आदिकाल के साहित्य को कितने वर्गों में विभाजित किया गया है?... Show
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चारण-साहित्य[स्रोत सम्पादित करें]चारण जाति ने विभिन्न क्षेत्रों में कई उत्कृष्ट कवि, इतिहासकार, योद्धा, निष्ठावान राजदरबारी और विद्वान प्रदान किए हैं। चारण काव्य सदृढ़ रूप से 8-10वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से उपलब्ध हैं। अनगिनत संख्या में गीत, दोहे, समग्र रचनाएँ, ऐतिहासिक लेखन, और कई अन्य छंद और गद्य रचनाएँ चारण साहित्य का भाग हैं। पिछली छह शताब्दियों के दौरान उनके लेखन का निरंतर प्रवाह रहा है। इतिहासकारों में सूर्यमल्ल मिश्रण, कविराजा बाँकीदास, कविराजा दयालदास और कविराजा श्यामलदास इस क्षेत्र के दिग्गज हैं। चारण शैली के लेखकों ने केवल एक रस में ही नहीं, बल्कि एक ही समय में वीर काव्य, श्रृंगार काव्य और भक्ति काव्य में लिखकर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया।[1] चारण साहित्य का वीर काव्य योद्धाओं को अपनी भूमि, धर्म, नारी और उत्पीड़ितों के सम्मान के लिए मरते दम तक संघर्ष करने को प्रेरित करता है।[2] चारण कवियों ने अपने साहित्य में डिंगल (प्राचीन राजस्थानी), संस्कृत, पिंगल (डिंगल से प्रभावित ब्रजभाषा), अपभ्रंश, राजस्थानी (मारवाड़ी, मेवाड़ी, आदि) व गुजराती के साथ-साथ उर्दू-फारसी आदि भाषाओं का प्रयोग किया है। चारणों के अलावा, इनके हठधर्मी दृष्टिकोण का पालन अन्य समकालीन कवियों, जैसे भाट, ब्राह्मण, ढाढ़ी, सेवग (मग-ब्राह्मण), राजपूत, मोतीसर, रावल, पंचोली (कायस्थ) और अन्य लोगों ने भी किया, जिनमें जैन धर्म के लोग भी शामिल थे, और चारण साहित्य में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। यह एक बहुत ही जीवंत और सशक्त साहित्य था, और इसीलिए इसने पश्चिमी-भारत की रेगिस्तानी भूमि और इसके नायकों के भाग्य को आकार देने और ढालने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।[2] चारण-साहित्य का वर्गिकरण
चारणो ने साक्षात् अनुभव के द्वारा वीरकाव्य का सृजन किया है। वे कलम के ही नहीं, तलवार के भी धनी थे । फलतः संस्कृत के प्रशस्तिमूलक काव्य जहाँ ऐतिहासिक अनुसंधान और विद्वद् मंडली की संपत्ति बन गये, वहाँ रासो जनता की निधि बन गया। एक बँधे कूप की तरह हो गया, दूसरा बहती गंगा की तरह; और तभी विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने चारणों की काव्य-कला पर मुग्ध होकर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है ।[6] 'राजस्थान रिसर्च सोसाइटी' में दिये गये भाषण में टैगोर कहते हैं —
सिद्ध और नाथ साहित्य[स्रोत सम्पादित करें]यह साहित्य उस समय लिखा गया जब हिंदी अपभ्रंश से आधुनिक हिंदी की ओर विकसित हो रही थी। बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के अनुयायी उस समय सिद्ध कहलाते थे। इनकी संख्या चौरासी मानी गई है। सरहपा (सरोजपाद अथवा सरोजभद्र) प्रथम सिद्ध माने गए हैं। इसके अतिरिक्त शबरपा, लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा, कुक्कुरिपा आदि सिद्ध सहित्य के प्रमुख् कवि है। ये कवि अपनी वाणी का प्रचार जन भाषा में करते थे। उनकी सहजिया प्रवृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति को केंद्र में रखकर निर्धारित हुई थी। इस प्रवृत्ति ने एक प्रकार की स्वच्छंदता को जन्म दिया जिसकी प्रतिक्रिया में नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। नाथ-साधु हठयोग पर विशेष बल देते थे। वे योग मार्गी थे। वे निर्गुण निराकार ईश्वर को मानते थे। तथाकथित नीची जातियों के लोगों में से कई पहुंचे हुए सिद्ध एवं नाथ हुए हैं। नाथ-संप्रदाय में गोरखनाथ सबसे महत्वपूर्ण थे। आपकी कई रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त चौरन्गीनाथ, गोपीचन्द, भरथरी आदि नाथ पन्थ के प्रमुख