अर्थशास्त्र की विकास आधारित परिभाषा किसने दी - arthashaastr kee vikaas aadhaarit paribhaasha kisane dee

अर्थशास्त्र

आधुनिक समय में अर्थशास्त्र का अध्ययन अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया है वास्तविक जगत जटिल होता है अतः उसके आर्थिक समस्याओं को समझना कठीन होता है, अर्थशास्त्र के अध्ययन से इनका समाधान अत्यन्त सुगम हो जाता है और नीतियों को परखने की समझ भी पल्लवित होती है।

अंग्रेजी भाषा के इकॉनमिक्स (Economics) शब्द की उत्पत्ति लैटिन Economica या ग्रीक शब्द oikonomia से हुई है. जिसका अर्थ है-गृह प्रबन्ध । हिन्दी भाषा का शब्द 'अर्थशास्त्र' दो शब्द 'अर्थ' और शास्त्र' से मिलकर बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ धन का शास्त्र है। आधुनिक अर्थशास्त्र का जन्म 1776 ई0 में हुआ जब अर्थशास्त्र के जनक कहे जाने वाले एड्म स्मिथ की पुस्तक, “Enquiry in to the nature and causesa of wealth of nations" (राष्ट्रों के धन के स्वरूप तथा कारणों की खोज) प्रकाशित हुई, जिसमें सर्वप्रथम उन्होनें अर्थशास्त्र के क्रमबद्ध तथा वैज्ञानिक अध्ययन का प्रयास किया। इस शास्त्र के जन्म के समय इसका नाम राज्य अर्थव्यवस्था (Poltical Economy ) था।

अर्थशास्त्र की विकास आधारित परिभाषा किसने दी - arthashaastr kee vikaas aadhaarit paribhaasha kisane dee

1890 में मार्शल द्वारा अर्थशास्त्र की सुप्रसिद्व पुस्तक Principles of Economics के साथ ही अर्थशास्त्र का नया नाम राज्य अर्थव्यवस्था से बदलकर 'अर्थशास्त्र' हो गया। प्रो मार्शल के पश्चात से सभी अर्थशास्त्रीयों ने इसी अर्थशास्त्र शब्द को स्वीकार किया है। और तभी से यही नाम चल रहा है। प्रस्तुत लेख के अर्न्तगत हम अर्थशास्त्र के महत्व विभिन्न विद्वानो द्वारा प्रदत्त अर्थशास्त्र की परिभाषाओं व उसके विषय क्षेत्र के साथ ही उसकी प्रकृति का भी अध्ययन करेगे।

अर्थशास्त्र की परिभाषा

हम सभी यह सर्वमान्य रूप से स्वीकार करते हैं, कि प्रत्येक व्यक्ति की आवश्यकताएं असीमित होती हैं और उन्हें प्राप्त करने के साधन (जैसे आय) सीमित होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अधिक से अधिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करता है। परन्तु वह अपने सीमित-असीमित इच्छाओं/आवश्यकताओं की अधिकतम प्राप्ति हेतु सीमित साधन को किस प्रकार प्रयुक्त करें उसका निर्णय कैसे करें? यही उसके समक्ष आर्थिक समस्या है।

अर्थशास्त्र की परिभाषा के संदर्भ में इसके विभिन्न विद्धानों के मध्य मत भिन्नता की स्थिति रही है क्योंकि यह एक ऐसा विषय है जिसमें समय के साथ परिवर्तन होता रहा है। यही कारण है कि आज तक अर्थशास्त्र की कोई सर्वमान्य परिभाषा नहीं दी जा सकी है। यही नहीं अर्थशास्त्रियों का एक समूह ऐसा भी है जिसका मत है कि अर्थशास्त्र की परिभाषा देने की कोई आवश्यकता नहीं हैं। अर्थशास्त्र की परिभाषा के सम्बन्ध में अर्थशास्त्रियों के मध्य मतभेद को कीन्स के कथन से स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा कि “राज्य अर्थव्यवस्था ने परिभाषाओं से अपना गला घोट लिया है।” चकि विगत दो शताब्दीयों से अधिक वर्षों में अर्थशास्त्र के विषय क्षेत्र में बहुत विस्तार हुआ है। अतः इसकी परिभाषा में एक सीमा तक भिन्नता पाया जाना स्वाभाविक हैं।

अर्थशास्त्र की बहुत अधिक परिभाषाओं की कठिनाई से बचने तथा सुविधा व सरलता की दृष्टि से परिभाषाओं को निम्न प्रमुख वर्गों में विभाजित कर सकते हैं।

  • धन केन्द्रित परिभाषाएं: जिसमें एडम स्मिथ, जे.बी.से., जे.एस मिल इत्यादि प्रमुख है।
  • कल्याण केन्द्रित परिभाषाएं: जिसमें मार्शल, पीगू, कैनन, बैवरेज इत्यादि प्रमुख है।
  • सीमितता या दुर्लभता केन्द्रित परिभाषाएं: जिसमें राबिन्सन प्रमुख है।
  • आवश्यकता विहीनता सम्बन्धी परिभाषाएं: (जे.के.मेंहता)।
  • विकास केन्द्रित परिभाषाएं: जिसमें सेम्युलसन, हेनरी, स्मिथ आदि है

धन केन्द्रित परिभाषाएं

प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को ‘धन का विज्ञान' कहा है। अर्थशास्त्र के जनक एडम स्मिथ ने सन 1776 में प्रकाशित अपनी प्रसिद्व पुस्तक “An enquiry in to the nature and causesa of wealth of nation's.” अर्थशास्त्र को धन का विज्ञान कहते हुए कहा कि राष्ट्रों के धन के स्वरूप एवं कारणों की खोज करना ही अर्थशास्त्र की विषय सामग्री है। उनके अनुसार अर्थशास्त्र का प्रमुख उद्देश्य शब्द की भौतिक सम्पन्ता में वृद्वि करना है। एडम स्मिथ की इसी विचार धारा की झलक उनके अनुयायी अर्थशास्थियों के विचारो में मिलती है।

फ्रांसीसी अर्थशास्त्री जे.बी.से. के अनुसार “अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो धन का अध्ययन करता है।”

जे.एस. मिल के अनुसार- “अर्थशास्त्र मनुष्य से सम्बन्धित धन का विज्ञान है।"

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने धन को अर्थशास्त्र के विषय सामग्री का केन्द्र बिन्दु मानते हुए मनुष्य को गौंण स्थान दिया जिससे इसका क्षेत्र न केवल संकुचित हो गया अपितु इसे घृणित विज्ञान' भी कहा जाने लगा। धन को प्रमुख महत्व देने के कारण ही एडम स्मिथ ने ‘आर्थिक मनुष्य’ की कल्पना की जिसके सारे प्रयास धन प्राप्ति के लिए ही होते हैं। निःसन्देह इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं हुआ जा सकता क्योंकि इसमें मनुष्य की उपेक्षा की गयी है। उपर्युक्त दोषों के कारण 19वीं शताब्दी के अन्त में इन परिभाषाओं को त्याग दिया गया।

कल्याण केन्द्रित परिभाषा

आपने जाना कि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों ने ष्नष् पर अधिक जोर दिया। इसके कारण कार्लाइल बंतसलसमद्ध व रस्किन जैसे अंग्रेज अर्थशास्त्रियों ने धन के विज्ञान के रूप में अर्थशास्त्र की कट आलोचना करते हए इसे 'कबेरपंथ' (mammon worship) व 'घणित विज्ञान' (dismal science) आदि कहा। अर्थशास्त्र को इस आलोचना से बचाने हेतु 19वीं सदी के अंत में नवक्लासिकी अर्थशास्त्री प्रो0 अल्फ्रेड मार्शल ने बताया कि धन साध्य (end) नहीं बल्कि साधन मात्र है। जिसकी सहायता से मानव कल्याण में वृद्धि की जा सकती है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “Principles of Economics” में अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार दी- “अर्थशास्त्र मानव जाति के साधारण व्यवसाय का अध्ययन है। यह व्यक्तिगत और सामाजिक क्रियाओं के उस भाग की जॉच करता हैं जिसका निकट सम्बन्ध कल्याण के भौतिक साधनों की प्राप्ति और उनके उपयोग से है।"

यदि हम मार्शल की उपरोक्त परिभाषा का विश्लेषण करें तो उसकी निम्नलिखित विशेषताएं स्पष्ट होती हैं

i. जीवन के साधारण व्यवसाय का अध्ययन

मार्शल के अनुसार अर्थशास्त्र में मानव जीवन की साधारण क्रियाओं का अध्ययन किया जाता हैं। जैसा कि हम सभी जानते है कि साधारण दिनचर्या में मनुष्य आय अर्जित करने व उसका उपभोग (खर्च) करने में लगा रहता है। विनिमय व वितरण क्रियाओ से आशय उपभोग, उत्पादन की क्रियाओं से है।

ii. भौतिक कल्याण पर जोर

मार्शल की परिभाषा में वर्णित कल्याण के भौतिक साधनों की प्राप्ति से स्पष्ट होता है कि उसने अर्थशास्त्र के अध्ययन में भौतिक कल्याण पर बल दिया। मनुष्य के भौतिक कल्याण से अभिप्राय उस संतुष्टि से है जो उसे भौतिक वस्तुओं के उपभोग से प्राप्त होती है और जिसे मुद्रा के रूप में मापा जा सके।

iii. सामाजिक मनुष्यों का अध्ययन

मार्शल का अर्थशास्त्र उन्हीं मनुष्यों के साधारण व्यवसाय सम्बन्धी क्रियाओं का अध्ययन करता है जो समाज में रहते हैं। समाज से बाहर रहने वाले लोग जैसे- साधू,सन्यासी, जुआरी, शराबी इत्यादि को वे साधारण मनुष्य नहीं मानते फलस्वरूप वे अर्थशास्त्र के अध्ययन विषय नहीं हैं।

