बाजार को शुद्ध हिंदी में क्या कहते हैं? - baajaar ko shuddh hindee mein kya kahate hain?

Here is an essay on the ‘Market and Its Classifications’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay # 1. बाजार की परिभाषाएँ (Definitions of Market):

जनसाधारण की भाषा में बाजार का अर्थ उस स्थान से लिया जाता है जहाँ वस्तुओं के क्रेता और विक्रेता एक साथ एकत्रित होकर वस्तुओं और सेवाओं का क्रय-विक्रय करते हैं ।

दूसरे शब्दों में, एक ऐसा स्थान जहाँ वस्तु के क्रेता एवं विक्रेता भौतिक रूप में उपस्थित होकर वस्तुओं का आदान-प्रदान करते हैं, बाजार कहलाता है किन्तु अर्थशास्त्र में बाजार की परिभाषा में क्रेताओं और विक्रेताओं का भौतिक रूप से एक स्थान पर उपस्थित होना अनिवार्य नहीं ।

आधुनिक युग में वस्तुओं और सेवाओं का क्रय-विक्रय टेलीफोन अथवा अन्य संचार माध्यमों से भी सम्पन्न किया जाता है । इस प्रकार बाजार का सम्बन्ध किसी स्थान विशेष से होना अनिवार्य नहीं ।

सामान्यतः वस्तु के क्रय-विक्रय में क्रेता और विक्रेता के मध्य सौदेबाजी का एक संघर्ष जारी रहता है और वस्तुओं का आदान-प्रदान तब तक सम्भव नहीं हो पाता जब तक क्रेता और विक्रेता दोनों एक कीमत स्वीकार करने को तैयार नहीं हो जाते ।

विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने बाजार को भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है:

1. प्रो. जेवन्स के अनुसार, ”बाजार शब्द का इस प्रकार सामान्यीकरण किया गया है कि इसका आशय व्यक्तियों के उस समूह से लिया जाता है जिसका परस्पर व्यापारिक घनिष्ठ सम्बन्ध हो और जो वस्तु के बहुत से सौदे करे ।”

2. प्रो. कूर्नो के अनुसार, ”बाजार शब्द से, अर्थशास्त्रियों का तात्पर्य किसी विशेष स्थान से नहीं होता जहाँ वस्तुएँ खरीदी व बेची जाती हैं बल्कि वह सम्पूर्ण क्षेत्र जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं के बीच स्वतन्त्र प्रतियोगिता इस प्रकार हो कि समान वस्तुओं की कीमतें सम्पूर्ण क्षेत्र में समान होने की प्रवृत्ति रखती हों ।”

3. प्रो. जे. के. मेहता के अनुसार, ”बाजार शब्द का अर्थ उस स्थिति से लिया जाता है जिसमें एक वस्तु की माँग उस स्थान पर हो जहाँ उसे बेचने के लिए प्रस्तुत किया जाये ।”

उपर्युक्त सभी परिभाषाओं से एक बात स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र में बाजार शब्द का अर्थ साधारण रूप से प्रयुक्त बाजार के अर्थ से सर्वथा भिन्न है ।

Essay # 2. बाजार का वर्गीकरण (Classification of Market):

प्रतियोगिता के आधार पर बाजार का वर्गीकरण अग्र रूप में किया जा सकता है:

बाजार को शुद्ध हिंदी में क्या कहते हैं? - baajaar ko shuddh hindee mein kya kahate hain?

A. पूर्ण प्रतियोगिता बाजार (Perfectly Competitive Market):

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में निम्नलिखित विशेषताएँ पायी जाती हैं:

(1) क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या (Large Number of Buyers & Sellers):

पूर्ण प्रतियोगी बाजार की पहली आवश्यक शर्त यह है कि बाजार में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होनी चाहिए । क्रेता-विक्रेता की अधिक संख्या होने के कारण कोई भी विक्रेता अथवा क्रेता इस स्थिति में नहीं होता कि वह बाजार कीमत को प्रभावित कर सके । इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में एक क्रेता अथवा एक विक्रेता बाजार में माँग अथवा पूर्ति की दशाओं को प्रभावित नहीं कर सकता ।

(2) वस्तु की समान इकाइयाँ (Homogeneous Product):

सभी विक्रेताओं द्वारा बाजार में वस्तु की बेची जाने वाली इकाइयाँ रूप, रंग, आकार, गुण आदि में एक समान होती हैं । दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि वस्तु की इकाइयों के बीच प्रतिस्थापन लोच अनन्त होती है और वस्तु को किसी भी विक्रेता से एक-समान कीमत पर खरीदा जा सकता है ।