कवि है। इस समय की रचनाएं साधारणतः दोहों अथवा पदों में प्राप्त होती हैं, कभी-कभी चौपाई का भी प्रयोग मिलता है। परवर्ती संत-साहित्य पर सिध्दों और विशेषकर नाथों का गहरा प्रभाव पड़ा है। जैन साहित्य[स्रोत सम्पादित करें]अपभ्रंश की जैन-साहित्य परम्परा हिंदी में भी विकसित हुई है। जैन कवियो ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु जो साहित्य लिखा वह जैन साहित्य कहलाता है। बड़े-बड़े प्रबंधकाव्यों के उपरान्त लघु खंड-काव्य तथा मुक्तक रचनाएं भी जैन-साहित्य के अंतर्गत आती हैं। स्वयंभू का पउम-चरिउ वास्तव में राम-कथा ही है। स्वयंभू, पुष्पदन्त, धनपाल आदि उस समय के प्रख्यात कवि हैं। गुजरात के प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र भी लगभग इसी समय के हैं। जैनों का संबंध राजस्थान तथा गुजरात से विशेष रहा है, इसीलिए अनेक जैन कवियों की भाषा प्राचीन राजस्थानी रही है, जिससे अर्वाचीन राजस्थानी एवं गुजराती का विकास हुआ है। सूरियों के लिखे राम-ग्रंथ भी इसी भाषा में उपलब्ध हैं। रासो साहित्य[स्रोत सम्पादित करें]इस काल में रासो साहित्य की तीन प्रवृतियाँ देखने को मिलती है
प्रकीर्णक साहित्य[स्रोत सम्पादित करें]खड़ी बोली के आदि-कवि अमीर खुसरो इसी समय हुए है। खुसरो की पहेलियां और मुकरियां प्रख्यात हैं। मैथिल-कोकिल विद्यापति भी इसी समय के अंतर्गत हुए हैं। विद्यापति के मधुर पदों के कारण इन्हें 'अभिनव जयदेव' भी कहा जाता है। मैथिली और अवहट्ट में भी इनकी रचनाएं मिलती हैं। इनकी पदावली का मुख्य रस श्रृंगार माना गया है। अब्दुल रहमान कृत 'संदेश रासक' भी इसी समय की एक सुंदर रचना है। इस छोटे से प्रेम-संदेश-काव्य की भाषा अपभ्रंश से अत्यधिक प्रभावित होने से कुछ विद्वान इसको हिंदी की रचना न मानकर अपभ्रंश की रचना मानते हैं। आश्रयदाताओं की अतिरंजित प्रशंसाएं, युद्धों का सुन्दर वर्णन, श्रृंगार-मिश्रित वीररस का आलेखन वगैरह इस साहित्य की प्रमुख विशेषताएं हैं। इस्लाम का भारत में प्रवेश हो चुका था। देशी रजवाड़े परस्पर कलह में व्यस्त थे। सब एक साथ मिलकर मुसलमानों के साथ लड़ने के लिए तैयार नहीं थे। परिणाम यह हुआ कि अलग-अलग सबको हराकर मुसलमान यहीं स्थिर हो गए। दिल्ली की गद्दी उन्होंने प्राप्त कर ली और क्रमशः उनके राज्य का विस्तार बढ़ने लगा। तत्कालीन कविता पर इस स्थिति का प्रभाव देखा जा सकता है। हिन्दी के सर्वप्रथम कवि[स्रोत सम्पादित करें]हिन्दी का प्रथम कवि कौन है, इस पर एकमत नहीं है। विभिन्न इतिहासकारों के अनुसार हिंदी का पहला कवि निम्नलिखित हैं-
इन्हें भी देखें[स्रोत सम्पादित करें]
बाहरी कड़ियाँ[स्रोत सम्पादित करें]
आदिकाल के साहित्य को कितने वर्गों में बांटा गया है?भाषा और प्रबंध काव्य लेखन ( ड ंगल , त्तपंगल भाषा )
दहंिी भाषा का विकास भले ही आदिकाल सेना हुआ हो परंतु उसका विकास आरंलभक काल में ही प्रारंभ हो गया था।
आदिकाल कितने प्रकार के होते हैं?आदिकाल का नामकरण. वीरगाथा काल: (आचार्य रामचंद्र शुक्ल). चारणकाल: (डॉ॰ ग्रियर्सन, रामकुमार वर्मा). वीरकाल: (विश्वनाथ प्रसाद मिश्र). सिद्ध सामंत युग: (राहुल संकृत्यायन). बीजवपन काल: (महावीर प्रसाद द्विवेदी). आरम्भिक काल: (मिश्रबंधु). आदिकाल: (हजारी प्रसाद द्विवेदी). हिंदी साहित्य के काल को कितने भागों में बांटा गया है?इसमें हिंदी साहित्य की विकास-यात्रा के चार काल खण्डों आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल और आधुनिककाल की सामान्य प्रवृत्तियों, कवियों एवं विशिष्टताओं का परिचय प्रस्तुत किया गया है।
साहित्य को कितने भागों में बांटा गया है?कालक्रम के अनुसार हिंदी साहित्य को चार भागों में बांटा गया है, जो इस प्रकार है... आदिकाल — इस काल में वीर रस से संबंधित साहित्य की रचना प्रमुखता से होती थी।
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