भारत की विदेश नीति का आधार क्या है? - bhaarat kee videsh neeti ka aadhaar kya hai?

  • Home
    • Welcome to IMJ
    • Policy
    About Us
    • For Conference and Seminars Organizers
    • For Universities and Societies
    • Post Your Journal with Us
    • Plagiarism Check Services
    • DOI
    Services
  • Journals List
  • Indexing/Impact Factor
    • Author Guidelines
    • Review Process
    • Reviewer Guidelines
    • Service Charges
    Guidelines
    • Register as Editor
    • Register as Author
    • Register as Reviewer
    Register With Us
  • Contact Us

Published in Journal

Year: Sep, 2018
Volume: 15 / Issue: 7
Pages: 334 - 336 (0)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: //ignited.in/I/a/89598
Published On: Sep, 2018

Article Details

भारतीय विदेश नीति: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, उद्देश्य | Original Article


  • Home
    • Welcome to IMJ
    • Policy
    About Us
    • For Conference and Seminars Organizers
    • For Universities and Societies
    • Post Your Journal with Us
    • Plagiarism Check Services
    • DOI
    Services
  • Journals List
  • Indexing/Impact Factor
    • Author Guidelines
    • Review Process
    • Reviewer Guidelines
    • Service Charges
    Guidelines
    • Register as Editor
    • Register as Author
    • Register as Reviewer
    Register With Us
  • Contact Us

Published in Journal

Year: May, 2019
Volume: 16 / Issue: 6
Pages: 1623 - 1630 (8)
Publisher: Ignited Minds Journals
Source:
E-ISSN: 2230-7540
DOI:
Published URL: //ignited.in/I/a/221544
Published On: May, 2019

Article Details

भारतीय विदेश नीति के निर्धारक तत्व | Original Article


भारत की विदेश नीति

  • Topic
    • भारत की विदेश नीति का परिचय
    • नेहरू के अधीन विदेश नीति
    • पाकिस्तान के साथ संबंध
    • चीन के साथ संबंध
    • इंडिया-श्रीलंका संकट का  समय (1987)
    • भारत की परमाणु नीति

भारतीय विदेश नीति का परिचय

  • वैश्विक स्तर पर, सामान्यतः दुनियाभर में स्थिति बहुत गंभीर थी। पूरा विश्व हाल ही में हुए द्वितीय विश्व युद्ध का साक्षी था, शांति की स्थापना के लिए नए अंतरराष्ट्रीय निकाय बनाने के प्रयास किए जा रहे थे, उपनिवेशवाद के पतन के फलस्वरूप नए देशों का उद्धार हो रहा था। नए देशों के सामने लोकतंत्र कायम करने और कल्याणकारी राज्य की स्थापना की दोहरी चुनौती थी।
  • भारतीय संदर्भ में, ब्रिटिश सरकार, विभाजन के रूप में विवादों की एक पूरी विरासत छोड़ी थी। स्वतंत्र विदेश नीति को आगे बढ़ाने के लिए भारत के प्रयास 1947 के बाद की राजनीति का मुख्य आकर्षण थे।
  • नेहरू ने विश्व की शांति और जनता की आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और गौरव को विकसित करने के लिए तथा भारत की स्वतंत्रता को बनाये रखने एवं उसे अधिक मजबूत बनाने हेतु उपनिवेशवाद के कारणों का विरोध करते हुए और अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा करने के लिए विदेश नीति का इस्तेमाल किया।
  • भारत ने अपनी विदेश नीति में अन्य सभी देशों की संप्रभुता का सम्मान करने और शांति कायम करके अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने का लक्ष्य सामने रखा।
  • यह उद्देश्य संविधान के अनुच्छेद 51 में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के समावेशन को दर्शाता है| जिसमें “अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देने” पर बल दिया गया है।

राज्यों द्वारा किए जाने वाले प्रयास:

  • अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना|
  • राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण और सम्मान पूर्वक संबंधों को बनाए रखने का प्रयास ।
  • राज्य एक दूसरे को परस्पर सहयोग करेगे एवं अंतर्राष्ट्रीय कानूनों तथा संधियों का सम्मान करेगे।
  • राज्य अंतर्राष्ट्रीय झगड़ों को मध्यस्थता द्वारा निपटाने की रीति को बढ़ावा देगे।

नेहरू ने राष्ट्रों के मध्य शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के संचालन के लिए पांच सिद्धांत निश्चित किए जिन्हें  पंचशील सिद्धांत कहा जाता है। ये सिद्धांत निम्नलिखित हैं-

  • एक दूसरे की प्रादेशिक अखंडता और सर्वोच्च सत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान की भावना
  • अनाक्रमण की नीति
  • एक दूसरे के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप ना करना
  • समानता एवं पारस्परिक सहयोग पर बल
  • शांतिपूर्ण सह अस्तित्व

नेहरू के काल में भारत की विदेशी नीति

नेहरू की विदेशी नीति के आधारभूत मानक

  • स्वतंत्र विदेशी नीति
  • गुट निरपेक्ष आन्दोलन
  • औपनिवेशिक और पूर्व-औपनिवेशिक देशों को समर्थन
  • पड़ोसी और अन्य देशों के साथ शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व
  • भारत की आर्थिक हित की सुरक्षा
  • भारत की सुरक्षा

