--प्रकार, लिंग, वचन, कारक, संबंध । (2) सबनास-- प्रकार, 


: अ्रतिनिहित संज्ञा, लिंग, वंचन, कारक, संबंध | (3) विशेषण--प्रकार, सम्बद्ध 

_विशेष्य, लिंग, वचन, विकार (-+-), सम्बन्ध । (4) क्रिया--प्रकार, काल, वाच्य, 
. वृत्ति, पक्ष, लिग, वचन, पुरुष, संबंध । (5) अव्यय--प्रकार, विकार (-+:), सम्बन्ध 
. पदों की संरचनागत विशेषता का उल्लेख भी रहे तो गहन, विस्तृत जानकारी मिल _ 





366 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


जाती है। यहाँ उदाहरणाथे विभिन्‍न पदों की पद-व्याख्या लिखी जा रही है। कुछ 
पदों की व्याख्या विस्तार के साथ लिखी जाएगी और कुछ की सांकेतिक रूप में । 
(।) चौकीदार, बैक के कर्ंचारियों को मत रोको ! 


चौकीदार--योगिक संज्ञा, जातिवाचक, पुल्लिग, एकवचन, सम्बोधक शब्द. 
- रहित सम्बोधन कारक । 


बेंक (के)-रूढ़ संज्ञा, जातिवाचक, पुल्लिग, एकवचन परसग्रेयुत सम्बन्ध 
कारक, सम्बन्धी शब्द कर्मचारियों! 

कर्मचारियों (को)--यौगिक संज्ञा, जातिवाचक, उभयलिंग, बहुवचन, परस 
युत कर्म कारक, “रोको” क्रिया का कर्म । 

सत--रूढ़ अव्यय, निषंध सूचक निपात, 'रोको' क्रिया का निषेध । 

रोको--रूढ़ क्रिया, सकमक, प्रत्यक्ष विधि (काल), कतृ वाच्य, विध्यर्थक 


वृत्ति, आरम्भत्व बोधक अपूर्ण पक्ष, पुल्लिग, बहुवचन, मध्यम पुरुष, लुप्त कर्ता 
(तुम) से अन्वित, कर्म 'कमंचारियों' 


(2) जो अपनी बात को नहीं रखते, वे विश्वास के योग्य नहीं होते । 
जो--रूढ़ सर्वेताम, सम्पन्धवाचक्र, लुप्त संज्ञा (लोग) का प्रतिनिधित्व, 
पुल्लिग, बहुवचन, अन्य पुरुष, कर्ता कारक, “रखते” क्रिया का कर्ता । का 
अपनी--व्युत्पन्न विशेषण, सार्वनामिक, स्त्रीलिंग, एकवचन, ईकाराल 
विकार, विशेष्य 'बात' से सम्बद्ध । ४ 
बात (को)-रूढ़ संज्ञा, जातिवाचक, स्त्रीलिंग, एकवचन, परसग्ग युत कर्म. 
कारक, “रखते” क्रिया का कर्म । फ् 
नहों--रूढ़ अव्यय, नकारात्मक निपात, “रखते” क्रिया की अस्वीक्ृति । 
रखते--रूढ़ क्रिया, सकर्मक, (निरपेक्ष) सामान्य वर्तमान काल, कतृ वाच्य, 
निश्चयार्थ वृत्ति, नित्यत्वदयोतक अपूर्ण पक्ष, पुह्लिग, बहुवचन, अन्य पुरुष, कर्ता 
जो, कर्म “बात, नहीं निपात के कारण हैं! सहायक क्रिया का लोप॥... 
वे--रूढ़ स्बंनाम, पुरुषवाचक, लुप्त संज्ञा 'लोग' का प्रतिनिधित्व, पुह्लिग, 
बहुवचत, अन्य पुरुष, जो” सर्वनाम से सम्बदध, कर्ता कारक, होते क्रिया का 
कर्ता । . 
विश्वास (के)--रूढ़ संज्ञा, भाववाचक, पूल्लिग, एकवचन, परसग युत _ 
सम्बन्ध कारक, सम्बन्धी शब्द योग्य, होते! क्रिया का पूरक । पे 
योग्य--झूढ़ विशेषण, गुणवाचक, पुल्लिग, एकवचन, विधेय विशेषण, 
_विशेष्य वे” से सम्बद्ध । हर 
नहों--रूढ़ अव्यय, नकारात्मक निपात, 'होते' क्रिया की अस्वीकृति । 
होते--रूढ़ क्रिया, अपूर्ण अकमेक, अस्तित्व बोधक, कतू वाच्य, (निरपेक्ष) 


. सामान्य वंमान काल, नित्यत्व दयोतक अपूर्ण पक्ष, निश्चयाथ वृत्ति, पुह्लिग, 


.._ बहुवचन, अन्य पुरुष, कर्ता वे” तथा पूरक “विश्वाप्त के योग', नहीं! निपात के 


... कारण हैं' सहायक क्रिया का लोप । 





शब्द-भेदों की पद-व्याख्या | 307 












3) कल उन्हें गाँव जाता था। 
बल--रूढ अव्यय, कालवाचक, जाना है' क्रिया से सम्बदध । 
..... उन्हें-झढ़ सर्वेनाम, पुषषवाचक, लुप्त संज्ञा जातिवाचक'/व्यक्तिवाचक का 
प्रतिनिधित्व, उभयलिंग, बहुवचन, अन्य पुरुष, संश्लिष्ट विभवित “हें युत कता क 
बर्थ में सम्प्रदान कारक, जाता है क्रिया का नियन्त्रक । 
गाँव--झुढ़ संज्ञा, जातिवाचक, पुल्लिग, एकबचन, परसर्ग रहित अधिकरण 
कारक, जाना है क्रिया का लक्ष्य स्थल 
.. ज्ञाना है--संयुकत क्रिया, आवश्यकताबोधक अकमक, कतृ वाच्य, सम्भाव्य 
प्रविष्यत्‌ काल, आरम्भपूर्व अपूर्ण पक्ष, विधानाथ वृत्ति, पुल्लिग, एकबचन, अन्य 
पुरुष, कर्ता उन्हें से नियन्त्रित । । 
(4) आब जब नारी-उत्थान, स्वतन्त्रता, उस की आत्म-निर्भरता और 
अधिकारों को ले कर सम्पूर्ण विश्व में आवाज उठ रही हैं, वहीं आज कुछ नारियाँ 
ऐसी भी हैं, जो स्वयं नारी हो कर भी नारी-उत्थान के विरुद्ध अपने विचार 
रखती हैं । 
जब--रूढ़ कालसूचक, व्यधिकरण समुच्चयादि बोधक, 'उठ रही हैं क्रिया 
का काल सूचक, आज जब"““““"भी हैं, उपवाक्यों का संयोजन । 
स्वतस्त्ता--योगिक संज्ञा, भाववाचक, स्त्रीलिग, एकवचन, दूरवर्ती परसग 
को युत कर्म कारक, ले कर असमाधिका क्रिया का कर्म । 
. और--हढ़ संयोजक समुच्चयबीधक अव्यय, पूव॑वर्ती पदबन्ध नारी उत्थान, 
स्वतन्त्रता, उस की आत्म-निर्भरता” तथा परवर्ती पदबन्ध “अधिकारों को ले कर' का 
_ संयोजन कर रहा है।.... 
सम्पृणं- योगिक विशेषण, पूर्णतासूचक अनिश्चयवाची संख्याबोधक, पुल्लिग 
एकवचत, परप्तग युक्त विशेष्य (विश्व की संख्या का निर्देशक । 
वहीं--यौगिक अवधारक स्थानसुचक अव्यय, स्थितिसूचक, संयोजक के रूप 
. में दो उपवाक्यों का योजन-- (क) आज जब “उठ रही हैं, (ब) आज कुछ 
भी हें। 





. जो->-हढ़ सवंनाम, संबंधवाचक पूर्व॑वती संज्ञा नारियाँ का प्रतिनिधित्व, 
 स्त्रीलिग, बहुवचन, अन्य पुरुष, परप्ष्ग रहित कर्ता कारक “रखती है! समापिका' क्रिया 
काकता। 

स्वयं---रूढ़ सवंतनाम, निजवाचक, पूर्ववर्ती सर्वनाम जो” की ओर अवधारक 
. सेव, स्त्रीलिग, बहुवचन, अन्य पुरुष, 'जो” का समानाधिकरण होने के कारण कर्ता 
0 कल ही कल 
के विहृदूध--सम्बद्ध विरोधवाची संबंधसुचक अव्यय, “नारी-उत्थान से 
सम्बद्ध विपषरीततासूचक जटिल परसर्ग। 
(5) धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन को ही राजगददी देना चाहते थे । 





366 | हिन्दी का वरिवरणात्मक व्याकरण 


कुछ 


जाती है। यहाँ उदाहरणार्थ विभिन्‍न पदों की पद-व्याख्या लिखी जा रही है। कुछ 
पदों की व्याख्या विस्तार के साथ लिखी जाएगी और कुछ की सांकेतिक रूप में |. 
() चौकीदार, बक के कर्मचारियों को मत रोको ! 


चौकीदार--योगिक संज्ञा, जातिवाचक, पुल्लिग, एकवचन, सम्बोधक शब्द 
- रहित सम्बोधन कारक । 


बेंक (के)--रूढ़ संशञा, जातिवाचक, पुल्लिग, एकवचन, परसग्युत सम्बन्ध 
कारक, सम्बन्धी शब्द “कममचारियों' 

कर्मचारियों (को)--योगिक संज्ञा, जातिवाचक, उभयलिंग, बहुवचन, परसर्ग 
. युत्‌ कर्म कारक, “रोको' क्रिया का कम । 
सत--रूढ़ अव्यय, निषंध सूचक निपात, “'रोको” क्रिया का निषेध । 
रोको--रूढ़ क्रिया, सकमंक, प्रत्यक्ष विधि (काल), कतृ वाच्य, विध्यर्थक 


बृत्ति, आरम्भत्व बोधक अपूर्ण पक्ष, पुल्लिग, बहुवचन, मध्यम पुरुष, लुप्त कर्ता. 
(तुम) से अन्वित, कर्म 'कमचारियों' 


(2) जो अपनी बात को नहीं रखते, वे विश्वास के योग्य नहीं होते । 
जो--रूढ़ सर्वेताम, सम्पन्धवाचक, लुप्त संज्ञा (लोग) का प्रतिनिधित्व, 
पुल्लिग, बहुवचन, अन्य पुरुष, कर्ता कारक, “रखते' क्रिया का कर्ता । हा 
अपनी--व्युत्पन्न विशेषण, सावतामभिक, स्त्रीलिग, एकवचन, ईकाराल 
विक्रार, विशेष्य 'बात' से सम्बदध । तक 
बात (को)--रूढ़ संज्ञा, जातिवाचक, स्त्रीलिग, एकवचन, परसभ्ग युत कम. 
कारक, (रखते क्रिया का कर्म । 
नहीं--रूढ़ अव्यय, नकारात्मक निपात, “रखते” क्रिया की अस्वीक्षति । 
रखते--रूढ़ क्रिया, सकमंक, (निरपेक्ष) सामान्य वर्तमान काल, कतृ वाच्य, 
निश्चयार्थ व॒त्ति, नित्यत्वद्योतक अपूर्ण पक्ष, पुल्लिग, बहुबचन, अन्य पुरुष, कर्ता 
जो, कर्म “बात”, 'नहीं' निपात के कारण हैं! सहायक क्रिया का लोप । द 
.. वे>-रूढ़ सर्वनाम, पुरुषवाचक, लुप्त संज्ञा लोग” का प्रतिनिधित्व, पुल्लिय, 
बहुबचन, अन्य पुरुष, 'जो” सर्वताम से सम्बदध, कर्ता कारक, होते क्रिया का _ 
कर्ता । हे 
धिश्वास (के)--रूढ़ संज्ञा, भाववाचक, पुल्लिग, एकवचन, परसग युत 
सम्बन्ध कारक, सम्बन्धी शब्द योग्य, होते! क्रिया का पूरक |... है 
द गीग्य--रूढ़ विशेषण, गुणवाचक, पुल्लिग, एकबचन, विधेय विशेषण, 
विशेष्य वे” से सम्बदध । ग 
हा . नहीं--रूढ़ अव्यय, नकारात्मक निपात, होते” क्रिया की अस्वीकृति। 
होते -रूढ़ क्रिया, अपूर्ण अकमंक, अस्तित्व बोधक, कतृ वाच्य, (निरपेक्ष) 


... सामान्य वतंमान काल, नित्यत्व दयोतक अपूर्ण पक्ष, निश्चयाथे वृत्ति, पुह्लिंग, _ 
.. बहुबचन, अन्य पुरुष, कर्ता वे” तथा पूरक “विश्वास के योग”, नहीं निपात के 





..._ कारण हैं! सहायक क्रिया का लोप । 





भी हैं। 


कारक | 


शब्द-भेदों की पद-व्याख्या | 367 


(3) कल उन्हें गाँव जाना था । 

कल--रूढ़ अव्यय, कालवाचक, जाना है' क्रिया से सम्बद्ध । 

उन्हें--रूढ़ सर्वनाम, पुषषवाचक, लुप्त संज्ञा जातिवाचक/व्यक्तिवाचक का 
प्रतिनिधित्व, उभयलिंग, बहुवचन, अन्य पुरुष, संश्लिष्ट विभकित “हैं” युत कर्ता के 
अर्थ में सम्प्रदान कारक, जाना है! क्रिया का नियन्त्रक । 

गाँव--रूढ़ संज्ञा, जातिवाचक, पुल्लिग, एकवचन, परसगग रहित अधिकरण 
कारक, जाता है क्रिया का लक्ष्य स्थल' 

जाना है--संयुकत क्रिया, आवश्यकताबोधक अकर्मक, कतृ वाच्य, सम्भाव्य 
भ्विष्यत काल, आरम्भपूर्व अपूर्ण पक्ष, विधानाथ वृत्ति, पुल्लिग, एकवचन, अन्य 
पुरुष, कर्ता उन्हें से नियन्त्रित । द 

(4) आज जब नारी-उत्थान, स्वतन्त्रता, उस की आत्म-निर्भरता और 
अधिकारों को ले कर सम्पूर्ण विश्व में आवाज उठ रही हैं, वहीं आज कुछ नारियाँ 
ऐसी भी हैं, जो स्वयं नारी हो कर भी नारी-उत्थान के विरुद्ध अपने विचार 
रखती हैं । 
जब--रूढ़ कालसूचक, व्यधिकरण समुच्चयादि बोधक, 'उठ रही हैं क्रिया 
का काल सूचक, “आज जब“*““'“भी हैं, उपवाक्यों का संयोजन । 

स्वतन्तता--यौगिक संज्ञा, भाववाचक, स्त्रीलिंग, एकबचन, दूरवर्ती परसगगे 
को युत कर्म कारक, लि कर असमापिका क्रिया का कम । 

और--रूढ़ संयोजक समुच्चयबोधक अव्यय, पूवंवर्ती पदबन्ध “नारी उत्थान 
स्वतन्त्रता, उस की आत्म-निरभरता” तथा परवर्ती पदबन्ध “अधिकारों को ले कर' का 
संयोजन कर रहा है । 

सम्पृर्ण-- यौगिक विशेषण, पूर्णतासूचक अनिश्चयवाची संख्याबोधक, पुल्लिग 
एकवचन, परत्तग युक्त विशेष्य (विश्व की संख्या का मिदंशक | 

वहीं--यौगिक अवधारक स्थानसूचक अव्यय, स्थितिसूचक, संयोजक के रूप 
में दो उपवाक्यों का योजन-(क) आज जब**“उठ रही हैं, (ख) आज कुछ" 


जो--रूढ़ सर्वनाम, संबंधवाचक, पूर्ववती संज्ञा नारियाँ का प्रतिनिधित्व, 


स्त्रीलिंग, बहुवचन, अन्य पुरुष, परसर्ग रहित कर्ता कारक रखती है' समापिका क्रिया 


का कर्ता। है हा 
स्वयं--रूढ़ सवेनाम, निजवाचक, पृव॑वर्ती सवेनाम 'जो' की ओर अवधारक 


संकेत, स्त्रीलिग, बहवचन, अन्य पुरुष, 'जो' का समानाधिकरण होने के कारण कर्ता 


के विरृद्ध--सम्बदध विरोधवाची संबंधसूचक अव्यय, “नारी-उत्थान से ' 


सम्बद्ध विपरीततासूचक जटिल परसग्ग । 


(5) धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन को ही राजगददी देना चाहते थे । 





हि. 





368 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


धृतराष्ट्र--योगिक व्यक्तियाचक संज्ञा, पुल्लिग, आदरार्थ बहुबचन, पर 
रहित कर्ता कारक, दिना चाहते थे” क्रिया का कर्ता । | 

अपने--रूढ़ सबंनाम, निजवाचक, 'धृतराष्ट्र' संज्ञा का संकेतक, पुल्लिग 
एकवचन, सम्बन्ध कारक, परवर्ती संज्ञा पुत्र सम्बन्धी शब्द परसगंयुत होने के कारण 
तियंक्‌ रूप में प्रयुक्त, सा्वतामिक' विशेषण का प्रकार्य करते हुए विशेष्य संज्ञा पुत् 
से संबंधित । 

पुत्र--छूढ़ संज्ञा, जातिवाचक, पुल्लिग, एकवचन, दूरवर्ती परसर्ग, गौण 
कमंकारक के रूप में सम्प्रदान, दिना चाहते थे” क्रिया के गोणांश देना” का प्राप्तक। 

दुर्योधन को--यौगिक व्यक्तिवाचक संज्ञा, पुल्लिग, एकवचन, पूर्ब॑वर्ती संज्ञा 
पुत्र! का समानाधिकरण अतः परसगंयुत गौण कर्मेकारक के रूप में सम्प्रदान, देना 
चाहते थे” क्रिया गौणांश दिना' का प्राप्तक' । द 

ही--रूढ़ अवधारक निपात अव्यय, बलप्रदायक सीमाबोधक के झूप में 
दुर्योधन! को महत्त्व प्रदान कर रहा है ! 

राजगदुदी--यौगिक संज्ञा, जातिवाचक, स्त्रीलिग, एकवचन, परसर्ग रहित 
मुख्य कर्म कारक, दिना चाहते थे क्रिया के गौणांश दिता' का कम । क्‍ 

देना चाहते थे--मार्थक क्रिया दिता” युक्त संयुक्त समापिका, इच्छाबोधक 
सकमंक, कतू वाच्य, सामान्य भूतकाल, आरम्भ पूर्व अपूर्ण पक्ष, विधानाथे बृत्ति, | 
पुल्लिग, (आदराथ) बहुवचन, अन्य पुरुष, कर्ता धृतराष्ट्र से नियन्त्रित, मुख्य | 
क्रियांश चाहते थे” का कर्म ग्रौणांश क्रियांश देता! तथा देना क्रिया का मुख्य कम॑ | 
राजगददी एवं गौण कम (पुत्र दुर्योधन को” है । 

(6) जोकर को उछलते-कूदते देख सब लोग हंस पड़े । 

जोकर को --यौगिक संज्ञा, जातिवाचक, उभयलिंग, एकवचन, परसग सहित 
कम कारक, प्वंकालिक क्रिया दिख” का कर्म । 

उछलते-कदते-- अकमंक पुनरुक्‍त क्रिया से निमित यौगिक वर्तेमानकालिक- 
कृदन्त विशेषण, विशेष्य 'जोकर को, परसगंयुकत विशेष्य के कारण विकारी रूप । 

देख--सकमेक रूढ़ पूवेकालिक क्ृदन्त, 'कर' पूर्वकालिक व्यक्त चिह्न पे 
रहित, कतृ वाच्य, इस का कर्म 'जोकर को है । 

सब--रूढ़ विशेषण, संख्यगवाचक, स्वेवाची अनिश्चयसूचक, लिग-बचन की _ 
दृष्टि से अपने विशेष्य “लोग” से अन्वित । 

.. लोग--झूढ़ संज्ञा, जातिवाचक, पुल्लिग (स्त्रोलिंग समाहारी), बहुबचत, | 


परसग-रहित कर्ता कारक, हंँस' पड़े समापिका क्रिया का कर्ता । 


हँस पड़े--आकस्मिकतासूचक 'पड़' धातु से युक्त संयुक्त समापिका क्रिया, 


.. आकस्मिकताबोधक अकमंक, कतृवाच्य, सामान्य भूतकाल, समाप्तिद्योतक पूर्ण पक्ष, 
_निश्चया्थंक वृत्ति, समाहारी पुल्लिग, बहुवचन, अन्य पुरुष, कर्ता, लोग' से 





नियन्त्रित, मुख्य क्रिया हँस” तथा रंजक क्रिया पड़े हैं। 














शब्द-भेदों की पद-व्याख्या | 369 


(7) तुम्हें तो कल वहाँ जाना था । 

तुम्हें--रूढ़ सर्वेताम, पुरुषवाचक, श्रोता के (लुप्त) नाम का संकेतक, सध्यम 
पुरुष, समाहारी उभयलिंग, उभय वचन, सविभक्ित कर्ता के प्रकाय में सम्प्रदान 
कारक, जाना था” समापिका क्रिया का कर्ता । 

जाना था--आवश्यकताबोधक कालसुचक “था” क्रिया से युक्‍त संयुक्त 
पमापिका क्रिया, आवश्यकताबोधक अकर्मंक, कतृ वाच्य, सामान्य भूतकाल, आरम्भ 
प्॒व॑ अपूर्ण पक्ष, निश्चयार्थेक वृत्ति, समाहारी उभयलिंग, उभयवचन, कर्ता तुम्हें से 


नियन्त्रित । 


2 


हा द् 


रा 



















































हा के 
*ः के ' 
हि + 
हु ; 
हि 
+ ं हू 
है 
श्र के |; 
हे 
न 5 के हा 
५ 
ई! 
+ हि हि + 
है हे 
| है भर 
भ ह 
६] . ह ; 
<् 
ले पु के ह ः 
५ 
ल्‍ 
| कक ५ +5 १ 
६. 
, | 
रत] पु 
ग ? 
| 
५ 
नि 
५ 
; 5 
॥॒ + 
ग $े ४ 
ड़ ऊ >क ञ हर 
डे के! है 
5 क्र हे 
् 
पर 
। | | 
ु + 
+ पु शा 
हि मु 
4 ६४ | 
५ 
के 
| ! | 
हे 
है ४ 
+ हा * 
+ ॥ 
री + : हम ऐ 
+ का 5 
ः ! ३ 
+ हे 4 ड़ 
के ५ हु ह 
ः । | ) 
ग हे न्‍ + फ 5. २ हे ः ' | 
! ते नि थ ' 
न्‍ 5 है + ३ है पु के स्ड 
' ई 4 : है ; भें | 5 
#; झ ] ग डे 
रे + च्द ॥ - 
रु ग] ! के है 
हि & हू बं 
हर रु ड़ ५ + हि |। 
तक $ ँ की ५ ह ।॒ 





ह् * न पु की $ 








खण्ड ता - 
*५ पदबन्ध तथा वाक्य-व्यवस्था 


 पदबन्ध 

» वाक्य-सार्थकता 

» वाक्य-भेद ह 

वाक्यांग नि, 


| 
#। 
3 
क्‍ 4 क्‍ 
'.. 5, वाक्य-विन्यास द की 
6 
7 
8 


« वाक्य-परिवतंन 
काव्य--भाषा-स्वरू 
« हिन्दी की प्रमुख बोलियों में एकरूपता 
9. हिन्दी व्याकरण परम्परा 
0. पारिभाषिक शब्दावली 
..._]]. श्रश्न तथा अभ्यास 
: 2, उत्तर-संकेत 


9 








374 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


.. चॉम्स्की ते इन तत्त्वों को संज्ञा पदबंध और क्रिया पदबंध )?; ५९ कहा है किन्तु 
.- उद्देश्य, विधेय नाम अधिक उपयुक्‍त हैं क्योंकि उद्देश्य में संज्ञा पदबंध के अतिरिक्त 
अन्य पदबंध भी आ सकते हैं, इसी प्रकार क्रिया पदबंध में भी क्रियाविशेषण पदबंध् 
आ सकता है। उद्देश्य और विधेय का यह संबंध घनात्मक के अतिरिक्त गुणात्मक 

भी होता है, यथा--बुड्ढा +- (चने)-- चबाता-+-है; बुड़ढे ने--(चते) )८ (चबाए-- 
हैं); बुड़ढे से--(चने) >< नहीं > चबाए>< गए। गुणात्मक संबंध का तालय॑ है-- 

. उद्देश्य घटक और विधेय घटक एक दूसरे को प्रभावित करते हैं । हि 

द व्याकरण का मुख्य उद्देश्य बाक्यार्थ को स्पष्ट करना माना जाता है। 

..वाक्यार्थ-स्पष्टीकरण के लिए वाक्य-घटकों के रूपान्तर तथा प्रयोग को ही नहीं वरन 

.. उन के पारस्परिक संबंध को भी जानना आवश्यक है । वाक्य-व्यवस्था (|वाक्य- 

विन्यास) में इस संबंध पर विचार किया जाता है। वाक्य-घटकों का पारस्परिक 

संबंध और उस संबंध के आधार पर उन्हें वाक्य में यथाक्रम रखने तथा उन से वाक्य. 
बनाने की प्रक्रिया का अध्ययन वाक्य-व्यवस्था के विषय हैं। वाक्य के घटकों का _ 
पारस्परिक संबंध दो रीतियों से व्यक्त किया जाता है--!. घटकों को उन के अर्थ 
तथा प्रयोग के आधार पर युक्त कर वाक्य-निर्माण की रीति को संश्लेषण[वाक्य- 
संश्लेषण (वाक्य-रचना) कहते हैं । 2. घटकों को उन के अथे तथा प्रयोग के आधार 

पर वियुकत (/अलग्र-अलग) कर वाक्य-विखंडन की रीति को विश्लेषण |वाक्य-विश्लेषण _ 
कहते हैं । वाक्य-विश्लेषण (वाक्य पृथक्करण) की प्रक्रिया अगरेजी व्याकरण के आधार 

.. पर हिन्दी-व्याकरण में ग्रहण को गई है । इस प्रक्रिया से वाक्य-अर्थंबोध में बहुत 

सहायता मिलती है । से हे 
पद तथा पदबंध-स्तर की रचने के लिए प्रत्यक्ष रूप से एक शी का होता 

अनिवायें है। पदबंध-स्तर पर परिधीय तत्त्व हो भी सकता है और नहीं भी । इस . 

प्रकार रचना स्तर पर पदबंध तथा वाक्य भिन्‍न स्तरीय इकाई हैं और अथंबोध के ._ 

.._ लिए उपयोगी हैं । आगामी पृष्ठों में इन के संबंध में विस्तार से लिखा जाएगा। 








या पदबन्ध वाक्य का ऐसा अंश होता है जिस में एक या एक से अधिक 
| पद परस्पर सम्बदध्च हो कर एक इकाई के रूप में अर्थ प्रकट करते हैं। सामान्यतः: एक 
.. वाक्य में 3-4 पदबन्धों का अ्रयोग होता है। वाक्य का एक अंश होने के कारण इसे 
वाक्यांश भी कहते हैं । पदबन्ध या वाक्यांश से किसी विचार के एक अंश (/भावना) 
| का बोध होता है। पदबन्ध वाक्य-स्तरीय सब से .छोठा खंड होता है जो एक या 
एकाधिक शब्दों|पदों से निमित होता है । पदबन्ध से उपवाक्य की रचना होती है । 
. सामान्यतः (मोटे रूप से) दो या अधिक शब्दों/पदों का बह संयोजन जो एक ही 
| अवधारणा या कल्पना को व्यक्त करता है तथा जिस का निर्माण व्याख्याकारी शब्दों 
द्वारा मुख्य शब्द के विस्तार से होता है, पदबन्ध कहा जाता है। पदबंध में 
 व्याख्याकारी शब्द मुख्य शब्द से आर्थी तथा व्याकरणिक बंधन से जुड़े रहते हैं, 
यथा--पेड़ पर बठी चिड़ियाँ; पदल सफर करना; प्रश्न का उत्तर। शाब्दिक 
व्याकरणिक दृष्टि से पदबन्ध (/शब्दबंध) मुहात्ररापरक, पारिभाषिक और वाक्यगत 
(स्वतन्त्न) होते हैं । 

.... पद वाक्य में एक प्रकार्यात्मक कोश के पूर्णक के रूप में आने के कारण अपने 
कोश में अकेले या अपने विशेषकों, घनत्वकों, परिसीमकों या विस्तारकों के साथ 
आ कर पदबन्ध का प्रकायें करता है, यधरा-- तु यहाँ आए में त्रिविध शून्य प्रत्यय से 

युक्त रूप तू, यहाँ, आ' शब्द, पद, पदबन्ध का कार्य करते हुए एक वाक्य में गुम्फित 
|. हैं। रूप--शब्द निर्माणक प्रत्यय--शब्द; शब्द--पद निर्माणक प्रत्यय--पंद; पद -- 
... पदबन्ध कोशपृर्णक प्रकार्य (संज्ञा/कर्ता पदबन्ध कोश-पूर्णक; लक्ष्य स्थान पदबन्ध 
|... कोश-पूर्णक; क्रिया पदबन्ध कोश-पूर्णक) सूचक शून्य प्रत्यय से युक्त तू*, “यहाँ, 'आ 
तीन पदबन्धों का कार्य कर रहे हैं। इस प्रकार कहा जा सकता है कि पदबन्ध पद 
का ही एक बृहद वर्ग है जो एक इकाई के रूप में संग्ुफित हो कर वाक्य में दुष्ट 


होता है 
संरचना स्तर पर पदबन्ध में तीन बातों का होना आवश्यक है---]. एक 


.._या अधिक पद 2. पदों का परस्पर सम्बद्ध हो कर एक इकाई बनना. 3. वाक्य का. 
एक अंश होता । पदबन्ध पद का ही एक संग्रुफित विस्तृत रूप-होता है । पद का 
कु द 375 जल) । के 





ग ५२९५ ५ न कर] 
_. >...-->--.0.........0> ० अ४5साअनल०७४०- सपना केक गकाक॒ िचकानत “० 7 टिपकथर न पक 3 दे 2 अ शमिका एप; आम पक फब्मेक िपककेकरटा: कर 7:77 77777 7 तवा १0 अवी गर॑ फधाक माटी टच १.५ रतन. नाम वउता १७ वयाता५०५०८०००० मटका, >म्यकय आफ क्र िमेदाकाए शत 





376 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


विस्तार किसी विशेषक[घनत्वक/विस्तारक|परिसीमक के योग से सम्भव है। इस 
प्रकार प्रत्येक पद में पदबन्ध या उस का अंग बनने की शंक्ति अन्तनिहित होती है। 
प्रत्येक पदबन्ध में एक पद मुख्य होता है जो उस पदबन्ध का शीषे/केन्द्र कहलाता है 

यथा--य्रणशोदानुन्दन गोपी-प्रिय कृष्ण वृषभानुदुलारी सुन्दरी राधा को अच्त्मन से 
चाहते थे। इस वाक्य में अर्थ-आयाम/अथे-विस्तार की दृष्टि से तीन इकाइयां हैं-- 
. 4. यशोदानन्दन गोपी-प्रिय कृष्ण 2. वृषभानुदुलारी सुन्दरी राधा को 3. अन्तर्म॑न से 
चाहते थे । इन तीनों इकाइयों में कृष्ण, राधा, चाह” पद शीर्ष किन्द्र हैं तथा इन के 
आगे-पीछे आनेवाले'शेष (विशेषक) पद इन तीनों के वैशिष्ट्य|ग्रुणों को विस्तार, 
. सीमा या घनत्व प्रदान कर रहे हैं। ये विशेषक पद 'परिधीय पद” भी कहे जा धकते 
हैं। इन तीन पदबन्धों की शीषे इकाई (शकिन्द्र-इकाई) क्रमशः “संज्ञा, संज्ञा, क्रिया' है, 
अतः ये तीतों पदबन्ध क्रमशः संज्ञा पदबन्ध, संज्ञा पदबन्ध, क्रिया पदबन्ध कहलाते हैं।। 

प्रत्येक पदबन्ध का शीर्ष पद प्रकार्यात्मक खाँचे (80) का वास्तविक पूर्णक 
होता है तथा तत्संबंधी विभक्ति (कारक/वृत्ति) को ग्रहण. करने में समर्थ होता है। 
अथ या प्रकाये की दृष्टि से पदों' के आन्तरिक समुच्चय को व्यक्त करनेवाला एक. 

समाहारात्मक नाम 'पदबन्ध! है । इस प्रकार वाक्य स्तरीय प्रकार्य की दृष्टि से पद. 
तथा पदबन्ध एक ही काये करते हैं किन्तु संरचना की दृष्टि से पदबन्ध पद से बड़ी 
इकाई के रूप में दृष्ट होती है। प्रकाये की दृष्टि से पद, पदबन्ध समान होने के... 
कारण एक घटकीय पद को कुछ लोग केवल पद तथा एक से अधिक घटकीय पदों .. 
को पदबन्ध कहना अधिक उचित मानते हैं। इस दृष्टिकोण से संरचना-स्तर पर 
पदबन्धों को दो वर्गों में रखा जा सकता है--. सरल पदबन्ध केवल दो स्वतन्त 
शब्द-पदों से बनते हैं, यथा---छोटा कमरा; पुस्तक वाचन; काम करता; 2. जढिल 
पदबन्ध किसी शब्द|पद या किसी शब्दबन्ध|पदबन्ध द्वारा सरल पदबन्ध के विस्तार 

से बनते हैं, यथा--बहुत छोटा-सा घर; नोतिबोधक पुस्तक वाचन; अत्यन्त धीरे 
धीरे काम करना । इस प्रकार रचना स्तर पर पदबन्ध या शब्दबन्ध दृविभवयवी और 
बहु-अवयबी होते हैं, यथा--प्रादेशिक समाचार, केन्द्रीय समिति; केन्द्रीय कारागार; 


अथाह जल प्रवाह; महान अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति, मेरे पड़ोसी के बड़े बेटे का _ 
जन्म दिन ।.. क्‍ द 


... वाक्य में पदबंध पदों की भाँति ही काम करने के कारण शब्द-भेदों की भाँति 
पाँच प्रकार के हो सकते हैं । पदबंधों को शीष पदों के शब्द-वर्ग के आधार पर संज्ञा 
« पदबन्ध, स्वेनाम पदबंध, विशेषण पदबंध, क्रिया पदबंध, अव्यय पदबंध” कहा जाता _ 

.. है तथा पदों की भाँति प्रकायं करने के आधार पर “कर्ता पदबन्ध, कर्म पदबन्ध, पूरक 


....  पदबंध, क्रियापदबंध, अव्ययपदबंध कहा जाता है । संज्ञा, सर्वताम और विशेषण _ 
... पदबंध कर्ता पदबंध, कर्म पदबंध, पूरक पदबंध का कार्य केर सकते हैं। 


, संज्ञा पदबन्ध वाक्य में संज्ञा पद की भांति प्रयुक्त होता है, यथा-- 


....... दशरथ नन्‍्दन श्रीराम 4 वर्ष के लिए बत गए थे। रात भर जाग कर पहरा देने 
.. वाले लोग; बन्दूक की गोली से घायल बचह्ची; इतने घनी-मानी तथा पढ़े-लिखे 





पदबन्ध | 377 


क्ति से । प्रकार्य. की दृष्टि से कर्ता के रूप में, यथा--दोनों बच्चे किधर चले गए 
कर्म के रूप में, यथा--क्या आप ने पिछले सप्ताह की पत्रिका पढ़ी थी ? पूरक के 
रूप में, यथा-- वह बहुत शतान बच्चा है । 

संज्ञा पदबन्ध के शीर्ष के पूर्व आनेवाले विशेषक पद दस प्रकार के होते हैं--- 
(क) गुणवाची विशेषण, यथा--शतात्र बच्चा; सभ्य पुरुष (ख) संख्यावाची विशेषण, 
यथा--तीन बेटियाँ; एक बेटा (ग) परिमाणवाची विशेषण, यबथा--चार सीटर . 
कपड़ा; दो किलो चीती (घ) सावंतामिक विशेषण, यथा--थे कलकल करती नदियाँ; 
कोई बेसहारा लड़की (डः) कृदन्‍्तीय विशेषण, यथा--गिरते हुए बच्चे को; सूजी 
हुई आँखें (च) कतृ त्ववाची विशेषण, यथा--बंगलोर से आनेवाली गाड़ी; दौड़ में 
भाग लेनेवाले प्रतिभागी (छ) सम्बन्धसूचक, यथा--आप का बेटा; सोने का समय 
(जज) तुलनावाची विशेषण, यथा-- चाणक्य जसा कूटनीतिज्ञ मन्त्री; स्वामी विवेका- 
नन्‍द-सा तेजस्वी युवक (सं) पूर्वोषाधि विशेषण, यथा-- पंडित जवाहरलाल नेहरू; 
महात्मा गांधी (ज) परोपाधि विशेषण, यथा-संत ज्ञानेश्वर महाराज; भक्तवत्सल 
श्री. रामचन्द्र जी सहाराजाधिराज । कभी-कभी संज्ञापदबंध के शीर्ष के पू्ष॑ आने 

वाले विशेषकों की एक लम्बी शव खला मिलती है, यथा--कल रात हमारे घर आए > 
हुए वे चारों मेहमानों ने; बाल कृष्ण ने उस सहल्ल फनवाले भयंकर काले नाग को 
आप एक अष्यन्त प्रतिष्ठित और धनवान व्यवसायी के परिश्रमी सुपुत्र हैं । 

2. सर्वनाम पदबन्ध वाक्य में सर्वंनाम पृद की भाँति प्रयुक्त होता है, यथा-- 
मुझ अकिचन से जो बन पड़ेगा, आप की सेवा में पहुँच जाएगा। भाग्य का मारा 
वह बेचारा । सर्वनाम शीर्ष के परिधीय तत्त्व विशेषण शीरष के पू्र या पश्चातू तथा 
पर्व और पश्चात्‌ आ' सकते हैं, यथा--में अकेला क्या कर सकता हूँ ? उस (दुष्ट) ने 
मुझे बहुत कष्ट दिया है। तेजी से दौड़ती हुई वह गाड़ी से जा टकराई । पति की 

मृत्यु के बाद पगलाई-सी बह मारी-मारी फिरती रहती है । सती के शाप से शापित 
वह बेच्ारा अब पश्चाताप की आग में जल रहा है। प्रकार की दृष्टि से कर्ता के 
रूप में प्रयुक्त सर्वंताम पदबन्ध, यथा--हम सब एकसाथ चलेंगे। तू बेईमान मेरा 
|. क्‍या बिग्राड़ सकेगा ? कर्म के रूप में, यथा--क्या सरकार हम गरोबों को भी किसी 
.. अच्छी जगह बसाएगी ? आज तुम दृष्टों को एक-एक .कर सबक सिखाया जाएगा। 
सर्वताम पदबंध में शीर्ष के परिधीय तत्त्व (विशेषक) ये पद हो सकते हैं-- 
._(क) संख्यावाची, यथा-वे चारों; तुम तीनों (ख) समुदायवाची, यथा--तुम सब; 
.._ हम लोग (ग) गुणवाची, यथा--तू बेईमान; हम सिद्धान्तवादी (लोग) (घ) दशावाची, 
. यथा--वह बेचारी; मैं गरीब (ड) तुलनावाची, यथा--वह इष्टदेव के मन्दिर की 
5 पूजा-सी।॥ - हे हि 
..... 3. विशेषण पदबन्ध वाक्य में विशेषण पंद की भाँति प्रयुक्त होतः है, यथा-- 
'रो-रसो कर घर भर देनेवाली लड़की को कोई प्यार नहीं करता । शेर के समान 
... बलवान (व्यक्ति); नाली में तेजी से बहुता हुआ (बच्चा); चाँद से भी ज्यादा सुन्दर 














५2200२3३७४% |; ५.०५ >५०-म-++३ 3०००-०५ ००००० ना पट चाल थ० धटल+ काका :सिययों ।2 775 कप 7 मकर णरफधपरभ/सानबाब्दा फनभामत पट ॥प०ट भव कक लक लेलक, 
को कक >ड८: 4 0 फदए एस: कफ शा: श्शशलललननए 7 धरा: जम न्‍नान "7 एफ्ाफकसा, "पु कम शक्कर २ सा नमक अू>्रकजपतट, किला दक कक कसेनकक. 


बनने न बन ननकरननक १८० 2 किए: ता ््य55 








378 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(मुख); मीटर दो मीटर (कपड़ा); एक बाल्‍्टी भर (पानी); गिनती के कुल 
(लोग) । विशेषण शी के पूर्व आनेवाले प्रविशेषक घनत्वक, विस्तारक, परिसीमक 
के रूप में परिधीय संरचक होते हैं । प्रकायं के रूप में विशेषण पदबन्धों का स्वरुप 
यह हो सकता है--(क) पूरक, यथा-- बलों की जोड़ी बहुत ही सुन्दर है । (ख) संज्ञा 
पद-विशेषक, यथा--ग्रुलाब में दो छोटे-छोटे फूल आ गए हैं । (ग) संज्ञा पद-स्थाना- 
पन्‍त, यथा--खानेवालों को कमाने के लिए तेयार रहना चाहिए। (घ) लुप्त उपभेय- 
स्थानापन्‍न, यथा--आज अचानक एक रति जसी सुन्दरी दिखाई दी थी। विशेषण 
पदबन्ध के शीर्ष के पूर्व आनेवाले प्रविशेषक छह प्रकार के होते हैं--(अ) घनत्वक, . 
यथा--बहुत सुन्दर; थोड़ा बड़ा (आ) साहश्यक, यथा--जिराफ जितनी लम्बी: 
शिह-जेसा बलवान (इ) तुलनात्मक, यथा--दोनों में मोटी; हीरे से भी अधिक कठोर 
(ई)“(तुलना) स्तरबोधक, यथा--सब से साफ; सब सें गया बीता (उ) नैकटय 


प्रकाशक, यथा--कुछ उतरा उतरा-सा; जरर खट्टी खट्टी-सी (ऊ) अनुमानसचक, 
यथा--लगभग दस हजार; कोई एक लाख । 


4. क्रिया पदबंध वाक्य में क्रियापद की भाँति प्रयुक्त होता है, यथा--इस 
बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता | दौड़ता चला जा रहा है (|था); आते ही 
कहने लगा था; ग्रुनगुनाती चली आ (/जा) रही है। क्रिया पदबंधों की रचना दो .. 
प्रकार की मिलती है--() समापिका क्रियापदों से बनी अन्तःकेन्द्रित रचना... 
(7) असमापिका क्रियापदों से बनी बाहय केन्द्रित रचना । अन्तःकेन्द्रित रचना में. 
समापिका क्रिया के साथ “नकारात्मक/निषंधवाची/अवधारक” .निपात भी आ सकते 
हैं, यथा--गिर ही पड़ा; गिर न जाए; पढ़ा भी नहीं जाता । बाहूय केन्द्रित रचता .. 
वास्तव में अव्यय/क्रियाविशेषण पदबंध या विशेषण पदबंध के रूप में होती है, . 
. यथा--कबड्डी खेलते हुए; शराब पी कर; बग्घी में बेठी हुई; सब से तेजु र फ्तारसे 


चलनेवाली । क्‍ कं 
5. अव्यय पदबन्ध वाक्य में अव्यय पद की भाँति प्रयुक्त होता है, यथा-- 


वह भूमि पर लुढ़कते हुए चिल्लाने लगा । गली में हो कर (जाना); पहले से भब _ 

अच्छी तरह (बोलने लगा है); अगले माह के अन्त से पूर्व ही (चुका दियां जाएगा); 
बड़ी सावधानी के साथ (बोलना होगा); बाहर की ओर; गली में से; छत पर से; 
इसलिए कि; हाय-हाय रे ! अव्यय पदबंध की रचना में अव्यय शीष॑ होता है 


.. जिस के साथ परिसीमक, घनत्वक या विस्तारक पद-आ सकते हैं। अव्यय पदबन्ध/ 
अविकारी अव्यय शब्दों से/संज्ञा शब्दों में परसगग के योग से/परसगं-रहित तियंक्‌ 


संज्ञा शब्द से बच सकते हैं। सामान्यत, अव्यय पदबन्ध क्रियापदबंध के संरचक के 
रूप में आते हैं, यथा--इठलाती हुई जा रही थी' । अव्यय पदबन्ध शीषे के. आधार 


. पर कई प्रकार के हो सकते हैं--(क) समयवाची, यथा--ठीक वक्त पर; आधी रात 

... को; मार्च के महीने में; दिन-दिन भर (ख) स्थानवाची, यथा--कमरे के अन्दर; 

. .. कक्षा से बाहर; अन्दर-अन्दर से (गर) कारणवाची, यथा--छट्टी पर (जा रहे हो) 
.... डर से (काँप उठी) (घ) अलग्राववाची, यथा--बिजली के खम्भे से हट कर (खड़े हो); 











पदबाधघ | 379 


. हिमालय से निकली (गंगा““) (डा) क्रमवाची, यथा--होली मनाने के बाद; मैसूर 
पहुँच कर; ताश्ता-पानी करने के बाद (च) साधनवाची, यथा--छड़ी के सहारे 
(चलते हुए); खुली आँखों से (देख कर) (छ) उद्देश्यवाची/मनोरथवाची, यथा--- 

में दाखिल होने के लिए (दौड़धूप); नाश्ते के लिए (इडली-दोशा ला कर) 
(जि) रीतिवाची, थथा--बहुत धीरे-धीरे (चल रही हो); प्रश्व को ध्यानपुर्वंक सुन कर 
(झ) सहवाची, यथा--मन्दे बच्चों के साथ (खेल-खेल कर); गरम पादी या दूध के 
साथ [ले कर) (ज) विनिमयवाचरी, यथा-- दस रुपये में बेच कर (कितना मुनाफा . 
कमा लेते हो ?) गाली के बदले मार-पीट कर के भी (5) इतरवाची, यथा--आप के 
सिवा; रिश्तेदारों के अलावा/अतिरिक्‍त । क्‍ द 

संरचना तथा प्रकायें की दृष्टि से मुहावरे, लोकोक्तियाँ/कहावतें भी पदबन्ध 

की भाँति होते हैं, यथा--अड्डा जमादा, आँसू पोंछना, कागजी घोड़े दौड़ाना 
चिकना घड़ा (होता); ढोल में पोल (होता), बाल की खाल (निकालना/|उतारना), 
हाथ-पाँव फूलना; अंधों में काना राजा; उलटे बाँस बरेली को; एक पंथ दो काज 
कोयलों की दलाली में मुह काला, चोर-चोर मौसेरे भाई, मन चंगा तो कठौती में 
गंगा, हाथ कंगन को आरसी क्‍या ! ' । 

द पदबंध-रचना में “ईय, -वानू, -कार, -वाला, -मय, -आत्मर्का प्रत्यय 
अन्तिम संज्ञा शब्द/पद में लगने पर भी पूरे पदबंध में वेशिष्ट्य लाते हैं, यथा--पंच- 

. वर्षीय (योजना), सर्वोच्च प्रतिभावान्‌ (महिला), यथार्थवादी आदर्शोन्मुखी उपन्यास- 
कार (मुंशी प्रेमचन्द), सुरुचिपूर्ण भोजन बनानेवाली (महाराजिन), अतीव 

. आनन्दमय (समाचार), अत्यन्त गम्भीर .संसस्यात्मक (समाचार) । इसी प्रकार 

सामासिक शब्दों से बननेवाले पदबन्धों के अच्तिम|परपद पृवव॑पदों/पृववेफ्दस्थानीय 

. पदबंध में वशिष्ट्य लाते हैं, न कि केवल अपने से पू्व पद में ही, यथा--निष्ठापूर्वक 

। कार्य करने का प्रमाण-पत्र; अथ, धर्म, काम एवं मोक्ष संबंधी (बाते); श्रवण एवं 

। भाषण विधि; एक ही समय पर कई कार्य करने में समर्थ-प्रतिभा सम्पन्न (व्यक्ति); 

ज्ञान, भक्ति तथा कम संबंधी दाशंनिक चर्चा । 

हिन्दी में अनेक संज्ञा शब्दों के साथ </ कर जोड़ कर क्रियापदबंध बनाए 
जाते हैं जिन में संज्ञा शब्द दो प्रकार का कार्य करता हुआ दिखाई देता है--() पद- 
बंधात्मक क्रिया के एक घटक के रूप में (पदरबंध से अधीन रहना) (2) स्वतन्त्र शब्द 
के रूप में वाक्य के विशेषणादि शब्दों से अन्वित रहता, यथा--सभी आस्तिक अदृश्य _ 
भगवान को पूजा करते हैं । लगभग सभी भारतीय महात्मा गांधी का आादर करते _ 
हैं। ऐसा संयुक्त या समस्त क्रियापदबंध हिन्दी भाषा की एक विशेषता है। इस 


| .. प्रकार के कुछ (संग्रुक्त/|समस्त) क्रियापदबंध हैं--(का-+-) अभिमात/|आदर/आरम्भ| 

|... समापन|अपमान/उपकार करना, (की-॑-) पूजा/मरम्पत[पिटाईिष्डा|विदा करता, 
.. (कोन॑-) प्रणाम|नरम्नस्कार|सहन|पसन्द करना, (से-न-) वर/भय/प्रार्थंतरा/प्रश्न करना, 

|... (पर-॑-) कृपा[दिया मिह रबानी|घमण्ड/अभिमान|भरोसा|विश्वास करना । 





आज मल मर. नी जलकर ओर अली बज अब कह 2 के जद लक नरक न लत बम अमल पी 








. _वाक्य-साथंकता 


तक का 7 ५2 बदाका "7 जाकर्तभ्कमाइ तर, का ड४> कट च '>श्क्आर ७ ११उत्म/कक 'ऋ्टक फ्राइफद २ %छथ, ५. फल अनाएकरए"।कानसजवाकजाई ९7: 





. भाषा अगणित पूर्ण तथा बोधगरम्य/स्पष्ट विचारों का समाहार है। प्रत्येक 
पूर्ण विचार के पीछे एकाधिकः भावनाएँ छिपी होती -हैं । वाक्य का मुख्य प्रयोजन: 
मानव के भावों-विचारों के छिपे अर्थे का स्पष्टीकरण करना है। साहित्यिक रचनाओं 
का सीन्दयं, गाम्भीयं, सारल्य, प्रभावात्मकता, गुण-दोष आदि उन के वाक्य-संगठन 
पर आधारित हैं । द द 
देनन्दिन व्यवहार में हम वाक्‍्यों के माध्यम से परस्पर विचार-विनिमय 
करते हैं। कभी ये वाक्य दो-चार पदवाले होते हैं तो कभी 5-20 पदवाले। 
सामान्यतः प्रत्येक पूर्ण विचार एक वाक्य में व्यक्त होता है और प्रत्येक भावना एक 
शब्द/पद में । एक वाक्य में कम से कम प्रत्यक्षत: या प्रच्छन्त रूप में दो पद होते हैं । 9 
. कभी-कभी हम एकपदीय (प्रच्छन्‍तत: दविपदीय) वाक्य से भो काम निकाल लेते हैं, : 
यथय--अपने साथ चलने के लिए हम किसी से इतना-भर कहते हैं--आओआइए। 
चलो/चलिए' | माँ के पूछने पर उस के बच्चें अपनी-अपनी पसन्द की वस्तुओं का 
केवल नाम-भर लेते हैं--“टॉफी/गुब्बारा/गेंद/गुड़िया' । इन एकपदीय वाक्यों में दूसरा 
पद (तुम/आप; चाहिए) लुप्त है । 8 पारित कक अक पाय आ कम कर 
... अनेक शब्दों के विभिन्‍न सन्दर्भों में विभिन्‍न अर्थ हो सकते हैं। किसी शब्द: 
का वाक्य में प्रयोग किए बिना निश्चित अर्थ व्यक्त नहीं हो पाता । यद्यपि शब्द. 


स्वयं में अथंवान्‌ होते हैं किन्तु वाक्य तभी बनता है जब वांछित अथंवान्‌ इकाइयों. 


(शब्दों) को भाषा-व्यवस्था के अनुरूप ऐसे क्रम में रखा जाता है जिस से वक्‍्ता। 


लेखक का इच्छित भाव/विचार व्यक्त होता है। इस प्रकार बाक्‍्य ही भाषा-व्यवहार 
की लघुतम साथ्थंक इकाई है। दूसरे शब्दों में वाक्य व्याकरणिक संरचना की सब. 


चने बड़ी|दीघेतम सार्थक इकाई है तथा सम्प्रेषण व्यवस्था की सब से छोटी/लघुतम 
इकाई है” । कोई भो उक्ति जो वक्‍्ता/लेखक की दृष्टि से पूर्ण अर्थवान्‌ है और जो... 
श्रोता|पाठक पर कोई-न-कोई श्रभाव डाल सकती है, उस में कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न 


....._ कर सकती है, या उसे गतिशील बना सकती है अथवा होने या स्थित होने का बोध... 
... करा सकती है, वाक्य बनने की सामथ्थ रखती है। वास्तव में वाक्य केवल अर्थ का... 


.... बोध ही नहीं कराता, वरन्‌ उ 





' से एक ऐसा मन्तव्य प्रकट होता है जिस में एक... 


/ 


वाक्य-साथंकता | 38व 


_बर्णता और समग्रता हुआ करती है। कोई वाक्य पूर्ण विचार/भथे व्यक्त करने में 
समर्थ है या नहीं, इस की जाँच के लिए संस्कृत के आचार्यों ने तीन कसौटियों का 
उल्लेख किया है--. योग्यता, 2. आकांक्षा, 3. आसत्ति/नैकट्य । 

द . योग्यता वाक्य का वह गुण है जिस के कारण वाक्य का अन्वय करने पर 
अर्थवोध में (किसी प्रकार की) बाधा उत्पन्न नहीं होती । वाक्य में उन्हीं शब्दों का. 
प्रयोग होना चाहिए जिन से वक्‍ता/लिखक के अभौष्सित अथे की अभिव्यक्ति होती हो । 

' अभीष्सित अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए चयन किये गये शब्दों का रूप (+-पद-रूप) 
भी भाषा-व्यवस्था के अनुरूप होना चाहिए। इस प्रकार उसी वाक्य में योग्यता 
का गुण पाया जाता है जिस के पदों में उपयुक्त अर्थ-बोध सामथ्यें तथा उपयुक्त 

! पद-समर्थता होती है; यथा--बीमार को फल खिलाओ और दूध पिलाओ ।” वाक्य 
के पदों में उपयुक्त अथ-बोध सामथ्यं तथा उपयुक्त पद-सम्र्थता है, अतः इस वाक्य 
नें वाक्य' कहलाने की योग्यता है। बीमार को पहाड़ खिलाओ और आग पिलाओ' 
वाक्य में उपयुक्त पद-समर्थंता तो है किन्तु उपयुक्त अथे-बोध सामथ्यें का अभाव 
है, अतः इस वाक्य में वाक्य” कहलाने की योग्यता नहीं है। “बीमार फल खा और 

दूध पी वाक्य में. उपयुक्त अर्थवान्‌ इकाइयाँ तो हैं किन्तु उपयुक्त पद-रूप का अभाव 
है, अतः ऐसे वाक्य में भी वाक्य” कहलाने की योग्यता नहीं है । 


।. 2. आकांक्षा--एक पद सुनने|पढ़ने के बाद श्रोता|पाठक में वक्‍ता/लिखक 

| के भावों-विचारों को जानने के लिए दूसरे या अन्य पदों को सुनने/पढ़ने की जो 

| स्वाभाविक उत्कण्ठा|जिज्ञासा होती है, उसे “आकांक्षा' कहा जाता है। पूर्व अनुच्छेदों 

। में यह कहा जा चुका है कि सामान्‍्यत: प्रत्येक वाक्य में वक्‍ता/लिखक अपने अभीष्सित 

| श्ावों-विचारों की अभिव्यक्ति के .लिए सन्दर्भ के अनुरूप उपयुक्त शब्दों का चयन 

| करता है और फिर उन्हें भाषा-व्यवस्था के अनुरूष उपयुक्त पद-क्रम में व्यक्त करता _ 

| है, तभी वह वाक्य अर्थ-बोध कराने में समर्थ होता है। यदि वक्‍ता/लिखक किसी 

।  अभीष्सित अर्थ के लिए समस्त, वांछित शब्दों का चयन नहीं करता तो श्रोता/|पाठक' 

। को उस अधूरे वाक्य से अर्थ-बोध नहीं हो पाता | श्रोता|पाठक की उस संबंध 

| में और कुछ सुनने/पढ़ने की आकांक्षा बनी रहती है, यथा--यह ग्वाला गाय' सुनने/ 

|. पढ़ने से श्रोता/पाठक की अथेबोध-आकांक्षा तृप्त नहीं हो पाती । उस की आकांक्षा- 
_तृष्ति तभी होती है जब वह यह सुनता पढ़ता है-- यह ग्वाला गाय का दृध दुह 

| रहा है।” या यह ग्वाला गाय का दूध नहीं बेचता । इसी प्रकार बिना किसी पूर्वे 

| प्रसंग के 'दुह रहा है” या “दूध नहीं बेचता' सुनने/पढ़ने मात्र से श्रोता/पाठक्‌ की 

| अथबोध-आकांक्षा तृप्त नहीं हो पाती, जब तक वह यह न सुने/पढ़े--- नौकर (भेंस 

|. का) दूध दुह रहा है ।' या “मैं (गाय का/चैंस का/डेरी का) दूध नहीं बेचता । जिस 

| उक्त में आकांक्षा-पूति की सामथ्य होती है, वही उक्ति वाक्य कही जा सकती.है। 


3, आसत्ति/नैकट्य--किसी उक्ति/वाक्‍्य के पदों में दी प्रकार की निकटता हि 








वितरण कु 











382 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(सान्निध्य) हो सकती है--(क) समय-निकटता (ख) स्थान-निकटता । भाषा-व्यवहार 
में वक्‍ता अपनी कथ्य-अभिव्यक्ति में भाषा-व्यवस्था के अनुरूप पदों|पदबंधों के मध्य 
उपयुक्त क्षणों के विराम के साथ समय-निकटता रखता है। सभाज के द्वारा सहज 
रूप में स्वीकृत क्षण-विरामस (/समय-निकटता) में वृद्धि या कमी होने से  श्रोता को 
अर्थ-बोध में कठिनाई|बाधा होती है, यथा--अभी-अभी (चौथाई पिनट 
चुप॑ रहने के बाद)"”'*“एक लड़की (एक तिहाई मिनट चुप रहने के बाद)" 
उस घर में (दो तिहाई मिनट चुप रहने के बाद)'“-घुसी है।” वाक्य 


कक 


. के पदों/|पदबंधों में उपयुक्त समय-आासत्ति न होने से श्रोता को अर्थ-बोध 


में बाधा का अनुभव होता है, अतः ऐसी उक्ति को वाक्य नहीं कहा जा सकता । इसी. 
प्रकार अभी-अभी एक लड़की उस घर में घसी है' उक्ति को अत्यधिक तीज गति के , 
साथ (एक शब्द पर दूसरा शब्द चढ़ाते हुए) बोलने पर भी श्रोता को अर्थ-बोध में बाधा ._ 
का अनुभव होता है । वाक्यों में पद/|पदबंध समाज-स्वीकृत पदक्रम (स्थान-निकटता) 


: व्यवस्था के अनुरूप रहते हैं। पदक्रमों का उपयुक्त स्वरूप छिन्न-भिन्‍न होने से श्रोता| 


पाठक को अथं-बोध में बाधा का अनुभव होता है, यथा--परिचय चाहा महिला उस 
का गोपाल ने जानना । इस प्रकार के वाक्य में पदों की उपयुक्त स्थान-निकटता का 
अभाव होने से वाक्याथे-बोध में बाधा उत्पन्न होती है। वाक्य में योग्यता तथा _ 


: आकांक्षा-पूर्ति के अतिरिक्त पदों की आसत्ति ( नेकटूय|सस्निधान) होने पर ही उस 


अथे-बोध में सरलता आती है, अन्यथा अथे-बाधा उत्पन्न हो जाती है। .... 
हिन्दी वाक्यों सें अर्थ-सामीप्य दर्शक प्रयोग---वकक्‍्ता कभी अपनी बात को 


क्‍ ह निश्चित रूप से कहता है और कभी वह निश्चित जानकारी न दे कर अनुमान अन्दाज्‌_ 


का सहारा लेता है, ग्रथा--/उस ने आज' पाँच सौ रुपये की एक साड़ी खरीदी (है|थी)' 


वाक्य निश्चित सचना दर्शक है। शायद आज वह करीब पाँच सौ रुपये की दो-तीन द 


साड़ियाँ खरीदे ( वाक्य अनिश्चित|आनुमानिक सूचना दशंक है | निश्चित जानकारी _ 
के अभाव में शायद, क्रीब/लगभग/आसपास/के आसपास/के निकट|के क्रीब/|तक्रीबन, .. 