कैनन ने भी मार्शल से मिलती-जुलती अर्थशास्त्र की परिभाषा दी। उन्होने भी भौतिक कल्याण की वृद्धि पर जोर देते हुए स्पष्ट किया कि राजनीतिक अर्थशास्त्र का उद्देश्य उन सामान्य कारणों की व्याख्या करना है जिन पर मनुष्य का भौतिक कल्याण निर्भर है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि मार्शल ने अर्थशास्त्र को एक नया स्वरुप, स्थान व एक नयी दृष्टि प्रदान की लेकिन अनेक अर्थशास्त्रियों विशेषकर राबिन्स ने मार्शल की शब्दसः आलोचना की जिनमें कुछ निम्नांकित है।

1. आर्थिक क्रियाओं को साधारण व असाधारण व्यवसाय में बॉटना अनुचित

मार्शल का अर्थशास्त्र समाज में रहने वाले मनुष्यों की ही आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन करता है। इससे स्पष्ट होता है कि मानव जीवन के व्यवसाय सम्बन्धी क्रियाएं भागो में बटी हैं- ‘साधारण' व 'असाधारण’ आलोचकों का मानना है कि मार्शल ने कोई ऐसा आधार प्रदान नहीं किया जिससे साधारण व असाधारण क्रियाओं के बीच भेद किया जा सके। रॉबिंस का मानना है कि साधारण व्यवसाय सम्बन्धी क्रियाओं के अर्थ में स्पष्टता न होने के कारण न अर्थशास्त्र का सही स्वरूप सामने नहीं आ पायेगा और अर्थशास्त्र का क्षेत्र भी सीमित हो जायेगा।

2. अर्थशास्त्र केवल सामाजिक विज्ञान ही नहीं बल्कि मानव विज्ञान है

मार्शल कहते है कि अर्थशास्त्र केवल उन्हीं मनुष्यों की साधारण क्रियाओं का अध्ययन करता हैं, जो समाज में रहते है। रॉबिन्स ने इसकी आलोचना करते हुए कहा कि अर्थशास्त्र के नियम और सिद्धान्त साधु सन्यासियों पर भी उसी तरह से लागू होते हैं जिस तरह से समाज में रहने वाले व्यक्तियों पर। उदाहरण के लिये सभी व्यक्तियों चाहे वे साधु-सन्यासी हो या समाज में रहने वाले व्यक्ति हों, सीमान्त उपयोगिता हास नियम, समान रूप से लागू होगा अर्थात उनके द्वारा ज्यों-ज्यों रोटी (माना) की अत्यधिक इकाइयाँ उपभोग की जायेगी उससे मिलने वाली उपयोगिता घटती जायेगी। इस तरह अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान नहीं बल्कि मानव विज्ञान है।

3. मार्शल की परिभाषा वर्ग कारिणी है. विश्लेषणात्मक नहीं

रॉबिन्स पुनः आलोचना करते हैं कि मार्शल द्वारा अर्थशास्त्र की विषय सामग्री के अध्ययन में साधनों को भौतिक और अभौतिक, मनुष्य की क्रियाओं को आर्थिक व अनार्थिक व साधारण व असाधारण व्यवसाय में बांटने से उनकी परिभाषा विश्लेशणात्मक के स्थान पर वर्गकारिणी हो जाती है, जो तर्क संगत नहीं है

4. अर्थशास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त ही संकुचित

रॉविन्स का कहना है कि मार्शल द्वारा अपनी परिभाषा में असामाजिक व्यक्तियों, अभौतिक वस्तओं व अनार्थिक क्रियाओं को शामिल न करने से अर्थशास्त्र का क्षेत्र अत्यन्त संकुचित हो जाता है। उदाहरण के लिए-जंगल से लकड़ी इकटठा करने वालों को दी जाने वाली मजदूरी तो इसकी सीमा में आयेगी लेकिन एक नर्तकी, गायक, या किसी चित्रकार इत्यादी को दी जाने वाली मजदूरी इसके अन्तर्गत नहीं आयेगी। क्योंकि पहले व्यक्ति की क्रियाएं भौतिक कल्याण की सृष्टि करती है जबकि नर्तकी की सेवाएं भौतिक कल्याण की सृष्टि नहीं करतीं। इसके अलावा मजदूरी को अर्जित करने के अलावा उसके खर्च करने के बारे में विश्लेषण करें तो पता चलता है कि अर्थशास्त्र का क्षेत्र संकुचित हो जायेगा। उदाहरणार्थ- मजदूरी का वह भाग जो रोटी या अन्य भौतिक वस्तुओं के उपभोग पर व्यय होता है उससे तो भौतिक कल्याण सृजित होगा और वह अर्थशास्त्र का विषय क्षेत्र होगा लेकिन यदि उस भाग को सिनेमा देखने में व्यय किया जाय तो किसी भौतिक कल्याण के सृजन के अभाव में वह अर्थशास्त्र के विषय क्षेत्र में नहीं आयेगा।

5. अर्थशास्त्र का कल्याण के साथ सम्बन्ध स्थापित करना उचित नहीं

मार्शल के भौतिक कल्याण सम्बन्धी दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए पुन रॉबिन्स ने कहा कि अर्थशास्त्र एक वास्तविक विज्ञान है न कि आदर्श विज्ञान। ऐसी बहुत सी क्रियायें हैं जैसे शराब व आम मादक पदार्थों का उत्पादन और बिक्री जिससे कल्याण में वृद्धि नहीं होती लेकिन अर्थशास्त्र में इसका अध्ययन किया जाता है।

मार्शल की परिभाषा के निष्कर्ष में यह माना जाता है कि यद्यपि मार्शल की परिभाषा सरल है परन्तु तार्किक दृष्टि से दोषपूर्ण है साथ ही यह अर्थशास्त्र के वैज्ञानिक आधार को भी कमजोर करती है।एडम स्मिथ और मार्शल के अर्थशास्त्र सम्बन्धी दृष्टिकोण जानने के पश्चात अब हम सीमितता या दुर्लभता सम्बन्धी दृष्टिकोण पर चर्चा करेगें जिसके प्रतिपादक राबिन्स है।

सीमितता (दुर्लभता) सम्बन्धी परिभाषायें

रॉविन्स ने 1932 में प्रकाशित अपनी पुस्तक- “An eassay on the nature and signify cance of Economic science” में अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार दी-

'अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो साध्यों (ends) तथा वैकल्पिक उपयोग वाले सीमित साधनों के सम्बन्ध के रूप में मानव व्यवहार का अध्ययन करता है।'

स्पष्ट है कि रॉबिन्स द्वारा दी गयी अर्थशास्त्र की परिभाषा निम्नांकित तत्वों पर आधारित है

  1. आवश्यकताएं असीमित हैं - साध्यों (Ends) से आशय मनुष्य की आवश्यकताओं से है जो कि असीमित होती है क्योंकि एक की संतुष्टि के बाद दूसरी उपस्थित हो जाती है और उसके बाद तीसरी, चौथी आवश्यकता उत्पन्न होती रहती है। आवश्यकताओं का यह क्रम लगातार चलता रहता है।
  2. साध्यों की पूर्ती के लिए साधन सीमित होते है। साधनों के सीमित होने का अर्थ है उसकी पूर्ती, मांग की तुलना में कम है। साधन से आशय उस वस्तु से है जो मानवीय आवश्यकता को संतुष्ट करने की क्षमता रखती है।
  3. वैकल्पिक साधनों का उपयोग- रॉबिन्स ने अपनी परिभाषा में यह स्पष्ट किया कि साधन सीमित ही नहीं हैं बल्कि उनका वैकल्पिक प्रयोग भी संभव है। इसका आशय है कि एक ही साधन का प्रयोग अनेक उपयोगों में किया जा सकता है। जैसे लकड़ी को फर्नीचर, कुसीर , मेंज या दरवाजा बनाने में प्रयोग किया जा सकता है।
  4. आवश्यकताओं की तीव्रता में भिन्नता- इसका आशय है कि मनुष्य की आवश्यकताएं विभिन्न महत्व की होती हैं अर्थात अधिक तीव्र आवश्यकता की पूर्ती पहले करनी पड़ती है। चूँकि मनुष्य की आवश्यकताए असीमित व उसकी प्राप्ति हेतु साधन सीमित होते हैं अतः मनुष्य को आवश्यकताओं की तीव्रता के आधार पर चुनाव करना होता है। साधनों की सीमितता के कारण कम तीव्र आवश्यकताओं का त्याग करना पड़ता है। यह चुनाव की क्रिया ही ‘आर्थिक समस्या' है और इस प्रकार की समस्याओं का अध्ययन ही अर्थशास्त्र का विषय है। यह आर्थिक समस्या तब तक उत्पन्न नहीं होती जब तक कि उपर्युक्त चार तत्व विद्यमान न हो। इनमें से किसी एक तत्व के न होने पर आर्थिक समस्या का सृजन संभव नहीं। आर्थिक समस्या की प्रक्रिया को एक उदाहरण के माध्यम से भी स्पष्ट कर सकते है-मान लीजिए कि आपको फर्नीचर बनाने व खाना पकाने हेतु लकड़ी की आवश्यकता है। अब यदि लकड़ी की प्रचुर मात्रा उपलब्ध हो तो चुनाव की समस्या के अभाव में आर्थिक समस्या का जन्म नहीं होगा। अब यदि लकड़ी की पूर्ति सीमित हो लेकिन उसका एक ही प्रयोग संम्भव हो ;खाना पकाने, फर्नीचर बनाने आदि मेंद्ध तो भी चुनाव की समस्या नहीं आयेगी और यदि यह मान लें कि लकड़ी का दोनो प्रयोग संभव हो तो भी चुनाव का प्रश्न नहीं उठेगा फलस्वरूप आर्थिक समस्या का जन्म नहीं होगा। यदि दोनो आवश्यकताओ में एक अधिक महत्वपूर्ण व दूसरी कम महत्वपूर्ण हो इस प्रकार उपर निर्दिष्ट चारो तत्वों के सहयोग से ही आर्थिक समस्या का जन्म होगा।