नेहरू की विदेशी नीति का अवलोकन

अंतर्राष्ट्रीय भूमिका

  • द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद कोरिया, उत्तर कोरिया(कम्युनिस्ट समर्थक)और दक्षिण कोरिया (पश्चिमी समर्थक) में बट गया था|
  • 1950 में उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर हमला किया तो भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अमेरिका का समर्थन किया और उत्तर कोरिया को हमलावर बताया|
  • लेकिन भारत की मुख्य चिंता वाह्य शक्तियों को टकराव में प्रवेश करने से रोकने की थी||
  • कोरियाई युद्ध ने भारत की गुट निरपेक्षता और शांति के प्रति प्रतिबद्धता के विश्वास का परीक्षण भी किया|
  • भारत ने चीन को  सुरक्षा परिषद में शामिल करने के लिए संयुक्त राष्ट्र पर दबाव जारी रखा|
  • भारत ने चीन और सोवियत संघ  के विरोध का सामना किया क्योंकि उसने उत्तर कोरिया को प्रारंभिक हमलावर घोषित किया था|
  • भारत को युद्ध में पश्चिमी हस्तक्षेप का साथ देने से इनकार करने, और चीन को हमलावर नहीं मानने के लिए अमेरिकी शत्रुता का भी सामना करना पड़ा|
  • भारत ने चीन के साथ संघर्ष को  अंतरराष्ट्रीयकरण होने से रोकने की कोशिश की|
  • भारत ने चीन से लाओस तथा कंबोडिया के संदर्भ में निष्पक्षता की गारंटी हासिल की|
  • भारत को ग्रेट ब्रिटेन तथा फ्रांस से भी आश्वासन मिला कि वे अमेरिका को लाओस तथा कंबोडिया में अड्डा नहीं बनाने देंगे|
  • भारत को अंतरराष्ट्रीय कंट्रोल कमीशन का अध्यक्ष नियुक्त किया गया तथा कंबोडिया और वियतनाम में विदेशी हथियारों के आयात पर नजर रखना इसके कार्य में शामिल था|
  • अमेरिका तथा ब्रिटेन ने नील नदी पर आसवन डैम बनाने के लिए की गई वित्तीय सहायता को वापस ले लिया|
  • तत्पश्चात मिश्र ने स्वेज नहर का राष्ट्रीयकरण किया|
  • स्वेज नहर के उपयोगकर्ताओं( ब्रिटेन और फ्रांस) ने इस पर अंतरराष्ट्रीय नियंत्रण की मांग की|
  • भारत स्वेज नहर का एक प्रमुख उपयोगकर्ता होने के साथ-साथ यह भी मानता था कि स्वेज नहर मिस्र की अभिन्न अंग थी|
  • भारत नेमिस्र पर फ्रांस और ब्रिटेन के हमले की निंदा की|
  • अंत में संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में सैनिकों की वापसी हुई भारतीय फौजों ने बड़ी संख्या में शांति-सेनाओं के रूप में काम किया।
  • 1956 में हंगरी में सोवियत संघ से बाहर निकलने के उद्देश्य से एक विद्रोह प्रारंभ हुआ परन्तु सोवियत संघ द्वारा इसका दमन कर दिया गया| संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस कार्यवाही की कड़ी निंदा की गई तथा इसे वापस लेने की मांग की गई|
  • इस औपचारिक आलोचना से भारत दूर रहा और पश्चिम से भी काफी आलोचना झेलनी पड़ी|
  • नेहरू ने स्वयं सोवियत कार्रवाई की आलोचना की और ना खुशी दर्शाने के लिए अगले 2 वर्षों तक बुडापेस्ट में राजदूत नहीं भेजा, जवाब में जब कश्मीर का मसला अगली बार संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में आया तब सोवियत संघ ने निष्पक्ष रुख अपनाया|
  • उसके बाद वे पुरानी स्थिति पर वापस आ गए और जब भी भारतीय हितों के खिलाफ प्रस्ताव आते तो वे वीटो का प्रयोग कर देते|
  • भारत ने दोनों पक्षों से काफी दबाव का सामना किया परन्तु किसी के पक्ष में समर्थन नहीं दिया|
  • भारत की विदेश नीति की एक बड़ी उपलब्धि कांगो की आजादी और अखंडता की रक्षा थी। कांगो ने 1960 में बेल्जियम से अपनी आजादी हासिल की थी, परन्तु इसका तांबा समृद्ध क्षेत्र ‘कटंगा’ ने भी बेल्जियम का समर्थन प्राप्त करके कांगो से अपनी आजादी की घोषणा कर दी ।
  • नेहरू ने सयुंक्त राष्ट्र से अपील किया कि वह इस क्षेत्र में हस्तक्षेप करे और गृह-युद्ध बंद करवाये, विदेशी सेना को बाहर निकले तथा नये सरकार का गठन करवाए और साथ ही यह भी आश्वासन दिया कि भारत इस कार्य में हर संभव मदद करेगा|
  • सुरक्षा परिषद में 1961 को यह प्रस्ताव पास किया गया, तथा भारतीय सेना ने सफलतापूर्वक ग्रह युद्ध को समाप्त करवाया और कटंगा प्रदेश के पूरे क्षेत्र पर केंद्रीय सरकार की सत्ता फिर से स्थापित करवाई।
  • यह भारत की गुटनिरपेक्षता की नीति के उत्कृष्ट क्षणों में से एक था। इसने संयुक्त राष्ट्र केबहुपक्षीय निकायों की भूमिका को मजबूत करने मेंभी मदद की।
  • भारत को टेक्नोलॉजी के विकास के लिए, भोजन और राष्ट्र निर्माण प्रथा जनतांत्रिक प्रयासों के लिए अमेरिका से मदद की जरूरत थी|
  • लेकिन कश्मीर संबंधी अमेरिकी नीति ने मित्रता की आशा समाप्त कर दी थी।
  • संयुक्त राष्ट्र द्वारा कश्मीर में पाकिस्तानी सैनिकों की उपस्थिति की सूचना के बाद भी, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद( जिसमें अमेरिका और उसके सहयोगियों का वर्चस्व था) ने पाकिस्तानी आक्रमण के भारतीय आरोप को टाल दिया।
  • अमेरिका ने भारत द्वारा कम्युनिस्ट चीन को मान्यता दिया जाना पसंद नहीं किया|
  • पाकिस्तान को CENTO, SEATO इत्यादि में शामिल कर शीत युद्ध को उप महाद्वीप में लाने की कोशिशों पर नेहरू ने नाराजगी जाहिर की।
  • फिर भी भारत और अमेरिका के बीच आर्थिक संबंधों का विकास हुआ, क्योंकि अमेरिका प्रौद्योगिकी और मशीनों के क्षेत्र में अग्रणीय था।
  • भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति नेहरू-सरकारके झुकाव को देखा जा सकता है।
  • सोवियत संघ ने भारत में अकाल के उस समय अनाज की सहायता भेजना शुरू किया, जिस समय अमेरिका भारत की मदद नहीं कर रहा था।
  • वर्ष 1955 से सोवियत संघ ने कश्मीर के प्रश्न पर भारत को पूरा समर्थन दिया और वर्ष 1956 से ही उसने सुरक्षा परिषद में कश्मीर-मुद्दा पर भारत के प्रतिकूल प्रस्तावों का समर्थन करते हुए भारत के पक्ष में ही वीटो  का प्रयोग करना आरंभ किया।
  • दोनों देशों ने उपनिवेशवाद के खिलाफ एक ही रणनीति अपनाई।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ में सोवियत संघ ने गोवा के प्रश्न पर अमेरिका के खिलाफ भारत का समर्थन किया।
  • औद्योगिकरण के क्षेत्र में भारत की नेतृत्वकारी भूमिका और योजना के आधार ने इसे सोवियत संघ के और नजदीक ला दिया।
  • वर्ष 1962 में भारत ने मिग एयरक्राफ्ट के उत्पादन करने के लिए सोवियत संघ के साथ  समझौता किया |
  • अक्टूबर 1962 में भारत पर चीनी हमले के दौरान सोवियत संघ ने निष्पक्ष रुख अपनाया।
  • इसके अलावा,भारत सोवियत संघके लिए अफ्रीकी-एशियाई के नव स्वतंत्र राष्ट्रों में प्रवेश काएक महत्वपूर्ण मार्ग था, यह देश अमेरिकी सहयोगी की जगह सोवियत संघ को अधिक प्राथमिकता देते थे औरजिससे सोवियत संघ को शीत युद्ध में भी सहायता मिली।
  • द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विश्व दो ध्रुवों में विभाजित हो गया। पश्चिमी शक्तियों के साथ एक का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था और दूसरे का सोवियत संघ
  • नेहरू ने सोचा यदि एशिया और अफ्रीका के गरीब देश ऐसे सैन्य बलों में शामिल हो जाते हैं जो सिर्फ स्वयं के हितों की पूर्ति पर बल देते है  तो वे कुछ भी हासिल नहीं कर सकेंगे बल्कि सब कुछ खो देंगे।
  • नैम(NAM) “शत्रुता”के बजाय “शांति” के विस्तार का प्रबल समर्थक है। इसलिए भारत, मिस्र और इंडोनेशिया जैसे देशों ने बगदाद संधि, मनीला संधि,SEATO और CENTO में शामिल होने को मंजूरी नहीं दी, जो कि सैन्य बल के समर्थक थे।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन , भारत और अन्य नए स्वतंत्र राष्ट्र जो उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद से अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखने और मजबूत करना चाहते थे, संघर्ष के प्रतीक का रूप  था।
  • अंतर्राष्ट्रीय शांति के सपने को पूरा करने के लिए भारत ने शीत युद्ध के तनाव को कम करने एवं  संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में मानव संसाधनों का योगदान करके गुटनिरपेक्ष नीति का समर्थन किया।
  • गुटनिरपेक्ष नीति की स्वीकृति के कारण, विश्व के कई राष्ट्रों को नये संगठन,जैसे संयुक्त राष्ट्र आदि मे पहचान मिला।
  • एक देश, एक वोट प्रणाली गुटनिरपेक्ष समूह को पश्चिमी गुट के वर्चस्व की जांच करने में सक्षम बनाती है। इस प्रकार, गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया।
  • भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ, दुनिया भर में हो रहे संघर्ष का एक हिस्सा था। भारत के संघर्ष ने कई एशियाई और अफ्रीकी देशों के आजादी के आंदोलन को प्रभावित किया।
  • यह उन राष्ट्रों के बीच एक संचार था जो उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ के संघर्ष में उन्हें एकजुट किया था।
  • भारत के विशाल आकार, अवस्थिति और शक्ति-संभावना को भांपकर , नेहरू ने विश्व मामलों में, खासकर एशियाई मामलों में भारत के लिए एक प्रमुख भूमिका निभाने का स्वप्न देखा था।
  • सन् 1940-1950 के दशक में नेहरू एशियाई एकता के प्रबल समर्थक रहे।इसलिए उनके नेतृत्व में भारत ने मार्च, 1947 में नई दिल्ली में एशियाई सम्पर्क सम्मेलन की बैठक की।
  • बाद में भारत ने 1949 में एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाकर डच  औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता के लिए इंडोनेशियाई संघर्ष का समर्थन किया।
  • भारत औपनिवेशीकरण प्रक्रिया का प्रबल समर्थक था और उसने पूरी दृढ़ता से नस्लवाद का विरोध किया खासकर दक्षिण अफ्रीका में जारी रंगभेद का विरोध किया|

गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना :

  • 1961 में स्थापित, बेलग्रेड, यूगोस्लाविया (अब सर्बिया)
  • मुख्यालय- मध्य जकार्ता, इंडोनेशिया
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन (एनएएम) दुनिया के 120 विकासशील देशों का एक मंच है, जो कि औपचारिक रूप से किसी महाशक्ति के पक्ष या विरोध में ना होकर निष्पक्ष रहता है। संयुक्त राष्ट्र के बाद, यह दुनिया भर के विकासशील देशों का सबसे बड़ा समूह है।
  • इसमें अप्रैल 2018 तक 120 सदस्य शामिल हो गए हैं, जिसमें अफ्रीका के 53 देश, एशिया के 39, लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई के 26 और यूरोप (बेलारूस, अजर बैजान) के 2 सदस्य देश शामिल हैं। इसमें 17 देश और 10 अंतरराष्ट्रीय संगठन हैं जिसे गुटनिरपेक्ष आंदोलन में पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त है।
  • गुट निरपेक्ष आंदोलन के लिए मूल अवधारणा की उत्पत्ति 1955 में इंडोनेशिया में आयोजित एशिया-अफ्रीका बांडुंग सम्मेलन में हुई चर्चाओं के दौरान, हुई थी।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन का पहला सम्मलेन 1961 के सितम्बर में बेलग्रेड (युगोस्लाविया) में हुआ| गुटनिरपेक्ष आंदोलन की स्थापना और पहला सम्मेलन (बेलग्रेड सम्मेलन) युगोस्लाविया के जोसेफ ब्रोज़ टिटो,मिस्र के गमाल अब्दुल नासिर, भारत के जवाहर लाल नेहरू,घाना के वामे एनक्रुमा और इंडोनेशिया के सुकर्नो  के नेतृत्व में हुआ था।

पहला गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन:

  • इस संगठन के उद्देश्य को साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नव-उपनिवेशवाद, नस्लवाद और विदेशी अधीनता के सभी रूपों के खिलाफ उनके संघर्ष में “राष्ट्रीय स्वतंत्रता,संप्रभुता,क्षेत्रीय अखंडता और गुट-निरपेक्ष देशों की सुरक्षा” सुनिश्चित करने के लिए 1979 के हवाना घोषणा में शामिल किया गया था।
  • शीत युद्ध के दौर में गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने विश्व व्यवस्था को स्थिर करने और शांति और सुरक्षा को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
  • गुटनिरपेक्षता का अर्थ वैश्विक मुद्दों पर राज्य की तटस्थता ही नहीं है,बल्कि ये हमेशा से विश्व राजनीति में एक शांतिपूर्ण हस्तक्षेप था।

  • संयुक्त राष्ट्र के चार्टर और अंतर्राष्ट्रीय कानून में निहित सिद्धांतों का सम्मान करना
  • सभी राज्यों की संप्रभुता, संप्रभु समानता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना
  • देशों और लोगों की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करना
  • आपसी हितों और अधिकारों की पारस्परिक समानता के आधार पर साझा हितों, न्याय और सहयोग की रक्षा एवं प्रोत्साहन, राज्यों की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक प्रणालियों में मौजूद मतभेदों की परवाह किए बिना करना
  • संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुसार, व्यक्तिगत या सामूहिक आत्मरक्षा के निहित अधिकार का सम्मान करना।
  • बहुपक्षीयता और बहुपक्षीय संगठनों का संवर्धन और बचाव उपयुक्त मानदंड के आधार पर करने के साथ बातचीत और सहयोग के माध्यम से मानव जाति को प्रभावित करने वाली समस्याओं को हल करना।
  • सयुंक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुरूप , सभी अंतराष्ट्रीय संघर्षों का शांतिपूर्ण समाधान
  • राज्य के आंतरिक मामले में अहस्तक्षेप की नीति का पालन करना

  • विश्व की राजनीति में एक स्वतंत्र रास्ता अपनाना जिसका मतलब यह नहीं है की प्रमुख शक्तियों के बीच संघर्ष में ये सदस्य देश तटस्थ रहेंगे।
  • स्वतंत्र निर्णय का अधिकार, साम्राज्यवाद और नव-उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष, और इन तीन बुनियादी तत्वों के साथ सभी बड़ी शक्तियों के साथ संबंधों में संयम रखना जो  इसके दृष्टिकोण को प्रभावित करते हो।
  • अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था के पुननिर्माण को सरल बनाना।

  • रंगभेद के खिलाफ: दक्षिण अफ्रीका जैसे अफ्रीकी देशों में रंगभेद की बुराई बड़े पैमाने पर व्याप्त थी।यह नैम के प्रथम सम्मेलन के एजेंडे में शामिल था। काहिरा में दूसरे नैम सम्मेलन के दौरान दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने रंगभेद की भेद भावपूर्ण प्रथाओं के खिलाफ चेतावनी दी थी।
  • निरस्त्रीकरण:गुटनिरपेक्ष आंदोलन हमेशा शांति की स्थापना करने, हथियारों की होड़ समाप्त करने, एवं सभी देशों में शांति पूर्ण सहअस्तित्त्व स्थापित करने के लिये प्रयत्नशील रहा है। महासभा में, भारत ने एक मसौदा प्रस्ताव पेश करते हुए घोषणा की कि परमाणु हथियारों का उपयोग संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के खिलाफ  होगा और मानवता के खिलाफ अपराध होगा और इसलिए इसे निषिद्ध किया जाना चाहिए।
  • UNSC सुधार: अपनी स्थापना के समय से ही NAM UNSC सुधारों के पक्ष में था, यह US और USSR के वर्चस्व के खिलाफ था। यह UNSC को अधिक लोकतांत्रिक बनाने के लिए तीसरी दुनिया के देशों का प्रतिनिधित्व चाहता था। वेनेजुएला में 17 वें नैम सम्मेलन के दौरान इसी मांग के साथ सदस्यों ने प्रतिध्वनि किया|
  • क्षेत्रीय तनावों को हल करने में विफल: शीत युद्ध के युग में भारत-चीन और भारत-पाकिस्तान के बीच क्षेत्रीय संघर्ष के कारण दक्षिण एशिया में तनाव बढ़ गया।  नैम क्षेत्रीय तनावों को दूर करने में विफल रहा, जिसने क्षेत्र में परमाणु शक्तियों के प्रसार को प्रोत्साहित किया|

