भारतीय दर्शन के तत्त्व हमें वैदिक ऋषियों की काल्पनिक उड़ानों में अपनी विशिष्टता के साथ बीजरूप में दृष्टिगोचर होते हैं, जो आगे चलकर शंकर के अद्वैत वेदांत में चरमोत्कर्ष को प्राप्त हुआ। Show
हमारे ऋषिगण सत्य की खोज में बराबर प्रयत्नशील रहे, जिसके फलस्वरूप कई दार्शनिक सम्प्रदायों की उत्पत्ति हुई, जिन्होंने जीव और जगत् को पूर्वाग्रह से परे होकर मुक्त, निष्पक्ष और विवेकपूर्ण भाव से देखा। दर्शन क्या है?मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है।( अरस्तू ) इसी विवेक अर्थात् बुद्धि के कारण मानव विभिन्न संदर्भ में तर्कसंगत विचार करता है। मनुष्य की बौद्धिकता उसे अनेक प्रश्नों पर गहन विचार करने को प्रेरित और उत्साहित करती हैं; जैसे —
ऐसे प्रश्नों के प्रति मानव शुरू से ही जिज्ञासु रहा है। इन्हीं प्रश्नों का समाधान दर्शनशास्त्र में किया जाता है। इन प्रश्नों के समाधान में भावना नहीं अपितु बुद्धि का सहारा लिया जाता है। दर्शन की अँग्रेजी ‘Philosophy’ हैं और इसकी उत्पत्ति ग्रीक भाषा के दो शब्दों से हुई है – ‘philein’ + ‘sophos’। philein का अर्थ है – to love और sophon का अर्थ है – wise / wisdom । इस तरह Philosophy का अर्थ है – ‘love to wisdom’। दर्शन शब्द की निष्पत्ति संस्कृति भाषा के ‘दृश्’ धातु से हुई है, जिसका अर्थ ‘देखना’ है। परन्तु यहाँ देखने का अर्थ ‘तार्किक और अंतर्दृष्टि से देखना’ है। ‘दृश्यता यथार्थ तत्त्वमनेन’ अर्थात् जिससे यथार्थ तत्त्व की अनुभूति या अनुभव हो वही दर्शन है। दूसरे शब्दों में भारत में दर्शन उस विद्या को कहा गया है जिससे तत्त्व-ज्ञान हो सके। भारतीय दर्शन में अनुभूतियों को दो श्रेणी में बाँटा गया है :-
जिस ज्ञान या अनुभव को हम इंद्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से पाते हैं वह ऐन्द्रिक या लौकिक ज्ञान की श्रेणी में आता है। दूसरी ओर जो ज्ञान हमें अनैन्द्रिक अनुभव से मिलता है वह आध्यात्मिक अनुभूति की श्रेणी में आता है। भारतीय चिंतनधारा में माना गया है कि तत्त्व का साक्षात्कार इन्द्रियों द्वारा सम्भव नहीं हो सकता बल्कि यह तो इन्द्रियातीत होता है। इसलिए इसका ज्ञान मात्र आध्यात्मिक अनुभूति से ही सम्भव है। आध्यात्मिक अनुभूति ( intuitive experience ) बौद्धिक ज्ञान से श्रेष्ठ है। बौद्धिक ज्ञान में ज्ञेय और ज्ञाता का द्वैत बना रहता है, जबकि आध्यात्मिक ज्ञान में दोनों मिलकर एक हो जाते हैं ( अद्वैत )। भारतीय दर्शनों की मान्यता है कि हम परम-तत्त्व का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में हम तत्त्व दर्शन या तत्त्व साक्षात्कार कर सकते हैं। यहाँ तत्त्व दर्शन का अर्थ सम्यक् दर्शन या दर्शन से है। भारतीय