आप यह कह सकते हैं कि रॉविन्स का दृष्टिकोण मानता है कि एक अर्थशास्त्री साधनों के बीच चुनाव के अभिप्रयों का ही अध्ययन करता है, उसका विषय ‘सीमितता' है। अतः अर्थशास्त्र की समस्या केवल किफायत' की समस्या है। अतः स्पष्ट है असीमित आवश्यकताओं तथा सीमित और अनेक उपयोग वाले साधनो के बीच मानव व्यवहार का रुप चुनाव करने या निर्णय करने का होता है। इस चुनाव करने की क्रिया को ही रॉबिन्स ने आर्थिक समस्या कहा और यह बतलया कि इसी आर्थिक समस्या का अध्ययन अर्थशास्त्र में किया जाता है। रॉबिन्स की विचार धारा का समर्थन करने वाले अर्थशास्त्रयों में फिलिप विक्स्टीड, वॉन मिसेज, स्टिगलर प्रमुख हैं।

इस प्रकार रॉविन्स ने अर्थशास्त्र की जो परिभाषा दी उससे अर्थशास्त्र का क्षेत्र विस्तृत हो गया। एडम स्मिथ ने जहाँ अर्थशास्त्र को धन के विज्ञान के सीमित दायरे में रखा वही मार्शल, पीगू इत्यादि ने उन्हीं मनष्यो की भौतिक क्रियाओं को अर्थशास्त्र में सम्मिलित किया जो समाज में रहते हैं। रॉविन्स ने उन सभी संर्कीणताओं से अर्थशास्त्र को बाहर निकालने में सबसे बड़ा योगदान दिया। रॉविन्स का अर्थशास्त्र सभी मनुष्यों की क्रियाओ का अध्ययन करता है। वे किसी भी समस्या का विश्लेषण भौतिक व अभौतिक कल्याण के आधार पर नहीं करते बल्कि चुनाव व दुर्लभ साधनों के आधार पर करते है। उनकी परिभाषा के अनुसार-अर्थशास्त्र वस्तु विनिमय व मुद्रा विनिमय में, व्यक्तिगत और सामाजिक आचरण में पूजीवादी और समाजवादी समाज सभी में लागू होता है। इस प्रकार रॉविन्स की परिभाषा वर्गकारीणी न होकर विश्लेषणात्मक है।

हमने देखा कि रॉबिन्स द्वारा दी गयी अर्थशास्त्र की परिभाषा की क्या-क्या विलक्षणताएं रही है लेकिन इन विलक्षणताओं के अनेक अर्थशास्त्रीयों ने जिसमें केनन, फ्रेजर, ऊटन, क्लार्क, प्रो0 एमान व रार्बटसन इत्यादि प्रमुख है, निमांकित आधारों पर इसकी आलोचना की है।

(1) उद्देश्यों या साध्यों (ends) - के सम्बन्ध में तटस्थता का दावा गलत- राबिन्सन ने यह प्रतिपादित किया कि अर्थशास्त्र उद्देश्यों के प्रति तटस्थ है। उनके अनुसार उद्देश्य तो पूर्व निश्चित है। अर्थशास्त्री का कर्तव्य केवल दर्लभ साधनों को ठीक से प्रयोग करना है। वह केवल यह देखता है कि साधनों का प्रयोग मितव्ययिता से हो रहा है या अमितव्ययिता सें। इस व्याख्या से उनका साधनों के प्रति तटस्थता का दावा निराधार हो जाता है क्योंकि रान्बिस स्वयं इस तथ्य का प्रतिपादन करते है कि दुर्लभ साधनों के प्रयोग में अर्थशास्त्री को मितव्ययी होना चाहिए। इस रूप में मितव्ययिता एक साध्य हुआ।  

(2) अर्थशास्त्र के आर्दश विज्ञान भ्रामक- रॉबिन्सन ने अर्थशास्त्र को वास्तविक विज्ञान माना। उनके मत में अर्थशास्त्री का कार्य परिस्थितियों का उसी रुप में (As such) अध्ययन करना है, क्या होना चाहिए (what oughat to be)और क्या नहीं? यह उसकी सीमा के बाहर है। यह कार्य नीतिशास्त्र का है अर्थशास्त्र का नहीं है। उनके इस दृष्टिकोण से अर्थशास्त्र का क्षेत्र सीमित हो जाता है। वैसे भी अर्थशास्त्र का महत्व केवल ज्ञान अर्जित करने के लिए नहीं, बल्कि ज्ञान के प्रयोग के लिए है। प्रो0 पीगू स्वयं कहते है कि- 'अर्थशास्त्र प्रकाशदायक न होकर एक फलदायक विज्ञान है।' इसलिए अर्थशास्त्री साध्यों के प्रति तटस्थ नहीं रह सकता।

अन्यथा अर्थशास्त्र केवल सिद्धान्तों का बोझ बन जायेगा। आधुनिक नियोजित अर्थव्यवस्था में यदि अर्थशास्त्री साध्यों के प्रति तटस्थ हो जाय तो सम्पूर्ण नियोजन प्रणाली ढप पड़ जायेगी।

(3) अति व्यापक व अति संकुचित दृष्टिकोण- रॉविन्स का यह दावा कि दुर्लभता चुनाव व मितव्ययिता के आधार पर दी हुई उनकी अर्थशास्त्र की परिभाषा से अर्थशास्त्र का क्षेत्र विस्तृत हो गया क्योंकि इस प्रकार की समस्या प्रत्येक अर्थव्यवस्था में पायी जाती है। पर राबर्टसन व फ्रेजर का मत है कि रॉविन्स की परिभाषा ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र को अति व्यापक भी किया और अति संकीर्ण भी। रॉविन्स ने अर्थशास्त्र को निश्चित रूप देने के लिए अर्थात अर्थित निष्कषों पर पहुंचने के लिए निगमन प्रणाली (Deductive method) का प्रयोग किया जबकि अर्थशास्त्र के अध्ययन के लिए निगमन के साथ-साथ आगमन विधि का भी प्रयोग होता है। दोनों एक दसरे की परक है। फ्रेजर का मत है कि आगमन के अभाव में निगमन प्रभावहीन है जबकि निगमन के अभाव में आगमन अंधे के समान है।

(4) स्थैतिक दृष्टिकोण- रॉविन्स की परिभाषा स्थैतिक अवस्था में लागू होती है प्रावैगिक व आर्थिक संवृद्धि की समस्या को ध्यान में नहीं रखती। आर्थिक संवृद्धि की प्रमुख समस्या वर्तमान दुर्लभ साधनों के अनुकूलतम आवंटन की नहीं बल्कि स्वंय साधनो के सृजन की है ताकि बढ़ती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके। अर्थात विकास की समस्या राबिन्स की परिभाषा में नहीं आती। इस तरह रॉविन्स का दृष्टिकोण प्रावैगिक नहीं स्थैतिक है। स्थैतिक एवं प्रावैगिक दृष्टिकोण की व्यापक चर्चा हम इस खण्ड के इकाई-3 में करेगें।

(5) प्रचुरता से उत्पन्न समस्या पर प्रकाश नहीं- आलोचकों का यह भी मानना है कि रॉबिन्स का अर्थशास्त्र दुर्लभता से उत्पन्न होने वाली आर्थिक समस्या पर तो प्रकाश डालता है पर प्रचुरता से उत्पन्न होने वाली आर्थिक समस्या पर नहीं। ऐसे विकसित देश हो सकते है जहाँ इतनी प्रचुर मात्रा में साधन उपलब्ध हो कि उन्हें जान बूझकर नष्ट कर दिया जाता है। जैसे अमेरीका में मूल्य नियमित करने हेतु अधिक पैदा हुएं गेहूं को जलाने या समुद्र में फेंकने की घटना प्रकाश में आती है। इन देशों के सदर्भ में यह परिभाषा लागू नहीं होती।