गुटनिरपेक्ष आंदोलन की प्रासंगिकता

  • विश्वशांति:गुटनिरपेक्ष आंदोलन ने विश्व शांति की स्थापना करने में सक्रिय भूमिका निभाई है यह अभी भी अपने स्थापना के समय की भांति वर्तमान में भी अपने सिद्धांतों, विचारों और उद्देश्यों के साथ स्थित है, अर्थात शांतिपूर्ण और समृद्ध दुनिया की स्थापना के लिए। इसने किसी भी देश पर आक्रमण को प्रतिबंधित किया,निरस्त्रीकरण को बढ़ावा दिया और एक संप्रभु विश्व व्यवस्था को प्रोत्साहित किया।
  • राष्ट्रीय अखंडता और संप्रभुता: गुटनिरपेक्ष आंदोलन इस सिद्धांत का समर्थन करने के साथ हर राष्ट्र की स्वतंत्रता के संरक्षण के सिद्धांत के साथ इसने अपनी प्रासंगिकता साबित की है।
  • तीसरी दुनिया के देश- तीसरी दुनिया के देशों ने सामाजिक-आर्थिक समस्याओं के खिलाफ संघर्ष किया है, क्योंकि उनका लंबे समय से अन्य विकसित देशों द्वारा शोषण किया गया हैं, नैम ने पश्चिमी आधिपत्य के खिलाफ इन छोटे देशों के संरक्षक के रूप में काम किया।
  • संयुक्त राष्ट्र का समर्थन: NAM की कुल संख्या में 118 विकासशील देश शामिल हैं, और उनमें से अधिकांश संयुक्त राष्ट्र महासभा के सदस्य हैं। यह आमसभा के दो तिहाई सदस्यों का प्रतिनिधित्व करती है, इसलिए नैम के सदस्य संयुक्त राष्ट्र में महत्वपूर्ण वोट अवरोधक समूह के रूप में कार्य करते हैं|
  • समान विश्व व्यवस्था: NAM समान विश्व व्यवस्था को बढ़ावा देता है। यह अंतर्राष्ट्रीय वातावरण में विद्यमान राजनीतिक और वैचारिक मतभेदों के मध्य एक सेतु का काम करता है।
  • विकासशील देशों के हित: यदि सम्बद्ध विषय के किसी भी बिंदु पर विकसित और विकासशील राष्ट्रों के बीच विवाद उत्पन्न होते हैं, उदाहरण के लिए WTO, तो नैम एक मंच के रूप में कार्य करता है, जो प्रत्येक सदस्य राष्ट्र के लिए अनुकूल निर्णयों को शांतिपूर्वक निपटाने के लिए बातचीत और निष्कर्ष निकालता है।
  • सांस्कृतिक विविधता और मानवाधिकार : मानवअधिकारों के उल्लंघन के मामलों में, इस तरह के मुद्दों को उठाने और अपने सिद्धांतों के माध्यम से इसका समाधान करने के लिए एक मंच प्रदान करता है।
  • सतत विकास- NAM ने सतत विकास की अवधारणा का समर्थन करता है तथा यह दुनिया को संधारणीयता की ओर ले जा सकता है। इस का उपयोग जलवायु परिवर्तन, प्रवासन और वैश्विक आतंकवाद जैसे वैश्विक ज्वलंत मुद्दों पर सामंजस्य बनाने के लिए बड़े मंच के रूप में किया जा सकता है।
  • आर्थिक विकास– नैम के सदस्य देशों में अनुकूल जनसांख्यिकी, मांग और अनुकूल अवस्थिति जैसी प्राकृतिक सम्पदा है। उनका सहयोग करके उन्हें उच्च और सतत आर्थिक विकास के लिए प्रेरित किया जा सकता है। यह TPP और RECP जैसे क्षेत्रीय समूहों का विकल्प हो सकता है।
  • अपने पड़ोसियों के साथ भारत के संबंध उसके लिए मुख्य चिंता का विषय थे। भारत ने नेपाल के साथ 1950 में शांति और मित्रता के समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसने भारत के माध्यम से नेपाल तक वाणिज्यिक पारगमन को अनुकूल बनाया और अपनी संप्रभुता हासिल की और दोनों देशों ने एक-दूसरे की सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी उठाई।
  • बर्मा [अब म्यांमार] के साथ भारतवासियों की समस्या थी, जो शांति से हल हो गई।
  • भले ही तमिल अधिवासियों के मुद्दे को लेकर श्रीलंका के साथ कुछ तनाव था, लेकिन यह संबंधों में बाधा नहीं बन पाया।
  • हालाँकि, भारत के चीन और पाकिस्तान दोनों के साथ कटु संबंध थे।
  • विभाजन के दौरान सांप्रदायिक दंगों और आबादी के हस्तांतरण ने तनावपूर्ण संबंधों को जन्म दिया। अक्टूबर 1947 में कश्मीर पर पाकिस्तानी आक्रमण ने संबंधों को और खराब कर दिया।
  • कश्मीर के महाराजा ने विलय के दस्तावेजों पर हस्ताक्षर किए, और कश्मीर भारत का हिस्सा बन गया|
  • भारत ने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तानी आक्रामकता के खिलाफ शिकायत दर्ज की थी।
  • अगस्त 1948 के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव ने जनमत संग्रह कराने के लिए दो शर्त रखी।
  • सबसे पहले, पाकिस्तान को जम्मू और कश्मीर से अपनी सेना वापस लेनी चाहिए।
  • दूसरा, श्रीनगर प्रशासन के  अधिकार को पूरे राज्य में बहाल किया जाना चाहिए।
  • 1951 में, UN ने संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में जनमत संग्रह के लिए एक प्रस्ताव पारित किया, जिसके बाद पाकिस्तान ने कश्मीर से अपने सैनिकों को हटा लिया था।
  • यह प्रस्ताव तब  से बेकार पड़ा हुआ है जब से पाकिस्तान ने अपनी सेना को आजाद कश्मीर से वापस लेने से इनकार कर दिया था। तब से कश्मीर भारत और पाकिस्तान के मैत्रीपूर्ण संबंधों की राह में मुख्य बाधा बना हुआ है।
  • विशेष रूप से, कश्मीर मुद्दे का इस्तेमाल भारत की परेशानी बढ़ाने के लिए किया जाता है, क्योंकि पाकिस्तान अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी संगठनों जैसे -CENTO, SEATO, बगदाद संधि और अमेरिका के साथ सैन्य संधि के माध्यम से और अधिक एकीकृत हो गया।
  • कश्मीर के सवाल पर हुए संघर्ष के बावजूद भारत और पाकिस्तान की सरकारों के बीच सहयोग संबंध कायम हुए। दोनों सरकारों ने मिलजुल कर प्रयास किया कि बंटवारे के समय जो महिलाएं अपहृत्त  हुई थी,उन्हें अपने परिवार के पास वापस लौटाया जा सके।  विश्व बैंक की मध्यस्थता से नदी जल में हिस्सेदारी को लेकर चला आ रहा एक लंबा विवाद सुलझा लिया गया। नेहरू और जनरल अयूब खान ने सिंधु नदी जल संधि पर वर्ष 1960 में हस्ताक्षर किए|
  • हालाँकि, ये सभी शुरुआती प्रयास अस्थायी और अल्पकालिक थे।  1960 के बाद, भारत और पाकिस्तान के मध्य 3 युद्ध हुए, जिसमें भारत विजयी हुआ।
  • 1980 के बाद पाकिस्तान ने भारत में राज्य प्रायोजित आतंकवाद का समर्थन करना शुरू कर दिया जो अभी भी भारत के सामने एक मुख्य सुरक्षा चुनौती के रूप में मौजूद है।
  • हालांकि आजादी के बाद से भारत ने हमेशा पाकिस्तान के साथ मैत्रीपूर्ण और सौहार्दपूर्ण संबंध बनाए रखने की कोशिश की, लेकिन पाकिस्तान ने हमेशा भारत को आर्थिक, राजनीतिक रूप से तथा रक्षा और सुरक्षा के दृष्टिकोण से अस्थिर करने का प्रयास किया।