. लगता है।अन्दाज है।हो सकता हैं, चार-छह|दस-बीस आदि, कोई, चाय-बाय जैसे 8 
पुनरुकत शब्दों, -जैसा/-तुमा/-वत्‌-सा, छोटा-बड़ा जैसे विलोमार्थी शब्दों का प्रयोग 
किया जाता है, यथा-- 


द शायद आप परसों नहीं आए थे । वे लोग शायद रेलगाड़ी से आ रहे होंगे। द 
हों । कल की सभा में चार-छह (/दक्ष-बीस/पाच-सात/सात-आठ|[तीस-पैंतीस/दो-तीन 


 हजार)लोग आ पाएंगे/आ सकते हैं। हमारे पुस्तकालय में कोई' हजार-सवा हजार | 

(चार हजार) पुस्तकें होंगी ।- हम यहाँ करीब (|लगभग) नौ: बजे पहुँचे थे। उस 

.... समय वहाँ खात्ता क्रीब-क्रीब खुत्म. हो गया था। उत्तर प्रदेश के विधायकों की 

..... संख्या क्रीब|(लगभग/तकरीबन, 500 है (कोई 500/500 के आसपास,के लगभग/ 

. ... . के निकट क्रीब होगी;). कोई 475-500 है। लगता है (|हो सकता है/अन्दाज 
हम ० : है|अनुमान है) सभा में हजार (|हजार-डेढ़ हजार) आदमी होंगे ((रहे हों)। मेरे 


9, 5 आशय कक 











वाक्य-सा्थंकता | 383 





खयाल (अन्दाज|अनुमान/विचार) से (/अगर मैं गुलत नहीं हुँ तो/|जहाँ तक मेरी 
जानकारी है|शायद) हमारे कलिज के छात्रों की संख्या 2780 है। मुझे ठीक याद 
नहीं है कि हमारे कॉलेज के छात्रों की संख्या 2780 है या 2785 । 


चाय-वाय भी पिलाओंगे या यों ही टरकाने का विचार है ? पीने-पाने को 
कुछ है या-नहीं ? हमें कम्प्यूटर-वम्प्यूटर के बारे में कुछ नहीं जानना, दैनन्दिन 
शिक्षण-साधनों के बारे में बताइए । तुम्हारा' गला तो बहुत अच्छा है---अच्छा-बच्छा 
कुछ नहीं, यों ही कुछ गुनगुना लेती हूँ । तुम्हारे पास नये-पुराने कई जोड़े जूते हैं, 
मेरे पास एक नया और एक पुराना जोड़ा है। भैंस-सी (/-जैसी/के समान) मोटी 
(काली); भूतिवत्‌ खड़े रहना, मातृवत्‌ प्रेम; सुईनुमा हथियार; छोटा-सा ( बड़ा-सा) 
घर; अच्छी-सी ((बड़ी-सी/छोटी-सी) मेज । द 

वाक्य-साथेकता आधार- वाक्य” शब्द-चयन तथा संरचना-श्रू खला 
(४०0०० & 0थ्या)) का संग्रुम्फित रूप है जिस में साथंकता के लिए शब्द (/पद) 
क्रम, अन्विति, नियमन ((अधिशासन|/नियच्च्रण), अनुतान की आवश्यकता होती है। 
(वाक्य-रचना की दृष्टि से ये 'वाक्य-विन्यास' के विषय हैं, अतः इन पर अध्याय 
26 में विस्तार से लिखा जाएगा ।) 

..... काल-सापेक्ष वाक्य-सार्थकता-- अध्याय 7 में क्रिया-कालों की चर्चा की 
_ जा चुकी है। यहाँ वाक्य-साथंकता को काल-सापेक्ष दृष्टि से देखने का प्रयास किया 
हे रहा है । विभिन्‍न काल वाक्य प्रयोग-सन्दर्भ' की दृष्टि से विभिन्‍न अर्थों के सूचक _ 

, यैथा--- 

(।) सामान्य वर्तमान काल-प्रयोग तथा अथ--(क) कार्य-वर्तेमानता-- 
कथन के क्षण के साथ-साथ होनेवाले व्यापार की सूचना, यथा--पिता जी, माँ 
आप को अन्दर बुलाती (--बुला रही) हैं । लो, याड़ी आती (5>आ रही) है। अभी 
तो पानी आता (5-आ रहा) है | (ख) स्थिति-सूचना--क्या यह दियूब लाइट जलती 
: है? (ग) गुण-धर्म सुचना-पानी 00 सेन्टीग्रेड तापमान पर उबलता है (*उबला था)। 
(घ) आदत/स्वभाव-सूचना--वह बहुत अच्छा नाचती है । मैं रोजाना सवेरे आँवले का 
पानी. पीता हूँ । (डः) शौक|व्यसन|व्यासंग-सुचना---तुम शराब पीते हो, मैं दूध पीता' 

हूँ। वह मजदूरी करता है, मैं पढ़ाता हूँ । (च) सिद्धान्त|नित्य सत्य-सूचना--पृथ्वी 
. सूर्य की परिक्रमा करती है। ध्रुव ब्रदेशों में छह महीने. का दिन होता है ([हुआ 
| करता है) ।+ सूरज प्रब में उगता “था) । (छ) भविष्य-नंकट्य सूचना---आप बेठिए 

|. मैं अभी आता हूँ (यह केवल इसी संदर्भ में प्रयुक्त तथां प्रगामी कार्य का उदाहरण 
.._ है) + मैं आप के पैरों पड़ता हूँ, दो दित और इस खेत को न बेचें | ठीक है, यदि तुम 

ऐसा कहते हो तो मैं दो दिन और झुक जाऊंगा । (ज) अनुमति-सुचना-- अच्छा, _ 


.._ अब मैं चलता है। (झ) इच्छा-सुचना--हम चाहते हैं कि" (ञ्ञ) प्रा्थना/निवेदन- क्‍ 
. सूचना--मैं, प्राथंना/निवेदन करता हूँ कि/*। (ढ) भावना/आशा-सुचचा--हम आशा| 


। : उम्मीद करते हैं कि“ (5) ज्ञान|अनुभव/अनुभूति-सूचना--हमें लगता है (प्रतीत. 











हि 








384 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


होता है क्रि* । हम जानते हैं कि“ (ड) कथन-सूचना-- वह (सरकार) कहती 
(|पूछती) है कि" (ढ) अतीत-स्ृचना--मैं समझ चुकी थी कि वह ठीक ही कहती 


_है। मैं ने यह कब कहा था कि मैं झूठ नहीं बोलता (हूँ) । भरत आते हैं और देखते हैं 


कि अयोध्या के राजमार्ग सुने हैं (ण) अन्त:कथन-सूचना-- नाटकों की पुस्तकों में... 
प्रसंग से हूटी, कोष्ठकबद्ध सूचनाएँ, यथा--(शकुन्तला भरत को पकड़े कर खींचती 
है) । (त) निरन्तरता/अभ्यास|आवृत्ति-सूचना--जब भी मैं तुम्हारे यहाँ आता हूँ; तुम 

पढ़ते ही होते हो । (थ) बारम्बारता-सुचना-- जब-जब पृथ्वी पर अत्याचार बढ़ता है, . 
तब-तब भगवान्‌. अवतार लेते हैं। यहाँ सावन के महीने में प्रत्येक सोमवार को मेला 


लगता है। (द) देनन्दिन क्रिया-व्यापार सूचना--परिवार का खाना मेरी बड़ी बहन 
. “बनाती है, माँ गाय-भेंस, बलों का काम देखती (/करती) है । द 


(2) पूर्ण वर्तमान (/आसन्न भूत) काल--प्रयोग तथा अथ--(क) निश्चित ._ 
क्षण में सम्पन्त व्यापार-सूचता--अब साढ़े सात बजे हैं। (ख) कथन के क्षण सम्पन्न 
कार्य-व्यापार-सूचना--लगता है उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुमने सारी दवा 
नहीं पी है। (ग) दूरवर्ती वर्तमान प्रभावी क्रिया-सूचना--भा रतेन्दु हरिश्वन्धध ने कई 
नाटक लिखे हैं। (घ) अभ्यासं--मैं ने सैकड़ों कहानियाँ पढ़ी हैं । (डः) वर्तमान स्थिति 
सूचना--पाक में कुछ गुडे बेठे हैं (बडे हुए हैं)। सड़क पर कुचला हुआ कुत्ता... 


पड़ा है (/पड़ा हुआ है) (चर) आवृत्ति-सूचना--जब-जब उस ने मुझ से संबंध जोड़ा है, 


तंब-तब मुझे धोखा दिया है ः 

(3) सामान्य भूत काोल---प्रयोग तथा अथ---(क) अतीत अवस्थिति-सूचना-- 
कल यह पुस्तक उस मेज पर थी । नदी में बहुत मछलियाँ थीं | (ख) अतीत तथ्य- 
सृचना--शिवाजी समर्थ गुरु रामदास के शिष्य थे । (ग) अतीत सत्य-सूचना--कभी 
हिमालय के स्थान पर समुद्र था। किसी युग में यूरोप का जलवायु उष्णथा। 
(घ) निश्चित निर्देश-सुचना--इस दवात में काली .स्याही थी और उस में नीली 


. ([थी)। (डः) एक बार सम्पादित कार्यसूचना--मन्ती महोदय ने पुल का उद्घाटन 
किया। (च) एकाधिक बार अनुक्रम से संपांदित व्यापार-सूचना--मैं ने पृड़ियाँ . 
. खाई; उस ने चाय पी । (छ) अतीत में सामान्यतः सम्पादित व्यापार-सूचना--प्राचाय॑.. 
: में लड़कों से बहुत बुरा-भला कहा । (ज) भावी क्षण में सम्पादय क्रिया-सूचना--लो, _ 


मैं तो चला। माँ ने पुकारा--अरी, जुरा पानी तो दे जा और बेटी बोली--लाई 


माँ। (झ्ञ) सामान्‍य भविष्यतृ-सूचना--यदि तुम ने बेटी को हाथ लगाया तो मुझं से 


बुरा कोई न होगा । (ञञ) आसन्‍्त भविष्यत्‌ृ-सुचना--आप चलिंए, मैं अभी आया। 


लगता है वह चट्टान अब गिरी कि अब गिरी। (6) तिरस्कारमय वर्तमान-सूचना-- 

... लो! देख लो, ये आए सत्य के महावतार ! (5) वर्तमान-अपेक्षी प्रश्न-स्चना-देखां, 
....... कसी चालाकी की बातें कर रहा था। जो मैंने कहा है, आप उसे समझें! 
....ै....... (ड) सम्भाव्य भविष्यतू-सूचना--यदि आप वहाँ गए भी, तो भी कोई काम 
.. .... बननेवाला नहीं है। का ते | 





वाक्य-साथेकता | 385 


(4) पूर्ण भूतकाल--प्रयोग तथा अथ--(क) आदत-सचना--पहले मैं 


बहुत सोता (सोया करता) था। (ख) “कब' युक्त वाक्य में नकारात्मक-सूचनो---मैं 
उस के यहाँ कब जाता था ? (ग) अपूर्ण व्यापार-सूचना-- वह छाती पीट-पीट कर 
 चिल्‍लाती थी। (घ) बारम्बारता-सूचना--वकील जो जो पूछता था, गवाह उस का 
उत्तर देता था । (डः) तात्कालिकता-सूचना--वह माँग में सिन्दूर भरती ही थी (भिरने 
ही वाली थी) कि तारवाले ने आवाज दी। (चर) वर्तमान काल अपेक्षी पुनरावृत्ति- 
सूचना--मैं तो सोचता था ओर आज भी सोचता हूँ कि तुम सर्देव मेरी हो । 

(>) पुण भूत काल--प्रयोग तथा अर्थं---(क) इतर व्यापार या निश्चित क्षण 
से पूत्त सम्पन्त व्यापार-सुचना--डॉक्टर के आने से पूवव ही रोगी मर गया था । मैं 
आज छह बजे जागा थ/ । आज से कई सौ वर्ष पूर्व मुहम्मद गौरी ने भारत पर 
कई हमले किए थे । (छत) पू्ववर्ती व्यापार-सूचना--पिता जी से आँखें न चुरानी 
पड़ें, इसलिए मैं माँ के पास पहले ही चला गया था। खेद है कि मन्त्री जी ठीक 
समय पर उपस्थित न हो सके क्योंकि वे एक दुघंटना में फेंस गए थे । (ग) समक्षण 
पर घटित दो क्रिया-सुचना--हम स्टेशन पहुँचे ही थे कि रेल चल दी । (घ) परवर्ती 
सम्पन्त व्यापार के पूर्व असम्पन्न' व्यापार-सुचना--हम स्टेशन पहुँचे भी न थे.कि 
रेल चल दी । (डः) शर्तं-सूचना--यदि गोताखोर पानी में न उतरा होता तो लड़की 
.. भर ही गई थी । अगर पिता जी एक लाठी और मारते तो चोर घर में ही मर गया 

था। (च) आंसन्‍्न भूत (पूर्ण बतमान)-सुचना--तुम यहाँ इसलिए आई थीं (आई 
हो) कि इन के हाल-च्ाल पूछतीं न कि गुमसुम बैठतीं। | 
...... (6) सामान्य भविष्यत्‌ काल--प्रयोग तथा अर्थ--(क) सम्पादय व्यापार- 
.. सूचना--मैं ने तो निश्चय कर लिया था कि अब यहाँ ही ठहरूगा। तुम भी मेरे 
- साथ चलोगी, यह तो तुम ने बताया ही न था। क्‍या आप भी जाएँगे ? मेरी भी कुछ 
. सुनोगे ? या अपनी ही गाते रहोगे। (ख) शर्तयुक्त समय-निरपेक्ष क्रिया व्यापार- 
. सूचना--जों सोएगा सो खोएगा जो जागेगा सो पाएगा । अगर आँधोी आएगी तो 
अमियाँ गिरेंगी । (ग) काल्पनिक - अवस्थिति-सूचना--अरी, कहीं ऐसी बहू भी 

मिलेगी (|मिल सकती है) ! सच, क्‍या कैकेयी का हृदय अति कठोर होगा (/है)-- 
एक ने दूसरी से पूछा । (घ) प्रश्नयुत निवेदन-सूचना--क्या तुम मेरा इतना-सा 
.. काम (भी नहीं) करोगी ? क्या आज शाम को हमारे साथ चलेंगे ? (ड) सम्भावना- 


सूचना--कभी न कभी कहीं न कहीं कोई न कोई तो आएगा । कबहूँ तो दीनानाथ के _ 


झनक परेगी कान । (चर) सन्देह-सूचना--वह इस कौ बड़ी बहन होगी। पिता जी 
.. इन दिलों कर्नाठक में होंगे। क्या यह आदमी उन साहब का नौकर है ?--होगा 
: मैं कया जानूँ ? 


जा 


(7) प्रत्यक्ष विधि--प्रयोग तथा अर्थ--(क) प्रश्नयुत अनुमति-सूचना--क्या द 


हम घर जाएँ? मैं भी जाऊँ? (ख) आग्रह-सूचना--माँ, अब घर चलो, बहुत देर... 


25 











384 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


होता है क्रि””। हम जानते हैं कि””। (ड) कथन-सूचना--वह (/सरकार) कहती _ 
(|पूछती) है कि"” (ढ) अतीत-सूचना--मैं समझ चुकी थी कि वह ठीक ही कहती 
है | मैं ने यह कब कहा था कि मैं झूठ नहीं बोलता (हुँ) | भरत आते हैं और देखते हैं 
कि अयोध्या के राजमार्ग सुने हैं (ण) अन्तःकथन-सूचना-- नाटकों की पुस्तकों में... 
प्रसंग से हटी, कोष्ठकबदध सूचनाएं, यथा--(शकुन्तला भरत को पकड़े कर खींचती 
है) । (त) निरन्तरता/अभ्यास/आवृत्ति-सूचना--जब भी मैं तुम्हारे यहाँ भाता हूँ; तुम. 
. पढ़ते ही होते हो । (थ) बारम्बारता-सूचना-- जब-जब पृथ्वी पर अत्याचार बढ़ता है, . 
तब-तब भगवान्‌ अवतार लेते हैं। यहाँ सावन के महीने में प्रत्येक सोमवार को मेला 
लगता है। (द) दनन्दिन क्रिया-व्यापार सुचना--परिवार का खाना मेरी बड़ी बहन 
बनाती है, माँ गाय-भेंस, बेलों का काम देखती (/(करती) है । 
(2) पूर्ण वतमान (/आसन्त भुत) फाल--प्रयोग तथा अथ--(क) निश्चित . 
क्षण में सम्पन्त व्यापार-सूचता--अब साढ़े सात बजे हैं। (ख) कथन के क्षण सम्पल 
कार्य-ष्यापार-सुचना--लगता है उसकी बुद्ध भ्रष्ट हो गई है। तुमने सारी दवा 
नहीं पी है। (ग) दूरवर्ती वर्तमान प्रभावी क्रिया-सूचना--भा रतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कई 
नाटक लिखे हैं। (घ) अभ्यास---मैं ने सैकड़ों कहानियाँ पढ़ी हैं ॥ (छ)) वर्तमान स्थिति- 
सूचना--पाक में कुछ गुडे बठे हैं (बे हुए हैं)। सड़क पर कुचला हुआ कुत्ता... 
पड़ा है (पड़ा हुआ है) (च) आवृत्ति-सूचता--जब-जब उस ने मुझ से संबंध जोड़ा है, 
तब-तब मुझे घोखा दिया है ः 
(3) सामान्य भुतत काल---प्रयोग तथा अथ--(क) अतीत अवस्थिति-सूचना-- 
कल यह पुस्तक उस मेज पर थी। नदी में बहुत. मछलियाँ थीं । (ख) अतीत तथ्य- 
सुचना--शिवाजी समर्थ गुरु रामदास' के शिष्य थे। (ग) अतीत सत्य-सूचना--कभी 
हिमालय के. स्थान पर ससुद्र था। किसी युग में यूरोप का जलवायु छष्णथा। 
(घ) निश्चित निर्देश-सुचना--इस दवात में काली .स्थाही थी और उस में नीली 
 [थी)। (ह) एक बार सम्पादित कार्यत्सुचना--मन्त्री महोदय ने पुल का उद्घाटन 
किया। (जज) एकाधिक बार अनुक्रम से संपादित व्यापार-सुचना--मैं ने पूड़ियाँ 
. खाई; उस ने चाय पी । (छ) अतीत में सामान्यतः सम्पादित व्यापार-सूचना--प्राचायं 
ने लड़कों से बहुत बुरा-भला कहा । (ज) भावी क्षणं में सम्पादय क्रिया-सूचता--लो, 
मैं तो चला। माँ ने पुकारा--अरी, जरा पानी तो दे जा और बेटी बोली--लाई 
 माँ। (झ्ञ) सामान्य भविष्यत्‌ू-सूचना--यदि तुम ने बेटी को हाथ लगाया तो मुझ से 
बुरा कोई न होगा । (ज) आसन्‍त भविष्यतृ-सुचना--आप चलिंए, मैं अभी आया। 
लगता है वह चट्टान अब ग्रिरी कि अब गिरी। (८) तिरस्कारमय वर्तमान-सूचना-- 


.. लो देख लो, ये आए सत्य के महावतार ! (6) वर्तमान-अपेक्षी प्रश्त-सूचना--देखा, 


.. ' कैसी चालाकी की बातें कर रहा था ।॥ जो मैं ने कहा है, आप उसे समझें? 


... [) सम्भाव्य भविष्यत्‌ू-सूचना--यदि आप वहाँ गए भी, तो भी कोई काम _ 


7" अतनेवाों नहीं है. 





ञ्क़ः 


वाक्य-सा्थंकता | 385 





बहुत सोता (सोया करता) था। (ख) “कब' युक्त वाक्य में नकारात्मक-सृचनो---मैं 
. उस के यहाँ कब जाता था ? (ग) अपूर्ण व्यापार-सूचना-- वह छाती पीट-पीट कर 
 चिल्‍लाती थी। (घ) बारम्बारता-सूचना--वकील जो जो पूछता था, गवाह उस का 
उत्तर देता था । (डः) तात्कालिकता-सूचना--वह माँग में सिन्दूर भरती ही थी (/भरने 
ही वाली थी) कि तारवाले ने आवाज्‌ दी। (च) वर्तमान काल अपेक्षी पुनरावत्ति- 
सूचना--मैं तो सोचता था और आज भी सोचता हूँ कि तुम सर्देव मेरी हो । 

(5) पूर्ण भूत काल--प्रयोग तथा अर्थ---(क) इतर व्यापार या निश्चित क्षण 
से पूत् सम्पन्त व्यापार-सुचना--डॉक्टर के आने से पूर्व ही रोगी मर गया था। मैं 
आज छह बजे जागा थः । आज से कई सौ वे पूर्व मुहम्मद गौरी ने भारत पर 
कई हमले किए थे । (खत) एव॑वर्ती व्यापार-सूचना--पिता जी से आँखें न चुरानी 
पड़ें, इसलिए मैं माँ के पास पहले ही चला गया था। खेद है कि मन्त्री जी ठीक 
समय पर उपस्थित न हो सके क्‍योंकि वे एक दु्घेटना में फंस गए थे । (ग) समक्षण 
. पर घटित दो क्रिया-सुचना--हम स्टेशन पहुँचे ही थे कि रेल चल दी। (घ) परवर्ती 

_सम्पत्त' व्यापार के पूर्व असम्पन्त व्यापार-सुचना--हम स्टेशन पहुँचे भी न थे.कि 
रेल चल दी । (ड) शत्तं-सूचना--यदि गोताखोर पानी में न उतरा होता तो लड़की 
मर ही गई थी। अगर पिता जी एंक लाठी और मारते तो चोर घर में ही मर गया 


(4) अपूर्ण भूतकाल--प्रयोग तथा अथं--(क) आदत-सूचना--पहले मैं 


_था। (च) आसन्‍्न भूत (/पूर्ण वर्तमान)-सूचना--तुम यहाँ इसलिए आई थीं (आई. 


हो) कि इन के हाल-च्राल पूछतीं न कि गुमसुम बेठतीं। 
... (6) सामान्य भविष्यत्‌ु काल--प्रयोग तथा अथं---(क) सम्पादय व्यापार- 
. सूचना--मैं ने तो निश्चय कर लिया था कि अब यहाँ ही ठहरूगा | तुम भी मेरे 
साथ चलोगी, यह तो तुम ने बताया ही न था| क्‍या आप भी जाएंगे ? मेरी भी कुछ 
_सुनोगे ? या अपनी ही गाते रहोगे। (ख) शर्तयुक्त समय-निरपेक्ष क्रिया व्यापार- 
सूचना--जो सोएगा सो खोएगा जो जागेगा सो पाएगा । अगर आँधी आएगी तो 
 अभियाँ गिरेंगी। (ग) काल्पनिक- अवस्थिति-सूचना---अरी, कहीं ऐसी बहू भी 
मिलेगी (/मिल सकती है) ! सच, क्‍या कैकेयी का हृदय अति कठोर होगा (/है)-- 
. एक ने दूसरी से पूछा । (चघ) प्रश्नयुत निवेदन-सूचना--क्या तुम मेरा इतना-सा 
... काम (भी नहीं) करोगी ? क्या आज शाम को हमारे साथ चलेंगे ? (ड) सम्भावता- 
सूचना--कभी न कभी कहीं त कहीं कोई न कोई तो आएगा । कबहुँ तो दीनानांथ के 
. भनक परेगी कान। (चर) सन्देह-सूचना--वह इस की बड़ी बहन होगी। पिता जी 
इन दिलों कर्नाटक में होंगे । क्या यह आदमी उन साहब का नौकर है ?--होगा 
मैं क्या जान॑ ? 


(7) प्रत्यक्ष विधि--प्रयोग तथा अर्थ--(क) प्रश्नयुत अनुमति-सूचना--क्या 


.. हम घर जाएँ? मैं भी जाऊँ? (खर) आग्रह-सूचना--माँ, अब घर चलो, बहुत देर 
205 “25 क्‍ 


जा 








. 386 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


- हो गई । क्‍ (ग) निवेदन-सूचना--भगवन्‌, अब मुझ पर भी कुछ कृपा करें । (8 
उपदेश, आदेश-सुचना--तजो रे मन हरि बिमुखन को संग । चुपचाप इधर बैठों... 
शोर भत मचाओ । . (७) सहमति/सम्मति-सूचना---चलें, उधर बठें। शादी के मौके 


.... पर सभी रिश्तेदारों को निमन्‍्त्रण भेजें, ऐसा मेरा विचार है। (च) सम्भाव्य भविष्यत- 


.. सूचना--देखिए, कौत कहाँ भेजा जाता है। (छ) उदासीनता-सूचना--लो [ चिलो) 
मैं कितनी जल्दी तेयार हो गई । 


(6) परोक्ष विधि--प्रयोग तथा अर्थ--(क) भ्रविष्यतृकालीन आज्ञा|उपदेश| 
प्राथना/निवेदन-सूचनता---कल यह पाठ याद कर के आना | पहुँचते ही पत्र अवश्य 
लिखता । (ख) निर्षधवाची शब्दों के साथ--उध'र न जाना (/जाओ), बेटे ! हवाई 
अड्डे पर पहुँच कर इतना लम्बा घूंघट मत काढ़ना, बहू ! हे स्प देवता, भेरे पति को 
मत (/नहीं) डसना॥..... 
द (9) सम्भाव्य ब्तमान काल---प्रयोग तथा अर्थ--(क) स्वभाव/धर्म-सूचना-- 
हमें ऐसी कॉलोनी में घर चाहिए जहाँ प्रतिदिन पानी आता हो । (ख) भूत|भविष्य 
में क्रिया व्यापार-अपूर्णता की सूुचना--यदि पिता जी. पढ़ते हों तो उन्हें चुपचाप 


_. पढ़ने देना | (ग) वर्तमान काल में अपूर्ण क्रिया की सूचना---शायद इस गाड़ी में बच्चे . 


आते हों । (घ) आशंका-सूचना--मुझे डर है. कि कहीं कोई हमारी बातें सुततान 
हो । (ड-) उत्प्रेक्षा-युचना--किमी ऐसे बोलती है (थी) मानो (जैसे) कोयल 


.. बोलती हो । 


(!0) सम्भाव्य भुतकाल--भ्रयोग तथा अरथें---(क) पूर्ण क्रिया-व्यापार की. 
संभावना-सूचना--हो सकता है किसी ने हमारी बातें सुनी हों । जो कुछ तुम ने देखा 
हो, बेझिझ्क कह दो । (ख) आशंका/संदेह-सूचता--दुष्टों ने बेटी को कहीं मार न. 
. .डाला हो। कहीं लॉटरी खुलने की बात उस ने मजाक में न कंही हो | (ग) उद्प्रेक्षा- 

 सूचना--तुम तो ऐसे बन रहे हो ज॑से (मानों) तुम ने कुछ भी न सुना. (दिखा) हो । 
- (घ) शर्तं-सूचना--बेटे, अगर तुम ने कोई गलती की हो, तो मुझे सच-सच बता दो। 
द (4]) सम्भावष्य भविष्यतृकाल---प्रयोग तथा अथं--(क) इच्छा-सूचना-- 
. माँ से कहो--तहाने के लिए पानी रखें । तुम्हारी नौकरी जाए भाड़ में, मैं तो चली 
अपनी माँ के घर। (खत) संभावना-सूचना--कहीं वे आ नजाएँ। हो न हो, वह | 


.. बीमार है। (गण) अनुमति-सूचना--क्या हम भी आएं? मैं बंढूं । (घ) शर्तें 


.._ संकेत-सूचना--यदि वह आए तो तुम वहीं रुक जाना। (ड)) कतेव्य/आवश्यकता- 
 सूचना--हम सब मिल कर इस काम को क्‍यों न कर डालें । (चर) उद्देश्य/हितु सूचना 


.... “हम लोग कुछ ऐसा करें कि समस्या का समाधान निकल आए। (छ) परामश 
.. हेतु प्रश्न-सूचना--अब मैं रात में कहाँ जाऊं ? (ज) शाप/आशीर्वाद|कामना-सूचना- 
... ईश्वर तुम्हारा भला करे। गाज परे इन लोगन पे । (झ) विरुद्ध कथन-सूचता--ठुम 
|. हमें चाहो न चाहो ((दिखों न देखो), हम तुम्हें चाहा (/देखा) करें। (अर) सांकेतिक . 











वाक्य-साथेकता | 387 





इच्छा-सूचना--(यदि) वे चाहें तो. सब कुछ ठीक हो जाए। (6) एत्प्रेक्षा-सुचना--- 
बह ऐसे बातें करती है मानो विदेश की हो । द 

.. [2) संदिग्ध वर्तमान काल--प्रयोग तथा अर्थ--- (क) वतमान में क्रिया- . 
संदेह सूचना--पिता जी आते होंगे। (ख) भूत में क्रिया-संदेह सूचना--जब तुमः वहाँ 
पहुँचीं, उस समय वे आराम करते होंगे। (ग) उदासीनता/तिरस्कार-सुचना--क्या 
यहाँ सेठ जी आया करते हैं ? --आते होंगे, मैं क्या जाने ? (घ) तक सूचना - तुम _ 
सब के साथ ऐसा ही व्यवहार करते होगे । ु 

(3) संदिग्ध भुतकाल--प्रयोग तथा अथ--(क) जिज्ञासा-सूचना--दस 
दिन तक लोग बिना खाए-पीए कसे रहे होंगे ! (ख) संदेह-सूचना--(शायद) उसे गैस 
की बीमारी रही होगी, रक्तचाप की नहीं । इतनी सुन्दर इमारत तुम ने कभी न देखी. 
 होगी। (ग) अनुमान-सूचना--अब तो तुम्हारे पिता जी अस्पताल से आ गए होंगे । 
(ध) तिरस्कार/उदासीनता-सुचना--मालूम है तुम्हारे बहनोई ने कोठी बनवाई है-- 
बनवाई होगी, मुझे क्या ! (छ) शर्तें-सूचना--अगर उन्हों ने आप को बुलाया होगा. 
तो उन का आप से कोई-न-कोई काम अवश्य रहा होगा । 

(4). सामान्य संकेत--प्रयोग तथा अर्थ--(क) क्रिया-व्यापार असिद्धि- 
| सूचना--मेरे एक भी बहन होती तो मेरे राखी बँधी होती। यदि मेरा काम न होता 
| तो मैं क्यों आता । अगर कल आप वहाँ रहते तो बहुत अच्छा होता । (ख) असिद्धि 
|... इच्छा-सुचना--है मेरी प्रिये ! आज तुम जीवित होतीं तो कितनी खुश होतीं। (ग) 
इच्छा-सूचना--यदि आप आदेश देते ((दें) तो मैं ठाइप करता (/करू) ।. .(घ) 
' तकारात्मक-सुचना-- उन की क्‍या हिम्मत थी जो हमारे खेत काटते (|काट ले जाते) । 
.... [5) अपुर्ण संकेत--प्रयोग तथा अर्थ---(क) क्रिया-व्यापार असिद्धि-सुचना 

-(अगर) आज तुम्हारे पिता होते तो तुम्हें ये दित क्‍यों देखने पड़ते । (ख) असिद्ध 
| इच्छा-सूचता--माँ चाहती है (/थी) कि तुम भी मेरे साथ व्यापार करते होते । (ग) 
| केवल उत्तर वाक्य-सूचना--निश्चय ही आज तुम डॉक्टर होते ।  (लचयदिं तुम 
|. डाक्टरी पढ़ते होते तो निश्चय )। 0 “ 
| . (6) पुर्ण संकेत--प्रयोग तथा अर्थ--(क) क्रिया-व्यापार असिद्धि-सूचना 
| “»यदितृ ने पैसे न चुराए होते तो तू आज आजाद घ्‌मता (होता) । (ख) असिद्ध 
|. इच्छा-सूचना--अरे भाई, पढ़ाने से पहले एक-दो बार पाठ को देख (तो) लिया 

होता । । 














वाक्य-भेद के दो प्रमुख - आधार हैं---. वाक्य-गठत/रचना 2 वाक्य-प्रकाय॑| 
अथ । प्रत्येक वाक्य एक या एकाधिक उपवाक्यों से निमित होता है। वाक्य वास्त 
विक उच्चरित रूप होता है जिस का अपना कोई-न-कोई अनुतान रूप होता है।. 
संरचना या ग़ठन के आधार पर वावयों के मुख्य दो प्रकार होते हैं--(क) एक उप- 
वाक्यवाले वाक्य (ख) एकाधिक उपवाषयवाले याकय । इन्हें सरल वाक्य तथा 
रलेतर वाक्य भी कह सकते हैं। अपने गठन में कोई भी वाक्य पृर्णांग या अपूर्णाग 
हो सकता है । अपूर्णाग वाक्य अध्याहारयुत (/अध्याहारित) वाक्य कहा जा सकता . 
हैं, यथा---“चलो' । "मैं! । (किसी संदर्भ में बोले गए अंपूर्णांग वाक्य हैं)। आप इधर 
बैठिंए । (पूर्णांग वाक्य है। .यह सरल वाक्य भी है) । आप यहाँ आ कर बैठिए। 
(पूर्णाग वाक्य है । बाह य गठन की दृष्टि से सरल वाक्य होने पर भी आंतरिक गठन। _ 
अर्थ-दृष्टि से सरलसम वाक्य कहा जा सकता है)। वह यहाँ आई और धम से सोफे _ 
में धैंस गई। (संयुक्त वाक्य 'सरलेतर') । मैसूर में जो कुछ देखने योग्य था, मैं सब 
कुंछ देखे चुका हूँ। (मिश्र वाक्य 'सरलेतर”) । द 
द सरल वाक्य एक विधेयी होतां है । इसे साधारण या सामान्य वाक्य भी कहते 
. हैं। यह एक शब्द या शब्दों का ऐसां समुदाय होता है जो विधेयन व्यक्त करता है... 
और जो निश्चित व्याकरणिक रूपों और अनुतान से युक्त होता है, यथा--आइए। - 
. क्या लेंगे ?---कॉफी । सरल वाक्य में एक सुख्य/समापिका क्रिया (प्रत्यक्ष या परोक्ष| 
प्रच्छन्‍न रूप से) होती है, यथा--उस ने आप को नमस्कार कहा है । बच्ची सो गई। 
“बिजली चमक रही है। कृष्ण ने कंस को मारा । सरल वाक्य क्रिया के आधार पर 
मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं--(क) व्यापार सुंचक, यथा--भैंस तर रही है। (व) 
अस्तित्व/अवस्थिति, सृुचक, यथा--लड़की तो सुन्दर है। व्यापार सूचक वाक्य के _ 
उद्देश्य, विधेय में दो प्रकार का सम्बन्ध होता है--(अ) धनात्मक, यथा--बच्चा _ 
. रो'रहा है। (आ) गरुणात्मकं, यथा--बच्चा दो घंटे से रोता चला जा रहा है।... 
|. समापिका क्रिया से पूवं सरल वाक्य में किसी अन्य असमापिका क्रिया का _ 


.... अस्तित्व होने पर ऐसा सरल वाक्य 'सरलसम वाक्य कहा जा सकता है | असमापिका _ 
हा । क्रियावाला . अंश विश्लेषण करंने पर आंतरिक संरचना की दृष्टि से स्वतन्त् वाक्य 





5० 388 





वाक्य-भेद | 389 


हो सकता है, यथा--मैं नहा कर खाना खारऊँगा--(पहले) मैं नहाऊँगा--(उस के 
बाद) मैं खाना खाऊगा) । तुम हमेशा पढ़ते हुए खाते हो---(जब) तुम पढ़ते हो-!- 
(तब) साथ-साथ तुम खाते (भी) हो । असमापिका क्रिया वृत्ति, काल और पक्ष की 
दृष्टि से समापिका क्रिया का अनुगमन करती है । सरलतम वाक्यों के उददेश्य (संज्ञा 
पदबंध), विधेय (क्रिया पदबंध) विस्तृत भी हो सकते हैं, यथा--कमरे के अन्दर से 
चीख कर भागी हुई लड़की ते --किसी तरह हाँफना बन्द कर बताया कि**-**« 

बता तथा श्रोता के मध्य भाषा-व्यवहार की दृष्टि से सन्दर्भीय बोधगम्यता 
तथा औपचारिकता/अनोपचारिकता! के तत्त्व विशेष भूमिका निभाते हैं। वक्‍ता तथा 
श्रोता के मध्य समझ एवं अनोपचारिकता का सूत्र जितना मजबूत होगा, वाक्य भी 
उतने ही अधिक संक्षिप्त, अपूर्ण होंगे, यथा--- है 


(क) ओपचारिक संदर्भ (ख) अनौपचारिक संदर्भ 
आप का क्या नाम है ? आप का नाम तुम्हारा नाम/नाम ? 
मेरा नाम हरीश गुप्त है। हरीश गुप्त/हरीश । 


आप को)तुम्हें मुझ से क्या'काम है ? मुझ से कोई काम/कोई काम/काम ? 

मुझे आप के कॉलेज में बी. ए. प्रथम बी. ए. प्रथम वर्ष में प्रवेश (चाहिए) 
वर्ष में प्रवेश चाहिए । 

यद्यपि (ख) सूची के वाक्य व्याकरण की दृष्टि से अपूर्ण कहे जाते हैं तथापि 
भाषा-व्यवहार/सम्प्रेषण की दृष्टि से ये पूर्ण वाक्य हैं क्योंकि इन में अर्थ की दृष्टि 
से उद्देश्य और विधेय (जो केन्द्रीय तत्त्व हैं) प्रच्छन्न/प्रत्यक्ष होते हैं। बाह य संरचना . 

की दृष्टि से वाक्य के कुछ अंश छोड़े जाने के कारण ये अपूर्णांग वाक्य अध्याहारयुत/ 

 अध्याहारित वाक्य भी कहे जाते हैं। ये वाक्य अभिव्यक्ति की दृष्टि से अपूर्ण होते 
हुए भी कथ्य की दृष्टि से पूर्ण होते हैं।. 

... प्रत्यक्ष क्रिया-विहीन (/प्रच्छत्त क्रिया युक्त वाक्‍्य)--हिन्दी में प्रत्यक्ष क्रिया- 
विहीन या प्रच्छन्‍न क्रिया युत विविध प्रकार के संक्षिप्त वाक्य प्राप्त हैं, यथा-- 
(!) शीर्षक वाक्य--ऐसे वाक्य समाचार पत्रों, विज्ञापनों, निबन्धों और पुस्तकादि 
. के नामों आदि में मिलते हैं, यथा--सुन्दर, सस्ते और टिकाऊ कपड़े। आज पूरा 
_'बम्बई बन्द । बस और कार में भयानक टक्कर | संसद में पूरे विपक्ष का वॉक 
. आउट । - उत्तर प्रदेश के सरकारी अफसरों के घरों पर छापे । (2) प्रशंसा, निन्‍दा 
.भ्य, घबराहुट तथा आश्चर्य दयोतक उक्तियाँ, येथा--वाह, क्या खुब ! छि-छि ! 
| पिक | शर्म-शर्म ! दैया रे दैया ! बाप रे बाप शेर ! साँप और बिच्छू ! कमरे 
| में चोर ! (3) विशेंषणान्त वाक्य--(क) -वालान्त वाक्य, यथा--इतनी जल्दी वह 

. नहीं लौटनेवाली | इस काम को वह नहीं पूरा करनेवाला । (ख) कहीं का अन्त्य- 
वाक्य, यथा--गधा|बिवंकूफ कहीं क।। उल्लू/आवारा कहीं की। (ग) “ने का 
. अन्यवाबय, यथा--इतनी जल्दी वह नहीं लौटने की । मैं नहीं वहाँ जाने का । (4) 
प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर वाक्य, यथा--आजकल क्या कर रहे हो *--आप के पड़ोस 











लअपपट कि 








390 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


में नौकरी|नौकरी । अब कहाँ जा रही हो --अपने घर/घर । क्या आप उन्हें 


. जानते हैं? जी नहींनहीं । (5) सम्बोधन वाक्य--ए बच्ची ! ऐ लड़के ! श्रीमान्‌ 


जी ! (गालीमय संबोधन--साला ! बदतमीज ! गधा !) (6) अभिवादन वबाक्य-.. 
आदाब अर ! 'नमस्ते|नमस्कार/प्रणाम|सलाम/दंडवतु/राम-राम आदि। (?) प्रति- 
बकक्‍तव्य वाक्य, यथा--हाँ, नहीं; बस । ये सम्भाषण में किसी कथन के प्रतिवकतव्य 
के रूप में आते हैं, यथा--एक रसगुल्ला और लीजिए--नहीं, बस और नहीं 


चाहिए। (यहाँ बस 'काफी' का पर्याय है। काफो का प्रयोग संक्षिप्त वाक्य के 
'रूप में नहीं होता ।) विधेय संख्या/परिमाण के रूप में काफी के स्थान पर बस का 


योग अमानक है, यथा--इतना आटा काफी (/बस) होगा (/नहीं होग।) । 'बस 
के साथ करना/होना का प्रयोग “रोकने, समाप्त होने/करने' के अथ्थ में संयुक्त वाक्यों . 


. में आता है, यथा--इतनी देर से -चिलला रही हो, अब बस भी करो। शाम के लिए 
आठ पराठे काफी हैं, अब बस कर । बस, अभी चलता हूँ, पाँच मिनट ठहरो | बस, 


हो चला, जरा-सी देर और झरुको । सामान्य निश्चयार्थमूच्रक वाक्यों में इस का प्रयोग 


. नहीं होता, यथा--वे लोग पढ़ना-लिखना “बस कर चुके हैं । (8) विस्मयादिबोधक 


वाक्य, यथा--बहुत अच्छा ! वाह-वाह ! भरे रे ! श 
अभिवादन-वाक्‍्यों के बारे में विशेष---अभिवादन का क्षेत्र दो व्यक्तियों के 

मिलने से ले कर सम्पर्क स्थापित करने तथा विदा होने तक है । दो व्यक्तियों के 
मध्य का अभिवादन, सम्प्क-व्यवहार उन के आपस में परिचित (परिवार के सदस्य; 
न्‍्य---निकट परिचित, सामान्य परिचित) और अपरिचित (परिचय प्राप्त करता; 
तात्कालिक रूप. से व्यवहार करना) होने की स्थिति से प्रभावित होता हैं। इस के . 


. अतिरिक्त उन की उम्र, लिंग, जाति, सामाजिक स्तर, पद, शिक्षा और वेयक्तिक 


विश्वास (धार्मिक आदि), संगठन/संस्था-सदस्यता भी प्रभाव डालते हैं। अभिवादन 


तथा संम्पर्क-व्यवहार तीन रूपों में व्यक्त होता हैं--(४) हाव-भाव (४) मोखिक 


अभिव्यक्ति/संवाद (४7) अभिवादन शब्द । ये तीनों रूप॑ एकसाथ, दो-दो या अकेले 


. भी आ सकते हैं। हाव-साव--परिचय सूचक मुस्कराहुट आदि अंग चेष्टाएँ; समाज- 
स्वीकृत शारीरिक व्यापार, यथा--हाथ जोड़ना/दायें हाथ का पंजा पीने से छुलाना _ 


(नमस्ते' के साथ); हाथ माथे तक ले जाना ('सलाम' के साथ); हाथ मिलाता 


(“गुड मॉनिंग' के साथ); सैल्यूट करना ('जयहिन्द' के साथ) आदि छोटों द्वारा _ 


बड़ों के पर छना/दंडवतु करना और बड़ों के द्वारा छोटों के सिर पर आशीर्वाद कौ _ 


. मुद्रा में दायाँ हाथ रखना । छोटों दूवारा हाथ जोड़ना और बड़ों दूवारा स्वीकृति में 
......_ सिर हिलाना । मौखिक अभिव्यक्ति/संवाद--कहीं, कभी औपचारिक रूप से अभिवादन | 
..... के शब्द बोले जाते हैं और कहीं, कभी बिना औपचारिकता के संवाद होता है। 
..... औपचारिक रूप में छोटों की ओर से “नमस्ते|/नमस्कार, प्रणाम/दंडवर्तु, पालागों- 
.... पाँव लगता हूँ/लंगंती हैं! कहा जाता है तथा बड़ों की ओर से 'प्रसन्‍त/ख श/वचिरं- 
.  जीव/जीते/जीती| सौभाग्यवती रहो' कहा जाता है।. + | 2. 














वाक्‍्य-भेद | 39 


सामान्यतः समान स्तरीय बकता-प्रतिवकता के मध्य औपचारिक शब्दों की प्रतिध्वनि 
(8०0०) होती है, यथा--तमस्ते-तमस्ते/नमस्कार-तमस्कार (--मैं तुम्हें नमन करता 
हुँ--मैं (भी) तुम्हें नमन करता हूँ । आदाोब (आदर) अज --आदाब अज्‌; सलाम- 
सलाम (#>"ठीकं-ठाक होना); अस्सलाम अलैकुम (+-सलामत तुम्हें हो)-- बलेकुम' 
अस्सलाम (न्ल्तुम्हें भी संलामत हो); राम-राम; जय राम जी की; जय सियाराम; 
जय श्रीकृष्ण; जय गोपाल; जय बजरंग बली की; जय बस भोले; जय हरि ओम: 
जय संतोषी माता; जय हिन्द-आदि अनेक अभिवादन शब्द देवी-देवताओं तथा संगठनों 
प्र आधारित हैं । 

. कभी-कभी वकक्‍ता स्वास्थ्य, परिवार की स्थिति आदि के बारे में सीधे प्रश्न 
करता है और श्रोता उसे का समुचित उत्तर देता है या कभी-कभी कतज्ञता ज्ञापन 
करता है, यथा--क्या हाल है।हैं ! कहो, कैसे/कंसी हो ? क्या हालचाल हैं/है ? कहिए, 
ठीक-ठाक है/हैं ? सब कुशल है/हैं ? सब मज- में हैं त ! बाल-बच्चे ठीक हैं। कहो 
भाई (/महेश), अच्छे/टीक हो ? आइए, ख रियत तो है, कहिए जनाब, मिजाज कंसे 
हैं ?--ठीक है/हैं । ठीक ही है।हैं । मज हैं। आनन्द (/कुशल/आनन्‍्द-मंगल) है । सब 
मज' में (/राजी-खुशी) हैं। सब ठीक ही चल रहा है। चल रहा है। गाड़ी चल रही 
है। जिन्दगी कट रही है आदि | आप की दया (/मेहरबानी) है । सब दया है। 
भगवान्‌ की कृपा (दया) है । ख दा का शुक्र है। (आप की) कृपा/इनायत/दढुआ है । 
कभी-कभी प्रतिप्रश्न तथा प्रत्युत्तर भी सम्भव है, यथा--कहो भाई, क्या हाल हैं ! 
सब ठीक है, और आप के यहाँ ? हमारे यहाँ भी सब मर्ज में हैं। आदि । 

.. अभिवादन शब्द--मिलते समय शुभ प्रभात (/शुभ प्रभातम्‌), शुभ रात्रि 
(शुभ यामिनी), शब्बा खेर, (8004 ग्राणयं7स्‍8, 8006 पांशा का अनुवाद), 
नमस्कार, नमस्ते, आदाब, हलो, गुड मॉनिग, ग्रुड वाइट, पालागन, प्रणाम आदि । 
कृतज्ञता ज्ञापन के लिए 7ध0ा: ४००/7«४7ै॥७, धन्यवाद, शुक्रिया, मेहरबानी 
आदि । विदा होते समंय--राम-राम|नमस्ते--राम-राम/नमस्ते आदि; खुदा हाफिज द 
(+-ईश्वर रक्षक. है); फिर मिलेंगे; गुड बाई/बाई-बाई/टाटा आदि। कभी-कभी 
विदा-अभिवादन शब्द से पूर्व संवाद -दूवारा- बातचीत समाप्त की जाती है,झयथी 
अच्छा, मैं चलता हुँ।हिम चलते हैं---अच्छा/अच्छा, हम चले ?/में चल॑ ?/चलें ?/चलूँ ? 

जाऊँ ?|जाएँ ?--म्नचच्छा ठीक है, जाओ (अपना ख्याल रखना) | इजाजत दीजिए-- 
_ ठीक है, जाओ/जाइए (अच्छा, आते रहना, रहिए|फिर कब आना होगा ?)|आप से . 
मिल कर ख॒शी हुईं आदि । 
...... सरलेतर वाक्य एकाधिक विधेयी होते हैं! सरलेतर वाक्यों के दो भेद किए 
.._ जा सकते हैं--. मिश्र वाक्य 2: संयुक्त वाक्य । सरलेतर वाक्यों के भाग वाक्य 
_ विन्यास की दष्टि से या तो स्वतन्त्र होते हैं या उन के सध्य निश्चित आश्रयी आश्चित 
सम्बन्ध होता है । सरलेतर वाक्य एक से अधिक ऐसे सम्बद्ध सरल वाक्यों से बनते हैं... 
.. जिन में उद्देशय और विधेय होते हैं । ऐसे सम्बद्ध सरल वाक्यों को उपवाक्य कहा. 











392 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


जाता है । उपवाक्य किसी वाक्य का वह भाग होता है जिस में उद्देश्य और विधेय कै 
(पत्यक्ष/प्रच्छन्‍न) होते हैं तथा जिस का अपनो अर्थ होता है। सरल वाक्य में एक 
स्वतन्त्र उपवाक्य होता है, सरलेतर वाक्य में एक से अधिक स्वतन्त्र या एक/एक पे 
अधिक स्वतन्त्र-|- एक|एक से अधिक आश्रित उपवाक्य। सामान्यतः: सरल वाक्य और 
_ स्वतन्त्र उपवाक्य एक ही होते हैं। उपवाक्य स्तर पर संरचना की चर्चा की जाती. 
है, वाक्य के प्रयोग की नहीं, यथा-- विनोद डॉक्टर है! उपवाक्य की चर्चा कर्ता-- 
पूरक -+-सहा ० क्रिया/योजक क्रिया” के सन्दक्न में की जाएगी । यह वाक्य प्रश्ताथक 
है या आश्चरयंसूचक अथवा सूचनात्मक--ऐसी चर्चा वाक्य स्तरीय विश्लेषण के सन्दर्भ 
में की जाएगी। परम्परा से व्याकरणों में मिश्र और संयुक्त वाक्यों के अस्वतन्त्! 
स्वतन्त्र उपवाक्यों को 'उपवाक्य” माना जाता रहा है, सरल वाक्य के साथ-साथ 
मिश्र, संयुक्त वाक्‍्यों को “वाक्य” कहा जाता रहा है। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से सरल 
वाक्य भी स्वतन्त्र उपवाक्य हैं । उपवाक्य/उपवाक्यों से वाक्य की रचना होती है तथा 
वाक्यांशों (/पदबन्धों) से उपवाक्य की। वाक्य या उपवाक्य में एक (पूर्ण) विचार 
होता है जबकि वाक्यांश में एकं या एकाधिक भावनाएँ । वाक्य या उपवाक्य में एक 
समापिका क्रिया होती है जबकि वाक्यांश में प्राय: क्दन्त या संबंध-सूचक अंव्यय 
आदि होते हैं । संरचना की दृष्टि से उपवाक्यों के मुख्य. तीन प्रकार हैं--. कर्मयुत 
उपवाक्य 2. अकरमंक उपवाक्य 3. पूरक उपवाक्य । प्रकार्य की दृष्टि से उपवाक्यों 
के तीन प्रकार हैं--. संज्ञा उपवाक्य 2. विशेषण उपवाक्य 3. अव्यय (क्रिया. 
विशेषण) उपवाक्य । एक उपवाक्य में कम से कम एक क्रिया वाक्यांश, एक संज्ञा. 
_ वाक्यांश होता है। की मी 

.. संरचता-संरचक सम्बन्ध की दृष्टि से रूप-> शब्द->वाक्यांश-+ उपवाक्य-+ 
' वाक्य तक की इकाई अपनी से निचली इकाई से निर्मित होती है | संरचना के स्तरः 
पर वाक्य. अपने से ऊपर की किसी रचना/|इकाई का घटक/सदस्य नहीं होता । 
.. परिच्छेद/अनुच्छेद में कई वाक्य हो सकते हैं किन्तु संरचना-स्तर पर वाक्य की... 
... सीमा ही अन्तिम सीमा है। रूप स्वनिमों/ स्वनों से निर्मित होते हैं, ये अर्थ-भेदक 

: तो होते हैं, अर्थयुक्त नहीं होते'। गौण अंगों की उपस्थिति/अनुपस्थिति केआधार पर 
वाक्य दो प्रकार के हो सकते हैं---]. अविस्तारित वाक्य में केवल प्रधान अंग 
.. (उद्देश्य, विधेय) होते हैं, यथा--यह पलंग है, वह खाट है । मैं लिख रहा हूँ। 

. 2. विस्तारित वाक्य में प्रधान अंगों के अतिरिक्त कम से कम एक गौण अंग (विशेषक, 
कर्म आदि) होता है, यथा--दिल्ली में लाल किले के पास ही सामने चाँदनी चौक. 
..._ नाम का भीड़ भरा एक. बाजार है। इस दुकान पर आप को दैनिक जीवन की सभी ._ 

.. वस्तुएँ मिल जाएँगी।. जज हा 
......_ सिश्र वाक्‍्य--एक से अधिक विधेयवाला वाक्य होता है। इस में केवल एक 


० ही स्वतन्त्र (|प्रधांन/मुख्य) उपवाक्य होता है तथा एक या एंक से अधिक आश्रित 


का ((आनुषंगिक/बद्ध/अधीन्‌/अस्वतन्त्र) उपवाक्य होते हैं। थे आश्रित उपवाक्य सामा- 


* 
]॒ 


ला 7 « क्यंत  ब्यधिकरण योजकों से मुख्य उपवाक्य के साथ जुड़े रहते हैं। मिश्र वाक्य के... 





.. वाक्य-भेद | 393 


और आश्रित उपवाक्य अर्थ-वोध में एक-दूसरे की सहायता करते हैं, यथा--- 
'जब तुम आए थे, तब में स्‍्तानगमृह में था। इस. वाक्य में दोनों उपवाक्यों को 
एक साथ रखने/बोलने से ही एक विचार अर्थ-बोध) पूर्ण होता है, केवल एक उप- 
वाक्य कहते मात्र से अर्थ-आकांक्षा बती रहती है । 
प्रायः भाश्वित उपवाक्यों से पूर्व कि! जो, क्‍योंकि, जब, यदि, यद्यपि 
बल्प|अपूर्ण विराम-चिह न आते हैं, यथा--मैं नहीं जानती कि बह कहाँ गई है। 
यह वही पेड़ है जो आप ने रोपा था। मुझ आज ही पैसे चाहिए क्योंकि सेरे पास 
| रोजाना आने के लिए समय नहीं है । जब तुम आ जाओगी, (तभी) मैं चला जाऊंगा। 
इन में काले टाइप के उपवाक्य आश्रित उपवाक्य हैं ओर सामान्य टाइप के उपवाक्य 
| मुख्य उपवाक्य हैं । 
प्रधान उपवाक्य की समापिका क्रिया आश्चित उपवाक्य की क्रिया की अपेक्षा 
अधिक स्वतन्त्र होती है तथा वाक्य में प्रधान उपवाक्य को प्रमुखता होती है जब कि 
आश्रित उपवाक्य की क्रिया प्रधात उपवाक्य की क्रिया की अपेक्षा कम स्वतन्त्र होती 
है और वाक्य में आश्वित उपव्राक्य गौण होता है। ह 
प्रकार्य के आधार पर आश्वित उपवाक्यों के तीन भेद होते हैं--!. संज्ञा 
: उपवाक्य 2. विशेषण उपवाक्‍्य 3. अव्यय (/क्रिया विशेषण) उपवाक्‍्य । 
मुख्य उपवाक्य की किसी संज्ञाया संज्ञा वाक्यांश के बदले आनेवाला 
उपवाक्य संज्ञा उपवाक्य कहलाता है । यह उपवाक्य संज्ञा के प्रकार (कर्ता/उद्देश्य कमे, 
: पुरक) करता. है, अ्रथा---श्री राम ने कहा कि मैं अकेला ही वन जाऊँगा। (कहा 
क्रिया का कम) । इन से यह न पूछिए कि ये कोन हैं । (पूछिए क्रिया का कर्म, 'यह 
का पूरक) । जान पड़ता है कि माता जी स्वस्थ हो गई हैं। (जान पड़ता है क्रिया 
का उद्देश्य) । उन का विचार था कि उच्च स्तरीय प्रकाशन का कार्य करे। (था 
| क्रिया.का पूरक)॥। आप को यह जान कर प्रसन्‍्तता होगी कि आगरा में सब से कम 
| साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। (जान कर' ऊंदन्त का कर्म )। यह विश्वास दिन पर दिन 
|. बढ़ता जा रहा है कि आये लोग भारत में बाहर से नहीं आए। (/विश्वास' का _ 
समानाधिक्रण) । मुख्य उपवाक्य से पूर्व आश्रित संज्ञा उपवाक्य आने पर कि का 
लोप हो जाता है, यथा--शादी ' के अवसर पर आप को भुला दिया जाए, यह 
... कैसे संभव है? (यह' आश्चित उपवाक्य का समानाधिकरण)। कभी-कभी कम 
. स्थानीय संज्ञा उपवाक्य के पूर्व का 'कि' लुप्त रहता है, यथा--पिता जी ने कहा है, 
... मुझे किसी की भीख नहीं चाहिए । मैं क्‍या जानू तुम्हारे मत- में क्या है।... 
.... मुख्य' उपवाक्य के किसी संज्ञा शब्द की विशेषता बतानेवाला उपवाक्य 
. विशेषण उपवाक्य कहलाता है, यथा--आप की वह डायरी कहाँ है, जिस में आप की - 
कविताएँ लिखी हुई हैं । ('डायरी' की विशेषता का सूचक) । वह घर कौन-सा है, _ पर 
. जहाँ रामायण की कथा हुआ करती है। (“घर की विशेषता का सूचक)। उस 
. शाम, जब बच्चे घर नहीं पहुँचे थे, मैं बहुत चिन्तित हो गई थी। (शाम की विशे- 











.. कहलाते हैं। 





394 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


षता का सूचक) । आप को जैसी साड़ी चाहिए, हम वैसी ही उपलब्ध करा देंगे। जो 
नौकर पिछले महीने रखा था, वह चोर निकला | तुम्हें जितने कमरे चाहिए (उतने) 
मिल जाएँगे। वाक्य में जिस स्थान पर संज्ञा शब्द आता है, उस स्थान पर उसके. 
साथ विशेषण उपवाक्य आ सकता है, यथा--लंगोटीवाला एक अति चतुर महात्मा 
था जो राजनीति के दाँव-पेच बहुत अच्छी तरह जानता था। (उद्देश्य के साथ) 
: वह ऐसे कठोर स्वर से बोलती है जो सब को खटकता है । (करण के साथ)। मैसूर 
में जो कुछ देखने योग्य था, बच्चों ने सब देख लिया ॥ (कर्म के साथ) | प्रधानमन्धी 
.. के घातक उसी के अंगरक्षक निकले, जिन्हों ने उस की रक्षा का भार संभाल रखा 
था | (पूर्ति के साथ)। आज के नेता लोग उस अपकीति की ओर से कान बन्द किए 
रहते हैं जो उन के भ्रष्टाचार के कारण फैलती है। [विधेय विस्तारक के साथ) 
विशेषण उपवाक्य से पूर्व प्राय: सावंतामिक विशेषण (जैसे---जितना, जिस, जिन 
जो आदि) या स्थान/|कालसूचक अव्यय (जब, जहाँ आदि) योजक के रूप में आते 
हैं । विशेषण उपवाक्य का विशेष्य प्रधान उपवाक्य में अवश्य रहता है। उद् शैली 
के प्रभाव से कभी-कभी इन योजकों से पूर्व 'कि' का प्रयोग भी होता है, यथा-- 
महात्मा जी ने ऐसा उपाय बताया है कि जिस के आगे सब जप्र-तप फीके हैं। 
. प्रश्नवाचक संज्ञा उपवाक्य तथा प्रश्ववाचक विशेषण उपवाक्य का अन्तर इन 
 उदाहरणों से स्पष्ट हो सकता है--मुझे (यह) मालूमः था कि प्रिन्सीपल क्‍या पूछेंगे। 
(संज्ञा उपवाक्य यह लुप्त का समानाधिकरण) | श्रिन्सीपल क्या पूछेंगे, मुझे (यह) 
मालूम था। (यह' लुप्त का समानाधिंकरण संज्ञा उपवाक्य )। इस के बाद उस 
. घटना का क्‍या परिणाम निकला, (वह) मुझे नहीं मालूम । (मुख्य उपवाक्य के वह 
परिणाम' लुप्त का विशेषण । 'क्या' के स्थान पर 'जो' की स्थानापत्ति सम्भव)। 
कभी-कभी अंगरेजी की शेली के अनुरूप मुख्य उपवाक्य के मसंध्य भें विशेषण उप- 
. वाक्य का प्रयोग भी प्राप्त, यथा--वह व्यक्षित, जो भगवद्भजन का दिखावा करता... 
है, अधिक छली और बेईमान होता है । कभी*कभी बाह य संरचना-स्तर पर विशेषण 
उपबवाक्यवत्‌ दिखाई देनेवाले उपवाक्य आंतरिक संरचना-स्तर पर विशेषण उपवाक्य _ 
न हो कर समानाधिकरण उपवाक्य होते हैं क्योंकि उन्हें और योजक शब्द से 
स्थानापन्‍त किया. जा सकता है, यथा--मेरे बेटे ने एक कछभआ पाला था जिस पर 
बह बहुत समय खर्च कर देता था । (जिस पर"+और उस पर) | अँगरेजी के समान _ 
हिन्दी में भी बाह य संरंचना स्तर पर विशेषण उपवाक्य 'मर्यादक, समानाधिकरण' 
के रूप में आते हैं किन्तु मर्यादक रूप में आने पर ही वे वास्तव में विशेषण उपवाक्य . 


मुख्य उपवाक्य की क्रिया के संबंध में किसी प्रकार की सूचना देनेवाला 8 


..... उपवाक्य अव्यय उंपवाक्य कहलाता है। यह वाक्य में अव्यय का कार्य करते हुए... 
प्रधान उपवाक्य की क्रिया के समय, स्थात, रीति, परिमाण, परिणाम आदिके 
...... संबंध में बताता है। इसे प्राय: क्रियाविशेषण .उपवाक्य - कहा जाता है। अव्यय ... 