(6) साध्य और साधन के बीच अंतर स्पष्ट नहीं- रॉबिन्स ने अपनी परिभाषा में साध्य और साधनों के बीच अंतर स्पष्ट नहीं किया। यह संभव है कि आज जो वस्तु साध्य रहती है कुछ समय बाद वह साधन बन जाये। जैसे M.B.B.S की डिग्री लेना एक छात्र का उद्देश्य हो जो बाद में वह कैरियर संवारने या जीविका प्राप्त करने का साधन भी बन जाय।

रॉविन्स की परिभाषा की उपर्युक्त आलोचनाओ से स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र के क्षेत्र को विस्तृत करने के लिए उन्होने जगत में रहने वाले मनुष्यों की क्रियाओं को भी इसमें सम्मिलित कर लिया। पर इससे अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह था कि उन्होनें कल्याण व व्यवहारिक अर्थशास्त्र को अर्थशास्त्र के क्षेत्र से बाहर कर दिया। उनकी एक भुल यह थी कि उन्होनें अर्थशास्त्र को वास्तविक विज्ञान के रूप में उपस्थित किया तथा क्या होना चाहिए की व्याख्या को अर्थशास्त्र के क्षेत्र से बाहर रखा। उचित यह होता कि इन दोनों के बीच का रास्ता चुना गया होता। आजकल जबकि आर्थिक विज्ञान के साधन के रूप में नियोजन को स्वीकार कर लिया गया है , दिन-प्रतिदिन कल्याणकारी राज्य का महत्व बढ़ता जा रहा है। अर्थशास्त्र केवल वास्तविक विज्ञान नहीं रह सकता और न ही साध्यों के प्रति तटस्थ रह सकता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अर्थशास्त्र एक वास्तविक विज्ञान है। जिसका आदर्शवादी पहल भी है। निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि राबिन्स की परिभाषा अर्थशास्त्र को और अधिक तार्किक बनाकर उसके वैज्ञानिक आधार को मजबूत करती है। तथा मानवीय व्यवहार के चुनाव की समस्या पर ध्यान केन्द्रित करती हैं परन्तु आधुनिक आर्थिक विश्लेषण में यह परिभाषा भी अपर्याप्त सिद्ध होती है। क्योंकि अब अर्थशास्त्र की विषय सामग्री में आय, रोजगार तथा आर्थिक विकास भी जुड़ चुके है।

अब तक हम लोगो ने एडम स्मिथ के धन सम्बन्धी परिभाषा के पश्चात मार्शल व पीगू की कल्याण सम्बन्धी तथा राबिन्स के 'दर्लभता सम्बन्धी’ परिभाषाओं के बारे में जाना। मार्शल पहले ऐसे अर्थशास्त्री थे जिन्होने अर्थशास्त्र के धन सम्बन्धी दृष्टिकोण को व्यापक स्वरूप प्रदान करते हुए अर्थशास्त्र को मानवीय कल्याण के साथ जोड़ा। मार्शल और प्रो0 रॉबिन्स की परिभाषाओं में हम कुछ समानता या असमानता को वगीकृत कर सकते है। आइए संक्षेप में यह जाना जाय कि इन दोनो परिभाषाओं में कौन- कौन सी समानता है और क्या- क्या असमानताएं हैं-

समानता

मार्शल तथा रॉबिन्स दोनों ही अपनी परिभाषाओं में अर्थशास्त्र को एक विज्ञान मानते हैं।

मार्शल ने धन शब्द का प्रयोग किया है जबकि रॉबिन्स ने सीमित साधनों का। सीमितता धन का प्रमुख गुण है इस दृष्टि से दोनों का अर्थ लगभग एक ही है। यद्यपि रॉबिन्स सीमित साधन में समय को भी सम्मिलित करते है।

रॉबिन्स ने सीमित साधनों के मितव्ययिता या किफायत से प्रयोग करने की बात कही जिससे अधिकतम उत्पादन व अधिकतम संतुष्टि प्राप्त हो इसे ही मार्शल ने अधिकतम कल्याण कहा है।

असमानता

प्रो0 अल्फ्रेड मार्शल तथा प्रो0 एल0 रॉबिन्स की परिभाषाओ में कुछ समानता के साथ ही कई मुख्य अन्तर भी है। इन दोनों अर्थशास्त्रियों की परिभाषाओं में व्याप्त अन्तर को निम्न सारिणी से हम संक्षेप में चर्चा कर रहे है-

मार्शल का दृष्टिकोणरॉबिन्स का दृष्टिकोण
मार्शल की परिभाषा सरल और स्पष्ट है। राबिन्स की परिभाषा अस्पष्ट एवं जटिल है।
मार्शल की परिभाषा वर्गकारिणी है। राबिन्स की परिभाषा विश्लेषणात्मक है।
मार्शल के अनुसार अर्थशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है क्योकि इसके अर्न्तगत केवल समाज में रहने वाले व्यक्तियों की क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। राबिन्स के अनुसार अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान न होकर एक मानव विज्ञान है जो मानवीय क्रियाओं के आर्थिक पहल का अध्ययन करता है।
अर्थशास्त्र उद्देश्यों के प्रति तटस्थ नहीं है। इसका उद्देश्य मानव कल्याण में वृद्धि करना है। इन्होने अर्थशास्त्र के उद्देश्य में अकेले भौतिक कल्याण को शामिल नहीं किया है।
मार्शल ने अर्थशास्त्र को विज्ञान व कला दोनो माना है। रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र को केवल वास्तविक विज्ञान माना है।

आवश्यकता विहीनता सम्बन्धी परिभाषा

इलाहाबाद वि.वि. के अर्थशास्त्र विभाग के भूतपूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. जमशेद के. खुसरो महेता (जे. के. मेंहता) जिन्हे भारतीय दार्शनिक सन्यासी अर्थशास्त्री (Indian philosopher saint Economist) कहा जाता है ने आर्थिक क्रियाओं के उद्देश्य को नये रूप में स्वीकार किया। अर्थशास्त्र को एक नया दृष्टिकोण प्रदान किया जो कि पाश्चात्य अर्थशास्त्रीयों के मत से सर्वथा भिन्न है। यह पूर्णतया भारतीय संस्कृति व दर्शन के अनुरूप है।

प्रो. मेंहता, रॉबिन्स के इस मत से तो सहमत है कि अर्थशास्त्र मानव व्यवहार का अध्ययन है जिसका उद्देश्य संतुष्टि को अधिकतम करना है; लेकिन इस संतुष्टि के अभीष्ट लक्ष्य को प्राप्त करने की विधि से नहीं।इसे प्राप्त करने के लिए दो विधियां हो सकती हैं। पहला यह कि इच्छाओं में वद्धि लायी जाय क्योंकि इच्छाओं की पर्ति का प्रतिफल ही संतुष्टि है अतः इच्छाओं को बढ़ाकर संतुष्टि को अधिकतम किया जा सकता है। अधिकतम संतुष्टि को प्राप्त करने का यह भौतिकवादी तरीका है जिसका समर्थन पाश्चात्य अर्थशास्त्रीयों ने किया है। दूसरी विधि यह हो सकती है कि इच्छाओं में कमी लाकर संतुष्टि को अधिकतम किया जाय। इच्छाएं जितनी ही अधिक होंगी संतुष्टि न मिलने पर असंतुष्टि उतनी ही अधिक होगी। वास्तविक वैभव वस्तुओं की प्रचुरता में नहीं बल्कि इच्छाओं की अल्पता में निहित है।

भारतीय दर्शन जो सादा जीवन उच्च विचार पर आधारित है से प्रभावित होने के कारण मेंहता ने यह मत व्यक्त किया कि अर्थशास्त्र का मुख्य उदेदश्य संतुष्टि की वृद्धि नहीं बल्कि ‘वास्तविक सुख' (Real happinsss)में वृद्धि करना है। वास्ततिक सुख की प्राप्ति इच्छाओं को अधिकतम करने से नहीं बल्कि न्यूनतम करने से ही होगी। इसीलिए उन्होने कहा कि इच्छाओं से मुक्ति पाना ही प्रमुख आर्थिक समस्या है। उन्होने अर्थशास्त्र की निम्न परिभाषा दी“

अर्थशास्त्र एक विज्ञान है जो मानवीय व्यवहार को आवश्यकता विहीनता की अवस्था तक पहुंचने के साधन के रूप में अध्ययन करता है।"

प्रो. मेंहता के विचारों को भली प्रकार समझने के लिए जरूरी है कि रॉबिन्स की संतुष्टि की धारणा व मेंहता की सुख की धारणा को ठीक ढंग से समझ लिया जाय, दोनों में काफी अंतर है। संतुष्टि वह अनुभूति है जो इच्छा या आवश्यकता के पूर्ण होने पर मिलती है जब तक उस इच्छा की पूर्ति नहीं होगी कष्ट का अनुभव होगा और इच्छा की तीव्रता जितनी ही अधिक होगी उसके पूर्ण न होने पर कष्ट की तीव्रता उतनी ही अधिक होगी। प्रो0 मेंहता ने इस प्रकार की संतुष्टि आनंद (Pleasure) कहा है।

