अनुवाद से आप क्या समझते है इसके महत्व पर सारगर्भित टिप्पणी लिखिए? - anuvaad se aap kya samajhate hai isake mahatv par saaragarbhit tippanee likhie?

एक भाषा-पाठ में निहित अर्थ या संदेश को दूसरे भाषा-पाठ में यथावत व्यक्त करना अर्थात् एक भाषा में कही गई बात को दूसरी भाषा में कहना अनुवाद है। 

‘अनुवाद’ शब्द संस्कृत का यौगिक शब्द है जो ‘अनु’ उपसर्ग तथा ‘वाद’ के संयोग से बना है। संस्कृत के ‘वद्’ धातु में ‘घञ’ प्रत्यय जोड़ देने पर भाववाचक संज्ञा में इसका परिवर्तित रूप है ‘वाद’। ‘वद्’ धातु का अर्थ है ‘बोलना या कहना’ और ‘वाद’ का अर्थ हुआ ‘कहने की क्रिया’ या ‘कही हुई बात’। 

‘अनु’ उपसर्ग अनुवर्तिता के अर्थ में व्यवहृत होता है। ‘वाद’ में यह ‘अनु’ उपसर्ग जुड़कर बनने वाला शब्द ‘अनुवाद’ का अर्थ हुआ-’प्राप्त कथन को पुन: कहना’। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि ‘पुन: कथन’ में अर्थ की पुनरावृत्ति होती है, शब्दों की नहीं। 

हिन्दी में अनुवाद के स्थान पर प्रयुक्त होने वाले अन्य शब्द हैं : छाया, टीका, उल्था, भाषान्तर आदि। अन्य भारतीय भाषाओं में ‘अनुवाद’ के समानान्तर प्रयोग होने वाले शब्द हैं : भाषान्तर(संस्कृत, कन्नड़, मराठी), तर्जुमा (कश्मीरी, सिंधी, उर्दू), विवर्तन, तज्र्जुमा(मलयालम), मोषिये चण्र्यु(तमिल), अनुवादम्(तेलुगु), अनुवाद (संस्कृत, हिन्दी, असमिया, बांग्ला, कन्नड़, ओड़िआ, गुजराती, पंजाबी, सिंधी)।

अंग्रेजी विद्वान मोनियर विलियम्स ने सर्वप्रथम अंग्रेजी में ‘translation’ शब्द का प्रयोग किया था। ‘अनुवाद’ के पर्याय के रूप में स्वीकृत अंग्रेजी ‘translation’ शब्द, संस्कृत के ‘अनुवाद’ शब्द की भाँति, लैटिन के ‘trans’ तथा ‘lation’ के संयोग से बना है, जिसका अर्थ है ‘पार ले जाना’-यानी एक स्थान बिन्दु से दूसरे स्थान बिन्दु पर ले जाना। यहाँ एक स्थान बिन्दु ‘स्रोत-भाषा’ या 'Source Language’ है तो दूसरा स्थान बिन्दु ‘लक्ष्य-भाषा’ या ‘Target Language’ है और ले जाने वाली वस्तु ‘मूल या स्रोत-भाषा में निहित अर्थ या संदेश होती है।

‘ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी’ में ‘Translation’ का अर्थ दिया गया है-'a written or spoken rendering of the meaning of a word, speech, book, etc. in an another language.’ 

ऐसे ही ‘वैब्स्टर डिक्शनरी’ का कहना है-’Translation is a rendering from one language or representational system into another. Translation is an art that involves the recreation of work in another language, for readers with different background.’

अनुवाद के इस दोहरी क्रिया को निम्नलिखित आरेख से आसानी से समझा जा सकता है :

अनुवाद से आप क्या समझते है इसके महत्व पर सारगर्भित टिप्पणी लिखिए? - anuvaad se aap kya samajhate hai isake mahatv par saaragarbhit tippanee likhie?