वाक्य-भेद | 395 


उपवाक्य अपने श्रकार्य के आधार पर पाँच प्रकार के हो सकते हैं : ( ) कालवाची _ 
। . (2) स्थानवाची (3) रीतिवाची (4) परिमाणवाची (5) परिणामवाची/कार्य-कारण- 
| वाची। कालबाची उपबाक्य- इन अर्थों के दयोतक होते हैं--(क) निश्चित काल 
| पूचना, यथा--ज्यों ही उस ने. रोटी का दुकड़ा तोड़ा, त्यों ही छींक हुई। जब चाय 
में उबाल आए तभी उसे उतार लेना ठीक रहता है । (ख) कालावधि/कालावस्थिति 
| पूचना, यथा--जब वर्षा हो रही थी, (तब) हम स्टेशन पर खड़े थे | (ग) आवतंन, 
| वधथा--जब-जब मैं आप से मिला, (तब-तब) आप मुझे लिखते हुए ही मिले। ज्यों- 
| ज्यॉ/ज्यों ही हम ऊँचाई पर चढ़ते हैं, (त्यों-त्यों/त्यों हो) ठंड बढ़ने लगती है। 
 स्थानवाची उपवाकक्‍्य. इन अर्थों के इयोतक होते हैं--(कू) स्थिति-सूचना, यथा--- 
जहाँ चाहो, (वहाँ) रहो । जहाँ सुमति तहँ सम्पत्ति नाना, जहाँ कुमति तहँ विपति 
निदाना । (ख) गंति-आ रम्भ स्थल सूचना, यधा--जिधर से शब्द आया था, उधर 
ही उस ने तीर चला दिया। हम लोग भी वहीं से आ रहे हैं, जहाँ से तुम्हारे पुरखे 
आए थे। (ग) गति-अन्त स्थल सूचना, यथा---जहाँ तुम्हारे भाई गए हैं वहीं तुम भी 
जाओ | रीतिवाची उपवाक्य, यथा--मैं ने वैसा ही क्रिया था, जैसा मुझ से कहा गया 
था। रीतिवाची उपवाक्य प्राय: जिसे, ज्यों, मानों/मानहु' (कविता में) से आरम्भ 
होते हैं। मुख्य उपवाक्य में प्रायः 'बेसे।ऐसे, कैसे, त्यों' आते हैं। परिमाणवादी 
उपवाक्य, यथा---ज से-जेसे आमदनी बढ़ती जाती है, बंसे-वंसे खर्च भी बढ़ता जाता 
है। तुम्हारी मायके के लोग जितनी दूर रहें, उतना ही घर के लिए अच्छा है। 
 परिमाणवाची उपवाकय में ज्यों-ज्यों, जैसे-जैसे, जहाँ तक, जितना कि' आते हैं, और 
मुख्य उपवाक्य में. त्यों-त्यों, वेसे-बसे (/तंसे-तैसे), वहाँ तक, यहाँ तक, उतना आते 
. हैं। कार्य-कारणबाची उपवाक्य इन अर्थों के दयोतक होते हैं--(क) कारण/हेतु सूचना, 
यथा--वह नहीं मानेगी क्योंकि वह जिद्दी है । (ख) संकेतं/शर्ते सूचना, यंथा---यदि मैं 
तुम्हारे कहे के अनुसार चलता तो निश्चय ही दिवालिया हो जाता । (ग) विरोध 
. सूचता, मधा--अब चाहे वह कितना ही सच बोले, उसे सभी झठा ही मानेंगे । 
|... यद्यपि हीरो बहुत अधिक घायल हो चुका है, तो भी वह सब ग्रु्ों को हरा देगा । 
|... [घ) निमित्त/|उद्देश्य सूचना, यथा--ऐसा मैं ने इसलिए कहा है ताकि (/जिस से 
| कि) आप की गलतफहमी दूर हो जाए। (ह) परिणाम/फल-सूचना, यथा--बरसात 
« मैं ब्रह मपुत्र का पानी इतना ऊेचा उठ जाता है कि बड़ी-बड़ी बाढ़ें आ जाती हैं । 
 कारणवाची उपवाक्यों के साथ क्योंकि, जो/यदि/अगर/यदयपि, कि, चाहे'*“कंसा/ 
कितना, कितना-““क्यों, जो/जिस से/ताकि' आते हैं तथां कार्यवाची (मुख्य) उपवाक्यों 
.. के साथ $, तो/तो भी/किल्तु/तथापि, .इसलिए/|इतता, फिर भी/तो भी/पर, ७ 
/ आते हैं । ँ 





बी विशेषण तथा अव्यय . वाक्यांश/उपवाक्य से बने, वाक्य सम्मिश्र 
का _ वाक्य (7040४५८७) कहे जा सकते ैं। इन के दोनों उपवाक्यों को जोड़नेवाले 
रा _ वाक्यांश समाच स्तरीय होते हैं, यथा---हम जहाँ रहते हैं, वहीं पास में डाकखाना 














396 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


भी है । जहाँ स्थानवाची है और “वहीं पास में! स्थानवाची विस्तारक है. 
जिधर-“उधर; जब तक**तब तक इसी प्रकार के योजक हैं । कक: 
... संयुक्त वाक्य भी एक से अधिक विधेयवाले वाक्य होते हैं, किन्तु इन में 
_ एक से अधिक स्वतन्त्र या निराश्चित (प्रधान) उपवाक्य होते हैं । इन वाक्यों में 
आश्वित उपवाक्य हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते। संयुक्त वाक्य के स्वतत्त 
उपवाक्यों में एक को प्रधान उपवाक्य कहा जाता है तथा अन्य को उस का समाना- 
धिकरण उपवाक्य कह सकते हैं । संयुक्त वाक्यों में कभी-कभी एक उपवाक्य परा 
होता है और दूसरा या दूसरे उपवाक्य अध्याहारित और कभी-कभी सभी उपवाक्य 
इरे होते हैं, यथा--तुम सिगरेट मत पिया करो बल्कि सौंफ खाया करो | पिता जी 
दफ्तर जा रहे हैं और मम्मी क्‍्लब। मैंतो जा रही थी पर तुम ने ही मुझे रोक. 
लिया था । 9 ++ + ३ पर हु. हा द 
संयुक्त वाक्य के स्वतन्त्र/प्रधात उपवाक्यों को. समानाधिकरण/समान . 
स्तरीय उपवाक्य कह सकते हैं। एक दूसरे के आश्रित न होने पर भी वे अथे की. 
दृष्टि से परस्पर जुड़े हुए रहते हैं, यथा--हम लोग पूना घूमने गए और वहां 
चारं दिन रहे । वह आई, आप से मिली, किन्तु मुझ से उस ने कुछ नहीं कहा तो मैं. 
चली गई । थोड़ी देर पहले मैं आया था, (और) मैं ने देखा था कि कमरे में कोई. 
है। संयुक्त वाक्‍्यों के मुख्य उपवाक्यों के मध्य आनेवाले समुच्चयबोधकों के आधार प्र. 
संयुक्त वाक्‍्यों को चार प्रकार का माना जाता है-- () संयोजक युक्त, यथा-- 
तुम उस के घर गए और वह यहाँ आ गग्मा | मनुष्य जीवन का आधार केवल भोजन 
ही नहीं है, वरन्‌ कई अन्य वस्तुए भी हैं। (2) विरोधक युक्त, यथा--सत्य बोलो 
परन्तु कटु सत्य नहीं । “इस पथ का. उद्देश्य नहीं है शान्त भवन में टिक रहना, _ 
किन्तु पहुँचना उस सीमा तक, जिस के आगे राह नहीं” (प्रसाद) । (3) विकल्प 
युक्त, यथा--चुपचाप बैठो या यहाँ से चले जाओ । न खूदा ही मिला न विसले , 
सनम, न॑ इधर के रहे न उधर के रहे । (4) उद्देश्य/हेतु परिणाम युक्त, यथा--वे 
बीमार हैं, अत: आने में असमर्थ हैं। तुम्हें उत्त लोगों की चाल का पता लगाना है, . 
इसलिए कुछ दिनों तक उन के साथ घुल-मिल कर रहना होगा । हा 
. संयुक्त वाक्य के प्रधान/भुख्य/स्वतन्त्र उपवाक्य सामान्यतः “और, अथवा, तथा, 
एवं, या, फिर, कि, नः-न, किन्तु, लेकिन, वरन्‌, बल्कि, नहीं तो, इसलिए, अतः, सो, 
जो, $' से जुड़े होते हैं। तन, चाहे-** चाहे' दोनों उपवाक्यों में लगते हैं । कभी- 


कभी दो भिन्‍न कथन एकसाथ आ सकते हैं, यथा---इतने में आँधी आ गई और द््र 


... कहीं बांदलों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ने लगी। कभी-कभी समानाधिकरण उपवाक्य 
... बिना समुच्चयाविबोधकों के जुड़े रहते हैं, या नित्य संबंधी युग्म में से किसी का... 
लोप भी सम्भव है, यथा-- तुम्हारा बाप तो क्‍या तुम भी उसे नहीं छ सकते | इन. 





. दिनों उन्हें तुम्हारी आवश्यकता है, चल कर उन्हें तसल्ली दें। उसे पाने की खुशी न. 


संयुक्त वाक़्यों के प्रधाव उपवाक्यों की भाँति संयुक्त वाक्य या मिश्र वाक्य 


। 








वाक्य-भेद | 397 


| में आए आश्चित उपवाक्य भी समानाधिकरण समुच्चयादिबोधकों से जुड़ सकते हैं 
| वधा--हम चाहते हैं कि बच्चे शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ तथा मानसिक दष्टि से 
| वृद्धिमान हों । ऐसे अनेक अध्यापक हैं जो केवल नाम के अध्यापक हैं किन्तु 
अध्यापत से उन का कुछ भी लेना-देना नहीं है। संयुक्त तथा मिश्र वाक्य भी सरल 
वाक्य की माँति अध्याहार वाक्य या संकुचित वाक्य हो सकते हैं। द क्‍ 
प्रकार्य/अर्थ या कथन के उद्देश्य के आधार पर वाक्यों के आठ भेद माने 
जाते हैं--( !) विधानाथंक वाक्यों से कार्य के होने या किसी बात की सूचना 
मिलती है, यथा--भारत एक विशाल देश है। लगता है, पानी आनेवाला है! 
उस ने खाना भी खाया और दूध भी पिया ॥ (2) नकारा्थंक वाक्यों से कार्य के न 
होने (अस्वीकृति/तकार) की सूचना मिलती है, यथा--श्रीलंछा बड़ा देश नहीं है । 
जिस देश का शासक भ्रष्ट होता है उस के अन्य कर्मचारी भी भ्रष्ट होते हैं। उस ने 
खाना भी नहीं खाया और दृध भी नहीं पिया । (3) प्रश्तार्थंक वाक्यों से कार्य 
(/किसी बात) के बारे में प्रश्त पूछते की सूंचना मिलती है, यथा--वे क्या खा रहे 
थे ? क्या तुम्हें मालूम है कि पिता जी आज देर से लौटेंगे ? तुम्त कब गए और कब 
| लौटे? (4) आज्ञार्थक वाक्यों से कार्य को करने के बारे में (किसी को) आज्ञा, 
| आदेश, उपदेश, प्रेरणा, विनती आदि दिए जाने की सूचना मिलती है, यथा--कृषया 
' पहले मेरे घर भी चलिए। जो जिम्मेदारी तुम्हें सौंपी गई है, पहले उसे पूरा करो । जाओ, 
उधर बैठ कर पाठ याद करो । (5) संदेहा्थंक वाकयों से कार्य के होने/करने के बारे 
में संदेह, शंका या संभावना की सूचना मिलती है, यथा--शायद आज आँधी आए । 
जो खुत कल मिला है, (शायद) किसी बदमाश लड़के ने लिखा होगा (/हो) | हमारा 
तार वहाँ पहुँचा होगा और उन का तार यहाँ आया होगा । (6) इच्छार्थेक वाकयों से 
. कार्य के सम्बन्ध में इच्छा, शुभकामना, आशीर्वाद. आदि की सूचना मिलती है, 
। यथा--ईश्वर तुम्हें सौभाग्यवती रखे | तुम जहाँ भी रहो सुखी रहो । दूधों नहाओ, 
|. पूतों फलों (7) संकेतार्थक वाक्यों से कार्य के बारे में शर्त या संकेत की सूचना 
मिलती है। ऐसे वाक्य सदैव मिश्र वाक्य होते हैं, यथा--लॉठरी निकल आती तो _ 
दरिद्रता ६ूर हो -जाती । यदि वे आएंगे तो मैं भी उन के साथ चला जाऊंगा | तुम 
चलो तो मैं इन्तजार करूँ । (8) आवेगार्थक वाक्‍्यों से हर्ष, शोक, आश्चयं आदि 
आवेयों/भावों/उद्गारों की सूचना मिलती है, यथा--अहा ! कितने सुन्दर फूल हैं | 
.. इतने थोड़े-से समय में जितनी तरक्की तुम ने की है, उतनी तो किसी के वश की _ 
नहीं है । तुम ने शादी भी कर ली और मुझे उस की सूचना तक नहीं (दी)!  . 
.... वाक्यों को अन्य दृष्टिकोणों से भी विभक्त किया जा सकता है, यथा---कथन 


के उद्देश्य की दृष्टि से वाक्‍्यों के तीन प्रकार माने जाते हैं--विधानार्थंक, प्रश्वाथंक, ..' 


भेद माने जाते हैं--(अ) स्वीकारार्थक (आ) नकाराथेक/निषेधार्थक । स्वीकाराथंक 
_ वाक्‍्यों के कथन का अन्तर्य/अल्तर्भाव ' वक्ता की दृष्टि से वास्तव में अस्तित्वमान 


. प्रेरणार्थंक । वाक्‍यों में वास्तविकता के प्रति जो रख. होता है, उस के आधार पर दो... 











396. | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


भी है । जहाँ” स्थानवाची है और “वहीं पास में! स्थानवाची विस्तारक है 
जिधर-उधर; जब तक**“तब तक इसी प्रकार के योजक हैं । अं 

. संयुक्त वाक्य भी एक से अधिक विधेयवाले वाक्य होते हैं, किन्तु इन में. | 
एक से अधिक स्वतन्त्र या निराश्रित (प्रधान) उपवाकय होते हैं । इन वाक्यों में. 


..आश्वित उपवाक्थ हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते। संयुक्त वाक्य के स्वतन्त्र 


उपवाक्यों में एक को प्रधान उपवाक्य कहा जाता है तथा अन्य को उस का समाना- 


घिकरण उपवाक्य कह सकते हैं । संयुक्त वाक्‍्यों में कभी-कभी एक उपवाक्य पर 


होता है और दूसरा या दूसरे उपवाक्य अध्याहारित और कभी-कभी सभी उपवाक्य 
पूरे होते हैं, यथा--तुम सिगरेट मत पिया करो बल्कि सौंफ खाया करो । पिता जी. 
दफ्तर जा रहे हैं और मम्मी क्लब। मैं तो जा रही थी पर तुम ने ही मुझे रोक 
लिया था। 3 या कक ः 
संयुक्त वाक्य के स्वतन्त्र/प्रधान उपवाक्यों को. समानाधिकरण/समान . 
स्तरीय उपवाक्य कह सकते हैं। एक दूसरे के आश्रित न होने पर भी बे अर्थ की 
दृष्टि से परस्पर जुड़े हुए रहते हैं, यथा-- हम लोग पूना घूमने गए और वहाँ 
चारं दिन रहे । वह आई, आप से मिली, किन्तु भुझ से उस ने कुछ नहीं कहा तो मैं... 
चली गई । थोड़ी देर पहले मैं आया था, (और) मैं ने देखा था कि कमरे में कोई | 
है । संयुक्त वाक्‍्यों के मुख्य उपवाक्यों के मध्य आनेवाले समुच्चयबोधकों के आधार पर |. 
संयुक्त वाक्‍्यों को चार प्रकार का माना जाता है--() संयोजक युक्त, यथा-- . | 
तुम उस के घर गए और वह यहाँ आ ग्मा। मनुष्य जीवन का आधार केवल भोजन . | 
ही नहीं है, वरन्‌ कई अन्य वस्तुए' भी हैं। (2) विरोधक युक्त, यथा--सत्य बोलो. 
परन्तु कह सत्य नहीं। इस पथ का उद्देश्य नहीं है शान्‍्त भवन में टिक रहना, | 
किन्तु पहुँचना उस सीमा तक, जिस के आगे राह नहीं (प्रसाद) । (3) विकेल्प 
अत, यथा--चुपचाप बेठो या यहाँ से चले जाओ । न खुदा ही मिला न विसाले , 


सनम, न इधर के रहे न उधर के रहे । (4 ) उद्देश्य/हेतु परिणाम युक्त, यथा--वे 


बीमार हैं, अतः आने में असमथे हैं.। तुम्हें उत्त लोगों की चाल का पता लगाना है, 
इसलिए कुछ दिनों तक उन के साथ घुल-मिल कर रहना होगा। कप 
.. संयुक्त वाक्य के प्रधान/मुख्य/स्वतन्त्न उपवाक्य सामान्यतः: “और, अथवा, तथा, 


एवं, या, फिर, कि, नस, किन्तु, लेकिन, वरन्‌, बल्कि, नहीं तो, इसलिए, अतः, सो, 


जो, # से जुड़े होते हैं । 'न*“न, चाहे-*-चाहे' दोनों उपवाक्यों में लगते हैं। कभी- 


हे 


कभी दो भिन्‍न कथन एकसाथ आ सकते हैं, यथा---इतने में आँधी आ गई और दूर. 


कहीं बोदलों की गड़गड़ाहट सुनाई पड़ने लगी। कभी-कभी समानाधिकरण उपवाक्य हा 
. बिना समुच्चयादिबोधकों के जुड़े रहते हैं, या नित्य सं बंधी युग्म में से किसी का... |. 
*  लोप भी सम्भव है, यथा--तुम्हारा . बाप तो क्या तुम भी उसे नहीं छू सकते। इन हा. 
... दिनों उन्हें तुम्हारी आवश्यकता है, चल कर उन्हें तसल्ली दें । उसे पाने की खुशीन | 
5 खोने का गम |. >> हा हम या 


|... संयुक्त वाकयों के प्रधान उपवाक्यों की भांति संयुक्त वाक्य या मिश्र वाक्य. 





वाक्य-भेद | 397 





'3ब्क 


. में आए आश्रित उपवाक्य भी समानाधिकरण समुच्चयादिबोधकों से जड सकते है 
| यया-हम चाहते हैं कि बच्चे शारीरिक दृष्टि से स्वस्थ तथा मानसिक दष्टि से 
बुद्धिमान हों । ऐसे अनेक अध्यापक हैं जो केवल नाम के अध्यापक हैं किन्तु 
अध्यापन से उन का कुछ भी लेना-देना नहीं है। संयुक्त तथा मिश्र वाक्य भी सरल 
वाक्य की माँति अध्याहार वाक्य या संकुचित वाक्य हो सकते हैं। 
प्रकाय/अर्थ था कथन के उद्देश्य के आधार पर वाकयों के आठ भेद माने 
जाते हैं--(!) विधानार्थंक वाक्‍्यों से कार्य के होने या किसी बात की सूचना 
.. मिलती है, यथा--भारत एक विशाल देश है। लगता है, पानी आनेवाला है| 
उस ने खाना भी खाया और दूध भी पिया । (2) नकारार्थक वाक्यों से कार्य के त 
होने (अस्वीकृति/तकार) 
जिस देश का शासक भ्रष्ट होता है उस के अन्य कर्मचारी भी भ्रष्ट होते हैं । उस ने 
खाना भी नहीं खाया और दूध भी नहीं पिया । (3 ) प्रश्तार्थंक वाक्यों से कार्ये 
(/किसी बात) के बारे में प्रश्न पूछते की सूंचना मिलती है, यथा--वे क्या खा रहे 
. थे ? क्या तुम्हें मालूम है कि पिता जी आज देर से लौटेंगे ? तुम कब गए और कब 
लौटे ? (4) आज्ञार्थक वाक्यों से कार्य को करने के बारे में (किसी को) आज्ञा, 
. आदेश, उपदेश, प्रेरणा, विनती आदि दिए जाने की सूचना मिलती है, यथा--क्ृषया 
. पहले मेरे घर भी चलिए। जो जिम्मेदारी तुम्हें सौंपी गई है, पहले उसे पुरा करो । जाओ 
. उधर बंठ कर पाठ याद करो । (5) संदेहार्थंक वाक्यों से कार्य के होने/करने के बारे 
में संदेह, शंका या संभावना को सूचना मिलती है, यथा--शायद आज आँधी आए 
जो खुत कल भिला है, (शायद) किसी बदमाश लड़के ने लिखा होगा (/हो)। हमोरा 
तार वहाँ पहुँचा होगा और उन का तार यहाँ आया होगा । (6) इच्छार्थंक वाक्यों से 
. कार्य के सम्बन्ध में इच्छा, शुभकामना, आशीर्वाद, आदि की सूचना मिलती है, 
_यंथा--ईश्वर तुम्हें सौभाग्यवती रखे | तुम जहाँ भी रहो सुखी रहो । दुधों नहाओ 
पृतों फलो (7) संकेंतार्थक वाक्यों से कायें के बारे में शर्तें या संकेत की सूचना 
मिलती है। ऐसे वाक्य संदेव मिश्र वाक्य होते हैं, यथा--लॉटरी निकल आती तो 
दरिद्रता हर हो जाती । यदि वे आएंगे तो मैं भी उन के साथ चला जाऊंगा । तुम 
चलो तो मैं इन्तजार करू । (8) आवधेगार्थक वाक्यों से हर्ष, शोक, आश्चर्य आदि 
_ आवेयों/भावों/उदगारों की सूचना मिलती है, यथा--अहा ! कितने सुन्दर फूल हैं ! 
इतने थोड़े-से समय में जितनी तरक्की तुम ने की है, उतनी तो किसी के वश की 
नहीं है । तुम ने शादी भी कर ली और मुझे उस की सूचना तक नहीं (दी) ! 
द वाक्यों को अन्य दृष्टिकोणों से भी विभक्‍त किया जा सकता है, यथा+--कथन 
के उद्देश्य की दृष्टि से वाकक्‍्यों के तीन प्रकार माने जाते हैं--विधाना्थंक, प्रश्वाथंक, 
: प्रेरणार्थंक । वाक्‍्यों में वास्तविकता के प्रति जो रख. होता है, उस के आधार पर दो 





भेद माने जाते हैं--(अ) स्वीकारार्थक (आ) नकारार्थक/निषेधार्थक । स्वीकाराथंक 


वाक्यों के कथन का अन्तय॑/अन्तर्भाव ' वक्‍ता की दृष्टि से वास्तव में अस्तित्वमान 














398 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


होता है, यथा--मेरी जेब में. सौ का एक नोट था। दशरथ तड़प कर गिर पहे।.. 
नकाराथेक वाक्यों के कथन क। अन्‍्तर्भाव वक्‍ता की दृष्टि से वास्तव में अस्तित्व मा _ 
_चहीं होता | शाब्दिक-व्याकरणिक अर्थ के अनुसार नकारार्थंक वाक्यों के दो उपभ्ेद 

माने जाते हैं--(क) पूर्ण नकाराथंक वाकयों में. अस्वीकृति , विधेय से सम्बन्धित होती. 
है । (ख) आंशिक नकाराथंक वाक्यों में विधेय के अतिरिक्त किसी भीशंगवी 
अस्वीकृति हो सकती है, यथा--मुझे आगे से आप ने कह कर तुम कहा करें।. 
वह बिना. कुछ कहे घर से निकल गया। ध्रृध में वहाँ न वृक्ष दिखाई दे रहे थे 
न घर, न नदी और पहाड़ियाँ । विधानाथंक, प्रश्नार्थक तथा प्रेरणार्थक वाक्यों का 
अपना अनुतान होता है। इन. का विशिष्ट अनुतान से उच्चारण किए जाने पर थे 
. विस्मयादिबोधक हो ज्ञाते हैं, यथा--बेटा रहीम, उठो अब्बा आ गए। यह तुम ने 
क्या कर दिया ? निकल जाओ यहाँ से ! आज्ञार्थक वाकक्‍्यों को ही कुछ वैयाकरण 
प्रेरणार्थक वाक्य भी कहते हैं। . श 9. जज 





0 23 22%43 / 
न 


- बाक्यांग 


न नलननकमनननननीननननशल्‍लआआआल हा जा पर हमफग कादर दलाकन न अर 2. 








विनिनिलीमििधनधन न मन बन. ७७८८ 


: अ्रत्येक वाक्य के दो मुख्य अंग होते हैं--(!) उद्देश्य (2) विधेय । 
उद्देश्य प्रायः कर्ता होता है और विधेय प्रायः क्रिया, यथा--बिल्ली कूदी । कुत्ता 
दौड़ा । उठों, उधर जाओ । (इस वाक्य में कर्ता 'तुम' अव्यक्त है) । वहाँ कौन 
जाएगा ? इस प्रश्न के उत्तर में कहे गए वाक्य “मैं में क्रिया (जाऊँगा/जाऊंगी) 
अव्यकत है। कर्ता, क्रिया पद के साथ जुड़तेवालें पद “कर्ता/उद्देश्य के विस्तार, 
'क्रिया|विधेय के विस्तार' कहलाते हैं, यथा --कुत्ता बैठा है->मेरा कुत्ता वहाँ बैठा 
: है--मेरा अलसेशियन काला कुत्ता वहाँ बहुत देर से बैठा है। काले टाइप के पद 
. कर्ता (कुत्ता), क्रिया (बैठा है) के विस्तार हैं। द  अन; 

... घढक-आधार पर सरल वाक्य दो प्रकार .के हो. सकते हैं--- एकांगी 
_बाक्य जिन में केवल एक प्रधान अंग होता है । इन में गौण अंग भी आ सकते हैं और 
इस प्रकार ये विस्तारित भी हो सकते हैं। एकांगी वाक्यों के दो प्रकार होते 
हैं--(क) उद्देश्य रहित (ख) विधेय रहित, यथा--आओ, नहीं, जा रहा है, 
(इसे लोटा) कहा जाता है (उद्देश्य रहित वाक्य), नमस्ते ! शुभराति ] तेज आँधी, 
चारों ओर धूल ही धूल (विधेय रहित वाक्य) 2. दुव्यंगी वाक्य जिन में दोनों प्रधान 
: अंग उद्देश्य, विधेय' (विधेयन-युग्म) होते हैं । इत में उद्देश्य, विधेय से संबंधित गौण 
. अंग भी हो सकते हैं। दुव्यंगी वाक्य अधिक उत्पादक होते हैं, यथा--मैं आगरा में 
| रहता हूँ । उसकी माँ अध्यापिका है ।. मैं तुम्हें यह पहला . पत्र लिख रही हूँ । 
| एकांगी, दुव्यंगी वाक्य पूर्ण, अपूर्ण हो सकते हैं। पूर्ण वाक्यों में तत्संबंधी वाक्य- 
पुरवना के सभी अंग होते हैं, अपूर्ण वाक्‍्यों में तत्संबंधी वाक्य-संसचना के एक या. 
अधिक अंगों का लोप होता है । प्रसंग/अन्दर्भ से ये अंग स्पष्ट हो सकते हैं, यथा तो. 





| ब्ब मैं बेफिक्र रहूँ ?--पूरी तरह ते। इस दवा को कैसे लेना होगा “दिन में तीन 
| ._बार ताजा पानी के साथ । दृव्यंगी वाक्य के विधेयत (उद्देश्य, विधेय का युग्म) 
_ शब्दबंध होते हैं । इस शब्दबंधों का एक घटक (विधेय) दूसरे घटक (उद्देश्य) की 


.. व्याख्या (उस का विधान) करता है । दुव्यंगी वाक्य के प्रधान अंग (उद्देश्य, विंधेय) . 
. उस के संरच॒नात्मक केन्द्र होते हैं और उन के आस-पास अत्य दूसरे अंग/चटक आ 
"० सकता है।। ४. यम, मर पी पल 5 387, 








का 
रन 








400 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण... 


जिस व्यक्ति/वस्तु का लक्षण या व्याघार विधेय दुवारा व्यक्त किया जाता 
है, उसे उद्देश्य कहा जाता है। उद्देश्य प्रत्येक दृव्यंगी वाक्य का एक प्रधान अंग होता 
है । विधेय भी प्रत्येक दृव्यंगी वाक्य का प्रधान अंग होता है। यह उद्देश्य दवारा 
व्यक्त व्यक्ति/वस्तु के लक्षण को नामीद्दिष्ट करता है। सकमेक या दविकर्मक क्रिया 
होने पर कर्ता, क्रिया के अतिरिक्त वाक्य में कर्म पद भी उपस्थित रहता है 
यथा--माँ ने खाना पकाया है। माँ ने बहुत सारा खाना पकाया है। पिता जी. 
बच्चों को गणित पढ़ाते हैं। मेरे पिता जी मुहल्ले के बच्चों को सप्नी प्रकार 
का गणित पढ़ाते हैं। इन वाक्‍यों में मुख्य कम, गौण कर्म अपने विस्तार के साथ काले 
टाइप में अंकित हैं । प्रत्येक वाक्य का कर्ता (अपने विस्तार सहित) अंग 'उददेश्य 
(जिस के बारे में कुछ कहा जाए/गया है) कहा जाता है, यथा--'मेरे पिता जी' 
वाक्य में उद्देश्य के अतिरिक्त शेष भाग (क्रिया अपने, कम, पूरक तथा इन सब के 


. विस्तार सहित) 'विधेय” (कर्ता के बारे में जो कुछ कहा गया है) कहा जाता है 


यथा-- मुहल्ले के बच्चों को सभी प्रकार का गणित पढ़ाते हैं ! 
वाक्य में विधेय अंश उद्देश्य, के बाद तथा पूर्व भी आ सकता है 


यथा--तुम्हारी बातें समझ न सकने के कारण उस के मन में शंका होने लगी थी। 


इस वाक्य में 'शंका' उद्देश्य से पहले आए शब्द और बाद में भी आए शब्द विधेय के. 
अंश हैं| हिन्दी वाक्‍्यों में उद्देश्य का प्रकार्य संज्ञा या अन्य शब्द-भेद अविकारी 
कारक में या 'ने को, से युक्त विकारी कारक में करता है। हिन्दी में उद्देश्य की 


अभिव्यक्ति इन शब्द भेदों से सम्भव है--() संज्ञा से, यथा--बिल्ली कूदी । बच्चा 


सो रहा है। (2) सवनाम से, यथा--मैं सिनेमा नहीं .देखता | आप कया कर रहे 


. हैं? उसे किस ने मारा है? (3) संज्ञाकृत (स्वतन्त्र, सहायक) शब्दों से--(क) 


विशेषण से, यथा--ग्रीढों को भी कर देता पड़ा। असीरों ने भी दान नहीं दिया। 


. एक कहता हैं हनुमान की पूजा कर, दूसरा कहता है राम से लौ लगा ! (ख) संज्ञा्थंक 
- क्रिया से--जितना कहना आसान है, उतना करना आसान नहीं है। (ग) इृदन्त 


से,--मरता क्या न करता। रोज आनेवाला ऐसा नहीं करेगा। मेरा कहा याद है न ! 
(घ) निपात से--प्रेमिका की. "न ने उसे अत्यन्त मर्माहत कर दिया था। 


(ड) स्थानवाची से--उस का भीतर-बाहर समान है। (च) समुच्चयबोधक 
 से--तुम्हारी 'लिकिन' मुझे पागल बना देगी $ (&छ) उद्गारसूचक से--माँ की हाय 
ने सब को चौंका दिया था । (4) संज्ञा पदबंध से---झृठ बोलना पाप माता जाता 
है । घर के घर स्वाहा हो गये । सड़क के दोनों ओर पेड़ ही पेड़ खड़े थे। 


सामान्यतः उद्देश्य कर्ता कारक में आता है, किन्तु कभी-कभी वह अन्य 


.. कारकों में भी आता है, यथा--(क) कतूं वाच्य का (कारक चिह न-रहित) प्रधान _ 
.. .... कर्ता--खरगोश दौड़ा । पेड़ बोला (बच्चों की कहानियों में ऐसे वाक्य संभव हैं।) 
.....ै.. घिड़ियाँ उड़ीं। (ख) कतु वाच्य का (कारक चिह न युत) अप्रधान कर्ता--उन्हों ने 
हू .... आप को बुलाया है। भाई ने भाई को मारा । (ग) कमंवाच्य का कर्ता (/कारक 






वाक्यांग | 40] 


बिहू न-रहित कर्म. कारक)--पेड़ काटे जा रहे हैं। उन्हें पत्र लिख दिया जाएगा । 
दवा ले ली गई या नहीं । (घ) कमंवाच्य का कर्ता (|कारक चिह न युत कर्म 
_कारक)--डिनर पर किसे बुलाया जा रहा है ? कल आप को ही मुख्य अतिथि बनाया 

. बाएगा | उसे अदालत में पेश किया गया। (ड) असमर्थतादयोतक भाववाच्य का 
कर्ता (करण कारक)--बच्चे से बैठा नहीं जा रहा है। उन से अभी चला नहीं 
जाता। सुझ से दायीं करवट सोते नहीं बनता । (च) भावे प्रयोग का कारक चिह न 
बुत कर्ता (/सम्प्रदाव कारक)--उन्‍्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था। आप को ही 
वहाँ जाता होगा । डाकुओं को गोली चलाने के बजाए भागते ही बना । 

वाक्य के कर्ता का विस्तार चार प्रकार से होता है--(अ) विशेषण शब्दों 
| ते, यथा--भूरी बिल्ली कूदी | दोनों बच्चे सो रहे हैं। (आ) सम्बन्धवाची शब्दों से, 
| यथा-सेरी बिल्ली किधर है ? आप का बच्चा इधर है । (इ) समानाधिकरण शब्दों 
| से, यथा-- कृष्ण कालीन मथुरा नरेश कंस बहुत क्र र था। परमहंस स्वामी रामकृष्ण 
तीर्थ अत्यन्त सरल स्वभाव के थे। (ई) “अ, आ, इ' में वणित शब्दों के पदबन्धों से, 
पथा-- लम्बे-लस्बे काले बालोंबाली, गोरे गालोंबाली एक छरहरी लड़की ने---। 

' दिन भर की थकी-माँदी नयी बहू रात को गहरी नींद में सो गई। टीपू सुलतान के 
समय का बहुत मजबूत लकड़ी का बना हुआ एक भवन अभी तक खड़ा है । 

. हिन्दी में विधेय पाँच प्रकायं नामोद्दिष्ट करता है--() व्यापार--मालती 
रो पड़ी (2) अवस्था--आज तुम बहुत खुश हो (3) गुण-धर्म--तेल पानी से हलका 
होता है। उस का दिमाग बहुत तेज है । (4) परिमाण--धर्मस्थल में एक दिन में 
। खाता खानेवालों की संख्या लगभग पाँच हजार होती है। (5) स्वामित्व--यह देश 
।+ हमारा है। न की ग हर जम 2 
... संरचना की <दृष्टि से विधेय एक पदीय (सामान्य) और एकाधिक पदीय 
(संयुक्त) होता है। विधेय के घटकों में क्रिया; वामिक शब्द; क्रिया-तामिक शब्द हो 
सकते हैं। विधेय में सामान्यतः एके समापिका क्रिया (सामान्य या संयुक्त) किसी 
_ भी लिग, वचन, पुरुष, काल, वाच्य, वृत्ति, पक्ष की रहती है। प्रायः अपूर्ण अकर्मक 
क्रियाओं (बन, दिख, निकल, ठहर, रह, पड़े आदि) के अर्थ-पूर्ति के लिए उद्देश्य- 


|. पुरक जोड़ने की आवश्यकता होती है। उद्देश्य पूरक संज्ञा, विशेषण हो सकता है, . 


_यथा--उस की नौकरानी चोर निकली । वह कोठी हमारे दादा की थी । व्यापार के 
लिए आए अँगरेज धीरे-धीरे भारत के शासक बन गए । सामान्यतः सकमेक क्रिया- 


. वाले वाक्यों में एक (मुख्य) कर्म रहता है तथा द्विकर्मक क्रियाओंवाले वाक्‍यों में 


एक मुख्य कर्म (अप्राणिवाची) और एक गौण कम (प्राणिवाची) रहता है। कर्मवाच्य ._ 


| में अपूर्ण सकमंक क्रियाओं (कर, बना, समझ, पा, रख आदि) के साथ भी 





उद्देश्य-पूरक जोड़ने की. आवश्यंकता होती है । उद्देश्य-पूरक संज्ञा, विशेषण द हो 
.. सकता है, यथा--वह गुलाम एक दिन बादशाह बना दिया गया । ऐसा बच्चा मन्द 
माना जाता है। तुम्हारी बातझूठ पाई गई । |“ |/#|/|/|ऑऔआऔ॥औऋ 
की आम आह कक 








402 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


. अपना अर्थ आप प्रकट करनेवाली अपूण्ण क्रियाएँ अकेली ही विश्वेय होती हैं, . 
पथा--ईश्वर है । शाम हुई । बेटा है, बहू है, कोठी है। कभी-कभी वर्तमान काल. 
में "होना क्रिया लुप्त भी रहती है, यथा-तुम्हें इस- बात से क्या मतलब है)? 
बिना पैसे लिए मैं नहीं यहाँ से जाने का (हूँ )। क्‍ ह 

वाक्य में कर्म का स्थान छह प्रकार के शब्दों/पदबन्धों से भरा जा सकता है 

यथा---(क) संज्ञा से--बच्चा फूल तोड़ रहा था । मैं पुस्तक लिख रहा हूँ। मैं 
बेटी को गणित पढ़ाता हूँ। (ख) सर्वताम से--वह लड़की तुम्हें बुला रही है। 

उन्हों ने आप के लिए यह दिया है। उसे यही साड़ी पहनने दें। (ग) विशेषण 
से--भरीबों को मत सताओ । आप-ने डूबतों को तारा है। भूखे को खाना और 
 प्यासे को पानी दो । (घ) अव्यय शब्द से--रुपया लौटाने में वह 'अंब-तब' कर 
_ रहा है। (ड) संज्ञावत्‌ प्रयुक्त किसी भी शब्द से--क्या रामचरितमानस में तुलसी 
ने कि शब्द लिखा है ? (च) संज्ञा पदब॑न्ध से--वह स्कूटर चलाना सीख रही है। 
मुझे तुम्हारा इस तरह बहाने बनाना कतई पसन्द नहीं है । टिड्डियों ने खेत के खेत 
कुतर डाले । तुम ने सेरी बात को कोई कान नहीं दिया | गौण कर्म के स्थान पर भी 
उपयुक्‍त शब्द/पदबंध आ सकते हैं, यथा--(क) संज्ञा-माँ ने बेटे को गीत 
सुनाया । (ख) सर्वताम--सुझे सुन्दरकांड सुताओ । (ग) विशेषण-- ढोंगियों को 
कुछ नहीं देवा चाहिए (घ) अव्यय--तू ने यहूं बात अन्दर (अर्थात्‌ धह रानी को) तो 
नहीं बताई । (ड) संज्ञावत्‌ प्रयुक्त कोई शब्द--तुम्हारी हाँ को मैं कैसे हाँ मात्र 
ल | (च) संज्ञा पदबंध--तुम ने इतने छोटे बच्चों को इतने अधिक पैसे क्यों दिए ? 
ह कर्मवाच्य में दृविक्मंक क्रिया का मुख्य कर्म उद्देश्य बन' कर कर्ता कारक के 
रूप में, आता है और गौण कम यथावत्‌ रहता है, यथा--भूखों को खाना दिया जा 
रहा है ! कुछ देर बाद तुम्हें यह बात समझा दी जाएगी । बकरी को चने खिलाए 
जाते हैं। कत वाच्य के अपर्ण सकर्मेक क्रिया (कर, बना, समझ, मान, पा, कह, ठहरा 
आदि) युत वाक्य में कर्म के साथ कर्म-पूति (/पुरक) आती है, यथा--कैवल परमात्मा... 
. ही राई को पर्वत बना सकता है। चिंत्रकार और कवियों ने एक सिरवाले रावण को 
.. दस सिरवाला बना. दिय! कृपुत्र सारी सम्पत्ति को मभिद॒दी कर देता है। 

सजातीय अकमेक क्रियाओं के साथसजातीय कर्म आता है, यथा--तुम ने बहुत अच्छी 
चाल चली । पी. टी. उषा क्षम्बी दौड़ दौड़ी। पुलिस ने चोर को बुरी मार मारी। 
“ आओ, हम सब गृह-पंचायत की बैठक बेठें ॥.. है 
.... वाकयों में कम [सुख्य, गौण) तथा पुरक का विस्तार कर्ता के विस्तार के _ 
समान ही होता है, यथा--(क) विशेषण शब्दों से--आप ने कितनी साड़ियाँ खरीदी _ 


.. हैं? वह बीमार औरत है। (ख) समानाधिकरण शब्द से---तुम अपनी सहेली रेखाको 

.... बुलाओं । अयोध्या के राजा दशरथ ने मिथिलाधिपति राजा जनक .को अपना समधी: 

_.. . .. स्वीकार किया । (ग) सम्बन्ध सूचक शब्द से--पहले आज का काम पूरा करो.। 
..... _ आचार्य ने स्कूल के सभी छात्रों को मैदान में पहुँचने के लिए आज्ञा दी । तुम अपने 





वाक्यांग | 403 


दोस्तों को भी बुला लेना । (घ) विशेषण पदबन्ध से--क्या तुम ने बाँस पर चढ़ी हुई 
तटिनी को देखा है ? सभी बच्चे उन की लिखी हुई कहानियाँ बड़े चाव से पढ़ते 
_ वाक्‍्यों में विधेय अंग की रचना पाँच प्रकार से होती है--() क्रिया से 
_ -बिल्ली कूदी । आओ, चलें | खाओ । (2) कर्म -- सकर्मक क्रिया से--बिल्ली ने 
दूध पी लिया । (3) कर्म--पूर्वकालिक क्रिया--क्रिया से--कुत्ता हड्डी ले कर 
| ब्रागा। (4) पूरक-न-अस्तित्ववाची क्रिया से---बच्चा बहुत कमजोर है। (5) कर्म -- 
क्रिया-विस्तार--क्रिया से--खरगोश काफी तेज दौड़ा। श्रीराम ने रावण को 
 ब्वाणों से विदीर्ण कर दिया । पुलिस के सिपाही ने चोर को तेजी से प्राग कर धर 
दबोचा। 
वाक्यों (/विधेयांश) की संभाषिका क्रिया का विस्तार दस प्रकार से हो 
। सकता है--(!) संज्ञा/संज्ञा वाक्यांश से--विक्रम संवत्‌ 956 में भयंकर अकाल 
| पढ़ा था। नौ दिन चले अढ़ाई कोस । (2) क्रियाविशेषण से--क्या तुम सुडौल 
| लिखतेहो ? वेतो घर में थों ही बैठे हैं। (3) विधेय विशेषण से--लडकियाँ 
उदास बैठी हुई हैं | तुम तो भले चंगे बैठे हो । गाय रंनाती हुई भागी । (4) पूर्ण/ 
अपणं कृदन्‍्त से--पिलला को का करता भाग गया। पायल बकते-बकते दौड़ पड़ा । मैं 
| तो बढठ-बेठ ऊब जाता हूँ। (5) पूवंकालिक कृदत्त से--तू लेंगड़ा कर क्यों चलता 
। है? माँ नहा कर वापस आ चुकी है। पगगली तेजी से उठ कर भागी । (6) तत्काल- 
|. वबोधक कृदन्त से--तुम ने आते ही शैतानी शुरू कर दी । बच्चा गिरते ही मर गया। 
। बच्चे ने दवा पीते ही उल्टी कर दी। (7) स्वतन्त्र वाक्यांश से--इतनी रात गए 
| कहाँ गई थी ? उसे सरे तो कई साल हो गए। इस बास से सारी थकावट दूर हो कर 
अच्छी और मीठी नींद आती है। (8) क्रियाविशेषण पदबन्ध/स्थानवाची या 
. कालवाची अव्यय पदबंध से--कुछ पुस्तकें हाथों हाथ बिक जाती हैं | राजधानी 
| एक्सप्रेस की अपेक्ष/ शताब्दी एक्सप्रेस बहुत अधिक तेज दौड़ती है। डकत यहीं कहीं 
| अवश्य छिपे हुए हैं। (9) संबंधबोधक शब्दों से---तुम किस के यहाँ रह रहे हो ? बेचारा 
| इनदितों खुजली के मारे परेशान है | कबूतर जाल समेत उड़ गए । (0) कर्ता, कर्म 
| संबंध कारक से इतर कारकों से--बच्चे को चम्सच से दूध पिला दो | वह गंगा 
|. हतान को गया है। वे अपने किए पर आप पछता रहे हैं।. क्‍ 
विधेय . विस्तारक शब्दों के निम्नलिखित प्रकार्य हो सकते हैं--(क) काल .. 
सूचना--[) निश्चित काल--वे कल गए । (7) अवधि--बच्ची चार महीने से बीमार 
| है। (#9) आवृत्ति--मैं ते उसे बार-बार मना किया। (ख) स्थानसूचक--() 
_' स्थिति--बनारस गंगा के किसारे बसा हुआ है । (8) आरम्भ--गंगा गंगोत्री से और 
|. यमुना यथुनोत्री से निकलती है । (7) लक्ष्य स्थान--वह बस तो अहमदाबाद (को) 
क चली गई। (ग) रीतिसूचना--(!) ढंग--डाकू लेंगड़ाता हुआ भाग गया। (7) 
|  साधन--इस कलम से कैसे लिखा जा सकता है ! (77) सहित/युक्त--अब मैं तुम्हारे. 
... साथ नहीं रह सकती ! (छो परिमाण सूचना--[) निश्चित--एंक औरत पुरुष के... 





शी ि 








404 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


बराबर शारीरिक श्रम नहीं कर पाती । (|) अनिश्चित--गांधी जी बहुत तेज चलते 
थे। (ड7) नतकार/निषेध सूचन कभी नहों जाता । आप इधर न आइए | 
तुम यहाँ मत बैठो । (च) कार्य-कारण सूचना--($) हैतु-कारण--उन के यहाँ बा 
जाने से हमारा काम बन जाएगा । बच्ची डर के मारे कॉपने लगी। (४) निमित्त-.. 
इस महँगाई में पीले को गम और खाने को हवा ही है। तुम रोज सिनेमा देखने 
जाते हो। (४४) उपादान--घी और गुड़ से कई मिठाइयाँ बनाई जाती हैं। ' 
(१९) विरोध--हमारे जागते भी चोर माल ले कर भाग गए । ऊँची-ऊँची लहरें उठने 
. पर भी नाविंक नाव खेता रहा । 
वाक्‍्यांगों को बाक्य-विग्रह (/वाक्‍्य-विश्लेषण) करते हुए इस प्रकार भी 
दिखाया जा सकता है--(! ) तुम्हारा नृत्य आज सभी दर्शकों को बहुत ही अच्छा 
लगा था। (2) मन्दिर से पाँच मील दूंर कोई सौ फुट ऊंचा एक टीला है। (3) 
जन तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी ने सदेव अहिंसा को आत्मिक बल का आधार 
स्वीकार किया था। (4) गर्मी के मारे इस कमरे में केसे सोया जाएगा ? (5) क्या 
तुम पागल हो गए हो ? 2 के 


हा 
ही 























2 उद्देश्य |. : विधेय कि 

कर्ता कर्ता-विस्तार कर्म | हल पा नही । क्रिया |क्रिया-विस्तार 

दर्शकों | ु कक 

को ' सभी [नृत्य | तुम्हारा अच्छा | बहुत ही [लगा था। आज 

टीला कोईसो फुट ऊंचा| +. | कप ना! ने है मन्दिर से पाँच 
एक .. समीलदूर 

महा- ' | 5 हि कि यह 2 अर 

वीर ने| जैन तीथंकर; अहिसा --  आधार| आत्मिक | स्वीकार | सदेव 

. | भगवान; स्वामी। को बल का क्यिाथा[€९्, 

(किसी । को 
से) , जल « 5 नमक) ॥ मतलल, -“+ | “5 | सोया गर्मी के मारे; इस _ 
लुप्त रा है | जाएगा कमरे में; कसे 
तुम, |  - “| ““+ पागल -- होगएही उ्या : 


कब मिश्र वाक्य का विग्रह करते समय पहले उस वाक्य के प्रधान, आश्रित उप- 

... वाकक्‍यों और उन के योजकों का उल्लेख किया जाता है। इस के बाद प्रत्येक उपवाक्य 
. .. के उद्देश्य और विधेय का घिश्लेषण किया जाता . है, यथा--जब मेरे बड़े भाई 
श्रीराम वनवास काट कर अयोध्या लौटेंगे, तब मैं उसी समय उन्हें उत्त का यह राज्य 
 सोंप कर भार मुक्त हो जाऊंगा ।.. . रा 

। (क) (तब) मैं उसी समय उन्हें उन का यह राज्य सौंप कर भार मुक्त हो 
जाऊंगा--प्रधान उपवाक्य । के है 

पल (ख) (जब) मेरे बड़े भाई श्लराम वनवास - काट कर अयोध्या लौटेंगे-- 
.. #&... आश्रित कालसूचक अव्यय उपवाक्य |. हम ह 

7... 7... ... ज़ब"“““तब नित्य सम्बन्धी योजक । 








वाक्यांग | 403 


“उद्देश्य योजक पंथ ३.77 योजक त्णज्नप््य 
७ 


| कर्ता - रे 
5 प्रक म 2 | क्रिया | क्रिया-विस्तार 


ठ 
हि 
्ः | कर्ता | दिस्‍्तार “मे | विस्तार 
॥ 
(के) | में ना | तब | उन गज | -- | तब उन्हें, उन का,। भार | -... | हो | उसी समय. | | उत का, | भार | -- | हो | उसी समय; 
राज्य यह [मुक्त जाऊंगा।| सौंप कर 





_(ध) श्रीराम मरे बडे जब | -.. - “+. +- बोर बतवास काट 
भा द कि 


संयुक्त वाक्य का विग्रह करते समय पहले उस वाक्य के प्रधान उपवाक्य और 
उस के समानाधिकरण (/समानाधारी) उपवाक्यों और उन के आश्रित उपवाक्यों के 
(यदि हों तो) योजकों का उल्लेख किया जाता है। इस के बाद प्रत्येक उपवाक्य के 
उददेश्य और विधेय अंश का विश्लेषण किया जाता है, यथा--राजा दशरथ की 
सब से छोटी रानी भरत की माँ ककेयी ने मंधरा की सलाह त्रन्त स्वीकार कर 
ली और बोली कि मैं इसी समय राजमहल जाती हूँ तथा वहाँ पहुँच कर राम से 
कहती हूँ कि तुम्हें [4 वर्ष के लिए वन जाना पड़ेगा । द 
द (क) राजा दशरथ क.सब से छोटी रानी भरत की माँ कैकेयी ने मंयरा की 
सलाह त्रन्त स्वीकार कर ली-- प्रथम प्रधान उपवाक्य । . 
बे (ख) (और) बोली--द्वितीय प्रधान उपवाक्य ('क' का समानाधिकरण | 
और' योजक, “वह कर्ता लुप्त ।) 
(ग) (कि) मैं इसी. समय राजमहल में जाती हुँ--प्रथम आश्रित संज्ञा उप- 
वाक्य (ख' का कम । कि योजक) 
..._ (घ) (तथा) वहाँ पहुँच कर राम से कहती हूँ--दूवितीय आश्रित संज्ञा उप- 
. वाक्य (“ग” का समानाधिकरण । 'तथा' योजक "मैं' कर्ता लुप्त ।) द 
(७) (कि) तुम्हें 4 वर्ष के लिएं बन जाना पड़ेगा--तृतीय आश्वित संज्ञा 
उपवाक्य ('घ” का कर्म । कि योजक) 
5 ह्वुदेश्य . योजक___ _ _ _विधय 











पा श कल जप (र्ि। 
हि. | 9 कर्ता | / « । कम- #छि. क्रिया- 

द । मं प्रक £ टि। क्रिया रे 
् द कर्ता विस्तार ह प विस्तार | « विस्तार 





0 -- सलाह [मंथरा की| -- | -- | स्वीकार तुरन्त 
की नें माँ । ह हा कर ली 

: व) (बह) 55. (और) ०7. 7: [77 + बोली 

(ग) | मैं (+_ (कि) नी एणण (7 जात है इसी समय 
हि] हे पक बह राजमहल में 
. (घो (मैं) -- (कथा) -+- | “ | 7: [7 | कहती हूँ | वहाँ; पहुंच 
हा (3) + हैं) गा ॥ । ् पा, कर; राम से 
|. हो | लस्हें | -- [(कि)|-- | +-+ “+ +/“ जाना |4 वर्ष के 
2 (3) | कुम्हें | न 4 न पड़ेगा | लिए; वन 





0226 5. 


खुलहलचा३नत०- -- -प 





4 
रद 











406 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(जिस प्रकार पद-परिचय/पद-व्याख्या रूपविज्ञान स्तर तक के पढठित ज्ञानकी 
परीक्षा तथा व्यावहारिक उपयोग हैं, उसी प्रकार वाक्य-विग्रह/वाक्य-विश्लेषण या 
वाक्य-पृथक्करण वाक्य विज्ञान स्तर के पठितः ज्ञान की परीक्षा तथा व्यावहारिक 
उपयोग है । इस प्रकार की प्रस्तुति को अँगरेजी भाषा के व्याकरणों के आधार पर 


प्रहण करने के कारण भी त्याज्य नहीं मानना चाहिए क्योंकि इस से व्याकरण-अध्येता 


को अपने ज्ञान के स्तर के बारे में जानकारी मिलती है ।) | 





वाक्यप-विन्यास 





: अ्रसंग या सन्दर्भ के अनुकूल चयत किए गए शब्दों को व्याकरण-नियमों के 
अनुरूप पद बना कर उपयुक्त क्रम में रखते हुए तथा उन पदों का परस्पर भाषा- 
_व्यवस्थानुरूप सम्बन्ध बनाएं रखने पर ही वाक्य-सिंद्धि होती है। इस प्रकार 


|... ब्ाह्य-विच्यास या वाक्य-रचता पदक्रम तथा पदों के अन्वय (मिल) की संग्रुफित 














पहुँचे हुए महात्मा 





प्रक्रिा का ताम है । यद्यपि हिन्दी में पदक्रम का महत्त्व तथा इंढ़ता अँगरेजी के 
समान नहीं है तथापि प्रिनिष्ठित हिन्दी का पदक्षम निश्चित और स्वाभाविक है । 
सामान्य बोलचाल में पदक्रम में शिथिलता प्राप्त है । इसी प्रकार कविता तथा. 
अवधारणा के आधार पर भी व्याकरणिक पदक्रम में शिथिलता मिलती हैं। हिन्दी 
वाक्य-व्यवस्था में पदक्रम (अर्थात्‌ अर्थ तथा पारस्परिक सम्बन्ध के अनुरूप पदों को 
बाक्य में यथास्थान रखने) के ये स्वरूप प्राप्त हैं. । रा 
() कर्ता|उद्देश्य प क्रिया, यथा--चिड़िया उड़ी । लड़की वाच रही है । 
जंगल जलता चला जा रहा हैं (2) कर्ता--कर्म[पूरक+ किया, यथा--मैं भात 
खाता हूँ । मैं अध्यापक हूँ । (3) कर्तान गौंण कर्म --सुख्य कर्म +॑ क्रिया, यथा-- गुरु 
_ ज्ञी ते बच्चों को भूगोल पढ़ाया (4) कर्ता, कर्म पू रक, क्रिया विशेषक संबंधित शब्द 
... प्लैपूवे, यथा--तुम्हारे छोटे भाई ने|सभी साथियों को बिड़ें प्रेम से जी भर कर्वादिष्द 
.._ ज्वाना|खिलाया ! (विशेषक- कर्ता _-विशेषक--गौण करमे +॑ क्रियाविशेषक _ विशेषक _ 
+-कर्म+समापिंका क्रिया) । (5) सम्बन्ध - सम्बन्धी; विशेष्य | विधेय विशेषण पूरक; 
उद्देश्य विशेषण + विशेष्य, यथा--यहें मेरी पुस्तक है । तुम ने मुझें झूठा बना दिया । 
उन्‍्हों ने एक श्यामा गाय खरीदी हैं। (6) सिर्फा (|साधारणतया|विशेषतः/मुख्यतः| 
हर प्रधानता किवल) - अवंधारित शब्द, यथा-- कल सिफ तुम नहीं आए । (7) कर्ता 
. विशेषक [विवेय पूरक, यथा- गाय झूरी थी लेकिन बछिया काली थी । वेबहुत 
महात्मा हैं। (8) सर्वनाम कर्ता विधेय विशेषण [पुरक, यथा--वे पर्याप्त 








तर 
रद 








408 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


चतुर हैं । तुम बहुत शैतान हो । (9) समयसूचक -+ स्थान सूचक + साधन सूचक - 
उद्देश्यसूचक, यथा--माँ ने कल रात भर जाग कर घर में ही हाथ की मशीन से मेरे. 
लिए यह साड़ी काढ़ी है। (40) न| नहीं| मत--क्रिया, यथा--तुम आज घर नहीं... 


_ जाओगे । उस से ऐसा मत कहना । आप मेरे बारे में ऐसा न सोचें । अवधारण के कारण 


क्रिया + नहीं/मत भी, यथा--उन्हों ने तुम्हें देखा नहीं, अच्छा रहा । मैं यह घर छोड 
कर जाने की नहीं । अभी उसे जगाना मत । संयुक्त क्रिया होने पर “न/नहीं |मत' प्राय 

दोनों क्रियाओं के मध्य में, यथा--ऐसी गर्मी में तो मैं सो नहीं सकता । वहाँतो 
कोई किसी से बोलता ही न था। तब तक तुम सो मत जाना । (4) सूचनात्मक 
उत्तर अपेक्षी प्रश्नवाचक सर्वेताम/अव्यय + क्रिया, यथा--ये लोग कौन हैं ? आप 


का घर कहाँ है ? ((2) 'हाँ।नहीं---उत्तर अपेक्षी क्या वाक्यारम्भ में, यथा-- 


क्या तुम मेरे साथ चल रहे हो ? क्‍या वहाँ आज ही सभा होगी ? (।3) सार्वनामिक 
विशेषण +- संज्ञा, यथा -- वहाँ कौन लोग आए हैं ? पंडाल में कितनी क्रु्तियाँ लगाई... 
जानी हैं ” (84) आवेगात्मक/|सम्बोधन शब्द वाक्यारम्भ में, यथा--ऐं ! ऐसी बात 


: है अरे, आप ! इस समय यहाँ केसे ? (5) संज्ञा|सर्वनाम/स्थानसूचक + परसर्म, 


यथा--श्याम का; हम को; घर के भीतर; यहाँ से कुछ दूर; कल से; दोस्तों 
के साथ; चम्मच से; खाट पर; गली के अन्दर से; छत पर से; बड़ी नहर में से । 
(46) धातु +पुवेंकालिक 'कर' (/के)+ समापिका क्रिया, येथा--दूध पी कर सो 
जाओ | घर जा कर क्या करोगे। मैं इस काम को पुरा कर के ही सोऊँगा (7) 


.. प्रभावित (|अवधारित) पद--अवधारक, यथा--तुम ही (/भी/तो/ही तो/भी तो) 


वहाँ खड़े थे । वहाँ से हम घर ही (/भी) गए थे । हम से उन्हों ने पुछा तक नहीं। 
हम तक से तो उन्हों ने पुछा नहीं (/नहीं पूछा)। (48) यदि/जब/जहाँ/ज्यों ही + 


* आश्रित उपवाक्य ; तो/तब/वहाँतत्यों ही + प्रधान उपवाक्य, यथा--जब वर्षा होगी, 

, तब हम लोग खेत जोतेंगे । (9) योजक शब्द--अन्तिम योज्य शब्द|उपवाक्य, 
यथा--राम और लक्ष्मण की-सी जोड़ी । राम, लक्ष्मण और सीता वन को गए थे । वह. 
. आएगा और तुम्हें साथ ले जाएगा । (20) आश्रयी शब्द--आश्रित उपवाक्य, यथा 


“-“उन्हों ने दुबारा आदेश दिया कि उसे रिहा कर दिया जाए। वह लड़की जो है क्‍ 


द  परसों यहाँ आई थी, मेरी ननद की बेटी है। (27) अधिक महत्त्वपूर्ण। 
- लघु आकारी शब्द दवन्दव समास का पूर्व पद, यथा--तर-तारी, दस-बीस, . 


लड़ना-झगड़ना, बातचीत, देखभाल, सोना-चाँदी, राधाक्ृष्ण, सीताराम, तेरा-मेरा, _ 


_ गोरा-काला, पच्चीस-पचास, उठते-बैठते आदि | (22) अर्थ की दृष्टि से सम्बद्ध पदों 
में तक संगत स्थानिक नेकट॒य-अपेक्षा, यथा--? एक चाय का कप लाओं (->चाय - 
... का एक कप लाओ) ? उस की जुबान थोड़ी-सी रिश्वत दे कर बन्द कर दी गईथी 
..... (““थोड़ी-सी रिश्वत दे कर उसकी जुबान बन्द कर दीं थी) (23) भावनतीव्रता 
.. .... या बलाघात युत पद असामान्य क्रम में, यथा--मुझे वहाँ जाने से कोई नहीं रोक 
४... सकता->कोई नहीं रोक सकता वहाँ ज़ाने से मुझे मुझे वहाँ जाने से रोक नहीं सकता. 








वाक्य-विन्यास | 409 


कोई/वहाँ जाने से मुझे कोई रोक नहीं सकता। वह आजकल कुछ भी नहीं करता 
“>आजकल वह करता नहीं कुछ भी/कुछ भी नहीं करता वह आजकल | (24) 


. कविता में पदक्रम प्राय: असामान्य क्रम में, यथा--आ रही हिमालय से पुकार; है. 


उदधि गरजता बार-बार । (25) वाक्य-अनुतान तथा वक्‍ता की अवधारण/बलाघात- 
विवक्षा के आधार पर औपचारिक वार्तालाप में कम किन्तु अनौपचारिक वार्तालाप 
में पदक़म-परिवर्तत अधिक देखा जाता है। अव्ययों से पदक्रम में अधिक विविधता 


। मिलती है, यथा--मैं आज शाम को ही तुम्हारे पिताजी से तुम्हारे सामने तुम्हारे घर 


पर मिलू गा। इस वाक्य को आज शाम को ही, तुम्हारे सामने, तुम्हारे घर पर' पद- 
बंधों के क्रम में हेर-फेर करते हुए कम से कम 9 प्रकार से बोला (/लिखां) जा सकता है। 
(26) अव्रधारण के कारण - कर्ता, कम, सम्प्रदान, क्रिया का स्थानान्तरण सम्भव है 
यथा--तुम्हारे ऊंट को मैं ने नहीं पीटा । ऐसा सोचना तुम्हें शोभा नहीं देता । धिक्कार 
है ऐसे जीने को । साड़ी है तो कुछ महंगी, पर है बहुत सुन्दर । (27) भेदक--संबंधी 
शब्दयुत संज्ञाथंक क्रिया, यथा--आप का (इस प्रकार झूठी-सच्ची) बातें बताना 
अच्छा नहीं । अब इस घर में उस का (रोजू-रोज्‌ बिना मतलब) आता-जाना बन्द । 
(28) स्वीकारात्मक उत्तरापेक्षी प्रश्वाचक “न बाक्यान्त में, यथा--आज तुम 


वहाँ आओगी न ? माँ ठीक हैं न ? 


द (29) हिन्दी भाषा में पदक़्स व्याकरणिक प्रकार्य भी करता है, यथा--- 
(क) संज्ञा पूर्व विशेषण “विशेषक|उद्देश्य विशेषण” होता है, जब कि संज्ञा पश्च 
विशेषण विधेय विशेषण/विधेय का नामिक अंश' होता है, यथा--काली गाय रस्सी 


तोड़ कर भाग गई । वह गाय काली है ।(ख) अविकारी रूप में प्रयुक्त उद्देश्य, 


नामिक अंश होने पर उद्देश्य--नामिक अंश का क्रम रहता है, यथा--भारत की 
राजंधानी दिल्‍ली है--दिल्‍ली भारत की राजधानी है। राष्ट्र की सेवा करना हमारा 
कर्तव्य है--हमारा कतंव्य राष्ट्र की सेवा करना है। (ग) अविकारी रूप में प्रयुक्त 
उद्देश्य, प्रधान कर्म होने पर उद्देश्य -+प्रधान कर्म का क्रम रहता है, यथा--इस 


| प्रकार की स्थिति सदेव असन्तोष उत्पन्न करती है--असच्तोष सदैव इस भ्रकार की 


स्थिति उत्पन्न करता है । | क्‍ 
(30) सामान्यतः एक ही वर्ग/जाति के एंकाधिक अव्यय साथ-साथ आते पर. 


क्‍ बृहदवाची” लघुवाची के क्रम में आते हैं, यथा--पिता जी ने कल शाम को चार बजे _ 
- बैठक की अलमारी के ऊपरी खाने में से माँ के लिए बड़ी सावधानी के साथ दवा की 
शीशी निकाल कर दी थी । द 


अम्विति को अन्वय भी कहा जाता है। अन्विति या अन्वय का अथ्थे है--पढों 


.. का पारस्परिक मेल । लिंग, वचन, पुरुष, कारक, काल, वाच्य का अनुमेलन भी वाक्य- 
.. रचना का एक मुख्य पक्ष है। अन्विर्तिं दो स्तरों पर मिलती है--. पदबन्ध स्तर 
|... पर 2. वाक्य स्तर पर । दोनों स्तरों पर मिला कर यह अन्विति चार रूपों में मिलती 





छः. हे 





_ 40 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


है---. संबंध तथा संबंधी की अन्विति 2. विशेष्य तथा विशेषण की अन्विति 3. संज्ञा. 
तथा सर्वताम की अन्विति 4. कर्ता, कर्म, पुरक के साथ क्रिया की अन्विति | 


पदबन्ध स्तरीय अन्विति दो या अधिक पदों के मध्य लिंग, वचन, कारक 


_ संबंधी मेल के रूप में दिखाई देती है, यथा--काला घोड़ा; काली धोड़ी/धोड़ियाँ 
. काले घोड़े; काले घोड़े ((घोड़ों) पर; काली घोड़ी (/धोड़ियों) को (विशेषण 
_विशेष्य अन्विति);। चोर (/उस) का पीछा--चोरों (/उन) का पीछा (संज्ञा तथा 


स्थनापन्म सर्ववाम-अन्विति); दौड़ता आ रहा था--दौड़ती आ रही थी; सो गया--. 
सो गई (मुख्य क्रिया तथा सहायक/रंजक क्रिया-अन्विति) ! 