प्रो. मेंहता के अनुसार- सुख वह अनुभूति है जिसकी प्राप्ति तब होती है जब कोई इच्छा न हो। उनका कहना है कि जब तक इच्छाएं बनी रहेगी मस्तिक संतुलन की स्थिति में नहीं होगा। क्योंकि ज्यों ही कोई इच्छा उत्पन होती है मनुष्य के मस्तिष्क का संतुलन भंग हो जाता है और वह सन्तुलन की प्राप्ती हेतु इच्छा पूर्ण करने का प्रयास करेगा। इस इच्छा के पूर्ण होने पर मानसिक सन्तुलन पुनः स्थापित हो जायेगा और उसे कुछ समय तक आनंद प्राप्त होगी, पर यह स्थिति सुख की नहीं होगी। क्योंकि एक इच्छा की पूर्ति दूसरी, तीसरी या चौथी इच्छा को जन्म दे सकती है। जैसे टीवी लेने के बाद वांशसिंग मशीन लेने की इच्छा उसके बाद कार लेने की इच्छा आदि। प्रो0 मेहता का मानना है कि आवश्यकता विहीनता की स्थिति में मस्तिक संतुलन में होता है। उसमें किसी तरह का इन्छा नहीं रहती उस समय जो अनुभव मिलता है वही वास्तविक सुख है। चूंकि मानसिक संतुलन की प्राप्ति और उसे कायम रखना अर्थशास्त्र का मुख्य उद्देश्य है। अतः इसकी प्राप्ति के दो रास्ते हो सकते है। प्रथम- वाहय शक्तियों के क्रियाशीलन में इस तरह नियमन या समन्वय किया जाय जिससे ये मस्तिष्क के साथ समन्वित हो जाय। रॉबिन्स के साधनों के प्रयोग की धारणा यही है। लेकिन मेंहता का मानना है कि वाह्य शक्तियों नियमन द्वारा स्थायी संतुलन की प्राप्ति नहीं हो सकती। क्योंकि आवश्यकताए असीमित हैं और सीमित साधनों से उन सभी की संतुष्टि संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त इच्छाओं में सृजनात्मकता की प्रवृत्ति होती है- एक आवश्यकता की पूर्ति दूसरी को जन्म देती है, इस प्रकार इस रास्ते से पूर्ण संतुलन की प्राप्ति संभव नहीं हो सकती।

इसकी प्राप्ति के लिए मेहता ने एक दूसरा तरीका यह बताया कि मस्तिष्क को एक ऐसी स्थिति में रखा जाय जहाँ कि उसके ऊपर वाह्य शक्तियों का प्रभाव ही न पड़े। इसके लिए मस्तिष्क को दबाने के बजाय उसे शिक्षित करने की आवश्यकता है। ऐसा करके मनुष्य को अपनी इच्छाओं में धीरे-धीरे कमी लानी चाहिए। चूँकि सभी आवश्यकताओं को एक साथ छोड़ा नहीं जा सकता इसलिए यहाँ भी चुनाव की समस्या उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में सर्वप्रथम उन इच्छाओं को छोड़ा जाना चाहिए जिसे पूरा करने की सामर्थ्य मनुष्य में नहीं है। इस तरह धीरे-धीरे मनुष्य के पास केवल वे ही आवश्यकताएं पेश रह जायेंगी जिन्हे पूरा करने का साधन व्यक्ति के पास है। सामर्थ्य के भीतर होने के कारण सभी आवश्यकताएं पूरी हो जायेगी और उन्हें किसी प्रकार के कष्ट का अनुभव नहीं होगा। इस प्रकार प्रो. मेंहता के अनुसार- अर्थशास्त्र का प्रमुख लक्ष्य आवश्यकताओं को सामर्थ्य स्तर तक घटाना है और इस लक्ष्य की प्राप्ति का प्रयास ही अर्थशास्त्र का प्रमुख कर्तव्य है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि प्रो. मेंहता ने भारतीय संस्कृति और दर्शन के अनुरुप अर्थशास्त्र को एक नयी दिशा प्रदान की लेकिन निम्नांकित आधारों पर इसकी आलोचना की गयी है-

  1. आलोचकों का मानना है कि मेहता ने अर्थशास्त्र को धर्म और दर्शन के साथ जोड़ दिया जिसके कारण अर्थशास्त्र के क्षेत्र में अनिश्चितता आ गयी।
  2. आलोचकों का यह भी मानना है कि मेंहता का अर्थशास्त्र एक काल्पनिक व असाधारण मनुष्य तक सीमित है। साधारण जीवन में व्यक्ति यह नहीं सोचता कि अधिकतम सुख प्राप्त करने के लिए उसे अपनी आवश्यकताओं को कम करते रहना चाहिए। यही नहीं आवश्यकता विहीनता की स्थिति को प्राप्त करने का प्रयास करने वाले व्यक्ति को आज के भौतिकतावादी युग में काल्पनिक व्यक्ति ही माना जाता है।
  3. प्रो. मेंहता ने अर्थशास्त्र को केवल वास्तविक विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया और उन्होने अर्थशास्त्र के दूसरे पहलू अर्थात आदर्श विज्ञान की उपेक्षा की।
  4. कुछ आलोचकों का मानना है कि यदि मेंहता की आवश्यकता विहीनता दृष्टिकोण को स्वीकार का लिया जाय तो अर्थशास्त्र का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा क्योंकि जैसे-जैसे आवश्यकताएं कम होती जायेगी वैसे-वैसे आर्थिक क्रियाएं कम होती जायेगी और फिर अर्थशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता ही क्या होगी?

मेंहता के दृष्टिकोण की उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनका दृष्टिकोण भारतीय दर्शन के अनुरुप है। यद्यपि भौतिकवादी वातावरण में यह अप्रासंगिक अवश्य लगता है, और चूँकि आज का युग भौतिकवादी है जिसका विस्तार तेजी से हो रहा है। अतः इस भौतिकवादी समाज में वास्तविक मनुष्य गायब हो गया है। वह स्थायी सुख के बजाय अस्थायी सुख को वरीयता दे रहा है। किसी भी पेनकिलर गोली को खाने से दर्द से तात्कालिक राहत हो मिल सकती है लेकिन स्थायी राहत नहीं। प्रो0 मेंहता ने ऐसे उपचार की बात की जिससे रोग पनपने ही न पाये। ऐसी स्थिति में लोंगों का यह आरोप भी निराधार है कि आवश्यकता विहीनता की स्थिति में अर्थशास्त्र का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। यह कहाँ तक संगत है कि यदि रोग समाप्त हो जाये तो चिकित्सा विज्ञान का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा।

विकास केन्द्रित परिभाषा

एडम स्मिथ से लेकर प्रो. मेंहता की परिभाषा के विवेचन से आपको यह ज्ञात हो रहा होगा कि समय के साथ अर्थशास्त्र की परिभाषा में भी परिवर्तन होता रहा है। एडम स्मिथ व उनके अनुयायियों ने जहां अर्थशास्त्र को धन के विज्ञान के रूप में, मार्शल इत्यादि ने भौतिक कल्याण के रूप में व रॉबिन्स ने दुर्लभता के विज्ञान के रूप में प्रतिष्ठित किया वहीं प्रो0 मेंहता ने भारतीय दर्शन के अनुरूप अर्थशास्त्र का अध्ययन किया। लेकिन समय के साथ सभी परिभाषाये अपर्याप्त लगती रही हैं। अब एक ऐसी परिभाषा की आवश्यकता थी जो कि कि सीमित साधनों के वितरण व आर्थिक विकास दोनो को शामिल कर सके। ऐसी परिभाषा को विकास केन्द्रित परिभाषा कहा जा सकता है राबिन्स ने अपनी परिभाषा देते समय स्थैतिक दृष्टिकोण लिया जबकि आर्थिक समस्या का गत्यात्मक दृष्टिकोण लेना चाहिए। क्योंकि साधनों की सीमितता होने पर मुख्य आर्थिक समस्या केवल दिये हए साधनों का दी हुई आवश्यकताओं के साथ समायोजन करना ही अपितु भविष्य के साधनों का विकास करना हे जिससे बदलती और बढती हुई आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके स्पष्ट है कि रॉबिन्स की परिभाषा में स्थैतिक दृष्टिकोण अपनाया गया है जबकि सम्यएल्सन एवं स्मिथ जैसे विकास केन्द्रित अर्थशास्त्री अपनी परिभाषा में प्रावैगिक दृष्टिकोण अपनाते है। विकास केन्द्रित प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित है।

बेनहम के अनुसार - ‘अर्थशास्त्र उन तत्वों का अध्ययन है जो रोजगार और जीवन स्तर को प्रभावित करते है।' इस परिभाषा के अन्तर्गत राष्ट्रीय आय और रोजगार का निर्धारण के साथ ही आर्थिक विकास के सिद्धान्त भी आ जाते हैं लेकिन इसमें दर्लभ साधनों के आवंटन का विषय प्रत्यक्ष रूप से नहीं आता। यद्यपि इस परिभाषा में राष्ट्रीय आय का समाज के विभिन्न व्यक्तियों में वितरण किस प्रकार होता है, के विषय का समावेश भी होता है। क्योंकि आय का वितरण लोगों के जीवन स्तर को प्रभावित करता है।