अनुवाद की परिभाषा (Definition of Translation)

अनुवाद के पूर्ण स्वरूप को समझने के लिए यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं का उल्लेख किया जा रहा है :-

नाइडा : ‘अनुवाद का तात्पर्य है स्रोत-भाषा में व्यक्त सन्देश के लिए लक्ष्य-भाषा में निकटतम सहज समतुल्य सन्देश को प्रस्तुत करना। यह समतुल्यता पहले तो अर्थ के स्तर पर होती है फिर शैली के स्तर पर।’ 

जॉन कनिंगटन : ‘लेखक ने जो कुछ कहा है, अनुवादक को उसके अनुवाद का प्रयत्न तो करना ही है, जिस ढंग से कहा, उसके निर्वाह का भी प्रयत्न करना चाहिए।’ 

कैटफोड : ‘एक भाषा की पाठ्य सामग्री को दूसरी भाषा की समानार्थक पाठ्य सामग्री से प्रतिस्थापना ही अनुवाद है।’ 1.मूल-भाषा (भाषा) 2. मूल भाषा का अर्थ (संदेश) 3. मूल भाषा की संरचना (प्रकृति) 

सैमुएल जॉनसन : ‘मूल भाषा की पाठ्य सामग्री के भावों की रक्षा करते हुए उसे दूसरी भाषा में बदल देना अनुवाद है।’ 

फॉरेस्टन : ‘एक भाषा की पाठ्य सामग्री के तत्त्वों को दूसरी भाषा में स्थानान्तरित कर देना अनुवाद कहलाता है। यह ध्यातव्य है कि हम तत्त्व या कथ्य को संरचना (रूप) से हमेशा अलग नहीं कर सकते हैं।’ 

हैलिडे : ‘अनुवाद एक सम्बन्ध है जो दो या दो से अधिक पाठों के बीच होता है, ये पाठ समान स्थिति में समान प्रकार्य सम्पादित करते हैं।’ 

न्यूमार्क : ‘अनुवाद एक शिल्प है, जिसमें एक भाषा में व्यक्त सन्देश के स्थान पर दूसरी भाषा के उसी सन्देश को प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है।’ 

देवेन्द्रनाथ शर्मा : ‘विचारों को एक भाषा से दूसरी भाषा में रूपान्तरित करना अनुवाद है।’ 

भोलानाथ : ‘किसी भाषा में प्राप्त सामग्री को दूसरी भाषा में भाषान्तरण करना अनुवाद है, दूसरे शब्दों में एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथा सम्भव और सहज अभिव्यक्ति द्वारा दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास ही अनुवाद है।’ 

पट्टनायक : ‘अनुवाद वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सार्थक अनुभव (अर्थपूर्ण सन्देश या सन्देश का अर्थ) को एक भाषा-समुदाय से दूसरी भाषा-समुदाय में सम्प्रेषित किया जाता है।’ 

विनोद गोदरे : ‘अनुवाद, स्रोत-भाषा में अभिव्यक्त विचार अथवा व्यक्त अथवा रचना अथवा सूचना साहित्य को यथासम्भव मूल भावना के समानान्तर बोध एवं संप्रेषण के धरातल पर लक्ष्य-भाषा में अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया है।’ 

रीतारानी पालीवाल : ‘स्रोत-भाषा में व्यक्त प्रतीक व्यवस्था को लक्ष्य-भाषा की सहज प्रतीक व्यवस्था में रूपान्तरित करने का कार्य अनुवाद है।’ 

दंगल झाल्टे : ‘स्रोत-भाषा के मूल पाठ के अर्थ को लक्ष्य-भाषा के परिनिष्ठित पाठ के रूप में रूपान्तरण करना अनुवाद है।’ 

बालेन्दु शेखर : अनुवाद एक भाषा समुदाय के विचार और अनुभव सामग्री को दूसरी भाषा समुदाय की शब्दावली में लगभग यथावत् सम्प्रेषित करने की सोद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है।’ 

अनुवाद का कार्य (Work of translation)