(3) बाजार दशाओं का पूर्ण ज्ञान (Perfect Knowledge of the Market):

पूर्ण प्रतियोगी बाजार में क्रेताओं को विक्रेताओं के बारे में तथा विक्रेताओं को क्रेताओं के बारे में पूर्ण ज्ञान होता है । इस प्रकार कोई भी क्रेता वस्तु की प्रचलित कीमत से अधिक कीमत देकर वस्तु नहीं खरीदेगा और उसे वस्तु के गुण, आकार, रंग आदि सभी के बारे में पूर्ण ज्ञान है । यही कारण है कि बाजार में वस्तु की एक सामान्य कीमत पायी जाती है ।

(4) फर्मों के प्रवेश व निष्कासन की स्वतन्त्रता (Free Entry & Exit of Firm):

पूर्ण प्रतियोगी बाजार में कोई भी नई फर्म उद्योग में प्रवेश कर सकती है तथा कोई भी पुरानी फर्म उद्योग से बाहर जा सकती है । इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में फर्मों के उद्योग में आने-जाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता ।

(5) साधनों की पूर्ण गतिशीलता (Perfect Mobility of Factors):

पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पत्ति के माधन बिना किसी व्यवधान के एक उद्योग से दूसरे उद्योग में (अथवा एक फर्म से दूसरी फर्म में) स्थानान्तरित किये जा सकते हैं ।

(6) वस्तु की केवल एक कीमत (Single Price of Commodity):

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में वस्तु की केवल एक ही कीमत प्रचलित होती है इससे अधिक कीमत लेने पर माँग शून्य हो जाती है ।

(7) हस्तक्षेप रहित नीति अर्थात् स्वतन्त्र व्यापार नीति (Free Trade Policy):

बाजार में बिना हस्तक्षेप की नीति अपनायी जाती है अर्थात् किसी भी प्रकार सरकारी नियन्त्रण बाजार दशाओं को प्रभावित नहीं करता ।

पूर्ण प्रतियोगिता की परिभाषा (Definition of Perfect Competition):

”पूर्ण प्रतियोगिता उस समय पायी जाती है जिस समय प्रत्येक उत्पादन की उपज की माँग पूर्ण लोचदार हो ।

इसका अर्थ यह है कि:

(i) विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है जिससे कि एक विक्रेता की पूर्ति कुल बाजार पूर्ति का एक नगण्य भाग होती है तथा

(ii) सभी क्रेता अपनी पसन्द के बारे में एक मत होते हैं इसी कारण बाजार पूर्ण होता है ।” – श्रीमती जॉन रॉबिन्सन

पूर्ण प्रतियोगिता एवं विशुद्ध प्रतियोगिता में अन्तर (Difference between Perfect Competition & Pure Competition):

पूर्ण प्रतियोगिता (Perfect Competition) और विशुद्ध प्रतियोगिता (Pure Competition) में प्रोफेसर चैम्बरलिन ने निम्नलिखित शब्दों में भेद स्पष्ट किया है:

”विशुद्ध प्रतियोगिता का अर्थ उस प्रतियोगिता से है जिसमें एकाधिकारी तत्व पूर्णतया अनुपस्थित हों । पूर्ण प्रतियोगिता की तुलना में यह अधिक सरल तथ्य है क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता में एकाधिकार की अनुपस्थिति के अलावा अनेकों पूर्णताएँ पायी जाती हैं ।”

इस प्रकार विशुद्ध प्रतियोगिता में निम्न लक्षण पाये जाते हैं:

(1) विक्रेताओं और क्रेताओं की अधिक संख्या

(2) वस्तु की एकरूपता

(3) फर्मों के उद्योग में प्रवेश करने और छोड़ने की स्वतन्त्रता ।

पूर्ण प्रतियोगिता में विशुद्ध प्रतियोगी बाजार की उपर्युक्त तीन विशेषताओं के अतिरिक्त दो और विशेषताएँ सम्मिलित होती हैं:

(i) बाजार का पूर्ण ज्ञान,

(ii) साधनों की पूर्ण गतिशीलता ।

पूर्ण प्रतियोगिता की प्रमुख विशेषताओं में से एक भी विशेषता शत-प्रतिशत वास्तविक जगत् में नहीं पायी जाती । परन्तु कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार कृषि वस्तुओं, सोने, शेयर आदि के बाजारों में पूर्ण प्रतियोगिता के लक्षण पाये जाते हैं ।

