अशोक के फूल रचना की विधा है - ashok ke phool rachana kee vidha hai

अशोक के फूल निबंध की रचना सन 1948 को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के द्वारा कि गयी थी। लेकिन यह मूल रूप से 2007 को प्रकाशित हुआ। ‘अशोक के फूल’ निबन्ध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की मनुष्य समाज के और सामाजिक एवं सांस्कृतिक चिन्तन की परिणति को दर्शाया गया है। मुसलमानों के शासन काल में यह पुष्प साहित्य से भी निष्काषित कर दिया गया था । आचार्य जी ने अशोक के फूल की गरिमा तथा उसके पतन का इतिहास बताते हुए मानव जाति के उत्थान – पतन की कथा प्रस्तुत की है। तथा परिवर्तन को प्रकृति का सहज स्वाभाविक धर्म बताते हुए निराश ना होने का संदेश दिया है। भारतीय परम्परा में अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं, श्वेत एवं लाल पुष्प। श्वेत पुष्प तान्त्रिक क्रियाओं की सिद्धि के लिए उपयोग किया जाता हैं, जब कि लाल पुष्प भगवान को समर्पित किया जाता है तथा इसको स्मृतिवर्धक माना जाता है।

अशोक के फूल निबंध के रचनाकार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एक हिंदी उपन्यासकार, साहित्यिक, इतिहासकार, निबंधकार, आलोचक और विद्वान थे। उनका जन्म सन 19 अगस्त 1907 को हुआ था और सन 19 मई 1979 को मृत्यु हुआ था। उन्होंने कई उपन्यास, निबंधों के संग्रह, भारत के मध्ययुगीन धार्मिक आंदोलनों विशेषकर कबीर और नाथ संप्रदाय पर ऐतिहासिक शोध और हिंदी साहित्य की ऐतिहासिक रूपरेखा लिखी। हिंदी के अलावा, वह संस्कृत, बंगाली, पंजाबी, गुजराती के साथ-साथ पाली, प्राकृत और अपभ्रंश सहित कई भाषाओं के उस्ताद थे।

संस्कृत, पाली और प्राकृत और आधुनिक भारतीय भाषाओं के पारंपरिक ज्ञान में माहिर, द्विवेदी जी को अतीत और वर्तमान के बीच महान सेतु निर्माता बनना तय था। संस्कृत के एक छात्र के रूप में, शास्त्रों में डूबे हुए, उन्होंने साहित्य-शास्त्र को एक नया मूल्यांकन दिया और उन्हें भारतीय साहित्य की पाठ परंपरा पर एक महान टिप्पणीकार के रूप में माना जाता है।

उन्हें 1957 में हिंदी साहित्य में उनके योगदान के लिए “पद्म भूषण” से सम्मानित किया गया था, और उनके निबंधों के संग्रह ‘आलोक पर्व’ के लिए 1973 “साहित्य अकादमी पुरस्कार” से सम्मानित किया गया था।

उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के दुबे-का-छपरा गाँव में जो ज्योतिषियों के लिए प्रसिद्ध माना जाता है वहीँ एक पारंपरिक परिवार में हुआ था। उनके पिता पंडित अनामोल द्विवेदी संस्कृत के विद्वान थे।

द्विवेदी की प्रारंभिक शिक्षा मध्य परीक्षा(middle examination) तक उनके गांव के स्कूल में हुई। इंटरमीडिएट पूरा करने के बाद, उन्होंने ज्योतिष में ‘आचार्य’ की डिग्री और संस्कृत में ‘शास्त्री’ की डिग्री को हासिल करने के लिए एक पारंपरिक स्कूल में ज्योतिष (astrology) और संस्कृत का भी अध्ययन किया।

द्विवेदी जी 1930 में विश्व भारती में शामिल हुए। उन्होंने संस्कृत और हिंदी पढ़ाया और उसके बिकास की और बढ़ावा दिया , और उसके साथ साथ शोध और रचनात्मक लेखन में भी लगे रहे। वे दो दशकों तक शांतिनिकेतन में रहे। उन्होंने हिंदी भवन की स्थापना में मदद की और कई वर्षों तक इसके प्रमुख रहे।

शांतिनिकेतन में अपने प्रवास के दौरान, वह रवींद्रनाथ टैगोर और बंगाली साहित्य के अन्य प्रमुख व्यक्तियों के निकट संपर्क में आए। वह बंगाली की सूक्ष्मता, नंदलाल बोस की सौंदर्य संबंधी संवेदनाओं, क्षितिमोहन सेन की जड़ों की खोज और गुरुदयाल मलिक के कोमल लेकिन भेदी हास्य को आत्मसात करने आए थे। ये प्रभाव उनके बाद के लेखन में स्पष्ट हैं।