_ बाक्यस्तरीय अन्विति कई व्याकरणिक कोटियों के आधार पर वाक्य के विभिन्‍न 


.. घटकों के मध्य मिलती है, यथा--(।) हिन्दी में सत्रीलिय एक निश्चित ध्याकरणिक 


कोटि है । 'पुल्लिग' स्त्रीलिंग का अभाव है, अर्थात्‌ पुल्लिग---स्त्नीलिंग । संशयात्मक 
स्थिति में सत्रीलिंग की अपेक्षा पुल्लिग' प्रमुखता प्राप्त प्रयोग है । निश्चित रूप से 
सत्रीलिंग का बोध करातेवाले संदर्भों में ही स्त्रीलिंग क्रिया आती है, अन्यथ। पुह्लिग, 
यथा--अन्दर कोई गा रहा है (गायक का लिंग-अज्ञात), अन्दर कोई गा रही है 





_ [गानेवाली स्त्री ही -.है--का निश्चित ज्ञान)। दूध में कुछ पड़ा था (वस्तु का लिएय- 


अज्ञात), दूध में मक्खी (/कोई चीज्‌/चीनी) पड़ी है (वस्तु का स्त्रीलिंग निश्चित रूप... क्‍ 
से ज्ञात) । कमरे में कौन ब्रैठी है? (बैठे होनेवाले के बारे में स्त्री होने 
का निश्चित ज्ञान होना, उस के तामाढ़ि के बारे में जानकारी न होना), कमरे में कौन 


बैठा है ? (बैठे होनेवाले व्यक्ति के लिंग के बारे में, नामादि के बारे में अज्ञान) |... 


माँ, कोई आय! है (पुरुष/स्त्री)। बेटा ! देखना, कौन भाया है (पुरुष/स्त्नी) ; बेटा 


देखना, कौन आई है (+स्त्री) ? (2) स्त्रीलिग' के अभाव में, निलिगी संद्ों में 

. क्रिया पुल्लिग में रहती है, यथा--माँ (पिता जी) से खाया नहीं जा रहा है (निलिगी. 
संदर्भ) | माँ ((पिता जी) से इतना कड़ा लड्डू खाया नहीं जा रहा है (लड्डू पुए)। 
- माँ (पिता जी) से इतनी तेज कॉफी पी, नहीं गई (कॉफी स्त्री०) । अन्य निलिगी 

. संदर्भ--सुना (/कहा/देखा) जाता है कि”; लड़कों (/लड़के/लड़की/लड़कियों) ने 
.. देखा (/सुना|कहा।पुछा/सोचा) कि; मालूम होता था कि"; लग रहा था कि"; 

. आप को आता (/जानापिढ़ना/सोना/आराम करना) ही होगा (3) परसर्ग-रहित 
* कर्ता-लिंग, वचन, पुरुष || समापिका क्रिया-लिंग, वचन, पुरुष यथा--माँ खाना वना 
रही है। तुम कब लौटोगे (/लोटोगी) ? पिता जी गिटार बजा सकते हैं | घंटी बजचुकी 

. है। राष्ट्रपति अमेरिका गए हैं। गाँव से नौकर (नौकरानी) भी बुला लिया गया है 
. (ली गई है) | बच्चा (/बच्ची) कहाँ है ? बच्चे (/बच्चियाँ) कहाँ हैं ? लड़का/लड़की 
... (/लड़के/लड़कियाँ) जाए (|जाएँ)। मेले में अधिक शोर (/भीड़) नहीं था (|थी)। 
.... (4) भिन्‍न लिंग, वचन तथा पुरुष के कर्ता और कर्ता-प्रक होने पर सामान्यतः 
& ... उद्देश्य के लिंग, वचन, पुरुष | समापिका क्रिया के लिंग, वचन तथा पुरुष, यथा-- 


वाक्य-विन्यास | 47 


: ब्ेी पराये घर का धन मानी जाती है। काले कपड़े शोक (/विरोध) के सूचक माने 
बाते हैं। प्राचीन भारत के राजाओं की आपसी फूट ही देश की गुलामी की कारण 
हुईं। (5) उद्देश्यपूर्ति का अर्थ प्रमुख होने पर समापिका क्रिया के लिंग, वचन, 
पुरुष उद्देश्यपूर्ति के लिग, वचन, पुरुषवत्‌, यथा--बात-बात पर झूठ बोलना तुम्हारी 
भादत बन गई है । महमूद गजनवी. के आाक्रमणों का कारण सेस्टिरो की अपार दौलत 
थी । बंगलूर के सामान्य ग्लास की चाय तुम्हारा तो एक घृठ होगा । (मानक दृष्टि 
पे उद्देश्य और उद्देश्यपुति के लिंग, वचन यथासस्भव प्तमात रखे जाने चाहिए, 
प्रथा-- क्या राष्ट्रपति प्रधानमन्त्री के हाथ के खिलौने कहे जा सकते हैं | (०) सर्वनाम 
का वचन तथा पुरुष उस संज्ञा के अनुरूप होता है जिस के स्थान पर सर्वनाम का 
प्रयोग किया गया है, यथा-- रेखा ने आश्वासन दिया कि यह कार्य मैं पुरा करूगी । 
गुजरात से भाई साहब लौटे तो उत्त के पास कुछ भी नहीं था। (7) हम, तुम, आप, 
वे, ये! का प्रयोग एक व्यक्ति के लिए होने पर भी इन के साथ आनेवाली क्रिया 
बहुवचन की रहती है, यथा--मोहन ! थोड़ी देर पहले तुम कहाँ थे ? शकुच्तला ने 
कहा--हम से अब यह विरह-बेदना नहीं सही जा रही है । (8) कारक चिह न युत 
|. कर्ता होने पर क्रिया के लिग, वचन और पुरुष कर्म के लिग, वचन तथा एप के 
|. अनुरूप रहते हैं, यथा--महमुद ([हसीना/लड़के |लड़कियों/मैं/तुम|हम।लड़कों) ने फल 
नहीं तोड़ा (/तोड़े)। मैं ((हमबच्ची/बच्चे/बच्चियों/बच्चों) ने जलेबी खाई है। 
(|जलेबियाँ खाई हैं) । (9) कर्ता तथा कर्म कारक चिह न युत होने पर क्रिया सदेव 
: पुल्लिग, अन्य पुरुष एवं एकवचन में रहती है, यथा--लोगों (|पुलिस/औरतों) वे 
चोर ((डाकुओं) को पकड़ लिया था। (40 ) समानार्थी एकाधिक एकवचन के कारक 
चिह न-रहित कर्ता होने पर क्रिया .एकवचन में रहती है,'यथा-:गंगा की बाढ़ में 
इस बार उस का घर-बार और माल-असबाव (सब कुछ) बह गया । (!) कारक 
चिह न-रहित 'एकाधिक कर्ता होने पर क्रिया बहुवचन में रहती हैं, यथा--उमिला 
| भौर सीता आ चुकी हैं। लड़का और लड़की (/लड़की और लड़का) खेल रहे हैं। 
. हरी और मोहन अभी-अभी यहीं थे । प्लेट और प्याला कहाँ रखे हैं ? (82) कारक 
|... चिह न-रहिंत एकाधिक भिन्‍त लिंगी कर्ता/पुरक होने पर क्रिया का लिंग शाय: पुल्लिग 
- रहता है; संख्यावाची शब्द युत होने पर अन्तिम कर्ता के लिंग के अनुरूप रहता है, . 
. यथथा--खेत में भैंस और भैंसा (/भैंसा और भैंस) चर रहे हैं। मेरे पास एक शाल 
..._ और एक रजाई थी । कल मेरे दामाद और बेटी आनेवाले हैं। कल मेरे दामाद और 
.. उन के बड़े भाई की (एक) बेटी आनेवाली है (|/“बेटी दोनों आनैवाले हैं)। (निकट- 
: वर्ती स्त्रीलिंग कर्ता आदि होने पर उत्पन्न खटक को मिदाने के लिए आदि, सब, 
सभी, दोनों' शब्दों का समायोजन उचित रहता है) । (+3) एकाधिक भिन्‍न पुरुषवाले _ 
.. कर्ता सामान्यतः अन्‍य पुरुष, मध्यम पुरुष, उत्तम पुरुष के क्रम में रहते हैं। किया... 
: का पुरुष प्राय: अन्तिम कर्ता के पुरुष के अनुरूप रहता है, यथा-वह और आप 
.. दोनों) यहीं आ जाएँ । आओ, वह, तुम और मैं (सब मिल कर) यह काम हु 











तहलका 


हा आर श प ह ०3 २2582 ॥ 








, 42 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


करें । तु और वह (/वह और तू) कल भाना । तुम और वे (वे और तुम) कब 
जाओगे ? वह और मैं साथ-साथ पढ़ी हूँ । (4) विकारी (अपवादरहित आकारात्त) 
विशेषण के लिग-वचन विशेष्य के ऋजु/तियंक्‌ (विक्ृृत) रूप के अनुरूप रहते हैं, 
यथा-+काला बकरा, काले बकरे को, दस काले बकरे, दस काले बकरों मे 
काली बकरी , पाँच काली बकरियाँ, काली बकरी/बकरियों ने । नौवें दिन बारहवीं 
रात को । (5) एकाधिक विशेष्यों- के विशेषण के लिग-वचन निकटवर्ती विशेष्य 
के लिग-बचन के अनुरूप रहते हैं, यथा--भपन्रा माल और जूमीन-जायदाद: अपने 
 मान-सम्माव और गौरव के लिए; पुराना फर्नीचर और किताबें ; अपनी धन-सम्पत्ति _ 
'और मान-अपमाब का"। (46) एकाधिक विकारी विशेषण अपने विशेष्य के 
लिंग-वचन के अनुरूप लिंग-वचनवाले रहते हैं, यथा-- सस्ता और भच्छा नाश्ता 
मैले-कुचले और फटे-पुराने कपड़े । (47) विधेय विशेषणों के लिग-वच्चन अपने 
विशेष्य के लिग-वबचन के अनुरूप रहते हैं, यथा--गाय और बकरी काली हैं। ये 
 चद्दरे महंगे होंगे बा सस्ते ? ये सब चारपाइयाँ और पलंग पुराने हैं। वे पंखे और 
मेजें पुरानी थीं। (88) कारक चिह॒ नथुत कर्म होने पर विधेय विशेषण सदैव पुल्लिग 
एकवचन में रहता है, यथा--इन किताबों (/कागुजों) को कौन गनन्‍्दा करता है? 
(49) का/की।के का लिंग-वचन, कारकीय रूप परवर्ती संज्ञा के लिग-वचन और 
कारकीय रूप के अनुसार रहता है, यथा-सेठ की कोठी; चरवाहे की बकरियाँ; 
' मोहन का कुत्ता । सेठ की कोठी में; चरवाहे की बकरियों को; मोहन के कुत्ते ने; 
. मोहन के कुत्तों ने; भोहन के कुत्ते-कृतियों से बच कर रहता । (20) एकाधिक 
. सम्बन्धी पद होने पर सम्बन्धवाची विशेषण निकटवर्ती सम्बन्धी के अनुरूप रहता है, _ 
यथा --हबीब की माँ अर (उस के) अब्बा साथ-साथ जा रहे थे । , द 

वाक्य-विन्यास में पदक्रम तथा भन्विति के अतिरिक्त नियमन या नियन्त्रण 

अथवा अभिशासन का भी प्रभाव पड़ता है | वाक्य में नियमन (/नियन्त्रण/|अभिशासन) 
शब्द-चयन, उस की स्थिति तथा रूपावली को निर्धारित करता है । हिन्दी वाक्य-रचना 
में नियमन की प्रक्रिया के ये. रूप मिलते हैं--(!) विकारी पुल्लिग -आ->-ए|-यों, 
यथा--लड़के ने चोरी नहीं की । लड़कों ने चोरी नहीं की | (2) कर्ता + ने->क्रिया... 
सकमंक/उद्वेगी, भुतकाल, यथा--बच्चों ने पाठ याद नहीं किया । मैं ने नहीं छींका । . 
(3) अनिवायंता/बाध्यता/आवश्यकबोधक क्रिया->कर्ता--को, यथा--मुझे जाना है 
. ((चाहिए|पड़ा।होगा) (4) लड़|भिड़/टकरा/मिल/जूझ|कह![पूछ-> व्यक्ति/वस्तु-+से, - 
यथा--वह शेर (/मौत/स्वयं से दुगने पहलवान) से लड़ा था । तू मुझ से क्यों भिड़ता 
है । बस से बस टकरा गई । मैं तुम्हारे पिताजी से मिला था। हमें संकटों से जूभझना 


.. ही होगा । वह॒ तुम से क्‍या कह रही थी ? यह तुम मुझ से क्यों पूछ रहे हो ? (5) 
.... नियन्त्रण क्रिया-अश्वित, नाम-आश्रित होता है, यथा--तुम किसे ढुढ़ (|खोज[दिख/ 





पूछ/छु*') रहे हो ? सब पर जादू (करना), गालों पर लाली" (छाना) । है 
..... अल्वित होनेवाले घटकों की व्याकरणिक कोटियाँ समान होती हैं किन्तु 








| 
4 
जी] 
रा 
है! 
2] 
ईः 
। 






वाक्य-विन्यास | 43 


नियन्त्रक नियामक तथा .नियन्त्रित/नियमित घटकों की व्याकरणिक कोटियाँ भिन्‍न 
होती हैं, यथा--काला कुत्ता भोंक रहा है--काली कुतिया भौंक रही है (लिंग- 
अन्विति) । वे तुम्हें भेंट देवा चाहते हैं--वे तुम से भेंट करना चाहते हैं (भेंट देवा-> 
तुम्हें, भेंट करता->तुम से नियन्त्रण/नियमन) । 

भाषा में कोई वाक्य बिना अनुताब के उच्चरित नहीं होता अर्थात्‌ प्रत्येक 
वाक्य के उच्चारण के समय कोई-न-कोई अनुतान अवश्य उपस्थित रहती है । वाक्य- 
स्तर पर अनुतान-परिवतन से वाक्य स्तरीय व्याकरणिक अर्थ में परिवर्तत हो सकता 
है, यथा--वे चले गए ? (प्रश्नसूचक) । वे चले गए ! (विस्मयसूचक) । वे चले गए 
(सूचनात्मक) । वाक्य के पदों में सुर की स्थिति चार प्रकार की हो सकती है--7 
निम्न 2. सामान्य 3. उच्च 4. उच्चतर। वाक्य-लेखन में पदों के सुरों की स्थिति 
इन अंकों से प्रदर्शित की जा सकती है। वाक्य-समापक सुर-स्थिति को लेखन में | 
(आरोही), | (भवरोही।, -+ (सामान्य) तीरों के माध्यम से व्यक्त किया जा सकता 
है। आरोही समापक सुर से प्राय: प्रश्न, आश्चये, अनुरोध, व्यंग्य व्यक्त होता है । 
धवरोही समापक सुर से प्राय: कथन-समाप्ति, भाज्ञा, क्रोध व्यक्त होता है । सामान्य 
समापक सुर से प्राय: कथन की अपूर्णता व्यक्त होता है। (अध्याय ० में 'अनुतान' 


के बारे में विस्तार से लिखा जा चुका है) 


भाषा या वाक्य शब्दों के चयन तथा श्र खला का व्यक्त रूप है। अपेक्षित 
अर्थवोध के लिए वाक्य के प्रत्येक प्रकार्य स्थान पर उपयुक्त/सन्दर्भोचित अर्थवाले 
तथा उपयुक्त शब्द-वर्ग के शब्द का चयन कर उसे श्युखलाबद्ध करना (भाषा की 
संरचना व्यवस्था के अनुरूप रूप देना) चाहिए। वाक्य-विन्यास (वाक्य रचना-प्रक्रिया) 
के समय चयन तथा श्यू खलाबन्धन के बारे में सतकंता रखना अपरिहाये है, यथा--- 


. (क)? चल दी रेल हरी झंडी गार्ड के ही दिखाते (ख) ? रेल के हरी झंडी 
.. दिखाते ही गार्ड चल दी (ग) ग्रार्ड के हरी झंडी दिखाते ही रेल चल दी । (क) वाक्य 
में प्रकाय-सथान की दृष्टि से पदक्रम- ठीक नहीं है अर्थात्‌ सही प्रकार्य स्थान पर 


उपयुक्त पदों का प्रयोग नहीं किया गया है, अत: यह हिन्दी का सही वाक्य नहीं है । 


- [ख) वाक्य में 'रेल' के साथ' हरी झंडी दिखाने की संगति नहीं बंठ पा रही है, अत 


यह वाक्य भी हिन्दी का सही वाक्य नहीं है । (ग) वाक्य में सही प्रकार्यं स्थान पर 
उपयुक्त पदों को रखने से पुर्व संदर्भोचित शब्दों का चयन किया जा चुका है, अर्थात्‌ 


। _ गार्ड! के साथ “हरी झंडी दिखाने' और 'रेल” के साथ “चल देने” की संगति बैठ रही 


है, अत: चयन और शूंखला की दृष्टि से यह वाक्य हिन्दी भाषा में स्वीकृत वाक्य 


: कहा जा सकता है । 


वाक्य-विन्यास की हृष्टि से कृदस्तों के कुछ प्रयोग-- हिन्दी की वाक्य-रचना 
में कदनतों का विशेष महत्त्व है क्योंकि क़ृदन्‍त किसी भी काल-प्रसार में प्रकट होने 
वाले व्यक्ति/वस्तु के लक्षण के रूप में समापिका क्रिया की भाँति व्यापार, अवस्था _ 


. या प्रक्रिया को प्रकट करते हैं। कतू वाच्यात्मक कुदन्‍्त अकर्मक तथा सकमंक क्रियाओं 











44 | हिन्दी का विवरणात्मक व्यॉकरण 


से बनते हैं जब कि कर्मवाच्यात्मक कृदन्त सकर्मक क्रियाओं से बनते हैं । रुप-पक्रिया 
के आधार पर कृदन्त भी विकारी तथा अविकारी (4-5) होते हैं । इन दोनों प्रकार 
के क्ृदन्तों के वाक्य-प्रयोगों के उदाहरण निम्नलिखित हैं-- 


. () नामार्थक कृदन्त-प्रयोग---(क) सामान्यतः नामार्थक क्ृदन्त या संज्ञा्थक 
क्रिया का प्रयोग भाववाचक संज्ञावतु होने के कारण बहुबचन में नहीं होता, यथा-- 
कहने और करने में बहुत अन्तर होता है । (ख) नामार्थक कृदन्त के उद्देश्य के बाद 
सामान्यतः “का आता है, यथा--आप का यहाँ रहना खतरे से खाली नहीं है। 
तुम्हारा वहाँ रोज-रोज जाना अच्छा नहीं लगता। बार-बार बिजली (-:का) 
आतना-जाना परेशानी पैदा करता है। (ग) दो समकालीन भूतकालिक क्रियाकं में 
- पहली क्रिया 'था/हुआ' के साथ नामार्थक कुदन्त के रूप में भाती है, यथा--तुम्हारा 
यहाँ आना हुआ ([पहुँचना हुआ।पहुँचना था) कि बिजली आ गई । (धघ) तामार्थंक 
कृदन्त से पूर्व विशेषण तथा बाद में परसर्ग आ सकता है, यथा--दिलकश नाचने के 
लिए उस की बहुत वाहवाही हुईं। (ड) समापिका क्रियाओं के समान सकर्मक नामार्मक 
कृदन्त के साथ उस का कर्म, अपूर्णे संज्ञाथेंक क्रिया के साथ उस का पूरक आ सकता 
है, यथा--इतने सारे नोट गिनने में बहुत समय लगेगा । रूढ़िवादी लोग पत्नी का 
'पति के साथ चिता में भस्म होना तो पुण्य मानते हैं, किन्तु पति का पत्नी के साथ 
मर जाता अपविन्र कार्य मानते हैं। सैनानायंक के अचानक राष्ट्रपति बन जाने से 
प्रजा आश्चयंचकित रह गई | (च) विधेय नामार्थंक क्ृदन्त का प्राणिबाची उद्देश्य 
-ए| को युत्‌ तथा अप्राणिवाची उद्देश्य ४ युत्‌ रहता है, यथा - क्या तुम्हें वहाँ 
अभी जाना है। हम सभी को अपने-अपने कर्तेव्य का पालन करना (“-चाहिए) था। 
इस प्रकार के रुढ़िवादी विचारों से कया लाभ मिलता है ? (छ) विधेय विशेषण के 
रूप में नामार्थक कृदन्त लिग, वचन में संबंधित शब्द का अनुगमन करता है, यथा-- . 
तम्हें यह दूध (दवा) पीना ((पीनी) ही पड़ेगा ((पड़ेगी) । (ज) निमित्त या प्रयोजन. 
के अथ में नामार्थक कृंदन्त के पश्चात्‌+-को आता है, यथा-- तुम्हें स्कूल पहुँचाने कौन _ 
जाता है ? ये बच्चे आप से कुछ माँगने (--को) आए हैं। (झ) समान धातु से. 
-. निर्मित समापिका तथा नामार्थक कृदन्‍्त + को वाले“वाक्य इच्छा, या वेशिष्ट्य सूचक 
: होते हैं, यथा--गाने को तो मैं गा हू", लेकिन आप को उतना अच्छा नहीं लगेगा। 


कहने को तो वह कह सकता है, किन्तु बाद में सब कुछ आप को संभालना होगा। 


(ञजञु) ५/ हो या ९/ ह से बनी समापिका क्रिया से पूर्व का नामार्थक कृदल्त * को... 
तत्परता सूचक” होता है, यथा--आँधी आने को है | ज्यों ही वह डूबने को हुई 
तायक उसे बचाने पहुँच गया । (5) विधेय रूप में प्रयुक्त नामार्थकक्ृदन्त +- काकी। 


के +- नहीं “निश्चय सूचक होता है, यथा--वे अब यहाँ से उठने के (की) नहीं । थे 


._ (5) शारीरिक/मानसिक दशा की सूचना 'न/-- नामार्थक कृदल्त (उद्देश्यवत्‌ प्रयुक्त) 


| से, यथा--उन के विरह में मुझे न खाना, 'त पीना और न किसी से कुछ कहना गा व । 





.. किसी से कुछ सुनना ही अच्छा लगने लग गया हैं। 


 वाक्य-विन्यास | 45 


. (2) वर्तेमानकालिक क्ुदन्त-प्रथोग--(क) विधेय रूप में कर्ता/कर्म का 
_विशेषक, यथा--डर्कत भागते हुए भी कुछ गल्‍ला ले गए । घड़सवार घोड़े को दौडाता. 
7; रहा है । (ख) विशेषणवत्‌, यथा--जाते समय, लौटते वक्‍त, जीते जी, मरती बेर 
बहता पानी, चलती चक्की । (ग) संज्ञावतू, यथा--भागतों के पीछे भागना; ड्बते 
को तिनके का सहारा (घ) विधेय रूप में विशेष्यनिष्ठ हो कर भी क्रिया के विशेषक 
रूप में, यथा--वह औरत हथिनी के समान झूमतीं हुई चलती है । चोर लड़खडाते 

हुए गिर पड़ा । बच्चा रोते-रोते सो गया । हम रोज आलू खाते-खाते ऊब गए हैं । 





(3) भूतकालिक क्ृदस्त-प्रयोग--(क) उद्देश्य विशेषणवत्‌, यथा--मरा हुआ 
सड़क पर पड़ा है । तुम पेड़ से गिरे हुए फल ही लोगे, तोड़ोगे नहीं । (ख) विधेय- 
_विशेषणवत्‌, यथा--कमरे में एक ओर डबल बैड बिछाया गया (हुआ) है। बच्चों ने 
उन वृक्षों पर खूब आम लगे हुए देखें । बदमाश को देख कर लड़की घबराई हुई भागी। 
(ग) स्व-कर्म के बाद कर्ता आदि के विशेषक रूप में, यथा- -संजा पाया हुआ चोर 
भाग गया । काम सीखे (सिखाए) हुए नौकर को क्‍यों निकाल दिया ? (घ) कभी- 
कभी .संज्ञावतू यथा---जले पर नमक छिड़कना । किए का फल तो भोगना ही पड़ेगा । 
' भरे को क्‍या मारना । बिना विचारे, जो करे, सो पाछे पछताय । माली उसे बिना 
पीटे न छोड़ता (ड)) विशेष्य संज्ञा से संबंधित संबंध कारकीय शब्द के बाद, यथा--- 
मेरी लिखी हुई व्याकरण की पुस्तकें; घर से बने हुए देशी घी के लड़्ड; बनावटी 

रेशम का बना (हुआ) चटकदार कपड़ा । 

(4) कत वाजक छृदचन्त-प्रयोग--(क) संज्ञा/विशेषणवत्‌, यथा--किसी मन्त्र 
जाननेवाले को बुलाना पड़ेगा । आजकल झूठ बोलनेवाले लोग प्रायः अन्य लोगों 
को उल्लू बना देते हैं। जल्दी करो, गाड़ी चलनेवाली है  (ख) कमें|पुरक के साथ 
 यथा--इधर कोई कपड़े रंगनेवाला नहीं है। झठ को सच सिद्ध करनेवालों की 
कमी नहीं है। बड़ा बननेवाला तुम-जैसा निकम्मा नहीं होता । 


(०) तात्कालिक क्ृदन्त-प्रयोग---(क) समापिका क्रिया के साथ होनेवाली 

घटना का सूचक, यथा--अंधेरा होते ही मच्छर भिनभिनाने लगे । अध्यापक के आते _ 
ही छात्र खड़े हो गए । (ख) पुनक्ति से काल-अवस्थिति बोधन, यथा--मेज पर से 
घड़ी देखते. ही देखते लोप हो गई । ज्रा-सी बात को सोचते ही सोचते तुम ने घंटों 
लगा दिए । (ग) क्ृदन्त का कर्ता कभी-कभी समापिका क्रिया का भी कर्ता, यथा-- 
 मनेजर के आते ही सब लोग चुप हो गए। मैनेजर ने आते ही सब लोगों को 
चुप कर दिया। . .. हर 
.ै... .... (6) सध्यकालिक क्दन्त-प्रथोग-- (क) कइृदन्तीय क्रिया के होने के मध्य में... 
.. ही समापिका क्रिया के हो जाने या हो सकने की सूचना से नित्यता या अतिशयता 


... की अभिव्यक्ति, यथा--बातें करते-करते पिता जी की साँस रुक गई | बच्चा डरते- _ 





|... डरते नई माँ के पास पहुँचा । बच्ची बैठे-बैठे सो गई; पीठ पर बच्चे को लादे-लादे .. 








उ्‌ 








46 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


वे खट-खट पहाड़ों पर चढ़ जाती हैं। (ख) कभी-कभी वाक्यारम्भ में यथा--होते 


होते सब काम हो ही गए । चलते-चलते हमें एक सुनसान मन्दिर मिला । 


(7) पूर्वकालिक क्ृदन्त-प्रयोग--(क) वाक्य के कर्ता या अन्य कारक से 
संबंध, यथा--साँप को देख कर बच्चा डर गया। माँ को देख कर बच्चे का मन 


खुश हो गया । (ख) कर्मवाच्य समापिका क्रिया होने पर भी ऋृदन्त कतृ वाच्य का ही, 


यथा--जंगल काट कर खेत बना दिए गए हैं। ग्रुलामों को पकड़ कर बादशाह के 
सामने हाजिर किया गयां। (ग) मुख्य क्रिया के कर्ता से भिन्‍न कृदन्तीय कर्ता 


- यथा--दस बज कर पच्चीस मिनट हो गए हैं। इस व्यापार में ख्च॑ निकाल कर 


पूरे पाँच सौ रुपये बचेंगे । (घ) कभी-कभी स्वतन्त्र कर्ता का लोप भी, यथा--आगे 
जा कर (|चल कर) एक ऊँट दिखाई दिया। सब मिला कर मेरे पास कोई पाँच 
हजार रुपये होंगे । समय पा कर तीनों रानियाँ गर्भवती हुईं । (ड) समापिका क्रिया . - 


का अगले वाक्य में कृदन्‍्तीय प्रयोग, यथा--तुम घोड़े पर बैठो और बैठ कर उसे 


एड़ लगाओ । नली में हो कर द्रव बाहर निकलता है और बाहर निकल कर पत्थर 
पर जमता जाता है । (च) ले कर” से काल, संख्या, अवस्था तथा स्थान के आरम्भ 
की सूचना, यथा--दोपहर से ले कर रात तक; सौ से ले कर हजार तक; निधन 
से ले कर धनी तक; द्वारका से ले कर प्राग्ज्योतिष तक । (छ) “बढ़, कर, हट, हो 


के क्ृदन्तीय रूपों के विशिष्ट अर्थ, यथा--भोजन से बढ़ कर भोजन बनानेवाली की... 


तारीफ की जानी चाहिए (बढ़ करज""अधिक विशेषण) | उन्हें राब साहब करके 
लोग जानते हैं (कर केजलनाम से संज्ञा)। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान का भवन भुख्य 
सड़क से कुछ हट कर है (हठ कर”"-दूर स्थानसूचक अव्यय) । तुम ब्राहमण हो कर 
अंडे खाते हो (हो करनज"-"होते हुए।होने पर भी); यह सड़क बंगलूर हो कर केरल 


हे जाती है (हो कर-"”"होती हुईसि) 


(8) पूर्ण कृदन्‍्त-प्रयोग---(क) समापिका क्रिया तथा कृदल्तीय क्रिया के 
कर्ता भिन्‍न-भिन्‍त, यथा--भारत को राजनंतिक आजादी मिले इतने वर्ष बीत गए 
किन्तु अभी तक आथिक आजादी नहीं मिल पाई है। हमें रात रहे ही यहाँ से 


'. बाहर निकल जाना है | (ख) समापिका क्रिया तथा उद्देश्य-दशा सूचना, यथा-- 
. एक कुत्ता मुह में हड्डी का टुकड़ा दबाए नदी के किनारे जा रहा था । एक साधु 


शरीर पर भभूत पोते, एड़ी तक जटठा लटकाए और हाथ में त्रिशुल लिए चंला जा 


. रहा था। (ग) कभी-कभी क्रदन्‍्तीय क्रिया का कर्म से भी संबंध, यथा--माँ ने बेटे... 

. को हथकड़ियों में जकड़े देखा (हथकड़ियों में जकड़े माँ ने बेटे को देखा--कर्ता से 
_ संबंध) । बेटे ने माँ को सिर झूकाए देखा (सिर झुकाए बेटे ने माँ को देखा-कर्ता 
. से संबंध) । (घ) कृदन्‍्तीय कर्ता प्रसंगानुसार विभिन्‍न कारकों में प्रयुक्त, यथा--मुझ 
... आगरा छोड़े कई वर्ष हो गए। इस निकम्मे के मरे क्‍यों रोता-धौना ? (ड)) बिना: _ 
... “बुत प्रयोग, यथा--बिना उन के आए (/पहुँचेदिखे) हम यह निर्णय कैसे ले सकते हैं? 








। 3 वाक्य-विन्यास | 447 


(9) अपूर्ण कृदन्त प्रयोग--(क) समापिका क्रिया तथा छृदस्तीय क्रिया के 


कर्ता भिन्‍्व-भिन्‍त, यथा--मेरे रहते कोई तुम्हारी ओर आँख भी नहीं उठा सकता । 


मुत्ने यहाँ रहते दो वर्ष हो गए। (ख) कर्ता, कर्म के बाद आई हृदस्तीय क्रिया 
क्रियाविशेषण के रूप में, यथा--मैं ने तुम्हारे दोनों बच्चों को स्कूल से लौटते हुए 
देखा था । मैं बहुत देर से तुझे बड़बड़ाते हुए सुन रहा हूँ। (ग) विरोध-सूचना के 


लिए 'भी” का प्रयोग, यथा --रोज्‌ पूजा-पाठ करते हुए भी वह बहुत बेईमान है। 


बह मरते-मरते भी हमें जेल जाने से बचा गई। (घ) कृदन्‍्तीय कर्ता प्रसंगानुसार 
विभिन्‍न कारकों में प्रयुक्त, यथा--मुझे यह सूचना देते (हुए) खुशी हो रहीं है । 
शाम होते यह काम खत्म हो जाना चाहिए । तुम्हारे होते (/रहते) मुझे क्या चिन्ता ! 
(ड) पु० बहु० वर्तमानकालिक क्ृदन्तीय रूप तथा अपूर्ण कृदल्तीय रूप समान 
होते हुए भी भिन्‍त अर्थसूचक, यथा--लड़के पिचकारियों से रंग फेंकते जा रहे थे 
(अपूर्णं ०); पिचकारियों से रंग फेंक्ते लड़कों को पुलिस ने पकड़ लिया। 
















का 


4 
रद 








.. बाक्यब्परिवतंन 





वक्ता (लिखक) अपनी बात/कथ्य को आवश्यकतानुसार एक से अधिक हंग 


- से व्यक्त कर (कह/लिख) सकता है, अतः वाक्य भी तदनुसार एक प्रकारसे दूसरे प्रकार _ 


में परिवर्तित किए जा सकते हैं। वाक्य-परिवर्तेन या. वाक्यान्तरण भें इस बात का 
विशेष ध्यान रखना पड़ता है कि वक्‍ता/लेखक को मूल वाक्य में जो अर्थ अभिष्रेत| - 


इंष्ट है, वही अर्थ परिवर्तित वाक्य में भी रहे | हिन्दी में वाक्यान्तरण या वाक्य- 


परिवतेन के कई रूप प्रचलित हैं, यथा--- . 
.._() विधानात्मक->नकारात्मक | नकारात्मक -+ विधानात्मक, यथा--मैं ने. 
सारे इलाज कर लिए->मैं ने कोई इलाज (बाकी) नहीं छोड़ा । वह धच्छी औरत. 
नहीं है->वह बुरी औरत है। (2) निश्चयात्मक-> प्रश्नात्मक |प्रश्नात्मक-+निश्च- _ 
यात्मक, यथा--मैं कल नहीं जाऊँगा-+मैं कल आ कैंर कया करूँगा ? मोहनदास 
करमचन्द गांधी का नाम किस ने नहीं सुना ? -» मोहनदास करमचन्द गांधी का नाम 
सबने सुना है। (3) सामान्य-->विस्सयादिबोधक |विस्मथादिबोधक-+> सामान्य, यथा-- 


: प्रकृति! तू बहुत ही क्र र है->प्रकृति ! तू इतनी क्र र! क्‍या ही मनमोहक हृश्य है |-+ 
. बहुतही मनमोहक दृश्य है। (4) सरल-> सिश्र/मिश्र-- सरल, यथा---अच्छे बच्चे ऊध्मी 
"नहीं होते-+>जो बच्चें अच्छे होते हैं, वे ऊधमी नहीं होते । तुम दिखावे के लिए 


भजन करते हो->तुम इसलिए भजन करते हो कि कोई देखे । उस महिला ने यीशू 

से कहा कि मैं निर्दोष हुँ-- उस महिला ने (यीशू + समक्ष) स्वयं को निर्दोष बताया .. 
(कहा) । जो लोग ईमानदारी, निष्ठा तथा परिश्रम से कार्य करते हैं, वे निश्चय 
ही सफल हो जाते हैं-+ ईमानदारी, निष्ठा तथा परिश्रम से कार्य करनेवाले लोग 
निश्चय ही सफल हो जाते हैं! (5) सरल--संयुकत|संयुक्त-+ सरल, यथाो--थोड़ी 


मोटी होने पर भी वह सुन्दर है->वह थोड़ी मोटी तो है, पर है सुन्दर । सूर्य निकलते 

' ही तारे छिप जाते हैं->सूर्य निकला और तारे छिपे । शाम होने लगी और किसान _ 
..... घरों की ओर जाने लगे-*शाम होते ही किसान घरों की ओर जाने लगे । वह दौड़ी- 
.... दौड़ी आई और माँ के गले से लटक गई->वह दौड़ते हुए आ कर माँ के गले से लटक. 


48 





वाक्य-परिवर्तत | 49 


आई । (0) सिश्र-> संयुक्त /संयुक्त->सिश्र, यथा--ज्यों ही हम स्टेशन (पर) पहुँचे 
| तों ही गाड़ी ने सीटी दे दी-* हम स्टेशन पहुँचे, और गाड़ी ने तुरन्त सीटी दे दी । 
| जैसा मैं सोचता था, वैसा ही हुआ-+वही मैं सोचता था और वही हुआ । तुम ने 


दहेज में पैसा चाहा था ओर वह तुम्हें मिल गया-+तुम दहेज में जितना (/जो) 


| पैसा चाहते थे, उतना (वह) तुम्हें मिल गया। अधिक से अधिक अध्ययन करो. 


और विद्वान बनो->यदि अधिक से अधिक अध्ययन करोगे तो विद्वान बनोगे । 
(7) शब्द-भेद परिवर्तत, यथा--क्या आप ने इन पुस्तकों का चयन किया है->क्या 
भाप ने ये पुस्तकें चुनी हैं। धूम्रपान करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है--+धम्रपान 
ते स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। (8) विशेषण की तुलनावस्था का अन्तरण, यथा-- 
विश्व में लन्दन सब से बड़ा नगर है->विश्व में लन्दन से बड़ा कोई नगर नहीं है । 
हमारे नगर में यह सब से लम्बी सड़क है-> हमारे नगर में इस सड़क से लम्बी कोई 


| हड़क नहीं है । वह भेज सब भेजों से छोटी है-+इस मेज से और सब मेजें बड़ी हैं। 


(9) वाक्य-संश्लेषण (संश्लेषण -- मिलाना । एक से अधिक सरल वाक्यों को मिला 
कर एक सरल/मिश्र/संयुक्त वाक्य बनाने की अक्रिया से वाक्यांतरण किया जा सकता 
है), यथा--मैं ने स्तान किया -- मैं ने. भोजन किया->मैं ने स्तान करने के बाद (/कर के) 
भोजन किया । छुट्टी की घंटी बजी + सब छात्रों ने अपनी कॉपी-किताबें उठाई +- 


वे एक-एक कर अपने घर की ओर चल पड़े->जब छुट्टी. की घंटी बजी तो सब 


छात्र अपनी कॉपी-किताबें उठा कर एक-एक कर अपने घर की ओर चल पडे । कल 


। रेखा भाई थी-+ वह पहले आप से पढ़ती थी->रेखा, जो पहले आाप से पढ़ती थी 
| कल आई थी/पहले आप से पढ़नेवाली रेखा कल आई थी। मयूर उत्तीर्ण है-+-मंजरी 


उत्तीर्ण है->मयूर उत्तीर्ण है और मंजरी भी (उत्तीर्ण है)। (0) वाक्य-विश्लेषण 


. (विश्लेषण +- अलग-अलग करना । किसी संश्लिष्ट सरल, मिश्र या संयुक्त वाक्य को 


एकाधिक सरल वाक्यों में अलग-अलग करने की प्रक्रिया से वाक्यान्तरण किया जा 


| .. सकता है), यथा--ढीठ लड़की होने के कारण जॉनी की सभी लोग निन्‍दा करते हैं-* 


जानी एक ढीठ लड़की है। उस की सभी लोग निन्‍दा करते हैं। आगरा के 
पास के सादाबाद कस्बे का रहनेवाला राधेश्याम रामभ्ूरोसे का बड़ा भाई है ।-+ 
राधेश्याम रामभरोसे का बड़ा भाई है । वह सादाबाद का रहनेवाला है ५ सादाबाद 
कस्बा आगरा के पास है । वह होशियार है किन्तु तुम कमजोर हो->वह होशियार . 


| -है। तुम कमजोर हो । टोकियो, जो जापान की राजधानी है, बहुत बड़ा नगर है-* 
.  टोकियो जापान की राजधानी है। यह बहुत बड़ा नगर है। () वाच्यान्तरण 
| यथा--आओ, कहीं चलें--आभो, कहीं चला जाए । कल स्थानान्‍्तरण के नियम 
। . जारी होंगे--कल स्थानान्तरण के नियम जारी किए जाएँगे। कया फरश पर दरी 
| बिछी है->क्या फर्श पर दरी बिछा दी गई है? उसे ऐसा लगा जैसे वह अपनी मौत 
की सजा सुन रहा है->उसे ऐसा लगा जैसे उसे उस की मौत की सजा सुनाई जा रही 
| है उन्हों ने मुझे अपने यहाँ खाने पर बुलाया->मुझे उन के यहाँ खाने पर बुलाया 








रे 
८ 





. 420 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


. गया । अब आप ही बताइए कि हम इस मामले सें क्या करें-+अब आप ही (हमें) 
बताइए कि इस मामले में क्या किया जाए ? बूढ़ा चने नहीं चचा सकता->बूढ़े से चने 


नहीं चबाए जा सकते । तुम चुपचाप बठ भी नहीं सकते-->तुम से चपचाप बैठा श्री 
नहीं जाता । (दाँत में दर्द के कारण) वे अच्छी तरह खाना भी नहीं खा सकते -* (दाँत 
में दर्द के कारण) उन से अच्छी तरह खाना भी नहीं खाया जा सकता। रहने दो 
तुम यह काम नहीं कर सकते->रहने दो, यह काम तुम से नहीं होगा । (2) उंक्ति 
परिवतंच (प्रत्यक्ष कथन को परोक्ष/अप्रत्यक्ष कथन में तथा परोक्ष/अप्रत्यक्ष कथन को 
प्रत्यक्ष कथन में परिवर्तत कर वाक्यांतरण किया जा सकता है), यथा--श्रीराम बोले 


..._“मैं आज ही बन जाऊँगा ।“->श्रीराम बोले कि मैं आज ही वन जाऊँगा । (श्रीराम 
_ ने उसी दिन वन जाने की बात कही) । उन्हों ने मुझ से कहा, "मैं कहाँ जा रहा हैं !” 


उन्होंने मुझ से पूछा कि मैं कहाँ जा रहा हूँ (उन्हों ने मुझ से मेरे गन्तव्य स्थान के 
बारे में पूछा) । मकान मालिक ने किरायेदार से पूछा कि तुम कहाँ के रहनेवाले हो ? 
-» मकान मालिक ने किरायेदार से कहा, “तुम कहाँ के रहनेवाले हो ?” (मात 


मालिक ने किरायेदार का निवास-स्थान जानना चाहा) 











काव्य भाषा-स्वरूप 





किए किक लक 
किसी भी भाषा में रचित साहित्य की विविध विधाओं (निबन्ध, कहानी 
उपन्यास, नाटक, संस्मरण, जीवनी, आत्मकथा, यात्रा-वर्णन, कविता आदि) की 
भाषा मुल रूप से समान होते हुए भी उन की वाक्य तथा पदबन्ध-संरचना, 
शब्द-चयन में न्यूनाधिक अन्तर रहता ही है। विधा के अनुरूप शब्द-चयन करते हुए 
: उन्हें श्खलाबदध छिया जाता है। इसी चयन तथा ख्युखलन की प्रक्रिया का अन्तर 
जैली-भेद कहा जाता है। अलंकारों का प्रयोग पदय के अतिरिक्त गदय में रचित 
साहित्य की कुछ विधाओं में थोड़ा-बहुत होता ही रहता है किन्तु पद्य साहित्य के 
लिए अलंकारों की जितनी आवश्यकंता है, गदय साहित्य के लिए उतनी नहीं. 
: है; इसीलिए अलंकारों का विवेचन काव्यशास्त्र का एक अनिवाये विषय है 
 व्याकरणशास्त्र का नहीं। इसी प्रकार छन्द-विवेचन भी काव्यशास्त्र का एक प्रसुख 
_यक्ष है, व्याकरणशास्त्र में उस के विवेचन की आवश्यकता नहीं पड़ती ॥ यद्यपि गदय 
साहित्य की कुछ विधाओं के . श्रवण तथा वाचन में श्रोता और पाठक को आनन्द 
(रस) की अनुभूति होती है, उस्त के मन में विभिन्‍त भाव-विभाव आदि भ्रस्फुटित 
: होते हैं, तथापि रस-विवेचन भी मलत: काव्यशास्त्र का ही विषय माना जाता रहा है । 
ये तीनों तत्व--अलंकार, छन्‍्द, रस काव्य भाषा को अधिक प्रभावकारी और रोचक 





बनाते में सहायता देते हैं । हाँ, मुहावरों तथा कहावतों का प्रयोग देतन्दिन 


भाषा-व्यवहार और गंदय साहित्य की विभिन्‍न विधाओं के सम्प्रेषण/कथ्य में अधिक 
प्रभावकारिता और रोचकता लाने के लिए उपयोगी सि दध होता है । च्‌ कि रस, 
छन्द और अलंकार भी मलत: भाषा के ही अंश हैं तथा कविता में इन के प्रयोग की 
विशेषताओं और सीमा।/स्वतन्त्रता का सम्बन्ध परोक्षतः व्याकरण से जोड़ा जा सकता 


है, अत: इन के सम्बन्ध में यहाँ संक्षेप में मोटी-मोटी बातों का उल्लेख ही अभीष्ट है। 





. इन का विस्तृत तथा सृक्ष्म अध्ययच काव्यशास्त्र या शैलीविज्ञान की किसी पुस्तक. 


से किया जा सकता है. 
क्राव्य ही नहीं, सभी प्रकार के साहित्य का मूल प्रयोजन श्रोता/पाठक 


|. को लौकिक या पारलौकिक हित-चिन्तन और आनत्द-प्रदायन - साना गया 
|... है। साहित्य आत्मानुभूति/तथा आननद-उपलब्धि का माध्यम है जो कवि/लेखक तथा 
3 42]. का है 











422 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण . 


श्रोता|पाठक सभी के लिए सत्य है। नाट्यशास्त्र-प्रणेता भरत मुनि (!ली शती ई७ पा 
ने सर्वत्रथम रस को इस प्रकार परिभाषित किया था---विभावानुभावव्यप्रिचारि. 
संयोगाद्रसनिष्पत्ति:” अर्थात्‌ विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भावों के संयोग 
से रस-निष्पह्ति होती है। कोई व्यक्ति, पदाथ या बाहूय विकार जी किसी अत्य _ 


. व्यक्त के हुदय में भाव-उद्र क करने में सहायक होता है, उसे विज्वाव कहा जाता 
है। विभाव दो प्रकार के होते हैं--. आलम्बन - विभाव वह पुरुष या नारी 


या पदार्थ जिस के प्रति आश्रय के हृदय में किसी प्रकार के स्थायी भाव का उद्रक्ष 
होता है 2. उद्दीपन विभाव आलम्बन तथा आश्रय विभाव में विभिन्‍न भावों 
को उद्रेक करनेवाले साधन. (व्यक्ति/प्रकृति या आन्‍्तरिक चेष्टाएँ और बाहय 


_.परिस्थितियाँ) होते हैं। आश्रय के हृदय में संचित विविध स्थायी भावों का शरीर 


वचन, मन की चेष्टाओं (कायिक, वाचिक, मानसिक) के रूप में प्रकट होना _ 
अनुभाव कहा जाता है। पानी में उठनेवाले तथा स्वत: विलीन हो जानेवाले 


- बरुदबुदों-जैसे संचारी/व्यभिद्वारी भ्राव स्थायी भावोद्रेक के सहायक या उप-भाव . 
 हैं। इन की संख्या 33 मानी गई है, यधा--निर्वेद, शंका, आलस्य, ग्लानि, मद, 


दीनता, असूया आदि । 'भाव' मन का विकार माना गया है। नाद्यशास्त्र में 33. 
संचारी, 8 सात्विक, 8 स्थायी भाव बताए गए हैं । भरत के अनसार 8 स्थायी भाव 


ये हैं--. रति (प्रेम) 2. हास 3. शोक 4. क्रोध ०. उत्साह 6. भय 7 जुग॒प्सा 


(घृणा) 8. विस्मय । बाद में उन्हों ने शम/निर्वेद|शान्ति को नवें स्थायी भाव के रूप _ 


में स्वीकार किया । परवर्ती काल में भक्ति, वात्सल्य को अलग-अलग' स्थायी भाव 


माना जाने लगा जो वास्तव में आलम्बन-भेद के आधार पर रति, के ही दो उपभेद 


हैं । उपयु कत 9 स्थायी भावों के आधार पर 9 रस स्वीकार किए गए 


हैं--. शव गार 2. हास्य 3. करुण 4. रौद्र 5. वीर७ 6. भयानक 7. वीभत्स _ 
8. अद्भुत 9. शान्त । के 

. काव्यशास्त्र के अनुसार रस” का संचार शब्द शक्तियों से होता है। वाक्यों 
में अनेक प्रकार के शब्दों का प्रयोग सन्द्भे|प्रसंग और वक्‍ता/लिखक के मन्तव्य 
(अभीष्ट अथे) के अनुसार किया जाता है। 'शब्द-शक्ति! शब्द के अन्तनिहित अर्थ 
को व्यक्त करने की सामथ्ये/प्रक्रिया/व्यापार है। इस के तीन रूप माने गए 





 हैं--अमिधा, लक्षणा, व्यंजना । (इन के बारे में अध्याय  “शब्द-अर्थ' में चर्चा की _ 
- जा चुकी है) । 


सभी प्रकार की कंविताओं में पम्राव-सोौन्दर्य नहीं पाया ज्ञाता है। नीति-प्रधान 


... कविताओं में कवि उपदेश देने का प्रयत्न करते हुए मानव-जीवन की विभिन्‍न 
.... समस्याओं पर हृष्टिपात्‌ करता है। ऐसी कविताओं में . विचार-सौन्दर्य की प्रधानता 
होती है, यथा--रहिमन निज मन की विथा मन ही राखौ गोइ॥ सुनि अठिलेहें लोग 
. सब बाँटन लहे कोइ ॥ कभी-कभी कवि उपदेश देने के उद्देश्य से अपनी कल्पना - 
के सहारे प्रकृति के उपादानों को माध्यम बनाते हुए कविता को कंल्पना-सौन्द्य . 


कनिननकननन-नीत- पक कनमक कननानत-क. + २०५ ५... " क टी 
हरि हा 7 7 + -ने समलकत्कावशणल---उकापपालकहसटरमासत -द+ डे ५००- 5; 30 52803. ४४ ध 
पं हे हे 5 979 एएछछा ४555. ४ 5. 2 मो कक प नकदी # आन 222 क्यू 


&मथान सम णण नम प>> तर... 








काव्य भाषा-स्वरूप | 423 


ते पुष्ठ कर चित्रवत्‌ बना देता है, यथा--यह लघु सरिता का बहता जल, कितना 
शीतल कितना निर्मल ।**“*““कर-कर निनाद कल-कल कल-कल, तन का चंचल मन 


ह का विह वल, +०७# $७ ७०७ | 


आचाये वामन ने अलक्कतिरलंकार: (अर्थात्‌ जो किसी वस्तु को अलंकृत 


करें वह अलंकार है) कहा है । भाषा को विविध प्रकार के शब्दार्थ से सुसज्जित और 


सुन्दर बनावेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग/साधन को अलंकार कहा जाता है। 
अलंकारों के प्रयोग से काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचित्र्य तथा 


_ असामान्य भाव सौन्दर्य की सुष्टि संभव होती है । गदय साहित्य में भी अच्छे लेखक 


अलंकारों का प्रयोग करते देखे जाते हैं। रुद्रट ने 9वीं शती ई० में वैज्ञानिक ढग से 
वास्तव, औपम्य ([साम्य), अतिशय, श्लेष (/संलग्नता) के आधार पर 23--2-[- 
[2--]05-566 अलंकारों का उल्लेख किया था। नाट्यशास्त्र में जहाँ 'उपमा, 
रूपक, दीपक, यमक' चार अलंकारों का तामोल्लेख है, वहाँ रसगंगाधर (पंडितराज 
जगन्नाथ कृत---7 वीं शती ई०) में 80 से अधिक अलंकारों की चर्चा है जो बाद 
में ।9] तक कहे गए हैं । शब्द के ध्वनि तत्त्व के आधार पर शब्दालंकार, अर्थ तत्त्व 
के आधार पर अथालिंकार और दोनों (ध्वनि, अर्थ पक्ष) के संयोजन के आधार पर 
उभयालंकार माते जाते हैं। शब्दालंकार वर्णणत और शब्दगगंत होते हैं, यथा-- 
अनुप्रास, यमक, पुनरुक्ति, पुनरुक्तिवदाभास, वीप्सा, वक्रोक्ति, श्लेष । वाक्यगत 


.._ शब्दालंकार भी हो सकते हैं, यथा-- लाटानुप्रास । अर्थालंकार के मुख्य भेद हैं--उपमा, 
.... रूपक, उत्प्रेक्षा, उपमेयोपमा, सन्देह, भ्रॉन्तिमान, अतिशयोक्ति, दृष्टान्त, उल्लेख 
विरोधाभास, व्यतिरेक, दीपक, प्रतीप, स्वभावोक्ति, स्मरण, अपह नुति, अप्रस्तुत- 


प्रशंसा, विभावना, अनन्वय, परिसंख्य।, विशेषोक्ति, प्रतिवस्तृपमा, अर्थान्तरन्यास, 


 काव्यलिंग। संकर, संसृष्टि प्रमुख उभयालंकार हैं । 


 ध्वनिविर्ण अक्षर-संख्या तथा उन के क्रम, मात्रा, और यति-गति से सम्बन्ध 


विशिष्ट नियमों के अनुरूप नियोजित वाक्य|पाठ्य-रचना को छन्दा कहते हैं। 
. व्याकरण को गद॒य-नियामक और छन्‍्दशास्त्र को पदय/कविता-नियामक कहा जाता 


है। ऋग्वेद में छन्‍्द का उल्लेख सर्वप्रथम हुआ है । वेद के छह अंग्रों (छन्‍्द, कल्प, 


- ज्योतिष, निरुक्तिं, शिक्षा, व्याकरण) में 'छन्द” व्याकरण, निरुक्ति (व्युत्पत्तिशास्त्र), 
शिक्षा (ध्वनिविज्ञान) से भिन्‍न एक स्वतन्त अंग माना गया है। हिन्दी में संस्क्षृत की 
अपेक्षा विभिन्‍न प्रकार के छन्‍्दों का प्रयोग बहुत अधिक हुआ है । साहित्येतर विषय 
भी छन्दोबदध होने पर, रमणीयता के कारण शीघ्र ही कंठस्थ हो जाते हैं। तुक छन्‍्द 
का-प्राण है जो श्रोता/पाठक की आनन्द-भावना तथा सोन्दर्यानुभूति को जागरित करती _ 
.. है। गदय की वैचारिक शुष्कता छन्दबद्ध हो भाव-तरलता में परिणत हो जाती है । 


कविता या छन्द के आठ अंग माने गए हैं--. पाद|चरंण एक छनन्‍्द का 
भाग होता है । चरण सम (2रा, 4था), विषम (ला-+-2रा) होते हैं। 2. मात्रा 


< तथा वर्णअक्षर स्वरों और व्यंजनों के ह रस्व (/लघु), दीर्घ (गुरु) रूप हैं। 'कलाई” 








'424 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


... झें तीन वर्ण|अक्षर और पाँच माताएँ हैं। 3. संख्या, क्रम 4. लघु, गुर, 5. गण-- 
लघु का चिहन (॥), दीर्घ का चिह न (5) माना जाता है । 'यमाताराजभानसलगा' 
: सूत्र से आठों गणों 'यगण"'"“'सगण”' के स्वरूप (एक गण के तीनों वर्णों की माता 
तथा क्रम, यथा--/55 लघु दी दीघ॑ तिहाई, कसाई' यगण) की जानकारी हो 
सकती हैं। तगण, रगण, जगण, सगण को अशुभ और शेष गणों को शुभ गण माना 
गया है। छन्‍्द के आरम्भ में अशुभ गण का प्रयोग अच्छा|/उचित नहीं माना जाता। 
6. यति 7. गति 0. तुरक क्रमशः विराम[विश्वाम, लय|प्रवाह, अन्त्य वर्ण-आवृत्ति के 
सूचक हैं । सामान्यतः प्रत्येक. चरण के अन्त में एक (कभी-कभी मध्य में एकाधिक) 
यति होती है। गति से छन्द में संगीतात्मकता उभरती है। सामान्यतः हिन्दी पं 
पाँच मात्राओं की तुक अच्छी मानी जाती है । तुक को हिन्दी छन्द का प्राण कहा . 
जाता है। हिन्दी में. 20वीं शती ई० में अतुकान्त छन्‍्दों का भी प्रयोग हुआ है। 
शायद उच्चारण-सरलता के आधार पर कखगधचछजडदधन-यशसक्ष' 
को शुभ वर्ण, शेष को अशुभ वर्ण माना जाता है । अशुभ वर्णों में झ ह र भ ष' को 
दग्धाक्षर कहा गया है । केवल वर्ण-गणना के आधार पर रचित छन्द बणिक इहन्द 
कहुलाते हैं। वर्णों की मात्रा-गणना, के आधार पर रचित छन्द 'सातिक छन्द' कहे 
: जाते हैं। चरणों की अनियमित, असमान, स्वच्छन्‍्द गति और भावानुकूल यति- 
विधान से युक्त छन्‍्द मुक्त छन्द कहलाते हैं । यद्यपि छन्दों की संख्या 7950 तक 
. कही गई है फिर भी सामान्यतः लगभग 70-75 छन्दों का प्रयोग मिलता है जिन में 
प्रमुख छन्‍्द हैं--दोहा, चौपाई  सवैया, कुडलिया, सोरठा, कवित्त, छप्पय, रोला, 
गीतिका, हरिगीतिका, बरबै, घनाक्षरी, मालिनी, उल्लाला, वसन्ततिलका, इच्द्रवच्ना, 
उपेन्द्रवञञा, शिखरिणी, द्रतविलम्बित, मन्द्राकान्ता, अनुष्टप्‌ । हक 
.. आधुनिक हिन्दी साहित्य में काव्य-भाषा का मुलाधार खड़ी बोली का परि-- 
निष्ठित रूप है जिस में अन्य बोलियों तथा भाषाओं के शब्दों का भी कहीं-कहीं, कभी- 
क्री प्रयोग प्राप्त है। ब्रज, अवधी के अतिरिक्त पश्चिमी हिन्दी, पूर्वी हिन्दी की 
. विभिन्‍न बोलियों में भी कविता-रचना होती रहती है। बिहारी और राजस्थानी वर्ग 
की हिन्दी की बोलियों में भी कविताओं का रचना-अवाह बहता चला भा रहा है। 
हिन्दी-कविता का अधिकांश ब्रजभाषा में रचा गया है जिस में बुदेलखंडी, अवधी, 


.._ छड़ी बोली, कन्नौंजी का प्रभाव देखा जा सकता है। अवधी में रामचरितमानस, 





.._पदमावत जैसी अविस्मरणीय काध्य-रचनाएँ प्राप्त हैं । हिन्दी की कि 
(मुख्यतः ब्रज और अवधी) में सामान्यतः डे, थे, लावा हे क्ष' के स्थान पर 
...“कमशे: “रु, जे, रब, से, त। छ|ख का अयोग मिलता है. यथा लहों 2 ये, 
.. जग्य, यमुना >जमुना, पीपली >> पीपरी, बादल > बादर, वाणी > बानी, वचन 
- >बचन, उपचन > उपबत, वंश> बँस, विश निसि, शाल >साल, शिला > 


सिला, दोष > दोस, भाषा 2 भासा, चरण >चरन, गुण ? ग्रुन, करुणाथतनम > करुता- 


.  अतन, भिक्षा>भिच्छा, लक्ष्मण >>लछिमन|लखन|लक्खन, क्षण >छन, क्षमा > 





2 कतब< रकम २5००4ाम5 2 संवभमप-तप नर ०वस वन कयककक हि $ 207४ 


<ह₹<- १० एस 


>ल सेल कर शद००३१२१००० न नस छभ 3 पका ४५ ३३3० 5: 3३5 हु 
मे “सं 2सलसेसलिमडलेंड से कल> हकीकत ला चर सन ८ मन. रस सर नपम ८ 


३ 772 किक कक पक जा : 2775 





काव्य भाषा-स्वरूप | 425 


छिमा, प्रक्षालन >पखारन, साक्षी > साखी । यत्त. > जतन, कर्म > करम, शब्द > 
सबद, भकतवत्सल .> भगतबछल, धर्म >धरम आदि के संयुक्ताक्षर एकल रूष में प्रयुक्त 


हैं। सामान्यतः -आ > -ओ है, यथा--गहता > गहनौ, बसेरा > बसेरो/बसेरौ, झगड़ा 


>झगरो।|झिगरी, फेरा >फेरो, नाता > नातौ, सबे रा:>सबे रो, हिया :> हियो, मायका 
>मायकी; अपना >> अपनो, हमारा > हमारौ, मेरा > मेरो/मेरौ, तेरा > तेरोतिरो 
जितना > जितनी, जसा > जैंसो; काला > कारो/कारौ, पीला > पीरो/पी रो, सीधा > 
सीधो|सीधो, नीची_ >नीचो >नीचौ; किया >कियो/कियौ/कीन्‍्हों/कीन्ही, लिया >> 
'लियो/लियौ/लीन्‍्हों/लीनहौं, पाया > पायो/(पायौ, लिखा > लिखौ, पढ़ता > पढ़तो|पढ़तौ, 


आना > आन्यो/|आन्‍्यी,.. जाना > जान्यो|जान्यो,._ खाऊँगा > खाउँगो/खाउंगौ । 


स्त्रीलिंग में -ई, -इति का प्रयोग अधिक है। बहुबचन के लिए “गन, वृन्द, यूथ 
निकर आदि शब्दों का प्रयोग रूपान्तर की अपेक्षा अधिक प्राप्त । विकारी बहुवचन 
में “न, “नह, -निः का प्रयोग प्राप्त। कुछ अन्य विशेष शब्द-रूप हैं--पड़े >> 
परे, कड़वे > करुए, मूल > मुरि, तलवार > तरवार/तरवारि, सुनो > सुनौ, आओो >> 
आवीो, बुलावे >बुलावे, बड़ों को > बड़ेत क्रो, चरणों से > चरननि सों, मुखों की :> 
मुखन की, मीनों की > मीनन की; लाभ > लाभु, बालक > बालकु, गया > गयऊ 
कहा > कहेऊ, उठो > उठहु, मुझ को >मोहि, राम को > रामहि, सखी को > 


_ सखिहिं, सखियों को > सखिन्‍्ह, देवों को > देवन्ह, तुम्हारा > तुम्हार, आप का > 


_ राउर, जिस का > जासु, तुम्हारे > तोरे, क्या > का/काह, कुछ > कछक/कछ; इस >_ 

_ एहि, किस > केहि, इधर-उधर > इत-उत, तो >> त; है > अहई, हैं > भाहि, कहते हैं > 

 कहई, करते हैं >कर्राहि, दिखाते हो >देखाव, बध करता. हुँ>बधऊँ, जानता है >> 
जानसि; गया > गयउ, कहा >कहेउ, हुई > भइ, किया > कीन्ही, वर्णन किया >> 
बरनी; होगा >> होइहि, कराएगा > कराइहि, रहूँगी > रहदि, लेलूगा “> लेवा, तरेंगे >> 


. ्तरिहृहि, मारे जाएँगे > मारे जैहहिं, हो जाएगी > होई जाई; हित होकर >हरखि 


 कहिए > कहिय, क्षमा करो >छमहु। ब्रज, अवधी के संज्ञादि की रूपावली का 
सामान्य परिचय अध्याय 28 में दिया जाएगा। 

... प्राचीन काव्य भाषा-प्रयोग में कुछ स्वतन्त्रता प्राप्त है, यथा--कारक 
चिहू ने या विभक्ति-लोप, जैसे--नारद देखा विकल जयमन्ता (जन्नारद ने); पापी 
अजामिल पार कियो (>>अजामिल को); ज्यों आँखिन सब देखिए (+>->आँखों से) 

कह यो कान्‍्ह सुनि जसुदा मैया (--कृष्ण ने) आदि । कहीं-कहीं सत्तावाचक तथा सहाग्रक 
क्रिया-लोप, यथा--धनि रहीम वे लोग (हैं); अति विकराल न जात बतायो (बताया 
जाता है); तोकों कान्ह बुलावे (है); का करि सकत (है) कुर्संग । कहीं-कहीं संबंध- 


ज् _ बांची शब्द-लोप; यथा--जाको राखे साईया (उसे) मारि सके ना कोइ। अनेक 


प्रचलित शब्द अप भ्रंश रूप में. प्रयुक्त, यथा > कार्य >काज > काजा, एकत्र > एकत 
संस्कृत > संसकिरत, सपना > सापत्ा, एक > इक, यों >इमि; कुछ नाम धातुओं 
का विशिष्ट प्रयोग, यथा--अनुरागत, गवनहु, प्रमानियत, विरुद्धिए । कुछ नवीन 










































: 426 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


शब्दों का प्रयोग प्राप्त, जसे---घननाद (>>मेघनाद), हाटक लोचन ( हिरण्याक्ष) 
.. घटज (कुभज) 

खड़ी बोली-भाधारित काव्य भाषा-प्रयोग में कहीं-कहीं ब्रज भाषा-शब्दों 
का प्रयोग प्राप्त है, यथा--नेक, तज, लौं। कुछ अप्रचलित संस्कृत शब्दों का 
: प्रयोग; यथा--स्वयमपि, समुत्फुल्लक्रारी, रिष्ठ । अपध्रश शब्द-प्रयोग, यथा--. 
मारग < साग, हरिचंद < हरिश्चन्द्र, यदपि <_ यद्यपि, परमारथ < परमाथथे, करिए< 
कीजिए, हजो < हजिए < होइए, देओगे < दोगे, जले है < जलती है, सरलपना < 
सरलपन ।. कुछ नवीन नाम धातुओं का प्रयोग, यथा-- संमानते; लोभा । अधिक 
लम्बे कुछ सामासिक शब्दों का प्रयोग, यथा--अगणित-कमल-अमल-जलपूरित; दुख- 
जलनिधि-डबी; शलेन्द्र-तीर-सरिता-जल ॥ अनमेल फारसी' शब्द-प्रयोग, यथा-- 
अफैसोस "!***** पात्र जो संताप के; शिरोरोग का““बहाना | शब्द-विक्रति, यथा-- 
अधारा < आधार, तुही < तू ही; चहता < चाहता, नहिं< नहीं, कदापी < कदापि, 
श्रमी < श्रमिक । कहीं-कहीं तुकांत की दृष्टि से विषमता भी प्राप्त है और कहीं-कहीं 
पादप्रक शब्दों का प्रयोग मिलता है। संकर' समास के उदाहरण हैं---बन-बाग, 
रण-खेत, लोक-चख, भारत-वाजी, मंजु-दिल । कहीं-कहीं अप्राणिवाची कर्म के साथ _ 
अनावश्यक को' प्रयोग, यथा--पा कर उचित सत्कार को; सहसा उस ने पकड़ लिया... 
कृष्ण के कर को । कहीं-कहीं अकमंक क्रिया का सकमंक और सकमंक का अकमंक 
प्रयोग मिलता है, यथा--नहा दो (+-नहला दो), दिखलाती ("-दिखाई देती है) 
“नहीं के स्थान पर “न' प्रयोग, यथा--लिखना मुझे न आता है; न हो सकते। 
क्रिया-रूपों में प्रयोग-विकृति, यथा--लजानी- (>"-लज्जित हुई), फहरानी है... 
(“-फहराई हुई है); स्वपद भ्रष्ट किया जिस ने हमें (+-स्वपद से भ्रष्ट किया जिस ने 
हमें) । कारक चिह न आदि का लोप, यथा--सुरपुर (में) बंठी हुई; किन्तु उंच्च पद 
में मद रहता (है); हाय ! आज ब्रज में क्यों फिरते (हो); प्रबल जो तुम में. पुरुषा्थ 
हो (तो) सुलभ कौन तुम्हें न पदार्थ हो द 500 
| बीसवीं शब्दाब्दी के अन्तिम दशक की काव्य भाषा में भी इसी प्रकार की 
स्वतन्त्रता के विधिध रूप प्राप्त हो सकते हैं जिन का विवेचन मुलत: काव्यशास्त्र| | 
शली विज्ञान में किया जाता है । 


5-3० लक ४७७७७ का आम का कम कक 








परिशि ष्ट 


“28 | 


हिन्दी की प्रमुख बोलियों में एकसूत्रता 





किसी भी भाषा की उपभाषाओं तथा बोलियों की एकसूत्रता का आधार 


उन की बोधगम्यता है । जो भाषा जितने अधिक विस्तृत क्षेत्न में बोली जाती है, उस में 
- उतनी ही अधिक क्षेत्रीय विविधाएँ भी पाई जाती हैं। यद्यपि हिन्दी की दो प्रमुख 


उपभाषाओं--पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी में गठन की दृष्टि से बहुत-कुछ अन्तर है, 
फिर भी परिनिष्ठित हिन्दी ज्ञाता के लिए वे अबोधग्रम्य नहीं हैं। एक भाषा की 


.  बोलियों की बोधग्रम्यता मात्रा की दृष्टि से अधिक होती है जब कि एक ही समुदाय 
(परिवार) की भाषाओं में बोधगम्यता की यह मात्रा कुछ कम ही रहती हैं, यथा-- 


हिन्दी-पंजाबी-बंगाली के मध्य बोधंगम्यता की मात्रा ब्रज-अवधी-कौरवी के मध्य की 
बोधगम्धता की मात्रा से कम है। हिन्दी की प्रमुख बोलियों में बाहू य स्तर पर गठन 


की दृष्टि से कुछ-न-कुछ वषम्य मिलता है किन्तु आन्तरिक स्तर पर उन में पर्याप्त 


साम्य प्राप्त है, और यही साम्य उन्हें एकसूत्र में पिरोए हुए है। पूर्बी हिन्दी तथा 
पश्चिमी हिन्दी में गठन की दृष्टि से उल्लेखनीय अन्तर ये हैं- पूर्वी हिन्दी में “अ 


पश्चिमी हिन्दी के अ' की अपेक्षा अधिक विव॒त है। पूर्वी हिन्दी में. काँ (का), मा (में) 


का विशेष प्रयोग प्राप्त है । पूर्वी हिन्दी में मोर (मेरा) का प्रचलन है । पूर्वी हिन्दी 


में अहेउ|आहेउ (मैं हैँ) का प्रयोग होता हैं। पूर्वी अवधी में बाठेउँ, भोजपुरी 
में बाटों' प्राप्त है। खड़ी बोली, ब्रज में मारा, मार्‌यौ” (मैं ने|तू ने/उस ने) मिलता 


है, जब कि पूर्वी हिन्दी में 'मारेउे, मारिस”ः और भोजपुरी में “मारलों 


. मारलस! प्राप्त है। संस्कृत “चलिष्यति' पूर्वी हिन्दी में 'चलिहइ” और ब्रज 


में 'चलिहै' है। उच्चारण की दृष्टि से पूर्वी हिन्दी की प्रवृत्ति प्राय: लघ्वन्त 


है, पश्चिमी हिन्दी दीर्घान्त है। अवधी के क्रिया-रूप प्रायः लघ्वन्त हैं, जब कि. 