अनुवाद का कार्य व्यापारियों द्वारा नए स्थानों की यात्रा करने के लिए और उस क्षेत्र के लोगों के साथ बातचीत करने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। हर कोई ज्ञान या जानकारी का भंडार है तथा किसी की भावनाओं, विचारों, राय, कुछ तथ्यों को आम जनता के साथ व्यक्तकरने के लिए मशीन अनुवाद द्वारा सुलभ बना सकते हैं। भारतीय संदर्भ में, अनुवाद पाली, प्राकृत, देवनागरी और अन्य क्षेत्राीय भाषाओं में पवित्रा ग्रंथों के अनुवाद के साथ शुरू हुआ। यह दुनिया भर में नैतिक मूल्यों, लोकाचार, परंपरा, मान्यताओं और संस्कृति के संचारण करने में मदद करता है।

अनुवाद के क्षेत्र (Field of translation)

आज की दुनिया में अनुवाद का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। शायद ही कोई क्षेत्र बचा हो जिसमें अनुवाद की उपादेयता को सिद्ध न किया जा सके। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि आधुनिक युग के जितने भी क्षेत्र हैं सबके सब अनुवाद के भी क्षेत्र हैं, चाहे न्यायालय हो या कार्यालय, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी हो या शिक्षा, संचार हो या पत्रकारिता, साहित्य का हो या सांस्कृतिक सम्बन्ध। इन सभी क्षेत्रों में अनुवाद की महत्ता एवं उपादेयता को सहज ही देखा-परखा जा सकता है। चर्चा की शुरुआत न्यायालय क्षेत्र से करते हैं।

1. न्यायालय : अदालतों की भाषा प्राय: अंग्रेजी में होती है। इनमें मुकद्दमों के लिए आवश्यक कागजात अक्सर प्रादेशिक भाषा में होते हैं, किन्तु पैरवी अंग्रेजी में ही होती है। इस वातावरण में अंग्रेजी और प्रादेशिक भाषा का बारी-बारी से परस्पर अनुवाद किया जाता है। 

2. सरकारी कार्यालय : आज़ादी से पूर्व हमारे सरकारी कार्यालयों की भाषा अंग्रेजी थी। हिन्दी को राजभाषा के रूप में मान्यता मिलने के साथ ही सरकारी कार्यालयों के अंग्रेजी दस्तावेजों का हिन्दी अनुवाद ज़रूरी हो गया। इसी के मद्देनज़र सरकारी कार्यालयों में राजभाषा प्रकोष्ठ की स्थापना कर अंगे्रजी दस्तावेज़ों का अनुवाद तेजी से हो रहा है। 

3. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी : देश-विदेश में हो रहे विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के गहन अनुसंधान के क्षेत्र में तो सारा लेखन-कार्य उन्हीं की अपनी भाषा में किया जा रहा है। इस अनुसंधान को विश्व पटल पर रखने के लिए अनुवाद ही एक मात्र साधन है। इसके माध्यम से नई खोजों को आसानी से सबों तक पहुँचाया जा सकता है। इस दृष्टि से शोध एवं अनुसंधान के क्षेत्र में अनुवाद बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। 

4. शिक्षा : भारत जैसे बहुभाषा-भाषी देश के शिक्षा-क्षेत्र में अनुवाद की भूमिका को कौन नकार सकता है। कहना अतिशयोक्ति न होगी कि शिक्षा का क्षेत्र अनुवाद के बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकता। देश की प्रगति के लिए परिचयात्मक साहित्य, ज्ञानात्मक साहित्य एवं वैज्ञानिक साहित्य का अनुवाद बहुत ज़रूरी है। आधुनिक युग में विज्ञान, समाज-विज्ञान, अर्थशास्त्र, भौतिकी, गणित आदि विषय की पाठ्य-सामग्री अधिकतर अंग्रेजी में लिखी जाती है। हिन्दी प्रदेशों के विद्यार्थियों की सुविधा के लिए इन सब ज्ञानात्मक अंग्रेजी पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद तो हो ही रहा है, अन्य प्रादेशिक भाषाओं में भी इस ज्ञान-सम्पदा को रूपान्तरित किया जा रहा है।