दर्शन में तत्त्व साक्षात्कार पर बल है इसलिए इसको ‘तत्त्व दर्शन’ कहा जाता है। भारतीय दर्शन ‘व्यावहारिकता’ से ओतप्रोत है। मानव ने जीवन की समस्याओं के समाधान के लिए सोचता विचारता रहा है। दुःखों से मुक्ति की छटपटाहट उसे दर्शन की ओर ले गयी। इसलिए दुःखों से पूर्ण निवृत्ति ही दर्शन का मुख्य ध्येय रहा है। मनुस्मृति में दर्शन के सम्बन्ध में उल्लेख हैं :—
इस सम्बन्ध में प्रो॰ हिरियाना का मत समीचीन है – ‘पाश्चात्य दर्शन की तरह भारतीय दर्शन का प्रारम्भ आश्चर्य और उत्सुकता से न होकर जीवन की नैतिक एवं भौतिक बुराइयों के शमन के निमित्त हुआ था।… दार्शनिक प्रयत्नों का मूल उद्देश्य था जीवन के दुःखों का अंत खोजना और इसी क्रम में तात्त्विक प्रश्नों का आविर्भाव हुआ।’ अतः भारत में ज्ञान की चर्चा ज्ञान के लिए न होकर मोक्ष की अनुभूति के लिए हुई है। यहाँ मोक्ष का अर्थ है — दुःख से निवृत्ति। मोक्ष अवस्था में दुःखों का सम्पूर्ण विनाश हो जाता है। दुःखों से निवृत्ति अथवा मोक्ष को ही चरम / परम लक्ष्य मानने के कारण भारतीय दर्शन को ‘मोक्ष दर्शन’ कहा जाता है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए आत्मा की आवश्यकता भारतीय दर्शन में मानी गयी है। परन्तु चार्वाक चिंतन में तो न तो आत्मा का विचार है न ही मोक्ष का। आत्मा पर विचार के कारण भारतीय दर्शन आध्यात्मिक हो जाता है। आत्मा पर विचार करने के कारण भारतीय दर्शन को ‘आत्म- विद्या’ या ‘आत्मा विद्या’ भी कहा जाता है। “अतः व्यावहारिकता और आध्यात्मिकता भारतीय दर्शन की विशेषताएँ हैं।” भारतीय दर्शन और पाश्चात्य दर्शन के स्वरूप में तुलना या अंतर‘भारतीय दर्शन’ और ‘पश्चिमी दर्शन’ जैसे नामकरण ही दोनों के स्वरूप ही की भिन्नता को इंगित करते हैं। विज्ञान में हम ऐसा विभाजन नहीं पाते हैं, क्योंकि वह ( विज्ञान ) सार्वभौम और वस्तुनिष्ठ है। दूसरी ओर दर्शन में ऐसी सार्वभौमिकता और वस्तुनिष्ठता नहीं दिखती बल्कि यह ( दर्शन ) विशिष्ट और आत्मनिष्ठ है। दोनों की तुलना हम निम्न प्रकार से कर सकते हैं :— ( १ ) पश्चिमी दर्शन सैद्धान्तिक है जबकि भारतीय दर्शन व्यावहारिक —
( २ ) पाश्चात्य दर्शन वैज्ञानिक है जबकि भारतीय दर्शन धार्मिक —
( ३ ) पश्चिमी दर्शन बौद्धिक है जबकि भारतीय दर्शन आध्यात्मिक —
( ४ ) पाश्चात्य दर्शन विश्लेषणात्मक है जबकि भारतीय दर्शन संश्लेषणात्मक —
( ५ ) पश्चिमी दर्शन इह-लौकिक है जबकि भारतीय दर्शन पारलौकिक —
( ६ ) पाश्चात्य दर्शन में दुःखात्मक दृष्टिकोण की उपेक्षा की गयी है जबकि भारतीय दर्शन दुःखवाद व अभावात्मकता पर विचार करता है —