  • 1965
  • 1971
  • 1999 कारगिल

कश्मीर के मसले को लेकर पाकिस्तान के साथ बंटवारे के तुरंत बाद ही संघर्ष छिड़ गया था। पाकिस्तान ने 1965 में गुजरात के कच्छ  के रण में सैनिक हमला किया, उसके बाद जम्मू-कश्मीर में उसने बड़े पैमाने पर हमला किया।  पाकिस्तान के नेताओं को उम्मीद थी कि जम्मू-कश्मीर की जनता उनका समर्थन करेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ और पाकिस्तान को स्थानीय समर्थन नहीं मिल सका।

  • इसी बीच कश्मीर के मोर्चे पर पाकिस्तानी सेना की बढ़त को रोकने के लिए प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जवाबी हमला करने के आदेश दिए।
  • यह युद्ध फिर से भारत के पक्ष में रहा, और संयुक्त राष्ट्र संघ के हस्तक्षेप से इस लड़ाई का अंत हुआ।
  • सोवियत संघ की मध्यस्थता में दोनों देशों के बीच ( भारत से शास्त्री और पाकिस्तान से अयूब खान) जनवरी 1966 में ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

ताशकंद समझौते के कुछ महत्वपूर्ण प्रावधान निम्नलिखित थे:

  • कश्मीर के हाजी पीर दर्रा और अन्य रणनीतिक लाभ जैसे महत्वपूर्ण जगहों से हटने के लिए भारत के कश्मीर विवाद का अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता द्वारा पाकिस्तान को हटाया जाना ।
  • युद्ध से पहले की स्थिति के लिए दोनों पक्षों द्वारा बलों की वापसी।
  • युद्ध के कैदियों का क्रमबद्ध स्थानांतरण|
  • राजनयिक संबंधों की बहाली|
  • हालाँकि भारत ने युद्ध जीत लिया, लेकिन इस युद्ध से भारत की कठिन आर्थिक स्थिति पर और ज्यादा बोझ पड़ा।
  • इस युद्ध के दौरान, देश में खाद्यान्न की कमी थी। इसलिए, प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने लोकप्रिय नारा दिया- जय जवान, जय किसान जिसका अर्थ है कि हमारे जवान (सैनिक) सीमाओं की रक्षा करेंगे और हमारे किसान (जवान) खाद्यान्न उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर बनाएंगे।
  • वर्ष 1970 में पाकिस्तान के सामने एक गहरा अंदरूनी संकट आ खड़ा हुआ पाकिस्तान के पहले आम चुनाव में खंडित जनादेश आया।
  • ज़ुल्फ़िकार भुट्टो की सत्तारूढ़ पार्टी पश्चिम पाकिस्तान में विजेता के रूप में उभरी जबकि उनके पूर्वी हिस्से में शेख मुजीब-उर रहमान की अवनी लीग ने बड़े अंतर से सीटें जीतीं।
  • हालांकि, मजबूत और शक्तिशाली पश्चिमी प्रतिष्ठान ने लोकतांत्रिक फैसले की अनदेखी की और संघ की मांग को स्वीकार नहीं किया।
  • पाक सेना ने उनकी मांगों और फैसले का सकारात्मक जवाब देने के बजाय रहमान को गिरफ्तार कर लिया और क्रूर आतंकी गतिविधियों को अंजाम दिया और उनकी आवाज को बेरहमी से दबा दिया।
  • इस खतरे को स्थायी रूप से समाप्त करने के लिए, पूर्वी पाक के लोगों ने पाकिस्तान से बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष की शुरुआत की।
  • पूर्वी पाक के शरणार्थियों के भारी संख्या में आने के कारण, भारत ने गंभीर विचार-विमर्श किया और लोगों के मुक्त संग्राम को नैतिक रूप से समर्थन किया, जिस कारण पश्चिमी पाकिस्तान ने आरोप लगाया कि भारत उसे तोड़ने की साजिश कर रहा है|
  • लोगों को मुक्ति आंदोलन को रोकने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन से पश्चिमी पाकिस्तान को समर्थन मिला था।
  • अमेरिकी और चीनी समर्थित पाक के हमलों से अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, भारत ने सोवियत संघ के साथ 20 साल की शांति और मित्रता की संधि पर हस्ताक्षर किए।
  • बहुत कूटनीतिक विचार – विमर्श के बाद भी ठोस परिणाम हासिल नहीं किया जा सका और दिसंबर 1971 में पश्चिमी और पूर्वी दोनों मोर्चे पर पूर्णव्यापी युद्ध छिड़ गया।
  • भारत की बाहरी खुफिया एजेंसी R&AW ने इस युद्ध में निर्णायक भूमिका निभाई। इसने मुक्तिवाहिनी का गठन कर इसे संगठित किया(इसमें पाकिस्तान की अत्याचार से पीड़ित बांग्लादेश की स्थानीय आबादी और बांग्लादेश से संबंधित पाकिस्तानी सेना के पूर्व सैनिक शामिल हैं)।
  • “मुक्ति बाहिनी” के रूप में स्थानीय आबादी के समर्थन से भारतीय सेना तेजी से आगे बढ़ी और पाकिस्तानी सैनिकों को 10 दिनों के अंदर आत्मसमर्पण करना पड़ा।
  • इस जीत को ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस संकट के समय इंदिरा गांधी ने बहुत साहस और सावधानी के साथ काम किया। यह इंदिरा गाँधी और भारत के लिये सब से गौर्वान्वित क्षण था।
  • बांग्लादेश के स्वतंत्र देश के रूप में उदय के साथ, भारत ने एकतरफा युद्ध विराम घोषित कर दिया।
  • बाद में 3 जुलाई, 1972 को इंदिरा गांधी और जुल्फिकार भुट्टो के बीच शिमला समझौते पर हस्ताक्षर हुए,जिससे राष्ट्रों के बीच अमन एवं शांति की बहाली हुई|
  • इसका उद्देश्य दो राष्ट्रों के मध्य स्थाई शांति, मित्रता और सहयोग स्थापित करना था। इस समझौते के तहत दोनों देशों ने संघर्ष और विवाद को पूरी तरह से समाप्त करने का प्रयास करेंगे, जिसे दोनों देशों ने अतीत में अनुभव किया था। इस समझौते में मार्गदर्शक सिद्धांतों का एक समुच्चय है,जो दोनों देशों के पारस्परिक सहयोग पर आधारित थे|
  • एक दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान|
  • एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना|
  • राजनीतिक स्वतंत्रता|
  • संप्रभुता और समानता|
  • द्विपक्षीय दृष्टिकोण के माध्यम से शांतिपूर्ण समाधान|
  • लोगों के परस्पर  संपर्कों पर विशेष ध्यान देने के साथ एक सहकारी संबंध की नींव बनाना।
  • जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा  को बनाए रखना, जो स्थाई शांति का प्रमुख उपाय है।

1971 के युद्ध के बाद, पाकिस्तानी सेना ने कभी भी भारतीय सेना से प्रत्यक्ष रूप से युद्ध नहीं किया बल्कि अपनी गुप्त एजेंसियो द्वारा प्रशिक्षित किए गए आतंकवादियों को भेज कर जम्मू कश्मीर और भारत में आतंक फैलाकर दहशत का वातावरण उत्पन्न करने के लिए अप्रत्यक्ष  युद्ध प्रारंभ किया ।