पश्चिमी हिन्दी में वे नकारान्त हैं, यथा--जाब, चलब, ल्याब, दयाब (अवधी), 


जान, चलन, लेन, देन (त्रजभाषा) । शब्द भण्डार की दृष्टि से पूर्वी हिन्दी तथा ._ 


पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ जीवन्त एवं प्रगतिशील रही हैं । परिनिष्ठित 


. हिन्दी में यह जीवन्तता तथा प्रगतिशीलता पर्याप्त है। पंश्चिमी तथा पूर्वी हिन्दी 
_ की प्रमुब॒ बोलियों का गठतात्मक हृष्टि से यहाँ संक्षेप में परिचय दिया जा रहा 


427 





आम ] 
2 

लि कल, पर 
हम बा ० यम 
गा | कक के पल जो 

! 0 0 श् फ के 





428 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण. - 


द है । इन बोलियों के वाक्य-उदाहरण डॉ० ग्रियसेन के लिग्विस्टिक अर 


ऑफ इण्डिया (पश्चिमी हिन्दी भाग 9, पूर्वी हिन्दी भाग 6) से लिए गए हैं । 

(।) कौरबी--कुरु क्षेत्र की बोली को श्री राहुल सांकृत्यायन ने यह नाम 
दिया था । डॉ० ग्रियसन ने इसे वर्नाक्यूलर हिन्दोस्तानी' कहा है । सामान्यतः इसे 
खड़ी बोली/खरी बोली” कहा जाता है। पश्चिमी हिन्दी की साहित्यिक भाषा. 
अपने स्वरूप तथा गठन की दृष्टि से इस भाषा पर आश्रित है। यह भाषा रामपुर 
मुरादाबाद, बिजनौर, पश्चिमी रुहेलखण्ड, मेरठ, मुजुपफ्फ्रनगर सहारनपुर 
अम्बाला जिलों में बोली जाती है। इस बोली में ए, ओ' का ग्रहण अधिक 
है, यथा--पेर (पर), हे (है), ओर (और), इ>अ, यथा--सकारी (सिकारी), 


- मठाई (मिठाई), ण, ल, ड का प्रयोग अधिक, यथा--अपणा (अपना), खोबण 
..._(खोना), सुणण (सुनना), माणस (मानुस/मनुष्य), जंगल (जंगल), बलद (बलद/बैल) 

. बाल (बाल), कोली (छाती), गाड्डी (गाड़ी), चढना (चढ़ना), घोडा (घोड़ा), . 

. चिडिया (चिड़िया) । दीघ स्वर का परवर्ती व्यंजन प्रायः दीध हो कर पू्व॑वर्ती स्वर में 


कुछ ह रस्वता ला देता है, यथा--धोत्ती (घोती), पात्ता (पाता), होत्ता (होता), 
बाप्पू (बाप) । परसर्गों के ये रूप प्राप्त हैं--ने, नें (कर्ता), के, को, कूँ, नूँ, ने (कर्म, 
सम्प्रदान), से, सू, सेत्ती (करण, अपादान), का, की, के (संबंध), प, पे, में (अधि- 
करण) । सर्वनामों में परिनिष्ठित हिन्दी से भिन्‍न ये रूप प्राप्त हैं--में (मैं), मझ (मुश्न), 
मझे (मुझे), म्हारा (हमारा), तें (तू), तझ (तुझ), तझे (तुझे), तम (तुम), तमें 
(तुम्हें), थारा (तुम्हारा), ओं/ओ|ओह (वह पु.), व! (वह स्त्नी.), विस (उस), 


' (उन), विस्का (उस का), विन्का (उन का), यू (यह पु.), या (यह स्त्री.), या (इस) । 
यूयि (ये), जोण (जो), कौण/के (कौन), के (क्या), असा (ऐसा), इब (अब) | क्रिया- _ 


प्रयोग में परिनिष्ठित हिन्दी से भिन्‍त ये रूप प्राप्त हैं--मैं पढ़ूँ हूँ (मैं प्रढ़ता हूँपढ़ 
रहा हूँ), तू पढ़े हैं, तम पढ़ो हो, ऊ पढ़े है, वे पढ़े हैं। कभी-कभी मुख्य क्रिया .. 


.... पढ़त्ता” भी मिलती है। मैं/तृ/ऊ पढ़या (मैं पढ़ा), हम/|तम|वि पढ़ये (हम पढ़े)। 
'मैं|तु|ऊ पढ़ता था (मैं पढ़ रहा था), हम/तम|वि पढ़ते थे । मैं/तृ/ऊ पढ़या था (मैं 
पढ़ा था), हम/त्रमवि पढ़ये थे। मैं (/तु/ऊ) पढ़या हूँ ((हि।है) (मैं पढ़ा हैँ), हम 

. [[तमवि) पढ़ये हैं (/हो/हैं) | मैं पढुँगा, तृ/ऊ पढ़ेगा,, हम,वे पढ़ेंगे, तम पढ़ोगे। 
.. मेरठ की कौरवी पर पंजाबी का प्रभाव है। बिजनौर की कौरवी परिनिष्ठित हिन्दी ._ 
. के अधिक नजदीक है, यथा-- .' 


(जिला मेरठ5)---एक आदमी के दो लोन्डे थे । उन में तें छोटे नें अपणे बाप 


.. सेत्ती कहा ओ बाप तेरे मरे पिच्छे जो कुछ धन धरती मझीं मिलेंगी वा इभी दे दे । 

... (जिला सुजफ्फ्रनगर)--एंक यादमी के दो.बेट्टे थे। उन में तें छोदूटे ने बापू से 

. कहा ओ अक बाप्पू जोण सा हिस्सा माल में ते मेरे बाँठे आवे हे ओह मुझे दे। 
(जिला बिजनौर)--एक आदमी के दो बेटे थे ! उन में से छोटे ने बाप से कहा कि जो . 
कुछ मेरे हिस्से की चीज है मुझे बाँट दे। (जिला अम्बाला)--एक आदमी के दो ._ 





हिन्दी की प्रमुख बोलियों में एकसुत्रता | 429 


: छोकरे थे। उन माँ ते छोटे छोकरे ने अपने बाप ते किहा कि मन न॑ जो हिस्सा घर 
माँ ते आवे है ओह मेरा मन ने बाँड दे । ह 


(2) बॉगरू बोली दिल्‍ली, करनाल, हिसार, रोहतक, झींद पटियाला, 
नाभा आदि नगरों और उन के ग्रामीण अंचलों की भाषा है | बाँगड़ (उच्च क्षेत्र) 
को हरा-भरा होने के कारण हरियाणा भी कहा जाता है अत: बाँगड़ “- बाँगरू को 
हरियाणी “हरियाणवी . भी कहते हैं। बाँगरू में परिनिष्ठित हिन्दी का 'अ! विभिन्‍न 
स्व॒रों के रूप में उच्चरित मिलता है, यथा--बहुत >बोहत, कहाऊँ> कोहाऊंं, 
रहा» रेह या, जवाब > जुबाब । ए, ऐ परस्पर स्थानापन्‍न हो सकते हैं। करण 
सम्प्रदान ने, ने से, अपादान से व्यक्त होते हैं। न>ण, ल>ल, ड >ड,. 
बथा--अपना > अपणा, चलन > चलण, नल >नल, बड़ा >बडा । विकारी बहुवचन 
संज्ञा शब्द आँ युक्‍त होते हैं न कि ओं? युक्त, यबथा--घोड़ाँ, दिनाँ, माणसाँ, छोराँ, 
छोरुयाँ। कम, सम्प्रदान में ने, ने, ति, ते, त!, करण में 'ने, नै, सिते', अपादान में 
'ति, ते, ते, कानीती', अधिकरण में “में मैं' और संबंध में 'का, के, के आते हैं। 
सर्वनामों के रूप इस प्रकार के हैं-- मैं, हम, हमें (कर्ता), में ने, मन्ने, मनन, म्हाने, म्हाने 
(करण), मने, मन्‍्ने, म्हाने, म्हाने (कम, सम्प्रदान) मेरा, म रा, म्हारा (संबंध); थ॑ 
तूँ, तौं, थम, तम्हें (कर्ता), तने, तन्‍्ने, तन्‍्ने, था ने, था ने (करण) तन्‍ने, तन्‍ने, था ने 
था ने (कर्म, सम्प्रदान), तेरा, तरा, थरा (संबंध); अउह, ओह (वंह स्त्री०), वै, 
ओह (कर्ता), उस, उन (विकारी); योह, यु, यउंह (याह स्त्री०), ये, ये (कर्ता), इस 
.. इन (विकारी), जौण (जो), कौण (कौन), के/क॑ (क्या) । सहायक क्रिया होना” के 
' ये रूप मिलते हैं---सूं/सां/हैँ/हाँ, सें/सें/साहैं।हैं/हाँ; से/से/है।हे, सो/हो; सै/सि/है/हे 
: से सें/हैं।हिं। एकबवचन में था, बहुबचन में थे”, भविष्य में गा, गे” रूप प्राप्त हैं । मैं 
पढ़दां स॑ (मैं पढ़ता हूँ/पढ़ रहा हूँ), तृ/वो पढ़दा से, हम/वे पढ़दे सै, तम पढ़दे सो। 
' बिना सहायक क्रिया के भी रूप (कभी-कभी) प्राप्त, यथा--मैं मारूमाराँ [मैं 
मारता हूँ), हम मारे/मारें/मार्रां, तूतवो मारैः>मारे, तम मारो, वे मारै/मारें। मस्ने| 
 तन्‍्ने/उस्ने/म्हाने/थाने/उन्‍ने पढ़या (मैं ने पढ़ा) । मैं/तृ/वो पढ़दा था (मैं पढ़ रहा 
था), हम/तम|वे पढ़दे थे । बाँगरू की कुछ उपबोलियाँ भी हैं, जेसे---'जाटू' दिल्‍ली 
रोहतक के जाट बहुल क्षेत्रों की बोली, “चमरवा' दिल्‍ली वे चमार बहुल क्षेत्रों की 
बोली । पक तक त । द क्‍ 

(जिला करनाल)--एक माणस के दो छोरे थे। उन मैं ते छोदटे छोरे ने 
_बाप्पू ते कहया अक बाप्पू हो धन का जौण सा हिस्सा मेरे बाँड आवे से मन्ते दे दे । 
(जिला रोहतक--जाट)--एक हीर (अहीर) माँदा पड़ा था। उस का असता बेरा 


... लेण आया । जिस दिन उस का असना आया उस दिन टुक टक उस को चैन थी। 


..._ हीर अपणे भाई से बोला अब “योह छोरा कौण सै ।” तहसील झींद--हरियाणी)-- 
:-. एक ब्राहुमण था अर एक ब्राहमणी थी। ब्राह्‌मण चून मैंग के लि आया करदा | ह 





* ; 
/» 
। 
] 
[.' 
है ८] 
4 
ल 
पु ५222 
बा 
है थ्‌ 
व 
पी 
0 
हक न 
पी 
5 8 8 चर 
पा 
तो 
0 
93502 7 
37 कं 
७ ५9० 
हि] 
१, ३ | 5 
है| बा 
जि मे: 
५ 
0 
गज 
ं 








430 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


ब्राहू मणी कहण लाग्गी इस नागरी में राज्जा भोज से । यू सलोक कौहा के ब्राह मर्णा.. 
ने एक टका सिओने का दे से । इस राज्जा के तौं भी जा.क॑ कह दे। 

(3) ब्रजभाषा का मुख्य केन्द्र मधुरा है। यह गुड़गाँव, भरतपुर, करौली 
ग्वालियर, अलीगढ़, आगरा, एटा, मनपुरी, बुलन्दशहर जिलों में बप्ली जाती है। 
इसे अन्तवंदी भाषा भी कहा जाता है। इस भाषा की कई उपबोलियाँ प्रचलित हैं, 
यथा--माथुरी (मथुरः के आसपास की बोली), भरतपुरी, घौलपुरी, कठेरिया .. 
(बदायूँ की बोली), डाँगी (भरतपुर, जयपुर, करौली के डाँग--बंजर क्षेत्र की बोली) 


. जादौवाटी (भरतपुर, ग्वालियर, करौली क्षेत्र के यादवों की बोली, सिकरवारी 
. (ग्वालियर के उ० पू० के सिकरवार क्षत्रियों की बोली), गाँववारी (अलीगढ़, एटा 


मनपुरी की बोली). । इस बोली में “र, ल' की प्राय: स्थानापत्ति मिलती है, बथा-- 
गारी (गाली), लेजू (रज्जु)। ने नें, नें (कर्ता), कू, कूं, कौं, के, के (कर्म, सम्प्रदान) 
सों, सू, सो सौं, ते, तें, ते (करण, अपादान), कौ, के; की/कि (संबंध), में, मैं, पै, पर 
माँझ, महियाँ (अधिकरण) परसर्ग मिलते हैं। परिनिष्ठित हिन्दी से भिन्‍न प्राप्त 


 सर्वेताम-रूप ये हैं--हों, हों, है, में; मो, मुज, मोहि, मुहि, मोय, मोई, मोएँ, हमन 


हमंनि, हमौ, हमैं; मेरो, भेरुयो, हमारो, हमर्‌यी; ते, ते, तो, तुज, तोहि, 
तुहि, तोही, तुही, तोय, तोइ, तेरौ, तेरुयो; तुम्ही, तुम्हे, तुम्हहि, तुम्हारा, तिहारो 


तुहार॒यों, तिहारुयौी ।, वो, वृह, विस; वा, वाहि, वाए, वाय, विसे; वे, उनि, उन्हों, 
विनि, विन्हों, विनि, विन्हें, उंन्है । यिह, या, यांहि, याए, थे, इनि, इन्हौं, इन्हें, इहै। 
जौ, जौन, जा, जाहि, जाय, जासु; जौ, जिनि, जिन्‍्हों, जिन्हें | को, कौ, काहि, काए, 


काय; किनि, किन्‍्हों, किन्‍्हें ॥ कोऊ, कोइ, काहू; किनके । कृछू, कछू; कछुक । कहा, _ 
का, काहे । आपु, अपुने, आपुने, अपनो; अपुने, आपुर्ने, ऑपनो, आपनी । आपु, आपुन, 
रावरो, रावरे, राउरे, राउरी | ऐसो, तैसो, कसो; इती, केती; एते, एती, जेते, जेतिक, 
जितेक, कितेक, तेते, कैउक । कुछ विशिष्ट गुणवाची--नयौ, थूल, अमौलक, निठुर 
ढीठ, दूवर आदि | सहायक क्रिया 'होना” के रूप कहीं-कहीं परिनिष्ठित हिन्दी से भिन्‍न 


हैं, यथा--हां (हूँ); हों।हो (था), हे।हिं; ही।हुती (थी), हीं।हुतीं । ह॒वेहों (हुँगा।हुंगी), 
_हवहै, ह वहैं, ह वेहो, होयगो । -त, -अतु (खेलत, जात; पढ़त, पढ़ियतु, जानतु- 


वर्तमान ० कछृदन्त); -ओ, -यो (कहो, लहो, मर॒यो, हँस्पो--भूत ० क्ृदनन्‍्त); -इ, -ऐ 
(सुनि, लिखि, -पढ़ि ले, दे--पूर्वका० कृत), -इबो, -नो (करिवों, चलिवो, 
पढ़नो-- संज्ञार्थक क्रिया) । क्रिया रूप इस प्रकार के हैं--हों पढ़तु हों (मैं पढ़ता हूँ), 

तू ((बु) पढ़तु है।ऐ; हम,बि पढ़त हैं, तुम पढ़त हौ। हों पढ़ि रहो (/रहयो) हों 
ऊ) (मैं पढ़ रहा हूँ), तू (|बु) पढ़ि रही है, हम|बे पढ़ि*रहे हैं, तुम पढ़ि रहे हो। 
हों पढ़ौं (मैं पढ़” ), बु पढ़े बे/।हम पढ़ें, तुम पढ़ी | हौं पढ़ यौ (मैं पढ़ा), तु/बु पढ़.यो 


रा हम|तुम. वे पढ़े । हों पढ़यो हों (मैं ने पढ़ा है), तू/बु पढ़ यो है, हम/बे पढ़े हैं, तुम पढ़े < 
... हौ।तूबु पढ़यौ हो (मैं पढ़ां था), हम/तुम/बि पढ़े हैं। हौं/तू/बु पढ़ि रहौ ((रहयो) हो 
.._ [मैं पढ़ रहा था), हम॑तुम/वे पढ़ि रहे हे । हौ पढ़ेंगौ/पढ़ गो (मैं पढ़“गा), तू/बु पढ़ेगौ 


हा । 
कं ४! कं 8 ४ * ५ 


320 कलम लंजक८> ७3339 + को ३०४ >०८क+ २ के, प 





हिन्दी की प्रमुख बोलियों में एकसूत्रता | 43] 


हम/बे पढ़ें गे, तुम पढ़ौगे। यदि हों पढ़ौं तो (यदि मैं पढ़" तो) तू/बु पढ़े, हमवि पढ़ें, 
तुम पढ़ी । 


(जिला मथुरा की माथुरी )--एक जने के दो छोरा हे/उन में ते लोहरे ने कही 
कि काका मेरे बट को धच मोय दे । तब बा ने धन उन्हूँ बटि करि दियौ । (जिला अली- 
गढ़ की अलीगढ़ी)--एक जने के दूव बेटा ए। उन में तें छोटे ने बाप स॑ कह यो कि.ए 
बाप मेरी जो बाँदु होतु ए सो मोब दे देउ । (जिला आगरा की गाँववारी)--एक 
आदमी के दो बेटा है । छोटे बेटा ने अपने बाप ते कही के अरे कक्कू मेरे बाँट कौ मालु 
मों कू दे दे । (जिला धौलपुर की धौलपुरी)--एक आदमी की दो मोड़ा हे । उन मैं 
ते छोटे मोड़ा नें बाप ते कही बाप जो तेरे पास धन है ता मैं ते मेरे बठ कौ बैठ ते मो 


को दे दे । (करोली-ग्वालियर की जादौवाटी)--काऊ आदमी कें दो मोंडा हे । विन में 
तें ल्‍्हौरे नें अपने बाप तें कही बाप मों कों सामाँ में तें अपनो बट दें चुकौ । (जिला _ 


भरतपुर की भरतपुरी)--एंक जनें कें दौ छौरा है । और बिन मैं ते छोटे छोरा नें अपने 
दाऊ तें कही दाऊ जी घन में तें जो मेरे बट में आवे सो मोक॑ देउ । (करौली की डाँगी) 
--कोई आदमी के दो भोड़ा हे । बिन में से ल्हौरे मोड़ा ने दाज से कही अरे दाज 


विसुधा में जो मेरो बट है वाय मों को बाँट दे । 


(4 ) कनोौजी बोली का केन्द्र नगर कन्नौज < कान्यकुब्ज है. तथा फरु खाबाद, 


| इटावा, शाहजहाँपुर, कानपुर, हरदोई, पीलीभीत जिलों में बोली जाती है । इस बोली में 
. ब्रज का औकारान्त शब्द ओकारान्त, व्यंजनांत उकारान्त हो जाता है जो शाहजहाँपुरी 
. में इकरान्त हो जाता है, यथा--छोटो > छोटो (छोटा), घर >घरु”-घरि। बहुवचन 


के लिए कभी-कभी संज्ञा में हु वार“»ह वारूँ भी जोड़ते हैं, यथा--हमह वार”०हम 


लोग। परसगं ये हैं--ने (कर्ता), को”>काँ (कर्म, सम्प्रदान), से, सेती, सन, करी, कर के, 
"ते, ते (करण, अपादान), में, मैं, माँ, मो, पर, लों (अधिकरण), को, के, की (संबंध) । 
 परिनिष्ठित हिन्दी के सर्वनामों के भिन्‍न कुछ रूप ये हैं -मो, मोहि, मेरो, हमें, हमारो 


तो, तोहि, तेरो, तुम्हें, तुम्हारों । बहु, बुहि, उहि, ब, बो, वे, वे, बे; उहि, बहि, वा; 
उसे, उन्हें । यहु, यिहु, इहु, यो, जो, जहु, जे, जइ; इहिं, या, इसे; इन्हेंहूँ; याको 


'यहिको । जौन, जौनु, जौ; जौन, जो; जेहि, जा; जिसे, जिन्‍हेँ । कौनु, को; केहि, का; 


किसे, किन्‍्हैं; काको । कहा, का; काहे । कोऊ, कौनो; किनऊँ, कौनो; कौनो, किसु, 
किनऊँ, कौनो । कछ, कुछों । आपु, आपन, अपनु, अपनो । सहायक क्रिया 'होनेा 
रूप इस प्रकार हैं--हैंगे (वे।हम हैं), हैगो, होगे । थो (थी), हतो (हती), हते (हतीं) । 


.. हों, हौं, हगो (मैं हँगा), हैंगे; हैगो, होगे। लिखत-लिखतु (लिखता), लिखो, पढ़ो, गओ 
.. (गया), पढ़े के, लिखि के, मारि के (मार कर), पढ़त, चलन, पढ़िबो, चलिबो 
... (पढ़ना) । मैं पढ़त हैँ, तृ/बो पढ़त है, हम,बे पढ़त हैं, तुम पढ़त हो । मैं पढ़ि रहो हैँ, 

... ५ तबौ पढ़ि रहो है, हम|बि पढ़ि रहे हैं, तुम पढ़ि रहे हो। मैं (तू /बो) ने पढ़ा, हम/तुम| 

:  पढ़ें। मैं (|तृ/बौ) पढ़ि रहो थो ([हतो), हम (/तुम|वि) पढ़ि रहे थे ((हते)। मैं पढ़ो 
.. हैँ, तू|बौ पढ़ो है, हम/वे पढ़े हैं, तुम पढ़े हो। मैं- (/तू/बो) पढ़ो थो (हो), हम (तुम 


की । 258० हे 








43 2 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


वि ) पढ़े थे (/।हते) । मैं पढ़िहौं, त्‌/बो पढ़िहै हम,बे पढ़िहैं, तुम पढ़िही । कनौजी की 
कई उपबोलियाँ हैं--आदशे कनौजी कन्नौज की परिनिष्डित बोली है । शाहजहाँपुरी 
में ब्रज का मिश्रण है । सण्डीली (संडीला के आसपासकी बोली) अवधी मिश्रित है। 


.. पीलीभीती में ब्रज का सिश्रण है । पचरुआ (इटावा के पछार, सेंगर नदी के उ. पू. भाग _. 


की बोली), तिरहारी (कानपुर में गंगा किनारे की बोली) । द 
क्‍ (जिला कानपुर की तिरहारी)--याक मकई के दुई लड़िका हते । उन 

माँ ते छोटे लड़िका ने कहो अपने बाप तन कि माल को जीन हींसा भोह का चहिए वह 
मोह का दे दे । (जिला इटावा की पचररुआ)---एक मनई के दुइ लरिका हते। उन में 
तें छोटे ने बाप तें कहीं ए. बाप धन में ते जो हमारी हींधथा होय सो हमें दे देउ । 
(जिला फुरु खाबाद का पूर्वी भाग)--एक जने के दोए लष्टिका हते । उन मैं से छोटे ने 
बाप से कही कि पिता मालु को हींसा जो हमारो चाहिए सो देओ। 

(5) बुन्देली बुन्देलखण्ड के समीपवर्ती क्षेत्रों (झाँसी, पन्‍ना, हमीरपुर, दतिया, | 
चरखारी, जालौन, बालाघाट, ग्वालियर, छिंदवाड़ा, बुलडाना, नागपुर) भोपाल, 
दमोह,, सागर, सिवनी, नरसिहपुर, होशंगाबाद) में बोली जाती है। यह बघेली, 
. कनौजी, ब्रज, मराठी से घिरी हुई है । जगनिक, केशवदास; पद्माकर भट्ट, पजनेश 

: प्राणनाथ, लाल कवि इसी बोली क्षेत्र के थे । बुन्देली में ए, हे, ओ, औ का उच्चारण _ 


परिनिष्ठित हिन्दी तथा ब्रज की अपेक्षा कुछ लघु रहता है, यथा--बिटिया, घुरवा, 
 जैहे, ओर (+-और), बिरोबर (बराबर) | कुछ व्यंजन-परिवतंन भी प्राप्त हैं, यथा-- 


हकीगत (हकीकत), रन“ रन (रहन), पैरा (पहरा), घुरवा (घोड़ा) । बिटिया (बेटी), 
बिलंइबा (बिल्ली), चिरइबा (चिड़िया), तेलनी (तेलिन)। घोरो, (घोड़ा), घोरन 
 (घोड़ों) । परसग ये हैं--ने, नें (कर्ता), कों, खों (कर्म, सम्प्रदान) से, सें, सों (करण, . 
 अपादान), को, की, के (संबंध), में, मैं (अधिकरंण) । सर्वनामों के कुछ विशिष्ट रूप 
..हैं-+मे, में, मो, मौय मोए; मोको, मेरो, मोरो; मोनो; हमारो, हमाओ,.। तू', ते, तोय, 
. तोए, तो; तो को, तेरो, तोरो, तोनो; तुमारो, तुमाओ | बो, ऊँ, (स्त्री०) वा; बे; ऊ, . 


ऊँ, वा, ता; बिन । जो, (स्त्री०) जा; जे; ए; जा (८55"इस) । जा (>>जिस), जे। 
अपन खों; क्पनों । की, की । का, काये । कोऊ, काज़ । होना” सहायक क्रिया इन 
..“हपों में प्राप्त है--हों, आऑउेट>आँव; हैं, आँय; है आय; हो, आव (तुम हो)। हतो, 


. हती, तो, ती; हते, हतीं, ते, तीं | हुहौं, होउंगो; हुहैं, होंयेंगे; हुहै, हो उगो; हुईं, होउगे। 
परिनिष्ठित हिन्दी से भिन्‍न क्रिया रूप हैं--मैं पढ़त हों (पढ़ता/पढ़ रहा हूँ), त|बो 
_ पढ़त हे, हम/बे पढ़त हैं, तुम पढ़त हो मैं ने/तै ने|बा ने पढ़ो (पढ़ा), हम ने| 
तुम ने/उन ने पढ़ो | मैं|ति|वो पढ़त हतो (पढ़ रहा था) हम।तुम,वि पढ़त ह॒ते । मैं ने, 


. ते ने|बाने पढ़ो तो (>#पढ़ा था), हम नेतुम ने/उन ने पढ़ों ते (नच्पढ़े थे) । मैं. 


 पढ़िहों (पढ़ेंगा), तै|बो पढ़िहे, हम/वे पढ़िहें, तुम पढ़िहो | बुन्देली की कई उप- 


._ बोलियाँ हैं--पवा री ग्वालियर के उत्तरपूर, दतिया, समीपवर्ती क्षेत्र में पवार क्षत्रियों .. 


व _: की प्रमुख बोली है। लोधाती/राठौर हमीरपुर, राठ परगना, जालौन की लोधी । 








हिन्दी की प्रमुख बोलियों में एकसुत्तता | 433 


: जाति की मुख्य बोली है । खटोला पन्ना, समीपतवर्ती क्षेत्र में, मध्यप्रदेश के कुछ 
: क्षाग में बोली जाती है। बनाफरी बनाफर राजपूतों की बोली हमीरपर के द. पृ. 

लखंड के उत्तर मध्य, पूर्व में बोली जाती है। क्‌ डी केन नदी के दोनों किनारों 
की बोली है। तिरहारी हमीरपुर जिले के उत्तरी भाग में प्रचलित है । निभद्टा 
| जालोन जिले के कुछ भाग की बोली है। भदौरी/तोवरगढ़ी भदावर, तोवरगढ़ की _ 
| बोली है। बालाघाट के लोधिये लोधी बोलते हैं। छिंदवाड़ा, चाँदा, भंडारा के. 
कोष्टियों की बोली कोष्ठी है । छिंदवाड़ा, बुलडाना के कुम्भकारों की बोली कुम्भारी 
कही जाती है । नागपुर जिले में नागपुरी का प्रचलन है) । 

(पन्ना की खटोला)--एक राजा के एक बेटी हती। राजा पूजा के लाने एक 
बाबा राखे- हते । और बाबों की कही बहुत मानत हते । (हमीरपुर की लोघान्ती/ 
राठौरा)--एक कोऊ साहुकार रहै। वा चार जनें घर मैं हते । साहुकार वा साहू- 
_कारिन वा साहुकार का बंहू वा ब्याटा (दतिया की पवारी)--एक साहुकार एक 
तलाब के किनारे रेतो । एक दिन एक कंगाल साहुकार के इत माँगवे कों आओ। 
(जिला झाँसी)--एक जलने के दो मोड़ा हते । और ता मैं से लोरे ने अपने ददुदा से 
| कई धन में से मेरो हिस्सा मो खों देह राखो । (जिला वुलडाता की कुम्भारी)--एक 
| आदमी को दो लड़का थे । नश्हों बाप को कव्हानों लागो बा मोरे हिस्सा की जीनगी. 

मो का दे । (जिला छिंदवाड़ा की कोष्ठी)--कोई मनुष्य का दो पुत्र हताँ। उन्त में से 

. छोटे ने पिता से कही दादा संपत्ती में से जो मोरो हिस्सा होय सो मो खे दे दे । 

. (जिला नागपुर की नागपुरी)--एक आदमी खे दो पोरया हते। ओ में को नन्हों 

. लरका बाप खे किहे दादा मोरे हिस्सा को माल मो खे दे दे । (जिला बालाघाट की 
. लोधी)--एक आदमी ख दो लड़का थे । ओ में से छोटा ने बाप से कहा हे बाप सम्पत 
में जो मेरा हिस्सा हो सो मेरे को दे देव। (चरखारी की बनाफरी)--काहू के दुद्द 
लरका ह॒ते । लहुरे लरका अपने बाप से कहो के बाप मोर हींसा बाँठ दया | (जिला 
.... हमीरपुर की कुण्ड्री)--ई मनई के दवो लामड़ा रहें । उह माँ से हलके ने बाप से कहो 
... ओ रे बाप धन माँ से जो म्वारों हीस्सा होय सो मोहैं दे राख। (जिला ग्वालियर _ 
..... की भदौरी)--काऊ आदमी के दूव लरका है । लुहरे लरका ते अपने बाप सों कही 
ददा हमारो हिसा देउ । ह 
(6) अबधी अवध (फुजाबाद, गोंडा, प्रतापगढ़, लखनऊ, जौनपुर, मिर्जापुर ह 


ह इलाहाबाद जिला) में बोली जाती है। अवध के अन्य ताम कोशल के आधार पर इसे 
कोशली भी कहा जाता है । अवध प्रदेश के बैसवाड़ा क्षेत्र (बैंस क्षत्रियों की भूमि) के 


आधार पर कभी-कभी इसे बैसवाड़ी भी कहा जाता है। पूर्वी अवधी का क्षेत्र है--मोंडा, 

. अयोध्या, फैजाबाद जनपद; पश्चिमी अवधी का क्षेत्र है--लखनऊ, कानपुर, इटावा । 

..._ फुरंखाबाद, कनौज, इटावा में इस पर बज का प्रभाव है। अवधी में क्रिया कम का _ 
. अनुगमन नहीं करती | ए, ओ का हू रस्व उच्चारण य, व वत्त होता है। या, वा. 


छा : दीघ॑ रूप भी प्रचलित हैं। तेहिट- त्यहिं, मोहि-+-म्वहि, मौहिं-+-म्वाहिं विकल्‍प पे 











434 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


. रूप भी प्राप्त । संज्ञा शब्दों के प्राय: तीन रूप (हरस्व, दीघे, दीघंतर) प्राप्त, यथा 
--घोड़ा, घोड़बा, घोड़ौना; कुत्ता, कुतबा, कुतौना; नारी, नरिया नरीबा । रूप-प्रक्रिया 
--धोड़वा, नारी, घर; घोड़वे, घोड़वन, नारी, घर; घोड़वा, नारी, घर; घोड़वन, नारिन 
. घरन । परसगें--क, का, का (कर्म, सम्प्रदान), बाड़े (सम्प्र०) से, सेनी, सैन (करण 
अपादान ), कर, केर, के, के (संबंध), में, म, पर (अधिकरण) । परिनिष्ठित हिन्दी से 
भिन्‍न प्राप्त सर्वेताम-रूप--मो, मोर, हमरे, हमार; तें, तो, तोर; तुमरे, तुमार 
तोहार, तोहरे; आपु आप कर। ऊ, वें, ओन, ओ; ओ, ओह, ओहि, ओन; ओ कर, ओन 


कर। ई, यू, ए; ए, एह, एहि; ए कर, इन कर । केह, केऊ, कौनों, कवनौ; केऊ, केह । 


जे, जवन, जौन: जे; जेन, जेन्ह; जे कर, जेन कर | के, कवन; केन्ह, के कर, केन्‌ 
. कर। का, काव; कयि, कइ, काहे। आपु, आपन; अपने । -त (लिखत पढ़त), -इ 
(चलि, पढ़िज-पढ़ कर) -अब [देखव पढ़ब"पढ़ना), -भा, -ए (देखा, पढ़ा, 
देखे, पढ़े) | 'होना' के स्थान पर बाठ' का प्रयोग, यथा--हूँ बाट्येउँ, अहेउ (स्त्री० 
.- बाटिउ, अहिउ) बाटी, अही (स्त्री० बाटिन, अहिन), बाटस, अहे, अहस (स्त्री० बाटिस), 


बाटेव, बाटयो, अहेव, अहा (स्त्री,, बाटिव, अहिब); बाटइ, आ, अहै, है, आय सस्त्री० 
. बाठई, भहई), बाटि, अहीं, अहईं (स्त्री, बाटीं, अहई) । था--> रहेउ (स्त्री० रहिठे), . 
रहे, रहा (स्त्री. रहीं): रहेस, रहिस (स्त्री. रहिस); रहेउ, रहा (स्त्री. रहीं); रहेस, 


'रहिस (स्त्री. रही), रहेन, रहिन, रहे (स्त्री. रही)। पढ़त भहेउ (मैं पढ़ता हूँ/पढ़ 


रहा हैं), पढ़त अही; पढ़त अहे, पढ़त अहें; पढ़त अहै, पढ़त अहीं । पढ़ाँ (यदि मैं... 


पढ़), पढ़ी; पढ़, पढ़स; पढ़उ, पढ़ब; पढ़इ; पढ़े । पढ़ेड (मैं ने पढ़ा), पढ़ा; पढ़ेस, 


पढ़िस; पढ़ेउ, पढ़ा (तुम ने पंढ़ा), पढ़ेन, पढ़िन (उन्हों ने पढ़ा) । पढ़त रहेउ (मैं पढ़... 
'रहा था), पढ़त रहे; पढ़त रहेस; पढ़त रहा । पढ़तेउ (यदि मैं पढ़ता होता) पढ़ित; 


पढ़तेस, पढ़तेहु; पढ़त, पढ़तेन । पढ़ेउ हों (मैं ने पढ़ा है), पढ़े अहीं; पढ़ेस है, पढ़उ हैं; 
पढ़ेस है, पढ़ेन हैं । पढ़बूँ (पढ़'गा), पढ़ब; पढ़बे, पढ़बो; पढ़िहै, पढ़िह'ं । 


(जिला प्रतापगढ़)--कौनों मनई के दुइ बेटबा रहिन औ उन माँ से लहुरवा _ के 
अपने बाप से कहिस दादा हो माल-टाल माँ से जबवन हीसा हमार निकरसे तवन हम 


का दें दया । (जिला उन्‍नाव)--याक जने केर दुई बेटवा रहैं । बोहि माँ मते 
छोटकवा अपने बाप ते कहिस कि मोरे बाप बसुधा का मोर जउन होत है बखरा सो 


-का दे दअउर वें आपन धन उन का बाँट दिहिन । (जिला लखनऊ का दक्षिण क्षेत्र) 


्छ. 


.. भहि का दे देठ। (जिला फ्‌ जाबाद)--एक मनई के दुई बेटवे रहिन । ओह माँसे 
 लहुरा अपने बाप से कहिंस दादा धन माँ जवन' हमार बखरा लागत होय तवत हम 


> . -"--- >किस ला-- न 


.. एकु मनई के दुइ बेटवा रहैं । वहि माँ छोटकवा बेटवा अपने बाप ते कहिस कि हा 


: दादा तुम्हरी गिरस्ती माँ जौनु हमार हींसा होइ तौनु हम का बाँटि देउ । 


हा (7) बघेली या बघेलखंडी क्ष त्र) या रीवाँई (रीवाँ जनपद) बोली छोटा... 
.... नागपुर, मण्डला, भिजपुर, जबलपुर, फतेहपुर, हमीरपुर, बाँदा क्षेत्र में बोली जाती... 
_... है। तानसेन, हरीनाथ, महाराज विश्वनाथरसिह, राजा रघुराजसिह बचेली क्षेत्र... 





हिन्दी की प्रमुख बोलियों में एकसूत्रता | 435. 







े प्रसिदध कविं, गायक हुए हैं । इस भाषा के लिए देवनागरी के अतिरिक्त कैथी 
तिपिका भी प्रयोग किया जाता है । बघेली में ए, ऐ, ओ, औ क्रमशः 'य, या, व, वा* 
बत्‌ उच्चरित होते हैं । बघेली की रूप-प्रक्रिया इस प्रकार की है--घ्वाड़ (--घोड़ा) 
| छाड़े, प्वाडइई, घ्वाड़; घ्वाड़, घ्वाइन । परसगं--का, कहा (कर्म, सम्प्रदान), से, ते, 
तार करण, अपादान), कर (संबंध), म (अधिकरण) । सर्वतामे--मेंय, हम्ह, म्वहि, 
माँ, म्वारे, हम्ह, हम्हारे; म्वार, हम्हार । तय, तुम्ह, त्वहि; त्वाँ, त्वारे, तुम्ह; तुम्हारे; 
। वार, तुम्हार । आप, अपना, अपाने वह, ओ, उन्‍्ह; वहि, उन, उन्हं; वहि कर, 
| उत कर । या, ऐ, एन्ह; यहि, या, यन, यन्ह; ए, यहि कर, यन कर । जीन, जऊनंय, 
| बेन्हच । जऊने, ज्यहि, जंहि, ज्या, जेन्ह, ज्यन, ज्यन्ह; ज्यहि कर, जेन्हु कर। 
| कऊन, केन्ह; क्यहि, केहि, क्या, क्‍्यन, क्यन्ह, केन्ह; क्याहि कर, केन्ह कर । काह; 
| कई, कयी। कोऊ, कउनो । होता” सहायक क्रिया--हूँ, आँ, हैं; है, हो, अहेन; है, आ, 
कर । : हैं, बहेन, अहैँ, आँ । रहेऊः रहये (--था), रहेन, ते; रहा, रहे, ते, तो, ता । होब्येउ' 
(>-हूँगा), होव, हौवं; होइहेस, होवा; होई, होंयिहँ । -त (पढ़त, देखत), -अ' (देख, 
पढ़>-पढ़ा), -के (पढ़के, देखक), “ब (पढ़ब, देखब, लिखव--लिखना) । मय पढ़त हूँ, 
हम्ह पढ़त हैं; तय/बह पढ़त है, तुम्ह पढ़त अहेन, ओ पढ़त अहैं, मय पढ़ेहुँ (+-मैं ने 
|; पढ़ा) (स्त्री० मय पढ़ी), हम्ह पढ़ेन (स्त्री० हम पढ़िन), तय पढ़ेह (स्त्री ० पढ़िह), तुम्ह 
| : पढ़ेंह (स्त्री० पढ़िंह), वह पढ़ी (स्त्री० पढ़ी), ओ पढ़ेन (स्त्री० पढ़िन)। मेंय पढ़िऊँ 
(>>मैं पढ़ गा), हम्ह पढ़िब/पढ़ब/पढ़बे, तय पढ़िहेस/पढ़िवेस, तुम्ह पढ़िबा, वह पढ़ी 
| ओओ पढ़िहँँ । मेय पढ़ौं (--मैं पढ़), हम्ह पढ़न, तेंय पढ़स, तुम्ह पढ़न/पढ़व, वह पढ़ि, 
| ओ पढ़य । मेँय पढ़त हुँ/आँ (--मैं पढ़ रहा हूँ), हम पढ़त्ये हैं, तय पढ़त है, तुम्ह पढ़त 
हौ/अहेन, वह पढ़त है/आ, ओ पढ़त हैं/आँ | मेँय पढ़त रहेउ (--मैं पढ़ रहा था) 
.. हम्ह पढ़त तें/रहेन, तय पढ़त तें/रहा, तुम्ह पढ़त तें/रहेन, वह पढ़त ते/ता/रहा, 3 
पढ़त तें/रहेन । मेंय पढ़ हों (मैंने पढ़ा है), हम्ह पढ़ हैं, तय पढ़ेस है, तुम्ह पढ़े 
हो, वह पढ़ेस है, ओ पढ़े अहेन । मय पढ़त्येहु (->यदि मैं पढ़ा होता), हम्ह पढ़त्येन 
तय पढ़त्येह, तुम्ह पढ़त्येंह, वह पढ़त्येइ, ओ पढ़त्येन । मेँय पढ़ेहुँ ते/ता/रहा (>>मैं ने _ 
पढ़ा था), हम्ह पढ़ेन तें/रहेन, तय पढ़ेह ते/ता|रहा, तुम्ह पढ़ह तें/रहेन, वह पढ़ी 
ते/ता |रहा, ओ पढ़ेन तें/रहेन । बघेली की कई उपबोलियाँ हैं-- गोंडवानी' गोंडवाना 
की गोंड जनजाति की बोली माँडला, रीवाँ में बोली जाती है। कु भारी भंडारा के 
कुम्हारों की बोली है। बुन्देली बाँदा की बघेली मिश्रित बोली है ।तिरहारी 
फतेहपुर, बाँदा, हमीरपुर के जिलों की बोली है । गहोरा बुन्देली से प्रभावित बाँदा 
की बोली है । जड़ार भी बाँदा में प्रचलित है । बनाफरी हमीरपुर में और मरारी 
मंडला की बोली है | पोंवारी बालाघाट. तथा भंडारा “में और ओझी छिन्दवाड़ा के _ 
द्रविड़-गोंडों में बोली जाती है। . ... . - - 8 5 
(जिला मंडला की गोंडवानी)--कोई आदमी के दो लरका रहे । उन कर 
में से नान लरका अपन दादा से कहिस हैँ दादा सम्पत में से जो मोर हिसा हो मो ' 





436. । हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


ला दो । (जिला भंडारा की कुम्भारी)--एक माणुस ला दो पोरया रहे । न्हन्हो 
पोर॒या कहते बाबा आधो हिस्सा मो ला दे । (रीवाँ. की बघेली)--एक मनई के 
दुई लरिका रहैं । तौने मा छोटकौना अपने बाप से कहिस दादा धन मा जौन मोर 
हींसा होइ तोन मोहीं दे देई । (जिला. बाँदा की तिरहारी)---कौनेउ' मडई के दुइ 
गदयाल रहैँं | उन अपने बाप तन कहिन की भरे मोरे बाप तें हमरे. हींसन का माल 
टाल हमैं बाँटि दे। (जिला बाँदा- की गहोरा)--कौनौ मड़ई के दुई लरिका रहें । 
उइ्ट लरिका अपने बाप से कहिन कि अरे बाप तें हमरे. हींसा के जजाति हम 
का बाँट दे । (जिला बाँदा की जुड़ार)--कौनेउ मेंड़ई के दुई बेटवाः रहैँ । जिन्हन-ने 
अपने बाप से कहो कि अरे बाप मोरे हींसा का ड्यारा मोहीं दे दे । (जिला 
हमीरपुर की बनाफरी)--फलनवाँ मड़ई के ढुई लरिका हैं | वह माँ ते छटवा ने नाम 
से कहेसु कि जमा माँ ते म्वार हीसा दइ देइ । (जिला बालाघाट की मरारी)--एक 
आदमी के दो दुरा रहे । ओ को से में छोटों टुरा ने अपने दाऊ से कहिस. हे दाऊ 
धन में से जो मोरो हीसा है वो मो ला दे दे। (जिला भंडारा की पोंवारी)--एक. 
मानुस ला दुई बेटा होता ओ को नहानो बेटा बाबा ला कहोत होतों, बाबा: 
मोरो माल मत्तो का हिसा मोरो तोड दों। (जिला छिंदवाड़ा की ओश्षी) 

क आदमी के दुइ डोका' रहके । छोटवे अपन बाप से गुटया इस बाप मोर'हिस्सा 
मो खेदे दे । 

(8) छत्तीसगढ़ी के अन्य क्षेत्रीय, नाम है--खलोटी”>खल्टाही (बालाघाट 
जिले में), 'लरिया' सम्भलपुर के निवासियों द्वारा छत्तीसगढ़ को लरिया कहने के 
कारण । छत्तीसगढी विलासपुर, कॉकेर बालाघाट; नंदगाँव, खेरागढ़, चुईखदात 
कवर्धा, रायगढ, सारंगगढ, कोरिया, सरगुजा, उदयपुर, जशपुर, सम्भलगुर-- 
' का पश्चिमी भाग, रायपुर में बोलीं जाती है। छत्तीसगढ़ी: की रूप प्रक्रिया है-- - ः द 
मनुख <_ मनुष्य, मनुखमन, बइला”-वला, बइलन, ट्रा (+-लडका), ट्रामन। सब, 
सबो, सब्बो, जमए, जम्मा लगा कर भी बहुबचन बनाते हैं । का, ला, बर 
(कर्म), ले, से (करण, अपादान), वर; का, ला (सम्प्रदान), के (संबंध), माँ (अधि-. 
करण) /सर्वेताम--में, मैं, हम, हम मन, हम्मन; मो, मोर, हम, हमार; मोर, हमार। 
तें, तें, तुम, तुम मन, तुम्मन; तो, तोर, तुम्हे, तुम्हार । (आदराथे) तु, तुह, तुहमन; 
..तुह, तुहार, तुहमन तुहार मन । वो, उन, वो मन; वो, वो कर, उन, उन्ह; वो के, वो 
कर, उन्ह के उन्हे कर। अपन; अपन-अपन। ये, इया, इन, ये मन; ये, ये कर, इन, इन्ह; 
ये के, ये कर, इन्ह के, इन्ह कर। जे, जोन, जउन, जिन, जे मन; जे, जोत, जउन, जिन 
जिन्ह; जे कर, जिन्हे ' के, जिन्ह कर। कोन, कउने, कोन मन; का, कोन, कउन, कोन मन; 
. का कर, कोन के, कोन मन के । का, काये, का-काह; काहे, काये, का, काहे-काहे; काहे 
. के, काहे-काहे के । कोनो, कउनो, कोनो-कोनो; कोनो, कोनो-कोनो; . कोनो के, कोनो+ 





. कोनो के | कुछू, कुछ-कुछू: कुछ, कुछू-कुछू: कुछू के, कुछू-कुछू के । आपुस, आपुसी । 





. होना! के रूप---(अशिष्ट) हवउ' (5>हूँ), हवने; हवस, हवो; हवे, हवें। (शिष्ठ) हों 











हिन्दी की प्रमुख बोलियों में एकसूच्रता | 437 


आँव, हनत; हस, हो; है, अय, हैं। रहेंव, रह यों (+-था), रहेन; रहे, रहेंस, रहस, 
।  रहेव; रहिस, रहै, रहय, रहिन, रहे, रहैय । हूँ, हों (--हुँगा), बो, अब; बे हू, हो; ही 
॥ । .. है हीं, हैं । देखन, देखब; देखत, देखते; देखे; देख के | सावंनामिक विशेषण इतका, 
।  उतंका, तेतका, अइसन, जंसन, कैंसन' आदि हैं। स्थानवाची शब्द हैं--इहाँ, उहाँ 
'जहाँ, तहाँ, आग, पाछू भादि | मैं पढ़त हां (--मैं पढ़ता/|पढ रहा है), हम्मन पढत 
हन; ते पढ़त हस, तुहमन पढ़त हो; वो पढ़त है, वो मन पढ़त हैं । मैं पढ़ौं (>-"यदि 


मैं पढ़, )) हम्मन पढ़न; तें पढ़स, तुहमन पढ़न; वो पढ़े|पढ़य, वो मन पढ़ैंपढ़ेंय । 
(आज्ञा/निवेदन) हम्मन पढ़ी, तें पढ़, तुहमन पढ़ी; वो पढ़े, वो मन पढ़ें । सैं पढ़ हूँ 
पढ़िहों (+-मैं पढ़,गा), हम्मन पढ़वो/पढ़वों/पढ़िहन/पढ़व, तैं पढ़वे|पढ़िवे, तुहमन 
पढ़हू|पढ़िहा; वो पढ़ही/पढ़िहै, वोमन पढ़हीं/पढ़िहैं । मैं पढ़ेउ/पढ़ेउ' (मैंने पढ़ा), हम्मन 


_पढ़ेन; तें पढ़े/पढ़ेस, तुहमन पढ़ यो; वो पढ़िस, वोमन, पढ़िन । मैं पढतेंव/पढत्यो (>> 


.. 


यदि मैं पढ़ा होता), हम्मन पढ़तेस पढ़ते/पढ़तेस, तुहमन पढ़तेव; वो पढ़तिस 
वोमन पढ़तिन । मैं पढ़त रहेंव (--मैं पढ़ रहा था), हम्मन पढ़त रहेन, तें पढ़त रहे/ 
रहेस/रहस, तुहमन पढ़त रहेव; वो पढ़त रहिस/रहै/रहय, वो मन पढ़त रहिन/रहैं/ 


. रहैय । मैं पढ़े हवों|हों (७ मैं ने पढ़ा है), हम्मन पढ़े हवन/|हन; तें पढ़ हवस/हस 


तुहमन पढ़े हवो/हो;, वो पढ़े हव/है, वो मन पढ़े हवें|हैं। मैं पंढे रहेंव (--मैं ने पढ़ा . 
था), हम्मन पढ़े रहेन; तें पढ़े रहे/रहेस/रहस, तुहमन पढ़े रहेव; वो पढ़े रहिस/रहै| 
रहय; वो मन पढ़े रहिन/रहै/रहैय । छत्तीसगढ़ी की कई उपबोलियाँ हैं--बाला- 
घाट, रायपुर, विलासपुर, सम्बलपुर जिले की “बेंगानी; कवर्धा (प्राचीन रिया- 
सत) की 'बिह्ञवारी; पटना (प्राचीन रियासत) की 'क़लंगा; कोरिया, सरगुजा, 
उदयपुर (प्राचीन रियासतों) की “सरग्रुजिया: जशपुर (प्रा० रिया०) के कोरवों 
की 'सदरी कोरवा; सोनपुर, पटठता (प्रा० रिया०) की “भूलिया' । हलवी 


: अस्तरी, भूजिया, सदरी कोल बोलियों में अन्य भाषाओों/बोलियों के तत्त्व अधिक मिल 
गए हैं। 


(जिला रायपुर की लरिया)--कोनो. आदसी के दू छोकरा रहिस है। वो 


माँ के सब से छोटे हर अपन बाप से कहिस के जोन मोर हिस्सा होय वो ला दे दे। 
... (जिला विलासपुर की लरिया)--को नौ मनखे के दुइ बेटवा. रहिन। उन माँ ले 


छोटका हर अपन ददा ले कहिस--ददा मालमत्ता के जोन हींसा मोर बाँटा माँ परत 


_होही तौन मो का दे दे । (प्रा० रिया० खेरागढ़ की लरिया)--मैं बला ला जबरदस्ती 


नइ लेंव । मैं घर में नइ रहेउ । कोतवाल रुपिया ले के फिर गइस । (जिला 
बालाघाट की खल्टाही)--कोने मनखे के दूझ्नन बेटा रहिस । वो मा ले छोटे बेटा हर _ 


]  ददा से कहिस अगा ददूदा जौन, हमार धन है ओ मा ले मोर बाटा ला दे। (रिया० 
... जशपुर की सरगुजिया)--झने मइन से कर हू गोट बेटा रहि न। छोटा बेटा हर... 
|... आपन बाप हर ला कहिस कि ए दाऊ माल-जाल-मन ला ज॑ मार बाँठा होथे से मो 











438 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


ला दे | (रिया० जशपुर की सदरी कोखा)--गोटेक अब दिन कर दू गोट स्तोबा 
रहित । सोट सौआ हर बुढा हरू के कहिंस ए बाबा सब धान-पान डाँगर गरू पे 
आहे से कर बाँटा मो के दे । (जिला बालाधाठ की बेगाती)--तइना ओ डउका हे 
दोई छवा है ना । वो में से नान छवा बाप को कहिस, ये बाबा धनमा मोर बाटा है तो 
दे दे । (प्रा० रिया० सारंगगढ़ की विश्ववारी)--ग्रुटे लोक के दुइ-टा पीला रहेस 

अ कर सुरू बेटा तार बुआ के कहिस बुआ धन दुगानीर बाटा जो मोरहिस्सा के अ हे 
मो के दे । द 














हिन्दी-व्याकरण परझ्परा 





भाषा-अधिगम की हृष्टि से मातृभाषा-भाषी बच्चों को किसी सेद्धान्तिक 
व्याकरण की आवश्यकता नहीं होती किन्तु दवितीय भाषा को सीखने के लिए उस 
भाषा के सैद्धान्तिक़ व्याकरण की आवश्यकता का अनुभव किसी-न-किसी रूप में. 
प्रायः सभी प्रौढ़ों. को होता है। भाषा-अधिगम के इस सिद्धान्त के आधार पर हिन्दी- 


व्याकरण परम्परा का इतिहास 8वीं शती ई० के अन्त में कलकत्ता के फोर्ट विलि- 


यम कॉलेज के अध्यक्ष डाँ० 3. $. (जंक्ं& के अँगरेजी में लिखे व्याकरण 67 
ए88ए भात सिक्ायांव्ि वरातर090०९३०॥ 60 (6 ?06फए०॥४ [8780०826 रण सागतर0प- 


8५॥, 798 से माना जा सकता है। 7. 908/07९59९क4 का 6 रधायगा।क्य 0 (06 


प्रांगतप्रडाधषां 7,08042० लन्दन से 88 में और शैं. ४88०5 का ॥770000४07 
._ ६0 ४8७ प्रागाव0०#क्षा०९ क्वा8०४४०, 827 में (36 से प्रकाशित हुआ । ये व्या- 
करण अँगरेजी व्याकरणों की शैली के अनुरूप लिखे गए थे जिन में हिन्दी का स्वरूप 


यथार्थ से पूरी तरह मेल नहीं खाता था। इन्हीं दिनों प्रेमसागर के रचयिता लल्लू जी 
लाल ने 'कवायद-हिन्दी” नाम से एक छोटी-सी पुस्तक लिखी | लगभग 25 वर्ष बाद 
कलकत्ता के पादरी आदम साहब की लिखी व्याकरण की छोटी-सी पुस्तक कई वर्षों 


तक स्कलों में प्रचलित रही । प्रथम स्वतन्त्रता-आन्दोलन के कुछ दिलों बाद शिक्षा 


विभाग ने पं० रामजसन कीं “भाषा तत्त्व बोधिनी प्रकाशित की । ये सभी पस्तकें 
अंगरेजी/संस्कृत, हिन्दी की मिश्रित प्रणाली पर आधारित रहीं। १० श्रीलाल के 
आांषा चन्द्रोदय', बाबू नवीनचन्द्र राय के "नवीन चन्द्रोदय' (869 ई०), पं ० हरि- हु 


. गोपाल पाध्ये के भाषा तत्त्व दीपिका पर संस्कृत/मराठी/अँगरेजी का प्रभाव रहा 


राजा शिवप्रसाद के हिन्दी व्याकरण' (873 ई० ) में पहली बार हिन्दी, उदू के 


_ स्वरूप पर अंगरेजी ढंग से प्रकाश डाला गया । इन्हीं दिनों भारतेन्दु हरिश्चन्ध्र ने भी 


बच्चों के लिए हिन्दी का एक छोटा-सा व्याकरण लिखा क्‍ 
..._ पादरी एथरिंगटन का भाषा भास्कर प्रवर्ती व्याकरण-लेखकों के लिए कई 


.... दशाब्दियों तक अनुकरण का आधार बना रहा । 20वीं शती के आरम्भ में कई छोठे- . 


"439. 