इसका यह अर्थ नहीं है कि इन दोनों चिंतन पद्धतियों का मिलन या संश्लेषण असम्भव है। विगत कुछ दशकों से दोनों पद्धतियों को आधार बनाकर विद्वान ‘विश्व दर्शन’ के सम्पादन के लिए प्रयत्नशील हैं। पाश्चात्य दर्शन भारतीय दर्शन पश्चिम में दर्शन के लिए ‘Philosophy’ शब्द प्रयुक्त होता है। जिसका अर्थ है – ‘love of wisdom’।भारतीय वाड़्मय में दर्शन का अर्थ है – ‘ जिसके द्वारा यथार्थ तत्त्व की अनुभूति हो वह दर्शन है।’यहाँ पर दर्शन ‘सैद्धान्तिक’ है।भारतीय परम्परा में दर्शन का स्वरूप ‘व्यावहारिक’ है।दर्शन एक प्रकार से ‘साध्य’ है। यहाँ पर दर्शन एक प्रकार से मानसिक व्यायाम है। दर्शन का अनुशीलन किसी उद्देश्य के लिए लिए न होकर स्वयं ज्ञान प्राप्ति के लिए ही है।यहाँ पर दर्शन मोक्ष प्राप्ति के लिए ‘साधन’ है। दर्शन का उद्देश्य यहाँ पर मोक्ष प्राप्ति में साहाय्य प्रदान करना है।पश्चिम में दर्शन ‘वैज्ञानिक’ है।भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण ‘धार्मिक’ है।पश्चिमी दर्शन में ‘धर्म की उपेक्षा’ की गयी है।यहाँ पर दर्शन और धर्म में ‘सहकार’ है।यहाँ पर दर्शन नितांत ‘बौद्धिक’ है।भारतीय दर्शन ‘आध्यात्मिक’ है।पाश्चात्य दर्शन में ‘द्वैतभाव’ है, अर्थात् ज्ञान और ज्ञाता में द्वैत बना रहता है।भारतीय दर्शन में ‘अद्वैतभाव’ है, अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय में भेद मिट जाता है।यहाँ पर ‘विश्लेषणात्मक पद्धति’ अपनायी गयी है।भारतीय चिंतन धारा में ‘संश्लेषणात्मक पद्धति’ अपनायी गयी है।यह ‘इहलोकवादी’ है।भारतीय चिंतन ‘परलोकवादी’ है। इसका एकमात्र अपवाद चार्वाक चिंतनधारा है।यहाँ पर जीवन और जगत् के प्रति ‘दुःखवाद की उपेक्षा’ की गयी है।भारतीय चिंतन में जीवन व जगत् के प्रति दृष्टिकोण ‘दुःखात्मक एवं अभावात्मक’ है।भारतीय दर्शन की कुछ सामान्य बातेंपाश्चात्य और भारतीय दर्शन का विकास न्यूनाधिक रूप से एक प्रकार से हुआ है क्योंकि मानव समाज लगभग एक जैसे प्रश्नों से जूझता रहा है। हालाँकि पूर्व और पश्चिम में दर्शनशास्त्र के मौलिक प्रश्न या समस्याएँ एक जैसी रहीं हैं अतः उनके समाधान में भी समानताएँ पायी जाती हैं। परन्तु कुछ संदर्भों में दार्शनिक पूर्व और पश्चिम की दार्शनिक अनुसंधान की विधियों में भिन्नता भी है साथ ही दार्शनिक विचारधारा का विकास-क्रम भी भिन्न रहा है। भारतीय दर्शन की प्रवृत्ति ‘संश्लेषणात्मक’ है। दूसरे शब्दों में तत्त्व-चिंतन, नीतिशास्त्र, तर्कशास्त्र, मनोविज्ञान और ज्ञानमीमांसा पर भारतीय दार्शनिकों ने ‘समन्वयात्मक ढंग’ से विचार किया न कि पृथक-पृथक। भारतीय दर्शन मात्र हिन्दू दर्शन नहीं है। दूसरे शब्दों में भारतीय दर्शन का अर्थ केवल हिन्दू दर्शन से नहीं है बल्कि यह अत्यंत व्यापक है। इसमें प्राचीन-अर्वाचीन, हिन्दू-अहिन्दू, आस्तिक-नास्तिक आदि सभी समाहित हैं। इस