B. शून्य प्रतियोगिता बाजार (Zero Competition Market):

वे बाजार जिनमें बिल्कुल प्रतियोगिता नहीं होती शून्य प्रतियोगिता का बाजार कहलाते हैं ।

इसके प्रमुख उदाहरण निम्नलिखित हैं:

1. एकाधिकार:

एकाधिकार बाजार की वह अवस्था है जिसमें वस्तु का केवल एक ही विक्रेता होता है और क्रेताओं की संख्या अधिक होती है । विक्रेता का पूर्ति तथा मूल्य के निर्धारण पर पूर्ण नियन्त्रण होता है ।

एकाधिकारी बाजार की निम्न विशेषताएँ होती हैं:

(i) बाजार में वस्तु का केवल एक विक्रेता होता है ।

(ii) विशुद्ध एकाधिकार में वस्तु के स्थानापन्न नहीं पाये जाते ।

(iii) फर्म और उद्योग में कोई अन्तर नहीं होता ।

(iv) एकाधिकारी का पूर्ति पर पूर्ण नियन्त्रण होता है परन्तु माँग पर इसका कोई नियन्त्रण न होने के कारण वस्तु की अधिक मात्रा बेचने के लिए उत्पादक को वस्तु की कीमत में कमी करनी पड़ती है जिसके कारण एकाधिकार में माँग वक्र बायें से दायें नीचे गिरता है ।

(v) उद्योग में अन्य फर्में प्रवेश नहीं कर सकतीं ।

एकाधिकार की परिभाषा (Definition of Monopoly):

प्रो. स्टोनियर एवं हेग के अनुसार, ”विशुद्ध एकाधिकार के अन्तर्गत उत्पादक इतना शक्तिशाली होता है कि वह अपनी वस्तु को ऊँची-से-ऊँची कीमत पर भी बेच सकता है और इस प्रकार वह उपभोक्ता की सम्पूर्ण आय प्राप्त कर सकता है ।… विशुद्ध एकाधिकार में औसत आय वक्र एक आयताकार अतिपरवलय होता है अर्थात् इसके प्रत्येक बिन्दु पर माँग की लोच इकाई होती है ।”

फर्गुसन के अनुसार, ”विशुद्ध एकाधिकार तब होता है जब वस्तु को एक और केवल एक ही फर्म द्वारा पैदा किया जाता हो या बेचा जाता हो । दूसरे शब्दों में, एकाधिकार में एक फर्म वाला उद्योग होता है ।”

2. एक क्रेताधिकार:

यदि बाजार में वस्तु का केवल एक क्रेता हो तो उसकी माँग पर पूर्ण नियन्त्रण होगा, ऐसी दशा में विक्रेताओं को वस्तु का कीमत-निर्धारण क्रेता की इच्छा से करना पड़ेगा । ऐसे बाजार में क्रेता का प्रभुत्व रहता है । ऐसे एक क्रेता के प्रभुत्व वाले बाजार को एक क्रेताधिकार कहा जाता है ।

3. द्विपक्षीय एकाधिकार:

जब बाजार में वस्तु का केवल एक क्रेता हो और एक ही विक्रेता हो तो ऐसी दशा में द्विपक्षीय एकाधिकार होता है क्योंकि माँग पक्ष पर क्रेता का पूर्ण नियन्त्रण होता है और पूर्ति पक्ष पर विक्रेता का पूर्ण नियन्त्रण होता है ।

C. अपूर्ण प्रतियोगिता बाजार (Imperfect Competition Market):

व्यावहारिक जीवन में शुद्ध एकाधिकार अथवा पूर्ण प्रतियोगिता के लक्षण नहीं पाये जाते, अतः वास्तविक बाजारों को अपूर्ण प्रतियोगिता के बाजार कहा जाना अधिक उपयुक्त होगा । अपूर्ण प्रतियोगिता बाजार के कई रूप हो सकते हैं ।

किन्तु इन रूपों में प्रमुख हैं:

1. द्वि-विक्रेताधिकार या द्वियाधिकार (Duopoly):

जब बाजार में वस्तु के केवल दो विक्रेता ही पाये जायें तो ऐसी स्थिति को द्वि-विक्रेता अधिकार कहते हैं । जब बाजार में वस्तु के विक्रेता समान आकार के हों और वे एक जैसी वस्तु बेचते हों तो ऐसी स्थिति में यदि उनके बीच गलाकाट प्रतियोगिता होगी तो दोनों विक्रेताओं के लाभ समाप्त हो जायेंगे ।