440 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


बड़े हिन्दी-व्याकरण प्रकाश में आए, जसे---हिन्दी व्याकरण” (पं० केशवराम भट्ट) 
भाषा प्रभाकर (ठाकुर रामचरणसिह), हिन्दी व्याकरण” (पं० रामावतार शर्म), 
भाषा तत्त्व प्रकाश (पं० विश्वेश्वर दत्त शर्मा), 'प्रवेशिका हिन्दी व्याकरण (पं० 

. रामदहिन मिश्र), विभक्िति विचार (पं० गोविन्द नारायण मिश्र) । इन्हीं दिनों लंदन 
से 2. 68775 का 8 (एगाफुक्राबाए8 एाक्यात्राह। ण ०१०७7 ,08792868 0 
_. फतवा ए०, ।--शा (872-879), 5. प्र, ऋ०॥०88 का ७ ठएाध्यणादव ० 


ः चा6 मांगता ॥,शाइपए४8०, 30| 66, (955), उ, ९[.05 का (ठाव्याक्व ० 


- प6 म्ाव्रवंपशंध्मां 0 एव बया8०88०, 40 ्राएए ([904), 8, पठल्या6 
॥8 (एए0एफुक्राबाए6 ताकत 0 06 0व0वांधा ॥,धा2प22० (880) 
प्रकाशित हुआ । ४, 92॥7006 ने म्ागवं (४7००७] (4890 [.07607) में, 0. 0 
एग0ता ने ४०४85 00 (४96 #ाशाठ्वा धाव॑ ७076 06 शा00 965 |0 
पत्राएवप्रशथणं (85038 ५०. ॥५, 9६. 3, 976) में, 8. 076876७ ने सात 
.. . छक्षागराह', 270 6१, (&॥809020, 933) में, )४, ६ लाए४०॥ ने 76 8ज़ाब 
- बचत वक्॒रणा5$. ० म्राशवपशंशां (.07त00, 922) में, 7. 5. फक्याठए ते 
हिप्रता68 ग रण वाठीक्षा ॥क्राइ74808 (70607, 938) में और पे 
- 5९०00०09०४ ने (07086 (ाध्ापन्वा' ए ज्ाएवा 902792० (7.07060॥, 9 50) 
में हिन्दी भाषा के विभिन्‍न पहलुओं पर मौलिक चिन्तन का प्रयास किया | इस के बाद. 
. भी कुछ अँगरेज्‌ लेखकों ते हिन्दी भाषा-व्याकरण के विभिन्‍न पक्षों को गहराई तथा... 


. विस्तार के साथ देखने का प्रयास किया है । 


भारत में काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी ने अपनी स्थापना के साथ 

ही सं? 4950 वि० में ही हिन्दी के एक अच्छे सर्वागीण व्याकरण के क्षभाव का 

. अनुभव करते हुए एक वर्ष बाद ही एक स्वर्णपदक प्रदान करने की घोषणा कर दी _ 
थी। श्री गंगाप्रसाद, श्री रामकर्ण शर्मा-रचित व्याकरणों में सर्वांगीणता का अभाव ० 
पाने पर पं० कामताप्रसाद गुरु को सं० 974 वि० में एक सर्वांगीण हिन्दी व्या- 
करंण लिखने का भार सौंपा गया । सं० 977 वि० में पहली बार पुस्तकाकार रूप. 
में प्रकाशित “गुरु का हिन्दी व्याकरण परवर्ती हिन्दी व्याकरण लेखकों के लिए आज 
तक आधार स्तम्भ का कार्य कर रहा है । यह व्याकरण अँगरेजी तथा संस्कृत व्या- 
करण-प्रणाली का मिश्चित रूप होने पर भी विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से लगभग पूर्ण 
है । सभा के आग्रह पर १० किशोरीदास वाजपेयी ने “हिन्दी शब्दानुशासन' (वारा- _ 
 णसी, सं० 204 वि०) में हिन्दी की व्याकरण-प्रणाली के सम्पूर्ण, अखण्ड वर्णन का 


.._ नया प्रयास किया जिस में अष्टाध्यायी और महाभाष्य का अनुसरण करने की चेष्टा. 





.. तो की गई है किन्तु यह हिन्दी-व्याकरण को एकीकृत प्रणाली में प्रस्तुत नहीं कर 
. सका है। सा 


भारत को स्वतन्त्ता मिलने के दिनों से ही समकालीन हिन्दी भाषा की द 








४७७७॥४/७४७७७७४७छएकाए (सव-२+अकरलझाकन < ५ न टयतसना८ पट कर फनदाालपकाला5 





हिन्दी-व्याकरण परम्परा | 444 


विभिन्‍न संरचनागत- व्यवस्थाओं पर विभिन्‍न विश्वविद्यालयों की डॉक्टरेट उपाधि 


के लिए कई शोध प्रबन्ध लिखे गए हैं। स्व॒तन्त्र रूप से भी हिन्दी भाषा-व्याकरण के 


विभिन्‍न पहलुओं पर काफी कुछ प्रकाशित हुआ है जिस की संख्या सकड़ों में है । 
_ एकांगी तथा सर्वांगीण दृष्टि से लिखे गए उल्लेखनीय कुछ ग्रन्थों के नाम हैं--डॉ० 


धीरेन्द्र वर्मा हिन्दी भाषा का इतिहास (प्रयाग 958) डॉ० उदयनारायण तिवारी 
(हिन्दी भाषा का उद्गम और विकास' (प्रयाग, सं० 202), डॉ० भोलानाथ तिवारी 
हिन्दी भाषा का सरल व्याकरण' (दिल्ली 958 ) हिन्दी भाषा (इलाहाबाद, 
966) डॉ० मुरारीलाल उप्रति: हिन्दी में प्रत्यय विचार' (आगरा, 964), डा० 
सुधा कालरा “हिन्दी वाक्य-विन्यास' (इलाहाबाद, 97), दुनीचन्द 'हिन्दी व्याकरण 
(होशियारपुर, 95), ना० नागप्पा अभिनव हिन्दी व्याकरण” (दिल्ली, 97) 
डाँ० हरदेव बाहरी व्यावहारिक हिन्दी व्याकरण (इलाहाबाद), 'हिन्दी : उद्भव 
विकास और रूप' (इलाहाबाद), रामदेव “व्याकरण-प्रदीप (इलाहाबाद), रामचनद्र 


वर्मा मानक हिन्दी व्याकरण' (वाराणसी, 970), ओमप्रकाश शर्मा हिन्दी व्याकरण 
. नव मृल्यांकन' (दिल्ली, 977), डॉ० न० वी० राजग्रोपालन हिन्दी का भाषा वैज्ञा- 
_निक व्याकरण” (दू० संस्क० 979, आगरा), डॉ० वी० रा० जगस्ताथन्‌ 'प्रयोग 
और प्रयोग' (दिल्ली), डॉ० सूरजभानसिंह हिन्दी का वाक्यात्मक व्याकरण (दिल्ली) 


डॉ० ल० ना० शर्मा हिन्दी संरचना का अध्ययन-अध्यापन' (तृ० संस्क० 989 
आगरा)। 


रूस में 897 ई० से ही हिन्दी भाषा के विभिन्‍न पक्षों पर चिन्तन तथा लेखन 


.. का होता चला आ रहा है। डॉ० जाल्मत दीमशित्स ने हिन्दी व्याकरण' (रादुगा 
. प्रकाशन, मास्को 983) में रूसी लेखकों के कार्य की विस्तृत सूचना दी है । डॉ० 


दीमशित्स रचित हिन्दी व्याकरण की रूपरेखा का प्रकाशन 966 (राजकमल 
प्रकाशन, दिल्‍ली) में हुआ था।._ ऐ 


- आज भी हिन्दी-व्याकरण की छोटी-बड़ी बीसियों पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं 
जो किसी-न-किसी रूप में पूव॑वर्ती ग्रन्थों के आधार पर लिखी गई हैं । प्रस्तुत पुस्तक 
के लेखन में भी 4-5 ग्रन्थों को ही सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में आधार बनाया गया है। 
पंं० गुरु का व्याकरण 20वीं शती के अन्तिम दशक की हिन्दी की दृष्टि से पुराना 

पड़. गया है। पं० वाजपेयी ने व्याकरण की प्रंतिपादन-शैली व्याकरण-लेखन शैली से... 


 कदी-कटी लगती है ॥ डॉ० दीमशित्स के दीवकार व्याकरण की प्रस्तुति-शैली और 
. प्रतिपादय वस्तु-विश्लेषण में पर्याप्त जठिलता है। डॉ० जगनन्‍्नाथत्‌ ने व्याकरण के 
... कथ्य को कोश के रूप में प्रस्तुत किया है, अतः उस में क्रमिकता का अभाव होना... 
.. स्वाभाविक है। डॉ० राजगोपालन्‌ का व्याकरण रूपान्तरण व्याकरण की शेली पर 
हा हा रचित होने के कारण केवल. भाषाविज्ञान के शोध छांत्रों के लिए ही उपयोगी अहा 


० कट हा 











44.2 छः टी च्फ़ विव रणात्सक द्य करण 
|| हि 
हि ध 
हद 
के 
हर 
प 


और 
तो कथ्य 
में या हा 
ण हे प्रणाली 
के बा गरेजी' ४७५ 
े । सर 
हि की भाषाव अर कर : £ 
में प्रचलि है है कर बसत* । | < 
त्‌ ष । 
भी हि हक ही दा 2. दे 
कता है | का से यु (एक तल 
क्‍ कत गीद शक न्‍ाणा “ 
हि विश्ले रह शो 
:; का जानेवा 
पे य कर हा 
ज्‌ हे 
हि त 
कास बल 
गी 
णर्ल 


[«- 
रही है 














पारिभाषिक शब्दावली 
| _(हिन्दी-अंगरेजी) 
अकतृ वाच्य -. एणा-8०7४७ ४००७ 
अकमंक पएाध्रश्याईंपए९ 
अक्षर , ... 9ए]]9276 
अक्षर-विन्यास|अक्षरी .. 89०? 
अगणनीय ]२०॥-००प४7४7०७ 
अग्र स्वर छागा ए०ज़्ल | 
अधघोष . एणल्लठ8 
अंक ._ वणाशो 
अज्ञात व्युत्पत्तिक शब्द 006 ० एच्ताठ्जा डिए0029 
. अतिभाषा .. लकनभाइप्थडू०.... 
अधिकरण पु ._ [.00४7ए० 
अधिखंडीय हा 50978 $6एञालांबी 
 अननुमेय .. गणाए6१90970]6 
-अनिवायय कक 009॥88/07%9 
! अनिश्चयवाचक -.. पाठीणा6 
. अनुकरणात्मक [7400७ 
 - ढउअलुक्तम , “४... विल्यूपता:5 
रे . अनुतान हक के [आऑणानवाणा 
| अनुनासिक.... ३७७2 [९88थ267 
| क्‍ अनुनासिकता या ४४०७॥४४०00 
। अअवमेय : ० ० 0 3 यह है 702060997]6 
; अनेकार्थक|अनेकार्थी .... रिग्राणएफ 
है|  अन्तरण हम हक पृषक्मा्शश 
| #न्‍्तरराष्ट्रीय ध्वन्यात्मक वर्णमाला [. ए, 8. ([ल्ाबराए078 श०7०7० 
| बा :५9॥296) द “ द 
। “अच्तनिहित, +..... िशशा 


का ता 








444 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


 अन्तवंती 


अन्तस्थ|अधे स्वर 
अन्त्य 


अन्विति (/अन्वय|अनुवतंन) 


अपवाद. 
अपादान 
अपूर्णताबो धक 


“अप्राणिवाचक 


अभिधान 


अभिवभेयार्थ |वाच्यार्थ केन्द्रीय अर्थ 


अभिलक्षण 
अभिव्यक्ति 


अभिशासन' - 


अभ्यन्त... 
अभ्यन्तर विवृति 


_ अथे/आशय 
 अधे विराम 
अधे विवृत्त 


अधे संवृत 
अधे स्वर 


. अलिजिह वा 
. अलिजिह वीय 
अल्पप्राण... 


अल्पविराम 


अवरोहारोह . 


अवरोही 
अविकल्प : 


अविकारी ._ 

. अवेयक्तिक 8 
.. अवृत्तमुखी|अवर्तूलित . 
व्यय: -- 

असमर्थताबोधक ..... 
अस्तित्ववाचक वाक्य... 

 आगत शब्द... 


7478॥786885 


 5िशा। २०ए०] 


॥ 6"7779/] 


>तैडाश्थाशा | एगाढणत॥0० [00-09 


798707 


-+<ल्थ्ए0ा 


09798: क्‍ 
०07-९0/607ए९ 


“पजाएणब्वॉा2 


पिक्षा6/प0रंगवााए6... 
(207॥0779 प68॥7॥॥९2 
फछश्थापा०(एब्राबलंथाााए 
छए6४४0०णा 
(30एशशाधशा। 


ः रछश4 


साला 079०7 गंप्र7णप8 
४62॥7९2 | 


"जिद एणणा 


घरक्मा। 0790 
प्लत्ना! 205९0 
9607 ५४०ए/९] 
एफ्घा9 


. एश्ाधा' 


0छ॥-/907-989773(०० 
(0779 


ए७ाएाए-एाशाए 


7०॥॥7४९ क्‍ 
बतणा-5काफानलों  -:- 
॥74९2८॥[797]6 
॥77080747 
]२०7-70०7060 (/$97690) 


ग56लागब76 
. फाबगागाबधएठ आओ 
... ऊ्ंधणाधं॥|00एप्राब इ्यांला०6 
.. _+ ]0भा जरठात को 








आल न आल नम फल 


लक -2००+-- नत- नसशिकडर- 


; 
कि 

। प 

१ 

[] 

! 

! 

हि 


आक्षरिक 


आधात 


 आज्ञावाचक 


आदरसूचक 
आदेश... 
आरम्भक 
आरोहावरोह 
आरोही 
_आर्की 
आवृत्ति 
आवृत्तिवाची 5 
आवेग् 
आशय 
आसत्त्ति 
उच्च-निम्न 
उच्चार... 
 उच्चारण-अवयव. 
उच्चारण करण 
उच्चारण प्रयत्न 


उच्चारण बिन्दु (स्थान). 


'उच्चारणिक 
उत्क्षिप्त 


... उत्तमावस्था 


उत्तराधर क्रम 
उत्तरावस्था 
 उधार-शब्द 


. उद्देश्य 


उद्देश्य विशेषण झ् हे 
उद्धरण चिहन. 
उपयुक्त, : 


.._ उपवाक्य. 
उाग 8 
... उमंग... 


ऊनार्थक 


पारिभाषिक शब्दावली | 445 


9५०|800 
&0०श॥(६ 
ाएशधाएट 

घ्र0707070 

छाठका... 

ग्रा000९०१ 

7872-5798]02 

(808 |[ 8 ८भा।8 

शिशा 

ए7800670 पर ह 
ए7९तुप्रथालंध [१०००६४४४९ 
[ा0ताणा[णरश[॒ब्णीणा 
68४7४ शिए7096 
चगाशताबा० (ए०8४7शा&)-- 
सराछआा-00फ 

छ(07806 


-0एइक्ा5 णी 59०००१|४००४) ०हभा5 


पाडगण्शशा न 590००/हैएाएपबा।णा 
्वातपाक्ष छत दै॥604707. 
ए०ंए ० [77806 ०ए &0009200॥ 
हैजए्रॉ्वणपए 

799080 

809थ]५५९० 
झ्रांग्ाभदाए . 

(000स्‍9थ४(ए० 

[.0क्ा प्रणव 
507]००[विए 

8फ्]००४ए% 240]०९7४९ 


- करएलश[8660 (0745 


#फुए०्ृापक्ष० 


- टा2058 
जज लि 
_.. टगणयागा इनकम... 
.... फाधांगणाएह - 
- डांग्राशा 





! 
|! 
। 
| 
| 








एकक (इकाई) 
एकल 
' एकवचन 
ओठ/भोष्ठ 
. ओष्ठ्य 
औपचारिक 
कठोर तालु' 
कंठयः 
कंपन क्‍ 
करण (कारक) 
कर्ता 


कर्ता-कमं-नि'रपेक्ष क्‍ 


कतु रि प्रयोग 
कत्‌ वाच्य 

कर्म (कारक) 
कर्मेणि प्रयोग 


कमंवाचक 
कल्पित 
कहावत 
कार्य बोधक क्रिया 
.. कार्यशील 
काल 
 कालवाचक 
 कृदन्त 
कृदन्ती विशेषण 
. केन्द्रक 
कोटि . 
कोमल 


. कोमल तालु.... 


कोश 
 कोष्ठक 


. कौशल 


क्रम/श्ृंखला _ क्‍ 





446 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


एज 
]00-(:०शंफणाल [8776 


- शगश्परोर्श ग्रण्रा०ल' 


)॥0 


 वुबगवों 
-. >गागधवों द 
- 92768 7?948/6 


एलंत्ा(0पप8)] 


ए09578॥707 
. र5एप्राा०79] (४8८) क्‍ 
- 8एण०्न|रिाग्राभाए०|एठशआ 


[० (एगातांएगा&्द 59 हउप्रत]ध्ढ 0 
०7]6८ क्‍ 

-हैणाए० प$6|8प्0]९९०एए४ (0700709708 
&०गए० ५०0० कक 
00०० (070]९०ए० [30९प४४0२९ 
090छ]००एएब्ची.. (गारणवंद्याएल[एब३घंए6 
पघ्र३8 


. (09]००7५४४०) 


चशागश्ाक्षाए 
72707679 


ः 69 ० ७०00 


कायालांगान। 


पपा6[[शा58.. |. ५ 


- एछषाए0ण4। 


ए%70०96|4 8श४0५6 
एप बदाल्लाए8. 
(शाप9/! 


एड6०820ण५ | द 
- जन्गांकएनावश5िणी 
907" 9996 [५४ शप्रा। 
.. #5]0[७&बांए्णा 
7 -"डावइएँटश 
ह० >डती 
6 वा जे 





४2% 227 माउस 


जा 


(शब्द) क्रम 
क्रमबदधता 
क्रिया... 


क्रिया-आश्रित 


क्षमता[दक्षता 
क्षेत्र 


खंड 


खंडीय 
खंडेतर/|खंडयेतर (अधिखंडीय) 
खाँचा 

गणनीय 

गतिबोधक क्रिया 
गृहवर 

गुच्छ . 

गुणवाचक (विशेषक ) 
गुणबोधक 

गुप्त भाषा 

गोण 

ग्रसती 

ग्रसन्‍य _ 

घटक (संघटक/ संरचक ) 
घनत्वक 

घोष (नाद) 

चयन और शांखला 
चरम प्रत्यय 

चिहन 


. जपित  अ क्‍ 
_ जिह वा (/जीभ) 


जिह वा नोक 
जिहवा पश्च 
जिहवा फलक 
जिहवा मध्य... 
जिहवा मूल _ 

जीव 


पारिभाषिक शब्दावली | बदाे 


(माण93) 06 


 (७०॥6०-९४१06 


एल[8०0ा 

34-५6४४9७) 

(०॥7००४१०६ 

8207 

$०0शा[एिक्या 

9827767[8] 

90978-5९ए॥शा।ों 

8]0 

(/077/97]2 ु क्‍ 
ै०ाए8 १९०७४०७|र०-डंक्रांए० एफ 
(0०99 | 
(प्रशशः 
&[770प्र५९ 
(008॥08(ए९ 
(006 ]थाहए४१० 
जिप्र/शंतांधा'५ 
शाप 
एशाधाज्राए8)! 
(0गाशापंशा 
ाशाशं|ल' 
९०००० 

(एण०8 (886८४०ा) क्षा्त (शक्षा। 


द 59िप्रतीर 


89990: 
शपायाप्रा |... 
[०0४५6 


जुछ ण था एणाए7९ 


980९८ 07 (06 400806 


-छ]806 ० (6 4087० द 
कं -(700]6 ० ४6 [00806 द ॥ 
- 3०० ० 6 णाढ़ए०[?फछांडोण[5 
हक, ९ 07० । । 
40706 











ज्ञात व्युत्पत्तिक शब्द 
ज्ञान _ | 
ज्ञान विषयक 
तत्परताबोधक 

' तत्सम 

तथ्येतर क्रिया 
तनाव 

 तान 

तालव्य 

तालु 

तुमर्थे 

तुलना कोटि 
तृतीय (/अन्य) पुरुष 
दन्त दाँत 

द्न्त्य 

दन्त्येष्ठय 

दीर्घ 

दुहराने का दोष 
द्ढ़ क्‍ 
देशज़ शब्द 
दूविअर्थक 
दुविकर्मेक 
दुविकार्यात्मक 
द्वितीय (/मध्यम) पुरुष... 
दृष्योष्ठ्य 
दुव्यवाचक संज्ञा 


- चआअ्वातु 


| ध्वनि ] 
(भाषा) ध्वनि _ 
. धवनि (/स्वन) विज्ञान . 


... इबनिग्राम (|स्वनिभी 
ध्वनिग्राम (/स्वनिम) विज्ञास 


: छवबनिग्नामीय (/स्वनिमिक) 
. धवनि-व्यवस्था द 


448 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण _ 


ए०0/0 ० ॥7०जाए॥ ०५ए7०02५ जे 


(०7स्‍/५7॥[/६४096026 
श्क््ण्क्ाए2 


॥0॥7रशा ५५ 

काका! (0 (0|॥4]) 
8प्रंपाएए८ १४९४ 
'ुछणडंणा 

0706 

ए9849) 

28]86 

पगीिएधएठ 
(!0792४५० 668766 
पुफ्जाव एलइणा . द 


व०णए[००ए7 


छुशाधां 
[४090-00] 
[.णाड 


जुब्णठा69%फ7 


ए05. 


..च्वाएल शरण 


0॥720008 
छुपक) पडक्काडशप8ट.. 


- छुग०पर06 बलाणा 


960०१ एल$३0णा 
[00070॥78 
छाञनब्णांशा 
वालाओं रण 
एठण द 
50070... 


- एा०गा० हे 


एशातालाठ$ 
79॥07076 


_.. शिणाल्065 
.. क॒ाणादाएंठ | हि 
- छशागाला08 < शाए्रद्या० पक 








पशकलसपेक असर 3 ा८+पन८र८+>कापन मरम्मत“ परे जसुन 


उलमयापाललनथरतकमस+प ०. 


मा 








' .+नकाबर+सडसेलनअलरापविधनव पा दका३+ सहन पलम कक 


ध्वन्यात्मक (/स्वनिक) 


ध्वन्यात्मक मूल्य _ 
नकारात्मक 
नपं सकलिंग 
नाभिकीय 
नामधातु 
नामार्थक 
नासिका विवर 
नासिक्य 
निकटस्थ (/सन्निहित) घटक 
_निजवाचक सर्वनाम 
निम्न-उच्च . 
नियन्त्रण|नियमन 
निरन्तर|[सातत्य 
निर्थक 
निर्देशवाचक 
निर्मित । 
निश्चित संख्यावाचक 
निषेधवाची 
निक्षिप्त 
निपात 
पक्ष 
पंचमाक्षर 
पंडिताऊ शब्द 
पद... 
पदग्राम (/पदिम|[रूपिम[मर्षिम) 
पदबन्ध 
पदानवय 
 परकीय 
परम्परागत 
परसर्गे 
परिधीय 
परिधीय अथ 


परिनिष्ठित (/मान क) 
परिमाणबोधक 


29 


पारिभाषिक शब्दावली | 449 


ए॥0०॥९४0 
ए]00०0९ ए४]0७८ 


जर८ए४९९८ 


पल्तांला एशा0१०- 

च्चठध्था 

२०फ्रंग्रक 700 
पतठ्ााश।ं 

२७६४३) 08४५०॥० 

९६४७] 

[र॥०0%8९४ (०॥8प्शांं 
7२९॥७चए8९ शिणा०पा 
[.0फ्-पी झा) 

(:८0000॥78 


- (00#पग्रप०05 


]॥९७॥॥72685 

[00700॥ 809५७ 
(०४०१ [िक्षात०06 
एछेशी0|[6 ॥प्रालत्रं 
६४४५७ 
ए907०७॥096०708] 

4५706 

/8060 

४४4] 
फुश्तब्रापंर एणव 
ए/० (70 8 8७९06) 
॥0]07676 

7]7880 (|8ए7/8६79) 
एडाशंगतश.... है 
छा गाल । 7 कै 
प्रक्ञ०७॥0५ कै 3 
ए०श ?०४0070 2 
एटाएाशः'9/। 

(हाप्रानिगालंश प्रात 


डाव्ातंधातं 
0प्रशधाधारट 


ध् 





450 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 





परिसीमक हु वंशोधिाएए९ हर 
परोक्ष कथन... पावाब्श प्रध्यकांणा (/६०००) 
पर्यायवाची 9जग़ागाज़ाड$. 
पश्च स्वर. ; 880९ ५००] क्‍ 
पारिभाषिक शब्दावली .._ ज्लांएबी ए००४४प०ाए था 
 पाश्विक द [लावा द 
पुरुष... एशा507 
पुरुषवाचक | श्शाइगात। 
पुल्लिग ॥३8०पयाह. 
पुरक/पूर्णक द (०0फ्ज़ञा०्गगाए/शाहल 
पर्णताबोधक्कष ........ शाब्निए 
पृर्णताबोधक बन्धन हु (0779]00५८ [गा 
पृर्णविराम एच] 80709 
प्रकम्पी (/लुठित/लोड़ित). 7ा०१रगाल्त 
प्रकार (वृत्ति) . ॥99० (/४०००१) 
 प्रकाय..."हठ........्य+ मगिलांग 
प्रकार्यात्मक .... . फ्ाीका0] द 
प्रक्रि।य हे ए02688..... 
प्रतिक्रिया गा ]२९५०0०॥5८ 
प्रत्यक्ष कथन... ... क्‍2766 उक्रातभंज/55०९० 
प्रत्यय .... 905 
प्रत्यय तत्त्व 5, की 
प्रत्ययन|प्रत्यय योजन - हक्‍्ंवाणा 
प्रथम (/उत्तमं) पुरुष... छाश एलइणा 
, प्रधान (मुख्य) उपबाक्य....._ शाल॑एथे ए]ब056 
प्रयोग क्‍ ... ए४०/०७१४०|००7०० 7०९6 
: प्रशनरवाचक क्‍ .. [८7०४ ०7५९ । 
प्रशवाचक चिहून..... शह0 ण फाल्यठइन्कांणा 
प्रायोगिक ज  कफणाल्त न या 
प्रारम्भक शब्द . जाध०१0९०णफ [[शिलांग्राक्ष) एणव 
“ प्रेरक मी ....... वश एधा० हि | आल शस क7 0 
. प्रेरणा... इधंगवाए: 
. प्रेरणाथैक. | ||आझआ ए४१[एव्राइथाीए 
-प्रेश्ति' 7 ता: हा 5०० जाशशाहवाध्त 
प्लुतस्वर . ...फ.. ' [08० ([४फ्नगाड़) एल्छछ 








डा 





23 स्‍न्‍्यमाबकरममाशकरभप बसा; 


किजहडस 





" प्रमााकीछबे- पतले च्टा। 





फुसफुसाहट 
बद्धाक्षर .. 
बलाघात 
बहुवचन 
बोध वर्ग . 
बोलचाल 
बोली 
भविष्य . 
झभाववाच्य_ 
भावे प्रयोग 
भाषण 
भाषा 
भाषायी 
भाषाविज्ञान 
भाषा-समुदाय 


मध्य स्वर 


महाप्राण 
मात्रा 
मानक 


मानकेतर 
मानदण्ड 


मानवेतर 
मिश्र वाक्य 
मिश्र स्वर . 


. मुक्त परिवर्त 
मुक्ताक्षर 


मुखर 


मुख विवर 


मुहावरा 


मा. 
मूल: 
« मूल स्वर 


पारिभाषिक शब्दावली | 45] 


फल द न 


(058०6 $ए909]6 


57655 
?]ए४। 'रिघ्रा00' 
52756 27079 
(००वप्रं] 
86० 
फप्रप्रा6 
पाएश$इ0णार्दा (र८ए४०) 0 ७706 
[स्‍फएक्ष8०74।ं प५९|र९४६७] (एणाएणवधा९ 
89०००॥ [8969ध9 
[,879704286 
[7०] |० |0809826 
[80४05 
97०6० एण्राशाणाईं। [8092० 
शा0०75 
४006 ५०ए९) 
#डजाबाब्त.. 
[शाईइ॥[शिण8 
शजिवातंधातं 
पुरणा-84700970 (/800फ़ &:870&70) 
एा0 80९८ 
पुप्राप्राशक्या - 
| (0०0ए65 5५070706 
फाफ्राधणाड़.. 
कफछ6 पक्राधा।0०ा 


0० इज़ा8005. 
इगातणछ _ 
कऊुथ एब्शंफ 
[का 
एल्क्ाओं 
(८००02 


॥395८ 


- फकुणा-00पुंण्ल (|#7७)6 | एश्रगंगत) 


१००) 








मूलावस्था 
मौखिक स्वर 
युर्म _ 
. (श्रुतसम भिन्‍नार्थी) युग्म शब्द. . 
योजक क्रिया 
योजक चिह न 
योजन 
यौन 
र्जक 
राग[राग तत्त्व 
_राष्ट्रभाषा 
राष्ट्रीय भाषा 
रीतिवाचक (क्रि० वि०) 
रूप क्‍ 
रूप प्रक्रियात्मक द 
रूप प्रक्रियात्मक वाक्यात्मक 
रूपात्मक द 
रूपन्तर 
रूपान्तरण 
. रझूपावली 
लक्षणार्थ॑ 
लघुतम 
लाघव चिहन 
लिंग 
. लिपि 
 लूठित/लोडित _ 
. लेखन. द 
लोक व्युत्पत्ति 
लोकोक्ति 
लोप (संमाक्षर लोप) 
वक्‍ता 

. वचन, 

बे 
... वर्जित शब्द कट 
 वर्णनात्मक . 


452 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


?०धं४२७ 
(78 र०ण्ज़ल 
एव 
ए4707ए॥॥8 
(0०% 
लज्ञाशा 

0 १शॉगागात्राणा 
०) / 


-. कधधाशरालशि/छएञ6एकव०0 


70800 9 

िध7079 7.,80809 26 
[80826 0 8 'पिक्घाणा 
20ए९+ ० शाला 
#07स्‍|शिणफा 
077॥06प(04॥ 
80790080-8जश78९५०७॥। 
एठायाब | 
एणाब्रांणा|ए०मुण्डक्ाणा 
पफक्काईणापनांणा...... 
(707 [ंप४४४07 490॥6 
(70प्राए070709] (९४४॥॥९2 
ध।]9। 

हैफ्र्रशंबांगा प्रकार. 

- छशावंशः 

857] 

॥०॥०१।ए॥ ९0 

७१४४९ 

छठार ४/शा0029 
2०० 4:३० 
घर890089 

क्र्ध्गांप्णा 


.. साध 
छाल... 

हम 6 2: 0 

.. 9&5फाए 


पारिभाषिक शब्दावली | 453 

















वर्णणमाला.... .. हीए़ाकल 
वर्णविचार ... 0#0इ्फुए 
वर्ण-व्यवस्था हि (ज०ए0 ४एशथाा 
वर्तंती '.. 9ए९८ १8 
वर्तमान काल _ ....#ह.. शि68थआाई 'श्ाउ० 
_बतु लित[वृत्तमुखी . रि०णा0०१तप0-$फ्ाद्व6 . 
वत्से द द -.. #ज्या4 
व्यय. ह .. हैएपंँधा 
वाक्‌ूभाग[वाम्भाग .. ?४5-०0/ 5ए०6०। 
वाक्य... क्‍ . 27०१0 
वाक्य खंड. ह (978९ क्‍ 
'वाक्य-परिवर्ते न ...-.  पृपक्राएगियाक्षांक्षा ० $०7०70० 
वाक्य-विग्रह (/विश्लेषण) $७#008 6॥4/95 
ह वाक्यात्मक 39५/780708/ 
|... वाक्यांश . द . एक्ञा48९ 
| वाक्य-व्यवस्था (/रचना|विज्ञान) 585 
| वाक्य-साँचा | ५शाशाए8 एथ्ञॉशा 
। बागिन्द्रियाँ 07845 ० 59०6७ 
वाच्य...... ..._ (००० 
द वार्तालाप की एगारएशइबताणा 
कक... .ञविकल्‍प 0जाणा 
कद विकार बोधक ५... संपवाए 
विकारी रूप ७ ३)>९०ाए60 किया 
हब 'विकारी शब्द .. फब्याप्रक्कोह 
.. . विचारात्मक हु न (२९॥6०7ए6 द 
. वितरण... एाज्ञाफिपराणा[शि॥0०शला 
विधिवाचक है .._ हीयान्राए० 
। , विधेय...... .. कुल्वीदाल 
। विधेववाचक ....  एल्व॒॑०्गीएड द 
| विधेय विशिषण. +...... शब्व॑त्भाए6 60[००7४6 
े विन्यास . दप्र्माइलाशाई 
: विभाषा.. . हिल्ट्टांणा॥ं [979092०/[702/९6॑ 
। विराम चिह न -कैफाएपडा।07 प्रभार 
। विलोमार्थी (/विपरीतार्थंक), .. #शाणा॥प8 
। विवरण चिहन । (0णणा & ॥088॥ 





454 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


विवशता (बोधक) . 0.० फरपांडंणा 
विवृत द '.. 0फछा क्‍ 
विवृति ((संगम/संहिता) गप्रालणढ 
विशेषक । द | (९ए०थातिलि|&09709प70ए०|40[]फ्रात 
विशेषण 809]०००४७ 
विशेषण-आश्रित... #0-609]००ए०। 
विशेषण उपवाक्य..._ 39]००४९० 0]878९ 
विशेषता बोधक '.. थ०कलि[8क्‍ए०फँांद।ं 
विश्लेषण या परंड 
विस्तारक .... -... डझाथावला' 
-विस्मयवाचक . ऋष॑क्राधणर 
विस्मयादिबोधक (/उद्वेगात्मक) राथा]6९॥४०॥ 
विस्मयादिबोधक चिहन द फांशा [थ]००7०॥ 
वृत्ति (/प्रकार) की १४000 
वृत्तिसूचक ..../. /(००4] 
वेकल्पिक पा (07007. 
व्यक्तिवाचक संज्ञा ए-09०' िठणा 
व्यंजन ््ि -... (0750क्रा। | 
व्यवस्था (पद्धति) -.. ऊ#9शशंधया द 
व्यवहार ः ए&७-ण0िए0008 (8०09एां०प) 
ब्याकरणिक कोटि द (ाक्षाए४2ा००) (४०९०५ 
ग्ग्राप्ति हु 5एक्ा ([श0थ॥०६४) क्‍ 
व्यावहारिक (/अनुप्रयुक्त).... #39ए॥60 
व्यूत्पत्ति ... 597०0 87 
: व्युत्पत्त शब्द... .. >6ए60 ((007ए॥/6० ४0०70) 
.. शब्द पा ही (०३० क्‍ क्‍ 
. शब्दगत-आर्थी ._ [.6ठ00-86प्रक्चा।०७] 
शब्द भण्डार द - ,७्ा007[४०0०40फक्षाए 
द शब्द-भ्रान्ति _ हट 48]89709787/(:४28०॥7685 
शब्द-व्यवस्था । हिणाएणाए082५ 
_ शब्दंगत-वाक्यात्मक . [७०00-89 एप0ए4] 
शिथिल स्वर... [अं पए०फ़छ 
शुद्ध स्वर॒.. ........ (००7४॥०प४ 
बाली - कह गा हि " रे रह है हा >]0 / वी मल 


जा ति यश यण ज 5 आवक य ाएा 











स्हकनसुराइसय 


मम जा हम नी 


सडक 


वि 


ला. बककलामलदला-म-र 





श्रोता 


श्वास नली 


शवास वर्ग 


॒ संक्रमण 


संक्षिप्तता 
संख्याबोधक 


संगम ([संहिता/विवृति) 


संघर्षहीन सप्रवाह ध्वनि 
संघ्षी 


संज्ञा 


संज्ञा-आश्रित - 
संज्ञा उपवाक्य 
संयुक्त क्रिया 
संथुक्त वाक्य 


' संरचक 


संरचना (/गठन) 
संरचनात्मक (/गठनात्मक) 
संझूप (|सहरूप) 

संरूपण 

संवर्धक 

संवादात्मक 

संवृत स्वर 

संस्कारित शब्द 


संस्वन (/संध्वनि/|सहध्वनि) 


सकमंक 
सक्रिय कर्ता (/अभिकर्ता) 
ति-अर्थक (/सत्यर्थेक) 
_सन्ध्रि 


सम... 
समावेशी 
समास 
संमुच्चय 
मुचच्छबोधक 


_पारिभाषिक शब्दावली | 455 


घ्रल्याल[०तढ 


4790॥68भितराव 99७ 


छा०४7॥ 87079 
पुृफाआई07 
(:0009367655 


है पप्मादाई। 


उप्राटापा8 

4॥0प0 50प्रा0 
#+087५९ 

पिता... 
20-70 

'च०प्ाा (8086 
(०7790पफ070 ४८/७ 
(:0779०पा6 $00॥0706 
(णाशापशा क्‍ 
50प्रढणा8 
57प्रण॑पादा 


_-कणाठफ़ा 


29((277082 


. 0.१0॥(0५८ 


(00767/8४0०॥%8॥/ 
(0866 १४०छश 
- $278४ंट0860 ज़0 व 


-. #्रीकुणा6 


'पुफक8॥798 

जाए 5प्र/|ं5४|ठ8०7 
(070288ए8 ! 
3070] [87॥079[807॥0क90॥६- 


्यराए8  - | 
जुछछ द 


- वुप्रटापशा५० 


+ ए०एफठंपात॑ 
.._ 56(|००एप७ 
- -ह0क्रुंफाणाींणा 


संमूहवाचक (/समुदायवाची) संज्ञा (००००४४९ 7४०7७ 


रा 5 78 ४ 





454 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


विवशता (बोधक) . " (०0रफुण॑श्नंणा 
विवृत ' 0ऋुछा 
. विवृति (/संगम[संहिता) _ंग्राएण९ 
विशेषक द (प्रथा श|&0पर४०|०[फ्राठ। 
 विशेषण... .._60]७०९७ 
_ विशेषण-आश्रित 30-89] ००ए०] 
विशेषण उपचावय । . 009]०००ए० (85९ 
विशेषता बोधक | ... श०क्रीक[50१ए०फांक 
विष्लेषण .. श9फएछ8 
विस्तारक . फराथाव&' 
'विस्मयवाचक .. फलेगराधध०ण 
विस्मयादिबोधक (/उद्वेगात्मक) ग्रांथ]०ण०ीा० 
विस्मपादिबोधक चिहन.. शंहा णीवागाब्लीणा - 
वृत्ति (प्रकार)... (000 
वृत्तिसुचक ...... ]/०0०&] 
बेकल्पिक .... - ज्ञागावबों. 
व्यक्तिवाचक संज्ञा शि0फुथ परएणा 
व्यंजन आओ .. 5... (078गाश्या। ह 
व्यवस्था (/परदुधति) .. छइफछ्8्वथा 
व्यवहार क्‍ एथआणिपराक्वा06 (8&02एां०एा) 
ब्याकरणिक कोटि द (करारा) (॥०९ण 
व्य्राप्ति : .. $एक्षा (खिला) 
व्यावहारिक ((/अनुप्रयुक्त) .... 79760 
व्युत्पत्ति &80ए90000829 कम 
: व्युत्पन्त शब्द... द -. व>6र०्त ([एलाएथ०6त ज़ठ070) ग 
शब्द... फ . ज्04 द हा 
शब्दगत-आर्थी . व6्पंत्>-इल्याक्ा।०न। 
शब्द भण्डार - वा०गा[ए०0०९४०ए७५ 
शब्द-भ्रान्ति..... 999707987/(('४॥७॥6०डां5 
शब्द-व्यवस्था.......... ४(0%79॥70029 | 
 शब्दगत-वाक्यात्मक [७000-85 4छ0ए4। 
का .... शिथिल स्वर हक पुछांड एल | 
मय, शुद्ध स्वर व .. शक्परव्ज़ाधागाड़ 
गली 5 छा 











, 
| | 
| 


5 3 मल अल अजब 






पट 





श्रोता 


श्वास नली 


श्वास वर्ग 


संक्रमण 


संक्षिप्तता 
संख्याबोधक 


संगम ([संहिता/विवृति) 


संघर्षहीन सप्रवाह ध्वनि 
संघर्षी .. 
संज्ञा 


संज्ञा-आश्रित - 


संज्ञा उपवाक्‍्य 
संयुक्त क्रिया 
संयुक्त वाक्य 


' संरचक 


संरचना (/गठन) 
संरचनात्मक (/गठनात्मक) 
संखूप (/सहरूप) 

संख्पण 

संवर्धक 

संवादात्मक 

सृंवृत स्वर. 
संस्कारित शब्द 

संस्वन (/संध्वनि/सहृध्वनि) 
सकमंक 


- सक्रिय कर्ता (/अभिकर्ता) 


सति-अर्थक (/सत्यथेक) 
'झब्कि हक, 


समावेशी 
समास 
सेमुच्चय 
समुचच्यबोधक 


पारिभाषिक शब्दावली | 455 


पिध्थाथ। /80027 


ब78०॥6३/ज्ञातरत: 9796 द 


छिा587 87079 
प्‌१६78707॥ 
(0700932॥68$ 


-प्मा१८ कक. 


जाए्रणए॑प्रा'8 


द ॥त0परात 50700 


#7 04०८ 

०पा क्‍ 
40-7077[08) 

प०एा (]0058८ 
(०077007006 ४८४ 
(.07%0०706 8९7॥०॥08 
(०॥४ाएशाए द 
जिएप्रलंप्रा'2 

57प्रठप्रादा 


_&8070%7 


एदांगां 8892 


'. 5090॥0५6 


(0907७58079॥ 
(0826 ४००९८ 


-$थाशंद्त560 ज़रणत 


34]07॥0॥6 

'पु।&॥87796 

$00५6 5प्0]०७|2 807 

(070058४८ 

5470॥ [8फ॥079४०7फ॥#0फ076- 


708 7५ ० 2 ५ 
7-7 आई 
जाटापध५८ 


_ए०गफ्ठणात 
इ$6ण्णफुप 
एगांफाणीणा 


संमूहवाचक (/समुंदायवाची) संज्ञा "ण0००४ए४ २०फएा हा 











456 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 
सम्प्रदान . .. 0809० 
सम्बन्ध हा . सलभाणा ... 
सम्बन्ध कारक. | ._.00$85658ए6 (४5०/0५ा॥।९९ 
सम्बन्ध बोधक ... छब्कृठभागंणा 
सम्बोधन 8०2 0:007885ए6[५४००४(४९ | 
सम्मिलन मी आय पालपडंता 
सबंनाम' । द ए070प्रा हे 
सहायक क्रिया... . हफ्वाधिए एक... 
संकितिक कथन... .. छ्जीलाांधा 
साँचा रे एचाशाा 
साहश्यवाची । (0 प्४८ 
साधारण (/सामान्‍्य) वाक्य... शएए6 5शा।शा०० 
सानुनासिक .._४४०७॥860 
ओ क्‍ . सामाजिक सन्दर्भ, . $6ण०॑ंग एकता 
बट ... सावेनामिक पा एणाठ्ाएी 
आओ! द साहित्यिक -.. [वशाबाए 
सीमा -.. वणोनंएािांणा 
सुर (/लहजा) ् - शांत 
स्तर है हक 
स्‍त्रीलिंग छलांगं।ठ 
स्थानवाची [,0087ए९ 
स्थानापत्ति .. $प्रश्यापणा 
स्थिरताबोधक 840५९ द 
स्पर्श/स्फोट .... 50%![थिप०[एश॒क्ञझएल . 
स्पर्श-संघर्षी .. + ह&कच्िल्बा8 
स्वदेशी रा ० ०ए7 ०077५ 
स्वन (भाषा) एआणा८ 
स्वनिम .. -शामाल्ता८ 
स्वनिमविज्ञान शिागाल्यां० 
स्वनिभिक..... आशागलाांर 
स्वर .0/0/०-०- उ१०णणशछोी .. ' 
स्वस्गुण. ../".......||+ शिठ०व6 इिक्षणा०8 ० परठछ८। 
स्वरतन्त्री ०6०॥४ 60065 
स्वर यन्त्र. _.फ.. + १6०2 ए३भ्ा[भजश है 
. स्वस्यन्त्रमुबी....... (०० " मर 
.. स्वर-संयोग/स्वरानुक्रम._ _१०श०] $60ए९॥०९ 
'... स्व॒राघात दल । ... शाला 300०॥/7076 


6 हूरस्व.. .. . 5. शागा हर 











3| 


अर तथा अभ्यास 





हे विषय-प्रवेश---. रिक्त स्थान-पूत्ति कौजिए--(क) प्रत्येक व्यक्ति का समस्त 


जीवन '''''** ******** से अलग नहीं हों पाता । (ख) अव्यक्त भाषा*************« का्‌ 
विषय नहीं है । (ग) प्रत्येक भाषा के शब्दादि की ००००० व्यवस्था होती है। 
. (घ) भाषाओं की भिन्‍नता"/ न भेद के कारण है। (ड)-*«**“**-वपूर्व 
निश्चित किए हुए अर्थ का बोध करानेवाले संकेत होते हैं। (च) प्रतीक तथा****** 
का सम्बन्ध आरोपित होता है । (छ)"“*“का आविष्कार विचारों को स्थायी रूप 
देने के उददेश्य की पूति करता है.। (ज) कोई भी भाषा किसी भी *“**“लिपि में 
लिखी जा सकतीं है। (झ) उच्चरित और लिखित भाषा में सदेव साम्य नहीं... 
होता । (ज) भाषा का कथित रूप"“““से बनता है। 2. शुद्ध कथन पर ९/ तथा 


. अशुद्ृध कथन पर >< लगाइए--(क) कालक़म में भाषा व्याकरण की अनुगामिनी 
. होती है। (. ) (ख) व्याकरण पढ़ कर शुद्ध भाषा-व्यवहारकी दक्षता और क्षमता 
आ जाती है। ( ) (ग) विचारों की शुद्धता तकंशास्त से और प्रभावकारिता 
... साहित्यशास्त्र से प्राप्त की जा सकती हैं। ( ) (घ) वर्ण-ब्यवस्था का अध्ययन 
.  ध्वनि-व्यवस्था के साथ किया जा सकता है (_ ) (ड) भाषा के आरम्भ से ही 
_ व्याकरण का भी प्रयोग होने लगता है । (  _) 3. रिक्त स्थान-पूति कीजिए-- 
(क) ऋग्वेद काल में भी वैदिक संस्क्ृत*'“बोली जाती थीं। (ख) वैदिक काल में भाष। 
के““रूप प्रचलित थे । (ग) हिन्दी की प्रमुख*“““उपभाषाएँ हैं। (घ) हिन्दी के'“कालमें 
ही नपु सक लिग समाप्त हो गया था । (ड-) हिन्दी में क ख ग॒ ज्‌ फू का प्रवेश““में ही 
हो गया था। (च) भाषाओं के परिवतेंन में दो देशों की स्यतांओं या संस्क्ृतियों 
. के““का प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। (छ) अधिक विस्तृत क्षेत्र में बोली जानेवाली 
भाषा के अधिक ही“”““और प्रयोग-भेद मिलते हैं। (ज) हिन्दी शब्द ईरान के “की 


.. देन है।. (झ) व्यक्तिबोली का प्रभाव"“में मिलता है। (अब) हिन्दी का व्याकरण ३ 


.... देशी भाषा या. खड़ी बोली के*“'पर आधारित है। 4. शुद्ध कथन पर ५/ तथा... 


| बम  अशुदूध. कथन पर >< लगाइए--(क) हिन्दी, के साथ हिन्दुस्तानी, - उद्दू 





457 











. 458 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


शब्द विवादास्पद रूप से जोड़ दिए गए हैं। (_)। (ख) अरबी-फारसी-तुर्की की... 
ओर हिन्दी का अधिक झुकाव रहा है। ( . )। (ग) मूलतः हिन्दी, हिन्दुस्तानी... 
और उद्‌ एक ही भाषा के तीन शैली-भेद हैं। ( )। (घ) संसार की भाषाओं परे. 
.. हिन्दी तीसरे स्थान पर आती है। ( . )। (ड) हिन्दी ने भी बहिष्कार की नीति 
अपना रखी है। (  )। 
क्‍ ध्वनि तथा वर्ण-व्यवस्था--. रिक्त स्थान-पूति कौजिए--(क) दो पदार्थों 
के टकराने या रगड़ खाने से*“'पंदा होती है। (ख) भाषा-ध्वन्ति को व्याकरण में**कहा 
,. जाता है। (ग) वर्ण भाषा की ध्वनियों को लिखित रूप में व्यक्त करनेवाले''''*« 
. . हैं। (घ) सामान्यतः भाषाओं में ध्वनियों और वर्मों की संख्या में साम्य**“हुआ करता । 
(ड)) किसी भी भाषा की ध्वनियों की संख्या उस की परम्परागत लिपि के “की संख्या 
के आधार पर निश्चित नहीं की जा सकती । (च) बोलते समय ध्वनियों पर मात्रा, आधात|[ 
तथा आगे-पीछे आनेवाली ध्वनियों की विशेषताओं का““पड़ता है। (छ) अर्थ 
भेदक स्वन"“कहलाता है । (ज) स्वनिम एक"“'रूप है, उच्चरित नहीं । (झ) एक" 
के संस्वनन आपस में अव्यतिरेकी होते हैं । (अ) संस्वनों - को स्थानापन्‍्न कर देने पर 
“दोष आ जाता है। 2. रिक्त स्थान पूर्ति कीजिए---(क) ध्वनि-उच्चारण अवयवों 
की जानकारी““संबंधी भूलों के सुधार में सहायता करती है। (ख) ऊपर के जबड़े से... 
जुड़े अंग"“अवयव कहलाते हैं । (ग) फ्‌, व्‌ के उच्चारण के समय नीचे का ओठ ऊपर 
के दाँतों के'*“पहुँचता है । (घ) चर वर्ग की ध्वनियाँ““तालु से उच्चरित होती हैं ही 
(ड) उदासीन स्थिति में रहने पर अलिजिह वा*“'स्व॒रों के उच्चारण में सहायता करता । 


. है। (च) इ, ई, ए, ऐ के उच्चारण में जीभ का*“भाग सहयोग देता है। (छ) स्वर- 


यन्त्र में अत्यन्त महीन भौर कोमल दो "“ होती हैं । (ज) अघोष ध्वनियों के उच्चारण 
के समय न के बराबर““होता है । (झ) घोष ध्वनियों के उच्चारण.के समय स्वर- 


तन्त्रिका में *'कम्पन होता है। (ज) फुसफुधाहट युक्‍त ध्वनि को”“ध्वत्ति भी कहते क्‍ 


हैं । 3. दिए गए उत्तरों में से सही उत्तर बताइए--(क) 'श का उच्चारण-स्थान है-- _ 
तालु/मूर्धा|दन्त/दनन्‍्तालु (ख) “व” का उच्चारण-स्थान है--तालु/कंठ/मूर्धा|दनन्‍्तोष्ठ (ग) 
त' ध्वनि का उच्चारण स्थान है--मूर्धा/वालु/कंठ|दंतमूल । (घ) 'फ' का उच्चारण- 
स्थान है--कंठ/मूर्धा/ओष्ठ/तालु (डः) 'ड' का उच्चारण-स्थान है--दंतोष्ठ/ओष्ठ[तालु 
कठोर तालु 4. रिक्त स्थान-पूर्ति कोजिए--(क) हिन्दी में““दीघ॑ स्वर हैं। (ख) 
तालु से उच्चरित ध्वनियाँ"“कही जाती हैं। (ग) बोलते समय भावों के अनुसार"'का 


 उतार-चढ़ाव“““““कहलाता है। (घ) एक ध्वनि के उच्चारण के बाद दूसरी ध्वनि. 
के उच्चारण के मध्य के क्षण को”“““कहते हैं। (ड) एकल"“+“का उच्चारण 
. बिना “की सहायता के नहीं होता । 5. हाँ/नहीं में उत्तर दीजिए--(क) हिन्दी 


रे में ८' वर्ग की ध्वनियाँ मूर्धन्य हैं ( )। (ख) हिन्दी में उच्चरित स्वर तीन प्रकार. 


... केहोते हैं(  )। (ग) हल, हलन्त सभानार्थी शब्द हैं (_ )। (घ) अनुनासिक 
. ... ररों का उच्चारण मुख तथा नासिका से किया जाता )। (ड) 'ई' अल्पत्राण..._ 


प्रश्त तथा अभ्यास | 459 






| )। (च) सभी स्वर घोष होते हैं ( ._ )। (छ) “श' का उच्चारण-स्थान 
होकर तालुहै।( )। (ज) य र ल व को अन्तःस्थ व्यंजन कहते हैं ( )। 
हड्बणनम नासिक्य वर्ण हैं ( ) । (ट) सभी अल्पप्राण व्यंजनों के महा- 
पाप व्यंजन होते हैं ( ) । 0. इन सें उचित स्थान पर /* लेगाइए--कचन, दड 
बदन, आधी, गाधी, आंख, उगली, ऊट, हसना, बदर, बदरिया, रग, रगरेजु, हसिया 
क्मता, ढठाचा, चगा, सगली । 7. इन शब्दों को वतंनी शुद्ध कीजिए--प्रत्तिछाया, 
| ज्ञास्य, उज्ज्वल, कवियित्री, जाग्रत, जोत्सना अतिश्योकिति, प्रशस्त, निरफ्राधी 
ए्यनीय परीक्षा, त्यार, प्रसंशा, उज्जवल, श्रंगार, आ शिवाद, विसेषता, दशम्‌, महत्व 
| प्रतियी, गरिष्ट, अगामी, पुरुषारथ, मुंत्यू, अनुग्रहीत, आकाछा, प्रदर्शिनी, चर्मोत्कर्ष, 
उल्मकृत्य, ईर्षा, णहीता, पृष्ट, पिचास, चिन्ह । 8. रिक्त स्थान-पूति कोजिए---(क) 
| किसी स्व॒रके उच्चारण में सामान्य से अधिकसमय लगे तो उस के लिए““मात्रा-चिह न 
| का प्रयोग किया जाता है । (ख) हिन्दी शब्दों में महाप्राण ध्वनियों की दुविरुक्ति'***"“* 
| होती । (ग) 'य से युक्त महाप्राण ध्वनि के पूर्व उच्चारण में'***““ध्वति आ जाती 
| है, किन्तु उसे" नहीं जाता। (घ) 'य, र, ल, व' से युक्त अन्य किसी अल्पप्राण 
घति के पूर्व उच्चारण में“ ध्वनि आ जांती है, किन्तु उसे ““ ““ नहीं जाता 
_ह 'ण, ष, क्ष, ऋ' वर्णों का प्रयोग केवल"”““'से आगत शब्दों में ही होता है । 
| [थ) संस्कृत के 'श' युक्त शब्द तद्भव होने पर “ युक्त हो जाते हैं । (छ) संस्कृत “ 
.| बब्दों में हिन्दी के का प्रयोग नहीं होता । (ज) 'क खुग ज्‌ फ्‌ में से (“० 
| क्षा प्रयोग अरबी-फा रसी तथा अँगरेजी से आगत शब्दों में होता है । (झ) दृवन्दूव॑ 
| प्मास में स्पष्टता हेतु प्रायः" चिह न लगाया जाता है। (अ) ध्वनि-उच्चारण के 
2 प्रमय किया गया प्रयास. “कहलाता है। 9. जिन शब्दों में व-ब; श-ष-स; ट-ठ 
| की अशुदृधि हो, उन्हें शुद्ध. कीजिए--ववंडर, बिबश, प्रतिविम्ब, विन्दु, दवाव, 
| जबाब, कबाब, घनिष्ठ, गरिष्ट, अनिष्ठ, पृश्ट, शाशन, आदफषे, प्रसासनिक, आमिश, 
| हितैषी, सृष्ठि, श्लिष्ठ, श्रेष्ट, षएठी, संतुष्ठ, कनिष्ट, निस्टा, प्रसंशा, कुशाशन- 
| कनिष्ठ, चरमोत्कषं, प्रशाद, नमश्कार। 0. इन ध्वनियों को सिला कर शब्द 
| बनाइए--क्‌--अ--म्‌--अ-लू्‌ ++आ; व+इ+द+यू+आ-र+थ्‌+ई; व 
| +इ--दर-य--उ--त --अ; प्‌ू+र्‌-+अ+वत्‌+ई+क्‌+षप्‌+भा; सू+भकतव्‌ 
| अऑय+अबक+भून-आ+एप्‌ु+ई; वृकअकच्‌ऊक॑अकपुकबकनतुकब; कुकलू क 
ए+शू+ब; दू+म-+कु+एु+अं+तुक+आा; यू+॑ब+जु+ब कब; बुकअ 
+कब+धघ+अ+प्‌+र+अक+बु+इकषुक॑ठर्नभ । 4. उपयुक्त शब्द का 
| चयन कर वाक्य-रचना कीक्षिए---(क) 'श' के उच्चारण में जिह वा (तालु/मूर्धा/वत्सं/ 
. कृंठ) की ओर. जाती. है। (ख) “व” का उच्चारण-स्थान (कंठोष्ठं|दन्तोष्ठ/दब्यो- - 
 ठ/ओष्ठ) है। (ग) (मुह/जीभ/तालु/ताक) के विभिन्‍न. भागों से सभी ध्वनियों 
का उच्चारण किया जा सकता है। (घ) लेखन में अनुस्वार को (चद्धबिन्दु/अधे चन्द्र| 
बिन्दु|शुन्य) से प्रकट किया जाता है। (ड) “रंगरेज' शब्द में (छह/सात/चार/पाँच)... 