संदर्भ में मध्वाचार्य कृत ‘सर्वदर्शन-संग्रह’ उल्लेखनीय है, इसमें षड्दर्शन के साथ-साथ चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शन को भी स्थान दिया गया है। भारतीय दर्शनों का दृष्टिकोण व्यापक और उदार है। सभी दर्शन दर्शन पद्धतियाँ परस्पर समालोचना करती हुई एक नयी विमर्श की पद्धति का का विकास करती है। इस विशेष पद्धति में पहले पूर्व-पक्ष, फिर खंडन और अंत में उत्तर-पक्ष ( सिद्धान्त पक्ष ) आता है।
भारतीय दर्शन अत्यंत प्रगाढ़ और समृद्ध है। अपने उदार और व्यापक दृष्टिकोण के कारण इसमें जिस नवीन पद्धति का विकास हुआ उसके अन्तर्गत एक दर्शन दूसरे दर्शन पर भी गहराई से विचार करता है। इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय दर्शन परस्पर विमर्श और समालोचना करते हुए अत्यंत प्रगाढ़ और समृद्धि होते गये। भारतीय दर्शनों की सामान्य विशेषताएँ भारतीय दर्शन का वर्गीकरणभारत दर्शन पद्धतियों को दो भागों में बाँटा गया है; एक, आस्तिक और दूसरा, नास्तिक। ( क ) आस्तिक
→ सांख्य, → वैशेषिक, → योग और → न्याय दर्शन सम्मिलित हैं।
→ वैदिक कर्मकाण्डों पर आधृत दर्शन — पूर्व-मीमांसा ( मीमांसा ) → वैदिक ज्ञानकाण्ड पर आधृत दर्शन — उत्तर-मीमांसा ( वेदांत )
( ख ) नास्तिक
आधुनिक भारतीय साहित्यों में इन दोनों शब्दों ( आस्तिक और नास्तिक ) का अर्थ यह भी मिलता है —
→ मीमांसा, → वेदांत, → न्याय और → योग दर्शन आते हैं।
→ सांख्य, → वैशेषिक, → चार्वाक, → जैन और → बौद्ध दर्शन आते हैं। आस्तिक और नास्तिक का एक और अर्थ है –
⇒ ‘प्राचीन दार्शनिक साहित्य में आस्तिक और नास्तिक का अर्थ क्रमशः ‘वेदानुयायी’ और ‘वेदविरोधी’ बताया गया है।’ ⇒ ‘बौद्ध और जैन दर्शन वेद-विरोधी और अनीश्वरवादी हैं।’ ⇒ ‘इस प्रकार चाहे जिस दृष्टि से देखें, वर्गीकरण की चाहे जो विधि अपनायें चार्वाक दर्शन नास्तिकता की ही श्रेणी में आता है। वह वेद-विरोधी, अनीश्वरवादी और अपरलोकवादी है।अर्थात् चार्वाक दर्शन तीनों ही दृष्टिकोण से नास्तिक है इसीलिए इसको नास्तिक शिरोमणि कहा जाता है।’ भारतीय दर्शन आस्तिक और नास्तिक के ‘तीन’ अर्थ आस्तिक नास्तिक
वेदों के संदर्भ में दर्शन का वर्गीकरण आस्तिक दर्शन नास्तिक दर्शन
वैदिक और लौकिक प्रभाव के अर्थ में ‘आस्तिक दर्शन’ का वर्गीकरण वैदिक विचारों से उत्पन्न आस्तिक दर्शन लौकिक विचारों से उत्पन्न आस्तिक दर्शन
वैदिक कर्मकाण्डों और ज्ञानमार्ग के आधार पर वर्गीकरण वैदिक कार्मकाण्डों पर आधृत दर्शन वैदिक ज्ञान-काण्ड पर आधृत दर्शन
ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी के अर्थ में वर्गीकरण ईश्वरवादी दर्शन अनीश्वरवादी दर्शन
परलोक की मान्यता के आधार पर वर्गीकरण परलोकवादी दर्शन अपरलोकवादी दर्शन