हेनरी स्मिथ ने - अर्थशास्त्र की अधिक उपयुक्त परिभाषा दी है। उनके अनुसार- ‘अर्थशास्त्र यह अध्ययन करता है कि एक सभ्य समाज में कोई व्यक्ति अन्य व्यक्तियों द्वारा उत्पादित पदार्थों से किस प्रकार अपना भाग प्राप्त करता है और कैसे समाज के कुल उत्पादन में परिवर्तन होता है और मूल उत्पादन का निर्धारण कैसे होता है।'

अर्थशास्त्र की प्रमुख परिभाषाओं का अध्ययन करने के बाद हमारे समक्ष महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है कि अर्थशास्त्र की कौन सी परिभाषा सर्वोत्तम है? अभी तक अर्थशास्त्र की जितनी भी परिभाषाएं दी गयी उन सभी में कोई न कोई दोष रहा है। अर्थशास्त्रीयों का एक वर्ग रॉबिन्स की परिभाषा को उपयुक्त मानता है तो दूसरा वर्ग मार्शल की परिभाषा को अधिक उपयुक्त मानता है। इन सभी के विश्लेषण से स्पष्ट है कि सैद्धान्तिक व वैज्ञानिक दृष्टि से रॉबिन्स की परिभाषा अधिक उपयुक्त है उन्होने आवश्यकताओं की वद्धि और उनकी अधिकतम संतुष्टि पर बल दिया है। जबकि व्यवहार में मार्शल की परिभाषा श्रेष्ठ है।यद्यपि आधुनिक विकास को देखते हुए विकास केन्द्रित परिभाषाएं अन्य सभी परिभाषाओं की तुलना में श्रेष्ठ हैं तथा निःसंदेह ये परिभाषाएं आर्थिक समस्या को वास्तविक रुप में प्रस्तुत करती हैं।हाल के अर्थशास्त्रीयों ने अर्थशास्त्र की सही एवं पर्याप्त परिभाषाओं के सम्बन्ध में बाद-विवाद करना बंद कर दिया है। आधुनिक मतानुसार अर्थशास्त्र क्या है? इस विषय की पूर्ण जानकरी उसके विषय वस्तु के विवेचन से मिलती है। आजकल अर्थशास्त्र की विषय वस्तु को दो भागों -व्यष्टिपरक अर्थशास्त्र तथा समष्टिपरक अर्थशास्त्र में किया जाता है।

अर्थशास्त्र के प्रकार व शाखाएं

अर्थशास्त्र के अध्ययन को दो भिन्न शाखाओं में विभाजित किया जाता है। वे हैं :

  1. व्यष्टि अर्थशास्त्र
  2. समष्टि अर्थशास्त्र

व्यष्टि अर्थशास्त्र Micro Economics

"Micro" शब्द का अर्थ अत्यंत सूक्ष्म होता है। अतः व्यष्टि अर्थशास्त्र अत्यंत सूक्ष्म स्तर पर अर्थशास्त्र के अध्ययन का अर्थ प्रकट करता है। इसका वास्तविक अर्थ क्या है? एक समाज जिसमें सामूहिक रूप से अनेक व्यक्ति सम्मिलित हैं, प्रत्येक अकेला व्यक्ति उसका एक सूक्ष्म भाग है। इसलिये एक व्यक्ति द्वारा लिये गये आर्थिक निर्णय व्यष्टि अर्थशास्त्र की विषय वस्तु हो जाते हैं। एक व्यक्ति द्वारा लिये जाने वाले निर्णय क्या हैं? हम इस संबंध में कुछ उदाहरणों का उल्लेख कर सकते हैं।

विभिन्न आवश्यकताओं की तुष्टि के लिये व्यक्ति वस्तुएं तथा सेवाएं खरीदता है। वस्तुएं तथा सेवाएं खरीदने के लिये व्यक्ति को अपनी आय की सीमित राशि में से कुछ कीमत का भुगतान करना पड़ता है। इसलिये व्यक्ति को दी गई कीमत पर वस्तु की खरीदी जाने वाली मात्रा के बारे में निर्णय लेना पड़ता है। उसे दी गई आय में खरीदी जाने वाली विभिन्न वस्तुओं के संयोग का भी निर्णय लेना पड़ता है, ताकि क्रेता के रूप में उसे अधिकतम संतुष्टि प्राप्त हो सके।

एक व्यक्ति विक्रेता के रूप में वस्तुओं तथा सेवाओं का विक्रय भी करता है। यहाँ उसे दी गई कीमत पर वस्तु की आपूर्ति की मात्रा के बारे में निर्णय लेना पड़ता है ताकि वह

कुछ लाभ कमा सके।

हम सब किसी वस्तु को खरीदने के लिये कीमत का भुगतान करते हैं। बाजार में इस कीमत का निर्धारण कैसे होता है? व्यष्टि अर्थशास्त्र इस प्रश्न का उत्तर देता है।

किसी वस्तु का उत्पादन करने के लिये एक व्यक्तिगत उत्पादक को निर्णय लेना पड़ता है कि वह उत्पादन के विभिन्न साधनों को किस प्रकार संयोजित करे जिससे कि न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन कर सके।

ये सभी व्यष्टि अर्थशास्त्र के अन्तर्गत अध्ययन के कुछ मुख्य क्षेत्र हैं।

समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)

'Macro' शब्द का अर्थ है - बहुत बड़ा। एक व्यक्ति की तुलना में समाज अथवा देश अथवा सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था बहुत बड़ी है। इसलिये सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था के स्तर पर लिये गये निर्णय समष्टि अर्थव्यवस्था की विषयवस्तु है। सरकार द्वारा लिये गये आर्थिक निर्णयों का उदाहरण लीजिये। हम सभी जानते हैं कि सरकार पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है, केवल एक व्यक्ति का नहीं। इसलिये सरकार द्वारा लिये गये निर्णय सम्पूर्ण समाज की समस्याओं को हल करने के लिये होते हैं। उदाहरण के लिये. सरकार करों को एकत्र करने, सार्वजनिक वस्तुओं पर व्यय करने तथा कल्याण से संबंधित गतिविधियों आदि के बारे में नीतियां बनाती है जो पूरी अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती हैं। ये नीतियां किस प्रकार कार्य करती है', समष्टि अर्थशास्त्र की विषय-वस्तु है। व्यष्टि अर्थशास्त्र में हम एक व्यक्ति के व्यवहार का क्रेता तथा विक्रेता के रूप में अध्ययन करते हैं। एक क्रेता के रूप में व्यक्ति वस्तु और सेवाओं पर धन मुद्रा व्यय करता है जो उसका उपभोग व्यय कहलाता है। यदि हम सभी व्यक्तियों के उपभोग व्यय को जोड़ दें तो हमें सम्पूर्ण समाज के समग्र उपभोग व्यय का ज्ञान प्राप्त होता है। इसी प्रकार, व्यक्तियों की आयों को जोड़कर सम्पूर्ण देश की आय अथवा राष्ट्रीय आय हो जाती है। इसलिये. इन समग्रों जैसे राष्ट्रीय आय. देश का कुल उपभोग व्यय आदि का अध्ययन समष्टि अर्थशास्त्र के अन्तर्गत आते हैं।

समष्टि अर्थशास्त्र का उदाहरण मुद्रा स्फीति अथवा कीमत-वृद्धि है।

मुद्रा स्फीति अथवा कीमत वृद्धि केवल एक व्यक्ति को प्रभावित नहीं करती, बल्कि यह सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है। इसलिये इसके कारणों, प्रभावों को जानना तथा इसे नियंत्रित करना भी समष्टि अर्थशास्त्र के अध्ययन के अन्तर्गत आता है।

इसी प्रकार, बेरोजगारी की समस्या, आर्थिक संवृद्धि तथा विकास आदि देश की सम्पूर्ण जनसंख्या से संबंधित होते हैं, इसलिये समष्टि अर्थशास्त्र के अध्ययन के अन्तर्गत आते हैं।

अर्थशास्त्र का विषय क्षेत्र व स्वभाव

अर्थशास्त्र के क्षेत्र से आशय उस विषय वस्तु से है जिसका अध्ययन हम अर्थशास्त्र में करते है। वस्तुतः अर्थशास्त्र की अनेक परस्पर विरोधी परिभाषाओं के कारण अर्थशास्त्र के सही स्वरुप व क्षेत्र के विषय में अस्पष्टता आ गयी। वर्तमान में अर्थशास्त्र का क्षेत्र इतना व्यापक हो गया है कि इसे किसी एक परिभाषा में बांधना संभव नहीं है। यही कारण है कि आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को परिभाषित करना बंद कर दिया है। इसीलिए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जैकब वाइनर से पूछे जाने पर कि आप अर्थशास्त्र के क्षेत्र के अन्तर्गत क्या-क्या सम्मिलित करेंगे तो उन्होनें कहा कि अर्थशास्त्री जो भी करता है वही अर्थशास्त्र की विषय वस्तु है वही अर्थशास्त्र का क्षेत्र है।

अर्थशास्त्र की विषय सामग्री को निम्नांकित चार्ट के माध्यम से हम संक्षेप में प्रदर्शित कर सकते है।