दूसरे शब्दों में, उन्हें वस्तु की वह कीमत प्राप्त होगी जो पूर्ण प्रतियोगिता की दशा में उत्पादकों को मिलती । दूसरी ओर, यदि ये दोनों विक्रेता आपस में समझौता कर लें तो एकाधिकारी कीमत प्राप्त की जा सकती है अर्थात् दोनों विक्रेता असामान्य लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।

2. अल्पाधिकार (Oligopoly):

जब बाजार में वस्तु के थोड़े विक्रेता हों अर्थात् तीन, चार, पाँच आदि तो उसे हम अल्पाधिकार बाजार कहते हैं । अल्पाधिकार बाजार में कीमत-निर्धारण भी द्वि-विक्रेताधिकार की भाँति होता है । कुछ वस्तुओं के बाजार जैसे – सीमेण्ट, पेट्रोल आदि अल्पाधिकार के उदाहरण हैं ।

3. एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता (Monopolistic Competition):

अपूर्ण प्रतियोगिता का जो उदाहरण वास्तविक जीवन में पाया जाता है वह एकाधिकारी प्रतियोगिता के रूप में मिलता है । अपूर्ण प्रतियोगी बाजार का विचार श्रीमती जॉन रॉबिन्सन द्वारा प्रस्तुत किया गया, जबकि एकाधिकारात्मक प्रतियोगी बाजार की व्याख्या प्रो. चैम्बरलिन ने प्रस्तुत की ।

श्रीमती जॉन रॉबिन्सन का तात्पर्य और चैम्बरलिन का विश्लेषण मोटे तौर पर दोनों एक ऐसी बाजार संरचना की व्याख्या करते हैं जो पूर्ण प्रतियोगिता एवं एकाधिकार दोनों का एक मध्यम मार्ग हो ।

हम यह जानते हैं कि बाजार में उत्पादकों को सरकार की ओर से पेटेण्ट अधिकार प्राप्त होता है अर्थात् प्रत्येक उत्पादक द्वारा बनायी गयी वस्तु का मार्क रजिस्टर्ड होता है और कोई दूसरा उत्पादक उस मार्क को नहीं अपना सकता । उदाहरण के लिए, लक्स मार्का नहाने के साबुन की दृष्टि से और किसी उत्पादक द्वारा नहीं अपनाया जा सकता ।

अतः इस प्रकार से लक्स के उत्पादक को एकाधिकार प्राप्त है, परन्तु साथ ही बाजार में अनेकों मार्का उपलब्ध हैं । जैसे -हमाम, रेक्सोना, लाइफबॉय, लिरिल आदि । इन विक्रेताओं के बीच परस्पर प्रतियोगिता होती है क्योंकि यदि एक ब्राण्ड के उत्पादक वस्तु की अधिक कीमत लें तो ग्राहक दूसरे ब्राण्ड को खरीद सकता है ।

वाजार में वस्तु के अनेकों स्थानापन्न होने के कारण इनके बीच प्रतिस्थापन की लोच बहुत अधिक होती है । अतः हम कह सकते हैं कि वास्तविक बाजार में विभिन्न एकाधिकारियों के बीच प्रतियोगिता होती है जिसे हम एकाधिकारी प्रतियोगिता कहते हैं ।

बाजार को हिन्दी में क्या कहते हैं?

[सं-पु.] - 1. वह स्थान जहाँ तरह-तरह की वस्तुओं की दुकानें हों; वस्तुओं के क्रय-विक्रय का निश्चित स्थान; हाट; मंडी; (मार्केट) 2.

बाजार कितने प्रकार के होते हैं?

सेकंडरी स्टॉक मार्केट के नुकसान.

बाजार के लक्षण क्या है?

बाजार वस्तुओं और सेवाओं के वितरण का मुख्य स्रोत है। वस्तुओं के उत्पादन का उद्देश्य, उन्हें उन उपभोक्ताओं को बेचना है, जो उनकी मांग करते हैं। वस्तुओं (और सेवाओं) को बेचने के लिए हमें बाजार के माध्यम की आवश्यकता होती है। वर्तमान विश्व में एक क्रेता बाजार में बहुत प्रकार की वस्तुएं प्राप्त कर सकता है।

बाजार को कितने भागों में बांटा गया है?

1. क्षेत्र की दृष्टि से:- क्षेत्र की दृष्टि से बाजार के वर्गीकरण का आधार है कि वस्तु विशेष के क्रेता और विक्रेता कितने क्षेत्र में फैले हुए हैं यह चार प्रकार का होता है। 1. स्थानीय बाजार:- जब किसी वस्तु के क्रेता विक्रेता किसी स्थान विशेष तक ही सीमित होते हैं तब उस वस्तु का बाजार स्थानीय होता है।