भारतीय दर्शनों का वर्गीकरण आस्तिक दर्शन( वेद-सम्मत ) सांख्य दर्शनप्रवर्तक – कपिल मुनिआधारभूत ग्रंथ – सांख्यकारिका सबसे प्राचीन दर्शन योग दर्शनप्रवर्तक – महर्षि पतंजलिआधारभूत ग्रंथ – योगसूत्र न्याय दर्शनप्रवर्तक – महर्षि गौतम ( अक्षपाद )आधारभूत ग्रंथ – न्यायसूत्र वैशेषिक दर्शनप्रवर्तक – महर्षि कणादआधारभूत ग्रंथ – वैशेषिक-सूत्र मीमांसा दर्शन( पूर्व-मीमांसा ) आधारभूत ग्रंथ – मीमांसा-सूत्र वेदांत दर्शन( उत्तर-मीमांसा ) आधारभूत ग्रंथ – उपनिषद, श्रीमद्भागवदगीता और ब्रह्मसूत्र।वेदान्त पर आधारित निम्न दर्शन प्रणालियाँ विकसित हुईं –
( वेद-असम्मत ) चार्वाक् दर्शन( लोकायत दर्शन ) प्रवर्तक – आचार्य बृहस्पतिकोई क्रमबद्ध साहित्य नहीं मिलता है। बौद्ध दर्शनप्रवर्तक – महात्मा बुद्धआधारभूत ग्रंथ – त्रिपिटक और अन्य बौद्ध साहित्य जैन दर्शनप्रवर्तक – २४ तीर्थंकर, महावीर स्वामीआधारभूत ग्रंथ – जैन धार्मिक साहित्य भारतीय दर्शनों का पारस्परिक सम्बंधभारतीय चिंतनधारा में कुल ९ दर्शन मान्य हैं। ये परस्पर आलोचना और सहकार करते हुए एक दूसरे को समृद्ध करते हैं। इनमें से कुछ चिंतनधारा में प्रगाढ़ सम्बन्ध भी दिखता है; यथा –
यद्यपि न्याय और वैशेषिक दर्शन में न्यूनाधिक अंतर है फिरभी दोनों में काफ़ी समता है; जैसे- ईश्वर और मोक्ष सम्बंधी विचार। इसीलिए दोनों को कभी-कभी संयुक्त रूप से ‘न्याय-वैशेषिक’ कह दिया जाता है। इसी तरह सांख्य और योग में समता को देखते हुए इसको ‘सांख्य-योग’ कह दिया जाता है। कपिल प्रणीत सांख्य को ‘निरीश्वर सांख्य’ तो पतंजलि प्रणीत योग दर्शन को ‘सेश्वर-सांख्य’ कहा जाता है। मीमांसा और वेदांत का विकास सीधे तौर पर वेद से हुआ है। मीमांसा वेद का कर्मकांडीय स्वरूप है जबकि वेदांत ज्ञानमार्गी स्वरूप है। इस तरह ये दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। अब बारी आती है पारस्परिक विरोध की। तो यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि चाहे कोई दर्शन वेद सम्मत हो या वेद विरोधी परन्तु वे एक दूसरे की आलोचना और सहकार से ही विकसित हुए हैं। उनका साथ-साथ अस्तित्व बना रहा। वे स्वयं को परिष्कृत करते हुए विकसित होते गये हैं। भारतीय दर्शन में वेद का स्थानवेद भारत के आदि-सहित्य हैं। भारतीय दर्शन धारा को समझने के लिए वैदिक साहित्यों का अनुशीलन अनिवार्य है। आस्तिक दर्शन तो वेद-सम्मत हैं ही, परन्तु नास्तिक दर्शनों का विकास भी वैदिक विचारों के विरोध में या उन्हीं से टकराकर हुआ है। भारतीय दर्शन में एक ओर वेद-सम्मत आस्तिक षड्दर्शन हैं तो दूसरी ओर वेद-विरोधी तीन दर्शन ( चार्वाक्, जैन और बौद्ध )। वेद को मानने वाले षड्दर्शनों में भी चार दर्शनों का विकास ‘लौकिक विचारों’ से हुआ है। परन्तु इसका कतई यह अर्थ नहीं कि ये चार दर्शन वेद को नहीं मानते। ये चार लौकिक विचारोत्पन्न दर्शन हैं – सांख्य, वैशेषिक, न्याय और योग। षड्दर्शनों में से दो दर्शन ( पूर्व-मीमांसा और वेदांत ) वेद विचारोपन्न हैं।