  • 1999 में, पाकिस्तानी सेना के साथ मुजाहिद्दीनों ने भारतीय सीमा के कई जगहों पर वस्तुतः मशकोह, द्रास,  काकसर और बटालिक पर कब्जा कर लिया।
  • इस प्रकार की गतिविधियों में पाकिस्तान के शामिल होने का संदेह करते हुए, भारतीय सेना ने तत्काल युद्ध  प्रारंभ कर दिया, जिसे कारगिल संघर्ष के रूप में जाना जाता है।
  • दोनों देश परमाणु क्षमताओं से युक्त होने के कारण, 1998 के इस संघर्ष ने दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर खींचा। दोनों पक्षों में से किसी के भी द्वारा परमाणु का उपयोग किया जा सकता था, हालांकि इसका इस्तेमाल नहीं किया गया, इसके बिना ही भारतीय सैनिकों ने अपने साहस,वीरताऔर पारंपरिक युद्ध की रणनीति के माध्यम से अपना लक्ष्य हासिल किया।
  • भारत ने इस युद्ध में विजय प्राप्त की।
  • इस कारगिल संघर्ष को लेकर भारी विवाद हुआ था क्योंकि तत्कालीन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री को इस तरह की गतिविधि के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
  • बाद में तत्कालीन पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तानी राष्ट्रपति के रूप में पदभार संभाला।
  • भारत ने हमेशा से ही चीन के प्रति मैत्री नीति का पालन किया है|
  • 1950 में पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता देने वाला भारत पहला देश था|
  • नेहरू की बहुत आशाएं थी कि औपनिवेशिक ताकतों के हाथों उत्पीड़न का सामान अनुभव रखने वाले तथा गरीबी एवं निम्न विकास के समान समस्याओं वाले यह दोनों देश मिलजुल कर अपना विकास करेंगे, नेहरू ने सुरक्षा परिषद में कम्युनिस्ट चीन को उचित स्थान दिलवाने पर भी जोर दिया था|
  • 1954 में भारत और चीन ने एक संधि पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत भारतने तिब्बत पर चीन के अधिकार को स्वीकार किया, दोनों देशों ने पंचशील के आधार पर आपसी संबंध नियमित करना तय किया।
  • 1959 में, तिब्बत में एक विद्रोह उत्पन्न हुआ और दलाई लामा वहां से भाग गए। उन्हें भारत में शरण ली गई किंतु निर्वासन में सरकार बनाने की इजाजत नहीं दी गई और ना ही राजनीतिक गतिविधियों की इजाजत दी गई।  चीन इससे  फिर भी नाखुश था।
  • यह शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए पंचशील संधि के रूप में 5 सिद्धांत एक समुच्चय है|
  • एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप ना करना, और एक दूसरे की क्षेत्रीय एकता अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करना( संस्कृत के शब्द पंच का अर्थ 5, शील मतलब गुण ) 5 सिद्धांतों का एक समुच्चय है, जिसका उद्देश्य राज्यों के मध्य शासन को सुनिश्चित करना है|
  • 1954 में भारत और चीन के मध्य एक समझौते के रूप में पंचशील सिद्धांतों का प्रथम औपचारिक संहिताकरण किया गया।
  • इसे चीन और भारत के तिब्बत क्षेत्र के मध्य “व्यापार और पारस्परिक व्यवहार के समझौते” (नोटों के आदान-प्रदान के साथ) की प्रस्तावना में नामित किया गया, जिसे 28 अप्रैल 1958 को “पीकिंग”(चीन) में हस्ताक्षरित किया गया था|

  • दोनों देश एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करेंगे
    • अनाक्रमण
    • समानता और पारस्परिक लाभ
  • एक-दूसरे के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगे
  • शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व

  • पंचशील के पांच सिद्धांत पर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और चीन के पहले प्रधानमंत्री चाउ एन लाई द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे|
  • ऐसा आरोप लगाया गया कि पंचशील संधि भारत द्वारा की गई एक महान कूटनीतिक भूल थी, जिसका प्रभाव वर्तमान में भी विद्यमान है|
  • तिब्बत के कुछ क्षेत्रों पर भारत द्वारा अपने अधिकार को छोड़ देना ने चीन की विस्तारवादी नीति को और प्रोत्साहन दिया|
  • चीन ने आक्रामक नीतियों के माध्यम से पूरे तिब्बत पर कब्जा करने और अंततः सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के लिए अपने विस्तारवादी नीति के दृष्टिकोण को दिखाने के लिए इसी नीति का इस्तेमाल किया था|
  • तिब्बत के हिस्सों को छोड़ देने से, भारत ने उपमहाद्वीप में चीन की गतिविधियों को रोकने वाले पहाड़ी दर्रा पर नियंत्रण रखने का एक महत्वपूर्ण सैन्य अवसर खो दिया|
  • भारत ने एक बफर राज्य भी गंवाया है,जो कि चीनी सीमा विवादों के खिलाफ एक निवारक के रूप में कार्य कर रहा होता,और वर्तमान में भारत को डोकलाम जैसे मुद्दों सामना नहीं करना पड़ता हैं|
  • 1962 में चीनी फौज ने नेफा( जिसे बाद में अरुणाचल प्रदेश कहा गया) के पूर्वी सेक्टर में भारतीय चौकियों पर बड़े पैमाने पर हमला किया गया।
  • पश्चिमी सेक्टर में चीनियों ने गलवान घाटी में 13 सीमावर्ती चौकियों पर कब्जा कर लिया और जिससे चुशू लहवाई पट्टी पर खतरा बढ़ गया|
  • ऐसा लगने लगा था कि चीनी मैदानी इलाकों पर आक्रमण करके असम और अन्य क्षेत्रों पर कब्जा करने वाले हैं|
  • नेहरू ने अमेरिका और ब्रिटेन से मदद मांगी|
  • चीन ने जल्द ही एकतरफा वापसी की घोषणा कर दी|
  • अपने स्वाभिमान को लगे इस झटके से उबरने के लिए भारत को काफी समय लगा|
  • शायद बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तान विजय ने ही(जिसमें चीन और अमेरिका पाकिस्तान का समर्थन कर रहे थे) भारत को अपना आत्म सम्मान वापस हासिल करने में मदद की|
  • भारत राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व हमले के स्वरूप को जानने में विफल रहा|
  • नेफा में तैनात भारतीय सेना के कमांडर ने, चीन के हमला करने के बाद बिना किसी प्रतिरोध के उन्हें जाने दिया|
  • भारत ने चीन की सीमा विवाद हल करने वाली शर्तों को मानने से इनकार कर दिया। इसके विपरीत उन्होंने 1959 से एक ऐसी आक्रामक नीति अपनाई जिसने चीनियों को अपनी आत्मरक्षा में हमला करने पर मजबूर कर दिया|
  • तिब्बत में विद्रोह होने, दलाई लामा के भारत आगमन एवं सीमा संघर्ष के बाद भी भारत खतरों को भाप नहीं सका। नेहरू ने सोचा भी नहीं था की कम्युनिस्ट चीन भारतीय राज्य के प्रति आक्रमक हो  सकता है|
  • नेहरू ने हमले का स्वरूप समझने में भारी गलती की, ना की विदेशी नीति में।
  • सेना की कमान ने या तो सीमा पर झड़पों या आसाम के मैदानों में बड़े पैमाने पर युद्ध के बारे में सोचा, किंतु वे कभी भी सीमित घुसपैठ और तुरंत वापसी की कल्पना नहीं कर सके।
  • यह पराजय उच्चतर रक्षा कमान एवं प्रबंधन की उचित प्रणाली तथा प्रतिरक्षा योजना की कमी के कारण हुई। साथ ही नागरिक सैनिक संबंध भी त्रुटिपूर्ण थे
  • यह विफलता खुफिया कार्य, खुफिया संदेशों के विश्लेषण, सशस्त्र बलों के विभिन्न अंगों के बीच समन्वय से जुड़ी थी
  • एक और गलती घबराहट में अमेरिका और ब्रिटेन से सहायता की अपील थी, जबकि अगले ही दिन चीनी वापस लौट गए|
  • युद्ध ने नेहरू की विदेशी नीति पर भी संदेह जताया|
  • भारत को अपमानित करके चीन यह दर्शना चाहता था की शांति और गुटनिरपेक्षता की भारत की नीति अव्यावहारिक थी|
  • तीसरी पंचवर्षीय योजना एवं आर्थिक विकास के संसाधनों को रक्षा के लिए उपयोग कर लिया गया, जिससे भारत को बहुत मुश्किल स्थिति का सामना करना पड़ा।
  • अगस्त 1963 में नेहरू को अपने जीवन में पहली बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा|
  • यह राष्ट्रीय अपमान की भावना को पैदा करता है और देश और विदेश में भारत की छवि को धूमिल करता है|
  • सैन्य तैयारियों में कमी और चीनी इरादों की कम मूल्यांकन के लिए नेहरू की कड़ी निंदा की गई थी|
  • दोनों देशों के मध्य संबंध 1976 तक उदासीन रहे और तत्कालीन विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पहले ऐसे शीर्ष नेता थे जिन्होंने 1979 में चीन का दौरा किया।