उन्होंने 1950 में शांतिनिकेतन छोड़ दिया और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हिंदी विभाग में Reader बन गए, जहां डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा प्रोफेसर और विभाग के प्रमुख थे। द्विवेदी जी ने 1960 तक वहां सेवा की। इस पद पर रहते हुए, उन्हें भारत सरकार द्वारा 1955 में स्थापित पहले राजभाषा आयोग का सदस्य भी नियुक्त किया गया था।

1960 में वे पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ में professor और हिंदी विभाग के प्रमुख के रूप में शामिल हुए, इस पद पर वे अपनी retirement तक रहे।

द्विवेदी जी का भारतीय रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन में सबसे अच्छा साहित्यकार के रूप में योगदान अभूतपूर्व है और अगर उनकी रुचियां में गौर किया जाए तो विविधता होने का प्रमाण मिलता हैं।

उन्होंने साहित्यिक इतिहास और आलोचना में निम्नलिखित महत्वपूर्ण रचनाएँ लिखीं:

  • साहित्य की भूमिका
  • हिंदी साहित्य का आदिकला

उनके उपरोक्त लेखन ने हिन्दी साहित्य में आलोचना के इतिहास को एक नई दिशा दी।

उन्होंने निम्नलिखित पुस्तकों में भारत के मध्यकालीन धार्मिक जीवन का अपना ऐतिहासिक विश्लेषण भी प्रकाशित किया:

  • कबीर
  • मध्यकालिन धर्म साधना
  • नाथ संप्रदाय

मध्ययुगीन संत कबीर पर उनके काम को एक उत्कृष्ट कृति माना जाता है, और कबीर के विचार, कार्यों और शिक्षाओं का गहन शोध विश्लेषण है।

वे एक प्रख्यात उपन्यासकार भी थे। उनके उपन्यास ऐतिहासिक विषयों और व्यक्तित्वों के इर्द-गिर्द घूमते थे। उनके निम्नलिखित ऐतिहासिक उपन्यास classic माने जाते हैं:

  • बनभट्ट की आत्मकथा (1946)
  • अनामदास का पोथा 1976
  • पुनर्नवा
  • चारु-चंद्र-लेखा

वे एक महान निबंधकार भी थे। उनके कुछ यादगार निबंध हैं:

  • कलपता (शिरीष के फूल और अन्य निबंध): शिरीष के फूल बारहवीं कक्षा के लिए एनसीईआरटी की हिंदी पुस्तक का हिस्सा है।
  • नखून क्यों बरते हैं (नाखून क्यों बढ़ते हैं)
  • अशोक के फूल
  • विचार प्रवाह
  • कुटाजी
  • आलोक पर्व (संग्रह)

उन्होंने अंग्रेजी और अन्य भाषाओं की कई रचनाओं का हिंदी में अनुवाद भी किया। इसमे शामिल है:

  • प्रबंध-चिंतामणि (प्राकृत से)
  • पुराण प्रबंध संग्रह
  • विश्व परिचय
  • लाल कनेरो
  • “mouthi mar thi hoa mara”

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अशोक के फूल कौन सी विधा है?

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश भारतीय संस्कृति, इतिहास, साहित्य, ज्योतिष और विभिन्न धर्मों का उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया है जिसकी झलक पुस्तक में संकलित इन निबन्धों में मिलती है छोटी-छोटी चीजों, विषयों का सूक्ष्मस्वरूप अवलोकन और विश्लेषण-विवेचन उनकी निबन्धकला का विशिष्ट व मौलिक गुण है।

अशोक के फूल से क्या अभिप्राय है?

अशोक कल्प में बताया गया है कि अशोक के फूल दो प्रकार के होते हैं - सफेद और लाल। सफेद तो तांत्रिक क्रियाओं में सिद्धिप्रद समझकर व्यवहृत होता है और लाल स्मरवर्धक होता है।

अशोक के फूल निबंध का उद्देश्य क्या है?

प्रस्तुत निबन्ध में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने 'अशोक के फूल' की सांस्कृतिक परम्परा की खोज करते हुए उसकी महत्ता प्रतिपादित की है। इस फूल के पीछे छिपे हुये विलुप्त सांस्कृतिक गौरव की याद में लेखक का मन उदास हो जाता है और वह उमड़-उमड़ कर भारतीय रस-साधना के पीछे हजारों वर्षों पर बरस जाना चाहता है।

अशोक किसकी रचना?

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