आप्त-वचन और युक्तिआप्त का अर्थ है – प्रामाणिक या विश्वास योग्य। आप्त-वचन ( वाक्य ) का अर्थ है ( ऋषि-मुनियों का ) प्रामाणिक वचन। दर्शनशास्त्र में जो प्रश्न उठाये जाते हैं उनके समाधान के लिए कल्पना और युक्ति का सहारा लेना पड़ता है। यहाँ भी प्रत्यक्ष की सहायता से अप्रत्यक्ष को जानने का प्रयास होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान दर्शन का आधार है और साधन है युक्ति। यहाँ प्रश्न उठता है कि किसके ज्ञान को प्रत्यक्ष माना जाए? इसके सम्बन्ध में दो विचार हैं :—
अधिकांश दर्शन जनसाधारण के प्रत्यक्ष अनुभव को आप्त मानते हैं या उसे अधिक महत्व देते हैं। इस श्रेणी में सम्मिलित हैं :—
दूसरे वर्ग के दार्शनिकों की यह मान्यता है कि तत्त्व ज्ञान लौकिक ज्ञान के आधार पर प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसलिए जनसामान्य के अनुभवजन्य ज्ञान को आप्त ( प्रमाण ) नहीं मान सकते हैं। इसके लिए आप्त पुरुषों का अनुभव उपयोगी है क्योंकि इन लोगों ने तत्त्व का साक्षात् अनुभव किया होता है। इन आप्त पुरुषों के ज्ञान हमें धर्म ग्रंथों में मिलते हैं। इस श्रेणी में सम्मिलित हैं :—
युक्ति का अर्थ होता है – तर्क, ढंग या उपाय। युक्ति को दर्शन में ज्ञान प्राप्ति के लिए साधन माना गया है। प्रत्यक्ष ज्ञान का आधार चाहे जनसामान्य का अनुभव हो या आप्त-वचन दोनों में ही युक्ति का प्रयोग किया जाता है। अंतर मात्र युक्ति के प्रयोग में है :—
भारतीय दर्शनों का विकासयह तो स्पष्ट है कि भारतीय दर्शनों की उत्पत्ति एक साथ नहीं हुई। इनका विकास शताब्दियों से क्रमिक रूप से होता रहा है। भारत में दर्शन जीवन के अंग माने गये हैं। जब किसी दार्शनिक मत का प्रतिपादन हुआ तो उसके साथ ही उसके अनुयायी भी अस्तित्व में आये। उनके एक सम्प्रदाय से स्थापित हो गये। दर्शन विशेष के अनुयायी उन विचारों को जीवन का अंग बना लेते थे। उनका प्रचार-प्रसार करते थे। इन दार्शनिक सम्प्रदायों ने दर्शन की निरंतरता को बनाये रखा और पीढ़ी दर पीढ़ी विचारों की एक अविच्छिन्न परंपरा बनी रही। भारतीय दर्शनों की प्रकृति आत्मकेंद्रित नहीं थी। वे विभिन्न दार्शनिक मतों से विचार-विनिमय ( शास्त्रार्थ ) किया करते थे। यह परम्परा उत्तर-वैदिक काल से ही चली आ रही थी जहाँ हमें विभिन्न विद्वत्समाजों में शास्त्रार्थ के उदाहरण मिलते हैं। वैदिकोत्तर काल में यह परम्परा और भी सुदृढ़ हुई। दार्शनिक अपने विचारों को