अर्थशास्त्र की विषय सामग्री

  • उपभोग
  • उत्पादन
  • विनिमय
  • वितरण
  • राजस्व

उपभोग अर्थशास्त्र के अध्ययन का प्रमुख विषय है इसे आर्थिक क्रिया का अन्त कहा जाता है। उपभोग का अर्थ वस्तुओं व सेवाओं को मनुष्य की आवश्यकताओं को संतुष्ट करने के लिए उपयोग से होता है। जबकि उत्पादन का अर्थ किसी वस्तु या सेवा में उपयोगिता का सृजन करना होता है। उत्पादन के बिना उपभोग संभव नहीं है। स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र के अर्न्तगत उत्पादन का तात्पर्य किसी वस्तु में उपयोगिता का सृजन करना है और उपभोग उस उपयोगिता का विनाश कहलाता है। उपभोग के अर्न्तगत मानवीय आवश्यकताओं की उत्पत्ति, प्रकृति, संतुष्ठि और इससे सम्बन्धित नियमों का अध्ययन किया जाता है, जब कि उत्पादन के अर्न्तगत उत्पादन के विभिन्न साधनों यथा-भूमि, श्रम, पूंजी तथा साहस तथा उत्पति के नियमों आदि का अध्ययन किया जाता है। 

समाज में प्रत्येक मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की सभी वस्तुओं का उत्पादन नहीं कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति किसी एक ही वस्तु का उत्पादन कर अतिरिक्त वस्तु को दूसरे से आदान-प्रदान करता है। इस प्रकार की क्रिया विनिमय कहलाती है जिसके अर्न्तगत मूल्य निर्धारण सम्बन्धी समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। 

उत्पादन के साधनों के सहयोग से उत्पादन होता है और उत्पादन को पुनः इन्हीं साधनों के मध्य वितरण करना पड़ता है। वितरण के अर्न्तगत हम यह अध्ययन करते है कि उत्पादन के साधनों का प्रतिफल किस प्रकार से निश्चित किया जाता है।

अर्थशास्त्र की राजस्व शाखा के अर्न्तगत सरकार के आय-व्यय व राज्य के आर्थिक क्रियाओं का वर्णन किया जाता है। इसके अर्न्तगत कृषि, उद्योग, यातायात, अर्न्तराष्ट्रीय व्यापार, आय व्यय, सार्वजनिक ऋण तथा वित्तीय प्रशासन का अध्ययन किया जाता है।

अर्थशास्त्र की प्रकृति

अर्थशास्त्र के स्वभाव या प्रकृति के अन्तर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि अर्थशास्त्र विज्ञान है या कला या दोनों ? यह जानने से पहले कि अर्थशास्त्र विज्ञान है या कला हमें यह जान लेना चाहिए कि विज्ञान और कला का क्या आशय है?

अर्थशास्त्र की विकास आधारित परिभाषा किसने दी - arthashaastr kee vikaas aadhaarit paribhaasha kisane dee

किसी भी विषय का क्रमबद्ध एव व्यवस्थित ज्ञान को विज्ञान कहते है। इससे किसी तथ्य विशेष के कारण -परिणाम के पारस्परिक सम्बंध का अध्ययन किया जाता हैं। पोइन केयर के अनुसार - जिस प्रकार एक मकान का निर्माण ईटों द्वारा होता है उसी प्रकार विज्ञान तथ्यों द्वारा निर्मित है पर जिस तरह से ईटों का ढेर मकान नहीं है उसी प्रकार से मान तथ्यों को एकत्रित करना विज्ञान नहीं है।

अर्थशास्त्र विज्ञान है- क्योंकि इसके अध्ययन में वैज्ञानिक विधियों का पालन किया जाता है। और इसके अन्तर्गत पर्यवेक्षण, तथ्यों का एकत्रीकरण, विश्लेषण, वर्गीकरण तथा उसके आधार पर नियमों का निर्देशन किया जाता हैं। अन्य प्राकृतिक विज्ञानों की भाँति इसमें भी नियम है- यद्यपि ये नियम उतने सत्य नहीं जितने कि प्राकृतिक विज्ञानों में है। वास्तविकता यह है कि अर्थशास्त्र के नियम कुछ मान्यताओं पर आधारित है और यदि ये मान्यताएं अपरिवर्तित रही तो नियम लागू होगा। अतः इस दृष्टि से अर्थशास्त्र को विज्ञान कहा जाना उचित होगा। 

कला किसी ज्ञान का व्यावहारिक पहल है जो ज्ञान को व्यवहार में लाने के सर्वोत्तम ढंग पर प्रकाश डालती है। इस प्रकार विज्ञान का क्रियात्मक रुप कला है। किसी विज्ञान का क्रमबद्ध ज्ञान तो विज्ञान है और उस ज्ञान का क्रमबद्ध एवं उत्तम ढंग से प्रयोग कला है। अर्थशास्त्र कला है- क्योंकि अर्थशास्त्र में अपना व्यावहारिक पहल है अतः अर्थशास्त्र का कला पक्ष भी है। विज्ञान के रूप में यह मानव आचरण के समझने में सहायता पहुंचाता है तो कला के रूप में यह जीवन स्तर में सुधार के उपाय प्रस्तुत करता है।

क्लासिकल अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को विज्ञान माना है ,जबकि समाजवाद के समर्थक अर्थशास्त्रियों ने इसके कला पक्ष पर जोर दिया है। नव- क्लासिकल अर्थशास्त्री विशेष रूप से मार्शल ने बीच का रास्ता अपनाते हुए कहा कि अर्थशास्त्र विज्ञान हैं पर इसके व्यावहारिक पक्ष की भी अवहेलना नहीं करनी चाहिए। मार्शल ने कहा कि अर्थशास्त्र को विज्ञान एवं कला कहने से उत्तम है कि यह कहा जाय कि अर्थशास्त्र एक विशुद्ध एवं प्रायोगिक विज्ञान है। आधुनिक अर्थशास्त्री प्रो. रॉबिन्स तो अर्थशास्त्र को सिर्फ विज्ञान मानते थे पर आजकल व्यावहारिक अर्थशास्त्र का महत्व बढता जा रहा है क्योकि प्रत्येक जगह आर्थिक समस्यायें है और उनका हल व्यावहारिक अर्थशास्त्र में ही निहित है। आजकल सैद्धान्तिक (विज्ञान ) पक्ष की अपेक्षा अर्थशास्त्र का व्यावहारिक (कला) पक्ष कम महत्वपूर्ण नहीं है।

वास्तविक विज्ञान या आदर्श विज्ञान?

अभी हम लोगों ने स्वीकार किया कि अर्थशास्त्र सैद्धान्तिक दृष्टि से विज्ञान हैं लेकिन इसके व्यावहारिक पक्ष अर्थात कला पक्ष की अवहेलना भी नहीं की जा सकती। अब सवाल यह है कि अर्थशास्त्र वास्तविक विज्ञान है या आदर्श विज्ञान? वास्ततिक विज्ञान, ज्ञान की वह शाखा है जो कारण एवं परिणाम से सम्बन्ध स्थापित करता हैं। वास्तविक विज्ञान, क्या हैं? का उत्तर देना है, क्या होना चाहिए? से सम्बन्ध नहीं रखता । वास्तविक विज्ञान का उद्देश्य सत्य की खोज करना एवं उसका विश्लेषण करना हैं। इस प्रकार के विश्लेषण के बाद वास्तविक विज्ञान उस विषय को उसके वास्तविक रूप में सामने रखेगा पर यह नहीं बतायेगा कि यह विषय अच्छा है, या नहीं, और न ही यह स्पष्ट करेगा कि विषय कैसा होगा चाहिए। उदाहारण के लिए यदि बाजार में वस्तु का मूल्य बढ़ जाय तो अर्थशास्त्री वास्तविक विज्ञान की सीमा में रहते हए केवल यह बतायेगा कि इसका मॉग पर

क्या प्रभाव पड़ेगा? पर यह वृद्धि उचित है या नहीं ? इस बारे में कुछ नहीं कहता । इसके विपरीत आदर्श विज्ञान क्या वांछनीय है तथा क्या अवांछनीय है, क्या होना चाहिए व क्या नहीं होना चाहिए से सम्बन्ध रखता हैं। उपरोक्त उदाहारण में वस्तु की कीमत में वृद्धि उचित है या नहीं इसे आदर्श विज्ञान स्पष्ट करेगा।

अर्थशास्त्र ‘वास्तविक विज्ञान' है, या ‘आदर्श विज्ञान'? इस प्रश्न पर अर्थशास्त्रीयों में मतभेद हैं प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रीयों जैसे- सीनियर, रिकार्डो, जे.बी से., इत्यादि इसे वास्तविक विज्ञान मानते हैं। अर्थशास्त्री से के अनुसार वस्तुस्थिति का अध्ययन करना अर्थशास्त्री का कर्तव्य है पर उसके सम्बन्ध में परामर्श देना उसका दायित्व नहीं है। प्रो0 मार्शल व पीगू अर्थशास्त्र को वास्तविक व आदर्श दोनो रूपों में देखते है।पर आधुनिक अर्थशास्त्री रॉबिन्स निम्नांकित तर्को के आधार पर अर्थशास्त्र को वास्तविक विज्ञान मानते है-