5. जनसंचार : जनसंचार के क्षेत्र में अनुवाद का प्रयोग अनिवार्य होता है। इनमें मुख्य हैं समाचार-पत्र, रेडियो, दूरदर्शन। ये अत्यन्त लोकप्रिय हैं और हर भाषा-प्रदेश में इनका प्रचार बढ़ रहा है। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन में भारत की सभी प्रमुख भाषाओं में समाचार प्रसारित होते हैं। इनमें प्रतिदिन 22 भाषाओं में खबरें प्रसारित होती हैं। इनकी तैयारी अनुवादकों द्वारा की जाती है। 

6. साहित्य : साहित्य के क्षेत्र में अनुवाद वरदान साबित हो चुका है। प्राचीन और आधुनिक साहित्य का परिचय दूरदराज के पाठक अनुवाद के माध्यम से पाते हैं। ‘भारतीय साहित्य’ की परिकल्पना अनुवाद के माध्यम से ही संभव हुई है। विश्व-साहित्य का परिचय भी हम अनुवाद के माध्यम से ही पाते हैं। साहित्य के क्षेत्र में अनुवाद के कार्य ने साहित्यों के तुलनात्मक अध्ययन को सुगम बना दिया है। विश्व की समृद्ध भाषाओं के साहित्यों का अनुवाद आज हमारे लिए कितना ज़रूरी है कहने या समझाने की आवश्यकता नहीं। 

7. अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध : अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध अनुवाद का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। विभिन्न देशों के प्रतिनिधियों का संवाद मौखिक अनुवादक की सहायता से ही होता है। प्राय: सभी देशों में एक दूसरे देशों के राजदूत रहते हैं और उनके कार्यालय भी होते हैं। राजदूतों को कई भाषाएँ बोलने का अभ्यास कराया जाता है। फिर भी देशों के प्रमुख प्रतिनिधि अपने विचार अपनी ही भाषा में प्रस्तुत करते हैं। उनके अनुवाद की व्यवस्था होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय मैत्री एवं शान्ति को बरकरार रखने की दृष्टि से अनुवाद की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। 

8. संस्कृति : अनुवाद को ‘सांस्कृतिक सेतु’ कहा गया है। मानव-मानव को एक दूसरे के निकट लाने में, मानव जीवन को अधिक सुखी और सम्पन्न बनाने में अनुवाद की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। ‘भाषाओं की अनेकता’ मनुष्य को एक दूसरे से अलग ही नहीं करती, उसे कमजोर, ज्ञान की दृष्टि से निर्धन और संवेदन शून्य भी बनाती है। ‘विश्वबंधुत्व की स्थापना’ एवं ‘राष्ट्रीय एकता’ को बरकरार रखने की दृष्टि से अनुवाद एक तरह से सांस्कृतिक सेतु की तरह महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है।

अनुवाद के स्वरूप (format of translation)

अनुवाद के स्वरूप के सन्दर्भ में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वज्जन अनुवाद की प्रकृति को ही अनुवाद का स्वरूप मानते हैं, जब कि कुछ भाषाविज्ञानी अनुवाद के प्रकार को ही उसके स्वरूप के अन्तर्गत स्वीकारते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव का मत ग्रहणीय है। उन्होंने अनुवाद के स्वरूप को सीमित और व्यापक के आधार पर दो वगोर्ं में बाँटा है। इसी आधार पर अनुवाद के सीमित स्वरूप और व्यापक स्वरूप की चर्चा की जा रही है।

1. अनुवाद का सीमित स्वरूप : अनुवाद के स्वरूप को दो संदर्भों में बाँटा जा सकता है-

  1. अनुवाद का सीमित स्वरूप तथा 
  2. अनुवाद का व्यापक स्वरूप 

अनुवाद की साधारण परिभाषा के अंतर्गत पूर्व में कहा गया है कि अनुवाद में एक भाषा के निहित अर्थ को दूसरी भाषा में परिवर्तित किया जाता है और यही अनुवाद का सीमित स्वरूप है। सीमित स्वरूप (भाषांतरण संदर्भ) में अनुवाद को दो भाषाओं के मध्य होने वाला ‘अर्थ’ का अंतरण माना जाता है। इस सीमित स्वरूप में अनुवाद के दो आयाम होते हैं-