दोषमुक्त, स्पष्ट और भ्रान्ति-मुक्त बनाने हेतु निरन्तर प्रयत्नशील रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि इस वाद-विवाद या आलोचना-प्रत्यालोचना से प्रत्येक दर्शन समृद्ध होते चले गये। इसी क्रम में दार्शनिक साहित्यों का प्रणयन हुआ। आस्तिक साहित्यों में वैदिक साहित्यों के बाद सूत्र साहित्यों की रचना हुई। वैदिक साहित्यों में बिखरे हुए विचारों को सूत्र रूप में पिरोकर क्रमबद्ध रूप दिया गया। सर्वप्रथम सूत्र ग्रंथों में दर्शन का क्रमबद्ध रूप निखरकर आता है। वैदिक साहित्यों में दर्शन के विचार यहाँ-वहाँ बिखरे थे। कोई क्रमबद्धता नहीं ंथी। इस आवश्यकता की पूर्ति सूत्र साहित्यों में की। इन विचारों को संक्षिप्त, सारगर्भित और क्रमबद्ध रूप से सूत्र रूप में पिरोया गया। दर्शन से सम्बंधित निम्न सूत्र ग्रंथ हैं :—
सूत्र ग्रंथ संक्षिप्त, सारगर्भित और व्यापक थे। ये सहज बोधगम्य नहीं थे। अतः कालान्तर में इनपर टीका और भाष्य लिखे गये। सामान्यतः टीका और भाष्य को समानार्थी अर्थ में लिया जाता है परन्तु इनमें सूक्ष्म भेद हैं। टीका का अर्थ है – आलोचनात्मक विवरण अर्थात् किसी रचना पर तर्क-वितर्क के आधार पर परीक्षण। जबकि भाष्य का अर्थ है किसी रचना पर विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करना। दर्शन से सम्बंधित सूत्रों पर कुछ टीका और भाष्य निम्न हैं : —
भारतीय दर्शनों की विशेषताएँदर्शन की समृद्धि किसी समाज या देश की सभ्यता और संस्कृति को गौरवान्वित करती है। दर्शन का उद्भव और विकास पर स्थान-विशेष का प्रभाव स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भारतीय दर्शनों में वैभिन्यता के साथ-साथ भारतीयता की छाप भी दिखती है। यह भारतीयता हम इनमें नैतिकता और आध्यात्मिकता के रूप में देख सकते हैं। इन दर्शनों की सामान्य विशेषताओं को हम निम्न बिन्दुओं में देख सकते हैं :— ( १ ) पुरुषार्थ साधन
( २ ) दुःख से मुक्ति की छटपटाहट
( ३ ) आशावाद और नैराश्यवाद
( ४ ) नैतिकता
( ५ ) ऋत्, अपूर्व, अदृष्ट और कर्म
⇒ संचित कर्म – अतीत के कर्मों से संचित फल जिसका उपभोग शेष हो। ⇒ प्रारब्ध कर्म – अतीत या पूर्व जन्मोत्पन्न कर्म जिसका उपभोग वर्तमान जीवन में हो रहा हो। ⇒ संचीयमान या क्रियमाण कर्म – वर्तमान जीवन में किये जा रहे कर्म जिसका फल संचित हो रहा हो। ( ६ ) आशा और नैतिकता
( ७ ) संसार एक रंगमंच है और हम सब रंगकर्मी
( ८ ) अज्ञान बंधन का कारण है
( ९ ) तत्त्वज्ञान मुक्ति का साधन है
( १० ) मोक्ष या मुक्ति जीव का परम लक्ष्य है
भारतीय दर्शनों की सामान्य विशेषताएँ