भारत और श्रीलंका का संकट काल ( 1987) 

  • 1948 में स्वतंत्रता के बाद से, बौद्ध बहुसंख्यक, श्रीलंका ने देश में क्रमशः तमिल अल्पसंख्यकों के अधिवर्जन की नीति अपनाई।
  • समय के साथ-साथ तमिल अल्पसंख्यकों की असंतुष्टता और अधिक बढ़ती गई क्योंकि वह लगभग सभी प्रकार के अधिकारों राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक से वंचित थे ।
  • जिसके परिणामस्वरूप श्रीलंकाई क्षेत्र में तमिल अल्पसंख्यकों के कारण, विरोध के लिए अनेक समूह का उद्भव हुआ, जिसमें LTTE की प्रमुख भूमिका थी।
  • लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE)), प्रभाकरण के नेतृत्व में, जाफ़ना  प्रांत को आजाद करने के लिए एक सशस्त्र हिंसक वर्ग था।
  • 1980 के दशक में श्रीलंका ने इस गृह युद्ध में हिस्सा लिया और श्रीलंकाई सेना ने जाफना में कई निर्दोष तमिल नागरिकों का दमन करना शुरू किया, जिससे श्रीलंका से भारत की ओर प्रवास शुरू हुआ।
  • इसने भारत सरकार की चिंता को बढ़ाया, क्योंकि यह मुद्दा भारत से सीधे संबंधित था इसलिए राजीव गांधी के शासनकाल में भारत ने इसमें हस्तक्षेप किया।
  •  हस्तक्षेप का एक उद्देश्य यह भी था कि श्रीलंका और LTTE के मध्य विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से निपटाया जाए, और श्रीलंका में तमिलों के मानवाधिकारों की रक्षा की जाए।

तमिल समूह को भारत सरकार द्वारा प्रदान किया गया समर्थन

  • राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धने का भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ उतना अच्छा  संबंध नहीं था, जितना कि उनके पिता प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ था।
  • इस प्रकार ब्लैक जुलाई दल के जातीय दंगों के बढ़ते प्रकोप के साथ, भारत सरकार ने 1983 के मध्य से उत्तरी श्रीलंका में संचालित विद्रोही समूहों का समर्थन करने का निर्णय लिया, इंदिरा गांधी के निर्देशन में, भारतीय खुफिया एजेंसी ने कई तमिल विद्रोही समूहों को वित्त पोषण, हथियार बनाना और प्रशिक्षण देना शुरू किया।
  • भारत 1980 के दशक के उत्तरार्ध में, अधिक सक्रिय रूप से शामिल हो गया और 5 जून 1987 को भारतीय वायु सेना ने खाद्य सामग्री जाफना में गिराया,जब यह श्रीलंकाई सेनाओं के पूर्ण नियंत्रण में था|
  • एक समय पर जब श्रीलंकाई सरकार ने कहा,वे LTTE को हराने वाले हैं, तो भारत ने विद्रोहियों के समर्थन में LTTE के कब्जे वाले क्षेत्रों में पैराशूट द्वारा 25 टन भोजन और दवा की आपूर्ति की गई थी। जब कि श्रीलंका सरकार ने आरोप लगाया कि LTTE को न केवल खाद्य और चिकित्सा की आपूर्ति बल्कि हथियारों की भी आपूर्ति की जा रही है।

भारत श्रीलंका शांति समझौता( 29 जुलाई, 1987)

  • भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति जी.आर.जयवर्धने के बीच 29 जुलाई, 1987 को भारत श्रीलंका शांति समझौते पर कोलंबो में हस्ताक्षर किया गया|
  • इस समझौते के अंतर्गत श्रीलंका की सरकार ने कई रियायतें प्रदान की,जिसमें प्रांतों को शक्ति प्रदान करना, विलय के बाद उत्तरी और पूर्वी प्रांतों में जनमत संग्रह, और आधिकारिक स्थिति शामिल थी।( इसे श्रीलंका के संविधान में 13वें संशोधन के रूप में लागू किया गया)
  • भारतीय शांति सेना बल के माध्यम से उत्तर और पूर्व में आदेश स्थापित करने और तमिलों की मदद करने के लिए, सहमति व्यक्त की।
  • हालांकि शुरुआत में LTTE सहित अन्य युद्ध वाले समूह इसके विरोधी थे, किंतु हिचकिचाहट के साथ अपने हथियारों को भारतीय शांति सेना को सौंपने के लिए सहमत हुए, जो पहले एक संघर्ष विराम और उग्रवादी समूह के  मामूली निशस्त्रीकरण का निरीक्षण करता था।
  • यद्यपि अधिकांश तमिल उग्रवादी समूहों ने अपने हथियार डाल दिए और संघर्ष के शांतिपूर्ण तरीके के लिए सहमत हुए, किंतु LTTE ने इससे इनकार कर दिया।
  • तत्पश्चात समझौते की सफलता सुनिश्चित करने हेतु भारतीय शांति सेना ने बलपूर्वक LTTE को समाप्त करने की कोशिश की, और इसकी समाप्ति युद्ध से हुई।
  • ऑपरेशन पवन इंडो श्रीलंकाई समझौते के एक भाग के रूप में LTTE को निशस्त्र करने 1987 के उत्तरार्ध में LTTE से जाफना को अपने नियंत्रण में लेने के लिए भारतीय सुरक्षा बल को सौंपा गया कोड नाम था।
  • लगभग 3 सप्ताह तक चलने वाले भयानक युद्ध में भारतीय शांति सेना ने LTTE के शासन के जाफना प्रायद्वीप पर नियंत्रण किया,जिसे श्रीलंका की सेना ने कई वर्षों तक हासिल करने की कोशिश की और विफल रही थी। भारतीय सेना के टैंक, हेलीकॉप्टर, गन, शिप औरभारी तोपखाने द्वारा IPKF द्वारा LTTE को जीत लिया।

जाफना यूनिवर्सिटी हेली ड्रॉप

  • जाफना यूनिवर्सिटी हेली ड्राप भारतीय शांति सेना द्वारा शुरू किया गया पहला ऑपरेशन था, जिसका उद्देश्य तमिल टाइगर्स को बलपूर्वक समाप्त करना एवं ऑपरेशन पवन के शुरुआती चरणों में श्रीलंका के जावरा शहर को सुरक्षित करना तथा श्रीलंका के गृह युद्ध में सक्रिय भारतीय हस्तक्षेप को सुनिश्चित करना था|
  • 12 अक्टूबर,1987 की मध्य रात्रि को शुरू किया गया,ऑपरेशन को 11 हमले के रूप में योजनाबद्ध रूप से किया गया था जिसमें नंबर 109 U.के Mi-8s दसवीं पैरा कमांडो और 13वे सिख LI की एक टुकड़ी शामिल थी|
  • ऑपरेशन का उद्देश्य जाफना विश्वविद्यालय के भवन में LTTE के नेतृत्व पर कब्जा करना था, जोकि LTTE के सामरिक मुख्यालय के रूप में कार्य करता था|
  • जिसे जाफना के युद्ध में ऑपरेशन पवन द्वारा समाप्त करने की कोशिश की गई थी।
  • हालांकि ऑपरेशन भयानक रूप से समाप्त हुआ था किंतु अपने उद्देश्य को प्राप्त करने और खुफिया योजनाओं को विफल करने में असफल रहा था|
  • हेलीड्राफ्ट बलों को कई महत्वपूर्ण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, लगभग सिख LI टुकड़ी में 29 सैनिक शामिल थे, जो विश्वविद्यालय के चार दीवारी के अंदर गिर गए और अंतिम सांस तक लड़ते रहे, इसके साथ ही 6 पैरा कमांडो भी युद्ध में मारे गए।