  1. पाठधर्मी आयाम तथा 
  2. प्रभावधर्मी आयाम 

पाठधर्मी आयाम के अंतर्गत अनुवाद में स्रोत-भाषा पाठ केंद्र में रहता है जो तकनीकी एवं सूचना प्रधान सामग्रियों पर लागू होता है। जबकि प्रभावधर्मी अनुवाद में स्रोत-भाषा पाठ की संरचना तथा बुनावट की अपेक्षा उस प्रभाव को पकड़ने की कोशिश की जाती है जो स्रोत-भाषा के पाठकों पर पड़ा है। इस प्रकार का अनुवाद सृजनात्मक साहित्य और विशेषकर कविता के अनुवाद में लागू होता है।

2. अनुवाद का व्यापक स्वरूप : अनुवाद के व्यापक स्वरूप (प्रतीकांतरण संदर्भ) में अनुवाद को दो भिन्न प्रतीक व्यवस्थाओं के मध्य होने वाला ‘अर्थ’ का अंतरण माना जाता है। ये प्रतीकांतरण तीन वर्गों में बाँटे गए हैं-

  1. अंत:भाषिक अनुवाद (अन्वयांतर), 
  2. अंतर भाषिक (भाषांतर), 
  3. अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद (प्रतीकांतर)

‘अंत:भाषिक’ का अर्थ है एक ही भाषा के अंतर्गत। अर्थात् अंत:भाषिक अनुवाद में हम एक भाषा के दो भिन्न प्रतीकों के मध्य अनुवाद करते हैं। उदाहरणार्थ, हिन्दी की किसी कविता का अनुवाद हिन्दी गद्य में करते हैं या हिन्दी की किसी कहानी को हिन्दी कविता में बदलते हैं तो उसे अंत:भाषिक अनुवाद कहा जाएगा। इसके विपरीत अंतर भाषिक अनुवाद में हम दो भिन्न-भिन्न भाषाओं के भिन्न-भिन्न प्रतीकों के बीच अनुवाद करते हैं।

अंतर भाषिक अनुवाद में अनुवाद को न केवल स्रोत-भाषा में लक्ष्य-भाषा की संरचनाओं, उनकी प्रकृतियों से परिचित होना होता है, वरन् उनकी सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं, धार्मिक विश्वासों, मान्यताओं आदि की सम्यक् जानकारी भी उसके लिए बहुत जरूरी है। अन्यथा वह अनुवाद के साथ न्याय नहीं कर पाएगा। अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद में किसी भाषा की प्रतीक व्यवस्था से किसी अन्य भाषेत्तर प्रतीक व्यवस्था में अनुवाद किया जाता है।

अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद में प्रतीक-1 का संबंध तो भाषा से ही होता है, जबकि प्रतीक-2 का संबंध किसी दृश्य माध्यम से होता है। उदाहरण के लिए अमृता प्रीतम के ‘पिंजर’ उपन्यास को हिन्दी फिल्म ‘पिंजर’ में बदला जाना अंतर-प्रतीकात्मक अनुवाद है।

अनुवाद की सीमाएं

अनुवाद और अनुवाद-प्रक्रिया की जिन विलक्षणताओं को अनुवाद विज्ञानियों ने बार-बार रेखांकित किया है, उन्हीं के परिपाश्र्व से हिन्दी अनुवाद की अनेकानेक समस्याएँ भी उभरी हैं। 

बकौल प्रो. बालेन्दु शेखर तिवारी हिन्दी के उचित दाय की संप्राप्ति में जिन बहुत सारी समस्याओं को राह का पत्थर समझा जा रहा है उनमें अनुवाद की समस्याएँ अपनी विशिष्ट पहचान रखती हैं। 