भारतीय दर्शन में देश-काल का विचारभारतीय वाङ्मय में देश और काल को अनादि और अत्यंत विशाल माना गया है। इसकी प्रतिध्वनि हमें दर्शन में भी मिलती है। पाश्चात्य धर्म और दर्शन के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति कोई ४००० ई॰पू॰ हुई और इसका सृजन मात्र मनुष्यों के लिए हुआ है। परन्तु भारतीय चिंतकों का चिंतन इस सम्बन्ध में कल्पना शक्ति को पराभूत कर देनेवाला है। सृष्टि के समय की माप के लिए ब्रह्माजी के एक दिवस को मापदण्ड बनाया गया है। ब्रह्माजी का एक दिवस = १००० महायुग = १ कल्प = ४·३२ × १०९ मानव वर्ष सृष्टि का अन्त होने पर ब्रह्माजी विश्राम करते हैं और इसे उनकी रात्रि कहते हैं। यह प्रलय का समय होता है। इस तरह ब्रह्माजी का एक दिन ( दिवस और रात्रि ) २ कल्प या २,००० महायुग या ८·६४ × १०९ मानव वर्ष के बराबर होता है। ब्रह्माजी की आयु १०० वर्ष मानी गयी है – अतः ८·६४ × १०९ × ३० × १२ × १०० = ३·११०४ × १०१४ मानव वर्ष ब्रह्मा के रात्रि-दिवस अर्थात् सृष्टि-लय का क्रम निरंतर चला आ रहा है। ब्रह्माजी भी आपने आयु पूरी करके काल-कवलित होते रहे हैं। न जाने कितने ब्रह्मा आये और गये। यह क्रम अनादि काल से चल रहा है। अतः संसार( विश्व या ब्राह्माण्ड ) की रचना कब हुई? इसको भारतीय चिंतक कहते हैं कि यह अनादि काल से है। भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषताएं क्या है?भारतीय दर्शन का प्रमुख लक्षण:यहाँ के दार्शनिकों ने संसार को दुख:मय माना है। दर्शन का विकास ही भारत में अध्यात्मिक असंतोष के कारण हुआ है। रोग, मृत्यु, बुढ़ापा, ऋण आदि दु:खों के फलस्वरूप मानव मन में सदा अशांति का निवास रहता है। बुद्ध का प्रथम आर्य सत्य विश्व को दु:खात्मक बतलाता है।
भारतीय दर्शन से आप क्या समझते हैं?भारत में 'दर्शन' उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का ज्ञान हो सके। 'तत्व दर्शन' या 'दर्शन' का अर्थ है तत्व का ज्ञान। मानव के दुखों की निवृति के लिए और/या तत्व ज्ञान कराने के लिए ही भारत में दर्शन का जन्म हुआ है। हृदय की गाँठ तभी खुलती है और शोक तथा संशय तभी दूर होते हैं जब एक सत्य का दर्शन होता है।
भारतीय दर्शन कितने प्रकार के होते हैं?वैदिक दर्शनों में षड्दर्शन (छः दर्शन) अधिक प्रसिद्ध और प्राचीन हैं। ये सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त के नाम से विदित है। इनके प्रणेता कपिल, पतंजलि, गौतम, कणाद, जैमिनि और बादरायण थे।
भारतीय दर्शन का स्वरूप क्या है?भारतीय दर्शन का जीवन से गहरा संबंध है । यह जीवन की समस्याओं एवं दुःख निवृत्ति के लिये केवल मानसिक जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास ही नहीं करता, बल्कि आध्यात्मिक असंतोष तथा जीवन के दुःखों के मूल कारणों को ढूंढ़कर उनसे छुटकारा प्राप्त करने के पूर्ण संभव मार्गों की स्थापना भी करता है ।
|