७७७७-७४ 20 2 ॥ सलरलिकररे कराता मल कनातदलकततस्‍ाकायइत_म्पा अत व 














458 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


शब्द विवादास्पद रूप से जोड़ दिए गए हैं। (_)। (ख) अरबी-फारसी-तुर्की की 
ओर हिन्दी का अधिक झुकाव रहा हैं। ( . )॥ (ग) मूलतः हिन्दी, हिन्दुस्तानी 
और उदृू एक ही भाषा के तीन शेली-भेद हैं। ( _)। (घ) संसार की भाषाओं पे... 
हिन्दी तीसरे स्थान पर आती है। ( _ ) | (७) हिन्दी ने भी बहिष्कार की नीति. 
अपना रखी है। ( )। ह द 
द घ्वनि तथा वर्ण-व्यवश्था---4. रिक्‍त स्थास-पूर्ति कीजिए---(क) दो पदार्थों 
के टकराने या रगड़ खाने से*पंदा होती है। (ख) भाषा-ध्वन्ति को व्याकरणमें “कहा 
जाता है। (ग) वर्ण भाषा की ध्वनियों को लिखित रूप में व्यक्त करनेवाले''''*« 
_- हैं ॥ (घ) सामान्यतः: भाषाओं में ध्वनियों और वर्गों की संख्या में साम्य “हुआ करता। 
(डः) किसी भी भाषा की ध्वन्तियों की संख्या उस की परम्परागत लिपि के*“की संख्या 
के आधार पर निश्चित नहीं की जा सकती । (च) बोलते समय ध्वनियों पर मात्रा, आधात| 
तथा आगे-पीछे आनेवाली ध्वनियों की विशेषताओं का““पड़ता है। (छ) अथे 
भेदक स्वन"''कहलाता है । (ज) स्वनिम' एक"“रूप है, उच्चरित नहीं । (झ) एक“ 
के संस्वन आपस में अव्यतिरेकी होते हैं । (बज) संस्वनों - को स्थानापन्न कर देने पर 

“दोष आ जाता है। 2. रिक्त स्थान पूर्ति कीजिए---(क) ध्वनि-उच्चारण अवयवों 
की जानकारी““संबंधी भूलों के सुधार में सहायता करती है। (ख) ऊपर के जबड़े से . 
जुड़े अंग "““अवयब कहलाते हैं। (ग) फं, व्‌ के उच्चारण के समय नीचे का ओठ ऊपर 


के दाँतों के'*“पहुँचता है । (घ) च वर्ग की 'ध्वनियाँ““तालु से उच्चरित होती हैं। 

(ड) उदासीन स्थिति में रहने पर अलिजिंह वा"“'स्वरों के उच्चारण में सहायता करता... 
है । (च) इ, ई, ए, ऐ के उच्चारण में जीभ का““भाग सहयोग देता है। (छ) स्वर- ० 
: यन्त्र में अत्यन्त महीत और कोमल' दो'*"होती हैं। (ज) अधघोष ध्वनियों के उच्चारण 


के समय न के बराबर““होता है । (झ) घोष ध्वनियों के उच्चारण-के समय स्वर- 
तब्त्रिका में *“कम्पन होता है। (ज) फुसफुसाहट युक्त ध्वनि कों"“ध्वत्ति भी कहते 
हैं। 3. दिए गए उत्तरों में से सही उत्तर बताद्ए--(क) 'श का उच्चा रण-स्थान है-- 


तालु/मूर्धा|दन्त/दन्तालु (ख) “व” का उच्चारण-स्थान है--तालु|कंठ|मूर्धा/दन्तोष्ठ (ग) 


'त! ध्वनि का उच्चारण स्थान है--मूर्धा/तालु/कंठ/|दंतमूल । (घ) 'फ' का उच्चारण- 


स्थान है--कंठ|मूर्धा/ओष्ठ |तालु (ड) 'ड' का उच्चारण-स्थान है--दंतोष्ठ/ओष्ठ/तालु 
कठोर तालु 4. रिक्त स्थान-पूति कीजिए--(क) हिन्दी में““दीघ॑ स्वर हैं। (ख) 
तालु से उच्चरित ध्वनिया*““कही जाती हैं। (ग) बोलते समय भावों के अनुसार"“"'का 


उतार-चढ़ाव“““““कहलाता है | (घ) एक ध्वनि के उच्चारण के बाद दूसरी ध्वनि... 
के उच्चारण के मध्य के क्षण को"*““कहते हैं। (छ) एकल'““"“का उच्चारण 


. बिना'“““की सहायता के नहीं होता । 5. हाँ/नहीं में उत्तर दोजिए--- (क) हिन्दी के 


... में ट'बर्ग की ध्वनियाँ मृधन्य हैं ( )। (ख) हिन्दी में उच्चरित स्वर तीन प्रकार रा 


| होते ्‌ ( द ) | (ग) हल, हलन्त सभातार्थी शब्द हैं ( ) | (घ) अनुनासिक 2 ५ " 
._:. रवरों का उच्चारण मुख तथा नासिका से किया जाता है (. )। (७) “ई” बल्पप्राण..._ 









प्रश्न तथा अभ्यास | 459. 





| )। (च) पी स्वर घोष होते हैं ) । (छ) “श' का उच्चारण-स्थान 
कर ताल है। ( )। (ज) य र ल व को अन्तःस्थ व्यंजन कहते हैं (| )। 


| ॥| हब प ने मं नासिक्य वर्ण हैं ( ह ) । (ट) सभी अल्पप्राण व्यंजनों के महा- 

| बज होते हैं ( )। 0. इन सें उचित स्थान पर '|* लगाइए--कचन, दड 
बता, बाधी, गांधी, आंख, उगली, ऊट, हसना, बदर, बदरिया, रग, रगरेज, हसिया 
कता, ठाचा, चगा, मंगली । 7. इन श ब्वों को बर्तनों शुद्ध कीजिए--प्रत्तिछाया, 
बाल, उजुज्बल, कवियित्री, जाग्रत, जोत्सना अतिश्योक्तित, प्रशन्‍्न, निरफ्राधी 
। एहतीय प्रीक्षा, व्यार, प्रसंशा, उज्जवल, श्रंगार, आशिवाद, विसेषता, दशम्‌, महत्व 
जतिपी, गरिष्ट, अगामी, पुरुषा रथ, मंत्यू, अनुग्रहीत, आकाछा, प्रदर्शिनी, चर्मोत्कर्ष, 


तय, ईर्षो, गहीता, पृष्ठ, पिचास, चिन्ह । 5. रिक्त स्थान-पूति कीजिए--(क) 


| किसी स्वरके उच्चारण में सामान्य से अधिक समय लगे तो उस के लिए**“* मात्रा-चिह न 
| आञप्रयोगकिया जाता है । (ख) हिन्दी शब्दों में महाप्राण ध्वनियों की दुविरुक्ति'*" 
देती । (ग) 'य' से युक्त महांप्राण ध्वनि के पूर्व उच्चारण में'**"“ध्वनि आ जाती 
| है, किलु उत्ते““““नहीं जाता । (घ) य, र, ल, व' से युक्त अन्य किसी अल्पप्राण _ 
| ध्वति के पूवं उच्चारण में ध्वनि भा जाती है, किन्तु उसे “ “*- नहीं जात। 
| ६) 'ण, ष, क्ष, ऋ वर्णों का प्रयोग केवल"“““से आागत शब्दों में ही होता है । 


[व संस्कृत के 'श' युक्त शब्द तदभव होने पर “““** युक्त हो जाते हैं । (छ) संस्कृत 


श़द्दों में हिन्दी के का प्रयोग नहीं होता । (ज) 'क खग॒ ज॒ फ्‌ में से ““** 
ह॥ क्वा प्रयोग अरबी-फा रसी तथा अँगरेजी से आगत शब्दों में होता है । (झ) दुवन्दुव 


| प्मास में स्पष्टता हेतु प्राय चिह न लगाया जाता है | (ज) ध्वनि-उच्चारण के 






| त्मय किया गया प्रयास. “कहलाता है | 2. जिन शब्दों सें व-ब; श-ष-स; ट-ठ 
| ही अशुदृधि हो, उन्हें शुदृध कीजिए---ववंडर, विबश, प्रतिविम्ब, विन्दु, दवाव, 
| तबाब, कबाब, घनिष्ठ, गरिष्ट, अनिष्ठ, पृष्टट, शाशन, आदर्ष, प्रसासनिक, आमिश, 
 हितैषी, सृष्ठि, श्लिष्ठ, श्रेष्ठ, षश्ठी, संतुष्ठ, कनिष्ट, निस्टा, प्रसंशा, कुशाशन- 
| कनिष्ठ, चरमोत्कर्ष, प्रशाद, नमशकार | 0. इन ध्वनियों को मिला कर शब्द 
बनाइए--क्‌--अ-+म +अ कल +भा; व्‌ इ+द-+य--आ--र--थ्‌--ई; व 


+इ--दू--यू+उ--त्‌ ++अ; प्‌+रुर्ज+दु+ई-+क्‌+प्‌+भा; सू+अ+प 
+ब--अ--भू-आ+प्‌+ई; वृकअक॑च्‌कबअक#पुकबकव्‌्ब; कू+ल्‌ + 


ए+श-|-ब; द-+अ+क्‌+पुनअर्नतुर्नजा; यू+ब+ज्‌ु+ब कब) लू 


+ब्‌-ध्‌ू--अ--प्‌ू--र+अ+वुनई#+ष्‌ऊठ्न-+भ । ]. उपयुक्त शब्द का 


चयन कर वाक्ये-रचना कीजिए---(क) 'श' के उच्चारण में जिह वा (तालु/मूर्धा/वत्स| 


कंठ) की ओर जाती. है। (ख) “व्‌ का उच्चारण-स्थाव (कंठोष्ठदन्तोष्ठ/दृव्यो- ई 
ध5/ओष्ठ) है। (ग) (मुह/जीभ/तालु/ताक) के विभिन्‍न भागों -से सन्नी ध्वनियों 


| का उच्चारण किया जा सकता है । (घ) लेखन में अनुस्वार को (चन्द्रबिन्‍्दु/अर्धे चन्द्र 
रा | बिन्दु|शूल्य) से प्रकट किया जाता है। (ड) “रंगरेज' शब्द में (छह/सात/चार/पाँच) 











460 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


ध्वनियाँ हैं। (च) (बद्धाक्षर/मुक्‍्ताक्षर/संयुक्ताक्षर/अक्षर) की अन्तिम ध्वन्ति व्यंजन 
होती है । (छ) शब्दों के (आदि/मध्य/अन्त) में संगम हो सकता है। (ज) उच्चारण 
में सामान्य से अधिक समय लेनेवाले व्यंजन को (संयुक्त/द्वित्व|पुनरुक्त/दीर्घ) व्यंजन 
कहते हैं । (झ) 'क वर्ग) का उच्चारण-स्थान (वर्त्स/मूर्धा/कोमल तालु/कठोर तालु) 
है | (ज) हिन्दी में ऋ” (स्वर/स्वर वर्ण/व्यंजन/व्यंजन वर्ण) का प्रयोग होता है । 
2. माली ने हरीश के बारे में प्रधानाचार्य से फूल तोड़ने के बारे में शिकायत की | 
प्रधानाचार्य के कमरे में हरीश ने माली की ओर देखते हुए कहा--मैं ने फूल तोड़े हैं? 
प्रधानाचार्य ते माली को यह कह कर भगा दिया कि हरीश ने फूल नहीं तोड़े हैं किसी 
भौर लड़के ने तोड़े होंगे । हरीश ने अपने वाक्य को जिस ढंग से कहा उसे उच्चारण 
की हृष्टि से कहा जाएगा--विधृति/अनुतान/वलाघात|सुराधात । 3. रिक्त स्थान 
पति कीजिए--(क) यंजन वर्ण है । (ख) व्यंजन वर्ण के साथ स्वर अपने ***«««« 
चिह न के साथ आता है । (ग) मानव-मसुख से उच्चरित ध्वनि-प्रतीकों को" **« कहते 
हैं। (घ) के कारण मानव की व्यक्त वाणी दृश्यमांन्‌ तथा चिरस्थायी बन सकी 
है । (3)“““ दो प्रकार से 'लिखे जाते हैं--खड़ी पाई के साथ; बिना खड़ी पाई. 
. के। (च) समान व्यंजन वर्णों का संयोग "******* कहलाता है । (छ) पंचमाक्षर के लिए 
प्रत्येक स्थल पर“ “““का प्रयोग उचित नहीं है । (ज) दवन्द्व समास के पदों के . 
मध्य" चिहन लगाया जाता है। (झ) 'ऋू, ष, ण, क्ष, ज्ञ' वर्णों का प्रयोग केवल _ 
से आगत शब्दों में किया जाता है। (ज) देवनागरी केवल हिन्दी की ही नहीं, 
वरन्‌ कई भारतीय"““““की लिपि है। !4. इन में शुदृध शब्द बताइए--(क) 
अजोध्या/अयोध्या/अयोध्य| अयोद्ध्या (ख) बिमार/|बीमर/बीमार/बीमार्‌ (ग) बाल्मीकि| 
_ वाल्मीकी/|बालमीकि|वालमीकी (घ) अत्याधिक/अत्यधिक/|आत्यधिक|अतिधिक (ड) 
अवन्नति/अवनति/अवनती/अवनिति (च) अत्योक्ति/अत्युक्ति/अत्योक्ती/|भत्युक्ती (छ) 
अनुकुल/अनुकुल|अनुकुल/भनुकुला (ज) अहल्या/अहल्य|अहिल्य|अहिल्या (झ) उज्बल| 
उज्जवल/उज्ज्वल/उजज्वल (ज) कालिदास|कालीदास/कलिदास/कालीदासा (5) छमा। 
क्षमा(क्षामा[क्छमा (5) अनिष्ठ/अनिष्ट|अनीष्ट|अनिश्ट (ड) उपलक्ष|उपालक्ष/उपलक्षय| 
उपलक्षा (ढ) महत्व/महत्त्व/महात्व/महत्तव (ण) ईर्षा/ईर्ष्या/शर्षा/ईर्शा (व) चिन्ह| 
चिह न/चीह न|चीन्ह (थ) तलाव/तालाव/|तालाब|तलाब (द) प्रनाम|प्रणाम/प्रणम|प्रणाम्‌ _ 
. (धर) नुप्र/नुपुर/नूपूर/नुपुर (न) वाहिनी/वाहिनि/वाहनी/वहिनी (प) स्मरण/स्म॒णे/इस्म- _ 
रण/अस्मरण (फ) मेथिली/मिथिली/मैथली/मैथलिः (ब) कवयित्री/कवियित्नी/कवीयती| 
कवयित्रि (भ) बाहुलयता/बहुलता/बहुल्य/बाहुल्पत (म) आविस्कार/आंविश्कार|आवि- _ 
व्कार|अविष्कार । 5. आवश्यकतानुसार उपयुक्त स्थल पर हल चिह॒न () लगा- 
ए--भाग्यवान, भगवान, वाडम्मय, प्रत्युत, पृथक, पंचम, किचित, तडित, दशम, 
हुठात, षष्ठ, श्रीमान, वणिक, बुद्धिमान, एकादश, विधिवत श्रीमन, श्रीयुत, एवम, .. 


.._ प्रम, वाक, षट, संहार । 6. इस वार्तालाप में आवश्यक स्थलों पर “ ”-?, [।- 





चिहू न लगाइए--एक दित मेम डॉक्टर कमला से रूखे से स्वर में पूछ बेठी तू कहाँ 








प्रश्व तथा अभ्यास | 46. 


बाएगी जाती क्यों नहीं दूध और केलों पर कहाँ तक पड़ी रहेगी कहाँ जाऊँ मैं क्‍्यते 
_ बानें कहाँ जाएगी मेरा तो इस दुनिया में कोई अपना नहीं है तो इस के लिए क्‍्य 
मैं जिम्मेदार हूँ अस्पताल कोई यतीमखाना या आश्रम तो नहीं है अगर तू खुद यहाँ 
बेन निकलेगी तो मैं आज शाम को तुझे धक्के दे कर निकलवा दूंगी। 7. रिक्त 
 ह्यान-पुर्ति कीजिए--(क) हिन्दी में" मूल स्वर तथा” ““संयुक्त स्वर हैं। (ख) 
| जिह॒वां की सक्रियता के आधार पर स्वर'”““ प्रकार के होते हैं। (ग) निम्त-उच्च 

॥। ख़रों को स्वर भी कहते हैं। (घ) संवृत स्वर"““*“ स्वर कहला 

| हैं। (४) “” स्वर अवृत्तमुखी होते हैं । (च) हिन्दी के सभी मूल स्वर मौखिक 
“““होते हैं । (छ) घुलतः स्वर"*” होते हैं किन्तु उन का"“'“उच्चारण भी 
. धम्भव है। (ज) कुछ स्वर शिथिल तथा कुछ“ होते हैं। (झ) 'प्रयत्न की हृष्टि 


मे खग ४ “ध्वनियाँ हैं। (ज) हिन्दी के 'खाइए' शब्द में'****“**“स्वरों का क्‍ 
अनुक्रम है ।: (2) हिन्दी में अनुनासिकता की तीन स्थितियाँ हैं “““स्वनिमिक 
तथा “ ““। (5) अक्षर-रचना में शीर्ष पर “ ““रहता है और गह वर में'*“** 


(ड) सुव्यवस्थित' शब्द में'““*““अक्षर हैं। (ढ) हिन्दी में उच्चरित व्यंजनों को 
“““वर्गों में रखा जा सकता है। (ण) हिन्दी में 'ट ठ ड ढ' उच्चारण स्थान की” 
दृष्टि सेट“ ““हैं । (त) प्रयत्न की दृष्टि से 'च छ ज झा” हैं। (थ) व्यंजन- 
गुच्छों में महाप्राण ध्वनियाँ अल्पप्राण ध्वनियों"""*“* आती हैं। (द) हिन्दी में 
33-“*““व्यंजन हैं तथा 5““““व्यंजन । (ध) अक्षरान्त में हा का उच्चा- 

““““होता है। (लत) 'य व! स्वनिमिक तथा““““स्तर की ध्वनियाँ हैं। (प) 
अनुस्वार स्वर का अनुसरण करनेवाली““““ध्वनि है। (फ) हिन्दी में लिखित “'ष 
का वाचन'"**** है । (ब) हिन्दी में *““स्तरों पर बलाघात प्राप्त है। (भ) 
हिन्दी में विव॒ति के'“““भेद किए जा सकते हैं। (म) हिन्दी में सामान्यतः” 
प्रकार के अनुतान-संचे प्राप्त हैं। 3 

रूप तथा शब्द-व्यवस्था-- !. इन वाक्यों में प्रयुक्त जातिवाचक, व्यक्तिवाचक 

तथा भाववाचक संज्ञा शब्द बताइए--(क) निर्धन की निर्धनता पर कुछ तो दया 
करो | (ख) कृष्ण-सुदामा की मित्रता आज भी अनुकरणीय है। (ग) पानीपत में... 
एक लड़ाई नहीं कई लड़ाइयाँ लड़ी गईं । (घ) उस छोटीं बच्ची की मुसकान कितनी _ 
वध्यारी लगती है | (ढ) सिंह की आँखों की भयंकरता शरनने:-शर्न:: समाप्त होने लगी 
थी। 2. इन शब्दों के भाववाचक रूप से रिक्त स्थान-पूतति कीजिए--चुन, लड़, लिख, 
निर्धत, मिला (क) आजकल किस वस्तु में नहीं पाई जाती ! (ख) अन्तिम 


समय तक“ ने शास्त्री जी का साथ नहीं छोड़ा | (ग) कभी मेरी” “तुम्हारी 
“““>से कई गुना अच्छी थी। (घ) दोनों पड़ोसिनों में पिछले दो दिनों से” हो 


रही है। (ड उन्हें "में भारी विजय मिली। 3. भाववाचक संज्ञा-निर्माण की. 


.._हृष्ठि से शुद्ध-अशुद्ध शब्द-युग्म बताइए--(क) एक-एकता (ख) कमा-कमाई (ग) 28 


क्‍ ० _ घटना-घटाना (घ) नीचे-निचाई (डः) पंडित-पाडित्य (च) बड़ा-बड़ापन (8) सुन्दर- हः 


की 











462 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


सौन्दयेता (ज) हराना-हराई (शझ) दूर-दूरी (बज) निकेट-नैकट्य 4. इन शब्दों क्षे 
तत्सम, तदूभव, देशी, विदेशी शब्दों की सूची में रखिए---गमला, पेड़, लड़का, खिड़की 
तण, कार्य, रात, क्षेत्र, लीची, ईंजन, रिक्शा, अढ़ाई, मशीन, चुगलखोर, कटोरा 
कमीना, तकिया, अनन्नास । 5. इन शब्दों को रूढ़, यौगिक तथा योगरूढ की सूची 
में रखए-- शक्तिशाली, धमंशाला, पंकज, दशानन, नीलकंठ, जल, शेर, देवदूत, कल, 
लड़का, चाबी, मल्‍्लाह, छिपकली, आसमान, किशमिश, बेरहम, जलद, चक्रधर 


. आतिशबाजी, मलाई । 6. इन शब्दों के तत्सस रूप बताइए--सिर, हल्दी कान, दैर, 


बहुन, सत्तू, सलाई, आँख, ऊँट, बहू, मोर, सकक्‍कर, पाँव, नींद, तुरन्त, साँपिन, कोयल 
उबटन, नौ, चूल्हा, तीता, भात, घोड़ा, गोबर, सौत। 7. इन शब्दों के तदभव रुप 
बताइए--क्षेत्र, वत्स, अस्थि, पुष्प, काष्ठ, प्रिय, हंदय, वचन, पत्र, चत्वारि, हस्त, 
चतुष्पादिका, दण्ड, चंचु, हस्ती, खर्पर, अग्नि, क्षीर, पर्यक, सप्त । 8. इन समासज 


_ शब्दों का विश्रह कीजिए--दिनानुदिन, गगनचुम्बी, मु हमाँगा, डाकमहसूल, लोकोत्तर, 


तिपुरारि, क्षत्रियाधम, कापुरुष, कदन्‍त, कुमारश्रमणा; कृताकृतं, विद्युद्वेग, नररत्न, 
विद्यारत्न, पंचवटी, शांतिप्रिय, सपरिवार, लेनदेन, घर-आँगन, लाभालाभ । 9. थे 
किन भाषाओं के आगत शब्द हैं--बाल्टी, रूमाल, स्पूृतनिक, तारपीन, नजर, गोभी, 
चाबी; दुनिया, आका, बहादु कीमत, हैजा, चमचा, आतिशबाजी मुगल, लीची, 
खंजर, कप्तान, रिक्शा, डायरी, रिश्वत, मालिक, औलाद, इंजन, मंनेजर, औरत, 
तृफान, आबंरू, परवाह, कबृतर । 0. इन शब्दों से भाववाचक संज्ञाएं बनाइए-- 
लड़का, पंडित, मंधुर, कुशल, मूखें, हरा, विद्वान, खट््‌टा, पढ़ना, मनुष्य, चलना, 

एक, अच्छा, लघु, बूढ़ा, मोटा, खुश, पुरुष, कठिन, उदार, मम, चोर, बच्चा, ईश्वर, 

प्रभु, नारी, गुर, अहम, निकट, समीप । . थे भाववाचक शब्द किस शब्द-भेद से . 
बने हैं--(क) अहंकार (सर्वेताम से|विशेषण से/अव्यय से) (ख) निर्बलता (क्रिया से| _ 


विशेषण से/संज्ञा जातिवाचक से) (ग) खेल (संज्ञा जातिवाचक से/क्रिया से|सर्वताम 


से) (घ) हरियाली (विशेषण से/जातिवाचक संज्ञा से।अव्यय से) (छः) नैकटूय (अव्यय - 
से|स्वनाम से/क्रिया से) (व) मारामारी (संज्ञा व्यक्तिवाचक से/क्रिया से/विशेषण से), 
(छ) ममत्व (सर्वनाम से|विशेषण से|संज्ञा व्यक्तिवाचक से) (ज) पहनावा (जातिवाचक 
संज्ञा से/क्रिया से/विशेषण से) (झ) ऐश्वरयं (सर्वंताम से/संज्ञा जातिवाचक से/संज्ञा व्य- 
क्तिवाचक से), वाहवाही (अव्यय से/संज्ञा जातिवाचक से/क्रिया से) । 2. इन शब्दों के 
संज्ञा-भेद बताइए--स्त्ीत्व, भगवान्‌, बुढ़ापा, टीम, देश, मिट्टी, रक्षाबन्धन, मेला, _ 
बन्दर, सोना, रामायण, बहाव, मालिन्य, अपमान, रंग, व्यक्तित्व, भुकम्प, कु ज, तेजाब, . 


_ पश्चिम । 43., इन शब्दों में से भाववात्रक संज्ञा' शब्द छाँटिए---कौशल, गरिमा, 
.._चाँदी, लेनदेन, मुरझाना, भम, मधुर, शैशव, सामीप्य, शौर्य, चपल, नीलिमा, सुधार, 
. पुरुष, हँसी, दौड़, क्षत्रिय, अहंकार, सोना, दौत्य । 4. भाव्वाचक संज्ञाओं से रिक्त ._ 
..... स्थान-पूति कीजिए--(क) अभिमन्यु ने महारथियों के मध्य बड़ी““'“"“दिखाई | (ख) - 
. शत्तता दुःखद है किस्तु"“**“सुखद | (ग) अपने“ के यान रखना । (घ) बुर ..' 














02222: :०-९०-मरकाजकनिरगकरे: ३९2 २८०: पयदव मय उ लक चडरबलमत न न उंसमइ5 


प्रश्न तथा अभ्यसा | 463 


की““““से बचो । (ड) तुम ने परीक्षा में*“““की है।(च) इन आमों में'*** 
ज्यादा है। (छ) उसे हर कक्षा में““**'“मिली । (ज) ईमानदार अपना काम-*---से 


. करते हैं। (झ) वह अपनी “*““'सुन कर बहुत प्रसन्‍त हुआ | (ज) चाँदनी रात में- 


ताजमहल की““““ओर निखर जाती है। 5. इन वाक्यों में लिय सम्बन्धी अशा द 
दृधियों को शुद्ध कीजिए--- (क) गुणवात्‌ रत्नी सर्वत्न सम्मान पाती है । (ख) तुम्हा 
आत्मा कपटी है । (ग) वह धीमी स्वर में बोली | (घ) मैं आठवें कक्षा में पढता हूँ। 


(ड) निदेशक महोदय ने मुझे आज्ञा दिया। (च) राम, लक्ष्मण - और सीता बन को 


गई । (छ) दीपक का लौ जगमगा उठी । (ज) दही मीठी थी । (झ) राहुल अपने माँ- 
बाप का एकमात्र सन्तानथा। (ज) भागो, पुलिसआ रहा है । 6. इन शब्दों कर 


_पुल्लिग, स्त्रोलिंग को सूची सें रखिए--पक्षी, मच्छर, दर्जी, फीस, वक्‍त, वारंट, झंझट, 


ठठरा, धूप, पूजा, दीप, छाता, राकेट, गोद, बौछार, प्रसाद, प्रासाद, आरती चश्मा 


दही, घी, गेलरी, मेज, खाट, पलंग, नाक, कान, मूंछ, मधु, धातु ।. 7. इन शब्दों 
का लिग-परिवर्तत कौजिए--धोबी, नौकर, पापी, हिरण, वधू, विद्वान, युवा, जेठ 
हाथी, पुरुष, कुत्ता, तपस्वी, महाशय, ठाकुर, आचाये, देवर, इन्द्र, बालक, पाठक, 
विधवा, लुटिया, सिंह, लुहारिन, दात्वी, पालिता, लड़ेत, भाग्यवती, पंडा, बन्दरों 


बिल्ली । 8. कोष्ठकबदूध शब्द का शुद्ध स्त्रीलिय शब्द बंताइए--(बाघ) बाघिन| 
बाघनी/बाघिनी, (नेक) नृतकी/नतेकी/वर्तिकी, (बाबृ) बबुआइन/बाबूइन/बाबुनी,, 


(मन्त्री) मन्त्रिणी/मन्त्रणी/मन्‍्त्राणी, (गीदड़) गीदड़ी/गिदड़ी/गीदड़िन, (युवक) युवकी/ 


युवती/युवति, (सुनार) सुनारी/सुनारिन/सुनारि, (कवि) कवियत्री/कवयित्री/कवियानी | 
कवयाइन/कविश्री/कवीत्री, (इन्द्र) इन्द्रा/इन्द्रानी/इन्द्राणि/इन्द्राणी, (नायक) नायीका/ 


तायका/नायिका/नायिकी, (परिचारक) पंरिचरिका/परिचारिकी/परिचारकी/परिचारिन 


(सूय) सूर्याणी/सूर्या/सूरा/सूर्यी, (महाशय) महाशियी/महाशिनी/महाशया/म हाशयी 


. (अध्यापक) अध्यापिकी/अध्यापिका/अध्यापका/अध्यापकी । 9. इन शब्दों में से नित्य 
. बहुबचन शब्द छॉँटिए---ओठ, दर्शन, पाँव, समाचार, अत्याचार, हस्ताक्षर, आँस, लोग, 
मकान, अक्षत, बन्द, हीरा, प्रोण, भागय,, आशीर्वाद, गण, दाम । 20, इन शब्दों के 


बहुबचन बताइए--खटिया, दूधवाला, पक्षी, योद्धा, झील, रानी, आला, मुनि, चौबे हि 
फिल्म, ध्वनि, बोतल, प्याली, चिड़िया, दवात, दावत, नारंगी, शंहज।दी, तिजोरी 


मामा, अध्यापिका, बहु, पाठक, आप । 2, इस शब्दों में से जिन शब्दों के सरल 
. बहुबचन सें शुन्य प्रत्यय लगता है, उन्हें बताइए--दर्शन, केश, लोग, समाचार, लता 
रोम, नदी, बालिका, आदमी, कक्षा, बालक, बहु, विदयालय, पुस्तक, भाग्य, प्राण, 
. कागज । 22. इन बाक्यों को बहुवचन में बदलिए--(क) आज का छात्र कल को. 

. नेता है। (ख) तू ने यह पुस्तक भी पढ़ डाली। (ग) लंड़की चिट्ठी लिख रही है।. -.. 
. [घ) अपने बेटे को नाम बताइए । (७) हर बच्चे को जलेबी मिलेगी । 23. इन वाक्यों .. 

- में बचन सम्बन्धी अशुद्धियों को शुदृध कीजिए--(7) उस ने बताया कि मैं दो भाई... 
.._ है। (7) पाकिस्तानी सेना ने गोले और तोपों से हमला किया । (|) लड़कियें नाच 











464 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


रही थीं । (9) काम के मारे मेरा तो प्राण निकल गया। (५) स्वर्ण मन्दिर में कई 

आतंकवादी के साथ तीन दिन तक ब्लेककट कमांडो सिपाही की मुठभेड़ होती रही। 
(शं) अभी तो पाँच ही बजा है। (शा) अपने-अपने घरों से पैसों ले कर आ। (जत) .. 
आप क्या खाओगे ? (5) वक्षों में नयी-नयी पत्ती आ रही है। (5) लड़की लोग को - 
अनेक प्रकार की कला सीखनी चाहिएँ। (४) तेरी बकवासें सुन-सुन कर भेरातो - 
कान पक गया । (>39) कृष्ण के आँस से सुदामा का पेर धुल गया । 24. इन कथनों 


में से शुदृुध और अशुद्ध कथन छाँटिए--() हिन्दी में सात कारक हैं । (४) अपादान 


कारक का चिह॒ न में, पर' है। (7४) करण कारक का चिह न से है। (9) शून्य 


सभी कारकों का चिह. न है। (५) अधिकरण कारक का चिह॒न "में, पर' है। 25- 


रिक्त स्थानों की पुति कारक-चिह नों से कीजिए--() बुलबुल पेड़" “डाली 


ह छोर 20700 बैठी है । (४) भूखे-नंगों * ७७५ भ अन्न-वस्त्र दो | (| | ) खेलने ५०००००१० 
हम बाग चलें । (ए) बहन” भाई'''*“कलाई'**** राखी बाँधी । (९) 


आजकल छोटे बच्चे भी बाल पैन'' “कॉपी “लिखते हैं। (शं) घोंसले'*“/" 
पक्षी" *** बाहर सिर निकाल कर चारों ओर देखा | (शा) कारखाने ''**' काम रात. 
3 कर कह खत्म होगा । (शा॥) राजा" "एक कन्या रत्न उत्पन्त हुआ। (5) आप" 
“आगे जाने एक तिराहा मिलेगा। (5) पटना" गया लगभग साठ किलो- 
मीटर “'““दूरी““”'है। 26. इन कारक-चिह नों के नाम बताइए--() माँ दरात 
से सब्जी काट रही है। (॥) नौकर बाजार से दूध लेने गया है। (॥7) बेटे ने शराबी 


बाप को बहुत समझाया । (7४) घर में तो कुत्ता भी शेर बन जाता है। (९) भूले 


को रोटी दो । (५) मुझ से चने नहीं चबाए जाते । (शां) व॒क्ष से फूल गिर रहे हैं। 
(शा।) किसान ने साँप को लाठी के प्रहार से मार डाला । 27. सब्ंनामों से रिक्त 
स्थान-पूति कीजिए----() जसा करेगा,” “बसा भरेगा। (7) कल तुम्हारे. 
घर हो रहा था ? (7) लड़कियाँ आईं और": कहा । (7५) अभी मैं प्यासा 


.  हूँ,”““''थोड़ा पानी और दी । (श) तू बता--भेरे पास तो पाँच रुपये हैं, और'**“*“ 
पास ? (शं) ४०४४ कल लौटूगा। (शा) “कहे दे रहा हूँ मुझ से कोई 

. आशा मतु रखो । (शा) इस बारे में मैं'*“* मत पहले ही प्रकट कर चुका हूँ। (ए) 
क्या यह आप की" “पुस्तक है ? (5) भला तो जगे भला । 28. इन कथनों 


में से शुदुध कथन बताइए--(क) 'सब' सामान्यार्थंक सर्वताम है। (ख) कोई मध्यम 

पुरुष प्रशनवाचक है। (ग) 'वह' का सम्बोधन रूप 'उसे' है। (घ) 'यह' पुरुषवाचक 
अन्य प्‌रुष है। (ड) सवंनाम संज्ञा का एक भेद है। (च) “जो” सम्बन्धवाचक सवंनाम 
है । 29. इन सें से किन वाक्यों में निजवाचक सर्वताम आया है ?7---(क) यह मेरी 
निजी सम्पत्ति है। (ख) हे भगवान्‌, मुझे अपना लो। (ग) आजकल अपनापन रहा. 


..._ ही कहाँ है ? (घ) अरे भाई, अपनों से क्या छिपाना ! (ड) आप भला तो जग भला। 
७...“ 30. इन्हें सर्वनाम की दृष्टि से शुदृध कीजिए--() देखना, दूध में कौन पड़ गया 
.. [) तुम्हारे से यह बोझ नहीं उठाया जा सकेगा । (॥7) मेरे को उस्त का नाम मालूम _ 









प्रश्न तथा अभ्यास | 465 


| हहीं है। (४) तुम तुम्हारा काम करो, मैं मेरा कर लूँगा । (४) रेल से जाना हो तो 
। रेल का समय मालूम कर लो। (शं) मुझ को तीन बेटियाँ हैं। (शा) तुम्हारे को 
। . कितने बेटे हुए ? (शा) यह सब रूमाल उठा लो। (5) इस सम्बन्ध में हम हमारी 
| अजबूरी बता ही चुके हैं। (3) लो, वह लोग आ भी गए। 3॥. उपयुक्त शब्द चुन 
| क्र रिक्त स्थान-पूति कीजिए--(क) “तो कल भी अपने काम पर गया था । 
(आप/हम/मैं/यि) (ख) यह "**** संवाददाता का कहना है (आंप/कोई/हमारे/उसे) 
(ग) “”ही मेरी प्यारी बिटिया है। (घ) (तुम/तू/वि/जो) ऐसा''"से मत कहना । (कौन/ _ 
क्सी/कोई/मिरे) (ड) इतनी देर में भी ““ज्रा-सी बात नहीं समझ पाए। (मैं/वह|तुम|तृ) 
32, इन शब्दों से विशेषक बनाइए--रक्त, इतिहास, अवलम्ब, सम्प्रदाय, मूल, 
प_केत, देव, यज्ञ, साहित्य, करुणा, शीष्‌, पंक, पत्‌, कुसुम, वह, धर्म, विश्वजन, शिव, 
बुद्धि, ग्राम, सोता, काल, सिन्धु, स्वर्ण, माया, तेल, बंगाल, पानी, मिट्टी, सूरय, 
जल, जीव , दलन, वर्ग, लोहा, भक्ति, लोभ, सवेजन । 33. 'क' सूची के विशेष्यों के 
साथ 'ख' सूची के उपयुक्त विशेषण रखिए---(क)--(!) लोग (2) मुनि (3) लड़का 
(4) पिता जी. (5) महिला (6) विचार (7) वस्त्र (8) पशु (9) चीवी (0) दूध 
 (]) माल (2) देश (3) डगर (4) प्रधानाचायं (5) दृश्य (6) साँप 
। (7) वातावरण (8) पुरुष (9) कार्य (20) ग्रन्थ (2) घटाएँ (22) बादल 
| (23) नदियाँ (24) वृक्ष (25) खेत । (ख)--() पूजनीय (2) श्रीमान्‌ (3) जल- 
। प्य (4) विदेशी (5) पीले (6) अच्छा (7) काला (8) कर्मरत (9) निनदू्य (0) 
| तेजस्वी (]) साहित्यिक (2) पथरीली (3) स्वतन्त्र (4) थोड़ी-सी (5) 
| ग्रामीण (6) कुछ (7) मीठा (8) उल्नत (9) गुणवती (20) वन्य (2]) काले 

|. (22) ऊअँचे-ऊँचे (23) समतल (24) मनोहर (25) उमड़ती -34. रिक्त स्थानों की _ 


|. पृति उपयुक्त विशेषणों से कीजिए--(क) श्याम के पास एक””““कुत्ता है। 


|... (गठीला|बर्फीला/सजीला/रंगीला) . (ख) राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद''“*“खद्दर का कोट 
|. पहनते थे। (लम्बे|मोटे|छोटे|चौड़े) । (ग) क्या आप के यहाँ हमारी'*'*' 'बेटी आईं 
.._थी। (छोटी/रोती/सोती(हिंसती) । (घ) ताजमहल की*“** “कारीगरी देख कर” 
दर्शक मुख हो जाते हैं । (विराट्‌(बृहतसूक्ष्म/गहन), (अन्तर्देशी य|सभी /चतुर| 
चालाक) । (ड)) हनुमात ओऔराम के: भक्त थे। (चरम/नरम[परम/करम)। 
35, विशेषणों की दृष्टि से इन वाक्यों को शुद्ध कीजिए--(7) वह काफी खूबसूरत 
. महिला है। (7) पिता की मृत्यु से उसे भारी दुःख हुआ।. (पं) उस कारखाते में. 

लगभग एक हजार 435 आदमी काम करते हैं। (९) भगवदगीता को समस्त _ 
प्राणिमात्र के कल्याण के लिए रचा गया था। (श) सिंह बहुत ही बीभत्स होता है। 


.. (ं) किसी ने भी अपना-अपना काम पूरा नहीं किया। (शा) अत्येक की चारवाए 


. पुस्तक दीजिए । (शा) इसे गुप्त रहस्य ही रहने दो । (75) एक बड़ी-सी बिच्छू 


|. मेरी पलंग पर पड़ा था । (5) कल मैं ने चार नीलियाँ साड़ियाँ खुरीदीं । 30. इन. : 








466 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण _ 


बाकक्‍्यों की क्रिया सम्बन्धी अशुद्धियाँ शुदृध कोजिए--() हम ने हेमा का गाना और 
रूप देखा । (7) मैं नाश्ता खा कर आऊँगा । (7) पति-मृत्यु पर महिला विलाप 
क्र के रोने लगी। (४) क्‍या ऐसा भी सम्भव हो सकता है ? (५) संस्थान में आज- 
कल कसा वातावरण उपस्थित है ? (शा) वेद-मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण बोलो। 
(५) बच्चों को वहाँ नहीं जाना चाहता था। (शांत) आप मेरा क्या कर लोगे ? 
(5) सुनिए, शोर मत करो । (5) लड़की हँस डाली । 37. इन वाकयों के चाच्य- 
परिवर्तत कीजिए--() शिक्षा पर अभी भी बहुत कम खर्च किया जाता है। (॥) 
पहले अन्तर में हमें व्याकरण पढ़ाया गया। (॥) अध्यापिका ने आज हमें गणित 
पढ़ाया । (५) उन दोनों आतंकवादियों को गोली मार दी गई। (९) कहारों ने 
डोली नहीं उठाई । (शं) बच्चे इस प्रकार के कष्ट को नहीं सह सकते । (शा) ईश्वर _ 
सब की रक्षा करता है। (शा) वयी माँ ने बच्चों को प्यार किया । (5) यहाँ उन _ 
से नहीं बैठा जाएगा । (5) तुम मुझे मू्खे समझते हो । (४) सिपाहियों ने चोर को 
.. पकड़ा । (हा) ये बच्चे यहाँ नहीं खेलेंगे। (ह॥) वह आठ बजे से पहले नहीं 
.. उठती । (हां) आजकल मैं चाय नहीं पीता । (5४) बैठिए, मैं नौकर को बुला रहा. 
हुँ । 38. इन में शुद्ध-अशुद्ध कथन बताइए-- (7) 'दयालवबागू-भवन कई सालों से बन 
रहा है. कमंकतू रूप है| (॥) आशमो बाहर बैठ में वर्तमान काल है ।. (77) पक्ष पाँच 
होते हैं। (7४) लात से लतियाना ' तो बना सकते हैं किन्तु झूठ से झुठानां नहीं। . 
(५) पूर्ण पक्ष का सूचक-त' है। (शं) वेआए थे में अपूर्ण पक्ष है। (शा) काल के _ 
बीस भेद हैं । (४॥) “वे सोते होंगे” संदेहार्थ है। (75) यदि तू वहाँ गई तो मैं तुझे 
पीटूँंगी'  सन्देहाथ है। (5) 'रह' सातत्य का सूचक है। 39. रिक्त स्थानों पर - 
उपयुक्त क्रिया-रूप रखिए-- (7) शायद इस समय राशन की दुकान“ (खलना) । 
(7) माधव यहाँ कई वर्ष से (रहना) । (77) क्‍या तुम ने वह पत्रिका/'/”' (पढ़ 
लेना) । (४) मीता से अभी भी खाना नहीं*”*““(बनाना) । (५४) इस पत्र को मास्टर 
से “ लो (पढ़ना)। (शं) जमींदार (नौकर से). खेत : “रहा है (जोतना)। 
(शा) पंडा (जजमान द्वारा) मछलियों को आदा “रहा है (खाना)। (शा) 
स्टेशन के पास रेलगाड़ी तेज नहीं''*** (चलना) । (४) वायु सेना को मोर्चे पर. 
भेज दिया“ “-है (जाना) । (») रास्ते में गड़ढ़ा न" तो मुझे चोद वह» 
(होना, लगना)। 40. इन क्रियाओं के कर्म की दृष्टि से भेद बताइए--(क) माँ ने... 
बेटे को सौ रुपये दे दिए हैं। (ख) अब घर जाओ, रात हो गई | (ग) बच्चा छत से 
गिर पड़ा । (घ) आप मेरे मित्र जो ठहरे । (ड) तू मुझे अपनी बातों से क्‍यों घबराया _ 
करता है। (च) कुछ अखादूय चीजें भी कभी-कभी स्त्रियों का जी ललचाती हैँं॥ 
4. रिक्त स्थान पर उपयुक्त पारिभाषिक शब्द रखिए---() वतमान काल में. जिस. 


क्रिया के होने/किए जाने में सन्देह पाया जाए उसे-"““'कालिक क्रिया कहते हैं। 


कमी झा कक 


.. (7) भूतकाल में हो सकनेवाली जो क्रिया किसी कारण सम्पन्त नहो सकी उसे 


.... कालिक क्रिया कहते हैं। (पं) मुख्य क्रिया से पूर्व समाप्त हुई क्रिया को 





अरन तथा अभ्यास | 467 





हातिक क्रिया कहते हैं। (४) क्रिया का मूल रूप““*““«कहा जाता है । 
(0) क्रिया-धातु से इतर शब्दों से बनी क्रिया-धातु को कहते हैं 
(४) संयुक्त क्रिया में आई अर्थ-बेशिष्द्य सूचक क्रिया को”“““«क्रिया कहते हैं। .. 
| (शा) ““'“में क्रिया की अन्विति न कर्ता से होती है और न कर्म से । (जाप) ही 
| हैं किया का व्याकरणिक कर्ता मुलतः कम होता है । ([5) सक्रिय कर्ता को--““-भी 
कहते हैं। (5) संज्ञा की भाँति प्रकार्य करनेवाली क्रिया-धातु*““कहलाती है। 42 
उपयुक्त अब्यथों से रिक्त स्थान-पूचि कीजिए---(चाहे, तभी, कब, आजकल, जोर से 
| बल, अगले, ही, नहीं, इसलिए, यहीं, ताकि, हाय !, ऐं !, बिना, आगे, की अपेक्षा 
| भी, लेकिन, आज, या, अरे !) ()/“““वे यहाँ”““*““रहते, पहले”“*“*रहते थे । 
| [| बच्चों के”*”*“चिल्लाने से पिता जी की नींद उचट जाएगी। (77) «उन्हें 
| जाना पड़ा था, वे”“*“*“ही लौटे हैं। () तुम”*“चलो, वे*'*“-आ रहे हैं। (२) 
505 कोई बड़ा हो“““”“छोटा, सम्मान की इच्छा सब में होती है। (४) तुम्हें 
|। परीक्षा मे 0४ डक > ४४5 रोक ृ है 3६2 »५ “तुम ०२००० ९७७ » क्षें अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हो सको | (ए) 
| जालिम ने उसे मार": “डाला | (शा) *०००२१०* तुम" >००००- यहाँ चलीं आईं | 
| [) मैं ने अपनी सहेली को बुलाया था'”"”वह आई'*““नहीं | (5) पिता जी ने 
| दाता खा लिया” “नहीं ? (हां) अभी से परिश्रम करो'“““प्रथम आ सकोगे। . 
| हा) “मेरी बच्ची मर गई। (हा) “० तुम“ ““जा गईं ? (आए) धन के 
| ““”तो संनन्‍्यासियों का काम “नहीं चलता । (5५४) धन”“““ धरम को श्रेष्ठमाना 
। जाता रहा है। (»एं) वह सब से'“““दौड़ रहा था। 43. इन में अव्यय सम्बन्धी 
ह , अशुदिधयों को शुद्ध कीजिए---(क) रोगी को सारी रात भर नींद नहीं आईं । (ख) वे 
| रोजाना प्रात:काल के समय घूमने जाया करते थे । (ग) यह कदापि भी सत्य नहीं हो 
सकता । (घ) उन्हें चाहिए कि वे मेरे कहे काम करें। (ड) ऐसा तो सदेव से होता 
आया है। 44. काले टाइप का शब्द कौन-सा निपात है ?--(क) काश ! वे आज न 


| गए होते। (प्रश्ववोधक/अवधारणबोधक/सीमाबोधक|विस्मयादिबोधक) (ख) वे 
| आज नहीं आनेवाले हैं। (स्वीकारात्मक/नकारात्मक/बलप्रदायक/निषेधांत्मक) (ग) -. 
| क्या तुम जा रही हो ! (तुलनाबोधक/आदरबोधक/प्रश्नवोधक/अवधारणबोधक) (घ) 
: बैही यह बात जानते हैं। (निर्षधात्मक/बलप्रदायक/स्वीकारात्मक/नकारात्मक) (छ) 
यहाँ मत सोओ । (धरश्वबोधक/निषेधबोधक/विस्मयादिबोधक/सीमाबोधक) (च) तुम्हें 
मेरे लौटने तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी । (स्वीका रात्मुकु/बलार्थंक/अवधारणबोधक/निषे- 
धबोधक) (छ) छोटा बच्चा भी अपना हित समझता है। (नकारात्मक/स्वीकारात्मक/ 
 बलप्रदायक/निषधात्म +) 45. इन शब्दों को उपयुक्त रिक्त स्थान पर रखिए--(पहले 
 वीचे, बिलकुल, प्रतिदिन, अकस्मातु, जरा, ऊपर, ध्यानपूवेक, तड़ातड़) (क) कल हल 
'.  भेरे बड़े भाई साहब आ गए। (ख) नकल भी” “करनी चाहिए। '(ग) तुम तो 
| बच्ची के गाल पर”“““चाँटे मार रही थीं। (ध) पतंग को“ “की ओर खींचो 
 वहू””“>उठती मालूम पड़ती है। (ड) आप*“*”गौंर से सुनिए । (च) हाथी. ने 









हा व 5 । 








लक 77 ॥५]ु रा | ॥ ह हि .. . '. '..“ अब 


. 468 | हिंन्दी का विवरणात्मक व्याकरण ः रे 


बच्चे को **' कुचल दिया । (छ) मेरी माता जी पढ़ाया करती थीं। (ज) ““ 
सुबह-शाम टहलना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक है। 406. इन शब्दों का सत्धि- 
विच्छेद कीजिए---तर्थव, अन्वेषण, स्वर्ग, सन्‍्तोष, वागीश, निराधार, राजषि, यद्यपि, 
परमार्थ, स्वागत, विद्यार्थी, अन्तस्तल, वृक्षच्छाया, शशांक, वेदान्त, उच्छवास, नम- 
_स्कार, महर्षि, जगदीश, देवेन्द्र, रत्नाकर, सज्जन, रजोगुण, कपीन्‍द्र, दुराशा, अतएव, 
गिरीश, परमौदाय, उल्लेख, दिगंत, गणेश, नीरस, रवीन्द्र, वधत्सव, रजनीश, प्रोप- 
कार, यशो5भिलाषी, इत्यादि, निष्कपट, उद्घाटन, परमात्मा, निविवाद, शिष्टाचार, 
.. यथोचित, सर्वोदिय, व्याकुल, सदभावना, उन्नति, वाडः मय । 47. इन से सन्धिज शब्द 
. बनाइए--सम्‌-+-योग, सम--न्‍्यास, पद्‌-- उन्नति, ग्रुरु--उपदेश, वाक्‌--ईश, मन: 
. +रंजन, प्रति-|- एक, सर्व-|-उदय, इति-|-आदि, षट्‌--आनन, अति--अधिक, नौ 
-+इक, सदा-- एवं, रमा -|-ईश, गण +- ईश, वधु -|- उत्सव, जल -- ऊमि, महा -औज 
अनु--अय, ने--अन, महा--ईश । 48. इन में शुद्ध सन्धि-विच्छेद बताइए--भान- 
दय (भानु --उदय/भानू -- उदय/भानू -+ दय), सागरोमि (सागर-|-ऊरमि/सागर-|-उमि| _ 
सागरो--उर्मि), अन्वय (अनु --वय/अनू --वय/अनु--अय), उज्ज्वल (उज्‌-+वल/ 
पा उतु-|- ज्वल/|उज्‌ -|- ज्वल), -दीक्षात (दिक्‌--अन्त/दीक्षा--अन्त[दीक्षा-|-न्‍्त), मतैक्य 
7 .. (मतै--क्य/मतु--एक्य/मत--ऐवय), इत्यादि (इत्य-|-आदि/इत्या +- दि/इति--आदि), 
तो पधर्मात्मा (धर्मा--त्मा/धर्मे -|-आत्मा/धर्मा--आत्मा), नयन (नय-|-व/नि+-अन/नि+- 
यन), समुच्चय (समु-- उच्चय|सम -|-उच्चय/सम्‌ -- उच्चय/सम -- उतु-चय), सूकिति 
. (सू+-ऊक्ति/स्‌ - उक्ति/सु-|- उक्ति/स--ऊक्ति), सूर्योदय (सूर्य:-|-उदय/सूर्य -हउदय/ 
सूर्यो -- दय/सूर्य -- उदय), व्यर्थ (वब--अथ/वि--अथ्थे|व्य-|-अथ/व्यय -|- अर्थ), अन्तर्गत 
(अन्त: +गत/अन्तर--गत/अन्त -- गंत/अन्तर्‌ -- गत), नारायण (नार--आयन/नार+ 
अयन/वार--अयफवर-- आयण), स्वार्थे (स्वा--अर्थ/स -|-अथे/स्व॒ + अरथ/सु --अथे) 
नायक (ना-+-अक/ने--अक/नै-|-अके/ना--यक), साष्टांग (स+अष्ठ--अंग्े/ 
 सास--टांग/सा--अष्टांग/सः-|-अष्ट-)- अंग) 49. इन शब्दों का 
समास-विग्रह कौीजिए---उद्योगपति, क्ृष्णसपं, कष्टसाध्य, खरा-खोटा, ग्रामवास, 
चौमासा, जन्म-मरण, चतुमु ख, चतुभूज, त्रिलोकी, तुलसीकृत, नीलगगन, नीलकण्ठ,. 
दाल-भात, नीलाम्बर, नीलकमल, दशानन, प्रतिवर्ष, पथभष्ट, पंचतन्त्र, महात्मा, पाप- _ 
पुण्य, परमानन्द, प्रतिदिन, यथासमय, राजा-प्रजा, राष्ट्रपति, वचनामत, सेनापति, 
शरणागत । 50. इन शब्दों/वाक्यांशों में समास कीजिए--महान्‌ पुरुष, तीन फलों 
.. का समाहार, जो ब्राहमण न' हो शैक्िं और अधमं, नीति में निपुण, मृग की आँखों के _ 
_ समान आँखें हैं जिस की, ऋण से मुक्त, अस्त्न और शस्त्र, गोबर से बने गणेशवत्‌, _ 
...॑.. घन जैसा श्याम, हवन के लिए सामग्री, जल देनेवाला, नीला है कंठ जिस का, नो 
.... रत्नों का समूह, पेट भर कर, युद्ध में स्थिर 'रहनेवाला, महान्‌ बली, अल्प है.. 
...... बुद्धि जिस की, आठ अध्यायों का समाहार, अंशु है माला जिस की, गृह को आगत, 
. थी और शक्कर, गणों का पति, चन्द्र जैसा मुख, दस हैं आनन जिस के, तीन वेणियों _ 










का पमृह, तीनों लोकों का समाहार, मई से अन्धा, मेष के समान नाद है जिस को, . द 

पर ते भ्रष्ट, पीला है अम्बर जिस का, महात्‌ है वीर जो, रेखा द्वारा अंकित, राह 

के लिए खर्च, शर्वित के अनुसार, व्यापार में पटु, प्राणों के समान प्रिय, हाथ के लिए 

बड़ी, दो या तीन, सिंह समात्र नई, जब तक जन्म, रहे, पाँच हैं मुख जिस के, पाँच. « 

ः ढहों का समूह, गगन को चूमनेवाला, जो उपयुक्त न हो, शुभ आगमन, मर्मे को स्पर्श द 

| ढइरनेवाला, तीर भुवनों का समूह, स्वी ही है रत 5. इन शब्दों में से 3-3 

| प्रमानाथियों पर्यायवाचियों का चयन कौजिए--अटवी, अनल, अभ्यागत, अजित, ' 

। आवास, इच्छा, उदधि, कानन, जलाशय, ताल, दैत्य, दृवितीय, दानव, धाम, पत्नी, 

| पावक, पीयूष, मधु, महिला; मेहमान, पुष्कर, पुष्प, महेश, भिन्न, ललना, वनिता, द 

समा, वेसन्‍्त, विपिन, वह नि, वारिज, शिव, सदन, श्र, सुधा, हर। अतिथि, असुर, 
अमृत, 32: इन शब्दों के विलोमार्थो बताइए--अम्मृत, आय, अथात, आस्तिकं, 
उत्थान, कट, कतेश, खरा, जीवन, देव, निरबंल, पंडित, प्रवृत्ति, 
योग्य, रुचिकर, विपत्ति, वक्ता, सरल, सुखद, संतोष, स्वदेश, 

53. इन शब्दों के सही विलोमार्थी शब्द छाँदटिए---(क) आलोक 

तम, तिमिर, प्रकाश, सवेरा) (ख) इच्छा (अथाह, अनिच्छा, 
अभिलाषा, कामना, मतोरथ) (ग) नाराज (अप्रसन्‍्त, क्षमा, गुस्सा, माफी, खंश, 

| सहन, स्तुति) (घ) गुर (छोटा, तंग, दीघं, नाटा; ले विद्यार्थी) (ड़) चतुर क्‍ 

| (अनिपुण, कुशल, प्रवीण, बेवकूफ, मू्खे) (च) दुःख (खुशी, पीड़ा, व्यथा, संकट, सुख, 

| हुपै) (छ) नूतन (अर्वाचीन, तया, पुराना, पुरातन, प्राचीन) (ज) राजा (गरीब, नृप, 

 फकीर, महीप, भूषति, रंक) (झ) सुन्दर (असुन्दर, बदसू रत, मंजुल, मनोहर, रम्य) 

|: (तर) सुपुत्र (आत्मज, कृपूत्र, तनय, नन्दन, बेटा, सुत) 54. प्रदत्त शब्दों से रिक्त... 
स्थान-पूत्ति कीजिए--(अशिष्ट, डु:ब, प्रिय, जीवन, सबल, सुख, रोशनी, हानि, यश, 
अँधेरे; निर्बेल) (क) “के अभाव में'*“का आदर कीन करेंगा ? (ख) उल्लू को”“की _ 

. आवश्यकता नहीं,““की आवश्यकता होती है। (ग) सभी”के पीछे चलते हैं"“के 
तहीं। (घ)““लाभ''मरण”“अपयर विधि हाथ । (डे) शिष्ट व्यवहार सभी को” 
होता है,'“किसी को भ्रिय नहीं होता । 55. इन वाक्यांशों के लिए एक-एक शब्द 

| बताइए--() अपनी ह॒त्या करनेवाला (2) ईएवर/विद में आस्था रखनेवाला (3) 

|. काम से जी चुरानेवाला (4) जिस का वर्णन न हों सके (5) जिस का आदि न हो 

|. (6) जिस का भार अच्छा न हों (7) जिस का निवारण न हो सके (8) जिसे स्पर्श 

|. करना वर्जित हो (9) जिस के कोई सन्तान न हो (0) जिसे क्षमा त किया जा सके . 

.. (]]) जिस में कोई विकार न हो (2) जिस हैं स्देह न हो (3) जिस पर. 

विश्वास न किया जा सके (4) जिस में दया हो (5) जो सभी काज़िय हो. 

. (56) चो लज्जाबिहन हो (!7) जो शाणी कल मे रहे (8) जो उतार हें हे. 

.._ (9) जो सांस का आहार न' करता हो (20) जो नष्ट न होनेवाला हो (2) जो. 

. दचनों से परे हो (22) जो कभी न मरे (23) जो राजनीति जाने (24) दुष्ड.... | 


आर्य, आदर , उत्तम, 
। प्राचीन, बाह.य, यश, 
| स्वर्ग, सेवक, हेषे । 

(अन्धका र, अँधेरा, 













>-सलनकसमकत-क हासन 2०८३ पर कप सका 


ला “नस शलननयनन विद हक 








470 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


बुद्धिवाला (25) देखने योग्य (26) दूर की बात को देखनेवाला (27) शक्ति के 
अनुसार (28) सब कुछ जाननेवाला (29) जो जानने की इच्छा रखता हो (30) 
भविष्य को देखनेवाला 56. इन वाक्यों के काले छपे चाक्यांशों के स्थान पर एक-एक 
शब्द का प्रयोग करते हुए वाक्य अनाइए-- () आप हमारे घर परिवार के साथ कब 
आएँगे ? (2) ऊपर कही गई बातों का विशेष ध्यात के साथ पालन करना चाहिए। 
(3) जो शरण में आ गया हो, उस की रक्षा करनी ही चाहिए । (4) वसन्‍्त ऋतु में 
प्रकृति की शोभा देखने योग्य होती है । (5) सीता जी चित्रकट में पत्लों की बनी 
कृटिया में रहती थीं। 57. इन शब्दों में सूल शब्द तथा उपसर्े छाँदिए--अध्यक्ष 
आरोहण, उल्लेख, बदबू, लावारिस, दुबला, बदकार, दुर्दभनीय, संस्कृत, परिश्रम, 
नीरोग, प्रफुल्लता, पराभव, परिणाम, उदयोग, प्रत्युपकार, दुराचार, उद्धत, विस्मरण 
उन्‍नीस । 50. इन शब्दों में मुल शब्द तथा प्रत्ययथ छाँटिए---महिमा, स्त्रीत्व, तैराक, 
बचपन, खटिया, गरीबी, खिर्वेया, लालची, नीलिमा, हषित, झांडन, चमकीली 
पाठक, लकड़हारा, लूटिया, सुनार, बुराई, लिखावट, पुष्पित, साहित्यिक, 
पुजारी, झगड़ालू, जंगली, प्यासा, अगला, अड़ियल, छबीला, बपौती, बनेला, 
डकीत, गेरुआ, कतंव्य, पुजत्तीय, चटनी, एकल, देत्य, पांडित्य, आनन्दित, टिकली, 


चचेरां, भुतहा, इकरारनामा, दर्देताक, खाकसार, पर्दानशीन । 59, 
इन शब्दों के चिलोमार्थी शब्दों से रिक्त स्थान-पूति कीजिए---(अर्वाचीन, आस्तिकता, 


दिन, त्याग, मान, विकर्षण, संक्षिप्त, साहसी, सुकाल, स्वतन्त्रता (#) उपन्यास सम्राद - 
प्रेमचन्द-*“* “भर लिखते रहते थे । (7) तलवार का धाव भर जाता है, किल्तु 
का घाव कभी नहीं भर पाता । (7!) धन की पूजा को सन्‍्तों ने सांसारिक''कहा 
है। (५) बोद्ध धर्में के ह्‌ रास के दिनों में “का विक्रत रूप तन्त्र-साधना बन गया 
था । (५) संबत्‌ 956 का/“बहुत समय तक याद रहेगा । (शं)"“सिपाही ही 
णों की चिन्ता कर युदृध भूमि से भागते हैं। (४४) हमें “भारतीय. संस्कृति पर 
गव॑ है । (४४४) कलवाली दुर्घटना की““जानकारी मिलनी चाहिए । (४5) द 
बन्धन कोई नहीं चाहता । (£) खजुराहो की. मूर्तियों में विशेष“ है । 60. भ्रद्वत्त 
पर्याय शब्दों में से उपयुक्त शब्द से रिक्त स्थान-पर्ति कीजिए--(क) आतंकवादियों । 
के हमले के समय अनेक लोग रामायण के संगीत"“'में गोते लगा रहे थे । (समुद्र, 
सागर, पयोधि, रत्नाकर (ख) सभी राजपूत अपने““पर गयें करते हैं। (शक्ति, 
. पराक्रम, बैभव, गौरव) (ग) पंचायतें स्थापित करने का उद्देश्य था--जनता को" 
ने नींद सोने का अवसर प्रदान करना । (आनन्द, सुख, आमोद, हर्ष) (घं) देखते- 
देखते सारा'“मेघाच्छन्न हो गया । (आसमान, आकाश, व्योम, अन्तरिक्ष) (डछ) 
मैं बचपन से ही““में तेरता सीख गया था। (सरिता, नदी, तटिनी, 'तरणी) 6]. 
इन शब्दों के दिए गए पर्माय शब्दों में से 2-2 अपर्याय शब्दों को छाँटिए---(#) अपमान _ 
(अंवहेलना, तिरस्कार, प्रिभव, अनादर, निरादर, पराभव) (7) आँख (चक्षु, हम, 
प्रियम्बु, सहकार, नेत्र, लोचन, तयन) (77) इन्द्र (अमरपति, पुरन्दर, मेघवाहन, 





. 472 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(ड) एक डंडे से हाँकना (च) एक थैली के ईठ-पत्थर (छ) कान पर चींटी तकन ' 


रेंगता (ज) जमीन पर पंजा न पड़ता (झ) नाकों चबेता चबाना (ञज) रस्सी जल गई 


मगर सलबट नहीं निकली । 


पदबनन्‍ध तथा वाक्य-व्यवस्था--- . शदध उत्तर. बताइए--. () तन्दुरुस्त 


और सुन्दर बच्चा सभी को अच्छा लगता है! में 'तन्दुरुत्त और सुन्दर बच्चा' 


है--(क) पद (ख) उप्वाक्य (ग) पदबन्ध (घ) सामासिक शब्द । (8) “हमारे पड़ोस' 


में कमलनयन रहता है! में 'कमलनयन' है--(क) पद (ख) पदबन्ध (ग) समस्त पद 
(घ) सन्धि (77) 'तुझ अभागे को यह दिन देखना भी बदा था” में 'तुझ अभागे को! 
है---(क) संज्ञा पदबंध (ख) सर्वेताम पदबन्ध (ग) विशेषण पदबन्ध (घ) उपवाक्य 


(४) (इस समय आप यहाँ से चले जाइए” वाक्य है--(क) प्रश्नसूचक (ख) अनुरोध- 


सूचक (ग) आज्ञार्थक (घ) निषंधसूचक (५) “उस के सामने या शान्‍्त सरोवर और 
उस में तेरता हुआ एक रांजहंस” में 'तेरता हुआ! है--(क) विशेषण पदबन्ध (ख) 
क्रियाविशेषण पदबन्ध (ग) क्रिया पदबन्ध (घ) संज्ञा पदबन्ध (५) “तपती दुपहरी में 
भिखारी जूमीन पर लोटते हुए चिल्ला रहा था में “जमीन पर लोटते हुए! है---(क) 


विशेषण पदबन्ध (ख) क्रियाविशेषण पदबन्ध (ग) क्रिया पदबन्ध (घ) संज्ञा पदबन्ध 


(शा) श्रीकृष्ण सुदामा की दीन .दशा सुन कर अत्यन्त विह वल .हो गए' वाक्य 


है--(क) सरल (ख) सरलसम्‌ (ग) मिश्र (घ) संयुक्त (शा) 'वह, जो अभी-अभी 

यहाँ से गईं है, मेरे साले की बेटी है में 'ज़ो“गई है' है--(क) पदबन्ध (ख) वाकंय 
(ग) उपवाक्‍्य (घ) समस्त पद (5) "तुम्हारा पैसा इस महीने के अन्त तक तुम्हें मिल. 
जायगा' में “इस महीने के अन्त तक' है--(क) संज्ञा पदबन्ध (ख) क्रियाविशेषण 
. पदबन्ध (ग) सर्वेनाम पदबन्ध (घ) समयसूचक पद (2) “सूरज उगा, कुहासा भागा. 


_ वाक्य है---(क) सरल (ख) मिश्र (ग) संयुक्त (घ) सरलसम 2. संरचना को दृष्टि से 


डक 


ये कैसे वाक्य हैं ? (7) माँ-बाप चाहते हैं कि उन की सन्‍्तान स्वस्थ रहे और ख्‌ ब पढ़े- 


लिखे (7) पौधों के जीवन का आधार केवल पानी ही नहीं है, वरन्‌ कई अन्य पदार्थ 


भी हैं । (77) बच्चा अभी-अभी सो कर उठा है। (7४) विद्या से ज्ञान-वुद्धि होती... 


है, विचार-शक्ति प्राप्त होती है तथा सम्मान मिलता है। (९) जब संकट आ जाए | 


तो घबराना नहीं चाहिए । (शं) प्राची में सुयं के आगमन ने अन्धकार.के अस्तित्व 


को समाप्त कर दिया | 3. इस में से सिश्र वाक्य छाँटिए--(कं) क्‍या अध्यापकों के 

समक्ष ही छात्र अध्ययनरत रहते हैं . (ख) छात्र अध्ययनरत रहते हैं और अध्यापक 
उन्हें देखते हैं (ग) अध्यापक देखते: हैंकि छात्र अध्ययनरत हैं (घ) अध्यापकों के 
. सामने छात्र अध्ययनरत रहते हैं या नहीं (ड) जब छात्र अध्ययनरत रहते हैं, तब. 
अध्यापक उन्हें देखते हैं। 4. इन वाक्यों में आश्रित उपवाक्य छाँटिए और उन के 
... नाम बताइए--(क) यह बिलकुल झूठ है कि मैं ने तुम्हारी घड़ी चुराई है। (ख) जब. 
तुम पैदा हुए थे, तब मैं दस वर्ष का था। (ग) श्याम ने बताया कि वह कल नहीं भा... 
.. पाएगा। (घ) यदि इस सप्ताह भी पानी नहीं बरसा तो सूखा पड़ जाएगा (७) मुझे 








प्रश्न तथा अभ्यास | 473 


वही नोट चाहिए जो तुम्हारे हाथ में है। 5. इन वाक्यों में उद्देश्य छाँटिए-- (क) 
गंगा एक बहुत पवित्र नदी है । (ख) गोस्वामी तुलसीदास ते. हिन्दी में रामायण 
लिखी है । (ग) सर विलियम जोन्स संस्कृत के एक उत्कृष्ट विंदुवान्‌ थे। (ब) सभी 
जवान देश के प्रहरी हैं । (ड) मेरे पड़ोसी की बड़ी बेटी की शादी कल है। 6. इन 
बाक्यों को सरल वाक्यों में. बदलिए--(क) जो बच्चे भोले-भाले तथा परिश्रमी . 
होते हैं, उन्हें सभी प्यार करते हैं। (व) यदि मन लगा कर परिश्रम किया जाएगा 
तो सफलता मिलेगी ही (ग) बताइए, आप कब वापस आा रहे हैं ? (घ) वे केवल. 
पढ़ाते ही नहीं, बल्कि खेती भी करते हैं। (छड) जब हार ही गए, तब अफसोस 
क्यों ? 7. कारक-प्रयोग की वृष्टि से इन वाकयों को शुद्ध कीजिए--(0) वे कल 
सुबह नौकरानी बुलाया था। (7) यह प्रश्न किसी की समझ नहीं आया। (7) 
साधना उमिला को खिलौने लाई । (४) घाव में मरहम लगा लो । (५) तालाब के 
अन्दर पानी नहीं है। (४ा) तुम वहाँ किस को मिलोगे ? (शा) उच्च विचार 
को ग्रहण करो (शा) युद्ध में सैनिक जान हथेली में रख करशत्‌, को लड़ते हैं। (5) 
बच्चे ने हँस दिया । (5) बहन भाई में विश्वास था। (ह) बच्चा खिलौना को रो 
रहा है। (खो) पिता से मेरा प्रणाम | (ह9) तुम तो घर में का आदमी 
हो । (9) दो मजदूर मकान की छत पर से गिर गए । (5४) चलो, इसी बहाने से 
उन का दर्शन हो गया । (अर) बच्चे को आप की बात भूल गई । (5४) प्रधाता- 
ज्ञार्य मॉनीटर को पूछा कि“ (भा) भैता झाड़ी पर बैठी है। (25) इस गाँव पर 
.. कुत्तों की अधिकता है । (ह5) वह स्कूल को छोड़ दिया है । 0. इन. वाक्यों को मिश्र 
वाक्यों में बदलिए--(क) अंस्वस्थ होने के कारण सुशीला परीक्षा में सम्मिलित न हो 
सकी  (ख) भारतीय जवानों को मोर्चा सँभाले देख दुश्मत भाग खड़े हुए । (ग) घर 
.. आए अतिथि की दीन दशा देख कर बच्ची से भरपेट खाना खिलाया । (घ) संकटों 
.. से घिरा रहने पर भी वह निराश नहीं हुआ। (ड) परिश्रमी छात्र परीक्षा में अवशा 


|... सफल होते हैं। 9. विविध प्रकार की अशुद्धियों से युक्त इन वाक्यों को शुद्ध _ हू. 
 क्रीजिए--(!) अफसर ने कागुजात का निरीक्षण कर लिया हैं। (2) ऐसे काव्य में... "० 





किसी. व्यक्ति या घटना के दृश्य या रूप'का ही चित्रण प्रधान होता है । (3) ये पत्र. 
जब वे जेल में थे, उन दिनों लिखे थे । (4) को तुम अपनी बात का स्पष्टीकरण... 
. करने के लिए तैयार हो ? (5) अब इस बच्चे का अविष्य आप पर तिभभेर करता हैं।.. 
(6) बेचारी कई वर्षों से उस के लौटने की प्रतीक्षा देख रही है। (7) महाच्‌ व्यक्ति 
के लिए उस का काम ही पूजा होती है । (5) अभी एकाध कठिवाइयाँ और रह गई... 
हैं। (9) क्या तुम को भी दो बार जुड़वाँ बच्चियाँ हुई हैं? (0) किसी भी बच्चे 


को मेज दोजिए | ([]) चाह जो भी दोः हम “वहाँ चल (2) करे कुमवो... 