अनुवाद से भाषा का संस्कार होता है, उसका आधुनिकीकरण होता है। वह दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने वाला संप्रेषण सेतु है। एक भाषा को दूसरी भाषा में अन्तरण की प्रक्रिया में अनुवादक दो भिन्न संस्कृति में स्थित समतुल्यता की खोज करता है। एतदर्थ उसे पर्यायवाची शब्दों के विविध रूपों से जूझना पड़ता है। इसी खोज और संतुलन बनाने की प्रक्रिया में कभी-कभी एक ऐसा भी मोड़ आता है जहाँ अनुवादक को निराश होना पड़ता है। समतुल्यता या पर्यायवाची शब्द हाथ न लगने की निराशा।

अननुवाद्यता (untranslatability) की यही स्थिति अनुवाद की सीमा है। जरूरी नहीं कि हर भाषा और संस्कृति का पर्यायवाची दूसरी भाषा और संस्कृति में उपलब्ध हो। प्रत्येक शब्द की अपनी सत्ता और सन्दर्भ होता है। कहा तो यह भी जाता है कोई शब्द किसी का पर्यायवाची नहीं होता। प्रत्येक शब्द एवं रूप का अपना-अपना प्रयोग गत अर्थ-सन्दर्भ सुरक्षित है। इस दृष्टि से एक शब्द को दूसरे की जगह रख देना भी एक समस्या है। 

स्पष्ट है कि हर रूप की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं और इन समस्याओं के कारण अनुवाद की सीमाएँ बनी हुई हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए कैटफोर्ड ने अनुवाद की सीमाएँ दो प्रकार की बतायी हैं- 

  1. भाषापरक सीमाएँ और 
  2. सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ 

भाषापरक सीमा से अभिप्राय यह है कि स्रोत-भाषा के शब्द, वाक्यरचना आदि का पर्यायवाची रूप लक्ष्य-भाषा में न मिलना। सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के अन्तरण में भी काफी सीमाओं का सामना करना पड़ता है क्योंकि प्रत्येक भाषा का सम्बन्ध अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था से जुड़ा हुआ है। परन्तु पोपोविच का कहना है कि भाषापरक समस्या दोनों भाषाओं की भिन्न संरचनाओं के कारण उठ सकती है किन्तु सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या सर्वाधिक जटिल होती है। 

इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि भाषापरक और सामाजिक -सांस्कृतिक समस्याएँ एक-दूसरे के साथ गुँथी हुई हैं, अत: इसका विवेचन एक दूसरे को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। बहरहाल, इस चर्चा से यह स्पष्ट हो गया कि अनुवाद की सीमाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :

  1. भाषापरक सीमाएँ,
  2. सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ और 
  3. पाठ-प्रकृतिपरक सीमाएँ 

1. अनुवाद की भाषापरक सीमाएँ

जैसा कि ऊपर संकेत किया जा चुका है कि प्रत्येक भाषा की अपनी संरचना एवं प्रकृति होती है। इसीलिए स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा के भाषिक रूपों में समान अर्थ मिलने की स्थिति बहुत कम होती है। कई बार स्रोत-भाषा के समान वाक्यों में सूक्ष्म अर्थ की प्राप्ति होती है लेकिन उनका अन्तरण लक्ष्य-भाषा में कर पाना सम्भव नहीं होता। 

उदाहरणार्थ इन दोनों वाक्यों को देखें : ‘लकड़ी कट रही है’ और ‘लकड़ी काटी जा रही है’। सूक्ष्म अर्थ भेद के कारण इन दोनों का अलग-अलग अंग्रेजी अनुवाद संभव नहीं होगा। फिर किसी कृति में अंचल-विशेष या क्षेत्र-विशेष के जन-जीवन का समग्र चित्रण अपनी क्षेत्रीय भाषा या बोली में जितना स्वाभाविक या सटीक हो पाता है उतना भाषा के अन्य रूप में नहीं। जैसे कि फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आँचल’। इस उपन्यास में अंचल विशेष के लोगों की जो सहज अभिव्यक्ति मिलती है उसे दूसरी भाषा में अनुवाद करना बहुत कठिन कार्य है।