भारतीय भागीदारी की समाप्ति

  • राष्ट्रवादी भावना के कारण सिंघलियों के द्वारा भारतीयों की उपस्थिति का विरोध किया गया| जिसके कारण श्रीलंका सरकार के द्वारा भारत की फौज को वापस जाने के लिए कहा तथा शांति स्थापित करने के लिए एक गुप्त समझौता किया गया  लेकिन लेकिन एलटीटीई और आईपीकेएफ के बीच शत्रुता बनी रही|
  • अप्रैल 1989 में राणा सिंह प्रेमदासा की सरकार ने श्रीलंकाई सेना और आईपीकेएफ को तमिल राष्ट्रीय छापामार और एलटीटीई से हथियार रखने के लिए कहा|
  • श्रीलंकाई संघर्ष में आईपीकेएफ के हताहतों की संख्या बढ़ गई और श्रीलंका से आईपीकेएफ के वापस जाने का दबाव बढ़ लेकिन राजीव गांधी के द्वारा आईपीकेएफ  को श्रीलंका से हटाने के लिए इंकार कर दिया|
  • आईपीकेएफ और उसके आखिरी जहाज को श्रीलंका से 24 मार्च 1990 से रवाना किया गया|
  • श्रीलंका में IPKF की 32 महीने की उपस्थिति में 1200 भारतीय सैनिकों और 5000 से अधिक श्रीलंकाई सैनिको की मृत्यु हुई । भारत सरकार के अनुमान के अनुसार 10.3 मिलियन डॉलर का खर्च हुआ|

राजीव गाँधी की हत्त्या (1991)

  • LTTE के समर्थन से 1991 में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी की हत्या आत्मघाती महिला हमलावर थेनमोझी राजरत्नम द्वारा की गई|
  • भारतीय प्रेस ने बाद में बताया कि प्रभाकरन ने गांधी को खत्म करने का फैसला किया क्योंकि उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री को तमिल मुक्ति संघर्ष के खिलाफ माना था और उन्हें डर था कि वह अगर 1991 का भारतीय आम चुनाव जीते तो आईपीकेएफ को फिर से शामिल कर सकते हैं, जिसे प्रभाकरन ने “शैतानी ताकत” करार दिया|
  • इस हत्या के बाद भारत सिर्फ एक बाहरी पर्यवेक्षक देश बना रहा|
  • नेहरू ने आधुनिक भारत के निर्माण के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी में विश्वास बनाए रखा। उनकी औद्योगीकरण योजनाओं का महत्वपूर्ण घटक 1940 के दशक के अंत में होमी जे.भाभा के नेतृत्व में शुरू किया गया परमाणु कार्यक्रम था।
  • भारत शांतिपूर्ण उद्देश्यों की पूर्ति के लिए परमाणु ऊर्जा उत्पन्न करना चाहता था। नेहरू हमेशा परमाणु हथियारों के इस्तेमाल के खिलाफ थे, इसलिए उन्होंने सभी परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों से पूर्ण परमाणु निसस्त्रीकरण की गुहार लगाई।

1974 का परमाणु परीक्षण (पोखरण)

  • 1974 में, इंदिरा गांधी के नेतृत्व में भारत ने अपना पहला परमाणु परीक्षण किया।  भारत ने इसे शांतिपूर्ण विस्फोट कहा  और तर्क दिया कि यह केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा का उपयोग करने की नीति के लिए प्रतिबद् है
  • इस ऑपरेशन का कोड नाम स्माइलिंग बुद्धा था।
  • इससे पहले यूएनएससी के पांच स्थायी सदस्य अमेरिका, USSR,फ्रांस, यू.के. चीन ने परमाणु हथियार प्राप्त कर लिए थे और शेष दुनिया पर 1968 में  एनपीटी [परमाणु अप्रसार संधि] लगाने की कोशिश की।
  • भारत ने इस तरह के कदम को भेदभावपूर्ण माना और इसका पालन करने से इनकार कर दिया। भारत ने शुरू से  यह बात रखी कि एनपीटी जैसी संधियाँ गैर-परमाणु देश  के लिए चुनिंदा रूप से लागू की गई जिससे परमाणु शक्ति सम्पन्न  देश का परमाणु हथियार पर एकाधिकार बना रहे।
  • प्रधानमंत्री ए बी वाजपेयी के नेतृत्व में पोखरण-2 परीक्षण मई 1998 भारतीय सेना के पोखरण टेस्ट रेंज में भारत द्वारा किए गए पांच परमाणु बम परीक्षण विस्फोटों की एक श्रृंखला थी।
  • यह परीक्षण 11 मई 1998 को एक निश्चित कोड नाम  ऑपरेशन शक्ति के तहत, एक संलयन और दो उत्सर्जन बमों के विस्फोट के साथ शुरू किया गया था।
  • डॉ एपीजे अब्दुल कलाम और डॉक्टर आर चिदंबरम के नेतृत्व में पोखरण परीक्षण केंद्र में मिशन शक्ति का नेतृत्व किया गया|
  • यह परीक्षण कई नामों से किया गया जिसे सामूहिक रूप से मिशन शक्ति-98 कहा गया और इस परीक्षण में 5 परमाणु बमों का प्रयोग किया गया जिसे मिशन शक्ति 1 के रुप मैं नामित किया गया|
  • यह भारत के सैन्य उद्देश्यों के लिए परमाणु और ऊर्जा का उपयोग करने  की क्षमता को प्रस्तुत किया|
  • कुछ समय पश्चात पाकिस्तान ने भी इसी तरह का परमाणु परीक्षण किया जिसके कारण यह क्षेत्र परमाणु परीक्षण के प्रति संवेदनशील  हो गया|
  • भारत और पाकिस्तान के इस परिक्षण से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को द्वारा कठोर प्रतिबंध लगाएगए| जिन्हें बाद में माफ कर दिया गया, भारत ने परमाणु हथियार के पहले उपयोग का आश्वासन नहीं दिया और परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के अपने रुख को बनाए रखा और एक परमाणु हथियार मुक्त दुनिया के लिए अग्रणी वैश्विक सत्यापन योग्य और गैर-भेदभावपूर्ण परमाणु निसस्त्रीकरण के लिए अपनी प्रतिबद्धता दोहराई।

भारत विदेश नीति के मुख्य आधार क्या है?

विदेश नीति का मुख्य आधार राष्ट्रीय हित है

भारत की विदेश नीति से आप क्या समझते हैं?

विदेश नीति वह नीति या दृष्टिकोण है, जिसके द्वारा कोई राष्ट्र विश्व के अन्य राष्टों के साथ व्यवहार करता है जिसमें संबंधों का निर्माण या उनसे दूरी अथवा अनुकूलता या प्रतिकूलता बनायी जाती हैं। यदि देखा जाये तो विदेश नीति वह कला है जो अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का शुद्ध आधार प्रस्तुत करती हैं

विदेश नीति की तुलना का आधार क्या है?

परंपरागत रूप में विदेश नीति के सैद्धांतिक आधार यथार्थवादी अथवा आदर्शवादी होते हैं। आदर्शवाद से प्रेरित विदेश नीति आदर्शवादी लक्ष्यों को अपना अभीष्ट मानती है। मसलन विश्व बंधुत्व, मानवाधिकार, राष्ट्रों में परस्पर प्रेम एवं सदभाव, वैश्विक समस्याओं का वैश्विक सहयोग द्वारा समाधान आदि।

संबंधित पोस्ट

Toplist

नवीनतम लेख

टैग