. इतनी जल्दी वापस लौट आईं। (3) तब तो शायद वे हमें वहाँ जुरूर मिलेंगे। 


.._(4) पिस्तौल एक उपयोगी शस्त्र माना जाता हैं। 5) दो बैल, दो गधे, एकलैंस..._ 


«और एुक बकरी मैदान में चर रहे हैं। (6) कहते 


हें राजा भोज के राज्य में श बाघ 











470 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


बुद्धिवाला (25) देखने योग्य (26) दूर की बात को देखनेवाला (27) शक्तिके 
_ अनुसार (26) सब कुछ जाननेवाला (29) जो जानने की इच्छा रखता हो (30) 
भविष्य को देखनेवाला 56. इन वाक्यों के काले छपे वाक्यांशों के स्थान पर एक-एक 
शब्द का प्रयोग करते हुए वाक्य बन।इए-- (4) आप हमारे घर परिवार के साथ कब 
आएँगे ? (2) ऊपर कही गई बातों का विशेष ध्यान के साथ पालन करना चाहिए। 
(3) जो शरण में आ गया हो, उस की रक्षा करनी ही चाहिए । (4) वसन्‍्त ऋतु में. 
प्रकृति की शोभा देखने योग्य होती है । (5) सीता जी चित्रकूट में पत्तों की बनो 
कुटिया में रहती थीं। 57. इन शब्दों में पुल शब्द तथा उपसर्ग छाँदिए--अध्यक्ष, 
आरोहण, उल्लेख, बदबू, लावारिस, दुबला, बदकार, दुर्दमनीय, संस्कृत, परिश्रम, 
 नीरोग, प्रफुल्लता, पराभव, परिणाम, उद्योग, प्रत्युपकार, दुराचार, उद्धत, विस्मरण 
: उन्‍्नीस | 39. इन शब्दों में मूल शब्द तथा ध्रत्यय छाँटिए--महिसा, स्त्रीत्व, तैराक, 
बचपन, खटिया, गरीबी, खिवेथा, लालची, नीलिमां, हषित, झाड़न, चमकीली 

पाठक, लकड़हारा, लूटिया, सुनार, बुराई, लिखावट, पुष्पित, साहित्यिक, 
पुजारी, झगड़ालू, जंगली, प्यासा, अगला, अड़ियल, छबीला, बपौती, बेला, 
डकेत, गेरुआ, कतेव्य, पुजनीय, चटनी, एकत्र, देत्य, पांडित्य, आनन्दित, टिकली, 


चचेरां, भुतहा, इकरारनतामा, दर्देनाक, खाकसार, पदनिशीन । 59. 
इन शब्दों के विलोमार्थो शब्दों से रिक्त स्थान-पूति कीजिए---(अर्वाचीन, आस्तिकता, 


. दिन, त्याग, मान, विकर्षण, संक्षिप्त, त्ताहसी, सुकाल, स्वतन्त्रता (7) उपन्यास सम्राट 
प्रेमचन्द*”*“”“भर लिखते रहते थे। (#) तलवार का घाव भर जाता है, किल्तुत" 
का घाव कभी नहीं भर पाता । (४) धन की पूजा को सन्‍्तों ने सांसारिक'“'कहा 
. है। (४) बौद्ध धर्म के ह रास के दियों में “का विकृत रूप तन्त्न-साधना बन गया. 
 था। (५) संवत्‌ 956 का!”बहुत समय तक याद रहेगा । (४)-“सिपाही ही 
प्राणों की चिन्ता कर युद्ध भूमि से भागते हैं। (शा) हमें “भारतीय. संस्कृति पर 
गे है। (शा) कलवाली दुर्घटना की““जानकारी मिलनी चाहिए । (5) 
बन्धन कोई. नहीं चाहता । (52) खजुराहो की. मूर्तियों में विशेष“ है । 60. भ्रदत्त 
पर्याय शब्दों में से उपयुक्त शब्द से रिक्त स्थान-पूति कौजिए--(क) आतंकवादियों 
के हमले के समय अनेक लोग रामायण के संगीत*““'सें गोते लगा रहे थे । (समुद्र, . 
सागर, पयोधि, रत्ताकर (ख) सभी राजपूत अपने““पर गयव॑ करते हैं। (शक्ति, 
पराक्रम, वैभव, गौरव) (ग) पंचायतें स्थापित करने का: उद्देश्य था--जनता को" 
देखते सारा"“मेघाच्छन्त हो गया। (आसमांव, आकाश, व्योम, अन्तरिक्ष) (छ) 
मैं बचपन से ही'*“में तैरना सीख गया था। (सरिता, नदी, तटिनी, 'तरणी) 6.. | 
इन शब्दों के दिए गए पर्याय शब्दों में से 2-2 अपर्याय शब्दों को छाँटिए---(3) अंपमान' 
* (अवहेलना, तिरस्कार, प्रिभव, अनादर, निरादर, पराभव) (7) आँख (च 
प्रियम्बु, सहकार, नेत्र, लोचन, नयन) (77) इन्द्र (अमरपति, पुरन्दर, मेघवाहन, 


कल 2 अमल आल मिलन 


पपीता पार सलपरररा पक 4 १5४ पमरतकपत रकम 





+ 
4 
रे 
|; 
के 
| 








प्रशश तथा अभ्यास | 47.. 


' सुरपति, दानव, सुरेश. बलराम) (।ए) कमल (शतदल, तामरस, पंकज, शची, सरोज 


नीरज, अनुचर,) (५) किरण (मयूख, रंभा, मरीचि, अंशु, कर, रश्मि, सारमेय) (शा) 
तालाब (तड़ाग, जलाशय, पद्माकर, सर, किकर, पावस, सरोवर) (शा) देवता (देव, 
सुर, आदित्य, तरी, अमर, निर्जेर, कामाक्षी) (शा।) पहाड़ (अचला, महीघर, आर्या, 


 भूधर, शैल, आत्मजा, पर्वत) (5) रात्रि (व॒न्दा, क्षणदा, तमस्विनी, रजनी, निकर, 


विभावरी, यामिनी) (5) समुद्र (सागर, सिन्धु, - पु ज, नदीश, अब्धि, विधु, वारीश) 
62. इन मुहावरों/कहावतों के दिए गए क्षर्थों में से शुद्ध अर्थ बताइए--() धोबी 
का कुत्ता न घर का घाट का (१. कहीं ठोर-ठिकाना न होना 2. धोबी के कुत्ते को घर 


में और घाठ पर जगह नहीं मिलती 3. बीमारी के कारण धीरे-धीरे चलना 4. गदहा 
. बनना) (2) आस्तीन का साँप (, कपटी मित्र 2. आँख की किरकिरी 3. नये 
जमाने का आदमी 4. मिठबोला श्र) (3) फूँक-फूंक कर पैर रखना (3. फूक मारते 


हुए पैर रखना 2. डरते हुए कदम रखना 3. सोच-विचार कर काम करना 4. 
धीरे-धीरे ट<हलना) (4) छठी का दूध याद आना (, भूख-प्यास लगना 2. शैशव 
की याद आता 3. बुरा हाल होना 4. पंराजित होना) (5) कान भरना (। कान में 
फक मारता 2. कान में पाती भर जाना 3. कान में दवा डालना 4. किसी के 
विरुद्ध शिकायत कर किसी को बहकाना) (6) एक पंथ दो काज (. एक साथ दो 


' पद पाना 2. एक साथ दुहरा लाभ होना 3. एक बार में अनेक कार्य करना 4. क्‍या 


करें, क्या न करें के सोच में पड़ना) (7) गाल बजाना (!. शिव जी की पृजा करता _ 
2. डींग हाँकना 3. एक विशेष प्रकार की बीमारी 4. गाल' नामक एक विशेष 


- प्रकार का बाजा बजाता) (8) बाँसों उछलता ( . बाँसों के ऊपर से उछाल मारना 


2. नीचे से उछल कर ऊपर चढ़ जाना 3. अति प्रसन्‍त होना 4. पायल हो जाना) 


(9) अपना उल्लू सीधा करना (. अपने पालतू उल्लू को डंडी से पीटना 2. अपना 


काम निकालना 3. धर्तेता करना 4. गाली-गलौज देना) (40) आसन डोलना (॥ 
एक जगह से दूसरी जगह जाना 2.. अत्यधिक चंचल होना 3. ऊपर से नीचे आा 
जाना 4. आसन का हिलना-डलना) (!) तन पर नहीं लत्ता, पान खाए अलबत्ता 
(।. घर में नहीं दाने फफी चली भूनाने 2.-झूठा दिखावा करना 3. दूसरों पर रोब 


.. डालना 4 बुरी आदत में पड़ जाना) (2) ताक रगड़ना (. नाक भलना 2. नाक - 


में चोट लग जाना 3.-इज्ज्‌त देना 4. बहुत खुशामद करना) (43) ऊंठ के मुह में 


जीरा (. ऊंठ के मुह में एक विशेष प्रकार कीं बीमारी होता 2. अत्यल्प 3. ऊट 


के मुह में जीरा उड़ेलना 4. पेट भर जाना) (4) सब धान बाईस पंसेरी (. अच्छा 


 बुरा-सब को समान समझना 2. बहुत॑ सस्ता होना 3. बहुत मेंहगा होना 4. अधि- 


कता सुविधाजनक होती है) (5) दाल-भात में मूसलचन्द (..दाल भात में मूसल 


चलाना 2. खाने-पीने पर जान छिड़कना 3. बेकार की दखुलन्दाजी 4. अपने आप को 
बहुत बड़ा समझता) 63.इन अशुद्ध मुहावरों को शुद्ध कीजिए---(क) अग्नि पानी हा 
... का बैर (ख).अंधे का डंडा (ग) अपनी रोटी अलग पकाता (घ)आ श्ेंस मुझ मार 








. 472 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(ड) एक डंडे से हाँकना (च) एक थेली के ईठ-पत्थर (छ) कान पर चींटी तक न ' 
रेगता (ज) जमीन पर पंजा न पड़ना (झ) नाकों चबेना चबाना (ञ) रस्सी जल गई 
मगर सलबट नहीं निकली । द 
पदबन्ध तथा वाक्य-व्यवस्था---. शंद्घ उत्तर. बताइए--() “तन्दुरुस्त 
ओर सुन्दर बच्चा सभी को अच्छा लगता है” में 'तन्दुरस्त और सुन्दर बच्चा 
है--(क) पद (ख) उपवाक्य (ग) पदबन्ध (घ) सामासिक शब्द । () “हमारे पड़ोस' 
में कमलनयन रहता है” में 'कमलनयन' है--(क) पद (ख) पदबन्ध (ग) समस्त पद 
(घ ) सन्धि (7) 'तुझ अभागे को यह दिन देखना भी बदा था' में 'तुझ अभागे को! 
है--(क) संज्ञा पदबंध (ख) सर्वेनाम पदबन्ध (ग) विशेषण पदबन्ध (घ) उपवाक्य 
(९) “इस समय आप यहाँ से चले जाइए! वाक्य है--(क) प्रश्नसूचक (ख) अनुरोध- 
सूचक (ग) आज्ञा्थेंक (घ) निषधसूचक (५) “उस के सामने या शान्‍्त सरोवर धौर 
उस में तैरता हुआ एक राजहंस” में 'तैरता हुआ! है--(क) विशेषण पदबन्ध (ख) 
क्रियाविशेषण पदबन्ध (ग) क्रिया पदबन्ध (घ) संज्ञा पदबन्ध (7४) “तपती दुपहरी में 
भिखारी जमीन पर लोटते हुए चिल्ला रहा था में "जमीन पर लोटते हुए' है--(क) 
विशेषण पदबन्ध (ख) क्रियाविशेषण पदबन्ध (ग) क्रिया पदबन्ध (घ) संज्ञा पदबन्ध 
(शा) श्रीकृष्ण सुदामा की दीन दशा सुन कर अत्यन्त विह वल हो गए! वाक्य... 
है--(क) सरल (ख) सरलसम (ग) मिश्र -(घ) संयुक्त (शा।) “वह, जो अभी-अभी ' 
यहाँ से गई है, मेरे साले की बेटी है पें 'ज़ो'“गई है” है--(क) पदबन्ध (ख)- वावंय 
(ग) उपवाक्य (घ) समस्त पद (75) 'तुम्हारा पैसा इस महीने के अन्त तक तुम्हें मिल 
जायगा'” में “इस महीने के अन्त तक' है--(क) संज्ञा पदबन्ध (ख) क्रियाविशेषण 
. पदबन्ध (ग) सर्वेनाम पदबन्ध (घ) समयसूचक पद (5) 'सूरज उगा, कुहासा भागा 
.._ वाक्य है--(क) सरल (ख) मिश्र (ग) संयुक्त (घ) सरलसम 2. संरचना को दृष्टि से . 


ये कैसे वाक्य हैं ? (7) माँ-बाप चाहते हैं कि उन की सन्‍्तान स्वस्थ रहे और ख ब पढ़े- 


लिखे (४) पौधों के जीवन का आधार केवल पानी ही नहीं है, वरनू कई अन्य पदार्थ 
भी हैं। (7४) बच्चा अभी-अभी सो कर उठा है। (7४) विद्या से ज्ञान-वदिध होती 
है, विचार-शवित प्राप्त होती है तथा सम्मान' मिलता है। (५) जब संकट आ जाए. 
तो घबराना नहीं चाहिए । (शं) प्राची में सूयं के आगमन ने अन्धकार.के अस्तित्व. 
को समाप्त कर दिया । 3. इन में से सिश्र वाक्य छाँटिए--(कं) क्‍या अध्यापकों के 

समक्ष ही छात्र अध्ययनरत रहते हैं .(ख) छात्र अध्ययनरत रहते हैं और अध्यापक 
उन्हें देखते हैं (ग) अध्यापक देखते: हैंकि छात्र अध्ययनरत हैं (घ) अध्यापकों के 
सामने छात्र अध्ययनरत रहते हैं या नहीं (ड) जब छात्र अध्ययनरत रहते हैं, तब 


अध्यापक उन्हें देखते हैं। 4. इन बाक्यों में आश्रित उपवाक्य छाँटिए और उनके 


नास बताइए--(क) यह बिलकुल झूठ है कि मैं ने तुम्हारी घड़ी चुराई है.। (व) जब. 


ा पा तुम पैदा हुए थे, तब मैं दस वर्ष का था। (ग) श्याम ने बताया कि वह कल नहीं आ _ है 
पा । हे पाएगा । (घ) यदि इस सप्ताह भी पानी नहीं बरसा तो सूखा पड़ जाएगा ( ) मुझे पा 















ससुर उकलटता सदा पर पतवछज तलाक अवसर रनयुह पर नपपररहमपरव पड ससप 


'जमनाललडताकलतलडसपथ करत कल मक 


मा 


.. के लिए उस का काम ही 


..._ इतनी जल्दी वापस लौट आई । 
5 ([4) पिस्तौल एंक-उपयेी हे 6 कहां 
| «और एक बकरी मैदान में चर रहे हैं। (7) हे 


- अश्न तथा अभ्यास | 473 


वही बोट चाहिए जो एुम्हारे हाथ में है। 7. इन चाकयों ईँ उद्देश्य छाँटिए--(क) 


गा एक बहुत पवित्न नदी है । (ख) गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दी में रामायण... 


लिखी है। (ग) सर विलियम जोस्स संस्कृत के एक उत्कृष्ट विद्वान थे। (घ) सभी 
जवान देश के प्रहरी हैं । (ड) मेरे पड़ोसी की बड़ी बेटी की शादी कल है। 6. इन 
बाक्यों को सरल वाक्यों में. बदलिए--(क) जो बच्चे भोले-भाले तथा परिश्रमी 
होते हैं, उन्हें सभी प्यार करते हैं । (ख) यदि मन लगा कर परिश्रम किया जाएगा 
तो सफलता मिलेगी ही (ग) बताइए, आप कंज वापस आ रहे हैं ? (घ) वे केवल. 
पढ़ाते ही नहीं, बल्कि खेती भी करते हैं। (छ) जब हार ही गए, तब अफसोस 
क्यों ? 7. कारक-प्रयोग की दृष्टि से इन वाक्‍यों को शुद्ध कीजिए-- () बे कल 
सुबह नौकरानी बुलाया था। (9) यह प्रश्त किसी की समझ नहीं आया। (77) 
साधना उ्सचिला को खिलौने लाई। (४) घाद में मरहम लगा लो । (४) तालाब के 
अन्दर पानी नहीं है | (५ )) तुम वहाँ किस को मिलोगे ? (शा ) उच्च विचार 
को. ग्रहण करो (शा) युद्ध में सैनिक जान हथेली में रख करशत्न को लड़ते हैं। ((5) 
बच्चे ने हँस दिया-। (5) बहन भाई में विश्वास था। (४) बच्चा खिलौता को रो 
रहा है। (अं) पिता से मेरा प्रणाम । (5) तुम तो घर में का आदमी 
हो | (2४५) दो मजदूर मकान की छत पर से गिर गए । (5५) चलो, इसी बहाने से 
उन का दर्शन हो गया । (अएं) बच्चें को आप की बात भूल गई । (5ए) प्रधाता- 
चार्य मॉनीटर को पूछा कि: (>'ं) मैता झाड़ी पर बैठी है। (अ5) इस गाँव पर 
कुत्तों की अधिकता है । (7050) बहू स्कूल को छोड़ दिया है । 8. इन वाक्‍्यों को मिश्र 


. बाक्‍्यों में बदलिए-- (क) अस्वस्थ होने के कारण सुशीला परीक्षा में सम्मिलित न हो 


आए अतिथि की दीन दशा देख कर बच्ची से भरपेट खाना खिलाया । (घ) संकटों 


से घिरा रहने पर भी वह निराश नहीं हुआ । (ड)) परिश्रमी छात्र परीक्षा में अवश्य 


सकी 4 (ख) भारतीय जवानों को मोर्चा सँभाले देख दुश्मत भाग खड़े हुए। (ग) घर 


सफल होते हैं। 9. विविध प्रकार की अशुद्धियों से युक्त इन वाक्यों को शुद्ध. 
 क्रोजिए--() अफसर ने कागजात का निरीक्षण कर लिया है। (2) ऐसे काव्य में. 


किसी. व्यक्ति या घटना के दृश्य या रूप'का ही चित्रण प्रधान होता है । (3) ये पत्र॒_ 5 


. जब वे जेल में थे, उन दिनों लिखे थे । (4) क्या तुम अपनी बात का स्पष्टीकरण 


करने के लिए तैयार हो ? (5) अब इस बच्चे का भविष्य आप पर निभेर करता है।. 
(6) बेचारी कई वर्षों से उस के लौटने की प्रतीक्षा देख रही है । (7) महान्‌ व्यक्ति 
ही पूजा होती हैं। (5) अभी एकाधघ कठिनाइयाँ और रह गई... 


... हैं। (9) क्या तुम को भी दो बार जुड़वां बच्चियाँ हुई हैं. (/0) किसी भीबच्चे 
() चाहे जो भी हो; हम वहाँ चलेंगे। ([2) करे, तुम वी... 
_(3) तब तो शायद वे हमें वहाँ जुखूर मिलेंगे॥ ८ ८5 

; माना जाता है । (5) दो बैल, दो गधे, एकबैंस... 


को भेज दीजिए ध. 








कहते हैं राजा भोज के राज्य में बाघ 











474 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण... 


और बकरी एक घाट पानी पीती थी। (7) मुझे विद्याथियों ने एक अभिनन्दन- 
पत्न प्रदान किया | (8) प्रतिवर्ष गणतन्त्र दिवस पर भारत की महान विभृतियों को 
पद्मश्री आदि पदवियाँ अधित की जाती हैं। (9) परिणय-सूत्र में बंधनेवाली 
सोभाग्यवती सुशीला को सस्नेह भेंट । (20) तीसरी शीटी पर सब खिलाड़ी भागना 
आरम्भ करेंगे। (2) मेरा नाम श्री प्रमोदकुमार जी है। (22 ) कृपया आप ही यह 
सब समशझ्ञाने का अनुग्रह करें । (23) आप के बेटे की मृत्यु का हमें भी बहुत खेद है। 
(24) क्‍या एक-एक कर के सभी चले जाओगे ? (25) नेता लोग दिखावे के लिए 
कुछ विशेष दिलों में चरखा कातते हैं। 0. उपयुक्त शब्दों से रिक्त स्थान-पाति 
कीजिए-- () वाक्य में उद्देश्य और विधेय का सम्बन्ध धनात्मक के अतिरिक्‍त्‌*-०«-« 
भी होता है। (४) शीर्ष /केन्द्र पद के आगे-पीछे विशेषक के रूप में आनेवाले पद'** 
कहलाते हैं। (7) वाक्य का वह गुण जिस के कारण वाक्य का अन्वय करने पर 
अर्थंबोध में बाधा उत्पन्न नहीं होती,''“' कहलाता है। (९) वाक्य में पदों की 
आसत्ति*“*“”“'” प्रकार की होती है। (५) क्या हम घर जाएँ! में प्रश्नयुत""“ 
है । (४४) “'बतंख तैर रही है वाक्य की क्रिया अवस्थितिसूचक नहीं, वरन्‌ "'«+««*- 
है। (शा) "सन्दर्भ में वाक्य अधिक संक्षिप्त तथा अपूर्ण रहते हैं। (शा)... 
सरलेतर वाक्य" हल प्रकार के होते हैं। (5) घटक अस्तित्व के आधार पर. 

_ वाक्य“ प्रंकार के होते हैं । (४) वाक्य-विग्रह की सारणी में उद्देश्य को दो भागों 
में और विधेय को“ “भागों में बाँठा जाता है। (हां) हिन्दी में दो स्तरों पर 
अन्विति मिलती है--'' ““स्तरीय, “स्तरीय । (उप) नियमन को““ ४ या४८ 
“““““भी कहा जाता है। (हा) चयन तथा अर खलन की प्रक्रिया का अन्तर «“* 

कहा जाता है। (>४) अलंकार, छन्द और रसे““““भाषा को अधिक प्रभावकारी 
. और रोचक बना देते हैं। (४९) शब्द-शक्ति के “भेद माने जाते हैं।.. 
परिशिष्ट--. इन कथनों का शुद्धाशुद्ध निर्णय कीजिए---() किसी भी 


भाषा की उपभाषाओं तथा बोलियों की एकसूचता उन की पारस्परिक बोधगम्यता - 


पर आधारित है। (7) सीमित क्षेत्र में बोली जानेवाली भाषा में क्षेत्रीय विविधताएँ 
कम पाई जाती हैं। (7) परिनिष्ठित हिन्दी ज्ञाता के लिए पूर्वी और पश्चिमी 
हिन्दी बोलियाँ अबोधगम्य हैं । (7५) अलीगढ़, मथुरा, आगरा में कौरवी बोली जाती. 

है । (५) कौरवी में दीर्घ स्वर का परवर्ती व्यंजन प्रायः दीघं हो जाता है। (शं) 
हरियाणवी तथा बाँगरू दो अलग-अलग बोलियाँ हैं। (४४) ब्रजभाषा का मुख्य केन्द्र 
दिल्‍ली है । (शंप) कान्यकुड्ज और कनौजी शब्द परस्पर सम्बद्ध हैं। (७) श्ाँसी 


के आस-पास बुन्देली बोली जाती है। (5) अवधी का एक नाम कोशली भी है। 


(5) बघेलखण्ड की भाषा को बुन्देली कहा. जाता है। (५) छत्तीसगढ़ी को लरिया.. 


हक हा ४ भी कहा जाता है । (5) मातृभाषा भाषी बच्चे बिना | किसी सेद्धान्तिक व्याकरण - रा 
हम] ही क्के ज्ञान के ही भाषा-व्यवहा'र कार लेते ॥ हैं है ँ ( रत ) हेन्दी भाषा का आरम्भिक ८ 


... व्याकरण किसी भारतीय ने लिखा था। (5५) हिन्दी व्याकरण-क्षेत्र में विदेशी 


... ... चिन्तकों का कार्य सराहनीय है।.... 





असककनकुलााहकसकबी नजर -सनुकन- “खनन -० 5५.5९ ३ 





मा शक कटक नल कर 
का ४90७७ अमन व निमििशिद सी हे हे 
है 09999 एएए्छ्ल्‍छ७ऋ ७ डा + >५ कय का कदनकनिीनदिनीिीीी 





दे 


(ड) >< । 








उत्तर-संकेत 


.._ बिषय-प्रवेश--. (क) भाषा (ख) व्याकरण (ग) अपनी (घ) व्यवस्था 
(ड) प्रतीक (च) प्रतीकार्थ (छ) लिपि (ज) उपयुक्त (झ) शतप्रतिशत (अब) ध्वनियों 
2. (क) 2 (ख) »< (ग) ४ (घ) ९/ (5) 2८ 3. (क) बोलियाँ (ख) तीन (ग) 


.. पाँच (घ) आरम्भिक (ड) मध्यकाल (च) सम्मिलन (छ) उच्चरित (ज) मुसलमातों 
4 


(झ) भाषा-व्यवहार (अ) व्याकरण (क) 4/ (ख) >< (ग) 4/ (घ) */ 


ध्वनि तथा वर्ण-व्यवस्था--. (क) ध्वनि (ख) स्वन (ग) लिपि-चिह न 


क्‍ (घ) नहीं (डा) वर्षों (च) प्रभाव (छ) स्वनिम (ज) काल्पनिक (झ) स्वनिम (जब) 


उच्चारण 2. (क) उच्चारण (ख) अचल : (ग) समीष (घ) कठोर (ड) अनुतासिक 
(च) अग्र (छ) स्वर-तन्त्रियाँ (ज) कम्पन (झ) अधिक (अ) जपित 3. (क) तालु 


'(ख) दन्तोष्ठ (ग) दंतमुल (घ) ओष्ठ (डर) कठोर तालु 4. (क) सात (ख) तालव्य 


(ग) सुर, अनुतान (ध) विवृत्ति (ड) व्यंजन, स्वर 5. (क) नहीं (ख) नहीं (ग) नहीं. 
(घ) हाँ (ड)) हाँ (च) हाँ (छ) हाँ (ज) नहीं (झ) हाँ (ज) नहीं । 6. कंचन, दंड, 


चंदन,' आँधी, गांधी, आँख, उँगली, ऊँट, हँसना, बंदर, बँदरिया, रंग, रेगरेज, 
. हँसिया, फेंसना, ढाँचा, चंगा, मंगली । 7. प्रतिच्छाया, स्वास्थ्य, उज्ज्वल, कवयित्री, 

. जागरित, ज्योत्सना, अतिशयोक्ति, प्रसन्‍्त, निरपराध, पुजनीय, परीक्षा, तैयार, 
प्रशंसा, उज्ज्वल, श्व्‌ गार, आशीर्वाद, विशेषता, दशम, महत्त्व, अतिथि, गरिष्ठ, .. 
_ आगामी, पृरुषार्थे, मृत्यु, अनुगृहीत, आकांक्षा, प्रदर्शनी, चरमोत्कष, कृतकृत्य, ईर्ष्या, 
_ग्रहीता, पृष्ठ, पिशाच, चिह न 8. (क) प्लुत (ख) नहीं (ग) अल्पप्राण, लिखा (घ) 


अल्पप्राण, लिखा (ड) संस्कृत (च) स (छ) चिह न (ज) जु फु (झ)योजक (अब) 


... प्रयत्न 9. बवंडर, विवश, प्रतिबिम्ब, बिन्दु, दबाव, नवाब, कवाब, गरिष्ठ, अनिष्ठ, 
प्रशासनिक, आमिष, सृष्टि, श्लिष्ट, श्रेष्ठ, षष्ठी, .. ॥ 
.._: संतुष्ट, कनिष्ठ, निष्ठा, प्रशंसा, कुशासन, प्रसाद, नमस्कार 0. कमला, विद्यार्थी, का, 
.... _- विद्युत, प्रतीक्षा, सत्यभाषी, बचपन, क्लेश, दक्षता, यज्ञ, लब्धग्रतिष्ठ 4. (क) तालु ह । कं 

. [ख) दल्तोष्ठ (ग) मुंह (घ) बिन्दु (ड) छह (च) बद्धाक्षर (छ) मध्य (ज) दीघ॑.. . ह। 


पृष्ठ, शॉसन, आदश 


475 








476 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


(झ) कोमल तालु (ञज) स्वर वर्ण 42. बलाघात 3. (क) जठिल (ख) मात्रा (ग) 
लिपि (घ) लिपि (ड) देवनागरी-वर्ण (च) द्वित्व (छ) बिन्दु (ज) योजक (झ) संस्कृत- 
(ञ) भाषाओं 4. (क) अयोध्या (ख) बीमार (ग) वाल्मीकि (घ) अत्यधिक (ड) 
अवनति (च) अत्युक्ति (छ) अनुकूल (ज) अहल्या (झ) उज्ज्वल (जअ) कालिदास ( औ 
क्षमा (5) अनिष्ट (ड) उपलक्ष (ढ) महत्त्व (ण) ईर्ष्या (त) चिह न (थ) तालाब (द) 
प्रणाम (ध) नूपुर (न) वाहिनी (प) स्मरण (फ) मैथिली (ब) कवयित्री (भ) बहुलता 
(म) आविष्कार 5. भाग्यवान्‌, वाडः मय, प्रंत्युत, पृथक, किचितु, हठातु, श्रीमात, 
वणिक्‌, बुद्धिमान, विधिवत, एव, वाक, षढठ्‌ 6. एक दिन मेम-डॉक्टर कंमला 
से रूखे-से स्वर में पूछ बेठी--“तू कहाँ जाएगी ? जाती क्यों नहीं ? दूध और केलों 
पर कहाँ तक पड़ी रहेगी ?” “कहाँ जाऊं ?” “मैं क्या जानूँ, कहाँ जाएगी |” “मेरा 
तो इस दुनिया में कोई अपना नहीं है !” “तो इस के लिए क्‍या मैं जिम्मेदार हूँ? 


अस्पताल कोई यतीमखाना या आश्रम तो नहीं है । अगर तू खुद यहाँ से न निकलेगी, 


तो मैं आज शाम को तुझे धक्के दे कर निकलवा दूंगी।” 7. (क) दस, दो (ख) 
तीन (ग) अध॑ विवृत (घ) उच्च (डः) अग्न (च) अनुनासिक (छ) घोष, अघोष (ज) 
दुढ़ (झ) संघर्षी (अ) तीन (ट) स्वनिक, व्याकरणिक (5) स्वर, व्यंजन (ड) चार 


हे (ढ) तीन (ण) अग्रतालव्य (त) स्पर्श-संघर्षी (थ) के बाद (द) केन्द्रीय मुख्य, गौण 


(ध) अधोष (न) स्वनिक (प) नासिक्य (फ) श॒ (ब) चार (भ) तीन (म) तीन । 

रूप तथा शब्द-व्यवस्था--. (क) निर्धनता--भाव०, दया-भाव०  (ख). 
कृष्ण-व्यक्ति० सुदामा-व्यक्ति ०, मित्रता-भाव ० (ग) पानीपत--व्यक्ति० , लड़ाई-भाव ० 
लड़ाइयाँ-जाति० (घ) बच्ची-जाति०, मुस्कान-भाव० (») सिह-जाति०, आँखों- 
जाति०, भयंकरता-भाव० 2. (क) मिलावट (ख) निर्धनता (ग) लिखावट, लिखावट 


(घ) लड़ाई (5) चुनाव 3. (क) शुद्ध (ख) शुद्ध (ग) अशुद्ध (घ) अशुद्ध (छ) 


शुद्ध (च) अशुद्ध (छ) अशुद्ध (ज) अशुद्ध (झ) शुद्थ (ज) शुद्ध 4. तत्सम- 
तृण, क्षेत्र, कार्य तद्भव--रात, अढ़ाई देशी--पेड़, लड़का, खिड़की, कटोरा 


. विदेशी--गमला, लीची, इंजन, रिक्शा, मशीन, चुगलखोर, कमीना, तकिया, अन- 


ब्नास 5. रूढ---जल, शेर, कल, लड़का, चाबी, मल्लाह, छिपकली, आसमान, 


किशमिश, मलाई यौगिक--शक्तिशाली, धर्मशाला, नीलकंठ, देवदूत, बेरहम, आतिश- द 


बाजी योगरूढ़--पंकज, दशानन, नीलकंठ, जलद, चक्रधर 6. शिर, हरिद्रा, कर्ण, 


 खदिर, भगिनी, सक्‍तु, शलाका, अक्षि, उष्ट्र, वध, मयूर, शकरा, पाद, निद्रा, त्वरित, .... 

.. सर्पिणी, कोकिल, उद्वर्तन, नव, चुल्लिः, तिक्‍त, भक्‍त, घोटक, गोमल, सपत्नी 
... 2. खेत, बच्चा/बाछा, हड्डी, फूल, काठ, पिय/पिया, हिरदे, बैन, पत्ता, चार, हाथ, 
... चौकी, डंडा, चोंच, हाथी, खपरा, आग, खीर, पलंग, सात 8. दिन के बाद दिन, 
गगन को चूमनेवाला, मूँह से माँगा (हुआ), डाक के लिए महसूल, लोक से उत्तर... 
.._((बाद्ग), त्रिपुर का अरि, क्षत्रियों में अधम, कुत्सित पुरुष, कुत्सित अन्त, कुमारी 
-. श्रमणा (अर्थात्‌ संन्यास्त ग्रहण की हुई), कृत-अकृत (कार्य), विद्युत के समान वेग, 











3 कचकड मुलाहाजहमुक कक <- लक 











उत्तर-संकेत | 477 . 


क्‍ रत्न के समान नर, विद्या ही है रत्न, पाँच वटों का समूह, शांति है प्रिय जिसे वह, 


परिवार के साथ है जो वह, लेन और देन, घर-आँगन आदि (-- परिवार), लाभ या 
अलाभ 9. (अ०5-अरबी, फ्‌०--फारसी, अआँ०८-अँगरेजी) पुतंगाली, अ०, रूसी 


_ अँ०, फा०, पुते०, पुत॑०, अ०, तुर्की, तु०, अ०, अ०, तु०, फा०, तु०, चीनी, फा० 


अ०, जापानी, अं०, अ०, अ०, अ०, ऑ०, अं०, अ०, फा०, फां०, फाॉ०, फा० 0 
लड़कपन, पांडिह्य/पंडिताई, मधुरिमा/मधु रता, कुशलता/कौशल, मू्खंता, हरियाली 
विदृवत्ता, खटास, पढ़ाई, मनुष्यता, चाल, एकता, अच्छाई, लघुता/लाघव, बुढ़ापा 
मुटापा, खुशी, पौरुष, काठिन्य/कठिनाई, उदारता, ममता, चोरी, बंचपन, ऐश्वर्य॑, 


प्रभुता, नारीत्व, ग्रुरुत्व, अहमन्यता, नैकट्य/निकटता, सामीप्य . (क) स्वंनाम- 
से (ख) विशेषण से (ग) क्रिया से (घ) विशेषण से (ड) अव्यय से (च) क्रिया से 


(8) सर्वताम से (ज) क्रिया से (झ) संज्ञा जातिवाचक से (ञज) अव्यय से !2, भाव० 
व्यक्ति०, भाव०, समूह०; जाति० , द्रव्य, व्यक्ति०, समुह०, जाति०, द्रव्य ०, व्यक्ति० 


. भाव०, भाव०, भाव, जाति०, भाव०, जाति०, समूह०, द्रव्य०, व्यक्ति० 3, कौशल, 


गरिमा, लेन-देन, शैशव, सामीप्य, शौयं, नीलिमा, सुधार, हंसी, दौड़, अहंकार, दौत्य 
[4. (क) वीरता (ख॥ मित्रता (ग) स्वास्थ्य (घ) बुराई. (हु) नकल (च) मिठास/ 


खटास (छ) सफलता (ज) ईमानदारी (झ) प्रशंसा (ञअ) सफेदी 5. (क) गुणवती 


(ख) तुम्हारी (ग) धीमे (घ) आठवीं (ड) दी (च) ग़ए (छ) की (ज) मीठी थी 


(झ) की (अ) रही 6. पुल्लिग--पक्षी, मच्छर, दर्जी, वक्‍त, वारंट, ठठेरा, दीप ] 

छाता, राकेट, प्रसाद, प्रासाद, चश्मा, दही, घीं, पलंग, कान, मध्‌ स्वत्रीलिग--फौस, 
. झशट, धूप, पूजा, गोद, बौछार, आरती, गैलरी; मेज, खाठ, नाक, मूँछ, धातु 7 
धोबिन, नौकरानी, पापिन, हिरणी, वर, विदुषी, युवती, जेठानी, हथिनी, नारी, _ 


कुतिया, तपस्विती, मंहाशया, ठकुरानी, आचार्या, देवरानी, इन्द्राणी, बालिका 


पाठिका, विधुर,. लोटा, सिंहनी, लुहार, दाता, पालित, लड़ैतिन, भाग्यवान्‌, पंडाइन, - 


बंदरिया/बँंदरी, बिलौटा 8. बाधिन, नतंकी, बबुआइन, मन्‍्त्राणी, गीदड़ी, युवती 


_ सुतारिन, कवयित्री, इन्द्राणी, नायिका, परिचारिका, सूर्याणी, महाशया, अध्यापिका 


9., दशन, हस्ताक्षर, आँसू, लोग, अक्षत, व॒न्द, प्राण, गण, 20. खटियाँ, दूधवाले, 


डक 


पक्षी, योद्धा, झीलें, रानियाँ, आले, मुनि, चौबे, फिल्में, ध्वनियाँ, बोतलें, प्यालियाँ,.. | 
चिड़ियाँ, दवातें, दावतें, नारंगियाँ, शहजादियाँ, तिजोरियाँ, मामा, अध्यापिकाएँ, 
- बहुएं, पाठक |पाठकगण आप/आपलोग 24. दर्शन, केश, लोग, समाचार, रोम ५ द 


आदमी, बालक, विद्यालय, भाग्य, प्राण, कागज, 22. (क) आज के छात्र कल के | 


$344:327: 24%: 


नेता हैं। (ख) तुम ने ये पुस्तकें भी पढ़ डालीं। (ग) लड़कियाँ चिट्ठियाँ लिख रही. | 
. हैं। (घ) अपने बेटों के नाम बताइए.। (ड़) सब बच्चों को जलेबियाँ मिलेंगी ।23..._ 
कप ()-“““कि हम दो“ **“हैं। (7) ““*“ने गोलों और-“““। (7/)- लड़कियाँ ०४॥ | 
. (ए)““”“मेरे तो*+““गए। (५)००-“आतंकवादियों“*“-सिपाहियों की मुठभेड़ें | 
क्‍ रे ““* “रहीं । (शं]-* बजे हैं। (श१४)--००घर से पैसे / *“'आओ/आना (शा) 








478 | हिन्दी का विवरणात्मक प्रश्न _ 


दि खाएँगे ? (5) ०००७० ०४९०० पत्तियाँ"******हैं ] (5) ४००७ "लड़कियों को कलाएँ | 


०००० ००००५ चाहिए | (>) ७००० ४००० बकवास" ***: मेरे तो >च्१० ०००० पाए ( ) कब ४८ 'आँसुओं मु 
बे कल के पैर धुल गए । 24. () अशुद्ध (#) अशुद्ध (77) शुद्ध (7५) अशुद्ध (५) 


शुद्ध 25. .() की, के, पर (#) को, से (77) के लिए, में ([४) ने, की, पर (५) से, पर (शं). 
से, ने (शा) का, को (४४7) के (9) को, पर (5) से, की, पर*-26. (7) करण (#) 
. अपादान (77) कर्ता, कर्म (शं) अधिकरण (५) सम्प्रदान (शं) करण' (शा) अपादान 
शं॥) कर्ता, कर्म सम्बन्ध 27. (7) जो, वह (8) क्‍या (॥॥) उन्हों ने (५) मुझे (४) 
तेरे (४) मैं (शा) मैं, तुम (शा) अपना (5) अपनी (5) आप 28. (घ), (च) 29 
(क), (घ), (ड़) 30. () क्या (7) तुम से (॥) मुझे (ए) अपना (काम), अपना (९) 
उस का (४५7) मेरे (तीन) (शां)-तुम्हारे (कितने) (शं॥) ये (:) अपनी (मजबूरी) (५) वे. 
(लोग) 3. (क) मैं (ख) हमारे (ग) तू (घ) किसी (ड7) तुम 32. रक्तिम, ऐतिहासिक, 
अवलम्बित, साम्प्रदायिक, मौलिक, साकेतिक, देबीय, याज्ञिक, साहित्यिक, कार 


... णिक, शोषित पं किल, पतित, कुसुमित,वसा, धामिक, विश्वजनीन, शेव, बौद्धिक, ग्रामीण 





सुनहरा, कालीन, सैन्धव, स्वणिम, मायावी, तैलीय,बं गाली, पतीला, मटीला, सौय॑, जलीय 
जैविक, दलित, वर्गीय, लौह, भक्त, लोभी, सावंजनिक 33. क (7) +ख (6), 2-- 
0, 3--6, 4--, 5-/-5, 6---3, 7--5, 8--- 20, 9" 4, 40-[7, ] .. 
अल) 23580 3  0 8; 40, 24% 6 607 56 6, 8-0 


8, 9-.9, 20-.], 2!--25, 22--2, 23--3, 24-22, 25-23 . 


34, (क) गठीला (ख) मोटे (ग) छोटी (घ) सूक्ष्म, सभी (ड) परम 35. (().बहुत 
सुन्दर महिला (7) बहुत दुःख (77) में एक हजार चार सौ पैंतीस ($0) को प्राणि- _ 
' मात्र (५) ही हिख् होता (का) भी अपना काम (शा) को चार पुस्तकें (शा) इसे 
. रहस्य (5) बड़ा-सा बिच्छ मेरे (5५) नीली साड़ियाँ 36. (॥) गाना सुना (॥) नाश्ता 
. कर के (7) विलाप करने लगी (7४) सम्भव है (५) वातावरण है (४) उच्चारण करो 
. (शा) जाना चाहिए था (शा) कर लेंगे (5) शोर न कीजिए (5) हँस पड़ी 37. 


() “+०० खर्चे होता है। (४) में हम ने व्याकरण पढ़ा (77) आज हमें गणित... क्‍ 


पढाया गया । (ए ) “») ने उन मार दी। ( ) डोली नहीं उठाई गई। ॥ 
. (शं) बच्चों से"“““कष्ट नहीं सहे जा सकते। (शा) सब की रक्षा की जाती है। 


सा (शं() बच्चों को प्यार, किया गया।. (5) यहाँ वे नहीं बैठ सकेंगे । (2) मुझे मूखे. 


समझा जाता है। (£ं) चोर पकड़ा गया। (था) इन बच्चों से यहाँ नहीं खेला कक 


जाएगा। (ह57) उस से"“““उठा जाता। (हआांए)] ““«मुझ से" “पी जाती |. 
(४५) “““«“, नौकर बुलाया जा रहा है। 38. () शुद्ध (#) अशुद्ध (7) अशुद्ध 


(0) शुद्ध (४) अशुद्ध (0) शुद्ध (शा) अशुद्ध (शा) शुद्ध (5) बशुद्ध (श) 


..... शुद्ध । 39. () खली हो (॥) रह रहा है (#) पढ़ ली (श) बनाया जाता (९) 


.. पढ़वा (शं) जुतवा (शा) खिलवा (शांत) चलती (४) गया (») होता, लगती 40... ग 
. (के) द्विकर्मक (ख) अकर्मक, अकर्मक (गं) अकमंक (घ) अकर्मेक (ड) सकमक (च) 


ः हा हा . सकर्मक 4] () सन्दिग्ध वर्तमान (7) हंतुहेतुमद्भूत (77) पूरे (४) धातु (५) नाम ग 





के हे ५--<थररमरक व: पम्प पक पक बकमातपालदकत जे मिलालना अर कस के पक 








जरा (च) बिलकुल (छ) पहले (ज) प्रतिदिन । 40. तथा +एव स्वः-- 


आगत, विदंया--अर्थी, अन्तः--तल, वृक्ष -|-छाया, शश 


 सदेव, रमेश, गणंश, वधूत्सव जलोमि, महौज, अन्वय, नयन महेश 
उदय, सागर - ऊरमि, अनु--अय, उत््‌ न 


का पति|स्वामी, कृष्ण रग का सप, 


चार भजाएँ हैं जिस के, तीन लोकों का समाहाः तुलसी 


नीला है कण्ठ जिस का, दाल और भात, नीला अम्बर| कक 
पथ से भ्रष्ट, पंच तनत्रों का समाहार ० 


प्रम आनन्द, प्रत्येक दिन, 


सेना का पति/स्वामी, शरण में आगत 50 


.. अंशुमाल, गुृहागत घी-शक्कर 
.. व्िलोक, मदान्ध, मेघनाद, पथश्रष्ट 


| . . उत्तरूसकेत | 479 
धातु (४) रजक (शा) भावे प्रयोग (शा) कर्मवाच्य (5) अभिकर्ता (5) नामार्थ.. 
क्रिया । 42. () आजकल नहीं, यहीं . (#) जोर से (॥8) कल, आज (९५) भी, भी. 
(२) चाहे, या (भ) इसलिए ताकि (शा) हाय ' ही (शा) अरे ! भी (४) लेकिन, 
ही (४) या (3) तभी (पव) हाय ! (जाग) ऐँ *, कब (पं) बिना, भी (2९) की द 
अपेक्षा (शे) आगे 43 (क) सारी रात नींद (ख ) प्रातःकाल घूमने (ग) कदापि 
सत्य (घ) कहें अनुसार काम (ड) गे सदा से 44. (क) विस्मयादिबोधक (ख) नका- द 


_ शात्मक (ग) प्रश्वोधक (घ) बलप्रदायक (ड) निषेधबोधक (च) बलार्थक (छ) बल- 


(ग) तड़ातड़ (घ) नीचे, ऊपर (ड). 
ग, सम्‌ न 


तोष, वाक--ईश, निः-+-आधार, राज -]-ऋषि, यदि--अपि, परम -+-अर्थ, सु - 
-)-अंक, वेद-- अन्त, उत्‌-नः 


इवास, नमः-+ कार, महा -- ऋषि, जगत्‌ -ईश, देव -[- इन्द्र, रत्न--आकर, सत्‌ न॑- 
जन, रजः--गुण, कपि-+इस्द्र, दुः-आशा, अत --एवं, गिरि-ईश,परम --औदायें,, 


प्रदायक 45. (क) अकस्मात्‌ (ख) ध्यानपूर्वक 


 उत्त-+लेख, दिक्‌--अन्त, गण -+- ईशा, नि:-- रस, रविन--इई्ढ, वरदू --उत्सव, रजनी, 


-ईश, पर --उपकार, यश: -- अभिलाषी, इति--आदि, निःन॑कैंपट, उत्‌ -+-घाटन 
परम --आत्मा, नि:--विवाद, शि&्ट-+-आचार, यथा --उचित, सर्वे न-उदय वि+ 


आकुल, सत्‌+-भांवना, उत्‌--नति,  वाक - मय । 47. संयोग, संन्यास पदोन्नति 
गुरूपदेश, वागीश, मनोरंजन, प्रत्येक सर्वोदिय, इत्यादि, षडानन, अंत्यधिक, ताविक, . 
48. भानु + 


ज्वल, दीक्षा-|-अन्तः, मतर्नः ऐक्य, इतिन+- 


आदि, धर्म “आत्मा, ने+अन, समृउत॒र्यीवेय सु--उकित, सूर्य न उदय: वि+. 

अर्थ, अन्त:-|- गत, नार-+-अयन, स्व -+-अर्थ, नै +अक, सरन-सप्ट --अंग 49 उद्योग 

कष्ट से साध्य, खरा और खोटा, ग्राम में वास, . 

हैं जिस के, चार भजाओं का समृह/ . 
दूवारा केत नीला गगन, 

तीला है अम्बर जिस का, द 


चार मास का समूह, जन्म और मरण, चार सुख 


नीला कमल; दस हैं आनन जिस के, प्रत्येक वर्ष, 
महान्‌ आत्मा|महान्‌ आत्मा है जिस की, पाप और पुण्य द 
समय के अंनुसार, राजा और प्रजा; रा का .पति/स्वामी, अमृत के समान वचन, . 


हापुरुष, त्रिफला, 
नीति: निपुण, मृगनयनी, ऋणमुत्त अस्त्रशस्त्र, गोबरगणश; 


जलद, नीलकंठ, नवरत्न, भरपेट 
गणपति, 





शव त्यानुसार, व्यापरा रपदु, प्राणप्रिय 


अब्राह मण, धर्माधर्म, 0 
घनश्याम, हवन सामग्री, 
युध्रिष्ठिर, महाबली अल्पबुद्धि, अष्टाध्यायी, का 

चन्द्रमुख,  देशानन, ल्िवेणी, >> 
पीताम्बर, महावीर, रेखांकित राहवचे, “ :  ॥ 
हथकड़ी, दो-तीन, नरसिहं, आजन्स, पंचमुख, । 








480 [| हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 


पंचवटी, गग॑नघचुम्बी, अनुपयुक्त, शुभागमन, मर्मस्पर्शी , त्रिभुवन, स्त्रीरत्न 5. अटवी, 
कानन, विपिन | अनल, पावक, वह नि । अभ्यागत, अतिथि, मेहमान । आवास 
धाम, सदन । जलाशय, ताल, पुष्कर | देत्य; दानव, असुर | महिला, ललना, वनिता 
पीयूष, अमृत, सुधा .। महेश, शिव, हर । 52. विष, व्यय, निर्यात, नास्तिक, अनाय॑, 
शुष्क, अधम, पतन. मधु, कृतघ्न, छोटा, मरण, दानव, सबल, मूर्ख, निव॒ृत्ति, नवीन/ 
आर्वाचीन, आच्तरिक, अपयश, अयोग्य, अरुचिकर, सम्पत्ति, श्रोता, कुटिल, दुःखद, 
असन्तोष, विदेश, नरक, स्वामी, शोक/बिषाद 53. (क) अन्धकार (ख) अनिच्छा, 
 (ग) खुश (घ) लघु (ड) मूर्ख (च) सुख (छ) पुरातत (ज) रंक (झ) असुन्दर (अ) 
कुपुत्र 54, (क) दु ख, सुख (ख) रोशनी, अंधेरे (ग) सबल, निरबंल (घ) हानि, जीवन, 
यश (ड) प्रिय, अशिष्ट 55. () आत्मघानी (2) आस्तिक (3) कामचोर (4) अव- 
 णँतीय (5) अनादि (6) अभागा (7) अनिवार्य (8) अछुत (9) निस्संतान (0) 
अक्षम्य ([) निविकार (2) निस्सन्देह (3) अविश्वसनीय (4) निर्दय (5) 
सर्वेप्रिय ([6) निर्लेज्ज ([7) जलचर (8) निरुत्तर (9) निरामिष (20) विनष्ट _ 
(2) वचनातीत (22) अमर (23) राजनीतिज्ञ (24) दुबु दधि (25) दर्शनीय (26) 
दूरदृष्टा (27) शक्‍्यानुसार (28) स्वेज्ञ (29) जिज्ञासु (30) भविष्य दृष्ठा 56. 
(!) सपरिवार (2) उपयुक्त (3) शरणागत की (4) दर्शनीय (5) पर्णकुटी 37. 
अधि--|-अक्ष, आ--- रोहण, उतु--+-लेख, बद---बू, ला--+-वारिस, दु---बला, बद- 
न-कार, दुर-+-दमनीय, सम्‌---क्ृत, परि-+-श्रम नि--+-रोग, प्र---फुल्लता, परा- 
न-भव, परि--[-ताम, उतु---योग, प्रति--|- उपकार, दुर--+- आचार, उत्‌---हत, वि- 
-+-स्मरण, उन--|-ईस 58. मह-«इमा, स्त्री+--त्व, तैर---आक, बच्चा > बच-- 
-पन, खाट-+--इया, ग्रीब---ई, खे(ना)---बैया, लालच---ई, नील---इमा, हे 
---इत, झाड़-|--न, चमक-[--ईली, पाठ-- -क, लकड़ी >लकड़---हारा, लोटा> 
लुट---इया, सोना---आर, बुरा---ई, लिख---आवट, पृष्प---इत, साहित्य -- 
इक, पूजा-|--आरी, झगड़ा---आलू, जंगल ---ई, प्यास---आ, आगे >अग+ला, 
अड-|--इयल, छबि---ईला, बाप---औती, बन-)- -ऐला, डाक >डक---ऐत, गेर-- 
न्‍आ, क्ृ---तव्य, पूज---अनीय, चाट---नी, एक-+--त्र, दिति---य, पंडित---य, 
आनन्द ---इत, टीका---ली, चारा---एरा, भूत---हा, इकरार---तामा, दद-- 
“नाक, खाक-|--सार, पर्दा-+--नशीन 59. ($) रात (7) अपमान (गे) भोग (९) 
नास्तिकता (५) अकाल (शं) कायर (शा) प्राचीन (शा) विस्तृत (४) परतन्त्वता 
(») आकर्षण 60. (क) सागर (ख) पराक्रम (ग) सुख (घ) आकाश (ड) नदी 6], 
..._ () परिभव, पराभव (7) प्रियम्बु, सहकार (7) दानव, बलराम (५४) शची, अनुचर 
(९) रंभा, सारमेय (४) किकर, पावस (शा) तरी, कामाक्षी (शंए) आर्या, आत्मा... 


(5) बन्दा, निकर (४) पुज, विधु' 62. () 4, (2) ।, (3) 3 (4) 3, (5) ५. 
(6) 2, (7) 2, (8) 3, (9) 2, (0) ।, () 2, (2) 4, (3) 2, (!4) 


, (5) 3 63. (क) आग पानी (ख) की लाठी (ग) अपती खिचड़ी (घ) आ बल 





|... बिलौने के लिए (स्पा) पिता को (अत) घर के (हा) छत से (70) बहाने उन के, . 









न हुक : अअर्मकाइाकबुरः ५2 उतता कपल काका. पक 07" 
टू मु रे जब अं 52 
कः ४ जल श ध् 92525 45: 27 हक ु 
हब है ले 02 ४ पक हे दे 
ठ 52% ; 2 न धान जम > मा. कम नमन 


































उत्तर-संकेत | 48] 


(४) एक लाठी (च) के चट्टे-बट्टे (छ) पर जू (ज) पर पाँव (झञ) नाकों चने (ज) 


मगर ऐंठन । ह द 
पदवन्ध तथा वाक्य-व्यवस्था--, (/) गे (#) क (7) ख (ए) ख (४)क 


(वे) व (शा) ख्‌ (शो!) गे (फ) ख (४) गे 2. 0) सिश्रवाक्‍्य (7) संयुक्त वाक्य 
- [) तरलसम वाक्य (7) संयुक्त वाक्य (९) मिश्रवाक्य. (४) सरल वाक्य 3. ग; 
ढ़. 4. (क) कि''“है' संज्ञा उपवाक्य (ख) जब** थे” अव्यय (समयेसूचक) 
. उपवोक्य (ग) कि पाएगा! संज्ञा उपवाक्य (घ) यदि" “" बरसा' अव्यय (शर्ते . 

सूचक) उपवाक्य (ड)) जो““-.--है' विशेषण उपवाक्य 5. (क) गंगा (ख) गोस्वामी... 

ते (ग) सर"“*““जोन्स (घ) सभी जवान (ड) भेरे'"“*“'शादी 6. (क) भोले- 
भाले तथा परिश्रमी बच्चों को सभी प्यार करते हैं। (ख) मन लगाकर परिश्रम करने 
पर सफलता मिलेगी ही । (ग) अपने वापस आने का समय- बताइए । (घ) वे पढ़ाने द 
के साथ-साथ खेती भी करते हैं । (ड) हार होने पर अफसोस क्‍यों ? 7. () इन्हों ने, 
नौकरानी को (7) समझ में (४/) उमिला के लिए (४४) घाव पर (५) तालाब में 
(शे) किस से (शंएं) हथेली पर, शत्र्‌ से (५) बच्चा (5) बहन को भाई पर (2) 


#0७क॥ 


गए (7ए) बच्चा आप"******' गया (हुए) मॉनीटर से (हशंग) झाड़ी में (आफ) गाँव 
में (£४) उस ने स्कूल छोड़ । 8. (कं) सुशीला परीक्षा में सम्मिलित नहों सकी 
क्योंकि वह अस्वस्थ थी । (ख) ज्यों ही भारतीय जवानों को मोर्चा सभाले (हुए)... । 
.. देखा, त्यों ही दुश्मन भाग खड़े हुए । (ग) बच्ची ने जब घर आए अतिथि की दीन. 
. दशा देखी तो उस (बच्ची) ने उसे भरपेट खाना खिलाया । (घ) यदूयपि वह संकटों. | 
से घिरा हुआ था तथापि वह निराश नहीं हुआ । (ड) जो छात्र परिश्रमी होते हैं, वे...“ | 
: परीक्षा में अवश्य सफल होते हैं। 9. () अफसर ने कागजात की जाँच कर ली है।.. .." 
. (2) किसी व्यक्ति या घटना के रूप या दृश्य का चित्रण ही ऐसे काव्य में प्रधान. *« 
. होता है। (3) ये पत्न उन दिनों लिखे थे, जब वे जेल में थे ।, (4) क्या तुम अपनी 7.7 
बात के स्पष्टीकरण के लिए तैयार हो ? (5) अब इस बच्चे का, भविष्य आपपर 
. निभेर है। (6) बेचारी कई वर्ष से उस के लौटने की प्रतीक्षा कर रही है।(7)महात्‌ ... 
.*. व्यक्ति के लिए उस का काम ही पूजा होता है । (8) अभी एकाध कठिनाई औररह . ४: 
._ गई है। (9) क्या तुम्हारे भी दो बार जुड़वाँ बच्चियाँ हुई हैं। (/0) किसी बच्चे... |» 
.. को भेज दीजिए । () चाहे जो हो, हम वहाँ चलेंगे । (2) अरे, तुम हो इतनी. 5 
: जल्दी वापस आ गईं (/जल्दी लौट आई) । (3) तब तो वे हमें वहां जुहूर मिलगे।..#॥ 
..._ (4) पिस्तौल एक उपयोगी अस्त माना जाता है। (!5) दो बेल, दो गध,एक |], 
... भैंस और एक बकरी मैदान में चर रही हैं। (/०) है अजय श्जा भोज कम 2] 
..* बाघ और बकरी एक घाट पानी पीते थे । (7) मुझे विद्यातियों ते 
... पत्र अपित किया 4 (8) प्रतिवष् 
. पद्मश्री आदि पदवियाँ 















.. 482 | हिन्दी का विवरणात्मक व्याकरण 





आरम्भ करेगे। (2) मेरा नाम प्रमोदकुमार है। (22) कृपया आप ही यह सब 
समझाएँ । (23) आप के बेटे की मृत्यु का हमें भी बहुत दुःख है । (24) क्या एक- 
एक कर सभी चले जाएँगे ? (25) नेता लोग दिखावे के लिए कुछ विशेष दिलों 
चरखा चलाते हैं। () गरुणात्मक (#) परिधीय (४) योग्यता (४) दो (४) अनु- 
मति (हं) व्यापा रसूचक (४) अनौपचारिक (शा) दो (5) दो (£) छह (ह) पद- 


बन्ध, वाक्य (50) नियन्त्रण, अभिशासन (2) शैली-भेद (&ए) काव्य -(5ए) तीन । 


परिशिष्ठ--. ()) शुद्ध (7) शुद्ध (7) अशुद्ध (५) जशुद्ध (४) शुद्ध 


(भें) अशुद्ध (शा) अशुद्ध (शा) शुद्ध (5) शुद्ध (४) शुद्ध (56) अशुदूध (पक) 
शुद्ध (जा) शुद्ध (४ ए) अशुद्ध (2४) शुद्ध । > द ै 








वह भागा भागा वहां पहुंच जाता इस वाक्य में भागा पदबंध कौन सा पद बंध है?

• संज्ञा पदबंध
• क्रिया पदबंध
• विशेषण पदबंध
• क्रियाविशेषण पदबंध
(क) श्याम का बड़ा भाई रमेश कल आया था। (संज्ञा पदबंध) (ख) सुनीता - Byju'sbyjus.com › question-answernull

तेजी से दौड़ता हुआ घर पहुंचा रेखांकित में कौन सा पदबंध है?

Solution : व्याख्या- यह रीति वाचक क्रिया विशेषण पदबंध है क्योंकि इसके द्वारा .

भागते हुए चोरों में से कुछ पकड़े गए रेखांकित में कौन सा पद बंद है?

पदबंध का नाम है -संज्ञा पदबंध

कबूतर परेशानी में इधर उधर फड़फड़ा रहे थे उद्धरण चिह्न में दिए गए पदबंध का भेद बताइए?

➤ 'कबूतर परेशानी में इधर-उधर फड़फड़ा रहे थे। ' में 'कबूतर परेशानी में इधर-उधर' ये पदबंध एक संज्ञा पदबंध होगा। संज्ञा पदबंध में पूरा पदसमूह किसी संज्ञा पद की तरह कार्य करता है। इस पदबंध 'कबूतर परेशानी में इधर-उधर' में पूरा पदसमूह एक संज्ञा की तरह कार्य कर रहा है, इसलिये यहाँ पर संज्ञा पदबंध हुआ।