इसके अतिरिक्त भाषा की विभिन्न बोलियाँ अपने क्षेत्रों की विशिष्टता को अपने भीतर समेटे होती हैं। यह प्रवृत्ति ध्वनि, शब्द, वाक्य आदि के स्तरों पर देखी जा सकती है। जैसे चीनी, जापानी आदि भाषाएँ ध्वन्यात्मक न होने के कारण उनमें तकनीकी शब्दों को अनूदित करना श्रम साध्य होता है। अनुवाद करते समय नामों के अनुवाद की समस्या भी सामने आती है। लिप्यन्तरण करने पर उनके उच्चारण में बहुत अन्तर आ जाता है। स्थान विशेष भी भाषा को बहुत प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए एस्किमो भाषा में बर्फ के ग्यारह नाम हैं जिसे दूसरी भाषा में अनुवाद करना सम्भव नहीं है। 

वास्तव में हिन्दी में अनुवाद की समस्याएँ इस भाषा के मूलभूत चरित्र की न्यूनताओं और विशिष्टताओं से जुड़ी हुई हैं। वस्तुत: हिन्दी जैसी विशाल हृदय भाषा में अनुवाद की समस्याएँ अपनी अलग पहचान रखती हैं। भिन्नार्थकता, न्यूनार्थकता, आधिकारिकता, पदाग्रह, भिन्नाशयता और शब्दविकृति जैसे दोष ही हिन्दी में अनुवाद कार्य के पथबाधक नहीं हैं, बल्कि हिन्दी के अनुवादक को अपनी रचना की संप्रेषणीयता की समस्या से भी जूझना पड़ता है। निम्नलिखित आरेख से बातें स्पष्ट हो जाएगीं- 

2. अनुवाद की सामाजिक-सांस्कृतिक सीमाएँ

उपर्युक्त संस्कृति-चक्र से स्पष्ट है कि भाषा और संस्कृति का अटूट सम्बन्ध होता है। अनुवाद तो दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने वाला संप्रेषण-सांस्कृतिक सेतु है। एक भाषा को दूसरी भाषा में अन्तरण की प्रक्रिया में अनुवादक दो भिन्न संस्कृति में स्थित समतुल्यता की खोज करता है। वास्तव में मानव अभिव्यक्ति के एक भाषा रूप में भौगोलिक, ऐतिहासिक और सामाजिक-सांस्कृतिक तत्त्वों का समावेश हो जाता है जो एक भाषा से दूसरी भाषा में भिन्न होते हैं। 

अत: स्रोत-भाषा के कथ्य को लक्ष्य-भाषा में पूर्णतया संयोजित करने में अनुवादक को कई बार असमर्थता का सामाना करना पड़ता है। यह बात अवश्य है कि सांस्कृतिक भाषाओं की अपेक्षा विषम सांस्कृतिक भाषाओं के परस्पर अनुवाद में कुछ हद तक अधिक समस्याएँ रहती हैं। ‘देवर-भाभी’, ‘जीजा-साली’ का अनुवाद यरू ोपीय भाषा में नहीं हो सकता क्योंकि भाव की दृष्टि से इसमें जो सामाजिक सूचना निहित है वह शब्द के स्तर पर नहीं आँकी जा सकती। 

इसी प्रकार भारतीय संस्कृति के ‘कर्म’ का अर्थ न तो ‘action’ हो सकता है और न ही ‘performance’ क्योंकि ‘कर्म’ से यहाँ पुनर्जन्म निर्धारित होता है जबकि ‘action’ और ‘performance’ में ऐसा भाव नहीं मिलता। 

3. अनुवाद की पाठ-प्रकृतिपरक सीमाएँ

अनुवाद की आवश्यकता का अनुभव हिन्दी में इसी कारण तीव्रता से किया गया कि भाषाओं के पारस्परिक आदान-प्रदान से हिन्दी को समृद्ध होने में सहायता मिलेगी और भाषा के वैचारिक तथा अभिव्यंजनामूलक स्वरूप में परिवर्तन आएगा। हिन्दी में अनुवाद के महत्त्व को मध्यकालीन टीकाकारों ने पांडित्य के धरातल पर स्वीकार किया था, लेकिन यूरोपीय सम्पर्क के पश्चात् हिन्दी को अनुवाद की शक्ति से परिचित होने का वृहत्तर अनुभव मिला। हिन्दी में अनुवाद की परम्परा भले ही अनुकरण से प्रारम्भ हुई, लेकिन आज ज्ञान-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में अनुवाद की विभिन्न समस्याओं ने हिन्दी का रास्ता रोक रखा है। 