  • अर्थशास्त्र साध्यों के बीच तटस्थ है।
  • अर्थशास्त्र एक विज्ञान है और विज्ञान अनिवार्य रूप से तर्कशास्त्र पर आधारित होता है।
  • श्रम विभाजन के आधार पर भी अर्थशास्त्री को केवल कारण एवं परिणाम में सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य करना चाहिए।
  • अर्थशास्त्र को आदर्श विज्ञान मानने से उसकी विषय वस्तु अस्पष्ट हो जायेगी।

अर्थशास्त्र के आदर्श विज्ञान होने के पक्ष में निम्न तर्क किए जा सकते है

  1. आज अनेक आर्थिक समस्यायें भयावह रूप धारण किए हुए हैं, कहीं जनसंख्या में वृद्धि तो कहीं बेरोजगारी की समस्या, तो कहीं भोजन व कपड़े की समस्या इन समस्याओं के बीच रहकर अर्थशास्त्री तटस्थ कैसे रह सकता है?
  2. कल्याणकारी अर्थशास्त्र के अत्यधिक विज्ञान के कारण भी इस धारणा को बल मिला है कि अर्थशास्त्र केवल वास्तविक विज्ञान नहीं है,इसमें आदर्श का पहलू आवश्यक है।
  3. आजकल हम कल्याणकारी राज्य की बात करते है जिसमें सामाजिक सुरक्षा, श्रम कल्याण, पारिवारिक पेंशन, धन के समान वितरण इत्यादि पर विशेष बल दिया जाता है। उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि आदर्श विज्ञान व वास्तविक विज्ञान अर्थशास्त्र के दो अलग-अलग भाग नहीं बल्कि दो पहलू हैं। वास्वविक विज्ञान अर्थशास्त्र का सैद्धांतिक पहलू है जबकि आदर्श विज्ञान उसका व्यावहारिक पहलू है।

अब तक हम लोग यह समझ चुके है कि कला और विज्ञान दोनों एक दूसरे के पूरक है और अर्थशास्त्र विज्ञान एवं कला दोनों है। उल्लेखनीय कि अन्य विषयों की भाँति अर्थशास्त्र विषय की कुछ सीमाएं है यथा -आर्थिक नियम भौतिक विज्ञान के नियमो की भॉति पूर्ण तथा सर्वकालीन एवं सत्य नहीं होते आदि।

अर्थशास्त्र का महत्व

अर्थशास्त्र के महत्व को स्पष्ट करते हुए डरविन कहते है कि अर्थशास्त्र आज के युग का बौद्धिक धर्म है। मार्शल के अनुसार अर्थशास्त्र के अध्ययन का उददेश्य ज्ञान के लिए ज्ञान प्राप्त करना और व्यावहारिक जीवन विशेष रूप से सामाजिक क्षेत्र में पथ प्रदर्शन प्राप्त करना है। अर्थशास्त्र के अध्ययन का सैद्धान्तिक व व्यावहारिक महत्व दोनों है। सैद्धान्तिक महत्व के अर्न्तगत इसके अध्ययन से अनेक आर्थिक घटनाओं की जानकारी होती है। जिससे ज्ञान में वृद्धि होती है। जैसे- देश में धन के असमान वितरण के कारण व परिणाम की जानकारी प्राप्त हो सकती है। यही नहीं अर्थशास्त्र के अध्ययन से मस्तिष्क में तर्क सम्बन्धी योग्यता तथा निरीक्षण शक्ति का विकास होता है। अर्थशास्त्र के अध्ययन का व्यावहारिक महत्व भी है-

उपभोक्ताओं के लिए

आज का समय उपभोक्तावादी युग है। अर्थशास्त्र के नियम के अर्न्तगत यह अध्ययन किया जाता है कि उपभोक्ता अपनी सीमित आय से अधिकतम संतुष्टि कैसे प्राप्त करे? अतः इसका अध्ययन उपभोक्ता की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

किसानों के लिए

किसानों को कृषि से जुड़ी अनेक जानकारियाँ यथा- कृषि विपणन, कृषि उत्पादन बढ़ाने की तकनीकी, कृषि के लिए खाद उपकरण, उन्नत बीज व पूंजी से सम्बन्धित अध्ययन अर्थशास्त्र के द्वारा होता है।

श्रमिको को लाभ

अर्थशास्त्र के अध्ययन से श्रमिकों को भी लाभ होता है। उन्हे यह जानकारी प्राप्त हो जाती है कि मालिकों द्वारा उन्हें दी जाने वाली मजदूरी, उनकी सीमान्त उत्पादकता से कम होती है। इससे श्रमिकों का शोषण नहीं हो पाता।

सारांश

इस लेख के अर्न्तगत हमने अर्थशास्त्र क्या है? इसका विषय क्षेत्र व इसकी प्रकृति क्या है ? इस सन्दर्भ में विस्तारपूर्वक चर्चा की है। एडम स्मिथ की धन केन्द्रित परिभाषा के पश्चात मार्शल, पीग, रॉबिन्स, मेंहता व विकास केन्द्रित परिभाषाओं से हमें अर्थशास्त्र के व्यापक दृष्टिकोण का पता चलता है। अर्थशास्त्र की विषय सामग्री के अर्न्तगत उपभोग, उत्पादन, विनिमय, वितरण तथा राजस्व पाँच प्रमुख क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। अर्थशास्त्र अब धन का शास्त्र न रहकर मानवीय कल्याण का आदर्श पहलू बन चुका है। इसमें विज्ञान तथा कला दोनों के गुण है। यद्यपि यह भी सही है कि अर्थशास्त्र में केवल आर्थिक क्रियाओं का अध्ययन होता है। तथा आर्थिक नियम भौतिकी के नियमों की तरह निश्चित भी नहीं होते ये कुछ तथ्य अर्थशास्त्र की सीमाएं भी प्रदर्शित करते है। इसके बावजूद आधुनिक समय में अर्थशास्त्र का अध्ययन महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है, क्योंकियह ज्ञान तो प्रदान करता ही है व्यावहारिक जीवन में पथ प्रदर्शक भी है।

शब्दावली

  • उत्पादन:- अर्थशास्त्र के अर्न्तगत किसी वस्तु में उपयोगिता का सृजन ही उत्पादन कहलाता है।
  • उपभोगः- उपभोग, उत्पादन की विपरीत क्रिया है। उपभोग के श्चात वस्तु के अन्दर निहित उपयोगिता समाप्त हो जाती है।
  • तुष्टि या सन्तुष्टि:- किसी इच्छित वस्तु के उपभोग के पश्चात उपभोक्ता के मस्तिष्क में उत्पन्न होने वाला मनोवैज्ञानिक भाव संतुष्टि कहलाता है।
  • निगमन विधि:- यह अध्ययन की वह प्रणाली है जिसमें सामान्य सत्य या सर्वमान्य स्वयं सिद्ध आधारभूत तथ्यों को आधार मानकर निष्कर्ष निकाले जाते है। इस प्रकार इसमें अध्ययन का क्रम ‘सामान्य से विशिष्ट' की ओर होता है।
  • आगमन विधि:- यह निगमन विधि के ठीक विपरीत है। इस विधि के अर्न्तगत तर्क के माध्यम विशिष्टि सत्य के आधार पर सामान्य निष्कर्ष पर पहुंचा जाता है। इसमें अध्ययन का क्रम विशिष्ट से सामान्य' की ओर होता है।

अर्थशास्त्र की विकास केन्द्रित परिभाषा किसकी देन है?

१.२.५ विकास संबंधी परिभाषा : आधुनिक अर्थशास्त्रियों विशेषकर सेम्यूलसन, बेनहम, फर्गुसन और केञ्ज आदि ने अर्थशस्त्र की विकास Page 11 संबंधी परिभाषाएं दी हैं । इन अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र को 'विकास का शास्त्र' कहकर परिभाषित किया है। ये परिभाषाएं एडम स्मिथ, मार्शल तथा रोबिन्स की परिभाषाओं के गुणों का मिश्रण है।

अर्थशास्त्र की कितनी परिभाषा दी गई है?

परिभाषा अर्थशास्त्र एक विज्ञान है, जो मानव व्यवहार का अध्ययन उसकी आवश्यकताओं(इच्छाओं) एवं उपलब्ध संसाधनों के वैकल्पिक प्रयोग के मध्य संबंध का अध्ययन करता है। अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री का संकेत इसकी परिभाषा से मिलता है।

अर्थशास्त्र के जनक का नाम क्या है?

एडम स्मिथ (5 जून 1723 से 17 जुलाई 1790) एक ब्रिटिश नीतिवेत्ता, दार्शनिक और राजनैतिक अर्थशास्त्री थे। उन्हें अर्थशास्त्र का पितामह भी कहा जाता है। आधुनिक अर्थशास्त्र के निर्माताओं में एडम स्मिथ (जून 5, 1723—जुलाई 17, 1790) का नाम सबसे पहले आता है.

अर्थशास्त्री रॉबिंसन द्वारा अर्थशास्त्र की कौन सी परिभाषा दी गई है?

रॉबिन्स के अनुसार- "अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जिसके अंतर्गत सीमित और वैकल्पिक प्रयोगों वाले साधनों से संबंधित मानव के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है।"