विभिन्न विषयों तथा कार्यक्षेत्रों की भाषा विशिष्ट प्रकार की होती है। प्रशासनिक क्षेत्र में कई बार ‘sanction’ और ‘approval’ का अर्थ सन्दर्भ के अनुसार एक जैसा लगता है, अत: वहाँ दोनों शब्दों में भेद कर पाना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार जीवविज्ञान में ‘poison’ और ‘venom’ शब्दों का अर्थ एक है किन्तु ये अपने विशिष्ट गुणों के कारण भिन्न हो जाते हैं। अत: पाठ की प्रकृति के अनुसार पाठ का विन्यास करना पड़ता है। जब तक पाठ की प्रकृति और उसके पाठक का निर्धारण नहीं हो पाता तब तक उसका अनुवाद कर पाना सम्भव नहीं हो पाता।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हर भाषा की अपनी संरचनात्मक व्यवस्था और सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा होती है। इसके साथ-साथ विभिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होने के कारण उसका अपना स्वरूप भी होता है। यही कारण है कि अनुवाद की प्रक्रिया में स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा की समतुल्यता के बदले उसका न्यूनानुवाद या अधिअनुवाद ही हो पाता है। 

अनुवाद के स्वरूप, अनुवाद-प्रक्रिया एवं अनुवाद की सीमाओं के बारे में की चर्चा की जा रही है। सबसे महत्त्वपूर्ण है- ‘अनुवाद की प्रक्रिया’। अनुवाद के व्यावहारिक पहलु को जानने के लिए अनुवाद-प्रक्रिया को समझना जरूरी है। इसलिए प्रस्तुत अध्याय में नाइडा, न्यूमार्क और बाथगेट- तीनों विद्वानों द्वारा प्रतिपादित अनुवाद-प्रक्रिया को सोदाहरण प्रस्तुत किया गया है।

अनुवाद से आप क्या समझते हैं इसके महत्व पर सारगर्भित टिप्पणी लिखिए?

अनुवाद से भाषा का संस्कार होता है, उसका आधुनिकीकरण होता है। वह दो भिन्न संस्कृतियों को जोड़ने वाला संप्रेषण सेतु है। एक भाषा को दूसरी भाषा में अन्तरण की प्रक्रिया में अनुवादक दो भिन्न संस्कृति में स्थित समतुल्यता की खोज करता है। एतदर्थ उसे पर्यायवाची शब्दों के विविध रूपों से जूझना पड़ता है।

अनुवाद क्या है और इसका महत्व क्या है?

अनुवाद केवल शब्दों को एक भाषा से दूसरी भाषा में बदलने से कहीं अधिक है। अनुवाद संस्कृतियों के बीच सेतु बनाता है । यह आपको सांस्कृतिक घटनाओं का अनुभव करने की अनुमति देता है जो अन्यथा आपके अपने सांस्कृतिक लेंस के माध्यम से समझने के लिए बहुत ही विदेशी और दूरस्थ होगी।

अनुवाद से आप क्या समझते हैं?

किसी भाषा में कही या लिखी गयी बात का किसी दूसरी भाषा में सार्थक परिवर्तन अनुवाद (Translation) कहलाता है।

अनुवाद से आप क्या समझते हैं अनुवाद के प्रकार बताइए?

अनुवाद के प्रकारों का विभाजन दो तरह से किया जा सकता है। पहला अनुवाद की विषयवस्तु के आधार पर और दूसरा उसकी प्रक्रिया के आधार पर उदाहरण के लिए विषयवस्तु के आधार पर साहित्यानुवाद कार्यालयी अनुवाद, विधिक अनुवाद, आशुअनुवाद, वैज्ञानिक एवं तकनीकी अनुवाद, वाणिज्यिक अनुवाद आदि।